हिंदी व्याकरण के लेखक कौन हैं? - hindee vyaakaran ke lekhak kaun hain?

लेखक - नारायण प्रसाद [ श्री नारायण प्रसादजी का यह शोधपरक लेख हिन्दी व्याकरण के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियाँ देता है। नारायण प्रसादजी ने ब...

लेखक - नारायण प्रसाद

हिंदी व्याकरण के लेखक कौन हैं? - hindee vyaakaran ke lekhak kaun hain?

[श्री नारायण प्रसादजी का यह शोधपरक लेख हिन्दी व्याकरण के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियाँ देता है। नारायण प्रसादजी ने बीटेक ऑनर्स किया है। इसके साथ ही जर्मन और रशियन भाषा में डिप्लोमा प्राप्त किया है। वे 10 भाषाओं का ज्ञान रखते हैं और संस्कृत को लेकर विगत कई वर्षों से शोध कार्य कर रहे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।]

एक तरफ जबकि साहित्य समृद्ध सभी द्रविड़ भाषाओं (तमिल, कन्नड़, तेलुगु एवं मलयालम) के प्राचीनतम साहित्य जिस काल से प्राप्त होते हैं, लगभग उसी काल से उन भाषाओं के उनके भाषी विद्वानों के लिखित व्याकरण भी उपलब्ध हैं, विशेष रूप से कन्नड़ के काल-क्रमबद्ध न केवल पुराने लिखित व्याकरण हैं, बल्कि इन्हीं व्याकरणों की सहायता से ईसा की छठी शती से चौदहवीं शती के शिलालेखों में प्रयुक्त कन्नड़ भाषा के भी व्याकरण गठित कर लिए गए हैं [1]; वहीं मध्य एवं उत्तरी भारत की किसी भी आर्य देशी भाषा (Vernacular) का प्राचीनतम व्याकरण कोई तीन सौ वर्ष से ज्यादा पुराना नहीं है [2]। ऐसी दशा में भाषाओं के क्रमिक विकास एवं इतिहास के विचार से कुछ प्राचीन द्विभाषिक कृतियाँ, उदाहरण स्वरूप बारहवीं शती के प्रारंभ में बनारस के दामोदर पंडित द्वारा रचित बोलचाल की संस्कृत भाषा सिखाने वाला ग्रंथ "उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण" से हिन्दी की प्राचीन कोशली या अवधी बोली [3] के एवं 1280 ई. में संग्राम सिंह रचित संस्कृत प्रवेशिका "बाल-शिक्षा" और 1394 ई. में कुलमण्डन द्वारा रचित सरल संस्कृत व्याकरण "मुग्धावबोध औक्तिक" से प्राचीन गुजराती [4] के स्वरूप का कुछ बोध कराने में सहायता प्रदान करती हैं । लगभग सभी आर्य देशी भाषाओं के प्रथम व्याकरण पाश्चात्य विद्वानों द्वारा लिखे गये । यही बात हिन्दी के बारे में भी लागू होती है ।

हिन्दी के प्रथम व्याकरणकार - योन योस्वा केटलार (1659-1718)

लिंग्विस्टिक् सर्वे ऑव् इंडिया [5] के संपादक सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने हिन्दी (हिंदुस्तानी) के प्रथम व्याकरण की तरफ़ ध्यान आकृष्ट किया है और उन्होंने इसके लेखक योन योस्वा केटलार (Joan Josua Ketelaar) के बारे में भी कुछ जानकारियाँ दी हैं । सिन्योर एमिलिओ तेज़ा (Signor Emilio Teza) ने सर्वप्रथम जनवरी 1895 में विद्वानों का ध्यान केटलार के हिन्दी व्याकरण की तरफ़ आकृष्ट किया । बाद में डॉ. जे. पी. फ़ॉग़ल ने इस लेखक के बारे में हेग शहर के रिक्स अभिलेखागार (Rijks-Archief) से कुछ और जानकारियाँ हासिल कर अपने दो लेख 'The Author of the First Grammar of Hindustani' [6] और 'Joan Josua Ketelaaar of Elbing, author of the First Hindustani Grammar' [7] प्रकाशित कराये । भारत के प्रसिद्ध भाषाशास्त्री डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने भी अपने लेख 'The Oldest Grammar of Hindustani' [8] में केटलार के हिन्दी व्याकरण का अनुशीलन कर एक उत्कृष्ट विश्लेषण प्रस्तुत किया ।

डच भाषा में लिखा केटलार के हिन्दी व्याकरण का एक हस्तलेख रिक्स-आर्किफ़् में सुरक्षित है जो इस प्रकार है - "Instructie off onderwijsinge der Hindoustanse, en Persiaanse Talen, nevens hare declinatie en conjugatie, als mede vergeleykinge der hindoustanse med de hollandse maat en gewighten mitsgaders beduydingh eenieger moorse namen etc. door Joan Josua Ketelaar, Elbingensem en gecopieert door Isaacq van der Hoeve, van Uytreght. Tot Leckenauw A 1698". हिन्दी में इस शीर्षक का अनुवाद कुछ इस प्रकार किया जा सकता है - "हिंदुस्तानी और फ़ारसी भाषाओं के लिए अनुदेशन या अनुशिक्षण, इसके अतिरिक्त शब्दों की रूपावली, हिंदुस्तानी एवं डच भारों एवं मापों की तुलना, क्षुद्र मूरिश नामों का महत्त्व इत्यादिः योन योस्वा केटलार, एलबिंग; प्रतिलिपिकार - उट्रेख्ट के इज़ाक फान देअर हीव, लखनऊ, 1698 ई." ।

डच इस्ट इंडिया कंपनी, सूरत द्वारा दिनांक 14 मई 1700 के पत्र से केटलार और उसके सहायक इजाक फ़ान देअर हीव को आगरा में पुनः स्थापित फैक्ट्री के संचालन हेतु जारी किये गये आदेश से डॉ. फ़ॉग़ल यह अनुमान लगाते हैं कि केटलार ने इस व्याकरण को उसी वर्ष अर्थात् 1698 ई. में ही या उससे कुछ समय पूर्व पूरा किया था [9] ।

केटलार की संक्षिप्त जीवनी

केटलार (Ketelaar) का वास्तविक पारिवारिक नाम केटलर (Kettler) था । उसका जन्म पूर्वी प्रशिया (Prussia) में बाल्टिक सागर के तट पर स्थित एल्बिंग नामक नगर में 25 दिसंबर 1659 ई. को एक जर्मन परिवार में हुआ । वह जिल्दसाज योस्वा केटलर का ज्येष्ठ पुत्र था । अपने पिता के समान ही वह भी जिल्दसाज का काम करने लगा ।

जिल्दसाज मालिक अकसर कुछ रक़म ग़ायब पाता । उसे पता नहीं चलता कि अपराधी कौन है । आख़िर एक दिन उसने युवक केटलार को रंगे हाथों धर दबोचा एवं अच्छी डाँट बजायी । केटलार ने एक घोड़ा भाड़े पर लिया और मुरीनबुर्ग की तरफ़ भाग निकला । उसके मालिक ने उसका पीछा किया और उसे पकड़कर वापस अपने घर लाया । इससे युवक केटलार बहुत नाराज हुआ । उसने अपने मालिक को बीयर में संखिया डालकर जान से मारने का प्रयास किया । अपने पड़ोसी औषधि-विक्रेता माइकेल वुल्फ़ के द्वारा द्रवित मक्खन (Liquid butter) की ऊँची खुराक दिये जाने से जिल्दसाज मालिक की जान बच गयी । यह घटना 5 अक्तूबर 1680 ई. को हुई जब केटलार की उम्र 21 वर्ष थी । उसे और कोई दंड नहीं दिया गया, बल्कि उसे नौकरी से ही बर्खास्त कर दिया गया । उसी शाम युवक केटलार दांत्सिग (Danzig) के लिए रवाना हो गया, जहाँ उसे एक अन्य जिल्दसाज़ के यहाँ नियुक्ति मिल गयी । परंतु, वहाँ भी वह अपनी बुरी आदत छोड़ न सका और कुछ दिनों के बाद ही अपने नये मालिक की सन्दूक तोड़कर तीन रिक डॉलर चुरा समुद्री रास्ते से स्वेडेन की राजधानी स्टॉकहोम के लिए गुप्त रूप से भाग निकला ।

उपर्युक्त घटना के बाद लगभग डेढ़ वर्ष तक केटलार की जीवन-शैली के बारे में कुछ पता नहीं चलता । सन् 1682 के वसंत में वह हालैण्ड की राजधानी ऐम्सटरडम में था । उसने डच इस्ट इंडिया कंपनी में नौकरी प्राप्त कर ली थी । अपने अनेक देशवासियों की तरह ही वह भी भारतवर्ष की अपार संपत्ति संबंधी कहानियों से फुसलाहट में आ गया जो कुछ लोग निर्धन जर्मनों को शक्तिशाली कंपनी के बंधन में लाने के लिए सुनाया करते थे । इस क्षण से कंपनी द्वारा सुरक्षित दस्तावेजों के केटलार के अगले सभी कारनामों की सूचना प्राप्त होती है । इस क्षण के बाद उसे नये अपनाये डच नाम योन योस्वा केटलार से ही पुकारा जाने लगा और प्रतीत होता है कि इस नये नाम के साथ ही उसके चाल-चलन में भी बदलाव आ गया । मई 1682 में वह समुद्री सफ़र कर बटाविया (हालैण्ड) पहुँचा । सन् 1683 में सूरत भेज दिया गया जहाँ उसने अपनी जीवन-वृत्ति एक क्लर्क के रूप में शुरू की । स्पष्टतः उसने अच्छा कार्य किया, क्योंकि उसे त्वरित पदोन्नति मिली । सन् 1687 में उसे 'असिस्टेंट' का पद मिला । सन् 1695 में वह आगरा में असिस्टेंट था । सन् 1696 में उसकी पदोन्नति 'अकाउंटेट' पद पर हुई जिसके लिए उसका वेतन प्रतिमाह 30 गिल्डर था । सन् 1699 में अहमदाबाद की फ़ैक्टरी में बुक-कीपर का काम करता था । सन् 1700 में उसका स्थानांतरण (ट्रांसफ़र) आगरा में कर दिया गया जहाँ वह बुक-कीपर और प्रोविजनल 'चीफ़' था । उसकी प्रवीणता को देखते हुए सन् 1701 में उसे पाँच साल के लिए 40 गिल्डर प्रति माह के वेतन पर "जूनियर मर्चंट" का पद दिया गया ।

सन् 1705-08 के बीच कॉफ़ी खरीदने के लिए उसे दो बार मक्का भेजा गया । रास्ते में फ्रेंच डाकू से मुठभेड़ होने के कारण उसे कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा, फिर भी उसने सौंपा हुआ कार्यभार (Assignment) पूरा कर दिखाया जिससे उसके वरिष्ठ अफ़सर संतुष्ट हुए । अतः अरब की पहली यात्रा से वापस आते ही उसे 65 गिल्डर प्रतिमाह के वेतन पर 'मर्चंट' पद पर स्थापित किया गया । यह घटना 15 दिसंबर 1706 की है ।

केटलार जब अरब की दूसरी मुहिम (अभियान) पर था तभी बटाविया की केंद्रीय सरकार ने मूरिश भाषा और रस्म-रिवाज के मामले में उसकी दक्षता और अनुभव देखकर उसे फिर से सूरत में नियुक्त करने का फ़ैसला किया । यह 7 सितंबर 1708 की घटना है । 75 गिल्डर प्रतिमाह के वेतन पर उसकी "सीनियर मर्चंट" के पद पर नियुक्ति हुई ।

शाह आलमशाह (1708-1712) एवं जहानदार शाह (1712) के यहाँ केटलार ने डच दूत के रूप में कार्य किया । सन् 1711 में सूरत में उसने डच इस्ट इंडिया कंपनी का "डिरेक्टर ऑव् ट्रेड" पद सँभाला । सन् 1716 तक उसने कुल तीन वर्षों तक डिरेक्टर पद पर कार्य किया ।

डच इस्ट इंडिया कंपनी प्रत्येक बीस वर्षों के अंतराल पर फ़ारस के शाह के पास अपनी एक एम्बसी (Embassy) भेजा करती थी । सन् 1716 में जब इसकी बारी आयी तो केटलार को राजदूत नियुक्त किया गया । जुलाई 1716 में परिजन (Suite) के साथ राजदूत कंपनी के जहाज से रवाना हुआ और आठ सप्ताह में फ़ारसी खाड़ी का मशहूर बंदरगाह गमरून (बंदर अब्बास) पहुँचा । तीस दिनों के बाद सीलोन (श्रीलंका) से और दो जहाज पहुँचे जिनमें छः हाथी फ़ारस के शाह को भेंट के रूप में देने के लिए लाये गये थे । गमरून से इस्फहान का सफ़र फ़ारसी अधिकारियों द्वारा मुहैया कराये गये घोड़ों द्वारा तय किया गया जिसमें आठ सप्ताह लगे । फ़ारस की राजधानी इस्फहान में छः महीने तक ठहरने के बाद समुद्री तट का वापसी सफ़र शुरु हुआ ।

जब यह दल शिराज़ पहुँचा तो राजदूत को गमरून के डच डिरेक्टर के यहाँ से संकट-सूचना मिली कि अरब सैनिकों से लैस दो जहाज होरमुज़ पहुँच गये हैं जो फ़ारसी लोगों से वहाँ के मुख्य किले को हथियाना चाहते हैं । हो सकता है कि वे गमरून पर भी हमला करें । ऐसी परिस्थिति में राजदूत ने अपने अधीनस्थ बारह सैनिकों को यथासंभव उच्च गति से गमरून की तरफ़ रवाना होने का आदेश दिया । घोड़े पर रातदिन का सफ़र कर बारह दिनों में उन्होंने यह दूरी तय कर ली । इतने लंबे सफ़र के बीच वे सिर्फ़ बारह घंटे सोये । उनके गमरून पहुँचने से डच फ़ैक्टरी के यूरोपीय लोग बहुत प्रसन्न हुए ।

राजदूत वहाँ एक पखवाड़े के बाद पहुँचा । इस बीच फारसी अधिकारियों ने एक कर्नल के अधीन कोई एक हज़ार सैनिक गमरून भेजे । राजदूत मिलिट्री कमांडर से शहर के बाहर उसके कैंप में भेंट करने से नहीं चूका । इस अवसर पर मिलिट्री कमांडर ने माँग की कि डच कंपनी के जिस जहाज में एम्बसी के सदस्यों को वापस बटाविया जाना है, वह जहाज नाविकों सहित उसकी मर्जी के अनुसार सेना को अरब आक्रमणकारियों से मुक्ति दिलाने हेतु होरमुज़ भेजने दिया जाय । फ़ारसी कमांडर ने दूसरे दिन भी एक प्रतिनियुक्त अफ़सर के माध्यम से यह माँग दुहरायी जिसे केटलार ने साफ इन्कार कर दिया । उसका कहना था कि कंपनी का खुद कर्मचारी होने की हैसियत से वह कंपनी के जहाज को इस तरह नहीं भेज सकता ।

फ़ारसी कमांडर ने अब ऐसे क़दम उठाने शुरू कर दिये जिससे तंग आकर राजदूत उसकी इच्छाओं के मुताबिक चल सके । उसने अपने सैकड़ों सैनिक डच फैक्ट्री के चारों तरफ़ नियुक्त कर दिये । बिल्डिंग में किसी भी प्रकार के खाने का सामान या पीने का पानी ले जाने नहीं दिया गया । इस प्रकार की यातनाएँ सहने के बावजूद केटलार नहीं झुका । लगभग दो दिनों की नाकाबंदी के बाद उसे तीव्र ज्वर चढ़ आया और तीन दिनों के बाद 12 मई 1718 को उसने प्राण त्याग दिये । इसके बाद फ़ारसी कमांडर ने अपने सैनिक हटा लिये ।

गमरून शहर से कोई आधा मील दूर अँग्रेज़ों के क़ब्रिस्तान के पास डच क़ब्रगाह में राजदूत की लाश को दफ़नाया गया । उसके भांजे सैमुएल ग्रुटनर ने 600 गिल्डर के खर्च से उसकी क़ब्र पर एक भव्य स्मारक बनवाया । यह पिरामिड स्मारक 30 हाथ ऊँचा था जो उस स्थल के किसी भी मज़ार से अधिक बेशकीमती था । सन् 1908 के आसपास तक वह स्मारक मौजूद था, अलबत्ता खंडहर के रूप में । बाद में उस जगह नये घर बनाने हेतु इसे ढाह दिया गया ।

केटलार का हिन्दी व्याकरण

मूल डच भाषा में लिखा केटलार का हिन्दी व्याकरण कभी मुद्रण में नहीं आया [10] और हस्तलेख की एकमात्र प्रतिलिपि ही हेग शहर में सुरक्षित है । इस व्याकरण का लैटिन अनुवाद उट्रेख्ट विश्वविद्यालय में कार्यरत प्राच्य भाषाओं के प्रोफेसर डैविड मिल ने किया जो सन् 1743 में मिस्लेनिया ओरियेन्तालिया में प्रकाशित हुआ । इसी अनुवाद से यह व्याकरण प्रकाश में आया ।

सन् 1921 में डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी जब इंग्लैंड में थे तो उन्हें पुरानी पुस्तकों के एक विक्रेता के यहाँ से डैविड मिल की संपूर्ण रचना मिल गयी । इसी रचना के अनुशीलन पर आधारित डॉ. चटर्जी द्वारा केटलार व्याकरण का विस्तृत विश्लेषण सन् 1933 में छपा [11]। "The Oldest Grammar of Hindustani" नामक शीर्षक के अंतर्गत डॉ. चटर्जी का परिवर्द्धित लेख पुनः 1935 में प्रकाशित हुआ [12]। इस अंतिम लेख का पुनर्मुद्रण 1978 में हुआ [13]। इसी लेख के आधार पर केटलार व्याकरण का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है ।

मिस्लेनिया ओरियेन्तालिया के प्रथम अध्याय, पृ. 455-488, में हिन्दी व्याकरण है । अध्याय 2 के भाग 1 में फ़ारसी भाषा का संक्षिप्त व्याकरण (पृ.489-503) है । पृ. 503-509 के अंतर्गत तीन स्तंभों (Columns) में लैटिन, हिन्दी एवं फ़ारसी में 140 क्रियाओं का समावेश है । बाद में लैटिन, हिन्दी, फ़ारसी और अरबी के लगभग 650 शब्दों का कोष है । इसके बाद मिस्लेनिया ओरियेन्तालिया के अध्याय 2, भाग 2 में श्रुतिसम भिन्नार्थक शब्द (Homonyms) का संकलन (पृ. 599-601) है । फ़ारसी एवं अरबी शब्द अरबी लिपि में हैं जबकि हिन्दी शब्द रोमन लिपि में ।

केटलार का व्याकरण देवनागरी लिपि (पृ. 456 के सामने वाले प्लेट में) पर टिप्पणी से प्रारंभ होता है । हिन्दी अक्षरों या शब्दों के उच्चारण के बारे में लेखक ने कुछ नहीं कहा । उसने यह मान लिया है कि रोमन अक्षरों में उसके द्वारा व्यक्त की हुई ध्वन्यात्मक डच वर्तनी (His Dutch values of the Roman letters) से पाठक परिचित हैं । उदाहरण स्वरूप - ङ = / nia / ; च, छ, ज, झ = / tgja, tscha, dhea, dhja / ; ट, ठ, ड, ढ = / tha, tscha, dha, dhgja / ; ण = / nrha / ; त, थ, द, ध, न = / ta, tha, dha, da, na / ; य = / ja / ; श, ष, स, ह, ळ = / sjang, k'cho, sja, ha, lang / ; गया (gea), डर (der), कहो मत (koo mat), समझे (somsje), बेटा (beetha), बुढ़िया (boedia), आदमी (admi), कोई (koy), भाई (bhay), और (oor), चौथा (tsjoute), घोड़ा (gorra), मै झूठ बोलता था (me dsjoetboltetha), बराबर (brabber), फरिश्ता (frusta), सच (tjets या tsjets)।

तीसरे पृष्ठ से हिन्दी शब्दों की रूपावली चालू होती है - पहले संज्ञा की और फिर सर्वनाम की । सर्वनाम के बाद नकारात्मक निपात (Particles) न, मत, नही / na, mat, ney / पर टिप्पणी है और 'मत' शब्द के प्रयोग के उदाहरण हैं, मत जाओ / mat dsjauw / उसके बाद एक पैरा में भाववाचक संज्ञाओं के उदाहरण हैं, जैसे - खूब - खूबी / ghoeb - ghoebje /

अगला विषय-वस्तु है - विशेषणों की तुलना । उदाहरणस्वरूप - काला, इससे काला, सबसे काला / kalla - issoe kalla - sabsoe kalla /. फिर शब्द निर्माण की बारी आती है । /-गार /, /-दार / और /- आर / प्रत्यय से बने शब्द जैसे-गुनाह-गुनहगार / gonna-gonnagaar/, ज़मीन-जमीनदार / dsjimien - dsjimidaar/; /-ची/, /-वाला/ से बने शब्द - तोप - तोपची / toop - tooptsie/, लकड़ी-लकड़ी वाला / lackri - lackriewalla/ । स्त्री - प्रत्यय '-अन' से बने शब्द, जैसे - धोबन, मालन, मोचन /dhooben, malen, mootsjen /.

आगे केटलार आदर या दुलार के अर्थ में प्रयुक्त '-जी' की व्याख्या करता है । उदाहरण - बहन जी / bhen dsjeve/, बेटा जी /beetha dsjieve/ । अमुक अर्थ में प्रयुक्त 'फलाँ' /fallan/ शब्द की भी व्याख्या है और तब तुलनात्मक वाक्य के बारे में नोट आता है । जैसे - हाथी बैल से बड़ा है /haathie bhelse barrahe/ । इसके बाद पृ. 466-485 में क्रियाओं की रूपावली है । अन्त में बाइबिल के दश आदेश, धर्मसार एवं प्रभु की प्रार्थना के हिन्दी अनुवाद के साथ व्याकरण पूरा होता है ।

क्या केटलार का हिन्दी व्याकरण बाजारू भाषा पर आधारित है ?

डॉ. चटर्जी के अनुसार केटलार द्वारा क्रियाओं के विवेचन से स्पष्ट होता है कि व्याकरण की दृष्टि से उसकी हिन्दी अशुद्ध बाज़ारू बोली है । क्रियाओं के स्त्रीलिंग रूप उसके लिए अनजाने थे । तीनों पुरुषों में एकवचन उत्तम पुरुष का रूप ही मध्यम एवं अन्य (प्रथम) पुरुष में पाया जाता है तथा उत्तम पुरुष एकवचन का अनुनासिक रूप अन्य पुरुषों एवं वचनों में भी मिलता है । मुंबई एवं गुजराती शहरों में / हम जायँगा /, / वो जायँगा /, / सेठ जी कल आयँगा / जैसे वाक्य सुनने को मिलते हैं । केटलार की हिन्दी में भी इसी प्रकार के प्रयोग मिलते हैं ।

डॉ. चटर्जी के इस निष्कर्ष से कि केटलार का हिन्दी व्याकरण बाज़ारू भाषा पर आधारित है, डॉ. फ़ॉग़ल सहमत नहीं हैं । उनका कहना है कि असली कारण हिंदुस्तानी शब्दों का लिप्यंतरण है, जो संतोषजनक नहीं है, क्योंकि यह वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित नहीं है । पूरी संभावना है कि केटलार को हिन्दी पढ़ना-लिखना नहीं आता था । अतः उसे अपनी श्रवण-शक्ति पर ही आधारित रहना पड़ा और सुनी हुई ध्वनि को डच भाषा की वर्तनी के अनुसार यथासंभव प्रतिरूपित किया । कठिनाई उस दशा में हुई जब उसे कुछ ऐसी ध्वनियों से पाला पड़ा जो उस भाषा में नहीं हैं; जैसे तालव्य एवं मूर्धन्य व्यंजन । यह निःसंदेह उसे चपरासी जैसे छोटे वर्ग के लोगों से पाला पड़ता था, किन्तु उसका कार्य ऐसा था कि उसे ऊँचे वर्ग के ऐसे भारतीय व्यापारियों से मिलना-जुलना पड़ता था जो भारत में यूरोपीय लोगों के व्यापार में मुख्य भूमिका निभाते थे । ऐसे व्यापारी अच्छी हैसियत (Status) वाले लोग थे, जैसे कि मोहन दास जिसकी दानशीलता का यश इतना फैला था कि शिवाजी ने जब सूरत को लूटा तो उसका घर छोड़ दिया ।

डॉ. फ़ॉग़ल सन् 1936 में प्रकाशित लेख के अंत में अपना मत देते हैं कि सर जार्ज ग्रियर्सन और डॉ. चटर्जी द्वारा केटलार व्याकरण से उद्धृत धार्मिक पाठ बाज़ारू भाषा का प्रतिनिधित्व नहीं करता । उसकी हिन्दी कितने अंश तक गुजराती या पश्चिमी बन्दरगाहों के क्षेत्र में व्यवहृत बोली से प्रभावित है, इसका निर्णय करना कठिन है । यद्यपि स्पष्टतः व्यापार में व्यावहारिक प्रयोग के उद्देश्य से यह व्याकरण लिखा गया था, तथापि इसमें विद्वत्तापूर्ण उत्सुकता की झलक मिलती है, जो उसके राजदूतावास के वृत्तांत में भी प्रतिबिंबित होती है ।

टिप्पणी

1. इन सब व्याकरणों के संदर्भ के लिए देखें - डॉ. के. कुशालप्प गौड (1992): "कन्नड़ व्याकरण: सांप्रदायिक हागू भाषावैज्ञानिक", कर्नाटक विश्वविद्यालय, धारवाड (कन्नड़ में) । (हागू=और; सांप्रदायिक = परम्परागत)

2. यद्यपि भीष्माचार्य रचित 'पंचवार्तिक' नामक मराठी व्याकरण ईसा की तेरहवीं -चौदहवीं शती का है, तथापि यह नाम का ही व्याकरण है । इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए श्री अर्जुनवाडकर लिखते है - "खुद्द पंचवार्तिक ज्या भाषेत लिहिलं आहे, तिचा पूर्ण उलगडा या व्याकरणानं होत नाही", अर्थात् खुद पंचवार्तिक जिस भाषा में लिखा है, उसी भाषा का स्पष्टीकरण इस व्याकरण से नहीं होता । - कृष्ण श्री अर्जुनवाडकर (1991): "मराठी व्याकरणाचा इतिहास", मुंबई विश्वविद्यालय, मराठी विभाग, मुंबई, पृ. 6, पं. 30-31.

3. Richard Salomon (1982): "The उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण as a manual of spoken sanskrit", Indo-Iranian Journal, Vol. 24, pp. 13-25.

4. "भारतीय साहित्य", संपादक - डॉ. नगेन्द्र, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, 1987, पृ. 181-183.

5. Linguistic survey of India, Vol. IX Calcutta, 1916, Part 1, pp. 6-8; पुनर्मुद्रण - मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1963.

6. "भारतीय अनुशीलन", महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचंद ओझा के सम्मान में समर्पित, 23 वाँ हिन्दी साहित्य सम्मेलन, दिल्ली , 1933. विभाग 4. अर्वाचीन काल, पृ. 30-36.

7. "Indian and Iranian Studies", डॉ. ग्रियर्सन के पचासीवें जन्म दिवस 7 जनवरी 1936 पर समर्पित, The school of Oriental Studies, लंदन, 1936, पृष्ठ 817-822.

8. Indian Linguistics, ग्रियर्सन अभिनंदन ग्रंथ, खंड IV, 1935.

9. फुटनोट 7 का संदर्भ, पृ. 821, पैरा 2.

10. यह जानकारी डॉ. फ़ॉगल ने 1936 में अपने प्रकाशित लेख में (पृष्ठ 821, पं. 20) दी है । अभी इसकी क्या स्थिति है, यह प्रकृत लेखक को ज्ञात नहीं ।

11. द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ, बनारस, 1933, पृ. 194-203.

12. देखें फुटनोट 8.

13. S. K. Chatterji: "SELECT WRITINGS", Vol. I, Vikas Publishing House Pvt. Ltd., New Delhi, 1978, pp.237-255.

हिंदी व्याकरण के लेखक कौन है?

हिन्दी व्याकरण' के लेखक कौन हैं ? - Quora. स्व. कामता प्रसाद गुरु ने हिंदी व्याकरण जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक की रचना की थी, जिसे नागरीप्रचारिणी सभा, काशी के द्वारा, पुस्तकाकार रूप में सन् १९२० ई. में प्रकाशित किया गया था।

हिंदी व्याकरण के प्रथम लेखक कौन है?

अद्यतन जानकारी के अनुसार हिन्दी व्याकरण का सबसे पुराना ग्रंथ बनारस के दामोदर पण्डित द्वारा रचित द्विभाषिक ग्रंथ उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण सिद्ध होता है। यह बारहवीं शताब्दी का है। यह समय हिंदी का क्रमिक विकास इसी समय से प्रारंभ हुआ माना जाता है।

हिंदी व्याकरण का जनक कौन है?

हिंदी व्याकरण के जनक कौन है? हिन्दी व्याकरण के जनक श्री दामोदर पंडित जी को कहा जाता है। इन्होंने १२ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में एक ग्रंथ की रचना की थी जिसे ” उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण ” के नाम से जाना जाता है । हिन्दी भाषा के पाणिनि ” आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ” को कहा जाता है।

व्याकरण की सर्वप्रथम रचित पुस्तक कौन सी है?

व्याकरण का प्रथम ग्रंथ अष्टाध्यायी.
पाणिनि द्वारा रचित दुनिया की प्रथम भाषा का प्रथम व्याकरण ग्रंथ अष्टाध्यायी (500 ई. ... .
इसमें आठ अध्याय हैं इसीलिए इसे अष्टाध्यायी कहा गया है।.
इस ग्रंथ का दुनिया की हर भाषा पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है। ... .
अष्टाध्यायी में कुल सूत्रों की संख्या 3996 है।.