हमारे बुजुर्ग हमारी धरोहर पर कविता - hamaare bujurg hamaaree dharohar par kavita

धरोहर - कविता - सुधीर श्रीवास्तव

शुक्रवार, दिसंबर 04, 2020

हमारे बुजुर्ग हमारी धरोहर पर कविता - hamaare bujurg hamaaree dharohar par kavita

हम सबके लिए

हमारे बुजुर्ग धरोहर की तरह हैं,

जिस तरह हम सब

रीति रिवाजों, त्योहारों, परम्पराओं को

सम्मान देते आ रहे हैं

ठीक उसी तरह 

बुजुर्गों का भी सम्मान

बना रहना चाहिए।

मगर यह विडंबना ही है

कि आज हमारे बुजुर्ग

उपेक्षित, असहाय से 

होते जा रहे हैं,

हमारी कारस्तानियों से

निराश भी हो रहे हैं।

मगर हम भूल रहे हैं

कल हम भी उसी कतार की ओर

धीरे धीरे बढ़ रहे हैं।

अब समय है संभल जाइए

बुजुर्गों की उपेक्षा, निरादर करने से

अपने आपको बचाइए।

बुजुर्ग हमारे लिए वटवृक्ष सरीखे

छाँव ही है,

उनकी छाँव को हम अपना

सौभाग्य समझें,

उनकी सेवा के मौके को

अपना अहोभाग्य समझें।

सबके भाग्य में

ये सुख लिखा नहीं होता,

किस्मत वाला होता है वो

जिसको बुजुर्गों की छाँव में

रहने का सौभाग्य मिलता।

हम सबको इस धरोहर को

हर पल बचाने का 

प्रयास करना चाहिए,

बुजुर्गों की छत्रछाया का

अभिमान करना चाहिए।

सच मानिए खुशियाँ

आपके पास नाचेंगी,

आपको जीवन की तभी

असली खुशी महसूस होगी।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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आज हमारे समाज में हम देख रहे हैं कि इंसानी रिश्ते तार तार हो रहे हैं । जिन बच्चों को मा-बाप ने मेहनत मजदूरी कर के डाक्टर, इन्जीनियर, आई.एस, पी.सी.एस, बना कर समाज में मान सम्मान दिलवाया ,वे ही बच्चे आज अपना घर परिवार अलग बसा कर, हाईसोसायटी से जुडकर अपने माता-पिता को बोझ समझने लगे हैं । जब बच्चे नौकरी के कारण अपने इन बूढे मा-बाप को वृध्धाश्रम के सहारे छोड कर उन से दूर जा बसते है तब अपना सारा जीवन बच्चों पर निछावर करने वाले माता-पिता, बुढापे में खुद को लाचार और ठगा सा महसूस करते हैं । उन्हें वे दिन याद आने लगते हैं जब उन्हों ने अपने मासूम और लाडले बच्चों को ऊँगली थामकर चलना सिखाया था ।अपने दिल की गहराइयों में कहीं एक सपना पाला था कि आज हम तुम्हारी ऊँगली पकड़कर चलना सीखा रहे हैं और कल जब हम बुढ्ढे हो जायेंगे तो तुम भी इसी तरह हमारा हाथ थामे हमे सहारा देना । लेकिन वे इतने भाग्यशाली कहां हैं कि उनका ये सपना सच होता दिखाई दे !!

कल अखबार में पढ़ा कि शहर के एक वृध्धाश्रम में अगले दस वर्षों तक किसी भी बुजुर्ग को नहीं लिया जाएगा ; चूंकी वहाँ की सारी सीटें बुक हो चुकी है , तो दिल दहल गया । मन में विचार आया, क्या ये खबर आज के बदलते समाज पर कलंक नहीं है ? हमारी आज की युवा पेढी पर एक करारा चाँटा नहीं है ? जिस तरह डूबते सूरज को कोई नमन नहीं करता, उसी तरह अनुभव की गठरी समान बुजुर्ग, जिन्हों ने हम पर अपना सब कुछ न्योछवर कर दिया, उनका कोई महत्व नहीं !! उनका महत्व केवल घर के एक कोने में रखा बासी अखबार का सा ही है !! सच्च ही तो है कि तट का पानी हमेशा बेकार होता है और जीवन की साँझ का मुसाफिर  हमेशा भुला दिया जाता है । 

इस सच्चाई से कोई मुकर नहीं सकता कि आज की भौतिक चकाचौंद ने नैतिकता को कुचल दिया है । आज हम ने मा, बहन, बेटी, बहू आदि को नौकरी की इजाजत तो दी है पर उसके पीछे की सामाजिक व्यवस्था के ढांचे की ओर पलट कर नहीं देखा ।  नतीजा ये हुआ कि जिन हाथों को थामकर मासूम झूलाघर में पहुँचाए जा रहे हैं, वही मासूम हाथ युवावस्था की देहरी पार करते ही उन काँपते हाथों को वृध्धाश्रम पहूंचा रहे हैं ।

हम भूल चूके हैं कि बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं । जब वर या वधू पक्ष के गोत्र बताने की बात आती है, तो घर में सबसे पहले बुजुर्ग की ही खोज होती है । क्यों ? क्योंकि वे इन विषयों के अनुभवी हैं । ये बात कई हद तक सही है कि बुढ़ापे के साथ बचपन भी आ जाता है । यही वजह है कि बुजुर्गों पर हमेशा यह आरोप लगाया जाता है कि वे समय के साथ नहीं चलते, सदैव अपने मन की करना और कराना चाहते हैं । उन्होंने जो कुछ भी सीखा, उसे हम पर लादना चाहते हैं । उनके मन का कुछ न होने पर वे बड़बड़ाते रहते हैं । उनके इस स्वभाव को झेलना कठिन ही नहीं , मुश्किल भी है ,बर्दास्त के बाहर है । बच्चों को एक बार सँभाला भी जा सकता है, पर बुजुर्गों को सँभालना बहुत मुश्किल है । ये सारे आरोप अपनी जगह पर सही हो सकते हैं, पर इसे यदि स्वयं को सामने रखकर सोचा जाए तो, कई आरोप अपने आप ही धराशायी हो जाते दिखाई देंगे । हम सभी ने एक कहानी तो जरुर ही सुनी है …एक बच्चे ने 25 बार पिता से पूछा था कि ये पेड पर कौन बैठा है ? पिता ने हरबार बिना झिडके कहा था,” पेड पर काला कौवा बैठा है ।” आज उसी बेटे को पिता का दो बार पूछना नहीं सुहा रहा है ..!! 

आज के समाज की ये एक बहुत कडवी सच्चाई है कि झुर्रीदार चहेरों को हमने हाशिए पर रख छोडा है जो की आनेवाले कल के लिये खतरनाक भी साबित हो सकता है । एक बार इस पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिये ।

गुजराती कविता की एक पंक्ति याद आ रही है…..

मुझ बीती तुझ बीत से धीरी बापुडिया…  

कमलेश अग्रवाल