हरियाणा में सांग की शुरुआत कब हुई - hariyaana mein saang kee shuruaat kab huee

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आलेख


हरियाणा में लोक मंच को ‘सांग’ के नाम से जाना जाता है। ‘सांग’ शब्द,  स्वांग शब्द से बना है जो नाट्य शास्त्र के ‘रूपक’ शब्द का पर्याय है।  सांग हरियाणा की संस्कृति के जीवन का दर्पण है यहां के निवासियों के सामाजिक और नैतिक मूल्य, लोक जीवन से जुड़ी वीरता और प्रेम की कहानियां, खेत-खलिहान, दान-पुण्य और  अतिथि सत्कार के भाव अभिव्यक्त करता है। सांग-गीत, संगीत और नृत्य का कला-संगम हैं।

18वीं शताब्दी से पूर्व सामूहिक मनोरंजन के दो साधन थे – मुजरा और नकल। सम्पन्न परिवारों में विवाह आदि के अवसर पर ये कार्यक्रम होता था। मुजरे के लिए नृत्यांगनाएं आती थी और नकल के लिए नकलिए व नक्कालों को बुलाया जाता था जो अपने-अपने तरीकों से सामूहिक मनोरंजन किया करते थे परन्तु एक सभ्य समाज में नृत्यांगनाओं व नक्कालों को हेय की दृष्टि से देखा जाता था। ऐसी परिस्थिति में सांग का उद्भव हुआ।

हरियाणवी सांग का मंच  आडम्बरहीन व सादा होता है। किसी भी खुले स्थान पर तख्त लगाकर और उन पर दरियां बिछाकर सांग की स्टेज तैयार कर ली जाती है। इसमें न किसी पर्दे की आवश्यकता होती है और न ही नेपथ्य की। यहां पर सब कुछ खुले में दर्शकों के सामने होता है प्रवेश, प्रस्थान, संवाद, गाना और नाचना आदि सब कुछ विभिन्न पात्रों के द्वारा खुले मंच पर ही किया जाता है।

हरियाणा में सांग का आरम्भ लगभग 1730 ई. में द्वारा किया गया। किशन लाल भाट के सांगों का अधिक इतिहास तो उपलब्ध नहीं है परन्तु यह जानकारी अवश्य है कि उन्होंने सांग कला को जन-जन तक  पहुंचाया। उन्होंने नृत्य और नकल में कथानक और नाटकीय तत्वों को डालकर सांग कला को एक नई दिशा प्रदान की। इससे पूर्व पुरूष सांग नहीं करते थे अपितु वेश्याएं सांग करती थी।

किशन लाल भाट के बाद बंसीलाल नामक सांगी ने 19वीं शताब्दी के आरम्भ में  अभिनय किया। उनके सांग ‘गोपीचन्द’ का विवरण प्रसिद्ध लेखक आर.सी. टेम्पल ने ‘द लिजेण्डस ऑफ द पंजाब’ में किया है। बंसीलाल के सांग कौरवी क्षेत्र अम्बाला और जगाधरी में होते थे।

19वीं शताब्दी के मध्य में (1854 से 1889 तक) अलीबख्श नामक सांगी प्रसिद्ध हुए। उनका कार्यक्षेत्र, धारूहेड़ा, रेवाड़ी, मेवात और भरतपुर थे। उन्होंने चौबोला, जिकारी, बहार, गजल और भजन के रूप में अपनी गेय रचनाएं प्रस्तुत की। उनके प्रसिद्ध सांग रहे पदमावत, कृष्ण लीला, निहालदे, चन्द्रावल और गुलब कावली। परन्तु अलीबख्श की रचनाएं तथा संगीत लोकधुनों के अभाव में पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर पाई।

19वीं शताब्दी  के अन्त में आए पं. नेतराम। आरम्भ में वे भजन-कीर्तन किया करते थे परन्तु लोगों का रूझान सांग की तरफ अधिक देखकर उन्होंने लोक भाषीय संगीत का सहारा लिया और सांग मण्डली का निर्माण किया उनके प्रसिद्ध सांग थे-गोपीचन्द, शीलादे और पूरण भगत।

बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में एक विशिष्ट प्रतिभा ने सांग के क्षेत्र में कदम रखा और यह प्रतिभा थे लोककवि छाजू राम के शिष्य सेरी खाण्डा (सोनीपत) निवासी दीपचन्द। पं. दीपचन्द संस्कृत के विद्वान थे। दीपचन्द के सांग प्रथम विश्व युद्ध के समय अपने यौवन पर थे। उन्होंने किशनलाल भाट द्वारा आरम्भ की पद्धति में अनेक परिवर्तन किए। दीपचन्द ने अंग्रेजी शासन के साथ भारत में आने वाले हारमोनियम को भी सांग वाद्यों में शामिल किया। उन्होंने कलाकारों और टेकियों की संख्या भी बढ़ा दी, जिनका काम था मुख्य सांगी या सांग के पात्रों द्वारा गाए गए आरम्भिक मुखड़ों को दोहराना। दीपचन्द के स्त्री पात्रों के आभूषण और वस्त्र-सज्जा थे – काले रंग का लहंगा उस पर धारू रंग की अंगिया और लाल रंग का ओढणा आदि। पं. दीपचन्द के प्रसिद्ध सांग थे – सोरठ, सरण दे, राजा भोज, नल दमयन्ती, गोपीचन्द, हरिश्चन्द्र, उत्तानपाद और ज्यानी चोर।

दीपचन्द के बाद सांगियों की परम्परा में कई व्यक्ति आते हैं उनके नाम इस प्रकार हैं – बाजे भगत (सिसाना), सरूपचन्द (दिसारखेड़ी), मानसिंह जोगी (सैदपुर), भरतु (भैंसरू), निहाल (नांगल), सूरजभान वर्मा (भिवानी), हुकमचन्द (किसमिनाना), धनसिंह जाट (पुठी), चितरू लुहार (सांपला गढ़ी) और गोरड़ निवासी हरदेवा। इन सभी कलाकारों ने लोक-कथाओं के माध्यम से दर्शकों के हृदय को भाव विभोर किया।

इस परम्परा में सबसे प्रमुख नाम आता है हरदेवा नामक सांगी का जो पं. दीपचन्द के शिष्य थे। उन्होंने सांग में स्वाभाविकता लाने का प्रयत्न किया। उन्होंने अपने गुरू दीपचन्द द्वारा स्थापित स्त्रीवेश का विरोध किया। श्री हरदेवा ने ‘काफिया’ छंद का परित्याग करके उसके स्थान पर रागनी का प्रयोग किया; जो आज तक प्रचलित है। हरदेवा के प्रमुख सांगों के नाम थे, हीरामल-जमाल, धरमकौर-रघबीर, हीर-रांझा और बीजा-सोरठ।

हरदेवा के शिष्य बाजे भगत (सुसाणा निवासी) भी हरियाणा के प्रमुख सांगियों में से एक थे। उनकी रागनियों में भक्ति व नीति की प्रधानता थी। उन्होंने साज-संगीत में काफी सुधार किया और सारंगी, ढोलक, नगाड़े तथा हारमोनियम के अनेक कुशल कलाकारों को मंच पर लेकर आए। उनके लोकप्रिय सांग थे, जमाल, रघबीर, चन्दकिरण और गोपीचन्द।

सांग की इस परम्परा में पं. लखमीचन्द (जांटी निवासी) विशेष रूप से प्रसिद्ध हुए।  वे निरक्षर थे, परन्तु आस-पास के परिवेश को उन्होंने गहराई से समझा व अनुभव किया। बचपन में लोक कवि मानसिंह के भक्ति गीतों का लखमीचन्द पर विशेष प्रभाव पड़ा। पं. लखमीचन्द ने उनकी सेवा करते हुए उनके साथ गायन का अध्ययन किया और सोलह वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी सांग पार्टी की स्थापना की।

आरम्भ में पं. लखमीचन्द के सांगों को विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो पाई क्योंकि उनके सांगों में शृंगार प्रवृति अधिक पाई जाती थी। समाज में इस प्रकार के सांगों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। पं. लखमीचन्द ने इस बात को समझा और अपने दो विद्वान साथियों के साथ मिलकर पुराणों की कथाएं सुनी, उपनिषदों के प्रसंग सुने और अनेक दर्शनों की गुत्थियों की चर्चा करते हुए उनके ज्ञान को अपने भीतर आत्मसात किया। इस प्रकार उनकी शृंगारी प्रवृति पर आध्यात्मिकता का पुट चढ़ता चलता गया।

तत्पश्चात लखमीचन्द ने पौराणिक लोककथाओं से सम्बन्धित और अपनी कल्पना पर आधारित सांगों की रचना की और मनोहारी मंचन भी किया। उन्होंने लगभग 2500 रागनियों और 1000 नई लोकधुनों का विकास किया। उनके प्रसिद्ध सांग हैं – हरिश्चन्द्र मदनावत,नौटंकी, शाही लकड़हारा, नल-दमयन्ती, सत्यवान सावित्री, शकुन्तला, द्रोपदीचीर उत्तानपाद, भगतपूरणमल, हीर-रांझा, सेठ ताराचन्द, मीराबाई, पदमावत,  ज्यानीचोर, हीरामल जमाल और राजा भोज आदि।

पं. लखमीचन्द के बाद के सांगियों में नाम जुड़ता है मांगे राम (पुरपाणची) का।  मांगे राम जी ने ऐतिहासिक, पौराणिक, भक्ति, लौकिक गाथाओं से सम्बन्धित सांगों का डंका हरियाणा के गांव-गांव में बजाया। यही नहीं वे राष्ट्रवादी भावनाओं से प्रेरित, सामाजिक जीवन से सम्बन्धित अभिनय भी अपने कला-मंच के माध्यम से करते थे। उनके प्रसिद्ध सांग थे- रूप बसंत, हकीकतराय, कृष्ण-जन्म, ध्रुवभगत, गोपीचन्द, भरथरी, चन्द्रहास, चापसिंह और शकुन्तला आदि। उनके सांगों की प्रसिद्धिी फिरोज जालंधर, अमृतसर, लाहौर, मुलतान और बन्नू के हाट तक के इलाकों तक पहुंच गई थी। मांगे राम के साथ-साथ लखमीचन्द के शिष्य, माईचन्द, सुलतान, रतीराम, चन्दन भी सांग करते थे।

मांगे राम जी के बाद चन्द्रदत्त बादी (दत्तनगर, दादरी) का नाम सांगी के रूप में उल्लेखनीय है। उन्होंने सांग में स्वाभाविकता लाने के उद्देश्य से अपनी मंडली में स्त्रियों को स्थान दिया, किन्तु यह सुधार सर्वमान्य न हो सका। इन्होंने दूसरा प्रयास किया टिकटों पर सांग दिखाने का, परन्तु उनका यह प्रयास भी कुछ समय के बाद असफल हो गया। ‘बीजा सोरठ’ उनके प्रसिद्ध सांग का नाम था। कई अन्य सांगों को भी उन्हें सांग मंच पर सफलता से मंचित किया।

मांगे राम के समकालीन सांगी निदाणा-निवासी धनपत सिंह हुए। धनपत सिंह की गायन शैली और अभिनय कहीं उत्तम थे, परन्तु रागनी-रचना की दृष्टि से मांगेराम अग्रणी थे। धनपत सिंह के प्रसिद्ध सांग थे-लीलोचमन, ज्यानी चोर, सत्यवान-सावित्री तथा बन-देवी। उनका लीलो चमन सांग, भारत विभाजन पर आधारित था जो राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित था। ‘सत्यवान-सावित्री’ सांग के माध्यम से उन्होंने नारी शक्ति को विशेष रूप से प्रेरित किया।

धनपत सिंह के बाद पं. रामकिशन ब्यास ने भी सन 1945 से 1990 तक इस परम्परा का बखूबी निभाया। ये सांग और रागनी के क्षेत्र में ‘व्यास जी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने अनेक सांगों की रचना की और अभिनय भी किया। रामकिशन ब्यास की रचनाएं अत्यन्त लोकप्रिय रहीं। उनके सांग मंच को सुशोभित करेन वाले व्यक्ति थे उनके नक्कारची इम्मन, सारंगी उस्ताद-सब्बीर हुसैन, हारमोनियम मास्टर-ताहिर हुसैन प्यारे-ढोलकवादक आदि। रूपकला जादूखोरी, धर्मजीत, सत्यवान-सावित्री, हीरामल-जमाल और कम्मो कैलाश, रामकिशन ब्याज जी के प्रसिद्ध सांग थे। उनके सभी सांग लोकजीवन में प्रेमभावना और भक्तिभावना और सौन्दर्य भावना संचार करने वाले थे।

रामकिशन व्यास के समकालीन सांगी खिम्मा भी लगभग 60 वर्ष तक सांग परम्परा को निभाते रहे। ये बाजे भगत के शिष्य और गोरड़ निवासी हरदेवा के पुत्र थे। इन्होंने बाजे भगत की सांग प्रणाली को निभाया। परन्तु ये अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाए।

बाजे भगत के शिष्य हुश्यारे-प्यारे ने भी सांग परम्परा को निभाया। मांगे राम के शिष्य सरूपलाल व कपूर आदि ने भी कई वर्षों तक अपने गुरू के सांगों का मंचन किया। धनपत सिंह के शिष्य श्याम, गांव धरोधी (जींद), चन्दगीराम गांव भगाणा (हिसार), बनवारी ठेल, गांव मोखरा (रोहतक) आदि ने भी सांग की परम्परा को जीवित रखा। इसी शृंखला में रामकिशन व्यास के शिष्य पाल्लेराम, गांव खटकड़ (जींद) में भी अपने गुरू की परम्परा को आगे बढ़ाया। लखमीचन्द की प्रणाली में जो सांग मंचित हुए है वे उनके पुत्र तुलेराम और उनके शिष्य जहूर मीर के द्वारा किए गए हैं।

सांग की इस विकास प्रक्रिया ने हरियाणा की संस्कृति के विभिन्न पक्षों को उजागर किया है, लोक-कथाओं और पौराणिक आख्यानों, के माध्यम से इस परम्परा से लोगों को मनोंरंजन और अपनी संस्कृति का ज्ञान भी प्राप्त हुआ। उन्हें अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक परम्पराओं व मूल्यों को सुरक्षित रखने का प्रेरणा भी मिली।  शिक्षा व समाज कल्याण के लिए लोगों को प्रेरित किया। समाजोन्मुखी कार्यों के लिए सांग को मान्यता मिली, दूसरी ओर क्षेत्रीय संस्कृति को भी यह संरक्षित रख पाया; इसके साथ-साथ यह समय के अनुरूप स्वस्थ मनोरंजन दे पाया। अधुनातन में वैज्ञानिक विकास के चलते मनोरंजन के साधनों का तेजी से विकास हुआ है जिसके चलते हुए परम्परागत साधनों के प्रति नई पीढ़ी उतनी रूचि नहीं ले रही। इसी कारण सांग जैसी परम्पराओं की समाज पर पकड़ कुछ कमजोर होती दिखाई दे रही है और धीरे-धीरे ऐसी विधाओं को संरक्षण देने की जरूरत महसूस की जा रही है। इसलिए सरकार समाज के प्रबुद्ध नागरिक व सांस्कृतिक कलाकारों का ये दायित्व बनता है कि इस कला को विलुप्त न होने दे एवं इस दिशा में सामूहिक तौर पर प्रयास किया जाए, इसके लिए जहां नए-नए विषयों का चयन किया जा सकता है। दूसरी ओर इसकी प्रस्तुति की विधा भी आवश्यकतानुरूप विकसित की जा सकती है। सांग का सरंक्षण केवल एक विधा का संरक्षण नहीं बल्कि सामाजिक मूल्यों, विरासत तथा हरियाणा के जन-जीवन को गहराई से समझने का एक प्रयास है।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (सितम्बर-अक्तूबर 2016) पेज-58-59

    हरियाणा में सांगो की शुरुआत कब हुई?

    शर्मा ने बताया कि हरियाणा में सांग परंपरा की विधिवत शुरुआत वर्ष 1206 में नारनौल के बिहारीलाल द्वारा की गई थी।

    हरियाणा की परंपरा क्या है?

    यह भारतीय परंपराओं की पुष्टि करता है जो इस क्षेत्र को सृजन और सभ्यता के मैट्रिक्स के रूप में मानते हैं । यह उत्तरी वेदी की जगह है जहां ब्रह्मा ने प्राचीन बलिदान किया जिससे निर्माण हुआ । लेकिन हरियाणा न केवल मनुष्यों के पालने का सम्मान करता है, बल्कि यह सभ्यता के पालने के रूप में भी काम करता है ।