कृषि श्रमिक का अर्थ क्या है? - krshi shramik ka arth kya hai?

भारत के कृषि श्रमिकों का अवलोकन

कृषि मजदूर वह श्रमिक है, जो खेती से सम्बंधित कार्यों जैसे खेत जोतना ,फसल काटना, बागवानी करना, पशुओं को पालना, मधुमक्खियों और मुर्गी पालन के प्रबंधन और वन्य जीवन से जुडे कार्यों में लगा होता है। कृषि मजदूर असंगठित में क्षेत्र में आते हैं। भारत की लगभग 53% आबादी आज भी कृषि संबंधी गतिविधियों में शामिल है।

कृषि श्रमिक का अर्थ क्या है? - krshi shramik ka arth kya hai?

कृषि मजदूर वह श्रमिक है, जो खेती से सम्बंधित कार्यों जैसे खेत जोतना ,फसल काटना , बागवानी करना, पशुओं को पालना, मधुमक्खियों और मुर्गी पालन के प्रबंधन  और वन्य जीवन से जुडे कार्यों में लगा होता है। कृषि मजदूर असंगठित में क्षेत्र में आते हैं। भारत की लगभग 53% आबादी आज भी कृषि संबंधी गतिविधियों में शामिल है।

1950-1951 में गठित की गई पहली कृषि श्रम समिति ने कहा कि ये वह श्रमिक होते हैं जो मजदूरी के भुगतान के बदले फसल उगाते हैं । भारत में चूंकि, श्रमिकों की एक बड़ी संख्या इस इस परिभाषा के अंतर्गत नहीं आती, अत: इस परिभाषा को अधूरा माना गया। तदनुसार, समिति ने इसे पुन परिभाषित करते हुए कहा कि उन लोगों को कृषि श्रमिक के रुप में माना जाना चाहिए जो 50 प्रतिशत या उससे अधिक दिन के लिए मजदूरी के भुगतान पर काम करते हो।

1956-1957 में गठित दूसरी कृषि श्रम जांच समिति ने कृषि श्रमिकों का दायरा बढ़ाते हुए उसमे खेतों में काम करने वालों के अलावा उन लोगों को शामिल किया जो पशुपालन, डेयरी, मुर्गी पालन, सुअर पालन, आदि दूसरे तरह के कार्यों में लगे हैं।

समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि घरों में काम करने वाले श्रमिक भी इसी दायरे में आते हैं। साथ ही यह भी कहा कि जरूरी है कि आय के मुख्य स्त्रोत को भी ध्यान में रखा जाए। अंतत: यह तय हुआ कि जो मजदूर अपनी आय का कम से कम 50 प्रतिशत या अधिक आय कृषि के क्षेत्र में काम करके प्राप्त करता है, तभी उसे  कृषि श्रमिक की परिभाषा के अंतर्गत माना जायेगा।

कृषि श्रमिकों की श्रेणियाँ

पहली कृषि श्रम जांच समिति ने कृषि श्रमिकों को दो श्रेणियों में  वर्गीकृत किया।

पहला संगठित मजदूर व दूसरा आकस्मिक मजदूर

संगठित मजदूर वो होते हैं जो कृषक घर से किसी लिखित या मौखिक समझौते के तहत जुड़े होते हैं। उनके लिए यह रोजगार स्थाई और नियमित होता है।

आकस्मिक मजदूरों की बात करें तो वे किसी भी किसान के खेत पर काम करने के लिए स्वतंत्र होते हैं और उनका भुगतान आम तौर पर प्रतिदिन के हिसाब से दिया जाता है।

वृद्धि और कृषि श्रमिकों की संख्या में गिरावट          

अंग्रेजों के आने से पहले भारत में कृषि श्रमिक नहीं हुआ करते थे।सर थॉमस मुनरो ने 1842 में कहा भारत में एक भी भूमिहीन मजदूर नहीं था। वर्ष 2011 की जनगणना रिपोर्ट में भारत की निराशाजनक तस्वीर सामने आई। रिपोर्ट में सामने आया कि पिछले एक दशक में किसानों की संख्या में 8.6 लाख से अधिक की गिरावट आई ।

जनगणना का विवरण केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे द्वारा जारी किए गए। यह आंकड़े भारत के जनगणना आयुक्त सी चंद्रमौलि व रजिस्ट्रार जनरल की उपस्थिति में जारी किए गए।

आंकड़े बताते हैं कि देश में 54.6 प्रतिशत कामगार कृषि क्षेत्र से जुड़े हैं। 2001 की तुलना में भारत में 3.6 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई। 2001 की तुलना में जनगणना में पुरुषों में 44 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। वहीं महिलाओं की संख्या में 24.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई।चंद्रमौलि ने बताया कि समय बीतने के साथ जमीन कम होती गई और कृषि श्रमिकों की संख्या बढ़ती गई। इस रुख से साफ हुआ कि 14 प्रतिशत महिलाओं ने और 3.2 प्रतिशत खेत मालिकों ने इस कार्य को करना बंद कर दिया।  

जनगणना कार्यालय के मुताबिक पिछले 50 वर्षों में कुल जनसंख्या वृद्धि को देखते हुए किसान की जनसंख्या में ज्यादा गिरावट नहीं थी।

2011 की जनगणना के अनुसार 263 लाख लोग खेती संबंधी कामों में लगे हुए थे। वहीं ठीक इसके आधे कृषि श्रमिक के रुप में इस क्षेत्र में जुड़े थे। बीते चालीस सालों में पहली बार ऐसा देखा गया।

कृषि श्रमिकों के प्रकार

कृषि श्रमिकों को हम विस्तृत रुप से पारिवारिक श्रमिक, किराये के मजदूर व बंधुआ मजदूर की श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। 

पारिवारिक श्रमिक

इस श्रेणी में वे छोटे किसान होते हैं जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर होते हैं और मजदूरी देने में असमर्थ होते हैं। ये छोटे किसान बुआई, निराई व कटाई के सीजन में मजदूरी पर काम करते हैं। जब किसी कार्य को जल्द पूरा करना है और श्रमिकों की अधिक संख्या में आवश्यकता होती है ऐसे समय में पारिवारिक श्रमिक भी मजदूरी करने लगते हैं

मजदूरी पर काम करनेवाले श्रमिक

इस श्रेणी को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं : संगठित मजदूरव संलग्न श्रमिक

संलग्न श्रमिक कुछ समय या पूरे समय के लिए मालिकों से अनुबंध पर काम करते हैं। जबकि आकस्मिक श्रमिक जरूरत पड़ने पर काम पर आते है। आकस्मिक श्रमिक दैनिक मजदूर होते हैं। ये कम समय के लिए मजदूरी करते है। इनका अनुबंध मालिकों के साथ मौखिक होता है। यह अनुबंध तिमाही,छमाही व वार्षिक हो सकता है। मजदूरी पर काम काम करनेवाले श्रमिकों को मिलनेवाला वेतन आकस्मिक श्रमिकों से कम होता है।

बंधुआ मजदूर

भारत में इस श्रेणी में आनेवाले श्रमिक सबसे निचले पायदान पर आते है। इसके अंतर्गत कोई व्यक्ति अपने कर्ज को अदा करने के लिए किसी परिवार के सदस्य या किसी मालिक का बंधक बनकर काम करता है। वह व्यक्ति तब तक उस घर में श्रमिक के तौर पर काम करता है जब तक की उसका कर्ज अदा न हो जाए।

कृषि श्रमिकों की संख्या में वृद्धि के कारण

1- जनसंख्या में वृद्धि: जनसंख्या बढ़ने के कारण कृषि क्षेत्र पर दबाव बढ़ा है। इसकी सबसे बड़ी वजह निर्भर व्यक्तियों की संख्या में भारी वृद्धि होना जबकि जमीन का क्षेत्रफल वही रहा।

2- कुटीर उद्योग व ग्रामीण हस्तकला शिल्पमें कमी: अंग्रेजों के शासन काल के दौरान भारत में कुटीर उद्योग व ग्रामीण हस्तशिल्प कला में भारी गिरावट आई।

इसके बावजूद आधुनिक उद्योग धंधे इसका स्थान नहीं ले पाए। इसलिए ऐसे श्रमिकों को कृषि क्षेत्र में आना पड़ा।

3-अलाभकारी कंपनी: कृषि श्रमिकों की संख्या में वृद्धि का यह भी सबसे बड़ा कारण रहा है। इस दौरान बहुत सी कंपनियां घाटे में रही या वे बंद हो गई, जिसके चलते बड़ी संख्या में मजदूर कृषि क्षेत्र की ओर पलायन कर गए।

4-कर्ज का बोझ बढ़ना: छोटे किसान साहूकारों के कर्ज में फंसते चले गए, जिसके कारण उनकी जमीन उनके हाथ से चली गई। इस तरह वे साहूकारों के चंगुल से बाहर नहीं आ सके और उनको मजबूरन कृषि श्रमिक बनना पड़ा।

5-पैसों का प्रचलन व विनिमय का बढ़ना: पैसों का प्रचलन और विनिमय दरों का बढ़ना भी कृषि श्रमिकों की संख्या में बढ़ोतरी का कारण है। पैसों के लिए लोग जमींदारों की जमीन पर काम करते थे जिसके बदले उन्हें पैसा मिलता था।

लाख टके का सवाल है कि पूंजीपति शराब, गुटखा, बीड़ी, पान मसाला का उत्पादन ऐसे लोगों के लिए कर रहे हैं जो गरीब हैं, इस नशाखोरी के कारण गरीबों की स्थिति दिन प्रतिदिन खराब होती गई।