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कबीरदास के काव्य की विशेषता गुरु-भक्ति, ईश्वर के प्रति अथाह प्रेम, वैराग्य सत्संग, साधु महिमा, आत्म-बोध तथा जगत-बोध की अभिव्यक्ति है। उन्होंने समाज में फैले हुए सभी प्रकार के भेदभाव को दूर करने का प्रयास किया। कबीरदास ने अपनी कविताओं के माध्यम से हिंदू-मुस्लिम एकता तथा विभिन्न धर्मों, संप्रदायों के बीच समन्वय स्थापित किया। उन्होंने ऐसे धर्म की बात की जिस पर सभी धर्मों तथा सूफियों के प्रेम का प्रभाव दिखाई देता था। उन्होंने भगवान के निर्गुण स्वरूप की उपासना पर जोर दिया। उनका मानना था कि ईश्वर को मंदिर-मस्जिद में ढूँढना व्यर्थ है। उन्होंने मन की शुद्धि की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने अपनी कविताओं में धर्म के नाम पर किए जाने वाले आडंबरों का विरोध तथा राम-रहीम की एकता स्थापित करने का प्रयत्न किया है। धर्म और जाति के नाम पर होने वाले भेदभाव को उन्होंने समाज का सबसे बड़ा कलंक मानते हए इसके लिए उत्तरदायी पंडित और मौलवियों को ही ठहराया। उन्होंने हिंदू और मुसलमान दोनों का विरोध किया तथा दोनों को सच्चे मन से परमात्मा की भक्ति करने का उपदेश दिया। कबीरदास ने गुरु को भगवान के समकक्ष मानकर उसकी सच्ची वंदना करने पर जोर दिया और गुरु को सबसे पूज्य, अनुपम, ब्रह्म ज्ञान देने वाला और माया आदि विकारों को दूर करने वाला माना है। उनका विश्वास था कि सत्संगति में रहकर ही मनुष्य का सच्चा कल्याण हो सकता है। माया आत्मा और परमात्मा के मिलन में सबसे बड़ी बाधा है। Viewing 1 replies (of 1 total) संत कबीरदास जी का जीवन परिचय– Kabir das ka jivan parichay, Biography of Kabir das in Hindi. जो प्रेम या भक्ति पग-पग पर भक्त को भाव-विह्वल कर देती है, मन और बुद्धि का मन्थन करके मनुष्य को परवश बना देती है, उन्मत्त भावावेश के द्वारा भक्त को हतचेतन बना देती है, वह कबीर को अभीष्ट नहीं। प्रेम के क्षेत्र में वे गलदश्रु भावुकता को कभी बर्दाश्त नहीं करते। -डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीरदास का जीवन परिचयस्मरणीय संकेत
जन्म- सन् 1398 ई० प्रश्न– कबीरदास का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं परप्रकाश डालिए।जीवन परिचय– “कबीर कसौटी” के अनुसार - महात्मा कबीर का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा सं० 1455 (सन् 1398 ई०) में हुआ था। “चौदह सौ पचपन साल गये, चन्द्रवार इक ठाठ भये। कबीर की मृत्यु के विषय में यह दोहा प्रसिद्ध है- “पन्द्रह सौ पिछहत्तरा, कियो मगहर को गौन। इस दोहे के आधार पर कबीर की मृत्यु-तिथि सन् 1518 ई० बैठती है और उनकी आयु लगभग 120 वर्ष जीने के बाद सिद्ध होती है। इन तिथियों को प्रमाणित करने के लिए यद्यपि और कोई प्रमाण नहीं है तथापि अब तक उपलब्ध सामग्री के आधार पर इनके ठीक होने की ही सम्भावना है। कबीर का जन्मकबीर के जन्म के विषय में मतभेद है। कुछ विद्वानों का कहना है कि कबीर को किसी विधवा ने जन्म दिया था। लहरतारा गाँव के निकट तालाब के किनारे पड़े इस बालक को नीरू और नीमा नामक जुलाहा द्म्पति ने उठाकर पालन-पोषण किया। कबीर पंथियों की धारणा के अनुसार अतिरमणीय समय में जबकि प्रकृति ने नभमंडल को मेघमाला से आच्छादित कर रखा था, सौदामिनी अपने प्रकाश से आकाश को प्रकाशित कर रही थी, पक्षी अपने कलरव से स्वागत गान कर रहे थे, ऐसे समय में लहरतारा तालाब में खिले हुए कमल-पुट में एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ जो 'कबीर' नाम से विख्यात हुआ। कबीरदास की शिक्षाकबीर ने स्वयं कहा
है- कबीरदास के गुरुकबीर ने काशी के प्रसिद्ध महात्मा रामानन्द को अपना गुरु माना है। कहा जाता है कि रामानन्द जी ने नीच जाति का समझकर कबीर को अपना शिष्य बनाने से इन्कार कर दिया था। तब एक दिन कबीर , गंगा तट पर जाकर सीढ़ियों पर लेट गये, जहाँ रामानन्द जी प्रतिदिन प्रातः चार बजे स्नान करने जाया करते थे। अँधेरे में रामानन्द जी का पैर कबीर के ऊपर पड़ा और उनके मुख से राम-राम निकला। तभी से कबीर ने रामानन्द जी को अपना गुरू और राम नाम को गुरुमन्त्र मान लिया। कुछ विद्वानों ने प्रसिद्ध सूफी फकीर शेख तकी को कबीर का गुरु माना है। कबीरदास का गृहस्थ जीवनक़बीर का विवाह एक वनखंडी वैरागी की लड़की लोई के साथ हुआ। कबीर ने स्वयं स्वीकार किया है- “नारी तो हमहूँ करी, पाया नहीं विचार। कबीर के घर एक पुत्र तथा एक कन्या ने जन्म लिया। इनके पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम 'कमाली' था। पुत्र के धन संचय में लगे रहने के कारण कबीर उससे रुष्ट रहते थे- "बूड़ा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल। कुछ लोग लोई को कबीर की शिष्या कहते हैं। हो सकता है कि ज्ञान हो जाने के बाद गृहस्थी जीवन का त्याग कर देने के बाद लोई उनकी शिष्या बन गयी हो। कबीर मृत्यु के समय मगहर चले गये थे। जहाँ सन् 1518 ई० में इनकी जीवनलीला समाप्त हो गयी। वास्तव में कबीर के जीवन के विषय में अभी तक बहुत कुछ संदिग्ध है। उनके जीवन के विषय में अभी भी पर्याप्त खोज की आवश्यकता है। कबीरदास की साहित्यिक कृतियाँकबीर अनपढ़ थे। उन्होंने स्वयं किसी काव्य की रचना नहीं की। उपदेश देते हुए उन्होंने जिन दोहों अथवा पदों का प्रयोग कर दियां, उन्हीं को उनके धर्मदास आदि शिष्यों ने संगृहीत कर लिया। बस वही कबीर का काव्य है। 'बीजक' कबीर की रचनाओं का संग्रह है जिसके सबद, शाखी और रमैनी तीन भाग हैं। 'कबीर ग्रन्थावली' तथा 'कबीर रत्नावली' नाम से भी कबीर की कविताओं के संग्रह प्रकाशित हुए हैं। प्रश्न- कबीर की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।उत्तर- कबीर अनपढ़ थे। साहित्य शास्त्र का उन्हें ज्ञान न था। अलंकार, छन्द आदि से उनका परिचय न था। उनकी भाषा भी अटपटी और गँवारू थी। अतः कलापक्ष की दृष्टि से कबीर की कविता निम्न श्रणी की है। उनका भावपक्ष भी पूर्ण रूप से साहित्यिक नहीं है तथापि उसमें उनके जीवन की महानता है। भावपक्ष की दृष्टि से कबीर का काव्य उच्च स्तर का है और वे बडे से बड़े कवि से टक्कर ले सकते हैं। उसके काव्य में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो उसे बहुत ऊँचा उठा देती है। भावपक्षीय विशेषताएँ-1. सत्य-भावना– कबीर सत्य के अन्वेषक थे। धर्मान्धता और संकीर्णता से उन्हें घृणा थी। असत्य पर सुनहरी मुलम्मा चढाकर संसार को धोखा देना उन्हें पसन्द न था। ढोंग से उन्हें चिढ़ थी। ढोंग और आडम्बर करने वालों को वे आड़े हाथों लेते थे। वे निर्भय और सत्यवादी थे। सिर मुड़े झूठे संन्यासियों को लक्ष्य करके कही गयी उनकी यह उक्ति कितनी सत्य है– “मूँड मुडाये हरि मिलें, सब कोई लेइ मुडाय। | इस प्रकार की उक्तियों में भले ही साहित्यिक महत्ता न हो किन्तु सत्य को प्रकाशित करने तथा जनजागरण के हृदय को प्रभावित करने की इनमें अद्भुत शक्ति है। 2. दृढ़-आत्मविश्वास– कबीर अपने सत्य प्रतिपादित मत का दृढ़ आत्मविश्वास के साथ प्रतिपादन करते थे। वे अपने मत को सदा सत्य समझते थे और सब को झूठा। पंडित और मुल्ला भी उनकी दृष्टि में गुण-कर्म हीन थे। आत्मविश्वास के साथ उन्होंने कहा- "अरे इन दोउन राह न पाई। उनकी यह दृढ़ आत्मविश्वास की भावना ही आगे चलकर उन्हें ब्रह्मवाद की ओर ले जाती है। 3. सरलता तथा सहृदयता– कबीर स्वभाव से सरल-हृदय थे। उनके स्वभाव की सरलता उनकी कविता में स्पष्ट दिखाई पड़ती है। अव्यावहारिक शब्दों तथा विचारों से उन्होंने कविता को उलझाने की चेष्टा नहीं की है। उनके हृदय की सरलता के कारण उनकी रहस्यात्मक उक्तियाँ भी सरल हो गयी हैं। वेदों और शास्त्रों का सहारा न लेकर व्यावहारिक जीवन के उदाहरणों द्वारा उन्होंने आत्मा और परमात्मा के मिलन को स्पष्ट कर दिया है– “जल बिच कुंभ कुंभ बिच जल है,
बाहर भीतर पानी। 4. निर्गुणब्रह्म के उपासक– कबीर निर्गुण ब्रह्म के सच्चे उपासक थे। उन्होने निराकार ब्रह्म को भी राम! नाम से अभिहित किया है, उनका राम निराकार॑ परमब्रह्म है दशरथ पुत्र राम नहीं– “दशरथ सुत तिहुँ बरवाना। उनके निराकार ब्रह्म का कोई मुख माथा रूप कुरूप नहीं है एक अनुपम तत्व है- “जाके मुँह माथा नहीं, नाहीं रूपकुरूप। 5. रहस्यवाद–कबीर ने साधनात्मक तथा भावात्मक द्वोनों ही प्रकार के रहस्यवाद को अपनाया है। भावात्मक रहस्यवाद में कबीर ने आत्मा-परमात्मा के प्रेम सम्बन्धों को अनेक लौकिक सम्बन्धों से परिपुष्ट किया। “कबीर कूता राम कौ, मुतिया मेरौ नाव। 6. गुरु-महिमा– कबीर ने गुरु की महत्ता प्रतिपादित की है, उन्होंने गुरु को सर्वोपरि माना है, सच्चा गुरु ही ब्रह्म से मिलाता है। “सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार। गुरु के रूठने पर व्यक्ति की सद्गति असम्भव है – हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठे नहिं ठौर। 7. गम्भीर-अनुभूति– कबीर का अनुभव बड़ा विशाल था। उनका साहित्य ऐसा सरल और सजीव हो उठा है कि वे अनपढ़ होते हुए भी एक उच्च कोटि के कवि होने के अधिकारी हो गये हैं। उन्होंने जो कुछ देखा, सुना और अनुभव किया, उसी को उन्होंने सीधी-सादी भाषा में जनता तक पहुँचाने का प्रयास किया है। अनुभूति के बल पर एक साधारण वस्तु से उपमा देते हुए प्रेम का कितना सजीव चित्रण है– “जा घट प्रेम न संचरै, सो घट जान मसान। कलापक्षीय-विशेषताएँ– कबीरदास की भाषा शैलीभाषा–
कबीर स्वयं अनपढ़ थे। उन्होंने स्वयं कहा है- शैली– कबीर ने दोहा, चौपाई तथा पदों में काव्य रचना की है। छन्द-शास्त्र का ज्ञान न होने के कारण - दोहे जैसे छोटे छन्द की रचना मे भी उनसे अनेक स्थानों पर चूक हो गयी है। किन्तु इसमे तनिक भी सन्देह नहीं है कि कबीर की शैली अत्यन्त सरल तथा प्रभावशाली है। शब्दों का आडम्बर तथा अलंकारों को जबरदस्ती - ठूसना कबीर को बिल्कुल पसन्द न था। शैली की इस सरलता के कारण ही कबीर की साखियों तथा पदों का जनसाधारण में पर्याप्त प्रचार हुआ और वे आज भी जन-जन की जीभ पर नाचते हैं। गुरु की महिमा का वे कितने सरल ढंग से प्रभावशाली चित्रण करते हैं– “गुरु कुंभार सिख कुंभ है, गढ़िं-गढ़ि काढ़ै खोट। आत्मा तथा परमात्मा के रहस्य का उद्घाटन करते हुए कबीर ने “उलटवासियाँ' भी कही हैं जिनमें साधारण दृष्टि से तो उल्टा अर्थ प्रतीत होता है किन्तु आध्यात्मिक अर्थ लगाने से अर्थ ठीक बैठ जाता है। एक उदाहरण देखिए- “पहले
जन्म पुत्र का भयऊ, बाप जनमिया पाछे। विचारों की अनेकरूपता के कारण उनकी शैली में भी अनेकरूपता आ गयी है। अपनी इन विशेषताओं के कारण ही कबीर का काव्य उत्तम तथा प्रभावपूर्ण हो गया है। सूर और तुलसी की कविता को भी साधारण जनता में वह लोकप्रियता न मिल सकी जो कबीर की कविता को मिली है। Web Titles– कबीरदास का जीवन परिचय हिंदी में pdf Download, कबीर दास की पत्नी का क्या नाम था, कबीर की काव्यगत विशेषताओं का वर्णन कीजिए ५०० शब्दों में?कबीरदास के काव्य की विशेषता गुरु-भक्ति, ईश्वर के प्रति अथाह प्रेम, वैराग्य सत्संग, साधु महिमा, आत्म-बोध तथा जगत-बोध की अभिव्यक्ति है। उन्होंने समाज में फैले हुए सभी प्रकार के भेदभाव को दूर करने का प्रयास किया।
कबीर के काव्यकला की विशेषताएँ बताइए?इस इकाई में कबीर की काव्यभाषा, उनकी काव्यकला तथा सृजनात्मक सामर्थ्य पर विचार किया गया है । भक्ति काल के प्रारंभ में काव्यभाषा के रूप में अभी न तो खड़ी बोली का पूर्ण विकास हुआ था और न अवधी तथा ब्रजभाषा का । कबीर की भाषा को लेकर भी विद्वानों के बीच गहरा मतभेद है।
कबीर दास जी का जीवन परिचय और उनकी काव्यगत विशेषताओं को उदाहरण सहित लिखिये?कबीर दास की काव्यगत विशेषताएं || Kabir Das ki Kavyagat vishestayein || कबीर दास का जीवन परिचय - YouTube.
कबीर के काव्य सौष्ठव पर प्रकाश डालिए?भक्ति भावना कबीर की कविता का मूल स्वर भक्ति है। वे भक्ति को भवसागर से मुक्ति का साधन मानते हैं।
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