प्रकृति ने अपनी उदारता से मनुष्य को विविध आवश्यकताएँ पूरी करने के लिये विभिन्न साधनों का नि:शुल्क उपहार दिया है। प्राकृतिक परिवेश से मनुष्य को विभिन्न उपयोगों के लिये प्राप्त इन प्राकृतिक नि:शुल्क उपहारों को प्राकृतिक संसाधन कहा जाता है। इन प्राकृतिक संसाधनों को जितनी कुशलता से प्रयोग योग्य वस्तुओं एवं सेवाओं में परिवर्तित कर लिया जाये, उतने ही श्रेयष्कर रूप में व्यक्ति की भोजन, आवास, वस्त्र, स्वास्थ्य और चिकित्सा, यातायात एवं संसार की आवश्यकताएँ पूरी हो सकती है। अत: यह कहा जा सकता है कि किसी अर्थव्यवस्था का आर्थिक विकास स्तर वहाँ उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की कोई भी कमी अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास के स्तर को कुछ अंशों में सीमित करने में समर्थ है, परंतु यह भी निर्विवाद है कि मानवीय उद्यमशीलता और प्रौद्योगिक परिवर्तन प्राकृतिक संसाधनों की कमी के अभाव को निरस्त कर सकते हैं या एक महत्त्वपूर्ण अंश में कम कर सकते हैं, इसलिये विकास की अनिवार्यता के रूप में संसाधनों के विदोहन का पक्ष भी सक्षम, उपयोगी और समाज के अनुकूल होना चाहिए। Show विज्ञान और प्रौद्योगिकी के माध्यम से ज्ञात प्राकृतिक संसाधनों को वस्तुओं और सेवाओं में अधिक कुशलता पूर्वक परिवर्तित किया जा सकता है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी की सहायता से उत्पादन में विविधीकरण किया जा सकता है, प्रयोग योग्य नवीन वस्तुओं का सृजन किया जा सकता है और जीवन-यापन को अधिक सुविधापूर्ण और सरल बनाने के लिये प्रकृति की गर्त में निहित संसाधनों की खोज की जा सकती है। अत: यह कहा जा सकता है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विविध उत्पादक क्षेत्रों जैसे कृषि एवं संबंद्ध क्रियायें निर्माण, विनिर्माण सेवाओं के उत्पादन को अधिक सक्षमता के साथ बढ़ा सकता है। इसलिये तीव्र आर्थिक विकास के लिये विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी न केवल सहायक वरन एक अपरिहार्य अवयव है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इसी महत्त्व के कारण पं. जवाहर लाल नेहरू, जिन्होंने भारत में वैज्ञानिक विकास की पृष्ठ भूमि तैयार की थी, मानते थे कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के द्वारा ही विकास को गति प्रदान की जा सकती है। पहले जनसंख्या कम थी इसलिये संसाधनों पर दबाव भी अत्यंत कम था, क्योंकि सामाजिक आवश्यकताएँ सुगमता से पूरी हो जाती थी। वर्तमान स्थिति अत्यंत जटिल और चुनौतीपूर्ण है। वर्तमान समय में जनसंख्या बढ़ी है, लोगों की आय भी बढ़ी है, उपभोग प्रवृत्ति बढ़ी है, उपभोग की संरचना में परिवर्तन हुआ है, जबकि संसाधनों की मात्रा में तदनुसार परिवर्तन नहीं हुआ, अत: विद्यमान संसाधनों से ही अब अधिक जनसंख्या की बढ़ी हुई आवश्यकताओं को पूरा करना है। इस वर्तमान सामाजिक संदर्भ में सामाजिक साध्यों को पूरा करने के लिये साधनों के कुशलतम प्रयोग की आवश्यकता है और इसके लिये विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो गई है। स्वतंत्र भारत में विशेषकर नियोजन काल में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है, इसके परिणाम स्वरूप अर्थ व्यवस्था के विभिन्न उत्पादक क्षेत्रों की समग्र भौतिक उपज में वृद्धि हुई है और सामाजिक मूल्यों तथा मान्यताओं में भी परिवर्तन हुआ है। आर्थिक क्रियाओं में आधुनिकता और जटिलता के ऊँचे प्रतिमान प्राप्त हुए हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के परिणाम स्वरूप अर्थ व्यवस्था के प्राथमिक, द्वितीयक, एवं तृतीयक क्षेत्र के प्रसार होने के अतिरिक्त एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ है कि समग्र राष्ट्रीय उत्पादन की संरचना में द्वितीयक तथा तृतीयक क्षेत्र जो मूलत: आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर ही आधारित है, का योगदान बढ़ता जा रहा है। विज्ञान और प्रौद्योगकी की प्रगति ने समस्त आर्थिक क्रियाओं एवं जीवन के विभिन्न पहलुओं को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। इस अध्याय में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के कृषि पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण किया जा रहा है। कृषि भारतीय अर्थ व्यवस्था का आधारभूत व्यवसाय है, समस्त जनसंख्या की खाद्यान्न आपूर्ति करने के साथ-साथ यह कई उद्योगों के लिये कच्चे माल का स्रोत लगभग 66 प्रतिशत जनसंख्या की आजीविका का आधार और निर्यात द्वारा आय अर्जन का प्रमुख स्रोत है। कृषि पर विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रभावपिछले दो दशकों में हरित क्रांति ने खाद्योन्नों के संदर्भ में जो आत्मनिर्भता प्राप्त की है। वह मुख्यत: विज्ञान और प्रौद्योगिकी की सफलता की कहानी है। अब दुर्गम क्षेत्रों के भी कृषक कृषि में नवीन विधियों तथा उन्नत तकनीक से अवगत हो गये हैं और उनका प्रयोग करने को उत्सुक हो रहे हैं। आधुनिक विज्ञान जन्य कृषि निवेशों और आधुनिक प्रौद्योगिकी के प्रयोग से कृषि क्षेत्र में सक्षमता आई है और और कृषि की मॉनसून पर निर्भरता कम हुई है। कृषि में अब नवीन विधियों और युक्तियों का प्रयोग होने के कारण प्राकृतिक प्रकोपों के गहन दुष्परिणामों में कमी हो गई है। नवीन किस्म के बीजों का उत्पादन, मृदापरीक्षण, मौसम पूर्वानुमान, भूजल स्रोत का आकलन जैव प्रौद्योगिकी आदि ऐसे कार्य हैं जिनकी क्रियाविधि में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भूमिका अत्यंत प्रमुख रही है। इससे कृषि के रूपांतरण और नवीनीकरण में सहायता प्राप्त हुई है। कृषि पर विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रभाव को श्रम, भूमि और समय की बचत करने वाले प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रभाव के कारण प्रति उत्पादन इकाई पर श्रम की अपेक्षाकृत कम मात्रा लगती है। इसे इस रूप में बताया जा सकता है कि समान श्रम के प्रयोग से अपेक्षाकृत अब अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकना संभव हो गया है, परंतु इसका आशय यह नहीं है कि नवीन प्रौद्योगिकी से श्रम की कुल मांग में कमी आई है। वस्तुत: फसल सघनता बढ़ने के कारण कुल श्रम की मांग बढ़ी है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी का दूसरा प्रभाव भूमि बचत करने वाली क्षमता के कुल श्रम की मांग बढ़ी है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी का दूसरा प्रभाव भूमि बचत करने वाली क्षमता के रूप में दिखाई पड़ता है। नवीन विधियों के प्रयोग से किसी भूमि इकाई पर किसी फसल अथवा कम से कम कुछ फसलों की अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है, अर्थात उपज की किसी दी हुई मात्रा के लिये अब कुछ फसलों की अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है, अर्थात उपज की किसी दी हुई मात्रा क लिये अब पहले से कम भूमि की आवश्यकता पड़ती है। भारत के जितने कृषि क्षेत्र पर खाद्यान्न फसलें बोकर 1981 में 105 मिलियन टन खाद्यान्न उत्पादन किया जा सकता था उतने ही भूक्षेत्र पर खाद्यान्न फसलें बोकर अब 73 मिलियन टन या इससे अधिक अनाज उत्पन्न कर लिया जाता है, इससे स्पष्ट है कि नवीन प्रौद्योगिकी भूमि बचत करने वाली है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी का तीसरा प्रभाव समय बचत करने की क्षमता के रूप में स्पष्ट होता है, अब अपेक्षाकृत कम परिपक्वता अवधि वाले बीजों का प्रचलन हो गया है। पहले धान, गेहूँ, मूंग, ज्वार, बाजरा की फसलों की परिपक्वता अवधि अधिक थी जिससे इन फसलों के खेतों में दूसरी फसल लेना कठिन हो जाता था, अरहर की फसल तो पूरे वर्ष के लिये थी, अब इसके कम परिपक्वता अवधि वाले बीजों का प्रचलन हो गया है, जिससे यदि उचित फसल चक्र अपनाया जाये तो संपर्क सिंचाई सुविधा के परिप्रेक्ष्य में वर्ष में तीन फसलें ली जा सकती हैं। 2 स्पष्ट है कि कृषि उत्पादन और उत्पादिता पर विन और प्रौद्योगकी का प्रभाव सकारात्मक हुआ है, नवीन कृषि निवेशों का समावेश हुआ है, कृषि में अनिश्चितता तत्व कम हुआ है और फसल संरचना में परिवर्तन हुआ है। इसमें सिंचाई की सुविधायें नवीन कृषि यंत्रों का प्रयोग, रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग, फसलों को बीमारियों तथा उनको क्षति पहुँचाने वाले कीटों से फसल की सुरक्षा, अधिक उपज देने वाले बीजों का चलन, आदि के संदर्भ में कृषि पर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के प्रभाव की व्यवस्था की जा सकती है। 1. सिंचन सुविधाएँ :- एक बात जिसकी ओर ध्यान देना आवश्यक है और जिसकी बहुत अधिक उपेक्षा की गई है, भारतीय खेती में जल प्रयोग की कुशलता को बढ़ाना। इसके लिये पानी का भाप के रूप में या अत्यधिक सिंचाई करने या रिसने के कारण पानी के नुकसान को कम करने का प्रयास करना चाहिए। पूर्व स्थापित सिंचाई सुविधाओं का श्रेष्ठतम उपयोग भी इतना ही महत्त्व रखता है। अभी तक हम अपने सिंचाई संबंधी विनियोग से अधिकतम लाभ प्राप्त करने में बुरी तरह विफल रहे हैं। अभी तक सिंचाई अधीन क्षेत्र से अधिकतम उत्पादन प्राप्त नहीं किया जा सका, अत: यदि सिंचाई युक्त क्षेत्र से बहु फसल नहीं तो कम से कम दोहरी फसल तो प्राप्त की जा जानी चाहिए। परंतु सत्य तो यह है कि भारत का अधिकतर क्षेत्र अभी भी एक फसली बना हुआ है। जहाँ 1950-51 में कुल सिंचित क्षेत्र का 8.2 प्रतिशत क्षेत्र ही एक से अधिक बार बोया गया जो 1970-71 में बढ़कर 23.3 प्रतिशत और 1990-91 में 33.2 प्रतिशत। स्पष्ट है कि या तो अधिकतम सिंचाई से केवल एक फसल की ही सुरक्षा होती है या सिंचाई प्राप्त क्षेत्रों में कृषि व्यवहार इतने विकसित नहीं हुए कि एक से अधिक फसल उत्पादित की जा सके। वैज्ञानिकों ने सिंचाई प्राप्त भूमि 10 से 1227 प्रति हेक्टेयर अनाज उत्पन्न करने की संभावना बताई है, यदि बहुफसली पद्धति या फसलों के उचित फसल चक्र अपनाये जाएँ। अत: यह स्पष्ट है कि वर्तमान सिंचाई साधनों के पूर्व प्रयोग द्वारा ही खाद्यान्न के 1760 लाख टन के वर्तमान उत्पादन को 3000 से 5000 लाख टन तक ले जाया जा सकता है। इस अल्प प्रयोग के कुछ महत्त्वपूर्ण कारण और उन्हें दूर करने के सुझाव निम्नलिखित हैं :- (अ) आज भारत के अधिकांश कृषकों को सिंचाई के प्रयोग के अनुकूलतम परिणाम प्राप्त करने के लिये आवश्यक ज्ञान का अभाव है उन्हें बेहतर विस्तार सेवाएँ उपलब्ध करानी होगी जिससे बहुफसल व्यवहार अपनाया जा सके। (ब) सिंचाई के अनुकूलतम प्रयोग के लिये सहायक सुविधाएँ अर्थात भू समतलीकरण, स्थल सुधार, भूमि की चकबंदी, कुशल भू कुल्याएं आदि देश के अनेक भागों में नहीं है। इस स्थिति में सुधार के लिये बड़े पैमाने पर ग्रामों में सार्वजनिक निर्माण कार्य करने होंगे। (स) आज बड़ी तथा मध्यम सिंचाई परियोजनाओं का उचित रूप से अनुरक्षण नहीं हो रहा है। छोटी सिंचाई परियोजनाओं विशेषकर तालाबों और कुओं की अधिकतर उपेक्षा की गई है। इस दोष को दूर करने के लिये वर्तमान सिंचाई पद्धति का नवीनीकरण तथा आधुनिकीकरण किया जाये। (द) आज दोषपूर्ण सिंचाई व्यवहार और उचित एवं पर्याप्त जल विकास सुविधाओं का अभाव न केवल जल के अपव्यय के लिये जिम्मेदार है बल्कि जलमग्नता, लवणता तथा क्षारमुक्तता के लिये भी उत्तरदायी है, जिसके कारण कृषि योग्य भूमि के बड़े भाग को स्थाई हानि पहुँची है। जल प्रबंध संबंधी शिक्षा और जल विकास सुविधाओं द्वारा यह दोष दूर किया जा सकता है। 2. यंत्रीकरण : इससे कृषि कार्य कम समय में पूरा करने में सहायता मिलती है। भारत में 1966 में जहाँ केवल 53 हजार ट्रैक्टर की वार्षिक मांग की दृष्टि से संयुक्त राज्य अमेरिका तथा सोवियत रूस के बाद भारत का तीसरा स्थान आता है। पंजाब, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश के कृषक ट्रैक्टर प्रयोग के प्रति अधिक सक्रिय हुए हैं। इसी प्रकार थ्रेसर, तेलइंजर, विद्युत चालित पंप सेट, सुधरे और उन्नत किस्म के हल आदि का प्रयोग तेजी से बढ़ा है। इन यंत्रों की सहायता से कृषक अपेक्षाकृत कम समय तथा उचित समय से कृषि कार्य पूरा कर लेते हैं प्रत्येक वर्ष कृषि यंत्रों का आंतरिक उत्पादन भी बढ़ा है। 3. रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग : भूमि के रासायनिक लक्षणों से पौधों के खाद्य तत्वों की वास्तविक पूर्ति का संबंध होता है, पौधे भूमि से जो आवश्यक तत्व लेते हैं उनमें नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटाश मुख्य तत्व होता है और ये तत्व भूमि में बड़ी मात्रा में पाये जाते हैं। ये पोषक तत्व पौधों के विकास को भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रभावित करते हैं, वैसे प्रत्येक तत्व पौधों के शरीर में कुछ विशेष प्रकार का कार्य करते हैं, पर उत्तम परिणाम के लिये सब तत्वों को मिलकर कार्य करना होता है, इसके अतिरिक्त भिन्न-भिन्न पौधों को भिन्न-भिन्न मात्रा में ही प्रत्येक तत्व की आवश्यकता होती है। इस प्रकार पौधों के समुचित विकास के लिये प्राकृतिक या कृत्रिम खाद के रूप में इन तत्वों की पर्याप्त पूर्ति आवश्यक है। रासायनिक उर्वरकों में जैवीय खादों के द्वारा आवश्यक तत्वों की पूर्ति में कठिनाई के कारण महत्त्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर लिया है। अमेरिका और यूरोप के अनेक देशों में कृत्रिम खाद द्वारा ही कृषि उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि की है। जैविक पदार्थों की अपेक्षा रासायनिक उर्वरकों से पौधों को पोषक तत्व शीघ्र प्राप्त होते हैं फलस्वरूप इनके द्वारा कृषि उत्पादन में तीव्र वृद्धि होती है, इसके अतिरिक्त रासायनिक उर्वरकों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक सरलता पूर्वक तथा कम समय में लाया और ले जाया जा सकता है। अत: रासायनिक उर्वरकों को भूमि की उर्वराशक्ति को बढ़ाने के लिये प्रयोग करना अत्यंत लाभदायक सिद्ध हुआ है इसलिये बढ़ती हुई जनसंख्या की उदरपूर्ति के लिये खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाना आवश्यक हो जाता है जिसके लिये रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग अनिवार्य है। भारत में 1965 में नई विकास रणनीति अपनाने के पश्चात रासायनिक उर्वरकों के उपभाग में तेजी से वृद्धि हुई है, परंतु अभी भी भारत अन्य प्रगतिशील देशों से बहुत पीछे है। उर्वरकों के उपभोग के बारे में उल्लेखनीय बातें निम्नलिखित हैं :- 1. 1991-92
में भारत में उर्वरकों का प्रति हेक्टेयर उपभोग 62 किलोग्राम था इसके विरुद्ध दक्षिण कोरिया 405 किग्रा, नीदरलैंड 315 किग्रा, बेल्जियम 275 क्रिगा और जापान 380 किग्रा है। 4. कीटनाशक रसायनों का प्रयोग : भारत में नियोजन प्रारंभ होने के पूर्व कीटनाशक रसायनों का प्रयोग नगण्य था। प्रथम पंचवर्षीय योजना के आरंभ के समय भारत में लगभग 100 टन कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता था। नियोजन काल में कीट नाशकों के प्रयोग में आशातीत वृद्धि हुई है और कृषक इनको प्रयोग करने के लिये उत्सुक हैं एवं तत्पर हुए हैं। हरितक्रांति के आरंभ के बाद से पौध संरक्षण हेतु कीट नाशक रसायनों का प्रयोग तीव्रगति से बढ़ा है। वर्ष 1980-81 में 60 हजार टन तथा 1989-90 में 75 हजार टन कीटनाशक रसायनों का प्रयोग हुआ, परंतु फसलों की बढ़ती हुई बीमारियों को देखते हुए इस दिशा में और अधिक प्रयास की आवश्यकता है। 5. उन्नतशील बीजों का प्रयोग :- देश में कृषि विकास के लिये तथा कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिये शुद्ध एवं उत्तम बीज का प्रयोग एवं प्रबंध करना बड़े महत्व का है और इसलिये उत्तम बीज की पूर्ति एवं प्रयोग में वृद्धि करने के लिये सभी प्रकार के प्रयास अपेक्षित हैं क्योंकि कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिये नवीन प्रविधियों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण तत्व अधिक उपज देने वाले चमत्कारी बीजों का समावेश रहा है। 1965-66 की खरीफ फसल से इन चमत्कारी बीजों का प्रयोग प्रारंभ किया गया। धन की ताईचुंग नेटिव-1 और गेहूँ की लेरमा रोजो किस्मों से कृषि क्षेत्र में चमत्कारी बीजों का प्रचलन प्रारंभ हुआ, इसके बाद इस कड़ी में अनेक किस्में जुड़ती गई। कृषि विशेषज्ञों ने इन बीजों की विशेषताएँ शोध के द्वारा प्राप्त की हैं। ये बीज अधिकतर बौने किस्म के होते हैं अर्थात इनके पौधों की ऊँचाई अपेक्षाकृत कम होती है, इनके फसल पक कर तैयार होने में समय भी कम लगता है। इन बीजों द्वारा तैयार फसल धूप ओर उसकी जैव क्रियाओं के प्रति असंवेदनशील होती है। प्रतिकूल मौसम को भी सहन करने की क्षमता भी अधिक होती है। जैवकीय अभियांत्रिकी की नवीन खोज चमत्कारी बीजों ने कृषि व्यवस्था में नवीन चेतना उत्पन्न कर दी है, जहाँ 1966-67 में केवल 1.89 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर अधिक उपज देने वाले बीजों का प्रसार था जो 1980-81 में बढ़कर 43 मिलियन हेक्टेयर, 1985-86 में 65.2 मिलियन हेक्टेयर और 1990-91 में 68.4 तथा 1992-93 में 71.6 मिलियन हेक्टेयर हो गया। आगामी वर्षों में इन बीजों के प्रयोग में अधिक वृद्धि की संभावना है। लगातार बढ़ती जनसंख्या के परिप्रेक्ष्य में आगामी वर्षों में कृषि पर अधिक जनसंख्या का बोझा बढ़ने की प्रवृत्ति स्पष्ट है, इस कारण कृषि क्षेत्र को अधिक खाद्यान्न कच्चे पदार्थ एवं व्यापारिक फसलों की आपूर्ति करने के लिये सुसज्जित करना पड़ेगा। इसके लिये आवश्यक है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के नवीन आयामों का समावेश उन क्षेत्रों में भी किया जाए, जहाँ अभी तक नहीं किया जा सका है। वैज्ञानिक शोध एवं विकास की दिशा उन फसलों की ओर उन्मुख होनी चाहिए जिनमें अभी कुछ नहीं किया जा सका है। दलहन और मोटे अनाजों की फसलों पर इसका प्रभाव नगण्य सा ही है। इसी प्रकार विभिन्न स्थानों की परिस्थितियों के अनुकूल बीजों का विकास किया जाना चाहिए। शुष्क कृषि क्षेत्र को भी सक्षम बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। कृषि विकास के लिये अब उन वैज्ञानिक विधियों की आवश्यकता है जो संसाधनों और कृषि आगतों का संरक्षण कर सके। इसके द्वारा कृषि आगतों की कम मात्रा से अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सके। 6. जैव प्रौद्योगिकी :- फसल विकास के अतिरिक्त जैव प्रौद्योगिकी की पशुधन विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। भारत में गाय, भैसों की संख्या विश्व में सर्वाधिक है परंतु उनकी उत्पादकता अत्यंत निम्न है। नश्ल, सुधार के संबंध में अब तक जो कार्य हुआ है वह विदेशी जाति के पशुओं से शंकर नश्ल के पशु पैदा करने तक ही सीमित रहा है। जैव प्रौद्योगिकी ने पशुधन विकास के संदर्भ में विशेषकर नश्ल सुधार के प्रति विशिष्ट संभावनाएं जागृत कर दी हैं। उसने भ्रूण परिवर्तन की दिशा में अच्छे परिणामों को प्रदर्शित किया है। इसके द्वारा विश्व के विकसित देशों के अनुरूप पशुधन को विकसित करने में सहायता प्राप्त होगी। गाय और भैंस में सर्जिकल और गैरसर्जिकल दोनों ही किश्म के भ्रूण परिवर्तन परीक्षण सफलता पूर्वक कर लिये गये हैं। भ्रूण प्रतिस्थापन प्रौद्योगिकी द्वारा तीव्र गति से सर्वोत्तम कोटि के पशु धन की प्राप्ति की संभावना बढ़ गई हैं। कृत्रिम गर्भाधान की तकनीक से वांछित किस्म के पशुओं की संख्या बढ़ाने और उनमें संशोधित उत्पादन क्षमता बढ़ाने के क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होगी। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रयोग से निर्विवाद रूप में कृषि में सुधार आया है। परंतु इसके ऋणात्मक बिंदुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है। नवीन प्रौद्योगिकी पोषित कृषि कार्यों में महिलाओं का समावेश कम होता जा रहा है। कई कृषि कार्य जो पहले केवल महिलाओं द्वारा ही संपन्न किए जाते थे उन कार्यों के लिये मशीनों के आने से महिलाओं के कार्य अवसर छिनने लगे हैं, इन मशीनों पर कार्य करने का प्रशिक्षण भी पुरुष श्रमिकों को ही दिया जाता है। इस संदर्भ में गहन विचार करने की आवश्यकता है। कुछ अन्य परिणाम भी घातक हो रहे हैं। यह पाया गया है कि रासायनिक उर्वरकों का बढ़ता हुआ प्रयोग मिट्टी कोकड़ी बना देता है जिस से उसकी जल अवशोषण क्षमता घट जाती है, इससे मिट्टी के गुणधर्म धीरे-धीरे परिवर्तित होने लगते हैं। विभिन्न कीट नाशकों का प्रयोग भी हानि कारक प्रभाव उत्पन्न कर रहा है, इन रसायनों का कुछ अंश अनाजों में अवशोषित हो जाता है जिसका मनुष्यों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। अन्य विकासशील देशों के भांति भारत भी एक कृषि बीज धनी देश रहा है, चावल और गेहूँ की हजारों किस्में भारत में रही हैं, परंतु अब यह शंका होने लगी है कि इन विभिन्न बीजों की प्रजातियाँ ही समाप्त हो जायेगी कृषि क्षेत्र में हाल के वर्षों में यंत्रीकरण बढ़ा है, गन्ना पेरने की मशीनें, विद्युत चालित कोल्हू, कुट्टी काटने की मशीनें, थ्रेसर आदि का प्रयोग बढ़ता जा रहा है परंतु इसी अनुपात में इन यंत्रों से होने वाली दुर्घटनाएँ भी बढ़ी हैं जिससे हजारों कृषक मजदूर प्रतिवर्ष अपंग हो जाते हैं। अत: कृषि विकास के संदर्भ में आवश्यकता इस बात की है कि कृषि उत्पादन को प्राकृतिक घटकों के प्रतिकूल प्रभावों से यथा संभव बचाया जाये, इसके लिये विज्ञान ओर प्रौद्योगिकी के किसी भी प्रारूप को कृषि में प्रयुक्त करने से पूर्व उसकी प्रयोग विधि को बताने के लिये जन सामान्य विशेषकर कृषि मजदूर को आवश्यक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। कृषि की परंपरागत तकनीक को भी और अधिक सक्षम बनाया जाना चाहिए कि जिससे अपेक्षाकृत कम आगतों में ही अधिक उपज प्राप्त की जा सके। स्वतंत्रता के बाद ग्रामीण अर्थ व्यवस्था में प्रगति हुई है। इसके परंपरागत स्वरूप में परिवर्तन आया है। ग्रामीण जीवन में काया पलट स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा है। यह ग्रामीण उत्थान समग्र रूप से सरकार द्वारा परिवर्तित कल्याण एवं उत्पादक कार्य, नगरीय करण एवं नगरीय संपर्क, प्रशासनिक सुधार, राजनैतिक जागरूकता, शिक्षा प्रसार एवं विज्ञान प्रौद्योगिकी का विकास का फल रहा है। प्रौद्योगिकी विकास के ग्राम्य जीवन के उत्थान में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में सहायता पहुँचाई है। विज्ञान और प्रौद्योगिकीजन्य नगरीय करण की प्रक्रिया के कारण खेतिहर समुदाय में नई आदतें और जीवन यापन के नये ढंग अपनाये हैं अब वे नये उपकरण और प्राविधिक प्रक्रियाओं को अपनाने लगे हैं। उनके पहनावे और आभूषणों में उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ है। बहुतायक कृषक और आकर्षक विशेषकर युवा पीढ़ी के लोग नये ढंग के कपड़े पहनने लगे हैं, परंपरागत पहनावा अब अत्यंत सीमित होता जा रहा है। नवीन का फैसन का प्रचार और प्रसार अब तुरंत ग्रामीण पर भी दृष्टिगोचर होने लगा है। ग्रामीण समाज में जीवन की दैनन्दनी वस्तुओं की सूची में नगरीय वस्तुएँ जुड़ गई हैं। स्टील के बर्तन, कप, प्लेट, साइकिल, स्कूटर, मोटर साइकिल, घड़ी, कुर्सी, मेज, रेडियो, दूरदर्शन, जीप फायरआर्म्स आदि का ग्रामीण जीवन में प्रभूत मात्रा में होने लगा है, वे अब आधुनिक विकास अन्य वस्तुएँ यथा टेपरिकॉर्डर, कैमरा, गोबर गैस, सिलाई मशीन, प्रेसर कूकर, स्टोव और कीमती साबुनों तथा सौंदर्य प्रशाधनों का प्रयोग करने लगे हैं। जनपद में कृषि भूमि उपयोग का तकनीकी स्तरनियोजन से पूर्व जनपद प्रतापगढ़ पूर्णतय: परंपरागत कृषि आगतों पर ही निर्भर था, लगभग समस्त कृषकों द्वारा आंतरिक आगतों (क्षेत्रगत) का ही प्रयोग किया जाता था, उस समय पौधों को पोषक तत्व प्रदान करने वाले एक मात्र जैविक उर्वरक थे। जिनको कृषक स्वत: उत्पन्न कर लेते थे। इसी प्रकार बीज, सिंचाई तथा खेत की तैयारी आदि में प्रयुक्त उपकरणों की व्यवस्था कृषक स्वयं कर लेते थे। इन्हें कृषि के परंपरागत निवेश कहा जा सकता है। अब कृषि क्षेत्र में औद्योगिक उत्पादनों का प्रयोग निरंतर बढ़ता जा रहा है। जिस कारण कृषि उद्योगों पर निर्भरता भी बढ़ती जा रही है। उद्योगजन्य कृषि यंत्र, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक रासायन, ट्रैक्टर, पम्पिग सेट इत्यादि कृषि उत्पादन प्रणाली के अभिन्न अंग बनते जा रहे हैं। कृषि की नई तकनीकी के प्रचार प्रसार के बाद तो इस दिशा में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं जिन्हें कृषिगत नवीन निवेश की संज्ञा दी जा सकती है। कृषि का आगामी स्वरूप भी इन्हीं नवीन निवेशों से प्रभावित होगा। 1. सिंचन सुविधाएँ : सिंचाई से आशय है कि मानवीय अभिकरण के माध्यम से विभिन्न फसलों की उपज बढ़ाने के लिये जल के प्रयोग से है, कुछ अन्य निर्माण कार्यों के माध्यम से भी मनुष्य जल के संचय और प्रवाह को नियंत्रित करता है, जिसका उपयोग वह विभिन्न फसलों की सिंचाई में करता है। कृषि उत्पादकता बढ़ाने में सिंचाई एक उत्प्रेरक की भूमिका का निर्वाह करती है। सिंचाई से भूमि के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणधर्म में परिवर्तन हो जाता है। सिंचाई से भूमि के आयतन में परिवर्तन होने लगता है जिससे भूमि सतह पर ‘खाद मिट्टी’ पहले की तुलना में 50 से 75 प्रतिशत तक अधिक हो जाती है। सिंचाई के साथ मिट्टी के कण फैलने और अधिक स्थान पर आच्छादित होने लगते हैं। मिट्टी के कणों की इसी सहव्यवस्था तथा पुनरव्यवस्था के कारण भूमि आयतन में परिवर्तन होता है। समुचित सिंचाई उस व्यवस्था में अपरिहार्य हो जाती है, जब वर्षा अनिश्चित, अपर्याप्त और सीमित समय अवधि में क्रेंद्रित होती है, ऐसी स्थिति में सिंचाई की दोहरी भूमि का होती है। एक ओर यह दुर्भिक्ष के विरुद्ध किसी जोखिम के निदान का बीमा है, और दूसरी ओर फसल उत्पादन और उत्पादिता बढ़ाने में इसका प्रमुख योगदान होता है। कृषि प्रधान अर्थ व्यवस्था और वर्षा की प्रकृति के परिप्रेक्ष्य में सिंचाई का जनपदीय अर्थव्यवस्था में विशेष योगदान है। जनपद में वर्षा का वार्षिक स्तर औसत रूप से 977 मिलीमीटर है। जो सम्यक कृषि के लिये अपेक्षित वर्ष स्तर से कम है, सामान्य रूप से जहाँ वार्षिक वर्षा का स्तर 1270 मिली मीटर से कम होता है वहाँ बिना सिंचाई सुविधा के कृषि कार्य कठिन होता है, इस दृष्टि से जनपद में सम्यक सिंचाई व्यवस्था कृषि विकास के लिये आवश्यक है। वार्षिक वर्षा की मात्रात्मक स्वल्पता के अतिरिक्त समय के दृष्टिकोण से भी वर्षा का वितरण भी अत्यंत असमान है। अधिकांश वर्षा जून से सितंबर तक के महीनों में होती है, शेष महीनों में सूखा अथवा अत्यल्प वर्षा होती है। जनपद में लगभग 70 प्रतिशत वर्षा जून से सितंबर तक, 17 प्रतिशत अक्टूबर से दिसंबर तक तथा लगभग 13 प्रतिशत वर्ष जनवरी से मई के मध्य होती है। इससे स्पष्ट है कि वर्षा का अधिकांश भाग केवल कुछ महीनों में ही केंद्रित हो जाता है जब कि कृषि कार्य वर्ष भर अनवरत जारी रहने की प्रवृत्ति रखता है। वर्ष का कुछ महीनों में सीमित रहना फसलों की विविधता को हतोत्साहित करती है, वे फसलें जिनकी परिपक्वता अवधि लंबी होती है, वर्षा के अभाव में उनका उत्पादन भी हतोत्साहित होता है। नियोजन काल के प्रारंभ में जनपद में नहरें सिंचाई का सबसे बड़ा स्रोत थी, दूसरा स्थान नलकूपों का था, निजी सिंचाई व्यवस्था का पूर्णतया अभाव था, जो थोड़ा बहुत था भी उसकी क्षमता अत्यंत न्यून थी, क्योंकि सिंचाई साधन परम्परागत थे जिनमें तालाबों से बेड़ी द्वारा जल प्रसार तथा कुँओं से चरसे द्वारा ही जल निकाला जाता था, इसके उपरांत चरसे का स्थान रहट ओर चेनपंपों ने ले लिया, यद्यपि इनकी क्षमता चरसे से अधिक थी। परंतु सिंचाई की आवश्यकताओं को पूरा करने में यह साधन भी अपर्याप्त थे जिसके कारण निजी नलकूप तथा डीजल पंपसेटों का महत्व बढ़ता गया और 1990 के उपरांत इन साधनों ने सिंचाई के क्षेत्र में प्रथम स्थान ग्रहण कर लिया परंतु नहरों का महल अभी भी कम करके नहीं आंका जा सकता है, नहरें आज भी शुद्ध सिंचित क्षेत्र के आधे से कुछ ही कम कृषि क्षेत्र को सिंचन सुविधा प्रदान करती है। तालिका संख्या 3.1 में जनपद में सिंचाई सुविधा का विकास दर्शाया गया है - (अ) स्रोतवार शुद्ध सिंचित क्षेत्र :
तालिका क्रमांक 3.2 जनपद में विकासखंड स्तर पर विभिन्न साधनों से प्राप्त होने वाले सिंचन क्षेत्र का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत कर रही है। तुलनात्मक रूप से यदि देखा जाय तो नहरों द्वारा 80396 हेक्टेयर क्षेत्र सिंचित है जब कि निजी नलकूपों द्वारा इससे कुछ अधिक 82756 हेक्टेयर क्षेत्र सिंचाई सुविधा प्राप्त कर रही है। अन्य साधन जिनमें राजकीय नलकूप भी सम्मिलित है, मात्र अपनी उपस्थिति ही दर्शा रही है। निजी नलकूपों की संख्या में 1990 के बाद तेजी से वृद्धि हुई है। क्योंकि नहरों द्वारा जल की अपर्याप्त मात्रा, समय पर जल का उपलब्ध न होना, आदि कारण कृषकों में निजी जल संसाधन के लिये उत्प्रेरक रहे हैं। विकासखंड स्तर पर दृष्टिपात करने पर सिंचन क्षेत्र के वितरण में पर्याप्त भिन्नता दिखाई पड़ती है जहाँ संडवा चंद्रिका विकास खंड में इस साधन द्वारा मात्र 67 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र सिंचित होता है वहीं बिहार विकासखंड सर्वाधिक 10940 हेक्टेयर क्षेत्र को सिंचन सुविधा कराकर प्रथम स्थान पर है, विकास खंड बाबागंज 10662 हेक्टेयर क्षेत्र को नहरों द्वारा यह सुविधा प्राप्त करके बिहार अनुकरण करते हुए द्वितीय स्थान पर है। राजकीय नलकूपों द्वारा सर्वाधिक सुविधा कुंडा विकास खंड प्राप्त कर रहा है, परंतु मात्र 376 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र को ही यह सुविधा प्राप्त कर पा रही है। पट्टी, आसपुर, देवसरा तथा बाबागंज विकास खंड राजकीय नलकूप बिहीन है परंतु बाबागंज विकास खंड 16 हेकटेयर क्षेत्र में सिंचन सुविधा अपने पड़ोसी विकास खंडों से प्राप्त कर रहा है। निजी नलकूपों के संसाधन से मगरौरा (9173 हेक्टेयर), आसपुर देवसरा (9137 हेक्टेयर) शिवगढ़ (9118 हेक्टेयर) विकास खंड लगभग एक समान सिंचन सुविधा प्राप्त कर रहे हैं, जबकि इसी संसाधन से कालाकांकर (1512 हेक्टेयर) विकास खंड न्यूनतम लाभ प्राप्त कर पा रहा है, कुंडा विकास खंड (1604 हेक्टेयर) की स्थिति लगभग कालाकांकर जैसी ही है। यदि समग्र सिंचन सुविधा कर तुलनात्मक अवलोकन करें तो रामपुर खास विकास खंड 13983 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र को सिंचन सुविधा उपलब्ध कराकर सर्वोच्च स्थान पर है, जबकि प्रातापगढ़, दर विकास खंड मात्र (6027) हेक्टेयर सिंचन क्षेत्र रखकर न्यूनतम स्थिति को दर्शा रहा है। गौरा, बिहार तथा बाबागंज विकास खंड क्रमश: 13713 हेक्टेयर, 13627 हेक्टेयर तथा 13321 हेक्टेयर क्षेत्र को सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराकर लगभग एक समान स्थिति को प्रदर्शित कर रहे हैं। यह भी तथ्य स्पष्ट हो रहा है कि जिन विकास खंडों में नहर द्वारा पर्याप्त सिंचन सुविधा उपलब्ध नहीं है। वहाँ पर निजी नलकूपों का प्रसार और प्रभाव अधिक है, और जहाँ पर नहरों द्वारा सिंचन सुविधा अधिक है वहाँ निजी नलकूपों का प्रभाव कम दिखाई पड़ रहा है।
सांख्यिकी क्रमांक 3.3 विकास खंड स्तर पर सिंचित क्षेत्र के विकास का चित्र प्रस्तुत कर रही है जिसमें सकल सिंचित क्षेत्र का शुद्ध-शुद्ध सिंचित क्षेत्र का अनुपात 113.1 प्रतिशत से 138.9 प्रतिशत तक पहुँच पाया है। यह अनुपात विकास खंड बाबागंज तथा बिहार में सर्वाधिक प्रगति को दर्शाता है जहाँ पर वर्ष 1984-85 के मध्य 50 प्रतिशत से अधिक प्रगति को दर्शाता है। जिसका कारण इन दो जनपदों में नहरों का विस्तार अधिक है और दोनों ही विकास खंडों में 70 प्रतिशत से अधिक सिंचाई की सुविधा नहरें प्रदान करती हैं। प्रतापगढ़ सदर विकास खंड इस अर्थ में सबसे निम्न स्तरीय प्रदर्शन करता है जिसमें गत दस वर्षों में 5 प्रतिशत से कुछ अधिक प्रगति दिखाई पड़ती है और यह विकास खंड सिंचन क्षमता के आधार पर भी समस्त विकास खंडों में न्यूनतम स्तर प्रदर्शित करता है। शुद्ध सिंचित क्षेत्रफल का शुद्ध बोये गये क्षेत्रफल के अनुपात पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि वर्ष 1984-85 तथा वर्ष 1995-96 के मध्य गौरा विकास खंड सर्वाधिक अच्छी स्थिति में है। और यहाँ इस समय अंतराल के मध्य लगभग 27 प्रतिशत प्रगति दिखाई पड़ रही है, दूसरा स्थान शिवगढ़ विकास खंड का है जहाँ पर 25 प्रतिशत से अधिक का सिंचन क्षमता का विस्तार हुआ है। इसके विपरीत बाबागंज, रामपुरखास तथा लक्ष्मणपुर विकास खंडों में इस अनुपात में 1991-92 की अपेक्षा गिरावट दर्ज हो रही है इनमें सर्वाधिक गिरावट लगभग 7 प्रतिशत लक्ष्मणपुर विकास खंड में दर्ज की गई है। इस प्रकार से इस अनुपात को 80 प्रतिशत से अधिक रखने वाले विकास खंडों में कलाकांकर, बाबागंज, बिहार तथा गौरा है इनमें गौरा 91 प्रतिशत से अधिक अनुपात को प्रदर्शित कर रहा है जब कि 70 तथा 80 प्रतिशत के मध्य कुंडा, सांगीपुर, रामपुरखास, मान्धाता, मगरौरा, पट्टी, आसपुर, देवसरा तथा शिवगढ़ विकास खंड स्थित है, शेष विकास खंड 70 प्रतिशत से नीचे स्थित हैं।
तालिका क्रमांक 3.4 जनपद में सिंचाई के विभिन्न साधनों को दर्शा रही है। सिंचाई के समस्त साधनों में संपूर्ण जनपद में नहरों तथा नलकूपों का वर्चस्व बना हुआ है, योजनाकाल के प्रारंभ में सिंचाई का एकमात्र साधन राजकीय नहरें थीं अन्य साधनों से नाम मात्र को ही सिंचाई सुविधा प्राप्त हो जाती थी, परंतु हरित क्रांति के प्रारंभ के साथ ही निजी नलकूपों पंपसेटों की संख्या में वृद्धि हुई परंतु यह वृद्धि 1990 के उपरांत अत्यधिक तेजी से हुई, और वर्तमान समय में इस संसाधन द्वारा सिंचित क्षेत्र से अधिक हो गया है। जहाँ तक नहरों की लंबाई पर दृष्टिपात करें तो संपूर्ण जनपद में 1764 किलोमीटर नहरें कुल 80396 हेक्टेयर शुद्ध क्षेत्रफल को सिंचन सुविधाएँ प्रदान करके शुद्ध सिंचित क्षेत्र के 48 प्रतिशत से अधिक की भागीदारी कर रही है जिसमें लंबाई की दृष्टि से विकास खंड रामपुरखास में सर्वाधिक 206 किमी लंबी नहरें सिंचन सुविधा प्रदान कर रही है जबकि इसके विपरीत विकास खंड संडवा चंद्रिका अपनी प्राकृतिक स्थिति के कारण मात्र 3 किमी नहरों से ही सिंचन सुविधा प्राप्त कर न्यूनतम स्थिति को प्रदर्शित कर रहा है परंतु राजकीय नलकूपों की दृष्टि से यह विकासखंड सर्वाधिक अच्छी स्थिति में है। राजकीय नलकूपों की सुविधा से बाबागंज तथा आसपुर देवसरा दोनों ही विकासखंड अभी तक वंचित सिंचित में हैं, जबकि बिहार, सांगीपुर तथा पट्टी विकास खंड एक एक राजकीय नलकूप सहित समान स्थिति में हैं। 10 से अधिक राजकीय नलकूप वाले विकास खंडों में संडवा चंद्रिका के अतिरिक्त प्रतापगढ़, शिवगढ़ तथा गौरा विकास खंड हैं निजी स्वामित्व वाले नलकूपों की दृष्टि से मगरौरा विकास खंड सर्वाधिक घनी है। जहाँ 728 नलकूप सिंचन सुविधा उपलब्ध करा रहे हैं, दूसरे व तीसरे स्थान पर आसपुर देवसरा (655) तथा संडवा चंद्रिका (606) विकासखंड स्थित है। 500 नलकूपों से अधिक सुविधा वाले विकासखंडो में पट्टी, गौरा तथा मांधाता है। इस दृष्टि से न्यूनतम संख्या (199) कालाकांकर विकास खंड है, जबकि शिवगढ़ तथा सांगीपुर विकास खंड क्रमश: 461 तथा 411 नलकूप रखकर लगभग मध्य मार्गी स्थिति में है। इसी से मिलती जुलती स्थिति में प्रतापगढ़ सदर (394), रामपुर खास (384), रामपुर खास (386), बिहार (384), बाबागंज (347) तथा लक्ष्मणपुर (342) विकास खंड है। भूस्तरीय तथा बोरिंग पर लगे पंपसेट जो डीजल चालित तथा कम आश्वशक्ति वाले होते हैं इनकी सिंचन क्षमता भी सीमित होती है, जनपद में कुल 24 भूस्तरीय तथा 46464 बोरिंग पंप सेट सिंचन सुविधा प्रदान कर रहे हैं, इस दृष्टि से पट्टी विकास खंड सर्वोत्तम स्थिति में है जहाँ पर यद्यपि भूस्तरीय पम्पसेट एक भी नहीं है परंतु 5304 बोरिंग पम्पसेट यह कार्य संपन्न कर रहे हैं। आसपुर देवसरा विकास खंड न्यूनाधिक पट्टी विकास खंड का अनुसरण करते हुए 5101 पम्पसेटों से सिंचन सुविधा प्राप्त कर रहा है। परंतु संडवा चंद्रिका विकासखंड 1471 पम्पसेटों द्वारा न्यूनतम स्तर को प्रदर्शित कर रहा है। लक्ष्मणपुर, प्रतापगढ़ सदर, बाबा गंज तथा मगदरोरा विकास खंड न्यूनाधिक एक समान स्तर का प्रदर्शन कर रहे हैं। जनपद में पक्के कुओं से रही या चेन पंप (पर्सियनह्वील) द्वारा जल की निकासी करके सिंचन सुविधा प्राप्त की जाती है यद्यपि पक्के कूपों की संख्या जनपद में कुल 6714 है जिनमें 6712 पर रहट या पर्सियन ह्वील कार्यरत है, परंतु इनकी सिंचन क्षमता अत्यंत सीमित होने के कारण संपूर्ण सिंचित क्षेत्र में इनका कोई महत्त्वपूर्ण योगदान नहीं है फिर भी यह साधन लघु एवं सीमांत कृषकों के लिये अत्यंत लाभदायक सिद्ध हो रहे हैं। जनपद की अधिकतर जायद की फसलों में सब्जियों की खेती करने वाले कृषकों के लिये यह साधन अत्यंत लाभदायक हैं क्योंकि इस साधन में जल की बहाव गति कम होने के कारण भूमि में अधिक गहराई तक नमी पहुँचाने की क्षमता होती है। जनपद में सिंचन क्षमता का उपयोग :-सिंचाई नीति के दो महत्त्वपूर्ण आयाम होते हैं। प्रथम सृजित सिंचन अक्षूता का उपयोग द्वितीय सिंचन क्षमता का विकास। इनके द्वारा सिंचन संभावना का अधिकतम उपयोग किया जा सकता है। जल संसाधन की उपलब्धि एवं गुणवत्ता बनाए रखने के लिये जल संसाधन का सम्यक प्रयोग एवं उचित जल प्रबंध आवश्यक है। जल प्रबंध का उद्देश्य जल संरक्षण करना, वातावरण में समुचित नमी बनाए रखना और कृषि तथा गैर कृषि कार्यों में उपयोग के लिये जल आपूर्ति का उचित स्तर बनाए रखना चाहिए। इसके साथ ही जल का अपव्यय न्यूनतम करना सृजित सिंचन क्षमता का कुशलतम उपयोग वांछित होता है। जल के अपव्यय को रोकने का अर्थ है कि जल को कृषि सीमा में अधिक रोकना, भले ही जल का यह संरक्षण नमी के रूप में ही क्यों न हो, मिट्टी में अधिक नमी से कृषि उपज बढ़ने के साथ साथ सस्य सम्पदा बढ़ती है। योजना काल के बाद विशेष रूप से हरित क्रांति के बाद निर्विवाद रूप से जनपद की सिंचन क्षमता, सिंचित क्षेत्र और सिंचाई सुविधा में प्रसार हुआ है, परंतु अभी भी शुद्ध कृषि क्षेत्र में शुद्ध सिंचित क्षेत्र अपेक्षित स्तर तक नहीं पहुँच सका है, यही स्थिति कृषि क्षेत्र में कुल सिंचित क्षेत्र की है। सिंचित क्षेत्र में भी जल की सामयिक उपलब्धि बाधित होने के कारण उपज अपेक्षित स्तर तक नहीं बढ़ सकी है। राष्ट्रीय प्रदर्शन फर्मों पर समुचित जल प्रबंध तथा सम्यक कृषि विधियों को अपनाने से प्रति हेक्टेयर अनाज का उत्पादन 4 से 5 टन तक होता है परंतु जनपद की वास्तविक स्थिति यह है कि सिंचित कृषि भूमि पर भी अनाज का उत्पादन स्तर केवल 2 से 5 टन प्रति हेक्टेयर तक पहुँच पाता है। अत: उत्पादन को राष्ट्रीय प्रदर्शन फार्मों के स्तर तक पहुँचाने के लिये अभी बहुत कुछ करना शेष है। जनपद में सृजित सिंचन क्षमता का अपेक्षित स्तर अभी तक उपयोग नहीं किया जा सका है, साथ ही कतिपय स्थानों पर सिंचाई के साधनों के विकास ने जल भराव व क्षारीयता उत्पन्न कर दी है जिससे सिंचित क्षेत्रों में भी कृषक उन्नत बीज, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक औषधियों तथा उन्नत कृषि यंत्रों के प्रयोग के प्रति अनिच्छुक हो रहे हैं। अत: आवश्यकता इस बात की है कि सृजित सिंचन क्षमता का उपयोग न केवल अधिकतम किया जाना चाहिए अपितु जल का प्रयोग भी अधिकतम कुशलता से किया जाना चाहिए जिससे सिंचित कृषि क्षेत्र से अधिक लाभदायक उपज प्राप्त की जा सके। 1978 में किए गये वर्गीकरण के अनुसार 10 हजार हेक्टेयर से अधिक समादेश क्षेत्र वाली परियोजनाएँ बृहत, 2 हजार से 10 हजार हेक्टेयर समादेश क्षेत्र वाली परियोजनाएँ मध्यम सिंचाई परियोजनाएँ कहलाती हैं, वे सिंचाई परियोजनाएँ जिनका समादेश क्षेत्र 2 हजार हेक्टेयर से कम है, लघु परियोजनाएँ कहलाती हैं। वृहत एवं मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के सामान्यत: बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाएँ सम्मिलित हैं जबकि लघु सिंचाई परियोजनाओं में राजकीय नलकूप, निजी नलकूप, डीजल चलित पंपसेट, कुएँ तथा तालाब आते हैं। जनपद में मध्यम तथा लघु परियोजनाओं के अंतर्गत सिंचाई साधन प्रचलित हैं, इस साधनों द्वारा किस सीमा तक सृजित क्षमता का उपयोग किया जा रहा है, इसका विवरण अग्र तालिका में प्रस्तुत किया जा रहा है। जनपद में राजकीय नहरों की कुल लंबाई 1764 किलोमीटर है जो जनपद के क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से संतोषजनक कही जा सकती है, परंतु इस साधन द्वारा प्रति किलोमीटर मात्र 45.6 हेक्टेयर क्षेत्र की सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराते हुए 80396 हेक्टेयर क्षेत्र को जल उपलब्ध कराया जा रहा है जो कि सृजित सिंचन क्षमता का निराशा जनक उपयोग दर्शा रही है, यह स्थिति नितांत असंतोषजनक कही जायेगी। राजकीय नहरों का जल यदि कुशलता पूर्वक किया जाये तो औसत रूप में प्रति किलोमीटर 200 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र सिंचित किया जा सकता है। यदि इस औसत को सामान्य माना जाये तो जनपद की कुल 352800 हेक्टेयर कृषि भूमि को सिंचित किया जा सकता है जबकि जनपद का सकल बोया गया कृषि क्षेत्र इससे कम अर्थात 348810 हेक्टेयर ही है। विकासखंड स्तर पर यदि दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि बिहार विकासखंड जनपद में नहरों के जल को प्रति किमी 64.4 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र में प्रयोग कर रहा है जबकि कुंडा इससे कुछ कम 63.3 हेक्टेयर भूमि को सिंचित कर पा रहा है, इस संसाधन की दृष्टि से आसपुर देवसरा की स्थिति अत्यंत निराशाजनक कही जा सकती है जो मात्र 18.2 हेक्टेयर भूमि को ही नहरों द्वारा सिंचित कर पा रहा है। संडवा चंद्रिका, मगरौरा, पट्टी तथा शिवगढ़ विकासखंड भी लगभग एक समान दयनीय स्थिति का प्रदर्शन कर रहे हैं परंतु इनमें भी संडवा चंद्रिका कुछ बेहतर स्थिति का प्रदर्शन कर रहा है। इसी प्रकार राजकीय नलकूपों द्वारा सृजित सिंचन क्षमता के उपभोग पर विचार करें तो यही लगता है कि संपूर्ण जनपद की स्थिति अत्यंत असंतोष जनक है, यद्यपि संख्या की दृष्टि से भी संपूर्ण जनपद में मात्र 94 राजकीय नलकूप अपर्याप्त हैं फिर भी जो नलकूप हैं उनकी सिंचन क्षमता अत्यंत निम्न स्तरीय है, प्रति नलकूप जनपदीय औसत मात्र 19.7 हेक्टेयर इस बात का प्रतीक है कि इस साधन का कृषकों द्वारा आंशिक प्रयोग ही किया जा रहा है क्योंकि प्रति नलकूप सिंचन क्षमता 50 हेक्टेयर भी मानकर चलें तो जनपदीय औसत इसके आस-पास भी नहीं है। लक्ष्मणपुर विकासखंड जहाँ मात्र दो ही राजकीय नलकूप हैं, इन दोनों का भरपूर प्रयोग करते हुए 137 हेक्टेयर प्रति नलकूप का औसत रखकर सर्वोच्च शिखर पर है जबकि सांगीपुर विकास केवल नलकूप द्वारा 67 हेक्टेयर सिंचाई करके लक्ष्मणपुर की तुलना में आधी क्षमता का प्रदर्शन कर रहा है, इसी तरह रामपुर खास विकास खंड भी औसत रूप में 54.5 हेक्टेयर क्षेत्रफल को सिंचन सुविधा उपलब्ध करा कर कुछ संतोष जनक स्थिति में हैं कुंडा विकासखंड इससे कुछ कम 47.0 हेक्टेयर प्रति नलकूप का औसत प्राप्त करने में सफल हुआ, अन्य विकासखंड इस साधन का कुशलतम उपयोग करने में असमर्थ है। इस साधन के द्वारा पूर्ण क्षमता का प्रदर्शन न कर पाने के सामान्य रूप से दो कारण समझ में आते हैं प्रथम तो यह कि राजकीय नलकूपों में आधे से अधिक तो तकनीकी खराबी के कारण लगभग वर्षभर बंद पड़े रहते हैं, दूसरे जो नलकूप ठीक भी हैं उन्हें नियमित विद्युत आपूर्ति भी नहीं हो पाती है जिसके कारण वे अपनी पूर्ण क्षमता का चाहते हुए भी उपयोग करने में असमर्थ रहते हैं इन दोनों कारणों से राजकीय नलकूपों की विश्वसनीयता कृषकों के मध्य निम्न कोटि की रह गई है जो इनके प्रति कृषकों में आकर्षक का अभाव पैदा करती है, अत: सिंचन क्षमता का पूर्ण उपभोग हो सके इसके लिये इस साधन को नियमित विद्युत आपूर्ति के साथ-साथ तकनीकी खराबी के कारण बंद नलकूपों को खराबी के तुरंत बाद ठीक करवाने के प्रयास किए जाने चाहिए अन्यथा सिंचाई का यह महत्त्वपूर्ण साधन सफेद हाथी बनकर रह जायेगा। निजी स्वामित्व वाले नलकूपों तथा डीजल चलित पम्पसेट जो भूस्तरीय जल का प्रसार तथा बोरिंग से जल की निकासी करके जल उपलब्ध करवाते हैं, कि सिंचन क्षमता भी जनपद में निम्न स्तरीय है और औसत रूप में केवल 1.59 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र को ही सिंचन सुविधा उपलब्ध करा पा रहे हैं विकासखंड स्तर पर देखें तो संडवा चंद्रिका विकासखंड 3.66 हेक्टेयर प्रति नलकूप सिंचन क्षमता का उपयोग करके सर्वोच्च स्थान पर है, जब कि शिवगढ़ विकासखंड 3.02 हेक्टेयर क्षेत्र सिंचित करके वरयता क्रम में दूसरे स्थान पर स्थित है, मगरौरा भी 2.41 हेक्टेयर प्रति नलकूप का औसत रखकर सामान्य ऊँचे स्तर का प्रदर्शन कर रहा है कमोबेश इसी स्थिति के गौरा विकासखंड भी अपने को पा रहा है। अन्य विकास खंड समान्य स्तर के आस-पास है हाँ कालाकांकर, बाबागंज, कुंडा, रामपुर खास तथा लक्ष्मणपुर विकास खंड अत्यंत दयनीय स्थिति का प्रदर्शन कर रहे हैं, निजी स्वामित्व वाले नलकूपों/पम्पसेट सिंचन क्षमता अति न्यून होने के मूल में दो कारण समझ में आते हैं। एक तो ये साधन इनके मालिकों द्वारा केवल अपनी आवश्यकता की पूर्ति किया जाना दूसरे इन साधनों की कीमतें अधिक होने के कारण जल की लागत है जिससे लघु एवं सीमांत कृषक इस सुविधा को क्रय करने में असमर्थ होते हैं। इन साधनों का प्रयोग अधिकांश कृषकों द्वारा नहरों के पानी की उपलब्धता में अनिश्चतता तथा राजकीय नलकूपों की अविश्वसनीयता के स्वंय को बचाये रखने के लिये उपयोग किए जाते हैं और संभवत: यही कारण है कि ये साधन अत्यंत निम्न सिंचन क्षमता का प्रदर्शन कर रहे हैं। न्यूनाधिक यही स्थिति कुओं द्वारा जल आपूर्ति साधनों की है। जनपदों में कुल 6712 कुएँ हैं जिन पर रहट अथवा पर्सियन ह्वील लगे हुए हैं और ये कुल 1364 हेक्टेयर कृषि भूमि को जल की आपूर्ति करते हैं जिनकी औसत सिंचन क्षमता मात्र 0.20 हेक्टेयर है। जो कि अत्यंत न्यून कही जा सकती है। विकास खंड स्तर पर कालाकांकर, बाबागंज, कुंडा तथा सडंवा चांद्रिका विकास खंड ही जनपदीय स्तर से ऊँचे स्तर पर स्थिति है, अन्य विकास खंड जनपदीय स्तर से कम स्तर प्रदर्शित कर रहे हैं। इस साधन द्वारा सिंचाई करने से दो प्रत्यक्ष लाभ हैं एक तो इस साधन द्वारा भूमि में पानी की गति कम होने के कारण भूमि द्वारा जल ग्रहण क्षमता अधिक होती है जिससे भूमि में नमी को अधिक समय तक सुरक्षित बनाए रखा जा सकता है। दूसरे इस साधन की लागत कम होने के कारण लघु एवं सीमांत कृषकों के लिये अत्यधिक उपयोगी है, साथ ही इस साधन द्वारा पशु शक्ति का भी उपयोग हो जाता है। सब्जियों, मसालों व जायद की अन्य फसलों के लिये तो यह साधन सर्वोत्तम माना जाता है अत: इस परंपरागत साधन की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। स्पष्ट है कि सिंचन क्षमता के सृजन तथा उपयोग के मध्य व्याप्त अन्तराल एक खटकाने वाला तथ्य है। सिंचन क्षमता की दृष्टि से देखा जाय तो जनपद में सकल बोये गये क्षेत्र को सिंचाई सुविधा उपलब्ध करायी जा चुकी है परन्तु अभी भी सकल बोये गये क्षेत्र के 66.29 प्रतिशत क्षेत्र को ही सिंचाई सुविधा उपलब्ध हो पाना इस तथ्य को स्पष्ट कर रहा है कि सृजित सिंचन क्षमता का कुशलतम उपयोग नहीं हो पा रहा है, अभी तक सिंचाई क्षमता के सृजन पर ही विशेष जोर दिया जाता रहा है, सिंचन क्षमता के उपयोग तथा जल को खेतों तक पहुँचाने पर ध्यान नहीं दिया गया। यह अनुमान किया जाता है कि जलाशयों से छोड़े गये जल का आधे से कम ही भाग खेतों तक पहुँच पाता है शेष आधा भाग तो नहरों तथा अन्य जल निकासी मार्गों द्वारा सोख लिया जाता है या नहरों के समुचित रख रखाव न होने के कारण रिस जाता है और किनारे की भूमियों को भयंकर क्षति पहुँचाता है। जल रिसाव के कारण इतना ही नहीं, भूमिगत जलस्तर भी बढ़ता है जिससे भूमि में क्षारीयता भी बढ़ती है। इस संबंध में आवश्यक है कि जल के कुशलतम उपयोग के लिये तथा सिंचन क्षमता का अनुकूलतम उपयोग करने के लिये अब हमें गंभीर हो जाना चाहिए, और इस दिशा में सार्थक प्रयास किए जाने चाहिए। 2. कृषि यंत्रीकरणयंत्रीकरण कृषि कार्यों मे मानव एवं पशु शक्ति के स्थान पर यांत्रिक शक्ति का प्रयोग है। सफल और उन्नत कृषि के लिये यांत्रित शक्ति का उपयोग महत्त्वपूर्ण है। यंत्रीकरण का संबंध उन्नत कृषि यंत्रों से है जिनकी सहायता से कृषि उत्पादन की प्रति इकाई लागत में कमी की जा सकती है। यंत्रीकरण द्वारा ऐसी कृषि भूमि पर भी खेती की जा सकती है जो बंजर एवं कम उपजाऊ है। सघन एवं बहुफसली कृषि प्रणाली कृषि के नवीन एवं उन्नत कृषि औजारों की अपेक्षा करती है। यंत्रीकरण से एक और श्रम व मजदूरी में बचत होती है, दूसरी ओर कृषि उपज में वृद्धि होती है। यंत्रीकरण में प्रयोग किये जाने वाले यंत्रों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है, प्रथम वर्ग में वे कृषि यंत्र आते हैं जो खींचने का कार्य करते हैं जैसे परती भूमि को खेती योग्य बनाने, गहरी जुताई करने के लिये प्रयुक्त होते हैं। दूसरे वर्ग में वे यंत्र सम्मिलित किए जाते हैं जो एक स्थान पर स्थिर रहकर कार्य करते हैं जैसे सिंचाई के लिये प्रयोग किए जाने वाले यंत्र कुट्टी काटने की मशीन, थ्रेसर आदि। भारत में अभी तक अधिकांश कृषकों द्वारा परंपरागत ढंग से ही कृषि कार्य संपन्न किए जाते हैं जिससे समय अधिक लगता है तथा कृषि उत्पादकता भी कम रह जाती है। कृषि की नवीन प्रविधि में कृषि का उत्पादन स्तर समय तत्व से भी प्रभावित होता है, उदाहरण के लिये यदि गेहूँ की फसल की सिंचाई में विलंब होता है तो प्रतिदिन का विलंब उत्पादन में कमी करता है। अत: कृषि कार्यों को समयानुसार संपादित करने में मानवीय एवं पशु श्रम की क्षमता बढ़ाने वाले कृषि यंत्रों की आवश्यकता पड़ती है। भारत में कृषि क्षेत्र में शक्ति उपलब्धता का स्तर अत्यंत नीचा है यह अनुमान किया गया है कि एक फसल के लिये प्रति हेक्टेयर 10 हार्स पावर शक्ति की आवश्यकता है जब कि भारत में प्रति हेक्टेयर केवल 0.75 से 0.80 अश्वशक्ति की ही आपूर्ति हो पाती है जिससे यह कहा जा सकता है कि भारत में कृषि क्षेत्र में शक्ति की आपूर्ति की समस्या अत्यंत गंभीर है जिन देशों में प्रति हेक्टेयर 3 से 4 अश्वशक्ति तक का प्रयोग किया जाता है, वहाँ का प्रति हेक्टेयर उत्पादन भारतीय स्तर से तीन-चार गुना अधिक है। भारत में भी पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अनुभव यह स्पष्ट करते हैं कि शक्ति आपूर्ति और कृषि उत्पादन में सकारात्मक सह संबंध है। फसल उत्पादन और भूमि की उत्पादकता बढ़ाने में बड़े कृषि यंत्रों के साथ-साथ छोटे कृषि यंत्रों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, इन कृषि उपकरणों में परम्परागत रूप से प्रयोग किए जाने वाले उपकरण जैसे हंसिया, खुर्पी, फावड़ा, हल, पटेला, आदि की उपयोगिता आज तक बनी हुई है। इसके अतिरिक्त कुछ नये तथा सुधरे हुए उपकरण भी आधुनिक कृषि प्रणाली के आवश्यक अंग बन गये हैं इनमें थ्रेसर, डीजल तथा विद्युत चलित इंजन, सुधरे और उन्नत हल, तरल रसायन छिड़कने के लिये स्प्रेयर, पाउडर प्रकार की दवाएँ छिड़कने वाले डस्टर, मिट्टी पलटने वाले हल, तवे वाली हैरो, बीज तथा खाद बोने वाले यंत्र आदि प्रमुख हैं। इन कृषि यंत्रों की सहायता से कृषि अधिक सरलता पूर्वक कृषि कार्य संपन्न कर लेते हैं इन कृषि उपकरणों के उत्पादकों को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम वर्ग में ग्रामीण दस्तकार तथा छोटे और अतिलघु निर्माता सम्मिलित हैं, इन लोगों द्वारा बनाए गये उपकरणों का अधिकांश भाग लकड़ी का बना होता है, इनके प्रयोग की जाने वाली प्रौद्योगिकी अति प्राचीन है और सुधार की अपेक्षा करती हैं। कृषि उपकरणों के निर्माताओं का दूसरा वर्ग वह है जो लोहे के हल, बीज बुआई यंत्र, थ्रेसर तथा ट्रेलर आदि का निर्माण करते हैं देश में लघु एवं कुटीर उद्योग क्षेत्र में लाखों इकाइयाँ इस प्रकार है जो इसी तरह के कृषि यंत्र अपनाती हैं हाल के वर्षों में कृषि उपकरणों के उत्पादन में तीव्र वृद्धि हुई है। स्पष्ट है कि किसी क्षेत्र की कृषि विशेषताएँ उस क्षेत्र की तकनीकी अवस्था पर निर्भर करती है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अध्ययन क्षेत्र में कृषि कार्यों में यंत्रों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है, उदाहरण के लिये जुताई कार्यों के लिये ट्रैक्टर, सिंचन कार्य के लिये बिजली अथवा डीजल चलित नलकूप तथा पम्पिंगसेट्स, फसल से अनाज अलग करने के लिये थ्रेसर, कीटनाशक दवाओं के छिड़काव के लिये डस्टर और स्प्रैयर आदि कृषि यंत्रों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। इस प्रकार कृषि कार्यों से मानव तथा पशुश्रम का प्रतिस्थापन संचालन शक्ति द्वारा किया जा रहा है जिससे प्रति हेक्टेयर कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है, कृषि क्षेत्र का विस्तार भी हुआ है क्यों नदियों, नालों के किनारे की भूमियों को समतल बनाकर कृषि कार्य हेतु उपयुक्त बनाने के सार्थक प्रयास हुए हैं। किसी क्षेत्र में भूमि उपयोग की सफलता उस क्षेत्र में प्रयोग होने वाले यांत्रिक उपकरणों पर आधारित है। इसलिये केवल जीवन निर्वाह कृषि निम्नस्तरीय तकनीकी पर आधारित है, परंतु कृषि में व्यावसायिक दृष्टिकोण, आधुनिक यंत्रों के प्रयोग से अधिक संभव हो सका है, इसके अंतर्गत उन्नतिशील बीजों रासायनिक उर्वरकों एवं सिंचाई की सुविधा का विशेष महत्व है। व्यापारिक कृषि के लिये यंत्रीकरण एवं परिवहन के साधनों में विकास तथा तैयार माल के भंडारण की सुविधाएँ अति आवश्यक हैं। इस दृष्टि से अगर देखा जाय तो जनपद में कृषकों का एक बड़ा वर्ग अभी भी अधिकांश परंपरागत औजारों से ही कृषि कार्य संपन्न करता है, जिसका मूल कारण है जनद में जोतों का अत्यंत छोटा आकार, यद्यपि चकबंदी द्वारा जोतों का आकार बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है परंतु अभी भी जोतों का आकार इतना छोटा है कि चाहकर भी कृषक कृषि कार्यों में यंत्रीकरण का व्यापक स्तर पर प्रयोग नहीं कर सकता है। फिर भी पिछले दो दशकों में जनपद में ट्रैक्टर, थ्रेसर, ट्यूबवेल तथा पंपिंग सेट्स, बुआई यंत्रों, दवा के छिड़कने वाले यंत्रों के प्रयोग में तीव्र गति से वृद्धि हुई है। ट्रैक्टर चूँकि बहुउद्देशीय यंत्र है जिससे जुताई, बुआई, सिंचाई तथा गहराई के साथ-साथ ढुलाई के लिये भी संचालन शक्ति प्राप्त होती है, अत: यह कृषकों के लिये लाभप्रद सिद्ध हुआ है, परंतु अभी यंत्रीकरण की व्यापक संभावनाएं हैं। अध्ययन क्षेत्र में यंत्रीकरण का विवरण अग्रतालिका में प्रस्तुत है -
तालिका क्रमांक 3.6 जनपद में यंत्रीकरण के स्तर को दर्शा रही है जिससे यह स्पष्ट होता है कि जनपद में अभी भी लकड़ी के हल का व्यापक प्रचलन है परंतु यह लकड़ी का हल अपरंपरागत न रहकर इसमें आवश्यक परिवर्तन कर दिए गये हैं। लकड़ी के हल के दृष्टि से बिहार विकास खंड प्रथम स्थान पर है, सांगीपुर विकास खंड दूसरे स्थान पर है। लोहे का हल भी अब पर्याप्त मात्रा में प्रचलन में ये हल एक फल अथवा तीन फल के होते हैं। हैरो तथा कल्टीवेटर का भी प्रचलन बढ़ रहा है जिनकी संख्या जनपदों में अब तक कुल 2342 है, यद्यपि यह संख्या अभी पर्याप्त नहीं है परंतु इन हलों का तेजी से प्रचलन बढ़ रहा है। कुल मिलाकर जुताई के लिये जनपद में 204550 विभिन्न प्रकार के हल प्रचलन में हैं। ये हल पशुपति द्वारा संचालन शक्ति प्राप्त करते हैं। विभिन्न फसलों से अनाज प्रथक करने के लिये आधुनिक यंत्र जिसे थ्रेसर कहते हैं जिसके प्रयोग से मौसम की अनिश्चितता से भी सुरक्षा प्राप्त होती है, का जनपद में 7726 यंत्रों का प्रयोग किया जा रहा है इस दृष्टि से आसपुर, देवसरा विकास खंड 996 थ्रेसर यंत्र प्रयोग करते हुए जनपद में प्रथम स्थान पर है जबकि बाबागंज केवल 182 थ्रेसर यंत्रों का प्रयोग करते हुए अपना निम्न स्तरीय प्रदर्शन कर रहा है। इस यंत्र में यांत्रिक शक्ति का प्रयोग होता है जिसे ट्रैक्टर डीजल इंजन अथवा विद्युत चलित इंजनों द्वारा प्रदान की जाती है। पौधे तथा फसलों को संरक्षण प्रदान करने हेतु कीटनाशक औषधियों का प्रयोग अधिक उपज प्राप्त करने हेतु वांछित है, इस दृष्टि से जनपद में कुल 907 स्प्रेयर यह कार्य संपन्न कर रहे हैं जिसमें सर्वाधिक 118 स्प्रेयर आसपुर, देवसरा विकासखंड प्रयोग करके जनपद में सर्वोच्च स्थान पर तथा प्रतापगढ़ मात्र 28 स्प्रेयर यंत्रों का प्रयोग करते हुए निम्नतम स्थान पर स्थित है। ये यंत्र मानवशक्ति द्वारा संचालित होते हैं। भारतीय कृषि यंत्रीकरण में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान ट्रैक्टर का है क्योंकि यह यंत्र बहुउद्देशीय होता है जिसमें गहरी जुताई, बुआई, सिंचाई, गहराई तथा उपज की ढलाई आदि प्रमुख है। इस दृष्टि से जनपद में कुल 2301 ट्रैक्टर कार्यरत है जिनमें से बिहार विकासखंड 202 ट्रैक्टरों का प्रयोग करते हुए सर्वोच्च स्थान पर है इसके विपरीत संडवा चंद्रिका मात्र 82 ट्रैक्टर रखकर न्यूनतम स्थान पर स्थित है। इस यंत्र के प्रसार में सबसे बड़ी बाधा इसकी कीमत है जिसे केवल बड़े कृषक ही वाहन करने की क्षमता रखते हैं, यदि कम शक्ति वाले छोटे ट्रैक्टरों को कम कीमत पर कृषकों को उपलब्ध कराया जाये तो छोटे व मध्यम आकार वाले कृषक भी इस यंत्र का प्रयोग कर सकते हैं। यद्यपि ट्रैक्टरों को क्रय करने के लिये व्यावसायिक बैंक कृषकों को ऋण सुविधा भी प्रदान करते हैं, परंतु ऊँची ब्याजदर के कारण अीाी भी यह यंत्र मध्यम आकार के कृषकों की पहुँच से दूर है, यही कारण है कि जनपद में इन यंत्रों का प्रसार अपेक्षित स्तर तक नहीं पहुँच सका है। कृषि कार्यों के लिये फार्मों पर यांत्रिक शक्ति ट्रैक्टरों तथा इंजनों से मिलती है। कृषि कार्यों के लिये प्रयुक्त ट्रैक्टरों की अश्वशक्ति सामान्यत: 20 से 50 तक होती है, इसका प्रचलन कार्य के आकार तथा प्रयोग विधि पर निर्भर करता है। जनपद में ट्रैक्टरों की संख्या जो वर्ष 1988 में 1415 थी जो बढ़कर 1995-96 में 2301 हो गई है अर्थात इनकी संख्या में पिछले आठ वर्षों में लगभग 63 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जो इस बात का संकेत है कि जनपद में ट्रैक्टरों का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। सारिणी क्रमांक 3.7 में ट्रैक्टरों की संख्या तथा प्रति हेक्टेयर कृषि क्षेत्र दर्शाया गया है।
सारिणी 3.7 जनपद में यंत्रीकरण के प्रसार को दर्शा रही है जिसमें एकल बोये गये क्षेत्र के आधार पर कृषि यंत्रों की वास्तविक स्थिति का ज्ञान होता है। सारिणी से यह ज्ञात होता है कि यद्यपि ट्रैक्टरों की संख्या में बिहार विकासखंड सर्वोच्च स्थान रखता है परंतु प्रति हेक्टेयर कृषि क्षेत्र की दृष्टि से प्रतापगढ़ सदर प्रथम स्थान पर जहाँ के सकल बोये गये क्षेत्र में प्रति 111 हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिये एक ट्रैक्टर उपस्थित है जबकि कुंडा विकास खंड 277 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र पर एक ट्रैक्टर रखकर न्यूनतम स्तर को प्रदर्शित कर रहा है। यदि संपूर्ण जनपद के ग्रामीण क्षेत्र में प्रति ट्रैक्टर जोते गये क्षेत्रफल पर दृष्टि डालें तो 165 हेक्टेयर है, इस औसत स्तर से निम्न स्तर को प्रदर्शित करने वाले विकास खंड क्रमश: कुंडा, बाबागंज, संडवा चंद्रिका, कालाकांकर, आसपुर देवसरा, गौरा तथा शिवगढ़ कुल सात विकास खंड हैं, जबकि शेष आठ विकास खंड इस स्तर से बढ़े हुए स्तर को प्रदर्शित करने वाले हैं। इसी प्रकार प्रति थ्रेसर सकल बोये गये क्षेत्रफल पर दृष्टि डालें तो पट्टी विकास खंड केवल 25 हेक्टेयर क्षेत्रफल पर एक थ्रेसर रख रहा है, जबकि आसपुर, देवसरा विकासखंड पट्टी के लगभग समान स्तर को प्रदर्शित कर रहा है, इस दृष्टि से सबसे निम्न स्तर प्रदर्शित करने वाला विकास खंड बाबागंज है जहाँ पर 142 हेक्टेयर क्षेत्र पर 1 थ्रेसर उपलब्ध ही प्रतापगढ़ सदर ठीक ग्रामीण औसत अर्थात 45 हेक्टेयर सकल बोये गये क्षेत्र पर एक थ्रेसर उपलब्ध करा रहा है। अधिक उपज प्राप्त करने के लिये रासायनिक औषधियों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है, यदि फसलों की रोगाणुओं की सुरक्षा नहीं की जाती है तो अनाज की गुणवत्ता के साथ-साथ उपज भी कम हो जाती है। इस दृष्टि से यदि देखा जाय तो आसपुर, देवसरा विकासखंड सर्वोच्च सुविधाजनक स्थिति में है जहाँ 197 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र पर एक स्प्रेयर उपलब्ध है, इस विकास खंड से मिलती जुलती स्थिति में शिवगढ़ विकास खंड स्थिति भी है जहाँ 200 हेक्टेयर क्षेत्र पर एक स्पेयर फसलों को रोग मुक्त रखने का प्रयास कर रहा है। इस दृष्टि से कुंडा विकास खंड सर्वाधिक असहाय स्थिति में है जहाँ पर 724 हेक्टेयर फसलों को एक स्प्रेयर रोग मुक्त रखने का प्रयास कर रहा है जबकि बाबागंज, मांधाता तथा मगरौरा लगभग एक समान स्थिति में है और ये तीनों ही विकासखंड 600 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र की फसलों की एक स्प्रेयर से सुरक्षा करने में प्रयास कर रहा है। बोआई यंत्रों की दृष्टि से सर्वाधिक सुविधाजनक स्थिति में संडवा चंद्रिका विकास है जहाँ पर औसत 47 हेक्टेयर क्षेत्र को एक उन्नतिशील बोआई यंत्र की सुविधा प्राप्त है, जबकि क्षेत्रफल की दृष्टि से मगरौरा विकासखंड प्रति बोआई यंत्र की दर से सैकड़ा पार कर रहा है और बिहार विकास खंड ठीक सैकड़े पर स्थित है। अन्य विकास खंड कमोबेश इन्हीं के मध्य स्थित है। 3. रासायनिक उर्वरकों का प्रयोगभूमि पर जनसंख्या का दबाव तथा भूमि का बढ़ता गैर कृषि कार्यों में प्रयोग यह स्पष्ट करता है कि फसलों के अंतर्गत शुद्ध क्षेत्र बढ़ाकर उत्पादन को बढ़ाने की संभावना अत्यंत कम हो गई है। अत: अब फसल उत्पादकता बढ़ाकर बढ़ती हुई खाद्यान्न मांग की आपूर्ति संभव है, जिसके लिये गहरी खेती ही एक मात्र उपाय है। परंपरागत कृषि प्रणाली में जैविक उर्वरकों का अधिक प्रयोग होता था अब द्विफसली तथा बहुफसली कृषि होने से जमीन के विभिन्न पोषक तत्वों का अधिक त्वरित एवं गहन शोषण किया जा रहा है, इसलिये विभिन्न जैविक उर्वरक फसलों को आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करने में असमर्थ हैं, इसलिये रासायनिक उर्वरकों का अब कृषि उत्पादकता बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण स्थान है। पौधे अपने विकास और पोषण हेतु मिट्टी से 17 भोज्य तत्व ग्रहण करते हैं, जैविक खादें प्रतिवर्ष की फसल के कारण ह्रास होने वाले उर्वरक तत्वों की क्षति-पूर्ति नहीं कर पाती है। वे विशेष रूप से नाइट्रोजन, पोटास और फास्फोरस की क्षति-पूर्ति करने में समर्थ नहीं हैं क्योंकि जैविक उर्वरकों, खादों में नाइट्रोजन, पोटास और फास्फोरस का अनुकूल मिश्रण नहीं होता है। भूमि की उर्वरकता बढ़ाने के लिये आवश्यक है कि भूमि से ह्रास होने वाले पोषक तत्वों की आपूर्ति की जाय जिसके लिये रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग आवश्यक है। रासायनिक उर्वरक भूमि में पोषक तत्वों की कमी को पूरा करते हैं एवं अधिक उपज के लिये भूमि में क्षमता उत्पन्न करते हैं, यह भूमि की उर्वरक शक्ति को भी नष्ट होने से बचाते हैं। रासायनिक उर्वरकों से अनुकूलतम परिणाम प्राप्त करने के लिये यह आवश्यक है कि उनका संतुलित उपयोग किया जाये, जिससे पौधों की उचित मात्रा में नाइट्रोजन, पोटास तथा फास्फोरस उपलब्ध हो सके। फसल विकास में इनका पृथक-पृथक महत्त्व होता है। रासायनिक उर्वरक पौधों की पत्तियों तथा शाखाओं के विकास में सहायक होता इससे पत्तियों का हराजन बढ़ता है जो अनाज को स्वास्थ्य और मजबूत बनाता है। भारतीय मिट्टी में नाइट्रोजन की कमी है अत: नत्रजनिक उर्वरकों का प्रयोग आवश्यक है परंतु मिट्टी में नत्रजन का आवश्यकता से अधिक प्रयोग प्रतिकूल परिणाम भी उत्पन्न करते हैं। इसका आवश्यकता से अधिक उपयोग करने से फसल देर से पकती है, बीमारियों का प्रकोप बढ़ता है और दाने पतले तथा कमजोर होने लगते हैं। फास्फेटिक उर्वरकों को फास्फेट की मात्रा अधिक होती है फास्फेटिक उर्वरकों से फसल पककर जल्दी तैयार हो जाती है, बीमारियों से बचने के लिये शक्ति देती है यह दाने के विकास में सहायक है, तथा पत्तियों के प्रसार को रोकता है यह अधिक मात्रा में प्रयुक्त होने पर भी फसल को हानि नहीं पहुँचाता है। पोटाशिक उर्वरक भी नाइट्रोजन और फास्फोरस की भांति आवश्यक है, यह पोषक तत्वों को पौधों में एक भाग से दूसरे भाग में स्थानांतरित कर देता है, दाने को स्वस्थ बनाने और पौधों को हरा बनाए रखने में यह सहायक है। यह नाइट्रोजन तथा फास्फोरस की मात्रा को भी संतुलित करता है। जनपद में हरित क्रांति के प्रारंभ के साथ ही रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ, क्यों कि रासायनिक उर्वरकों का संतुलित प्रयोग अधिक उपजाऊ किस्म के बीजों की अनिवार्य उपेक्षा है। योजनाकाल के प्रारंभ में कृषकों को रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग के लिये जहाँ पहले सहमत करना पड़ता था वहीं हरितक्रांति के बाद कृषक अब स्वयं ही रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग के प्रति तत्पर हैं, कृषक का दृष्टिकोण में यह परिवर्तन निश्चित रूप से कृषि विकास में सहायक हुआ है। जनपद में रासायनिक उर्वरकों के वितरण को अग्रतालिका में दर्शाया गया है।
सारणी क्रमांक 3.8 जनपद में रासायनिक उर्वरकों के उपभोग स्तर पर प्रकाश डाल रही है। उर्वरकों के उपभोग के पिछले छ: वर्षों से 64 प्रतिशत से अधिक वृद्धि हुई है। जहाँ वर्ष 1990-91 में प्रति हेक्टेयर उर्वरकों का उपभोग 70.81 किलो ग्राम था वहाँ पर वर्ष 1995-96 में यह बढ़कर 110 किलो ग्राम हो गया है। यदि प्रादेशिक स्तर से तुलना करें तो वर्ष 1990-91 में उत्तर प्रदेश में प्रति हेक्टेयर उर्वरकों का उपभोग 88.4 किग्रा था। इसी वर्ष जनपद का उपभोग स्तर प्रादेशिक स्तर से कम 70.81 किग्रा प्रति हेक्टेयर प्राप्त हुआ है। विकासखंड स्तर पर ऐसे देखें तो उर्वरक उपभोग से बहुत भिन्नता देखने को मिलती है। प्रतापगढ़ सदर जहाँ 162.64 किग्रा प्रति हेक्टेयर उर्वरक उपभोग करके सर्वोच्च स्थान प्रदर्शित कर रहा है। वहीं वरीयता क्रम में सांगीपुर विकास खंड का उपभोग स्तर 93.5 किग्रा सर्वाधिक न्यूनतम स्तर को बता रहा है। जनपदीय औसत 110 किग्रा प्रति हेक्टेयर से अधिक उर्वरक उपभोग करने वाले अन्य विकास खंडो में क्रमश: बाबागंज 125.01 किग्रा, गौरा 115.83 किग्रा, मानधाता 116.21 किग्रा, बिहार 120.48 किग्रा, कालाकांकर 11.87 किग्रा तथा रामपुर खास 110.55 किग्रा है। शेष विकास खंड जनपदीय स्तर से निम्न स्तर प्रदर्शित कर रहे हैं। 4. कीटनाशक रसायनों का उपभोग :रासायनिक उर्वरकों की भांति आधुनिक कृषि प्रणाली के लिये पौध संरक्षण भी एक प्रमुख स्थान रखता है। उर्वरक फसल उत्पादकता बढ़ाते हैं। जबकि पौध संरक्षण रसायन फसलों की छति को रोकते हैं। फसल नाशक जीव तथा रोग पौधों को कम कर देते हैं जिससे न केवल उपज कम हो जाती है बल्कि उपज की गुणवत्ता भी गिर जाती है अत: फसल को कीरों तथा रोगों से बचाना होता है। वर्तमान नवीन कृषि प्रणाली में पौध नाशक कीड़ों और बीमारियों की सक्रियता बढ़ गई है। अधिक उपजाऊ किस्म के बीजों में बोवाई के बाद अथवा पौधों की विकास की अवधि में सूक्ष्म वनस्पतियों, पौध नाशक कीटों, तथा बीमारियों के आक्रमण की संभावना अधिक रहती है। खेतों में ऐसे कीटों का प्रकोप बढ़ गया है जिन्हें अतीत में भारतीय फसल प्रणाली में देखा ही नहीं गया था, किसी प्रकार ऐसी वनस्पतियों का घासों का भी प्रादुर्भाव हो गया है। जिनका पहले अस्तित्व ही नहीं था। यह भी देखा गया है कि फसल बीमारियों का प्रकोप अधिक होता है। कृषि प्रणाली के अनुभव यह भी संकेत देते हैं कि पहले फसलों का अधिक नुकसान टिड्डी जैसे जीवों तथा घुमंतू जानवरों से अधिक होता था। परंतु अब फसलों को अधिक छति पौध नाशक कीटों तथा रोगों से होती है, फसल को बिाारियों से बचाने के लिये स्वतंत्रता से पूर्व जो विधि अपनाई जाती थी वह परंपरागत थी। सर्वप्रथम तो यही माना जाता था कि स्वस्थ पौधे स्वयं बीमारियों से रोक थाम कर लेते हैं इस प्रतिरोधक माध्यम के अतिरिक्त नीम की खली, राख और गोबर का प्रयोग करके पौधों का उपचार कर लिया जाता था। नियोजन काल के बाद विशेष रूप से हरित क्रांति के बाद फसलों को विभिन्न बिमारियों और पौध नाशकों से बचाने के लिये कीटनाशक रासायनों का प्रयोग तेजी से बढ़ा है। अब डीडीटी, बीएचसी, एल्ड्रिन, सल्फर, ब्रोमाइड्स, लिम्डेन, जिंक आदि फसल प्रणाली से घनिष्ठ रूप से जुट गये हैं। जनपद की फसलों को कीटों तथा विभिन्न बीमारियों से बचाने के लिये सार्थक प्रयास किये जा रहे हैं। कृषकों को समय-समय पर आवश्यक कीटनाशक रसायन/पाउडर उपलब्ध हो कसें इसके लिये जनपद के विभिन्न विकासखंडों में 84 कीटनाशक डिपो कार्यरत हैं जिनकी भंडारण क्षमता 8400 मी. टन है। विकासखंड स्तर पर देखें तो मानधाता तथा मगरौरा विकास खंडों में प्रत्येक में 10 जिनकी भंडारण क्षमता 1000 मी. टन प्रत्येक विकासखंड पर, बिहार विकासखंड में 9 डिपों जिनकी भडारण क्षमता 900 मी. टन, कुंडा में 7, भंडारण क्षमता 700 मी. टन, काला कांकर तथा शिवगढ़ में 6-6, बाबागंज, रामपुर खास में पाँच-पाँच, सांगीपुर तथा लक्ष्मणपुर में चार-चार, प्रतापगढ़ सदर, आसपुर देवसरा तथा गौरा विकास खंडों में तीन-तीन, संडवा चंद्रिका, पट्टी विकासखंडों में दो-दो डिपो कार्यरत हैं, इनके प्रत्येक डिपो की भडारण क्षमता 100 मी. टन है। खद्यान्न फसलों में गेहूँ, धान, मटर, और यदा कदा चने की फसल, तिलहन में केवल लाही, सब्जियों में हरी सब्जियाँ, आलू के अतिरिक्त गन्ने की फसल में भी इन रसायनों का प्रयोग किया जाता है। 5. उन्नत किस्म के बीजों का प्रयोग :बीज कृषि उत्पादन का आधार है। कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिये अच्छे बीजों का उत्पादन एवं वितरण आवश्यक है। बीज की गुणवत्ता तथा सामर्थ्य पर ही फसल उत्पादन निर्भर करता है। भारत में कृषि एक आदि व्यवसाय है इसलिये विभिन्न बीजों की एक लंबी श्रृंखला रही है। यहाँ विभिन्न फसलों यथा धान, गेहूँ, ज्वार, बाजरा, मक्का आदि के कई प्रकार के बीज उपलब्ध रहे हैं विभिन्न क्षेत्रों में फसलों की किस्म बदल जाती है यह सवल कृषि व्यवस्था की सूचक है। अलग-अलग किस्म के बीजों से उत्पन्न अनाज के पोषण स्तर एवं स्वाद में अंतर हो जाता है, विभिन्न बीजों की परिपक्वता अवधि, और उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी अलग-अलग होती है। यह कहा जा सकता है कि भारत में बीज दीवार अत्यंत मजबूत थी। कृषक पीढ़ी दर पीढ़ी इन बीजों का संरक्षण, उत्पादन और संवर्धन करते आये हैं किंतु कालक्रम में यह अनुभव किया गया कि परंपरागत बीजों की उत्पादकता अत्यंत कम है इसलिये यह अनुभव किया गया कि नवीन उन्नत किस्म के बीजों का उत्पादन और वितरण किया जाये ताकि बढ़ती हुई मांग के अनुरूप फसल उत्पादन किया जा सके। जनपद में इस दृष्टि से देखा जाये तो 321308 हेक्टेयर क्षेत्रफल पर खाद्यान्न फसलें बोई जाती हैं और 2776 हेक्टेयर क्षेत्र पर तिलहनी फसलें तथा 10044 हेक्टेयर क्षेत्रफल में गन्ना और आलू की खेती की जाती है। स्पष्ट है कि विभिन्न फसलों के अंतर्गत जनपद में खाद्यान्न फसलों की ही प्रमुखता है। खाद्यान्नों में 280672 हेक्टेयर है जिनमें उड़द, मूंग, चना, मटर तथा अरहर प्रमुख है। जनपद में खाद्यान्न फसलों में लगभग सभी फसलों के लिये उन्नतशील बीजों का प्रचलन है परंतु धान तथा गेहूँ में इनका प्रयोग व्यापक स्तर पर किया जा रहा है। दलहनी फसलों में उड़द, मूंग, मटर तथा चना में उन्नत बीजों का व्यापक प्रचलन है, जबकि कुछ कृषक अरहर के लिये भी इन बीजों का प्रयोग करने लगे हैं। तिलहनी फसलों में लाही की फसल के लिये इन बीजों का व्यापक स्तर पर प्रयोग किया जा रहा है, अन्य तिलहनी फसलों में अभी तक परंपरागत बीज ही प्रयोग होते हैं जायद की फसलों जिनमें हरी सब्जियाँ, खीरा, ककड़ी, खरबूजा, तरबूज आदि में उन्नतशील बीजों का अधिकांश प्रयोग किया जाता है। समान्यतया सिंचित भूमि पर ही इन बीजों का प्रयोग हो रहा है और असिंचित भूमि पर तो इनका प्रयोग न के बराबर है। उन्नतशील बीजों के प्रयोग का क्षेत्र सीमित होने के दो मुख्य कारण हैं। प्रथम तो इन बीजों की कीमत अधिक होने के कारण छोटे और मध्यम आकार वाले कृषक की क्रय करने की क्षमता नहीं होती है। दूसरे इन बीजों का वितरण अत्यंत दोषपूर्ण है, सरकार के लाख प्रयास करने के बाद भी यह बीज कृषकों तक समय पर नहीं पहुँच पाते हैं। कभी-कभी तो प्रमाणिक बीजों की उत्पादकता इतनी कम हो जाती है कि कृषकों का विश्वास इन बीजों से उठ जाता है क्योंकि कृषक जब महँगे बीज खरीदकर बोता है तो उससे अपेक्षित प्रतिफल की आशा करता है। वास्तविकता यह है कि इन बीजों की घोषित उत्पादकता तभी प्राप्त हो सकती है जबकि कृषकों को भी वे समस्त सुविधाएँ प्राप्त हों जोकि बीज उत्पन्न करने वाले कृषि फार्मों को प्राप्त होती है जबकि व्यवहार में कृषकों को वे समस्त सुविधाएँ प्राप्त नहीं हो सकती हैं परिणाम स्वरूप बीजों की घोषित उत्पादकता तथा वास्तविक उत्पादकता में अंतर हो जाता है, इसलिये कृषक इन बीजों के प्रति संदेह करने लगता है कि कृषकों को आवश्यक प्रशिक्षण दिया जाये जिससे वह इन बीजों से अपेक्षित परिणाम प्राप्त कर सके। यद्यपि जनपद में उन्नत किस्म के बीजों की उपयुक्त वितरण व्यवस्था हेतु पर्याप्त भंडारण क्षमता सृजित कर ली गई है। जनपद में विकासखंड स्तर पर 204 बीज गोदाम उर्वरक डिपों तथा 198 ग्रामीण गोदाम स्थापित किए जा चुके हैं जिनकी भंडारण क्षमता क्रमश: 20100 मी. टन, तथा 19800 मी. टन है। विकासखंड प्रतापगढ़ सदर में तो 24 गोदामों के अतिरिक्त एक बीज वृद्धि फार्म भी कार्यरत है जो विभिन्न फसलों के अधिक उपज देने वाले बीजों को उत्पन्न करके कृषकों को उपलब्ध कराता है। इस प्रकार प्रत्येक विकासखंड में 20 से अधिक बीज गोदाम/उर्वरक डिपो कृषकों को बीज एवं रासायनिक उर्वरक उपलब्ध करा रहे हैं। नवीन कृषि नीति जो 1 अक्टूबर 1988 को घोषित की गई है में यह व्यवस्था की गई है कि कृषकों को विश्व में कहीं भी उपलब्ध बढ़िया बीजों की आपूर्ति की जायेगी, इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु नवीन बीज नीति में तिलहन दलहन, मोटे अनाज शब्जियों, फल और फलों के उन्नत बीजों के आयात को उदार कर दिया गया है। आयातित बीजों पर पुरानी व्यवस्था के अनुसार उनके मूल्यों के 90 से 105 प्रतिशत तक आयात शुल्क को घटाकर 15 प्रतिशत कर दिया गया है। इसी प्रकार बीज उत्पादन प्रक्रिया में सहायता करने वाली उन मशीनों के आयात को भी उदार बनाया गया है, जिनका देश में उत्पादन नहीं होता है। कृषि विकास के संदर्भ में आवश्यकता इस बात की है कि कृषि उत्पादन को प्राकृतिक घटकों के कुप्रभावों से यथा संभव बचाया जाये तथा खाद्य उत्पादन एवं वितरण की एक राष्ट्रीय नीति को अपनाया जाये। हरित क्रांति की व्यापक सफलता इसी तथ्य पर निर्भर है कि वैज्ञानिक कृषि की नवीनतम जानकारी प्रत्येक कृषक परिवार को यथा समय व उचित कीमत पर उपलब्ध हो सके। यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि कृषि की परंपरागत तकनीक को अधिक सक्षम बताया जाये ताकि अपेक्षाकृत कम लागत पर भी अधिक उपज प्राप्त की जा सके। अध्ययन क्षेत्र में कृषि तकनीकी का स्तरभारतवर्ष में कृषि आधुनिकीकरण का प्रारंभ 1966 से हुआ, जब विशेष रूप से हरियाणा तथा पंजाब में एक नई कृषि व्यूहरचना प्रारंभ की गई। यह आधुनिकीकरण पंजाब राज्य के लुधियाना जनपद में गेहूँ तथा धान के अधिक उपज देने वाले बीजों के प्रयोग से प्रारंभ की गई, यहीं से संपूर्ण भारत में कृषि आधुनिकीकरण प्रारंभ हुआ है। जनपद प्रतापगढ़ में इसका प्रारंभ 1970 के उपरांत हुआ, परंतु प्राकृतिक, सामाजिक, आर्थिक राजैनतिक तथा प्रशासनिक कारणों से जनपद में कृषि तकनीकी की अपेक्षित प्रगति नहीं हो सकी और आज भी विभिन्न कारणों से कृषि का समग्र आधुनिकीकरण संभव नहीं हो सका। प्रदेश के पश्चिमी जिलों की तुलना में अध्ययन क्षेत्र का कृषि तकनीकी स्तर अत्यंत निम्न है। विकासखंड स्तर पर यह भिन्नता देखने को मिलती है। कृषि आधुनिकीकरण की गणना करते समय कृषि कार्यों में प्रयोग किए जाने वाले आधुनिक आगतों के विभिन्न सूचक (संकेतक) निर्धारित किए गये हैं, इन सूचकों की तुलना राष्ट्रीय स्तर से करके कृषि में आधुनिकीकरण के स्तर का संयुक्त सूचकांक प्राप्त किया गया है। संयुक्त सूचकांक में संकेतकों की संख्या का भाग देकर भजनफल में 100 का गुणा करके कृषि के आधुनिकीकरण के स्तर को ज्ञात किया गया है। उक्त समस्त क्रिया को निम्नलिखित चरों द्वारा समीकरण का रूप दिया जा सकता है। उपर्युक्त समीकरण के आधार पर जनपद में कृषि आधुनिकीकरण की
गणना की गई है
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विकासखंड स्तर पर कृषि आधुनिकीकरण के स्तर में काफी भिन्नता देखने को मिलती है कुंडा विकासखंड का आधुनिकीकरण सूचकांक केवल 173 प्रतिशत है जबकि आसपुर देवसरा विकासखंड का सूचकांक उच्चतम 334 है। न्यूनतम और उच्चतम बिंदुओं के मध्य लगभग दोगुने का अंतर है जो इस बात का प्रतीक है कि संपूर्ण जनपद अभी आधुनिकीकरण के मध्यम स्तर को ही प्राप्त कर पा रहा है, परंतु कृषि में यंत्रीकरण का विकास तेजी से हो रहा है।
सारिणी 3.10 में कृषि आधुनिकीकरण के स्तर की तुलना जनपदीय स्तर से की गई है। संपूर्ण जनपद के आधुनिकीकरण का स्तर 252.83 प्रतिशत है जिसे आधार मानकर विकासखड स्तर को पाँच श्रेणियों में बाँटा गया है जिसमें 200 से कम स्तर को न्यूनतम संकेत दिया गया है और इसमें कुंडा, बाबागंज तथा कालाकांकर विकास खंड स्थित है। इन विकासखंडों से कुछ अच्छी स्थिति में परंतु जनपदीय औसत से तुलनात्मक रूप में निम्न स्तरीय प्रदर्शन बिहार, मगरौरा तथा रामपुर खास विकासखंडों का है। जनपदीय औसत में न्यायाधिक स्थिति में सांगीपुर, लक्ष्मणपुर, रामपुर खास विकासखंडों का है। जनपदीय औसत से न्यूनाधिक स्थिति में सांगीपुर, लक्ष्मणपुर, संडवा चंद्रिका, शिवगढ़ तथा मांधाता विकासखंड है जो आधुनिकीकरण के स्तर 240 से 280 प्रतिशत के मध्य स्थित है। आधुनिकीकरण के उच्च स्तर जो 280 से 320 प्रतिशत के मध्य प्रदर्शन करने वाले विकास खंड पट्टी, प्रतापगढ़ सदर तथा गौरा है। आधुनिकीकरण के सर्वोच्च स्तर को प्राप्त करने वाला एकमात्र विकास खंड आसपुर देवसरा है जो 334 प्रतिशत आधुनिकीकरण स्तर को प्राप्त कर रहा है इस प्रकार जनपदीय औसत से कम स्तर को प्राप्त करने वाले कुल 7 विकासखंड है और जनपदीय औसत से उच्च स्तर पर 8 विकासखंड हैं :- संदर्भ ग्रंथ1. त्रिपाठी बद्री विशाल (1992) भारतीय कृषि पी. 215 |