रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं कामदेव के शत्रु शिव के सेव्य, भव (जन्म-मृत्यु) के भय को हरनेवाले, कालरूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह के समान, योगियों के स्वामी (योगीश्वर), ज्ञान के द्वारा जानने योग्य, गुणों की निधि, अजेय, निर्गुण, निर्विकार, माया से परे, देवताओं के स्वामी, दुष्टों के वध में तत्पर, ब्राह्मणवृंद के एकमात्र देवता (रक्षक), जलवाले मेघ के समान सुंदर श्याम, कमल के से नेत्रवाले, पृथ्वीपति (राजा) के रूप में परमदेव राम की मैं वंदना करता हूँ॥ 1॥ शंखेन्द्वाभमतीवसुंदरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं शंख और चंद्रमा की-सी कांति के अत्यंत सुंदर शरीरवाले, व्याघ्रचर्म के वस्त्रवाले, काल के समान (अथवा काले रंग के) भयानक सर्पों का भूषण धारण करनेवाले, गंगा और चंद्रमा के प्रेमी, काशीपति, कलियुग के पाप समूह का नाश करनेवाले, कल्याण के कल्पवृक्ष, गुणों के निधान और कामदेव को भस्म करनेवाले, पार्वती पति वंदनीय शंकर को मैं नमस्कार करता हूँ॥ 2॥ यो ददाति सतां शंभुः कैवल्यमपि दुर्लभम्। जो सत पुरुषों को अत्यंत दुर्लभ कैवल्यमुक्ति तक दे डालते हैं और जो दुष्टों को दंड देनेवाले हैं, वे कल्याणकारी शंभु मेरे कल्याण का विस्तार करें॥ 3॥ दो० - लव निमेष परमानु
जुग बरष कलप सर चंड। लव, निमेष, परमाणु, वर्ष, युग और कल्प जिनके प्रचंड बाण हैं और काल जिनका धनुष है, हे मन! तू उन राम को क्यों नहीं भजता? सो० - सिंधु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ। समुद्र के वचन सुनकर प्रभु राम ने मंत्रियों को बुलाकर ऐसा कहा - अब विलंब किसलिए हो रहा है? सेतु (पुल) तैयार करो, जिससे सेना उतरे। सुनहु भानुकुल केतु जामवंत कर जोरि कह। जाम्बवान ने हाथ जोड़कर कहा - हे सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढ़ानेवाले) राम! सुनिए। हे नाथ! (सबसे बड़ा) सेतु तो आपका नाम ही है, जिस पर चढ़कर (जिसका आश्रय लेकर) मनुष्य संसाररूपी समुद्र से पार हो जाते हैं। यह लघु जलधि तरत कति बारा। अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा॥ फिर यह छोटा-सा समुद्र पार करने में कितनी देर लगेगी? ऐसा सुनकर फिर पवनकुमार हनुमान ने कहा - प्रभु का प्रताप भारी बड़वानल (समुद्र की आग) के समान है। इसने पहले समुद्र के जल को सोख लिया था, तव रिपु नारि रुदन जल धारा। भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा॥ परंतु आपके शत्रुओं की स्त्रियों के आँसुओं की धारा से यह फिर भर गया और उसी से खारा भी हो गया। हनुमान की यह अत्युक्ति (अलंकारपूर्ण युक्ति) सुनकर वानर रघुनाथ की ओर देखकर हर्षित हो गए। जामवंत बोले दोउ भाई। नल नीलहि सब कथा सुनाई॥ जाम्बवान ने नल-नील दोनों भाइयों को बुलाकर उन्हें सारी कथा कह सुनाई (और कहा -) मन में राम के प्रताप को स्मरण करके सेतु तैयार करो, (रामप्रताप से) कुछ भी परिश्रम नहीं होगा। बोलि लिए कपि निकर बहोरी। सकल सुनहु बिनती कछु मोरी॥ फिर वानरों के समूह को बुला लिया (और कहा -) आप सब लोग मेरी कुछ विनती सुनिए। अपने हृदय में राम के चरण-कमलों को धारण कर लीजिए और सब भालू और वानर एक खेल कीजिए।
धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा॥ विकट वानरों के समूह (आप) दौड़ जाइए और वृक्षों तथा पर्वतों के समूहों को उखाड़ लाइए। यह सुनकर वानर और भालू हूह (हुँकार) करके और रघुनाथ के प्रतापसमूह की (अथवा प्रताप के पुंज राम की) जय पुकारते हुए चले। दो० - अति उतंग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ। बहुत ऊँचे-ऊँचे पर्वतों और वृक्षों को खेल की तरह ही (उखाड़कर) उठा लेते हैं और ला-लाकर नल-नील को देते हैं। वे अच्छी तरह गढ़कर (सुंदर) सेतु बनाते हैं॥ 1॥ सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कंदुक इव नल नील ते लेहीं॥ वानर बड़े-बड़े पहाड़ ला-लाकर देते हैं और नल-नील उन्हें गेंद की तरह ले लेते हैं। सेतु की अत्यंत सुंदर रचना देखकर कृपासिंधु राम हँसकर वचन बोले - परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी॥ यह (यहाँ की) भूमि परम रमणीय और उत्तम है। इसकी असीम महिमा वर्णन नहीं की जा सकती। मैं यहाँ शिव की स्थापना करूँगा। मेरे हृदय में यह महान संकल्प है। सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिबर सकल बोलि लै आए॥ राम के वचन सुनकर वानरराज सुग्रीव ने बहुत-से दूत भेजे, जो सब श्रेष्ठ मुनियों को बुलाकर ले आए। शिवलिंग की स्थापना करके विधिपूर्वक उसका पूजन किया। (फिर भगवान बोले -) शिव के समान मुझको दूसरा कोई प्रिय नहीं है।
सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥ जो शिव से द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं पाता। शंकर से विमुख होकर (विरोध करके) जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि है। दो० - संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास। जिनको शंकर प्रिय हैं, परंतु जो मेरे द्रोही हैं एवं जो शिव के द्रोही हैं और मेरे दास (बनना चाहते) हैं, वे मनुष्य कल्पभर घोर नरक में निवास करते हैं॥ 2॥ जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं॥ जो मनुष्य (मेरे स्थापित किए हुए इन) रामेश्वर का दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएँगे। और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ावेगा, वह मनुष्य सायुज्य मुक्ति पावेगा (अर्थात मेरे साथ एक हो जाएगा)। होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि संकर देइहि॥ जो छल छोड़कर और निष्काम होकर रामेश्वर की सेवा करेंगे, उन्हें शंकर मेरी भक्ति देंगे और जो मेरे बनाए सेतु का दर्शन करेगा, वह बिना ही परिश्रम संसाररूपी समुद्र से तर जाएगा। राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए॥ राम के वचन सबके मन को अच्छे लगे। तदनंतर वे श्रेष्ठ मुनि अपने-अपने आश्रमों को लौट आए। (शिव कहते हैं -) हे पार्वती! रघुनाथ की यह रीति है कि वे शरणागत पर सदा प्रीति करते हैं। बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर॥ चतुर नल और नील ने सेतु बाँधा। राम की कृपा से उनका यह (उज्ज्वल) यश सर्वत्र फैल गया। जो पत्थर आप डूबते हैं और दूसरों को डुबा देते हैं, वे ही जहाज के समान (स्वयं तैरनेवाले और दूसरों को पार ले जानेवाले) हो गए। महिमा यह न जलधि कइ बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी॥ यह न तो समुद्र की महिमा वर्णन की गई है, न पत्थरों का गुण है और न वानरों की ही कोई करामात है। दो० - श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान। श्री रघुवीर के प्रताप से पत्थर भी समुद्र पर तैर गए। ऐसे राम को छोड़कर जो किसी दूसरे स्वामी को जाकर भजते हैं वे (निश्चय ही) मंदबुद्धि हैं। बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा। देखि कृपानिधि के मन भावा॥ नल-नील ने सेतु बाँधकर उसे बहुत मजबूत बनाया। देखने पर वह कृपानिधान राम के मन को (बहुत ही) अच्छा लगा। सेना चली, जिसका कुछ वर्णन नहीं हो सकता। योद्धा वानरों के समुदाय गरज रहे हैं। सेतुबंध ढिग चढ़ि रघुराई। चितव कृपाल सिंधु बहुताई॥ कृपालु रघुनाथ सेतुबंध के तट पर चढ़कर समुद्र का विस्तार देखने लगे। करुणाकंद (करुणा के मूल) प्रभु के दर्शन के लिए सब जलचरों के समूह प्रकट हो गए (जल के ऊपर निकल आए)। मकर नक्र नाना झष ब्याला। सत जोजन तन परम बिसाला॥ बहुत तरह के मगर, नाक (घड़ियाल), मच्छ और सर्प थे, जिनके सौ-सौ योजन के बहुत बड़े विशाल शरीर थे। कुछ ऐसे भी जंतु थे, जो उनको भी खा जाएँ। किसी-किसी के डर से तो वे भी डर रहे थे। प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे। मन हरषित सब भए सुखारे॥ वे सब (वैर-विरोध भूलकर) प्रभु के दर्शन कर रहे हैं, हटाने से भी नहीं हटते। सबके मन हर्षित हैं; सब सुखी हो गए। उनकी आड़ के कारण जल नहीं दिखाई पड़ता। वे सब भगवान का रूप देखकर (आनंद और प्रेम में) मग्न हो गए। चला कटकु प्रभु आयसु पाई। को कहि सक कपि दल बिपुलाई॥ प्रभु की आज्ञा पाकर सेना चली। वानर सेना की विपुलता (अत्यधिक संख्या) को कौन कह सकता है? दो० – सेतु बंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं। सेतुबंध पर बड़ी भीड़ हो गई, इससे कुछ वानर आकाश मार्ग से उड़ने लगे और दूसरे (कितने ही) जलचर जीवों पर चढ़-चढ़कर पार जा रहे हैं॥ 4॥ अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई। बिहँसि चले कृपाल
रघुराई॥ कृपालु रघुनाथ (तथा लक्ष्मण) दोनों भाई ऐसा कौतुक देखकर हँसते हुए चले। रघुवीर सेना सहित समुद्र के पार हो गए। वानरों और उनके सेनापतियों की भीड़ कही नहीं जा सकती। सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा। सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा॥ प्रभु ने समुद्र के पार डेरा डाला और सब वानरों को आज्ञा दी कि तुम जाकर सुंदर फल-मूल खाओ। यह सुनते ही रीछ-वानर जहाँ-तहाँ दौड़ पड़े। सब तरु फरे राम हित लागी। रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी॥ राम के हित (सेवा) के लिए सब वृक्ष ऋतु-कुऋतु - समय की गति को छोड़कर फल उठे। वानर-भालू मीठे फल खा रहे हैं, वृक्षों को हिला रहे हैं और पर्वतों के शिखरों को लंका की ओर फेंक रहे हैं। जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं। घेरि सकल बहु नाच नचावहिं॥ घूमते-घूमते जहाँ कहीं किसी राक्षस को पा जाते हैं तो सब उसे घेरकर खूब नाच नचाते हैं और दाँतों से उसके नाक-कान काटकर, प्रभु का सुयश कहकर (अथवा कहलाकर) तब उसे जाने देते हैं। जिन्ह कर नासा कान निपाता। तिन्ह रावनहि कही सब बाता॥ जिन राक्षसों के नाक और कान काट डाले गए, उन्होंने रावण से सब समाचार कहा। समुद्र (पर सेतु) का बाँधा जाना कानों से सुनते ही रावण घबड़ाकर दसों मुखों से बोल उठा - दो० - बाँध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस। वननिधि, नीरनिधि, जलधि, सिंधु, वारीश, तोयनिधि, कंपति, उदधि, पयोधि, नदीश को क्या सचमुच ही बाँध लिया?॥ 5॥ निज बिकलता बिचारि बहोरी॥ बिहँसि गयउ गृह करि भय भोरी॥ फिर अपनी व्याकुलता को समझकर (ऊपर से) हँसता हुआ, भय को भुलाकर, रावण महल को गया। (जब) मंदोदरी ने सुना कि प्रभु राम आ गए हैं और उन्होंने खेल में ही समुद्र को बँधवा लिया है, कर गहि पतिहि भवन निज आनी। बोली परम
मनोहर बानी॥ (तब) वह हाथ पकड़कर, पति को अपने महल में लाकर परम मनोहर वाणी बोली। चरणों में सिर नवाकर उसने अपना आँचल पसारा और कहा - हे प्रियतम! क्रोध त्याग कर मेरा वचन सुनिए। नाथ बयरु कीजे ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सों॥ हे नाथ! वैर उसी के साथ करना चाहिए, जिससे बुद्धि और बल के द्वारा जीत सके। आप में और रघुनाथ में निश्चय ही कैसा अंतर है, जैसा जुगनू और सूर्य में! अति बल मधु कैटभ जेहिं मारे। महाबीर दितिसुत संघारे॥ जिन्होंने (विष्णु रूप से) अत्यंत बलवान मधु और कैटभ (दैत्य) मारे और (वराह और नृसिंह रूप से) महान शूरवीर दिति के पुत्रों (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) का संहार किया; जिन्होंने (वामन रूप से) बलि को बाँधा और (परशुराम रूप से) सहस्रबाहु को मारा, वे ही (भगवान) पृथ्वी का भार हरण करने के लिए (रामरूप में) अवतीर्ण (प्रकट) हुए हैं! तासु बिरोध न कीजिअ नाथा। काल करम जिव जाकें हाथा॥ हे नाथ! उनका विरोध न कीजिए, जिनके हाथ में काल, कर्म और जीव सभी हैं। दो० - रामहि सौंपि जानकी नाइ कमल पद माथ। (राम) के चरण कमलों में सिर नवाकर (उनकी शरण में जाकर) उनको जानकी सौंप दीजिए और आप पुत्र को राज्य देकर वन में जाकर रघुनाथ का भजन कीजिए॥ 6॥ नाथ दीनदयाल रघुराई। बाघउ सनमुख गएँ न खाई॥ हे नाथ! रघुनाथ तो दीनों पर दया करनेवाले हैं। सम्मुख (शरण में) जाने पर तो बाघ भी नहीं खाता। आपको जो कुछ करना चाहिए था, वह सब आप कर चुके। आपने देवता, राक्षस तथा चर-अचर सभी को जीत लिया। संत कहहिं असि नीति दसानन। चौथेंपन जाइहि नृप कानन॥ हे दशमुख! संतजन ऐसी नीति कहते हैं कि चौथेपन (बुढ़ापे) में राजा को वन में चला जाना चाहिए। हे स्वामी! वहाँ (वन में) आप उनका भजन कीजिए जो सृष्टि के रचनेवाले, पालनेवाले और संहार करनेवाले हैं।
सोइ रघुबीर प्रनत अनुरागी। भजहु नाथ ममता सब त्यागी॥ हे नाथ! आप विषयों की सारी ममता छोड़कर उन्हीं शरणागत पर प्रेम करनेवाले भगवान का भजन कीजिए। जिनके लिए श्रेष्ठ मुनि साधन करते हैं और राजा राज्य छोड़कर वैरागी हो जाते हैं - सोइ कोसलाधीस रघुराया। आयउ करन तोहि पर दाया॥ वही कोसलाधीश रघुनाथ आप पर दया करने आए हैं। हे प्रियतम! यदि आप मेरी सीख मान लेंगे, तो आपका अत्यंत पवित्र और सुंदर यश तीनों लोकों में फैल जाएगा। दो० - अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कंपित गात। ऐसा कहकर, नेत्रों में (करुणा का) जल भरकर और पति के चरण पकड़कर, काँपते हुए शरीर से मंदोदरी ने कहा - हे नाथ! रघुनाथ का भजन कीजिए, जिससे मेरा सुहाग अचल हो जाए॥ 7॥ तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई॥ तब रावण ने मंदोदरी को उठाया और वह दुष्ट उससे अपनी प्रभुता कहने लगा - हे प्रिये! सुन, तूने व्यर्थ ही भय मान रखा है। बता तो जगत में मेरे समान योद्धा है कौन? बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला॥ वरुण, कुबेर, पवन, यमराज आदि सभी दिक्पालों को तथा काल को भी मैंने अपनी भुजाओं के बल से जीत रखा है। देवता, दानव और मनुष्य सभी मेरे वश में हैं। फिर तुझको यह भय किस कारण उत्पन्न हो गया? नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई। सभाँ बहोरि
बैठ सो जाई॥ मंदोदरी ने उसे बहुत तरह से समझाकर कहा (किंतु रावण ने उसकी एक भी बात न सुनी) और वह फिर सभा में जाकर बैठ गया। मंदोदरी ने हृदय में ऐसा जान लिया कि काल के वश होने से पति को अभिमान हो गया है। सभाँ आइ मंत्रिन्ह तेहिं बूझा। करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा॥ सभा में आकर उसने मंत्रियों से पूछा कि शत्रु के साथ किस प्रकार से युद्ध करना होगा? मंत्री कहने लगे - हे राक्षसों के नाथ! हे प्रभु! सुनिए, आप बार-बार क्या पूछते हैं? कहहु कवन भय करिअ बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा॥ कहिए तो (ऐसा) कौन-सा बड़ा भय है, जिसका विचार किया जाए? (भय की बात ही क्या है?) मनुष्य और वानर-भालू तो हमारे भोजन (की सामग्री) हैं। दो० - सब के बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि। कानों से सबके वचन सुनकर (रावण का पुत्र) प्रहस्त हाथ जोड़कर कहने लगा - हे प्रभु! नीति के विरुद्ध कुछ भी नहीं करना चाहिए, मंत्रियों में बहुत ही थोड़ी बुद्धि है॥ 8॥ कहहिं सचिव सठ ठकुर सोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती॥ ये सभी मूर्ख (खुशामदी) ठकुरसुहाती (मुँहदेखी) कह रहे हैं। हे नाथ! इस प्रकार की बातों से पूरा नहीं पड़ेगा। एक ही बंदर समुद्र लाँघकर आया था। उसका चरित्र सब लोग अब भी मन-ही-मन गाया करते हैं (स्मरण किया करते हैं)। छुधा न रही तुम्हहि तब काहू। जारत नगरु कस न धरि खाहू॥ उस समय तुम लोगों में से किसी को भूख न थी? (बंदर तो तुम्हारा भोजन ही हैं, फिर) नगर जलाते समय उसे पकड़कर क्यों नहीं खा लिया? इन मंत्रियों ने स्वामी (आप) को ऐसी सम्मति सुनाई है जो सुनने में अच्छी है पर जिससे आगे चलकर दुःख पाना होगा। जेहिं बारीस बँधायउ हेला। उतरेउ सेन समेत सुबेला॥ जिसने खेल-ही-खेल में समुद्र बँधा लिया और जो सेना सहित सुबेल पर्वत पर आ उतरा है। हे भाई! कहो वह मनुष्य है, जिसे कहते हो कि हम खा लेंगे? सब गाल फुला-फुलाकर (पागलों की तरह) वचन कह रहे हैं! तात बचन मम सुनु अति आदर। जनि मन गुनहु मोहि करि कादर। हे तात! मेरे वचनों को बहुत आदर से (बड़े गौर से) सुनिए। मुझे मन में कायर न समझ लीजिएगा। जगत में ऐसे मनुष्य झुंड-के-झुंड (बहुत अधिक) हैं, जो प्यारी (मुँह पर मीठी लगनेवाली) बात ही सुनते और कहते हैं। बचन परम हित सुनत कठोरे। सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे॥ हे प्रभो! सुनने में कठोर परंतु (परिणाम में) परम हितकारी वचन जो सुनते और कहते हैं, वे मनुष्य बहुत ही थोड़े हैं। नीति सुनिए, (उसके अनुसार) पहले दूत भेजिए, और (फिर) सीता को देकर राम से प्रीति (मेल) कर लीजिए। दो० - नारि पाइ फिरि जाहिं जौं तौ न बढ़ाइअ रारि। यदि वे स्त्री पाकर लौट जाएँ, तब तो (व्यर्थ) झगड़ा न बढ़ाइए। नहीं तो (यदि न फिरें तो) हे तात! सम्मुख युद्धभूमि में उनसे हठपूर्वक (डटकर) मार-काट कीजिए॥ 9॥ यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा। उभय प्रकार सुजसु जग तोरा॥ हे प्रभो! यदि आप मेरी यह सम्मति मानेंगे, तो जगत में दोनों ही प्रकार से आपका सुयश होगा। रावण ने गुस्से में भरकर पुत्र से कहा - अरे मूर्ख! तुझे ऐसी बुद्धि किसने सिखाई? अबहीं ते उर संसय होई। बेनुमूल सुत भयहु घमोई॥ अभी से हृदय में संदेह (भय) हो रहा है? हे पुत्र! तू तो बाँस की जड़ में घमोई हुआ (तू मेरे वंश के अनुकूल या अनुरूप नहीं हुआ)। पिता की अत्यंत घोर और कठोर वाणी सुनकर प्रहस्त ये कड़े वचन कहता हुआ घर को चला गया। हित मत तोहि न लागत कैसें। काल बिबस कहुँ भेषज जैसें॥ हित की सलाह आपको कैसे नहीं लगती (आप पर कैसे असर नहीं करती), जैसे मृत्यु के वश हुए (रोगी) को दवा नहीं लगती। संध्या का समय जानकर रावण अपनी बीसों भुजाओं को देखता हुआ महल को चला।
लंका सिखर उपर आगारा। अति बिचित्र तहँ होइ अखारा॥ लंका की चोटी पर एक अत्यंत विचित्र महल था। वहाँ नाच-गान का अखाड़ा जमता था। रावण उस महल में जाकर बैठ गया। किन्नर उसके गुणसमूहों को गाने लगे। बाजहिं ताल पखाउज बीना। नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना॥ ताल (करताल), पखावज (मृदंग) और बीणा बज रहे हैं। नृत्य में प्रवीण अप्सराएँ नाच रही हैं। दो० - सुनासीर सत सरिस सो संतत करइ बिलास। वह निरंतर सैकड़ों इंद्रों के समान भोग-विलास करता रहता है। यद्यपि (राम-सरीखा) अत्यंत प्रबल शत्रु सिर पर है, फिर भी उसको न तो चिंता है और न डर ही है॥ 10॥ इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा। उतरे सेन सहित अति भीरा॥ यहाँ रघुवीर सुबेल पर्वत पर सेना की बड़ी भीड़ (बड़े समूह) के साथ उतरे। पर्वत का एक बहुत ऊँचा, परम रमणीय, समतल और विशेष रूप से उज्ज्वल शिखर देखकर - तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए।
लछिमन रचि निज हाथ डसाए॥ वहाँ लक्ष्मण ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुंदर फूल अपने हाथों से सजाकर बिछा दिए। उस पर सुंदर और कोमल मृग छाला बिछा दी। उसी आसन पर कृपालु राम विराजमान थे। प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा। बाम दहिन दिसि चाप निषंगा॥ प्रभु राम वानरराज सुग्रीव की गोद में अपना सिर रखे हैं। उनकी बाईं ओर धनुष तथा दाहिनी ओर तरकस (रखा) है। वे अपने दोनों करकमलों से बाण सुधार रहे हैं। विभीषण कानों से लगकर सलाह कर रहे हैं। बड़भागी अंगद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना॥ परम भाग्यशाली अंगद और हनुमान अनेकों प्रकार से प्रभु के चरण कमलों को दबा रहे हैं। लक्ष्मण कमर में तरकस कसे और हाथों में धनुष-बाण लिए वीरासन से प्रभु के पीछे सुशोभित हैं। दो० - ऐहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन। इस प्रकार कृपा, रूप (सौंदर्य) और गुणों के धाम राम विराजमान हैं। वे मनुष्य धन्य हैं जो सदा इस ध्यान में लौ लगाए रहते हैं॥ 11(क)॥ पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मयंक। पूर्व दिशा की ओर देखकर प्रभु राम ने चंद्रमा को उदय हुआ देखा। तब वे सबसे कहने लगे - चंद्रमा को तो देखो। कैसा सिंह के समान निडर है!॥ 11(ख)॥ पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी। परम प्रताप तेज बल रासी॥ पूर्व दिशारूपी पर्वत की गुफा में रहनेवाला, अत्यंत प्रताप, तेज और बल की राशि यह चंद्रमारूपी सिंह अंधकाररूपी मतवाले हाथी के मस्तक को विदीर्ण करके आकाशरूपी वन में निर्भय विचर रहा है। बिथुरे नभ मुकुताहल तारा। निसि सुंदरी केर सिंगारा॥ आकाश में बिखरे हुए तारे मोतियों के समान हैं, जो रात्रिरूपी सुंदर स्त्री के श्रृंगार हैं। प्रभु ने कहा - भाइयो! चंद्रमा में जो कालापन है, वह क्या है? अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार कहो। कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई॥ सुग्रीव ने कहा - हे रघुनाथ! सुनिए। चंद्रमा में पृथ्वी की छाया दिखाई दे रही है। किसी ने कहा - चंद्रमा को राहु ने मारा था। वही (चोट का) काला दाग हृदय पर पड़ा हुआ है। कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा। सार भाग ससि कर हरि लीन्हा॥ कोई कहता है - जब ब्रह्मा ने (कामदेव की स्त्री) रति का मुख बनाया, तब उसने चंद्रमा का सार भाग निकाल लिया (जिससे रति का मुख तो परम सुंदर बन गया, परंतु चंद्रमा के हृदय में छेद हो गया)। वही छेद चंद्रमा के हृदय में वर्तमान है, जिसकी राह से आकाश की काली छाया उसमें दिखाई पड़ती है। प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा। अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा॥ प्रभु राम ने कहा - विष चंद्रमा का बहुत प्यारा भाई है, इसी से उसने विष को अपने हृदय में स्थान दे रखा है। विषयुक्त अपने किरण समूह को फैलाकर वह वियोगी नर-नारियों को जलाता रहता है। दो० - कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास। हनुमान ने कहा - हे प्रभो! सुनिए, चंद्रमा आपका प्रिय दास है। आपकी सुंदर श्याम मूर्ति चंद्रमा के हृदय में बसती है, वही श्यामता की झलक चंद्रमा में है॥ 12(क)॥ पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान। पवनपुत्र हनुमान के वचन सुनकर सुजान राम हँसे। फिर दक्षिण की ओर देखकर कृपानिधान प्रभु बोले - ॥ 12(ख)॥ देखु विभीषन दच्छिन आसा। घन घमंड दामिनी बिलासा॥ हे विभीषण! दक्षिण दिशा की ओर देखो, बादल कैसा घुमड़ रहा है और बिजली चमक रही है। भयानक बादल मीठे-मीठे (हल्के-हल्के) स्वर से गरज रहा है। कहीं कठोर ओलों की वर्षा न हो! कहत विभीषन सुनहु कृपाला। होइ न तड़ित न बारिद माला॥ विभीषण बोले - हे कृपालु! सुनिए, यह न तो बिजली है, न बादलों की घटा। लंका की चोटी पर एक महल है। दशग्रीव रावण वहाँ (नाच-गान का) अखाड़ा देख रहा है। छत्र मेघडंबर सिर धारी। सोइ जनु जलद घटा अति कारी॥ रावण ने सिर पर मेघडंबर (बादलों के डंबर-जैसा विशाल और काला) छत्र धारण कर रखा है। वही मानो बादलों की काली घटा है। मंदोदरी के कानों में जो कर्णफूल हिल रहे हैं, हे प्रभो! वही मानो बिजली चमक रही है। बाजहिं ताल मृदंग अनूपा। सोइ रव मधुर सुनहू सुरभूपा। हे देवताओं के सम्राट! सुनिए, अनुपम ताल और मृदंग बज रहे हैं। वही मधुर (गर्जन) ध्वनि है। रावण का अभिमान समझकर प्रभु मुसकराए। उन्होंने धनुष चढ़ाकर उस पर बाण का संधान किया। दो० - छत्र मुकुट तांटक तब हते एकहीं बान। और एक ही बाण से (रावण के) छत्र-मुकुट और (मंदोदरी के) कर्णफूल काट गिराए। सबके देखते-देखते वे जमीन पर आ पड़े, पर इसका भेद (कारण) किसी ने नहीं जाना॥ 13(क)॥
अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आइ निषंग। ऐसा चमत्कार करके राम का बाण (वापस) आकर (फिर) तरकस में जा घुसा। यह महान रस-भंग (रंग में भंग) देखकर रावण की सारी सभा भयभीत हो गई॥ 13(ख)॥ कंप न भूमि न मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा। न भूकंप हुआ, न बहुत जोर की हवा (आँधी) चली। न कोई अस्त्र-शस्त्र ही नेत्रों से देखे। (फिर ये छत्र, मुकुट और कर्णफूल कैसे कटकर गिर पड़े?) सभी अपने-अपने हृदय में सोच रहे हैं कि यह बड़ा भयंकर अपशकुन हुआ! दसमुख देखि सभा भय पाई। बिहसि बचन कह जुगुति बनाई। सभा को भयतीत देखकर रावण ने हँसकर युक्ति रचकर ये वचन कहे - सिरों का गिरना भी जिसके लिए निरंतर शुभ होता रहा है, उसके लिए मुकुट का गिरना अपशकुन कैसा? सयन करहु निज निज गृह जाई। गवने भवन सकल सिर नाई॥ अपने-अपने घर जाकर सो रहो (डरने की कोई बात नहीं है) तब सब लोग सिर नवाकर घर गए। जब से कर्णफूल पृथ्वी पर गिरा, तब से मंदोदरी के हृदय में सोच बस गया। सजल नयन कह जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी॥ नेत्रों में जल भरकर, दोनों हाथ जोड़कर वह (रावण से) कहने लगी - हे प्राणनाथ! मेरी विनती सुनिए। हे प्रियतम! राम से विरोध छोड़ दीजिए। उन्हें मनुष्य जानकर मन में हठ न पकड़े रहिए। दो० - बिस्वरूप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु। मेरे इन वचनों पर विश्वास कीजिए कि ये रघुकुल के शिरोमणि राम विश्व रूप हैं - (यह सारा विश्व उन्हीं का रूप है) वेद जिनके अंग-अंग में लोकों की कल्पना करते हैं॥ 14॥ पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा॥ पाताल (जिन विश्व रूप भगवान का) चरण है, ब्रह्म लोक सिर है, अन्य (बीच के सब) लोकों का विश्राम (स्थिति) जिनके अन्य भिन्न-भिन्न अंगों पर है। भयंकर काल जिनका भृकुटि संचालन (भौंहों का चलना) है। सूर्य नेत्र है, बादलों का समूह बाल है। जासु घ्रान अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा॥ अश्विनी कुमार जिनकी नासिका हैं, रात और दिन जिनके अपार निमेष (पलक मारना और खोलना) हैं। दसों दिशाएँ कान हैं, वेद ऐसा कहते हैं। वायु श्वास है और वेद जिनकी अपनी वाणी है। अधर लोभ जम दसन कराला। माया हास बाहु दिगपाला॥ लोभ जिनका अधर (होठ) है, यमराज भयानक दाँत है। माया हँसी है, दिक्पाल भुजाएँ हैं। अग्नि मुख है, वरुण जीभ है। उत्पत्ति, पालन और प्रलय जिनकी चेष्टा (क्रिया) है। रोम राजि अष्टादस भारा। अस्थि सैल सरिता नस जारा॥ अठारह प्रकार की असंख्य वनस्पतियाँ जिनकी रोमावली हैं, पर्वत अस्थियाँ हैं, नदियाँ नसों का जाल हैं, समुद्र पेट है और नरक जिनकी नीचे की इंद्रियाँ हैं। इस प्रकार प्रभु विश्वमय हैं, अधिक कल्पना (ऊहापोह) क्या की जाए? दो० -
अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान। शिव जिनका अहंकार हैं, ब्रह्मा बुद्धि हैं, चंद्रमा मन हैं और महान (विष्णु) ही चित्त हैं। उन्हीं चराचर रूप भगवान राम ने मनुष्य रूप में निवास किया है॥ 15(क)॥ अस बिचारि सुनु प्रानपति प्रभु सन बयरु बिहाइ। हे प्राणपति! सुनिए, ऐसा विचार कर प्रभु से वैर छोड़कर रघुवीर के चरणों में प्रेम कीजिए, जिससे मेरा सुहाग न जाए॥ 15(ख)॥
बिहँसा नारि बचन सुनि काना। अहो मोह महिमा बलवाना॥ पत्नी के वचन कानों से सुनकर रावण खूब हँसा (और बोला -) अहो! मोह (अज्ञान) की महिमा बड़ी बलवान है! स्त्री का स्वभाव सब सत्य ही कहते हैं कि उसके हृदय में आठ अवगुण सदा रहते हैं - साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया॥ साहस, झूठ, चंचलता, माया (छल), भय (डरपोकपन), अविवेक (मूर्खता), अपवित्रता और निर्दयता। तूने शत्रु का समग्र (विराट) रूप गाया और मुझे उसका बड़ा भारी भय सुनाया। सो सब प्रिया सहज बस मोरें। समुझि परा अब प्रसाद तोरें॥ हे प्रिये! वह सब (यह चराचर विश्व तो) स्वभाव से ही मेरे वश में है। तेरी कृपा से मुझे यह अब समझ पड़ा। हे प्रिये! तेरी चतुराई मैं जान गया। तू इस प्रकार (इसी बहाने) मेरी प्रभुता का बखान कर रही है। तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि॥ हे मृगनयनी! तेरी बातें बड़ी गूढ़ (रहस्यभरी) हैं, समझने पर सुख देनेवाली और सुनने से भय छुड़ानेवाली हैं। मंदोदरी ने मन में ऐसा निश्चय कर लिया कि पति को कालवश मतिभ्रम हो गया है। दो० - ऐहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध। इस प्रकार (अज्ञानवश) बहुत-से विनोद करते हुए रावण को सबेरा हो गया। तब स्वभाव से ही निडर और घमंड में अंधा लंकापति सभा में गया॥ 16(क)॥ सो० - फूलइ फरइ
न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद। यद्यपि बादल अमृत-सा जल बरसाते हैं तो भी बेत फूलता-फलता नहीं। इसी प्रकार चाहे ब्रह्मा के समान भी ज्ञानी गुरु मिलें, तो भी मूर्ख के हृदय में चेत (ज्ञान) नहीं होता॥ 16(ख)॥ इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई॥ यहाँ (सुबेल पर्वत पर) प्रातःकाल रघुनाथ जागे और उन्होंने सब मंत्रियों को बुलाकर सलाह पूछी कि शीघ्र बताइए, अब क्या उपाय करना चाहिए? जाम्बवान ने राम के चरणों में सिर नवाकर कहा - सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी॥ हे सर्वज्ञ (सब कुछ जाननेवाले)! हे सबके हृदय में बसनेवाले (अंतर्यामी)! हे बुद्धि, बल, तेज, धर्म और गुणों की राशि! सुनिए! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार सलाह देता हूँ कि बालिकुमार अंगद को दूत बनाकर भेजा जाए! नीक मंत्र सब के मन माना। अंगद सन कह कृपानिधाना॥ यह अच्छी सलाह सबके मन में जँच गई। कृपा के निधान राम ने अंगद से कहा - हे बल, बुद्धि और गुणों के धाम बालिपुत्र! हे तात! तुम मेरे काम के लिए लंका जाओ। बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ। परम चतुर मैं जानत अहऊँ॥ तुमको बहुत समझाकर क्या कहूँ! मैं जानता हूँ, तुम परम चतुर हो। शत्रु से वही बातचीत करना जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो। दो० - प्रभु अग्या धरि सीस चरन बंदि अंगद उठेउ। प्रभु की आज्ञा सिर चढ़ाकर और उनके चरणों की वंदना करके अंगद उठे (और बोले -) हे भगवान राम! आप जिस पर कृपा करें, वही गुणों का समुद्र हो जाता है॥ 17(क)॥ स्वयंसिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ। स्वामी, सब कार्य अपने-आप सिद्ध हैं; यह तो प्रभु ने मुझ को आदर दिया है (जो मुझे अपने कार्य पर भेज रहे हैं)। ऐसा विचार कर युवराज अंगद का हृदय हर्षित और शरीर पुलकित हो गया॥ 17(ख)॥ बंदि चरन उर धरि प्रभुताई। अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई॥ चरणों की वंदना करके और भगवान की प्रभुता हृदय में धरकर अंगद सबको सिर नवाकर चले। प्रभु के प्रताप को हृदय में धारण किए हुए रणबाँकुरे वीर बालिपुत्र स्वाभाविक ही निर्भय हैं। पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भेटा॥ लंका में प्रवेश करते ही रावण के पुत्र से भेंट हो गई, जो वहाँ खेल रहा था। बातों-ही-बातों में दोनों में झगड़ा बढ़ गया (क्योंकि) दोनों ही अतुलनीय बलवान थे और फिर दोनों की युवावस्था थी। तेहिं अंगद कहुँ लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई॥ उसने अंगद पर लात उठाई। अंगद ने (वही) पैर पकड़कर उसे घुमाकर जमीन पर दे पटका (मार गिराया)। राक्षस के समूह भारी योद्धा देखकर जहाँ-तहाँ (भाग) चले, वे डर के मारे पुकार भी न मचा सके। एक एक सन मरमु न कहहीं। समुझि तासु बध चुप करि रहहीं॥ एक-दूसरे को मर्म (असली बात) नहीं बतलाते, उस (रावण के पुत्र) का वध समझकर सब चुप मारकर रह जाते हैं। (रावण-पुत्र की मृत्यु जानकर और राक्षसों को भय के मारे भागते देखकर) नगरभर में कोलाहल मच गया कि जिसने लंका जलाई थी, वही वानर फिर आ गया है। अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा॥ सब अत्यंत भयभीत होकर विचार करने लगे कि विधाता अब न जाने क्या करेगा। वे बिना पूछे ही अंगद को (रावण के दरबार की) राह बता देते हैं। जिसे ही वे देखते हैं, वही डर के मारे सूख जाता है। दो० - गयउ सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कंज। राम के चरण कमलों का स्मरण करके अंगद रावण की सभा के द्वार पर गए और वे धीर, वीर और बल की राशि अंगद सिंह की-सी एड़ (शान) से इधर-उधर देखने लगे॥ 18॥ तुरत निसाचर एक पठावा। समाचार रावनहि जनावा॥ तुरंत ही उन्होंने एक राक्षस को भेजा और रावण को अपने आने का समाचार सूचित किया। सुनते ही रावण हँसकर बोला - बुला लाओ, (देखें) कहाँ का बंदर है। आयसु पाइ दूत बहु धाए। कपिकुंजरहि बोलि लै आए॥ आज्ञा पाकर बहुत-से दूत दौड़े और वानरों में हाथी के समान अंगद को बुला लाए। अंगद ने रावण को ऐसे बैठे हुए देखा, जैसे कोई प्राणयुक्त (सजीव) काजल का पहाड़ हो! भुजा बिटप सिर सृंग समाना। रोमावली लता जनु नाना॥ भुजाएँ वृक्षों के और सिर पर्वतों के शिखरों के समान हैं। रोमावली मानो बहुत-सी लताएँ हैं। मुँह, नाक, नेत्र और कान पर्वत की कंदराओं और खोहों के बराबर हैं। गयउ सभाँ मन नेकु न मुरा। बालितनय अतिबल बाँकुरा॥ अत्यंत बलवान बाँके वीर बालिपुत्र अंगद सभा में गए, वे मन में जरा भी नहीं झिझके। अंगद को देखते ही सब सभासद उठ खड़े हुए। यह देखकर रावण के हृदय में बड़ा क्रोध हुआ। दो० -
जथा मत्त गज जूथ महुँ पंचानन चलि जाइ। जैसे मतवाले हाथियों के झुंड में सिंह (निःशंक होकर) चला जाता है, वैसे ही राम के प्रताप का हृदय में स्मरण करके वे (निर्भय) सभा में सिर नवाकर बैठ गए॥ 19॥ कह दसकंठ कवन तैं बंदर। मैं रघुबीर दूत दसकंधर॥ रावण ने कहा - अरे बंदर! तू कौन है? (अंगद ने कहा -) हे दशग्रीव! मैं रघुवीर का दूत हूँ। मेरे पिता से और तुमसे मित्रता थी। इसलिए हे भाई! मैं तुम्हारी भलाई के लिए ही आया हूँ। उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिंरचि पूजेहु बहु भाँती॥ तुम्हारा उत्तम कुल है, पुलस्त्य ऋषि के तुम पौत्र हो। शिव की और ब्रह्मा की तुमने बहुत प्रकार से पूजा की है। उनसे वर पाए हैं और सब काम सिद्ध किए हैं। लोकपालों और सब राजाओं को तुमने जीत लिया है। नृप अभिमान मोह बस किंबा। हरि आनिहु सीता जगदंबा॥ राजमद से या मोहवश तुम जगज्जननी सीता को हर लाए हो। अब तुम मेरे शुभ वचन (मेरी हितभरी सलाह) सुनो! (उसके अनुसार चलने से) प्रभु राम तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर देंगे। दसन गहहु तृन कंठ कुठारी। परिजन सहित संग निज नारी॥ दाँतों में तिनका दबाओ, गले में कुल्हाड़ी डालो और कुटुंबियों सहित अपनी स्त्रियों को साथ लेकर, आदरपूर्वक जानकी को आगे करके, इस प्रकार सब भय छोड़कर चलो - दो० - प्रनतपाल
रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि। और 'हे शरणागत के पालन करनेवाले रघुवंश शिरोमणि राम! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए।' (इस प्रकार आर्त प्रार्थना करो।) आर्त पुकार सुनते ही प्रभु तुमको निर्भय कर देंगे॥ 20॥ रे कपिपोत बोलु संभारी। मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी॥ (रावण ने कहा -) अरे बंदर के बच्चे! सँभालकर बोल! मूर्ख! मुझ देवताओं के शत्रु को तूने जाना नहीं? अरे भाई! अपना और अपने बाप का नाम तो बता। किस नाते से मित्रता मानता है? अंगद नाम बालि कर बेटा। तासों कबहुँ भई ही भेटा॥ (अंगद ने कहा -) मेरा नाम अंगद है, मैं बालि का पुत्र हूँ। उनसे कभी तुम्हारी भेंट हुई थी? अंगद का वचन सुनते ही रावण कुछ सकुचा गया (और बोला -) हाँ, मैं जान गया (मुझे याद आ गया), बालि नाम का एक बंदर था। अंगद तहीं बालि कर बालक। उपजेहु बंस अनल कुल घालक॥ अरे अंगद! तू ही बालि का लड़का है? अरे कुलनाशक! तू तो अपने कुलरूपी बाँस के लिए अग्नि रूप ही पैदा हुआ! गर्भ में ही क्यों न नष्ट हो गया? तू व्यर्थ ही पैदा हुआ जो अपने ही मुँह से तपस्वियों का दूत कहलाया! अब कहु कुसल बालि कहँ अहई। बिहँसि बचन तब अंगद कहई॥ अब बालि की कुशल तो बता, वह (आजकल) कहाँ है? तब अंगद ने हँसकर कहा - दस (कुछ) दिन बीतने पर (स्वयं ही) बालि के पास जाकर, अपने मित्र को हृदय से लगाकर, उसी से कुशल पूछ लेना। राम बिरोध कुसल जसि होई। सो सब तोहि सुनाइहि सोई॥ राम से विरोध करने पर जैसी कुशल होती है, वह सब तुमको वे सुनाएँगे। हे मूर्ख! सुन, भेद उसी के मन में पड़ सकता है, (भेद नीति उसी पर अपना प्रभाव डाल सकती है) जिसके हृदय में श्री रघुवीर न हों। दो० - हम कुल घालक सत्य तुम्ह कुल पालक दससीस। सच है, मैं तो कुल का नाश करनेवाला हूँ और हे रावण! तुम कुल के रक्षक हो। अंधे-बहरे भी ऐसी बात नहीं कहते, तुम्हारे तो बीस नेत्र और बीस कान हैं!॥ 21॥ सिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई। चाहत जासु चरन सेवकाई॥ शिव, ब्रह्मा (आदि) देवता और मुनियों के समुदाय जिनके चरणों की सेवा (करना) चाहते हैं, उनका दूत होकर मैंने कुल को डुबा दिया? अरे ऐसी बुद्धि होने पर भी तुम्हारा हृदय फट नहीं जाता? सुनि कठोर बानी कपि केरी। कहत दसानन नयन तरेरी॥ वानर (अंगद) की कठोर वाणी सुनकर रावण आँखें तरेरकर (तिरछी करके) बोला - अरे दुष्ट! मैं तेरे सब कठोर वचन इसीलिए सह रहा हूँ कि मैं नीति और धर्म को जानता हूँ (उन्हीं की रक्षा कर रहा हूँ)। कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी॥ अंगद ने कहा - तुम्हारी धर्मशीलता मैंने भी सुनी है। (वह यह कि) तुमने पराई स्त्री की चोरी की है! और दूत की रक्षा की बात तो अपनी आँखों से देख ली। ऐसे धर्म के व्रत को धारण (पालन) करनेवाले तुम डूबकर मर नहीं जाते! कान नाक बिनु भगिनि निहारी। छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी॥ नाक-कान से रहित बहिन को देखकर तुमने धर्म विचारकर ही तो क्षमा कर दिया था! तुम्हारी धर्मशीलता जग-जाहिर है। मैं भी बड़ा भाग्यवान हूँ, जो मैंने तुम्हारा दर्शन पाया? दो० - जनि जल्पसि जड़ जंतु कपि सठ बिलोकु मम बाहु। (रावण ने कहा -) अरे जड़ जंतु वानर! व्यर्थ बक-बक न कर, अरे मूर्ख! मेरी भुजाएँ तो देख। ये सब लोकपालों के विशाल बलरूपी चंद्रमा को ग्रसने के लिए राहु हैं॥ 22(क)॥ पुनि नभ सर मम कर निकर कमलन्हि पर करि बास। फिर (तूने सुना ही होगा कि) आकाशरूपी तालाब में मेरी भुजाओंरूपी कमलों पर बसकर शिव सहित कैलास हंस के समान शोभा को प्राप्त हुआ था!॥ 22(ख)॥ तुम्हरे कटक माझ सुनु अंगद। मो सन भिरिहि कवन जोधा बद॥ अरे अंगद! सुन, तेरी सेना में बता, ऐसा कौन योद्धा है, जो मुझसे भिड़ सकेगा। तेरा मालिक तो स्त्री के वियोग में बलहीन हो रहा है। और उसका छोटा भाई उसी के दुःख से दुःखी और उदास है। तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ। अनुज हमार भीरु अति सोऊ॥ तुम और सुग्रीव, दोनों (नदी) तट के वृक्ष हो (रहा) मेरा छोटा भाई विभीषण, (सो) वह भी बड़ा डरपोक है। मंत्री जाम्बवान बहुत बूढ़ा है। वह अब लड़ाई में क्या चढ़ (उद्यत हो) सकता है? सिल्पि कर्म जानहिं नल नीला। है कपि एक महा बलसीला॥ नल-नील तो शिल्प-कर्म जानते हैं (वे लड़ना क्या जानें?)। हाँ, एक वानर जरूर महान बलवान है, जो पहले आया था और जिसने लंका जलाई थी। यह वचन सुनते ही बालि पुत्र अंगद ने कहा - सत्य बचन कहु निसिचर नाहा। साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा॥ हे राक्षसराज! सच्ची बात कहो! क्या उस वानर ने सचमुच तुम्हारा नगर जला दिया? रावण (जैसे जगद्विजयी योद्धा) का नगर एक छोटे-से वानर ने जला दिया। ऐसे वचन सुनकर उन्हें सत्य कौन कहेगा? जो अति सुभट सराहेहु रावन। सो सुग्रीव केर लघु धावन॥ हे रावण! जिसको तुमने बहुत बड़ा योद्धा कहकर सराहा है, वह तो सुग्रीव का एक छोटा-सा दौड़कर चलनेवाला हरकारा है। वह बहुत चलता है, वीर नहीं है। उसको तो हमने (केवल) खबर लेने के लिए भेजा था। दो० - सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु
पाइ। क्या सचमुच ही उस वानर ने प्रभु की आज्ञा पाए बिना ही तुम्हारा नगर जला डाला? मालूम होता है, इसी डर से वह लौटकर सुग्रीव के पास नहीं गया और कहीं छिप रहा!॥ 23(क)॥ सत्य कहहि दसकंठ सब मोहि न सुनि कछु कोह। हे रावण! तुम सब सत्य ही कहते हो, मुझे सुनकर कुछ भी क्रोध नहीं है। सचमुच हमारी सेना में कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे लड़ने में शोभा पाए॥ 23(ख)॥
प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि। प्रीति और वैर बराबरीवाले से ही करना चाहिए, नीति ऐसी ही है। सिंह यदि मेढ़कों को मारे, तो क्या उसे कोई भला कहेगा?॥ 23(ग)॥ जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधें बड़ दोष। यद्यपि तुम्हें मारने में राम की लघुता है और बड़ा दोष भी है तथापि हे रावण! सुनो, क्षत्रिय जाति का क्रोध बड़ा कठिन होता है॥ 23(घ)॥ बक्र
उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस। वक्रोक्तिरूपी धनुष से वचनरूपी बाण मारकर अंगद ने शत्रु का हृदय जला दिया। वीर रावण उन बाणों को मानो प्रत्युत्तररूपी सँड़सियों से निकाल रहा है॥ 23(ङ)॥ हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड़ गुन एक। तब रावण हँसकर बोला - बंदर में यह एक बड़ा गुण है कि जो उसे पालता है, उसका वह अनेकों उपायों से भला करने की चेष्टा करता है॥ 23(च)॥ धन्य कीस जो निज प्रभु काजा। जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा॥ बंदर को धन्य है, जो अपने मालिक के लिए लाज छोड़कर जहाँ-तहाँ नाचता है। नाच-कूदकर, लोगों को रिझाकर, मालिक का हित करता है। यह उसकी धर्म निपुणता है। अंगद स्वामिभक्त तव जाती। प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती॥ हे अंगद! तेरी जाति स्वामिभक्त है (फिर भला) तू अपने मालिक के गुण इस प्रकार कैसे न बखानेगा? मैं गुणग्राहक (गुणों का आदर करनेवाला) और परम सुजान (समझदार) हूँ, इसी से तेरी जली-कटी बक-बक पर कान (ध्यान) नहीं देता। कह कपि तव गुन गाहकताई। सत्य पवनसुत मोहि सुनाई॥ अंगद ने कहा - तुम्हारी सच्ची गुणग्राहकता तो मुझे हनुमान ने सुनाई थी। उसने अशोक वन में विध्वंस (तहस-नहस) करके, तुम्हारे पुत्र को मारकर नगर को जला दिया था। तो भी (तुमने अपनी गुणग्राहकता के कारण यही समझा कि) उसने तुम्हारा कुछ भी अपकार नहीं किया। सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई। दसकंधर मैं कीन्हि ढिठाई॥ तुम्हारा वही सुंदर स्वभाव विचार कर, हे दशग्रीव! मैंने कुछ धृष्टता की है। हनुमान ने जो कुछ कहा था, उसे आकर मैंने प्रत्यक्ष देख लिया कि तुम्हें न लज्जा है, न क्रोध है और न चिढ़ है। जौं असि मति पितु खाए कीसा। कहि अस बचन हँसा दससीसा॥ (रावण बोला -) अरे वानर! जब तेरी ऐसी बुद्धि है, तभी तो तू बाप को खा गया। ऐसा वचन कहकर रावण हँसा। अंगद ने कहा - पिता को खाकर फिर तुमको भी खा डालता। परंतु अभी तुरंत कुछ और ही बात मेरी समझ में आ गई! बालि बिमल जस भाजन जानी। हतउँ न तोहि अधम अभिमानी॥ अरे नीच अभिमानी! बालि के निर्मल यश का पात्र (कारण) जानकर तुम्हें मैं नहीं मारता। रावण! यह तो बता कि जगत में कितने रावण हैं? मैंने जितने रावण अपने कानों से सुन रखे हैं, उन्हें सुन - बलिहि जितन एक
गयउ पताला। राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला॥ एक रावण तो बलि को जीतने पाताल में गया था, तब बच्चों ने उसे घुड़साल में बाँध रखा। बालक खेलते थे और जा-जाकर उसे मारते थे। बलि को दया लगी, तब उन्होंने उसे छुड़ा दिया। एक बहोरि सहसभुज देखा। धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा॥ फिर एक रावण को सहस्रबाहु ने देखा, और उसने दौड़कर उसको एक विशेष प्रकार के (विचित्र) जंतु की तरह (समझकर) पकड़ लिया। तमाशे के लिए वह उसे घर ले आया। तब पुलस्त्य मुनि ने जाकर उसे छुड़ाया। दो० - एक कहत मोहि सकुच अति रहा बालि कीं काँख। एक रावण की बात कहने में तो मुझे बड़ा संकोच हो रहा है - वह (बहुत दिनों तक) बालि की काँख में रहा था। इनमें से तुम कौन-से रावण हो? खीझना छोड़कर सच-सच बताओ॥ 24॥ सुनु सठ सोइ रावन बलसीला। हरगिरि जान जासु भुज लीला॥ (रावण ने कहा -) अरे मूर्ख! सुन, मैं वही बलवान रावण हूँ, जिसकी भुजाओं की लीला (करामात) कैलास पर्वत जानता है। जिसकी शूरता उमापति महादेव जानते हैं, जिन्हें अपने सिररूपी पुष्प चढ़ा-चढ़ाकर मैंने पूजा था। सिर सरोज निज करन्हि उतारी। पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी॥ सिररूपी कमलों को अपने हाथों से उतार-उतारकर मैंने अगणित बार त्रिपुरारि शिव की पूजा की है। अरे मूर्ख! मेरी भुजाओं का पराक्रम दिग्पाल जानते हैं, जिनके हृदय में वह आज भी चुभ रहा है। जानहिं दिग्गज उर कठिनाई। जब जब भिरउँ जाइ बरिआई॥ दिग्गज (दिशाओं के हाथी) मेरी छाती की कठोरता को जानते हैं। जिनके भयानक दाँत, जब-जब जाकर मैं उनसे जबरदस्ती भिड़ा, मेरी छाती में कभी नहीं फूटे (अपना चिह्न भी नहीं बना सके), बल्कि मेरी छाती से लगते ही वे मूली की तरह टूट गए। जासु चलत डोलति इमि धरनी। चढ़त मत्त गज जिमि लघु तरनी॥ जिसके चलते समय पृथ्वी इस प्रकार हिलती है जैसे मतवाले हाथी के चढ़ते समय छोटी नाव! मैं वही जगत प्रसिद्ध प्रतापी रावण हूँ। अरे झूठी बकवास करनेवाले! क्या तूने मुझको कानों से कभी सुना? दो० - तेहि रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान। उस (महान प्रतापी और जगत प्रसिद्ध) रावण को (मुझे) तू छोटा कहता है और मनुष्य की बड़ाई करता है? अरे दुष्ट, असभ्य, तुच्छ बंदर! अब मैंने तेरा ज्ञान जान लिया॥ 25॥ सुनि अंगद सकोप कह
बानी। बोलु संभारि अधम अभिमानी॥ रावण के ये वचन सुनकर अंगद क्रोध सहित वचन बोले - अरे नीच अभिमानी! सँभालकर (सोच-समझकर) बोल। जिनका फरसा सहस्रबाहु की भुजाओंरूपी अपार वन को जलाने के लिए अग्नि के समान था, जासु परसु सागर खर धारा। बूड़े नृप अगनित बहु बारा॥ जिनके फरसारूपी समुद्र की तीव्र धारा में अनगिनत राजा अनेकों बार डूब गए, उन परशुराम का गर्व जिन्हें देखते ही भाग गया, अरे अभागे दशशीश! वे मनुष्य क्यों कर हैं? राम मनुज कस रे सठ बंगा। धन्वी कामु नदी पुनि गंगा॥ क्यों रे मूर्ख उद्दण्ड! राम मनुष्य हैं? कामदेव भी क्या धनुर्धारी है? और गंगा क्या नदी हैं? कामधेनु क्या पशु है? और कल्पवृक्ष क्या पेड़ है? अन्न भी क्या दान है? और अमृत क्या रस है? बैनतेय खग अहि सहसानन। चिंतामनि पुनि उपल दसानन॥ गरुड़ क्या पक्षी हैं? शेष क्या सर्प हैं? अरे रावण! चिंतामणि भी क्या पत्थर है? अरे ओ मूर्ख! सुन, बैकुंठ भी क्या लोक है? और रघुनाथ की अखंड भक्ति क्या (और लाभों-जैसा ही) लाभ है? दो० - सेन सहित तव मान मथि बन उजारि पुर जारि। सेना समेत तेरा मान मथकर, अशोक वन को उजाड़कर, नगर को जलाकर और तेरे पुत्र को मारकर जो लौट गए (तू उनका कुछ भी न बिगाड़ सका), क्यों रे दुष्ट! वे हनुमान क्या वानर हैं?॥ 26॥ सुनु रावन परिहरि चतुराई। भजसि
न कृपासिंधु रघुराई॥ अरे रावण! चतुराई (कपट) छोड़कर सुन। कृपा के समुद्र रघुनाथ का तू भजन क्यों नहीं करता? अरे दुष्ट! यदि तू राम का वैरी हुआ तो तुझे ब्रह्मा और रुद्र भी नहीं बचा सकेंगे। मूढ़ बृथा जनि मारसि गाला। राम बयर अस होइहि हाला॥ हे मूढ़! व्यर्थ गाल न मार (डींग न हाँक)। राम से वैर करने पर तेरा ऐसा हाल होगा कि तेरे सिर-समूह राम के बाण लगते ही वानरों के आगे पृथ्वी पर पड़ेंगे, ते तव सिर कंदुक सम नाना। खेलिहहिं भालु कीस चौगाना॥ और रीछ-वानर तेरे उन गेंद के समान अनेकों सिरों से चौगान खेलेंगे। जब रघुनाथ युद्ध में कोप करेंगे और उनके अत्यंत तीक्ष्ण बहुत-से बाण छूटेंगे, तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा। अस बिचारि भजु राम उदारा॥ तब क्या तेरा गाल चलेगा? ऐसा विचार कर उदार (कृपालु) राम को भज। अंगद के ये वचन सुनकर रावण बहुत अधिक जल उठा। मानो जलती हुई प्रचंड अग्नि में घी पड़ गया हो। दो० - कुंभकरन अस बंधु मम सुत प्रसिद्ध सक्रारि। (वह बोला - अरे मूर्ख!) कुंभकर्ण-जैसा मेरा भाई है, इंद्र का शत्रु सुप्रसिद्ध मेघनाद मेरा पुत्र है! और मेरा पराक्रम तो तूने सुना ही नहीं कि मैंने संपूर्ण जड़-चेतन जगत को जीत लिया है!॥ 27॥ सठ साखामृग जोरि सहाई। बाँधा सिंधु इहइ प्रभुताई॥ रे दुष्ट! वानरों की सहायता जोड़कर राम ने समुद्र बाँध लिया; बस, यही उसकी प्रभुता है। समुद्र को तो अनेकों पक्षी भी लाँघ जाते हैं। पर इसी से वे सभी शूरवीर नहीं हो जाते। अरे मूर्ख बंदर! सुन - मम भुज सागर बल जल पूरा। जहँ बूड़े बहु सुर नर सूरा॥ मेरा एक-एक भुजारूपी समुद्र बलरूपी जल से पूर्ण है, जिसमें बहुत-से शूरवीर देवता और मनुष्य डूब चूके हैं। (बता,) कौन ऐसा शूरवीर है, जो मेरे इन अथाह और अपार बीस समुद्रों का पार पा जाएगा? दिगपालन्ह मैं नीर भरावा। भूप सुजस खल मोहि सुनावा॥ अरे दुष्ट! मैंने दिक्पालों तक से जल भरवाया और तू एक राजा का मुझे सुयश सुनाता है! यदि तेरा मालिक, जिसकी गुणगाथा तू बार-बार कह रहा है, संग्राम में लड़नेवाला योद्धा है - तौ बसीठ पठवत केहि काजा। रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा॥ तो (फिर) वह दूत किसलिए भेजता है? शत्रु से प्रीति (संधि) करते उसे लाज नहीं आती? (पहले) कैलास का मथन करनेवाली मेरी भुजाओं को देख। फिर अरे मूर्ख वानर! अपने मालिक की सराहना करना। दो० - सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस। रावण के समान शूरवीर कौन है? जिसने अपने हाथों से सिर काट-काटकर अत्यंत हर्ष के साथ बहुत बार उन्हें अग्नि में होम दिया! स्वयं गौरीपति शिव इस बात के साक्षी हैं॥ 28॥ जरत बिलोकेउँ जबहि कपाला। बिधि के लिखे अंक निज
भाला॥ मस्तकों के जलते समय जब मैंने अपने ललाटों पर लिखे हुए विधाता के अक्षर देखे, तब मनुष्य के हाथ से अपनी मृत्यु होना बाँचकर, विधाता की वाणी (लेख को) असत्य जानकर मैं हँसा। सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें। लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें॥ उस बात को समझकर (स्मरण करके) भी मेरे मन में डर नहीं है। (क्योंकि मैं समझता हूँ कि) बूढ़े ब्रह्मा ने बुद्धि भ्रम से ऐसा लिख दिया है। अरे मूर्ख! तू लज्जा और मर्यादा छोड़कर मेरे आगे बार-बार दूसरे वीर का बल कहता है! कह अंगद सलज्ज जग माहीं। रावन तोहि समान कोउ नाहीं॥ अंगद ने कहा - अरे रावण! तेरे समान लज्जावान जगत में कोई नहीं है। लज्जाशीलता तो तेरा सहज स्वभाव ही है। तू अपने मुँह से अपने गुण कभी नहीं कहता। सिर अरु सैल कथा चित रही। ताते बार बीस तैं कहीं॥ सिर काटने और कैलास उठाने की कथा चित्त में चढ़ी हुई थी, इससे तूने उसे बीसों बार कहा। भुजाओं के उस बल को तूने हृदय में ही टाल (छिपा) रखा है, जिससे तूने सहस्रबाहु, बलि और बालि को जीता था। सुनु मतिमंद देहि अब पूरा। काटें सीस कि होइअ सूरा॥ अरे मंदबुद्धि! सुन, अब बस कर। सिर काटने से भी क्या कोई शूरवीर हो जाता है? इंद्रजाल रचनेवाले को वीर नहीं कहा जाता, यद्यपि वह अपने ही हाथों अपना सारा शरीर काट डालता है! दो० -
जरहिं पतंग मोह बस भार बहहिं खर बृंद। अरे मंदबुद्धि! समझकर देख। पतंगे मोहवश आग में जल मरते हैं, गदहों के झुंड बोझ लादकर चलते हैं; पर इस कारण वे शूरवीर नहीं कहलाते॥ 29॥ अब जनि बतबढ़ाव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही॥ अरे दुष्ट! अब बतबढ़ाव मत कर; मेरा वचन सुन और अभिमान त्याग दे! हे दशमुख! मैं दूत की तरह (संधि करने) नहीं आया हूँ। रघुवीर ने ऐसा विचार कर मुझे भेजा है - बार बार अस कहइ कृपाला। नहिं गजारि जसु बधें सृकाला॥ कृपालु राम बार-बार ऐसा कहते हैं कि सियार के मारने से सिंह को यश नहीं मिलता। अरे मूर्ख! प्रभु के (उन) वचनों को मन में समझकर (याद करके) ही मैंने तेरे कठोर वचन सहे हैं। नाहिं त करि मुख भंजन तोरा। लैं जातेउँ सीतहि बरजोरा॥ नहीं तो तेरे मुँह तोड़कर मैं सीता को जबरदस्ती ले जाता। अरे अधम! देवताओं के शत्रु! तेरा बल तो मैंने तभी जान लिया जब तू सूने में पराई स्त्री को हर (चुरा) लाया। तैं निसिचर पति गर्ब बहूता। मैं रघुपति सेवक कर दूता॥ तू राक्षसों का राजा और बड़ा अभिमानी है। परंतु मैं तो रघुनाथ के सेवक (सुग्रीव) का दूत (सेवक का भी सेवक) हूँ। यदि मैं राम के अपमान से न डरूँ तो तेरे देखते-देखते ऐसा तमाशा करूँ कि - दो० - तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ। तुझे जमीन पर पटककर, तेरी सेना का संहार कर और तेरे गाँव को चौपट (नष्ट-भ्रष्ट) करके, अरे मूर्ख! तेरी युवती स्त्रियों सहित जानकी को ले जाऊँ॥ 30॥ जौं अस करौं तदपि न बड़ाई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई॥ यदि ऐसा करूँ, तो भी इसमें कोई बड़ाई नहीं है। मरे हुए को मारने में कुछ भी पुरुषत्व (बहादुरी) नहीं है। वाममार्गी, कामी, कंजूस, अत्यंत मूढ़, अति दरिद्र, बदनाम, बहुत बूढ़ा, सदा
रोगबस संतत क्रोधी। बिष्नु बिमुख श्रुति संत बिरोधी॥ नित्य का रोगी, निरंतर क्रोधयुक्त रहनेवाला, भगवान विष्णु से विमुख, वेद और संतों का विरोधी, अपने ही शरीर का पोषण करनेवाला, पराई निंदा करनेवाला और पाप की खान (महान पापी) - ये चौदह प्राणी जीते ही मुरदे के समान हैं। अस बिचारि खल बधउँ न तोही। अब जनि रिस उपजावसि मोही॥ अरे दुष्ट! ऐसा विचार कर मैं तुझे नहीं मारता। अब तू मुझमें क्रोध न पैदा कर (मुझे गुस्सा न दिला)। अंगद के वचन सुनकर राक्षस राज रावण दाँतों से होठ काटकर, क्रोधित होकर हाथ मलता हुआ बोला - रे कपि अधम मरन अब चहसी। छोटे बदन बात बड़ि कहसी॥ अरे नीच बंदर! अब तू मरना ही चाहता है! इसी से छोटे मुँह बड़ी बात कहता है। अरे मूर्ख बंदर! तू जिसके बल पर कड़ुए वचन बक रहा है, उसमें बल, प्रताप, बुद्धि अथवा तेज कुछ भी नहीं है। दो० - अगुन अमान जानि तेहि
दीन्ह पिता बनबास। उसे गुणहीन और मानहीन समझकर ही तो पिता ने वनवास दे दिया। उसे एक तो वह (उसका) दुःख, उस पर युवती स्त्री का विरह और फिर रात-दिन मेरा डर बना रहता है॥ 31(क)॥ जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक। जिनके बल का तुझे गर्व है, ऐसे अनेकों मनुष्यों को तो राक्षस रात-दिन खाया करते हैं। अरे मूढ़! जिद्द छोड़कर समझ (विचार कर)॥ 31(ख)॥
जब तेहिं कीन्हि राम कै निंदा। क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा॥ जब उसने राम की निंदा की, तब तो कपिश्रेष्ठ अंगद अत्यंत क्रोधित हुए, क्योंकि (शास्त्र ऐसा कहते हैं कि) जो अपने कानों से भगवान विष्णु और शिव की निंदा सुनता है, उसे गो वध के समान पाप होता है। कटकटान कपिकुंजर भारी। दुहु भुजदंड तमकि महि मारी॥ वानर श्रेष्ठ अंगद बहुत जोर से कटकटाए (शब्द किया) और उन्होंने तमककर (जोर से) अपने दोनों भुजदंडों को पृथ्वी पर दे मारा। पृथ्वी हिलने लगी, (जिससे बैठे हुए) सभासद गिर पड़े और भयरूपी पवन (भूत) से ग्रस्त होकर भाग चले। गिरत सँभारि उठा दसकंधर। भूतल परे मुकुट अति सुंदर॥ रावण गिरते-गिरते सँभलकर उठा। उसके अत्यंत सुंदर मुकुट पृथ्वी पर गिर पड़े। कुछ तो उसने उठाकर अपने सिरों पर सुधारकर रख लिए और कुछ अंगद ने उठाकर प्रभु राम के पास फेंक दिए। आवत मुकुट देखि कपि
भागे। दिनहीं लूक परन बिधि लागे॥ मुकुटों को आते देखकर वानर भागे। (सोचने लगे) विधाता! क्या दिन में ही उल्कापात होने लगा (तारे टूटकर गिरने लगे)? अथवा क्या रावण ने क्रोध करके चार वज्र चलाए हैं, जो बड़े धाए के साथ (वेग से) आ रहे हैं? कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू। लूक न असनि केतु नहिं राहू॥ प्रभु ने (उनसे) हँसकर कहा - मन में डरो नहीं। ये न उल्का हैं, न वज्र हैं और न केतु या राहु ही हैं। अरे भाई! ये तो रावण के मुकुट हैं; जो बालिपुत्र अंगद के फेंके हुए आ रहे हैं। दो० - तरकि पवनसुत कर गहे आनि धरे प्रभु पास। पवन पुत्र हनुमान ने उछलकर उनको हाथ से पकड़ लिया और लाकर प्रभु के पास रख दिया। रीछ और वानर तमाशा देखने लगे। उनका प्रकाश सूर्य के समान था॥ 32(क)॥ उहाँ सकोपि दसानन सब सन कहत रिसाइ। वहाँ (सभा में) क्रोधयुक्त रावण सबसे क्रोधित होकर कहने लगा कि - बंदर को पकड़ लो और पकड़कर मार डालो। अंगद यह सुनकर मुसकराने लगे॥ 32(ख)॥ एहि बधि बेगि सुभट सब धावहु। खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु॥ (रावण फिर बोला -) इसे मारकर सब योद्धा तुरंत दौड़ो और जहाँ कहीं रीछ-वानरों को पाओ, वहीं खा डालो। पृथ्वी को बंदरों से रहित कर दो और जाकर दोनों तपस्वी भाइयों (राम-लक्ष्मण) को जीते-जी पकड़ लो। पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा। गाल बजावत तोहि न
लाजा॥ (रावण के ये कोपभरे वचन सुनकर) तब युवराज अंगद क्रोधित होकर बोले - तुझे गाल बजाते लाज नहीं आती! अरे निर्लज्ज! अरे कुलनाशक! गला काटकर (आत्महत्या करके) मर जा! मेरा बल देखकर भी क्या तेरी छाती नहीं फटती! रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल रासि मंदमति कामी॥ अरे स्त्री के चोर! अरे कुमार्ग पर चलनेवाले! अरे दुष्ट, पाप की राशि, मंद बुद्धि और कामी! तू सन्निपात में क्या दुर्वचन बक रहा है? अरे दुष्ट राक्षस! तू काल के वश हो गया है! याको फलु पावहिगो आगें। बानर भालु चपेटन्हि लागें॥ इसका फल तू आगे वानर और भालुओं के चपेटे लगने पर पावेगा। राम मनुष्य हैं, ऐसा वचन बोलते ही, अरे अभिमानी! तेरी जीभें नहीं गिर पड़तीं? गिरिहहिं रसना संसय नाहीं। सिरन्हि समेत समर महि माहीं॥ इसमें संदेह नहीं है कि तेरी जीभें (अकेले नहीं वरन) सिरों के साथ रणभूमि में गिरेंगी।
सो० - सो नर क्यों दसकंध बालि बध्यो जेहिं एक सर। रे दशकंध! जिसने एक ही बाण से बालि को मार डाला, वह मनुष्य कैसे है? अरे कुजाति, अरे जड़! बीस आँखें होने पर भी तू अंधा है। तेरे जन्म को धिक्कार है॥ 33(क)॥ तव सोनित कीं प्यास तृषित राम सायक निकर। राम के बाण समूह तेरे रक्त की प्यास से प्यासे हैं। (वे प्यासे ही रह जाएँगे) इस डर से, अरे कड़वी बकवास करनेवाले नीच राक्षस! मैं तुझे छोड़ता हूँ॥ 33(ख)॥ मैं तव दसन तोरिबे लायक। आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक॥ मैं तेरे दाँत तोड़ने में समर्थ हूँ। पर क्या करूँ? रघुनाथ ने मुझे आज्ञा नहीं दी। ऐसा क्रोध आता है कि तेरे दसों मुँह तोड़ डालूँ और (तेरी) लंका को पकड़कर समुद्र में डुबो दूँ। गूलरि फल समान तव लंका। बसहु मध्य तुम्ह जंतु असंका॥ तेरी लंका गूलर के फल के समान है। तुम सब कीड़े उसके भीतर (अज्ञानवश) निडर होकर बस रहे हो। मैं बंदर हूँ, मुझे इस फल को खाते क्या देर थी? पर उदार (कृपालु) राम ने वैसी आज्ञा नहीं दी। जुगुति सुनत रावन मुसुकाई। मूढ़ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई॥ अंगद की युक्ति सुनकर रावण मुसकराया (और बोला -) अरे मूर्ख! बहुत झूठ बोलना तूने कहाँ से सीखा? बालि ने तो कभी ऐसा गाल नहीं मारा। जान पड़ता है तू तपस्वियों से मिलकर लबार हो गया है।
साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा। जौं न उपारिउँ तव दस जीहा॥ (अंगद ने कहा -) अरे बीस भुजावाले! यदि तेरी दसों जीभें मैंने नहीं उखाड़ लीं तो सचमुच मैं लबार ही हूँ। राम के प्रताप को समझकर (स्मरण करके) अंगद क्रोधित हो उठे और उन्होंने रावण की सभा में प्रण करके (दृढ़ता के साथ) पैर रोप दिया। जौं मम चरन सकसि सठ टारी। फिरहिं रामु सीता मैं हारी॥ (और कहा -) अरे मूर्ख! यदि तू मेरा चरण हटा सके तो राम लौट जाएँगे, मैं सीता को हार गया। रावण ने कहा - हे सब वीरो! सुनो, पैर पकड़कर बंदर को पृथ्वी पर पछाड़ दो। इंद्रजीत आदिक बलवाना। हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना॥ इंद्रजीत (मेघनाद) आदि अनेकों बलवान योद्धा जहाँ-तहाँ से हर्षित होकर उठे। वे पूरे बल से बहुत-से उपाय करके झपटते हैं। पर पैर टलता नहीं, तब सिर नीचा करके फिर अपने-अपने स्थान पर जा बैठ जाते हैं। पुनि उठि झपटहिं सुर
आराती। टरइ न कीस चरन एहि भाँती॥ (काकभुशुंडि कहते हैं -) वे देवताओं के शत्रु (राक्षस) फिर उठकर झपटते हैं। परंतु हे सर्पों के शत्रु गरुड़! अंगद का चरण उनसे वैसे ही नहीं टलता जैसे कुयोगी (विषयी) पुरुष मोहरूपी वृक्ष को नहीं उखाड़ सकते। दो० - कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ। करोड़ों वीर योद्धा जो बल में मेघनाद के समान थे, हर्षित होकर उठे। वे बार-बार झपटते हैं, पर वानर का चरण नहीं उठता, तब लज्जा के मारे सिर नवाकर बैठ जाते हैं॥ 34(क)॥ भूमि न छाँड़त कपि चरन देखत रिपु मद भाग। जैसे करोड़ों विघ्न आने पर भी संत का मन नीति को नहीं छोड़ता, वैसे ही वानर (अंगद) का चरण पृथ्वी को नहीं छोड़ता। यह देखकर शत्रु (रावण) का मद दूर हो गया!॥ 34(ख)॥ कपि बल देखि सकल हियँ हारे। उठा आपु कपि कें परचारे॥ अंगद का बल देखकर सब हृदय में हार गए। तब अंगद के ललकारने पर रावण स्वयं उठा। जब वह अंगद का चरण पकड़ने लगा, तब बालि कुमार अंगद ने कहा - मेरा चरण पकड़ने से तेरा बचाव नहीं होगा! गहसि न राम चरन सठ जाई॥ सुनत फिरा मन अति सकुचाई॥ अरे मूर्ख - तू जाकर राम के चरण क्यों नहीं पकड़ता? यह सुनकर वह मन में बहुत ही सकुचाकर लौट गया। उसकी सारी श्री जाती रही। वह ऐसा तेजहीन हो गया जैसे मध्याह्न में चंद्रमा दिखाई देता है। सिंघासन बैठेउ
सिर नाई। मानहुँ संपति सकल गँवाई॥ वह सिर नीचा करके सिंहासन पर जा बैठा। मानो सारी संपत्ति गँवाकर बैठा हो। राम जगतभर के आत्मा और प्राणों के स्वामी हैं। उनसे विमुख रहनेवाला शांति कैसे पा सकता है? उमा राम की भृकुटि बिलासा। होइ बिस्व पुनि पावइ नासा॥ (शिव कहते हैं -) हे उमा! जिन राम के भ्रूविलास (भौंह के इशारे) से विश्व उत्पन्न होता है और फिर नाश को प्राप्त होता है; जो तृण को वज्र और वज्र को तृण बना देते हैं (अत्यंत निर्बल को महान प्रबल और महान प्रबल को अत्यंत निर्बल कर देते हैं), उनके दूत का प्रण, कहो, कैसे टल सकता है? पुनि कपि कही नीति बिधि नाना। मान न ताहि कालु निअराना॥ फिर अंगद ने अनेकों प्रकार से नीति कही। पर रावण नहीं माना; क्योंकि उसका काल निकट आ गया था। शत्रु के गर्व को चूर करके अंगद ने उसको प्रभु राम का सुयश सुनाया और फिर वह राजा बालि का पुत्र यह कहकर चल दिया - हतौं न खेत खेलाइ खेलाई। तोहि अबहिं का करौं बड़ाई॥ रणभूमि में तुझे खेला-खेलाकर न मारूँ तब तक अभी (पहले से) क्या बड़ाई करूँ। अंगद ने पहले ही (सभा में आने से पूर्व ही) उसके पुत्र को मार डाला था। वह संवाद सुनकर रावण दुःखी हो गया। जातुधान अंगद पन देखी। भय ब्याकुल सब भए बिसेषी॥ अंगद का प्रण (सफल) देखकर सब राक्षस भय से अत्यंत ही व्याकुल हो गए। दो० - रिपु बल धरषि हरषि
कपि बालितनय बल पुंज। शत्रु के बल का मर्दन कर, बल की राशि बालि पुत्र अंगद ने हर्षित होकर आकर राम के चरणकमल पकड़ लिए। उनका शरीर पुलकित है और नेत्रों में (आनंदाश्रुओं का) जल भरा है॥ 35(क)॥ साँझ जानि दसकंधर भवन गयउ बिलखाइ। संध्या हो गई, जानकर दशग्रीव बिलखता हुआ (उदास होकर) महल में गया। मंदोदरी ने रावण को समझाकर फिर कहा - ॥ 35(ख)॥ कंत समुझि मन तजहु कुमतिही।
सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही॥ हे कांत! मन में समझकर (विचारकर) कुबुद्धि को छोड़ दो। आप से और रघुनाथ से युद्ध शोभा नहीं देता। उनके छोटे भाई ने एक जरा-सी रेखा खींच दी थी, उसे भी आप नहीं लाँघ सके, ऐसा तो आपका पुरुषत्व है। पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा। जाके दूत केर यह कामा॥ हे प्रियतम! आप उन्हें संग्राम में जीत पाएँगे, जिनके दूत का ऐसा काम है? खेल से ही समुद्र लाँघकर वह वानरों में सिंह (हनुमान) आपकी लंका में निर्भय चला आया! रखवारे हति बिपिन उजारा। देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा॥ रखवालों को मारकर उसने अशोक वन उजाड़ डाला। आपके देखते-देखते उसने अक्षयकुमार को मार डाला और संपूर्ण नगर को जलाकर राख कर दिया। उस समय आपके बल का गर्व कहाँ चला गया था? अब पति मृषा गाल जनि मारहु। मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु॥ अब हे स्वामी! झूठ (व्यर्थ) गाल न मारिए (डींग न हाँकिए) मेरे कहने पर हृदय में कुछ विचार कीजिए। हे पति! आप रघुपति को (निरा) राजा मत समझिए, बल्कि अग-जगनाथ (चराचर के स्वामी) और अतुलनीय बलवान जानिए। बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा॥ राम के बाण का प्रताप तो नीच मारीच भी जानता था। परंतु आपने उसका कहना भी नहीं माना। जनक की सभा में अगणित राजागण थे। वहाँ विशाल और अतुलनीय बलवाले आप भी थे। भंजि धनुष जानकी बिआही। तब संग्राम जितेहु किन ताही॥ वहाँ शिव का धनुष तोड़कर राम ने जानकी को ब्याहा, तब आपने उनको संग्राम में क्यों नहीं जीता? इंद्रपुत्र जयंत उनके बल को कुछ-कुछ जानता है। राम ने पकड़कर, केवल उसकी एक आँख ही फोड़ दी और उसे जीवित ही छोड़ दिया। सूपनखा कै गति तुम्ह देखी। तदपि हृदयँ नहिं लाज बिसेषी॥ शूर्पणखा की दशा तो आपने देख ही ली। तो भी आपके हृदय में (उनसे लड़ने की बात सोचते) विशेष (कुछ भी) लज्जा नहीं आती! दो० - बधि बिराध खर दूषनहि लीलाँ हत्यो कबंध। जिन्होंने विराध और खर-दूषण को मारकर लीला से ही कबंध को भी मार डाला; और जिन्होंने बालि को एक ही बाण से मार दिया, हे दशकंध! आप उन्हें (उनके महत्त्व को) समझिए!॥ 36॥ जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला॥ जिन्होंने खेल से ही समुद्र को बँधा लिया और जो प्रभु सेना सहित सुबेल पर्वत पर उतर पड़े, उन सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढ़ानेवाले) करुणामय भगवान ने आप ही के हित के लिए दूत भेजा। सभा माझ जेहिं तव बल मथा। करि बरूथ महुँ मृगपति जथा॥ जिसने बीच सभा में आकर आपके बल को उसी प्रकार मथ डाला जैसे हाथियों के झुंड में आकर सिंह (उसे छिन्न-भिन्न कर डालता है)। रण में बाँके अत्यंत विकट वीर अंगद और हनुमान जिनके सेवक हैं, तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता मद बहहू॥ हे पति! उन्हें आप बार-बार मनुष्य कहते हैं। आप व्यर्थ ही मान, ममता और मद का बोझ ढो रहे हैं! हा प्रियतम! आपने राम से विरोध कर लिया और काल के विशेष वश होने से आपके मन में अब भी ज्ञान नहीं उत्पन्न होता। काल दंड गहि काहु न मारा। हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा॥ काल दंड (लाठी) लेकर किसी को नहीं मारता। वह धर्म, बल, बुद्धि और विचार को हर लेता है। हे स्वामी! जिसका काल (मरण-समय) निकट आ जाता है, उसे आप ही की तरह भ्रम हो जाता है। दो० - दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु। आपके दो पुत्र मारे गए और नगर जल गया। (जो हुआ सो हुआ) हे प्रियतम! अब भी (इस भूल की) पूर्ति (समाप्ति) कर दीजिए (राम से वैर त्याग दीजिए); और हे नाथ! कृपा के समुद्र रघुनाथ को भजकर निर्मल यश लीजिए॥ 37॥ नारि बचन सुनि बिसिख समाना। सभाँ गयउ उठि होत बिहाना॥ स्त्री के बाण के समान वचन सुनकर वह सबेरा होते ही उठकर सभा में चला गया और सारा भय भुलाकर अत्यंत अभिमान में फूलकर सिंहासन पर जा बैठा। इहाँ राम अंगदहि बोलावा। आइ चरन पंकज सिरु नावा॥ यहाँ (सुबेल पर्वत पर) राम ने अंगद को बुलाया। उन्होंने आकर चरणकमलों में सिर नवाया। बड़े आदर से उन्हें पास बैठाकर खर के शत्रु कृपालु राम हँसकर बोले - बालितनय कौतुक अति मोही। तात सत्य कहुँ पूछउँ तोही॥ हे बालि के पुत्र! मुझे बड़ा कौतूहल है। हे तात! इसी से मैं तुमसे पूछता हूँ, सत्य कहना। जो रावण राक्षसों के कुल का तिलक है और जिसके अतुलनीय बाहुबल की जगतभर में धाक है, तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए। कहहु तात कवनी बिधि पाए॥ उसके चार मुकुट तुमने फेंके। हे तात! बताओ, तुमने उनको किस प्रकार से पाया! (अंगद ने कहा -) हे सर्वज्ञ! हे शरणागत को सुख देनेवाले! सुनिए। वे मुकुट नहीं हैं। वे तो राजा के चार गुण हैं। साम दान अरु दंड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा॥ हे नाथ! वेद कहते हैं कि साम, दान, दंड और भेद - ये चारों राजा के हृदय में बसते हैं। ये नीति-धर्म के चार सुंदर चरण हैं। (किंतु रावण में धर्म का अभाव है) ऐसा जी में जानकर ये नाथ के पास आ गए हैं। दो० - धर्महीन प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस। दशशीश रावण धर्महीन, प्रभु के पद से विमुख और काल के वश में है, इसलिए हे कोसलराज! सुनिए, वे गुण रावण को छोड़कर आपके पास आ गए हैं॥ 38(क)॥ परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार। अंगद की परम चतुरता (पूर्ण उक्ति) कानों से सुनकर उदार राम हँसने लगे। फिर बालि पुत्र ने किले के (लंका के) सब समाचार कहे॥ 38(ख)॥ रिपु के समाचार जब पाए। राम सचिव सब निकट बोलाए॥ जब शत्रु के समाचार प्राप्त हो गए, तब राम ने सब मंत्रियों को पास बुलाया (और कहा -) लंका के चार बड़े विकट दरवाजे हैं। उन पर किस तरह आक्रमण किया जाए, इस पर विचार करो। तब कपीस रिच्छेस बिभीषन। सुमरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन॥ तब वानरराज सुग्रीव, ऋक्षपति जाम्बवान और विभीषण ने हृदय में सूर्य कुल के भूषण रघुनाथ का स्मरण किया और विचार करके उन्होंने कर्तव्य निश्चित किया। वानरों की सेना के चार दल बनाए।
जथाजोग सेनापति कीन्हे। जूथप सकल बोलि तब लीन्हे॥ और उनके लिए यथायोग्य (जैसे चाहिए वैसे) सेनापति नियुक्त किए। फिर सब यूथपतियों को बुला लिया और प्रभु का प्रताप कहकर सबको समझाया, जिसे सुनकर वानर, सिंह के समान गर्जना करके दौड़े। हरषित राम चरन सिर नावहिं। गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिं॥ वे हर्षित होकर राम के चरणों में सिर नवाते हैं और पर्वतों के शिखर ले-लेकर सब वीर दौड़ते हैं। 'कोसलराज रघुवीर की जय हो' पुकारते हुए भालू और वानर गरजते और ललकारते हैं। जानत परम दुर्ग अति लंका। प्रभु प्रताप कपि चले असंका॥ लंका को अत्यंत श्रेष्ठ (अजेय) किला जानते हुए भी वानर प्रभु राम के प्रताप से निडर होकर चले। चारों ओर से घिरी हुई बादलों की घटा की तरह लंका को चारों दिशाओं से घेरकर वे मुँह से डंके और भेरी बजाने लगे। दो० - जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव। महान बल की सीमा वे वानर-भालू सिंह के समान ऊँचे स्वर से 'राम की जय', 'लक्ष्मण की जय', 'वानरराज सुग्रीव की जय' - ऐसी गर्जना करने लगे॥ 39॥ लंकाँ भयउ कोलाहल भारी। सुना दसानन अति अहँकारी॥ लंका में बड़ा भारी कोलाहल (कोहराम) मच गया। अत्यंत अहंकारी रावण ने उसे सुनकर कहा - वानरों की ढिठाई तो देखो! यह कहते हुए हँसकर उसने राक्षसों की सेना बुलाई। आए कीस काल के
प्रेरे। छुधावंत सब निसिचर मेरे॥ बंदर काल की प्रेरणा से चले आए हैं। मेरे राक्षस सभी भूखे हैं। विधाता ने इन्हें घर बैठे भोजन भेज दिया। ऐसा कहकर उस मूर्ख ने अट्टहास किया (वह बड़े जोर से ठहाका मारकर हँसा)। सुभट सकल चारिहुँ दिसि जाहू। धरि धरि भालु कीस सब खाहू॥ (और बोला -) हे वीरो! सब लोग चारों दिशाओं में जाओ और रीछ-वानर सबको पकड़-पकड़कर खाओ। (शिव कहते हैं -) हे उमा! रावण को ऐसा अभिमान था जैसा टिटिहिरी पक्षी पैर ऊपर की ओर करके सोता है (मानो आकाश को थाम लेगा)। चले निसाचर आयसु मागी। गहि कर भिंडिपाल बर साँगी॥ आज्ञा माँगकर और हाथों में उत्तम भिंदिपाल, साँगी (बरछी), तोमर, मुद्गर, प्रचंड फरसे, शूल, दुधारी तलवार, परिघ और पहाड़ों के टुकड़े लेकर राक्षस चले। जिमि अरुनोपल निकर निहारी। धावहिं सठ खग मांस अहारी॥ जैसे मूर्ख मांसाहारी पक्षी लाल पत्थरों का समूह देखकर उस पर टूट पड़ते हैं, (पत्थरों पर लगने से) चोंच टूटने का दुःख उन्हें नहीं सूझता, वैसे ही ये बेसमझ राक्षस दौड़े। दो० - नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर। अनेकों प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और धनुष-बाण धारण किए करोड़ों बलवान और रणधीर राक्षस वीर परकोटे के कँगूरों पर चढ़ गए॥ 40॥ कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे। मेरु के सृंगनि जनु घन बैसे॥ वे परकोटे के कँगूरों पर कैसे शोभित हो रहे हैं, मानो सुमेरु के शिखरों पर बादल बैठे हों। जुझाऊ ढोल और डंके आदि बज रहे हैं, (जिनकी) ध्वनि सुनकर योद्धाओं के मन में (लड़ने का) चाव होता है। बाजहिं भेरि नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिं दरारा॥ अगणित नफीरी और भेरी बज रही है, (जिन्हें) सुनकर कायरों के हृदय में दरारें पड़ जाती हैं। उन्होंने जाकर अत्यंत विशाल शरीरवाले महान योद्धा वानर और भालुओं के ठट्ट (समूह) देखे। धावहिं गनहिं न अवघट घाटा। पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा॥ (देखा कि) वे रीछ-वानर दौड़ते हैं, औघट (ऊँची-नीची, विकट) घाटियों को कुछ नहीं गिनते। पकड़कर पहाड़ों को फोड़कर रास्ता बना लेते हैं। करोड़ों योद्धा कटकटाते और गरजते हैं। दाँतों से ओंठ काटते और खूब डपटते हैं। उत रावन इत राम ई। जयति जयति जय परी लराई॥ उधर रावण की और इधर राम की दुहाई बोली जा रही है। 'जय' 'जय' 'जय' की ध्वनि होते ही लड़ाई छिड़ गई। राक्षस पहाड़ों के ढेर के ढेर शिखरों को फेंकते हैं। वानर कूदकर उन्हें पकड़ लेते हैं और वापस उन्हीं की ओर चलाते हैं। छं० - धरि कुधर खंड प्रचंड मर्कट भालु गढ़ पर डारहीं। प्रचंड वानर और भालू पर्वतों के टुकड़े ले-लेकर किले पर डालते हैं। वे झपटते हैं और राक्षसों के पैर पकड़कर उन्हें पृथ्वी पर पटककर भाग चलते हैं और फिर ललकारते हैं। बहुत ही चंचल और बड़े तेजस्वी वानर-भालू बड़ी फुर्ती से उछलकर किले पर चढ़-चढ़कर गए और जहाँ-तहाँ महलों में घुसकर राम का यश गाने लगे। दो० - एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ। फिर एक-एक राक्षस को पकड़कर वे वानर भाग चले। ऊपर आप और नीचे (राक्षस) योद्धा - इस प्रकार वे (किले से) धरती पर आ गिरते हैं॥ 41॥ राम प्रताप प्रबल कपिजूथा। मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा॥ राम के प्रताप से प्रबल वानरों के झुंड राक्षस योद्धाओं के समूह-के-समूह मसल रहे हैं। वानर फिर जहाँ-तहाँ किले पर चढ़ गए और प्रताप में सूर्य के समान रघुवीर की जय बोलने लगे। चले निसाचर निकर पराई। प्रबल पवन जिमि घन समुदाई॥ राक्षसों के झुंड वैसे ही भाग चले जैसे जोर की हवा चलने पर बादलों के समूह तितर-बितर हो जाते हैं। लंका नगरी में बड़ा भारी हाहाकार मच गया। बालक, स्त्रियाँ और रोगी (असमर्थता के कारण) रोने लगे। सब मिलि देहिं रावनहि गारी। राज करत एहिं मृत्यु हँकारी॥ सब मिलकर रावण को गालियाँ देने लगे कि राज्य करते हुए इसने मृत्यु को बुला लिया। रावण ने जब अपनी सेना का विचलित होना कानों से सुना, तब (भागते हुए) योद्धाओं को लौटाकर वह क्रोधित होकर बोला - जो रन बिमुख सुना मैं काना।
सो मैं हतब कराल कृपाना॥ मैं जिसे रण से पीठ देकर भागा हुआ अपने कानों सुनूँगा, उसे स्वयं भयानक दुधारी तलवार से मारूँगा। मेरा सब कुछ खाया, भाँति-भाँति के भोग किए और अब रणभूमि में प्राण प्यारे हो गए! उग्र बचन सुनि सकल डेराने। चले क्रोध करि सुभट लजाने॥ रावण के उग्र (कठोर) वचन सुनकर सब वीर डर गए और लज्जित होकर क्रोध करके युद्ध के लिए लौट चले। रण में (शत्रु के) सम्मुख (युद्ध करते हुए) मरने में ही वीर की शोभा है। (यह सोचकर) तब उन्होंने प्राणों का लोभ छोड़ दिया। दो० - बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि। बहुत-से अस्त्र-शस्त्र धारण किए, सब वीर ललकार-ललकारकर भिड़ने लगे। उन्होंने परिघों और त्रिशूलों से मार-मारकर सब रीछ-वानरों को व्याकुल कर दिया॥ 42॥ भय आतुर कपि भागत लागे। जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे॥ (शिव कहते हैं -) वानर भयातुर होकर (डर के मारे घबड़ाकर) भागने लगे, यद्यपि हे उमा! आगे चलकर (वे ही) जीतेंगे। कोई कहता है - अंगद-हनुमान कहाँ हैं? बलवान नल, नील और द्विविद कहाँ हैं? निज दल बिकल सुना हनुमाना। पच्छिम द्वार रहा बलवाना॥ हनुमान ने जब अपने दल को विकल (भयभीत) हुआ सुना, उस समय वे बलवान पश्चिम द्वार पर थे। वहाँ उनसे मेघनाद युद्ध कर रहा था। वह द्वार टूटता न था, बड़ी भारी कठिनाई हो रही थी।
पवनतनय मन भा अति क्रोधा। गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा॥ तब पवनपुत्र हनुमान के मन में बड़ा भारी क्रोध हुआ। वे काल के समान योद्धा बड़े जोर से गरजे और कूदकर लंका के किले पर आ गए और पहाड़ लेकर मेघनाद की ओर दौड़े। भंजेउ रथ सारथी निपाता। ताहि हृदय महुँ मारेसि लाता॥ रथ तोड़ डाला, सारथी को मार गिराया और मेघनाद की छाती में लात मारी। दूसरा सारथी मेघनाद को व्याकुल जानकर, उसे रथ में डालकर, तुरंत घर ले आया। दो० - अंगद सुना पवनसुत गढ़ पर गयउ अकेल। इधर अंगद ने सुना कि पवनपुत्र हनुमान किले पर अकेले ही गए हैं, तो रण में बाँके बालि पुत्र वानर के खेल की तरह उछलकर किले पर चढ़ गए॥ 43॥ जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बंदर। राम प्रताप सुमिरि उर अंतर॥ युद्ध में शत्रुओं के विरुद्ध दोनों वानर क्रुद्ध हो गए। हृदय में राम के प्रताप का स्मरण करके दोनों दौड़कर रावण के महल पर जा चढ़े और कोसलराज राम की दुहाई बोलने लगे। कलस सहित गहि भवनु ढहावा। देखि निसाचरपति भय पावा॥ उन्होंने कलश सहित महल को पकड़कर ढहा दिया। यह देखकर राक्षसराज रावण डर गया। सब स्त्रियाँ हाथों से छाती पीटने लगीं (और कहने लगीं -) अब की बार दो उत्पाती वानर (एक साथ) आ गए हैं। कपिलीला करि तिन्हहि डेरावहिं। रामचंद्र कर सुजसु सुनावहिं॥ वानरलीला करके (घुड़की देकर) दोनों उनको डराते हैं और रामचंद्र का सुंदर यश सुनाते हैं। फिर सोने के खंभों को हाथों से पकड़कर उन्होंने (परस्पर) कहा कि अब उत्पात आरंभ किया जाए। गर्जि परे रिपु कटक मझारी। लागे मर्दै भुज बल भारी॥ वे गरजकर शत्रु की सेना के बीच में कूद पड़े और अपने भारी भुजबल से उसका मर्दन करने लगे। किसी की लात से और किसी की थप्पड़ से खबर लेते हैं (और कहते हैं कि) तुम राम को नहीं भजते, उसका यह फल लो। दो० - एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुंड। एक को दूसरे से (रगड़कर) मसल डालते हैं और सिरों को तोड़कर फेंकते हैं। वे सिर जाकर रावण के सामने गिरते हैं और ऐसे फूटते हैं, मानो दही के कुंड फूट रहे हों॥ 44॥ महा महा मुखिआ जे पावहिं। ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं॥ जिन बड़े-बड़े मुखियों (प्रधान सेनापतियों) को पकड़ पाते हैं, उनके पैर पकड़कर उन्हें प्रभु के पास फेंक देते हैं। विभीषण उनके नाम बतलाते हैं और राम उन्हें भी अपना धाम (परम पद) दे देते हैं। खल मनुजाद द्विजामिष भोगी। पावहिं गति जो जाचत जोगी॥ ब्राह्मणों का मांस खानेवाले वे नरभोजी दुष्ट राक्षस भी वह परम गति पाते हैं, जिसकी योगी भी याचना किया करते हैं (परंतु सहज में नहीं पाते)। (शिव कहते हैं -) हे उमा! राम बड़े ही कोमल हृदय और करुणा की खान हैं। (वे सोचते हैं कि) राक्षस मुझे वैरभाव से ही सही, स्मरण तो करते ही हैं। देहिं परम गति सो जियँ जानी। अस कृपाल को कहहु भवानी॥ ऐसा हृदय में जानकर वे उन्हें परमगति (मोक्ष) देते हैं। हे भवानी! कहो तो ऐसे कृपालु (और) कौन हैं? प्रभु का ऐसा स्वभाव सुनकर भी जो मनुष्य भ्रम त्याग कर उनका भजन नहीं करते, वे अत्यंत मंद बुद्धि और परम भाग्यहीन हैं। अंगद अरु हनुमंत प्रबेसा। कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा॥ राम ने कहा कि अंगद और हनुमान किले में घुस गए हैं। दोनों वानर लंका में (विध्वंस करते) कैसे शोभा देते हैं, जैसे दो मंदराचल समुद्र को मथ रहे हों। दो० - भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अंत। भुजाओं के बल से शत्रु की सेना को कुचलकर और मसलकर, फिर दिन का अंत होता देखकर हनुमान और अंगद दोनों कूद पड़े और श्रम थकावट रहित होकर वहाँ आ गए, जहाँ भगवान राम थे॥ 45॥ प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए।
देखि सुभट रघुपति मन भाए॥ उन्होंने प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाए। उत्तम योद्धाओं को देखकर रघुनाथ मन में बहुत प्रसन्न हुए। राम ने कृपा करके दोनों को देखा, जिससे वे श्रमरहित और परम सुखी हो गए। गए जानि अंगद हनुमाना। फिरे भालु मर्कट भट नाना॥ अंगद और हनुमान को गए जानकर सभी भालू और वानर वीर लौट पड़े। राक्षसों ने प्रदोष (सायं) काल का बल पाकर रावण की दुहाई देते हुए वानरों पर धावा किया। निसिचर अनी देखि कपि फिरे। जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे॥ राक्षसों की सेना आती देखकर वानर लौट पड़े और वे योद्धा जहाँ-तहाँ कटकटाकर भिड़ गए। दोनों ही दल बड़े बलवान हैं। योद्धा ललकार-ललकारकर ल़ड़ते हैं, कोई हार नहीं मानते। महाबीर निसिचर सब कारे। नाना बरन बलीमुख भारे॥ सभी राक्षस महान वीर और अत्यंत काले हैं और वानर विशालकाय तथा अनेकों रंगों के हैं। दोनों ही दल बलवान हैं और समान बलवाले योद्धा हैं। वे क्रोध करके लड़ते हैं और खेल करते (वीरता दिखलाते) हैं। प्राबिट सरद पयोद घनेरे। लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे॥ (राक्षस और वानर युद्ध करते हुए ऐसे जान पड़ते हैं) मानो क्रमशः वर्षा और शरद ऋतु में बहुत-से बादल पवन से प्रेरित होकर लड़ रहे हों। अकंपन और अतिकाय इन सेनापतियों ने अपनी सेना को विचलित होते देखकर माया की। भयउ निमिष महँ अति अँधिआरा। बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा॥ पलभर में अत्यंत अंधकार हो गया। खून, पत्थर और राख की वर्षा होने लगी। दो० - देखि निबिड़ तम दसहुँ दिसि कपिदल भयउ खभार। दसों दिशाओं में अत्यंत घना अंधकार देखकर वानरों की सेना में खलबली पड़ गई। एक को एक (दूसरा) नहीं देख सकता और सब जहाँ-तहाँ पुकार रहे हैं॥ 46॥ सकल मरमु रघुनायक जाना। लिए बोलि अंगद हनुमाना॥ रघुनाथ सब रहस्य जान गए। उन्होंने अंगद और हनुमान को बुला लिया और सब समाचार कहकर समझाया। सुनते ही वे दोनों कपिश्रेष्ठ क्रोध करके दौड़े। पुनि कृपाल हँसि चाप चढ़ावा। पावक सायक सपदि चलावा॥ फिर कृपालु राम ने हँसकर धनुष चढ़ाया और तुरंत ही अग्निबाण चलाया, जिससे प्रकाश हो गया, कहीं अँधेरा नहीं रह गया। जैसे ज्ञान के उदय होने पर (सब प्रकार के) संदेह दूर हो जाते हैं। भालु बलीमुख पाई प्रकासा। धाए हरष बिगत श्रम त्रासा॥ भालू और वानर प्रकाश पाकर श्रम और भय से रहित तथा प्रसन्न होकर दौड़े। हनुमान और अंगद रण में गरज उठे। उनकी हाँक सुनते ही राक्षस भाग छूटे। भागत भट पटकहिं धरि धरनी। करहिं भालु कपि अद्भुत करनी॥ भागते हुए राक्षस योद्धाओं को वानर और भालू पकड़कर पृथ्वी पर दे मारते हैं और अद्भुत (आश्चर्यजनक) करनी करते हैं (युद्धकौशल दिखलाते हैं)। पैर पकड़कर उन्हें समुद्र में डाल देते हैं। वहाँ मगर, साँप और मच्छ उन्हें पकड़-पकड़कर खा डालते हैं। दो० - कछु मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़े पराइ। कुछ मारे गए, कुछ घायल हुए, कुछ भागकर गढ़ पर चढ़ गए। अपने बल से शत्रुदल को विचलित करके रीछ और वानर (वीर) गरज रहे हैं॥ 47॥ निसा जानि कपि चारिउ अनी। आए जहाँ कोसला धनी॥ रात हुई जानकर वानरों की चारों सेनाएँ (टुकड़ियाँ) वहाँ आईं जहाँ कोसलपति राम थे। राम ने ज्यों ही सबको कृपा करके देखा त्यों ही ये वानर श्रमरहित हो गए। उहाँ दसानन सचिव हँकारे। सब सन कहेसि सुभट जे मारे॥ वहाँ (लंका में) रावण ने मंत्रियों को बुलाया और जो योद्धा मारे गए थे, उन सबको सबसे बताया। (उसने कहा -) वानरों ने आधी सेना का संहार कर दिया! अब शीघ्र बताओ, क्या विचार (उपाय) करना चाहिए? माल्यवंत अति जरठ निसाचर। रावन मातु पिता मंत्री बर॥ माल्यवंत (नाम का एक) अत्यंत बूढ़ा राक्षस था। वह रावण की माता का पिता (अर्थात उसका नाना) और श्रेष्ठ मंत्री था। वह अत्यंत पवित्र नीति के वचन बोला - हे तात! कुछ मेरी सीख भी सुनो - जब ते तुम्ह सीता हरि आनी। असगुन होहिं न जाहिं बखानी॥ जब से तुम सीता को हर लाए हो, तब से इतने अपशकुन हो रहे हैं कि उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। वेद-पुराणों ने जिनका यश गाया है, उन राम से विमुख होकर किसी ने सुख नहीं पाया।
दो० - हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान। भाई हिरण्यकशिपु सहित हिरण्याक्ष को बलवान मधु-कैटभ को जिन्होंने मारा था, वे ही कृपा के समुद्र भगवान (रामरूप से) अवतरित हुए हैं॥ 48(क)॥ कालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध। जो कालस्वरूप हैं, दुष्टों के समूहरूपी वन के भस्म करनेवाले (अग्नि) हैं, गुणों के धाम और ज्ञानघन हैं एवं शिव और ब्रह्मा भी जिनकी सेवा करते हैं, उनसे वैर कैसा?॥ 48(ख)॥ परिहरि बयरु देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही॥ (अतः) वैर छोड़कर उन्हें जानकी को दे दो और कृपानिधान परम स्नेही राम का भजन करो। रावण को उसके वचन बाण के समान लगे। (वह बोला -) अरे अभागे! मुँह काला करके (यहाँ से) निकल जा। बूढ़ भएसि न त मरतेउँ तोही। अब जनि नयन देखावसि मोही॥ तू बूढ़ा हो गया, नहीं तो तुझे मार ही डालता। अब मेरी आँखों को अपना मुँह न दिखला। रावण के ये वचन सुनकर उसने (माल्यवान ने) अपने मन में ऐसा अनुमान किया कि इसे कृपानिधान राम अब मारना ही चाहते हैं। सो उठि गयउ कहत दुर्बादा। तब सकोप बोलेउ घननादा॥ वह रावण को दुर्वचन कहता हुआ उठकर चला गया। तब मेघनाद क्रोधपूर्वक बोला - सबेरे मेरी करामात देखना। मैं बहुत कुछ करूँगा; थोड़ा क्या कहूँ? (जो कुछ वर्णन करूँगा थोड़ा ही होगा।) सुनि सुत बचन भरोसा आवा।
प्रीति समेत अंक बैठावा॥ पुत्र के वचन सुनकर रावण को भरोसा आ गया। उसने प्रेम के साथ उसे गोद में बैठा लिया। विचार करते-करते ही सबेरा हो गया। वानर फिर चारों दरवाजों पर जा लगे। कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ु घेरा। नगर कोलाहलु भयउ घनेरा॥ वानरों ने क्रोध करके दुर्गम किले को घेर लिया। नगर में बहुत ही कोलाहल (शोर) मच गया। राक्षस बहुत तरह के अस्त्र-शस्त्र धारण करके दौड़े और उन्होंने किले पर पहाड़ों के शिखर ढहाए। छं० - ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले। उन्होंने पर्वतों के करोड़ों शिखर ढहाए, अनेक प्रकार से गोले चलने लगे। वे गोले ऐसा घहराते हैं जैसे वज्रपात हुआ हो (बिजली गिरी हो) और योद्धा ऐसे गरजते हैं, मानो प्रलयकाल के बादल हों। विकट वानर योद्धा भिड़ते हैं, कट जाते हैं (घायल हो जाते हैं), उनके शरीर जर्जर (चलनी) हो जाते हैं, तब भी वे लटते नहीं (हिम्मत नहीं हारते)। वे पहाड़ उठाकर उसे किले पर फेंकते हैं। राक्षस जहाँ के तहाँ (जो जहाँ होते हैं, वहीं) मारे जाते हैं। दो० - मेघनाद सुनि श्रवन अस गढु पुनि छेंका आइ। मेघनाद ने कानों से ऐसा सुना कि वानरों ने आकर फिर किले को घेर लिया है। तब वह वीर किले से उतरा और डंका बजाकर उनके सामने चला॥ 49॥ कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोक
बिख्याता॥ (मेघनाद ने पुकारकर कहा -) समस्त लोकों में प्रसिद्ध धनुर्धर कोसलाधीश दोनों भाई कहाँ हैं? नल, नील, द्विविद, सुग्रीव और बल की सीमा अंगद और हनुमान कहाँ हैं? कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही। आजु सबहि हठि मारउँ ओही॥ भाई से द्रोह करनेवाला विभीषण कहाँ है? आज मैं सबको और उस दुष्ट को तो हठपूर्वक (अवश्य ही) मारूँगा। ऐसा कहकर उसने धनुष पर कठिन बाणों का संधान किया और अत्यंत क्रोध करके उसे कान तक खींचा। सर समूह सो छाड़ै लागा। जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा॥ वह बाणों के समूह छोड़ने लगा। मानो बहुत-से पंखवाले साँप दौड़े जा रहे हों। जहाँ-तहाँ वानर गिरते दिखाई पड़ने लगे। उस समय कोई भी उसके सामने न हो सके। जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा। बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा॥ रीछ-वानर जहाँ-तहाँ भाग चले। सबको युद्ध की इच्छा भूल गई। रणभूमि में ऐसा एक भी वानर या भालू नहीं दिखाई पड़ा, जिसको उसने प्राणमात्र अवशेष न कर दिया हो (अर्थात जिसके केवल प्राणमात्र ही न बचे हों; बल, पुरुषार्थ सारा जाता न रहा हो)। दो० - दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर। फिर उसने सबको दस-दस बाण मारे, वानर वीर पृथ्वी पर गिर पड़े। बलवान और धीर मेघनाद सिंह के समान नाद करके गरजने लगा॥ 50॥ देखि पवनसुत कटक बिहाला। क्रोधवंत जनु धायउ काला॥ सारी सेना को बेहाल (व्याकुल) देखकर पवनसुत हनुमान क्रोध करके ऐसे दौड़े मानो स्वयं काल दौड़ आता हो। उन्होंने तुरंत एक बड़ा भारी पहाड़ उखाड़ लिया और बड़े ही क्रोध के साथ उसे मेघनाद पर छोड़ा। आवत देखि गयउ नभ सोई। रथ सारथी तुरग सब खोई॥ पहाड़ को अपनी ओर आते देखकर वह आकाश में उड़ गया। (उसके) रथ, सारथी और घोड़े सब नष्ट हो गए (चूर-चूर हो गए)। हनुमान उसे बार-बार ललकारते हैं। पर वह निकट नहीं आता, क्योंकि वह उनके बल का मर्म जानता था। रघुपति निकट गयउ घननादा। नाना भाँति करेसि दुर्बादा॥ (तब) मेघनाद रघुनाथ के पास गया और उसने (उनके प्रति) अनेकों प्रकार के दुर्वचनों का प्रयोग किया। (फिर) उसने उन पर अस्त्र-शस्त्र तथा और सब हथियार चलाए। प्रभु ने खेल में ही सबको काटकर अलग कर दिया। देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना। करै लाग माया बिधि नाना॥ राम का प्रताप (सामर्थ्य) देखकर वह मूर्ख लज्जित हो गया और अनेकों प्रकार की माया करने लगा। जैसे कोई व्यक्ति छोटा-सा साँप का बच्चा हाथ में लेकर गरुड़ को डरावे और उससे खेल करे। दो० - जासु प्रबल माया बस सिव बिरंचि बड़ छोट। शिव और ब्रह्मा तक बड़े-छोटे (सभी) जिनकी अत्यंत बलवान माया के वश में हैं, नीच बुद्धि निशाचर उनको अपनी माया दिखलाता है॥ 51॥ नभ चढ़ि बरष बिपुल अंगारा। महि ते प्रगट होहिं
जलधारा॥ आकाश में (ऊँचे) चढ़कर वह बहुत-से अंगारे बरसाने लगा। पृथ्वी से जल की धाराएँ प्रकट होने लगीं। अनेक प्रकार के पिशाच तथा पिशाचिनियाँ नाच-नाचकर 'मारो, काटो' की आवाज करने लगीं। बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़ा। बरषइ कबहुँ उपल बहु छाड़ा॥ वह कभी तो विष्ठा, पीब, खून, बाल और हड्डियाँ बरसाता था और कभी बहुत-से पत्थर फेंक देता था। फिर उसने धूल बरसाकर ऐसा अँधेरा कर दिया कि अपना ही पसारा हुआ हाथ नहीं सूझता था। कपि अकुलाने माया देखें। सब कर मरन बना ऐहि लेखें॥ माया देखकर वानर अकुला उठे। वे सोचने लगे कि इस हिसाब से (इसी तरह रहा) तो सबका मरण आ बना। यह कौतुक देखकर राम मुसकराए। उन्होंने जान लिया कि सब वानर भयभीत हो गए हैं। एक बान काटी सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया॥ तब राम ने एक ही बाण से सारी माया काट डाली, जैसे सूर्य अंधकार के समूह को हर लेता है। तदनंतर उन्होंने कृपाभरी दृष्टि से वानर-भालुओं की ओर देखा, (जिससे) वे ऐसे प्रबल हो गए कि रण में रोकने पर भी नहीं रुकते थे। दो० - आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ। राम से आज्ञा माँगकर, अंगद आदि वानरों के साथ हाथों में धनुष-बाण लिए हुए लक्ष्मण क्रुद्ध होकर चले॥ 52॥ छतज नयन उर बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला॥ उनके लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं। हिमाचल पर्वत के समान उज्ज्वल (गौरवर्ण) शरीर कुछ ललाई लिए हुए है। इधर रावण ने भी बड़े-बड़े योद्धा भेजे, जो अनेकों अस्त्र-शस्त्र लेकर दौड़े। भूधर नख बिटपायुध धारी। धाए कपि जय राम पुकारी॥ पर्वत, नख और वृक्षरूपी हथियार धारण किए हुए वानर 'राम की जय' पुकारकर दौड़े। वानर और राक्षस सब जोड़ी से जोड़ी भिड़ गए। इधर और उधर दोनों ओर जय की इच्छा कम न थी (अर्थात प्रबल थी)। मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं। कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं॥ वानर उनको घूँसों और लातों से मारते हैं, दाँतों से काटते हैं। विजयशील वानर उन्हें मारकर फिर डाँटते भी हैं। 'मारो, मारो, पकड़ो, पकड़ो, पकड़कर मार दो, सिर तोड़ दो और भुजाऐँ पकड़कर उखाड़ लो'। असि रव पूरि रही नव खंडा। धावहिं जहँ तहँ रुंड प्रचंडा॥ नवों खंडों में ऐसी आवाज भर रही है। प्रचंड रुंड (धड़) जहाँ-तहाँ दौड़ रहे हैं। आकाश में देवतागण यह कौतुक देख रहे हैं। उन्हें कभी खेद होता है और कभी आनंद। दो० - रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़ाइ। खून गड्ढों में भर-भरकर जम गया है और उस पर धूल उड़कर पड़ रही है (वह दृश्य ऐसा है) मानो अंगारों के ढेरों पर राख छा रही हो॥ 53॥ घायल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमति किंसुक के तरु जैसे॥ घायल वीर कैसे शोभित हैं, जैसे फूले हुए पलाश के पेड़। लक्ष्मण और मेघनाद दोनों योद्धा अत्यंत क्रोध करके एक-दूसरे से भिड़ते हैं। एकहि एक सकइ नहिं जीती। निसिचर छल बल करइ अनीती॥ एक-दूसरे को (कोई किसी को) जीत नहीं सकता। राक्षस छल-बल (माया) और अनीति (अधर्म) करता है, तब भगवान अनंत (लक्ष्मण) क्रोधित हुए और उन्होंने तुरंत उसके रथ को तोड़ डाला और सारथी को टुकड़े-टुकड़े कर दिए! नाना
बिधि प्रहार कर सेषा। राच्छस भयउ प्रान अवसेषा॥ शेष (लक्ष्मण) उस पर अनेक प्रकार से प्रहार करने लगे। राक्षस के प्राणमात्र शेष रह गए। रावणपुत्र मेघनाद ने मन में अनुमान किया कि अब तो प्राण संकट आ बना, ये मेरे प्राण हर लेंगे। बीरघातिनी छाड़िसि साँगी। तेजपुंज लछिमन उर लागी॥ तब उसने वीरघातिनी शक्ति चलाई। वह तेजपूर्ण शक्ति लक्ष्मण की छाती में लगी। शक्ति लगने से उन्हें मूर्च्छा आ गई। तब मेघनाद भय छोड़कर उनके पास चला गया। दो० - मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ। मेघनाद के समान सौ करोड़ (अगणित) योद्धा उन्हें उठा रहे हैं, परंतु जगत के आधार शेष (लक्ष्मण) उनसे कैसे उठते? तब वे लजाकर चले गए॥ 54॥ सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू। जारइ भुवन चारिदस आसू॥ (शिव कहते हैं -) हे गिरिजे! सुनो, (प्रलयकाल में) जिन (शेषनाग) के क्रोध की अग्नि चौदहों भुवनों को तुरंत ही जला डालती है और देवता, मनुष्य तथा समस्त चराचर (जीव) जिनकी सेवा करते हैं, उनको संग्राम में कौन जीत सकता है? यह कौतूहल जानइ सोई। जा पर कृपा राम कै होई॥ इस लीला को वही जान सकता है, जिस पर राम की कृपा हो। संध्या होने पर दोनों ओर की सेनाएँ लौट पड़ीं, सेनापति अपनी-अपनी सेनाएँ सँभालने लगे। व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥ व्यापक, ब्रह्म, अजेय, संपूर्ण ब्रह्मांड के ईश्वर और करुणा की खान राम ने पूछा - लक्ष्मण कहाँ है? तब तक हनुमान उन्हें ले आए। छोटे भाई को (इस दशा में) देखकर प्रभु ने बहुत ही दुःख माना। जामवंत कह बैद सुषेना। लंकाँ रहइ को पठई लेना॥ जाम्बवान ने कहा - लंका में सुषेण वैद्य रहता है, उसे लाने के लिए किसको भेजा जाए? हनुमान छोटा रूप धरकर गए और सुषेण को उसके घर समेत तुरंत ही उठा लाए। दो० - राम पदारबिंद सिर नायउ आइ सुषेन। सुषेण ने आकर राम के चरणारविंदों में सिर नवाया। उसने पर्वत और औषध का नाम बताया, (और कहा कि) हे पवनपुत्र! औषधि लेने जाओ॥ 55॥ राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभंजनसुत बल भाषी॥ राम के चरणकमलों को हृदय में रखकर पवनपुत्र हनुमान अपना बल बखानकर (अर्थात मैं अभी लिए आता हूँ, ऐसा कहकर) चले। उधर एक गुप्तचर ने रावण को इस रहस्य की खबर दी। तब रावण कालनेमि के घर आया। दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना। पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना॥ रावण ने उसको सारा मर्म (हाल) बतलाया। कालनेमि ने सुना और बार-बार सिर पीटा (खेद प्रकट किया)। (उसने कहा -) तुम्हारे देखते-देखते जिसने नगर जला डाला, उसका मार्ग कौन रोक सकता है? भजि रघुपति करु हित आपना। छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना॥ रघुनाथ का भजन करके तुम अपना कल्याण करो! हे नाथ! झूठी बकवास छोड़ दो। नेत्रों को आनंद देनेवाले नीलकमल के समान सुंदर श्याम शरीर को अपने हृदय में रखो। मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू। महा मोह निसि सूतत जागू॥ मैं-तू (भेद-भाव) और ममतारूपी मूढ़ता को त्याग दो। महामोह (अज्ञान)रूपी रात्रि में सो रहे हो, सो जाग उठो, जो कालरूपी सर्प का भी भक्षक है, कहीं स्वप्न में भी वह रण में जीता जा सकता है? दो० - सुनि दसकंठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह
बिचार। उसकी ये बातें सुनकर रावण बहुत ही क्रोधित हुआ। तब कालनेमि ने मन में विचार किया कि (इसके हाथ से मरने की अपेक्षा) राम के दूत के हाथ से ही मरूँ तो अच्छा है। यह दुष्ट तो पाप समूह में रत है॥ 56॥ अस कहि चला रचिसि मग माया। सर मंदिर बर बाग बनाया॥ वह मन-ही-मन ऐसा कहकर चला और उसने मार्ग में माया रची। तालाब, मंदिर और सुंदर बाग बनाया। हनुमान ने सुंदर आश्रम देखकर सोचा कि मुनि से पूछकर जल पी लूँ, जिससे थकावट दूर हो जाए। राच्छस कपट बेष तहँ सोहा। मायापति दूतहि चह मोहा॥ राक्षस वहाँ कपट (से मुनि) का वेष बनाए विराजमान था। वह मूर्ख अपनी माया से मायापति के दूत को मोहित करना चाहता था। मारुति ने उसके पास जाकर मस्तक नवाया। वह राम के गुणों की कथा कहने लगा। होत महा रन रावन रामहिं। जितिहहिं राम न संसय या महिं॥ (वह बोला -) रावण और राम में महान युद्ध हो रहा है। राम जीतेंगे, इसमें संदेह नहीं है। हे भाई! मैं यहाँ रहता हुआ ही सब देख रहा हूँ। मुझे ज्ञानदृष्टि का बहुत बड़ा बल है। मागा जल तेहिं दीन्ह कमंडल। कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल॥ हनुमान ने उससे जल माँगा, तो उसने कमंडलु दे दिया। हनुमान ने कहा - थोड़े जल से मैं तृप्त नहीं होने का। तब वह बोला - तालाब में स्नान करके तुरंत लौट आओ तो मैं तुम्हे दीक्षा दूँ, जिससे तुम ज्ञान प्राप्त करो। दो० - सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान। तालाब में प्रवेश करते ही एक मादा मगर ने अकुलाकर उसी समय हनुमान का पैर पकड़ लिया। हनुमान ने उसे मार डाला। तब वह दिव्य देह धारण करके विमान पर चढ़कर आकाश को चली॥ 57॥ कपि तव दरस भइउँ निष्पापा। मिटा तात मुनिबर कर सापा॥ (उसने कहा -) हे वानर! मैं तुम्हारे दर्शन से पापरहित हो गई। हे तात! श्रेष्ठ मुनि का शाप मिट गया। हे कपि! यह मुनि नहीं है, घोर निशाचर है। मेरा वचन सत्य मानो। अस कहि गई अपछरा जबहीं। निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं॥ ऐसा कहकर ज्यों ही वह अप्सरा गई, त्यों ही हनुमान निशाचर के पास गए। हनुमान ने कहा - हे मुनि! पहले गुरुदक्षिणा ले लीजिए। पीछे आप मुझे मंत्र दीजिएगा। सिर लंगूर लपेटि पछारा। निज तनु प्रगटेसि मरती बारा॥ हनुमान ने उसके सिर को पूँछ में लपेटकर उसे पछाड़ दिया। मरते समय उसने अपना (राक्षसी) शरीर प्रकट किया। उसने राम-राम कहकर प्राण छोड़े। यह (उसके मुँह से राम-राम का उच्चारण) सुनकर हनुमान मन में हर्षित होकर चले। देखा सैल न औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥ उन्होंने पर्वत को देखा, पर औषध न पहचान सके। तब हनुमान ने एकदम से पर्वत को ही उखाड़ लिया। पर्वत लेकर हनुमान रात ही में आकाश मार्ग से दौड़ चले और अयोध्यापुरी के ऊपर पहुँच गए। दो० - देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि। भरत ने आकाश में अत्यंत विशाल स्वरूप देखा, तब मन में अनुमान किया कि यह कोई राक्षस है। उन्होंने कान तक धनुष को खींचकर बिना फल का एक बाण मारा॥ 58॥ परेउ मुरुछि महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक॥ बाण लगते ही हनुमान 'राम, राम, रघुपति' का उच्चारण करते हुए मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। प्रिय वचन (रामनाम) सुनकर भरत उठकर दौड़े और बड़ी उतावली से हनुमान के पास आए। बिकल बिलोकि कीस उर लावा। जागत नहिं बहु भाँति जगावा॥ हनुमान को व्याकुल देखकर उन्होंने हृदय से लगा लिया। बहुत तरह से जगाया, पर वे जागते न थे! तब भरत का मुख उदास हो गया। वे मन में बड़े दुःखी हुए और नेत्रों में (विषाद के आँसुओं का) जल भरकर ये वचन बोले - जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा। तेहिं पुनि यह दारुन दुःख
दीन्हा॥ जिस विधाता ने मुझे राम से विमुख किया, उसी ने फिर यह भयानक दुःख भी दिया। यदि मन, वचन और शरीर से राम के चरणकमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो, तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला। जौं मो पर रघुपति अनुकूला॥ और यदि रघुनाथ मुझ पर प्रसन्न हों तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाए। यह वचन सुनते ही कपिराज हनुमान 'कोसलपति राम की जय हो, जय हो' कहते हुए उठ बैठे। सो० - लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल। भरत ने वानर (हनुमान) को हृदय से लगा लिया, उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनंद तथा प्रेम के आँसुओं का) जल भर आया। रघुकुलतिलक राम का स्मरण करके भरत के हृदय में प्रीति समाती न थी॥ 59॥ तात कुसल कहु सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी॥ (भरत बोले -) हे तात! छोटे भाई लक्ष्मण तथा माता जानकी सहित सुखनिधान राम की कुशल कहो। वानर (हनुमान) ने संक्षेप में सब कथा कही। सुनकर भरत दुःखी हुए और मन में पछताने लगे। अहह दैव मैं कत जग जायउँ। प्रभु के एकहु काज न आयउँ॥ हा दैव! मैं जगत में क्यों जन्मा? प्रभु के एक भी काम न आया। फिर कुअवसर (विपरीत समय) जानकर मन में धीरज धरकर बलवीर भरत हनुमान से बोले - तात गहरु होइहि तोहि जाता। काजु नसाइहि होत प्रभाता॥ हे तात! तुमको जाने में देर होगी और सबेरा होते ही काम बिगड़ जाएगा। (अतः) तुम पर्वत सहित मेरे बाण पर चढ़ जाओ, मैं तुमको वहाँ भेज दूँ जहाँ कृपा के धाम राम हैं। सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। मोरें भार चलिहि किमि बाना॥ भरत की यह बात सुनकर (एक बार तो) हनुमान के मन में अभिमान उत्पन्न हुआ कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा? (किंतु) फिर राम के प्रभाव का विचार करके वे भरत के चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोले - दो० - तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत। हे नाथ! हे प्रभो! मैं आपका प्रताप हृदय में रखकर तुरंत चला जाऊँगा। ऐसा कहकर आज्ञा पाकर और भरत के चरणों की वंदना करके हनुमान चले॥ 60(क)॥ भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार। भरत के बाहुबल, शील (सुंदर स्वभाव), गुण और प्रभु के चरणों में अपार प्रेम की मन-ही-मन बारंबार सराहना करते हुए मारुति हनुमान चले जा रहे हैं॥ 60(ख)॥ उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी॥ वहाँ लक्ष्मण को देखकर राम साधारण मनुष्यों के अनुसार (समान) वचन बोले - आधी रात बीत चुकी है, हनुमान नहीं आए। यह कहकर राम ने छोटे भाई लक्ष्मण को उठाकर हृदय से लगा लिया। सकहु न दुखित देखि मोहि काउ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ॥ (और बोले -) हे भाई! तुम मुझे कभी दुःखी नहीं देख सकते थे। तुम्हारा स्वभाव सदा से ही कोमल था। मेरे हित के लिए तुमने माता-पिता को भी छोड़ दिया और वन में जाड़ा, गरमी और हवा सब सहन किया। सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई॥ हे भाई! वह प्रेम अब कहाँ है? मेरे व्याकुलतापूर्वक वचन सुनकर उठते क्यों नहीं? यदि मैं जानता कि वन में भाई का विछोह होगा तो मैं पिता का वचन (जिसका मानना मेरे लिए परम कर्तव्य था) उसे भी न मानता। सुत बित नारि
भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥ पुत्र, धन, स्त्री, घर और परिवार - ये जगत में बार-बार होते और जाते हैं, परंतु जगत में सहोदर भाई बार-बार नहीं मिलता। हृदय में ऐसा विचार कर हे तात! जागो। जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना॥ जैसे पंख बिना पक्षी, मणि बिना सर्प और सूँड़ बिना श्रेष्ठ हाथी अत्यंत दीन हो जाते हैं, हे भाई! यदि कहीं जड़ दैव मुझे जीवित रखे तो तुम्हारे बिना मेरा जीवन भी ऐसा ही होगा। जैहउँ अवध कौन मुहु लाई। नारि हेतु प्रिय भाई गँवाई॥ स्त्री के लिए प्यारे भाई को खोकर, मैं कौन-सा मुँह लेकर अवध जाऊँगा? मैं जगत में बदनामी भले ही सह लेता (कि राम में कुछ भी वीरता नहीं है जो स्त्री को खो बैठे)। स्त्री की हानि से (इस हानि को देखते) कोई विशेष क्षति नहीं थी। अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा॥ अब तो हे पुत्र! मेरा निष्ठुर और कठोर हृदय यह अपयश और तुम्हारा शोक दोनों ही सहन करेगा। हे तात! तुम अपनी माता के एक ही पुत्र और उसके प्राणाधार हो। सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी॥ सब प्रकार से सुख देनेवाला और परम हितकारी जानकर उन्होंने तुम्हें हाथ पकड़कर मुझे सौंपा था। मैं अब जाकर उन्हें क्या उत्तर दूँगा? हे भाई! तुम उठकर मुझे सिखाते (समझाते) क्यों नहीं? बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन। स्रवत सलिल राजिव दल लोचन॥ सोच से छुड़ानेवाले राम बहुत प्रकार से सोच कर रहे हैं। उनके कमल की पंखुड़ी के समान नेत्रों से (विषाद के आँसुओं का) जल बह रहा है। (शिव कहते हैं -) हे उमा! रघुनाथ एक (अद्वितीय) और अखंड (वियोगरहित) हैं। भक्तों पर कृपा करनेवाले भगवान ने (लीला करके) मनुष्य की दशा दिखलाई है। दो० - प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर। प्रभु के (लीला के लिए किए गए) प्रलाप को कानों से सुनकर वानरों के समूह व्याकुल हो गए। (इतने में ही) हनुमान आ गए, जैसे करुण रस (के प्रसंग) में वीर रस (का प्रसंग) आ गया हो॥ 61॥ हरषि राम भेटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥ राम हर्षित होकर हनुमान से गले लगकर मिले। प्रभु परम सुजान (चतुर) और अत्यंत ही कृतज्ञ हैं। तब वैद्य (सुषेण) ने तुरंत उपाय किया, (जिससे) लक्ष्मण हर्षित होकर उठ बैठे। हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता॥ प्रभु भाई को हृदय से लगाकर मिले। भालू और वानरों के समूह सब हर्षित हो गए। फिर हनुमान ने वैद्य को उसी प्रकार वहाँ पहुँचा दिया, जिस प्रकार वे उस बार (पहले) उसे ले आए थे। यह बृत्तांत दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ॥ यह समाचार जब रावण ने सुना, तब उसने अत्यंत विषाद से बार-बार सिर पीटा। वह व्याकुल होकर कुंभकर्ण के पास गया और बहुत-से उपाय करके उसने उसको जगाया। जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा॥ कुंभकर्ण जगा (उठ बैठा)। वह कैसा दिखाई देता है मानो स्वयं काल ही शरीर धारण करके बैठा हो। कुंभकर्ण ने पूछा - हे भाई! कहो तो, तुम्हारे मुख सूख क्यों रहे हैं? कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी॥ उस अभिमानी (रावण) ने उससे जिस प्रकार से वह सीता को हर लाया था (तब से अब तक की) सारी कथा कही। (फिर कहा -) हे तात! वानरों ने सब राक्षस मार डाले। बड़े-बड़े योद्धाओं का भी संहार कर डाला। दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी॥ दुर्मुख, देवशत्रु (देवांतक), मनुष्य भक्षक (नरांतक), भारी योद्धा अतिकाय और अकंपन तथा महोदर आदि दूसरे सभी रणधीर वीर रणभूमि में मारे गए। दो० - सुनि दसकंधर बचन
तब कुंभकरन बिलखान। तब रावण के वचन सुनकर कुंभकर्ण बिलखकर (दुःखी होकर) बोला - अरे मूर्ख! जगज्जननी जानकी को हर लाकर अब कल्याण चाहता है?॥ 62॥ भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥ हे राक्षसराज! तूने अच्छा नहीं किया। अब आकर मुझे क्यों जगाया? हे तात! अब भी अभिमान छोड़कर राम को भजो तो कल्याण होगा। हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से
पायक॥ हे रावण! जिनके हनुमान-सरीखे सेवक हैं, वे रघुनाथ क्या मनुष्य हैं? हाय भाई! तूने बुरा किया, जो पहले ही आकर मुझे यह हाल नहीं सुनाया। कीन्हेहु प्रभु बिरोध तेहि देवक। सिव बिरंचि सुर जाके सेवक॥ हे स्वामी! तुमने उस परम देवता का विरोध किया, जिसके शिव, ब्रह्मा आदि देवता सेवक हैं। नारद मुनि ने मुझे जो ज्ञान कहा था, वह मैं तुझसे कहता; पर अब तो समय जाता रहा। अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई। लोचन सुफल करौं मैं जाई॥ हे भाई! अब तो (अंतिम बार) अँकवार भरकर मुझसे मिल ले। मैं जाकर अपने नेत्र सफल करूँ। तीनों तापों को छुड़ानेवाले श्याम शरीर, कमल नेत्र राम के जाकर दर्शन करूँ। दो० - राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक। राम के रूप और गुणों को स्मरण करके वह एक क्षण के लिए प्रेम में मग्न हो गया। फिर रावण से करोड़ों घड़े मदिरा और अनेकों भैंसे मँगवाए॥ 63॥ महिष खाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना॥ भैंसे खाकर और मदिरा पीकर वह वज्रघात (बिजली गिरने) के समान गरजा। मद से चूर रण के उत्साह से पूर्ण कुंभकर्ण किला छोड़कर चला। सेना भी साथ नहीं ली। देखि बिभीषनु आगें आयउ। परेउ चरन निज नाम सुनायउ॥ उसे देखकर विभीषण आगे आए और उसके चरणों पर गिरकर अपना नाम सुनाया। छोटे भाई को उठाकर उसने हृदय से लगा लिया और रघुनाथ का भक्त जानकर वे उसके मन को प्रिय लगे। तात लात रावन मोहि मारा। कहत परम हित मंत्र बिचारा॥ (विभीषण ने कहा -) हे तात! परम हितकर सलाह एवं विचार करने पर रावण ने मुझे लात मारी। उसी ग्लानि के मारे मैं रघुनाथ के पास चला आया। दीन देखकर प्रभु के मन को मैं (बहुत) प्रिय लगा। सुनु भयउ कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन॥ (कुंभकर्ण ने कहा -) हे पुत्र! सुन, रावण तो काल के वश हो गया है (उसके सिर पर मृत्यु नाच रही है)। वह क्या अब उत्तम शिक्षा मान सकता है? हे विभीषण! तू धन्य है, धन्य है। हे तात! तू राक्षस कुल का भूषण हो गया। बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर॥ हे भाई! तूने अपने कुल को देदीप्यमान कर दिया, जो शोभा और सुख के समुद्र राम को भजा। दो० - बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर। मन, वचन और कर्म से कपट छोड़कर रणधीर राम का भजन करना। हे भाई! मैं काल (मृत्यु) के वश हो गया हूँ, मुझे अपना-पराया नहीं सूझता; इसलिए अब तुम जाओ॥ 64॥ बंधु बचन सुनि चला बिभीषन। आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन॥ भाई के वचन सुनकर विभीषण लौट गए और वहाँ आए जहाँ त्रिलोकी के भूषण राम थे। (विभीषण ने कहा -) हे नाथ! पर्वत के समान (विशाल) देहवाला रणधीर कुंभकर्ण आ रहा है। एतना कपिन्ह सुना जब काना। किलकिलाइ धाए
बलवाना॥ वानरों ने जब कानों से इतना सुना, तब वे बलवान किलकिलाकर (हर्षध्वनि करके) दौड़े। वृक्ष और पर्वत (उखाड़कर) उठा लिए और (क्रोध से) दाँत कटकटाकर उन्हें उसके ऊपर डालने लगे। कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा। करहिं भालु कपि एक एक बारा॥ रीछ-वानर एक-एक बार में ही करोड़ों पहाड़ों के शिखरों से उस पर प्रहार करते हैं, परंतु इससे न तो उसका मन ही मुड़ा (विचलित हुआ) और न शरीर ही टाले टला, जैसे मदार के फलों की मार से हाथी पर कुछ भी असर नहीं होता! तब मारुतसुत मुठिका हन्यो। परयो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो॥ तब हनुमान ने उसे एक घूँसा मारा; जिससे वह व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और सिर पीटने लगा। फिर उसने उठकर हनुमान को मारा। वे चक्कर खाकर तुरंत ही पृथ्वी पर गिर पड़े। पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि। जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि॥ फिर उसने नल-नील को पृथ्वी पर पछाड़ दिया और दूसरे योद्धाओं को भी जहाँ-तहाँ पटककर डाल दिया। वानर सेना भाग चली। सब अत्यंत भयभीत हो गए, कोई सामने नहीं आता। दो० - अंगदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव। सुग्रीव समेत अंगदादि वानरों को मूर्च्छित करके फिर वह अपरिमित बल की सीमा कुंभकर्ण वानरराज सुग्रीव को काँख में दाबकर चला॥ 65॥ उमा करत रघुपति नरलीला। खेलत गरुड़ जिमि अहिगन
मीला॥ (शिव कहते हैं -) हे उमा! रघुनाथ वैसे ही नरलीला कर रहे हैं, जैसे गरुड़ सर्पों के समूह में मिलकर खेलता हो। जो भौंह के इशारे मात्र से (बिना परिश्रम के) काल को भी खा जाता है, उसे कहीं ऐसी लड़ाई शोभा देती है? जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं। गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिं॥ भगवान (इसके द्वारा) जगत को पवित्र करनेवाली वह कीर्ति फैलाएँगे जिसे गा-गाकर मनुष्य भवसागर से तर जाएँगे। मूर्च्छा जाती रही, तब मारुति हनुमान जागे और फिर वे सुग्रीव को खोजने लगे। सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती। निबुकि गयउ तेहि मृतक प्रतीती॥ सुग्रीव की भी मूर्च्छा दूर हुई, तब वे (मुर्दे-से होकर) खिसक गए (काँख से नीचे गिर पड़े)। कुंभकर्ण ने उनको मृतक जाना। उन्होंने कुंभकर्ण के नाक-कान दाँतों से काट लिए और फिर गरज कर आकाश की ओर चले, तब कुंभकर्ण ने जाना। गहेउ चरन गहि भूमि पछारा। अति लाघवँ उठि पुनि तेहि
मारा॥ उसने सुग्रीव का पैर पकड़कर उनको पृथ्वी पर पछाड़ दिया। फिर सुग्रीव ने बड़ी फुर्ती से उठकर उसको मारा और तब बलवान सुग्रीव प्रभु के पास आए और बोले - कृपानिधान प्रभु की जय हो, जय हो, जय हो। नाक कान काटे जियँ जानी। फिरा क्रोध करि भइ मन ग्लानी॥ नाक-कान काटे गए, ऐसा मन में जानकर बड़ी ग्लानि हुई; और वह क्रोध करके लौटा। एक तो वह स्वभाव (आकृति) से ही भयंकर था और फिर बिना नाक-कान का होने से और भी भयानक हो गया। उसे देखते ही वानरों की सेना में भय उत्पन्न हो गया। दो० - जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह। 'रघुवंशमणि की जय हो, जय हो' ऐसा पुकारकर वानर हूह करके दौड़े और सबने एक ही साथ उस पर पहाड़ और वृक्षों के समूह छोड़े॥ 66॥ कुंभकरन रन रंग बिरुद्धा। सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा॥ रण के उत्साह में कुंभकर्ण विरुद्ध होकर (उनके) सामने ऐसा चला मानो क्रोधित होकर काल ही आ रहा हो। वह करोड़-करोड़ वानरों को एक साथ पकड़कर खाने लगा! (वे उसके मुँह में इस तरह घुसने लगे) मानो पर्वत की गुफा में टिड्डियाँ समा रही हों। कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा। कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा॥ करोड़ों (वानरों) को पकड़कर उसने शरीर से मसल डाला। करोड़ों को हाथों से मलकर पृथ्वी की धूल में मिला दिया। (पेट में गए हुए) भालू और वानरों के ठट्ट-के-ठट्ट उसके मुख, नाक और कानों की राह से निकल-निकलकर भाग रहे हैं। रन मद मत्त निसाचर दर्पा। बिस्व ग्रसिहि जनु ऐहि बिधि अर्पा॥ रण के मद में मत्त राक्षस कुंभकर्ण इस प्रकार गर्वित हुआ, मानो विधाता ने उसको सारा विश्व अर्पण कर दिया हो, और उसे वह ग्रास कर जाएगा। सब योद्धा भाग खड़े हुए, वे लौटाए भी नहीं लौटते। आँखों से उन्हें सूझ नहीं पड़ता और पुकारने से सुनते नहीं! कुंभकरन कपि फौज बिडारी। सुनि
धाई रजनीचर धारी॥ कुंभकर्ण ने वानर सेना को तितर-बितर कर दिया। यह सुनकर राक्षस सेना भी दौड़ी। राम ने देखा कि अपनी सेना व्याकुल है और शत्रु की नाना प्रकार की सेना आ गई है। दो० - सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन। तब कमलनयन राम बोले - हे सुग्रीव! हे विभीषण! और हे लक्ष्मण! सुनो, तुम सेना को सँभालना। मैं इस दुष्ट के बल और सेना को देखता हूँ॥ 67॥ कर सारंग
साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा॥ हाथ में शार्गंधनुष और कमर में तरकस सजाकर रघुनाथ शत्रु सेना को दलन करने चले। प्रभु ने पहले तो धनुष का टंकार किया, जिसकी भयानक आवाज सुनते ही शत्रु दल बहरा हो गया। सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। कालसर्प जनु चले सपच्छा॥ फिर सत्यप्रतिज्ञ राम ने एक लाख बाण छोड़े। वे ऐसे चले मानो पंखवाले काल सर्प चले हों। जहाँ-तहाँ बहुत-से बाण चले, जिनसे भयंकर राक्षस योद्धा कटने लगे। कटहिं चरन उर सिर भुजदंडा। बहुतक बीर होहिं सत खंडा॥ उनके चरण, छाती, सिर और भुजदंड कट रहे हैं। बहुत-से वीरों के सौ-सौ टुकड़े हो जाते हैं। घायल चक्कर खा-खाकर पृथ्वी पर पड़ रहे हैं। उत्तम योद्धा फिर सँभलकर उठते और लड़ते हैं। लागत बान जलद जिमि गाजहिं। बहुतक देखि कठिन सर भाजहिं॥ बाण लगते ही वे मेघ की तरह गरजते हैं। बहुत-से तो कठिन बाणों को देखकर ही भाग जाते हैं। बिना मुंड (सिर) के प्रचंड रुंड (धड़) दौड़ रहे हैं और 'पकड़ो, पकड़ो, मारो, मारो' का शब्द करते हुए गा (चिल्ला) रहे हैं। दो० - छन महुँ प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच। प्रभु के बाणों ने क्षण मात्र में भयानक राक्षसों को काटकर रख दिया। फिर वे सब बाण लौटकर रघुनाथ के तरकस में घुस गए॥ 68॥ कुंभकरन मन दीख
बिचारी। हति छन माझ निसाचर धारी॥ कुंभकर्ण ने मन में विचार कर देखा कि राम ने क्षण मात्र में राक्षसी सेना का संहार कर डाला। तब वह महाबली वीर अत्यंत क्रोधित हुआ और उसने गंभीर सिंहनाद किया। कोपि महीधर लेइ उपारी। डारइ जहँ मर्कट भट भारी॥ वह क्रोध करके पर्वत उखाड़ लेता है और जहाँ भारी-भारी वानर योद्धा होते हैं, वहाँ डाल देता है। बड़े-बड़े पर्वतों को आते देखकर प्रभु ने उनको बाणों से काटकर धूल के समान (चूर-चूर) कर डाला। पुनि धनु तानि कोपि रघुनायक। छाँड़े अति कराल बहु सायक॥ फिर रघुनाथ ने क्रोध करके धनुष को तानकर बहुत-से अत्यंत भयानक बाण छोड़े। वे बाण कुंभकर्ण के शरीर में घुसकर (पीछे से इस प्रकार) निकल जाते हैं (कि उनका पता नहीं चलता), जैसे बिजलियाँ बादल में समा जाती हैं। सोनित स्रवत सोह तन कारे। जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे॥ उसके काले शरीर से रुधिर बहता हुआ ऐसे शोभा देता है, मानो काजल के पर्वत से गेरु के पनाले बह रहे हों। उसे व्याकुल देखकर रीछ-वानर दौड़े। वे ज्यों ही निकट आए, त्यों ही वह हँसा, दो० - महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस। और बड़ा घोर शब्द करके गरजा तथा करोड़-करोड़ वानरों को पकड़कर वह गजराज की तरह उन्हें पृथ्वी पर पटकने लगा और रावण की दुहाई देने लगा॥ 69॥ भागे भालु बलीमुख
जूथा। बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा॥ यह देखकर रीछ-वानरों के झुंड ऐसे भागे जैसे भेड़िए को देखकर भेड़ों के झुंड! (शिव कहते हैं -) हे भवानी! वानर-भालू व्याकुल होकर आर्तवाणी से पुकारते हुए भाग चले। यह निसिचर दुकाल सम अहई। कपिकुल देस परन अब चहई॥ (वे कहने लगे -) यह राक्षस दुर्भिक्ष के समान है, जो अब वानर कुलरूपी देश में पड़ना चाहता है। हे कृपारूपी जल के धारण करनेवाले मेघ रूप राम! हे खर के शत्रु! हे शरणागत के दुःख हरनेवाले! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए! सकरुन बचन सुनत भगवाना। चले सुधारि सरासन बाना॥ करुणा भरे वचन सुनते ही भगवान धनुष-बाण सुधारकर चले। महाबलशाली राम ने सेना को अपने पीछे कर लिया और वे (अकेले) क्रोधपूर्वक चले (आगे बढ़े)। खैंचि धनुष सर सत संधाने। छूटे तीर सरीर समाने॥ उन्होंने धनुष को खींचकर सौ बाण संधान किए। बाण छूटे और उसके शरीर में समा गए। बाणों के लगते ही वह क्रोध में भरकर दौड़ा। उसके दौड़ने से पर्वत डगमगाने लगे और पृथ्वी हिलने लगी। लीन्ह एक तेंहि सैल उपाटी। रघुकुलतिलक भुजा सोइ काटी॥ उसने एक पर्वत उखाड़ लिया। रघुकुल तिलक राम ने उसकी वह भुजा ही काट दी। तब वह बाएँ हाथ में पर्वत को लेकर दौड़ा। प्रभु ने उसकी वह भुजा भी काटकर पृथ्वी पर गिरा दी। काटें भुजा सोह खल कैसा। पच्छहीन मंदर गिरि
जैसा॥ भुजाओं के कट जाने पर वह दुष्ट कैसी शोभा पाने लगा, जैसे बिना पंख का मंदराचल पहाड़ हो। उसने उग्र दृष्टि से प्रभु को देखा। मानो तीनों लोकों को निगल जाना चाहता हो। दो० - करि चिक्कार घोर अति धावा बदनु पसारि। वह बड़े जोर से चिग्घाड़ करके मुँह फैलाकर दौड़ा। आकाश में सिद्ध और देवता डरकर हा! हा! हा! इस प्रकार पुकारने लगे॥ 70॥ सभय देव
करुनानिधि जान्यो। श्रवन प्रजंत सरासुन तान्यो॥ करुणानिधान भगवान ने देवताओं को भयभीत जाना। तब उन्होंने धनुष को कान तक तानकर राक्षस के मुख को बाणों के समूह से भर दिया। तो भी वह महाबली पृथ्वी पर न गिरा। सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा। काल त्रोन सजीव जनु आवा॥ मुख में बाण भरे हुए वह (प्रभु के) सामने दौड़ा। मानो कालरूपी सजीव तरकस ही आ रहा हो। तब प्रभु ने क्रोध करके तीक्ष्ण बाण लिया और उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया। सो सिर परेउ दसानन आगें। बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें॥ वह सिर रावण के आगे जा गिरा। उसे देखकर रावण ऐसा व्याकुल हुआ जैसे मणि के छूट जाने पर सर्प। कुंभकर्ण का प्रचंड धड़ दौड़ा, जिससे पृथ्वी धँसी जाती थी। तब प्रभु ने काटकर उसके दो टुकड़े कर दिए। परे भूमि जिमि नभ तें भूधर। हेठ दाबि कपि भालु निसाचर॥ वानर-भालू और निशाचरों को अपने नीचे दबाते हुए वे दोनों टुकड़े पृथ्वी पर ऐसे पड़े जैसे आकाश से दो पहाड़ गिरे हों। उसका तेज प्रभु राम के मुख में समा गया। (यह देखकर) देवता और मुनि सभी ने आश्चर्य माना। सुर दुंदुभीं बजावहिं हरषहिं। अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं॥ देवता नगाड़े बजाते, हर्षित होते और स्तुति करते हुए बहुत-से फूल बरसा रहे हैं। विनती करके सब देवता चले गए। उसी समय देवर्षि नारद आए। गगनोपरि हरि गुन गन गाए। रुचिर बीररस प्रभु मन भाए॥ आकाश के ऊपर से उन्होंने हरि के सुंदर वीर रसयुक्त गुणसमूह का गान किया, जो प्रभु के मन को बहुत ही भाया। मुनि यह कहकर चले गए कि अब दुष्ट रावण को शीघ्र मारिए। (उस समय) राम रणभूमि में आकर (अत्यंत) सुशोभित हुए। छं० - संग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी। अतुलनीय बलवाले कोसलपति रघुनाथ रणभूमि में सुशोभित हैं। मुख पर पसीने की बूँदें हैं, कमल समान नेत्र कुछ लाल हो रहे हैं। शरीर पर रक्त के कण हैं, दोनों हाथों से धनुष-बाण फिरा रहे हैं। चारों ओर रीछ-वानर सुशोभित हैं। तुलसीदास कहते हैं कि प्रभु की इस छवि का वर्णन शेष भी नहीं कर सकते, जिनके बहुत-से (हजार) मुख हैं। दो० - निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम। (शिव कहते हैं -) हे गिरिजे! कुंभकर्ण, जो नीच राक्षस और पाप की खान था, उसे भी राम ने अपना परमधाम दे दिया। अतः वे मनुष्य (निश्चय ही) मंदबुद्धि हैं, जो उन श्री राम को नहीं भजते॥ 71॥ दिन के अंत फिरीं द्वौ अनी। समर भई सुभटन्ह श्रम घनी॥ दिन का अंत होने पर दोनों सेनाएँ लौट पड़ीं। (आज के युद्ध में) योद्धाओं को बड़ी थकावट हुई। परंतु राम की कृपा से वानर सेना का बल उसी प्रकार बढ़ गया, जैसे घास पाकर अग्नि बहुत बढ़ जाती है। छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती। निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती॥ उधर राक्षस दिन-रात इस प्रकार घटते जा रहे हैं जिस प्रकार अपने ही मुख से कहने पर पुण्य घट जाते हैं। रावण बहुत विलाप कर रहा है। बार-बार भाई (कुंभकर्ण) का सिर कलेजे से लगाता है। रोवहिं नारि हृदय हति पानी। तासु तेज बल बिपुल बखानी॥ स्त्रियाँ उसके बड़े भारी तेज और बल को बखान करके हाथों से छाती पीट-पीटकर रो रही हैं। उसी समय मेघनाद आया और उसने बहुत-सी कथाएँ कहकर पिता को समझाया। देखेहु कालि मोरि मनुसाई। अबहिं बहुत का करौं बड़ाई॥ (और कहा -) कल मेरा पुरुषार्थ देखिएगा। अभी बहुत बड़ाई क्या करूँ? हे तात! मैंने अपने इष्टदेव से जो बल और रथ पाया था, वह बल (और रथ) अब तक आपको नहीं दिखलाया था। एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना। चहुँ दुआर लागे कपि नाना॥ इस प्रकार डींग मारते हुए सबेरा हो गया। लंका के चारों दरवाजों पर बहुत-से वानर आ डटे। इधर काल के समान वीर वानर-भालू हैं और उधर अत्यंत रणधीर राक्षस। लरहिं सुभट निज निज जय हेतू। बरनि न जाइ समर खगकेतू॥ दोनों ओर के योद्धा अपनी-अपनी जय के लिए लड़ रहे हैं। हे गरुड़! उनके युद्ध का वर्णन नहीं किया जा सकता। दो० - मेघनाद मायामय रथ चढ़ि गयउ अकास। मेघनाद उसी (पूर्वोक्त) मायामय रथ पर चढ़कर आकाश में चला गया और अट्टहास करके गरजा, जिससे वानरों की सेना में भय छा गया॥ 72॥ सक्ति सूल तरवारि कृपाना। अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना॥ वह शक्ति, शूल, तलवार, कृपाण आदि अस्त्र, शस्त्र एवं वज्र आदि बहुत-से आयुध चलाने तथा फरसे, परिघ, पत्थर आदि डालने और बहुत-से बाणों की वृष्टि करने लगा। दस दिसि रहे बान नभ छाई। मानहुँ मघा मेघ झरि लाई॥ आकाश में दसों दिशाओं में बाण छा गए, मानो मघा नक्षत्र के बादलों ने झड़ी लगा दी हो। 'पकड़ो, पकड़ो, मारो' ये शब्द सुनाई पड़ते हैं। पर जो मार रहा है, उसे कोई नहीं जान पाता। गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं। देखहिं तेहि न दुखित फिरि आवहिं॥ पर्वत और वृक्षों को लेकर वानर आकाश में दौड़कर जाते हैं। पर उसे देख नहीं पाते, इससे दुःखी होकर लौट आते हैं। मेघनाद ने माया के बल से अटपटी घाटियों, रास्तों और पर्वतों-कंदराओं को बाणों के पिंजरे बना दिए (बाणों से छा दिया)। जाहिं कहाँ ब्याकुल भए बंदर। सुरपति बंदि परे जनु मंदर॥ अब कहाँ जाएँ, यह सोचकर (रास्ता न पाकर) वानर व्याकुल हो गए। मानो पर्वत इंद्र की कैद में पड़े हों। मेघनाद ने मारुति हनुमान, अंगद, नल और नील आदि सभी बलवानों को व्याकुल कर दिया। पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन। सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन॥ फिर उसने लक्ष्मण, सुग्रीव और विभीषण को बाणों से मारकर उनके शरीर को छलनी कर दिया। फिर वह रघुनाथ से लड़ने लगा। वह जो बाण छोड़ता है, वे साँप होकर लगते हैं। ब्याल पास बस भए खरारी। स्वबस अनंत एक अबिकारी॥ जो स्वतंत्र, अनंत, एक (अखंड) और निर्विकार हैं, वे खर के शत्रु राम (लीला से) नागपाश के वश में हो गए (उससे बँध गए)। राम सदा स्वतंत्र, एक, (अद्वितीय) भगवान हैं। वे नट की तरह अनेकों प्रकार के दिखावटी चरित्र करते हैं। रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो। नागपास देवन्ह भय पायो॥ रण की शोभा के लिए प्रभु ने अपने को नागपाश में बाँध लिया, किंतु उससे देवताओं को बड़ा भय हुआ। दो० - गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास। (शिव कहते हैं -) हे गिरिजे! जिनका नाम जपकर मुनि भव (जन्म-मृत्यु) की फाँसी को काट डालते हैं, वे सर्वव्यापक और विश्वनिवास (विश्व के आधार) प्रभु कहीं बंधन में आ सकते हैं?॥ 73॥ चरित राम के सगुन भवानी। तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी॥ हे भवानी! राम की इस सगुण लीलाओं के विषय में बुद्धि और वाणी के बल से तर्क (निर्णय) नहीं किया जा सकता। ऐसा विचार कर जो तत्त्वज्ञानी और विरक्त पुरुष हैं, वे सब तर्क (शंका) छोड़कर राम का भजन ही करते हैं। ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा। पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा॥ मेघनाद ने सेना को व्याकुल कर दिया। फिर वह प्रकट हो गया और दुर्वचन कहने लगा। इस पर जाम्बवान ने कहा - अरे दुष्ट! खड़ा रह। यह सुनकर उसे बड़ा क्रोध बढ़ा। बूढ़ जानि सठ छाँड़ेउँ तोही। लागेसि अधम पचारै मोही॥ अरे मूर्ख! मैंने बूढ़ा जानकर तुझको छोड़ दिया था। अरे अधम! अब तू मुझे ही ललकारने लगा है? ऐसा कहकर उसने चमकता हुआ त्रिशूल चलाया। जाम्बवान उसी त्रिशूल को हाथ से पकड़कर दौड़ा। मारिसि मेघनाद कै छाती। परा भूमि घुर्मित सुरघाती॥ और उसे मेघनाद की छाती पर दे मारा। वह देवताओं का शत्रु चक्कर खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। जाम्बवान ने फिर क्रोध में भरकर पैर पकड़कर उसको घुमाया और पृथ्वी पर पटककर उसे अपना बल दिखलाया। बर प्रसाद सो मरइ न मारा। तब गहि पद लंका पर डारा॥ (किंतु) वरदान के प्रताप से वह मारे नहीं मरता। तब जाम्बवान ने उसका पैर पकड़कर उसे लंका पर फेंक दिया। इधर देवर्षि नारद ने गरुड़ को भेजा। वे तुरंत ही राम के पास आ पहुँचे। दो० - खगपति सब धरि खाए माया
नाग बरुथ। पक्षीराज गरुड़ सब माया-सर्पों के समूहों को पकड़कर खा गए। तब सब वानरों के झुंड माया से रहित होकर हर्षित हुए॥ 74(क)॥ गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ। पर्वत, वृक्ष, पत्थर और नख धारण किए वानर क्रोधित होकर दौड़े। निशाचर विशेष व्याकुल होकर भाग चले और भागकर किले पर चढ़ गए॥ 74(ख)॥ मेघनाद कै मुरछा जागी। पितहि बिलोकि लाज अति लागी॥ मेघनाद की मूर्च्छा छूटी, (तब) पिता को देखकर उसे बड़ी शर्म लगी। मैं अजय (अजेय होने को) यज्ञ करूँ, ऐसा मन में निश्चय करके वह तुरंत श्रेष्ठ पर्वत की गुफा में चला गया। इहाँ बिभीषन मंत्र बिचारा। सुनहु नाथ बल अतुल उदारा॥ यहाँ विभीषण ने यह सलाह विचारी (और राम से कहा -) हे अतुलनीय बलवान उदार प्रभो! देवताओं को सतानेवाला दुष्ट, मायावी मेघनाद अपवित्र यज्ञ कर रहा है। जौं प्रभु
सिद्ध होइ सो पाइहि। नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि॥ हे प्रभो! यदि वह यज्ञ सिद्ध हो पाएगा तो हे नाथ! फिर मेघनाद जल्दी जीता न जा सकेगा। यह सुनकर रघुनाथ ने बहुत सुख माना और अंगदादि बहुत-से वानरों को बुलाया (और कहा -)। लछिमन संग जाहु सब भाई। करहु बिधंस जग्य कर जाई॥ हे भाइयो! सब लोग लक्ष्मण के साथ जाओ और जाकर यज्ञ को विध्वंस करो। हे लक्ष्मण! संग्राम में तुम उसे मारना। देवताओं को भयभीत देखकर मुझे बड़ा दुःख है। मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई। जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई॥ हे भाई! सुनो, उसको ऐसे बल और बुद्धि के उपाय से मारना, जिससे निशाचर का नाश हो। हे जाम्बवान, सुग्रीव और विभीषण! तुम तीनों जने सेना समेत (इनके) साथ रहना। जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन। कटि निषंग कसि साजि सरासन॥ (इस प्रकार) जब रघुवीर ने आज्ञा दी, तब कमर में तरकस कसकर और धनुष सजाकर (चढ़ाकर) रणधीर लक्ष्मण प्रभु के प्रताप को हृदय में धारण करके मेघ के समान गंभीर वाणी बोले - जौं तेहि आजु बंधे बिनु आवौं। तौ रघुपति सेवक न कहावौं॥ यदि मैं आज उसे बिना मारे आऊँ, तो रघुनाथ का सेवक न कहलाऊँ। यदि सैकड़ों शंकर भी उसकी सहायता करें तो भी रघुवीर की दुहाई है; आज मैं उसे मार ही डालूँगा। दो० - रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरंत अनंत। रघुनाथ के चरणों में सिर नवाकर शेषावतार लक्ष्मण तुरंत चले। उनके साथ अंगद, नील, मयंद, नल और हनुमान आदि उत्तम योद्धा थे॥ 75॥ जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा। आहुति देत रुधिर अरु भैंसा॥ वानरों ने जाकर देखा कि वह बैठा हुआ खून और भैंसे की आहुति दे रहा है। वानरों ने सब यज्ञ विध्वंस कर दिया। फिर भी जब वह नहीं उठा, तब वे उसकी प्रशंसा करने लगे। तदपि न उठइ धरेन्हि कच जाई। लातन्हि
हति हति चले पराई॥ इतने पर भी वह न उठा, (तब) उन्होंने जाकर उसके बाल पकड़े और लातों से मार-मारकर वे भाग चले। वह त्रिशूल लेकर दौड़ा, तब वानर भागे और वहाँ आ गए, जहाँ आगे लक्ष्मण खड़े थे। आवा परम क्रोध कर मारा। गर्ज घोर रव बारहिं बारा॥ वह अत्यंत क्रोध का मारा हुआ आया और बार-बार भयंकर शब्द करके2 नगरजने लगा। मारुति (हनुमान) और अंगद क्रोध करके दौड़े। उसने छाती में त्रिशूल मारकर दोनों को धरती पर गिरा दिया। प्रभु कहँ छाँड़ेसि सूल प्रचंडा। सर हति कृत अनंत जुग खंडा॥ फिर उसने प्रभु लक्ष्मण पर त्रिशूल छोड़ा। अनंत (लक्ष्मण) ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए। हनुमान और युवराज अंगद फिर उठकर क्रोध करके उसे मारने लगे, उसे चोट न लगी। फिरे बीर रिपु मरइ न मारा। तब धावा करि घोर चिकारा॥ शत्रु (मेघनाद) मारे नहीं मरता, यह देखकर जब वीर लौटे, तब वह घोर चिग्घाड़ करके दौड़ा। उसे क्रुद्ध काल की तरह आता देखकर लक्ष्मण ने भयानक बाण छोड़े। देखेसि आवत पबि सम बाना। तुरत भयउ खल अंतरधाना॥ वज्र के समान बाणों को आते देखकर वह दुष्ट तुरंत अंतर्धान हो गया और फिर भाँति-भाँति के रूप धारण करके युद्ध करने लगा। वह कभी प्रकट होता था और कभी छिप जाता था। देखि अजय रिपु डरपे कीसा। परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा॥ शत्रु को पराजित न होता देखकर वानर डरे। तब सर्पराज शेष (लक्ष्मण) बहुत क्रोधित हुए। लक्ष्मण ने मन में यह विचार दृढ़ किया कि इस पापी को मैं बहुत खेला चुका (अब और अधिक खेलाना अच्छा नहीं, अब तो इसे समाप्त ही कर देना चाहिए)। सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा। सर संधान कीन्ह करि दापा॥ कोसलपति राम के प्रताप का स्मरण करके लक्ष्मण ने वीरोचित दर्प करके बाण का संधान किया। बाण छोड़ते ही उसकी छाती के बीच में लगा। मरते समय उसने सब कपट त्याग दिया। दो० - रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़ेसि प्रान। राम के छोटे भाई लक्ष्मण कहाँ हैं? राम कहाँ हैं? ऐसा कहकर उसने प्राण छोड़ दिए। अंगद और हनुमान कहने लगे - तेरी माता धन्य है, धन्य है, (जो तू लक्ष्मण के हाथों मरा और मरते समय राम-लक्ष्मण को स्मरण करके तूने उनके नामों का उच्चारण किया)॥ 76॥ बिनु प्रयास हनुमान उठायो। लंका द्वार राखि पुनि आयो॥ हनुमान ने उसको बिना ही परिश्रम के उठा लिया और लंका के दरवाजे पर रखकर वे लौट आए। उसका मरना सुनकर देवता और गंधर्व आदि सब विमानों पर चढ़कर आकाश में आए। बरषि सुमन दुंदुभीं बजावहिं। श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं॥ वे फूल बरसाकर नगाड़े बजाते हैं और श्री रघुनाथ का निर्मल यश गाते हैं। हे अनंत! आपकी जय हो, हे जगदाधार! आपकी जय हो। हे प्रभो! आपने सब देवताओं का (महान विपत्ति से) उद्धार किया। अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए। लछिमन कृपासिंधु पहिं आए॥ देवता और सिद्ध स्तुति करके चले गए, तब लक्ष्मण कृपा के समुद्र राम के पास आए। रावण ने ज्यों ही पुत्रवध का समाचार सुना, त्यों ही वह मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। मंदोदरी रुदन कर भारी। उर ताड़न बहु भाँति पुकारी॥ मंदोदरी छाती पीट-पीटकर और बहुत प्रकार से पुकार-पुकारकर बड़ा भारी विलाप करने लगी। नगर के सब लोग शोक से व्याकुल हो गए। सभी रावण को नीच कहने लगे। दो० - तब दसकंठ बिबिधि बिधि समुझाईं सब नारि। तब रावण ने सब स्त्रियों को अनेकों प्रकार से समझाया कि समस्त जगत का यह (दृश्य) रूप नाशवान है, हृदय में विचारकर देखो॥ 77॥ तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन। आपुन मंद कथा सुभ पावन॥ रावण ने उनको ज्ञान का उपदेश किया। वह स्वयं तो नीच है, पर उसकी कथा (बातें) शुभ और पवित्र हैं। दूसरों को उपदेश देने में तो बहुत लोग निपुण होते हैं। पर ऐसे लोग अधिक नहीं हैं, जो उपदेश के अनुसार आचरण भी करते हैं। निसा सिरानि भयउ भिनुसारा। लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा॥ रात बीत गई, सबेरा हुआ। रीछ-वानर (फिर) चारों दरवाजों पर जा डटे। योद्धाओं को बुलाकर दशमुख रावण ने कहा - लड़ाई में शत्रु के सम्मुख जिसका मन डाँवाडोल हो, सो अबहीं बरु जाउ पराई। संजुग
बिमुख भएँ न भलाई॥ अच्छा है वह अभी भाग जाए। युद्ध में जाकर विमुख होने (भागने) में भलाई नहीं है। मैंने अपनी भुजाओं के बल पर बैर बढ़ाया है। जो शत्रु चढ़ आया है, उसको मैं (अपने ही) उत्तर दे लूँगा। अस कहि मरुत बेग रथ साजा। बाजे सकल जुझाऊ बाजा॥ ऐसा कहकर उसने पवन के समान तेज चलनेवाला रथ सजाया। सारे जुझाऊ (लड़ाई के) बाजे बजने लगे। सब अतुलनीय बलवान वीर ऐसे चले मानो काजल की आँधी चली हो। असगुन अमित होहिं तेहि काला। गनइ न भुज बल गर्ब बिसाला॥ उस समय असंख्य अपशकुन होने लगे। पर अपनी भुजाओं के बल का बड़ा गर्व होने से रावण उन्हें गिनता नहीं है। छं० - अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्रवहिं आयुध हाथ ते। अत्यंत गर्व के कारण वह शकुन-अपशकुन का विचार नहीं करता। हथियार हाथों से गिर रहे हैं। योद्धा रथ से गिर पड़ते हैं। घोड़े, हाथी साथ छोड़कर चिग्घाड़ते हुए भाग जाते हैं। सियार, गीध, कौए और गदहे शब्द कर रहे हैं। बहुत अधिक कुत्ते बोल रहे हैं। उल्लू ऐसे अत्यंत भयानक शब्द कर रहे हैं, मानो काल के दूत हों (मृत्यु का संदेसा सुना रहे हों)। दो० - ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम। जो जीवों के द्रोह में रत है, मोह के वश हो रहा है, रामविमुख है और कामासक्त है, उसको क्या कभी स्वप्न में भी संपत्ति, शुभ शकुन और चित्त की शांति हो सकती है?॥ 78॥ चलेउ निसाचर कटकु अपारा। चतुरंगिनी अनी बहु धारा॥ राक्षसों की अपार सेना चली। चतुरंगिणी सेना की बहुत-सी टुकड़ियाँ हैं। अनेकों प्रकार के वाहन, रथ और सवारियाँ हैं तथा बहुत-से रंगों की अनेकों पताकाएँ और ध्वजाएँ हैं। चले मत्त गज जूथ घनेरे। प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे॥ मतवाले हाथियों के बहुत-से झुंड चले। मानो पवन से प्रेरित हुए वर्षा ऋतु के बादल हों। रंग-बिरंगे बाना धारण करनेवाले वीरों के समूह हैं, जो युद्ध में बड़े शूरवीर हैं और बहुत प्रकार की माया जानते हैं। अति बिचित्र बाहिनी बिराजी। बीर बसंत सेन जनु साजी॥ अत्यंत विचित्र फौज शोभित है। मानो वीर वसंत ने सेना सजाई हो। सेना के चलने से दिशाओं के हाथी डिगने लगे, समुद्र क्षुभित हो गए और पर्वत डगमगाने लगे। उठी रेनु रबि गयउ छपाई। मरुत थकित बसुधा अकुलाई॥ इतनी धूल उड़ी कि सूर्य छिप गए। (फिर सहसा) पवन रुक गया और पृथ्वी अकुला उठी। ढोल और नगाड़े भीषण ध्वनि से बज रहे हैं; जैसे प्रलयकाल के बादल गरज रहे हों। भेरि नफीरि बाज सहनाई। मारू राग सुभट सुखदाई॥ भेरी, नफीरी (तुरही) और शहनाई में योद्धाओं को सुख देनेवाला मारू राग बज रहा है। सब वीर सिंहनाद करते हैं और अपने-अपने बल पौरुष का बखान कर रहे हैं। कहइ
दसानन सुनहू सुभट्टा। मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा॥ रावण ने कहा - हे उत्तम योद्धाओ! सुनो! तुम रीछ-वानरों के ठट्ट को मसल डालो। और मैं दोनों राजकुमार भाइयों को मारूँगा। ऐसा कहकर उसने अपनी सेना सामने चलाई। यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई। धाए करि रघुबीर ई॥ जब सब वानरों ने यह खबर पाई, तब वे राम की दुहाई देते हुए दौड़े। छं० - धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते। वे विशाल और काल के समान कराल वानर-भालू दौड़े। मानो पंखवाले पर्वतों के समूह उड़ रहे हों। वे अनेक वर्णों के हैं। नख, दाँत, पर्वत और बड़े-बड़े वृक्ष ही उनके हथियार हैं। वे बड़े बलवान हैं और किसी का भी डर नहीं मानते। रावणरूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह रूप राम का जय-जयकार करके वे उनके सुंदर यश का बखान करते हैं। दो० - दुहु दिसि जय जयकार करि निज जोरी जानि। दोनों ओर के योद्धा जय-जयकार करके अपनी-अपनी जोड़ी जान (चुन) कर इधर रघुनाथ का और उधर रावण का बखान करके परस्पर भिड़ गए॥ 79॥ रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥ रावण को रथ पर और रघुवीर को बिना रथ के देखकर विभीषण अधीर हो गए। प्रेम अधिक होने से उनके मन में संदेह हो गया (कि वे बिना रथ के रावण को कैसे जीत सकेंगे)। राम के चरणों की वंदना करके वे स्नेहपूर्वक कहने लगे। नाथ
न रथ नहि तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना॥ हे नाथ! आपके न रथ है, न तन की रक्षा करनेवाला कवच है और न जूते ही हैं। वह बलवान वीर रावण किस प्रकार जीता जाएगा? कृपानिधान राम ने कहा - हे सखे! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है। सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥ शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार - ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समतारूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं। ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥ ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलानेवाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचंड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है। अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख
नाना॥ निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम - ये बहुत-से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है। सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥ हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है। दो० - महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर। हे धीरबुद्धिवाले सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है (रावण की तो बात ही क्या है)॥ 80(क)॥ सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कंज। प्रभु के वचन सुनकर विभीषण ने हर्षित होकर उनके चरण कमल पकड़ लिए (और कहा -) हे कृपा और सुख के समूह राम! आपने इसी बहाने मुझे (महान) उपदेश दिया॥ 80(ख)॥ उत पचार दसकंधर इत
अंगद हनुमान। उधर से रावण ललकार रहा है और इधर से अंगद और हनुमान। राक्षस और रीछ-वानर अपने-अपने स्वामी की दुहाई देकर लड़ रहे हैं॥ 80(ग)॥ सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढ़े बिमाना॥ ब्रह्मा आदि देवता और अनेकों सिद्ध तथा मुनि विमानों पर चढ़े हुए आकाश से युद्ध देख रहे हैं। (शिव कहते हैं -) हे उमा! मैं भी उस समाज में था और राम के रण-रंग (रणोत्साह) की लीला देख रहा था। सुभट समर रस दुहु दिसि माते। कपि जयसील राम बल ताते॥ दोनों ओर के योद्धा रण-रस में मतवाले हो रहे हैं। वानरों को राम का बल है, इससे वे जयशील हैं (जीत रहे हैं)। एक-दूसरे से भिड़ते और ललकारते हैं और एक-दूसरे को मसल-मसलकर पृथ्वी पर डाल देते हैं। मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं। सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं॥ वे मारते, काटते, पकड़ते और पछाड़ देते हैं और सिर तोड़कर उन्हीं सिरों से दूसरों को मारते हैं। पेट फाड़ते हैं, भुजाएँ उखाड़ते हैं और योद्धाओं को पैर पकड़कर पृथ्वी पर पटक देते हैं। निसिचर भट महि गाड़हिं भालू। ऊपर ढारि देहिं बहु बालू॥ राक्षस योद्धाओं को भालू पृथ्वी में गाड़ देते हैं और ऊपर से बहुत-सी बालू डाल देते हैं। युद्ध में शत्रुओं से विरुद्ध हुए वीर वानर ऐसे दिखाई पड़ते हैं मानो बहुत-से क्रोधित काल हों। छं० -
क्रुद्धे कृतांत समान कपि तन स्रवत सोनित राजहीं। क्रोधित हुए काल के समान वे वानर खून बहते हुए शरीरों से शोभित हो रहे हैं। वे बलवान वीर राक्षसों की सेना के योद्धाओं को मसलते और मेघ की तरह गरजते हैं। डाँटकर चपेटों से मारते, दाँतों से काटकर लातों से पीस डालते हैं। वानर-भालू चिग्घाड़ते और ऐसा छल-बल करते हैं, जिससे दुष्ट राक्षस नष्ट हो जाएँ। धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं। वे राक्षसों के गाल पकड़कर फाड़ डालते हैं, छाती चीर डालते हैं और उनकी अँतड़ियाँ निकालकर गले में डाल लेते हैं। वे वानर ऐसे दिख पड़ते हैं मानो प्रह्लाद के स्वामी नृसिंह भगवान अनेकों शरीर धारण करके युद्ध के मैदान में क्रीड़ा कर रहे हों। पकड़ो, मारो, काटो, पछाड़ो आदि घोर शब्द आकाश और पृथ्वी में भर (छा) गए हैं। राम की जय हो, जो सचमुच तृण से वज्र और वज्र से तृण कर देते हैं (निर्बल को सबल और सबल को निर्बल कर देते हैं)। दो० - निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप। अपनी सेना को विचलित होते हुए देखा, तब बीस भुजाओं में दस धनुष लेकर रावण रथ पर चढ़कर गर्व करके 'लौटो, लौटो' कहता हुआ चला॥ 81॥ धायउ परम क्रुद्ध दसकंधर। सन्मुख चले हूह दै बंदर॥ रावण अत्यंत क्रोधित होकर दौड़ा। वानर हुँकार करते हुए (लड़ने के लिए) उसके सामने चले। उन्होंने हाथों में वृक्ष, पत्थर और पहाड़ लेकर रावण पर एक ही साथ डाले। लागहिं सैल बज्र तन तासू। खंड खंड होइ फूटहिं आसू॥ पर्वत उसके वज्रतुल्य शरीर में लगते ही तुरंत टुकड़े-टुकड़े होकर फूट जाते हैं। अत्यंत क्रोधी रणोन्मत्त रावण रथ रोककर अचल खड़ा रहा, (अपने स्थान से) जरा भी नहीं हिला। इत उत झपटि दपटि कपि
जोधा। मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा॥ उसे बहुत ही क्रोध हुआ। वह इधर-उधर झपटकर और डपटकर वानर योद्धाओं को मसलने लगा। अनेकों वानर-भालू 'हे अंगद! हे हनुमान! रक्षा करो, रक्षा करो' (पुकारते हुए) भाग चले। पाहि पाहि रघुबीर गोसाईं। यह खल खाइ काल की नाईं॥ हे रघुवीर! हे गोसाईं! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। यह दुष्ट काल की भाँति हमें खा रहा है। उसने देखा कि सब वानर भाग छूटे, तब (रावण ने) दसों धनुषों पर बाण संधान किए। छं० - संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि उरग जिमि उड़ि लागहीं। उसने धनुष पर संधान करके बाणों के समूह छोड़े। वे बाण सर्प की तरह उड़कर जा लगते थे। पृथ्वी-आकाश और दिशा-विदिशा सर्वत्र बाण भर रहे हैं। वानर भागें तो कहाँ? अत्यंत कोलाहल मच गया। वानर-भालूओं की सेना व्याकुल होकर आर्त्त पुकार करने लगी - हे रघुवीर! हे करुणासागर! हे पीड़ितों के बंधु! हे सेवकों की रक्षा करके उनके दुःख हरनेवाले हरि! दो० - निज दल बिकल देखि कटि कसि निषंग धनु हाथ। अपनी सेना को व्याकुल देखकर कमर में तरकस कसकर और हाथ में धनुष लेकर रघुनाथ के चरणों पर मस्तक नवाकर लक्ष्मण क्रोधित होकर चले॥ 82॥ रे खल का मारसि कपि भालु। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥ (लक्ष्मण ने पास जाकर कहा -) अरे दुष्ट! वानर भालूओं को क्या मार रहा है? मुझे देख, मैं तेरा काल हूँ। (रावण ने कहा -) अरे मेरे पुत्र के घातक! मैं तुझी को ढूँढ़ रहा था। आज तुझे मारकर (अपनी) छाती ठंडी करूँगा। अस कहि छाड़ेसि बान प्रचंडा। लछिमन किए सकल सत खंडा॥ ऐसा कहकर उसने प्रचंड बाण छोड़े। लक्ष्मण ने सबके सैकड़ों टुकड़े कर डाले। रावण ने करोड़ों अस्त्र-शस्त्र चलाए। लक्ष्मण ने उनको तिल के बराबर करके काटकर हटा दिया। पुनि
निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा। स्यंदनु भंजि सारथी मारा॥ फिर अपने बाणों से (उस पर) प्रहार किया और (उसके) रथ को तोड़कर सारथी को मार डाला। (रावण के) दसों मस्तकों में सौ-सौ बाण मारे। वे सिरों में ऐसे पैठ गए मानो पहाड़ के शिखरों में सर्प प्रवेश कर रहे हों। पुनि सत सर मारा उर माहीं। परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं॥ फिर सौ बाण उसकी छाती में मारे। वह पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसे कुछ भी होश न रहा। फिर मूर्च्छा छूटने पर वह प्रबल रावण उठा और उसने वह शक्ति चलाई जो ब्रह्मा ने उसे दी थी। छं० - सो ब्रह्म दत्त प्रचंड सक्ति अनंत उर लागी सही। वह ब्रह्मा की दी हुई प्रचंड शक्ति लक्ष्मण की ठीक छाती में लगी। वीर लक्ष्मण व्याकुल होकर गिर पड़े। तब रावण उन्हें उठाने लगा, पर उसके अतुलित बल की महिमा यों ही रह गई, (व्यर्थ हो गई, वह उन्हें उठा न सका)। जिनके एक ही सिर पर ब्रह्मांडरूपी भवन धूल के एक कण के समान विराजता है, उन्हें मूर्ख रावण उठाना चाहता है! वह तीनों भुवनों के स्वामी लक्ष्मण को नहीं जानता। दो० - देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर। यह देखकर पवनपुत्र हनुमान कठोर वचन बोलते हुए दौड़े। हनुमान के आते ही रावण ने उन पर अत्यंत भयंकर घूँसे का प्रहार किया॥ 83॥ जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा
सँभारि बहुत रिस भरा॥ हनुमान घुटने टेककर रह गए, पृथ्वी पर गिरे नहीं। और फिर क्रोध से भरे हुए सँभलकर उठे। हनुमान ने रावण को एक घूँसा मारा। वह ऐसा गिर पड़ा जैसे वज्र की मार से पर्वत गिरा हो। मुरुछा गै बहोरि सो जागा। कपि बल बिपुल सराहन लागा॥ मूर्च्छा भंग होने पर फिर वह जागा और हनुमान के बड़े भारी बल को सराहने लगा। (हनुमान ने कहा -) मेरे पौरुष को धिक्कार है, धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है, जो हे देवद्रोही! तू अब भी जीता रह गया। अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो। देखि दसानन बिसमय पायो॥ ऐसा कहकर और लक्ष्मण को उठाकर हनुमान रघुनाथ के पास ले आए। यह देखकर रावण को आश्चर्य हुआ। रघुवीर ने (लक्ष्मण से) कहा - हे भाई! हृदय में समझो, तुम काल के भी भक्षक और देवताओं के रक्षक हो। सुनत बचन उठि बैठ कृपाला। गई गगन सो सकति कराला॥ ये वचन सुनते ही कृपालु लक्ष्मण उठ बैठे। वह कराल शक्ति आकाश को चली गई। लक्ष्मण फिर धनुष-बाण लेकर दौड़े और बड़ी शीघ्रता से शत्रु के सामने आ पहुँचे। छं० - आतुर बहोरि बिभंजि स्यंदन सूत हति ब्याकुल कियो। फिर उन्होंने बड़ी ही शीघ्रता से रावण के रथ को चूर-चूर कर और सारथी को मारकर उसे (रावण को) व्याकुल कर दिया। सौ बाणों से उसका हृदय बेध दिया, जिससे रावण अत्यंत व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। तब दूसरा सारथी उसे रथ में डालकर तुरंत ही लंका को ले गया। प्रताप के समूह रघुवीर के भाई लक्ष्मण ने फिर आकर प्रभु के चरणों में प्रणाम किया। दो० - उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य। वहाँ (लंका में) रावण मूर्च्छा से जागकर कुछ यज्ञ करने लगा। वह मूर्ख और अत्यंत अज्ञानी हठवश रघुनाथ से विरोध करके विजय चाहता है॥ 84॥
इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई॥ यहाँ विभीषण ने सब खबर पाई और तुरंत जाकर रघुनाथ को कह सुनाई कि हे नाथ! रावण एक यज्ञ कर रहा है। उसके सिद्ध होने पर वह अभागा सहज ही नहीं मरेगा। पठवहु नाथ बेगि भट बंदर। करहिं बिधंस आव दसकंधर॥ हे नाथ! तुरंत वानर योद्धाओं को भेजिए; जो यज्ञ का विध्वंस करें, जिससे रावण युद्ध में आए। प्रातःकाल होते ही प्रभु ने वीर योद्धाओं को भेजा। हनुमान और अंगद आदि सब (प्रधान वीर) दौड़े। कौतुक कूदि चढ़े कपि लंका। पैठे रावन भवन असंका॥ वानर खेल से ही कूदकर लंका पर जा चढ़े और निर्भय होकर रावण के महल में जा घुसे। ज्यों ही उसको यज्ञ करते देखा, त्यों ही सब वानरों को बहुत क्रोध हुआ। रन ते निलज भाजि गृह आवा। इहाँ आइ बक ध्यान लगावा॥ (उन्होंने कहा -) अरे ओ निर्लज्ज! रणभूमि से घर भाग आया और यहाँ आकर बगुले का-सा ध्यान लगाकर बैठा है? ऐसा कहकर अंगद ने लात मारी। पर उसने इनकी ओर देखा भी नहीं, उस दुष्ट का मन स्वार्थ में अनुरक्त था। छं० - नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं। जब उसने नहीं देखा, तब वानर क्रोध करके उसे दाँतों से पकड़कर (काटने और) लातों से मारने लगे। स्त्रियों को बाल पकड़कर घर से बाहर घसीट लाए, वे अत्यंत ही दीन होकर पुकारने लगीं। तब रावण काल के समान क्रोधित होकर उठा और वानरों को पैर पकड़कर पटकने लगा। इसी बीच में वानरों ने यज्ञ विध्वंस कर डाला, यह देखकर वह मन में हारने लगा (निराश होने लगा)। दो० - जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास। यज्ञ विध्वंस करके सब चतुर वानर रघुनाथ के पास आ गए। तब रावण जीने की आशा छोड़कर क्रोधित होकर चला॥ 85॥ चलत होहिं अति असुभ
भयंकर। बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर॥ चलते समय अत्यंत भयंकर अमंगल (अपशकुन) होने लगे। गीध उड़-उड़कर उसके सिरों पर बैठने लगे। किंतु वह काल के वश था, इससे किसी भी अपशकुन को नहीं मानता था। उसने कहा - युद्ध का डंका बजाओ। चली तमीचर अनी अपारा। बहु गज रथ पदाति असवारा॥ निशाचरों की अपार सेना चली। उसमें बहुत-से हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदल हैं। वे दुष्ट प्रभु के सामने कैसे दौड़े, जैसे पतंगों के समूह अग्नि की ओर (जलने के लिए) दौड़ते हैं। इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही। दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही॥ इधर देवताओं ने स्तुति की कि हे राम! इसने हमको दारुण दुःख दिए हैं। अब आप इसे (अधिक) न खेलाइए। जानकी बहुत ही दुःखी हो रही हैं। देव बचन सुनि प्रभु मुसुकाना। उठि रघुबीर सुधारे बाना॥ देवताओं के वचन सुनकर प्रभु मुसकराए। फिर रघुवीर ने उठकर बाण सुधारे। मस्तक पर जटाओं के जूड़े को कसकर बाँधे हुए हैं, उसके बीच-बीच में पुष्प गूँथे हुए शोभित हो रहे हैं। अरुन नयन बारिद तनु स्यामा। अखिल लोक लोचनाभिरामा॥ लाल नेत्र और मेघ के समान श्याम शरीरवाले और संपूर्ण लोकों के नेत्रों को आनंद देनेवाले हैं। प्रभु ने कमर में फेंटा तथा तरकस कस लिया और हाथ में कठोर शार्गंधनुष ले लिया। छं० - सारंग कर सुंदर निषंग सिलीमुखाकर कटि
कस्यो। प्रभु ने हाथ में शार्गंधनुष लेकर कमर में बाणों की खान (अक्षय) सुंदर तरकस कस लिया। उनके भुजदंड पुष्ट हैं और मनोहर चौड़ी छाती पर ब्राह्मण (भृगु) के चरण का चिह्न शोभित है। तुलसीदास कहते हैं, ज्यों ही प्रभु धनुष-बाण हाथ में लेकर फिराने लगे, त्यों ही ब्रह्मांड, दिशाओं के हाथी, कच्छप, शेष, पृथ्वी, समुद्र और पर्वत सभी डगमगा उठे।
दो० - सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार। (भगवान की) शोभा देखकर देवता हर्षित होकर फूलों की अपार वर्षा करने लगे और शोभा, शक्ति और गुणों के धाम करुणानिधान प्रभु की जय हो, जय हो, जय हो (ऐसा पुकारने लगे)॥ 86॥ एहीं बीच निसाचर अनी। कसमसात आई अति घनी॥ इसी बीच में निशाचरों की अत्यंत घनी सेना कसमसाती हुई (आपस में टकराती हुई) आई। उसे देखकर वानर योद्धा इस प्रकार (उसके) सामने चले जैसे प्रलयकाल के बादलों के समूह हों। बहु कृपान तरवारि चमंकहिं। जनु दहँ दिसि दामिनीं दमंकहिं॥ बहुत-से कृपाल और तलवारें चमक रही हैं। मानो दसों दिशाओं में बिजलियाँ चमक रही हों। हाथी, रथ और घोड़ों का कठोर चिंग्घाड़ ऐसा लगता है मानो बादल भयंकर गर्जन कर रहे हों। कपि लंगूर बिपुल नभ छाए। मनहुँ इंद्रधनु उए सुहाए॥ वानरों की बहुत-सी पूँछें आकाश में छाई हुई हैं। (वे ऐसी शोभा दे रही हैं) मानो सुंदर इंद्रधनुष उदय हुए हों। धूल ऐसी उठ रही है मानो जल की धारा हो। बाणरूपी बूँदों की अपार वृष्टि हुई। दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा। बज्रपात जनु बारहिं बारा॥ दोनों ओर से योद्धा पर्वतों का प्रहार करते हैं। मानो बारंबार वज्रपात हो रहा हो। रघुनाथ ने क्रोध करके बाणों की झड़ी लगा दी, (जिससे) राक्षसों की सेना घायल हो गई। लागत बान बीर
चिक्करहीं। घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीं॥ बाण लगते ही वीर चीत्कार कर उठते हैं और चक्कर खा-खाकर जहाँ-तहाँ पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं। उनके शरीर से ऐसे खून बह रहा है मानो पर्वत के भारी झरनों से जल बह रहा हो। इस प्रकार डरपोकों को भय उत्पन्न करनेवाली रुधिर की नदी बह चली। छं० - कादर भयंकर रुधिर सरिता चली परम अपावनी। डरपोकों को भय उपजानेवाली अत्यंत अपवित्र रक्त की नदी बह चली। दोनों दल उसके दोनों किनारे हैं। रथ रेत है और पहिए भँवर हैं। वह नदी बहुत भयावनी बह रही है। हाथी, पैदल, घोड़े, गधे तथा अनेकों सवारियाँ हैं, जिनकी गिनती कौन करे, नदी के जल जंतु हैं। बाण, शक्ति और तोमर सर्प हैं, धनुष तरंगें हैं और ढाल बहुत-से कछुवे हैं। दो० - बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन। वीर पृथ्वी पर इस तरह गिर रहे हैं, मानो नदी-किनारे के वृक्ष ढह रहे हों। बहुत-सी मज्जा बह रही है, वही फेन है। डरपोक जहाँ इसे देखकर डरते हैं, वहाँ उत्तम योद्धाओं के मन में सुख होता है॥ 87॥ मज्जहिं भूत पिसाच बेताला। प्रमथ महा झोटिंग कराला॥ भूत, पिशाच और बेताल, बड़े-बड़े झोंटोंवाले महान भयंकर झोटिंग और प्रमथ (शिवगण) उस नदी में स्नान करते हैं। कौए और चील भुजाएँ लेकर उड़ते हैं और एक-दूसरे से छीनकर खा जाते हैं। एक कहहिं ऐसिउ सौंघाई।
सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई॥ एक (कोई) कहते हैं, अरे मूर्खो! ऐसी सस्ती (बहुतायत) है, फिर भी तुम्हारी दरिद्रता नहीं जाती? घायल योद्धा तट पर पड़े कराह रहे हैं, मानो जहाँ-तहाँ अर्धजल (वे व्यक्ति जो मरने के समय आधे जल में रखे जाते हैं) पड़े हों। खैचहिं गीध आँत तट भए। जनु बंसी खेलत चित दए॥ गीध आँतें खींच रहे हैं, मानो मछली मार नदी तट पर से चित्त लगाए हुए (ध्यानस्थ होकर) बंसी खेल रहे हों (बंसी से मछली पकड़ रहे हों)। बहुत-से योद्धा बहे जा रहे हैं और पक्षी उन पर चढ़े चले जा रहे हैं। मानो वे नदी में नावरि (नौकाक्रीड़ा) खेल रहे हों। जोगिनि भरि भरि खप्पर संचहिं। भूति पिसाच बधू नभ नंचहिं॥ योगिनियाँ खप्परों में भर-भरकर खून जमा कर रही हैं। भूत-पिशाचों की स्त्रियाँ आकाश में नाच रही हैं। चामुंडाएँ योद्धाओं की खोपड़ियों का करताल बजा रही हैं और नाना प्रकार से गा रही हैं। जंबुक निकर कटक्कट कट्टहिं। खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं॥ गीदड़ों के समूह कट-कट शब्द करते हुए मुरदों को काटते, खाते, हुआँ-हुआँ करते और पेट भर जाने पर एक-दूसरे को डाँटते हैं। करोड़ों धड़ बिना सिर के घूम रहे हैं और सिर पृथ्वी पर पड़े जय-जय बोल रहे हैं। छं० - बोल्लहिं जो जय जय मुंड रुंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं। मुंड (कटे सिर) जय-जय बोल बोलते हैं और प्रचंड रुंड (धड़) बिना सिर के दौड़ते हैं। पक्षी खोपड़ियों में उलझ-उलझकर परस्पर लड़े मरते हैं; उत्तम योद्धा दूसरे योद्धाओं को ढहा रहे हैं। राम बल से दर्पित हुए वानर राक्षसों के झुंडों को मसले डालते हैं। राम के बाण समूहों से मरे हुए योद्धा लड़ाई के मैदान में सो रहे हैं। दो० - रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर संघार। रावण ने हृदय में विचारा कि राक्षसों का नाश हो गया है। मैं अकेला हूँ और वानर-भालू बहुत हैं, इसलिए मैं अब अपार माया रचूँ॥ 88॥ देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा॥ देवताओं ने प्रभु को पैदल (बिना सवारी के युद्ध करते) देखा, तो उनके हृदय में बड़ा भारी क्षोभ (दुःख) उत्पन्न हुआ। (फिर क्या था) इंद्र ने तुरंत अपना रथ भेज दिया। (उसका सारथी) मातलि हर्ष के साथ उसे ले आया। तेज पुंज रथ दिब्य अनूपा। हरषि
चढ़े कोसलपुर भूपा॥ उस दिव्य अनुपम और तेज के पुंज (तेजोमय) रथ पर कोसलपुरी के राजा राम हर्षित होकर चढ़े। उसमें चार चंचल, मनोहर, अजर, अमर और मन की गति के समान शीघ्र चलनेवाले (देवलोक के) घोड़े जुते थे। रथारूढ़ रघुनाथहि देखी। धाए कपि बलु पाइ बिसेषी॥ रघुनाथ को रथ पर चढ़े देखकर वानर विशेष बल पाकर दौड़े। वानरों की मार सही नहीं जाती। तब रावण ने माया फैलाई।
सो माया रघुबीरहि बाँची। लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची॥ एक रघुवीर के ही वह माया नहीं लगी। सब वानरों ने और लक्ष्मण ने भी उस माया को सच मान लिया। वानरों ने राक्षसी सेना में भाई लक्ष्मण सहित बहुत-से रामों को देखा। छं० - बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे। बहुत-से राम-लक्ष्मण देखकर वानर-भालू मन में मिथ्या डर से बहुत ही डर गए। लक्ष्मण सहित वे मानो चित्रलिखे-से जहाँ-के-तहाँ खड़े देखने लगे। अपनी सेना को आश्चर्यचकित देखकर कोसलपति भगवान हरि (दुःखों के हरनेवाले राम) ने हँसकर धनुष पर बाण चढ़ाकर, पल भर में सारी माया हर ली। वानरों की सारी सेना हर्षित हो गई। दो० - बहुरि राम सब तन चितइ बोले बचन गँभीर। फिर राम सबकी ओर देखकर गंभीर वचन बोले - हे वीरो! तुम सब बहुत ही थक गए हो, इसलिए अब (मेरा और रावण का) द्वंद्व युद्ध देखो॥ 89॥ अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पंकज सिरु नावा॥ ऐसा कहकर रघुनाथ ने ब्राह्मणों के चरणकमलों में सिर नवाया और फिर रथ चलाया। तब रावण के हृदय में क्रोध छा गया और वह गरजता तथा ललकारता हुआ सामने दौड़ा। जीतेहु जे भट संजुग माहीं। सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं॥ (उसने कहा -) अरे तपस्वी! सुनो, तुमने युद्ध में जिन योद्धाओं को जीता है, मैं उनके समान नहीं हूँ। मेरा नाम रावण है, मेरा यश सारा जगत जानता है, लोकपाल तक जिसके कैदखाने में पड़े हैं। खर दूषन बिराध तुम्ह मारा। बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा॥ तुमने खर, दूषण और विराध को मारा! बेचारे बालि का व्याध की तरह वध किया। बड़े-बड़े राक्षस योद्धाओं के समूह का संहार किया और कुंभकर्ण तथा मेघनाद को भी मारा। आजु बयरु सबु लेउँ निबाही। जौं रन भूप भाजि नहिं जाही॥ अरे राजा! यदि तुम रण से भाग न गए तो आज मैं (वह) सारा वैर निकाल लूँगा। आज मैं तुम्हें निश्चय ही काल के हवाले कर दूँगा। तुम कठिन रावण के पाले पड़े हो। सुनि दुर्बचन कालबस जाना। बिहँसि बचन कह कृपानिधाना॥ रावण के दुर्वचन सुनकर और उसे कालवश जान कृपानिधान राम ने हँसकर यह वचन कहा - तुम्हारी सारी प्रभुता, जैसा तुम कहते हो, बिल्कुल सच है। पर अब व्यर्थ बकवास न करो, अपना पुरुषार्थ दिखलाओ। छं० - जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा। व्यर्थ बकवास करके अपने सुंदर यश का नाश न करो। क्षमा करना, तुम्हें नीति सुनाता हूँ, सुनो! संसार में तीन प्रकार के पुरुष होते हैं - पाटल (गुलाब), आम और कटहल के समान। एक (पाटल) फूल देते हैं, एक (आम) फूल और फल दोनों देते हैं एक (कटहल) में केवल फल ही लगते हैं। इसी प्रकार (पुरुषों में) एक कहते हैं (करते नहीं), दूसरे कहते और करते भी हैं और एक (तीसरे) केवल करते हैं, पर वाणी से कहते नहीं। दो० - राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान। राम के वचन सुनकर वह खूब हँसा (और बोला -) मुझे ज्ञान सिखाते हो? उस समय वैर करते तो नहीं डरे, अब प्राण प्यारे लग रहे हैं॥ 90॥ कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकंधर। कुलिस समान लाग छाँड़ै सर॥ दुर्वचन कहकर रावण क्रुद्ध होकर वज्र के समान बाण छोड़ने लगा। अनेकों आकार के बाण दौड़े और दिशा, विदिशा तथा आकाश और पृथ्वी में, सब जगह छा गए। पावक सर छाँड़ेउ रघुबीरा। छन महुँ जरे निसाचर तीरा॥ रघुवीर ने अग्निबाण छोड़ा, (जिससे) रावण के सब बाण क्षणभर में भस्म हो गए। तब उसने खिसियाकर तीक्ष्ण शक्ति छोड़ी, (किंतु) राम ने उसको बाण के साथ वापस भेज दिया। कोटिन्ह चक्र त्रिसूल पबारै। बिनु प्रयास
प्रभु काटि निवारै॥ वह करोड़ों चक्र और त्रिशूल चलाता है, परंतु प्रभु उन्हें बिना ही परिश्रम काटकर हटा देते हैं। रावण के बाण किस प्रकार निष्फल होते हैं, जैसे दुष्ट मनुष्य के सब मनोरथ! तब सत बान सारथी मारेसि। परेउ भूमि जय राम पुकारेसि॥ तब उसने राम के सारथी को सौ बाण मारे। वह राम की जय पुकारकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। राम ने कृपा करके सारथी को उठाया। तब प्रभु अत्यंत क्रोध को प्राप्त हुए। छं० - भए क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे। युद्ध में शत्रु के विरुद्ध रघुनाथ क्रोधित हुए, तब तरकस में बाण कसमसाने लगे (बाहर निकलने को आतुर होने लगे)। उनके धनुष का अत्यंत प्रचंड शब्द (टंकार) सुनकर मनुष्यभक्षी सब राक्षस वातग्रस्त हो गए (अत्यंत भयभीत हो गए)। मंदोदरी का हृदय काँप उठा, समुद्र, कच्छप, पृथ्वी और पर्वत डर गए। दिशाओं के हाथी पृथ्वी को दाँतों से पकड़कर चिग्घाड़ने लगे। यह कौतुक देखकर देवता हँसे। दो० - तानेउ चाप श्रवन लगि छाँड़े बिसिख कराल। धनुष को कान तक तानकर राम ने भयानक बाण छोड़े। राम के बाण समूह ऐसे चले मानो सर्प लहलहाते (लहराते) हुए जा रहे हों॥ 91॥ चले बान सपच्छ जनु उरगा। प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा॥ बाण ऐसे चले मानो पंखवाले सर्प उड़ रहे हों। उन्होंने पहले सारथी और घोड़ों को मार डाला। फिर रथ को चूर-चूर करके ध्वजा और पताकाओं को गिरा दिया। तब रावण बड़े जोर से गरजा, पर भीतर से उसका बल थक गया था। तुरत आन रथ चढ़ि खिसिआना। अस्त्र सस्त्र छाँड़ेसि बिधि नाना॥ तुरंत दूसरे रथ पर चढ़कर खिसियाकर उसने नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र छोड़े। उसके सब उद्योग वैसे ही निष्फल हो गए, जैसे परद्रोह में लगे हुए चित्तवाले मनुष्य के होते हैं। तब रावन दस सूल चलावा। बाजि चारि महि मारि गिरावा॥ तब रावण ने दस त्रिशूल चलाए और राम के चारों घोड़ों को मारकर पृथ्वी पर गिरा दिया। घोड़ों को उठाकर रघुनाथ ने क्रोध करके धनुष खींचकर बाण छोड़े। रावन सिर सरोज बनचारी। चलि रघुबीर सिलीमुख धारी॥ रावण के सिररूपी कमल वन में विचरण करनेवाले रघुवीर के बाणरूपी भ्रमरों की पंक्ति चली। राम ने उसके दसों सिरों में दस-दस बाण मारे, जो आर-पार हो गए और सिरों से रक्त के पनाले बह चले। स्रवत रुधिर धायउ बलवाना। प्रभु पुनि कृत धनु सर संधाना॥ रुधिर बहते हुए ही बलवान रावण दौड़ा। प्रभु ने फिर धनुष पर बाण संधान किया। रघुवीर ने तीस बाण मारे और बीसों भुजाओं समेत दसों सिर काटकर पृथ्वी पर गिरा दिए। काटतहीं पुनि भए नबीने। राम बहोरि भुजा सिर छीने॥ (सिर और हाथ) काटते ही फिर नए हो गए। राम ने फिर भुजाओं और सिरों को काट गिराया। इस तरह प्रभु ने बहुत बार भुजाएँ और सिर काटे, परंतु काटते ही वे तुरंत फिर नए हो गए। पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा। अति कौतुकी कोसलाधीसा॥ प्रभु बार-बार उसकी भुजा और सिरों को काट रहे हैं, क्योंकि कोसलपति राम बड़े कौतुकी हैं। आकाश में सिर और बाहु ऐसे छा गए हैं, मानो असंख्य केतु और राहु हों। छं० - जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्रवत सोनित
धावहीं। मानो अनेकों राहु और केतु रुधिर बहाते हुए आकाश मार्ग से दौड़ रहे हों। रघुवीर के प्रचंड बाणों के (बार-बार) लगने से वे पृथ्वी पर गिरने नहीं पाते। एक-एक बाण से समूह-के-समूह सिर छिदे हुए आकाश में उड़ते ऐसे शोभा दे रहे हैं मानो सूर्य की किरणें क्रोध करके जहाँ-तहाँ राहुओं को पिरो रही हों। दो० - जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर
तिमि होहिं अपार। जैसे-जैसे प्रभु उसके सिरों को काटते हैं, वैसे-ही-वैसे वे अपार होते जाते हैं। जैसे विषयों का सेवन करने से काम (उन्हें भोगने की इच्छा) दिन-प्रतिदिन नया-नया बढ़ता जाता है॥ 92॥ दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढ़ी। बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी॥ सिरों की बाढ़ देखकर रावण को अपना मरण भूल गया और बड़ा गहरा क्रोध हुआ। वह महान अभिमानी मूर्ख गरजा और दसों धनुषों को तानकर दौड़ा। समर भूमि दसकंधर कोप्यो। बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो॥ रणभूमि में रावण ने क्रोध किया और बाण बरसाकर रघुनाथ के रथ को ढँक दिया। एक दंड (घड़ी) तक रथ दिखलाई न पड़ा, मानो कुहरे में सूर्य छिप गया हो। हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा। तब प्रभु कोपि कारमुक लीन्हा॥ जब देवताओं ने हाहाकार किया, तब प्रभु ने क्रोध करके धनुष उठाया और शत्रु के बाणों को हटाकर उन्होंने शत्रु के सिर काटे और उनसे दिशा, विदिशा, आकाश और पृथ्वी सबको पाट दिया। काटे सिर नभ मारग धावहिं। जय जय धुनि करि भय उपजावहिं॥ काटे हुए सिर आकाश मार्ग से दौड़ते हैं और जय-जय की ध्वनि करके भय उत्पन्न करते हैं। 'लक्ष्मण और वानरराज सुग्रीव कहाँ हैं? कोसलपति रघुवीर कहाँ हैं?' छं० - कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले। 'राम कहाँ हैं?' यह कहकर सिरों के समूह दौड़े, उन्हें देखकर वानर भाग चले। तब धनुष संधान करके रघुकुलमणि राम ने हँसकर बाणों से उन सिरों को भलीभाँति बेध डाला। हाथों में मुंडों की मालाएँ लेकर बहुत-सी कालिकाएँ झुंड-की-झुंड मिलकर इकट्ठी हुईं और वे रुधिर की नदी में स्नान करके चलीं। मानो संग्रामरूपी वटवृक्ष की पूजा करने जा रही हों। दो० - पुनि दसकंठ क्रुद्ध होइ छाँड़ी सक्ति
प्रचंड। फिर रावण ने क्रोधित होकर प्रचंड शक्ति छोड़ी। वह विभीषण के सामने ऐसी चली जैसे काल (यमराज) का दंड हो॥ 93॥ आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भंजन पन मोरा॥ अत्यंत भयानक शक्ति को आती देख और यह विचार कर कि मेरा प्रण शरणागत के दुःख का नाश करना है, राम ने तुरंत ही विभीषण को पीछे कर लिया और सामने होकर वह शक्ति स्वयं सह ली। लागि सक्ति मुरुछा कछु
भई। प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई॥ शक्ति लगने से उन्हें कुछ मूर्च्छा हो गई। प्रभु ने तो यह लीला की, पर देवताओं को व्याकुलता हुई। प्रभु को श्रम (शारीरिक कष्ट) प्राप्त हुआ देखकर विभीषण क्रोधित हो हाथ में गदा लेकर दौड़े। रे कुभाग्य सठ मंद कुबुद्धे। तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे॥ (और बोले -) अरे अभागे! मूर्ख, नीच दुर्बुद्धि! तूने देवता, मनुष्य, मुनि, नाग सभी से विरोध किया। तूने आदर सहित शिव को सिर चढ़ाए। इसी से एक-एक के बदले में करोड़ों पाए। तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो। अब तव कालु सीस पर नाच्यो॥ उसी कारण से अरे दुष्ट! तू अब तक बचा है, (किंतु) अब काल तेरे सिर पर नाच रहा है। अरे मूर्ख! तू राम विमुख होकर संपत्ति (सुख) चाहता है? ऐसा कहकर विभीषण ने रावण की छाती के बीचों-बीच गदा मारी। छं० - उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर्यो। बीच छाती में कठोर गदा की घोर और कठिन चोट लगते ही वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके दसों मुखों से रुधिर बहने लगा; वह अपने को फिर संभालकर क्रोध में भरा हुआ दौड़ा। दोनों अत्यंत बलवान योद्धा भिड़ गए और मल्लयुद्ध में एक-दूसरे के विरुद्ध होकर मारने लगे। रघुवीर के बल से गर्वित विभीषण उसको (रावण-जैसे जगद्विजयी योद्धा को) पासंग के बराबर भी नहीं समझते।
दो० - उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ। (शिव कहते हैं -) हे उमा! विभीषण क्या कभी रावण के सामने आँख उठाकर भी देख सकता था? परंतु अब वही काल के समान उससे भिड़ रहा है। यह श्री रघुवीर का ही प्रभाव है॥ 94॥ देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धायउ हनूमान गिरि धारी॥ विभीषण को बहुत ही थका हुआ देखकर हनुमान पर्वत धारण किए हुए दौड़े। उन्होंने उस पर्वत से रावण के रथ, घोड़े और सारथी का संहार कर डाला और उसके सीने पर लात मारी। ठाढ़ रहा अति कंपित गाता। गयउ बिभीषनु जहँ जनत्राता॥ रावण खड़ा रहा, पर उसका शरीर अत्यंत काँपने लगा। विभीषण वहाँ गए, जहाँ सेवकों के रक्षक राम थे। फिर रावण ने ललकारकर हनुमान को मारा। वे पूँछ फैलाकर आकाश में चले गए। गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना॥ रावण ने पूँछ पकड़ ली, हनुमान उसको साथ लिए ऊपर उड़े। फिर लौटकर महाबलवान हनुमान उससे भिड़ गए। दोनों समान योद्धा आकाश में लड़ते हुए एक-दूसरे को क्रोध करके मारने लगे। सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं। कज्जलगिरि सुमेरु जनु लरहीं॥ दोनों बहुत-से छल-बल करते हुए आकाश में ऐसे शोभित हो रहे हैं मानो कज्जलगिरि और सुमेरु पर्वत लड़ रहे हों। जब बुद्धि और बल से राक्षस गिराए न गिरा तब मारुति हनुमान ने प्रभु को स्मरण किया। छं० -
संभारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो। श्री रघुवीर का स्मरण करके धीर हनुमान ने ललकारकर रावण को मारा। वे दोनों पृथ्वी पर गिरते और फिर उठकर लड़ते हैं; देवताओं ने दोनों की 'जय-जय' पुकारी। हनुमान पर संकट देखकर वानर-भालू क्रोधातुर होकर दौड़े, किंतु रण-मद-माते रावण ने सब योद्धाओं को अपनी प्रचंड भुजाओं के बल से कुचल और मसल डाला।
दो० - तब रघुबीर पचारे धाए कीस प्रचंड। तब रघुवीर के ललकारने पर प्रचंड वीर वानर दौड़े। वानरों के प्रबल दल को देखकर रावण ने माया प्रकट की॥ 95॥ अंतरधान भयउ छन एका। पुनि प्रगटे खल रूप अनेका॥ क्षणभर के लिए वह अदृश्य हो गया। फिर उस दुष्ट ने अनेकों रूप प्रकट किए। रघुनाथ की सेना में जितने रीछ-वानर थे, उतने ही रावण जहाँ-तहाँ (चारों ओर) प्रकट हो गए। देखे कपिन्ह अमित दससीसा। जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा॥ वानरों ने अपरिमित रावण देखे। भालू और वानर सब जहाँ-तहाँ (इधर-उधर) भाग चले। वानर धीरज नहीं धरते। हे लक्ष्मण! हे रघुवीर! बचाइए, बचाइए, यों पुकारते हुए वे भागे जा रहे हैं। दहँ दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन। गर्जहिं घोर कठोर भयावन॥ दसों दिशाओं में करोड़ों रावण दौड़ते हैं और घोर, कठोर भयानक गर्जन कर रहे हैं। सब देवता डर गए और ऐसा कहते हुए भाग चले कि हे भाई! अब जय की आशा छोड़ दो! सब सुर जिते एक दसकंधर। अब बहु भए तकहु गिरि कंदर॥ एक ही रावण ने सब देवताओं को जीत लिया था, अब तो बहुत-से रावण हो गए हैं। इससे अब पहाड़ की गुफाओं का आश्रय लो (अर्थात उनमें छिप रहो)। वहाँ ब्रह्मा, शंभु और ज्ञानी मुनि ही डटे रहे, जिन्होंने प्रभु की कुछ महिमा जानी थी। छं० - जाना प्रताप ते रहे निर्भय कपिन्ह रिपु माने
फुरे। जो प्रभु का प्रताप जानते थे, वे निर्भय डटे रहे। वानरों ने शत्रुओं (बहुत-से रावणों) को सच्चा ही मान लिया। (इससे) सब वानर-भालू विचलित होकर 'हे कृपालु! रक्षा कीजिए' (यों पुकारते हुए) भय से व्याकुल होकर भाग चले। अत्यंत बलवान रणबाँकुरे हनुमान, अंगद, नील और नल लड़ते हैं और कपटरूपी भूमि से अंकुर की भाँति उपजे हुए कोटि-कोटि योद्धा रावणों को मसलते हैं। दो० - सुर बानर देखे बिकल हँस्यो कोसलाधीस। देवताओं और वानरों को विकल देखकर कोसलपति राम हँसे और शार्गंधनुष पर एक बाण चढ़ाकर (माया के बने हुए) सब रावणों को मार डाला॥ 96॥ प्रभु छन महुँ माया सब काटी। जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी॥ प्रभु ने क्षणभर में सब माया काट डाली। जैसे सूर्य के उदय होते ही अंधकार की राशि फट जाती है (नष्ट हो जाती है)। अब एक ही रावण को देखकर देवता हर्षित हुए और उन्होंने लौटकर प्रभु पर बहुत-से पुष्प बरसाए। भुज उठाइ रघुपति कपि फेरे। फिरे एक एकन्ह तब टेरे॥ रघुनाथ ने भुजा उठाकर सब वानरों को लौटाया। तब वे एक-दूसरे को पुकार-पुकार कर लौट आए। प्रभु का बल पाकर रीछ-वानर दौड़ पड़े। जल्दी से कूदकर वे रणभूमि में आ गए। अस्तुति करत देवतन्हि देखें। भयउँ एक मैं इन्ह के लेखें॥ देवताओं को राम की स्तुति करते देख कर रावण ने सोचा, मैं इनकी समझ में एक हो गया। (परंतु इन्हें यह पता नहीं कि इनके लिए मैं एक ही बहुत हूँ) और कहा - अरे मूर्खो! तुम तो सदा के ही मेरे मरैल (मेरी मार खानेवाले) हो। ऐसा कहकर वह क्रोध करके आकाश पर (देवताओं की ओर) दौड़ा। हाहाकार करत सुर भागे। खलहु जाहु कहँ मोरें आगे॥ देवता हाहाकार करते हुए भागे। (रावण ने कहा -) दुष्टो! मेरे आगे से कहाँ जा सकोगे? देवताओं को व्याकुल देखकर अंगद दौड़े और उछलकर रावण का पैर पकड़कर (उन्होंने) उसको पृथ्वी पर गिरा दिया। छं० - गहि भूमि पार्यो लात मार्यो बालिसुत प्रभु पहिं गयो। उसे पकड़कर पृथ्वी पर गिराकर लात मारकर बालिपुत्र अंगद प्रभु के पास चले गए। रावण सँभलकर उठा और बड़े भंयकर कठोर शब्द से गरजने लगा। वह दर्प करके दसों धनुष चढ़ाकर उन पर बहुत-से बाण संधान करके बरसाने लगा। उसने सब योद्धाओं को घायल और भय से व्याकुल कर दिया और अपना बल देखकर वह हर्षित होने लगा। दो० - तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप। तब रघुनाथ ने रावण के सिर, भुजाएँ, बाण और धनुष काट डाले। पर वे फिर बहुत बढ़ गए, जैसे तीर्थ में किए हुए पाप बढ़ जाते हैं (कई गुना अधिक भयानक फल उत्पन्न करते हैं)!॥ 97॥ सिर भुज बाढ़ि देखि रिपु केरी। भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी॥ शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती देखकर रीछ-वानरों को बहुत ही क्रोध हुआ। यह मूर्ख भुजाओं के और सिरों के कटने पर भी नहीं मरता, (ऐसा कहते हुए) भालू और वानर योद्धा क्रोध करके दौड़े। बालितनय मारुति नल नीला। बानरराज दुबिद बलसीला॥ बालिपुत्र अंगद, मारुति हनुमान, नल, नील, वानरराज सुग्रीव और द्विविद आदि बलवान उस पर वृक्ष और पर्वतों का प्रहार करते हैं। वह उन्हीं पर्वतों और वृक्षों को पकड़कर वानरों को मारता है। एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी। भागि चलहिं एक लातन्ह मारी। कोई एक वानर नखों से शत्रु के शरीर को फाड़कर भाग जाते हैं, तो कोई उसे लातों से मारकर। तब नल और नील रावण के सिरों पर चढ़ गए और नखों से उसके ललाट को फाड़ने लगे। रुधिर देखि बिषाद उर भारी। तिन्हहि धरन कहुँ भुजा पसारी॥ खून देखकर उसे हृदय में बड़ा दुःख हुआ। उसने उनको पकड़ने के लिए हाथ फैलाए, पर वे पकड़ में नहीं आते, हाथों के ऊपर-ऊपर ही फिरते हैं मानो दो भौंरे कमलों के वन में विचरण कर रहे हों। कोपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरी। महि पटकत भजे भुजा मरोरी॥ तब उसने क्रोध करके उछलकर दोनों को पकड़ लिया। पृथ्वी पर पटकते समय वे उसकी भुजाओं को मरोड़कर भाग छूटे। फिर उसने क्रोध करके हाथों में दसों धनुष लिए और वानरों को बाणों से मारकर घायल कर दिया। हनुमदादि मुरुछित करि बंदर। पाइ प्रदोष हरष
दसकंधर॥ हनुमान आदि सब वानरों को मूर्च्छित करके और संध्या का समय पाकर रावण हर्षित हुआ। समस्त वानर-वीरों को मूर्च्छित देखकर रणधीर जाम्बवान दौड़े। संग भालु भूधर तरु धारी। मारन लगे पचारि पचारी॥ जाम्बवान के साथ जो भालू थे, वे पर्वत और वृक्ष धारण किए रावण को ललकार-ललकार कर मारने लगे। बलवान रावण क्रोधित हुआ और पैर पकड़-पकड़कर वह अनेकों योद्धाओं को पृथ्वी पर पटकने लगा। देखि भालुपति निज दल घाता। कोपि माझ उर मारेसि लाता॥ जाम्बवान ने अपने दल का विध्वंस देखकर क्रोध करके रावण की छाती में लात मारी। छं० - उर लात घात प्रचंड लागत बिकल रथ ते महि परा। छाती में लात का प्रचंड आघात लगते ही रावण व्याकुल होकर रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसने बीसों हाथों में भालूओं को पकड़ रखा था। (ऐसा जान पड़ता था) मानो रात्रि के समय भौंरे कमलों में बसे हुए हों। उसे मूर्च्छित देखकर, फिर लात मारकर ऋक्षराज जाम्बवान प्रभु के पास चले। रात्रि जानकर सारथी रावण को रथ में डालकर उसे होश में लाने का उपाय करने लगा। दो० - मुरुछा बिगत भालु कपि सब आए प्रभु पास। मूर्च्छा दूर होने पर सब रीछ-वानर प्रभु के पास आए। उधर सब राक्षसों ने बहुत ही भयभीत होकर रावण को घेर लिया॥ 98॥ तेही निसि सीता पहिं जाई।
त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई॥ उसी रात त्रिजटा ने सीता के पास जाकर उन्हें सब कथा कह सुनाई। शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती का संवाद सुनकर सीता के हृदय में बड़ा भय हुआ। मुख मलीन उपजी मन चिंता। त्रिजटा सन बोली तब सीता॥ (उनका) मुख उदास हो गया, मन में चिंता उत्पन्न हो गई। तब सीता त्रिजटा से बोलीं - हे माता! बताती क्यों नहीं? क्या होगा? संपूर्ण विश्व को दुःख देनेवाला यह किस प्रकार मरेगा? रघुपति सर सिर कटेहुँ न मरई। बिधि बिपरीत चरित सब करई॥ रघुनाथ के बाणों से सिर कटने पर भी नहीं मरता। विधाता सारे चरित्र विपरीत (उलटे) ही कर रहा है। (सच बात तो यह है कि) मेरा दुर्भाग्य ही उसे जिला रहा है, जिसने मुझे भगवान के चरणकमलों से अलग कर दिया है। जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा। अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा॥ जिसने कपट का झूठा स्वर्ण मृग बनाया था, वही दैव अब भी मुझ पर रूठा हुआ है, जिस विधाता ने मुझसे दुःसह दुःख सहन कराए और लक्ष्मण को कड़वे वचन कहलाए, रघुपति बिरह सबिष सर भारी। तकि तकि मार बार बहु मारी॥ जो रघुनाथ के विरहरूपी बड़े विषैले बाणों से तक-तककर मुझे बहुत बार मारकर, अब भी मार रहा है; और ऐसे दुःख में भी जो मेरे प्राणों को रख रहा है, वही विधाता उस (रावण) को जिला रहा है, दूसरा कोई नहीं। बहु बिधि कर बिलाप जानकी। करि करि सुरति कृपानिधान की॥ कृपानिधान राम की याद कर-करके जानकी बहुत प्रकार से विलाप कर रही हैं। त्रिजटा ने कहा - हे राजकुमारी! सुनो, देवताओं का शत्रु रावण हृदय में बाण लगते ही मर जाएगा। प्रभु ताते उर हतइ न तेही। एहि के हृदयँ बसति बैदेही॥ परंतु प्रभु उसके हृदय में बाण इसलिए नहीं मारते कि इसके हृदय में जानकी (आप) बसती हैं। छं० - एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर
मम बास है। (वे यही सोचकर रह जाते हैं कि) इसके हृदय में जानकी का निवास है, जानकी के हृदय में मेरा निवास है और मेरे उदर में अनेकों भुवन हैं। अतः रावण के हृदय में बाण लगते ही सब भुवनों का नाश हो जाएगा। यह वचन सुनकर सीता के मन में अत्यंत हर्ष और विषाद हुआ देखकर त्रिजटा ने फिर कहा - हे सुंदरी! महान संदेह का त्याग कर दो; अब सुनो, शत्रु इस प्रकार मरेगा - दो० - काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान। सिरों के बार-बार काटे जाने से जब वह व्याकुल हो जाएगा और उसके हृदय से तुम्हारा ध्यान छूट जाएगा, तब सुजान (अंतर्यामी) राम रावण के हृदय में बाण मारेंगे॥ 99॥ अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई॥ ऐसा कहकर और सीता को बहुत प्रकार से समझाकर फिर त्रिजटा अपने घर चली गई। राम के स्वभाव का स्मरण करके जानकी को अत्यंत विरह व्यथा उत्पन्न हुई। निसिहि ससिहि निंदति बहु भाँति। जुग सम भई सिराति न राती॥ वे रात्रि की और चंद्रमा की बहुत प्रकार से निंदा कर रही हैं (और कह रही हैं -) रात युग के समान बड़ी हो गई, वह बीतती ही नहीं। जानकी राम के विरह में दुःखी होकर मन ही मन भारी विलाप कर रही हैं। जब अति भयउ बिरह उर दाहू। फरकेउ बाम नयन अरु बाहू॥ जब विरह के मारे हृदय में दारुण दाह हो गया, तब उनका बायाँ नेत्र और बाहु फड़क उठे। शकुन समझकर उन्होंने मन में धैर्य धारण किया कि अब कृपालु रघुवीर अवश्य मिलेंगे। इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा। निज सारथि सन खीझन लागा। यहाँ आधी रात को रावण (मूर्च्छा से) जगा और अपने सारथी पर रुष्ट होकर कहने लगा - अरे मूर्ख! तूने मुझे रणभूमि से अलग कर दिया। अरे अधम! अरे मंदबुद्धि! तुझे धिक्कार है, धिक्कार है!
तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा। भोरु भएँ रथ चढ़ि पुनि धावा॥ सारथी ने चरण पकड़कर रावण को बहुत प्रकार से समझाया। सबेरा होते ही वह रथ पर चढ़कर फिर दौड़ा। रावण का आना सुनकर वानरों की सेना में बड़ी खलबली मच गई। जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी। धाए कटकटाइ भट भारी॥ वे भारी योद्धा जहाँ-तहाँ से पर्वत और वृक्ष उखाड़कर (क्रोध से) दाँत कटकटाकर दौड़े। छं० - धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा। विकट और विकराल वानर-भालू हाथों में पर्वत लिए दौड़े। वे अत्यंत क्रोध करके प्रहार करते हैं। उनके मारने से राक्षस भाग चले। बलवान वानरों ने शत्रु की सेना को विचलित करके फिर रावण को घेर लिया। चारों ओर से चपेटे मारकर और नखों से शरीर विदीर्ण कर वानरों ने उसको व्याकुल कर दिया॥ दो० - देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार। वानरों को बड़ा ही प्रबल देखकर रावण ने विचार किया और अंतर्धान होकर क्षणभर में उसने माया फैलाई॥ 100॥ छं० - जब कीन्ह तेहिं पाषंड। भए प्रगट जंतु प्रचंड॥ जब उसने पाखंड (माया) रचा, तब भयंकर जीव प्रकट हो गए। बेताल, भूत और पिशाच हाथों में धनुष-बाण लिए प्रकट हुए! जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ मनुज कपाल॥ योगिनियाँ एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में मनुष्य की खोपड़ी लिए ताजा खून पीकर नाचने और बहुत तरह के गीत गाने लगीं। धरु मारु बोलहिं घोर। रहि पूरि धुनि चहुँ ओर॥ वे 'पक़ड़ो, मारो' आदि घोर शब्द बोल रही हैं। चारों ओर (सब दिशाओं में) यह ध्वनि भर गई। वे मुख फैलाकर खाने दौड़ती हैं। तब वानर भागने लगे। जहँ जाहिं मर्कट भागि। तहँ बरत देखहिं आगि॥ वानर भागकर जहाँ भी जाते हैं, वहीं आग जलती देखते हैं। वानर-भालू व्याकुल हो गए। फिर रावण बालू बरसाने लगा। जहँ तहँ थकित करि कीस। गर्जेउ बहुरि दससीस॥ वानरों को जहाँ-तहाँ थकित (शिथिल) कर रावण फिर गरजा। लक्ष्मण और सुग्रीव सहित सभी वीर अचेत हो गए। हा राम हा रघुनाथ। कहि सुभट मीजहिं हाथ॥ हा राम! हा रघुनाथ! पुकारते हुए श्रेष्ठ योद्धा अपने हाथ मलते (पछताते) हैं। इस प्रकार सब का बल तोड़कर रावण ने फिर दूसरी माया रची। प्रगटेसि बिपुल हनुमान। धाए गहे पाषान॥ उसने बहुत-से हनुमान प्रकट किए, जो पत्थर लिए दौड़े। उन्होंने चारों ओर दल बनाकर राम को जा घेरा। मारहु धरहु जनि जाइ। कटकटहिं पूँछ उठाइ॥ वे पूँछ उठाकर कटकटाते हुए पुकारने लगे, 'मारो, पकड़ो, जाने न पावे'। उनके लंगूर (पूँछ) दसों दिशाओं में शोभा दे रहे हैं और उनके बीच में कोसलराज राम हैं। छं० - तेहिं मध्य
कोसलराज सुंदर स्याम तन सोभा लही। उनके बीच में कोसलराज का सुंदर श्याम शरीर ऐसी शोभा पा रहा है, मानो ऊँचे तमाल वृक्ष के लिए अनेक इंद्रधनुषों की श्रेष्ठ बाड़ (घेरा) बनाई गई हो। प्रभु को देखकर देवता हर्ष और विषादयुक्त हृदय से 'जय, जय, जय' ऐसा बोलने लगे। तब रघुवीर ने क्रोध करके एक ही बाण में निमेषमात्र में रावण की सारी माया हर ली।
माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे। माया दूर हो जाने पर वानर-भालू हर्षित हुए और वृक्ष तथा पर्वत ले-लेकर सब लौट पड़े। राम ने बाणों के समूह छोड़े, जिनसे रावण के हाथ और सिर फिर कट-कटकर पृथ्वी पर गिर पड़े। श्री राम और रावण के युद्ध का चरित्र यदि सैकड़ों शेष, सरस्वती, वेद और कवि अनेक कल्पों तक गाते रहें, तो भी उसका पार नहीं पा सकते। दो० - ताके गुन गन कछु कहे जड़मति तुलसीदास। उसी चरित्र के कुछ गुणगण मंद बुद्धि तुलसीदास ने कहे हैं, जैसे मक्खी भी अपने पुरुषार्थ के अनुसार आकाश में उड़ती है॥ 101(क)॥ काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लंकेस। सिर और भुजाएँ बहुत बार काटी गईं। फिर भी वीर रावण मरता नहीं। प्रभु तो खेल कर रहे हैं; परंतु मुनि, सिद्ध और देवता उस क्लेश को देखकर (प्रभु को क्लेश पाते समझकर) व्याकुल हैं॥ 101(ख)॥ काटत बढ़हिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥ काटते ही सिरों का समूह बढ़ जाता है, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है। शत्रु मरता नहीं और परिश्रम बहुत हुआ। तब राम ने विभीषण की ओर देखा। उमा काल मर जाकीं ईछा। सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा॥ (शिव कहते हैं -) हे उमा! जिसकी इच्छा मात्र से काल भी मर जाता है, वही प्रभु सेवक की प्रीति की परीक्षा ले रहे हैं। (विभीषण ने कहा -) हे सर्वज्ञ! हे चराचर के स्वामी! हे शरणागत के पालन करनेवाले! हे देवता और मुनियों को सुख देनेवाले! सुनिए - नाभिकुंड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकें॥ इसके नाभिकुंड में अमृत का निवास है। हे नाथ! रावण उसी के बल पर जीता है। विभीषण के वचन सुनते ही कृपालु रघुनाथ ने हर्षित होकर हाथ में विकराल बाण लिए। असुभ होन लागे तब
नाना। रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना॥ उस समय नाना प्रकार के अपशकुन होने लगे। बहुत-से गदहे, सियार और कुत्ते रोने लगे। जगत के दुःख (अशुभ) को सूचित करने के लिए पक्षी बोलने लगे। आकाश में जहाँ-तहाँ केतु (पुच्छल तारे) प्रकट हो गए। दस दिसि दाह होन अति लागा। भयउ परब बिनु रबि उपरागा॥ दसों दिशाओं में अत्यंत दाह होने लगा (आग लगने लगी)। बिना ही पर्व (योग) के सूर्यग्रहण होने लगा। मंदोदरी का हृदय बहुत काँपने लगा। मूर्तियाँ नेत्र-मार्ग से जल बहाने लगीं। छं० - प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही। मूर्तियाँ रोने लगीं, आकाश से वज्रपात होने लगे, अत्यंत प्रचंड वायु बहने लगी, पृथ्वी हिलने लगी, बादल रक्त, बाल और धूल की वर्षा करने लगे। इस प्रकार इतने अधिक अमंगल होने लगे कि उनको कौन कह सकता है? अपरिमित उत्पात देखकर आकाश में देवता व्याकुल होकर जय-जय पुकार उठे। देवताओं को भयभीत जानकर कृपालु रघुनाथ धनुष पर बाण संधान करने लगे। दो० - खैंचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस। कानों तक धनुष को खींचकर रघुनाथ ने इकतीस बाण छोड़े। वे राम के बाण ऐसे चले मानो कालसर्प हों॥ 102॥ सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा॥ एक बाण ने नाभि के अमृत कुंड को सोख लिया। दूसरे तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओं में लगे। बाण सिरों और भुजाओं को लेकर चले। सिरों और भुजाओं से रहित रुंड (धड़) पृथ्वी पर नाचने लगा। धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा॥ धड़ प्रचंड वेग से दौड़ता है, जिससे धरती धँसने लगी। तब प्रभु ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए। मरते समय रावण बड़े घोर शब्द से गरजकर बोला - राम कहाँ हैं? मैं ललकारकर उनको युद्ध में मारूँ!
डोली भूमि गिरत दसकंधर। छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर॥ रावण के गिरते ही पृथ्वी हिल गई। समुद्र, नदियाँ, दिशाओं के हाथी और पर्वत क्षुब्ध हो उठे। रावण धड़ के दोनों टुकड़ों को फैलाकर भालू और वानरों के समुदाय को दबाता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। मंदोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा॥ रावण की भुजाओं और सिरों को मंदोदरी के सामने रखकर रामबाण वहाँ चले, जहाँ जगदीश्वर राम थे। सब बाण जाकर तरकस में प्रवेश कर गए। यह देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए। तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि संभु चतुरानन॥ रावण का तेज प्रभु के मुख में समा गया। यह देखकर शिव और ब्रह्मा हर्षित हुए। ब्रह्मांड भर में जय-जय की ध्वनि भर गई। प्रबल भुजदंडोंवाले रघुवीर की जय हो। बरषहिं सुमन देव मुनि बृंदा। जय कृपाल जय जयति मुकुंदा॥ देवता और मुनियों के समूह फूल बरसाते हैं और कहते हैं - कृपालु की जय हो, मुकुंद की जय हो, जय हो! छं० - जय कृपा कंद मुकुंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो। हे कृपा के कंद! हे मोक्षदाता मुकुंद! हे (राग-द्वेष, हर्ष-शोक, जन्म-मृत्यु आदि) द्वंद्वों के हरनेवाले! हे शरणागत को सुख देनेवाले प्रभो! हे दुष्ट दल को विदीर्ण करनेवाले! हे कारणों के भी परम कारण! हे सदा करुणा करनेवाले! हे सर्वव्यापक विभो! आपकी जय हो। देवता हर्ष में भरे हुए पुष्प बरसाते हैं, घमाघम नगाड़े बज रहे हैं। रणभूमि में राम के अंगों ने बहुत-से कामदेवों की शोभा प्राप्त की। सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं। सिर पर जटाओं का मुकुट है, जिसके बीच-बीच में अत्यंत मनोहर पुष्प शोभा दे रहे हैं। मानो नीले पर्वत पर बिजली के समूह सहित नक्षत्र सुशोभित हो रहे हैं। राम अपने भुजदंडों से बाण और धनुष फिरा रहे हैं। शरीर पर रुधिर के कण अत्यंत सुंदर लगते हैं। मानो तमाल के वृक्ष पर बहुत-सी ललमुनियाँ चिड़ियाँ अपने महान सुख में मग्न हुई निश्चल बैठी हों। दो० - कृपादृष्टि करि बृष्टि प्रभु अभय किए सुर बृंद। प्रभु राम ने कृपादृष्टि की वर्षा करके देव समूह को निर्भय कर दिया। वानर-भालू सब हर्षित हुए और सुखधाम मुकुंद की जय हो, ऐसा पुकारने लगे॥ 103॥ पति सिर देखत मंदोदरी। मुरुछित बिकल धरनि
खसि परी॥ पति के सिर देखते ही मंदोदरी व्याकुल और मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। स्त्रियाँ रोती हुई उठ दौड़ीं और उस (मंदोदरी) को उठाकर रावण के पास आईं। पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुष सँभारा॥ पति की दशा देखकर वे पुकार-पुकारकर रोने लगीं। उनके बाल खुल गए, देह की संभाल नहीं रही। वे अनेकों प्रकार से छाती पीटती हैं और रोती हुई रावण के प्रताप का बखान करती हैं। तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक ससि तरनी॥ (वे कहती हैं -) हे नाथ! तुम्हारे बल से पृथ्वी सदा काँपती रहती थी। अग्नि, चंद्रमा और सूर्य तुम्हारे सामने तेजहीन थे। शेष और कच्छप भी जिसका भार नहीं सह सकते थे, वही तुम्हारा शरीर आज धूल में भरा हुआ पृथ्वी पर पड़ा है! बरुन कुबेर सुरेस समीरा। रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा॥ वरुण, कुबेर, इंद्र और वायु, इनमें से किसी ने भी रण में तुम्हारे सामने धैर्य धारण नहीं किया। हे स्वामी! तुमने अपने भुजबल से काल और यमराज को भी जीत लिया था। वही तुम आज अनाथ की तरह पड़े हो। जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई॥ तुम्हारी प्रभुता जगत भर में प्रसिद्ध है। तुम्हारे पुत्रों और कुटुंबियों के बल का हाय! वर्णन ही नहीं हो सकता। राम के विमुख होने से तुम्हारी ऐसी दुर्दशा हुई कि आज कुल में कोई रोनेवाला भी न रह गया। तव बस बिधि प्रचंड सब नाथा। सभय दिसिप नित नावहिं माथा॥ हे नाथ! विधाता की सारी सृष्टि तुम्हारे वश में थी। लोकपाल सदा भयभीत होकर तुमको मस्तक नवाते थे, किंतु हाय! अब तुम्हारे सिर और भुजाओं को गीदड़ खा रहे हैं। राम विमुख के लिए ऐसा होना अनुचित भी नहीं है (अर्थात उचित ही है)। काल बिबस पति कहा न माना। अग जग नाथु मनुज करि जाना॥ हे पति! काल के पूर्ण वश में होने से तुमने (किसी का) कहना नहीं माना और चराचर के नाथ परमात्मा को मनुष्य करके जाना। छं० - जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं। दैत्यरूपी वन को जलाने के लिए अग्निस्वरूप साक्षात हरि को तुमने मनुष्य करके जाना। शिव और ब्रह्मा आदि देवता जिनको नमस्कार करते हैं, उन करुणामय भगवान को हे प्रियतम! तुमने नहीं भजा। तुम्हारा यह शरीर जन्म से ही दूसरों से द्रोह करने में तत्पर तथा पाप समूहमय रहा! इतने पर भी जिन निर्विकार ब्रह्म राम ने तुमको अपना धाम दिया, उनको मैं नमस्कार करती हूँ। दो० - अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन। अहह! नाथ! रघुनाथ के समान कृपा का समुद्र दूसरा कोई नहीं है, जिन भगवान ने तुमको वह गति दी, जो योगिसमाज को भी दुर्लभ है॥ 104॥ मंदोदरी बचन सुनि काना। सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना॥ मंदोदरी के वचन कानों में सुनकर देवता, मुनि और सिद्ध सभी ने सुख माना। ब्रह्मा, महादेव, नारद और सनकादि तथा और भी जो परमार्थवादी (परमात्मा के तत्त्व को जानने और कहनेवाले) श्रेष्ठ मुनि थे। भरि लोचन रघुपतिहि निहारी। प्रेम मगन सब भए सुखारी॥ वे सभी रघुनाथ को नेत्र भरकर निरखकर प्रेममग्न हो गए और अत्यंत सुखी हुए। अपने घर की सब स्त्रियों को रोती हुई देखकर विभीषण के मन में बड़ा भारी दुःख हुआ और वे उनके पास गए।
बंधु दसा बिलोकि दुःख कीन्हा। तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा॥ उन्होंने भाई की दशा देखकर दुःख किया। तब प्रभु राम ने छोटे भाई को आज्ञा दी (कि जाकर विभीषण को धैर्य बँधाओ)। लक्ष्मण ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया। तब विभीषण प्रभु के पास लौट आए। कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका। करहु क्रिया परिहरि सब सोका॥ प्रभु ने उनको कृपापूर्ण दृष्टि से देखा (और कहा -) सब शोक त्यागकर रावण की अंत्येष्टि क्रिया करो। प्रभु की आज्ञा मानकर और हृदय में देश और काल का विचार करके विभीषण ने विधिपूर्वक सब क्रिया की। दो० - मंदोदरी आदि सब देह तिलांजलि ताहि। मंदोदरी आदि सब स्त्रियाँ उसे (रावण को) तिलांजलि देकर मन में रघुनाथ के गुणसमूहों का वर्णन करती हुई महल को गईं॥ 105॥ आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो। कृपासिंधु तब अनुज बोलायो॥ सब क्रिया-कर्म करने के बाद विभीषण ने आकर पुनः सिर नवाया। तब कृपा के समुद्र राम ने छोटे भाई लक्ष्मण को बुलाया। रघुनाथ ने कहा कि तुम, वानरराज सुग्रीव, अंगद, नल, नील जाम्बवान और मारुति सब नीतिनिपुण लोग मिलकर विभीषण के साथ जाओ और उन्हें राजतिलक कर दो। पिता के वचनों के कारण मैं नगर में नहीं आ सकता। पर अपने ही समान वानर और छोटे भाई को भेजता हूँ। तुरत चले कपि
सुनि प्रभु बचना। कीन्ही जाइ तिलक की रचना॥ प्रभु के वचन सुनकर वानर तुरंत चले और उन्होंने जाकर राजतिलक की सारी व्यवस्था की। आदर के साथ विभीषण को सिंहासन पर बैठाकर राजतिलक किया और स्तुति की। जोरि पानि सबहीं सिर नाए। सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए॥ सभी ने हाथ जोड़कर उनको सिर नवाए। तदनंतर विभीषण सहित सब प्रभु के पास आए। तब रघुवीर ने वानरों को बुला लिया और प्रिय वचन कहकर सबको सुखी किया। छं० - किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो। भगवान ने अमृत के समान यह वाणी कहकर सबको सुखी किया कि तुम्हारे ही बल से यह प्रबल शत्रु मारा गया और विभीषण ने राज्य पाया। इसके कारण तुम्हारा यश तीनों लोकों में नित्य नया बना रहेगा। जो लोग मेरे सहित तुम्हारी शुभ कीर्ति को परम प्रेम के साथ गाएँगे, वे बिना ही परिश्रम इस अपार संसार का पार पा जाएँगे। दो० - प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुंज। प्रभु के वचन कानों से सुनकर वानर-समूह तृप्त नहीं होते। वे सब बार-बार सिर नवाते हैं और चरण कमलों को पकड़ते हैं॥ 106॥ पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। लंका जाहु कहेउ भगवाना॥ फिर प्रभु ने हनुमान को बुला लिया। भगवान ने कहा – तुम लंका जाओ। जानकी को सब समाचार सुनाओ और उसका कुशल-समाचार लेकर तुम चले आओ। तब हनुमंत नगर महुँ आए। सुनि निसिचरीं निसाचर धाए॥ तब हनुमान नगर में आए। यह सुनकर राक्षस दौड़े। उन्होंने बहुत प्रकार से हनुमान की पूजा की और फिर जानकी को दिखला दिया। दूरिहि ते प्रनाम कपि कीन्हा। रघुपति दूत जानकीं चीन्हा॥ हनुमान ने ( सीता को ) दूर से ही प्रणाम किया। जानकी ने पहचान लिया कि यह वही रघुनाथ का दूत है (और पूछा -) हे तात! कहो, कृपा के धाम मेरे प्रभु छोटे भाई और वानरों की सेना सहित कुशल से तो हैं? सब बिधि कुसल कोसलाधीसा। मातु समर जीत्यो दससीसा॥ (हनुमान ने कहा -) हे माता! कोसलपति राम सब प्रकार से सकुशल हैं। उन्होंने संग्राम में दस सिरवाले रावण को जीत लिया है और विभीषण ने अचल राज्य प्राप्त किया है। हनुमान के वचन सुनकर सीता के हृदय में हर्ष छा गया। छं०
- अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा। रन जीति रिपुदल बंधु जुत पस्यामि राममनामयं॥ जानकी के हृदय में अत्यंत हर्ष हुआ। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनंदाश्रुओं का) जल छा गया। वे बार-बार कहती हैं – हे हनुमान! मैं तुझे क्या दूँ? इस वाणी (समाचार) के समान तीनों लोकों में और कुछ भी नहीं है! (हनुमान ने कहा -) हे माता! सुनिए, मैंने आज निःसंदेह सारे जगत का राज्य पा लिया, जो मैं रण में शत्रु को जीतकर भाई सहित निर्विकार राम को देख रहा हूँ। दो० - सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमंत। (जानकी ने कहा -) हे पुत्र! सुन, समस्त सद्गुण तेरे हृदय में बसें और हे हनुमान! शेष (लक्ष्मण) सहित कोसलपति प्रभु सदा तुझ पर प्रसन्न रहें॥ 107॥ अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥ हे तात! अब तुम वही उपाय करो, जिससे मैं इन नेत्रों से प्रभु के कोमल श्याम शरीर के दर्शन करूँ। तब राम के पास जाकर हनुमान ने जानकी का कुशल समाचार सुनाया। सुनि संदेसु भानुकुलभूषन। बोलि लिए जुबराज बिभीषन॥ सूर्य कुलभूषण राम ने संदेश सुनकर युवराज अंगद और विभीषण को बुला लिया (और कहा -) पवनपुत्र हनुमान के साथ जाओ और जानकी को आदर के साथ ले आओ। तुरतहिं सकल गए जहँ सीता। सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता॥ वे सब तुरंत ही वहाँ गए, जहाँ सीता थीं। सब-की-सब राक्षसियाँ नम्रतापूर्वक उनकी सेवा कर रही थीं। विभीषण ने शीघ्र ही उन लोगों को समझा दिया। उन्होंने बहुत प्रकार से सीता को स्नान कराया, बहु प्रकार भूषन पहिराए। सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए॥ बहुत प्रकार के गहने पहनाए और फिर वे एक सुंदर पालकी सजाकर ले आए। सीता प्रसन्न होकर सुख के धाम प्रियतम राम का स्मरण करके उस पर हर्ष के साथ चढ़ीं। बेतपानि रच्छक चहु पासा। चले सकल मन परम हुलासा॥ चारों ओर हाथों में छड़ी लिए रक्षक चले। सबके मनों में परम उल्लास (उमंग) है। रीछ-वानर सब दर्शन करने के लिए आए, तब रक्षक क्रोध करके उनको रोकने दौड़े। कह रघुबीर कहा मम मानहु। सीतहि सखा पयादें आनहु॥ रघुवीर ने कहा – हे मित्र! मेरा कहना मानो और सीता को पैदल ले आओ, जिससे वानर उसको माता की तरह देखें। गोसाईं राम ने हँसकर ऐसा कहा। सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे। नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे॥ प्रभु के वचन सुनकर रीछ-वानर हर्षित हो गए। आकाश से देवताओं ने बहुत-से फूल बरसाए। सीता (के असली स्वरूप) को पहले अग्नि में रखा था। अब भीतर के साक्षी भगवान उनको प्रकट करना चाहते हैं। दो० - तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद। इसी कारण करुणा के भंडार राम ने लीला से कुछ कड़े वचन कहे, जिन्हे सुनकर सब राक्षसियाँ विषाद करने लगीं॥ 108॥ प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता॥ प्रभु के वचनों को सिर चढ़ाकर मन, वचन और कर्म से पवित्र सीता बोलीं - हे लक्ष्मण! तुम मेरे धर्म के नेगी (धर्माचरण में सहायक) बनो और तुरंत आग तैयार करो। सुनि लछिमन सीता कै बानी। बिरह बिबेक धरम निति सानी॥ सीता की विरह, विवेक, धर्म और नीति से सनी हुई वाणी सुनकर लक्ष्मण के नेत्रों में जल भर आया। वे दोनों हाथ जोड़े खड़े रहे। वे भी प्रभु से कुछ कह नहीं सकते। देखि राम रुख लछिमन धाए। पावक प्रगटि काठ बहु लाए॥ फिर राम का रुख देखकर लक्ष्मण दौड़े और आग तैयार करके बहुत-सी लकड़ी ले आए। अग्नि को खूब बढ़ी हुई देखकर जानकी के हृदय में हर्ष हुआ। उन्हें भय कुछ भी नहीं हुआ। जौं मन बच क्रम मम उर माहीं। तजि रघुबीर आन गति नाहीं॥ (सीता ने लीला से कहा -) यदि मन, वचन और कर्म से मेरे हृदय में रघुवीर को छोड़कर दूसरी गति (अन्य किसी का आश्रय) नहीं है, तो अग्निदेव जो सबके मन की गति जानते हैं, (मेरे भी मन की गति जानकर) मेरे लिए चंदन के समान शीतल हो जाएँ। छं० - श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली। प्रभु राम का स्मरण करके और जिनके चरण महादेव के द्वारा वंदित हैं तथा जिनमें सीता की अत्यंत विशुद्ध प्रीति है, उन कोसलपति की जय बोलकर जानकी ने चंदन के समान शीतल हुई अग्नि में प्रवेश किया। प्रतिबिंब (सीता की छायामूर्ति) और उनका लौकिक कलंक प्रचंद अग्नि में जल गए। प्रभु के इन चरित्रों को किसी ने नहीं जाना। देवता, सिद्ध और मुनि सब आकाश में खड़े देखते हैं। धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो। तब अग्नि ने शरीर धारण करके वेदों में और जगत में प्रसिद्ध वास्तविक श्री (सीता) का हाथ पकड़ उन्हें राम को वैसे ही समर्पित किया जैसे क्षीरसागर ने विष्णु भगवान को लक्ष्मी समर्पित की थी। वे सीता राम के वाम भाग में विराजित हुईं। उनकी उत्तम शोभा अत्यंत ही सुंदर है। मानो नए खिले हुए नीले कमल के पास सोने के कमल की कली सुशोभित हो। दो० - बरषहिं सुमन हरषि सुर बाजहिं गगन निसान। देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगे। आकाश में डंके बजने लगे। किन्नर गाने लगे। विमानों पर चढ़ी अप्सराएँ नाचने लगीं॥ 109(क)॥ जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार। जानकी सहित प्रभु राम की अपरिमित और अपार शोभा देखकर रीछ-वानर हर्षित हो गए और सुख के सार रघुनाथ की जय बोलने लगे॥ 109(ख)॥ तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई॥ तब रघुनाथ की आज्ञा पाकर इंद्र का सारथी मातलि चरणों में सिर नवाकर (रथ लेकर) चला गया। तदनंतर सदा के स्वार्थी देवता आए। वे ऐसे वचन कह रहे हैं मानो बड़े परमार्थी हों। दीन बंधु दयाल रघुराया। देव कीन्हि देवन्ह पर दाया॥ हे दीनबंधु! हे दयालु रघुराज! हे परमदेव! आपने देवताओं पर बड़ी दया की। विश्व के द्रोह में तत्पर यह दुष्ट, कामी और कुमार्ग पर चलनेवाला रावण अपने ही पाप से नष्ट हो गया। तुम्ह
समरूप ब्रह्म अबिनासी। सदा एकरस सहज उदासी॥ आप समरूप, ब्रह्म, अविनाशी, नित्य, एकरस, स्वभाव से ही उदासीन (शत्रु-मित्र-भावरहित), अखंड, निर्गुण (मायिक गुणों से रहित), अजन्मे, निष्पाप, निर्विकार, अजेय, अमोघशक्ति (जिनकी शक्ति कभी व्यर्थ नहीं जाती) और दयामय हैं। मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परसुराम बपु धरी॥ आपने ही मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन और परशुराम के शरीर धारण किए। हे नाथ! जब-जब देवताओं ने दुःख पाया, तब-तब अनेकों शरीर धारण करके आपने ही उनका दुःख नाश किया। यह खल मलिन सदा सुरद्रोही। काम लोभ मद रत अति कोही॥ यह दुष्ट मलिन हृदय, देवताओं का नित्य शत्रु, काम, लोभ और मद के परायण तथा अत्यंत क्रोधी था। ऐसे अधमों के शिरोमणि ने भी आपका परम पद पा लिया। इस बात का हमारे मन में आश्चर्य हुआ। हम देवता परम अधिकारी। स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी॥ हम देवता श्रेष्ठ अधिकारी होकर भी स्वार्थपरायण हो आपकी भक्ति को भुलाकर निरंतर भवसागर के प्रवाह (जन्म-मृत्यु के चक्र) में पड़े हैं। अब हे प्रभो! हम आपकी शरण में आ गए हैं, हमारी रक्षा कीजिए। दो० - करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि। विनती करके देवता और सिद्ध सब जहाँ-के-तहाँ हाथ जोड़े खड़े रहे। तब अत्यंत प्रेम से पुलकित शरीर होकर ब्रह्मा स्तुति करने लगे - ॥ 110॥ छं० - जय राम सदा सुखधाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे॥ हे नित्य सुखधाम और (दुखों को हरनेवाले) हरि! हे धनुष-बाण धारण किए हुए रघुनाथ! आपकी जय हो। हे प्रभो! आप भव (जन्म-मरण) रूपी हाथी को विदीर्ण करने के लिए सिंह के समान हैं। हे नाथ! हे सर्वव्यापक! आप गुणों के समुद्र और परम चतुर हैं। तन काम अनेक अनूप छबी। गुन गावत सिद्ध मुनींद्र कबी॥ आपके शरीर की अनेकों कामदेवों के समान, परंतु अनुपम छवि है। सिद्ध, मुनीश्वर और कवि आपके गुण गाते रहते हैं। आपका यश पवित्र है। आपने रावणरूपी महासर्प को गरुड़ की तरह क्रोध करके पकड़ लिया। जन रंजन भंजन सोक भयं। गतक्रोध सदा प्रभु बोधमयं॥ हे प्रभो! आप सेवकों को आनंद देनेवाले, शोक और भय का नाश करनेवाले, सदा क्रोधरहित और नित्य ज्ञान स्वरूप हैं। आपका अवतार श्रेष्ठ, अपार दिव्य गुणोंवाला, पृथ्वी का भार उतारनेवाला और ज्ञान का समूह है।
अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा॥ (किंतु अवतार लेने पर भी) आप नित्य, अजन्मा, व्यापक, एक (अद्वितीय) और अनादि हैं। हे करुणा की खान राम! मैं आपको बड़े ही हर्ष के साथ नमस्कार करता हूँ। हे रघुकुल के आभूषण! हे दूषण राक्षस को मारनेवाले तथा समस्त दोषों को हरनेवाले! विभिषण दीन था, उसे आपने (लंका का) राजा बना दिया। गुन ध्यान निधान अमान अजं। नित राम नमामि बिभुं बिरजं॥ हे गुण और ज्ञान के भंडार! हे मानरहित! हे अजन्मा, व्यापक और मायिक विकारों से रहित राम! मैं आपको नित्य नमस्कार करता हूँ। आपके भुजदंडों का प्रताप और बल प्रचंड है। दुष्ट समूह के नाश करने में आप परम निपुण हैं। बिनु कारन दीन दयाल हितं। छबि धाम नमामि रमा सहितं॥ हे बिना ही कारण दीनों पर दया तथा उनका हित करनेवाले और शोभा के धाम! मैं जानकी सहित आपको नमस्कार करता हूँ। आप भवसागर से तारनेवाले हैं, कारणरूपा प्रकृति और कार्यरूप जगत दोनों से परे हैं और मन से उत्पन्न होनेवाले कठिन दोषों को हरनेवाले हैं। सर चाप मनोहर त्रोन धरं। जलजारुन लोचन भूपबरं॥ आप मनोहर बाण, धनुष और तरकस धारण करनेवाले हैं। (लाल) कमल के समान रक्तवर्ण आपके नेत्र हैं। आप राजाओं में श्रेष्ठ, सुख के मंदिर, सुंदर, (लक्ष्मी) के वल्लभ तथा मद (अहंकार), काम और झूठी ममता के नाश करनेवाले हैं। अनवद्य अखंड न गोचर गो। सब रूप सदा सब होइ न गो॥ आप अनिंद्य या दोषरहित हैं, अखंड हैं, इंद्रियों के विषय नहीं हैं। सदा सर्वरूप होते हुए भी आप वह सब कभी हुए ही नहीं, ऐसा वेद कहते हैं। यह (कोई) दंतकथा (कोरी कल्पना) नहीं है। जैसे सूर्य और सूर्य का प्रकाश अलग-अलग हैं और अलग नहीं भी हैं, वैसे ही आप भी संसार से भिन्न तथा अभिन्न दोनों ही हैं। कृतकृत्य बिभो सब बानर ए। निरखंति तवानन सादर ए॥ हे व्यापक प्रभो! ये सब वानर कृतार्थ रूप हैं, जो आदरपूर्वक ये आपका मुख देख रहे हैं। (और) हे हरे! हमारे (अमर) जीवन और देव (दिव्य) शरीर को धिक्कार है, जो हम आपकी भक्ति से रहित हुए संसार में (सांसारिक विषयों में) भूले पड़े हैं। अब दीनदयाल दया करिऐ। मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ॥ हे दीनदयालु! अब दया कीजिए और मेरी उस विभेद उत्पन्न करनेवाली बुद्धि को हर लीजिए, जिससे मैं विपरीत कर्म करता हूँ और जो दुःख है, उसे सुख मानकर आनंद से विचरता हूँ।
खल खंडन मंडन रम्य छमा। पद पंकज सेवित संभु उमा॥ आप दुष्टों का खंडन करनेवाले और पृथ्वी के रमणीय आभूषण हैं। आपके चरण-कमल शिव-पार्वती द्वारा सेवित हैं। हे राजाओं के महाराज! मुझे यह वरदान दीजिए कि आपके चरण कमलों में सदा मेरा कल्याणदायक (अनन्य) प्रेम हो। दो० - बिनय कीन्ह चतुरानन प्रेम पुलक अति गात। इस प्रकार ब्रह्मा ने अत्यंत प्रेम-पुलकित शरीर से विनती की। शोभा के समुद्र राम के दर्शन करते-करते उनके नेत्र तृप्त ही नहीं होते थे॥ 111॥ तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए॥ उसी समय दशरथ वहाँ आए। पुत्र (राम) को देखकर उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल छा गया। छोटे भाई लक्ष्मण सहित प्रभु ने उनकी वंदना की और तब पिता ने उनको आशीर्वाद दिया। तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ। जीत्यों अजय निसाचर राऊ॥ (राम ने कहा -) हे तात! यह सब आपके पुण्यों का प्रभाव है, जो मैंने अजेय राक्षसराज को जीत लिया। पुत्र के वचन सुनकर उनकी प्रीति अत्यंत बढ़ गई। नेत्रों में जल छा गया और रोमावली खड़ी हो गई। रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना। चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना॥ रघुनाथ ने पहले के (जीवित काल के) प्रेम को विचारकर, पिता की ओर देखकर ही उन्हें अपने स्वरूप का दृढ़ ज्ञान करा दिया। हे उमा! दशरथ ने भेद-भक्ति में अपना मन लगाया था, इसी से उन्होंने (कैवल्य) मोक्ष नहीं पाया। सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं॥ सगुण स्वरूप की उपासना करनेवाले भक्त इस प्रकार मोक्ष लेते भी नहीं। उनको राम अपनी भक्ति देते हैं। प्रभु को (इष्टबुद्धि से) बार-बार प्रणाम करके दशरथ हर्षित होकर देवलोक को चले गए। दो० - अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस। छोटे भाई लक्ष्मण और जानकी सहित परम कुशल प्रभु कोसलाधीश की शोभा देखकर देवराज इंद्र मन में हर्षित होकर स्तुति करने लगे - ॥ 112॥ छं० - जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम॥ शोभा के धाम, शरणागत को विश्राम देनेवाले, श्रेष्ठ तरकस, धनुष और बाण धारण किए हुए, प्रबल प्रतापी भुजदंडोंवाले राम की जय हो! जय दूषनारि खरारि। मर्दन निसाचर धारि॥ हे खरदूषण के शत्रु और राक्षसों की सेना के मर्दन करनेवाले! आपकी जय हो! हे नाथ! आपने इस दुष्ट को मारा, जिससे सब देवता सनाथ (सुरक्षित) हो गए। जय हरन धरनी भार। महिमा उदार अपार॥ हे भूमि का भार हरनेवाले! हे अपार श्रेष्ठ महिमावाले! आपकी जय हो। हे रावण के शत्रु! हे कृपालु! आपकी जय हो। आपने राक्षसों को बेहाल (तहस-नहस) कर दिया। लंकेस अति बल गर्ब। किए बस्य सुर गंधर्ब॥ लंकापति रावण को अपने बल का बहुत घमंड था। उसने देवता और गंधर्व सभी को अपने वश में कर लिया था और वह मुनि, सिद्ध, मनुष्य, पक्षी और नाग आदि सभी के हठपूर्वक (हाथ धोकर) पीछे पड़ गया था। परद्रोह रत अति दुष्ट। पायो सो फलु पापिष्ट॥ वह दूसरों से द्रोह करने में तत्पर और अत्यंत दुष्ट था। उस पापी ने वैसा ही फल पाया। अब हे दीनों पर दया करनेवाले! हे कमल के समान विशाल नेत्रोंवाले! सुनिए। मोहि रहा अति अभिमान। नहिं कोउ मोहि समान॥ मुझे अत्यंत अभिमान था कि मेरे समान कोई नहीं है, पर अब प्रभु (आप) के चरण कमलों के दर्शन करने से दुःख-समूह का देनेवाला मेरा वह अभिमान जाता रहा। कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव। अब्यक्त जेहि श्रुति गाव॥ कोई उन निर्गुन ब्रह्म का ध्यान करते हैं जिन्हें वेद अव्यक्त (निराकार) कहते हैं। परंतु हे श्री राम! मुझे तो आपका यह सगुण कोसलराज-स्वरूप ही प्रिय लगता है। बैदेहि अनुज समेत। मम हृदयँ करहु निकेत॥ जानकी और छोटे भाई लक्ष्मण सहित मेरे हृदय में अपना घर बनाइए। हे रमानिवास! मुझे अपना दास समझिए और अपनी भक्ति दीजिए। छं० - दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं। हे रमानिवास! हे शरणागत के भय को हरनेवाले और उसे सब प्रकार का सुख देनेवाले! मुझे अपनी भक्ति दीजिए। हे सुख के धाम! हे अनेकों कामदेवों की छविवाले रघुकुल के स्वामी राम! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे देवसमूह को आनंद देनेवाले, (जन्म-मृत्यु, हर्ष-विषाद, सुख-दुःख आदि) द्वंद्वों के नाश करनेवाले, मनुष्य शरीरधारी, अतुलनीय बलवाले, ब्रह्मा और शिव आदि से सेवनीय, करुणा से कोमल राम! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। दो० - अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल। हे कृपालु! अब मेरी ओर कृपा करके (कृपा दृष्टि से) देखकर आज्ञा दीजिए कि मैं क्या (सेवा) करूँ! इंद्र के ये प्रिय वचन सुनकर दीनदयालु राम बोले॥ 113॥ सुन सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसिचरन्हि जे मारे॥ हे देवराज! सुनो, हमारे वानर-भालू, जिन्हें निशाचरों ने मार डाला है, पृथ्वी पर पड़े हैं। इन्होंने मेरे हित के लिए अपने प्राण त्याग दिए। हे सुजान देवराज! इन सबको जिला दो। सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी। अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी॥ (काकभुशुंडि कहते हैं -) हे गरुड़! सुनिए प्रभु के ये वचन अत्यंत गहन (गूढ़) हैं। ज्ञानी मुनि ही इन्हें जान सकते हैं। प्रभु राम त्रिलोकी को मारकर जिला सकते हैं। यहाँ तो उन्होंने केवल इंद्र को बड़ाई दी है। सुधा बरषि कपि भालु जियाए। हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए॥ इंद्र ने अमृत बरसाकर वानर-भालूओं को जिला दिया। सब हर्षित होकर उठे और प्रभु के पास आए। अमृत की वर्षा दोनों ही दलों पर हुई। पर रीछ-वानर ही जीवित हुए, राक्षस नहीं। रामाकार भए तिन्ह के मन। मुक्त भए
छूट भव बंधन॥ क्योंकि राक्षस के मन तो मरते समय रामाकार हो गए थे। अत वे मुक्त हो गए, उनके भव-बंधन छूट गए। किंतु वानर और भालू तो सब देवांश (भगवान की लीला के परिकर) थे। इसलिए वे सब रघुनाथ की इच्छा से जीवित हो गए। राम सरिस को दीन हितकारी। कीन्हे मुकुत निसाचर झारी॥ राम के समान दीनों का हित करनेवाला कौन है? जिन्होंने सारे राक्षसों को मुक्त कर दिया! दुष्ट, पापों के घर और कामी रावण ने भी वह गति पाई जिसे श्रेष्ठ मुनि भी नहीं पाते। दो० - सुमन बरषि सब सुर चले चढ़ि चढ़ि रुचिर बिमान। फूलों की वर्षा करके सब देवता सुंदर विमानों पर चढ़-चढ़कर चले। तब सुअवसर जानकर सुजान शिव प्रभु राम के पास आए - ॥ 114(क)॥ परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि। और परम प्रेम से दोनों हाथ जोड़कर, कमल के समान नेत्रों में जल भरकर, पुलकित शरीर और गद्गद् वाणी से त्रिपुरारी शिव विनती करने लगे - ॥ 114(ख)॥ छं० - मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक॥ हे रघुकुल के स्वामी! सुंदर हाथों में श्रेष्ठ धनुष और सुंदर बाण धारण किए हुए आप मेरी रक्षा कीजिए। आप महामोहरूपी मेघसमूह के (उड़ाने के) लिए प्रचंड पवन हैं, संशयरूपी वन के (भस्म करने के) लिए अग्नि हैं और देवताओं को आनंद देनेवाले हैं। अगुन सगुन गुन मंदिर सुंदर। भ्रम
तम प्रबल प्रताप दिवाकर॥ आप निर्गुण, सगुण, दिव्य गुणों के धाम और परम सुंदर हैं। भ्रमरूपी अंधकार के (नाश के) लिए प्रबल प्रतापी सूर्य हैं। काम, क्रोध और मदरूपी हाथियों के (वध के) लिए सिंह के समान आप इस सेवक के मनरूपी वन में निरंतर वास कीजिए। बिषय मनोरथ पुंज कंज बन। प्रबल तुषार उदार पार मन॥ विषयकामनाओं के समूहरूपी कमलवन के (नाश के) लिए आप प्रबल पाला हैं, आप उदार और मन से परे हैं। भवसागर (को मथने) के लिए आप मंदराचल पर्वत हैं। आप हमारे परम भय को दूर कीजिए और हमें दुस्तर संसार सागर से पार कीजिए। स्याम गात राजीव बिलोचन। दीन बंधु प्रनतारति मोचन॥ हे श्यामसुंदर-शरीर! हे कमलनयन! हे दीनबंधु! हे शरणागत को दुःख से छुड़ानेवाले! हे राजा राम! आप छोटे भाई लक्ष्मण और जानकी सहित निरंतर मेरे हृदय के अंदर निवास कीजिए। आप मुनियों को आनंद देनेवाले, पृथ्वीमंडल के भूषण, तुलसीदास के प्रभु और भय का नाश करनेवाले हैं। दो० - नाथ जबहिं कोसलपुरीं होइहि तिलक तुम्हार। हे नाथ! जब अयोध्यापुरी में आपका राजतिलक होगा, तब हे कृपासागर! मैं आपकी उदार लीला देखने आऊँगा॥ 115॥ करि बिनती जब संभु सिधाए। तब प्रभु निकट बिभीषनु आए॥ जब शिव विनती करके चले गए, तब विभीषण प्रभु के पास आए और चरणों में सिर नवाकर कोमल वाणी से बोले - हे शार्गंधनुष के धारण करनेवाले प्रभो! मेरी विनती सुनिए - सकुल सदल प्रभु रावन मार्यो। पावन जस त्रिभुवन विस्तार्यो॥ आपने कुल और सेना सहित रावण का वध किया, त्रिभुवन में अपना पवित्र यश फैलाया और मुझ दीन, पापी, बुद्धिहीन और जातिहीन पर बहुत प्रकार से कृपा की। अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे। मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे॥ अब हे प्रभु! इस दास के घर को पवित्र कीजिए और वहाँ चलकर स्नान कीजिए, जिससे युद्ध की थकावट दूर हो जाए। हे कृपालु! खजाना, महल और संपत्ति का निरीक्षण कर प्रसन्नतापूर्वक वानरों को दीजिए। सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ। पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ॥ हे नाथ! मुझे सब प्रकार से अपना लीजिए और फिर हे प्रभो! मुझे साथ लेकर अयोध्यापुरी को पधारिए। विभीषण के कोमल वचन सुनते ही दीनदयालु प्रभु के दोनों विशाल नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया। दो० - तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात। (राम ने कहा -) हे भाई! सुनो, तुम्हारा खजाना और घर सब मेरा ही है, यह सच बात है। पर भरत की दशा याद करके मुझे एक-एक पल कल्प के समान बीत रहा है॥ 116(क)॥ तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि। तपस्वी के वेष में कृश (दुबले) शरीर से निरंतर मेरा नाम जप कर रहे हैं। हे सखा! वही उपाय करो जिससे मैं जल्दी-से-जल्दी उन्हें देख सकूँ। मैं तुमसे निहोरा (अनुरोध) करता हूँ॥ 116(ख)॥ बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर। यदि अवधि बीत जाने पर जाता हूँ तो भाई को जीता न पाऊँगा। छोटे भाई भरत की प्रीति का स्मरण करके प्रभु का शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है॥ 166(ग)॥ करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं। (राम ने फिर कहा -) हे विभीषण! तुम कल्पभर राज्य करना, मन में मेरा निरंतर स्मरण करते रहना। फिर तुम मेरे उस धाम को पा जाओगे, जहाँ सब संत जाते हैं॥ 116(घ)॥ सुनत बिभीषन बचन राम के। हरषि गहे पद कृपाधाम के॥ राम के वचन सुनते ही विभीषण ने हर्षित होकर कृपा के धाम राम के चरण पकड़ लिए। सभी वानर-भालू हर्षित हो गए और प्रभु के चरण पकड़कर उनके निर्मल गुणों का बखान करने लगे। बहुरि विभीषन भवन सिधायो। मनि गन बसन बिमान भरायो॥ फिर विभीषण महल को गए और उन्होंने मणियों के समूहों (रत्नों) से और वस्त्रों से विमान को भर लिया। फिर उस पुष्पक विमान को लाकर प्रभु के सामने रखा। तब कृपासागर राम ने हँसकर कहा - चढ़ि बिमान सुनु सखा बिभीषन। गगन जाइ बरषहु पट भूषन॥ हे सखा विभीषण! सुनो, विमान पर चढ़कर, आकाश में जाकर वस्त्रों और गहनों को बरसा दो। तब (आज्ञा सुनते) ही विभीषण ने आकाश में जाकर सब मणियों और वस्त्रों को बरसा दिया। जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं। मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं॥ जिसके मन को जो अच्छा लगता है, वह वही ले लेता है। मणियों को मुँह में लेकर वानर फिर उन्हें खाने की चीज न समझकर उगल देते हैं। यह तमाशा देखकर परम विनोदी और कृपा के धाम राम, श्री (सीता) और लक्ष्मण सहित हँसने लगे। दो० - मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद। जिनको मुनि ध्यान में भी नहीं पाते, जिन्हें वेद नेति-नेति कहते हैं, वे ही कृपा के समुद्र राम वानरों के साथ अनेकों प्रकार के विनोद कर रहे हैं॥ 117(क)॥ उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम। (शिव कहते हैं -) हे उमा! अनेकों प्रकार के योग, जप, दान, तप, यज्ञ, व्रत और नियम करने पर भी राम वैसी कृपा नहीं करते जैसी अनन्य प्रेम होने पर करते हैं॥ 117(ख)॥ भालु कपिन्ह पट भूषन पाए। पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए॥ भालूओं और वानरों ने कपड़े-गहने पाए और उन्हें पहन-पहनकर वे रघुनाथ के पास आए। अनेकों जातियों के वानरों को देखकर कोसलपति राम बार-बार हँस रहे हैं। चितइ सबन्हि पर कीन्ही दाया। बोले मृदुल बचन रघुराया॥ रघुनाथ ने कृपा दृष्टि से देखकर सब पर दया की। फिर वे कोमल वचन बोले - हे भाइयो! तुम्हारे ही बल से मैंने रावण को मारा और फिर विभीषण का राजतिलक किया। निज निज गृह अब तुम्ह सब
जाहू। सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू॥ अब तुम सब अपने-अपने घर जाओ। मेरा स्मरण करते रहना और किसी से डरना नहीं। ये वचन सुनते ही सब वानर प्रेम में विह्वल होकर हाथ जोड़कर आदरपूर्वक बोले - प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा। हमरें होत बचन सुनि मोहा॥ प्रभो! आप जो कुछ भी कहें, आपको सब सोहता है। पर आपके वचन सुनकर हमको मोह होता है। हे रघुनाथ! आप तीनों लोकों के ईश्वर हैं। हम वानरों को दीन जानकर ही आपने सनाथ (कृतार्थ) किया है। सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं। मसक कहूँ खगपति हित करहीं॥ प्रभु के (ऐसे) वचन सुनकर हम लाज के मारे मरे जा रहे हैं। कहीं मच्छर भी गरुड़ का हित कर सकते हैं? राम का रुख देखकर रीछ-वानर प्रेम में मग्न हो गए। उनकी घर जाने की इच्छा नहीं है। दो० - प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि। परंतु प्रभु की प्रेरणा (आज्ञा) से सब वानर-भालू राम के रूप को हृदय में रखकर और अनेकों प्रकार से विनती करके हर्ष और विषाद सहित घर को चले॥ 118(क)॥ कपिपति नील रीछपति अंगद नल हनुमान। वानरराज सुग्रीव, नील, ऋक्षराज जाम्बवान, अंगद, नल और हनुमान तथा विभीषण सहित और जो बलवान वानर सेनापति हैं,॥ 118(ख)॥ कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि॥ वे कुछ कह नहीं सकते; प्रेमवश नेत्रों में जल भर-भरकर, नेत्रों का पलक मारना छोड़कर (टकटकी लगाए) सम्मुख होकर राम की ओर देख रहे हैं॥ 118(ग)॥ अतिसय प्रीति देखि रघुराई। लीन्हे सकल बिमान चढ़ाई॥ रघुनाथ ने उनका अतिशय प्रेम देखकर सबको विमान पर चढ़ा लिया। तदनंतर मन-ही-मन विप्रचरणों में सिर नवाकर उत्तर दिशा की ओर विमान चलाया। चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहइ सबु कोई॥ विमान के चलते समय बड़ा शोर हो रहा है। सब कोई रघुवीर की जय कह रहे हैं। विमान में एक अत्यंत ऊँचा मनोहर सिंहासन है। उस पर श्री (सीता) सहित प्रभु राम विराजमान हो गए। राजत रामु सहित भामिनी। मेरु सृंग जनु घन दामिनी॥ पत्नी सहित राम ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो सुमेरु के शिखर पर बिजली सहित श्याम मेघ हो। सुंदर विमान बड़ी शीघ्रता से चला। देवता हर्षित हुए और उन्होंने फूलों की वर्षा की।
परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी। सागर सर सरि निर्मल बारी॥ अत्यंत सुख देनेवाली तीन प्रकार की (शीतल, मंद, सुगंधित) वायु चलने लगी। समुद्र, तालाब और नदियों का जल निर्मल हो गया। चारों ओर सुंदर शकुन होने लगे। सबके मन प्रसन्न हैं, आकाश और दिशाएँ निर्मल हैं। कह रघुबीर देखु रन सीता। लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता॥ रघुवीर ने कहा - हे सीते! रणभूमि देखो। लक्ष्मण ने यहाँ इंद्र को जीतनेवाले मेघनाद को मारा था। हनुमान और अंगद के मारे हुए ये भारी-भारी निशाचर रणभूमि में पड़े हैं। कुंभकरन रावन द्वौ भाई। इहाँ हते सुर मुनि दुःखदाई॥ देवताओं और मुनियों को दुःख देनेवाले कुंभकर्ण और रावण दोनों भाई यहाँ मारे गए। दो० - इहाँ सेतु बाँध्यों अरु थापेउँ सिव सुख धाम। मैंने यहाँ पुल बाँधा (बँधवाया) और सुखधाम शिव की स्थापना की। तदनंतर कृपानिधान राम ने सीता सहित रामेश्वर महादेव को प्रणाम किया॥ 119(क)॥ जहँ जहँ कृपासिंधु बन कीन्ह बास बिश्राम। वन में जहाँ-तहाँ करुणा सागर राम ने निवास और विश्राम किया था, वे सब स्थान प्रभु ने जानकी को दिखलाए और सबके नाम बतलाए॥ 119(ख)॥ तुरत बिमान तहाँ चलि आवा। दंडक बन जहँ परम सुहावा॥ विमान शीघ्र ही वहाँ चला आया, जहाँ परम सुंदर दंडकवन था और अगस्त्य आदि बहुत-से मुनिराज रहते थे। राम इन सबके स्थानों में गए। सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा। चित्रकूट आए जगदीसा॥ संपूर्ण ऋषियों से आशीर्वाद पाकर जगदीश्वर राम चित्रकूट आए। वहाँ मुनियों को संतुष्ट किया। (फिर) विमान वहाँ से आगे तेजी के साथ चला। बहुरि राम जानकिहि देखाई। जमुना कलि मल हरनि सुहाई॥ फिर राम ने जानकी को कलियुग के पापों का हरण करनेवाली सुहावनी यमुना के दर्शन कराए। फिर पवित्र गंगा के दर्शन किए। राम ने कहा - हे सीते! इन्हें प्रणाम करो। तीरथपति पुनि देखु प्रयागा। निरखत जन्म कोटि अघ भागा॥ फिर तीर्थराज प्रयाग को देखो, जिसके दर्शन से ही करोड़ों जन्मों के पाप भाग जाते हैं। फिर परम पवित्र त्रिवेणी के दर्शन करो, जो शोकों को हरनेवाली और हरि के परम धाम (पहुँचने) के लिए सीढ़ी के समान है। फिर अत्यंत पवित्र अयोध्यापुरी के दर्शन करो, जो तीनों प्रकार के तापों और भव (आवागमनरूपी) रोग का नाश करनेवाली है। दो० - सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम। यों कहकर कृपालु राम ने सीता सहित अवधपुरी को प्रणाम किया। सजल नेत्र और पुलकित शरीर होकर राम बार-बार हर्षित हो रहे हैं॥ 120(क)॥ पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह। फिर त्रिवेणी में आकर प्रभु ने हर्षित होकर स्नान किया और वानरों सहित ब्राह्मणों को अनेकों प्रकार के दान दिए॥ 120(ख)॥ प्रभु हनुमंतहि कहा बुझाई। धरि बटु रूप अवधपुर जाई॥ तदनंतर प्रभु ने हनुमान को समझाकर कहा - तुम ब्रह्मचारी का रूप धरकर अवधपुरी को जाओ। भरत को हमारी कुशल सुनाना और उनका समाचार लेकर चले आना। तुरत पवनसुत गवनत भयऊ। तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ॥ पवनपुत्र हनुमान तुरंत ही चल दिए। तब प्रभु भरद्वाज के पास गए। मुनि ने (इष्ट बुद्धि से) उनकी अनेकों प्रकार से पूजा की और स्तुति की और फिर (लीला की दृष्टि से) आशीर्वाद दिया। मुनि पद बंदि जुगल कर जोरी। चढ़ि बिमान प्रभु चले बहोरी॥ दोनों हाथ जोड़कर तथा मुनि के चरणों की वंदना करके प्रभु विमान पर चढ़कर फिर (आगे) चले। यहाँ जब निषादराज ने सुना कि प्रभु आ गए, तब उसने 'नाव कहाँ है? नाव कहाँ है?' पुकारते हुए लोगों को बुलाया। सुरसरि नाघि जान तब आयो। उतरेउ तट
प्रभु आयसु पायो॥ इतने में ही विमान गंगा को लाँघकर (इस पार) आ गया और प्रभु की आज्ञा पाकर वह किनारे पर उतरा। तब सीता बहुत प्रकार से गंगा की पूजा करके फिर उनके चरणों पर गिरीं। दीन्हि असीस हरषि मन गंगा। सुंदरि तव अहिवात अभंगा॥ गंगा ने मन में हर्षित होकर आशीर्वाद दिया - हे सुंदरी! तुम्हारा सुहाग अखंड हो। भगवान के तट पर उतरने की बात सुनते ही निषादराज गुह प्रेम में विह्वल होकर दौड़ा। परम सुख से परिपूर्ण होकर वह प्रभु के समीप आया, प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही। परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही॥ और जानकी सहित प्रभु को देखकर वह (आनंद-समाधि में मग्न होकर) पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसे शरीर की सुधि न रही। रघुनाथ ने उसका परम प्रेम देखकर उसे उठाकर हर्ष के साथ हृदय से लगा लिया। छं० - लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापति। सुजानों के राजा (शिरोमणि), लक्ष्मीकांत, कृपानिधान भगवान ने उसको हृदय से लगा लिया और अत्यंत निकट बैठकर कुशल पूछी। वह विनती करने लगा - आपके जो चरणकमल ब्रह्मा और शंकर से सेवित हैं, उनके दर्शन करके मैं अब सकुशल हूँ। हे सुखधाम! हे पूर्णकाम राम! मैं आपको नमस्कार करता हूँ, नमस्कार करता हूँ। सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो। सब प्रकार से नीच उस निषाद को भगवान ने भरत की भाँति हृदय से लगा लिया। तुलसीदास कहते हैं - इस मंदबुद्धि ने (मैंने) मोहवश उस प्रभु को भुला दिया। रावण के शत्रु का यह पवित्र करनेवाला चरित्र सदा ही राम के चरणों में प्रीति उत्पन्न करनेवाला है। यह कामादि विकारों को हरनेवाला और (भगवान के स्वरूप का) विशेष ज्ञान उत्पन्न करनेवाला है। देवता, सिद्ध और मुनि आनंदित होकर इसे गाते हैं। दो० - समर
बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान। जो सुजान लोग रघुवीर की समर विजय संबंधी लीला को सुनते हैं, उनको भगवान नित्य विजय, विवेक और विभूति (ऐश्वर्य) देते हैं॥ 121(क)॥ यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार। अरे मन! विचार करके देख! यह कलिकाल पापों का घर है। इसमें श्री रघुनाथ के नाम को छोड़कर (पापों से बचने के लिए) दूसरा कोई आधार नहीं है॥ 121(ख)॥ इति
श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने षष्ठः सोपानः समाप्तः। (लंकाकांड समाप्त) |