किशोरावस्था में कौन कौन से संवेगात्मक परिवर्तन दिखाई देते हैं? - kishoraavastha mein kaun kaun se sanvegaatmak parivartan dikhaee dete hain?

बाल्यावस्था के समापन अर्थात 13 वर्ष की आयु से किशोरावस्था आरंभ होती है। इस अवस्था को तूफान एवं संवेदी अवस्था कहा गया है। हैडो कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है 11 से 12 वर्ष की आयु में बालक की नस में ज्वार उठना आरंभ होता है इसे किशोरावस्था के नाम से पुकारा जाता है। यदि इस ज्वार का बाढ़ के समय ही उपयोग कर लिया जाए एवं इसकी शक्ति और धारा के साथ नई यात्रा आरंभ की जाए तो सफलता प्राप्त की जा सकती है।

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Contents

  • किशोरावस्था
  • किशोरावस्था के विकास के सिद्धांत
  • किशोरावस्था की विशेषताएं
  • किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप
    • 1. शारीरिक विकास के लिए शिक्षा
    • 2. मानसिक विकास के लिए शिक्षा
    • 3. संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षा
    • 4. सामाजिक संबंधों की शिक्षा
    • 5. व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार शिक्षा
    • 6. पूर्व व्यावसायिक शिक्षा
    • 7. जीवन दर्शन की शिक्षा
    • 8. धार्मिक व नैतिक शिक्षा
    • 9. यौन शिक्षा
    • 10. अपराध प्रवृति पर अंकुश

किशोरावस्था

किशोरावस्था वह समय है जिसमें विचारशील व्यक्ति बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर संक्रमण करता है।

जरशील्ड के अनुसार

किशोरावस्था बड़े संघर्ष, तनाव तूफान तथा विरोध की अवस्था है।

स्टैनले हॉल

किशोरावस्था प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में वह काल है जो बाल्यावस्था के अंत में आरंभ होता है और प्रौढ़ावस्था के आरंभ में समाप्त होता है।

ब्लेयर, जॉन्स एवं सिम्पसन के अनुसार

मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि इस अवस्था की अवधि साधारणतः 7 या 8 वर्ष से 12 से 18 वर्ष तक की आयु तक होती है। अवस्था के आरंभ होने की स्थिति आयु, लिंग, प्रजाति, जलवायु, संस्कृति व्यक्ति के स्वास्थ्य आदि पर निर्भर करती है। सामान्यता बालको से कि किशोरावस्था लगभग 12 वर्ष की आयु में आरंभ होती है। भारत में यह पश्चिम के ठंडे देशों की अपेक्षा एक वर्ष पहले ही आरंभ हो जाती है।

किशोरावस्था में कौन कौन से संवेगात्मक परिवर्तन दिखाई देते हैं? - kishoraavastha mein kaun kaun se sanvegaatmak parivartan dikhaee dete hain?
किशोरावस्था में कौन कौन से संवेगात्मक परिवर्तन दिखाई देते हैं? - kishoraavastha mein kaun kaun se sanvegaatmak parivartan dikhaee dete hain?
किशोरावस्था

किशोरावस्था के विकास के सिद्धांत

किशोरावस्था में बालकों और बालिकाओं में क्रांतिकारी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों के संबंध में दो सिद्धांत प्रचलित हैं।

  1. आकस्मिक विकास का सिद्धांत – इस सिद्धांत के समर्थक स्टैनले हॉल हैं। उन्होंने 1904 में अपनी एडोलेसेंस बायलर नामक पुस्तक प्रकाशित की। उसमें उन्होंने लिखा है कि किशोर में जो भी परिवर्तन दिखाई देते हैं वह एकदम होते हैं और उनका पूर्व अवस्थाओं से कोई संबंध नहीं होता है। स्टैनले हॉल का मत है “किशोर में जो शारीरिक मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं, वह अकस्मात होते हैं।”
  2. क्रमिक विकास का सिद्धांत – इस सिद्धांत के समर्थकों में किंग, थार्नडाइक और हार्लिंगवर्थ प्रमुख हैं। इन विद्वानों का मत है कि किशोरावस्था में शारीरिक मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन निरंतर और क्रमश: होते हैं। इस संबंध में किंग ने लिखा है जिस प्रकार एक ऋतु का आगमन दूसरी ऋतु के अंत में होता है, पर जिस प्रकार पहली ऋतु में ही दूसरी ऋतु के आगमन के चिन्ह दिखाई देने लगते हैं उसी प्रकार बाल्यावस्था और किशोरावस्था एक दूसरे से संबंधित रहती हैं।

किशोरावस्था की विशेषताएं

प्रावस्था को दबाव, तनाव एवं तूफान की अवस्था माना गया है। इस अवस्था की विशेषताओं को एक शब्द परिवर्तन में व्यक्त किया जा सकता है। परिवर्तन शारीरिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक होता है। परिवर्तनों की ओर संकेत किया गया है, उनसे संबंधित विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  1. शारीरिक विकास – किशोरावस्था को शारीरिक विकास का सर्वश्रेष्ठ काल माना जाता है। इस काल में किशोर के शरीर में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं। जैसे भार और लंबाई में तीव्र वृद्धि, मांस पेशियों और शारीरिक ढांचे में दृढ़ता, किशोर में दाढ़ी और मूंछ की रोमा वलियों एवं किशोरियों में प्रथम मासिक स्त्राव के दर्शन। किशोरों के लिए सबल, स्वस्थ और उत्साही बनना एवं किशोरियों के लिए अपनी आकृति को नारी जाति आकर्षण प्रदान करना महत्वपूर्ण होता है।
  2. मानसिक विकास – किशोर के मस्तिष्क का लगभग सभी दिशाओं में विकास होता है। उसमें विशेष रूप से अग्रलिखित मानसिक गुण पाए जाते हैं – कल्पना और दिवास्वप्नों की बहुलता, बुद्धि का अधिकतम विकास, सोचने समझने और तर्क करने की शक्ति में वृद्धि विरोधी मानसिक दशाएं। किशोर की मानसिक जिज्ञासा का भी विकास हो जाता है। अतः वह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं में रुचि लेने लगता है। वह इन समस्याओं के संबंध में अपने विचारों का निर्माण भी करता है।
  3. घनिष्ठ व व्यक्तिगत मित्रता – किसी समूह का सदस्य होते हुए भी किशोर केवल एक या दो बालकों से घनिष्ठ संबंध रखता है। जो उसके परम मित्र होते हैं और जिन से वह अपनी समस्याओं के बारे में स्पष्ट रूप से बातचीत करता है।
  4. व्यवहार में विभिन्नता – किशोर ने आवेगो और समय को की बहुत प्रबलता होती है। यही कारण है कि वह विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार का व्यवहार करता है। उदाहरणार्थ किसी समय वह अत्यधिक क्रियाशील होता है और किसी समय अत्यधिक काहिल किसी परिस्थिति में साधारण रूप से उत्साह पूर्ण और किसी में असाधारण रूप से उत्साह हीन।
  1. स्वतंत्रता व विद्रोह की भावना – किशोर में शारीरिक और मानसिक स्वतंत्रता की प्रबल भावना होती है। वह बड़ों के आदेशों विभिन्न परंपराओं और रीति-रिवाजों और अंधविश्वासों के बंधनों में ना बंधकर स्वतंत्र जीवन व्यतीत करना चाहता है। अतः यदि उस पर किसी प्रकार का प्रतिबंध लगाया जाता है, तो उसमें विद्रोह की ज्वाला फूट पड़ती है।
  2. काम शक्ति की परिपक्वता – काम इंद्रियों की परिपक्वता और काम शक्ति का विकास किशोरावस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है। इस अवस्था के पूर्व काल में बालकों और बालिकाओं के समान लिंग के प्रति आकर्षण होता है। इस अवस्था के उत्तर काल में यह आकर्षण विषम लिंगो के प्रति प्रबल रुचि का रूप धारण कर लेता है। फलस्वरूप कुछ किशोर और किशोरियां लिंगी संभोग का आनंद लेते हैं।
  3. समूह को महत्त्व – किशोर जिस समूह का सदस्य होता है उसको वह अपने परिवार और विद्यालय से अधिक महत्वपूर्ण समझता है। यदि उसके माता-पिता और समूह के दृष्टिकोण में अंतर होता है तो वह समूह के ही दृष्टि कोणों को श्रेष्ठ तर समझता है और उन्हीं के अनुसार अपने व्यवहार रुचियों, इच्छाओं आदि में परिवर्तन करता है। जिन समूहों से किशोरों का संबंध होता है उनसे उनके लगभग सभी कार्य प्रभावित होते हैं, समूह उनकी भाषा, नैतिक मूल्यों, वस्त्र पहनने की आदतों और भोजन की विधियों को प्रभावित करते हैं।
  4. समाज सेवा की भावना – किशोर में समाज सेवा की अति तीव्र भावना होती है। इस संबंध में रास के यह शब्द उल्लेखित है “किशोर समाज सेवा के आदर्शों का निर्माण और पोषण करता है, उसका उदार हृदय मानव जाति के प्रेम से ओतप्रोत होता है और वह आदर्श समाज का निर्माण करने में सहायता देने के लिए उद्विग्न रहता है।”
  1. ईश्वर व धर्म में विश्वास – किशोरावस्था के आरंभ में बालकों को धर्म और ईश्वर में आस्था नहीं होती है। इनके संबंध में उनमें इतनी संकाएं उत्पन्न होती है कि वह उनका समाधान नहीं कर पाते हैं पर धीरे-धीरे उनमें धर्म में विश्वास उत्पन्न हो जाता है और वह ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करने लगते हैं।
  2. जीवन दर्शन का निर्माण – किशोरावस्था से पूर्व बालक अच्छी और बुरी, सत्य और असत्य, नैतिक और अनैतिक बातों के बारे में नाना प्रकार के प्रश्न पूछता है। किशोर होने पर वह स्वयं इन बातों का विचार करने लगता है और फल स्वरुप अपने जीवन दर्शन का निर्माण करता है। वह ऐसे सिद्धांतों का निर्माण करना चाहता है जिनकी सहायता से वह अपने जीवन में कुछ बातों का निर्णय कर सकें। इसे इस कार्य में सहायता देने के उद्देश्य से ही आधुनिक युग में युवक आंदोलनों का संगठन किया जाता है।
  3. व्यवसाय का चुनाव – किशोरावस्था में बालक अपने भावी व्यवसाय को चुनने के लिए चिन्तित रहता है। इस संबंध में स्ट्रैंग का कथन है – “जब छात्र हाई स्कूल में होता है, तब वह किसी व्यवसाय को चुनने उसके लिए तैयारी करने उस में प्रवेश करने और उसमें उन्नति करने के लिए अधिक से अधिक चिंतित होता जाता है।”

इस प्रकार हम देखते हैं कि किशोरावस्था में बालक में अनेक नवीन विशेषताओं के दर्शन होते हैं।

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किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप

किशोरावस्था आरंभ होने के समय से ही शिक्षा को एक निश्चित स्वरूप प्रदान किया जाना अनिवार्य है, इस शिक्षा का स्वरूप क्या होना चाहिए। आइए समझते हैं-

  1. शारीरिक विकास के लिए शिक्षा
  2. मानसिक विकास के लिए शिक्षा
  3. संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षा
  4. सामाजिक संबंधों की शिक्षा
  5. व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार शिक्षा
  6. पूर्व व्यावसायिक शिक्षा
  7. जीवन दर्शन की शिक्षा
  8. धार्मिक व नैतिक शिक्षा
  9. यौन शिक्षा
  10. अपराध प्रवृति पर अंकुश

1. शारीरिक विकास के लिए शिक्षा

किशोरावस्था में शरीर में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन होते हैं, जिन को उचित शिक्षा प्रदान करके शरीर को सबल और सुडौल बनाने का उत्तरदायित्व विद्यालय पर है। दहा उसे निम्नलिखित का आयोजन करना चाहिए।

  1. शारीरिक और स्वास्थ्य शिक्षा
  2. विभिन्न प्रकार के शारीरिक व्यायाम
  3. सभी प्रकार के खेलकूद

2. मानसिक विकास के लिए शिक्षा

किशोर की मानसिक शक्तियों का सर्वोत्तम और अधिकतम विकास करने के लिए शिक्षा का स्वरूप उसकी रूचियों, रुझानों, दृष्टिकोण और योग्यताओं के अनुरूप होना चाहिए। अतः उसकी शिक्षा में निम्न को स्थान दिया जाना चाहिए।

  1. कला, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, साहित्य आदि सामान्य विद्यालय विषय।
  2. किशोर की जिज्ञासा को संतुष्ट करने और उसकी निरीक्षण शक्ति को प्रशिक्षित करने के लिए प्राकृतिक ऐतिहासिक आदि स्थानों का भ्रमण।
  3. उसकी रूचियों कल्पनाओं और दिवस सपनों को साकार करने के लिए पर्यटन वाद-विवाद कविता लेखन, साहित्य संगोष्ठी आदि पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएं।

3. संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षा

किशोर अनेक प्रकार के संवेगो से संघर्ष करता है। इन नंबरों में से कुछ उत्तम और कुछ निकृष्ट होते हैं। अतः शिक्षा में इस प्रकार के विषयों और पाठ्य सहगामी क्रियाओं को स्थान दिया जाना चाहिए जो निकृष्ट संवेगों का दमन या मार्गांतीकरण और उत्तम संवेगों का विकास करें। इस उद्देश्य से कला, विज्ञान, साहित्य, संगीत, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि की सुंदर व्यवस्था की जानी चाहिए।

4. सामाजिक संबंधों की शिक्षा

किशोर अपने समूह को अत्यधिक महत्व देता है और उसमें आचार विचार की अनेक बातें सीखता है। महाविद्यालय में ऐसे समूहों का संगठन किया जाना चाहिए, जिनकी सहायता ग्रहण करके किशोर उत्तम सामाजिक व्यवहार और संबंधों के पाठ सीख सकें। इस दिशा में सामूहिक क्रियाएं, सामूहिक खेल और स्काउटिंग अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।

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5. व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार शिक्षा

किशोर में व्यक्तिगत विभिन्नता और आवश्यकताओं को सभी शिक्षाविद स्वीकार करते हैं। अतः विद्यालयों में विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे किशोरों की व्यक्तिगत मांगों को पूर्ण किया जा सके। इस बात पर बल देते हुए माध्यमिक शिक्षा आयोग ने लिखा है- “हमारे माध्यमिक विद्यालयों को छात्रों की विभिन्न प्रवृत्तियों, रुचियों और योग्यताओं को पूर्ण करने के लिए विभिन्न शैक्षिक कार्यक्रमों की व्यवस्था करनी चाहिए।”

6. पूर्व व्यावसायिक शिक्षा

किशोर अपने भावी जीवन में किसी ना किसी व्यवसाय में प्रवेश करने की योजना बनाता है। पर वह यह नहीं जानता है कि कौन सा व्यवसाय उसके लिए सबसे अधिक उपयुक्त होगा। उसे इस बात का ज्ञान प्रदान करने के लिए विद्यालय में कुछ व्यवसायियों की प्रारंभिक शिक्षा दी जानी चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखकर हमारे देश के बहुद्देशीय विद्यालयों में व्यावसायिक विषयों की शिक्षा की व्यवस्था की गई है।

7. जीवन दर्शन की शिक्षा

किशोर अपने जीवन दर्शन का निर्माण करना चाहता है, पर उचित पथ प्रदर्शन के अभाव में वह ऐसा करने में असमर्थ रहता है। इस कार्य का उत्तरदायित्व विद्यालय पर है। इसका समर्थन करते हुए ब्लेयर, जोंस और सिंपसन ने लिखा है- “किशोर को हमारी जनतंत्र के दर्शन के अनुरूप जीवन के प्रति दृष्टिकोण ओं का विकास करने में सहायता देने का महान उत्तरदायित्व विद्यालय पर है।”

8. धार्मिक व नैतिक शिक्षा

किशोर के मस्तिष्क में विरोधी विचारों में निरंतर द्वंद्व होता रहता है। फल स्वरुप वह उचित व्यवहार के संबंध में किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाता है। अतः उसे उदार, धार्मिक और नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वह उचित और अनुचित में अंतर करके अपने व्यवहार को समाज के नैतिक मूल्यों के अनुकूल बना सके। इसलिए कोठारी कमीशन ने हमारे माध्यमिक विद्यालयों में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा की सिफारिश की है।

9. यौन शिक्षा

किशोर बालकों और बालिकाओं की अधिकांश समस्याओं का संबंध उनकी काम प्रवृत्ति से होता है। अतः विद्यालय में यौन शिक्षा की व्यवस्था होना अति आवश्यक है। यौन शिक्षा की परम आवश्यकता को कोई भी स्वीकार नहीं कर सकता है। इस बात की आवश्यकता है कि किशोर को एक ऐसे वयस्क द्वारा गोपनीय शिक्षा दी जाए जिस पर उसे पूर्ण विश्वास हो।

यौन शिक्षा मानव यौन शरीर रचना विज्ञान, लैंगिक जनन, मानव यौन गतिविधि, प्रजनन स्वास्थ्य, प्रजनन अधिकार, यौन संयम और गर्भनिरोध सहित विभिन्न मानव कामुकता से सम्बंधित विषयों सम्बंधित अनुदेशों को कहा जाता है। यौन शिक्षा का सबसे सरलतमा मार्ग माता-पिता अथवा संरक्षक होते हैं। इसके अलावा यह शिक्षा औपचारिक विद्यालयी कार्यकर्मों और सार्वजनिक स्वास्थ्य अभियानों से भी दी जाती है।

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10. अपराध प्रवृति पर अंकुश

किशोर में अपराध करने की प्रवृत्ति का प्रमुख कारण है- निराशा। इस कारण को दूर करके उसकी अपराध प्रवृति पर अंकुश लगाया जा सकता है। विद्यालय, उसको उसकी उपयोगिता का अनुभव कराकर उसकी निराशा को कम कर सकता है और इस प्रकार उसकी अपराध प्रवृति को कम कर सकता है।

अधिगम किशोरावस्था बाल्यावस्था
सृजनात्मक बालक Creative Child समस्यात्मक बालक श्रवण विकलांगता
प्रतिभाशाली बालक पिछड़ा बालक विशिष्ट बालकों के प्रकार
समावेशी बालक बाल विकास के क्षेत्र निरीक्षण विधि Observation Method
किशोरावस्था में सामाजिक विकास सामाजिक विकास प्रगतिशील शिक्षा – 4 Top Objective
बाल केन्द्रित शिक्षा विकास सृजनात्मकता
बाल्यावस्था में मानसिक विकास मानव विकास की अवस्थाएं

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किशोरावस्था में कौन कौन से परिवर्तन दिखाई देते हैं?

किशोरावस्था में होने वाले सामान्य शारीरिक परिवर्तन आपके चेहरे और शरीर पर मुंहासे हो सकते हैं। पसीना अधिक आने लगता है और शरीर से पसीने की दुर्गंध भी आ सकती है। आर्मपिट में बाल उगने लगते हैं। जननांगों के आसपास बाल उगने लगते हैं – इसे प्यूबिक हेयर भी कहा जाता है।

किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास कैसे होता है?

किशोरावस्था में संवेगात्मक व्यवहार में अनेक परिवर्तन आते हैं। वास्तव में किशोरावस्था का आगमन संवेगात्मक व्यवहार में आए तीव्र परिवर्तनों से ही परिलक्षित होता है। किशोरावस्था में जीवन अत्यधिक भावप्रधान होता है। किशोर-किशोरियों में दया, प्रेम, क्रोध, सहानुभूति, सहयोग आदि प्रवृत्तियाँ प्रबल होती हैं।

किशोरावस्था में शरीर में कौन कौन से परिवर्तन होते हैं परिवर्तन के क्या कारण है?

किशोर अवस्था शारीरिक परिपक्वता की अवस्था है। इस अवस्था में बच्चे की हड्डियों में दृढ़ता आती है; भूख काफी लगती है। कामुकता की अनुभूति बालक को 13 वर्ष से ही होने लगती है। इसका कारण उसके शरीर में स्थित ग्रंथियों का स्राव होता है।

किशोरावस्था के दौरान होने वाले प्रमुख भावात्मक और संज्ञानात्मक परिवर्तन कौन से हैं?

किशोरावस्था में बालक जल्दी से किसी के साथ सहमत नहीं होते। इसका कारण है कि उनमें तर्क-शक्ति का व्यापक विकास हो जाता है। साथ में उनमें प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति भी प्रबल हो जाती है, जो उनकी तर्क शक्ति का विकास करती है।