कवि ने बादलों को अनंत के घन क्यों कहा है और उंसे क्या प्रार्थना की है? - kavi ne baadalon ko anant ke ghan kyon kaha hai aur unse kya praarthana kee hai?

Solution :  उत्साह कविता में कवि बादल से अनुरोध करता है कि हे बादलो तुम गगन को चारों ओर से घेर लो, घोर अंधकार कर लो और क्रांति करो। अनंत दिशा से आकर घनघोर गर्जना करके बरसों और तपती हुई धरा को शीतल कर दो। क्रांति के द्वारा परिवर्तन ले आओ। बादलों को क्रांतिदूत मानकर सोए-अलसाए, कर्तव्य-विमुख लोगों में उत्साह लाने के लिए अनुरोध करता है।

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दोहा ७९ # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्े # ४२७ लक्बाकाण्ड 





श्रीजानकीजी- 'सुनि जानकी परम सुख पावा। सादर तासु चरन सिरु नावा॥#' (३। ६। १) 
अीनारदमुनि-- 'सुनि रघुपति के बचन सुहाए। मुनि तन पुलक नवन् धरि आए॥' (३। ४५। १ ) 
"सिर भाड़ बारहिं बार चरननिि ब्रह्मपुर नारद गए।' (३। ४६) 

तारा-'उपजा ज्ञान चरन तब लागीं। लीन्हेसि परम भगति बर माँगी॥' (४॥ ११। ६) 

पुरवासी-- सुनत सुधा सम बचत राम के। गहे सबन्हि पद कृपा थाम के ॥" (७। ४७। १) 

भरतादि भाई--'श्रीमुख बचन सुत्रत सब भाई। हरे ग्रेम न हृदय समाई॥ करहिं बिनय अति बारहिं 
बारा। हनूमात हिय हरघ अपारा॥' (७। ४२। १-२) 

गरुड़जी--'मैं कृतकृत्य भवर्ँ तब बानी।““““मो कहाँ वराथ ब्रिबिथ सुख दए॥ मो पहिं होड़ न प्रति 
उपकारा। बंदर तब पद बारहिं बारा॥““जानेहु सदा मोहि निज किंकर। पुनि पुनि उमा कहड़ बिहंगबर॥ 

/तासु चरन सिरु नाड़ करि प्रेम सहित मतिथीर॥ गएउ"““””” (गरुड़० ७। १२५) 

पु० रा० कु०-१ (क) 'सत्य दमस्तपः शौच सन्‍्तोषो ही: क्षमार्जवम्‌। ज्ञानं शमो दया दानमेष धर्मः 
सनातन: ॥' (महाभारत) अर्थात्‌ सत्य, दम, तप, शौच, सन्तोष, लज्जा, क्षमा, कोमलता, ज्ञान, शम (शान्ति), 
दया और दान, ये (सब जो रूपकमें कहे गये हैं) सनातन धर्म हैं। (ख) “बांदि चरन' उपक्रम और 
“गहे पद्कंज” उपसंहार है। 

वि० त्रि०--१ (क) 'सुनि प्रभु बचन विभीषन” इति। 'देखि बिभीषन भएउ अथीरा।' उन्हीं 
विभीषणका सन्देह प्रभुके वचन सुनते ही नष्ट हो गया। छछ संग्रामके समय जब कि जीवन-मरणका प्रश्न 
उपस्थित होता है, मानुषी प्रकृति कृत्रिम आडम्बरको छोड़ अपने यथार्थरूपमें आ जाती है और वही उपदेशका 
अथार्थ समय है। (ख) "प्रभु बचन” का भाव कि वे “क्तुमकर्तुमन्यधाकर्तु समर्थ" हैं। अतः संग्राम-जयके 
साधन तथा सिद्धिका निश्चय उनको ही हो सकता है। ये संग्राममें जीत-हारकों समान माननेका डपदेश 
नहीं देते, पर्तु ऐसी विधिका उपदेश देते हैं, जिससे पराजय हो हो नहीं सकती। 

वि० त्रि०--२ “गहे पदकंज:-यह सफलताका सूचक है। यथा--“रिपुदल धरषि हरषि हिय बालितनय 
बलपुंज। पुलक सरीर नयत जल गहे रामपद कंज॥' (३४) [“गहे यद' का भाव कि अब इन्हें न छोड़ूँगा, मेरे 
भवसागर पार होनेका ' अवलम्ब' आपका चरण ही है और कोई साधन मुझसे कब सध सकता है। (बं० पा०)] 

बि० त्रि०--३ “एहि मिस'  --रावणके विजयकी विधि बतलानेके मिषसे मुझे उपदेश दिया। 
संसार-सागरसे तरनेका यथार्थ उपाय बतलाया, सो भी दूसरे ब्याजसे, क्योंकि सरकार 'कृषा सुखपुंज” हैं, 
बिना कहे ही दुःख दूर करते हैं। व्याजसे उपदेशका दूसरा भाव यह है कि पहले विभीषण कह चुके 
हैं कि 'उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बहीं॥ फिर भी इन्हें रावणके विजयकी 
चिन्ता है, अपने परलोककी नहीं। 














*सिंहावलोकन वा दिग्दर्शन * 


१--प्राकृत शत्रुके लिये प्राकृत रथ अजय संसार-शत्रुके लिये धर्म-रथ 
२-रथमें पहिये दो यहाँ शौर्य और धैर्य 
(क) पहियोंसे रध चलता है (रा० कु०) शूस्ता-धीरतासे धर्म रहता है,-- कोटि बिघ्त ते संत" जिमि 
नीति न त्याग।' 
(ख) पहियोंके पीछे हटनेसे बीरतामें शौर्य-धैर्य छूटनेसे धर्मरथारूढ 
न्यूनता आती है। (जा० दा०) पुरुषकी न्यूनता। 
३ (क) ध्वजा-पताकासे जय और उनके सत्य-शीलहीन होनेसे संसार-रिपुसे पराजय। 
गिरनेसे पराजय सूचित होती है 
(ख) ध्वजासे रथ लक्षित होता है। सत्यसे धर्म लक्षित होता है, यह सर्व-धर्म- 


और पताकासे जय।( रा० कु०) श्रेष्ठ है-- “सत्य मूल सब सुकृत सुहाए।' 


मानस-पीयूष ४२८ # श्रीमते रामचन्भाय नमः # दोहा ७९ 





(ग) ध्वजा-पताका सबसे ऊँचे रहते हैं। सत्य और शील सब गुणोंमें श्रेष्ठ और शिरोमणि हैं और 
--(जा० दा०)। दोनों मुख और नेत्रोंद्वारा प्रकट होते हैं। 

४-रथमें कम-से-कम चार घोड़े जुड़े रहते हैं। बल, विवेक, दम और परहित धर्ममय 
रथमें जुड़े हैं, यहो उसे खींचते हैं। 

५--बागडोरसे बह घोड़े काबूमें रखे जाते हैं। क्षमा, दया और समता तीनों रस्सियोंसे ये जुड़े हैं। 
भाव कि क्षमा, दया और समताद्वारा बल, विवेक, 
दम और परहितपर काबू रहता है। 

६--प्राकृत रथको चतुर सारथी चलाता है धर्म-रथकों ईशका भजन चलाता है। 


७-रथीके पास ढाल-कृपाण, परशु, प्रचंड शक्ति, यहाँ वैराग्य, सन्तोष, दान, बुद्धि, श्रेष्ठ विज्ञान, निर्मल और 
कठिन कोदण्ड, तरकश, नाना प्रकारके बाण और दृढ़ मन, शम, यम, नियम और विजप्र गुरुपूजा हैं। 
अभेद्य कबच होते हैं। 

0डअध्यात्म तथा वाल्मीकि रामायणोंमें यह वर्णन नहीं है। इस वर्णनमें महाभारतके गीतोपदेशके प्रसड़्की छटा 
है । वहाँ अर्जुनको मोह हुआ था। इसलिये श्रीकृष्णजीने उन्हें सखा-भावसे उपदेश किया। यहाँ सखा विभीषणको मोह 
हुआ; उन्हें श्रीरामजीने भी सखाभावसे धर्मपदेश किया।--'एहि बिथि मोहि उपदेशेह/' इस वाक्यसे गुसाईजीने 
विभीषणकी ओरसे श्रीरामजीका गुरूपदेश निर्दिष्ट किया। श्रीरामजोके धर्मोपदेशमें गीताके तेरहवें अध्यायके 
*अमानित्वमदंभित्वम्‌' इत्यादिकी जैसी छटा दिखायी देती है, वैसी ही भा० स्क॑० ७ अ० ११ नारदोक्त राज्य-धर्मकी 
भी छटा दिखायी देती है। 

चाहे कुछ भी हो, परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इस रूपकमेंका धर्म प्रवृत्ति-लक्षण- 
धर्म न होनेके कारण सर्वसामान्य धर्म नहीं कहा जा सकता। इसे निवृत्ति-लक्षणधर्म समझना चाहिये और 
ऐसा जान पड़ता है कि वह विभीषणकों उपदेश करनेके लिये हौ कहा गया है। यदि वह वर्णाश्रम धर्म 
रहता तो हम उसे (प्रवृत्ति) धर्म कहते। गीताके 'एतस्ज्ञानमिति प्रोक्तम्‌' कथनानुसार हम भी उसे बैसा 
ही, यानी निवृत्ति-धर्म कहते हैं।--(मानस-हंस) 

थे० भू०--अनेक लोग महाभारतकी गोता और मानसकी इस गीता-(धर्मरथ-) की समानता देते हुए 
दोनोंका सर्वाशिक मिलान भी करते हैं। परन्तु मेरी समझसे दोनोंकी तुलना नहीं हो सकती। यह ठीक 
है कि भारतीय गीता सात सौ श्लोकोंकी होनेसे उसमें अनेक प्रकारके कर्म, ज्ञान, उपासना, भक्ति, प्रपत्ति, 
शरणागति आदि जालको बड़ी सुन्दरतासे बुना गया है। और यह भी ठीक है कि रामायण और महाभारत 
दोनोंमें मध्य समरभूमिमें ही अपने-अपने सखा भक्तोंको स्वयं भगवान्‌ने हो श्रीमुखसे परम ज्ञानका उपदेश 
दिया है, इसी तरह दोनों उपदेशके सिद्धान्तोंमें भी रूपकके अतिरिक्त कोई विशेष अन्तर नहीं है। परन्तु 
जो अन्तर है, वह सबसे महान्‌ है और विचार करनेपर खटकने लगता है कि लड्ढा-युद्धमें विभीषणको 
केवल रथ लेकर ही मोह हुआ था। इससे रथ-वर्णनके हो बहानेसे अध्यात्मज्ञाकका उपदेश हुआ पस्नतु 
भारतीय युद्धोंमें अर्जुनने मुख्य सन्देह यही किया था कि युद्धमें जनसंहार एवं कुलक्षय होना ही है। कुलक्षय 
होनेपर सनातन कुलधर्म नष्ट हो जायगा। सबसे बड़ा दोष यह होगा कि बोर युवकोंके संहार हो जानेसे 
कुलयुवतियाँ दूषित हो जायँगी। जिससे वर्णसंकर सन्तान पैदा होने लगेंगी। यथा--“कुलक्षये प्रणश्यन्ति 
कुलधर्मा: सनातना:।' से 'नरकेडनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥' तक (गीता १॥ ४०, ड४) 

अर्जुनकी इस मुख्य शझ्लाका समाधान भगवानने कहीं नहों किया, वरत्‌--'अशोच्यानन्वशोचस्त्वं 
प्रज्ञाबादांश भाषसे॥' (२। ११) इन शब्दोंसे फटकारते हुए बहुत ज्ञानोपदेश दिया तथा अर्जुनकी अन्य बहुत- 
सी शज्भाओंका समाधान भी किया परन्तु इस मुख्य शड्भाका कोई समाधान नहीं किया। उलटे उसे डाँट दिया 
कि यदि तुम सीधे युद्ध नहीं करोगे तो मेरी प्रकृति (शक्ति) तुम्हें बलातू युद्धमें लगा देगी। 'प्रकृतिस्त्वां 
नियोक्ष्यति' और विराट्रूप दिखाकर अपनी प्रकृतिके बलकी धाक भो अर्जुनके हृदयमें बैठा दी। हो सकता 


दोहा ७९, ८० ( १-२) # श्रीमद्रामचन्भधचरणौ शरणं प्रपद्ये * ४२९ लक्गाकाण्ड 





है कि बहुत लम्बे-चौड़े ज्ञानगाथाके सुनते-सुनते अर्जुनको अपनी शद्जा ही भूल गयी हो अथवा अर्जुनने डरसे 
'कबूलकर लिया हो कि--'नष्टो मोहः स्पृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत॥' (१८ । ७३) और जो आपकी प्रकृति बलातू 
ही करा लेगी तो फिर आप जबरदस्ती क्यों करेंगे, मैं ही 'करिष्ये बचन॑ तब।' 

परन्तु यहाँ तनपदत्राण और रथ लेकर विभीषणकी श्र थी, अतः श्रोरामजीने केवल रथके सम्बन्धमें 
ही कहा। रथके हो वर्णनमें अग्रत्राणका भी स्पष्ट वर्णन कर दिया, परन्तु इधर-उधरकी बहुत-सी बातें 
कहकर विभीषणका प्रश्न गोल नहाँ कर दिया और डाँट भो नहीं बतायी। 

यही रामायणी धर्मरथ और भारतीय भगवद्गीताका स्थूल अन्तर है। 

नौट--३ भगवानूका उपदेश नित्य और सत्य होता है। आज भी इसी धर्मरथपर आरूढ़ हो वर्तमान 
जगतूके पुरुषोत्तम महात्मा गाँधी संसारकी सबसे बड़ी शक्तिसे, जिसे वह रावणराज्य कहते हैं, महासमर 
कर रहे हैं और पार्थिव हथियारोंका सर्वथा त्याग कर रखा है (प्र० सं०)। जय भी प्राप्त हो ही गयी। 

श्रीरामगीता--धर्मरथ-प्रकरण समाप्त हुआ। 
दो०--उत पचार दसकंधर* इत अंगद हनुमान। 
लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन॥७९॥ 
शब्दार्थ-पचार (प्रचार)-ललकारता। आन*"शपथ, दुहाई। 

अर्थ--उधरसे रावण ललकारता धा और इधरसे अद्भद और हनुमानजी ललकारते थे। निशिचर और 
रीछ-बन्दर अपने-अपने स्वामीकी दोहाई कर-करके लड़ रहे हैं॥ ७९॥ 

'प० प० प्र०--१ (क) “भिरे बीर ड़त यम हित उत रावनहिं बखानि॥#' (७८) पर युद्धका प्रसड्ग छोड़ा था, 
वह “उत पचार दसकंथर-““ ' से फिससे उठाया। (ख) दोहा ७८ में 'डत उत” है और यहाँ 'उत ड्रत।' यह सहेतुक 
है। भाव यह है कि श्रीरामजीका प्रतापादि सुनकर वानर वीर रावण-वाहिनीपर टूट पड़े, तब उधर निशाचरोंको रावण 
प्रेरणा देने लगा। यह देखकर इधर अड्भद और हनुमान्‌ वानरसेनाका उत्साह बढ़ाने लगे। (ग) “निसाचर' शब्दको 
प्राधान्य देकर जनाया कि वे विशेष जोशमें आकर लड़ रहे हैं। 

नोट--४छ यहाँ अद्भृद-हनुमान्‌ और रावणकी बराबरी दिखायी। मिलान कीजिये--“उत रावन इत राम 
दोहाईं। जयति जयति जय परी लगाई॥' (४०। ७), 'रजनीचर मत्तगयंद घटा बिघटै मृगराज के साज लरैं। 
झपटै भरट कोटि मही पटके गरजे रघुबीर की साँह करे॥ तुलसी उत हाँक दसानन देत अचेत भे बीर 
को धीर धरै। बिसुझो रन मारुत को बिरुदत जो कालहु काल सो बूझि परै॥#' (क० ३६) 

बं० पा०--रावणकी जोड़में अद्भद-हनुमान्‌को कहा, श्रीरामचन्द्रजीको नहीं। इसका कारण यह है कि 
श्रीरमजी अभी वहाँसे दूर थे। 

सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढ़े बिमाना॥१॥ 
हमहूँ उम्रा रहे तेहि संगा।देखत रामचरित रनरंगा॥२॥ 
अर्थ-ब्रह्मादि सब देवता और अनेक सिद्ध एवं मुनि विमानोंपर चढ़े हुए आकाशसे युद्ध देख रहे 
हैं॥ १॥ (शिवजी कहते हैं) हे उमा! हम भी उन सबोंके साथ थे और श्रीरामचन्द्रजीके रणोत्साहका 
चरित देखते थे॥ २॥ 

पं०-१ “सुर ब्रह्मादि” मेघनाद-युद्धतक रणभूमिमें रण देखने पहले कभी न आये थे, अब राम- 
रावण युद्धमें प्रथससे इनका आगमन कवि बता रहे हैं। पूर्व न आनेका कारण कि--(क) ऐसा युद्ध 
पहले कभी न हुआ था जैसा अब होनेको है। राम-रावण-युद्ध अप्रतिम हुआ है, इसकी उपमा यही 
है, दूसरा नहीं। यथा--'गश्धर्वाप्सरसां सड्था दृष्ठा युद्धमनूषमम्‌। गगन गगनाकारं सागरः सागरोपमम्‌॥ 





* दसकंठ भट--(का०)। 


मानस-पीयूष ४३० # श्रीमते रामचन्द्राय नम: # दोहा ८० (१-२) 





रामरावणयोर्वुद्धं रामरावणयोरिव। एवं ब्रुवन्तो ददृशुस्तद्युद्ध॑ रामतवणम्‌॥' (वाल्मी० ११०। २३-२४, च० सं०) 
वा, (ख) जबतक मेघनाद जीक्ति था तबतक देवताओंको बड़ा भय था कि 'हमको देखकर रावण कहीं 
हमें पीड़ित करनेके लिये उसे न भेज दे। अब वह अकेला हो गया। इससे डर कम है क्योंकि अब 
अकेला वह कहाँ-कहाँ दौड़ेगा! वा, (ग) अब रावणका मरण-काल समझकर आये।! ड़ 

पं०-२ 'हमहू उम्रा रहे तेहि संग्रा।/ (क) “उमा सम्बोधनसे शिवपावंती-संवाद जनाकर सूचित किया 
कि भगवान्‌ शद्भूर उन्हें जनाते हैं कि तुम सतोरूपमें उस समय कैलासमें थीं, हम तुम्हारा त्याग कर 
चुके थे, इससे हम अकेले आये थे, तुम साथ न थीं। (ख) अन्य कल्पोंकी कथामें इसका भाव यह 
लेंगे कि शिवजी उन्हें सावधान करते हैं कि हम और तुम दोनों ही वहाँ थे, तुम्हें याद होगा। 

एक शझ्जा यहाँ लोग यह करते हैं कि शिवजीने तो वनवासके समय दण्डकवनमें प्रभुके दर्शन किये 
थे। उसके बाद तो ८७ हजार वर्षकों समाधि लगी थीं तब राम-रावण-युद्धमें एवं युद्धके अन्तमें कैसे 
आये? इसका समाधान पूर्व किया जा चुका है। यहाँ भी संक्षेपसे लिखा जाता है। 

शिवजी ईश्वरकोटिमें हैं। वे एक ही समयमें जितने रूप चाहें, धारण कर सकते हैं। लीलाविभूतिमें 
शामिल होकर वे समाधिस्थ हुए और ऐश्वर्यरूपसे वे सर्वत्र उसो समय कार्य कर रहे हैं। ऐसा न हो 
तो बे संहारके देवता हैं, संहारका काम ही बन्द हो जाय। इसी प्रकार श्रीहनुमानजी एक रूपसे सदा 
श्रीरामजीकी सेवामें रहते हैं और दूसरे रूपोंसे जहाँ-जहाँ रामचरित होता है, वहाँ भी रहते हैं। 

दूसरा समाधान इस प्रकार लोग करते हैं कि मानसमें कई कल्पोंकी कथा है, जिस कल्पमें समाधि 
लगी थी, उस कल्पमें युद्धेभ समय न थे, अन्य कल्पॉमें थे। स्मरण रहे कि ऋषि, सिद्ध, देवगण आदियें 
एक ही समयमें अनेक रूप धारण करनेकी शक्ति है। (ग) 'रहे तेहि संगा' से शद्भूरजी गौण हुए और 
सब देवता प्रधान हुए। यह शिष्ट पुरुषोंकी रीति है। मिलान कीजिये--'तेहि समाज गररिजा मैं रहेऊँ।! 

नोट-सुर ब्रह्मादिके विषयमें कहा कि 'देखत रन नभ चढ़े बिमाता' और अपने लिये कहते हैं 
कि-- 'देखत रामचरित रनरंगा।' इस भेदमें आशय यह है कि वे सब रण देखते थे और हम प्रभुके समररसके 
चरित देखते थे कि प्रभु रणमें क्रोधादिका कैसा-कैसा अभिनय (नरनाट्य) करते हैं। 

भगवान्‌ शह्भर प्रभुके चरित ही देखते हैं; ऊपरी बातोंपर उनका ध्यान नहीं आकर्षित होने पाता। 
आप बाल, विवाह, रण और राज्यादि सभी लोलाओंके ज्ञाता हैं, लीलारसिक हैं, सब चरित आपने देखे 
हैं, यथा-(१) 'देखि जनकपुर सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहि लघु लागे॥ चितवहिं चकित बिचित्र 
बिताना। रचना सकल अलौकिक वाना॥-“'बिथिहि भएड आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न 
देखी॥' यह तो ब्रह्मादिक देवताओंका हाल था और उसी समय--'रामरूप नखसिख सुभगण बारहिं बार 
निहारि। पुलक यात लोचन सजल उमा समेत पुरारि॥' (१। ३१५), (२) 'संभु समय तेहि रामहि देखा। 
उपजा हिय अति हरष बिसेषा॥ भरि लोचन छबि सिंधु निहारी। कुसमय जाति न कीन्ह घिन्हारी॥' 
(१। ५०), (३) 'कागभुसुंडे संग हम दोऊ। मनुज रूप जानड़ नहिं कोऊ॥ परमानंद प्रेम सुख फूले। बीधिन्ह 
फिरहिं मगन मन भूले॥' (१। १९६), (४) “वह सोभा समाज सुख कहत त बनडू खगेस। बरनड़ सादर 
सेब श्रुति स्रों रस जान महेस॥ (७। १२), (५) “पुत्ति पुन्ति पुलकत कृपानिकेता' (वनमें देखकर) इत्यादि। 

इन प्रसज्जोंसे स्पष्ट है कि शिवजी प्रभुके जन्म, बाल, विवाह, रण और राज्याभिषेक सभी अवसरोंपर 
प्रभुके रूप और चरित ही देखा करते थे। ये अन्य देवताओंकी तरह प्रभुको छोड़ इधर-उधर अपनी दृष्टि 
और ध्यान नहों ले जाते और नाम तो सदा ही स्मरण करते रहते हैं। 

रा० प्र०--शिवजी रणके देवता हैं, अत: देखते हैं कि कैसा रणरड् होगा। रामेश्वर-प्रतिष्ठा-समय 
रा० प० में इसका इशारा कर चुके हैं। 

'प० प० प्र०--कविके हृदयमें भी यहाँ (दोहा ७८) से वीररस व्याप्त है। यहाँसे लेकर रावणबंधतक 
प्रत्येक दोहेपर छन्द आया है। केवल धर्मरथवर्णनमें छन्‍्द नहीं है, क्योंकि वहाँ शान्तरस प्रधान है। मानसनिर्माताके 


दोहा ८० ( ३--६ ) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्यो + ४३१ लड्भाकाण्ड 





तीनों उपास्य (श्रीराम, श्रीहनुमान्‌ और श्रीशड्भूर) रणभूमिमें उपस्थित हैं; इससे भी उत्साह बढ़ा। उसका रूपान्तर 

भयानक, रौद्र, अद्भुत और बीभत्सादि रसोंमें यथासम्भव होता है और अन्तमें दोहा १०३ से आगे शान्त 

और भक्तिस्समें परिणत होता है। रसका विशेष परिपाक करनेके लिये ही छन्दोंका प्रयोग हुआ है। 
सुभट समररस दुहुँ दिसि माते। कपि जयसील रामबल ताते॥३॥ 


एक एक सन भिरहिं पचारहिं। एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं ॥ ४॥ 
शब्दार्थ-समरस्स-वोररस। यथा--“एतना कहत नीतिरस भूला। रवरस बिटप पुलक मिस फूला”””॥' /उठि 
कर जोरि रजायसु माँगा। मनहुँ बीरसस सोबत जाया॥' (२। २२९। ५, २। २३०। १) माते*मतवाले थे। 
अर्थ-दोनों ओरके योद्धा वीरस्समें मतवाले थे। वानरोंको श्रीयमजीका बल है इससे वे जयशील हैं॥ ३॥ 
'एक-एकसे भिड़ते और ललकारते हैं और एक-एक-(दूसरे-) को मर्दन करके पृथ्वीपर डाल देते हैं॥ ४॥ 
नोट--१ (क) ऊपर दोहा ७८ में 'राम-रावण-दलका युद्धारम्भ' कहकर 'धर्मरथ'-प्रसड़॒ कहने लगे 
थे। दोहा ७९ से फिर पूर्व प्रसड़कों उठाया। पूर्व कहा था कि 'भिरे बीर ड़त रामहित उत रावनहिं बखाति' 
और यहाँ कहा कि “लरत निस्ाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आच।' प्रसज्ञको इस तरह मिलाकर 
देवतादिका रण देखना कहकर अब युद्धका वर्णन करते हैं। (ख) दोहा ७८ में कहा था कि 'दुहँ दिसि 
जयजयकार करि निज निज जोरी जानि भिरे।' और यहाँ कहते हैं कि "एक एक सन भिरहिं पचारहिं 
इस प्रकार 'एक एक संत्र' से जोड़ियोंका परस्पर युद्ध जनाया। मेघनाद-लक्ष्मण-प्रथम-युद्धमें भी जोड़ी-जोड़ीका 
युद्ध कहा था, यथा--'भिरे सकल जोरिहि सन जोरी। ड़त उत जय इच्छा नहिं थोरी॥' (५२। ४) (ग) 'भिरहिं 
पचारहिं” के भाव दोहा-४५ (६) “दोउ दल प्रबल पचारि पचारी। लरत सुभट नहिं मानहिं हारी॥' और 
-.'कपि जयसील मारि युनि डाटहिं।” (५२। ५) में देखिये। भाव कि परस्पर एक-दूसरेसे लड़ते हैं, एक- 
दूसरेको मारते हैं, पर हार कोई नहीं मानते। छूटनेपर एक-दूसरेको ललकारकर फिर भिड़ते हैं; इस तरह 
परस्पर बराबरका युद्ध जनाया। पुनः “पच्चारहिं” का दूसरा भाव कि कोई भागता है तो उसे ललकारते 
हैं, यथा प्रथम युद्धमें 'झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहाँ।' (४० छंद) रा० प्र० 
का मत है कि पहले एक-एकसे भिड़ते हैं और उसको मार भगाते हैं तब दूसरेको ललकारते हैं। (घ) 
“एकल एक मार्दि““““।” अर्थात्‌ अपने शरोरसे रगड़ डालते हैं, बधा-“कोटिन्ह गहे सरीर सन मर्दा। 
(६६। ३), 'गहि गहि कापि मर्दड़ निज अंग्रा'-(सुं० १९)। वा दोनों हाथोंसे मसल देते हैं, यथा--“लागे 
मरदट् भुजबल भारी।' (४३। ७) 
मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं।सीस तोरि सीसहह सन मारहिं॥५॥ 
उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं*। गहि पद अबनि पटकि भट डारहिं।॥६॥ 
अर्थ--बे मारते, काटते, पकड़ते और पछाड़ते हैं तथा सिर तोड़कर (-धड़से अलग करके) उन्हीं 
सिरोंसे औरोंकों मारते हैं॥ ५॥ पेट फाड़ डालते हैं, भुजाएँ उखाड़ते हैं और योद्धाओंको पैर पकड़कर 
पृथ्वीपर पटककर डाल देते हैं॥ ६॥ 
नोट--१ (क) ऊपर जो ७८ छंदमें कहा था कि “नख दसन सयल महाद्ुुमायुथ सबल संक न मानहीं” 
उसीका यहाँ चरितार्थ है। पर्वत, वृक्ष और घूँसोंसे 'मारहिं' दशनोंसे “काटहिं” भुजाओंसे “अरहिं पछाराहिं 
'सीस तोरि मारहिं ' 'भुजा उपारहिं ' और नखोंसे 'उदर बिदाराहिं।' (ख) “सीस तोरि।' यह अज्भद और हनुमानूजीसे 
सीखा है, उनको प्रथम युद्धमें सिर धड़से अलग करते देखा है, यथा-“एक एक सों मर्दाहिं तोरि चलावहिं 
मुंड।' (४३) पूर्व देखा है वहो अब स्वयं करते हैं। (ग) “पटकि भट डारहिं” के दो अर्थ हो सकते 
हैं। (१)-योद्धाओंकों पटक देते थे। (२)--योद्धाओंको पृथ्वीपर पटककर समुद्रमें डाल देते हैं, यथा--'गहि 





* उपाटहिं. | डाटहिं--(का०)। 


मानस-पीयूष ४३२ # श्रीमते रामचद्धाय नम: *ू दोहा ८० (७-८ ) छंद (१) 





पंद डारहि सागर माहीँ। मकर उरग झब थारि धरि खाहीँ॥' (ड६। ८) 
निसिचर भट महि गाड़हिं भालू । ऊपर ढारि* देहिं बहु बालू॥७॥ 


बीर बलीमुख जुद्ध बिरुद्धे | देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे॥८॥ 
शब्दार्थ--ढारना-ऊपरसे गिराना, छोड़ना वा डालना। विरुद्ध-(१) विपरीत (२) घिरे हुए (३) विरोध 
भावषको प्राप्त। 
अर्थ-निशाचर योद्धाओंको भालू पृथ्वीमें गाड़ देते हैं और ऊपरसे बहुत-सी बालू डाल देते हैं ॥७॥ 
बुद्धमें विरोध भावको प्राप्त [वा घिरे हुए--(गौड़जी)] वीर बानर ऐसे देख पड़ते हैं मानो बहुत-से मूर्तिमान्‌ 
क्रोधित काल ही हों॥ ८॥ 
पं०--“महि गाड़हिं” अर्थात्‌ निशिचरोंको जीता ही गाड़ देते हैं॥ 
वि० त्रि०--जो-जो अन्याय राक्षसोंने किया था, सबका बदला हनुमानूजीने चुकाया। जैसे-'जेहि जेहि 
देस थेनु द्विज॒ पावहिं। नगर गाँव पुर आग लगाबहिं '॥ इसके बदलेमें हनुमानजीने लड्ढा जलायी (यथा--'उलटि 
पलदि लंका कपि जारी )। “चलत दसानन डोलत अवनी। गरजत गर्भ ख़बहिं सुर रबनी॥' इसके बदलेमें 
उसी भाँति हनुमानूजीके गर्जनेपर निशाचरियोंका गर्भ गिरा (यथा-“चलत महा थुनि गरजेसि भारी। गर्भ 
ख़बहिं सुनि निसिचर नारीं॥” पर “निश्िचर न्रिकर सकल मुत्रि खाए' का बदला हनुमानजी नहीं चुका 
सके। इसे भालू चुका रहे हैं। उन्हें पृथ्वोमें गाड़कर ऊपर बालूके ढेरका निशान बना देते हैं; जिसमें 
दूसरे दिन कलेबाके लिये उन्हें ढूँढ़ना न पड़े। 
गौड़जी--(१) विरुद्ध युद्धसे अभिप्राय विपरीत युद्ध है अर्थात्‌ दुर्बलॉका सबलॉपर प्रबल होना। बलीमुख 
वानर हैं जो राक्षसोंके भोजन हैं; परन्तु इस समय विपरीत युद्ध है, बलीमुख (वानर) बीर हैं और एक- 
एक कालकी तरह क्ुद्ध हैं। मिलान कोजिये “जुद्ध बिरुद्ध क्रद्ध दोउ बंदर” दोनों बानर हैं तो राक्षसोंके 
भक्ष्य, परन्तु विपरीत अवस्था है, रामप्रताप स्मरण करके प्रबल हो गये हैं। “विरुद्ध का दूसरा अर्थ है 
'घिरे हुए'। तात्पर्य यह कि राक्षसोंसे घिरे होनेपर बानर क्कुद्ध हैं, एक-एक वीर कालके समान क्रुद्ध 
हैं, एक-एक वानर घेरनेवाले अनेक राक्षसॉंका मुकाबला कर रहे हैं। दोहा ४३ (१) देखिये। 
छंद-क्रुद्ध कृतांत समान कपि-तनु स्त्रवत सोनित राजहीं। 
मर्दहिं निसाचर कटकु भट बलवंत घन जिमि गाजहीं॥ 
मारहिं चपेटन्हि डाँटि दाँतनह काटि लातन्ह मीजहीं। 
चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहि खल छीजहीं॥१॥ 
शब्दार्थ-कृतांत-यम--“कृतान्तों यपुनाभ्राता शयनों यमराड्‌ यमः।' (अमरकोष) 
अर्थ-कालके समान क्रोधको प्राप्त और खून बहते हुए शरीरोंसे वानर शोभित हो रहे हैं। वे बली 
योद्धा, बलवान्‌ निशाचर सेनाके योद्धाओंको मर्दन करते और मेघके समान गरजते हैं। चपेटोंसे मारते हैं, 
फिर डाँटकर दाँतोंसे काटकर लातोंसे मसल देते हैं। वानर-भालु चिंघाड़ते हैं और इस प्रकार छलबल 
करते हैं जिससे दुष्टोंका नाश हो॥ १॥ 
नोट-१ 'राजहीँ” का भाव कि रणमें इनसे शोभा होतो है, अन्य अवसरोपर रक्तका बहना शोभित 
नहीं होता, बरन्‌ वीभत्स देख पड़ता है। “शाजहाँ'से जनाया कि ऐसे दिखते हैं मानों टेसू फूला हो, 
यथा--'घाबल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमित किंसुक के तक जैसे॥' (५३। १) 
नोट--२ “मर्दीहिं निस्राचर“““घन जिमि ग्राजहीं।' इससे जनाया कि पहले मर्दन करते हैं तब जय 
होनेपर गरजते हैं। यह गर्जन जय और ललकारका है, यथा--“गरजहि भालु बलीयुख रिपुदल बल बिचलाइ॥' (४६) 








* डारि। 


दोहा ८०, छंद (२) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणी शरण प्रपद्ये # ४३३ हे लड्गाकाण्ड 





विशेष 'सिंहनाद करि गर्जा मेघताद बलबीर॥' (४९) में देखिये। 
नोट--३ “बिक्करहिं” पदसे जनाया कि गजराजकी तरह चिंघाड़ते वा गर्जते हैं। यह भी आनन्द सूचित 
करता है। 





*छलबल करहिं' 

मेघनादने छलबल किया। तब तो कहा था कि “निम्चिचर छलबल करड् अनीती॥' (५३। ३) अब 

बानर छलबल करते हैं पर इसे कवि अनीति नहीं कह रहे हैं, यह क्यों? उत्तर-यहाँ छलसे कपटका 

तात्पर्य नहीं है, वरन्‌ बुद्धिबल अभिप्रेत है। यैथा--“सो मति सोरि भरत महिमाही। कहैँ काह छलि छुअसि 
न छाँही॥' (२। २८८। ५) और बलसे शारीरिक बल अभिप्रेत है॥ दोहा ५३। (३) देखिये। 

२ गौड़जी--'निस्चिचर छलबल करई अनीती' में यह भाव है कि निशाचर छल और बल दोनोंसे 
वा छलके बलसे अनीति करता है। यहाँ छलद्वारा बल अथवा छल और बल दोनों इसलिये करते हैं 
कि जिसमें खलोंका क्षय हो। खलक्षय अनीति नहीं है। 

३ रा० प्र०-यहाँ छलसे बह छल अभिप्रेत है जो बीरोंमें विहित है। यथा-“बहु छल बल सुग्रीव 
करि हिय हारा भव मानरि॥” (४। ८) भाव यह कि उनके अस्त्र-शस्त्रादिकी चोटको युक्तिसे बचा जाते 
हैं, उनके वार खाली कर देते हैं और प्रशंसा करके उनको भुलावेमें डालकर उन्हें मार देते हैं। 

छंद--धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं। 
प्रहलादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अंगन खेलहीं॥ 
धरूु मारु कादु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही। 
जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही॥२॥ 
शब्दार्थ-अँताबरि (अन्‍्त्रावली)-आँतोंका समूह, अँतड़ी। मेलना>डालना, यथा--'सिय जयमाल राम 
उर मेली॥' (१। २६४। ८) “पदसरोज मेले दोउ भाई ॥' (१। २६९) बिदारना (विदारण)-चीरना, फाड़ना। 
अर्थ-बे गाल पकड़कर फाड़ते हैं, कलेजा चौरते हैं और उनकी आँतें (निकालकर) अपने ग्लेमें 
डाल लेते हैं। बे बानर ऐसे देख पड़ते हैं मानो प्रह्नदजीके स्वामों नृसिंहजी अनेक देह धारणकर रणाड्रणमें 
खेल रहे हैं। ' पकड़ो, मारो, काटो, पछाड़ो ' यह भयंकर शब्द आकाश और पृथ्वीपर भर रहा है। श्रीरामचन्द्रजीकी 
जय हो कि जो सत्य ही तिनकेको वज़ और वज़़कों तिनका कर देते हैं॥ २॥ 

बं० पा०--'धरि गाल फारहिं“““” इति। गाल और उरके फाड़नेका भाव कि इन मुखोंसे तुमने 
गऊ और ब्राह्मणोंको भक्षण किया और इन पेटॉंको भरा है। 

घु० रा० कु०--'प्रहलादपति जनु“““” इति। यहाँ नृसिंहावतारकी उपमा देकर भालुवानरोंकी शूरता 
नूसिंहजीसे अधिक दिखायी। इस उत्प्रेक्षासे वानरॉंकी प्रबलता कही। 

नोट-१ (क) यहाँ नृसिंहजीकी उपमा इससे दी कि नृसिंहजीने भी नखोंसे ही हिरण्यकशिपुका 
हृदय फाड़ा था और उसकी अँतड़ियाँ निकालकर पहन ली थीं, ये भी क्रोधके कारण दुष्प्रेक्ष् थे। यथा 
"द्वापूर आपात्य ददार लीलया नखर्यथाहिं गरुडो महाविषम्‌॥ संरम्भदुष्प्रेक्षषकराललोचनो व्यात्ताननान्त बिलिहन्‌ 
स्वजिह्ृया। असृग्लवाक्तारुणकेसराननो यथान्त्रमाली द्विपहत्यया हरि:॥' (२९-३०) अर्थात्‌ द्वारपर उसको 
गिराकर नखोंसे खेलसदृश उसको चोर डाला जैसे गरुड़जी महाविषैले सर्पकों सहज हो चीर डालते हैं। 
युद्धमें दुष्प्रेश्य हैं, कराल नेत्रवाले, मुँह फैलाये हुए, जिह्ासे भौहोंकों चाटते हैं। जैसे हाथीको मारकर 
सिंह शोभित हो वैसे ही दैत्ययाजकी आँतोंकी माला गलेमें पहिने नृसिंहजीकी शोभा हुई, (भा० ७। ८)। 
और, यहाँ वानर भी “क्रुद्धे कृतांत सप' हैं। नखोंसे हृदयकों विदीर्ण करके अन्त्रावलीको मालाकी तरह 
गलेमें डाले हैं। (ख) प्रत्येक राक्षषक साथ एक-एक वानर ऐसा कर रहा है। अपार सेना है, अतएब 
अनेक नृसिंहका रणभूमिमें खेलना कहा। एक-एक वानर एक-एक नृसिंह हैं। नूसिंह एक ही हुए थे 


मानस-पीयूष ४३४ # श्रीमते रामचन्द्राय सम: + दोहा ८०, ८१ (१--४) 





और यहाँ वानर अगणित हैं; अत: नृसिंहजीका अगणित तन धरना कहा। “खेलहीं” पदका भाव कि वानर 
सहजहीमें निशिचरोॉंकी यह दशा कर रहे हैं जैसे नृसिंहजीने हिरण्यकशिपुकी की थी। 
नोट--२ “जय राम जो तृतर ते कुलिस””“”” इति। रावण वानरों और मनुष्योंकों तृणवत्‌ तुच्छ समझता 
था, इसीसे उसने इन दोको छोड़ और सबसे अमरत्वका वर माँगा था। यथा--'नहि चिन्ता ममान्येषु 
प्राणिष्वमरपूजित:। तृणभूता हि ते मन्‍्ये प्राणिनो मानुषादय: ॥' (वाल्मी० ७। १०। २०) अर्थात्‌ हे देवपूजित 
ब्रह्माजी! हमको अन्य प्राणियोंकी कोई चिन्ता नहीं। मनुष्यादिको तो हम तृणवत्‌ समझते हैं।* निशिचर 
वानर-भालुको तो आहार ही जानते थे-“बानर भालु अहार हमारा: “आये कीस काल के प्रेरे। छुथावंत 
सब निश्लिचर मेरे॥' इत्यादि। आज वे ही तृणवत्‌ वानर-भालु बज़बत्‌ होकर राक्षसोंका नाश कर रहे हैं 
और वे राक्षस जो बड़े-बड़े देवताओंको कुछ न समझते थे वे आज बजे मानो तृणवत्‌ हो गये।-यह 
सब क्‍यों? प्रभुके प्रतापसे। अतएब वानर-भालु यह कहकर श्रीरामचन्द्रजीका जय-जयकार कर रहे हैं। 
पुनः 'जब राम”””” ” ये शब्द वक्ताओंके भी हो सकते हैं। वानरोंकी अद्भुत करनी देखकर वे इन विशेषणोंसे 
प्रभुका जयजयकार करने लगे जैसे कि शिवजीने अज्भद-चरण न टलनेपर कहा था। तन ते कुलिस कुलिस 
तृन करई। तासु दूतपन कहु किमि टर्ई॥' (३४। ८) देखिये। 
दो०--निज दल विचलत देखेसि। बीस भुजा दस चाप। 
रथ चढ़ि चलेउ दसानन+ फिरहु फिरहु करि दाप॥८०॥ 
शब्दार्थ-विचलत-तितर-बितर होते। दाप-क्रोध, यथा--“सर संथान कीन्ह करि दाया!। अहक्लारके लिये 
'किसीके प्रति कोप। 
अर्थ-अपनी सेनाकी विचलित होते हुए देखकर दशानन बीस भुजाओंमें दस धनुष लिये रथपर चढ़कर 
चला और गर्वित एवं क्रोधित होकर बोला कि लौटो-लौटो॥ ८०॥ 
नोट--१ “दसानन' पदका भाव कि क्रोधावेशमें दसों मुखोंसे सबको ललकारा। 
नोट--२ रावणको ललकार दोनोंको है। एक तो अपनी सेनाको ललकारा कि “लौटो, भागों मत', 
क्योंकि बह मेघनाद-बधपर सबको सचेत कर चुका है कि रण-भूमिसे विमुख होनेमें भलाई नहीं और 
दूसरे, वानरॉंको ललकारा-यह बात “करिं दाप” से सूचित होती है। 
करु०-रावणने क्रोधित हो सबको डॉय कि तुम बड़े कायर हो, लौटे और खड़े होकर हमारा संग्राम देखों। 
वि० त्रि०--जिस भाँति रणमदमत्त होकर कुम्भकर्णने दर्प किया था, (यथा--रनमदमत्त निस्नाचर दर्ण) 
उसी भाँति आज रावण दर्प कर रहा है। उसने पहले ही कहा था कि “निज भुजबल मैँ बैर बढ़ावा। 
दैहाँ उत्तर जो रिप चढ़ि आवा॥' सेनाके भरोसे नहों बैर बढ़ाया, आवाज देता है कि लौटो, देखो मैं 
अकेला सबका संहार करता हूँ।' 
भएउ*« परम क्रुद्ध दसकंधर । सन्‍्मुख चले हूह दै बंदर॥१॥ 
गहि कर पादप उपल पहारा। डारेनिड तापर एकहि बारा॥२॥ 
अर्थ-दशकन्धर परम क्रोधित हुआ। बानर (हर्ष आनन्दसूचक) हृहू शब्द करके उसके सन्मुख लड़नेको 
चले॥ १॥ हाथोमें वृक्ष, पत्थर, पर्वत ले-लेकर उसपर एक साथ ही एकदम डाले॥ २॥ 
लागहिं सैल बच्र तन तासू | खंड खंड होड़ फूटहिं आसू॥ ३॥ 
चला न अचल रहा रथ रोपी । रन दुर्मर रावन अति कोपी॥४॥ 


* बोर-अनेक नृसिंहकी कल्पना अनुक्तविषया वस्तृत्पेक्षा है। वज़का तृण और तृणका बज्र होना ' असम्भव' अलड्ढार 
है। बज्रबत्‌ राक्षत तृणबत्‌ हो गये और तृणवत्‌ बानर वच्र बन गये, यह “वाच्यसिद्धाड़ गुणीभूत व्यंग” है। 

+ निज दल बिचल बिलोकि तेहि $ चलेठ दसानन कोपि तब। (का०) 

> धाएड--(का० )। $ महारथ--(का० )। 





दोहा ८९ (५--८ ) # श्रीमद्रामचनद्रचरणौ शरण प्रपद्ये * ४३५ लक्काकाण्ड 





शब्दार्थ-रण दुर्मद-वीररसमें चूर, मत्त रण करनेबाला। (रा० प्र०)। 
अर्थ-उसके वज्रसमान शरीरमें पर्वत लगते थे और शीघ्र फूटकर टुकड़े-टुकड़े हो जाते थे॥ ३॥ 
रणमें दुर्धर्ष अत्यन्त क्रोधी रावण विशाल रथको रोककर (जमाकर) अचल खड़ा रहा, हटा नहीं॥ ४॥ 
पां०-एक तो मद्य पान किये, दूसरे रणका मद, अतएव दुर्मद कहा। 
इत उत झपटि दपटि कपि जोधा। मर्दइ* लाग भएउ अति क्रोधा॥५॥ 
चले पराड़ भालु कपि नाना। त्राहि त्राहि अंगद हनुमाना॥६॥ 
शब्दार्थ-दपटना-डाँटना, घुड़कना। 
अर्थ-इधर-उधर झपटकर और दपटकर वह बानर योद्धाओंको मर्दन करने लगा। उसे अत्यन्त क्रोध 
हुआ॥ ५॥ अनेक वानर-भालु भाग चले। 'हे अन्भदजी! हे हनुमानजी! रक्षा कीजिये, रक्षा कौजिये'॥६॥ 
'वीरकवि--जब रावणको निश्चय हों गया कि बन्दरोंकी मारसे मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता तब क्रुद्ध 
होकर वह रथसे कूद पड़ा और 'डत उत झपदि"”४४॥ 
नोट--'त्राहि त्राहि अंगद““““ ” इति। रणमें मुख्य सहायक ये ही हैं। सड्डूट पड़नेपर कई बार इन्हींने 
सहायता की है। अत: इन्होंको पुकारा। प्रथम युद्धमें कईको पुकारा था पर सहायता इन्होंने आकर की 
थी। यथा-- 'कोड कह कहाँ अंगद हनुमंता। कहँ तल नील दूबिद बलबंता॥” (४२। २) तब 'निजदल बिकल 
सुत्ा हनुमाना/”“गर्जेउ प्रबल काल सम जोथा॥ कूदि लंक गढ़ ऊपर आबा॥' (४२। ३-६) और यह 
सुनकर कि हनुमानूजो अकेले गये हैं “रनबाकुरा बालिसुत तरकि चढ़ेड कपि खेल।” (४२) फिर उसी 
दिन जब अनिप और अकम्पनकी मायासे व्याकुल हो वानर “जहाँ तह करहिं युकार।' (४५) तब “'हनूमान 
अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजतीचर भाजे॥' (४६। ६) पुनः इस युद्धमें रावणकों ललकार और प्रेरणाके 
उत्तरमें इधर ये ही दोनों ललकार रहे थे यथा-“उत पचार दसकंथर ड़त अंगद हनुमान।' (७९) अतः 
प्रथम इन्हींको पुकारा। 
पाहि. पाहि. रघुबीर गोसाँई। यह खल खाइ काल की नाँई॥७॥ 
तेहि देखे कपि सकल पराने। दसहु चाप सायक संधाने॥८॥ 
अर्थ-हे रघुबीर! हे गोसाईं! रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। यह दुष्ट कालके समान हमको खाये लेता 
है॥ ७॥ उसने देखा कि सभी बानर उसे देख भाग चले तब दसों धनुषोंपर उसने बाणोंका सन्धान किया॥८॥ 
नोट--६ प्रथम अद्भद और हनुमानजीको पुकारा। उनकी सहायता शीघ्र न मिलती देख रघुनाथजीकी 
शरण गये। अथवा, बहुत व्याकुल होनेसे उनको और इनको पुकारा। कुम्भकर्ण-युद्धसे मिलान कीजिये। 
उस युद्धमें श्रीयमजीको हो आर्त होकर पुकारा था। 


कुम्भकर्ण (दोहा ६९) रावण 
“चले भागि कपिभालु भवानी। बिकल पुकारत आरत बानी ॥' १ “चले पराड़ भालु कपि नावा।' 
“यह निस्चिचर दुकाल सम अहर्ड। कपिकुल-देस परन अब चहडई॥' २ “यह खल खाड़ काल की नँ।' 
'कृपाबारिधर राम खरारी। पाहि पाहि ग्रनताराति हारी ॥' ३ “पाहि पाहि रघुबीर गोसाईं।' 
“त्राहि ब्राहि अंगद हनुमाना।' 


नोट--२ 'रघुबीर गोसाँ्र! का भाव कि आप पराक्रम वीर एवं इन्द्रियोंक स्वामी हैं। हमारी सब 
इन्द्रियाँ इसने दस-दस बाण चलाकर व्याकुल कर दी हैं। अत: शीघ्र रक्षा कीजिये। पुनः, गौ और पृथ्वीके 
आप स्वामी हैं, हम आपकी प्रजा हैं, आप स्वामी हैं। हम सेवक, हमारी रक्षा कीजिये। 

नोट--३ “काल की नाई” कहकर दुर्निवार जनाया। 





* मर्दे--(भा० दा०)। 


मानस-पीयूष ४३६ # श्रीमते रामचद्धाय नम: # दोहा ८९ (छंद) 





छंद--संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि उरग जिमि उड़ि लागहीं। 
रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदिसि कहँ कपि भागहीं॥ 
भयो अति कोलाहल बिकल कपि* दल भालु बोलहिं आतुरे। 
रघुबीर करुनासिंधु आरतबंधु. जनरक्षक. हरे॥ 
अर्थ-धनुषपर बाण सन्धान (साध वा लगा) कर उसने बाणसमूह छोड़े जो साँपकी तरह उड़कर 
जा लगते थे। बाण पृथ्वी और आकाशमें, दिशा और विदिशाओंमें भरपूर छा रहे, वानर अब कहाँ भागकर 
जाय? अत्यन्त खलबली मच गयी, कपि-भालु-सेना व्याकुल होकर (ये) आर्त्त वचन बोल रही है-'हे 
रघुवीर! हे करुणासागर! हे आर्त्त (दीन, दुखिया) जनोंके बन्धु (दुःख बटानेवाले भाई)! हे अपने भक्तोंकी 
रक्षा करनेवाले! हे दुःखोंके हरनेवाले!” 
नोट-मेघनादने जो काम अन्तरिक्षमें होकर किया वह रावणने प्रत्यक्षमें किया। कपिदलने कुम्भकर्णसे 
पीड़ित होकर ऐसे हो आर््तवचन कहे थे। मिलान देखिये।-- 
मेघनाद (अन्तरिक्ष होकर) रावण (प्रत्यक्ष) 
दस दिस रहे बान नभ छाड ॥ अवधट घाट बाट गिरिकंदर। १ “रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि विदिसि” 
मायाबल कीन्हेसि सरपंजर॥” 
“जाहिं कहाँ भए ब्याकुल बंदर।' २ 'कहँ कपि भागहीं” 
कुम्भकर्णसे रावणसे 
“कृपाबारियर राम खरारी। पाहि पाहि प्रततारतिहारी ॥/ १ 'रबुबीर करुनासिंधु' आर्तबांधुरै जनरक्षक हो।' 
टिप्पणी &७ १-कुम्भकर्णसे पीड़ित होनेपर चार विशेषण देकर रक्षा चाहो और रावणसे रक्षाके लिये 
पाँच विशेषण दिये। इससे जनाया कि रावणने इन्हें कुम्भकर्णते भी अधिक पीड़ित किया। जो-जो काम 
मेघनाद और कुम्भकर्ण दोनोंने पृथक्‌-पृथक्‌ किये वे दोनों रावणमें एकत्र दिखाये हैं। मेघनादने सरपंजर 
बना दिये थे कि बानर भाग न सकें, वही रावणने किया। कुम्भकर्ण 'महात्राद करि गर्जा कोटि कोटि 
गहि कीस। महि पटकड़ गजराज ड्रब' रावणने यह तो किया हो--'डत उत झपटि दपटि कापि जोधा। 
मर्द लाग, भएउ अति क्रोध्वा--और, साथ ही बाणोंकों छोड़ा। अतएब अब अधिक आर्त्त हैं। 
टिप्पणी--२ विशेषणोंमें भेद भी साभिप्राय है। (क)--कुम्भकर्ण जिनको पाता था पटकता था, सब मरते न थे, 
इससे वहाँ 'दुकाल की उपमा दी धी | दुर्भिक्षमें सब एक साथ नहीं मर सकते | और यहाँ “काल 'की उपमा दी कालसे 
कोई कहीं नहीं बच सकता, चाहे जहाँ जाय काल वहीं पकड़कर मारता है, वैसे ही रावणसे किसी ओर बचत नहीं 
देख पड़ी। (ख)--दुकाल वर्षासे मिटता है। इसलिये वहाँ 'कृपाबारिधर कहा। यहाँ “काल 'से रक्षा चाहते हैं। इसलिये 
'रघुबीर' कहा, क्योंकि रघुवंशीमात्र कालसे नहीं डरते, यथा--“कहाँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डराहिं न रत 
रुबंसी॥ “लरहें सुखेन काल कनि होऊ ' (बा० २८४। ४, २); और आप तो 'रघुवीर' हैं, आपसे तो काल भी डरता 
है, यही नहीं वरन्‌ आप कालको भी मार सकते हैं, यथा-- 'भुवनेस्वर कालहु कर काला।' (५। ३९। १), 'उमा काल 
मरु जाकी इच्छा। सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा ॥' (१०१। ३) (ग) “आरतबंधु“-आप आर्तके बन्धु हैं, बन्धु 
कुठाँवमें सहायक होते हैं, यथा--होहिं कुठाब॑ सुबंध्‌ सहाए।' (२। ३०६। ८) हम आर्त्त हैं और इस समय कुठाँवमें 
हैं, बुरे फैस गये हैं। (घ)--“जनरक्षक "का भाव कि आपका प्रण है अपने जनकी रक्षा करना, यथा--“जाँ सभीत आवा 
सरनाईं। राखिहडँ ताहि प्रान की नाई॥ ' (५ | ४४। ८) इसीसे तो बालिसे कहा था कि 'मम भुजबल आश्रित तेहि जानी। 
मारा चहसि अधम अभिमानी॥' (४। ९। १०) और हम आपके जन हैं। (ड) “हरे” का भाव कि “हरति क्लेशमिति 
हरि: '। आप क्लेशके हरण करनेवाले हैं और हम क्लेशमें पड़े हैं। 
ए#कुम्भकर्ण- प्रसज्ञमें (कृपाबारिधर ' कहा और यहाँ “करुनासिन्धु '/ कृपा और करुणामें भेद है। करुणामें 





* दल कपि-(का) 


दोहा ८९, ८२( १-२) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्ये # ४३७ लड्ढाकाण्ड 





दूसरेका दुःख देखकर स्वयं पीड़ित होने और दुःख शीघ्र हरण करनेके लिये उत्सुक होनेका भी भाव है। 
यथा-- 'करुतामय रघुनाथ गोसाई़। बेयि पाड़अहि पीर पराई ॥' (अ० ८५) वारिधरसे देरमें रक्षा होती है। अतः 
*करुनासिन्धु ” सम्बोधन करके जताया कि शीघ्र हमारी पीर हरिये। 'प्रणतारतिहारी” . “आर्तबन्धु” 
और'जनरक्षक ' एक-से हैं फिर भी “बन्थु” शब्द अधिक गौरवका है।--विशेष ६९ (४-५) में देखिये। 
दो०--निज * दल बिकल देखि कटि कसि निषंग धनु हाथ। 
लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ॥८१॥ 

अर्थ-अपनी सेनाको व्याकुल देख, कमरमें तरकश कसकर, हाथमें धनुष लेकर श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें 
माथा नवाकर लक्ष्मणजी क्रोधित होकर चले॥८१॥ 

नोट--१ यहाँ लक्ष्मणजीका आज्ञा माँगना नहीं लिखा गया यद्यपि पूर्व बराबर आज्ञा माँगकर या पाकर 
काम करना पाया जाता है। यथा--“आबसु माँगि राम पहिं अंगदादि कपि साथ। लक्तिमन चले क्रुद्ध होड़ 
बान सरासन हाथ॥' (५१), “जब रघुबीर दीकि अनुसासन। कटि निरषंण कसि साजि सरासत॥“”“'रघुपति 
चरन नाड़ सिर चले तुरंत अनंत।' (७४) इसके दो कारण हो सकते हैं-एक तो यह कि पूर्व सत्र 
आज्ञा मिलनेपर कार्य करना दिखाकर जना दिया कि यहाँ भी आज्ञा लेकर चले। दूसरे, वाल्मीकिमें भी 
दो बार शक्तिका प्रसड्भ है। एक बार सर्ग ५९ में, दूसरी बार सर्ग ९९-१०० में। वहाँ एक बार (सर्ग 
५९ में) लक्ष्मणजीका आज्ञा माँगकर जाना लिखा है और दूसरी बार राम-लक्ष्मण दोनोंका युद्धमें साथ 
जाना दिखाया है, यथा-“लक्ष्मणेन सह भ्राता विष्णुना बासबं यथा।' (वाल्मी० ९९। १२) इसोीसे वहाँ 
आज्ञा लेना नहीं कहा है, केवल क्रोधपूर्वक क्रुद्ध हो आगे आकर युद्ध करना लिखा है, यथा--' एतस्मिन्नन्तरे 
क्ुद्धो राघवस्थानुजों बली। लक्ष्मण: सायकान्सप्त जग्राह परवीरहा॥' (१००। १३) इसीसे पूज्य मानसकविने 
भी एक ठौर आज्ञा माँगकर चलना लिखा और दूसरी जगह न लिखा। इस तरह दोनों स्थलोंमें कविने 
शब्दोंके भेदमात्रसे वाल्मोकिका मत भी लक्षित कर दिया है। पुनः- 

नोट-२ लक्ष्मणजी अपने द्वारा यह दिखा रहे हैं कि छोटे भाईको एवं सेवकको सड्डूटमें सदैव 
आगे रहना चाहिये-सेनाने आर्त्त होकर पुकारा “रघुबीर” को, पर आर्तिहरणके लिये बढ़े थे। मिलान 
'कीजिये- 'अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खरदूषन फिरे।' (३। २० छंद) वहाँ त्रिशिरा छोटा 
भाई था अत: उसको पहले कहा। इसी तरह मेघनादकी मायासे वानरोंके सभीत और व्याकुल होनेपर 
भी आप ही आयसु माँगकर मेघनादसे युद्ध करने गये थे। दोहा ५१ देखिये। 

चं० विजयानन्द त्रिपाठीजों लिखते हैं कि जब बंदर चिल्लाये 'रघुबीर करुनासिंधु आरतबंधु जनरक्षक 
हरे; लक्ष्मणजीने देखा कि सरकार उठा ही चाहते हैं, अत: स्वयं आप उठ पड़े। जहाँ कहीं युद्धमें 
जाना हो तब आज्ञा लेकर जानेकी रीति है, जब शत्रु सिरपर आ गया, तब आज्ञा माँगनेकी कौन-सी 
बात है? ऐसे अवसरपर आज्ञा माँगा भी कचाई है, अत: लक्ष्मणजी चल पड़े। 

पूर्व दोहा ५१ में क्रुद्ध होकर चलना कहकर फिर उनका क्रोधित स्वरूप कविने कहा था, यथा--“छतज 
नयन उर बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला॥” अतः यहाँ फिरसे न कहा, क्रुद्ध होड़ 
पदसे ही स्वरूप यहाँ भी सूचित कर दिया। वहाँपर कटिमें निषंगका कसना न कहा और यहाँ बाणका 
हाथपें लेना न कहा। एक-एक बात दोनों स्थानोंमें कहकर दोनों प्रसंगोंमें दोनों बातोंका ग्रहण जनाया। 

घु० रा० कु०--'नाड़ रामपद माथ; यह चलते समयका मंगलाचरण हुआ। ४ आज्ञा, प्रणाम और 
प्रभुप्रताषके स्मरणके सम्बन्धमें पूर्व दोहा ५९ और ७४ में लिखा जा चुका है। 

रे खल का मारसि कपि भालू | मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥१॥ 


खोजत रहेडँ तोहि सुत घाती। आजु निपाति जुड़ावां छाती॥२॥ 








* “बिचल देखि अनीक निज कि निषंग धनु हाथ। लछिमन चले सरोष तब नाइ रामपद माथ॥'--(का०) 


मानस-पीयूष ४३८ # श्रीमते रामचन्द्राय नम: # दोहा ८२ (३-६) 





' शब्दार्थ-छाती जुड़ाना वा ठंढो करना--यह मुहावरा है।-हृदय शीतल करना; चित्त शान्त वा प्रसन्न करना; 
इच्छा या हौसला पूरा करना, यथा--'लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदय लगाड़ जुड़ाबहिं छाती॥' (बा०) 
अर्थ-(लक्ष्मणजी सम्मुख पहुँचकर उससे बोले) ओरे दुष्ट! तू वानर-भालुको क्‍या मारता है, मुझे 
देख, . मैं तेरा काल हूँ॥ १॥ (रावण बोला) आरे मेरे पुत्र (इन्रजोतके) घातक! मैं तो तुझे दूँढ़ता ही 
था, आज तुझे मारकर अपनो छाती ठंढी करूँगा॥ २॥ 
पु० रा० कु०--पूर्व 'क्ुद्ध होड़ चले” कहा, अब उसका स्वरूप दिखाते हैं कि परुष वचन कहे-*रे 
खल का मारसि”””“।” कठोर बचन क्रोधका स्वरूप है, यथा--'क्रोथ के परुष बचन बल मुनिबर कहहिं 
बिचारि॥' (३। ३८) 
नोट--१ (क) क्रोध बढ़ानेके लिये 'खल” सम्बोधन किया। दूसरे, जो दिव्यास्त्र नहीं जानते उनपर भी 
अस्त्र चलाता है इससे 'खल' कहा। (ख) “तोर मैं कालू'। भाव कि तू वानरोंका कालरूप है, यथा-'यह 
खल खाड़ काल की नाई ' और मैं तेरा काल हूँ। (बं० पा०) रावणको पहिले ही पत्रमें लिख चुके हैं कि “सीता 
देड़ मिलहु न त आवा काल तुम्हार'| अत: उसी बातको पुष्ट करते हुए कहते हैं “मुझे देख, मैं तेरा काल हूँ, 
वानरःभालु नहीं हैं। बे तो निशाचर सैनिकोंके काल हैं, और उन्हें उन सबॉने भगा भी दिया। तुम तो भीतरसे 
हौसला करके चले थे कि “हाँ मारिहाँ भूष दौँ भाई” सो बन्दर-भालुको क्या मारने लगे।' (वि० त्रि०) 
नोट--२ “सुतघाती” और “जुड़ाबाँ छाती” पदोंसे स्पष्ट है कि रावणको मेघनादवधसे परम दुःख हुआ 
जैसा किसीके वधसे न हुआ था। इसके वधसे अबतक उसको छाती जल रही है। दूसरे, 'सुतघाती” विशेषण 
इससे दिया कि इनके द्वारा ही मेघनादवध हुआ था। श्रीरामचन्द्रजीके द्वार और-और योद्धाओंका वध हुआ, 
अतः उनका सामना होनेपर उन सबका नाम लिया है--८९ (४-५) देखिये। पर छाती जलना यहाँ सुतघातकके 
सम्बन्धमें कहा गया है अन्यके वधपर नहीं, इससे मेघनादबधसे अधिक शोक होना प्रत्यक्ष हो है। 
एक'मिलान कीजिये--'अवेहि मामद्य निशाचरेन्द्र न बानरांस्त्वं प्रतियोद्धुमहसि॥' , “दिष्टयासि पे राधव 
दृष्टिमार्ग प्राप्तोडन्तगामी विपरीतबुद्द्धि:। अस्मिशक्षणे यास्यसि मृत्युलोक॑ संसाद्यमानों मम बाणजालै:॥' (वाल्मी० 
६। ५९। ९४, ९६) अर्थात्‌ हे निशाचरेन्द्र! मैं आ गया हूँ, बानरोंसे तुझे युद्ध करना नहीं शोभा देता। 
(रावण बोला) हे राघब! आज तुम मुझे देख पड़े हो। हे यमलोकको जानेवाले! हे विपरीतबुद्धि! हमारे 
बाणोंसे पीड़ित होकर तुम इसी समय मर्त्यलोकको प्राप्त होगे। 
अस कहि छाड़ेसि बान प्रचंडा। लकछिमन किये सकल सत खंडा॥ ३॥ 
कोटिन्ह आयुध रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे॥४॥ 
शब्दार्थ-प्रबान-प्रमाण, परिमाणमें तुल्य। निवारे+निवारण करना, हटाना, दूर करना। 
अर्थ-ऐसा कहकर उसने तीक्ष्ण बाण छोड़े। श्रीलक्ष्मणजीने सबके सौ-सौ टुकड़े कर दिये॥ ३॥ 
फिर रावणने करोड़ों अस्त्र-शस्त्र चलाये, लक्ष्मणजीने उन्हें तिल बराबर काटकर हटा दिये॥ ४॥ 
नोट-वाल्मी० ५९ में लक्ष्मण-रावण-युद्ध विस्तृतरूपसे वर्णित है। 
पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा। स्यंदन भंजि सारथी मारा॥५॥ 
सत सत सर मारे दस भाला। गिरि सुंगन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला॥६॥ 
अर्थ-फिर श्रीलक्ष्मणजीने अपने बाणोंका प्रहार (चोट) किया और रथ तोड़कर सारधीकों मारा॥ ५॥ 
उसके दसों मार्थोमें दस-दस बाण मारे। वे बाण ऐसे दीखते हैं मानो पर्वतशिखरोमें सर्प प्रवेश कर रहे हैं॥ ६॥ 
नोट--१ 'शत', “सहस्नर', “लक्ष' आदे पद “अपरिमित वा अगणित' वाचक हैं। 
नोट-२ “गिरि सूंगन्ह जनु““““।' रावण काले पर्वठके सदृश है, रावणके धड़पर सिर पर्वतपरके 
शिखर हैं और लक्ष्मणजीके बाण सर्प हैं। सर्प पर्वतशिखरोंमें घुसते हैं वैसे हो बाण इसके सिरोंमें घुसते 
हैं। यह “उक्तविषयावस्तूत्मेक्षा' है। 





दोहा ८२ ( ७-८ ) छंद # श्रीमद्रामचद्धचरणौ शरण प्रपद्ये # ४३९ लड्जाकाण्ड 





पुनि सत सर* मारा उर माहीं। परेउ धरनि| तल सुधि कछु नाहीं॥ ७॥ 
डठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी। छॉड़िसि ब्रह्म दीन्ह जो साँगी॥८॥ 
अर्थ-फिर सौ बाण उसकी छातीमें मारे तब वह पृथ्वीपर गिर पड़ा, उसे कुछ होश न रहा॥ ७॥ मूर्च्छा 
नष्ट होनेपर वह प्रबल रावण फिर उठा और ब्रह्माकी दो हुई शक्ति उसने चलायी॥ ८॥ 

'पं०--“सत सर मारा उर माहीँ ...... ” इति। पहले सिरोंमें मारे तब मूर्च्छित न हुआ। अब हृदयमें मारा। 
हृदय उसका अमृतमय है [क्योंकि नाभिमें अमृत है जैसा आगे विभीषणजीने कहा है, यथा 'नाभिकुंड पियूष 
बस जाकें। नाथ जिअत राबन बल ताकें |” (१०१। ५) ]; इसलिये वहाँ सर लगनेसे मूरच्छित हो गया। 

पु० रा० कु०--रावण नरकको पाटने लगा तब ब्रह्माने जाकर मना किया। उसी समय रावणको उन्होंने 
यह शक्ति दी थी। 

नोट--१ “परेड थरनितल सुधि कछु नाहीँ; यह लक्ष्मणजीका हस्तलाघब और उनके बाणोंका प्रभाव दिखाया। 
“उठा प्रबल पुत्रि' यह रावणका बल दिखाया। रावणको गहरी मूर्छा आयी थी, वह बड़ी कठिनतासे पुनः 
सावधान हुआ। यथा--'स सायकातों बिचचाल राजा कृच्छाच्य संज्ां पुतराससाद।' (वाल्मी० ५९। १०६) 

नोट--२ 'छाँड़िसि ब्रह्म दीर जो साँगी' इति। इससे सूचित हुआ कि उसके प्राणॉपर बन आयी, अभी 
तो चोटसे मूच्छित हो हुआ है, आगे प्राण बचनेकी आशा नहीं है। बल देख विस्मित हो गया, यथा 
वाल्मीकीये--/ बिसिस्मिये लक्ष्यणलाघबेन।' (५९। १०२) अत: यह अंतिम उपाय इसी समय करना पड़ा। 
यथा--'रावनसुत निज मन अनुमाता। संकट भयउ हरिहि मर प्राना॥ बीरघातिनी छॉड़िसि साँगी।' (५३। ६-७) 
अनुमान होता है कि ब्रह्माने शक्ति देते समय कह दिया था कि जब ग्राणॉंपर आ बने तभी इसका प्रयोग करना। 

आ० रा० सर्ग ६ में रावणने जो शक्ति विभीषणपर चलांयो, उसीसे लक्ष्मणजी (विभीषणको बचाकर) 
घायल हो मूच्छित हुए और हनुमानूजी उनको ले आये। कालनेमिका वध और द्रोणगिरिका लाना एवं सुषेणका 
नास देना भी उसमें वर्णित है। अ० रा० में शक्ति “मयदत्त' है। अ० रा० की कथा मानसके मेघनाद-लक्ष्मण- 
युद्ध-प्रसंगसे मिलती है, रावण-लक्ष्मण-युद्धसे नहों।-विशेष दोहा ५३ में देखिये। वाल्मी० १०२ वाली शक्ति 
भी मयदानववाली शक्ति है और वाल्मी० ५९ बाली ब्रह्मदत्त है। इस शक्तिका वर्णन वाल्मीकीयमें इस प्रकार 
है--“जग्राह शक्ति स्वयमुग्रशक्तिः स्वयम्भुदत्तां युथधि देवशत्रु;॥ स तां सधूमानलसन्निकाशां वित्रासनीं संयति 
बानराणाम्‌। चिक्षेप शक्ति तरसा ज्वलन्ती सौमित्रये राक्षसराष्ट्रनाथ:॥' (५९। १०७-१०८) अर्थात्‌ उस देवशत्रु 
राबणने ब्रह्माजोकी दी हुई भयंकर शक्ति उठायी। वह ब्रह्मदत्त शक्ति सधूम अग्निकि समान जल रही थी 
और युद्धमें वानरोंको भयभीत करनेवाली थी। राक्षसराजने वह जलती हुई शक्ति लक्ष्मणजीपर चलायी। 
छंद--सो ब्रह्मदत्त प्रचंड सक्ति अनंत उर लागी सही। 
परयो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही॥ 
ब्रह्मांड भुवन बिराज जाके एक सिर जिमि रजकनी। 
तेहि चह उठावन मूढ़ रावबन जान नहिं त्रिभुवन धनी॥ 
शब्दार्थ-महिमा-भारीपन। गुरुता। गौरव, महत्त्व। 

अर्थ-वह ब्रह्माकी दी हुई अमोघशक्ति श्रीलक्ष्मणजीकी ठीक छातीमें निश्चय हो जा लग।+ वीर 
लक्ष्मणजी व्याकुल होकर गिर पड़े। अतुलबल महिमावाले दसमुखने व्याकुल हो उठाया पर उनके अपरिमित 
बलकी महिमा (भारीपन) बनी रही (उसको न तो ब्रह्मदत्त शक्ति ही हटा सकी और न रावण ही। 
बह भारीपन ज्यों-का-त्यों बना रहा, इसीसे वे रावणके उठाये न उठ सके। यदि बह उठा लेता तो महिमा 
न रह जाती, यह निश्चय हो जाता कि साड्रीसे वह महिमा भी क्षीण हो गयी।) जिनके एक ही सिरपर 





+ सत सर पुनि। | अवनि--(का०)। 
# अर्थान्तर-वह शक्ति लगी। (उसकी अमोघता रखनेके लिये) उन्होंने उसे सह लिया। (रा० प्र०) 


मानस-पीयूष ».. ४४० # श्रीमते रामचन्द्राय नम: # दोहा ८२ (छंद ) 


सब ब्रह्माण्डोंक लोक (वा, इस ब्रह्माण्डके समस्त भुवन) रजकणकी तरह विराजते हैं उन्हें (एक पर्वतके 
डठानेवाले) मूर्ख रावणने उठाना चाहा, वह यह जानता नहीं कि ये तीनों भुवनोंके स्वामी हैं। 

नोट--१ “दसमुख' से जनाया कि उसके बीस भुजाएँ हैं यह समझकर तावमें आकर घबड़ाकर बह 
बीसों भुजाओंसे उठाने लगा। तब भी न उठा सका। 

नोट--२८्छ (क)--रावण क्‍यों न उठा सका, इसका कारण वाल्मीकिजी यह लिखते हैं कि “विष्णु 
भी जिसको ठीक-ठीक नहीं जानते ऐसे ऐश्वर्यमान्‌ श्रीरमचद्धजीका स्मरण वे करते रहे'। अथवा, विष्णुकी भी 
समझमें न आ सकनेवाले अपने ऐश्वर्यका, अपनी शक्तिका, अपने आत्मस्वरूपका उन्होंने स्मरण किया; इसीसे 
दानवदर्पदलन लक्ष्मणजीको देवशत्रु रावण उठाकर ले जानेको समर्थ न हुआ। यथा--'शक्त्या ब्राह्मण तु 
सौमित्रस्ताडितोउपि स्तनान्तरे। विष्णोरमीमांस्य भागमात्मान॑ प्रत्यनुस्मरत्‌॥ ततो दानवदर्पप्न॑ सौमित्रिं देवकण्टक:। 
त॑ पीडयित्वा बाहुभ्यां न प्रभुर्लडखने3भवत्‌॥' (११०-१११) 

आ० रा० सर्ग ६ में लिखा है कि ये शक्तियाँ मायाकृत हैं, लक्ष्मणजों साक्षात्‌ हरिके तन शेषांश 
हैं, समस्त जगत्‌के सार विराजमान परमेश्वर लोकाश्रय विष्णु हैं। तब लघु राक्षस कैसे उठा सके? 
यथा--'मायाशक्त्याभवेत्किं वा शेषांशस्य हरेस्तनो: “सर्वस्थ जगत: सार विराज॑ परमेश्वरम्‌॥””“कर्थ 
लोकाश्रयं बिष्णुं तोलयाडघुराक्षस:॥' (९-१२) 

(ख)-रावणने लक्ष्मणजीको उठा ले जाना चाहा जिसमें अबकी बार इनको वैद्य जिला न सके। 
मेघनादसे अपनेमें अधिक बल समझता था, अतएब उठाया; पर लक्ष्मणजीकी महिमा जैसे मेघनादके मुकाबिलेमें 
बनी रही थी वैसे ही अब भी बनी रही, उलटे उसकी महिमा जाती रही। (ग) करुणासिन्धुजी और 
बैजनाथजी 'अतुल बल महिमा रही ' को रावणका विशेषण मानते हैं अर्थात्‌ जिसके बलकी महिमाकों कोई 
तोल न सका था उस रावणने उठाना चाहा। पर मेरी समझमें यह दोनों ओर लगता है। (घ) यहाँ लक्ष्मणजीके 
दोनों स्वरूप कहे गये हैं--'्रिभुवत धनी” और “शेष'। इस प्रकार कवि सब अवतारॉमें इस कथाका होना 
सूचित कर रहे हैं। प्र० स्वामीजी “ब्रिभुवन धनी” को रावणका विशेषण मानकर अर्थ करते हैं कि 'रावण 
स्वर्ग, मर्त्मय और पाताल इन लोकोंका धनी होकर भी (ऐसे अनन्त सिरवाले शेषावतार) लक्ष्मणजीकी 
महिमा नहीं जानता। “ब्रह्मृष्टि जहँ लगि तनु धारी। दसमुख बसकरती नर नारी॥' तथा वाल्मी० उ०। १६। 
३८, ३९ के अनुसार वह “त्रिभुवन थनी' है ही। उनका मत है कि ऐसा अर्थ करनेसे “दूरान्‍्वय दोष” 
भी मिट जाता है। [ये ही विशेषण अ० १२६ में वाल्मीकिजीने इनको दिये हैं। यथा--“जो सहससीसु 
अहीसु महिधरु लफ्न सचराचर अनी।' 'सचराचर थरनी' वहाँ कहा है वही यहाँ “ब्रिभुवत धनी” है। (मा० 
सं०)] (ड) रावणकों कैलाश उठानेका अभिमान है। अत: यहाँ 'ब्रह्मांड भुवन' पद दिया और मेघनादके 
प्रसड्में केबल “जग्रदाधार' पद दिया था। 

नोट--३ (क) “ब्रह्मदत्त प्रचंड शक्ति” और “लागी सही” कहकर वाल्मी० ५९। (१०६, १०९) की 
शक्ति सूचित की। ८२ (७-८) और दोहा ५३ देखिये। “लागी सही' से वह भाव भी जना दिया कि 
लक्ष्मणजीने उंसे बाणोंसे मारा तथापि वह उनके विशाल वक्ष:स्थलमें प्रवेश कर गयी। यथा--'तामापतन्तीं 
भरतानुजो स्त्रैजंघान बाणँश्व हताग्निकल्पै:। तथापि सा तस्य विवेश शक्तिर्भुजान्तर॑ दाशरथेबिशालम्‌॥' (१०९) 
(ख) “मूढ़ रावन' इति। 'मूढ़' क्योंकि एक पर्वतका उठानेवाला असंख्य ब्रह्माण्डोंके स्वामी और जगदाधारकों 
उठानेकी इच्छा करे यह मूर्खता ही तो है। पुनः “मूढ़' पदसे जनाया कि लज्जित हो गया; क्योंकि उठा 
न सका, यथा-“देखि प्रताप मूढ़ खिसियाना' “जगदाधार सेष किमि उठ चले खिसियाड़।' (५३) 'राबन' 
नाम भी यहाँ साभिप्राय है क्योंकि कैलाश उठानेपर शिवजीने अँगूठेसे पर्वतकों दबाया तो वह रोने लगा 
था। और इसने जगत्‌मात्रकों रुला डाला था, सो भी हार गया। यथा--' देवता मानुषा यक्षा ये चानये जगतीतले। 
एवं त्वामभिधास्थन्ति रावणं लोकरावणम्‌॥ यस्माह्केकत्रयं चैतद्रावितं भयमागतम्‌। तस्मात्त्ं रावणों नाप नाप्रा 
राजन्भविष्यसि॥' (वाल्मी० ७। १६। ३८, ३७) 





दोहा ८२ # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्झो + ४४९ लक्भाकाण्ड 





दो०--देखि पवनसुत धाएउ* बोलत बचन कठोर। 


आवत कपिहि हन्यो तेहि| मुष्टि प्रहार प्रघोर॥८२॥ 
अर्थ-(उठाते) देख पवनसुत श्रीहनुमानुजी कठोर बचन बोलते हुए दौड़े। कपिके आते ही उसने 
उनपर बहुत भयंकर (कठोर एवं वज्बत्‌) घूँसेका प्रहार किया॥ ८२॥ 

नोट--१ “देखि पकनसुत' इति। पवनसुत शब्द देकर श्रोहनुमानूजीका अत्यन्त शीघ्रतासे आना और 
बलपूर्वक एबं बड़ी फुर्तीसे रावणकों डाँटना जनाया। 

नोट--२ (क) “बोलत बचन कठोर” इति। हनुमानजी दूर थे। वहाँसे इसके पास पहुँचना था। इसलिये 
जोरसे कठोर वचन बोले जिसमें उसका ध्यान लक्ष्मणजीको ओस्से हटकर इनकी ओर हो जाय और वह 
उनको उठाने न पाये कि ये पहुँच जाये। 

(ख) हनुमानूजी सन्त होकर कठोर वचन कैसे बोले? उत्तर यह है कि रामविमुखसे कठोर वचन 
बोलना दोष नहीं है। दूसरे, लक्ष्मणजीको मूच्छित देख इनको परम क्रोध हुआ। अतः क्रोधमें कठोर बचन 
कहे। (कठोर बचन, पदसे ही क्रोधका होना निश्चित होता है--'क्रोथके परुष बचन बल” (पं०) 

##'प्राय: जब-जब कठोर वचन कहे गये तब-तब क्रोधमें ही- 

“लकछिमन चले क्रुद्ध होड़ ताड़ रामपद माथ॥' (८१), 'रे खल का मारसि"““ 
“सकल कपिल भा क्रोथ बिसेखा॥ रन ते निलज भाजि गृह आवा। 
इहाँ आड़ बक-थ्यान लगाबा॥ अस कहि अंगद मारेड लाता॥' (८४। ६-८) 
३ “तब लंकेस क्रोध उर छावा॥ गर्जत तर्जत सनमुख आवा॥# 
जीतेहु जे भट संजुग माहीं। सुनु तापस मैं तिर समे नाहाँ#““““” (८९। २-३) 
४ “पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुत्रि बोले बचन सकोपा॥ 
सठ स्वपच्छ तब हृदय बिसाला। सपदि होहि पच्छी चंडाला॥” (3० ११२), 

५ 'सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। मायाबस न रहा मत्र बोधा॥ पर संपदा सकहु तहिं देखी। तुम्हे डरिषा 
कपट बिसेषी॥ डहकि डहकि परचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहु॥' (१। १३६। ६-१३७। ३) 

६ “थावा क्रोधवंत खग कैसे। छूटड् प्रि पर्वत कहाँ जैंसे॥ 
रे रे दुष्ट ठाढ़ किन होही। निर्भव चलेसि न जानेहि मोही॥#' (आ० २९। १०, ११) 

“जाहु भवतर कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीर्िसि बहु गारी॥" (आ० २६। १) 
“सुत्त दसानन उठा रिस्राई। खल तोहि निकट मृत्यु अब आई॥' (सुं० ४१। २) 
“जियसि सदा सठ मोर जियाबा। रिए्र कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा॥' इत्यादि 

क्रोधके अतिरिक्त करुणा वा दुःख-बश भी कठोर बचन कहे गये हैं। 

नोट-३ मेघनादने जब उठाना चाहा तब हनुमानूजीका उसे ललकारना नहीं कहा गया और यहाँ 
रावणकों ललकारना कहते हैं। इसका एक कारण तो यह है कि मेघनादादिसे जब लक्ष्मणजी न उठ 
सके तब बे सब स्वंय चल दिये थे, हनुमान्‌जीके मर्मको मेघनाद भली प्रकार जानता है। यथा-'निकट 
न आब मरम सो जाना।” अतएवं हनुमानूजीके निकट आनेके पूर्व ही वे चल दिये। यथा--'जगदाथार 
अनंत किमि उठड् चले खिसिआड़।' (५३) और यहाँ रावण उठाता था तब श्रीहनुमानूजी तुरंत पहुँच गये 
थे। दूसरा कारण यह जान पड़ता है कि मेघनादसे जब लक्ष्मणजीका इन्द-युद्ध होने लगा तब कहीं दूरीपर 
हनुमानजी मेघनादकी सेनासे या किसी सेनापतिसे युद्ध कर रहे थे, यथा-'भिरे सकल जोरिहि सन जोरी” 
इससे हनुमानूजीने मेघनादकों उठाते नहों देखा। तीसरे हनुमन्नाटकके लक्ष्मण-रावण-युद्ध-प्रसड़्की कथाका 
भाव यदि लक्ष्मण-मेघनाद युद्धमें लें तो यह कारण कह सकते हैं कि हनुमानजी उस स्थलसे इसलिये 
दूर हटा दिये गये थे कि लक्ष्मणजीकों शक्ति लगे। 


* देखत धाए पवनसुत। + आवत तेहि उर महँ हतेउ--(का०) 





छू न्७ 





बढ 








मानस-पीयूष ४४२ # श्रीमते रामचन्द्राय नम: के दोहा ८३ (१-२) 





;#मानसमें प्रथम रावणका मुश्टिप्रहार है, अ० रा० और वाल्मो० में प्रथम हनुमानजीने घूँसा मारा है। वाल्मी० 
५९ में लिखा है कि रावणके रथपर पहुँचकर दाहिनी भुजाको उठाकर और उसको धमकाकर बुद्धिमान्‌ हनुमानजी 
बोले--'देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष और राक्षसोंसे तूने अवध्यता पायी है, पर वानरोंसे तुझे भय है। यह हमारा उठा 
हुआ दाहिना हाथ, पञ्चशाखा (अँगुलियों) युक्त तेरे देहमें चिरकालसे स्थित प्राणॉंको निकाल देगा-ये ही बचन 
“कठोर विशेषणसे यहाँ सूचित किये गये हैं, यथा--'रथं तस्य सम्ासाद्य बाहुमुद्यम्य दक्षिणम्‌। त्रासयन्‌ राबणं धीमान्‌ 
हनूमान्‌ वाक्यमब्रवीत्‌॥ देवदानवगन्धर्वर्यक्षेश्र सह राक्षसै:। अवध्यत्बं त्वया प्राप्त वानरेभ्यस्तु ले भयम्‌॥ एप में 
दक्षिणो बाहु: पल्कशाख: समुद्यत:। विधमिष्यति ते देहे भूतात्यानं चिरोषितम्‌॥' (५४--५६) 

मानस और वाल्मी० रा० में भेद वहाँ केवल यही है कि यहाँ लक्ष्मणजीको उठाते समय हनुमानूजीके रावणसे 
ये बचन हैं और वाल्मी० में लक्ष्मण-रावण-युद्धके पूर्व ही। पुन: दूसरा भेद यह है कि लक्ष्मणजीको शक्ति लगनेपर 
रावणका हनुमानजीकों घूँसा मारना वाल्मी० रा० में नहीं है। केवल हनुमानूजीका उसको घूँसा मारना कहा गया 
है। और लक्ष्मण-रावण-युद्धके पूर्व ही राबणने हनुमानूजीको और हनुमानूजीने रावणकों थप्पड़ मारा है। 

जानु टेकि कपषि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा॥१॥ 
मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेड सैल जनु बज्र प्रहारा॥२॥ 

अर्थ-श्रीहनुमानूजी घुटना टेककर रह गये, पृथ्वीपर न गिरे। सँभालकर उठे और बहुत रिसिमें भर गये॥ १॥ 
श्रीहनुमानूजीने उसको एक घूँसा मारा। वह ऐसा गिर पड़ा मानो वज़की चोटसे पर्वत गिरा हो॥ २॥ 

'प० प० प्र०-१ (क) हनुमानूजीने कुम्भकर्णपर प्रथम ही मुष्टिप्रहार किया था पर वह मूर्च्छित न 
हुआ। यथा--“तब मारुतसुत मुठिका हन्यो। पर्यों धरनि व्याकुल सिर थुन्यो॥' (६४। ७) उस अर्धालीमें 
भी १५, १५ मात्राएँ हैं। यहाँ रावणने प्रथम प्रहार किया तो हनुमान्‌जीको मूर्छा न हुई-'जानु टेकि कपि 
भूमि न गिरा” ।” यहाँ इस अरघालौमें भी एक-एक मात्रा कम है। कुम्भकर्णके घूँसेसे हनुमानूजीकी जो 
दशा हुई वही दशा हनुमानूजोके बूँसेसे यहाँ रावणको हुई। यथा--'युर्मित भूतल परथो तुरंता”““”। मुरछा 
गड्ट मारुतसुत जागा॥' यथा-- परेड सैल जनु बज़ प्रहारा। मुरुछा गै बहोरि सो जागा॥' इससे प्रकट हुआ 
कि कुम्भकर्णका शारीरिक बल रावणसे बहुत अधिक था। [यह भी हो सकता है कि पहले घूँसा खानेसे 
क्रोध अधिक बढ़ जानेसे प्रहार पूरे बलसे किया जाता है, इसीसे वहाँ कुम्भकर्णके घूँसेसे हनुमानजी और 
यहाँ हनुमानूजीके बूँसेसे रावण मूर्छित हुए। (मा० सं०)] (ख) अर्धालीमें मात्राकों कमी करके जनाया 
कि 'जानु टेकि कपि“““”” यह देखते ही कपि सेना भयभीत हो गयी थी पर उसके उठते ही सब आनन्दित 
हुए। उनको आश्चर्य हुआ और रावण लज्जित हुआ। 

नोट--१ “बहुत रिस़॒ भरा।' भाव कि लक्ष्मणजीको उठाते देख क्रोध हुआ था तब कठोर वचन कहे 
थे। अब उसके घूँसेकी चोट खानेपर क्रोध बहुत बढ़ गया तब उसे जोरसे घूँसा मारा। लड्लिनीके भी 
“मुठिका' मारी थी, यथा--“मुठिका एक महाकपि हनी” तब वह रुधिर उगलती हुई पृथ्वीपर गिरी थी, वैसे 
ही रावणके मुख, कान और नेत्रोंसे खून गिय। यथा--'तेन मुष्टिप्रहरेण रावणों राक्षसेश्वर:। जानुभ्यामगमद्भूमौ 
चचाल च पपात च॥ आस्यैश्ष नेत्रै: श्रवणै: पपात रुधिरं बहु। विधूर्णमानों निश्वेष्टो रथोपस्थ उपाविशत्‌॥ विसंज्ञो 
मूर्च्छितश्चासीन्निजस्थान॑ समालभत्‌। विसंज़॑ रावण दृष्ठा समरे भीमविक्रमम्‌॥' (वाल्मी० ५९। ११३-११५) 
अर्थातू-उस मुष्टिप्रहारसे रावण काँपकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। मुख, कान और नेत्रोंसे रक्त बहुत गिरा और 
वह चक्कर खाकर रथके समीप आ गिरा। मूच्छित हो जानेसे रथमें अपने स्थानपर नहीं जा सका। 

नोट--२ “परेड सैल जनु ब़रप्रहारा।' इति। इससे जनाया कि हनुमानूजीने क्रोधयुक्त होकर वज्रसदृश 
बूँसेसे उसपर प्रहार किया था, यथा--'आजघानोरसि क्रुद्धों वज़्कल्पेन मुष्टिना।' (वाल्मी० ५९॥ ११२) 
इसी भावको दरसानेके लिये वज्रप्रहारकी उत्प्रेक्षा कौ। पुनः रावणके 'हन्यो मुष्टि प्रहार प्रघोर' के उत्तरमें 
इन्होंने भी वज्रवत्‌ प्रहार किया। उसके प्रहारसे ये न गिरे और इनके प्रहारसे वह चक्कर खाकर संज्ञारहित 
होकर गिर पड़ा। यह जतानेके लिये “परेउ' पद दिया। यथा--“जो दससीस महीधर ईस को बीस भुजा 





दोहा 4३९ ३-६) # श्रीमद्रामचद्धचरणौ शरण प्रपद्े # डड३ लक्भाकाण्ड 





खुलि खेलन हारो। लोकप दिग्गज दानव देव सब सहमेँ सुनि साहस घारो ॥ बीर बड़ो बिरुदैत बली अजहूँ 
जग जागत जासु पौँवारों। सो हनुमात हनी मुठिका गिरि यों गिरिराज ज्यों गाजकों मारो॥' (क० ३८) 
मुरुछा* गै बहोरि सो जागा। कपि बल बिपुल सराहन लागा॥३॥ 
धिग धिग मम पौरूष थिग मोही | जौ तेँ जियत रहेसि| सुरद्रोही॥४॥ 
अर्थ-मूच्छके नष्ट हो जानेपर वह फिर सचेत हुआ और कपिके बलकी बड़ी प्रशंसा करने लगा॥३॥ 
(हनुमानूजीने उत्तर दिया कि) मैरे पुरुषार्थको बारम्बार धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है जो तू सुरद्रोही 
जीता रह गया॥ ४॥ 
नोट--१ “बहोरि” का भाव कि एक बार पहले भी (लक्ष्मणजीके बाणोंद्वारा) मूच्छित होनेपर सचेत 
हुआ था--'परेड अबनितल सुथि कछु नाहीं। उठा ग्रबल पुनि मुर्छा जागी॥' 
नोट--२ वाल्मी० ५९ में रावण-लक्ष्मण-युद्धके पूर्व ही रावण-हनुमान्‌का यह परस्पर वाक्य है और 
शक्ति लगनेके पश्चात्‌ केवल उतना ही है जो पूर्व ८३ (१-२) में दिया गया। यथा--'अधाश्वस्य महातेजा 
राबणों वाक्यमब्रबीत्‌॥ साधु बानर वीर्येण श्लाघनीयोउसि मे रिपु:। राबणेनैवमुक्तस्तु मारुतिर्वाक्यमब्रवीतू॥ 
धिगस्तु मम बीर्यस्य यत्त्वं जीवसि रावण। सकृत्तु प्रहरेदानीं दुर्बुद्धे कि विकत्थसे ॥ ततस्त्वां मामको मुष्टिन॑यिष्यति 
अमक्षयम्‌।' अर्थात्‌ (होशमें आकर) महातेजस्वी रावण बोला-हे वानर! शाबाश! अपने पराक्रमसे, हमारे 
शत्रु बीर तुम प्रशंसनीय हो। रावणके ऐसा कहनेपर हनुमानजी बोले-हे रावण! हमारे पराक्रमकों धिक्कार 
है जो तू हमारे मारनेपर भी जीवित ही है। बड़ी शीघ्रतासे तू मुझे मार; अरे दुबुंद्धि! तू मुझे मार, क्या 
बकबक करता है। बादमें मेरी मुष्टिका तुझे यमराजके यहाँ पहुँचायेगी। (५९। ६४-६७) 
नोट--३ “कपिबल”““”” इति। “कपि' शब्दका भाव कि यद्यपि तू कपि है तथापि तुझमें अन्य कपियोंसे 
अधिक बल है। फिर भी तुझमें मुझे मार डालनेका सामर्थ्य नहीं है, मैं वानरके हाथ मर नहीं सकता। 
यथा “सावन मरत्त मनुज कर जाँचा' “तर के कर आपन बथ बाँची” (प० य० प्र०) 
पं०--'कपि बल बिपुल सराहत लागा” शत्रुको प्रशंसा कैसी? समाधान-(१) उत्तम लोगोंकों रीति 
है कि किसीमें गुण देखें तो सराहना करें।--'मैं गुनलयाहक“““”” वा, (२) उसने विचार कि प्रशंसा 
सुनकर आनन्दमें मग्न हो सौमित्रिके उठानेमें मुझे न रोकेगा। 
वीर--चोटसे दुःखो होकर शत्रु बड़ाई करता है, वह अनुचित और अयथार्थ होनेसे रसाभास है। 
क्योंकि वह प्रत्यक्षमें कपिकी प्रशंसाके बहाने अपने पुरुषार्थकी बड़ाई करता है। 
गौड़जी- 'कपि“”“सराहन लाग्रा।' यह सराहना काकोक्ति है जिससे अपना बड़प्पन, गुणग्राहकता 
और शत्रुकी तुच्छतां अभिप्रेत है। 
अस कहि लछिमन कहुँ कपि + ल्यायो। देखि दसानन बिसमय पायो॥५॥ 


कह रघुबीर समुझु जिय भ्राता। तुम्ह कृतांत भच्छक सुरत्राता॥६॥ 

अर्थ-ऐसा कहकर कपि (श्रीहनुमानजी) लक्ष्मणजोको श्रीरघुनाथजीके पास ले आये। दशानन यह 
देखकर आश्चर्य और भयकों प्राप्त हुआ॥ ५॥ रघुवोर (श्रोरामजी) (भाईको देखकर) बोले--हे भाई! हृदयमें 
विचारों तो, तुम तो कालके भक्षक और देवताओंके रक्षक हो॥ ६॥ 

नोट-१ 'कपि ल्यायो”“““ ” इति। रावणसे न उठे, हनुमानजीसे कैसे उठ गये? श्रीहनुमानूजीकी परमभक्ति 
और सौहार्दक कारण उनके लिये वे हल्के हो गये। यथा--'शत्रूणामष्यकम्प्योषपि लघुत्वमगमत्कपेः॥' 
(वाल्मी० ५९। ११७) 'हनूमतः सुदृत््येतत भक्त्या च परमेश्वर:। लघुत्वमगमददेवो गुरूणां गुरुरप्यज:॥' (अ० 
रा० ६। ६। १६) अर्थात्‌ वे अजन्मा और प्रकाशस्वरूप परमेश्वर श्रीलक्ष्मणजी भारी-से-भारी होनेपर भी 
हनुमानूजीके लिये उनके सौहार्द और भ्क्तिभावके कारण अत्यन्त हल्के हो गये। 

नोट--२ “कह रघुकीर समुझु““”” इति (क) “समुझु जिय” का भाव कि अपने स्वरूपका स्मरण 

* मै मुरुछा।  उठसि--(का०)। # कपि लछिमन कहूँ (क०)। 





मानस-पीयूष डंडंड # औमते रामचन्द्राय नम: # दोहा ८३ (७-८) 





करो। उसे स्मरण करते ही मूर्च्छा-विगत हो जाओगे। मूर्चछ्छांलीलाका अन्त हो जायगा। 

पं० विजयानन्द त्रिपाठीजी कहते हैं कि “यह ब्रह्मदेवको दी हुई कराल शक्ति थी, वह चिकित्साके 
वशकी वस्तु नहीं थीं। स्वरूप-ज्ञाससे ही यह दूर की जा सकती थी। इसलिये सरकारने स्वरूप-ज्ञान करा 
दिया, यथा “तुम्ह कृतांत भच्छक सुरत्षाता'/ लक्ष्मणजीने अपने स्वरूपको भूलकर, अपनेको काल कहा। वहाँ- 
तक ब्रह्मदेवकी शक्तिकी पहुँच थी। सरकारने स्मरण करा दिया कि तुम काल नहीं हो, काल-के-काल हो। 
बस स्वरूप-स्मरण होते ही ब्रह्मदेवके अधिकारके बाहर हो गये, अतः वह शक्ति आकाशमें चली गयी। 

(ख) “तुम्ह कृतांत भच्छक” इति। भाव कि तुम कालके भक्षक हो तब तुम कालके वश कैसे 
हो सकते हो? यथा 'काल ब्याल कर भच्छक जोई्ड। सपनेहूँ समर कि जीतिअ सोईड॥” (५६। ८) 'कृतांत 
भ्रच्छक ' कहकर जनाया कि तुम कालका भी अन्त करनेवाले, प्रलय करनेवाले और स्वयं अनन्त हो, 
तुम्हारा अन्त असम्भव है। (गौड़जी) (ग) श्रीरामचन्द्रजी 'भुबनेस्वर कालहु कर काला' हैं। श्रीलक्ष्मणजी 
श्रीरामजीके अंश हैं; यथा “अंसन्ह सहित देह थारि ताता। करिहाँ चारित भ्रगत सुखदाता॥' (१। २५२) 
अत: वे भी कृतांत-भक्षक हुए। इस तरह भाव यह है कि तुम हमारे अंश हो। यही बात वाल्मी० और 
आ० रा० में कहा है। भेद यह अवश्य है कि वाल्मीकीय आदियें श्रोलक्ष्मणजीका स्वयं हो श्रीरामचन्द्रजीका 
अथबा अपने ऐश्वर्य और आत्मस्वरूपका स्मरण बराबर करते रहना कहा है और मानसमें श्रीरघुनाथजीने 
उनको अपने स्वरूपका स्मरण कराया है। दोहा ८२ छन्द देखिये। (घ) 'सुरज्राता' का भाव कि तुम्हारा 
अवतार देवताओंकी रक्षाके लिये हुआ है; यथा 'सेष सहस्तसीस जग कारन। जो अवकरेव भूमि भय टारन॥' 
(१। १७। ७) “जो सहस सीस अहीस महिथरु लकन सचराचर थनी। सुरकाज थरि नरराजतनु चले दलन 
खल निसिचर अनी॥' (अ० १२६), इसीसे मूर्च्छालीलाका तुमने अभिनय किया है, नहीं तो तुम तो जन्ममरणादि 
विकारोंसे रहित हो। मूर्छित पड़े रहोगे तो देवताओंकों रक्षा कैसे होगी? (ड) बाबा हरिदासजी लिखते 
हैं कि 'कृतांत भच्छक' कहकर विचारा कि “कृतांत भच्छक' सुनकर कहीं त्रैलोक्यका नाश न कर दें, 
अतः फिर '“सुरत्राता” भी कहा अर्थात्‌ केवल राक्षसोंका नाश उठकर करो जिसमें देवताओंकी रक्षा हो 
और किसीका नाश न कर देना।' श्रोगौड़जीने इस भावकों स्पष्ट कर दिया है। भाव यह कि इसका आशय 
यह भी नहीं है कि कालका तुम नाश करो, क्योंकि 'काल” भी सुर है, जो रावणसे हैरान है और 
तुम सभी देवताओंके ज्राता (रक्षक) हो, कालको भी रक्षा तुम्हें करनी है, तुम्हारे अन्तसे कालका भी 
अन्त हुआ जाता है, परन्तु प्रलय वा महाप्रलय इस समय कुछ भी नहीं है, अत: इस मूर्च्छालीलाका 
अन्त करों। लीलाके लिये समय नहीं है। ब्रह्मदत्त शक्तिको मयादाकों रक्षा हो चुकी। 

सुनत बचन उठि बैठ कृपाला | गई गगन सो सक्ति कराला॥७॥ 
पुनि कोदंड बान गहि धाए*। रिपु सन्‍्मुख अति आतुर आए॥८॥ 

अर्थ-(प्रभुके ये) बचन सुनते ही कृपालु श्रीलक्ष्मणजी उठ बैठे। वह कराल शक्ति आकाशकों चली 
गयी॥ ७॥ वे फिर कोदण्ड और बाण लेकर दौड़े और अति शीघ्र शत्रुके सामने आ पहुँचे॥८॥ 

गौड़जी--रावणको जितने आयुध मिल चुके हैं, किसी-न-किसी मिषसे सबको समाप्त करता भी प्रभुका 
अभीष्ट है। 

नोट-१ पूर्व जो शक्ति लगी थी उसका आकाशमें जाना न कहा और यहाँ इस शक्तिके सम्बन्धमें 
कहा कि “गईं गगन स्रो।/ कारण कि--(क) इस शक्तिमें एक हो प्रहारकी शक्ति ब्रह्माने दे रखी थी, 
वह प्रहार करके चली गयी। (पं०) (ख)४छ"पहली बार नरनाट्य दिखाया, अबकी ऐश्वर्य। पूर्व ओषधिपर्वत 
आया था। उसका लौटाया जाना मानसमें नहीं है। अत: अब ऐश्वर्य दिखानेसे वह तो यहो समझेगा कि 
उसी ओषधिसे जिला लिये गये। इसीसे अब नरनाट्यकी आवश्यकता न रह गयी। 

(ग) गौड़जी-गोस्वामीजीने रामचरितमानसमें दो प्रकास्से रामचरित दिखाया है। एक तो नरत्वमें और 








* “धरि सर चाप चलत प्रभु भए। रिपु० समीप“““'--(का०) 


दोहा ८३ (छंद) # ्रीमद्रामचद्भचरणौ शरण प्रपद्ये # डड५ लक्जाकाण्ड 





दूसरे ईश्वरत्वमें। इसमें प्रथम प्रकरण अर्थात्‌ पहली बारकी शक्तिका लगना तो नरत्वमें नर-लीला करके दिखाया 
है जिसका समाधान उसी प्रकरणमें गोस्वामीजीने कर भी दिया है। यथा--'उमा एक अखंड रुराई। नरगति 
भगत कृपाल देखाई #' रही दूसरी शक्ति लगनेकी बात, सो उसमें रघुनाथजीने अपने ईश्वरत्वको दिखाया। ऐसा 
भी कहा जा सकता है कि भगवान्‌ शरणागतपालक हैं, प्रथम शक्ति-प्रकरणमें लक्ष्मणजीमें कुछ भक्ति-भावमें 
कमी रही। उनको अपने बल और ऐश्वर्यका अहड्डार आ गया जिसकी ध्वनि उनकी इस कार्यशैलीसे निकलती 
है।-'आयसु माँगे राम पहँँ अंगदादि कपि साथ। लछ्ठिमन चले क़ुद्ध होड़ बान सरासन हाथ॥ 
कहाँ तो स्वामीके पाससे जाना और प्रणाम भी न करना, क्या यह प्रत्यक्ष अहड्लार नहीं है? अपने 
धनुषबाण और पराक्रमके अहड्जारने लक्ष्मणजीकों पीड़ा पहुँचायी और सफलता हाथ न लगी। परन्तु दूसरी 
शक्तिके प्रकरणमें जो सेवकका भाव स्वामीके प्रति होना चाहिये उनका श्रद्धा-भक्तिसमेत लक्ष्मणजीने भलीभाँति 
पालन किया--'लछिमन चले सरोष तब नाड़ रामपद माथ।' 
यहाँ बात ही दूसरी है। यहाँ रामचरणोंमें सिर नवाकर स्वामीके बलपर लड़नेके लिये चले। फल 
तत्काल ही उत्तम मिला। दुःख भी नाश हुआ और शक्तिके प्रभावके रहते ही पुनः रावणसे जा युद्धकर 
उसे व्याकुल और मूच्छित कर दिया और पुनः भगवान्‌के चरणोंमें आ सिर नवाया। यहाँ तो भक्तिपक्ष 
प्रबल था फिर क्‍्योंकर भक्त लक्ष्मणजीका अमड्जल हो सकता था?-(भूमिकासे उद्धृत) 
घु० रा० कु०-ऐश्वर्यान्तर्गत माधुर्य भूषण है। यथा--'माधुर्वभूषणं नित्यमैश्वर्वान्तगतं ध्रुवम्‌।' (वसिष्ठवचन) 
नोट--२ प्रभुने कहा कि तुम कृतान्तभक्षक हो, सुरत्राता हो, यह वचन सुन वे उठ बैठे। इससे 
ज्ञात हुआ कि प्रभुके वचन सुन वे अपना स्वरूप स्मरणकर उठ बैठे, जैसा कि वाल्मीकीयमें कहा है, 
यथा--'आश्वस्तश्च विशल्यश्च लक्ष्मण: शत्रुसूदन:। विष्णोर्भागममीमांस्थमात्ान॑ प्रत्यनुस्मरन्‌॥' (५९। १२२) 
अर्थात्‌ शत्रुसूदन लक्ष्मणजीने अपनेको बैष्णवतेजके एक एश्वर्यरूपसे स्मरण किया वा, अपना आत्मस्वरूप 
विष्णुअंश स्मरण करते हुए घावरहित और स्वस्थ हो गये। ८२ छंद देखिये। 
इस बार इस तरह शीघ्र क्‍यों स्वस्थ कर लिया और पहिले इतना बखेड़ा क्‍यों किया गया था, 
इसका उत्तर पूर्व और यहाँ भी ऊपर लिखा गया। इसके अतिरिक्त एक कारण यह भी है कि पूर्व शक्ति 
लगनेपर सन्ध्या हो गयी थी, रात्रिभर ओषधिके लिये यत्त करनेका अवसर था और इस बार अभी सन्ध्या 
नहीं हुईं है, शक्ति दिनमें लगी थी और शत्रु रावण रणभूमिमें अभी मौजूद है; हनुमानूजीके मुष्टिप्रहारसे 
मूच्छित पड़ा है। मूर्छ्छा जानेपर उठेगा तो इनके वहाँ न होनेसे अपनी जय समझेगा। अतएव, रावणके 
रणभूमिपर मूर्च्छा विगत होतेतक इनको वहाँ तुरंत पहुँचना आवश्यक था। इससे यहाँ ऐश्वर्यसे काम लिया। 
छंद--आतुर बहोरि बिभंजि स्यंदन सूत हति ब्याकुल कियो। 
गिरयौ धरनि दसकंधर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो॥ 
सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लंका ले गयो। 
रघुबीर बंधु प्रतापपुंज॑ बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो॥ 
अर्थ-बड़ी शीघ्रतासे फिर रावणके रथकों चूर-चूरकर, सारथीकों मारकर, उसे व्याकुल कर दिया। 
सौ बाणोंसे दसकंधर रावणका हृदय बेध दिया जिससे वह अतिशय व्याकुल होकर पृथ्बोपर गिर पड़ा। 
तदनन्तर दूसरा सारथी उसे दूसरे रथमें डालकर तुरंत लड्लामें ले गया। रघुवीर श्रीरामजीके प्रतापपुञ् भाईने 
फिर आकर प्रभुके चरणोंमें प्रणाम किया। 
नोट--१ (क) “आतुर' का भाव कि रावण अभी रणभूमिमें ही था कि ये फिर आ पहुँचे। 'बहोरि 
बिभंजि' कहा क्योंकि प्रथम एक बार ऐसा कर चुके हैं। यथा “पुनि निज बात कील प्रहारा। स्यंदन 
भंजि सारधी मारा॥' (८२। ५) (ग) प्रथम रथ टूटनेपर दूसरेका आना नहीं कहा गया और यहाँ फिर 
दूसरे रथका तोड़ना कहा। इससे जनाया कि जितनी देरमें हनुमानजी लक्ष्मणजोको उठा लेकर गये और 


मानस-पीयूष ४४६ # श्रीमते रामचन्द्राय नम: # दोहा ८३, ८४( १-२) 





ये फिर आये, इतनेमें हो वह दूंसरे रधपर सवार हो आया। वा, रथ वहीं इतनी देरमें आ गया था, 

जैसे इस समय आ गया जिसमें सारथी उसे उठा ले गया। (घ) “दसकंथवर' पदसे जनाया कि दसों सिरोंके 

बल चित्त गिरा। रावण प्रतापी था, यथा--'देखि प्रताप न कपि मन्र संका॥' (५। २०), 'सोड़ राबन जग 

बिदित प्रतापी॥' (२५। ८), लक्ष्मणजीने उसे हराया इसलिये इन्हें 'प्रतापपुंज” कहा। (ड) 'सारथी दूसर 

घालि” इति। दूसरा सारथी इससे रावणकों उठा ले गया कि कहीं लक्ष्मणजी बदला चुकानेके लिये 
इसे न उठा ले जाबैँ। (च) “बहोरि प्रभु चरनन्‍्हि नयो '| जब चले थे तब प्रणाम करके चले थे--'लक्षिमन 

चले क्रुद्ध होड़ नाड़ रामपद माथ' “अब लौटे तब पुनः “चरनन्हि चयो'। वहाँ उपक्रम था यहाँ लक्ष्मण- 

रावण-युद्धका विजयमें “उपसंहार' है। 


दो०--उहाँ दसानन जाग करि करै लाग कछु जग्य। 


रामबिरोध बिजय चह* सठ हठ बस अति अग्य॥८३॥ 

शब्दार्थ-अग्य«नासमझ-- की कपट मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य। (बा०) 

अर्थ-बहाँ (लड्लामें) दशानन. सावधान होनेपर कुछ यज्ञ करने लगा। (वक्ता कहते हैं कि) वह अत्यन्त 
मूर्ख है, अज्ञानी और हठी है, बह हठवश श्रीरामजीसे विरोध करके भी विजय चाहता है॥८३॥ 

नोट--१ (क) 'दस्तानन जाग कि से पाया गया कि यह मूर्च्छा थोड़ी ही देर रही। रावण बिना 
किसी उपचारके शीघ्र चैतन्य हो गया। आगे श्रीजाम्बवानूजीकी लात खानेपर मूर्छा विशेष हुई, जिसके 
लिये सारथी आदिको यत्न करना पड़ा। (ख) “कछु जर्य' इति। “कछु' से जनाया कि यह यज्ञ बहुत 
गुप्त है, किसीको यह नहीं मालूम कि कौन-सा यज्ञ है। इससे 'कछु' पद दिया। अ० रा० १०। ५-१२ 
में यज्ञकी कथा इस प्रकार है कि रावण शुक्राचार्यके पास जा प्रणामकर हाथ जोड़ंकर बोला-' हे भगबन्‌! 
राघवने लड्जाकों राक्षसयूथपोंसहित नष्ट कर दिया! पुत्र-बान्धव-सहित बड़े-बड़े दैत्योंकों मार डाला। आप 
ऐसे सदगुरुके रहते हमक़ों'यह दुःख कैसे प्राप्त हो गया?” इस तरहसे कही बात सुनकर दैत्यगुरु बोले-'हे 
'दशानन! एकान्तमें तुम यत्नपूर्वक यज्ञ करों। यदि यज्ञ-होम विध्नरहित हो जाय तो होमके अग्निसे बड़ा 
भारी रथ, घोड़े, धनुष, तूणीर और बाण निकलेंगे। उत सबके होनेसे तुम अजेय हो जाओगे। इसलिये 
“हम जो मन्त्र देते हैं इसे ग्रहण करो और शीघ्र जाकर होम करो।' ऐसा कहनेपर रावणने शीघ्र जाकर 
पाताल-सदृश एक गुहा महलमें बनाकर, लड्जके सब द्वार यलपूर्वक बन्द करा और आवश्यक होमद्रव्य 
एकत्रितकर एकान्त गुहामें प्रवेशकर मौन धारणकर यज्ञ करने लगा। पंजाबीजीके मतानुसार 'कछु जग्य' 
का भाव यह है कि वह थोड़े कालमें सिद्ध होनेवाला यज्ञ है, बड़ा यज्ञ नहीं है क्योंकि उसका समय 
नहीं है। वा, यह यज्ञ बीचमें ही विध्वंस हो जायगा, अतः इसे “कछु” कहा। (ग) रावणने बिचारा कि 
अब शत्रुसे बलद्वारा पार न पा सकूँगा, बिना दैवों शक्तिके जीतना असम्भव है। अतः दैवीशक्ति प्राप्तिक 
लिये यज्ञ करनेकी ठानीं जिससे विजय हो। (बं० पा०) 

नोट--२ 'हठ बसत' यथा--'त मैं जाड़ बैर हठि करिहडँ। कंत रामबिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ 
मन धरहू॥ ( १४। ८)--विशेष १४ (८) में देखिये। भाव यह है कि विभीषण, मन्दोदरी और माल्यवान्‌ आदिने 
रामबिरोधसे निवारण किया पर उसने हठवश न माना। इसीसे “अति अग्य' कहा। रामविरोध करके जय चाहता 
है इसलिये “सठ ' कहा। रामविरोधीकी कुशल कहाँ? दोहा १४ (८) देखिये। अथवा, 'देवविरोधी' होनेसे शठादि 
विशेषण दिये, यथा--“रे कुभाग्य सठ मंद कुबुद्धे। तैँ सुर तर मुनि नागर बिरुद्धे ॥ (९२। ५) 

नोट--३ “अति अग्य' क्योंकि रामसे विमुख है और उन्‍्हींक अड्भगभूत देवताकी पूजासे सुखी होना चाहता है। 

इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाडू रघुपतिहि सुनाई॥१॥ 
नाथ करै रावन एक जागा। सिद्ध भए नहिं मरिहे अभागा॥२॥ 








* “जय चाहत रघुपति बिमुख'--(का०), राम बिरोधी कुसल चह'--(छ०) 


दोहा ८४ (३-४) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्चे + ४४७ लड्जाकाण्ड 





अर्थ-इधर विभीषणजीने सब खबर पायी और शीघ्र जाकर श्रोरघुनाथजीको सुनायी॥ १॥ हे नाथ! 
रावण एक यज्ञ कर रहा है। उसके सिद्ध होनेपर वह अभागा न मरेगा॥ २॥ 

नोट--१ “सब सुथ्ि पार्ड! इति। रावण पाताल-समान गहरे स्थानमें महलके भीतर यज्ञ कर रहा 
था, इससे बाहरके लोगोंकों इसका पता मिलना दुर्लभ था। विभीषणजीने धुआँ देखकर जाना तब 
श्रीरामचन्द्रजीकों भी दिखाकर यज्ञकी सूचना दी। यथा--'उत्थितं धूममालोक्य महान्तं रावणानुज:। रामाय 
दर्शयामास होमधूम॑ भयाकुल:॥ पश्य राम दशग्रीबों होम॑ कर्तुं समारभत्‌। यदि होमः समाप्तः स्थात्तदाजेयो 
भविष्यति॥' (अ० रा० १०। १३-१४) अर्थात्‌ बड़ा ऊँचा उठा हुआ धुआँ देखकर विभीषण भयातुर 
हो श्रीरामचन्द्रजीकों यह धुआँ दिखाने लगे। देखिये वह यज्ञ शुरू करता है। यदि होम समाप्त हुआ 
तो बह अजेय हो जायगा। की 

नोट-२ 'करै एक जाया। सिद्ध भए नहं मरिहि””“” 'इति। (क) दैत्यगुरु शुक्राचार्यजीने कहा था कि 
इस यज्ञके सिद्ध होनेसे तुम अजेय हो जाओगे--त्वमजेयो भविष्यसि' (अ० रा० १०। ९) अत; कहा कि वह 
न मरेगा। 'अजय'” हो जायगा, तब आपकी जय उसपर न होगी। जय तभी हो जब वह मारा जाय अतः कहा 
कि न मरेगा। (ख)--यह समाचार चाहे गुप्तचरसे मिला हो कि दैत्यगुरुने ऐसा कहा है पर अ० रा० में इसका 
संकेत नहीं है। अथवा, चाहे अनुमानसे विभीषणने समझा कि इस सेनासे और प्रभुसे अमर होनेके लिये हो यह 
यज्ञ होगा। इसके अतिरिक्त यज्ञ और किसलिये हो सकता था? (ग)#क मेघनादके विषयमें कहा था कि 'नाथ 
बेगि सो जीति न जाई” और यहाँ रावणके विषयमें कहा कि “नहिं मरिहि अभागा“-यह क्यों? मेघनादसे रावणमें 
अधिकता दिखानेके विचारसे ऐसा कहा। (ब) “अभागा' इति। रामविमुख होनेसे अभागा कहा। यथा “ते नर 
नरकरूप जीवत जय भवभंजन पद बिमुख अभागी #' (वि० १४०) पुनः श्रीरामजीको नर समझता है, इसीसे उनसे 
अजेय होनेके लिये यज्ञ करता है, अत: अभागा कहा। यथा--'सरों नर क्यों दससीस अभागा ॥ (२६। ४) पुन, उनके 
हाथसे मरनेसे भी मोक्ष होगा, यह न सोचकर उनसे अजेय होनेकी मूर्खता कर रहा है; अत: अभागा कहा। 

पठवहु नाथ* बेगि भट बंदर। करहिं बिध” आव दसकंधर॥३॥ 
प्रातर॑ होत प्रभु सुभट पठाए। हनुमदादि अंगद सब धाए॥४॥ 

अर्थ-हे नाथ! शीघ्र योद्धा बंदरोंको भेजिये जो जाकर यज्ञको विध्वंस करें जिससे दशकंधर आबे॥ ३॥ 
सबेरा होते ही प्रभुने वीर योद्धाओंकों भेजा। हनुमान्‌, अड्भद आदि (प्रधान) सब सुभट दौड़ चले॥ ४॥ 

नोट-१ यहाँ रावण-बध-प्रसज्ञमें हनुमानजी आदिमें हैं, शेष सब उनके पीछे हैं और मेघनाद-प्रसड्जमें 
अज्जद आदियें थे, यथा--“आयसु माँगि राम यहिं अंगदादि कपि साथ॥: “सुत्रि रघुपति अतिसय सुख माना। 
बोले अंगदादि कपि नाना॥' (७४। ६), “अगंद नील मयंद नल संग सुभट हनुमंत॥' (७४), 'थन्य-धन्य 
तब जननी कह अंगद हनुमान॥' (७५) अड्भदको आदियें देनेका भाव (७४।६) में दिया गया है। हनुमानूजीको 
यहाँ आदिमें देनेका भाव यह भी है कि रावणसे इनका मुकाबिला अभी-अभी हो चुका है। इनका बल 
देख वह विस्मित हो चुका है। यथा-'देखि दसानन बिसमय पायेउ॥' (८३। ५) 

नोट--२ “हनुमदादि अंगद”। (क) इन दोके नाम दिये, शेषके न दिये। क्योंकि रावणके मुकाबलेमें ये दोनों 
परीक्षामें उत्तीर्ण हो चुके हैं; इस ग्रन्थमें अभीतक रावणका सामना इन्हींने किया है। पुनः हनुमान्‌ और अज्भदका 
नाम इसलिये दिया कि अ० रा० ६० में भी यही दो नाम इस प्रसड़में आये हैं। यथा 'अतो विष्नाय होमस्य प्रेषयाशु 
हरीश्बरानू। तथेति राम: सुग्रीबसम्मतेनाड्ुदं कपिम्‌॥' (अ० रा० १०। १५), “हनूमत्ममुखान्‌ बीरानू आदिदेश 
महाबलान्‌।' अर्थात्‌ इसलिये होमके विघ्नके लिये बड़े-बड़े वानरोंको शीघ्र भेजिये। 'बहुत-अच्छा' कहकर 
सुग्रीवकी रायसे श्रीरघुनाथजीने अड्भद और हनुमान्‌ आदि बड़े-बड़े महाबलवान्‌ वानरॉको आज्ञा दी। 

पुन, (ख) हनुमानूजीको आदिमें और अज्जभदको अन्तमें देकर जनाया कि जो प्रधान वानर मेघनाद- 








* देव-(का०), नाथ (भा० दा०)। + प्रभात (भा० दा०), प्रात-(का०)। 


मानस-पीयूष ४४८ # श्रीमते रामचद्धाय नमः € दोहा ८४(५-६) 


यज्ञ-विध्व॑ंसके लिये भेजे गये थे जिनमेंसे अड्रद आदिमें और हनुमानजी अन्तमें कहे गये थे; बे हो सब 
यहाँ भी गये। यथा-“अंगद नील मंद नल संग सुभट हनुमंत॥” (७४) पुन;, (ग)--आ० रा० १०। १७ में 
लिखा है कि १० करोड़ महाबली वानर गये। अत: “आदि” पदसे वह संख्या जना दी है। 

पं०--देव” अर्थात्‌ आप दिव्य हैं, सबके प्रकाशक हैं, सब जानते हैं, मैं तो सेवककी तरह विनय करता 
हूँ। २--'प्रात होत” का भाव कि--समाचार सुनाते रात बीत गयी इतनेमें सबेरा हो गया। अथवा यज्ञ दिनभर होना 
है इससे रातमें न उपाय किया। वा, रातमें निशाचरोंका बल अधिक होता है और इन्हें घरके भीतर भेजना है। 

&#'लक्ष्मण-मेघनाद-युद्धमें भेजनेमें अज़्दको आदिमें कहा, पर कार्य करनेमें हनुमानजी अगुआ हैं; 
यथा--'तब लगि लेड़् आएउ हनुमान्रा॥' (५४। ८), “कोपि मरुतसुत अंगद धाये। ह॒ति त्रिसूल उर धरनि 
गिराबे॥' (७५। ६), 'उठि बहोरि मारुति जुबराजा। हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा॥' (७५। ८), “बिनु 
प्रयास हनुमंत उठायो॥” (७६। १) प्रकरणमें चार बार अड्भदका नाम प्रथम आया है-वैसे ही कार्य करनेमें 
हनुमानूजीका नाम चार बार आया है, यह उपर्युक्त उद्धरणोंसे स्पष्ट हो जाता है। इस प्रकार अद्भद और 
हनुमानूजीको कविने बराबर सम्मान दिया है। 

इसी प्रकार राम-रावण-युद्ध-प्रकरणमें पाँच स्थलॉपर अज्गदकौ प्रधानता देख पड़ती है और पाँच स्थलॉपर 
हनुमानूजीकी। इस प्रकार इस प्रकरणमें भी दोनॉंकों कविने समान आदर दिया है। 

श्रोअद्भदजीकी प्रधातता यथा-(१) “उत्त ग्रचार दसकंथर इत अंगद हनुमान॥” (७९), (२) “चले 
पराड़ भालु कपि नाता। ज्राहि त्राहि अंगद हनुमाना॥' (८१। ६), (३) 'अस कहि अंगद मारथों लाता। 
चितब न सठ स्वार्थ मन राता॥' (८२। ८), (४) 'देखि बिकल सुर अंगद थाएउ। कूदि चरन गहि भूमि 
गिराय3॥' (९६। ८), (५) “बालितनय मारुति नल नीला॥' (९७। ३) 

अ्रोहनुमानूजीकी प्रधानता यथा-(१) 'देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर॥' (८२), (२) 'प्रात 
होत प्रभु सुधट पठाये। हनुमदादि अंगद सब धाये॥' (८४। ४), (३) 'देखा अ्रमित बिभीयन भारी। धायउ 
हनूमान गिरि थारी॥' (९४। १), “रथ तुरंग सारथी निषाता। हृदय माँझा तेहि मारेसि लाता॥' (२), (४) 
'हनुमंत अंगद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे॥' (९५ छंद), (५) “हनुमदादि मुरछ्ित कारि बंदर। 
पाड् प्रदोष हरण दसकंधर॥' (९७। ११) 

मेघनाद-यज्ञविध्वंसमें यज्ञविध्वंस करनेमें किसोका नाम विशेष नहीं दिया गया, यथा-'कीन्ह कपिन्ह 
सब जग्य बिथ॑सा।' पर यहाँ रावण-यज्ञविध्व॑समें, यद्यपि भेजे जानेमें हनुमानूजीकों प्रधान किया है तथापि 
अद्भदको प्रधान रखा है। उन्होंने मंदोदरीकों घसोटा, इत्यादि। विभोषणकी सहायता हनुमानूजीने की तो 
देवताओंकी व्याकुलता अड्भदने हरी, लक्ष्मणजीको उठाते देख हनुमान्‌जीने रावणकों बूँसा मारा तो यज्ञसे 
न उठनेपर अद्भदने रावणकों लात मारी। इस प्रकार ग्रन्थकारने इन दोनोंकी वीरता बराबर समान दिखायी 
है। क्योंकि दोनोंकों ही सुबेल पर्वतपर प्रभु चरण सौंप चुके हैं। 

कौतुक कूदि चढ़े कपि लंका | पैठे रावन भवन असंका॥५॥ 
जग्य करत जबहीं* सो देखा । सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा॥६॥ 

अर्थ-वानर कौतुक ही कूदकर लझ्भापर चढ़ गये और निर्भय होकर रावणके महलमें घुस गये॥५॥ 
ज्यों ही उसे यज्ञ करते हुए देखा त्यों ही समस्त बानरोंको बहुत क्रोध हो आया॥६॥ 

नोट--१ (क) “कूदि चढ़े" का भाव कि फाटक बंद थे और कोई रास्ता भीतर जानेका न था। 
अ० रा० से भी यही बात सिद्ध होती है। यथा--'प्राकारं लड्घयित्वा ते गत्वा रावणमन्दिरम्‌॥ दशकोट्य: 
प्लवंगानां गत्वा मन्दिरक्षकान्‌। चूर्णयामासुरश्वांश्च गजांश्च न्यहनत्क्षणात्‌॥““”“गुहापिधानपाषाणमड्रदः 
पादघइनै:। चूर्णयित्वा महासत्त्व: प्रविवेश महागुहाम्‌॥ दृष्ठा दशाननं तत्र मीलिताक्ष॑ं दृढासनम्‌। ततोउड्डदाज़या 








* जबहीं जग्य करत सो देखा--(का०)। 


दोहा ८४ (७-८) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्ये # डड९ लड्ढाकाण्ड 





सर्वे बानरा विविशुद्दुंतम्‌॥' (अ० रा० १०। १६-२०) अर्थात्‌ उन्होंने चहारदीवारीको लाँघकर रावणके 
मंदिरमें प्रवेश किया। १० करोड़ बानरोंने जाकर क्षणमात्रमें रक्षकों, घोड़ों, हाथियों आदिको चूर्ण कर डाला। 
कंदराके द्वारवाले पाषाणकों महाबलवान्‌ अड्भद पैरोंसे चूर्ण करके गुहामें घुस गये और वहाँ रावणकों दृढ़ासन 
लगाये नेत्र मूँदे बैठे देखकर सब बानर उनकी आज्ञसे गुहामें घुस पड़े। (अ० रा० १०) (ख) “असंका' 
क्योंकि अब तो कोई सुभट ऐसा है नहीं जो रोक सके। रे 

पं०--“भा क्रोध बिसेया ।-शत्रुकों अपने अनिष्टमें परायण देखकर देवकार्यमें बाधक जानकर क्रोध 
हुआ-(अपने स्वार्थकी हानि देख क्रोध होना स्वाभाविक ही है)। 

रन ते निलज भाजि गृह आवा। इहाँ आड़ बक ध्यान लगावा॥७॥ 
अस कहि अंगद मारेउ* लाता । चितव न सठ स्वारथ मन राता॥८॥ 

अर्थझ-ओरे निर्लज! तू रणभूमिसे घर भाग आया और यहाँ आकर बगलेका-सा ध्यान लगाया है॥ ७॥ 
ऐसा कहकर अड्भदने लात मारी; पर उसने (इनकी ओर) न देखा, क्योंकि उस शठका मन स्वार्थमें 
अनुरक्त (लगा हुआ) था॥ ८॥ 

नोट--१ (क) 'निलज-रणमें बड़े दावेसे गया था। यथा “निज भुजबल मैं बयरु बढ़ावा। देहडँ उत्तर 
जो रिपु चढ़ि आवा॥' (७७। ६), हाँ मारिहँ भूप दरों भाई।' (७८। १२), 'खोजत रहेडँ तोहि सुतघाती। 
आज निपाति जुड़ावरँ छाती ॥' (८२। २) रणसे भाग आना लज्जाकी बात है। तभी तो मेघनाद मूर्च्छित होकर 
लड्डामें गिरेपर पिताकों देखकर लज्जित हुआ था। यथा--पितहि बिलोकि लाज अति लागी।' (७४। १) 
सुमन्त्रजी श्रीरमजीकों लौटा लाने गये और छूछे आये, तब भी कहा है--'बिरिद बाँधि बर बीर कहाई। 
चलेउ समर जनु सुभट पराई॥”““““सचिव सोच तेहि भाँति॥' (२। १४४) वस्तुत: वह भागकर नहीं आया 
था, सारथी उसे उठा लाया था। पर मूर्छा विगत होनेपर तो उसे तुरत लौट आना था। अथवा सारथीको 
डॉँटना था कि रणभूमिसे क्यों ले आया जैसे दूसरी बार उसने किया है। यथा-“सठ रत भूमि छड़ाइसि 
मोही। धिंग थिग अथम मंदमति तोही॥' (९९। ८) इससे स्पष्ट है कि रावणके लिये यह लज्जाकी बात 
थी। अतः निर्लज कहा। अथवा, उसे यह्से उठाना था इससे “भाजि ग्रह आबा' कहा। 

नोट-२ (क) “बक ध्यान--ऐसी चेष्टा, मुद्रा या ढंग जो देखनेमें तो बहुत साधु और उत्तम जान 
पड़े पर जिसका वास्तविक उद्देश्य बहुत ही दुष्ट वा अनुचित हो। जैसे बगला आँख बन्दकर जलाशयपर 
बैठता है मानो ध्यान लगाये है, भोला-भाला साधु है, पर मछलो सामने आयी नहीं कि हड़प लिया। 
रावण अपना बुरा उद्देश्य सिद्ध करनेके लिये एकाग्रचित्त हो बैठा है मानो क्षमाशील साधु है; इसीसे 
“बक ध्यान” पद दिया। (ख) “बक थ्यान' कहकर यहाँ 'स्वारथ मत्र राता' उसका धर्म कहा। बकध्यानसे 
जनाया कि आँख मूँदे हुए है। अत: आगे “बितव न” कहा। 

नौट--३ 'स्वारथ मन राता“-स्वार्थ यह है कि यदि क्रोध करूँ या यज्ञसे उठ पड़ूँ तो यज्ञ निष्फल 
हो जायगा, इससे क्षमा करके लात भी सह रहा है। (पं०) जयकी इच्छा एवं शत्रुसे अजय होनेकी 
अभिलाषा हो स्वार्थ है, यथा-'करईँ अजय मख मन अस थरा' (मेघनाद) मनमें अजय-यज्ञकौ धारणा 
करना हो स्वार्थ है। यथा अध्यात्मरामायणे--'घ्नन्ति दन्‍्तैक्ष काष्ठेश्न बानरास्तमितस्ततः। न जहौ राबणों ध्यान 
हतोडपि बिजिगीषया॥' (१०। २३) अर्थात्‌ वानर डसे दाँतोंसे काटते हैं, लकड़ीसे मारते हैं; इसपर भी 
जयका इच्छुक रावण ध्यानकों नहीं छोड़ता। 

नोट--४ (क) पूर्व 'भा क्रोध बिसेषी' कहा, यहाँ उसका स्वरूप 'परुष बचन' कहा। 'रन ते निलज 
भ्राजि गृह आवा““““' यह कठोर वचन है। (ख) यहाँ मन, वचन और कर्म तीनोंसे क्रोध दिखाया। 
_-'क्रोध बिसेषी” (मन), 'रन ते त्रिलज"““। अस कहि:-वचन, और, “मारेड लाता” कर्म है। 

नोट--५४७/ इस प्रसड्भमें प्रधान तो श्रीहनुमानजी हैं, पर कार्य अज्ञदजीने किया। 








_._* मारा-(भा० दा०) मारेड (का०)।_ 
[92] मा० पी० (खण्ड-छ: ) १७७ 


मानस-पीयूष ४५० # औमते रामचन्द्राय नमः # दोहा ८४ (छंद) 


छंद--नहिं चितव जब करि कोप कपि* गहि दसन्ह लातन्ह मारहीं। 
धरि केस नारि निकारि बाहेर तेति दीन पुकारहीं॥ 
तब उठेड कुद्ध कृतांत सम गहि चरन बानर डारई। 
'एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई॥ 
अर्थ-जब उसने आँखें न खोलीं तब वानर कोप करके उसे दाँतोंसे काटने और लातोंसे मारने 
लगे। उसकी स्त्रियोॉंक बाल पकड़कर उनको बाहर निकाल लाये, वे अत्यन्त दीन होकर पुकारने लगीं। 
तब वह क्रोधित कालके समान उठा और वबानरॉंके पैर पकड़कर फेंकने, गिराने, पटकने व यज्ञमें डालने 
लगा। इसी बीचमें वानरोंने यज्ञ विध्वंस कर डाला, यह देख वह मनमें हारने लगा। 
नोट--१ (क) “करि कोष” इति। पूर्व तो कोप कह आये अब यहाँ फिर कैसे कहा कि कोप किया? 
उत्तर-फिर कोप करना लिखकर जनाया कि जब लात मारी तब प्रथम क्रोध कुछ शान्त हो गया था। इसीसे 
यहाँ फिर “'करि कोष कहा। वा, पूर्व क्रोध स्वयं अपनेसे मनमें हो आया था और अब ये अपनी तरफसे 
कोप करते हैं; इसीसे पूर्व “भा क्रोध” और अब “करि कोष” कहा। इस प्रकार पूर्ववाले क्रोधकी मात्रा बढ़ाते 
हैं। (ख) 'गहि दसन्ह”“””” ”इति। मिलान कौजिये-तत्र कोलाहल॑ चक्रुस्ताडबन्तश्न सेबकान्‌। संभारांश्चिक्षिपुस्तत्र 
होमकुण्डे समन्तत: ॥ स्त्रुवमाच्छिद्य हस्ताच्य रावणस्थ बलाद्रुषा। तेनैव संजघानाशु हनुमान्प्लवगाग्रणी ॥ घ्नन्ति दन्तैश्ञ 
का्लैश्व वानरास्तमितस्तत:।' (अ० रा० १०। २१-२३) अर्थात्‌ उस गुहामें वानर उन सबको मारते-पीटते 
बड़ा कोलाहल करने लगे। जो सामग्री थी वह सब होमकुण्डमें छोड़ दी। रावणके हाथसे खुवाकों जबरदस्ती 
छीनकर वानरोंमें अग्रगण्य हनुमानजी उसीसे उसको मारने लगे। 
नोट--२ 'पुकारहीं” और “ते” बहुबचन पद देकर जनाया कि सभी स्त्रियोंकों निकाल लाये। ष्कयहाँ 
मन्दोदरीकों कौन लाया, यह न कहा। अ० रा० १०। २४ में अद्भदका घसीट लाना वर्णित है। यथा 
“प्रविश्यान्त:पुरे वेश्मन्यड्भदों बेगवत्तर:। समानयत्केशबन्धे धृत्वा मन्दोदरीं शुभाम्‌॥' और विनयमें हनुमान्‌जीका 
उसे घसीट लाना कहा है, यथा--“जयति मंदोदरी केसकर्षन बिद्ममान दसकंठ भट मुकुट मानी।' (विं० २९) 
मतभेदके कारण यहाँ मन्दोदरीका पृथक्‌ नाम देकर नहीं कहा। केवल “नारि' पद दे दिया, इसमें वह भी 
आ गयी। रामचंद्रिकामें भी अज्गभद इस प्रसंगमें मुख्य हैं। पद बड़ा मनोरम और पढ़नेयोग्य है; पर यह नहीं 
मालूम कि किस आधारपर केशवदासजीने यह चरित-चित्रण किया है। वह पद यह है-“भजी देखि कै 
शंकि लंकेशबाला। दुरी दौरि मंदोदरी चित्रशाला ॥ तहाँ दौरि यों बालिको पूत फूल्यो। सब चित्र की पुत्रिका 
देखि भूल्यो॥ गहै दौरि जाकों तजै ताकि ताकों। तजै जा दिशाकों भर्जँ बराम वाकों॥ भले कै निहारी सबै 
चित्र सारी। लहै सुंदरी क्‍यों दरीको बिहारी॥” (१-४) 
वि० त्रि०-मेघनाद तो बंदरोंके लात मारनेको न सहकर उठ पड़ा और त्रिशुल लेकर दौड़ा। परंतु रावणने 
तो अद्गभदके लात मारनेपर आँख उठाकर भी नहीं देखा (यथा-“अस कहि अंगद मारेहु लाता। चितव न 
सठ स्वार्थ मन राता॥?) बंदर लोग दाँतसे काटते हैं, लात मारते हैं पर वह स्वार्थकों आगे किये हुए सब 
सहता जाता है। तब हनुमानजीने यह युक्ति को कि मन्दोदरौका केश पकड़कर खाँच लाये। रावणके रहते 
मन्दोदरीका केश पकड़कर खौंचनेका साहस जैलोक्यमें दूसरा कौन कर सकता था? यथा--“जबति मन्दोदरी 
केसकर्षन बिद्यमान दसकंठ भ्रट मुकुट मात्री।' तब रावण नहीं सह सका; क्रोध करके उठा पर हनुमानूजीपर 
चोट करनेका फिर भी साहस नहों हुआ। कवि कहते हैं कि “गहि चरन बानर डारई।” 
नोट--३ (क) यहाँ रावणके साथ उसको यज्ञसे उठाकर बाहर लानेमें तीन प्रकारके उपाय एकके 
बाद एक किये गये। प्रथम तो अड्भदने कठोर वचन कहे और साथ ही उसे एक लात मारी। फिर 
क्रोधपूर्वक उसे पकड़-पकड़ सभीने लातें मारी और दाँतोंसे काठा। इसपर भी न उठा तब मन्दोदरी आदि 
स्त्रियोंकी चोटियाँ पकड़े, घसीटते बाहर उसके सामने निकाल लाये, इस विचारसे कि अपने सामने अपनी 


* क्पि कोपि तब--(का०) 





दोहा ८४ ( छंद ) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्ये ४५९ लक्ाकाण्ड 





स्त्रियोंकी दुर्गत देखकर कैसा भी निर्लज हो वह भी न सह सकेगा। 

प्रथम उपायसे दूसरा अधिक था (पहले अड्भदने लात मारी, दूसरेमें सब लात मारते और सब काटते 
हैं) और दूसरेसे तीसरा अधिक--यह अन्तिम उपाय था, इससे सफल हुए। यह सार अलझ्जार है। (ख)-बीर 
स्त्रियॉपर हाथ नहीं चलाते। पर ये बहुत क्रोधमें भरे हुए हैं-'सकल कपिर्ह भा क्रोथ बिसेयी। क्रोधमें 
उचितानुचितका विचार नहीं रहता। 'तदपि कठिन दसकंठ सुन छत्रजाति कर रोष” (२३) यहाँ “शत्रुपक्षीय 
प्रत्यवौक' अलझ्भार' है। दूसरा कारण हाथ चलानेका यह है कि रावणने श्रीसीताजीको जबरदस्ती हरण 
किया था, दुर्बचन कहे थे, अशोकवनमें उनके वचन सुन मारने दौड़ा था, इत्यादि, सब अपमानोंके बदलेमें 
बानरोंने उसकी स्त्रियोंकी दुर्गति कौ। रावणने श्रीरामजीकी अनुपस्थितिमें उनका अपमान किया और इन्होंने 
राबणके सामने उसकी रानियोंको बेइज़त किया। 

ब॑० पा०-रावणने स्वत: ऐसा किया था और यहाँ दासोंने ऐसा किया, क्योंकि श्रीरामजी परस्त्रीका 
स्पर्श नहीं करते। 

शीला-रावणने लोकमें चार प्रकारके दण्ड किये--अग्निदण्ड, चौरदण्ड, राजदण्ड और धर्मदण्ड। इन 
चारोंका बदला श्रोरामचन्द्रजीने उसको उसी प्रकारसे दिया- 

(१) अग्निदण्ड-'जेहि जेहि देस थेनु द्विज पावहिं। नगर गाँव पुर आग लगावहिं॥; यह रावणके 
दूतोंने किया। इसका बदला अपने दूत हनुमानजीद्वारा उन्होंने लिया कि लड्ढरा हो जला दी। 

(२) चौरदण्ड--'रावणने (चोरीसे) सीताहरण किया' यथा--'स्रों दससीस स्वान की नाईं। इत उत 
चितड़ चला भड़िहाईं॥#' श्रीरमजीने अपने हाथोंसे उसको चौरदण्ड दिया, यथा--“छत्र मुकुट ताटंक सब 
हते एक ही बान। सबके देखत महि परे मर्म न काहू जानं॥' रावणपर क्रमालड्रारसे यह दण्ड किया 
है--प्रथम छत्रभड्रसे मानो राज्य छीना, मुकुटसे मानो सिर काटे, ताटडू गिरि मानो तरकी उतार ली।' 

(३) राजदण्ड--रावणने अयोग्य राजदण्ड किया कि ऋषियोंसे रुधिररूपी कर लिया। श्रीरामजीने अद्भ॒दको 
अकेले अस्त्ररहित भेजकर इसका बदला लिया कि सब उसकी “लात” से हार गये, कोई चरणको न 
हटा सका। 

(४) धर्मदण्ड-कुबेरके पुत्र नलकूबरकी वधूसे शिवपूजनके समय रावणने बलात्कार किया। इसका 
दण्ड रावणको यज्ञ करते समय यहाँ दिया गया कि वानरोंने उसको मन्दोदरी आदि समस्त रानियोंको 
उसके सामने बाल पकड़कर घसीटकर नग्न कर दिया। 

नोट--४ “तेति दीन युकारहीं” इति। दीन होकर पुकारती हैं जिसमें रावणको एवं इनको करुणा आबे। 
--'क्लोशन्ती करुणं दीना जगाद दशकन्धरम्‌'। (ख) यह भो जनाया कि उन्हें नंगी कर दिया इसीसे वे 
अति दीन हैं। (ग) दोत वचन यह कि तेरे आगे ही हमारी यह दशा और तुझे वीर होकर भी लज्जा 
नहीं, यथा--'तोहि जिअत दसकंधर मोरि कि असि यति होड़।” , (शूर्पणखा-वाक्य) तुझे मर मिटता था, 
तूने श्रीरामजीकी स्त्रीका अपमान किया उसीका यह फल हमको मिल रहा है, करे तू और फल भोगें 
हम? इत्यादि। यथा-'भूमिजा दुःख संजात रोबांतकृत जातना जंतुकृत जातुधानी।' (वि० २९) 

##'मिलान कीजिये--'रावणस्थैव पुरतों विलपन्तीमताथवत्‌। विददाराडड्रदस्तस्था: कझ्जुक॑ रलभूषितम्‌॥' 
'देवगन्धर्वकन्याश्व नीता हट: प्लवड्र्मै:। मन्दोदरी रुरोदाथ रावणस्थाग्रतों भूशम्‌॥ क्रोशन्ती करुणं दीना जगाद 
दशकन्धरम्‌। निर्लज्जोउसि पररेबं केशपाशे विकृष्यते॥ भार्या तबैब पुरतः कि जुहोषि न लण्जसे। हन्यते पश्यतो 
अस्य भार्या पापैश्य शत्रुभि:॥ मर्तव्यं तेन तज्रैव जीवितान्मरणं वरम्‌। हा मेघनाद ते माता क्लिश्यते बत बानरे:॥ 
त्वयि जीवति मे दुःखमीदृर्श च कथ॑ भवेत्‌। भार्या लज्जा च संत्यक्ता भत्रां मे जीविताशया॥ श्रुत्वा तददेवित॑ 
राजा मन्दोदर्या दशानन:। उत्तस्थौ खड्रमादाब त्यज देवीमिति ब्रुबन्‌॥' (अ० रा० १०। २५। २८-३३) 
अर्थात्‌ रावणके देखते-देखते उसके आगे रोती हुई मन्दोदरीका रलभूषित कझ्जुक फाड़ डाला। देवगन्धर्वकी 


मानस-पीयूष ४५२ #% श्रीमते रामचन्द्राय नम: + दोहा ८४, 4५ ( १-२) 





'कन्याओंको वबानर प्रसन्नतापूर्वक पकड़कर रावणके आगे लाये। मन्दोदरी उसके आगे अत्यन्त रोने लगी। 
'करुणापूर्वक अत्यन्त दीन चिल्लाती हुई मन्दोदरी रावणसे बोली--'तू निर्लज्ञ है कि अपनी स्त्रियोंकों झोंटा 
पकड़े घसीटी जाती देखकर भी होममें लगा है, लज्जा नहों लगती। पापी शत्रुओंद्वारा जिसकी स्त्री उसके 
देखते मारी जाय उसको वहां मर जाना चाहिये। उसके जीनेसे मरना अच्छा। हा मेघनाद! बड़ा खेद 
है, तेरी माता बानरोंसे क्लेशित हो रहो है। तुम्हारे रहते हमारी यह दशा क्यों हो? जीनेकी आशासे हमारे 
पतिने लज्जा और स्त्री सबको त्याग दिया। उस मन्दोदरीका रोदन सुनकर राजा रावण तलवार लेकर “देवीकों 
छोड़' ऐसा कहता हुआ उठा।'--(नोट-यह प्रसड्भ अ० रा० में मेघनादवधके पूर्वका है। इसीसे वहाँ 
मेघनादका नाम लेकर कह रही है। मानसमें इसको लेकर विलाप इस प्रकार होता होगा कि 'हा मेघनाद! 
तू जीता होता तो हमारी यह दुर्गति कदापि न होती। तेरा पिता तो निर्लज्ज है, देख रहा है और कुछ 
बोलता भी नहीं। तू यह कब सह सकता!) 
दो०--जज्ञ बिधंसि कुसल कपि* आये रघुपति पास। 
चलेउ निसाचर क्रुद्ध होड़ त्यागि जिबन के आस॥ ८४॥ 
अर्थ--यज्ञविध्वंसमें सब कुशल (निपुण) कपि यज्ञ विध्वंस करके कुशलपूर्बक श्रीरघुनाथजीके पास 
आये। तब निशाचर रावण जीनेकी आशा छोड़कर कुपित होकर चला॥ ८४॥ 
नोट--१ “'कुसल; 'कपि” और “आये' दोनोंके साथ लगता है। कुशलपूर्बक आना इससे हुआ कि 
यज्ञविध्वंसका कार्य करके तुरंत लौट पड़े। नहीं तो उसके क्रोधावेशमें कुशल कहाँ? पुनः, 'कुसल' इससे 
कहा कि पूर्व मेघनाद-यज्ञ भी विध्वंस कर आये थे। अत: इस कार्यमें कुशल हैं। 
पां०-- त्यागि जिबन कै आस'। भाव कि अभीतक तनसे हारा था, मनसे नहीं। जब यज्ञविध्वंस 
देखा तब मनसे भी हार गया; क्योंकि यज्ञक नाशसे उसका नाश होगा-यह देवताने कहा था। [शुक्राचार्यके 
बचनोंमें यह बात नहीं है। जीनेकी आशा न रहनेका कारण एक तो यही है कि श्रीलक्ष्मणजीने दो बार 
उसे मरणप्राय कर दिया था, इन्हींके हाथसे बचना कठिन है और श्रीरामजी युद्धमें आये तब तो न जाने 
कया हो! इनसे अजेय होनेके लिये यज्ञ किया सो पूरा न हुआ, अतः अब जय कठिन समझकर जीनेसे 
निराश हो गया।] 
नोट--२ 'त्यागि जिबवन कै आस कहकर प्रथम ही जना दिया कि अब यह अपना अद्धुत पूर्ण 
पराक्रम दिखायेगा। जब प्राणी प्राणसे हाथ धो बैठता है तब वह अपनी शक्तिसे बाहर कहीं अधिक पुरुषार्थ 
करता है, जी-जानपर खेलता है। इसी तरह प्रथम दिनके दूसरे युद्धमें जब निशिचरोंकों रावणने डाँटा 
और उन्होंने 'तजा प्रा कर लोभा” तब वानर-सेनाको उन्होंने आकर व्याकुल कर दिया था। 
४७>शल्यपर्वमें दुर्योधन-भीम-युद्धेके समय भगवान्‌ने शुक्राचार्यकी नीति अर्जुनसे बताते हुए कहा है कि 
'युद्धमें मरनेसे बचा हुआ शत्रु यदि प्राण बचानेके लिये भाग जाय और फिर युद्धके लिये लौटे तो उससे 
डरते रहना चाहिये, क्योंकि वे एक निश्चयपर पहुँचे हुए होते हैं। उस समय वे मृत्युसे नहीं डरते। जो जीवनकी 
आशा छोड़कर साहसपूर्वक युद्धमें कूद पड़े, उसके सामने इन्द्र भी नहीं ठहर सकते।' 
चलत होहिं अति असुभ भयंकर | बैठहिं गीध उड़ाड़ सिरन्‍्ह पर॥१॥ 
भयउ कालबस काहु न माना | कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना॥२॥ 
अर्थ--चलते समय उसको अत्यन्त भयड्भूर अमड्रल होने लगे। गृश्न उसके सिरॉपर उड़कर बैठते 
हैं॥ १५॥ वह रावण कालके वश हो गया है, वह किसीकी बात एवं किसी अपशकुनको नहीं मानता। 
उसने युद्धेके डंके बजानेको आज्ञा दी॥२॥ 





* मष विधंस कपि कुसल सब-(का०)। 


दोहा ८५ ( ३-४) # श्रीमद्रामचद्भचरणौ शरण प्रपद्ये # ४८३ लड्जाकाण्ड 





नोट--१ “अति असुभ 77“ ” का भाव कि पूर्व जब रावण रणभूमिमें आया था तब भी अपशकुन 
हुए थे, पर बे भयावनेमात्र थे, यथा--“असगुन्र अमित होहिं तेहि काला””””जनु कालदूत उलूक बोलहिं 
बचन परम भयावने॥ ७७॥' और अब “अति भयंकर' है। “अति भयंकर” अर्धात्‌ अब प्राणघातसूचक 
अमंगल हो रहे हैं, यथा--'ततो निष्पततों युद्धे दशग्रीवस्थ रक्षसः। रणे निधनशंसीनि रूपाण्येतानि जज्ञिरे॥', 
““““““एतानचिन्तयन्‌ घोरानुत्पातान्‌ समवस्थितान्‌। निर्ययौ रावणो मोहाद्धधार्थ कालचोदित:॥' ( वाल्मी० 
९५। ४६--४८) अर्थात्‌ जब रावण युद्धके लिये चला तब उसे मरणसूचक ये चिह्न दिखांयी दिये। 
पर वह मोहवश कालप्रेरित अपने वधके लिये चला।-अपशकुनॉका वर्णन विशेष 'असगुन होहिं न 
जाहिं बखानी।' (४७। ७) में. देखिये। 

नोट--२ (क)--“बैठहिं गीध उड़ाड़ सिर्ह पर'। यह अति भयड्भूरता दिखाते हैं कि पूर्व 'गोमायु गीथ 
कराल खर रब”““” ' अधांत्‌ गृश्न भयावने शब्द करते थे, अब वे निःशंक उड़-उड़कर इसके सिरॉपर आ बैठते 
हैं। अर्थात्‌ वे उसे मानो अभीसे मरा हुआ समझकर खाने आते हैं। यह मृत्युसूचक अशुभ है। “डड़ाड़' का 
भाव कि बास्म्बार उड़ते हैं फिर आ बैठते हैं, क्योंकि बह अभी जीवित है। वाल्मी० ९५ में गृश्नोंका ध्वजाके 
अग्रभागपर आ बैठना कहा है, यथा--'ध्वजाग्रे व्यपतदगृश्नो विनेदुश्चाशिवा: शिवा:॥' (४४) (ख) 'भयउ 
कालबस ' यह भी अति भयड्जरताका स्वरूप है। पूर्व 'जनु कालदूत उलूक बोलहिं' से कालदूतोंका आगमन 
उद्पक्षामात्रसे जनाया था और अब स्वयं कालने आकर अपने वश कर लिया। पुन, पहले काल इसके वशमें 
था--'भुज बल जितेहु काल जम साईं।' (१०३। ८) और अब अंपशकुन जनाते हैं कि वह कालके वश स्वयं 
हो गया। (ग) 'कालबस काहु त माना“-ऐसा हो प्रहस्तादिने भी कहा है। यथा-'हित मत तोहि न लागत 
कैसे। काल बिबस कहाँ भेषज जैसे।' (१०। ५), 'मंदोदरिं मत महुँ अस ठयऊ। पियहि काल बस मति भ्रम 
भयऊ॥' (१६। ८), “मंदोदरी हृदय अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना॥ (८। ६) “काल बिबस पति 
कहा न माना। अग जग नाथ मतुज करि जाना॥' (१०३। १३) क्‍या बात न मानी? यह पूर्व ग्रन्थकार दोहा 
३६ (६), १४ (८), ९ (५-६) इत्यादिमें कह आये हैं। श्रीरामजी मनुष्य नहीं हैं, चराचरनाथ हैं, इनसे वैर 
करतेसे कुशल नहीं, मृत्युसूचक अपशकुन हो रहे हैं, युद्धमें इस समय जानेसे कल्याण नहीं है। इत्यादि बाते 
हैं जो उसने न मानीं। पूर्व ७ (९) में असगुन हुए तब भुजबलके विशाल गर्वके कारण उनको कुछ न गिनना 
कहा था। यधा--'असगुत्र अमित होहिं तेहि काला। गन न भुजबल गर्ब बिसाला॥' अब भुजबलका गर्व चूर्ण 
हो गया तब कालवश “काहु न मात्रा 'कहा। ७७ (९) के अनुसार यहाँ 'काहु त मात्र का अर्थ “गन न! (अर्थात्‌ 
काहु सगुनको न माना) भी ले सकते हैं। (घ)--“जुद्ध तिसाता“-युद्धके बाजे, मारू राग बजनेवाले बाजे; 
यथा--'पनव निसान घोर रब बाजहिं। प्रलय समय के घन जनु गाजहिं॥ भेरि नफीरि बाज सहनाईं। मारू राग 
सुभट सुखदाई॥' (७८, ८-९) जो प्रथम युद्धमें बजे थे वही यहाँ भी जानिये। 

चली तमीचर अनी अपारा। बहु गज रथ पदाति असवारा॥३॥ 
प्रभु सन्मुख धाए खल कैसे | सलभ समूह अनल कहाँ जैसे॥४॥ 

शब्दार्थ-पदाति*वह जो पैदल चलता हो, पैदल सिपाही। 

अर्थ-निशाचरोंकी अपार सेना चली। उसमें बहुत-से गज, रथ, पैदल और घुड़सवार हैं॥ ३॥ वे 
दुष्ट प्रभुके सामने ऐसे दौड़े जैसे पतंगोंका समूह अग्निको ओर (जलनेको) चले॥ ४॥ 

नौट--१ “बहु गज रथ पदाति अस़वारा' इति। गज, रथ, पैदल और सवार (सवारमें घोड़े भी आ 
गये) से चतुरंगिणी सेना जनायी। 

पूर्व कहा--“चलेड निसाचर कटक अपारा। चतुरंगिनी अनी बहु थारा॥ (७८। १) 

अब कहा--“चली तमीचर अनी अपारा। बहु गज रथ पदाति असवारा॥ 

इससे जनाया कि पूर्व-युद्धमें जैसो सेना साथ थी बैसी ही अब भी है। पूर्व कई श्रेणियाँ थीं--“बहु 
धारा '/ अबकी बार “धार” पद नहीं है। क्योंकि अब सेना कम रह गयी है। बची हुई सेना लेकर चला। 








मानस-पीयूष ४५४ # श्रीमते रामचन्द्राय लम: + दोहा ८५ (५-६) 


मिलान कौजिये-'स विचार्य सभामध्ये राक्षस: सह मन्त्रिभि:। निर्यवौ येउवशिष्टास्तै: राक्षसै: सह राघवम्‌॥ 
शलभ: शलभैयुंक्त: प्रज्वलन्तमिवानलम्‌।" (अ० रा०) अर्थात्‌ रावण मन्त्रियॉसहित सभामें विचारकर, बचे 
हुए राक्षसोंसहित रामजीके सम्मुख चला। जैसे जलतो हुई अग्निमें पतड़समूह जा गिरते हैं। 

नोट--२ यहाँ “उदाहरण” अलड्ढर है। 

नोट--३ “सलभ समूह अनल कहाँ जैसे” इति। (क) पतंगे स्वयं आगके पास जा उसमें गिरकर 
मर जाते हैं, वैसे ही ये सब श्रीरघुनाथजीके रोषानल वा शरानलमें पड़कर जलेंगे। पतंगे रागसे अग्निके 
समीप जाते हैं और ये द्वेषसे प्रभुके सम्मुख आ रहे हैं। वा, यह कहें कि दोनों मोहवश प्राण गँवाते 
हैं, यधा-“जराहिं पतंग बिमोहबस” (अद्भदवचन), और रावण तो मोहका स्वरूप ही है,-'मोह 
दसमौलि'-(विनय०), “महामोह ममता मद त्यागू।/“-(कालनेमि) (ख)-४छयहाँ भक्तराज श्रोजटायु और 
श्रीलक्ष्मणजीके वचनोंका चरितार्थ है- 

श्रीलक्ष्मणोक्ति- 'होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग।' (५। ५६) 

श्रीजटायु-वाक्य-- राम रोष पावक अति घोरा। होड़हे सकल सलभ कुल तोरा॥' (३। २९। १७) 

(ग)-यहाँ 'अनल' की उपमा दी, दीपककी नहों, क्योंकि निशिचर अपार हैं। पतंगोंका समूह है, 
इनसे दीपक बुझ जायगा, अग्नि बुझेगी नहीं वरन्‌ प्रचण्ड हो जायगी। 

रा० प्र०-जैसे पतंगे अपने साथियोंकों अग्निमें भस्म होते देखकर भी उसमें जा गिरते हैं, वैसे 
ही ये सब दुष्ट देख रहे हैं कि प्रभुके शरानलमें सब राक्षस भस्म होते जाते हैं तब भी मोहबश उनसे 
युद्ध करने जाते हैं। 

इहाँ देवतन्ह अस्तुति* कीन्ही। दारुन बिपति हमहिं एहि दीन्ही॥५॥ 
अब जनि राम खेलावहु एही। अतिसय दुखित होति बैदेही॥६॥ 

अर्थ-इधर देवताओंने स्तुति की कि--'हे राम! इसने हम सबोंको असह्य क्लेश दिया है, अब आप 
इसे खेलाइये नहीं, बैदेही अतिशय दुःखी हो रही है॥ ५-६॥' 

नोट--१ 'इहाँ' से जनाया कि जब रावण उधर सेना तैयार करके चलनेको हुआ, उसी समय इधर 
देवताओंने आकर यह प्रार्थना की। ग्रन्थकार एक हैं इससे एक स्थानका हाल लिखकर तब दूसरी ओरका 
समाचार लिखते हैं। (ख) “दारुत बिपति हमाहिं “““*” इति। पहले देवताओंने अपनी विपत्ति कही क्योंकि 
ये स्वार्थरत हैं, यथा-“आए देव सदा स्वारथी'/ फिर सोचे कि हमारी विपत्तिपर शीघ्र दया न करेंगे, 
भक्तका संकट शीत्र छुड़ाते हैं, उसे नहीं सह सकते, अतः फिर यह कहा कि 'अतिसब दुखित होति 
बैदेही ! यथा--“सहे सुरन्‍्ह बहु काल बिषादा। नरहरि किये प्रगट प्रहलादा॥' (अ० २६५। ५) श्रीसीताजीको 
दु/खित सुनकर करुणायुक्त हो जायँगे, यह देव जानते हैं, हनुमानूजोसे समाचार सुननेपर ऐसा हो चुका 
है, यथा--'सुन्रि सीता दुख प्रभु सुख अबना। भरि आए जल राजिकनयना॥' (५। ३२। १) दुःख सुनकर 
तुरंत चलनेको तैयारी कर दी थी, यथा-“अब बिलंबु केहि कारन कीजँ। तुरत कपिन्ह कहँ आयसु दीजै॥ 
(ख)--“बँदेही” पदसे जनाया कि इतना कष्ट है कि शरीर रहना कठिन है। (प्र० सं०) अथवा, यह 
कि वैदेही होनेसे दुःख-सुखको समान माननेवाली होती हुई भी वे अतिशय दुःख होनेसे अब उसे सह 
नहीं सकतीं। (प० प० प्र०) (ग) श्रीसीताजीका दुःख कहकर अपने दुःख दूर करनेकी प्रार्थनामें 'पर्यायोक्ति 
अलड्जार' को ध्वनि है। “राम” का भाव कि आप सबमें रमण कर रहे हैं; अतएब आप सबकी जानते 
हैं। पुनः यहाँ “खेलाबहु' के सम्बन्धसे (रमु क्रीडायापके भावसे) “राम” पद दिया। भाव यह कि अब 
क्रौड़ा, कौतुक, खेल छोड़िये। 

पं० वि० त्रिपाठीजी-भारी बीर शत्रुको तुरंत नहीं मार देते, उसे अपने पुरुषार्थ दिखानेका पूरा अवसर 





* बिनती-(का०)। 


दोहा ८५ (७-८ ) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्ये # ४५५ लड्ढाकाण्ड 





देते हैं। इससे उनके मारनेमें देर लगती है। लक्ष्मणजीने मेघनादकों अपना पुरुषार्थ दिखानेका पूरा-पूरा 
अवसर दिया। बंदरोंने समझा कि यह अजय है, लक्ष्मणजीका मारा न मरेगा, अतः डर गये, तब लक्ष्मणजीने 
उसे मारा। यथा-- 'देखि अजय रिपु डरपे कीसा। परम क्रुद्ध तब भएउ अहीसा॥ लक्षिमन मन अस मंत्र 
दृढ़ावा। एहि पापिहि मैं बहुत खेलावा॥' यही हाल देवताओंका हुआ, ये भी डरे हुए हैं। यद्यपि जानते 
हैं कि रावणकों भी सरकार खेला रहे हैं। पहिली लड़ाईमें स्वयं नहीं उठे। यद्यपि रावणकी सेना भाग 
गयी, फिर भी उनका संहार तो नहीं हुआ। अब भी अपार सेना लिये रावण चला आ रहा है और 
सैनिक भी उत्साहके साथ दौड़े चले आ रहे हैं। (यथा--'प्रभु सनमुख धाए खल कैंसे। सलभ समूह 
अनल कहाँ जैसे॥) अत: उसके लिये बिनती करते हैं कि हमलोग तो समझ रहे हैं कि आप रावणको 
खेलाते हैं पर वैदेही तो ऐसा नहीं समझ सकतीं, वे अत्यन्त दुःखी हो रही हैं (सारांश यह कि बिना 
सरकारके उठे निशिचरोंका संहार नहीं होगा, अत: दूसरे शब्दोंमें यही प्रार्थना है कि अब सरकार उठें)। 
देव बचन सुनि प्रभु मुसुकाना। उठ रघुबीर सुधारे बाना॥७॥ 
जटाजूट दृढ़ बाँध माथे। सोहहिं सुमन बीच बिच गाँथे॥८॥ 

अर्थ-देवताओंके वचन सुनकर प्रभु मुसकराये। फिर श्रीरघुनाथजीने उठकर बाण सुधारे॥ ७॥ मस्तकपर 
जटाओंके जूड़ेको दृढ़ करके (कसकर) बाँधा (जिससे संग्राममें खुल न जाय), जटाओंके बीच-बीचमें 
गुँथे हुए फूल शोभित हो रहे हैं॥ ८॥ 

नोट--१ “देव बचन सुनि प्रभु मुसुकात्ा' इति। “'मुसुकात” (क) उनकी चतुरतापर कि अपना भय 
न कहकर हमारे चित्तमें क्षोभ उत्पन्न करनेके लिये वैदेहीका अतिशय दुःखी होना कहते हैं। (ख)-इससे 
उनपर अपना अनुग्रह सूचित किया, यथा--“हृदब अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा॥' (१। 
१९८। ७) भाव कि हम आपकी प्रार्थना अड्जौकार करते हैं, शीघ्र आपका दुःख दूर करेंगे। वा, (ग)-इससे 
हँसे कि देखिये तो सुखून्द अब जानकीजीपर बड़ी मया करते हैं और पहिले सरस्वतीको प्रेरित कर 
इनको नंगे पैर वनमें भेजवाया था तब दया न थो+-(पं०, पु० रा० कु०) वा, (घ) हँसे यह कि मैं 
तो सैनासहित क्लेश सह रहा हूँ और देवता इन ब्लेशोंको खेल खेलना समझते हैं। पुन;, पहिले तो 
जानकीजीकों वनवास दिलानेकी युक्ति की थी और अब कह रहे हैं कि जानकीजी दुःखित हो रही हैं। 
अथवा, अपनी लीलाकी विचित्रताको विचार कर हँसे। (मा० म०) 

च० प० प्र०-(१) देवता ऐश्वर्यभावसे स्तुति कर रहे हैं। अतः ऐश्वर्यभाव दबाकर उनमें माधुर्यभाव 
जाग्रतू करनेके लिये अपनी दैवी मायाको हँसकर प्रेरित किया। यथा--'उपजा जब ज्ञात्रा प्रभु मुसुकाना।' 
(१। १९२), 'मन मुसुकाहिं राम सुनि बानी।' (१। २१६) पुनः, हास्यमें देवोंकी स्वार्थपरायणतापर दृष्टि 
है कि ये ही सब कलेशोंके मूल हैं, यहाँ दयाका स्वाँग दम्भ करते हैं। पुनः हँसकर रावण-सेनाके साथ 
युद्ध करनेको अपनी विद्यामायाको प्रेरित किया। प्रबल शत्रुका संहार करनेकी तैयारीके समय हास्वद्वारा 
अपनी माया-शक्तिको इस तरह प्रेरित किया करते हैं। यथा--'देखि राम रिपुदल चलि आवा। बिहँसि कठिन 
कोदंड चढ़ाबा॥' (३। १८। १३), 'दूतर्ह कहा राम सत्र जाईं। सुत्तत राम बोले मुसुकाई॥' (३। १९। ८), 
"निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसलथनी।' (६। ८८) “प्रभु मुसकान समुझि अभिमाना। 
चाय चढ़ाड़ बान संधाना॥' (६। १३। ८), “सुर बानर देखे बिकल हँस्‍्थों कोसलाधीस।” (९५ छन्द) इत्यादि। 

नोट--३ मुसुकानेके साथ “प्रभु” सामर्थ्यवाचक पद दिया और वीर बाना सजनेके सम्बन्धसे 'रघुबीर” कहा। 

'प० प० प्र०-यहाँ 'रघुबीर” से पश्वीरतायुक्त जनाया। देवॉपर कृपा करेंगे (यह कृपाबीरता), शत्रुओंको 
मुक्ति देनेमें दानवीरता, रावणादिके वधर्में युद्धवौरता, धर्मयुद्ध करनेमें धर्मबीरता और प्रभु हैं, सब कुछ 
जानते हैं, अभी रावणके क्षयका समय आया नहीं है, इससे कुछ देर खेलेंगे, जैसे गरुड़ सर्पसे खेलता 
है, इससे “विद्यावीरता' सूचित हुई। 


मानस-पीयूष ४५६ +# श्रीमते रामचन्द्राय नम: # दोहा ८५ ( ९-१० ) छंद 





नोट--३ जटाजूटका बाँधना यहाँ रावण-युद्धमें कहा और पूर्व खरदूषण-युद्धमें भी कहा था, यथा--'सिर 
जटाजूट बाँधत सोह क्‍्यों”। अन्यत्र यह छबि नहीं कही गयी। ऐसा करके रावण और खरदूषणकी समता 
दिखायी--“खरदूषन मोहि सम बलवंता।' (३। २३। २) दोनोंका मिलान देखिये- 
रावणयुद्ध-प्रसड्र खरदूषणयुद्ध-प्रसड़ रावणबुद्ध-प्रसज्ष खरदूषणयुद्ध-प्रसज्भ 
प्रभु मुसुकाने १ बिहँसि कर कोदंड कठिन सारंगा. ७ कठिन कोदंड चढ़ावा 
रघुबीर सुधारे बान_? बिसिख सुधारि कै भुजदंड पीन मच्रोहर < बिसाल भुज गहि चाप 
जदाजूट दृढ़ बाँधे माथे ३ सिर जठाजूट बाँधत सोह हरपे देव बिलोकि छवि... ९ हम भरे जनम सुनहु सब भाई। 


अरुन नयन ४ चितवत मनहु मृगराज प्रभु“ देखि नहिं असि सुंदरताई॥ 

कठितट परिकर कसेउनिषंगा ५ काटि कसि निषंग १० दोनों जगह छबि-वर्णनमें 
एक-एक हन्द भी है। 

तन कारिद स्थामा ६ मरकत सैल यहाँ ३॥ अर्धालियाँ ११ यहाँ ४॥ अ्धालियाँ 


पं०-यहाँ जटाओमें पुष्पोंका गुँधा होना इससे कहा कि रणसमय शूरबीर रज्ञित वस्त्र और कलँगी 
धारण करते हैं, इत्यादि। रघुनाथजी बनवासमें हैं अत: उन्होंने जटाओमें पुष्प ही धारण किये। 
अरुन नयन बारिद तनु स्थामा। अखिल लोक लोचनाभिरामा॥ ९॥ 
कटि तट परिकर कस्यौ निषंगा। कर कोदंड कठिन सारंगा॥१०॥ 
शब्दार्थ-परिकर-कटिवस्त्र, कटिबंधन। शार्ड्-६६ (१) देखिये। 
अर्थ-लाल नेत्र और श्याममेघवत्‌ साँवला शरीर समस्त लोकोंके (अर्थात्‌ लोकवासियोंके) नेत्नोंकों आनन्द 
देनेवाला है॥९॥ कटिदेश (कमरमें) कटिबन्धनसे तरकश कसा हुआ है। हाथमें कठिन शार्ड्रंधनुष है॥ १०॥ 
रा० प्र०--'अरुन गयनर' स्वाभाविक हैं। अथवा इस समय देवस्तुति सुनकर उनके दुःखहरणके विचारसे 
नेत्र अरुण हो गये हैं जो रोषभावके सूचक हैं। 
नोट--'अखिल लोक लोचनाभिरामा'/ अखिल लोकके नेत्रोंको सुखदायक कहा। यह सत्य हो है। शूर्पणखा, 
खरदूषणादि भी इनको देखकर मोहित हो गये थे तब औरोंकी कहनी ही क्या? मिलान कीजिये-'करु सुफल 
सब के नयन सुंदर बदन देखाड़।' (१। २१८), 'मुनि पद कमल बांदि दोउ ध्राता। चले लोक लोचन सुखदाता॥' 
छंद--सारंग कर सुंदर निषंग सिलीमुखाकर कटि कस्यौ। 
भुजदंड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यौ॥ 
कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे। 
ब्रह्मांड दिग्गज कमठ अहि महि सिंधु भूधर डगमगे॥ 
शब्दार्थ-धरासुर-महिदेव-ब्राह्मण; भृगुजी। 
अर्थ--सुन्दर हाथमें सुन्दर शार्ड्र धनुष है, कमरमें बाणोंको खानिवाला (अर्थात्‌ अक्षय, जिसमेंसे बाण बराबर 
जितने चाहें उतने निकलते जाये, कभी वह खाली न हो सके) तरकश कसा हुआ है। भुजदण्ड पुष्ट और सुन्दर हैं, 
चौड़ी ( विस्तीर्ण) छातीपर भृगुजीका चरण शोभित है । तुलसीदासजो कहते हैं कि ज्यों ही प्रभु हाथोंमें धनुषबाण लेकर 
फिराने लगे त्यों ही ब्रह्माण्ड, दिशाओंके हाथो, कच्छप, शेष, पृथ्वी, समुद्र और पर्वत सभी डगमगाने लगे। 
नोट--१ इन सबका डगमगाना भयका कारण है कि न जाने क्या होनेवाला है, यथा-“लबन सकोप 
बचन जब बोले। डगमगानि माहि दिग्गज डोले॥ सकल लोक सब भूष डेराने।' 
नोट--२ देवताओंको धैर्य देनेके लिये धनुषबाण फेरनेका चरित किया गया कि जब इतमेमें ब्रह्माण्डादिक 
काँप उठे तब हमारे कोपकर बाण चलानेपर रावण कहाँ रह सकता है? 
शीला-यहाँ वीररसके ध्यानमें 'भृगुलता' का वर्णन करनेका भाव यह -है कि यह चिह ब्रह्मण्यधर्मसे 
रामजीकी जय सूचित करता है--[आगे राम-रावण दृन्द्रयुद्धे समय रथपर चढ़ते समय “विप्रचरण' को 


दोहा ८५, ८६ ( १-२) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणी शरण प्रपद्ये # ४५७ लक्भाकाण्ड 





माथा नवाकर युद्ध प्रारम्भ करेंगे। अतः यहाँ यह ध्यान भी उपयुक्त और साभिप्राय है]। 
च० प० प्र०--इस छन्दमें श्ृज्ञार, वीर और भयानक तथा अद्धुतरसोंका वर्णन है। अरण्यकाण्ड दोहा 
१८ के छन्द्रमें (खरदूषणयुद्ध-समय) केवल वीररसका ही वर्णन है। यह छन्द मानो राम-रावण-युद्धका 
मड़लाचरण ही है। 
दो०--सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार। 
जय * जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार॥८५॥ 
अर्थ-श्रीरामजीकी शोभा देखकर देवता प्रसन्न होकर फूलॉकी अपार वर्षा करने लगे और 'छबि, 
बल एवं गुणोंके धाम करुणासागरकी जय हो! जय हो!' इस प्रकार जय-जयकार करते हैं॥ ८५॥ 
नोट--पुष्पोंकी वर्षासे हर्ष, मंगल और सेवा प्रकट करते हैं। 'करुनानिथि” आदि विशेषण देकर जय-जयकार 
करते हैं। देवताओंकी विनय सुनकर उनके दुःखहरणके लिये उठकर बाणादि सुधारना करुणा सूचित करता कर 
अतः 'करुनानिधि' कहकर जय-जयकार किया। 'छबिके आगार' कहकर जयकार किया क्योंकि इस समयकी 
छटा 'अरुत नयन बारिद तु स्थामा', “अखिल लोक लोचन अभिरामा' है, रावण-वधसे सारे ब्रह्माण्ड सुखी 
होंगे। 'बल आगार' कहा क्योंकि शर-चाप फेरनेमा्से ब्रह्माण्ड आदि काँप उठे। “गुन' से यहाँ रणमें विजय 
प्राप्त करनेवाले सब गुण एवं सब दिव्य गुणोंसे तात्पर्य है। इन गुणोंसे पूर्ण सम्पन्न देखकर 'गुत आगार” कहा। 
एही बीच निसाचर अनी। कसमसात आईं अति घनी॥१॥ 


देखि चले सन्मुख कपि भट्टा। प्रलय काल के जनु घन घट्टा॥२॥ 
शब्दार्थ--कसमसात-एक ही स्थानपर बहुत-से व्यक्तियोंका एक-दूसरेसे रगड़ खाते हुए. हिलना-डोलना। 
कुलबुलाना। 

अर्थ-इसी बीचमें बहुत घनी राक्षस-सेना कसमसाती हुई आयो॥ १॥ उसे देखकर बानर योद्धा 
(इस प्रकार उनके) सम्मुख चले मानो प्रलयकालके बादलोंका उमड़ता हुआ घना समूह हो॥ २॥ 

नोट--१ (क) ऊपर जो दोहा ८५ (३) में कहा था कि “चली तमीचर अनी अपारा।““” ' उसका 
अर्थ यहाँ खोला कि ऐसी अपार थी कि कंधे-से-कंधा रगड़ती चलती थी। (ख) पूर्व जो प्रसंग “प्रभु 
सनमुख थाये खल कैसे।/““““” (८५। ४) पर छोड़ा था वह यहाँ फिर उठाया। बीचमें देवताओंकी बिनती 
और उसे सुनकर श्रीरघुवोरजीका युद्धेक लिये उठना तथा उनकी छबि आदि कहने लगे थे। अब “एही 
बीच-“““ कहकर उस प्रसंगसे मिलाया। (ग) इस प्रसंगमें रावणको कालबश कहा, यथा--'भबउ कालबस 
काहु न माना” और उसकी सेनाकों पतज्भ कहा, यथा-'सलभ समूह अनल कहँ जैसे” तथा वानरसेनाकों 
प्रलयकालके उमड़ते हुए बादल कहा, 'प्रलयकाल के जनु घन घट्टा 

बं० पा०--प्रलयकालके बादलोंकी उत्प्रक्षाका भाव यह है कि जैसे प्रलय करनेके लिये प्रलयके 
बादलसमूह वर्षा करते हैं वैसे ही ये वानर व भालु गिरि-तरूकी वर्षा कर राक्षसोंका प्रलय करनेके लिये 
चले +-मानसमुखबंदमें निशाचरॉंसे युद्धको घोर वर्षा कहा हो है, यथा--'बर्षा घोर निसाचर शरीं। (१। डर। ५) 
आगे वर्षाका साड्ररूपक कवि स्वयं देते हैं। 

'च० प० प्र० स्वामीका मत है कि 'प्रलय कालके बन घट्टा' निशाचर अनी है। वे लिखते हैं कि प्रलयकालके 
चन बहुत काले होते हैं और उनमें ही बिजली चमकती है। अतः 'प्रलय कालके घन घट्टा।' को राक्षस- 
सेना-समूहके साथ ही लेना सयुक्तिक है। दोहा ४५ (९) में “प्राबिट सरद पयोद घनेरे। लरत मनहु मारुत 
के प्रेरे॥” कहा है। वहाँ 'प्राबिट पयोद' काले निशाचरॉंके लिये और “शरद पयोद” नाना वर्णके भालु कपिवीरोंके 








* पाठान्तर-'हरपे देव बिलोकि छबि बरषहिं सुमन अपार। 
जय जय प्रभु गुन ग्यान बल धाम हरन महिभार ॥-(का०) 


मानस-पीयूष ४५८ # आ्रीमते रामचन्द्राय नम: # दोहा ८६ ( ३-६ ) 





लिये कहा ही है। गर्जन भी मेथोंमें हो होता है। अतः 'प्रलय कालके जनु बन बढ” से 'गर्जाहिं मनहूँ 
बलाहक थोट” तक राक्षस-सेनाका वर्णन है। और “कि लंगूल बिपुल नभ छाए। मनहुँ इद्धधनु उए सुहाए॥ 
में कपि-सेनाका विविध वर्णोका होना 'इद्धधनु' से सूचित किया। इन्द्रघनु तब दिखायी देता है जब कि 
एक दिशामें सूर्यप्रकाश छा रहा हो और विरुद्ध दिशामें वृष्टि होती है। अत: वर्षाका वर्णन भी करना चाहिये। 
अभी श्रीरामजीने बाणोंकी वृष्टि नहों को है। अतः बाण बुन्द-वृष्टि निरुद्ध बाजूकी हो समझनी चाहिये। 
यहाँ एक तरफ रघुवीररूपी सूर्य प्रकाशमान हैं, सामने राक्षस-सेनारूपी घनमण्डलसे वृष्टि हो रहो है और नाना 
वर्ण कपि लांगूलरूपी इद्रधनु इन मेघोंमें देख पड़ते हैं। इससे सूचित किया कि राक्षस बीरोंसे कपि वीर भिड़ 
गये हैं। अन्यथा इन्रधनुका दर्शन सम्भव नहीं। यह साड्ररूपक दोहा ८६ (७) में पूर्ण हुआ। 

परन्तु अन्य सभी टीकाकारोंका मत वही है जो ऊपर दिया गया। यहाँ वानर-सेनाका राक्षसॉंकी ओर 
चलना उत्प्रेक्षाका विषय है। प्रलयकालके बादल नाश करनेके लिये उमड़ते चलते हो हैं बैसे ही ये चले। 
यह “उक्तविषयावस्तूप्रेक्षा अलड्भार' है। 

'प० प० प्र०-१ यहाँसे कविके हृदयमें भी बीररसका बड़ा सझ्लार हो रहा है जिसका परिणाम यह 
है कि स्वाभाविक ही भाषामें ओज बढ़ गया। “भरट” का “भ्ट', “घटा” का “बहा: 'चमकहि” का “चमंकहि' 
और “दमक' का दमंक रूपमें प्रयोग होने लगा। 

२ “एही बीच”“””” के दोनों चरणोंमें एक-एक मात्राकी कमीका भाव जाननेके लिये दोहा ८४, 
८५ का सन्दर्भ ध्यानमें लाना चाहिये। इन शलभोंको अग्निकी ओर दौड़े जाते देख श्रोशिवादि देवोंको 
उनपर तरस आ गया कि ये बड़े मूर्ख हैं, व्यर्थ जल मरेंगे। 'मरन मन्त महुँ ठानि” चले हैं, अतः घनघोर 
भयंकर बीभत्स युद्ध होगा, इत्यादि भाव मात्राकी न्यूनताद्वारा सूचित किये। 

बहु कृपान तरवारि चमंकहिं। जनु दह दिसि दामिनी दमंकहिं॥३॥ 
गज रथ तुरग चिकार कठोरा। गर्जहिं* मनहुँ बलाहक घोरा॥४॥ 
शब्दार्थ--बलाहक-मेघ, यथा--'अभ्न॑ं मेघो बारिवाहस्तनबिलुर्बलाहक: ' इत्यमर:। दमंकहिं (दमकना)« 
चमचमाना, चमकना। चिकार«चिघाड़; चौत्कार, भारी शब्द। दहनदस। 

अर्थ-बहुत-से कृपाण (द्विधारा खडग) और तलवारें चमक रही हैं मानो दसों दिशाओंमें बिजलियाँ 
चमचमा रही हों॥३॥ हाथी, रथ और घोड़ोंका कठोर शब्द ऐसा जान पड़ता था मानों भयंकर मेघ घोर 
गर्जन कर रहे हैं॥४॥ 

पां०-दसों दिशाओंमें चमकना कहकर जनाया कि आठों दिशाओं-विदिशाओंमें राक्षसी सेना है। तलबारें 
ऊपर उठती हैं तब आकाशमें चमक हुई। [अथवा, जो आकाशमें उछलकर चलाते हैं उनकी आकाशमें 
चमकती हैं। (वै०)] जब हाथसे गिरकर पृथ्वीपर आती हैं तब यहाँ भी चमकती हैं; इस तरह दसों 
दिशाएँ हुईं। सीधी तलवार टेढ़ी हो-होकर चमकती है, इसीसे बिजलीके समान देख पड़ती है। 

नोट-ऊपर प्रलयके बादलोंकी उत्प्रेक्षा की। अब वर्षा-ऋतु और युद्धका साम्जरूपक देते हैं। मेघ, मेघोंका 
गर्जन, बिजली, इन्द्रधनुष, जलवृष्टि एवं वज्रपात आदि वर्षके अड्जग हैं, वे सब यहाँ कवि दिखाते हैं। 

कपि लंगूर बिपुल नभ छाए। मनहु इंद्रधनु उए सुहाए॥५॥ 
उठे धूरि मानहु॒ जल धारा। बानबुंद भट्ट बृष्टि अपारा॥६॥ 
अर्थ-वानरोंकी बहुत-सी पूँछें आकाशमें छायी हुई हैं मानो सुन्दर इन्द्रधनुष उदय हो गये हैं॥५॥ 
धूलि ऐसी उठ रही है मानो जलकी धारा हो। बाणरूपी बूँदोंकी अपार वृष्टि हुई॥६॥ 
नोट-इन्द्रधनुषमें सात रड्ढ होते हैं-हरा, नारंगी, लाल, पोत, नौला, भूरा और बनफशई। वैसे ही 





* गर्जत (का०)। “गर्जहिं'--(रा० गु० द्विग, भा० दा०)। 


दोहा ८६ (७--१० ) # औमद्रामचन्द्रवरणौ शरण प्रप्ये $ ४८९ लड्ढाकाण्ड 





यहाँ वानर भी अनेक रड्डके हैं। दूसरी समता यह है कि वानर पूँछ धनुषाकार उठाये हुए हैं। तीसरे 
यह भी जनाया कि वे सब धनुषाकार आकाशरमें छाये हैं। 

पं०-धूलके कण जो निरन्तर पड़ते हैं बे इतने सघन हैं कि कोमल जलकी धारा बरसती मालूम 
होती है और बाणोंकी वृष्टि उग्र वृष्टि है जो छेदनेवाली है। 

दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा | बज़पात जनु बारहिं बारा॥७॥ 
रघुपति कोषि बान झरि लाईं। घायल भै निसिचर समुदाई॥८॥ 
अर्थ-दोनों ओरसे पर्वतोंका प्रहार किया जा रहा है, मानो बारम्बार वज़पात हो रहा है॥ ७॥ श्रीरघुनाथजीने 
कोप करके बाणोंकी झड़ी लगा दी, जिनसे निशिचरॉका समुदाय (समूह, सेना) घायल हो गया॥ ८॥ 
बं० पा०--वर्षाकी झड़ी लगती है तब पथिक ठहर जाते हैं, वैसे हो यहाँ निशाचररूपी पथिक घायल 
होकर झड़ीके मारे रणभूमिपर पड़े हैं। बाणोंकी झड़ी वर्षाकी झड़ी है। (पां०) 

६७" “हुँ दिसि पर्वत करहिं प्रहारा: यह सेनाका सेनासे युद्ध कहा गया। “रघुपति कोपि बान झारि 
लाई! यह श्रीरामजीका निशिचर-सेनापर कोप कहा। वाल्मी० ९३ में भी पहिले राक्षसों और बानरोंका 
युद्ध है जिसमें अन्तमें राक्षस-सेना प्रबल पड़ी और बानर श्रोरामजीकी शरण गये। श्रीरघुनाथजीने बाणवृष्टि 
की, वे उस समय अलातचक्रके समान देख पड़ते थे। “कोपि बान झरि लाईं' से वाल्मी० ९३ की 
कथा वहाँ सूचित कर दी है। यधा--'ततो रामों महातेजा धनुरादाय वीर्यवान्‌। प्रविश्य राक्षस सैन्य शरबर्ष' 
बवर्ष च॥ छिन्त॑ भिन्न शरैर्दग्धं प्रभग्नं शस्त्रपीडितम्‌। बल॑ रामेण ददृशुर्न राम॑ शीघ्रकारिणम्‌॥' अर्थात्‌ 
तेजस्वी वीर श्रीरामजी धनुष लेकर राक्षससेनापर बाणवृष्टि करने लगे। श्रीरामजीका बल ऐसा सब निशाचरोंने 
देखा कि बाणोंद्रारा निशाचर-सेना छिन्त-भिन्‍्त कर दी गयी, जल गयी, डुकड़े-टुकड़े हो गयी। शस्त्रसे 
पीड़ित ऐसी सब सेना देख पड़ती थी पर श्रोगमजीको कोई न देख सकता था कि जो कार्यमें बड़े 
शीघ्रकारी हैं। (वाल्मी० ९३॥ १८, २२) 

बि० त्रि०-'रघुपति कोपि”““समुदाई” इति। पहिले जो कहा है कि “बर्बा घोर निसाचर श्री! सो 
यहाँ वर्षाका बड़ा सुन्दर रूपक खाँचा गया है। इतनी बड़ी लड़ाई कोई दूसरी लड्ढामें नहीं हुई। मेघनाद 
और लक्ष्मणजीकी लड़ाई बड़ी गहरी हुई, उसमें रक्तसे गड्ढे भर गये। यथा--'भरेड गाड़ भरि भरि रुधिर' 
पर रुधिरकी नदी तो इसो लड़ाईमें बही। रुधिर थोड़ा समय पानेसे जम जाता है। उसकी नदी तो तभी 
सम्भव है जब बहुत अधिक मात्रामें रुधर बहता ही चला आबे, और यह सारी सेनाके बिना एक साथ 
घायल हुए सम्भव नहीं। अतः कहते हैं कि रामजोने ऐसी बाणोंकी झड़ी बाँध दी कि सारी-कौ-सारी 
सेना घायल हो गयो। अतः आगे चलकर रुधिरकी नदीका बहना कहा जायगा। जब वर्षामें पानीका झर 
लगता है तभी नदी बह चलती है। 

'प० प० प्र०--रघुपति कोषि” कहकर जनाया कि रघुवंशियोंका 'आर्तत्राणाय नः शस्त्रम्‌' यह आर्तरक्षक 
विरद स्मरण करके श्रीरामजी क्रुद्ध हो गये। 

लागत बान बीर चिकरहीं। घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीं॥९ ॥ 
स््रवहिं सैल जनु निर्झर भारी*। सोनित सरि कादर भयकारी॥ १०॥ 
अर्थ-बाणोंके लगते हो वीर चीत्कार करते हैं, और चक्कर खा-खाकर मूर्ज्छित होकर जहाँ-तहाँ 
पृथ्वीपर गिरते हैं॥९॥ (वे ऐसे देख यड़ते हैं) मानो पर्वतके भारी झरनोंसे पानी गिर रहा हो। रुधिरकी 
नदी (बहने लगी जो) कादरोंकों भयभीत करनेवाली है॥१०॥ हि 
नौट-१-राक्षस पर्वत हैं, बाणकृत घाव झरने हैं, रुधिरकी धारा निकलना झरनेसे पानौका गिरना 
है, वीरॉंका बाण लगनेपर चीखना झरनेका शब्द है। खून बहकर पृथ्वीमें बह चला वहीं रुधिर नदी है। 





* बारी-(का०)। ' भारी'--(रा० गु० द्वि०, भा० दा०) 


मानस-पीयूष ४६० # श्रीमते रामचनन्द्राय नम: # दोहा ८६ ( छंद ) 





बं० पा०--'पुर्मि घुर्मि“““।” यह मानो वर्षामें वृक्ष टूट-टूटकर गिरते हैं। 
छंत--कादर भयंकर रुधिर सरिता चली* परम अपावनी। 
दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी॥ 
जलजंतु गज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने। 
सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरंग चर्म कमठ घने॥ 
शब्दार्थ--चक्र>पहिये | । रेत-बालू । अवर्त ( आवर्त)-भँवर, घुमाव, भँवरके चक्कर। तोमर-सबरी, सर्वला। 
अर्थ-डरपोकोंके लिये भय उपजानेबाली परम अप॒वित्र रक्तकी नदी बह चली। दोनों दल इस नदीके 
दोनों किनारे हैं, रथ रेत हैं, पहिये भँवर हैं। यह नदी बहुत भयावनी बह रही है। गज, चैदल, घोड़े 
और गदहे (खच्चर) आदि जो अनेक सवारियाँ हैं, जिनको कौन गिना सकता है, वे हो अनेक जलके 
जीव हैं। बाण, शक्ति और तोमर सर्प हैं, धनुष तरड्रें हैं, ढाल कछुऑका समूह है। 
नोट--१ "सरिता घली परम अपावरी' बाणोंकी वृ्टिसे राक्षसोंके शरीररूपी पर्वतोंके घाबोंरूपी झरनोंसे 
रुधिस्सरिताका बहना ऊपर कहा गया। वर्षाकों नदी स्पर्शयोग्य नहीं होती वरन्‌ अपावन समझी जाती है 
वैसे ही यह अपावन है। ('बान बुंद भड़ वृष्टि अपारा: एवं 'बान झरि लाई! जो पूर्व कहा है उसके 
सम्बन्धसे इसे वर्षाकी नदी कहा है।) (पं०) बं० पा० जी लिखते हैं कि बाढ़में तीन दिन नदियाँ अपावनी 
रहती हैं। और यह तो रुधिरकी नदी है अतः इसे परम अपावनी कहा। आगे नदीका रूपक देते हैं। 
पु० रा० कु०-१ (क) नदी समुद्रको जाती है, यथा--'रामसरूप सिंथु समुहानी' 'उम्रगि नदी अंबुधि 
कहाँ आईं; 'चली बिपति बारिधि अनुकूला ' और 'सरिता जल जलनिधि महँ जाई। होड़ अचल। 'यह रुधिरसरिता 
“परम अपाव्नी” है, अर्थात्‌ यम-पुर-समुद्र-गामिनी है यथा--'शोणितौघमहातोयां अमसागरगामिनीम्‌।' 
(वाल्मी० ५८। २९) 
नोट--२ (क) “दोड कूल दल“-दोनों ओरकी सेना दोनों किनारे हैं। नदीकी काट एक तरफ होती 
है वैसे ही निशाचर-दलरूपी तट कट रहा है, उस दलके रथ आदि भी कट रहे हैं। (ख) 'रथ रेत” 
इति। रथ जो बाणोंसे टूटकर गिरे उनके छत्र और टुकड़ोंके ढेर बालूके समान देख पड़ते हैं। (ग) “चक्र 
अबर्त ' अर्थात्‌ रथोंके पहिये जो रुधिरधारमें पड़े बह रहे हैं वे भँवर-से जान पड़ते हैं। दोनों मण्डलाकार 
होते हैं और दोनों ही बारम्बार चक्कर लेते हैं, यह समता है। नदी जिसमें भँवर बहुत हों वह भयावनी 
होती हो है और फिर यह तो रुधिरसरिता है, इसके भयावनपनका कहना क्‍या? इसीसे अवर्त कहकर 
भयावनी कहा। (घ) “जल जंतु““““” नदीमें मगर आदि जलचर होते हैं। इस युद्धमें जो हाथी, पैदल, 
घोड़े आदि मरकर रुधिरप्रवाहमें गिरकर बह रहे हैं बे ही जलचरोंके समान हैं। (डा) 'बिबिथ बाहत 
को गने' इति। वाल्मीकिजी लिखते हैं कि वायुवेगवान्‌ रथॉंकी १० हजार सेना, शीघ्रगामी हाथियोंकी १८ 
हजार सेना, १४ हजार घोड़े और घुड़सवार और पूंरे दो लाख पैदल राक्षसोंकी सेनाको एक रामचन्द्रजीने 
दिनके आठवें भागमें अग्निके समान बाणोंसे मारा।-(वाल्मी० ९३। ३-३२) (च) “सर सक्ति तोमर 
सर्प-बाण, शक्ति और तोमर ये लंबे होते हैं। &छ'ये आयुध नदीमें बड़ी जोरसे बहे जा रहे हैं, अतः 
इन्हें सर्प कहा। बाणोंकों सर्पकी उपमा दी ही जाती है। यधा--“रघुनायक सायक चले लहलहात जनु 
ब्याल।' बं० पा० जी लिखते हैं कि “सर्पको उपमा देकर जनाया कि कभी डूबते और कभी उतराते 
चले जाते हैं'। सर्प चमकौले भी होते हैं बैसे ही ये बाण, शक्ति आदि चमकौले हैं। (छ) “चाए तरंग --दोनोंकी 


* बढ़ी (का०)। ॥ “चक्र: कोके पुमान्‌ क्लीबं ब्रजे सैन्यरथाड़यो:। राष्ट्र दम्भान्तरे कुम्भकारोपकरणास्त्रयो: ॥ 
जलावर्तेडपि इति हैम:॥' अर्थात्‌ चक्र कोक अर्थमें पुल्लिड्न है। ब्रज, सैन्य और रथाड़ अर्धमें नपुंसक लिड्ढ है, राष्ट्र 
दंभान्तर, कुम्हारका उपकरणास्त्र और जलावर्त--इन अर्थोमें भी नपुंसक लिड्र है। 





दोहा ८६ # श्रीमद्रामचन्द्रवरणौ शरण प्रपद्यो # ४६१ लड्जाकाण्ड 





विषमता वा, टेढ़ेपनकी समता लेकर यह रूपक दिया। (पु० रा० कु०) सहस्तरों धनुष जलतरंगके समान 
रुधिरधाराके पृष्ठभागपर तैरते हुए बहे जाते हैं। (प० प० प्र०) (ज) चर्म (ढाल) और कमठमें आकारकी 
समता है। (पु० रा० कु०) ये कछुओंके समान ऊपर और भीतर बहती हैं (प० प० प्र०)। “बने” अर्थात्‌ 
बहुत हैं एवं सघन हैं। 

'प० प० प्र०-१ (क) इस छंदके अन्तिम चरणमें “चर्म कमठ घने” में (“क' पर) छन्दोभड्ग निर्माण 
किया है। “क' के पश्चात्‌ दीर्घ अक्षरकी आवश्यकता थी, जैसे 'पावर्नी” 'यावतरी' 'कों गने” में है। छन्दोभज़ 
करके “कादर भबंकर“-भाव चरितार्थ करके बताया है। कायरोंके हृदय धड़कने लगे, भयसे वाणी रुक गयी 
इत्यादि भयके अनुमान ध्वनित किये। (ख) 'सोनित सरि कादर भयकारी” उपक्रम हैं। “कादर भयंकर रुथिर 
सरिता” अभ्यास है। बीचमें अपूर्वता और उपपत्ति है। छन्दोभड्रसे इसका फल और “कादर देखि डरहिं” में 
उपसंहार है। (ग) इससे जनाया कि राक्षससेनामें बहुतेंर सैनिक कायर हैं। 'सुभटन्ह के मन चेन” अन्तमें 
लिखकर जनाया कि ये थोड़े हैं। 'सुभट” शब्दसे भी ध्वनित हुआ कि 'भट' भी कायर हो जाते हैं। 

० प० प्र०-२ इस छन्द और दोहेमें भयानक और बीभत्स रसोंका परिषोष हुआ है, बीभत्स प्रधान 
है। आगे बौभत्सकी तीव्रता बढ़ती है और दोहा ८७ के छन्दपें बीभत्ससकी ओजके साथ पूर्णता होती है। 

प० प० प्र०--३ इस प्रसंगमें गोस्वामीजीका अन्तःकरण श्रोरामजौके बीर्यप्रतापवर्णनमें ऐसा तदाकार 
हो गया है कि बीभत्सका भी आदर्श वर्णन उनकी कोमल लेखनों महान्‌ ओजके साथ लिख सकी! 
'क्षीष्पद्रोणतटा जयद्रथजला”““““' इस रणनदी वर्णनके श्लोकमें वह ओज और बीभत्सता नहीं है जो इस 
प्रसंगमें और विशेषतः 'बोल्लहिं जो जब जय““““” इस छंदमें है। 

दो०--बीर परहिं जनु तीर तरू मज्जा बहु बह फेन। 
कादर देखि* डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन॥८६॥ 
शब्दार्थ-मज्जा-नलीकी हड्ढीके भीतरका गूदा जो बहुत कोमल और चिकना होता है। वथा--/अस्थि 
अह्स्थाग्निना पक्व॑ तस्य सारो ड्रवों घन:। यः स्वेदवत्पूथग्भूत: सा मज्जेत्यभिधीयते॥' इति भावप्रकाशे पूर्वखण्डे 
शारीरकप्रकरणे। अर्थात्‌ हड्डी जो भीतरको अग्निसे परिपक्व है उसका सार द्रवघन कहलाता है। जो पसीनेकी 
तरह पृथक्‌ दिखायी देता है उसे मज्जा कहते हैं।>चर्बो, हड्डीका सार। 

अर्थ-वीर पृथ्वीपर इस तरह गिर रहे हैं मानो तीर-(किनारे-) के वृक्ष ढह रहे हैं। बहुत-सी 
मज्जा जो बह रही है वहीं मानों फेन बहता है। जहाँ कादर पुरुष (इसे) देखकर डरते हैं वहाँ उत्तम 
योद्धाओंके मनमें चैन (सुख) होता है॥ ८६॥ 

नोट--१ “मज्जा बहु बह फेन” इति। द्रव धर्म लेकर दोनोंकी समता कही-(पु० रा० कु०)। 

जोट--२ “सुभटरू के मन्र छेत' इति। सुभटोंके मनमें आनन्द होता है, यह समझकर कि मरनेपर 
स्वर्ग और जीतनेपर स्वतन्त्र स्वराज्य और ऐश्वर्य तथा सुयश प्राप्त होगा। उत्तरार्ड दोहेका भाव यह है 
कि यह रणभूमिमयी नदी बड़ी दुस्तर है, योद्धा राक्षस और प्रधात-प्रधान बानर सुभट ही इस दुस्तर नदीकों 
पार कर सकेंगे, साधारण तो डरकर भाग जायँगे। क० लं० ४९ से मिलान कीजिये- 

“लोधिन सों लोहू के प्रबाह चले जहाँ तहाँ मानहु गरिरितर गे झरना झरत हैं। 
सोनित सरित घोर कुंजर करारे भारे कूल तें समूल बाजि बिटप परत हैं# 
सुभट सरीर भीरचारी भारी भारी तहाँ सूरनि उछाह कूर कादर डरत हैं। 
फेकरि फेकरि फेरु फारि फारि पेट खात काक कंक बकुल कोलाहल करत हैं॥' 
जं० पा०-कादर देख डरते हैं और सुभट सुख पाते हैं, जैसे जो तैर नहीं सकते वे नदीको देख 








* देखत डरहि-(का०)। आधुनिक पाठ--' डराहिं तेहि'। 


मानस-पीयूष ४६२ # ओमते रामचद्धाय नम: दोहा ८६ 


डरते हैं और जो तैरनेवाले तैराक हैं उनको सुख होता है। 

नोट--३ वाल्मी० ५८ मेंके प्रहस्तके युद्धमें नदीका रूपक मिलान करनेयोग्व है। वाल्मीकिजी लिखते 
हैं कि वानरों और राक्षसोंकी लोथोंसे पूर्ण समरभूमि मानो पर्व॑तोंसे पूर्ण हो गयी। वह युद्धस्थल रुधिरकी 
धारासे संच्छन्न होनेसे ऐसा देख पड़ने लगा जैसे बैशाखमासमें पुष्पित पलाशोंसे पृथ्वी शोभित हो। मरे 
हुए वीर ही जिसके किनारे हैं, टूटे हुए आयुध ही वृक्ष हैं, रुधिर जल है, यह नदी यमसागरकों गयी 
है। यकृत और प्लीहा कौच है, आँतें सिवार हैं, देह-खंड मछलियाँ हैं, अड्जोंके टुकड़े घास हैं। गृभ्र 
ही हंस और कंक सारस हैं। चर्बी फेन है। आवर्त्त शब्द नदौका शब्द है। ऐसी युद्धभूमिमयी नदीके 
पार कायर नहीं जा सकते। हंसोंसे सेवित शरद्‌-ऋतुको श्रेष्ठ नदीके समान ऐसी दुस्तर नदी राक्षत और 
मुख्य-मुख्य बानर तैर गये जैसे कमलोंकौ रजयुक्त नलिनौकों गजयूथप पार कर जाते हैं। (श्लो० २७-३३) 

वाल्मी० ९३ में राम-रावण-युद्धमें भी रुधिरनदीका रूपक दो श्लोकोंमें है और भा० १०। ५०। २४-२८ 
में श्रीकृष्ण-जरासंध-युद्धमें भो रुधिर-नदीका रूपक आया है पर ये कोई मानसमें दिये हुए रूपकसे मिलते 
नहीं है। रूपक जिसे देखने हों बह उन ग्रन्‍्थोंमें देख लें। यहाँ मिलता हुआ अंश मिलानमें दिया जा 
रहा है। बाल्मी० और भा० में मानसका-सा साज्जोंपाज़ रूपक नहीं है। 





छंद और दोहा ८६ बालमी० ५८ भा० १०१७० 

१ कोपषि बान झरि लाई दोहा ८६ (९-१०) देखिये 

३ स््रवहि सयल जनु “शरीरादपि सुसत्राव गिरे: “संछिद्मानद्विपदेभवाजि- 
निर्झर भारी प्रस्नवर्ण यथा।' ( ५७ ) नामड्डप्रसूता: शतशो- 

३. 'सोनित सरि कादर “तां कापुरुषदुस्तारां युद्ध- उसृगापगा:॥' ( २६) , 
भयकारी ', 'कादर देखि भूमिमयी नदीम्‌॥' ( ३२) “प्रबर्तिता भीरुभयावहा मृथे 
डरहिं तहँ सुभटनह *राक्षसा: कपिमुख्याश्च' मनस्तिनां हर्षकरी: पर- 
के मन चेन' तेरुस्तां दुस्तरां नदीम्‌॥' (३३). स्परम्‌॥' (२८) 

४ रुधिर सरिता चली “शोणितौघमहातोयाम्‌' 
परम अपाबनी “बमसागरगामिन्रीम्‌॥' ( २९ ) 

५ दोउ कूल दल “हतवीरौधवप्रां तु॥' ( २९ ) ( अच्छूरिकावर्ततयानका 
(रथ रेत ) महामणिप्रवेकाभरणाश्मशक॑रा: ) 

६ चक्र अबर्त्त बहति 7“ ( आवर्त्तस्वननि:स्वनाम्‌ ) 

] जलजंतु गज पदचर (' भुजा5हय: पूरुषशीर्षकच्छपा 
तुरण खर बिबिध बाहन को गने हतद्विपद्वीप ) हयग्रहाकुला:॥' ( २६ ) 
< सर शक्ति तोमर सर्प (शर मत्स्या बाल्मी० १३ ) ( भुजाउहयः ) 

९ चाप तरंग ( चर्मकमठ ) थनुस्तरड्रायुध 

१० बीर परहिं जनु तीरतरू ( भग्नायुधमहादुमाम्‌ ) (्‌ आयुधगुल्मस्ुला: ) ( २७) 

११ भज्जा बहु बह फेन “यकृतप्लीहमहापड्डी विनिकोर्णान्रशैवलाम्‌। 

| ॥(३०) 
“मेद:फेनसमाकीणांम्‌।' ( ३१) 

१२ काक कंक लेड़ भुजा “गृश्वहंसगणाकीणा कंक- 

डड़ाहीं। खैंचत गीध सारससेविताम्‌।' ( ३१) 


आँत तट भये। 


दोहा ८७ ( १-४) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्ये # ४६३ लक्काकाण्ड 





मजहिं भूत पिसाच बेताला | प्रभथ महा झोटिंग कराला॥१॥ 
काक कंक लै भुजा उड़ाहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीं॥२॥ 
शब्दार्थ-झोटिंग-झोंटेवाला, जिसके सिरपर बहुत बड़े-बड़े और खड़े बाल हों। (श० सा०) ज्जोटिंग, 
शिवजीके गणोंकी एक जाति। 
अर्थ-भूत, पिशाच, वेताल, महाकराल बड़े-बड़े झोंटोंवाले प्रभथ जोटिंग आदि शिवगण इस नदीमें स्नान 
करते हैं। १॥ कौए और चील भुजाएँ लेकर उड़ते हैं। एकसे छोनकर एक (दूसरा) खा लेता है॥ २॥ 
नोट--१ भूत, पिशाच, बेताल और प्रमथ ये सब प्रेतोंके भेद हैं। उनकी भिन्न-भिन्न जातियाँ हैं, 
यथा--'मार्कण्डेयपुराणे हरिहरब्रह्मविरचिते--' ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः बहाराक्षसबेताला: कृष्माण्डा 
अैरवादय:॥', नाना भाँति पिसाच पिसाची।' (५१। २) देखो। भूत-पिशाचोंसे वेताल अधिक जबरदस्त 
होते हैं, ये राक्षसोंक मुकाबिलेके होते हैं। 
गौड़जी--प्रमथों, जोटिंगों आदिका विस्तारसे वर्णन 'शिवपारिषदोंकी उत्पत्तिके प्रकरणमें कालिकापुराणके 
२९ वें अध्यायमें मिलता है। भूत, पिशाच, बेताल, प्रमथ, जोटिंग सभी रणमें भाग लेनेवाले नीच प्रकारके 
शिवगण हैं। प्रमथोंकी अनेक ऊँची जातियाँ भी हैं जो योगी हैं और शंकर-समान हैं ।--[ प्रमुख प्रमथादि 
सब रुद्रगण हैं। प्रमथ सब पार्षद हैं, ब्रह्म आदि माताएँ हैं। यथा--' रुद्रगण--नन्दी भृड़ी च सेनानी मुखाः 
से शिवाज्ञया॥' (पद्म पु०), 'प्रमधा: स्युः पारिषदा ब्राहीत्याद्यास्तु मातर:।' (अमरकोष), 'महाकालश्च नन्‍्दी 
चअ तथा शंकरपार्श्नगौ। वीरभद्रो महातेजा शंकुकर्णों महाबल: ॥ घण्टाकर्णश्ष दुर्धषों मणिभद्रो वृकोदर: | कुण्डोदरश्च 
विकटस्था कुम्भोदरावली॥ मन्दोदरः कर्णधार: केतुर्भूगी रिटिस्तथा। भूतनाथास्तथान्ये च महाकाया महौजस:॥ 
अपादा बहुपादाश्च बहुकर्णैककर्णका:। एकनेत्राश्चलुनेत्रा दी्घां: केचन बामना:॥' (स्कन्दपुराण ब्रह्मोत्तरखण्ड 
१-४) (पु० रा० कु०)] 
नोट--२ ये सब कराल हैं और प्रमथ महाकराल हैं। वा, सभी महाकराल हैं। भूतगणको करालता 
शिवबारातके वर्णनमें देखिये। यथा--“नान्रा बाहत नाना बेषा। बिहँसे सिव समाज त्रिज देखा ॥ कोउ मुखहीन बिपुल 
मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥ बिपुल नयव कोउ नवन बिहीना। रिट्रपुष्ट कोउ अति तन खीना॥ 
तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन यति बरे। भूषण कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरे॥ 
खर स्वान सुअर श्रृगाल मुख यत बेष अगनित को गने। बहु जिनिस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥ 
जाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब। देखत अति विपरीत बोलहिं बचन विचित्र विधि ॥' (१३), 'सिव समाज 
जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे ॥ कह॒हिं बचन भयकंपित गाता। जम कर थारि कि थाौँ बरियाता॥' 
(१। ९५। ४-७) पुनश्च यथा--'हरिता धूसरा थूप्रा: कर्युरा: पीतलोहिता:। चित्रवर्णां विचित्राड्राश्चित्रलीला 
बलोत्कटा:॥ केचिद्वणप्रमुखाः केचिच्छूकरास्था मृगानना:। केचिच्यानेकबदना: सारमेयमुखा: परे॥ एकबक्त्रा 
द्विबक्त्राश्च बहुवक्त्राश्च निर्मुखा:। एकहस्ता द्विहस्ताश्ष पंचहस्तास्त्वहस्तका:॥' (स्कन्दपुराण १-३) 
एक कहहिं ऐसिउ सौंघाई। सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई॥३॥ 
कहरत भट घायल तट गिरे। जहूँ तहँ मनहूँ अर्द्धजल परे॥४॥ 
शब्दार्थ--सौंधाई-अधिकता,बहुतायत--यह शब्द संघसे बना है--(रा० प्र०)«समर्वता-साधारण भावकी 
दशा। सस्ती। 'सौंधाई' शब्द समर्घताका प्राकृतरूप है।--(गौड़जो)। कहरना-कराहना, पीड़ासे आह-आह 
करना। अर्द्धजल-श्मशानमें शवकों स्नान कराके आधा जलमें और आधा बाहर डाल देनेकी क्रिया। 
अर्थ-(एकसे दूसरेके छीन लेनेपर) एक कहते हैं-ेरे मू्खों! ऐसी भी अधिकता वा सस्तीमें तुम्हारा 
दारिद्रय नहीं जाता (कड्राल ही बने हो)॥ ३॥ तटपर गिरे हुए घायल योद्धा कराह रहे हैं, मानो जहाँ- 
तहाँ अर्द्धजलमें पड़े हैं॥ ४॥ 
'पं०, बीर-प्राण कण्ठगत होनेपर जब मनुष्यके जीनेकी आशा नहीं रहती तब उसे लोग नदीमें आधा 





मानस-पीयूष ४६४ # श्रीमते रामचन्द्राय नम: दोहा ८७ (५-८) 





शरीर जल और आधा थलमें करके लिटा देते हैं। वीर घायल कराहते हैं, यहाँ वही उत्प्रेक्षाका विषय 
है। यह “उक्तविषयावस्तूत्पेक्षा अलड्भार' है। 
खैंचहिं गीध* आँत तट भए। जनु बंसी खेलता॑ चित दए॥५॥ 
बहु भट बहहिं चढ़े खग जाहीं। जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं॥६॥ 
शब्दार्थ--नावरि-नाव-(नौका)-की एक क्रोड़ा जिसमें उसे बीचमें ले जाकर चक्कर देते हैं। बंसी-मछली 
'फँैसानेका औजार। 
अर्थ--गृश्न आँतें खाँचते हैं मानो (मछलीका शिकार करनेवाले) नदीतटपरसे मन लगाये हुए बंसी 
खेल रहे हों॥५॥ बहुत-से भट बह रहे हैं और पक्षी उनपर चढ़े चले जा रहे हैं मानो नदीमें नावरि 
खेल रहे हैं॥६॥ 
नोट--१ (क) “बंसी--इसमें एक पतली लम्बो छड़ीके एक सिरेपर डोरी बँधी होती है और उस डोरीके 
दूसरे सिरेपर अंकुशके आकारकी लोहेकी एक कैंटिया बँधी रहती है। इसी कैंटियामें चारा लपेटकर डोरीकों 
जलमें फेंकते हैं और छड़ीको शिकारी पकड़े रहता है। जब मछली बह चारा खाने लगती है तब वह कैंटिया 
उसके गलेमें फैंस जाती है और वह खींचकर निकाली जाती है। (श० सा०) (ख)-गृश्न बहते हुए रुधिरके 
तटपर बैठे हुए निशिचरोंकी लम्बी-लम्बी आँतें खींच रहे हैं, लम्बी नलीका एक सिरा पकड़े हैं, यह बंसीकी 
डोर या छड़ी हुई। दूसरी ओर काँटेमें मछली फैसती है, आँठका लोथड़ा मछली है। नदीकी धारामें आँतें आगे 
बढ़ती हैं तब ये उन्हें अपनी ओर खींचते हैं। इस तरह बारम्बार करना ही बंसीका ढील देना, खींचना वा बंसी 
खेलना है। (ग)-“धित दए' कि मछली निकल न जाय। वैसे ही गीध आँतोंको जाने नहीं देते। 
“जनु नाबरि खेलहिं' / शवपर पक्षी बैठे हैं, नोचते, खातेमें एवं बहांवसे शव चक्र खाते हैं; 
यही नावरि खेलना है। 
जोगिनि भरि भरि खप्पर संचहिं। भूत पिसाच बधू नभ नंचहिं॥७॥ 
भट कपाल करताल बजावहिं | चामुंडा नाना ब्रिधि गावहिं॥८॥ 
शब्दार्थ-खप्पर (खर्ष्पर)»खपड़ा, खोपड़ी। काली देवीका वह पात्र जिसमें वे रुधिर पान करती 
हैं। संचना (सं० संचयन)-एकत्र, संचय वा संग्रह करना। नंचहिं-नाचती हैं। 
अर्थ--योगिनियाँ अपने-अपने खप्पड़ोंमें भर-भरकर रुधिर जमा कर रही हैं। भूत-पिशाचोंकी स्त्रियाँ आकाशमें 
नाच रही हैं॥७॥ चामुण्डाएँ योद्धाऑंकी खोपड़ियोंका करताल बजाती हैं और नाना प्रकारसे गाती हैं॥८॥ 
नोट--१ 'करताल” लकड़ी या कौँसेका एक बाजा है जिसका एक-एक जोड़ा हाथमें लेकर बजाते हैं। 
यहाँ उस करतालकी जगह एक-एक खोपड़ी एक-एक हाथमें लेकर उसे बजाती हैं, ताल देती हैं। 
नोट--२ योगिनियोंके कौतुकका वर्णन क० लं० ५० में देखने योग्य है- 
“ओझरी की झोरी काँधे आँतनि की सेल्ही बाँधे मुंड के कमंडलु खप्पर किये कोरि कै। 
जोगिनी झु्दुंग झुंड झुंड बनी तायपसी-सी तीर तीर बैठीं सी समर सरि खोरि कै॥ 
सोनित सों सानि सानि यूदा खात सतुआ से प्रेत एक पिअत बहोरि घोरि घोरि कै। 
हुलसी बैताल भूत साथ लिए भूतनाथ हेरि हेरि हँसत हैं हाथ हाथ जोरि कै॥' 
टिप्पणी--१ (क) काली, भयंकर मुखवाली, तलवार और पाश धारण किये हुए, विचित्र खट्वाड़ 
धारण किये, नरमाला-विभूषणवाली, हाथीके चर्मको पहने, सूखा मांस लिये (वा, मांस सूख गया है जिसका 
ऐसी) अत्यन्त भयंकर बहुत विस्तृत मुखबाली, भीषण जिह्मा लपलपाती हुई, लाल नेत्रवाली, घोर शब्दसे 
दिशाओंको गुँजानेवाली--यह योगिनियोंका स्वरूप है। (ख) “कराला' इति | योगिनीकी करालता, यथा--'काली 


* आँत गीधि--(का०), ॥ बेलहिं-(का०)। * 








दोहा ८७ (९-१० ) छंद # श्रीमद्रामचन्रचरणौ शरण प्रपद्षे # ४६५ लड्जाकाण्ड 





'करालबदना विनिष्क्रान्तासिपासिनी | विचित्रखद्वाडुधरा नरमालाबिभूषणा ॥ द्वीपिचर्मपरीधाना शुष्कमांसातिभैरवा। 
अतिविस्तारबदना जिह्वाललनभीषणा॥ निमग्ना रक्तनयना नादापूरितदिड्मुखा॥' (१-३) (ग) “योगिनी 
कराला' अर्थात्‌ ब्राह्म आदिक मातृकागण। 'ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्री बाराही बैष्णवी तथा। कौमारी चर्ममुण्डा 
अ कालसंकर्षणीति च॥ तेषां मातृगणों जातो ननतांसृइमदोद्धतः।' (मार्कण्डेयपुराण १-२) “कोटरा रेबती 
ज्येष्ठा पूतता मातृकादय:'--(भागवत)। ये सब मातृकाओंका समूह होकर मज्जा-मेदादि पानकर उद्धत हो 
नाचने लगीं। (घ) “चामुण्डा नाता विधि 'इति | चण्ड-मुण्डको पकड़ लानेसे 'चामुण्डा' नाम पड़ा। 'यस्माच्वण्ड 
अ मुण्डं च गृहीत्वा त्वमुपागता। चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवि भविष्यति॥' (चण्डिकां प्रति कालीबचनम) 

गौड़जी--योगिनी, चामुण्डा आदि रणाड्नाएँ भगवती महामायाको सेनामें छप्पन करोड़की संख्यामें उसी 
तरह रहती हैं जैसे भगवान्‌ शड्भूरकी सेनामें उनके गण। यह वह “चामुण्डा' नहीं हैं जिनका उल्लेख सप्तशतीमें 
चअण्ड और मुण्डको पकड़ लानेपर नामकरणके सम्बन्धमें है। मुख्य चामुण्डाके नेतृत्वमें यह करोड़ों चामुण्डाएँ 
होती हैं। बहुवचनसे सैनिकाएँ हो अभीष्ट हैं। 

जं० पा०-योगिनियाँ अर्थात्‌ काली देवोकी सहचरियाँ खप्पड़ोंमें र्धिर संचय करती हैं कि रातको 
या जब फिर भूख-प्यास लगेगी तब पियेंगी। २--भूतपिशाचवधू अर्थात्‌ चुड़ैलें मारे हर्षक नाचती हैं। 

जंबुक निकर कटक्कट कट्टहिं। खाँहि हुआहिं अधघाहिं दपद्टहिं॥ ९ ॥ 
कोटिन्ह रुंड मुंड बिनु डोल्लहिं। सीस परे महि जब जय बोल्लहिं॥ १०॥ 

शब्दार्थ--जंबुक-गीदड्‌ । ' शगालबज्बकक्रोष्रफसफेरबजम्बुक:।' ( अमरकोष) कटक्कट-ऊपर और नीचेके 
दौतोंकी रगड़से जो शब्द होता है। दाँतोंके बजनेका शब्द। 'कट्टृहिं '-काटते हैं। हुआहिं*हुआँ-हुआँ करना। 

अर्थ-गीदड़ोंके समूह कटक्कट शब्द करते हुए शवको काटते, खाते, हुँआते, अघाते और परस्पर 
'एक-दूसरेको डाँटते हैं॥ ९॥ करोड़ों धड़ बिना सिरके फिर रहे हैं। अनेक सिर पृथ्वीपर पड़े जय-जय 
बोल रहे हैं॥१०॥ 

गौड़जी-यहाँ बीभत्सरस एवं अमृतध्वनि है। युद्ध-वर्णनमें यह दोनों परम सुसड्भत हैं। 

मा० म०-'खाहिं हुआहिं अबाहिं दपद्टहिं ' का भाव कि जब उनका उदर मुर्दोके खानेसे कण्ठतक 
भर जाय और अधिक न खाया जाय तब वे हुआयेँ और फिर उतना ही खा जाय॑ँ। 

रा० प्र०--हुआना' गौदड़ोंकी स्वाभाविक हर्षसूचक बोली है। गीदड़ अघाकर खाकर हुँआते हैं और 
जो पहिले पेटभर खा चुकते हैं वे दूसरोंको खाते देख डाँटते हैं--(यह सहज स्वभाव है) 

नोट-शूरवीरोंके सिर कटनेपर भी धड़ मार-काट करते हैं और सिरोंसे रणोत्साहके शब्द निकलते हैं। 
कारण कि उनका उत्साह भशा होनेसे प्राण शरीरमें कुछ देरतक बने रहते हैं। क्षत्रिय वौरोंमें अकबरके समयमें 
भी उसके उदाहरण देखे गये हैं। पं० वि० त्रि० जी लिखते हैं कि यह सरकारके बनैतीकी सफाई है कि जय- 
जय बोलनेवाले राक्षसोंकों जो बाण लगे उन्होंने ऐसे लाघव-(सफाई-) से सिर काटे कि धड़ चला जा रहा 
है और सिर पृथ्वीपर गिरकर जय-जय बोल रहा है। श्रीगोस्वामीजीने रामजीकी युद्ध-विधि दिखलाते हुए कहा 
है कि 'कूदत कबंध के कदंब बंब सी करत धावत दिखावत हैं लाबव राघव बान के।' लक्ष्मणजीके बाणसे 
राक्षसोंके चिथड़े उड़ जाते थे, यथा--'अंग अंग दलित ललित फूले किंसुक से हने भट लाखन लखन जातुधान 
के।' और हनुमानजी तो उन्हें खण्ड-खण्ड कर डालते थे, यथा-“मारि कै पछारे कै उपारे भुज दंड चंड खंड 
खंड डारे ते बिदारे हतुमान के।' अत: मुण्डके बिना जो रुंड चल रहे हैं, और सिर जिनका पृथ्बीपर पड़ा जय- 
जय बोल रहा है, वे सरकारके बाणसे मारे गये हैं। 

छंद--बोल्लहिं जो जय जय मुंड रुंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं। 
खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट* भटन्ह ढहावहीं॥ 





* सुभट सुरपुर पावहों। 


मानस-पीयूष ४६६ # श्रीमते रामचद्धाय नम: + दोहा ८७ (छंद), ८८ (१-२) 





बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम-बल दर्पित भए *। 
संग्राम अंगन सुभट सोवहिं रामसर निकरन्हि हए॥ 
शब्दार्थ--अरुझना-उलझना, फँसना। 
अर्थ--मुण्ड “जय जय' बोलते हैं, बिना सिरके धड़ बड़े वेगसे दौड़ते हैं, पक्षी खोपडिियोंमें उलझ- 
उलझकर आपसमें जूझते हैं, (भाव कि सभी स्वयं हो सब खानेकी चाह करते हैं, दूसरेको नहीं खाने 
दिया चाहते, इस प्रकार परस्पर लड़े मस्ते हैं)। सुभट भटोंको गिरा देते हैं। वानर श्रीरामजीके बलसे 
दर्पित (गर्वित एवं क्रोधित) होकर राक्षस-समूहका मर्दन कर रहे हैं। श्रीरामजीके बाण-समूहसे मारे जाकर 
श्रेष्ठ योद्धा रणाड्णमें सो रहे हैं। 
मा० म०--*ख्प्परिष्न खग्ग अलुज्झि जुज्ञहिं““”” इति। अर्थात्‌ जो खोपड़ियाँ रणभूमिमें पड़ी हैं 
उनमें पक्षी धैँसकर सिरका मांस खाते हैं और उसी खोपड़ीमें उलझकर मर जाते हैं, उड़ नहीं सकते। 
बीर-इस प्रकरणमें घृणा स्थायीभाव है। मु्दोंका ढेर और भूत-प्रेतादिक दर्शन आलम्बन-विभाव हैं। 
गीधोंका आँत खींचना, सियारोंका मांस खाना, पिशाचिनियोंका रक्त पान करना आदि उद्दीपन-विभाव हैं। 
इस भीषण घटनाको देख धैर्यहत होना, रोमाझ् हो आना अनुभाव है। आवेग, मोह, अपस्मारादि सजझञारी 
भावोंसे परिपूर्ण 'बीभत्स' रस हुआ। 
दो०--रावन हृदय बिचारा|ं भा निसिचर संघार। 


मैं अकेल कपि भालु बहु माया करडँ अपार॥८७॥ 
अर्थ-रावणने हृदयमें विचारा कि राक्षसोंका नाश हो गया, मैं अकेला हूँ: और वानर-रीछ बहुत 
हैं अतः अब मैं (अकेला इतनेसे कैसे लड़ सकता हूँ इससे) अपार माया रचूँ॥ ८७॥ 
'प० प० प्र०-१ दोहेके प्रथम चरणमें १२ ही मात्राएँ हैं और अन्ताक्षर दीर्घ होनेसे उच्चारणमें भी 


१३ मात्राएँ नहीं होतीं। यह वृत्तदोष नहीं है वरं नाट्यकाव्यगुण हो है। इससे जनाया कि रावण निराश होकर 


घबड़ा गया है। सुं० दोहा २६ “जनकसुता के आये”“” के टिप्पण देखिये, यद्यपि वहाँ दूसरा ही रस है। 
प० प० प्र० २-कुम्भकर्ण-रघुवीर-युद्धमें 'कुंभकरन मन दीख बिचारी। हति छन माँझ तिसाचर थारी॥' 
पर उसने हृदयमें ऐसा विचार और निश्चय नहीं किया कि “मैं अकेल कापि भालु बहु माया करडँ अपार" 
इससे प्रतीत होता है कि कुम्भकर्ण राव्रणसे अधिक बलवान्‌ और धीर-बीर था। वह मरणको नहीं डरा, 
भुजहीन होनेपर भी रणाद्रणमें ही रहा, गुप्त नहीं हुआ। रावणके वचनोंसे स्पष्ट है कि वह मनमें हार 
गया है और तनकी रक्षाका अन्तिम यत्न करेगा, पर अन्‍्तमें मरेगा ही। 
देवन्ह प्रभुहि पयादे देखा।उपजा उर अति छोभ बिसेषा॥१॥ 
सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा॥२॥ 
अर्थ-प्रभुको पैदल देखकर देवताओंके हृदयमें अत्यन्त भारी क्षोभ (दुःख उत्पन्न हुआ) ॥ १॥ इन्दरने 
तुरत अपना रथ भेजा। मातलि (इन्द्रका सारथि) हर्षपूर्वक उसे ले आया॥२॥ 
नोट १--“अति छोभ बिसेषा।” भाव कि इतना भारी दुःख हुआ कि वे अपने वाणीको रोक न सके, उनसे देखा 
न गया तब आपसमें कहने लगे कि यह युद्ध समान-युद्ध नहीं है कि एक रथपर सवार हो और दूसरा पैदल हो। 
'यथा-' भूमौ स्थितस्य रामस्य रथस्थस्थ च रक्षस:। न समं युद्धमित्याहुदेवगन्धर्वकिन्तरा:॥' (वाल्मी० १०२। ५) 
वस्तुतः यह इन्रको सुनानेके लिये कहा गया था जिसमें बह अपना रथ भेज दे और ऐसा ही हुआ भी। इनके 
वचनोंको सुननेपर उन्होंने रथ ले जानेकी आज्ञा मातलिको दी। (वाल्मी० १०२। ५-८)+ 


* “निसिचरबरूथ विमर्दि गर्जहिं भालुकपि दर्पित भए' 
+ “तो देववर: श्रीमाजश्ुत्वा तेषां वचो3मृतमू। आहूय मातलिं 









2। 4 'इृदय बिचारेड दसबदन'--(का०)। 
लिं शक्रो वचन चेदमब्रवीत्‌॥ रथेन मम भृमिष्ठे शीघ्र याहि 


दोहा ८८ (३-४) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्ये # ४६७ लड्ढाकाण्ड 





ए७" वाल्मी० में यह प्रसड़ दोहा ९० (१-७) में दिये हुए युद्धेके बाद है। 

वि० त्रि०--जब निशाचरोंका संहार हो गया, तब देवताओंकी बुद्धि ठिकाने हुई तब यह बात मनमें 
आयी कि अब तो राम-रावण-युद्ध ही शेष है, पर रावण रथपर है, सरकार पैदल हैं और इसी लड़ाईमें 
वारा-न्यारा है; अत: इसमें सरकारका पैदल रहना अत्यन्त कचाई हम लोगोंकौ है। इन्द्रके मनमें भी यही 
भाव उठा, अतः उन्होंने तुरंत मातलिको रथ ले जानेकी आज्ञा दी। 

नोट--२ पंजाबीजीने यहाँ यह शंका करके “इन्द्रने रथ प्रथम युद्धमें क्यों न भेजा?', उसका उत्तर यह 
लिखा है कि--(१) प्रभुको पैदल देख जब देवताओंने इन्द्रको लज्जित किया तब उसने भेजा। वा, (२)-मेघनादसे 
प्रायः लक्ष्मणजीका ही युद्ध है, श्रीरामजीका युद्ध मेघनादसे नाममात्रका है। रहा कुम्भकर्ण सो उसका रथारूढ़ 
होकर आना कहा नहों गया। और यहाँ अबतक राक्षस-सेनासे हो युद्ध होता रहा है। अतएब अबतक रथ 
न होनेकी ओर उनका ध्यान आकर्षित न हुआ था इसीसे रथ न भेजा गया। अब राम और राबण दोनों 
प्रथम बार सम्मुख हो रहे हैं, दन्द्र-युद्ध है, अतएब इस समय ध्यान स्वाभाविक रथस्थ और विरथपर गया। 
वा, (३) जबतक इन््रजीत मरा न था तबतक इन्द्र शंकितहदय था (कि ऐसा न हो कि रथ भेजा हुआ 
देखकर वह फिर हमपर आ पड़े)। अब भय जाता रहा तब भेजा। वा, (४) जब प्रभुकी प्रेरणा हुई तब 
भेजा। वा, [(५) श्रीगमजीकी बराबर जीत देखकर भेजा। (मा० म०)] 

गौड़जी-विभीषणका स्वार्थ, ममत्व और भक्ति तीनों अत्यन्त प्रबल थे, इसीलिये उन्हें सबसे पहले इसका 
खयाल हुआ था। देवोंकी दृष्टि इतनी पैनी नहीं है और आसुरी माया उनपर ऐसी प्रबल है कि वह श्रीरघुनाथजीके 
स्वरूपको त॒ देखकर अपने स्वार्थको ही मूर्तिमान्‌ देखते हैं। इसलिये रथका प्रश्न उन्हें बहुत देरमें सूझता है 
और सहस्ाक्ष इन्द्र अपनी हजारों आँखें फाड-फाड़ देखता था परंतु युद्धकी यह विषमता उसे देवताओंके सुझाये 
हो सूझी। देवताओंके मनमें क्षोभका उत्पन्न होना आसुरी मायापर ईश्वरी मायाकी प्रबलताकी प्रतिक्रिया है। 
अभीतक कौतुक-हो-कौतुक था, अब बलसाम्यपूर्वक तुमुल युद्धका दृश्य दिखाना है, इसीलिये रथ भी मँगबाया 
गया। मर्जी थी, इसीलिये सादर प्रणामकर रथपर सवार हुए, नहीं तो खरदूषणवधपर रथ कहाँ था? 

च० प० प्र०--'सुरपति” शब्दका प्रयोग सहेतुक है। इन्द्रको जब यह भय लगा कि “(नाथ) न रथ 
नहि तन पदत्राना। केहि बिथि जितब बीर बलवाना॥' रथ न होनेसे उन्हें रघुनाथजीका विजय असम्भव- 
सा जान पड़ा, तब विचार हुआ कि सुरोंकों रक्षा कैसे होगी। अतः सुरपति नाम चरितार्थ करनेके लिये 
रथका भेजना आवश्यक समझा। रथका भेजना स्वार्थभूलक ही है। 

पं--'हरष सहित मातलि ले आवा' स्वामीके कार्यमें हर्ष और उत्साह होने हो चाहिये। पुनः हर्ष 
इससे कि जिनको मुनि ध्यानमें भी नहीं पाते उनका मैं पाससे दर्शन और उनकी सेवा करूँगा। पुनः 
हर्ष इससे कि इस रथपर इन्द्रके साथ मैंने इन्द्र-रावण-युद्ध कई बार देखा पर सदा हार ही हुई और 
आज इसपर श्रीरामजीको सवार कराके रावणका पराजय और वध देखनेको मिलेगा।-(हर्ष और उत्साह 
बीररसके स्थायीभाव हैं)। 

तेजपुंज'॒रथ दिव्य अनूपा। हरषि चढ़े कोसलपुरभूषा॥ ३॥ 
चंचल तुरग मनोहर चारी। अजर अमर मन सम गतिकारी॥४॥ 

अर्थ-उस दिव्य अनुपम, तेजशशि रथपर कोसलपुरके राजा श्रीरामचन्द्रजी प्रसन्नतापूर्वक चढ़े॥३॥ उसमें 

सुन्दर मनहरण चार चंचल, अजर, अमर और मनकी गतिके समान शीघ्रगामी घोड़े जुते थे॥४॥ 





रघूत्तमम्‌। आहूय भूतल॑ यात: कुरु देवहितं महत्‌॥ इत्युछो देवराजेन मातलिदेंवसारथि:।', (ये श्लोक प्र०सं० में सम्भवतः 
श्रीसीताराम प्रैससे प्रकाशित वाल्मीकौयसे दिये थे। पर पण्डित द्वारकाप्रसाद चतुर्वेदीके संस्करणमें ये श्लोक नहीं हैं| उसमें 
देवराजके रथका वर्णन करके इस प्रकार कहा है--'रुक्मवेणुध्वज: श्रीमान्देवराजरथों वर:। देवराजेन सन्दिष्टो रथमारुहा 
मातलि:। अभ्यवर्तत काकुत्स्थमवतीर्य त्रिविष्टपात्‌।' (१०२। ६-७, ११-१२) अर्थात्‌ इन््रके श्रेष्ठ रथको श्रीरामजीके लिये 
ले जानेकी जब इन्द्रने स्वयं मातलिको आज्ञा दी तब वह उसपर सवार हो स्वर्गसे उतरकर श्रीरामजीके समीप आया। 


मानस-पीयूष ४६८ # श्रीमते रामचन्द्राय नम: # दोहा ८८ ( ३-४) 





नोट--१ “तेजपुंज रथ दिव्य अनूपा” इति। वाल्मी० १०२ में रथका वर्णन इस प्रकार है कि-वह रथ 
सोनेके कामसे चित्रित था। सैकड़ों किंकिणियोंसे भूषित था। उसके कूबर वैदूर्यमणिके थे। स्वर्णाभूषणों एवं 
सफेद श्वेत प्रकीर्णकों-(चमरें-) से युक्त और स्वर्णनालसे विभूषित उत्तम हरे बोड़े सूर्यसदृश प्रकाशमान थे। रुक्मवेणुकी 
ध्वजावाला वह श्रीमान्‌ देवराजका श्रेष्ठ रथ है। यथा--“तत: काझनचित्राड़ः किंकिणीशतभूषित: ॥ तरुणादित्यसंकाशो 
वैदूर्यमयकूबर:। सदश्वै: काहझनापीडैर्युक्त: श्वेतप्रकीर्णकै:॥ हरिभि: सूर्यसंकाशैहेमजालविभूषितै: | रुक्मवेणुध्वज: 
श्रीमान्देवराजरथो बर:॥' (९-११) यह सब “तेजपुंज दिव्य अनूषा' से कबिने यहाँ सूचित कर दिया। 

नोट--२ ऊपर यह कहकर कि “हरष सहित मातलि लै आवा” यहाँ यह कहते हैं कि “हरि चढ़े" 
इससे कबिने उसे लाने और उसपर सवार होनेमें शौघ्रता दिखायी। (वाल्मीकीय ६। १०२। १४, ९६) 
में जो मातलिने श्रीरमजीसे हाथ जोड़कर कहा है--'सहस्त्राक्षेण काकुत्स्थ रथोउयं विजबाय ते। दत्तस्तव 
महासत्त्व श्रीमज्शत्रुनिबहण॥' , 'आरुह्मोम॑ रथं बीर राक्षस जहि राबणम्‌। मया सारथिना राजन्महेन्द्र इब 
दानवान्‌॥' हे काकुत्स्थ! हे महापराक्रमी महाराज! हे शत्रुदमनकारिन्‌! देवराज इन्द्रने आपकी विजयप्रापिके 
लिये यह रथ भेजा है। जैसे मुझ सारथीको लेकर इन्द्र दानवॉका नाश करते हैं वैसे हो आप भी इस 
रथपर सवार होकर राबणका विनाश कीजिये।-वह सब यहाँ 'लै आबा' और सामने मूकावस्थासे खड़ा 
होनेसे जना दिया। वह हर्षपूर्वक लाया है, मुँहसे प्रेमानन्दके मारे बचन नहीं निकले। इसीसे श्रीरामजी 
भी “हरि चढ़े" 

नोट--३ 'हरषि चढ़े कोसलपुरभूषा' इति। “हर्ष' का भाव कि-(क) (१) रथ, घोड़े, सारथी आदि 
सभी इस युद्धके योग्य पाये। वा, (२) रावण रथपर था, हम भी अब रथपर होंगे, दन्द्युद्ध समान होगा। 
वा, (३) युद्धारम्भ होनेको है इससे हर्ष शकुनसूचक है। वा, (४) विभीषणके मनको भी हो गयी। 
(पं०)। वा, (ख) रथविद्यामें निपुण हैं, अत: उसपर चढ़कर प्रसन्न हुए। वा, रथपर चढ़कर वानरोंकी 
मर्यादा बढ़ायी। वा, देवताओंका प्रेम और मातलिकी चतुरता देख हर्षित हुए (मा० म०)। 

“हरणि' से परिक्रमा और प्रणाम करके चढ़ना भी जना दिया है। यथा--' सम्परिक्रम्य रथ॑ तमभिवाद्य 
च' (वाल्मी० १०२। १७)। पुनः 'हराबि चढ़े और 'दिव्य' का एक भाव यह भी है कि मातलिके 
रथ लानेपर प्रभुने श्डा की कि कहाँ यह रावणकी माया न हो। तब विभीषणने कहा कि यह 
रावणकी भाया नहीं है, आप इसपर सवार हाँ। यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने बहुत हर्षित हो कहा 
कि ऐसा ही करेंगे और रथपर सवार हुए। यह कथा महाभारतमें है और वहाँ भी *प्रहष्ट:" पद आया 
है। अतएवं वह भाव भी 'हर्षित' पदमें आ गया। यथा--इत्युक्तो राघवस्तध्यं बचोउशझ्भ्त मातले:॥ 
मायैषा राक्षसस्थेति तमुवाच विभीषण:। नेय॑ माया नरव्याप्र रावणस्थ दुरात्मन:॥ तदातिष्ठ रथं शौध्वमिममैद्ं 
महाद्युते। ततः प्रहष्ट: काकुत्स्थस्तथेत्युक्वा विभीषणम्‌॥7““““रथेनाभिपपाताथ दशग्रीव॑ रुषान्वित:॥' 
(बनपर्व २९०। १५-१८) 

“कोसलपुरभूषा' का भाव कि यह रथ. सुरराजका है, राजेन्द्रके योग्य है। और प्रभु चक्रवर्ती राजा 
हैं। क्योंकि कोसलपुरके राजा हैं। इसलिये उसपर इनका सवार होना योग्य ही है। पुनः इन्द्र कोसलपुरभूषका 
सखा है, ,अपने सिंहासनपर सदा दशरथजीको अपने बराबर बिठाता था--'अर्थ सिंहासन आसन देई' अतः 
इस रथपर कोसलपुरभूपका सवार होना योग्य ही है। पुनः इन्द्रकी सहायता कोसलेश सदा करते थे, 
अथा--'सुरपति बसड़ बाहु बल जाके।' इस समय भी उन्हींके लिये प्रभु लड़ रहे हैं, उन्हींकी सहायता 
करनेके लिये चले हैं। अत: “चढ़े कोसलपुरभूषा” कहा। दूसरा इसपर नहीं चढ़ सकता था। 

बं० पा०--लंकेशकी जोड़में एवं इन्द्रथपर चढ़ने और रणपाण्डित्य जनाने तथा पृथ्वीकी रक्षाके विचारसे 
*कोसलपुरभूष' कहा। 





दोहा ८८ (५-०) # श्रीमद्रामचन्द्रवरणौ शरणं प्रपद्यो # ४६९ लड्ाकाण्ड 





'पं०-ऐश्वर्यरूपसे तो गरुडहोपर सवार होना था पर इस समय स्वॉँग भूपरूपका है, अतः रथपर चढ़े। 
नोट--४ उत्तम घोड़ेमें चार गुण होते हैं-बय, रूप, बल और गति। यथा--आपने बय बल रूप 
गुन गति सकल भुवन बिमोहईड।' (बा० छं० दोहा ३१६) यहाँ वह चारों गुण दिखाये हैं। (क) 'चञ्लल' 
से अवस्था। चञ्लल-चुलबुला, एक ठौर जो स्थित न रह सके। यह गुण अवस्था जानेपर नहीं रह सकता। 
पुनः चच्चलसे गति भी उत्तम जनायी, यथा-“सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अब ड़ब जरत धरत पग 
अरनी॥' (११। २९८), “जात नचावत चपल तुरंगा।' चक्लता गुण है। (ख) “मनोहर' से उत्तम रूप, 
*अजर' से वय और बल, 'अमर' से बल और “मन सम गतिकारी' से उत्तम गति जनायी। 'मत सम 
गतिकारी” में दो भाव हैं। एक यह कि जैसी सवारके मनमें इच्छा हो वैसा ही चलते हैं, दूसरे मनके 
समान बेगसे चलनेबाले। मनके समान अपनो गति कर लेनेवाले, यह शब्दार्थ है। 
रथारूढ़ रघुनाथहि देखी। धाए कपि बलु पाइ बिसेषी॥५॥ 
सही न जाइ कपिन्ह कै मारी । तब रावन माया बिस्तारी॥६॥ 
अर्थ-श्रीरघुनाथजीको रथपर चढ़े देखकर वानर विशेष बल पाकर दौड़े॥ ५॥ वानरोंकी मार सही 
न गयी तब रावणने माया फैलायी॥ ६॥ 
नोट--१ पूर्व प्रसड् 'मैं अकेल कपि भालु बहु माया करउँ अपार।” (८७) पर छोड़ा था। बीचमें 
देवताओंका दुःखी होना और इन्द्रका रथ भेजना इत्यादि कहा। अब फिर जहाँ छोड़ा था वबहीँसे प्रसड़र 
उठाया-- 'रबन माया बिस्तारी।' वहाँके “मैं अकेल कपि भालु बहु” का भाव 'सही न जाड़ कपिर कै 
मारी से स्पष्ट किया। 
रा० प्र०-'“बलु पाड़ बिसेवी' का भाव कि अभीतक मेघनाद और रावणके मुकाबिलेमें पैदल ही 
लड़ते हुए जोतते आये और अब तो बराबरका युद्ध होगा तब क्या कहना है, अवश्य जय पायँगे। 
सो माया रघुबीरहिं बाँची। लछिमन कपिन्ह सो मानी * साँची॥ ७॥ 
देखी कपिन्ह निसाचर अनी। अनुज सहित बहु कोसलधनी।॥<८॥ 
शब्दार्थ-बाँचना-बचाना, छोड़ देना। वचन ठीक समझना, पढ़ना। 'बाँची' का अव्ययार्थ 'सिवाय' 
एवं 'छोड़कर' है। 
अर्थ-उस मायाको श्रीरघुनाथजीने ही ठीक-ठीक समझा। श्रोलक्ष्मणजी और वानरोंने उसे सच्चा मान 
लिया॥ ७॥ वानरोंने राक्षती सेना और भाई लक्ष्मणसहित बहुत-से कोसलपति राम देखे॥ ८॥ 
नोट--राबणको मायाकी चर्चा महाभारतमें इस प्रकार है कि फिर शत्रुद्ाए अपनी सेना मारी जाती 
हुईं देखकर वह मायावी रावण माया रचने लगा। उसकी देहसे सैकड़ों, सहस्रों राक्षत बाण-शक्ति आदि 
लिये हुए दिखायी दिये। उन सबोंको श्रीरामजीने दिव्यास्त्रसे मारा। फिर भी रावणने और माया रची कि 
राम और लक्ष्मणके बहुत-से रूप बनाकर उनपर दौड़ा। बादमें राक्षस श्रीराम-लक्ष्मणपर धनुष-बाण लिये झपटे। 
उसकी मायाकों देखकर लक्ष्मणजी श्रीरामजीसे बड़े गम्भीर वाणीसे बोले कि हम लोगोंके सदृश स्वरूप 
धारण किये हुए इन पापी राक्षसोंको मारिये तब रामचद्धजीने उन सब अपने सदृश स्वरूपधारियोंकों माग। यथा-- 
“ततः ससैन्यमालोक्य वध्यमानमरातभि:। मायाबी चासृजन्मायां रावणों राक्षसाधिप:॥ तस्य देहविनिष्क्रान्ताः 
शतशो5थ सहस्त्रशः । राक्षसा: प्रत्यदृश्यन्त शरशक्त्यृष्टिपाणय: ॥ तान्‌ रामो जध्निवान्‌ सर्वान्‌ दिव्येनास्त्रेण राक्षसान्‌। 
अधथ भूयो5पि मायां स व्यदधाद्राक्षसाधिप:॥ कृत्वा रामस्थ रूपाणि लक्ष्मणस्थ चर भारत। अभिदुद्राब राम॑ च 
लक्ष्मणं च दशानन:॥ ततस्ते राममार्च्छन्तो लक्ष्मणं च क्षपाचरा:। अभिपेतुस्तदा राम॑ प्रगृहीतशरासना:॥ ता 
दृष्ठा राक्षसेन्रस्थ मायामिक्ष्वाकुनन्दन:। उबाच सर सौमित्रिस्संभ्रान्तो बृहद्वच:॥ जहीमान्‌ राक्षसान्पापानात्मन: 
प्रतिरूपकान्‌। जघान रामस्तांश्ान्यानात्मन: प्रतिरूपकान्‌॥' (वनपर्व २९०। ५-११) 





* सब काहू मानो करि। | बहुँ अंगद लछिमन कपि घनी-(का०)। 


मानस-पीयूष ४७० # श्रीमते रामचन्द्राय नम: # दोहा ८८ ( छंद ) 





पं० वि० त्रिपाठीजी--जिस लेखको जो बाँच नहीं सकता, उसे उसका भेद मालूम नहीं हो सकता। वह 
माया किसीकी समझमें नहीं आयी, जैसे अपरिचित अक्षरोंमें लिखी हुई चीठी किसीकी समझमें नहों आती। 
मायाका बाँचना उसकी करामातको समझ लेना है कि अमुक उपाय किया गया है, जिससे यह झूठा दृश्य दिखायी 
'पड़ रहा है। आजकलका सिनेमा उसी मायाका एक भद्दा रूप है। जब कुहक विद्या-( साइन्स-) की और अधिक 
उन्नति होगी तब सिनेमाका दृश्य रणाक्णके खुले मैदानमें दिखाया जा सकेगा। यह साइन्स (पाश्चात्त्य विज्ञान) 
बड़े कामकी चीज होनेपर भी संसारको ही दृढ़ करनेवाली है, अत: इसका परमार्थपथके पथिकोंमें कोई आदर 
नहीं है, क्योंकि यह भी एक प्रकारका शिल्प है, यथा 'तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या बिमुक्तये। आयासायापरे 
कर्म विद्यान्या शिल्पनैषुणम्‌॥' कर्म वही है जिससे बन्ध न हो, विद्या वही है, जिससे मुक्ति हो। दूसरे कर्म 
तो परिश्रमके लिये हैं, और दूसरी विद्या शिल्पकी निषुणठामात्र है। जैसे सिनेमाके भेदके जाननेबालेके लिये 
वह दृश्य अत्यन्त झूठा है, और सिनेमामेंका किला और फौजका संहार हँसीखेल है, उसी भाँति रावणके दिखाये 
हुए दृश्यको नष्ट कर देना श्रोरामजीके लिये हँसी-खेल था; क्योंकि उन्होंने उसका मर्म जान पाया था। 
'प० प० प्र०--'देखी कपिन्ह““““”“” में मात्राऑंकी कमी करके श्रीलक्ष्मणजी और सेनाभरका चकित 
होना, किंकर्तव्यविमूढ़ होकर स्तम्भित हो जाना इत्यादि सूचित कर दिया। 
छं०--बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे *। 
जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे॥ 
निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसलधनी। 
माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी॥ 
अर्थ-बहुत-से राम-लक्ष्मण देखकर वानर और रीछ मनमें अत्यन्त ही (झूठे डरसे) डर गये। लक्ष्मणसहित 
जो जहाँ हैं वह वहां खड़े रहकर इस तरह देखने लगे मानो लिखे हुए चित्र हो हैं (कि एकरस टकटको लगाये 
देख रहे हैं, हिलते-डोलतेतक नहीं)। अपनी सेनाकों चकित (आश्चर्ययुक्त) देख दुःखके हरनेवाले भगवान्‌ 
'कोसलपति श्रीरामजीने हँसकर धनुषपर बाण सजकर निमेषमात्रमें ही माया हर ली। सब वानर-सेना हर्षित हो गयी। 
नोट-१ “अति अपडरे” (क)--अपडर झूठे डरसे डरनेको कहते हैं, यथा-“अपडर उरेडँ न सोच 
समूले। रबिहि न दोसु देव दिसि भूले॥' (२। २६७। ३), “समुझि सहम मोहि अपडर अपने। सो सुधि 
राम कीन्ह नहीं सपने॥' (१। २९। १) भाव कि यह झूठी माया है इससे डरना न चाहिये था। (ख) 
वानर अत्यन्त भयभीत हुए कि हमारी ओर तो एक ही राम और एक हो लक्ष्मण हैं और उधर असंख्य, 
तब कैसे क्‍या होगा? हम सबका मरण निश्चय है। वा, इससे डरे कि सब हमारे स्वामी हैं इनसे कैसे 
लड़ेंगे। (पं०) श्रीसीतारूप परीक्षार्थ धर लेनेपर शिवजीने सोचा धा कि सतीमें प्रेम करनेसे 'मिट॒ड़ भगतिपथ 
होड़ अनीती' तब यहाँ तो सभी रामभक्त हैं। वे रामरूपपर कैसे प्रहार कर सकेंगे। अत: सब भयत्रस्त 
किंकर्तव्यविमूढ़, चित्रलिखित-से हो गये। (प० प७ प्र०) 
नोट-२ 'हैसि सर चाप सजि कोसलथ्त्री।' (क) हँसना रावणके निरादरार्थ एवं इस कौतुकपर है 
कि इसकी मायासे लक्ष्मणतक चकित हो गये हैं। पुनः हँसकर सेनापर कृपा सूचित की। पुन: भाव कि 
सामान्य राक्षसी मायाके नाशके लिये अपनी वैष्णवी माया हासकों काममें लाये। हँसी आपकी माया है, 
डसे बाणके साथ भेजा। (ख) हँसनेमें 'कोसलथनी” और मायाहरणमें “हरि” पद दिये। राजा कौतुक देखते 
ही हैं, अत; हँसे। पुनः कोसलपति हैं, वे शत्रुको क्या समझें--“कालहु डरहिं न रत रघुबंसी।' अत: निरादरार्थ 
हँसनेमें यह पद दिया। (ग) दुःख हरा क्योंकि हरि हैं। हरिका अर्थ ही है, दुःख हरनेवाला। साभिप्राय 
होनेसे “परिकराह्भुर अलड्डार' है। (प्र० सं०) | पुनः “अनी” कहनेमें भाव यह है कि सेवकॉके निकट होनेपर 





* बहुबालिसुत लछिमन कपीस बिलोकि मर्कट अपडरे। 


दोहा ८८ # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्ये # ४७१ लड्लाकाण्ड 





भी यदि धनीद्वारा उनका कुशल न होगा तो अनुचित होगा। यहाँ कृपाल या समानार्थक शब्दका प्रयोग 
न करतेमें भाव यह है कि अपने भक्तों, आश्रितॉंका भय निवारण करना अपना कर्तव्य समझकर बाणको 
चढ़ाकर मायाका निवारण किया। (प० प० प्र०) 

प० प० प्र०--रावणने मायासे अमित राम-लक्ष्मण उत्पन्न किये, पर किसीने कपि-सेनापर प्रहार न 
किया। इससे सूचित किया कि मायारूपी राम-लक्ष्मणमें भी वानर-सेनापर प्रहार करनेकी इच्छा ही न 
हुई। यह 'रामरूप' ग्रहण करनेका परिणाम है। 

नोट--३ हनु० १० में लिखा है कि अपने मन्दिर्में कुछ समय व्यतीत करके उसने विचार किया कि 
यहाँ प्रपंचकी रचना करके निस्संदेह जानकौकों भोगूँगा। ऐसा विचारकर वह राक्षसेश्वर मायासे रामरूप हो 
गया और उस रूपसे अशोकवाटिकामें प्रवेश किया और श्रीजानकीजीके समीप गया। श्रीजानकीजी उठकर 
खड़ी हो जाती हैं। पर रामरूप धारण करनेपर उसके हृदयसे संपूर्ण पापकी मूल चे्टाएँ जाती रहती हैं। 
यथा--'निजमन्दिर कियन्तं समय नीत्वा ( स्वगत ) इदानीं महान्तं प्रपञ्ममुत्पाद्य नूनं जानकीमनुभविष्यामीत्यवधार्य ', 
“राम: स्वयमभवदथों मायया“““““॥' ( एबंबिधो भूल्वा पुनरशोकवनिकां प्रविश्य रावण: ) लंकाभटो5थ 
रघुनन्दनवेषधारी पापों जगाम पुरतो जनकात्मजाबा:॥“““““', 'क्लीबो विशीर्णमणिदण्डयुतः स्परातपापात्ततः 
'शिवशिवान्तरधीयत द्राक्‌॥' (१८-१९, २१) (रावण विशीर्ण मणिदण्डसे युक्त होता हुआ नपुंसक होकर 'शिव! 
'शिव' कहता हुआ कामके दुःखरूप पापसे उसी समय अन्तर्धान हो गया)।॥ (“अथ निजकेलिमन्दिरस्थो रावण: 
स्वग॒तम्‌) कृतकृत्येडपि रामत्वे बर्तमाने मद्रि स्थिते॥ निरुध्यन्त्येब ता: सर्वाः पापमूला: प्रवृत्तय:॥' (२३) प्ये 
विचार स्वयं रावणके हैं)। और कवि भी कहते हैं कि 'नाम्नापि अस्थ कुत डच्छति तस्य रूपादन्याड्रनापहरणे 
न मनः कदाचित्‌॥' (१९) अर्थात्‌ जिन श्रीरामचन्रजीके नाममात्रसे हो मन परस्त्रीक हरणकी इच्छा नहीं करता 
है, तब उनके साक्षात्‌ रूपसे परस्त्रीके हरणमें मन कैसे इच्छा करेगा।-यह श्रीरामरूपका महत्त्व है। पवित्रात्मा 
संतोंका स्मरण एवं ध्यान करनेका यह महत्त्व है कि कामादि खलोंसे रक्षा होतो रहती है, फिर अनघ, अकाम, 
सर्वदिव्यगुणसम्पन्न सर्वहियगुणरहित श्रीरामजीका स्मरण और ध्यान कलियुगके पापोंसे हमारे अन्तःकरणकी रक्षा 
क्यों न करेगा, उनका स्मरण हमें अवश्य पवित्रात्मा बना देगा, यह विश्वास करके हमलोगोंको भगवान्‌ रामका 
स्मरण और ध्यान करना चाहिये। घ्छयह उपदेश हमें इस प्रसड्डसे मिलता है। 

टिप्पणी-१ 'हरकी सक़ल मर्कट अनी' इति। यहाँ हर्ष तो कहा पर साथ ही वानरोंका उत्साहपूर्वक 
लड़नेको जाना यहाँ नहों कहा, यद्यपि जब-जब मायाका हरण करना ग्रन्थकारने लिखा है तब-तब कपि- 
भालुका युद्धहेतु धावना भी कहते आये हैं। इससे जनाया कि हर्ष हुआ पर रावणके सम्मुख युद्धकी इच्छा 
नहीं रह गयी। यथा--'दशाननः क्रोधविवृत्तनेत्रों यततो यतो3भ्येति रथेन संख्ये। ततस्ततस्तस्य शरप्रवेगं सोढुं 
न शेकुईरियूथपास्ते ॥' (वाल्मी० ९५। ५३) अर्थात्‌ राबण क्रोधसे नेत्र फैलाकर रथपर चढ़कर जिस-जिस 
रास्तेसे रणभूमिपर दौड़ता है वहाँ-वहाँ उसके बाणवेगको बड़े-बड़े यूथपति वानर भी न सह सके। 

(प्र० स्वामीजी कहते हैं कि भगवान्‌के हास्यका ही यह परिणाम है। वे सेनाको विश्राम देना और 
स्वयं रावणसे द्न्दयुद्ध करना चाहते हैं। अतएव वानरोंकी इच्छा हो न हुई।) 

टिप्पणी-२ ० रावणको ब्रह्माका वरदान था कि जब जिस रूपके धारण करनेकी इच्छा मनमें होगी तब 
उसी समय तुम्हारा वह रूप हो जायगा। यधा--'छन्दतस्तव रूप॑ च मनसा यद्यथेप्सितम्‌। एवं पितामहोक्त॑ च 
दशग्रीवस्य रक्षस: ॥' (वाल्मी० उ० १०। २५) अर्थात्‌ ब्रह्माजीने रावणसे कहा कि हे राक्षस! स्वेच्छासे तुम जब 
जैसा-जैसा रूप बनानेकी इच्छा करोगे तब वैसा-वैसा रूप हमारे वरदानसे हो जायगा, इसमें कोई संदेह नहीं। 


दो०--बहुरि राम सब तन चितड़ बोले बचन गँभीर। 
द्वंद* जुद्ध देखहु सकल श्रमित भए अति बीर॥८८॥ 











# इंद्र-(का०)। द्न्द-(भाग्दा०) 


मानस-पीयूष ४७२ # ओसमते रामचन्द्राय नमः # दोहा ८९( १--४) 





अर्थ-फिर श्रीरामचन्द्रजी, सबकी ओर देखकर, गम्भीर बचन बोले-'तुम सब वीर बहुत ही थक 
गये हो, इससे अब हमारा और रावणका दइन्द-युद्ध देखो'॥८८॥ 
जोट--१ “बहुरि राम सब तन चितड़ बोले'/ (क) “बहुरि” अर्थात्‌ मायाहरणके पश्चात्‌ जब सेना 
प्रसन्न हुई तब राम हैं, सबके हृदयकों जानते हैं, दूसरे सब (अपार सेना) को एक ही जगहसे देख 
लिया इससे 'राम' पद दिया। यथा--“राम कृपा करि चितवा सबहीं। भए बिगत श्रम बानर तबहीं॥' (४७। 
२) (ख) इसमें ध्वनिसे यह इशारा है कि भगवान्‌ने कृपाकोरसे देखकर सबके श्रमकों दूर कर दिया। 
(ग)-सबके मुखकी चेष्टासे जान गये कि उत्साह जाता रहा है, सब डर गये हैं। अतः बोले। (घ) 
“बचन गँभीर' का भाव कि यह न कहा कि तुम डर गये हो, तुम्हारा उत्साह जाता रहा है; किंतु यह 
कहा कि तुम सब बहुत थक गये हो। पुनः गम्भीर बचन अर्थात्‌ जो दूरतक और सबको स्पष्ट सुन 
पड़े। यथा-“बोले घन डब गिरा गँभीरा॥' (७४। १२; लक्ष्मणजी) 
अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पंकज सिरु नावा॥१॥ 
तब लंकेस क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सन्मुख धावा*॥२॥ 
अर्थ--ऐसा कहकर श्रीरघुनाथजीने रथ चलाया। विप्रचरणकमलमें मस्तक नवाया॥ १॥ (जब रथ आगे 
बढ़ा) तब रावणके हृदयमें क्रोध छा गया और वह गरजता-दपटता हुआ सामने आया॥ २॥ 
पु० रा० कु०-विप्रचरणमें प्रणामसे मड्गलाचरण किया। यथा--“बांदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले कारि 
सबहि अचेत।' (अ० ७९) 
नोट--१ यह मानसिक प्रणाम है क्‍योंकि यहाँ विप्र नहीं हैं। पुनः, यह भी भाव है कि 'धृगुलता' 
चिह्न जो हृदयपर प्रत्यक्ष है उसको प्रणाम किया। इसीसे यहाँ ध्यानमें विप्रचरन भी कहा था--'उर धशासुर 
पद लस्‍स्यों।' (८४ छन्द) देखिये। मा० म० में “बिप्रचरन' से अगस्त्यजीको, वा रावणमें जो विप्र-अंश 
है उसको नमस्कार करनेका भाव कहा है। पंजाबीजीका मत है कि विप्रचरणमें प्रणाम करके जनाते हैं 
कि यद्यपि रावण ब्राह्मण है पर तुम्हारे ही लिये राक्षस जानकर हम उसे मारने जाते हैं, अत: क्षमा कीजियेगा। 
और बाबा हरिंदासजी लिखते हैं कि विप्रचरणोंकों प्रणाम करके मर्यादापुरुषोत्तम प्राणिमात्रकों धर्मकी शिक्षा 
दे रहे हैं कि ये चरण कार्य सिद्ध करनेवाले हैं। 
नोट--२ “तब लंकेस क्रोध उर छावा'/ क्रोधभा कारण कि--(क) इन्द्रके रथपर ये सवार होकर 
आये, आज इन्द्रकों यह साहस हुआ कि उसने अपना रथ सहायताके लिये भेजा। (ख) मुझ लोकविजयीके 
सम्मुख कोई वीर अकेला बढ़कर आगे आनेका साहस नहीं कर सकता और ये निःशद्ल आगे बढ़े आते 
हैं। (ग) श्रीरघुनाथजीको देख भाई, पुत्र और सेनाका मरण स्मरण हो आया। (घ) खिसियाया हुआ 
है; क्योंकि इन्होंने निमेषमात्रमें उसकी माया नष्ट कर दी। खिसियायेको क्रोध बहुत होता ही है। 
जीतेहु जे भट संजुग माहीं | सुनु तापस मैं तिन्‍्ह सम नाहीं॥३॥ 
रावन नाम जगत जसु जाना। लोकप जाके बंदीखाना॥ ४॥ 
अर्थ--ओरे तपस्वी! सुन, जिन योद्धाओंको तुमने युद्धमें जीता है, मैं उनकी तरह नहीं हूँ॥ ३॥ मेरा 
रावण नाम है, संसारभर जिसके यशको जानता है, जिसके कैदखानेमें लोकपाल भी पड़े हुए हैं॥ ४॥ 
नोट--१ (क) 'गर्जत तर्जत सन्मुख थावा' पूर्व कहा, अब “गर्जत तर्जत” का स्वरूप दिखाया। (ख) 
“सुनु तापस' इति। यह देवराज इन्द्रके रथपर चढ़नेपर कटाक्षके अभिप्रायसे कहा गया है (बं० पा०)। 
भाव कि इसपर चढ़नेसे तुम राजा नहीं हो गये, “तपसी' ही हो, श्रीरामजीको 'तापस' तो पूर्व भी कहता 
रहा है। यथा--'जिअत धरहु तापस दोउ भाई।” (३२। २), “मम पुर बसि तपसिर पर ग्रीती।' (५। ४१), 
*कहु तपसिह कै बात बहोरी।' (५। ५३) इत्यादि। वैसे ही निरादरपूर्वक यहाँ भी “'तापस' कहा। (ग) 


* आवा (का०) 





दोहा ८९ (५-०) # श्रीमद्रामचन््रचरणौ शरणं प्रपद्ये # ड७३ लक्गाकाण्ड 





“मैं तिहह सम नाहाँ' का भाव कि वे मेरे सामने तुच्छ हैं, उनमें हमारा-सा पराक्रम और यश कहाँ? आगे 
उनसे अपनेमें विशेषता दिखाता है। 
नोट--२ “राबन नाम" भाव कि जगत मात्रकों रुलानेबाला हूँ। इसीसे शिवजीने यह नाम रखा।-- 
जगत्‌कों रुलानेसे, कैलास उठानेसे, शिवजोके नामकरण करनेसे एवं लोकपालोंकों कैद करनेसे सारा 
जगत्‌ जानता है, 'जसु जाना' का भाव कि लोकपालॉंको कैद करनेका यश और किसोको नहीं प्राप्त हुआ। 
पुनः भाव कि हमें जगत्‌ जानता है, औरोंकी किसी-किसीने जाना; क्‍योंकि दिग्विजयी कोई न हुआ, 
न किसीने संसारभरकों रुलाया, हमारे समर-यशकों जगतू जानता है कि हम जंगतूको रुलानेवाले हैं। 
खर दूषन बिराध* तुम्ह मारा। बधेहु व्याध इब बालि बिचारा॥५॥ 
निसिचर निकर सुभट संघारेहु। कुंभकरन  घननादहि मारेहु॥६॥ 
आज; बबरु सब लेडँँ निबाही। जौं रन भूप भाजि नहिं जाही॥७॥ 
आज करों खलु काल हवाले । परेहु कठिन राबन के पाले॥८॥ 
शब्दार्थ-निबाहना>चुकाना, निबटाता। 'पाले पड़ना” मुहावरा है।-वशमें या पकड़में आना। 
अर्थ-तुमने खर-दूषण और विराधको मारा। बेचारे बालिको व्याधकौ तरह (छिपकर) मारा॥ ५॥ 
बड़े-बड़े निशिचर योद्धाओंके समूहका तुमने संहार किया और कुम्भकर्ण तथा मेघनादकों मारा॥ ६॥ हे 
भूष! यदि तू रणसे भाग न गया तो आज मैं सबका वैर चुका लूँगा॥ ७॥ आज निश्चय हो तुम्हे मैं 
कालके हवाले कर दूँगा। (मार डालूँगा), तुम आज कठिन रावणके पाले पड़े हो॥ ८॥ 
नोट--१ “खर दूषन”““““”इति। (क) अरण्य, किष्किन्धा और यहाँतक लड्ढराकाण्डके बीर योद्धाओंको 
क्रमसे गिताया। (ख) “बालि बिचारा' का भाव कि वह वानर ही तो था। ध्वनि यह है कि तुमने वीर 
कौन-सा मारा है जिसपर घमण्डमें भूले हो? इन्हींको जीतनेसे अपनेको वीर समझते हो! यदि बलबा 
गर्व है तो मेरे सामने वौरता दिखाओ। यथा हनुमन्नाटके--'स्त्रीमात्नं ननु ताटका मुनिसुतो रामः स विप्रः 
शुचिर्मारीचों मृग एवं भीतिभवनं बाली पुनर्वानर:। भो काकुत्स्थ बिकत्थसे वद रणे वीरस्त्ववा को जितो 
दोर्गब॑स्तु तथापि ते यदि पुनः कोदण्डमारोपय॥' (१४। २६१) अर्थात्‌ रावण बोला कि स्त्रीमात्र तो ताड़का, 
मुनिषुत्र ब्राह्मण परशुराम, जो स्वभावसे ही पवित्र था, मारीच मृग भयका भण्डार, ऐसा ही बंदर बाली, 
ये ही तुमने जीते हैं। हे काकुत्स्थ! तो भी तुम अपनी श्लाघा करते हो। कहो तो तुमने बौर कौन- 
सा जीता है? तथापि यदि तुम्हें भुजदण्डॉंका गर्व है तो धनुष चढ़ाओ। 
“बालि बिचारा' में उपर्युक्त उद्धरणसे भी अधिक भाव यह है कि बालि लाचार था, उसको चारा 
ही क्‍या था, तुमने उसे छिपकर मारा था, सामने तो आये हो न थे। इस जीतको जीत नहाँ कहेंगे। 
नोट--२ (क) 'बैर निबाहना'-“बैर चुकाना'“बदला लेकर संतुष्ट हो जाना। (ख)--“जाँ रन भूष भाजि 
नहिं जाही।' भाव कि भागे हुएपर मैं अस्त्र-शस्त्र नहीं चलाता-'समर बिमुख मैं हतडँ न काहू।' 
(३। १९। १२; रामोक्ति) 
रा० प्र० का मत है कि छत्र-चामरादि राजचिहों एवं रथारूढ़ होनेसे 'भूप  कहा।' परंतु ' भूष', 'नृप', 'तापस' 
ये ही शब्द रावणने श्रीरामजीके लिये प्रयुक्त किये हैं। जब रथारूढ़ न थे तब भी 'भूप' औँ 'नृप' का प्रयोग 
रावणने किया है, यथा--'जेहि बिधि हरि आनौं नृप नारी।” (३। २५; मारीचप्रति), 'भूष सुजस खल मोहि 
सुनावा।' (२८। ५; अड्गदप्रति) एवं “हाँ मारिहाँ भूप दोउ भाई।' (७८ । १२: सेनासे) | इत्यादि। अतएव 'भूप' 
सम्बोधन निरादरार्थ है। भाव कि तुम मनुष्योंके राजा हो, भला राक्षसराजके सामने ठहर सकते हो! स्मरण रखनेकी 
बात है कि रावणने 'राम' नाम कहीँ नहीं लिया है, केवल मरते समय “राम' नाम उच्चारण किया है। 
पु० रा० कु०-+ करों खलु काल हवाले” से जनाया कि काल मेरे वश है, मेरी आज्ञामें है; वशवर्ती 





* कबन्ध। | सुभट निकर। $ बयरु आज--(का०)। 


सानस-पीयूष .___ ४७४ # श्रीमते रामचन्द्राय सम: + दोहा ८९ ( ९-१०) 


होनेसे मेरा कहा करेंगा। 

नोट--३ “खरदूषन”“““पाले” इन चौपाइयोंसे मिलते हुए श्लोक ये हैं--'खरस्थ कुम्भकर्णस्य 
प्रहस्तेद्रजितोस्तथा। करिष्यामि प्रतीकारमद्य शत्रुवधादहम्‌॥' , 'हतो भ्राता च येषां बै बेषां च तनयो हतः। बथेनाद्य 
रिपोस्तेषां करोम्यश्रुप्रमाज॑नम्‌॥' (वाल्मी० ९५। ११, १८) अर्थात्‌ (ये बचन रावणने महोदरादिसे कहे हैं।) 
शत्रुको वध करके आज खर, कुम्भकर्ण, प्रहस्त और मेघनादके मारनेका बदला चुकाऊँगा। जिनके भाई 
और जिनके पुत्र मारे गये हैं उन सबके आँसू आज शत्रुके मारे जानेसे पुछ जाय॑ँगे। 

पुनश्च--'रक्षसामद्य शूराणां निहतानां चमूमुखे। त्वां निहत्य रणश्लाधिन्‌ करोमि तरसा समम्‌॥ तिष्ठेदानीं 
निहन्मि त्वामेष शूलेन राघव।' (वाल्मी० १०२। ५७-५८) अर्थात्‌ हे समरश्लाघिन्‌! आज तुमको मारकर 
समरमें मारे हुए वीर राक्षसोंक सदृश कर दूँगा। हे राघव! खड़े रहो, तुमको त्रिशूलसे मारता हूँ। (चतुर्वेदीके 
संस्करणमें यह १०४। १९, २० में है)। 

नोट--४ शाल्वने भगवान्‌ श्रीकृष्णसे और जरासन्धने बलरामजीसे भी ऐसा ही कहा है। यथा-'तं 
त्वाह्य निशितैबांणैरपराजितमानिनम्‌। नयाम्यपुनरावृत्ति यदि तिष्ठेम॑माग्रत:॥' (भा० १०। ७७। १८), 'तब राम 
यदि श्रद्धा युध्यस्व धैर्यमुद्रद। हित्वा" (भा० १०। ५०। १९), अर्थात्‌ तुम्हें अपने अपराजित होनेका 
अभिमान है, यदि थोड़ी देर हमारे सम्मुख ठहसनेका साहस करोगे तो तुमको मैं अभी उस लोकको पहुँचा 
दूँगा जहाँसे कोई लौटता नहों। युद्धकी श्रद्धा है तो धैर्यसहित युद्ध करो। 

पु० रा० कु०-सरस्वतीकृत अर्थ यह है कि 'सब वैर--सुर-मुनि-अपराध, सीताहरणापराध--यदि 
पूर्ववत्‌ रावण रणसे भाग न जाय तो आज इसी दिन, राम! इस खलको कालके हवाले करो; क्योंकि 
रावणके पाले (को बचानेसे) सबको कठिन पड़ रहा है।' यही देवताओंने पूर्व. विनती भी की है कि 
*दारुन बिपति हमहि एहि दीन्ही॥"”””अब जनि नाथ खेलावहु एही। अतिसय बिकल होति बँदेही॥' 

“कठिन रावण'। तात्पर्य कि अन्य रामावतारोंमें तुमने जो रावण मारे उनके समान मुझे न जानों। 
मैं कठिन रावण विष्णु आदिको जौतनेवाला हूँ ।--“वज्ोल्िखितपीनांशौ विष्णुचक्रपरिक्षिती।' (वाल्मी० सुं०) 

सुनि दुर्बघन कालबस जाना। बिहँसि बचन कह कृपानिधाना॥९ ॥ 
सत्य सत्य सब तब प्रभुताई। जल्पसि जनि देखाड मनुसाई॥९१०॥ 

अर्थ-दुर्बचन सुनकर और उसे कालवश जान दयासागरने हँसकर ये वचन कहे॥ ९॥ तुम्हारी सब 
प्रभुता सच है, सच है। परन्तु अब व्यर्थ बको मत, अपना पुरुषत्व दिखाओ॥ १०॥ 

टिप्पणी--१ “सुति दुर्बचच'। 'आज कराँ खलु काल हवाले” इत्यादि दुर्वचन हैं। (ख) 'बिहँसि' इति। 
अनादार्थ हँसे और निःशड्भू तो हैं ही, यथा-'छत्रिय तनु धारि समर सकात्रा। कुलकलंकु तेहि पावर आना॥' 
(बाल० १। २८४। ३) [अपने सखाके वीरर्समय बचन सुनकर हँसे; किन्तु जीवका अभिमान समझकर हँसे। 
(करु०)।] (ग) दुर्बचन सुनकर क्रोध आना चाहिये पर सज्जन लोग खलके दुर्वचन सह लेते हैं, उसपर क्रोध 
नहीं करते; यथा--'बूँद अधात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचत संत सह जैसे ॥' प्रत्युत उसपर तरस खाकर कि 
इसका तो स्वभाव ही यह है, प्रत्युत्तरमें दु्वंचन न कहकर उसे क्षमा ही करते हैं। वैसे ही यह समझकर कि वह 
कालवश है, श्रीरामजीने हँसकर उसे क्षमा किया। उसपर दया की। कृपानिधान हैं, अत: क्रोध कैसे आबे? 

नोट--१ (क) “सत्य सत्य“”““” इति। भाव कि तुम्हारा लोकपालोंको जीतना सत्य है, पर हम 
लोकपाल नहीं हैं, योद्धा हैं--“कालहु डरहिं न रन रघुबंसी: “लरहिं सुखेन काल किन होई), जो तेरा बल 
है उसे दिखा। (पं०) अथवा सत्य-सत्य जो तेरी प्रभुता हो उसे दिखा। (पां०)। यहाँ “सत्य-सत्य” शब्द 
अर्धाड्जीकारके अर्थमें है; क्योंकि साथ ही आगे “जल्पसि जनि““““” भी कहते हैं। 

(ख) “जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई ' इति। भाव कि तुम्हारी वीरता हम जानते हैं, यही है न कि शूत्यमें 
पर-स्त्रीका हरण किया, इत्यादि। इसोपर वीर बनते हो। वाल्मीकिजीने जो श्रीरामजीका उत्तर ८ श्लोकोंमें लिखा 
है वह “जल्पसि जनि'” इतनेमें ही संक्षेपसे मानसकारने कह दिया। वाल्मी० १०३ में परुष वचन कहे हैं। 








दोहा ८९ (छंद ) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्ये + ४७५ लद्बाकाण्ड 





मिलान कीजिये-(१) “ततः क्रोधसमाविष्टो रामो दशरथात्मज:। उबाच रावण बीर: प्रहस्थ परुष बच:॥ मम 
भार्या जनस्थानादज्ञानाद्राक्षसाधम। हता ते विबशा यस्मात्तस्मात्त्वं नासि वीर्यवान्‌॥ मया विरहितां दीनां वर्तमानां 
महाबने। बैदेहीं प्रसभं हत्वा शूरोडहममिति मन्यसे॥ स्त्रीषु शूर विनाथासु परदाराभिमर्शनम्‌। कृत्वा कापुरुष कर्म 
शूरोहहमिति मन्यसे॥ भिन्नमयांद निर्लज्ज चारित्रेष्वनवस्थित। दर्पान्यृत्युमुपादाय शूरो5हमितिमन्यसे॥ शूरेण 
अनद्रात्रा बलैः समुदितेन च। श्लाघनीय॑ महत्कर्म यशस्थं च कृत त्वया॥ उत्सेकेनाभिपत्रस्थ गर्हितस्थाहितस्य 
चअ। कर्पणः प्राप्रुहीदानीं तस्याद्य सुपहत्फलम्‌॥ शूरो5हमिति चात्मानमबगच्छसि दुर्मते। नै लण्जास्ति ते सीता 
चौरवद्ठधपकर्षतः॥ यदि मत्सन्निधौ सीता धर्षिता स्थाक्तया बलातू॥ भ्रातरें तु खरं पश्येस्तदा मत्सायकैह्त:॥' 
(१०-१८) अर्थात्‌ बौर रामचन्द्रजी क्रोधपूर्वक हँसकर रावणसे कठोर वचन बोले कि 'हे राक्षसाधम! 
हमारी अनुपस्थितिमें तू हमारे पराक्रमकी अवज्ञा कर जनस्थानसे हमारी विवश भार्याकों हर लाया है, इससे 
तू बीर्यबान्‌ नहीं है। परोक्षमें एकान्तमें बैठो हुई दु/खित सीताकों वनमेंसे चुराकर तू अपनेकों शूर समझता 
है? हे अनाथ स्त्रियॉक सामने शूर रावण! तू परस्त्रीहरण करनेवाला कापुरुषोंका कार्य करके अपनेकों शूर 
मानता है? तुम कुबेरके भाई हो, तुमने हर्षित हो बनमें अवश्य ही यह बड़ा प्रशंसनीय और बड़े यशका 
कार्य किया है। अस्तु, अहंकारसे किये हुए निन्दित और अहित कर्म करनेका बड़ा भारी फल ग्रहण 
करो। ओरे दुष्टमति! तू चोरके समान सौताकों लेकर भागा है, तुझे लज्जा नहों आती? यदि हमारे सामने 
सीताको धर्षित करता तो हमारे बाणसे तू अपने भाई खरकों देखता।' 

(२) रावणपुत्र अतिकायसे बाल्मीकौयमें इसो प्रकाके वचन लक्ष्मणजीके हैं-'कर्मणा सूचयात्पानं 
न विकत्थितुमईसि। पौरुषेण तु यो युक्‍तः स तु शूर इति स्मृत:॥', “न बाक्यमात्रेण भवान्‌ प्रधानौ न 
ऋत्थनात्सत्पुरुषा भवन्ति। मयि स्थिते धन्विनि बाणपाणौ निदर्शयत्वात्यबलं दुरात्मन्‌।' (७१। ५९, ५८) अर्थात्‌ 
बातोंसे कोई प्रधान नहीं होता, सज्जन अपनी प्रशंसा आप नहों करते। धनुष-बाण लेकर मैं उपस्थित हूँ, 
तू कर्मसे अपना पराक्रम दिखा, शेखो न बघार, पुरुषार्थी ही शूर कहा जाता है। 

(३) वाल्मीकीयमें इस प्रकारकके वचन लक्ष्मणजीके रावणसे हैं--“तमाह सौमित्रिरविस्मयानो 
'गर्जन्तमुदवृत्तशिताग्रदंष्टम्‌। राजन्न गर्जन्ति महाप्रभावा विकत्थसे पापकृतां वरिष्ठ॥ जानामि बीर्य॑ तब राक्षसेन्द्र 
बल॑ प्रताप च पराक्रम॑ च। अवस्थितो5ह॑ शरचापपाणिरागच्छ कि मोघविकत्थनेन॥' (५९। ९५-९६) अर्थात्‌ 
विस्मयरहित लक्ष्मणजी गरजते हुए उजले दाँतवाले रावणसे बोले कि हे रावण! महाप्रभाववाले लोग गर्जते 
नहीं, पर तुम अत्यन्त पापी होनेके कारण बकते हो। हे राक्षसेश्वर! हम तुम्हारा बल, बीर्य, प्रताप तथा 
पराक्रम सब जानते हैं, इसोलिये धनुष-बाण लिये हाथमें आये हैं, व्यर्थ बकनेमें क्या है? 

--उपर्युक्त सब भाव “सत्य सत्य““”““मनुसाई' में आ जाते हैं। (प्र० सं०) 

पर (ग) “जल्पस्ति जनि देखाड मनुसाई' यह “जाँ रत भूष भाजि नहं जाईं' का उत्तर है। भाव कि 
पुरुषार्थ दिखाओ, चोट करो। मेरा बीरवृत्त है, मैं पहले चोट नहीं करता। मुखसे कालके हवाले करनेको 
कहते हो, पर किया तो कुछ होता नहीं इत्यादि। रणाड्रणमें शत्रुके सम्मुख खड़े होनेपर व्यर्थ बकवादका 
कोई मूल्य नहीं होता, उनको पुरुषार्थ करके दिखाना चाहिये, कायर लोग हो बकबक करते हैं। यथा-'सूर 
समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु। विद्यमान रन पाड़ रिपु कायर कथहिं ग्रतापु॥' (१। २७४), 
'विक्रान्ता बलबन्तों वा ये भवन्ति नरपंभा:। कधबन्ति न ते किंचित्तेजसा चाति गर्विता:॥' (वाल्मी०) इस 
प्रकार 'जल्पसि' से उसे कायर कह भी डाला। 

छंद--जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा। 
संसार महुँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा॥ 
एक सुमन प्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं। 
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं॥ 





मानस-पीयूष ४७६ # श्रीमते रामचन्द्राय नम; + दोहा ८९ 





शब्दार्थ-पाटल-पाँडर, पाढरका वृक्ष। इसेके पत्ते बेलके समान होते हैं। यह दो प्रकारका होता है। 
एक सफेद फूलका, दूसरा लाल फूलका। रा० प० में पाटलका अर्थ गुलाब किया है। “गुलाब' अर्थ 
गौड़जी भी ठीक कहते हैं। बागनाचलना, फिरना, बोलना। 

अर्थ-व्यर्थ बकवाद करके अपना सुवश न नाश करो। क्षमा करना, मैं तुम्हें नीति सुनाता हूँ सुनो। संसारमें 
पुरुष तीन प्रकारके हैं--पाटल, आम और कटहलके समान। एक (पाटल) फूल देते हैं, एक फूल और फल 
दोनों देते हैं और एक (तीसरे) में केवल फल ही लगते हैं। इसी तरह एक कहते हैं (करते नहीं), एक कहते 
हैं और करते भी हैं और एक करते हैं परन्तु जबानसे नहीं कहते। 

नोट--१ 'जल्पना करि सुजस नासहि: यथा--'छीजहिं निश्चिचर दिन अरू राती। निज मुख सुकृत 
कहे जेहि भाँती॥ पुन: यथा--'परैः प्रोक्ता गुणा बस्य निर्गुणोईपि गुणी भवेत्‌। इद्रोउपि लघुतां याति स्वयं 
प्रख्यापितै्गुणै:॥" (सु० २० भा० १, आत्मश्लाघानिन्दाप्रसंग)। अर्थात्‌ जिसके गुणोंको दूसरे वर्णन करते 
हैं बह गुणहीन होनेपर भी गुणवान्‌ हो हो जाता है और अपना गुण अपने मुखसे कथन करनेसे इद्ध 
भी लघुत्वको ही प्राप्त होता है। 'एक कहत मोहि सकुच अति“ #” (२४), “लाजबंत तब सहज सुभाऊ। 
निज गुन निज मुख कहसि न काऊ॥' (२९। ६) तथा 'तोहि अबहिं का कराँ बड़ाईड।' (३४। ११) देखिये। 

नोट--२ “करहिं छमा' इति। इसका एक भाव तो यह है कि बहुत कहा अब 'सब्र कर, ठहर 
जा' और दूसरा यह कि मेरे इस नीतिके उपदेशको क्षमा कर क्योंकि तू नीतिज्ञ है परन्तु इस समय 
तू इस नीतिकों भूल रहा है कि 'सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु, 

मोट-३ “एक कहहिं“““” भाव कि निकृष्ट कहते भर हैं, मध्यम कहते हैं और कर भी दिखाते 
हैं और उत्तम लोग बात मनमें हो रखते हैं जो करना है उसे कर दिखाते हैं। यथा--'वृथा त्व॑ कत्थसे 
मन्द न पश्यस्थन्तिकेउन्तकम्‌। पौरुष दर्शयन्ति सम शूरा न बहुभाषिण:॥" (भा० १०। ७७॥ १९) अर्थात्‌ 
श्रीकृष्णजी शाल्वसे कहते हैं कि तू वृथा क्या डींग मारता है, अपने निकट उपस्थित मृत्युकों नहीं देखता। 
वीर पुरुष अपना पराक्रम दिखाते हैं, तेरी तरह व्यर्थ बड़-बड़ नहों करते।-(जरासंधसे भी श्रीकृष्णजीके 
ऐसे ही वचन हैं।) विशेष “जल्पसि जनि” (८९। १०) में देखिये। 

'प० प० प्र०-यहाँ तीन प्रकारके पुरुष कहे गये। एक प्रकारके शेष रह गये 'जो कहते भी नहीं 
और करते भी नहीं”। यह वर्ग समाजको न तो सुख ही दे सकता है और न दुःख ही, अतएव निरुपयोगी 
जानकर न कहा। 

पं०--उपदेशका सार यह है कि तेरा अन्तकाल है, अब तो उत्तम पुरुषोंकी रीति ग्रहण कर। 

दो०--रामबचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ज्ञान 
बयरूु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान॥८९॥ 
अर्थ--श्रीरामचन्द्रजेके बचन सुनकर वह खूब हँसा (और बोला) मुझे ज्ञान सिखाते हो, पहले बैर 
करते न डरे, अब प्राण प्रिय लग रहे हैं॥८९॥ 

नोट-१ श्रीरामजी हँसे, उसके उत्तरमें रावण भी हँसा। यथा वहाँ “कहेड बिहँसि” तथा यहाँ 'सुन्रि 
बिहँसा'! हँसना निरादरार्थ है। 

पु० रा० कु०-१ श्रीरामजीने कहा कि नौति सुन, बकबक करके सुयश न मिटा, उसीका उत्तर 
है कि “मोहिं सिखावत”“””। भाव कि क्षत्रिय होकर मुझे ज्ञान सिखाते हो, नहीं जानते कि मैं पंडित ' 
हूँ, मैंने वेदोंपर भाष्य किया है। मुझे सिखाते हो कि क्षमा करो जिसमें मैं तुम्हें छोड़ दूँ। २-'बयरू 
करत तब नहिं डरे” अर्थात्‌ जब शूर्पणखाके नाक-कान काटकर खरदूषणसे वैर किया था। ३--सरस्वतीकृत 
अर्थ--' मैंने बैर किया तब न डरा, तो क्‍या अब प्राण प्यारे लगेंगे?” 

गौड़जी--श्रीरघुनाथजीके मुखसे निकले हुए “करहि छमा' वाक्‍्यको स्वार्थपक्षमें मरोड़कर रावण कहता 








दोहा ९० ( १-२) # श्रीमद्रामचद्धचरणौ शरणं प्रपद्े # ४७७ लड्लाकाण्ड * 





है कि रणभूमिमें अब क्या क्षमा माँगते हो, डरके जाओगे कहाँ? ऐसा ही था तो बैर ही क्‍यों किया? 
रावणका यह उत्तर असंगत वक्रोक्ति है। 
'कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकंधर। कुलिस समान लाग छाँड़े सर॥१॥ 
नानाकार सिलीमुख धाए। दिसि अरु बिदिसि गगन महि छाए॥ २॥ 
अर्थ-दुर्वचन कहकर क्रोधित रावण वद्रसमान बाण छोड़ने लगा॥ १॥ अनेक प्रकारके बाण दौड़े 
और आकाशमें, पृथ्वीमें अर्थात्‌ दोनोंमें दसों दिशाओंमें छा गये। 

नोट--१ “कहि दुर्बचन क्ुद्ध दसकंथर” इति।-'दुर्बबन” से जनाया कि “बयरु करत तब नहीं डरे 
अब लागे प्रिय प्रान” यह तो कहा ही था पर इसके अतिरिक्त कुछ और भी दुर्बचन कहे, नहीं तो 'अस 
कहि' वाचक पद देते। प्रमाण यथा--(१) “कपि तब दरस भय्ँ निष्पापा। मिटा तात मुनिबर कर सापा॥ 
मुत्ति न होड़ यह निसिचर घोरा। मानहु सत्य बचत प्रभु मोरा॥ अस कहि।' (५७। १-३), (२) “जामबंत 
कह खल रहु ठाढ़ा। सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढ़ा॥ बूढ़ जानि सठ छाँ़ेवँ तोही। लागेसि अधम पचारै 
मोही॥ अस कहिं।' (७३। ४-६), (३) 'सुभट बोलाड़ दसानन बोला। रन सनमुख जा कर मत डोला॥ 
सो अबहीं बरु जाउ पराईं। संजुग बिमुख भए न भलाइं॥ निज भुजबल मैं बयरु बढ़ावा। देहडँ उतरु जो 
रिपु चढ़ि आवा॥ अस कहि।' (७७। ४-७), (४) “कहड़ दसानन सुनहु सुभड्टा। मर्दह भालु कपिह के 
उट्टा॥ हाँ मारिह॒ँ भूष दोड भाई। अस कहि सन्मुख फाज रेंगाई॥' (७८। ११-१२) (५) “थिग थिग 
मम पौंरुष थिग मोही। जाँ तैं जिअत रहेसि सुखोही॥ अस कहि।” (८३। ४-५), (६) रन ते निलज भागि 
गृह आवा। इहाँ आड़ बक ध्यान लगावा॥ अस कहि।' (८४। ७-८) (७) “खोजत रहेडँ तोहि सुत घाती। 
आजु निषाति जुड़ावउँ छाती ॥ अस कहि।' (८२। २-३), (८) 'परबस सखिन्ह लखी जब सीता। 
भये गहरु सब कहहिं सभीता॥ पुनि आउब एहि बिरियाँ काली। अस कहि मन बिहँसी एक आली॥#' 
(बा० २३४। ५-६) (९) 'सुत्त दसानन उठा रिसाई। खलु तोहि निकट मृत्यु अब आई ॥"“सठ 
मिलु जाड़ तिन्ढ़िं कह नीती॥ अस कहि कीन्‍्हेसि चरन प्रहारा। * (५। ४१। २--६) इत्यादि। अन्य 
काण्डोंमें भी बहुत प्रमाण हैं। और यहाँ--“कहि दुर्बंचन' हो है, 'अस” नहीं है। अतएब और भी 
अनेक दुर्वचन जो अन्य रामायणोंमें हैं बे सब इस अद्भुत युक्तिसे कविने जना दिये और स्वयं 
अपनी लेखनीसे लिखा भी नहीं। 

'वि० ब्रि०--'कहि दुर्बचन' इति।““““आज करहुँ खलु काल हवाले” यही दुर्वचन है। 'खलु” का 
अर्थ 'निश्चय करके' होता है, इसमें सन्देह नहीं, परन्तु यहाँ सम्बोधन है, रावण सरकारको 'खल' कहता 
है, प्राकृके नियमसे अकारान्त शब्दके प्रथमा और द्वितीयाके एक बचनमें विकल्प करके अन्त्य अकारका 
कार हो जाता है। यह ग्रन्थकारकी पंडिताई है कि यहाँ सीधे खल शब्दका प्रयोग न करके 'खलु' 
कहा, पर भाव यही है, क्योंकि ठीक उसके पहिले कहा है “खरदूषन बिराथ तुम्ह मारा। हतेउ व्याथ 
इब बालि बिचारा।' इत्यादि। वह इनके बधकी गणना खलतामें कर रहा है। सरकारका उत्तर सुनकर कि 
'देखाउ मनुसाईं' वह मनुसाई दिखाने लगा अथांत्‌ बज-ऐसे बाण छोड़ने लगा। 

नोट--२ 'दुबंधन' पद देकर तब उसका कारण “क्रुद्ध/ दिया। फिर क्रोधका कारण “दसकंथर' पदसे 
जनाया (जो गर्वसूचक है कि औरोंके एक-दो-चार, छः ही सर होंगे और मेरे तो दस हैं)। पुनः, 'दसकंथर' 
का भाव कि दस सिरके जितनी भुजाएँ हैं सबसे बाण छोड़े, जैसे पूर्व छोड़े थे--'निज दल बिचलत 
देखेसि बीस भुजा दसचाप। रथ घाढ़ि चलेउ दसातन फिरहु फिरहु करि दाप॥' (८०) 

नोट--३ “नाज्ञाकार सिलीमुख आए इति। “नानाकार' से वह सब प्रकार सूचित किये जो वाल्मी० 
९९। ४२-४८ में लिखे हैं। वाल्मी० ९९ में लिखा है कि रावणने क्रोधसे मूच्छित हो महाघोर आसुरास्त्र 
चलाया जिसके अन्तर्गत अगणित बाण सिंह, व्याप्र, कंक, कोक, गृश्न, बाज, श्रृंगाल और वृकके समान 
मुँह बाये अति भयंकर थे। गदहों, शूकरों, कुत्तों तथा विषधर सर्पोंके मुखोंके आकारके एवं सर्पके समान 


मानस-पीयूष ४७८ # श्रीमते रामचन्द्राय नमः # दोहा ९० ( ३-८ ) 





फुफुकार करते हुए तथा अग्निमुख, सूर्यमुख बाण, अनेक ग्रह और नक्षत्रोंके रंगवाले बाण, विद्युतंके समान 
जीभवाले बाण, इत्यादि अनेक प्रकारके बाण रावणने चलाये। 
पावकसर* छाॉँड़ेड रघुबीरा। छन महुँ जरे निसाचर तीरा॥३॥ 
छाँड़िसि तीज सक्ति खिसिआईं। बान संग प्रभु फेरि चलाई।॥४॥ 
अर्थ--श्रीरघुनाथजीने अग्निबाण छोड़े। निशाचर रावणके तीर क्षणभरमें भस्म हो गये॥ ३॥ तब लज्जित 
होकर उसने तीक्ष्ण शक्ति छोड़ी। श्रीरामचन्द्रजीने उसे बाणके साथ (अर्थात्‌ अपना बाण चलाकर) लौटाकर 
चलाया (अर्थात्‌ बाणसे उसका मुख रावणको ओर फेर दिया जिससे बह उधरहीकों लौट गयी)॥ ४॥ 
नोट--'तीव्र शक्ति' से मयदानवका बनाया हुआ अस्त्र जनाया जिसका वाल्मी० १०१ (श्लोक २-४) 
में यों वर्णण है कि--यह अत्यन्त भयड्भर और अति प्रकाशमान्‌ था। इससे शूल, मुद्गर, पाश, गदा, मूसल 
और दीप्यमान्‌ वज़बतू पृष्ट और भी बहुत-से बिजलीके समान प्रकाशित अस्त्र बड़े बेगसे निकले।-ये सब बातें 
मानसकविने 'तीब्र' विशेषणसे सूचित कर दीं। इसे प्रभुने परमास्त्र गान्धर्वास्त्रसे काटा। यथा--'मचेन 'बिहित॑ रौद्रमन्यदरस्त्र 
महाद्युति:। उल्लू रावणों भीम॑ राघवाय प्रचक्रमे॥ ततः शूलानि निश्चेरुगंदा्न मुसलानि च। कार्मुकाहीष्यमानानि 
बज्रसाराणि सर्वश: ॥ मुदगरा: कूटपाशाश् दीप्षाश्ाशनयस्तथा। निष्पेतुर्विविधास्तीक्षणा बाता इब युगक्षये॥ तदस्त्रं राघव: 
अ्रीमानुत्तमास्त्रविदां हबर:। जधान परमास्त्रेण गान्धरवेण मदाद्युति:॥' (वाल्मी० १००। २-५) 
ब॑० पा०-रावणने अपने बाणोंसे दिशाएँ छा दी थीं। अग्रेयास्त्रसे सब दिशाएँ शुद्ध हो गयीं। 'खिसिआई' * 
क्योंकि पराक्रम निष्फल हुआ। है 
कोटिन्ह चक्र त्रिसूल पबारइ। बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारइ॥५॥ 
निफल होहिं रावन सर कैसे। खल के सकल मनोरथ जैसे॥६॥ 
अर्थ-करोड़ों चक्र और त्रिशूलु चलाता है, रघुनाथजी बिना परिश्रम (सहज ही) उनको काट गिराते 
हैं ॥५॥ रावणके बाण कैसे निष्फल हो जाते हैं, जैसे दुष्ट सब मनोरथ॥ ६॥ 
नोट--'कोटिन्ह चक्र““““तिवारड़' इति। वाल्मीकिजी भी लिखते हैं--'ततश्नक्राणि निष्पेतुर्भास्वराणि 
महान्ति च। का्मुकाद्धीमबेगस्थ दशग्रीवस्थ धीमतः॥', 'तानि चिच्छेद बाणौषैश्नक्राणि स तु राघव:। आयुधानि 
च चित्राणि रावणस्थ चमूमुखे॥' (७, ९) अर्थात्‌ उस समय धीमान्‌ रावणके धनुषसे प्रज्वलित बड़े-बड़े 
भारी अगणित चक्र निकलने लगे। युद्क्षेत्रमें रावणके जो विचित्र आयुध और चक्र आये वे सब राघवने 
काट डाले। (वाल्मी० १। च० सं०) 
खर्रा-'खल के सकल मनोरथ जैसे' इति। खलके मनोरथ तब सिद्ध हों जब सब धर्मों और सबके 
मनोरथोंमें ब्राधा हो। वैसे हो रावणके बाण तब फलीभूत हों जब रामको बाधा हो। 
तब सत बान सारथी मारेसि | परेउ भूमि जय राम पुकारेसि॥७॥ 
राम कृपा करि सूत उठावा। तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा॥८॥ 
शब्दार्थ--सूत-सारथी | पौराणिक सूठमें आठ गुण होने चाहिये-(१) सेवा करनेको सदा तैयार रहना। 
(२-४) कही हुई बातको ध्यानसे सुनना, उसे ठौक-ठीक समझना और स्मरण रखना। (५) किस कार्यका 
क्या परिणाम होगा इसपर तर्क करना कि इस प्रकार कार्य न हुआ तब क्या करना चाहिये--इस तरह 
वितर्क करना। (६--८) शिल्प और व्यवहारकी जानकारी रखना और तत््वका बोध होना। 
अर्थ-तब उसने सारथीकों सौ बाण मारे। वह श्रीरामजीकी जय पुकारता हुआ पृथ्वीपर गिरा॥ ७॥ 
श्रीरामचन्द्रजीने कृपा करके सारथीको उठाया। उस समय प्रभु परम क्रोधको प्राप्त हुए॥ ८॥ 
नोट--मातलिके मारे जानेपर परम क्रोध हुआ--“जो अपराध भगत कर करर्डं। राम रोष पावक सो 





* अनलबान। [ पठाई--(का०)। 


दोहा२०(छं) ...__ * ऑमखामचकचरणी शरण प्र है --+ ९० (छंद ) + श्रीमद्रामचन्द्रवरणौ शरण प्रपद्े + ४७९ लड्जाकाण्ड 





जरई # इस क्रोधका स्वरूप आगे इन्दमें तथा वाल्मी० १०२ श्लोक ३८-४२ में इस प्रकार है। श्रीरामचन्द्रजीने 
क्रोध करके भौंहें कुछ टेढ़ी कर नेत्र लाल कर लिये मानो राक्षसकों जला ही डालेंगे। उनका महाक्रोध 
देख प्राणी डर उठे, पृथ्वी काँप उठी। सिंहशार्टूलसहित पर्वत चलायमान हो गये, समुद्र श्ुब्थ हो उठा। 
बादल चारों ओर घूम-घूमकर गर्जने और उत्पाद-सूचक शब्द करने लगे। श्रीरामजीका क्रोध और दारुण 
उत्पात देख सब प्राणी डर गये और रावण भी डर गया। 
छंद-भये क्ुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे। 
कोदंड धुनि अतिचंड सुनि मनुजाद भय* मारुत ग्रसे॥ 
मंदोददी उर कंप कंपति कमठ भू भूधर जअसे। 
चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे॥ 


शब्दार्थ-कंपति«(कं-जल+पति) जलधि, समुद्र। कसमसे-एक-दूसरेसे रगड़ खाते हुए हिलना-डोलना 
खलबलाना; कुलबुलाना।--एही बीच निसाचर अनी। कसमसात आई अतिघनी॥” 

अर्थ-श्रीरघुनाथजी युद्धमें विरोधाभावसे क्रोधित हुए तब तरकशमें बाण कसमसाने लगे। धनुषका 
अत्यन्त प्रचण्ड शब्द (टंकार) सुनकर सब मनुष्योंके खानेवाले (राक्षस) वायुग्रस्त हो गये। मन्दोदरीका 
हृदय काँप उठा। समुद्र, कच्छप, पृथ्वी और पर्वत भयभीत हो गये। दिग्गज दाँतोंसे पृथ्वोकों पकड़कर 
चिग्घाड़ने लगे। यह कौतुक देखकर देवता हर्षित हुए। 

नोट--१ “भये क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध। भाव कि अभीतक लोला वा विनोद-भावसे युद्ध करते रहे थे। 
अब विरोधभावसे युद्ध करनेको उद्यत हुए क्योंकि "सेवक, बैर बैर अधिकाई '। 'सायक कसमसे “-भाव 
कि प्रत्येक बाण चाहता है कि मैं ही प्रथम तरकशसे निकलकर रावणका वध करूँ। प्रभुके बाण भी 
दिव्य हैं जैसे उनके वस्त्र और आभूषण दिव्य हैं। प्रभुका क्रोध देख बाणोंमें यह उत्साह हो रहा है। 

नोट--२ “भय मारुत ग्रसे'। अर्थात्‌ भयरूपी पवनसे ग्रसित हो का्पँ उठे। अथवा, भाव कि निसिचर 
भयग्रसित हुए और पवन भी ग्रसित हुआ, अर्थात्‌ उसका चलना रुक गया। (खर्रा)। अथवा, रोगादिसे 
अधिक व्यथा होनेसे अचेत प्राणी जैसी क्रिया करते हैं जैसी क्रिया करने लगे। भाव कि कोई भागते 
हैं, कोई आपसमें ही जूझे मरते है। (रा० प्र०) 

नोट--३ (क) “मंदोदरी डर कंप-अहिवात जानेके अयसे, यधा-“अस कहि नयतर नीर भरि गहि 
पद कंपित यात। नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होड़ अहिबात॥' (लं० ७), प्रीति करहु रघुबीर पद मम 
अहिबात म जाड़।' (१५) (ख) “कंपति कमठ भू भूथर असे'। भाव कि समुद्र खलबला उठा, महि 
हिलने लगी, कमठ कुलबुला उठे। यथा--' भरे भुवन घोर कठोर रब रबिबाजि तजि मारगु चले। चिक्करहिं 
दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरम कलमले॥' (१। २६१), 'चाँके बिरंचि संकरसहित कोल कमठ अहि 
कलमल्यों।' (गं) 'दसन गहि महि' जिसमें पृथ्वी गिर न पड़े, यधा-'दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला। 
धरहु धरनि धरि थीर तर डोला॥ (१। २६०। ५) 

नोट-४ (क) 'सुर हँसे '। हँसे (-हर्षित हुए) कि अब रावण मर। पुन, कौतुक देखकर कि ध्वनिमात्रसे 
लोकभर काँप उठा। दिग्गजका दाँतोंसे पृथ्वीको पकड़ना इत्यादि कौतुक है। इन सबसे निश्चय किया कि अब 
हमारे दुःख दूर होंगे, यथा-“चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे। मन हरष दिनकर सोम 
सुर मुन्रि नाग कितर दुख टरे॥' (सुं० ३५) पुनः देवताओंके मुखपर अबतक हँसी न थी। विपत्तिमें हँसी 
कहाँ? पैदल देख दुःख हुआ था उसके बाद हँसना प्रथम-प्रथम यहीं है। (ख) देवता हँसे और कोई न 
हैसे, क्योंकि इलहें दिव्य दृष्टिसे सब देख पढ़ता था ओर लीए न जि एऊाय प्ापफर क्योंकि इन्हें दिव्य दृष्टिसे सब देख पड़ता था और लोग यह तमाशा देख न सकते थे। 


५ भ्रय-पं० रामकुमारजी (खर्रा), विश्वेश्वर प्रेस काशीका पाठ। सब--भा० दा०। 'सब” का समावेश 'मनुजाद' 
में ही हो जाता है। ' भय' शब्दसे भय-मार्तका रूपक भी बन जाता है। 





मानस-पीयूष ४८० # श्रीमते रामचद्धाय नम: + दोहा मनन +-_- _---- 2०४ ओम ग्रमणबलक के अपर प३ (३६४) 





दो०--तानेड चाप* श्रवन लगि छाँड़े बिसिष कराल। 
राम मारगन गन चले लहलहात जनु ब्याल॥९०॥ 
शब्दार्थ--मार्गण-बाण।--' कलम्बमार्गणशरा: ' इत्यमर:, *मार्गणस्तु शरेरर्थिनि' इति हैम:। लहलहाना-लपलपाना। 
अर्थ-( श्रीरघुनाथजीने) धनुषको कानपर्यन्त खींचकर कराल बाण छोड़े। श्रोरामचद्धजीके बाणसमूह 
ऐसे चले मानो सर्प लहलहाते जा रहे हैं॥ ९०॥ 
वि० त्रि०--रावणने पहिले वज़्से बाण मारे, फिर शक्ति चलायी, फिर चक्र-त्रिशूल चलाये। पर सब 
वार उसके व्यर्थ गये, तब घोड़े तथा सारथीपर प्रहार किया। यहाँतक सरकार उसके प्रहारकों ही सहते 
गये। मातलिपर आघात होनेपर क्रुद्ध हुए, तब बाण सन्धान कर अपनी ओरसे प्रहार आरम्भ किया। 
नोट--मार्गण मृग धातुसे है; अर्थात्‌ ये शत्रुकों ढूँढ़नेवाले बाण हैं, ढूँढ़कर उसे मारते हैं जहाँ भी 
हो। (रा० प्र०)। “लहलहाते हुए' से प्रसन्न, चमचमाते हुए और अत्यन्त बेगवान्‌ होना जनाया, यह आगे 
कवि स्वयं कहते हैं, यधा-“चले बाच सपच्छ जनु ऊगा'। 
चले बान सपच्छ जनु उरगा। प्रथमहि हत्योए॑ सारथी तुरगा॥१॥ 
रथ बिभंजि हति केतु पताका। गर्जा अति अंतर बल थाका॥२॥ 
शब्दार्थ- केतु पत्ताका--' पताका वैजबन्ती स्थात्‌ केतन॑ ध्वजमस्त्रियामित्यमर:।' पताका जयप्रद पत्राद्विता 
होती है। (पु० रा० कु०) 
अर्थ-बाण ऐसे चले मानो पक्षयुत सर्प हों। उन्होंने जाकर पहले सारथी और घोड़ोंकों मार डाला॥ १॥ 
फिर रथको चूर्णकर ध्वजा और पताकाकों काटकर गिरा दिया। (तब) रावण बड़ी जोरसे और अत्यन्त 
गर्जा, भीतरसे उसका बल थक गया था॥१॥ 
नोट-१ गौड़जी 'प्रथमहि हत्यों”““““पताका' का अन्वय इस प्रकार करते हैं-- 'प्रथमहिं रथ बिभंजि 
केतु पताका हति सारथी तुरगा हत्यों।" 
नोट-२ 'सपच्छ जनु उरया'/ आकृति और धर्म (फुफकारना, अतिबेगसे उड़ते जाना और डसकर 
प्राण हर लेना) से “उरग” की उत्प्रेक्षा को, 'उरग' और “बाण' दोनॉमें पर होते हैं। (ब० पा०) ऊपर 
“लहलहात जनु ब्याल” कहा था। सर्प और व्यालमें अन्तर है। व्याल जातिका नाम है जिसमें हाथीतक 
गिने जाते हैं। सर्प उरगोंका एक छोटा-सा प्रकार है जिनके पंख नहीं होते हैं। पुराने उरगोंके पंख होते 
हैं। व्याल और उरग पर्याय हैं। (गौड़जो)। 
नोट--३ (क) 'हति केतु पताका” इति। रावणकी पताकापर मनुष्यके सिरका चिह था, यथा--' ध्वज 
! भनुष्यशीर्ष तु तस्य चिच्छेद नैकथा।' (वाल्मी० १००। १४) अांत्‌ श्रीलक्ष्मणजीने रावणकी मनुष्य-सिरचिहित 
ध्वजाके अनेक टुकड़े कर डाले। (ख) “गर्जा अति"““““” इति। अपनेको रथहीन देख मनमें खिन्न हुआ 
कि मैंने तो इनके सारथीमात्रको मारा था, उसे भी उन्होंने जिला लिया और इन्होंने तो मेरे रथ, घोड़े 
सभी नष्ट कर डाले, कुछ उपाय काम नहीं देता। तब धृष्टतासे गर्जा जैसे अर्धजल भरा घड़ा बोलता 
है। (पं०) (ग) “अंतर बल थाका” से जनाया कि रघुनाथजीके पराक्रमको देख हृदयसे हार गया, जीसे 
समझ लिया कि इनसे जीतना कठिन है। यज्ञनाश और उसपर ध्वजाका गिरना दो परम अमंगल हुए। 
तुरत आन रथ चढ़ि खिसिआना। अस्त्र सस्त्र छाड़ेसि बिधि नाना॥३॥ 


बिफल होहिं सब उद्यम ताके । जिमि परद्रोह निरत मनसा के॥४॥ 
शब्दार्थ-उद्यम-उद्योग, उपाय, प्रयल। बिफल-निष्फल, व्यर्थ 
अर्थ-खिसियाकर (लज्जित होकर) तुरंत दूसरे रथपर चढ़कर उसने अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्र छोड़े॥ ३॥ 








7 5 को मास्क तक 7 छे- त्क9)  .3."५दण॑े्+्््/्भ्जडईई्एए सरासन--(का०) | | हते-(का०)। 


दोहा ९११ (५--८ ) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपदो # ४८१ लद्ढाकाण्ड 





उसके सब प्रयत्न निष्फल हो रहे हैं जैसे पद्धोहमें तत्पर मनवालेंके सब उद्योग निष्फल होते हैं॥ ४॥ 
नोट--१ खिसियानेपर क्रोध और बदला लेनेकी इच्छा होती हो है। 
मेघनाद-- 'देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना। करै लाग माया बिथि नावा॥' (५०। ७) 
शूर्पणखा--'तब खिसिआतनि राम पहिं गईं। रूप भयंकर प्रगटत भरई॥” (३। १७। १९) 
रावण--'परुष बचत सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन॥' (सुं० ९) 

"सीता हैं मम कृत अपमाना। कटिहरँ तब सिर कठिन कृपाना॥' (५। १०। १) 
रावण--'सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहु मूढ़कर प्राना॥' (सुं० २४। ५) 
नोट--२ पूर्व कहा था कि “निफल होहिं रावन सर कैसे। खलके सकल मनोरथ जैसे॥' (९०। ६), 

और यहाँ कहते हैं कि 'बिफल होहिं सब उद्यम ताके। जिमि परद्रोह निरत मतसा के॥/ दोनोंमें प्रायः एक 
ही भाव हैं। खल पद्धोहमें तत्पर रहते ही हैं, यथा-“खल बिनु स्वारथ पर अपकारी॥' (७। १२१। १८) 
मनसाका अर्थ मन और मनोरथ दोनों है। पुनः, वहाँ मनोरथ है और यहाँ उद्यम। मनोरथके पूर्ण करनेके 
लिये जो कार्य किये जाते हैं बे उद्योग कहलाते हैं। इस तरह कारण और कार्य दोनों निष्फल दिखाये। 
तब रावन दस सूल चलाए*। बाजि चारि महि मारि गिराए[॥५॥ 
तुरग उठाइ कोपषि रघुनायक। खैंचि सरासन छाँड़े+ सायक॥६॥ 
अर्थ-तब रावणने दस त्रिशूल चलाये ( और उनसे श्रीरामजीके रथके) चारों घोड़ोंकों मारकर अर्थात्‌ घायल 
करके पृथ्वीपर गिरा दिया॥ ५॥ घोड़ोंकों उठाकर श्रोरघुनाथजीने कुपित हो धनुष तानकर बाण छोड़े॥ ६॥ 
नोट--१ “तब रावन दस सूल चलाए *इति। प्रथम रावणने श्रीरामचन्द्रजीके सारथीकों मारा था। 
यथा-- “तब सत बान सारथी मारेसि। परेउ भूमि““““““।” (९०।-७) उसके बदलेमें श्रीरामजीने उसके घोड़ों 
और सारथीको मारा, रथ चूर-चूर कर दिया और केतु-पताका काट गिराये। यथा--'प्रथमहिं हतेउ सारथी 
तुरगा॥ रथ बिभंजि हति केतु पताका।' (९१। १-२) इसके बदलेमें “तब राबन दस सूल चलाए। बाजि 
चारि महि मारि गिराए॥ बं० पा० जी लिखते हैं कि दस शूलसे चार घोड़े मारे इस क्रमसे कि आगेके 
घोड़ोंको 'तीन-तीन शूल मारे और पीछेवालोंको दो-दो। 
नोट २ (क) “हुरग उठाड़” इति। रावणके रथ दटूटते, सारथो और घोड़े मरते और ध्वजापताका कटती 
हैं पर श्रीरामजीके रथ, ध्वजा, पताका सब दिव्य और सारथी तथा घोड़े अमर हैं, इसीसे इनके रथ, 
प्रताकादिको हानि नहीं पहुँची, सारथी घोड़े घायल हुए, गिर पड़े पर मरे नहीं वरन्‌ श्रीरमजीके हस्तकमलके 
स्पर्शसे बे तुरंत जैसे-के-तैसे पुष्ट हो गये। (ख) पहले सारथीको मारा था तब रामजीकों कोप हुआ, 
अब घोड़े मारे गये तब पुनः क्रोध हुआ। दोहा ६९ (५) देखिये। 
राबन सिर सरोज बन चारी। चलि रघुबीर सिलीमुख धारी॥७॥ 
दस दस बान भाल दस मारे। निसरि गये चले रुधिर पनारे॥८॥ 
शब्दार्थ-शिलोमुख- भ्रमर, भौंर-'कुंचित अलक सिलीमुख मानों लैँ मकरंदनि दोन-(सूर)-बाण। 
' भूड़ः शिलीमुख: ख्यातों नाराचोडपि शिलीमुख:।' (पं०) धारी-पंक्ति, समूह, सेना। 
अर्थ--रावणके मस्तकरूपी कमलवनमें विचरण करनेवाले श्रीरामचन्रजीके बाणसमूहरूपी भ्रमरसमूह 
चले॥ ७॥ श्रीरामचन्रजीने उसके दसों ललाटोंमें दस-दस बाण मारे जो आरपार होकर निकल गये और 
सिरोंसे खूनके परनाले बह चले॥८॥ 
नोट--१ “चलि रघुबीर सिलीमुख थारी' इति। रावणके सिर दस हैं, अत: उसे कमल-बन कहा। 
बाण बहुत-से चले, अतः उन्हें भ्रमरोंकी धारि (सेना, समूह) कहा। वनमें भ्रमर बहुत-से हुआ ही चाहें। 
कमलमें भ्रमर आसक्त रहता है, अतएव “बनचारी” कहा। भाव कि जैसे भ्रमरावली कमलवमनमें घुसती 








* चलावा, गिरावा-(भा० दा०), चलाए, गिराये (का०)। 4 छाँड्रेउ-(का०)। 
[92] मा० पी० ( खण्ड-छ: ) १७८ 


मानस-पीयूष ४८२ + श्रीमते रामचन्द्राय नम: # दोहा ९१९ ९--१२) 





है वैसे ही बाणसमूह रावणके सिरोंमें प्रवेश करते हैं। भौरे मकरंद पान करते हैं, बाण रुधिररूपी मकरंद 
पान करते हैं। भौरे काले होते हैं, बैसे हो ये बाण काले हैं। 
गौड़जी-सिरॉपर बाणोंने घाव कर रखा है। वे घाव लाल कमल-समान दीखते हैं। अतः सरोजवन 
कहा। भ्रमर और बाण दोनोंमें पर होते हैं यह समता है। 
पं० विजयानन्द त्रिपाठीजी--“राबन सिर सरोज बन"7”“” इति। जब कमलवन फूलता है तो रातभरके 
प्यासे भौरे मकरन्द पान करने चलते हैं। एकके बाद दूसरे, उसके बाद तीसरेके चलनेसे उनकी पंक्ति- 
सी हो जाती है, भौरे चले हो आते हैं, यहाँ रावणके सिर हो सरोजबन हैं उसके रक्तरूपी मकरंदको 
पान करनेके लिये रघुबीरके प्यासे बाणोंका समूह चला। यहाँ बाणके लिये शिलोमुखशब्दके प्रयोगका कारण 
है। शिलीमुख श्लिप्ट पद है। इसका अर्थ बाण भी है और भौंरा भी है। रावणके पक्षमें बाण अर्थ होगा 
और कमलवनके पक्षमें भौंरा अर्थ होगा। श्रीरामजीके बाणोंको रक्तकों प्यास है, यह बात अक्गभदजी पहिले 
कह आये हैं। यथा-“तंब सोनित की प्यास तृषित राम स्रायक निकर। तज्जाँ तोहि तेहि ऋ्रास कदु जल्पक 
निशस्चिचर अध्म॥” उसीका साफल्य कवि यहाँ दिखला रहे हैं। 
नोट--२ (क) “दस दस बान भाल दस मारे” इति। रावणने बीस भुजाओंसे १० शूल चलाये, यथा--'तब 
राबन दस सूल चलाए ”। उसके उत्तरमें श्रीरामजीने दसों मस्तकोंमें दस-दस बाण मारकर राबणके बीस भुजाओंका 
पराक्रम दो भुजाओंसे ही तुच्छ कर दिखाया। पुनः, भाव कि रावणने २० भुजाओंसे दस शूल चलाकर दरसाया 
था कि तुम दो हाथवाले मेरे सामने क्या कर सकोगे। श्रीरामजीने उत्तरमें दिखाया कि हम दो भुजाओंसे 
तुझसे अधिक कार्य कर सकते हैं! तुम यहाँ २० भुजाओंसे १० शूल चला सकते हो वहाँ मैं दो ही हाथोंसे 
१०० बाण चला सकता हूँ। यथा--यद्रावणो बहुभिरेव भुजै: करोति तद्राघव: प्रतिकरोति भुजद्दयेन। कर्मद्रयं 
यदि तुल्यफल तथापि रक्षःपत्तेदेशगुणं नरवीरतुल्यम्‌॥' (हनु० १४। ३७) अर्थात्‌ रावण जो कर्म बहुत-सी 
भुजाओंसे करता है उस कर्मका बदला श्रीरामचन्द्रजी दो ही भुजाओंसे चुकाते हैं। यद्यपि दोनोंके कर्मका 
'फल तुल्य ही है तथापि श्रीरामचन्द्रजीके कर्मका फल निशाचरनाथ रावणसे दसगुणा विशेष है। 
(ख) 'चले रुथ्िर पनारे' से जनाया कि रुधिर बहुत और वेगसे बहने लगा जैसे वर्षाकालमें घरके 
परनाले वर्षाजल पाकर बहते हैं। 
सत्रवत रुधिर धाएउ बलवाना। प्रभु पुनि कृत धनु सर संधाना॥ ९॥ 
तीस तीर रघुबीर पबारे। भुजन्हि समेत सीस महि पारे॥१०॥ 
अर्थ-रुधिरके बहते हुए बलवान्‌ रावण दौड़ा। प्रभुने फिर धनुषपर बाणका संधान किया॥ ९॥ रघुबीरने 
तीस तीर चलाये और भुजाओंसहित उसके सिरोंकों पृथ्वीपर गिरा दिया॥ १०॥ 
नोट--१ (क) रुधिरप्रवाह चलनेपर भी धावा कर रहा है अत: “बलबाना' कहा क्योंकि यह बलीहीका 
काम है। (ख) “पुनि” क्योंकि अभी शिरोच्छेदनके लिये १०० तीर छोड़ चुके थे अब फिर छोड़ते हैं। 
प्रथम बार सिर घायल हुए, गिरे नहीं थे पर अबकी गिरेंगे। (ग) दस सिरों और २० भुजाओंकों पृथक्‌- 
पृथक्‌ छेदना है अत: ३० तीर चलाये। 
काटत ही पुनि भए नवीने। राम बहोरि भुजा सिर छीने*॥९११॥ 


प्रभु बहु बार बाहु सिर हए। कटत झटित पुनि नूतन भए॥१२॥ 
शब्दार्थ-झटित-झटपट, तत्काल, चटपट। हएना>काटना। 
अर्थ-सिर और भुजाएँ काटते हो फिर नये हो गये तब श्रीरामचन्द्रजीने उन्हें फिर काट गिराया॥११॥ 
प्रभुने बहुत बार भुजाएँ और सिर काटे परंतु वे कटते ही तुरंत फिर नये हो गये॥१२॥ 





* यह पाठ का० का है। भा० दा० को प्रतिमें उत्ताार्द्ध प्रथम है। + यह-म्राऊ भा० दा० का है। का० की प्रतिमें 
उत्तार्द्ध प्रथम है। 





दोहा ९१( १३-१४) छंद # श्रीमद्रामचन्द्रचरणी शरण प्रपद्े * ४८३ लड्बाकाण्ड 


'टिप्पणी-- ' पुनि भ्रए सबीने!। ब्रह्मा और शिवजीके वरदानसे पुनः नवीन उत्पन्न होते थे, यधा-'मैं 
ब्रह्मा मिलि तेहि बर दीन्‍्हा', 'सादर सिव कहाँ सीस चढ़ाये। एक एक के कोटिन्ह पाये॥' (९६। ६), 
“विच्छिन्ा खाहवोप्यस्थ विच्छिन्नानि शिरांसि च। उत्पत्स्थन्ति पुनः शीघ्रमित्याह भगवानज:॥' (अ० रा० ११॥ 
५२) अर्थात्‌ (विभीषणने कहा कि) भगवान्‌ ब्रह्मने यह वर दिया है कि जो बाहु और सिर कटेंगे वे 
शौघ्र पुनः जम आबेंगे। 

प० प० प्र०-- प्रभु बहु बार““““” मैं मात्रा कम करके जनाया कि यह देखकर कि श्रीरामजीकों कितना 
क्लेश हो रहा है श्रीशिवादि देवों, कपिसेना और कविके भावुक हृदयको व्यथा पहुँची; कपिसेना और इब्रादिको 
चिन्ता और भय हुआ तथा राम-रावणके शर्य-धैर्य आदिको देखकर सबको परमाश्चर्य आदि हुए। 

युनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा। अति कौतुकी कोसलाधीसा ॥ १३॥ 
रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू। मानहु अमित केतु अरु राहू॥१४॥ 
अर्थ-प्रभु बारंबार उसकी भुजाओं और सिरोंको काट रहे हैं (क्योंकि) कोसलपति श्रीरामजी बड़े 
भारी कौतुकी हैं॥ १३॥ आकाशमें सिर और भुजा छा गये। (ऐसे देख पड़ते हैं) मानो अगणित केतु 
और राहु हैं॥ १४॥ 

नोट--१ “अति कौंहुकी कोसलाशीसा'। खेल खिलाते, खेलते और देखते हैं। अतः कौतुकी होनेके 
सम्बन्धसे 'कोसलाधीस' पद दिया। श्रीरामजी अत्यन्त कौतुकी हैं ही। यथा--' कुशिकसुतसपयांदृष्टदिव्यास्त्रमनतरो 
भूगुपतिसहयोद्धा वीरभोगीनबाहु:। दिनकरकुलकेतु: कौतुकोत्तानचक्षुबंहुमतरिपुकर्मा कौतुकी रामदेव:॥' (हनु० 
१४। ३६) अर्थात्‌ कौशिकजीकी पूजासे दिव्यास्त्र तथा मन्त्रोंक पानेवाले, महाराज 'रशुरामजीसे युद्ध करनंवाले, 
बीरोंका भोग करनेके योग्य भुजाओंवाले, सूर्यवंशके ध्वज-स्वरूंप, कौतुकसे ऊपरको नेत्र उठानेवाले, भली 
प्रकार शत्रुओंको विदित है कर्म जिनका ऐसे कौतुकी देव रामचन्द्रजी युद्ध करने चले। 

नोट-२ “रहे छाड़”“““” इति। थोड़ेसे दानका भी बहुत फल मिलता है। उसने दस सिर दिये थे अतएव 
अमित गुणा सिर देकर उसके दानका फल चुकाते हैं जिसमें उसका पुण्य क्षीण हो जाय तब मारें। 

छं०--जनु राहु केतु अनेक नभपथ स्र॒वत सोनित धावहीं। 

रघुबीर तीर प्रचंड लागहिं भूमि गिरन न पावहीं॥ 

एक एक सर सिर निकर छेदे नभ उड़त इमि सोहहीं। 

जनु कोषि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुंतुद पोहहीं॥ 
शब्दार्थ-बिधुंतुद-विधुको दुःख देनेबाला-राहु। 'तमस्तु राहु: स्वर्भानुः सैंहिकेयो विधुन्तुदः* (अमरकोष) 
अर्थ-(ऐसा मालूम होता है) मानो अनेकों राहु और केतु रुधिर बहाते हुए आकाशमार्ममें दौड़ 
रहे हों। रघुवीरके तीक्ष्ण बाण उनमें लगते हैं इससे वे पृथ्वीपर गिरने नहीं पाते। एक-एक बाणसे समूह 
सिर छिदे हुए आकाशमें उड़ते इस प्रकार शोभित हो रहे हैं मानो सूर्य कुपित होकर अपनी किरणसमूहसे 

जहाँ-तहाँ राहुओंको गूँथ वा पिरो रहा है। 

नोट--१ (क) यहाँ राहु और सिर, केतु और बाहु, सूर्य और रघुनाथजी, किरण और बाण परस्पर 
उपमान-उपमेय हैं। एक-एक बाणमें कई-कई सिर छेदना, पिरोना है। (ख) जब भगवानने राहुका सिर 
अक्रसे काट डाला था तब अमृत पान कर चुकनेके कारण वह मरा नहीं बरन्‌ दो हो गया। राहुका 
मस्तक राहु और कबन्ध केतु नामसे प्रसिद्ध हुए। रावणकौ लम्बी-लम्बी भुजाएँ केतु-सी जान पड़ती हैं, 
और सिर राहु-से। वर्ण और आकारमें समता है। स्वर्णयुत चमकीले बाण सूर्यकिरणवत्‌ हैं। (ग) प्कइस 
प्रसड्रमें काटनेमें भुजाओंको प्रथम कहा तब सिरोंको, यथा-“भुजर समेत सीस महि पारे, “राम बहोरि भुजा 
सिर छीने', 'प्रभु बहु बार बाहु सिर हए' 'पुत्रि युनि प्रभु काठत भुज सीसा'/ पर कटकर आकाशमें छानेपर 


मानस-पीयूष ४८४ # अीमते रामचद्धाय नम: + दोहा ९१ 





“सिर” को प्रथम कहा है और “भुजा” को पीछे। यथा-'रे छड़ न सिर अर बाह; जन रह केतु अनेक ।' 
इस भेदका भाव यह जान पड़ता है कि--रणमें. यह रीति प्राय: देखनेमें आती और जान पड़ती है कि जहाँ 
सिर और भुजा दोनों काटे जाते हैं वहाँ प्रायः भुजाएँ हो प्रथम काटी गयी हैं। महाभारतमें भी यही रीति 
देख पड़ती है। कुम्भकर्ण और वृत्रासुर इत्यादिकी भी भुजाएँ ही प्रथम काटी गयी हैं। आकाशमें सिर प्रधान 
हैं अतः वहाँ उन्हें प्रथथ कहा। सिर शरीरका प्रधान अड्ढ भी है। 

बाबा हरिदासजी लिखते हैं कि--(क) जो शूर्पणखाने रावणसे कहा था कि--'देखत बालक काल 
समाना। परम थीर थन्वी गुत चाका॥' उसको यहाँ प्रभु चरितार्थ कर रहे हैं। धन्वी ऐसे कि बाणोंका अन्त 
नहीं, असंख्य बाणोंसे सिर छेदे हुए आकाशमें ही लटके हैं, नीचे नहीं गिरने पाते। धीर ऐसे कि सिरोंकी 
वृद्धि देख घबड़ाते नहीं, सबको काटते और ऊपर उड़ाते जाते हैं। पुनः, 

(२)-यहाँ कर्म, उपासना और ज्ञान तीनों दिखाये हैं। (क) रावणने अपने हाथोंसे 'पापहिंसा कर- 
करके मुखसे भोग किया है अतः प्रथम भुजाएँ कार्टी तब सिर। पुनः, उसने इन हाथोंसे शिवपूजनकर 
इन्होंसे शीश काट-काटकर शिवजीपर चढ़ाये वा इनकी आहुति दी थी, इससे प्रथम भुजाएँ उत्पन्न होती 
हैं तब सिर। यथा--'प्रभु बहु बार भुजा सिर छीने। काटत ही पुनि भए तबीने॥” (भुजा कटते हो उत्पन्न 
हुई, सिर कटे तब सिर उत्पन्न हुए-क्रमसे)।-यह कर्म और उसका फल हुआ। पुन;, (ख)-शिवजी 
ऐसे उदार दानी हैं कि जो एक फलफूल चढ़ाता है उसे वे करोड़ों फल देते हैं। रावणने दस सिर 
चढ़ाये तो अब करोड़ों सिर उसे मिले। आकाशमें वे सिर क्‍या हैं मानो शिवजीकी उदारताकी पताकाएँ 
'फहरा रही हैं--लोककल्याणहेतु प्रभु अपने इस कौतुकसे यह शिक्षा दे रहे हैं। पुनः, इस चरितसे यह 
भी दिखाते हैं कि शिवदत्त सम्पदाका कोई नाश नहीं कर सकता, यदि भगबत्‌-भागवतापराध न हो। रावणने 
भागवतापराध किया कि विभीषणको लात मारकर निकाल दिया, यधा--'तौलों न दाप दलेड दसकन्थर 
जौलाँ बिधीषण लात न मार्यों “-(क०) ।--यह उपासना है। पुनः, (ग)--जिसके सिरसे भगवान्‌को प्रणाम, 
मुखसे भगव्नाम-गुणगान, हाथोंसे सेवा इत्यादि न हों वह ज्ञानी, पण्डित, शूरबीर, लोकपति इत्यादि ही 
क्यों न हो तो भी उसके सिर, भुजा आदि छेदनयोग्य हैं और छेदन होनेपर भी उनका कहीं ठिकाना 
नहीं,-यह ज्ञान देश दिखाया। 

नोट--२ पहले भुजा और सिर दोनोंका काटना और छेदकर आकाशमें रोकना कहा। फिर केवल सिरोंका 
ही बेधना कहते हैं, यथा-'जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि तिमि होहि अपार) 'दसयुख देखि सिरह् कै 
बाड़ी '। इससे जान पड़ना है कि बाहूसे सिर काटकर शिवार्पण करनेका फल दे चुके, अब युद्ध करनेके लिये 
रहने दिये। वा, सिर कम हैं और बाहु बहुत हैं अतएव दोनोंको बराबर करनेके लिये ऐसा किया। 

प्यहाँ अज्भदके “तब स्रोनित की प्यास तृषित रामसायक निकर' इस वाक्यका साफल्य है। 

नोट--३ पहिले आकाशमें सिर और बाहुके रुधिर बहते हुए उड़नेकी उत्परेक्षा की--“जनु राहु केतु" ।/ फिर 
केवल एक-एक बाणमें अनेक सिर छिदे हुएकी उत्प्रेक्ष कौ--“जनु कोपि दिककर कर निकर"“““।” मालाएँ 
पोही जाती हैं और मुण्डॉंकी मालाएँ श्मशानके देवता भूतप्रेत पहनते ही हैं; इससे केवल सिरोंका पोहना कहा, 
भुजाओंका नहीं। दूसरे, राहु और सूर्यका वैर भी है मानो सूर्य बदला चुकाता है इसीसे राहु और सूर्य किरणसे 
उत्प्रेक्षा कही। 

दो०--जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि तिमि होहिं अपार। 
सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार॥९१॥ 

शब्दार्थ--बिबर्धन-वृद्धि, बढ़ती। मार-कामदेव। कामनाएँ। 

अर्थ--जैसे-जैसे प्रभु उसके सिरोंको काटते हैं तैसे-तैसे वे (इस तरह) अपार बढ़ते जाते हैं, जैसे 
विषयका सेवन करनेसे काम दिनोंदिन नित्य नवीन बढ़ता जाता है॥९१॥ 


दोहा ९२ ( १०--४) # श्रीमद्रामचद्धचरणौ शरण प्रपद्यो # ड<८५ लड्जाकाण्ड 





नोट--१ यहाँ मार और सिर, विषय और बाण, विषयसेवन और सिरॉका बाणोंसे कटना उपमेय- 
उपमान हैं। कामीकी जगह रावण है। 

नोट--२ यहाँ काम-सेवनका दृष्टांत इससे दिया कि आगे मृत्युका भूलना कहेंगे, कामी पुरुष अपनेको 
अमर समझता है। 

नोट--३ 'सेक्त विषय”“““”! यथा--“न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवत्मेंब 
भूय एवाभिवर्द्धते॥' (इति विष्णुपुराणे चतुर्थेडशे दशमेउध्याये ययातिवचनम्‌) अर्थात्‌ काम विषयोंके भोगसे 
शान्त नहीं होता किन्तु हवि पानेसे जैसे अग्नि बढ़ती है वैसे ही यह अधिक बढ़ता है। (पु० रा० कु०) 

वि० त्रि०-सिर हरण करनेपर समाप्ति हो जाती है, फिर वह पुरुष जीता नहीं, पर रावणमें यह 
विशेषता दिखायी पड़ी कि “कटत झटिति पुनि नूतन भए” सिरविहीन वह होने नहीं पाता था, दूसरे 
सिर निकल पड़ते थे, मानो सिरोंकी बाढ़ आ गयी, यह उसका विधिविपरीत चरित था (यथा--“रघुपति 
सर सिर कटे न मरईं। ब्रिथि विपरीत चरित सब करई॥) 

'काम-(विषय-वासना-) से मनुष्य पीड़ित होता है, उस पीड़ाकी शान्तिक लिए बह विषयोपभोग करता 
है। उपभोगका सुख आपातमात्र होता है (यथा--'आपातमात्रमधुरा विषयोपभोगा:'), फिर कामना उठती 
है, उसका नाश नहीं होता। यथा--“बुझँ न काम अग्रिन तुलसी कहूँ बिषय भोग बहु घीते”। अतः उंपभोग 
प्रदानसे कामना कभी मिट नहीं सकती, बढ़ती ही जायगी, अत: उसको उपमा रावणके सिससे दी। 

दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढ़ी। बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी॥ १॥ 
गर्जेड मूढ़ महा अभिमानी। धाएड दसौ सरासन तानी॥२॥ 

अर्थ-सिरोंकी वृद्धि देखकर दशमुखको अपना मरण भूल गया (उलटे) भारी गहरा क्रोध हुआ॥ १॥ 
चह महा अभिमानी मूर्ख गर्जा और दसों धनुषोंको तानकर दौड़ा॥ २॥ 

नोट-१ “बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी' इति। (क)--भाव कि उसने यह तो समझा नहीं कि हमारे पुण्य 
क्षीण हो रहे हैं, उलटे यह समझा कि मैं अब मर तो सकता हो नहीं, कितने ही सिर कटें तो क्‍या, ये तो 
बराबर होते ही जायँगे। यह मेरे प्रतापका बल है। ऐसा समझकर अब उसका गर्व बहुत बढ़ा और गर्वके कारण 
वह गर्जा। गर्वके कारण समझता नहीं कि मैं मरूँगा। पुनः, (ख) “बिसरा मरन” से जनाया कि पूर्व मरणका 
स्मरण हृदयमें बसा हुआ था, यथा-“चलेउ निसाचर क़ुद्ध होड़ त्याग जिवन कै आस।” (८४) 

पु० रा० कु०--पूर्व जब युद्धमें आया तब मरण ठानकर आया था, अब मरण भूल गया, जीवनकी 
आशा हो गयी। इसी तरह कामी अपनी मृत्यु नहीं समझते। 

जोट-२ पूर्व 'फरम क्रुद्ध' और दर्पित हुआ था तब बोसों हाथोंमें दस धनुष लेकर चला था, यथा--“निज 
दल बिचलत देखेसि बीस भुजा दस चाप। रथ चाढ़ि चलेउ दसानन फिर फिरु करि दाप॥ भएउ परम क्ुद्ध 
दसकन्धर। (दोहा ८०) अब 'गाढ़ रिस' और “महा अभिमान' फिर हुआ, अतएब अब फिर वैसे ही दौड़ा। 

समरभूमि दसकंधर कोप्यो*। बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो॥३॥ 
दंड एक रथ देखि न परेऊ | जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ॥४॥ 

अर्थ--रणभूमिमें दशकन्धरने कोप किया और बाण बरसाकर रघुनाथजीका रथ तोप (ढक) दिया॥ ३॥ 
एक दण्ड भर रथ (ऐसा) दिखायी न पड़ा मानो कुहरेपें सूर्य छिप गये हैं॥ ४॥ 

नोट-- दंड एक ' के सम्बन्धसे कुहरेकी उपमा दी। क्योंकि कुहरा सूर्योदयपर देरतक नहीं रहता, थोड़ी 
ही देर सूर्य उसके कारण अदृश्य रहते हैं। कुहरेसे सूर्यके तेज, गति आदिपर कोई बाधा नहीं पहुँचती, 





* कोपेड, तोपेड | परादुरा-(का०)। 


मानस-पीयूष ४८६ # श्रीमते रामचन्राय नम: # दोहा ९२(५-८) 





वैसे ही रामरथपर रावणके बाणोंसे कोई बाधा न पहुँचेगो, यह भी जनाया। 
हाहाकार सुरह जब कीन्हा। तब प्रभु कोषि कारमुक लीन्हा॥५॥ 
सर निवारि रिपु के सिर काटे। ते दिसि बिदिसि गगन महि पाटे॥६॥ 
अर्थ-जब देवताओंने हाहाकार किया तब प्रभुने कोप करके धनुष लिया॥ ५॥ और बाणोंको हटाकर ' 
शत्रुके सिर काटे। उन्होंने आकाश और पृथ्वीको सब दिशाओंमें पाट दिया। सब जगह सघन छा गये॥ ६॥ 
नोट--“दिसि बिदिसि गगन महि पाटे” अर्थात्‌ इतने सिर कटे कि पृथ्वी देख नहीं पड़ती, आकाश 
देख नहीं पड़ता एवं और भी दिशाओंमें सिर सघन छाये हुए हैं। रावणने प्रधम-प्रथम आक्रमणमें बाणोंसे 
दिशि-विदिशि-गगन-महिको छा दिया था और यहाँ रामचन्द्रजीने अपने बाणों और उसके सिरोंसे उन्हीं 
सबको पाट दिया है। उसके बाणोंको रामजीने भस्मकर दिशाओंको साफ कर दिया था पर इस-(रावण-) 
में यह सामर्थ्य नहीं थी। 
बं० पा०-दिशादिकों पाटनेका भाव कि दसों दिकृपालोंको रावणके सिर्का बलि करके बाणरूपी 
खुबाद्वारा आहुति देते हैं। यथा--“वितरसि दिक्षु रणे दिक्यति कमनीयम्‌। दशमुखमौलिबलिं रमणीयम्‌॥ 
केशबश्ृतरामशरीर जय जब देव हरे॥' (गोतगोविन्द) अर्थात्‌ आप रणमें रावणके सिररूपी कमनीय बलिको 
सब दिशाओंमें वितरण करते हैं। 
काटे सिर नभ मारग धावहिं। जय जय धुनि करि भय उपजावहिं॥७॥ 


कहूँ लकछिमन सुग्रीव* कपीसा। कहँ. रघुबीर कोसलाधीसा॥ ८॥ 

अर्थ-कटे हुए सिर आकाशमार्गमें दौड़ते और “जय जय' को ध्वनि कर-करके भय उत्पन्न करते 
हैं॥ ७॥ लक्ष्मण कहाँ हैं? बानररणाज सुग्रोब कहाँ हैं? कोसलपति रघुबौर कहाँ हैं?॥ ८॥ 

पं०--जब जय-जय-ध्यनिसे वानर डरते हैं तब मुण्ड “कहाँ लक्षिमन इत्यादि भी बोल-बोलकर 
और डरवाते हैं। 

४कआ० रा० १। ११ में लिखा है कि सिर कटनेपर प्रसन्न होकर हँसते थे कि हम रामके हाथसे 
काटे गये। यथा--'ततों राम: शस्तीक्षणैर्दशाननशिरांसि च॥' (२७३), 'चिच्छेद तानि गगने गत्वा तोषयुतानि 
हि। रामंहस्तान्मृतिजिताउस्माक॑ चेति विचिन््य च॥ बन्द कतुंकामानि गगनाच्य रणाजिरे। सस्मितानि पतन्ति 
सम राघवस्थ पदोपरि॥' अर्थात्‌ रामचन्द्रजीके तीक्ष्ण बराणोंके द्वारा रावणके जो सिर छेदे गये थे बे प्रसन्न 
होकर आकाशमें चले गये और वहाँ यह सोचकर कि हमको श्रोरामचद्रजीके हाथोंसे मारे जानेका गौरव 
प्राप्त है प्रसन्न हो मुस्कुराते हुए वन्दना करनेके लिये श्रीरमके चरणोंपर आकर गिरते थे। 

नोट-२ (क) 'रघुकीर” से 'धन्बी सकल लोक विख्याता' सूचित किया। (ख)--'रघुबीर कोसलाधीश' 
कहकर रामको ही सूचित किया (ग)-“कहँ लक्िमन”“““कोसलाथीसा' का भाव कि जो-जो प्रधान 
हैं हम उनको ढूँढ़ते हैं, पावें तो मार डालें। यथा--“कहाँ राम रन हतडँ ग्रचारी'। 

नोट--#8३ मेघनादने अड्भद, हनुमान्‌, द्विविद, नल, नील और विभीषणका नाम लिया था, यथा-'“कहँ 
नल नील दुबिद सुग्रीवा। अंगद हनूमंत बलसीवाँ॥ कहाँ बिभीषन श्राता द्रोही'। पर रावणके सिर इनका 
नाम नहीं लेते। इसका कारण यह है कि वह राजा है, राजाओंसे युद्ध करता है, औरोंके साथ युद्ध 
करनेमें अपनी हीनता समझता है। विभीषणको लात मारकर निकाल दिया अत: उनकों वह समझता ही 
क्या है। लक्ष्मणजीसे युद्धमें अभी-अभो पराजय पायी है--“गिरशे धरनि दसकंधर बिकलतर बान सत बेध्यों 
हियो। सारथी दूसर घ्ालि रथ तेहि तुरत लंका लड्ट ययो॥” (८३ छंद)” अत: लक्ष्मणजीका नाम लेते हैं। 
सुग्रीवके कारण ही सारी वानर-सेना रामचन्द्रजीके साथ है, वे वानरराज हैं; अत: उनका नाम लेते हैं। 
अन्य कारण दोहा ६४ “काँखि दाबि कपिराज कहँ' एवं ४९ (१- ३) में दिये जा चुके हैं। 


* हनुमान्‌।-(का०)। 











# दोहा ९२ (छंद) # श्रीमद्रामचन््रचरणौ शरण प्रपद्ये # ड८७ लड्ढाकाण्ड 





नोट--४ जो मेघनादने स्वयं कहा था वह यहाँ रावणके कटे सिर कह रहे हैं। इससे रावणकी 
अधिक वीरता सूचित होती है। 
फ्कयह वर्णन वाल्मी० में नहीं है। 
छं०--कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले। 
संघानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले॥ 
सिर-मालिका कर कालिका गहि* बूंद बूंदन्हि बहु मिलीं। 
करि रुधिर सरि मज्जनु मनहु संग्राम बट पूजन चलीं॥ 
अर्थ--' राम कहाँ हैं' यह कहते हुए शिरोंके झुंड दौड़े। वानर उन्हें देखकर भाग चले तब रघुकुलमणि 
अ्रीरामचन्द्रजीने हँसकर धनुषसंधान करके बाणोंसे सिरोंको भली प्रकार वेध दिया। कलिकाओंके बहुत-से 
झुंड-के-झुंड हाथोंमें मुण्डमालाएँ लिये मिलकर चलती हुई ऐसी मालूम होती हैं मानो रुधिर-नदीमें स्नान 
करके संग्रामरूपी वटवृक्षकौ पूजा करने जा रही हैं। 
मा० म०--'कहाँ राम कहि”““””” इति। बिना शरौरके सिरकी बोली सुनकर कपिदल भागा। अथवा, 
जीता है मरा नहीं है, वा, यह कि मरनेपर भी सँग लगा है--यह जानकर भागा। 
नोट--ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्याको स्त्रियाँ वटकों पूजा करती हैं। उसीसे यहाँ उत्प्रेक्षा करते हैं। बटमें 
अनेक वटारोह जड़वाली शाखाएँ निकलती हैं। तात्पर्य यह है कि कालिकाओंको रक्तपानसे प्रेम होनेके 
कारण वे संग्रामकों जारी रखना चाहती हैं, अक्षय बनाना चाहती हैं। बटसावित्री सीमात्रकी अत्यन्त प्रसिद्ध 
और विशेष पूजा है। प्रसिद्धिकी दृष्टिसे ही इस विशेष पूजाकी उत्प्रक्षा की गयी है। 
बं० पा०--जिस वटका नाम “सावित्री-वट' है; उसे अपने पतिके चिरंजीवी होनेंक लिये पूजन किया जाता है। 
गौड़जी-यहाँ कालिकासे वह कालीजी अभिप्रेत नहों हैं जो पार्वतीजीके शरीरसे चण्ड-मुण्ड और 
रक्त बीजके विनाशके लिये पैदा हुई थीं। ये कालिकारूपधारिणों योगिनियाँ हैं जो मातृकाओंकी सेनामें 
करोड़ोंकी संख्यामें रहा करती हैं और जिह्ला फैलाकर नहीं बल्कि खप्परोंमें रक्त रोपकर पान करती हैं। 
दो०-पुनि दसकंठ क्रुद्ध होइा छाड़ी सक्ति प्रचंड। 
चली बिभीषन सन्मुख+ मनहुँ काल कर दंड॥९२॥ 
अर्थ-फिर दशग्रीबने क्रोधित होकर विभीषणपर प्रचण्ड शक्ति चलायी। वह विभीषणके सामने ऐसे 
चली मानो यमराजका दण्ड हो॥ ९२॥ 
नोट--१ (क) काल-यम। दंड यमराजका आयुध है, यथा-“कालो दण्डधर: श्राद्धेवो बबस्व॒तोउन्तकः', 
“काल दंड गहि काहु न मारा।' (३६। ७) (ख) रावणकी जब रामचद्धजीसे कुछ न चली और विभीषण सामने 
देख पड़े तब यह समझकर कि इसीके शत्रुसे मिल जानेके कारण, हमारी यह दुर्गति हुई एवं यह कि हमारे जीते 
जी ही इसने तिलक करा लिया है क्रोधका आना और अमोघशक्तिका उसपर छोड़ना स्वाभाविक ही है। विभीषणको 
देख भ्राता, पुत्र और सेनाका नाश स्मरण हो आया जिससे अवश्य हो असह्य दुःख उसे हुआ होगा। 
नोट--२ विभीषणजीपर शक्ति चलानेका प्रसंग वाल्मी० ९०। ४२ (मेघनाद-लक्ष्मण अन्तिम युद्धमें 
मेघनादद्वारा), वाल्मी० १००। १९, २४ (रावण-लक्ष्मण-युद्धमें) और अ० रा० ११ में (राम-रावण- 
युद्धमें) वर्णित है। मेघनादकी चलायी हुई शक्तिको लक्ष्मणजीने काट डाला। लक्ष्मण-रावण-युद्धमें रावणने 
विभीषणपर शक्ति चलायी, उसे लक्ष्मणजीने काट डाला। तब उसने दूसरी शक्ति चलायी जिससे विभीषणके 
प्राणॉंका संशय था। उससे भी विभीषणकों बचाया। तब रावणने लक्ष्मणजीपर शक्ति चलायी जिससे वे 
मूर्च्छित हुए और सुषेणद्वारा अच्छे हुए। गौतावलीमें भी ऐसा ही उल्लेख है। अ० रा० ६ में भी यह 


* गहि कालिका कर-(का०)।  पुनि रावन अति कोप करि। | सनमुख चली बिभीषन-(का०)। 








मानस-पीयूष ४८८ # अ्रीमते रामचन्द्राय तम: # नअ---न+--+---_ी वेसबकायक्ा+ | दोहा९३(१-४) ६३(१-४) 


प्रसंग है कि “विभीषणको देखकर रावणने महाशक्ति चलाबी। प्राणोंका संशय देख लक्ष्मणजीने विचार किया 
कि इनको राघवने अभय प्रदान किया है इन्हें बचाना हमारा कर्तव्य है। यह सोचकर आप विभीषणके 
आगे आ खड़े हुए। और उस शक्तिके लगनेसे मूच्छित हो गये। अ० रा० ११ में नाभिसर सोखनेके 
बाद रावणने विभीषणपर महाभयंकर शक्ति चलायी है। वहाँ रामचद्रजीने उस शक्तिको बाणोंसे काट डाला 
है। इससे शक्तिका सहना एवं भक्तवत्सलताका विचार करनेका उल्लेख नहीं है।--'ततो घोरां महाशक्तिमादाय 
'दशकन्धर:॥ विभीषणवधार्धाीय चिक्षेप क्रोधविह्ल:। चिच्छेद राघवों बाएैस्‍्तां शितैहेंमभूषितै:॥" (५६-५७) 
अर्थात्‌ क्रोधसे मूच्छित रावणने विभीषणवधके लिये भयंकर महाशक्ति चलायी। रघुनाथजीने काझनभूषित 
पैने बराणोंसे उसे काट डाला। 
साहित्यिक दृष्टिसे यह प्रसंग इन सब प्रसंगोंमेंसे लेकर चुना हुआ कहेंगे। और हमारे प्राचीन इतिहासों- 
शास्त्रोंके अनुसार कल्पभेदसे ये चरित कहे गये हैं। मनु-दशरथ और भानुप्रताप-रावणवाले कल्पकी कथा 
ऐसी ही होगी। क्योंकि जय-विजय इत्यादि रावणावतारोंकी कथाएँ तो वाल्मो०, आ० रा०, अ० रा० आदियें 
दी हो हैं। 
आवत देख सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भंजन यन मोरा*॥ श्॥ 
तुरत बिभीषनु पाछे मेला। सन्मुख राम सहेड सो सेला॥२॥ 
अर्थ--अत्यन्त भयानक शक्तिको आते देख, 'हमारा प्रण है शरणागतके दुःखका नाश करना'॥ १॥ (यह 
विचारकर) तुरंत विभीषणको अपने पीछे करके रामचद्धजीने सामने आकर वह शक्ति आप सह लो॥ २॥ 
नोट-१ 'प्रनतारति भंजन पन गोशा॥ यथा--'जाँ सभीत आवा सरनाईं। रखिहरडँ ताहि प्रान की नाई।' 
विभीषण प्रणत हैं हो और प्रभुका 'भंजन भव भीर” और 'आरतिहरन' गुण सुनकर आये ही थे, यथा-' अबन 
सुनि आएउँ प्रभु भंजन भवभीर। ब्राहि त्राहि आरतिहरन सरन सुखद रघुबीर॥' अत:, प्रभुने उनके भव वा 
आर्तिका हरण किया और उनके प्राणोंकी रक्षा अपने प्राणोंसे भी अधिक को। 
नोट-२ “पाछे मेला” से जनाया कि हाथसे पीछे कर लिया। पूर्व कहा 'आबत देखि सक्ति'"“ 
और फिर 'सहेउ सो सेला; इस तरह 'सेला' का अर्थ 'शक्ति' जनाया। पुन;, पीछे हटा देनेसे सूचित 
हुआ कि वह शक्ति विभीषणके लिये प्राणघातिनी थी। (अ० रा० ११। ५७; उपर्युक्त) 
वि० त्रि०--मालूम होता है कि मातलिके घायल होनेके बादसे सारथोका काम विभीषण करते हैं, 
नहीं तो सरकार रथपर सबार हैं, रावणका रथ सामने है, दोनों ओरसे अस्त्र-शस्त्र चल रहे हैं, बीचमें 
विभीषण कहाँसे चले आये कि रावणने उनपर शक्ति छोड़ी, और रामजीने विभीषणकों ढकेलकर ड्स 
शक्तिको अपनी छातीपर लिया। इस स्थलपर सारथीके स्थानपर विभीषणकों बिना माने अर्थ बैठता नहीं। 
लागि सक्ति मुरुछा कछु भई। प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई॥३॥ 
देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो। गहि कर गदा क्ुद्ध होड़ धायो॥४॥ 
अर्थ-शक्तिके लगनेसे कुछ मूर्च्छा हुई। प्रभुका तो यह खेल हुआ और देवताओंको व्याकुलता हुई॥३॥ 
प्रभुको श्रम (क्लेश, कष्ट, तकलीफ) हुआ देखकर विभीषणजी हाथमें गदा ले क्रुद्ध होकर दौड़े॥ ४॥ 
पं०-- प्रभु कृत खेल'। भाव कि नरनाट्यमें तदनुसार स्वाँग करना ही पड़ता है-“जस काछिय 
तस चाहिय नाचा।' खेलका हेतु भक्तकी रक्षा और विधि-वचनका निर्वाह है। अथवा, विभीषण-राबण- 
बुद्ध देखनेके लिये यह कौतुक किया गया। रावणको दिखा देना चाहते हैं कि जो रावण तुम्हारे सम्मुख 
कभी दृष्टि भी न कर सकता था वह आज, हमारे आश्रित होनेसे कैसा बलवान्‌ है। यवका घुन नहीं 











* पाठान्तर--'आवत देखि सक्ति खर धारा। प्रनतारतिहर बिरद सँभारा॥' अर्थ--तौश्ष्ण घारवाली शक्ति आते देख, 
शरणागतके दुःखके हरनेवाले प्रभुने अपना 'प्रणतारतिहर' पन स्मरण किया। 


दोहा ९३९ ५--८ ) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्चे # ४८९ ल्बाकाण्ड 


है और न “भीरु' है। हि 

नोट--पूर्व स्वामीकी 'सेवकहितता' दिखायी--'तुरत बिभीषन पाछे मेला।“““” और यहाँ सेवककी 
“सेवकाई' दिखायी-'गहि कर गदा”“““/। 

॥&विभीषणको शरणमें लेकर प्रभुने अबतक उनको संग्राममें लड़नेके लिये कभी नहीं भेजा। वे 
इनकी प्राणकी तरह रक्षा करते रहे। इस समय प्रभुको श्रमित देख विभीषण स्वयं दौड़कर रावणसे लड़ने 
चले। यही एक प्रथम और अन्तिम युद्ध विभीषणका है। प्रभुने उनको केवल मन्‍्त्री ही बनाकर अपने 
पास ही लड़ाईभरमें रखा। 

ए#इस चरितसे प्रभु उपदेश दे रहे हैं कि जो कोई भी प्राणी हमारी शरणमें संसारसे भयभीत होकर 
आबेगा उसकी हम प्राणोंसे रक्षा करेंगे। उसे केवल एक बार सत्य ही शरणमें आनेकी जरूरत है फिर 
समस्ते विकारोंसे उसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है, उसको इनकी चिन्ता न रहेगी। हम उसके शत्रुओंको 
मारकर उसे राज्य देंगे। 

'प० प० प्र०--“लागि सक्ति”“““” इति। मूच्छित देख वानरसेनाभरको अनिर्वचनीय दुःख और चिन्ता 
हुईं। शिवादि मर्मज्ञ देवों और कविके हृदय भगवानूका शरणागत-परित्राण-विरद देखकर सत्त्वभावापन्न हो 
गये। प्रेम हृदयसे उमड़ पड़ा। अन्य देवताओंको भी दुःख और चिन्ता हुई; पर वे मनमें विचारने लगे 
कि विभीषण मर जाता तो क्या हानि थी, क्‍योंकि वे सब स्वार्थी ही तो हैं, उन्हें तो 'पर अकाज प्रिय 
आपन काजू।-ये सब भाव इस अर्धालीमें मात्राकौ कमीद्वारा जनाया है। 

रे कुभाग्य सठ मंद कुबुद्धे | तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे ॥५॥ 
सादर सिव कहुँ सीस चढ़ाएं।एक एक के कोटिन्ह पाए॥६॥ 

अर्थ--अरे अभागे! शठ! नीच! ओ२े दुर्बुद्धि! तू सुर, नर, मुनि, नागदेव सभीका विरोधी है॥ ५॥ 
तूने आदरसहित श्रीशिवजीकों सिर चढ़ाये (इससे) एक-एक सिरके बदलेमें करोड़ों सिर पाये॥ ६॥ 

नोट--१ “कुभाग्य, शठ, मन्‍्द, कुबुद्धि' ये विशेषण सहेतुक हैं। रामविमुख होनेसे अभागा और 
शठ कहा, यथा--'रामबिसुख सठ चहसि संपदा”, “सो नर क्यों दससीस अभागा।' (२६। ४) देखिये। 
सबसे विरोध करनेसे 'मंद' कहा। हित-अनहित न समझनेसे दुर्बुद्धि कहा--“तब उर कुमति बसी बिपरीता। 
हित अनहित मानहु रिपु प्रीता', 'हित अनहित पसु पच्छिउ जाना'। औरोंने भी इसे अभागा कहा है। 
यथा--'उतरु देत मोहि बथब अभागे” (मारीच)। क्योंकि इसने कहा था कि राम मनुष्य नहीं हो सकते 
पर रावणने गाली दी।”“), 'स्रो नर क्यों दससीस अभागा--(अड्गदने कहा, क्योंकि वह श्रीरामजीको 
नर कहता है), 'दसमुख सकल कथा तेहि आगे। कहेसि सहित अभिमात अभागे“-(कवि वा वक्ता 
अभिमानके कारण उसे अभागा कहते हैं)। 

'पं०--सुर-नरादि सबका विरोधी होनेसे “कुबुद्धि', कुबुद्धि होनेसे मंद, मंद होनेसे शठ और शठ होनेसे 
अभागी है। 

तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो *। अब तव काल सीसु पर नाँच्यो॥७॥ 
राम बिमुख सठ चहसि। संपदा। अस कहि हनेसि माँझ उर गदा॥८॥ 
अर्थ-उसी कारणसे अरे खल! अबतक तू बचता रहा, परन्तु अब तेरा काल तेरे सिरपर नाच रहा 
है॥७॥ ओरे मूर्ख! तू श्रीरमजीसे विमुख होकर सम्पत्ति चाहता है। ऐसा कहकर विभीषणने रावणकी 
छातीमें गदा मारी॥८॥ 











* वाचा, नाचा | चह-(का०) 


मानस-पीयूष ४९० # श्रीमते रामचन्द्राय नम: # दोहा ९३ ( छंद ) 





पं०--“अब तव काल सीखु पर नाँच्यो' यह कैसे जाना? उत्तर-(१) अब तूने रामको कष्ट पहुँचाया 
है, अतः अब तेरे सब सुकृत क्षीण हो गये। (२) जो अमोघ शस्त्र तेरे पास थे अब वह भी प्रयुक्त 
हो चुके। वा, (३) प्रभुके हृदयमें तूने शक्ति मारकर मानो अपना मृत्युस्थान बता दिया एतावता अब 
वे तेरे प्राण हरण कर लेंगे। .., 

करु०--भाव कि वरदान और तपस्याका फल पूरा मिल चुका। 

नोट--१ “राम बिमुख सठ चहसि संपदा '| भाव की रामविमुखको सम्पत्ति नहीं मिल सकती-- “रामबिमुख 
संपति प्रभुताई। जाड़ रही पाई बिनु पाई॥' तब (और देवताओंकी सेवासे) इसकी आशा करना मूर्खता 
ही है--“हित न तुम्हार संभु अज कीन्‍्हे।/ अतएव शठ कहा। 

नोट-- हनेसि माँझ उर गदा' हृदयमें मारा क्योंकि वे जानते हैं कि हृदयपर घाव लगनेसे रावण व्याकुल 
हो जाता है। और हुआ भी यही। 

छं०--उर माँझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि परो। 
दसबदन सोनित स्त्रवत पुनि संभारि धायो रिस भरतयो॥ 
द्वौ भिरे अति बल मल्ल जुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हने। 
रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गने॥ 
शब्दार्थ-महनयुद्ध-द्न्द्युद्ध, कुश्तीकी लड़ाई। घाल-घलुआ, सौदेकी उतनी वस्तु जितनी ग्राहकको तौल 
वा गिनतीके ऊपर दी जाती है। 'घाल न गिनना'-पसंगा बराबर भी न समझना,--“बीर-कारि केसरी-कुठारपानि 
मानी हारि तेरी कहा चली बिड तोसो गनै घालि को।' (क० लं० ११) & 

अर्थ--घोर कठोर गदाकी कठिन चोट छातीमें लगते ही वह पृथ्वीपर गिर पड़ा। उसके दसों मुखोंसे खून बहने 
लगा। फिर स्वयंको सँभालकर क्रोधमें भरा हुआ वह दौड़ा। दोनों अत्यन्त बलवान्‌ वीर भिड़ गये और मल्लयुद्धमें 
विरोधभावसे भिड़कर एक-दूसरेको मारने लगे। रघुवीरके बलसे गर्वित विभीषण उसको कुछ भी नहीं समझता। 

पं०--“म्ल जुद्ध बिरुद्ध/ का भाव कि मल्लयुद्ध मित्रभावसे भी होता है पर उसमें प्राणॉंपर आघात 
नहीं किया जाता, इसीसे कहा कि ये शत्रुभावसे एक-दूसरेके प्राण लेनेके विचारसे मल्लयुद्ध कर रहे हैं। 

बं० पा०-यहाँ विभीषणने ही रावणसे युद्ध किया, इसका कारण यह है कि इन्हींके लिये प्रभुको 
यह श्रम हुआ है। 
नोट--##रावणने, लक्ष्मण, अड्गद, सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवन्त, नल और नील इतनेका नाम लेकर 
इनका अपमान किया था, यथा--'तुम्हे कटक माँझ सुनु अंगद। मो सन भिरिहि कबन जोधा बद॥' , 
“तव प्रभु नारि बिरह बलहीना। अनुज तासु दुख दुखी मलीना॥” (२२। १-२) से “सिल्य कर्म जानहिं 
नल नीला” तक। इन सबोंने अपना बल युद्धमें इसको दिखाकर इस अपमानका बदला लिया है। यथा-- 
१ लक्ष्मणजी--“आतुर बहोरि बिभंजि स्वंदन सूत हति ब्याकुल कियो। 
गिरयो धरनि दसकन्धर बिकलतर बान सत बेथ्यों हियो॥ 
सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लंका लेड़ गयो॥' (८३ छंद) 

२ अड्जदने एक तो सभाहीमें उसका मानमर्दन किया था और फिर दुबारा- 
“देखि बिकल सुर अंगद धाएउ। कूदि चरन गहि भूमि गिरायउ॥ 
गहि भूमि पारों लात मारधों बालिसुत प्रभु पहिं गयउ॥' (९६ छन्द) 

३ सुग्रीवका युद्ध प्रकट यहाँ नहीं लिखा गया। कारण यह जान पड़ता है कि इनके अपमानका 
बदला रावणके भाई कुम्भकर्णके युद्धमें कवि दिखा चुके हैं। यथा--“काटेसि दसन नासिका काना। गरजि 
अकास चलेड"“॥# 

४ विभीषन--'उर माँझ गदाप्रहार घोर कठोर लागत महि पत्यो। 


दोहा ९३, ९४( १-४) # श्रीमद्रामचन्रचरणौ शरण प्रपद्चे # ४९९ लड्ढाकाण्ड 





दस बदन सोनित ख़बत पुनि संभारि धाएउ रिस भरबों॥/ (९३ छन्द) 
५ जाम्बवंत-'मुरछेत देखि सकल कपि बीरा। जामबंत धाएउ रनधीरा॥"777 
देखि भालुपति निज दल घाता। कोपि माँझ उर मारेसि लाता॥ 
उर लात घात प्रचंड लागत बिकल रथ तें महि परा"”““। 
मुरक्तित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहि गयो॥” (९७) 
६-७ नल नील-“तब नल नील सिरन्ह चढ़ि गएक। नखन लिलार बिदारत भएऊ॥ 
रूधिर देखि बिषाद उर भारी। तिन्हाहिं धरन कहाँ भुजा पसारी॥ 
गहे न जाहिं करन्‍्ह पर फिरहीं। जनु जुग मधुप कमलबन चरहीं॥ का 
कोपि कूदि दोउ धरेसि बहोरी। महि पटकत भजे भुजा मरोरी॥' (९७। ६-५) 
दो०--उमा बिभीषनु रावनहिं सन्मुख चितव कि काउ। 
सो अब भिरत काल ज्यौं* श्रीरघुबीर प्रभाउ॥९३॥ 
अर्थ-हे उमा! क्या विभीषण कभी भी रावणके सामने आँख उठा कर देख भी सकता था? (कदापि 
नहीं)। परंतु वही विभीषण अब कालके समान रावणसे भिड़ रहा है; यह श्रीरघुवीरका ही प्रताप है॥९३॥ 
नोट--१ “सनमुख ब्वितव कि काउ-अर्थात्‌ सदा डरता था, यथा--“नाड़ सीस करि बिनय बहुता। 
नीति बिरोध न सारिय दूता॥' (सुं० २४), “अवसर जानि बिभीषण आवा। भ्राता चरन सीस तेहि नावा॥' 
(सुं० ३८। २) 'पुनि सिरु नाह़ बैठ निज आसन। बोला बचन पाड़ अनुसासन॥, 'तात चरन गहि मागउँ 
राखहु मोर दुलार।' (सुं० ४०) 
विभीषणजीने कठोर वचन सुनने और लात खानेपर भी आँख सामने न की। यथा--'अस कहि कीन्हेसि 
चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिबारा॥ तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। राम भजे हित नाथ तुम्हारा ॥ 
(५। ४१), “बंधु हमार भीरु अति सरोऊ--(रावणवाक्य अद्भगदप्रति) ।' 
नोट-२ “काल न्याँ” अर्थात्‌ विरोधभावसे प्राण लेनेके लिये, कालके समान दुर्धर्ष होकर, सम्मुख आकर। 
नोट--३ “औरीरघुबीर प्रभाउ' इति। प्रभाव यह है कि प्रभु तृणकों भी बज्र बना देते हैं। यथा-“तृन 
ते कुलिस कुलिस तृतर करई।' 
देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धाएउ हनूमान गिरि धारी॥१॥ 
रथ तुरंग. सारथी निपाता। हृदय माँझ तेहि मारेसि लाता॥२॥ 
अर्थ-विभीषणजीको बहुत श्रमित (थका हुआ) देखकर हनुमानूजी पर्वत लिये हुए दौड़े॥ १॥ (और 
उससे) रथ, घोड़े और सारथीका नाश कर दिया और उस (रावण) के हृदयमें लात मारी॥ २॥ 
नोट-- 'गरिरिथारी” कहकर व्यञ्नाद्वारा प्रकट किया कि पर्वतसे रथ, घोड़े और सारथीको मारा। रावण 
पहाड़की चोटसे बच गया। उसी समय हनुमानूजीने उसे लात मारी। विभीषणजीने हृदयमें गदा मारी थी 
और हनुमानूजीने भी हृदयमें ही मारा। 
ठाढ़ रहा अति कंपित गाता। गएउ बिभीषन जहँ जनत्राता॥ ३॥ 
घुनि रावन कपि हनेड पचारी। चलेड गगन कपि पूँछ पसारी॥ ४॥ 
अर्थ--वह खड़ा रहा पर उसका शरीर अत्यन्त काँपने लगा। तब विभीषण वहाँ गये जहाँ जनरक्षक 
प्रभु थे॥३॥ फिर रावणने ललकारकर हनुमानूजीको मारा। वे पूँछ फैलाकर आकाशमें चले गये अर्थात्‌ 
उसके आघातसे इनको कुछ न हुआ॥४॥ 
नोट--१ “गएउ बिभीषन जहाँ जनत्राता' | (क)--“जनत्राता” विशेषण देनेका भाव कि विभीषणजीकी 





# “*भिरत सो काल समान अब'--(का०) 


मानस-पीयूष ४९२ # श्रीमते रामचन््राय नम: # दोहा ९४( ५-६.) 





रक्षाके लिये ही उन्होंने शक्ति अपने ऊपर लेकर इनको बचा लिया था। (ख)--“गहि कर गदा क्क्द्ध 
होड़ धायउ” उपक्रम है और “गएउ बिभीषन जहाँ जनत्राता' उपसंहार है। (गग श्रीहनुमानजीके पहुँचनेसे 
इनको अवकाश मिला तब ये प्रभुके पास गये। 

नोट--२ प्रभुको श्रमित देख विभीषण धाये, विभीषणजीको श्रमित देख हनुमानजी धाये, हनुमानजीका 
सझ्डूट देख वानर-भालु चलेंगे और उन सबोंको पीड़ित देख फिर श्रीरघुवीर सबकी रक्षा करेंगे। इस प्रकार 
“जनत्राता' पदका पूरा चरितार्थ यहाँ है। यथा- 

१ विभीषण--'देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायउ। गहि कर गदा क्रुद्ध होड़ धायउ॥" (९३। ४) 

२ हनुमानूजी-देखा भ्रमित बिभीषन भारी। धाएउ हनूमान गिरि धारी॥' (९४। १) 

३ वानर-भालु-- हनुमंत संकट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले।' (९४ छन्द) 

४ श्रीयमजी--“रतमत्त रावत सकल सुभट प्रचंड भुजबल दलमले॥ तब खुबीर प्रचारे धाए कौस प्रचंड।' (९४) 

पु० रा० कु०--'पूँछ पसारी” इससे हनुमानूजीने अपनी प्रबलता दिखायी। यथा-“गहेसि पूँछ कपि 
सहित उड़ाना'। 

पं० वि० त्रिपाठीजी-हनुमानूजीने देखा कि सरकार मूर्छित हैं, विभीषण भी युद्धमें श्रमित हो गया। 
रथी-सारथी दोनों संकटापन्न हैं। ऐसे अवसरपर रावणका सन्निकट रहना ठीक नहीं। अतः रावणकी चोट 
खाकर हनुमानजी आकाशमें चले और पूँछको फैला दिया जिसमें 'कहाँ जाता है” कहकर रावण भी पूँछ 
पकड़े आकाशमें चला आबे। बुद्धिमतांवरिष्ठकी नीति सफल हुईं। रावण ।'गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना। 
पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना॥' नहीं तो शत्रुस चोट खाकर आकाशमें चला आना तो भागना हो जायगा। 
अतः महावीरके प्रति ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता। था 

गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना॥५॥ 
लरत अकास जुगल सम जोधा। एकहि एक हनत करि क्रोधा॥६॥ 

अर्थ-रावणने पूँछ पकड़ ली, कपि उसके समेत उड़े। फिर महाबलवान्‌ हनुमानूजी उससे फिरकर भिड़े॥५॥ 
दोनों समान योद्धा हैं। आकाशमें लड़ते हुए वे एक-दूसरेको क्रोध कर-करके मारने लगे॥६॥ 

नोट--१ “गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना” यह पूँछकी पुष्टता और हनुमानूजीका बल दिखाया। पुनः 
ऊपर उड़नेमें अभिप्रांय यह था कि ऊपरसे प्रहार करें। 'पुनि' और 'फिरि” में पुनरुक्तिवदाभास है। 

पं०-रावण पूँछ पकड़े खींचता है। और हनुमानजी ऊपर उड़े जा रहे हैं यह देख लोग ऐसा न 
समझें कि हनुमानजी उससे भागते हैं, यह विचार कर “पुनि फिरि भिरेउ” कहा। 

“जुगल सम जोधा' इति। यथा-- 


रावण हनुमान्‌ 
१ “परेउ सबल जनु बच प्रहारा। (८३। २) “जानु टेकि कपि भूमि न गिरा।(८३।१) 
२ 'मुरा गड्ट बहोरि सो जाया। कपिबल बिपुल सराहन लाया॥' (८३। ३) “उठा सँभारि बहुत रिसभरा। (८३। १) 
३ “हृदय माँझ़ तेहि मारेसि लाता।' (९४। २) “पुनि रावन कपि हतेड पचारी। (९४। ४) 
४ “ठाढ़ रहा अति कंपित गाता।' (९४। ३) “चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी। ' (९४। ५) 


५ 'हनत एक एकहि करी क्रोधा।' (९४।६) 
६ “महि परत पुन्रि उठि लरत देवन्ह जुगल कहँ जय जय भनेउ।' (९४ छन्द) 

दोनोंमें इस स्थानपर आकार, बल और बुद्धिमें समानता कही है। दोनों पर्वताकार-- 'कजलगिरि 
“सुमेरु!। दोनों 'माहि परत पुनि उठि लरत” और दोनों एक-दूसरेसे पार नहीं पाते--“निस्चिचर बुधि बल 
परै न पारा! वह भी पार नहीं पाता, नहीं तो घायल करके चल देता। 

एक हनुमान-मेघनाद और हनुमानू-रावण-युद्धका मिलान-- 


दोहा ९४ ( ७-८ ) छंद # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्यो & ४९३ लड्जाकाण्ड 


हनुमान-मेघनाद हनुमान्‌ू-रावण 

देखि पवनसुत कटकु बिहाला १ देखा श्रमित बिभीषन भारी 

गहिं गिरि मेघनाद कहूँ धावा। महा सैल एक तुरत उपारा॥ २ धाएउ हनूमान गिरिधारी 

भंजेउ रथ सारथी निपाता। रथ सारधी तुरत सब खोई॥ ३ रथ तुरंग सारथी निपाता 

ताहि हृदय महँ मारेसि लाता। ४ हृदय माँझ तेहि मारेसि लाता 

आवत देखि गएउ नभ सोई॥ ५ ठाढ़ रहा अति कंपित गाता 

बार बार प्रचार हनुमाना। निकट न आव मरम सो जाना॥ ६ पुनि रावन तेहि हतेउ प्रचारी।'“““" 
हनत एक एकहि करी क्रोधा। 


एछमेघनाद एक बारकी लात खाकर इतना डर गया कि तीसरी बार ललकारनेपर भी सामने नहीं 
आतां और रावण स्वयं ललकार-ललकारकर उनसे लड़ रहा है। इससे रावणमें मेघनादसे विशेषता दिखायी। 
सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं। कज्जला गिरि सुमेरु जनु लरहीं॥७॥ 
बुधि बल निसिचर परे न पारधो *। तब मारुतसुत प्रभु संभारयो]॥ ८॥ 
शब्दार्थ-पार पड़ना-सफलता प्राप्त करना, जीतना। पारना"गिराना। यथा-“गहि भूमि पारणे लात मारणें”। 
अर्थ-बहुत छल-बल करते हुए वे आकाशमें (ऐसे) शोभित हो रहे हैं मानो कजलका पर्वत और 
सुमेरुषर्वत दोनों लड़ रहे हैं॥ ७॥ जब बुद्धि और बलसे निशिचरसे पार न पाया (वा, निशिचर गिराये 
न गिरा) तब पवनसुतने प्रभुको स्मरण किया॥ ८॥ 
नोट--१ रावणको पर्वताकार और काला होनेसे कजलगिरि कहा। पूर्व भी रावणको कज्जलगिरिकी 
+पमा दी गयी है। यथा--“अगंद दीख दसानन बैसा। सहित प्रान-कजजलगिरि जैसा॥” (१९। ४) श्रीहनुमानूजी 
*सुबर्णशैलाभदेहम्‌' हैं अत: सुमेरु पर्वतकी उत्प्रेक्षा की गयी। 
नोट--२ पहले 'छल बल बहु करहीं” कहा, फिर “बुधि बल परे न पारा” कहा। इस प्रकार “छल 'से “बुद्धि 
बल' और “बल' से 'शरीरबल' का अर्थ सूचित किया। विशेष “निसिचर छलबल करड़ अनीती।” (५३। ३), 
तथा “चिक्करहिं मर्कट भालु छलबल करहिं जेहि खल छीजहीं।' (८० छन्द) देखिये। 
नोट--३ “बुधि बल निसिचर परै न पारधों। इति। यहाँ रावणको हनुमानूजीसे अधिक बलवान्‌ 
दिखाया। एवं हनुमानजी आदि वानर-योद्धाओंके बलपर रावणकों पराजय 'करनेका निषेध और जाम्बवन्तके 
“तब विज भुजबल राजिवनयना। कौतुक लागि संग सब सेना॥' इन बचनोंकों चरितार्थ किया है। अन्यत्र 
भी यह बात गोस्वामीजीने कही है कि वानरोंमें जो बल रावणके सामना करनेका है वह सब प्रभुका 
प्रताप है, [यथा--'रामप्रताप प्रबल कपि जूथा।' (४१। १), “कपि जयसील राम बल ताते।' (८०। ३) ], 
नहीं तो सुग्रीवके साथ रहकर भी हनुमानूजी बालिसे उनकी रक्षा क्यों न कर सके? यथा “तुलसी राम 
सुदीठि तें निबल होत बलवान। बैर बालि सुग्रीवि के कहा कियो हनुमान।' (दो० ११०) 
छं०-संभारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यौ। 
महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यौ॥ 
हनुमंत संकट देखि मर्कद भालु क्रोधातुर चले। 
रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचंड भुजबल दलमले॥ 
शब्दार्थ-दलमलना-मसल वा भीड़ डालना। “भुजबल रिपुदल दलमलि' क! (४४) 
अर्थ--जयश्रीको प्राप्त, धीर, रघुकुलवीर श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके हनुमानूजीने ललकारकर रावणको 
मारा। वे दोनों पृथ्वीमें गिते और फिर उठकर लड़ते हैं, यह देख देवताओंने दोनोंकी जय पुकारी अर्थात्‌ 


*+ पारा, संभारा-(का०)। 











मानस-पीयूष ४९४ # श्रीमते रामचन्द्राय नम: # दोहा मी निनसन--+ननन 0 औरत पमजराप शक कहो १४ 5 (6) (९२) 
णः 





जय-जयकार किया। हनुमानूजीका क्लेश देखकर रीछ और बानर क्रोधभरे हुए शीघ्र चले। रणमदमाते रावणने 

सब उत्तम योद्धाओंको अपने प्रचण्ड भुजबलसे मसल डाला। ए 
नोट-१ “जुगल कहूँ जय जय भन्यौ।' (१)--इससे जनाया कि दोनों ही 'एक-दूसरेकी मारसे!पृथ्वीपर 

गिरते और फिर उठकर लड़ते हैं, नहीं तो दोनोंकी जय कैसे बोलते? (२) रावण तो शत्रु है, उसकी ज़य क्यों 

बोलते हैं? देवता सत्यवादी हैं, बे झूठ नहीं बोल सकते, यथार्थ ही कहेंगे। पुन, दोनोंकी वीरतापर प्रंसन्न हो- 

होकर जय बोल रहे हैं। देखिये, शत्रु होनेपर भी भगवान्‌ कृष्णजी कर्णकी वीरताकी प्रशंसा करते रहते थे। 
नोट--२ “सकल सुभट प्रचंड भुजब्ल दलमले।' हनुमानूजीका हटना नहीं कहा। इससे जनाया कि 

वह इनसे भी लड़ता था, इनसे असावधान न था और साथ-ही-साथ और सबसे भी लड़ता था। 
बं० पा०-दोकी जय बोली, अतएवं दो बार “जय” कहा। 


दो०--तब॒रघुबीर पचारे* धाए कीस प्रचंड। 


कपिदल प्रबल देखि॥ तेहिं कीन्ह प्रगट पाषंड॥९४॥ 
अर्थ-तब श्रीरघुवीरके ललकारनेपर बड़े बलवान्‌ वानर बड़े बेगसे दौड़े। प्रबल वानरदलको देखकर 
उसने माया प्रकट की॥९४॥ 
शब्दार्थ-पाषंड-माया। यहाँ “कील ग्रगट पाषंड” कहा और आगे कहते हैं कि “प्रभु छन महँ माया 
सब काटी।' (९६। १), इस तरह दोनों पर्याय हुए। 
नोट--१ (क) “तब रघुबीर यचारे' अर्थात्‌ हनुमानूजीका संकट सुभट निवारण न कर सके, वरन्‌ 
स्वयं मर्दित हुए, यह देख प्रचण्ड योद्धाओंको भेजा। “पच्चारे' पूर्व रावण और ,आगे 'कौस प्रचण्ड' दोनोंमें 
लगता है। (ख) “श्ाये” इति। जो सुभट हनुमानूजीकी सहायताके लिये चले, वे अड्भद अथवा नल- 
नीलादि यूथप न थे। इसीसे उनके विषयमें “चले” पद दिया था। और सर्वत्र “धाए” पद आया है--(विभीषणजी 
धाये, यथा--“गहि कर गदा क्रुद्ध होड़ थायो।' हनुमानजी धाये, यथा--'धाबेउ हनूमान गिरिधारी।” अब प्रचण्ड 
ककीश धाये; यथा--“थाए कौस प्रचंड'। और पूर्व 'हनुमंत संकट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले।) “चले” 
से जाना गया कि रावणके सम्मुख लड़नेका साहस न पड़ता था। अत: उन्हें उतना उत्साह न था और 
ये प्रचण्ड कीश उत्साहपूर्वक उससे लड़ने जा रहे हैं। 
नोट--२ 'कपिदल प्रबल देखि तेहि प्रयट कौन्ह पाषंड।' भाव कि अभीतक एक हनुमानूजीको ही 
मैं बल और बुद्धिसे न जीत सका था और अब तो अज्ञदादि और भी महाबली वीर आ गये, सबसे 
कैसे लड़ूँगा। मैं अकेला और ये सब मेरे समान बलवान्‌ हैं, यह विचारकर माया रची। यथा-'मैं अकेल 
कपि भालु बहु माया करउँ अपार॥' (८८) 
अंतर्धान भएठ छन एका। पुनि प्रगटे खल रूप अनेका॥१॥ 
रघुपति कटक भालु कपि जेते। जहँ तहूँ प्रगट दसानन तेते॥२॥ 
अर्थ--क्षणभरके लिये वह अदृश्य हो गया। फिर उस दुष्टने अनेक रूप प्रकट किये॥ १॥ श्रीरघुनाथजीकी 
सेनामें जहाँ जितने रीछ-बन्दर थे, वहाँ उतने ही रावण प्रकट हो गये (अर्थात्‌ एक-एक योद्धाके लिये 
एक-एक) ॥ २॥ 
नोट--१ 'अंतर्थान भएउ छत एका' इति। अन्तर्धान होनेका भाव कि जिसमें कोई यह न जान सके 
कि असली रावण कौन है। वा, अन्तर्धान हुए बिना यह माया न रच सकता था, अतः अन्तर्धान हुआ। 
नोट--२ रावणको ब्रह्माका वरदान था कि जब जो और जितने रूप चाहे, उतने रूप हो सकता 
था, यथा--'वितरामीह ते सौम्य वर चान्य॑ दुरासदम्‌॥ छन्दतस्तव रूपं च मनसा यद्यथेप्सितम्‌। एवं पितामहोक्त 








* राम पचारे बीर तब। | बिलोकि-(का०)। 


द्वोहा ९५ ( ३-८) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्यो # ४९५ लड्ढाकाण्ड 





च्॒ दशग्रीवस्थ रक्षसः॥' (वाल्मी० ७। १०। २४-२५) अर्थात्‌ पितामह ब्रह्माजीने दशग्रीवसे कहा कि हम 
तुमको और भी एक वर यह देते हैं कि तुम ईप्सित रूप धारण कर सकोगे। 
देखे कपिन्ह अमित दससीसा। जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा*॥३॥ 
भागे बानरा धर्हें न धीरा । त्राहि त्राहि लछिमनु रघुबीरा॥४॥ 
अर्थ-वानरोंने असंख्य रावण देखे। सब रीकू और वानर जहाँ-तहाँ भगे॥ ३॥ वानर धीरज नहीं 
धरते हैं। हे लक्ष्मणजी! रक्षा कीजिये! हे रघुवीरजी! रक्षा कोजिये! ऐसा पुकारते भागे जा रहे हैं॥ ४॥ 
नोट--१ पहले “वानर-समूह” का एक साथ देखना कहा--'देखे कपिन्ह' ॥ इससे बहुवचन पद 
दिया। फिर प्रत्येक वानर और रीछका, जो जहाँ पाता है, तहाँ अलग-अलग सबका भागना कहा। अतः 
“भजे भालु अरु कीसा' कहा। फिर दूसरी बार “भागे बानर' बहुवचन पद दिया। वानर दीपदेहरी न्यायसे 
*भागे' और 'धरहिं' दोनोंके साथ है; यहाँ सभीका अधीर होना, सभीका “"त्राहि त्राहि””““” ”पुकारते भागना 
सूचित किया। इसीसे बहुवचन पद दिया और पुनः “भागे” कहा। 
नोट--२ वानर अमित हैं। इसीसे रावणने अमित रूप धारण किये। जिसमें एक-एक वानरके लिये 
कम-से-कम एक-एक तो हो जाय। 
नोट--३ 'ब्राहि त्राहि लकछिमन रघुबीरा' इति। श्रीराम-लक्ष्मणकी शरण गये; क्योंकि पूर्व अभी-अभी 
हनुमानूजीको भी संकटमें देख चुके हैं, इससे समझते हैं कि और कोई रक्षा नहीं कर सकता। 
दहूँ दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन+। गर्जहिं घोर कठोर भयावन॥ ५॥ 
डरे सकल सुर चले पराई। जय कै आस तजहु अब भाई॥६॥ 
अर्थ-दसों दिशाओंमें करोड़ों रावण दौड़ते हैं और घोर, कठोर, भयद्भर गर्जन करते हैं॥ ५॥ सब 
देवता डरकर (परस्पर यह कहते) भाग चले--'अरे भाई! अब जयकी आशा छोड़ो'॥६॥ 
रा० प्र०--१ दस दिशिमें नीचेकी दिशा भी आ गयी। पातालकी ओर, रथादिके नीचे या विवर- 
सिंधुसे रावणोंका प्रकट हो दौड़ना जनाया। २--सुरोंका डरना कहकर जनाया कि जब ये ही डर गये 
तब औरोंकी कथा क्‍या कहनी। 
सब सुर जिते एक दसकंधर | अब बहु भए तकहु गिरि कंदर॥७॥ 
रहे बिरंचि संभु मुनि ज्ञानी। जिन्ह जिन प्रभु महिमा कछु जानी॥८॥ 
शब्दार्थ-तकना-शरण वा आश्रय लेना, यथा--'देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा।” 
अर्थ-एक ही दशकंधरने तो सभी देवताओंको जीत लिया था और अब तो बहुत हो गये हैं, इससे 
अब तो पर्वत-कन्दराओंकी शरण लेना चाहिये॥ ७॥ ब्रह्मा, शिव और ज्ञानी मुनि जिन-जिनने प्रभुकी महिमा 
कुछ थोड़ी-बहुत भी जानी है, वे ही वहाँ रह गये॥८॥ 
नोट--१ “तकहु गिरि कंदर।' भाव कि जब एक ही रावण था तब भी कोई और उपाय बचनेका 
न था, यही एक उपाय था। यथा--'रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवर तके मेरु गिरि खोहा॥ दिगपालन्ह 
के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥ (१। १८२) इससे वही उपाय अब भी करनेको कहते हैं। 
नोट--२ “जिल्‍्ह-जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी।' (क) “प्रभु” पदसे जनाया कि वे सामर्थ जानते हैं। जैसा 
'जयन्त और खरादिके प्रसड़में देखा है। (ख) ब्रह्माजी, शिवजी, अगस्त्यादि महर्षि महिमा जानते हैं, पर ये भी कुछ 
ही जानते हैं, पूर्ण नहीं। यथा-- 'बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥' (१। ३२१। ६), 
“तुम्हरेड़ भजन प्रभाव अधारी। जानँ महिमा कछुक तुम्हारी ॥' (३। १३ । ५; श्रीअगस्त्यजी ), “महिमा नाम रूप गुत 
गाथा। सकल अमित अनंत रघुनाथा ॥#"'“'“'तुम्हहिं आदि खग मसक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता॥ तिमि 











+ भागे भालु बिकट भट कौसा। | चले बलीमुख-(का०)। | दस दिसि कोटिन्ह धावहिं रावन।-(का०)। 


मानस-पीयूष ४९६ # श्रीमते रामचन्द्राय नम: # दोहा ९५ (छंद ) 


रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा ॥' (९१) पुन;, 'जिन्ह जिन्‍्ह "का भाव कि सब नहीं जानते 
थे, कुछ ही जानते थे। (घ) महिमा, यथा- प्रभु सक त्रिभुवन मारि जिआईं।' (११३। ४) 
नोट--३ (क)-पहले कहा कि “डरे सकल सुर चले पराई' इससे समझा जाता कि ब्रह्मा, शिव आदि 
देवता भी भाग गये; क्योंकि ये सब साथ आये थे। यथा--'सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढ़े 
बिमाना॥ हमहुँ उम्रा रहे तेहि संगा। देखत रामचरित रनरंगा॥” (८०। १-२) इसलिये समुदायकों कहकर फिर 
इनको पृथक्‌ कर दिया। पुनः, (ख)-सिद्ध मुनि भी आये थे। “सुर चले पराईं” से जाना जाता कि मुनि नहीं 
भागे। अतः उसे यहाँ स्पष्ट किया कि वे भी भागे, केवल वे ज्ञानी मुनि रह गये जो महिमा जानते थे। पुनः, 
(ग) भागे लगभग सभी देवता, रहे कोई दो-चार ही, इससे प्रथम “सकल सुर““““” ” कहकर तब जो रह गये, 
उनको कहा। भागनेवाले इतने थे कि उनको गिना न सकते थे, जो रहे, वे इतने थोड़े थे कि उन्हें गिन सकते 
हैं। (घ) पुनः, “बिरंचि संभु' के साथ “मुनि ज्ञानी' का भाव कि ऐसे-ऐसे जो ज्ञानी थे, जैसे शिव और ब्रह्मा 
जिनके सत्सड्रको शिवादि भी जाया करते थे। 
छं०--जाना प्रताप ते रहे निर्भग कपिन्ह रिपु माने फुरे। 
चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे॥ 
हनुमंत अंगद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे। 
मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अंकुरे॥ 
अर्थ-जो प्रभुका प्रताप जानते थे, वे निडर (वहीं बने) रहे। वानरोंने शत्रु-(माया-रावण- 
रूपों-) को सच्चा ही मान लिया। समस्त वानर-भालु विचलित हो चल दिये "और भयसे विकल सभी 
पुकारते हैं कि 'हे कृपालु! रक्षा कौजिये।' अत्यन्त बली रणबाँकुरे हनुमानजी, अड्भदजी, नील और नल 
'कपटरूपी भूमिसे रु 'रके समान उपजे हुए करोड़ों-करोड़ों भट-रावणोंसे लड़ते और उनको मर्दन करते 
हैं। फिर भी और भी माया-रावण निकलते ही आते थे। 
नोट--१ प्रथम कह आये हैं कि “भागे भालु बिकट भट कीसा' इससे संदेह होता है कि सभी 
भागे। उसके निवारणार्थ कहते हैं कि सब नहीं भागे, हनुमानादि जो प्रभुका प्रताप जानते हैं, वे ही रणभूमिमें 
स्थिर रहे और सब भाग चले। इसीसे यहाँ फिर वानरोंकों कहा। 
नोट--२ “कपट भू भट अंकुरे” इति। मायाके रावणोंको अड्डकी उपमा देनेका भाव कि--(क) बीज 
भूमिमें पड़नेपर अड्डभर शीघ्र निकल आता है, वैसे ही रावणकी मायासे इतने रावण उत्पन्न होते देर न 
लगी। (ख) अँखुए बहुत कोमल होते हैं, बड़ी जल्दी और बिना परिश्रम वे उखाड़ फेंके जा सकते 
हैं, जराहीमें वे नष्ट हो सकते हैं; वैसे ही माया-रावण देखनेमात्रके थे, इनमें कुछ अधिक बल न था, 
इनके मर्दनमें कुछ परिश्रम उनको न हुआ। 
वि० त्रि०--एक रावण तो किसीका मारा मरता ही नहीं, सो हनुमान, अड्भद, नील, नल करोड़ों 
रावणोंका मर्दन कैसे करते थे? भाव यह कि वे सब सिनिमाके रावण थे, देखनेमात्रके लिये थे, वहाँ 
कुछ था नहीं, अतः, ये लोग अपने समझमें उनका मर्दन करते थे; पर वे मायासे उत्पन्न थे, अतः मर्दन 
करते-ही-करते दूसरेका अड्डर निकल पड़ता था। अर्थात्‌ वहींसे दूसरे रावण पैदा हो जाते थे। 
दो०--सुर बानर देखे बिकल हॉँस्‍्यो कोसलाधीस। 


सजि सारंग* एक सर हते सकल दससीस॥९५॥ 
अर्थ-वानर और देवताओंको विकल देख कोसलपति श्रीरामचन्द्रजी हँसे और शार्ड्धनुषपर एक बाण 
सजकर समस्त मायाके रावणोंको मारकर नष्ट कर डाला॥९५॥ 


* बिसिखासन--(का०)। 








दोहा ९६ ( १-२) # श्रीमद्रामचन्रचरणौ शरण प्रपद्धे * ४९७ लड्डाकाण्ड 





नोट- 'हँस्‍थो कोसलाथीस” इति।-पुनः यह विचारकर हँसे कि (क) ये देवतालोग मेरे दुःखको 
हरण करनेके लिये कपि हुए, किंतु इस समय ये दोनों तन-(देवतन और वानरतन-) से व्याकुल हैं; क्योंकि 
सब दुष्ट रावणके फन्‍्देमें पड़े हैं, मेरी सहायता क्या करेंगे? (मा० म०) (ख) देवता दिव्य और स्वाभाविक 
सर्वज्ञ होकर भी मायाको सत्य मानते हैं। (रा० प्र०) अथवा हँसकर अपनी योगमायाको राक्षसी मायाका 
विनाश करनेको भेजा। हास्य आपकी माया है ही। (प० प० प्र०) 

गौड़जी--देवता दो प्रकारके माने जाते हैं, ईश्वरकोटि और जीवकोटि। ईश्वरकोटिमें पञ्ददेव हैं, जिनको 
उपासना की जाती है। इन्होंने सर्वज्ञता और त्रिकालज्ञताकी शक्तियोंका स्वेच्छासे त्याग किया है। क्योंकि 
इनके त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ होनेसे सृष्टिकी स्वाभाविक गतिमें भयड्डर बाधा उत्पन्न होती है। शेष देवयोनिके 
सभी प्राणी मनुष्यादि योनियोंके सभी प्राणियोंसे साधारणतया अधिक ज्ञान रखनेबाले होते हैं। उन्होंने सर्वज्ञता 
और -त्रिकालज्ञताका त्याग नहीं किया है, वरन्‌ मायावश होकर वे अल्पज्ञ हैं। त्रिकालज्ञता और सर्वज्ञता 
अपेक्षाकृत अधिक मात्रामें ऋषियोंमें तपोबलसे, योगियोंमें योगबलसे और भक्तोंमें भगवत्कृपासे पायी जाती 
हैं। यह देवताओंकी अपेक्षा अधिक हो सकती हैं। परन्तु ईश्वरकोटिकी इच्छित सर्वज्ञता और त्रिकालज्ञतासे 
बढ़कर नहीं हो सकतीं। ईश्वरकोटिके देवता भी जब स्थूल शरीर धारण करते हैं, तब स्वेच्छासे उस शरीरके 
अनुकूल अल्पज्ञता भी धारण कर लेते हैं, वे बरबस अपने स्वरूपको भूल जाते हैं और मायाका बन्धन 
अपने चारों ओर जकड़ लेते हैं। परन्तु सूक्ष्म शरीरमें स्थूलकी अपेक्षा स्वभावसे ही उनको सभी शक्तियाँ 
बढ़ी होती हैं। अवतारोंमें साधारणतया इसी प्रकार मर्यादाकी रक्षा होती रहती है। प्रस्तुत प्रसज्में सुरोंका 
घबराना स्वाभाविक है क्योंकि वे स्वभावसे अल्पन्ञ हैं, सर्वज्ञ नहीं। 

चपं० विजयानन्द त्रिपाठी-'हते सकल दससीस' इति। माया बाणसे कट गयी, अर्थात्‌ सरकारने वह 
यन्त्र ही तोड़ दिया, जहाँसे रोशनी निकलकर रणाड्भणभरमें रावण-ही-रावण दिखलाती थी। सिनेमामें जो 
माया हमलोग देखते हैं, उससे बड़ी माया रावणकी थी। वह चाहा हुआ दृश्य दिनदहाड़े खुले मैदान 
बिना किसी पर्देके रणाड्भरणमें दिखला देता था। 

प्रभु छन महँ माया सब काटी। जिमि रबि उए जाहिं तम फाटी॥१॥ 
रावनु एक देखि सुर हरषे। फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे॥२॥ 

शब्दार्थ-फटना-किसी पदार्थका बीचसे कटकर छिल्न-भिन्न हो जाना। नष्ट होना। 

अर्थ-प्रभुने क्षणभरमें सब माया काट डाली जैसे सूर्योदयसे अन्धकार नष्ट हो जाता है॥ ६॥ अब 
रावण एक (रह गया यह) देखकर देवता प्रसन्न हुए और लौटकर प्रभुपर बहुत फूल बरसाये॥ २॥ 

नोट--१ “जिमि रबि उए जाहिं तम फाटी।' (क) भाव कि बहुत शीघ्र और बिना परिश्रम मायाका 
नाश बाणसे कर दिया। सूर्यको परिश्रम नहीं करना पड़ता, उनके उदयमात्रसे ब्रह्माण्डका अन्धकार दूर 
हो जाता है, यथा--'उदय तासु त्रिभुवत तम भागा।' (१। २५६) पुनः, सूर्य एक, वैसे ही बाण एक। 
(ख) यहाँ रामबाण रवि, बाणका चलना रवि-उदय, मायाके अमित रावण तमबरुथ और मायाका कटना 
तमका फटना है। यथा--“रामबान रबि उएँ जानकी। तम बरूथ कहाँ जातुधानकी॥' (५। १६। २) 

नोट-२ (क) “सुर हरबे फिरे” इति। जबतक रावण एक ही था, तबतक देवता रण देखते रहे। 
जब बहुत हुए तब भगे थे। अब फिर एक रह गया, तब फिरे। (ख) “सुमन बहु बरसे” सै कृतज्ञता, 
आनन्द और सेवा सूचित कौ। 

नोट--३ यहाँ देवताओंका हर्ष और लौटना पहले कहा तब वानरोंका; कारण कि देवता आकाशमें 
होनेसे सब देख सकते थे कि माया कट गयी। अतः इन्होंने मायाका नाश प्रथम देखा।. बानर पृथ्वीपर 
इधर-उधर भगे थे, इससे वे न देख सकते थे। रघुनाथजीके लौटानेपर इन्होंने देखा कि मायानिवृत्ति हुई, 
तब ये लौटे। ५ 


मानस-पीयूष ४९८ # श्रीमते रामचन्द्राय नम: # दोहा ९६( ३-६) 





भुज उठाड़ रघुपति कपि फेरे। फिरि एक एकन्ह तब टेरे॥३॥ 
प्रभु बल पाइ भालु कपि धाएं। तरल तमकि संजुग महि आए॥४॥ 
शब्दार्थ--तरल-चझ्लतापूर्वक, शीघ्रतासे। तमकि-तड़पकर, क्रोधकर। 
अर्थ-भुजा उठाकर श्रीरघुनाथजीने वानरोंको लौटाया। तब वे एक-दूसरेको पुकार-पुकारकर लौटे॥ ३॥ 
प्रभुका बल पाकर भालु और वानर दौड़े और शीघ्र कोध करके रणभूमिमें आये॥४॥ 
नोट--१ (क) “भुज उठाड़” इति। दूरसे लोगोंको बुलानेको आश्वासन करनेमें एवं अभय देनेमें, भुजा 
उठाकर संकेत करनेकी रीति है। पुनः, “भुजा उठाना' प्रतिज्ञा भी सूचित करता है, यथा--“भुजा उठाड़ 
कहडठँ पन रोपी। राम बिमुख ज्ञाता नहिं कोपी) 'चल न ब्रह्कुल सन बरिआई। सत्य कहडउँ दोउ भुजा 
उठाईं॥, “निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाड़ पन कीन्ह/' भाव कि कोई भय नहीं, हम सत्य कहते 
हैं, तुम लौट आओ, डरो -मत, हम तुम्हारी रक्षा करेंगे। (ख) भुजा उठाकर सबको पुकारनेसे गम्भीरतामें 
दोष आता है। इसीसे हाथ उठाकर पुकारना नहीं कहा। भुजा उठाना आदि संकेत सेनामें किये जाते क्र 
उसीसे सेनाको समझाया कि धैर्य धारण करो। (पं०) (ग) भुजा उठानेका भाव कि मैं अपने भुजबलसे 
रावणको माहूँगा। अथवा, अपनी भुजाका बल उनको दिया। इत्यादि। (मा० म०) 
नोट--२ प्रभुने पुकारा नहीं तो वे फिरे कैसे? इसका समाधान दूसरे चरणमें है--'फिरे एक एकन्ह 
तब टेरे।' अर्थात्‌ जो निकट थे, उन्होंने आँखों देखा कि माया निवृत्त हो गयी, प्रभुको भुजा उठाये लौटनेका 
संकेत भी करते देखा, तब उन्होंने पीछेवालोंको पुकारा और उन्होंने अपने पीछेवालोंको इत्यादि। इस तरह 
सबको सूचना पहुँच गयी। 
अस्तुति करत देवतन्हि देखे *। भएउँ एक मैं इन्ह के लेखे॥५॥ 
। सठहु सदा तुम्ह मोर मरायल। अस कहि कोपि गगन पर धायल॥ ६॥ 
| शब्दार्थ-मरायल-पिटा हुआ, लतमरुआ। धायल-धावा। ७" धायल' भोजपुरी बोली है। गुसाईंजीने 
इस 'बोलीका प्रयोग बहुत कम किया है। मानसमें केवल यहीं है और विनयमें 'हमहिं दिहल जड़ कुटिल 
करमचंद मंद मोल बिनु डोला रे” में है। 
अर्थ-देवताओंको प्रभुकी स्तुति करते देखकर रावण मनमें क्रोधित हुआ कि इनकी समझमें भी 
मैं एक हो गया। (भाव कि इनके लिये तो मैं अकेला ही बहुत हूँ. तब भी मुझे अकेले देख ये प्रसन्न 
हो रहे हैं। यह सोच वह उनसे बोला)॥ ५॥ ओरे मू्खों! तुम तो सदा ही मुझसे पिटते आये हो, ऐसा 
कहकर कोप करके वह आकाशकी ओर दौड़ा॥ ६॥ 
नोट--१ “अस्तुति करत देवतन्हि देखे।' (क)--इनसे जनाया कि फूल बरसानेके साथ देवताओंने स्तुति 
भी की थी। स्तुति, यथा--“जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार।” (८५), “जय जय प्रभु गुन 
ज्ञान बल धाम हरत महिभार।' (८५; पाठान्तर), “बरषि सुमन दुंदभी बजावहिं। श्रीरणुनाथ बिमल जसु गावहिं॥ 
जय अनंत जय जगदाथारा। तुम्ह प्रभु सब देवन्ह निस्‍्तारा॥ अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए॥' (७६। ३-४) 
(ख) यहाँ प्रथम स्तुति है जो रावणके सामने देवताओंने की। इसीसे उसे क्रोध हुआ। स्तुति सुनी 
तब देखा कि देवता स्तुति कर रहे हैं। इसीसे स्तुति करना प्रथम कहा। 
नोट--२ रणभूमिको छोड़ उनपर जा दौड़नेका भाव कि इन्हीं सबने हमारे मारनेका उपाय रचा, सब 
उपद्रवके कारण ये ही हैं। मैं तो मरूँगा ही, पर इनको इनके सहायकोंके सामने मारकर मैं अपना हौसला 
तो पूर्ण कर लूँ। पुनः, भाव कि वानरदलसे पहले ही संकोचको प्राप्त हुआ था तब माया रची थी, वह 
भी न चली और अब वानरकटक फिर आ पहुँचा, यह देख देवताओंको मारनेके मिष उनसे अलग हुआ। 





* करत प्रसंसा सुर तेहि देषे--(का०)। 


दोहा ९६ ( ७-८ ) छंद # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्चे # ४९९ लड्ढाकाण्ड 





हाहाकार करत सुर भागे | खलहु जाहु कहँ मोरे आगे॥७॥ 


देखि बिकल सुर अड्डभद धायो*। कूदि चरन गहि भूमि गिरायो॥८॥ 
अर्थ-देबता हाहाकार करते हुए भगे। (वह बोला) ओरे दुष्टो! तुम मेरे सम्मुखसे कहाँ जा सकोगे॥ ७॥ 
देवताओंको व्याकुल देख अड्भद दौड़े और उछलकर उसका पैर पकड़कर उसे पृथ्वीपर गिरा दिया॥ ८॥ 
नोट-१ इन्द्र देवराज है। उसे देवताओंकी रक्षा करनी चाहिये। अड्गभद इन्द्रका पौत्र है, अतः ये 
रक्षाके लिये दौड़े। दूसरे, अड्रदने रावणसे चलते समय जो कहा था कि 'हत्ँ न खेत खेलाड़ खेलाईं। 
तोहि अबहिं का करउँ बड़ाईं॥” उस प्रतिज्ञाकी पूर्तिका अवसर अबतक न मिला था, यह मिला इसपर 
वे न चूके, सबसे पहले स्वयं कूद गये। 
छंद--गहि भूमि पार्मो लात मारो बालिसुत प्रभु पहिं गयो। 
संभारि उठि दसकंठ घोर कठोर रब गर्जत भयो॥ 
करि दाप चाप चढ़ाइ दस संधानि सर बहु बरषई। 
किए. सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषई॥ 
अर्थ-रावणको पकड़कर पृथ्वीपर गिरकर लात मारकर अड्भदजी प्रभुके पास गये। रावण सँभलकर उठा 
और बड़े भयड्लूर-कठोर शब्दसे गर्जने लगा। क्रोध करके दसों धनुष चढ़ाकर उनपर बाण संधानकर बहुत बाण 
बरसाने लगा। सब योद्धाओंको घायल और डरसे व्याकुल कर दिया और अपना बल देखकर प्रसन्न हुआ। 
नोट-'प्रभु पहिं गयउ” यह अद्भदजीकी जय हुई। सुरकार्यरूपी सेवा हुई, यह आपकी कृपासे, यह 
भी जनाया। 'दसकंठ' शब्द देकर जनाया कि दसों कण्ठोंसे गर्जन किया। के 
दो०--तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप। 


काटे बहुत बढ़े पुनि जिमि तीरथ कर पाप॥९६॥ 

अर्थ-तब श्रीरघुनाथजीने रावणके सिर, बाहु, बाण और धनुष काट दिये। वें (सिर और बाहु) 
फिर बहुत बढ़े जैसे तीर्थमें किये हुए पाप बढ़ते हैं॥९६॥ 

नोट--१ “पुनि' का भाव कि पूर्व भी प्रभुके काटनेपर बढ़े थे, अब फिर बढ़े। 

नोट--२ अन्य स्थानोंमें किये हुए पाप तीर्थ-सेवनसे नष्ट हो जाते हैं, पर तीर्थमें आकर किये हुए 
पाप वज्लेपके समान अमिट हो जाते हैं। यथा-'अन्यक्षेत्रे कृतं पाप॑ तीर्थक्षेत्रे विनश्यति। तीर्थक्षेत्रे कृतं 
चाप॑ वच्नलेपो भविष्यति॥' पाप करनेवालोंकी तीर्थमें पाप करनेसे पापमें अधिक प्रवृत्ति बढ़ती है। इन पापोंका 
विनाश तीर्थसेवससे नहीं हो सकता। उनका फल अवश्य भोगना पड़ता है। 

गौड़जी-गोस्वामीजीने यत्र-तत्र दृष्टन्तोंमे नीतिकी बड़ी महत्त्वकी उक्तियाँ कही हैं। यहाँ भी रावणके 
सिर कटनेपर बहुतसे सिर बढ़नेकी समता तीर्थक पापसे करते हैं। तीर्थमें किया हुआ पाप बढ़ता ही 
जाता है। प्रायश्चित्तते वह मिट नहीं सकता। वाराहपुराणमें मथुरामाहात्म्यके प्रसड्में कहो भी है--“अन्यत्र 
हि कृतं पाप तीर्थमासाद्य गच्छति। तीर्थें तु यत्कृतं पाप॑ बज़लेपों भविष्यति॥' 

अपने पूर्वकृत पापोंके नाशके लिये ही तीर्थ जानकर मनुष्य तीर्थमें रहता है। परन्तु तीर्थमें रहते हुएः भी 
अनेक मूर्ख ऐसे हैं जो समझते हैं कि यहाँ तो जो चाहें करें, अन्तमें मुक्त होंगे ही। 'काश्यां मरणान्मुक्ति:', 
इत्यादि प्रमाणोंक आधारपर वह अपनेको यमयातनासे निडर मानकर मनमानी करते हैं। ऐसे लोग तीर्थको धोखा 
देते हैं, अपनी आत्माको छलते हैं और तीर्थकों पापका साधन बनाते हैं। इन धूर्तोंक लिये काशी आदि तीर्थोका 
वास मुक्ति देनेवाला नहीं है। ऐसे लोगोंक सिवा जो जीविकादि सांसारिक सम्बन्धोंसे तीर्थ आ बसते हैं, किसी 
तीर्थके विचारसे नहीं, वे वस्तुत: सुकर्मसे प्रेरित होकर आते हैं, 'कवनेहुँ जनम अवध बस जोई। रामपरायन 


* बिकल देखि सुर अंगदु धावा, गिरावा-(का०) 





मानस-पीयूष ५०० # श्रीमते रामचन्द्राय नमः # दोहा ९६ 


फुरि सो होई ॥” और तीर्थके प्रभावसे उनका सुधार हो जाता है। इनमें वे धूर्त भी आ जाते हैं, जिन्हें यह लाभ 
तो अवश्य होता है कि अपने वज्लेप पापोंका फुल भोगकर अन्तमें उनका सुधार हो जाता है* काशीमें मरनेसे 
मुक्ति तभी और इसीलिये होती है कि भगवान्‌ शंकर तत्त्व-ज्ञानका उपदेश और राममन्त्र देते हैं, परंतु यह सौभाग्य 
उन्हें ही मिलता है जिनके घोर अपकर्म इस प्राप्तिमें बाधक नहीं होते । तीर्थमं आकर जो बसे उसे अपने जीवनका 
सुधार अवश्य ही करना कर्तव्य है, क्योंकि तीर्थ करना पापोंका प्रायश्चित्त है और प्रायश्चित्तका यही तात्पर्य है 
कि--'अज्ञानाद्दि वा ज्ञानात्‌ कृत्वा कर्म विगर्हितम्‌। तस्माद्विमुक्तिमन्विच्छन्‌ द्वितीयं न समाचरेत्‌ ॥' फिर वही पाप- 
कर्म न करे। अतः अन्यत्र किया हुआ पाप जब तीर्थमें कटता है तब तीर्थमें किया पाप कहाँ कटेगा? तीर्थकी 
शक्तिके भरोसे पापमें प्रवृत्त प्राणी साथ ही तीर्थक अपराधका महापाप भी बढ़ाता जाता है। यही तीर्थापराध बढ़ना 
पापका बढ़ना है। इस प्रसज्भमें तीर्थक पापके बढ़नेका तात्पर्य यही है। शब्दकल्पद्रुममें पुराणोंके आधारपर २६४ 
तीर्थ गिनाये हैं और संक्षेपमें माहात्म्य भी दिये हैं। सभी पापनाशक और पुण्यवर्धक हैं। पुराणोंमें पापकी भयानकता 
और पुण्यकी रोचकता दिखानेकी पापसे निवृत्ति और पुण्यमें प्रवृत्ति उपजानेको अनेक कथाएँ दी हैं, जिनसे मूर्खोंको 
प्राय: उलटी सूझती है और वे तीर्थमें पाप करनेका लैसंस-सा समझने लगते हैं। गोस्वामीजीने इस छोटेसे वाक्यसे 
तीर्थसेवियों और तीर्थनिवासियोंको खरी चेतावनी दी है। मेरी रायमें “तीर्थ कर पाप” ही पाठ समीचीन है। 

नं० प०-जहाँसे शीश और भुजा काटे गये थे, वहींसे फिर उत्पन्न हो गये, जैसे तीर्थका किया 
हुआ पाप हजारगुणातक बढ़ता है। अर्थात्‌ तीर्थंक किये हुए पापको पुण्यकर्मसे नष्ट करने लगिये तो वह 
पुण्यकर्मसे नष्ट होता जायगा, पर वह फिर जितना पहले था उतना ही होता जायगा, हजारगुणा पुण्यकर्म 
करनेके बाद बिलकुल नष्ट हो जायगा। उसी तरह शिवजीको सिर चढ़ानेके बदलेमें रावणके सिर कटनेपर 
भी बढ़ते जाते हैं, जब बदला चुकता हो जायगा, तब न बढ़ेंगे। ४ 

तीर्थका किया हुआ पाप कहनेका भाव कि अन्यत्र किया हुआ पाप एक बार पुण्यकर्म करनेसे 
नष्ट हो जाता है, पर तीर्थका पाप बहुत बार पुण्यकर्म करनेपर ही नष्ट होता है। अत: श्रीरघुनाथजीका 
बाण पुण्यकर्मके समान है और रावणके शीश और भुजा तीर्थके किये हुए पापके समान हैं। (एक नं० 
प० का पाठ है “काटे भरए बहोरि तेड़”““”” और भा० दा० जीका पाठ है “काटे बहुत बढे पुनि।” पूर्वके 
दोहा ९१ में भी कटनेपर रावणके सिरोंका अपार होना कहा गया है और उसकी उपमा 'सेक्त बिषय 
बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार” यह दी गयी है। दोनोंका मिलान कीजिये।) 

'नोट--३ का० पं० और मा० म० का पाठ यह है--“तब रघुपति लंकेस के सीस भुजा सर चाप। काटे भए 
बहोरि जिमि कर्मगूढ़के पाप॥' इसका भाव मयंककी टीकामें यह लिखा है कि--'जो धर्मके स्थानपर पाप करता 
है और अपने शारीरिक सुखके लिये पापका सञ्जय करता है, उसको कर्ममूढ़ कहते हैं। वा, जो अघरूपी कर्मको 
करता है और उसी क्षण दुःखगें पड़ता है उसीको कर्ममृढ़ कहते हैं। पंजाबीजी अर्थ करते हैं कि जैसे 'मूढ़ लोगोंके 
कर्मोके पाप शीघ्र उत्पन्न होते हैं।' पं० श्रीरामवह्लभाशरणजी 'कर्ममूढ़' का भावार्थ यह कहते हैं कि जो कर्मके ज्ञानमें 
मूढ़ है, भजन, धर्म नहीं जानता। जो वेदादिकी फलश्रुतिसे मोहित हो सकाम कर्म करता है, यह नहीं जानता कि 
इनसे और भी गाढ़ बन्धनमें पड़ता है, वह “कर्ममूढ़' है ४: 


* इस तरह वज़लेपका भाव वह भी कहा जाता है कि बहुत कालमें जाकर मिट पाता है। जैसे रावणके सिर 
बढ़ते जाते थे। उनको काटकर समाप्त करनेमें भगवान्‌कों समय लगा; वैसे ही तीर्थको उसके वज्लेप पापोंके काटनेमें 
बहुत समय लगेगा, तब वे शुद्ध होकर मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे। 

+ प्रसिद्ध महात्मावर्य्य प॑० श्रीजानकीशरणजी श्रीअवधवासके सम्बन्धमें यह कहा करते थे कि यदि इस धाममें 
वास करनेकी नीयतसे यहाँ आबे और वास करनेके लिये, पेट भरनेके लिये कोई ऐसा कर्म करना पड़े जो उसके लिये 
निन्दित कहा गया है, पर जिससे दूसरेकी हानि न हो तो वह भी करके धामवास करनेवाला अन्य प्राणियोंसे अच्छा 
ही है; भक्तका भाव ही उसके लिये मुख्य है। 

# रा० प्र०-कार लिखते हैं कि 'कर्ममूढ़ वे हैं, जो वेदादि-रीति निषिद्धचर्यासे करनेवाले हैं, जिनकी निन्‍्दा वेदादिमें 
जो सम्भूतीको भजते हैं, वे अन्धतममें पड़ते हैं और कर्मकी नौका दृढ़ नहीं।' 











दोहा ९७ ( १-८) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्यो # ५०१ लक्लाकाण्ड 


सिर भुज बाढ़ि देखि रिपु केरी। भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी॥१॥ 
मरत न मूढ़ कटेह्वु भुज सीसा। धाएं कोपषि भालु भट कीसा॥२॥ 
अर्थ-शत्रुके सिर और भुजाओंकी बढ़ती देखकर रीछ और वानरोंको बहुत क्रोध हुआ॥ १॥ रे! 
यह मूर्ख सिर और भुजाओंके कटनेपर भी नहीं मरता। (ऐसा कहते हुए) भालु और बानर योद्धा कोप 
करके दौड़े॥ २॥ 
पु० रा० कु०--'बानरभालुको रिसर” होनेका तात्पर्य कि उनको युद्ध करनेका उत्साह हुआ। शत्रुकी 
प्रबलता देख भय न हुआ। 
बालितनय मारुति नल नीला। बानरराज दुबिद* बलसीला॥ ३॥ 
बिटप महीधर करहिं प्रहारा। सोड़ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा॥ ४॥ 
अर्थ-बालिपुत्र अज्भद, मारुतनन्दन हनुमानजी, नल, नील, बानरराज सुपग्रीब और द्विविद-ये सब 
महाबलवान्‌ वृक्ष और पर्वतोंका प्रहार करते हैं। रावणने उन्हीं पर्वतों और वृक्षोंको पकड़कर वानरोंको 
मारा॥ ३-४॥ 
नोट-यहाँ भी बालिपुत्रको ही प्रथम रखा-९६ (८) देखिये। प्रतिज्ञासमय भी “बालि” का सम्बन्ध 
कविने दिया है, यथा-“यह कहि चलेउ बालिनृप जायो।” विशेष दोहा ७४ (६), ८४ (४) में देखिये। 
एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी। भागि चलहिं एक लातन्ह मारी॥५॥ 
तब नल नील सिरन्हि चढ़ि गएऊ। नखन्हि लिलार बिदारत भएऊ॥६॥ 
अर्थ-कोई वानरवीर तो शत्रुके शरीरको नखोंसे फाड़कर भाग चलते हैं और कोई लातोंसे मारकर 
भाग जाते हैं॥ ५॥ तब नल और नील रावणके सिरोंपर चढ़ गये और नखोंसे उसके ललाटको चीरने- 
'फाड़ने लगे॥ ६॥ 
'पं०-ललाट फाड़ते हैं कि इसके फटनेसे वह शीघ्र मरेगा। 
पां०-नल-नीलने सुन रखा था कि रावणके ललाटमें रावणकी मृत्यु मनुष्य और वानरोंसे लिखी 
है। (ये देवताके अंशसे हैं। देवतासे सुना होगा कि रावणने नर-वानरकों छोड़ अन्य सबसे अजेयत्व और 
अमरत्व माँग लिया है। अद्जदसे रावणने स्वयं कहा है कि “जरत बिलोकेउँ जबहिं कपाला। बिधि के 
लिखे अंक निज धाला॥ नर के कर आपन बध बाँची।' (२९। १-२) इतनी बात तो सम्भवतः अद्भदसे 
भी सुनी हो) उसीके निश्चय करनेके लिये ये सिरपर चढ़े और माथेकी खाल नोचकर देखना चाहते हैं। 
मा० म०--' भालको विदीर्ण करके उसकी आयुका अड्डू देखते हैं। वा, देखते हैं कि कितने दिन जियेगा। 
वा, अशड्डू होकर उसके भालके शुभका अछ्ु देखते हैं। वा, उसके कुकर्मका अह्छू मिटाते हैं।' 
रा० प्र०--नल-नीलके विषयमें रावणने कहा था कि 'सिल्यि कर्म जानहिं नल नीला।” (२३। ५) अर्थात्‌ 
वे थवई हैं, वे युद्ध क्या जानें? उसीका उत्तर यहाँ ये दोनों दे रहे हैं, अपना बल-पराक्रम उसको दिखा रहे हैं। 
रुधिर देखि बिषाद उर भारी+। तिन्हहिं धरन कहूँ भुजा पसारी॥७॥ 
गहे न जाहिं करन्हि पर फिरहीं। जनु जुग मधुप कमलबन चरहीं॥८॥ 
अर्थ-खून देखकर उसके हृदयमें बहुत विषाद हुआ। तब उनको पकड़नेके लिये उसने हाथ फैलाये 
परन्तु वे हाथोंके ऊपर-ऊपर फिरते हैं, पकड़े नहीं मिलते। मानो दो भौंर कमलवनमें विचर रहे हैं॥ ८॥ 
नोट-१ “बिषाद उर भारी” लजज और इनका कुछ कर न पानेसे दुःख और क्रोध हुआ। पुनः 
'विषादका कारण यह भी है कि रावणको सम्भ्रान्त देख वानर हर्षनाद करने लगे थे, यथा--'नीललाघबसम्ध्रान्तं 








*दुबिद कपीर पनस (का०)  पाठान्तर--'रुधिर बिलोकि सकोप सुरारी।” 


मानस-पीयूष ५०२ # श्रीमते रामचन्द्राय नमः # दोहा ९७ (९-१२) 








दृष्ठा राषणमाहवे ॥"““”“““वानराणां च नादेन संरब्धो रावणस्तदा॥' (वाल्मी० ५९। ८१-८२) अर्थात्‌ नीलके 
लाघव-(फुर्ती-)को देखकर और फिर बानरोंके हर्षनादसे भी रावण घबड़ा गया। 

पं०-यहाँ रावणका महान्‌ बल दिखाया कि उसे युद्धमें यह भी न मालूम हुआ कि उसके सिरपर 
कोई चढ़कर मस्तक विदीर्ण कर रहा है, रुधिर देखा तब जाना। 

नोट--२ 'गहे न जाहिं““““” से नल-नीलका लाघब (फुर्तीलापन) दिखाया। इस लाघवको देख रावण 
भी विस्मित और सम्भ्रान्त हो गया। यथा--'पावकात्मजमालोक्य ध्वजाग्रे समवस्थितम्‌। जज्वाल रावण: क्रोधात्ततो 
नीलो ननाद च॥ ध्वजाग्रे धनुषश्चाग्रे किरीटाग्रे च त॑ हरिम्‌। रावणो5पि महातेजा: कपिलाघबबिस्मित:॥ 
सम्भ्रमाविष्टटदयो न किंचित्प्रत्यपद्यत॥' (वाल्मी० ५९ । ८०-८१, ८४) अर्थात्‌ अग्निपुत्र नीलको अपनी ध्वजाके 
अग्रभागपर स्थित देख रावण क्रोधसे जल उठा और नीलने भी बड़ा नाद किया। कभी ध्वजाके अग्रभागपर, 
कभी धनुषपर, कभी मुकुटोंके आगे उसको देखकर महातेजस्वी रावण उनके लाघवसे ऐसा विस्मित एवं 
सम्भ्रान् हो गया कि कुछ विचार न कर सका। 

कोपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरी। महि पटकत भजे भुजा मरोरी॥ ९॥ 
पुनि सकोप दस धनु कर लीन्हे। सरन्हि मारि घायल कपि कीन्हे॥१०॥ 
शब्दार्थ-मरोरना-ऐंठना, एक ओरसे घुमाकर दूसरी ओर फेरना। 

अर्थ-फिर उसने क्रोध करके कूदकर दोनोंको पकड़ लिया; पर ज्यों ही वह उन्हें पृथ्वीपर पटकनेको 
हुआ त्यों ही वे उसकी भुजाओंको मरोड़कर भागे॥ ९॥ फिर उसने कोप करके दस धनुष हाथोंमें लिये 
और वानरोंको बाणोंसे मारकर घायल कर डाला॥ १०॥ टू 

नोट--१ यह नल-नीलकी जय हुई। रावणने पटका तब भी उन्होंने उसकी भुजाओंको मरोड़ डाला। 

नोट--२ “दस थनु कर लीकें।' यह तीसरी बार बीसों भुजाओंसे रावणने बाणोंका प्रहार किया है। 

हनुमदादि मुरुछित करि बंदर। पाइ प्रदोष हरष दसकंधर॥११॥ 
मुरुछित देखि सकल कपि बीरा। जामबंत धाएडउ.. रनधीरा॥ १२॥ 
अर्थ--श्रीहनुमानुजी आदि सब वानरोंको मूच्छित करके सन्ध्याका समय प्राप्त होनेसे रावण हर्षित 
हुआ॥ ११॥ समस्त वीर-वानरोंको मूच्छित देखकर रणधीर जाम्बवन्तजी दौड़े॥ १२॥ 

नोट--१ एक “अंगदादि” और 'हनुमदादि” से उन्हींके समान अति बलवान्‌ योद्धा ही अभिप्रेत 
हैं-- ““““अंगदादि कपि साथ।” (५१) तथा 'हनुमदादि अंगद सब थाए।' (८४। ४) देखिये इनमें सुग्रीव, 
लक्ष्मण और जाम्बवन्त नहीं हैं, जब इनको कहना होता है, तब इनके नाम देते हैं-- 

१ 'मारुतसुत अंगद नल नीला। कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला॥ पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन। 
सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन॥ (७२। ८-९), “जामबंत कह खल रहु ठाढ़ा। सुनि कारि ताहि क्रोध 
अति बाढ़ा॥' (७३। ४) 

२ “सुन रघुपति अतिसय सुख माना। बोले अंगदादि कपि नाना॥; “लक्िमन संग जाहु सब भाई। करु 
बिधंस जग्य कर जाई॥) “““जामवंत सुग्रीव बिभीषन॥ सेन समेत रहेहु तीनिउ जन॥' (७४। ६, ७, १०) 

३ “अंगदादि कपि मुरुछित कारि समेत सुग्रीव॥' (६४) 

तथा यहाँ--'हनुमदादि मुरुछित करि बंदर।““““जामबंत धाएहु बलसीला॥' 

सुग्रीव, विभीषण और जाम्बवानू-ये तीनों राजा हैं और मन्त्री भी; इससे ये सब रघुनाथजीके प्राय: 
साथ ही रहते हैं। 

ए७-जहाँ *कपिदल', “कपिवीर', “सुभट', “वानर सकल', आदि पद आते हैं, वहाँ केवल सेनासे 
तात्पर्य रहता है, अज्भद-हनुमादादिसे नहीं, जबतक कि इनके नाम स्पष्ट न दिये गये हों। यथा- 

१ “सो कपि भालु न रन महँ देखा। कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा॥ “दस दस सर सब मारेसि परे 








दोहा ९७ ( १३-१५ ) छंद # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्ये # ५०३ लड्जाकाण्ड 





भूमि कपि बीर/””””” (४९), 'देखि पबक्‍नसुत कटक बिहाला। क्रोधवंत जनु धाएठ काला॥' (५०। १) 
२ 'देखि निबिड़ तम दसहु दिसि कपिदल भयउ खँभार। एकहि एक न देखई जहँ तहँ करहिं पुकार॥' 
(४५) “सकल मरम रघुनायक जाना। लिये बोलि अंगद हनुमाना॥ समाचार सब कहि समुझाए। सुनत कोपि 
कपिकुंजर थाए॥' (४६। १-२) 
३ “ब्याकुल किये भालु कपि परिष ब्रिसूलन्हि मारि।/ (४१) “““““कोउ कह कहे अंगद हनुमंता। 
कहाँ नल नील द्विबिद बलबंता॥' (४२। ३) 
४ “रनमत्त रावन सकल सुभट प्रचंड भुजबल दलमले। तब रघुबीर पचारे धाये कीस प्रचंड॥ (९४) 
५ “चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे। हनुमंत अंगद नील चल अति बल लरत 
तन बाँकुरे॥' (९५ छन्द) 
'नोट--२ (क) जो किंचितू हर्ष युद्धके प्रारम्भमें था-“राम बचन सुनि बिहँसा॥” (८९)--वह बीचमें 
न रह गया था। जब अन्तमें “किये सकल भट घायल भयाकुल” तब उसका हर्ष लिखा गया, यथा-“देखि 
निजबल हरषई॥” (९६ छन्द) प्रथम अपना बल देख हर्ष हुआ फिर प्रदोषकाल पाकर हर्ष हुआ कि अब 
तो स्वाभाविक ही और भी अधिक बल बढ़ेगा। विशेष “जातुधान प्रदाष बल पाई॥” (४५। ४) में देखिये। 
॥& पुन: (ख)--नल-नीलके कारण विषाद हुआ था, अब सबको मूच्छित करनेपर पुनः हर्ष हुआ। 
पुन;, (ग) सन्ध्यासमय हो जानेसे आजकी लड़ाई समाप्त हुई, रात विश्राम करनेको मिलेगी। यथा--'संध्या 
भर्डई फिरी द्वौँ बाहनी॥” (५४। ४), 'दिन के अंत फिरी द्वौँ अगी। समर भई सुभटन्ह श्रम घनी॥' (७१। १) 
इससे यह विचारकर हर्ष हुआ कि एक बार फिर अपना जोर और लगा लूँ। दोहा ४५ (४) भी देखिये। 
संग भालु भूधर तरू धारी।मारन लंगे पचारि पचारी॥१३॥ 
भएउ क्रुद्ध रावनु बलवाना। गहि पद महि पटकै भट नाना॥१४॥ 
देखि भालुपति निज दल घाता। कोपि माँझ उर मारेसि लाता॥१५॥ 
अर्थ--जाम्बवन्तके साथके भालू पर्वत और वृक्ष धारण किये हुए उसे ललकार-ललकार करके मारने 
लगे॥ १३॥ जिससे बलवान्‌ रावण क्रोधित हुआ और पैर पकड़कर अनेक योद्धाओंको पटकने लगा॥ १४॥ 
ऋक्षराजने अपनी सेनाकों घायल देखकर कोप करके उसकी छातीमें लात मारी॥ १५॥ 
नोट-यहाँ “घाता' पद दिया और आगे कहा है कि “मुरुछा बिगत भालु कपि सब आए प्रभु पास।' 
. (९७) इससे “घात' का यहाँ संहार या नाश अर्थ नहीं है, वरन्‌ 'घायल' और “अचेत' अर्थ है। 
यहाँ केवल रीछोंकी सेनाका युद्ध कहा। 
छं०--उर लात घात प्रचंड लागत बिकल रथ ते महि परा। 
गहे भालु बीसहु कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा॥ 
मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयो। 
निसि जानि स्यंदन घालि तेहि तब सूत जतनु करत भयो॥ 
अर्थ--छातीमें लातकी बड़ी गहरी चोट लगते ही वह व्याकुल होकर रथसे पृथ्वीपर गिर पड़ा। बीसों 
हाथोंमें रीछोंको पकड़े हुए वह ऐसा मालूम होता था मानो रात्रिमें भौरे कमलोंमें बस रहे हैं। रावणको 
मूच्छित देखकर फिर लात मारकर जाम्बवान्‌ प्रभुके पास गये। रात्रि जानकर सारथी उसे रथमें डालकर 
होशमें लानेका उपाय करने लगा। 
नोट--१ “मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मथुकरा इति। भ्रमर रात्रिमें कमलके भीतर बन्द हो जाते हैं, कमल 
रातमें सम्पुटित हो जाता है। यहाँ रावणके हाथ कमल हैं, मुट्ठीका बँधना कमलका संकुचित होना है, काले 
रीछ काले भ्रमर हैं, मुट्ठीके भीतर रीछ मानो सम्पुटित कमलके भीतर भौरे हैं। रात्रिका समय है ही। 


मानस-पीयूष ५०४ # अ्रीमते रामचन्द्राय नमः # दोहा ९७ 





नोट-२ “मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति' इति। मूच्छित होनेपर मारना यह युद्धनीतिके विरुद्ध 
है। जाम्बवन्तने यह अनीति क्‍यों कौ? यह शड्ढ्ा पंजाबीजीने करके उसका समाधान यों किया है कि 
“अपने कटकको अत्यन्त व्याकुल देख क्रोधावेशमें उन्होंने ऐसा किया। अथवा, विचारा कि थोड़ी मूर्च्छा 
है फिर उठकर न हमारे पीछे पड़े और रात्रि हो रही है, इसका बल भी बढ़ जायगा। अतएव उसको 
अधिक मूच्छित करनेके लिये लात मारी।' बाबा हरिहरप्रसादजी लिखते हैं कि मूच्छां होनेपर भी यह 
निश्चय करनेके लिये मारा कि सत्य ही मूच्छित है या माया कर रहा है। इसका समाधान यह भी 
हो सकता है कि वह व्याकुल होकर रथसे गिर पड़ा है; पर अभी होश है इसीसे रीछोंको मुट्ठीमें 
दबाये है, छोड़ता नहीं है, उनको छुड़ानेके लिये फिर लात मारी और वे छूट गये, यह बात दोहेसे 
ध्वनित होती है। 

मा० म० और बं० पा० कहते हैं कि रावण अनीति करता था अतः इनने भी अनीति की। अधर्मीके 
साथ अधर्म करना अधर्म नहीं है। 

पं० विजयानन्द त्रिपाठीजी लिखते हैं कि “शत्रुका सिर कट गया, लड़ाई समाप्त हो गयी। उसपर 
भी यदि वह जीता है, तब तो अब युद्धकी बात न रह गयी, अब तो उसे मारना है, चाहे जैसे वह 
मरे। तभी तो “बालितनय मारुति नल नीला। बानरराज दुबिद बलसीला॥ बिटप महीधर करहिं प्रहारा।' 
उस एकके मारनेके लिये इतने सुभट सिमिट गये। उसी भावसे प्रेरित होकर यहाँ जाम्बबन्तजी मूच्छित 
होनेपर भी लातसे मारते हैं, पर “बर प्रसाद सो मरै न मारा। 

मा० म०--सारथी लड्ढामें इस भयसे ले गया कि यहाँ यत्न हो नहीं सकता, और बानर आकर 
घेर न लें। अथवा, यदि यह मर गया तो वानर इसके मृतक शरीरको बहुत दुःख देंगे। 

नोट--३ वाल्मीकीयमें उठा ले जानेका कारण विस्तारपूर्वक सारथीने रावणसे कहा है। वही सब कारण यहाँ 
समझना चाहिये। सारथीको श्रीरामजीकी उदारताका पर्याप्त प्रमाण मेघनाद, कुम्भकर्णादिके संग्राममें मिल चुका है 
कि वे मूर्च्छितको अपने यहाँ नहीं ले जाते, यद्यपि मेघनाद, कुम्भकर्ण और रावण तीनोंने इसके विपरीत किया है। 
मेघनाद और रावणने लक्ष्मणजीको उठा ले जाना चाहा था, पर वे उठ ही न सके और कुम्भकर्ण तो सुग्रीवको 
मूच्छित देख उठाकर ले ही गया था। इधरसे तो मेघनाद और कुम्भकर्ण रावणके निकट ही पहुँचा दिये गये। 

एक वाल्मी० में जाम्बवानद्वारा मूर्च्छित किये जानेकी चर्चा नहीं है वहाँ, रामबाणोंसे अत्यन्त मूच्छित 
होनेपर सारथी ले गया है। 

दो०--मुरुछा बिगत* भालु कपि सब आए प्रभु पास। 
निसिचर सकल+॥ रावनहि घेरि रहे अति त्रास॥९७॥ 

अर्थ-मूर््छारहित होनेपर सब रीक और बन्दर प्रभुके पास आये। (उधर) सब निशाचर अत्यन्त 
त्रस्त होकर रावणको घेरे खड़े हैं॥ ९७॥ 

नोट--'बोरि रहे अति त्रास ' इति। “अति त्रास ' इससे कि सारथीने बहुत उपाय होशमें लानेके लिये किये; 
पर मूर्च्छा बहुत गहरी है, चेतनता नहीं आती है, कहीं यह मर न जाय। पंजाबीजीका मत है कि मूर्च्छा देख 
शोकातुर हैं, इससे पास बैठे उपाय करते हैं और “अति त्रास' यह है कि कहीं उसे अत्यन्त मूर्च्छित सुन उठा 
ले जानेके लिये श्रीरामचन्द्रजी वानरोंको न भेज दें, जैसे यज्ञ-विध्वंसके लिये भेजे थे। रा० प्र० कार कहते हैं 
कि “अति ब्रा” यह है कि वानर कहीं छापा न मारें। पर मेरी समझमें तो राक्षस छल-कपटका व्यवहार करते 
हैं, इससे उनको दूसरोंसे भी वैसा ही भय हो सकता है। नहीं तो राक्षस बराबर देखते आ रहे हैं कि वानरोंने 
कभी अबतक रात्रिमें चढ़ायी नहीं की और न कभी किसी निशिचर योद्धाके मरनेपर या मूर्च्छित होनेपर उसको 
वे उठा ले गये। बे वीर हैं, ऐसे कार्य करनेमें अपनी लघुता समझते हैं। 


* गै मुरुछा तब। | सकल चविसाचर-(का०)। 





दोहा ९८ (१-६) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्चे # ५०५ लड्ढडाकाण्ड 


तेही निसि सीता पहिं जाईं। त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई॥१॥ 
सिर भुज बाढ़ि सुनत रिपु केरी। सीता उर भट्ट ब्रास घनेरी॥२॥ 
अर्थ-उसी रात त्रिजटाजीने श्रीसीताजीके पास जाकर सब समाचार कह सुनाया॥१॥ शत्रुके सिरों 
और भुजाओंकी बढ़ती सुनकर श्रीसीताजीके मनमें बड़ी चिन्ता और डर हुआ॥२॥ 
नोट--“तेही निम्लि” अर्थात्‌ जिस रातमें मूर्च्छित रावणको सारथी लड्ढामें ले जाकर सावधान करनेका 
उपाय कर रहा था, उसी रातकों। 
पं०--'तेही ” से यह भी सिद्ध होता है कि जिस रातको हनुमानजी अशोकवनमें आये थे, उसी रातको 
उसका यहाँ आना हुआ था, बीचमें रातमें न आती थी, रातमें पहया अधिक रहता था। पर आज राजाकी 
मूर्छा सुन सब व्याकुल और असावधान हैं, इससे आज इस समय वृत्तान्त सुननेका अवसर मिला। 
मुख मलीन उपजी मन चिंता। त्रिजटा सन बोली तब सीता॥३॥ 
होइहि कहा कहसि किन माता। केहि बिधि मरिहि बिस्वदुखदाता॥ ४॥ 
अर्थ-श्रीसीताजीका मुख उदास हो गया, मनमें चिन्ता पैदा हो गयी। तब श्रीसीताजी त्रिजटासे बोलीं--॥ ३॥ 
है माता! क्‍यों नहीं बताती हो कि क्‍या होगा? संसारभरको दुःख देनेवाला रावण किस प्रकार मरेगा?॥ ४॥ 
नोट--१ अनिष्टकी प्राप्तिसि उदास हुईं और इष्टकी प्राप्ति न देख चिन्ता हुई कि न जाने कया होना 
है? कैसे शत्रु मरेगा? यही आगे वे स्वयं कहती हैं। मिलान कौजिये--'सोच हृदय बिधि का होनिहारा। 
सब सुख सुकृत सिरान हमारा॥ (२। ७०) 
नोट--२ “बिस्वदुखदाता' का भाव कि एक-दोको ही दुःख देनेसे सब पुण्य क्षीण हो जाते हैं और 
वंशभरका नाश हो जाता है, यथा--“बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हे।' और यह तो सुर, नर, मुनि, गौ, 
विप्रादि सबको ही दुःख देता रहा है, तब इसकी मृत्यु नहीं होती तो और किस प्रकार होगी? 
रघुपति सर सिर कटेहुु न मरई | बिधि बिपरीत चरित सब करई॥५॥ 
मोर अभाग जिआवत ओही। जेहि हां हरिपदकमल बिछोही॥६॥ 
अर्थ--श्रीरघुनाथजीके बाणोंसे सिर कटनेपर भी नहीं मरता। (जान पड़ता है कि) विधाता हमपर 
प्रतिकूल है, वही यह सब विपरीत (वा, विधि सब उलटें ही) चरित करता है॥ ५॥ मेरा दुर्भाग्य ही 
उसको जिला रहा है, जिसके कारण मैं हरिपदकमलसे बिछुड़ी हुई हूँ॥ ६॥ 
नोट--१ “रघुपति सर सिर कटेहु न मरई” का भाव कि रघुपतिके बाण अमोघ हैं, यथा-'जिमि 
अमोघ रघुपति के बाना।' (५। १। ८) पर वे भी निष्फल हो रहे हैं।-विशेष-“मरड्ट न रिपु श्रम भबेड 
बिसेषा।' (१०१। २) में देखिये। 
नोट--२ “केहि बिधि मरिहि बिस्वदुखदाता', जब इस प्रश्नपर भी त्रिजटाने उत्तर न दिया तब वे 
आश्चर्य और चिन्ता प्रकट करके स्वयं इस अनिष्टका समाधान करती हैं कि--'रघुनाथजीका बाण तो अमोघ 
है, उससे भी नहीं मरता। सिर कटनेपर तो सभी मरते हैं पर यह सिर कटनेपर और वह भी रघुपतिके 
बाणसे नहीं मरता, यह आश्चर्यकी बात है। यह अनहोनी बात फिर क्‍यों हो रही है? क्या कारण है?! 
तब स्वयं समाधान करती हैं कि विधाता प्रतिकूल हैं, इसीसे ऐसा हो रहा है, यथा--“बिथि बिपरीत 
भलाई नाहीं।' फिर सोचती हैं कि विधाताका क्या दोष, वह तो कर्मके फलका देनेवाला है, यथा--“कठिन 
करम गति जान बिथाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता॥' (२। २८२। ४) अतः यह हमारे ही कर्मोंका 
'फल देनेवाला है। हमारा दुर्भाग्य उदय हुआ है, इसीसे हमारा हरिपदकमलसे बिछोह हुआ और इसीसे 
रावर्ण मरने नहीं पाता। 
नोट--३ “जेहि हाँ का भाव कि यदि रावण मर जाय तो मेरा वियौग छूट जायगा, इसीसे 
मेरा दुर्भाग्य उसे मरने नहीं देता। 'हरिपदकमल' का भाव कि ये पदकमल दुःखके हरनेवाले हैं; उनसे 





मानस-पीयूष ५०६ # श्रीमते रामचन्द्राय नम: # दोहा ९८ (७-१३) 





अलग होनेसे दुःख कैसे दूर हो सकता है? बिछोह होनेसे अपनेको अभिमानी मानती हैं। 
जेहि कृत कपट कनकमृग झूठा। अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा॥७॥ 
जेहि बिधि मोहि दुख दुसह सहाएं। लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए॥८॥ 
अर्थ-जिसने मायाका मिथ्या कनक-मृग बनाया था, वही दैव (भाग्य) अब भी मुझपर रुष्ट है॥ ७॥ 
जिस विधाताने मुझे असह्य (न सहे जाने योग्य) दुःख सहाये और लक्ष्मणजीको कड़वे वचन कहलाये॥ ८॥ 
बं० पा०--१ “कनकमृग झूठा” क्योंकि वह मृग न था, वह तो राक्षस निकला। २-'दुख दुसह 
सहाए'-यह कि घरसे निकालकर वनवास दिया और फिर यहाँ भी आकर प्राणपतिका वियोग कराया। 
नोट--“कट्टु बचन।” ये वे ही वचन हैं जो मारीचके पुकारनेपर लक्ष्मणजीको भेजनेके लिये उन्होंने 
कहे थे। आ० २८ (५) उन्हीं वचनोंके कारण लक्ष्मणजी वहाँसे गये और मेरा अपहरण हुआ। इसका 
शोक अबतक उनके हृदयमें बना है। यथा-“कहत हित अपमान मैँ कियो होत हिय सोड़ सालु। रोष छमि 
सुधि करत कबहूँ ललित लकछ्िमन लालु॥” (गी० ५। ३) ४&'मायासीताके मुखसे मायावाले चरितका ही 
निकलना कैसा सुन्दर है! 
रघुपति बिरह सबिष सर भारी। तकि तकि मार बार बहु मारी॥ ९ ॥ 
ऐसेहु दुख जो राखु मम प्राना। सोइ बिधि ताहि जिआव न आना॥ १०॥ 
अर्थ--श्रीरघुनाथजीके विरहरूपी भारी विषैले (विषमें बुझाये हुए, विषयुक्त) बाणोंसे ताक-ताककर 
'कामदेवने मुझे बहुत बार (मार) मारी॥ ९॥ ऐसे भी दुःखमें जो विधाता हमारे प्राण रख रहा है (शरीरसे 
निकलने नहीं देता), वही उसको जिला रहा है और कोई नहीं॥१०॥ 
मा० म०-यहाँ “मार” शब्दका अर्थ कामना है। भाव यह कि रामचन्द्रजीके वियोगसे दर्शनकी कामना 
जो बार-बार होती है, वही विषैले बाण हैं। वह कामना मनको विहल कर मारती है। 
नोट--१ “तकि तकि मार बार बहु मारी।' “बार बहु” यह कि जब-जब रावणने सताया, जब-जब 
रणमें प्रभुको कष्ट सुना, इत्यादि। 
नोट--२ 'ऐसेहु दुख जो राखु“““““।' भाव कि ऐसे दुःखमें प्राण निकल जाने चाहिये। 
बहु बिधि कर बिलाप जानकी। करि करि सुरति कृपानिधान की॥ ११॥ 
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी। उर सर लागत* मर सुरारी॥१२॥ 


प्रभु4व॑ ताते उर हते न तेही। एहि के हृदय बसति बैदेही॥१३॥ 
अर्थ-दयासागर श्रीरघुनाथजीका बारम्बार स्मरण करके श्रीजानकौजी बहुत प्रकारका विलाप कर रही 
हैं॥ ११॥ त्रिजटा बोली-हे राजकुमारी! सुनिये। देवशत्रु रावण हृदयमें बाण लगते ही मरेगा॥ १२॥ परन्तु 
प्रभु उसके हृदयमें बाण इससे नहीं मारते कि इसके हृदयमें वैदेही बस रही हैं॥ १३॥ 

'प० प० प्र०--“बहु बिथि कर बिलाप जानकी” में १५ मात्राएँ हैं। “करति” लिखनेसे मात्राएँ पूर्ण 
हो जातीं पर ऐसा न करके “कर' पाठ रखनेमें भाव यह दरसाया है कि “श्रीजानकौजीका विलाप वर्णन 
करनेमें कविकी मति कुण्ठित हो जाती है। विलाप सुनकर त्रिजटादि भी व्याकुल हो गयीं।' उत्तरार्धमें 
मात्राएँ पूर्ण रखकर जनाया कि बराबर कृपानिधानका स्मरण करनेसे अधीरता न रह गयी। एक इससे यह 
भी जनाया कि भगवान्‌का स्मरण बारम्बार करनेसे विलापका कारण ही नष्ट हो जाता है। 

नोट--१ “करि करि सुरति कृपानिधान की।” (क) “सुराति” अर्थात्‌ मिलनि, बोलनि, हँसनि, प्रीति 
इत्यादि समझकर (बं० पा०)। यथा--'रामबिलोकनि बोलनि चलनी। सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी॥ 
(उ० १९। ४; अद्भदकी दशा) (ख) “क्ृपानिधान” का भाव कि वे सबपर कृपालु हैं, हमपर भी दया 








* लागे। + ताते प्रभु-(का०)। 


दोहा ९८ ( छंद ) # ्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्चे # ५०७ लड्ढाकाण्ड 





करें। (पं०) यथा-'आरज सुबन के तो दया दुवनहूँ पर मोहिं सोच मोततें सब बिधि नसानि। आपनी भलाई 
भलो कियो नाथ सब ही को, मेरे ही दिन सब बिसरी बानि॥' (गी० ५। ७) कृपाओंका स्मरण करती 
हैं जैसे कि जयन्त, शूर्पणखा आदिसे कृपा करके रक्षा की थी। इत्यादि। (ग) “राजकुमारी” का भाव 
कि राजा धीर होते हैं, तुम राजकुमारी हो, तुम अधीर क्‍यों होती हो, तुम भी धीरज धरो। 
नोट--२ श्रीसीताजीने दो प्रश्न किये--'होड़हि कहा” और 'केहि बिधि मरिहि।' त्रिजटाने संक्षेपसे दोनोंका 
उत्तर एक ही चरणमें देकर पहले सावधान किया। श्रीसीताजी बहुत दुःखी थीं, इससे प्रथम रावणका 
मरण कहा, जिसमें यह सुनकर कुछ धीरज हो जाय। साथ ही यह भी कह दिया कि हृदयमें बाण 
लगनेपर मरेगा-यह 'केहि बिथि” का उत्तर है और वह “होड़हि कहा” का। 
नोट--३ “प्रभु” का भाव कि वे समर्थ हैं जब चाहें तभी उसे मार सकते हैं, पर ऐसा नहीं करते, 
इसमें कुछ कारण है, वह यह है। 'उर सर लागत मरै! इसपर यह शझ्जा हुई कि तो फिर वहाँ शर 
कैसे और कब मारेंगे, इसके निवारणार्थ वह कहती है कि “प्रभु ताते”““““” इत्यादि। 
पंं० बि० त्रिपाठीजी--'प्रभु ताते उर““““बैदेही” इति। ध्यान देनेकी बात है कि वैदेही रावणपर अति 
ही रुष्ट हैं, उसकी मृत्यु चाह रही हैं, पल्‍्तु वह वैदेहीके ध्यानमें अति दृढ़ है। अतः मारना चाहते हुए 
भी सरकार उसके हृदयमें बाण नहीं मारते। इससे अधिक उपासनाका महत्त्व क्या दिखलाया जा सकता है। 
उपास्य इतना रुष्ट है कि उपासकका मरण चाहता है, पर उपासक उपास्यके ध्यानको हृदबसे पकड़े हुए 
है। अतः उपास्य लाचार है, कुछ कर नहीं सकता। ईश्वर भी उसको मारनेके लिये उसके ध्यान भज्ज करनेका 
उपाय करते हैं। ध्यान अक्षुण्ण रहनेपर उनकी भी एक नहीं चलती। भक्तिवश्य भगवानकी जय!!! 
छं०--एहि के हृदय बस जानकी जानकी उर मम बास है। 
मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है॥ 
सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटा कहा। 
अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुंदरि तजहि संसय महा॥ 
अर्थ--इसके हृदयमें जानकीजीका निवास है, जानकीजीके हृदयमें मेरा निवास है और मेरे उदरमें 
अनेकों भुवन हैं। (अतः रावणके हृदयमें) बाण लगते ही सब (भुवनोंका) नाश हो जायगा। ये बचन 
सुनकर श्रीसीताजीके मनमें अत्यन्त हर्ष और खेद हुआ, यह देखकर त्रिजया फिर बोली कि हे सुन्दरी! 
सुनिये और महासन्देह छोड़िये, शत्रु अब इस प्रकार मरेगा- 
नोट--१ रावणके हृदयमें जानकीजी, जानकीजीके हृदयमें रामजी और रामजीके हृदयमें अगणित लोक। 
इस तरह रावणके हृदयमें (सीताजीके होनेसे) वे समस्त लोक हुए, यह 'एकावली अलड्ढार' है। 
नोट--२ 'सुनि बचन हरष बिषाद मन अति।' 'जानकी उर मम बास है' यह सुन “अति हर्ष! हुआ। 
ऐसे ही हनुमानूजीसे “तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एक मन मोरा॥ सो मन रहत सदा तोहि 
याहीं। जातु प्रीतिर्॒स एतनेहि माही ॥' यह प्रभुका संदेश सुनते ही “मगन प्रेम तन सुथि नहिं तेही' यह 
दशा हो गयी थी। और, विषाद इससे कि जब बाण हृदयमें मारेंगे नहीं तब वह मरेगा कैसे? अति हर्ष 
और अति विषाद साथ-ही-साथ होनेसे यहाँ “तन सुथि” का विस्मरण नहीं हुआ। 
नोट--३ 'पुनि त्रिजटा कहा” से जनाया कि 'सब कर नास है' इतना कहकर वह चुप हो गयी 
थी। अब “अति बिषाद' देख फिर बोली। “संसब महा--संशय रावणवध न होनेका, क्योंकि 'अति विषाद” 
इसीसे हुआ था। ५ 
ए_इस भावका समानार्थक श्लोक यह है-- 
“यो रामो न जघान वक्षसि रणे त॑ रावणं सायकै: स श्रेयो विदधातु वस्त्रिभुवनव्यापारचिन्तापर:। हद्यस्य 
प्रतिवासरं वसति सा तस्थास्त्वहं राघवों मय्यास्ते भुवनावली विलसिता द्वीपै: सम॑ सप्तभि:॥' (हनु० १४। २६) 





मानस-पीयूष ५०८ # श्रीमते रामचन्द्राय नम: # दोहा ९८, ९९ (१-२) 





अर्थात्‌ जो रामचन्द्रजी उस रावणके हृदयमें बाण इससे नहीं मारते कि इसके हृदयमें प्रतिदिन वह जानकीजी 
निवास करती हैं और उनके हृदयमें मैं वास करता हूँ एवं मेरे हृदयमें सप्तद्वीपोंसहित ब्रह्माण्डसमूह विलास 
करते हैं-वे त्रैलोक्य व्यापारकी चिन्तामें तत्पर रघुनाथजी तुम्हारा कल्याण करें। 
दो०--काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तब ध्यान। 
तब रावनहिं हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान॥९८॥ 
अर्थ-सिरोंके काटनेसे वह व्याकुल हो जायगा, हृदयसे तुम्हारा ध्यान छूट जायगा, तब सुजान श्रीरामजी 
रावणके हृदयमें बाण मारेंगे॥९८॥ 
नोट-- सुजान! यथा--“जान सिरोमानि कोसलराऊ ' वे जानते हैं कि किस अवसरमें क्या करना चाहिये। 
शीघ्रता करनेसे कार्य बिगड़ जायगा। स्वार्थ भी उनके समान कोई नहीं जानता। पुनः, “सुजान' से जनाया 
कि उन्हें बतानेकी जरूरत नहीं है कि हृदयमें बाण मारें। वे स्वयं सर्वज्ञ हैं, केवल देख रहे हैं कि 
कब ध्यान छूटे। 
अस कहि बहुत भाँति समुझाई । पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई॥१॥ 
राम सुभाउ सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह बिथा अति तेही॥२॥ 
अर्थ-ऐसा कहकर बहुत तरह समझाकर फिर त्रिजटा अपने घर चली गयी॥ १॥ श्रीरामचन्द्रजीका 
स्वभाव याद कर वैदेहीजीको विरहकी अत्यन्त पीड़ा उत्पन्न हुई॥ २॥ 
शीला-त्रिजटाके प्रथम बचनसे यह तो निश्चय हो गया कि रावणका मरण इससे नहीं होता कि 
उसका ध्यान नहीं छूटता। और ध्यान छूटनेका फिर उससे उपाय भी निश्चय हुआ। पर यह समझकर 
दुःख हो रहा है कि श्रीरामजीको तो बाण चलाने और सिर काटनेभरका ही अख्तियार है, ध्यान छूटे 
वा न छूटे, या न जाने कबतक न छूटे। इस सन्देहके निवारणार्थ “बहुत भाँति” समझाया। 
नोट--१ “बहुत भाँति '-यह कि-(१) रघुनाथजी परब्रह्म परमात्मा हैं; वे क्षणभरमें उसे मार डालें, पर 
वे ब्रह्मा और शिवजीके वचनोंको सत्य करनेके लिये नर-नाट्य कर रहे हैं, जिससे वह यही जाने कि ये ईश्वर 
नहीं हैं, मनुष्य ही हैं। (२) रावणका मृत्यु-समय अभी नहीं आया है, उस समयतक टाल रहे हैं और साथ- 
साथ निज-जनकी परीक्षा ले रहे हैं कि देखें किस-किसका हमपर पूर्ण विश्वास है कि ये अवश्य रावणवध 
करेंगे। (३) शिवजीको सिर चढ़ाये हैं, उसका फल वरदानानुसार उसे भुगता रहे हैं और शिवजीकी उदारता 
सबको दिखा रहे हैं। (४) १४ वर्षका वनवास है। उसे प्रभु समरमें बिता रहे हैं, जब दिन पूरे होंगे तब तुरन्त 
उसे मारकर विभीषणको राज्य देकर, तुमको साथ लेकर भरतविरहसे व्याकुल वे पुष्पकपर सवार हो अवध पहुँचेंगे। 
(५) प्रभुके चरित विधि-हरि-हरकों भी अगम हैं। मैं जो कुछ कह रही हूँ, वह तुम्हारी कृपासे। (६) श्रीरामजी 
*प्रणत कुद्ठम्बपाल हैं, अतएवं विभीषणके भाईको तब मारेंगे जब विभीषणसे कहला लेंगे। जब नर-नाट्यसे प्रभु 
अपनेसे श्रम दिखावेंगे तब विभीषण कहेंगे और फिर प्रभु उसे तुरन्त मारेंगे। इत्यादि। 
इस प्रकार रावण-वध प्रभुके ही अधीन जब दिखाया तब उन्हें सनन्‍्तोष हुआ और पूर्व जो बचन 
कहे थे उनसे मृत्यु रावणाधीन समझ पड़ती थी, इससे विषाद बना रहा था। 
मा० म०--बहुत भाँति समझाया कि थोड़े धैर्यसे बड़ा काम निकलता है। इसलिये तुम धीरज धरो, 
जिस हेतु रघुनाथजी वनमें आये हैं, उसे वे अवश्य पूरा करेंगें। अब कल ही वह मारा जायगा। 
नोट--२ “राम सुभाव', “अति कोमल रघुबीर सुभाऊ।' (५। ५७। ५) 
(२) 'सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥ जाँ नर होड़ चराचर द्रोही। आवै 
सभव सरन तकि मोही॥ तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥' (५। ४८) इत्यादि। 
(३) 'मैं जाचँ निज नाथ सुभाऊ। अपराथिहु पर कोह न काऊ॥ मो पर कृपा सनेह बिसेषी। खेलत 
खुनिस न कबहूँ देखी॥' (२। २६०। ५-६) 


दोहा ९९( ३-६) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्े # ५०९ लक्भाकाण्ड 





(४) “देउ देवतरु सारिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ॥' (अ० २६७। ८) 
(५) 'सुनरु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहि न काऊ॥ जो अपराध भगत कर करई। ग़म 
रोष पावक' सो जरई॥' (अ० २१८। ५-६) 
(६) “अस सुभाड कहाँ सुन्ँ न देखडँ। केहि खगेस रघुपति सम लेखँ॥” (उ० १२४। ४) 
मा० म०-स्वभाव यह कि मेरे बिना वे मुझसे भी अधिक दुःखी होंगे। यथा-“तब दुख दुखी 
सुकृपानिकेता।' (५। १४। ९), “जन के दुख रघुनाथ दुखी अति सहज प्रकृति करुनानिधानकी। तव बियोग 
संभव दारुन दुख”“““।” (गी० ५। ११)[ये दोनों वचन हनुमानूजीके हैं, जो उन्होंने श्रीजानकीजीसे कहे 
हैं]; इसीसे अधिक व्यथा हुई और उत्कण्ठा लगी है कि कब उनसे फिर मिलकर उनको सुखी कहूँगी। 
पं०--प्रभुका कृपालु स्वभाव समझकर डरती हैं कि रावणपर कहीं दया न करें। वा, प्रभुका अपने 
ऊपर प्रेम है, यह स्वभाव स्मरण करती हैं। 
'निसिहि ससिहि निंदति बहु भाँती। जुग सम भई सिराति* न राती॥३॥ 
करति बिलाप मनहिं मन भारी। राम बिरह जानकी दुखारी॥४॥ 
अर्थ-श्रीसीताजी रात्रि और चन्द्रमाकी बहुत तरहसे निन्दा कर रही हैं कि यह रात युगके समान 
बड़ी हो गयी, व्यतीत ही नहीं होती है॥३॥ श्रीजानकीजी रामविरहसे दुःखी होकर मन-हो-मन भारी 
बिलाप करती हैं॥४॥ 
नोट-१ “निसिहि ससिहि निंदति बहु भाँती” इति। निशि और चन्द्रमा दोनोंकी निन्‍्दा करती हैं। रात्रिकी 
निन्‍दा कि काटे नहीं कटती। चन्द्रमाको देखकर विरहिनियोंको अधिक दुःख होता है, यथा--'घटै बढ़े बिरहिनि 
दुखदाई।' (१। २३८। १), “बिष संजुत कर निकर पसारी। जारत बिरहवंत नर नारी॥' (१२। १०) “बहु 
भ्राँती', यथा-“कोक सोक प्रद पंकज ड्रोही। अवगुन बहुत चद्रमा तोही॥' (१। २३८। २) 
नोट--२ 'करति बिलाप मनहि मन भारी।” इति। मनमें बिलाप करती हैं; क्योंकि कोई ऐसा अधिकारी 
है नहीं जिससे दुखड़ा रोबें, जो दुःख कम हो जाय। यथा-“कहेहू ते कछु दुख बटि होईं। काहि कहाँ 
यह जान न कोई॥' (५। १५। ५) त्रिजटा एक अधिकारिणी थी, सो भी चली गयी-(प०)। 
जब अति भएउ बिरह उर दाहू। फरकेउ बाम नयन अरु बाहू॥५॥ 
सगुन बिचारि धरी मन धीरा। अब मिलिह॒हिं कृपाल रघुबीरा॥६॥ 
अर्थ-जब अत्यन्त विरहसे हृदयमें अत्यन्त जलन हुई तब उनके बायें नेत्र और बाहु फड़क उठे॥५॥ 
शुभ शकुन विचारकर मनमें धैर्य धारण किया कि दयालु रघुवीर अब अवश्य मिलेंगे॥६॥ 
रा० प्र०-१ “अति” से पराकाष्ठाका विरह जनाया, इससे बढ़कर हो नहीं सकता; अतएवं अब इसका 
नाश होकर सुख होगा। २-पूर्व श्रीजानकीजीने रावणकी ओर नेत्र न किये थे वरन्‌ तृणका ओट कर 
लिया था, अतः नयन फड़के और जो यह प्रतिज्ञा की थी कि 'सो भुज कंठ कि तब असि घोरा।"""7” 
सो उसी कारण बाहु भी फड़के। 
नोट-बाम अड्ग फड़कना शकुन है, यथा-'प्रभु पयान जाना बैदेही। फरकि बाम अँग जनु कहि 
देही॥' (५। ३५। ६) यह शकुन प्रियका शीघ्र मिलाप जनाता है। यथा--“रामसीय तन सगुन जनाये। 
फरकहिं मंगल अंग सुहाये॥ पुलकि सप्रेम परस्पर कहहाँ। भरत आगमन सूचक अहहीं॥“““7“भबे बहुत 
दिन अति अबसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी॥' (२। ७। ४-६), इति “सगुत्र बिचारि” धैर्य धारण 
किया कि प्रभु अब अवश्य मिलेंगे। 
बं० पा०--'अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा।' कृपालु हैं एवं वीर हैं, यह जानकर विश्वास हुआ कि 
अब रावणको शीघ्र मारकर मिलेंगे। अतः कृपालु और रघुबीर कहा। 


+ बिहाति-(का०, ना० प्र०), “न राति सिराती'-(गौड़जी)। 





मानस-पीयूष ५१० # श्रीमते रामचन्द्राय नम: % दोहा ९९ (७-९) 





: इहाँ अर्द्ध नेसि राबनु जागा। निज सारथि सन खीझन लागा॥७॥ 

अर्थ-इधर रावण आधी रातको जागा (होशमें आया) और अपने सारथीपर रुष्ट होने लगा॥ ७॥ 

भोट--१ (क) “इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा।' (११। १) देखिये। (ख) “अर्द्ध निसि”” इति। 
अर्द्धनेशिमें जागना कहकर जनाया कि रावणको जाम्बवन्तकी लातसे गहरी चोट पहुँची थी। इसीसे सन्ध्यासे 
लेकर आधी राततक मूर्छा बनी रही। 

नोट--२ 'खीझन लागा।' भाव कि वह क्रोधयुक्त लाल नेत्र करके बोला, यथा--'क्रोधसंरक्तनयनो 
रावण: सूतमब्रवीत्‌।' (वाल्मी० १०४। १) पुन, लागा” पदसे सूचित किया कि देरतक क्रोधयुक्त वचन 
कहे। वाल्मी० १०४ में ८ श्लोकोंमें इसका खीझना वर्णन किया गया है। पुनः, खीझनेका कारण कि 
मेघनाद-कुम्भकर्णादि रणसे विमुख होकर न फिरे थे और मैं रणविमुख हुआ, जिनके आगे मैंने अभिमानके 
वचन कहे थे, उनको मुँह कैसे दिखाऊँगा। 

सठ रनभूमि छड़ाइसि मोही। धिग धिग अधम मंदमति तोही॥८॥ 
तेहि पद गहि बहु बिधि समुझावा। भोरु भए रथ चढ़ि पुनि धावा॥९॥ 

अर्थ --ओरे शठ! तूने मुझे रणभूमिसे अलग कर दिया। अरे अधर्मी और नीच! तुझे धिक्कार है। 
आरे मन्दबुद्धि! तुझे धिक्कार है॥ ८॥ सारथीने पैर पकड़कर बहुत प्रकारसे समझाया*। सबेरा होनेपर उसने 
पुनः र॒थ्मर चढ़कर धावा किया॥ ९॥ 

नोट--१ 'स॒ठ रनभूमि छड़ाइसि मोही' इति। भाव कि--(१) रणभूमिमें पीठ देने, वहाँसे भाग जानेसे 
वीरकी अपकीर्ति होती है, जो मरणसे भी अधिक दुःखद है। तूने इस कार्यसे लोकमें चिरकालसे प्राप्त मेरे 
यश, वीर-विक्रमको नष्ट कर दिया और शत्रुके सामने मुझे कायर निश्चित किया। यथा--'त्वयाद्य हि ममानार्य 
चिरकालमुपार्जितम्‌। यशोवीर्य॑ च तेजश्च प्रत्ययश्च विनाशित: ॥ शत्रो: प्रख्यातवीर्यस्य रक्जनीयस्य विक्रमै:। पश्यतो 
युद्धलुब्धो5ह॑ कृतः कापुरुषस्त्वया॥' अर्थात्‌ हे अनार्य! बहुत दिनोंसे इकट्ठा किया हुआ हमारा यश, वीर्य, तेज 
तथा विश्वास सब तूने नाश कर दिया। क्योंकि विक्रमसे प्रसन्न करने योग्य अति विख्यातं वीर, शत्रुके सामनेसे 
युद्धकी सदा अभिलाषा किये हुए हमको तूने बाहर लाकर कायर बना दिया। (वाल्मी० १०४। ५-६) वीरका 
पीठ न देकर रणमें सम्मुख मरना ही उसकी शोभा है। यथा--“बिरिद बाँधि बर बीरु कहाईं। चलेउ समर 
जनु सुभट पराई॥' (अ० १४३। ८), संभावित कहाँ अपजस लाहू। मरन कोटि सम दारुन बाहू॥' 

(२) इन शब्दोंसे रावणका सच्चा वीर होना दिखाया है। वीरके अयोग्य काम किबा, अतः 
“*शठ, अधम और मंदमति' कहा। अधर्मी, क्योंकि वीरधर्मके विरुद्ध कार्य किया। मन्दमति, क्योंकि 
यह न समझा कि सम्मुख मरनेसे वीरकी शोभा और सद्गतिकौ प्राप्ति होती है और रणविमुख होनेसे 
अपकीर्ति जो जीते-जी मरण-तुल्य है । यथा--'अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेउव्ययाम्‌ | संभावितस्य 
चाकीर्तिम॑रणादतिरिच्यते॥ भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः। येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि 
लाघबम्‌॥' (गीता २। ३४-३५) इत्यादि। 








* भा० १०। ७६। २८, ३२-३३ में ऐसा ही प्रद्युम्ननीने अपने सारथीसे कहा-'लब्धसंज्ञो मुहूर्तेन कार्षण: 
सारथिमब्रवीत्‌। अहो असाध्विदं सूत यद्‌ रणान्मे3पसर्पणम्‌ ॥ धर्म विजानता5 5युष्मन्‌ कृतमेतन्मया विभो। सूत: कृच्छुगत॑ 
रक्षेद्‌ रथिन॑ सारथिं रथी॥ एतद्‌ विदित्वा तु भवान्‌ मायापोवाहितो रणात्‌। उपसृष्ट: परेणेति मूर्च्छितो गदया हत:॥ अर्थात्‌ 
मुहूर्तभरमें सचेत हो प्रद्युम्नजोने अपने रथकों रणभूमिमें न देख सारथीसे कहा-अरे सारथी! तू मुझे रणभूमिसे 
हटाकर यहाँ ले आया, यह अच्छा -न किया। मैं मूच्छित अवस्थामें तेरे द्वारा यहाँ लाया गया, धिक्कार है।'” 
सारधीने कहा कि हे आयुष्मन्‌ विभो! सारथीका धर्म है कि वह विपत्तिमें रथीकी रक्षा करे, इसी धर्मानुसार मैंने 
ऐसा किया। शत्रु (शाल्व) के गदा प्रहारसे पीड़ित होकर आप अचेत हो गये थे, इसीसे युद्धभूमिसे मैं आपको 
हटा लाया। 


दोहा ९९ ( १०-११) # श्रीमद्रामचन्रचरणौ शरण प्रपद्ये + ५११ लड्जाकाण्ड 





(३) तूने हमें वीर्य, सामर्थ्य और पौरुषरहित, कायर, क्षुद्र, सत्त्व एवं तेजहीन, राक्षसी मायासे हीन, 
अस्त्र-शस्त्रसे अनभिज्ञ पुरुषके समान समझा, इसीसे हमारा रथ रणभूमिसे हटा लाया। यथा--'हीनबीर्यमिवाशक्त 
पौरुषेण विवर्जितम्‌। भीरुं लघुमिवासत्त्व॑ विहीनमिव तेजसा॥ विमुक्तमिव मायाभिरस्त्रैरिव बहिष्कृतम्‌””””'त्वया 
शत्रोः समक्ष मे रथोड्यमपवाहित:॥' (वाल्मी० १०४। २-४) 

नोट--२ 'थिग-थिग अधम मंदमति तोही” में 'थिग-धिग” और “अथ्वम” पदसे भाव जना दिया है 
कि जान पड़ता है कि तूने शत्रुसे कुछ पुरस्कार (रिश्वत) पाया है, इसीसे मेरे वचन सुनकर अब भी 
तू मुझे शत्रुके सम्मुख नहीं ले चलता। यथा--यत्‌ त्व॑ कथमिदं मोहान्न चेद्ठहसि दुर्मते। सत्यो5यं प्रतितकों 
मे परेण त्वमुपस्कृत:॥' (वाल्मी० ६। १०४। ७) 

नोट--३ “पद गहि बहु बिधि समुझावा।' (क) चरण पकड़ना दीनतापूर्वक विनय करनेकी एक मुद्रा 
है; यथा--“गहि पद बिनय कीस्हि बैठारी'-(दशरथजी; अ० ३४)। (ख)--वाल्मी० रा० और अन्य ग्रन्थोंमें 
जिस-जिस विधिसे समझाया है, वह सब “बहु बिथि' पदसे जनाया। भेदके कारण एवं ग्रन्थविस्तारके भयसे 
उसे न लिखा। वाल्मी० १०४ में सास्थीने नीतियुक्त ये वचन कहे-न तो मैं डरा हुआ हूँ, न मूढ़ हूँ, न 
शत्रुसे कुछ घूस पायी है, न मतवाला हूँ, न आपकी सत्क्रियाओंको भूला हूँ; वरन्‌ आपके यशकी रक्षाके 
लिये प्रेमसे यह हित किया है। रथ लौटानेका कारण सुनिये--'हमने यह जानकर कि बड़ा भारी रणकर्म 
'करनेके कारण आपको बड़ा श्रम हुआ है, इससे यह समय वीर्य दिखानेका नहीं है। दूसरे, घोड़े भी श्रमित 
हो गये थे। तीसरे, जो-जो कारण दिखायी देते हैं, उन सबसे सर्वथा अमड्गल ही दिंखायी देता है। चौथे, 
सारथीका कर्तव्य है कि रथीका देश, काल, लक्षण वा चेष्टा, दीनता, हर्ष, खेंदादि सबपर ध्यान रखे; तथा 
पृथ्वीकी समता-विषमता युद्धेके समय और शत्रुके छिद्रको भी देखता रहे। शत्रुकं समीप कब रथ ले जाना 
चाहिये, कब दूर रखना चाहिये, कबतक शत्रुके सामने रखना चाहिये और कबतक शत्रुके पीछे खड़े रहना 
चाहिये-ये सब बातें सारथीको जानना चाहिये। इन सबका विचारकर आपके स्नेहके कारण मैंने रथ हटाया 
कि आप सुसस्‍्ता लें और घोड़े भी। अब आप जो आज्ञा दें, वह मैं करके आपके ऋणसे उद्धार हो जाऊँ। 
सारथीके वचन सुन रावण प्रसन्न हुआ-(वाल्मी० १०४॥ ११--२४)।' 

वि० त्रि०--अपराध क्षमापनके लिये सारथीने रावणके पैर पकड़ लिये। शान्त होनेपर अनेक 
प्रकारसे समझाया; यथा--'मूर्छित प्रभुहिं बिलोकि सो अन्यायी रिक्षेश। कौन्हेसि कठिन प्रहार पुनि करन हेतु 
निःशेष॥ ये अनीति रत भालु कपि चपल बिगत मर्याद। समर थर्म लंघन करत डनहि न हर्ष बिषाद॥ 
याते प्रभुहि चढ़ाड़ रथ लै आयों मैं लंक। करहहिं उचित उपचार सब जामें होड़ निशंक ॥ रक्षा मूर्छित वीरकी 
मुख्य सारथी धर्म। लैं आयों प्रभु को इहाँ जानि बूजि सब मर्म॥' 

नोट--४ “भोरु भए रथ चढ़ि पुनि आवा।' 'पुनि आवा” से जनाया कि--(क) उसने स्वयं सारथीसे 
कहा कि चल हमें वहाँ शीघ्र पहुँचा दे, जिसमें मेश भागना न समझा जाय, वानर न आने पायें, मैं 
वहाँ प्रथम पहुँच जाऊँ। वाल्मी० रा० में कई बार सारथीसे रावणकी यह आज्ञा पायी जाती है, अतः 
“बढ़ि आबा' से वही भाव कविने जना दिया है। यथा--रथं शीघ्रमिम॑ सूत राघवाभिमुखं नय। “““““ततो द्रुतं 
रावणवाक्यचोदित: प्रचोदयामास हयान्‌ स सारथि:। सराक्षसेन्द्रस्य ततो महारथः क्षणेन रामस्य रणाग्रतो3भवत्‌॥' 
(वाल्मी० १०४। २५--२७) (ख) वह सच्चा वीर है, रणका उत्साह उसे है; इसीसे पुनः आया।- 

:युद्धलुब्धोउब्रवीदिदम्‌' (वाल्मी० १०४। २४) अर्थात्‌ युद्धलोभी रावण बोला। 
सुनि आगवनु* दसानन केरा। कपिदल खरभर भएउ घनेरा॥१०॥ 
जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी। धाए कटकटाइ भट भारी॥११॥ 
अर्थ-रावणका आगमन सुनकर कपिदलमें बड़ी खलबली मची॥ १०॥ भारी योद्धा क्रोधसे (दाँत) 








* आगमन-(का०)। 


मानस-पीयूष ७५१२ # श्रीमते रामचन्द्राय नम: # दोहा ९९ (छंद) 


कटकटाकर पर्वत और वृक्ष उखाड़कर जहाँ-तहाँसे दौड़े॥११॥ 
नोट-- खरभर भएउ घतनेरा'। (क) यहाँ जो: खलबली हुई वह भयके कारण नहीं हुई, किंतु यह रणोत्साहसे 
रण्में पहुँचनेकी उत्सुकताकी खलबली है। सभी आगे पहुँचना चाहते हैं। वा, (ख) सेनामें भयसे खलबली 
हुई तब भारी-भारी भट दौड़े। इसीसे पहले “कपिदल' कहा और फिर “धाए भट भारी” कहा। 
नोट--२ (क) 'धाए कटकटाइ़” से इनका उत्साह दिखाया। वीर भारी वीरको पाकर उत्साहित होते 
हैं। कटकटाना वानर-क्रोधका लक्षण है। यथा-“कटकटठाड़ गरजा अरु थावा।' (सुं० १९) देखिये। 
छंद--धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा। 
अति कोपि करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा॥ 
बिचलाइ दल बलवंत कीसन्ह घेरि पुनि रावन लियो। 
चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तन ब्याकुल कियो॥ 
अर्थ-विकट और विकराल भालु-बंदर जो हाथोंमें पर्वत लिये दौड़े वे अत्यन्त क्रोध करके चोट 
करते हैं। उनके मारते ही राक्षस भाग चले। बलवान्‌ वानरोंने सेनाकों विचलितकर फिर रावणको घेर 
लिया। चारों ओरसे चपेटे (थप्पड़, तमाचे एवं हाथ-पैरके घिस्से) मारकर और नखोंसे देहको विदीर्ण 
करके रावणको वानरोंने व्याकुल कर दिया। 
नोट--१ (क) विकट और कराल 'मर्कट-भालु' के विशेषण हैं। यथा-“नाना बरन भालु कपि 
धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी॥ अमित नाम भट कठिन कराला।' (सुं० ५४) (ख) “अति कोपि 
करहिं प्रहार" अर्थात्‌ प्रहार बड़े क्रोधसे करते हैं, जिसमें वे मार सह न सकें और ऐसा ही हुआ 
भी। सब राक्षससेना भाग गयी, रावण ही रह गया; अतः उसीको घेरा (रा०प्र०)। (ग) “चहुँ दिसि चपेटनि 
मारि““” इति। यहाँ अद्भदके 'याकों फल पावहियों आगे। बानर भालु चपेटन्हि लागे॥' (३२। ७), इन 
बचनोंका चरितार्थ है। यहाँ वानर और भालु दोनों ही हैं। 
दो०--देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार। 


अंतरहित होड़ निमिष महुँ कृत माया बिस्तार॥९९॥ 
अर्थ--वानरोंको महाप्रबल देख रावणने विचार किया और अन्तर्धान होकर पलभरमें मायाका विस्तार 
किया (फैलायी)॥९९॥ 

नोट--“कीन्ह बिचार”। पूर्व एक बार विचार लिख आये हैं, यथा-- 

“रावन हृदय बिचारा भा निसिचर संघार।"४/४/// ॥! (८७), “““““तब रावन माया बिस्तारी।” 

“अंतरधान भएउ छन एका। पुनि प्रयटे खल रूप अनेका॥' (९५। १) 

इसीसे दूसरी बार ९५ (१) में विचार करना न कहा, केवल अनेक रूप प्रकट करना कहा, वैसे ही अब 
यहाँ भी न लिखा। अथवा, विचारके साथ ही अन्तर्धान हुआ, इससे विचार न लिखा। अब विचार करता है 
कि दो बार दो प्रकारकी माया कौ, वह इन्होंने काट डाली, अब कया करूँ? कौन माया रचूँ? 

ए७ अबतक रावणने तीन बार माया रची। उनका सारांश- 

१--प्रथम बार रावण अकेला था और कपि-भालु बहुत थे। दूसरी बार रावण अकेला था और 
'कपिदल प्रबल वा प्रचण्ड था। तीसरी बार रावण अकेला था और मर्कट महाप्रबल थे। 

२ (क)-जब कपि-भालु बहुत थे तब साधारण माया रची थी, जिसमें निशाचर-सेना और बहुत-से 
राम-लक्ष्मण थे, यथा-'देखी कपिन्ह निसाचर अनी। अनुजसहित बहु कोसलधनी॥” (८८। ८) (ख) जब 
'कपिदल प्रबल था तब जितने वानर-भालु थे और जहाँ थे वहीं उसने उतने रावण प्रकट किये और (ग) जब 
कपि महाप्रबल थे तब उसने भूत-प्रेत, बेताल, योगिनियाँ जलती हुई अग्नि और जलती रेत इत्यादि प्रचण्ड 
जन्तु आदि उत्पन्न किये। 








दोहा ९९ (छंद) # श्रीमद्रामचन्गरचरणौ शरण प्रपद्यो & ५१३ लड्ढाकाण्ड 





३ (क)--प्रथम बार मायाके राम-लक्ष्मण थे अतः माया भयावनों न थी। तब लक्ष्मणादि सभी माया 
देख चित्रलिखित-सरीखै खड़े देखते रह गये। पर केवल चकित थे, न भगे न चिल्लाये। यथा-- “जनु चित्रलिखित 
समेत लछिमन जहाँ सो तहँ चितबहिं खरे, 'निज सेन चकित बिलोकि”“““ ।” (८८ छंद) दूसरी बार अमित 
रावण, प्रत्येक वानरके साथ कम-से-कम एक थे। इससे वानर व्याकुल हो भगे और “ब्राहि त्राहि' करने 
लगे, यथा-- “चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल याहि भयातुरे॥' (९५) यह भागना कपिदलका है। 
हनुमदादि अतिबली वानर नहों भगे थे, यथा-'हतुमंत अंगद नील नल अतिबल लरत रनबाँकुरे।' (९५ 
छंद) और, (ग) तीसरी बारकी मायासे बानर व्याकुल हुए और भागे भी, पर भागनेकी राह कहीं न 
पाकर थंकित हो गये। लक्ष्मण, सुग्रीवसमेत सभी वानर अचेत हो गये, कोई वीर न बचा। 

४ प्रथम मायामें किसीने न पुकार कौ, दूसरीमें कपिदलने पुकार को, हनुमदादिने नहीं वरन्‌ ये सहायता 
करने लगें और तीसरीमें हनुमदादि सुभट भी त्राहि-त्राहि करने लगे। 

५ प्रथममें 'भालु मर्कट अपडरे' दूसरीमें 'भागे भालु बिकल भट कीसा” और तीसरीमें 'हा राम 
हा रघुनाथ कहि सुभट मीजहिं हाथ! भाव कि पहले साधारण वानर-भालुका अपडर कहा, दूसरीमें भट 
(योद्धा) बानर-भालुका डर कहा और तौसरीमें उत्तम-उत्तम योद्धाऑंका। 

६ पहली माया एक चौपाई (दो चरण) में कहो--'देखी कपिल्‍्ह निसाचर अनी। अनुज सहित बहु 
कोसलथनी॥” और दूसरी पाँच चरणोमें। पहलीसे दूसरीमें और उससे तीसरीमें अधिक विस्तार है। और 
तीसरी बार तोमर छंदके सात चरण और आधे दोहेमें माया कहकर दुबारा फिर तोमर छन्दके आठ चरण 
और हरिंगीतिकाके दो चरणोंमें वह माया कही। 

७ प्रथममें वानरोंका डर आदि हरिगीतिकाके चार चरणोंमें कहे। दूसरीमें वानरोंका भय चौपाईके 
पाँच चरणों और हरिगीतिकाके दो चरणोंमें लिखा, तीसरी बार तोमरके १२ चरणोंमें लिखा। 

८ प्रथम बार विचार करते ही माया प्रकट कर दी, यथा-“तब रावन माया बिस्तारी। देखी कपिह 
निसाचर अनी।““““” दूसरीमें अन्तर्धान होना पड़ा और क्षणभर लगा तब माया रची, यथा-“कपिदल 
प्रबल देखि तेहि कीन्ह प्रगट पाखंड॥ अंतरथान भएउ छन एका। युति प्रयटे खल रूप अनेका॥#' तीसरी 
बार अन्तर्हिंत होकर निमेषभरमें माया रची गयी। कुछ लोगोंके मतानुसार क्षण निमेषका चतुर्थाश है। इस 
प्रकार एकसे दूसरेमें और दूसरेसे तीसरेमें अधिक समय लगा। 

९ (क) पहली माया काटनेका प्रसड़ हरिगीतिकाके चार चरणोंमें है। यथा-“निज सेन चकित बिलोकि 
हँसि सर चाप सजि कोसलथनी। माया हरी हरि 'निमिष महँ हरषी सकल मर्कट अनी॥' दूसरी बारका एक 
दोहा और चौपाईके एक चरणमें है। यधा-'सुर बानर देखे बिकल हँसे कोसलाथीस। सजि सारंग एक 
सर हते सकल दससीस॥' (९५), 'प्रभु छत्महँ माया सब काटी। जिमि रवि उए जाहिं तम फाटी ॥/ और 
तीसरी बार-'रघुबीर एकहि तीर कोपि निमेष महँ माया हरी।' 

(ख) प्रथम बार सब चकित थे, कोई व्याकुल वा भगे न थे, तब एक निमेषमें। दूसरी बार सुर 
और बानर दोनों बिकल हो भगे थे, तब क्षणभरमें। और तीसरी बार सब अचेत हैं और सुरोंको हर्ष- 
विषाद दोनों हैं, वे भगे नहीं हैं, अतः फिर निमेषमें हरना कहा। 

(ग) प्रथम दो बार हँसे और जब फिर उसने माया रची तब क्रोध हुआ। हँसे तबतक माया भी 
रही, क्योंकि आपका हास्य स्वयं माया है। अब क्रोध किया, अतएब आगे अब मायाका पता नहीं रह गया। 

१० प्रथम बार मायाहरणमें 'हारि' और हँसकर धनुष सजनेमें 'कोसलधनी” पद दिया-- माया हरी 
हरि निमिक महँ” दूसरी बार सुर और वानर दोनोंको विकल देखा तब हँसने और माया काटनेमें एक 
ही पद “कोसलाधीस” दिया। और तीसरी बार हँसे नहीं कोपकर बाण चलाकर माया काटी। तब रघुवीर 
पद दिया। “रघुबीर' हैं अतएव अब उसकी माया डर गयी, अब माया आगे नहीं आयेगी। 

११ प्रथम बार 'हरषी सकल मर्कट अनी” पर जलड़नेका उत्साह माया कटनेपर न रह गया। दूसरी 
[92] मा० पी० (खण्ड-छः ) १७९ 





मानस-पीयूष ५१४ # श्रीमते रामचन्द्राय नम: + दोहा १०० ( छंद) ( १-६) 





बार सुर-बानर दोनों हर्षित हुए और प्रभुका बल पाकर फिरे और “प्रभुबल याड़ भालु कपि धाए। तरल 
तमकि संजुग महि आए॥” पर लड़े नहीं। तोसरी बार “माया बिगत कपिभालु हरषे बिटप गिरि गहि सब 
फिरे।” भाव कि दूसरी बार कुछ उत्साह हुआ और अबकी तो उत्साहसे उसे मारने दौड़े। 
छंद--जब कीन्ह तेहि पाषंड भए प्रगट जंतु प्रचंड। 
बेताल भूत पिसाच कर धरे धनु नाराच॥१॥ 
जोगिनि गहे करबाल एक हाथ मनुज कपाला। 
करि सद्य सोनित पान नाचहिं करहिं बहु गान॥२॥ 
शब्दार्थ--करबाल (सं०)-तलबार। सद्य"ताजा, तुरंतका। 
अर्थ-जब उसने माया रची, तब हाथोंमें धनुष-बाण लिये हुए बेताल, भूत और पिशाच भयद्भर 
जीव प्रकट हो गये। योगिनियाँ एक हाथमें तलवार और एकमें मनुष्योंकी खोपड़ियाँ लिये तत्काल ही 
ताजा खून पीकर नाचती हैं और बहुत तरहके गोत गाती हैं॥ २॥ 
पं०--'कारि सद्य सोनित पान“““”।” भाव कि हाथमें खोपड़ियोंके खप्पड़ लिये हैं, तलवारसे सिर 
काट-काट तत्काल रुधिर पीती हैं। वा, खोषड़ियोंसे रक्त बह रहा है वही पीती हैं। 
मा० म०--'गहे करबाल' के यहाँ दो अर्थ हैं। १--हाथमें सिस्के बाल पकड़े हैं और उसी हाथमें तलवार 
लिये हैं। २-अपनी गोदमें बालक भी लिये हैं-ऐसे भयड्भूर रूपको देखकर काल भी डरता है।' 
छंद--धरू मारु बोलहिं घोर रहे पूरि धुनि चहुँ ओर। 
मुख बाई धावहिं खान तब लगे कीस परान॥३॥ 
जहँ जाहिं मर्कटद भागि तहँ बरत देखहिं आगि। 
भए बिकल बानर भालु पुनि लाग बरषै बालु॥ड॥ 
अर्थ-वे धरो-पकड़ो, मारों इत्यादि भयावने शब्द बोलती हैं, यह ध्वनि चारों ओर भर रही है। 
मुँह फैलाकर खानेकों दौड़ती हैं। तब वानर भागने लगे॥ ३॥ जहाँ भी बानर भागकर जाते हैं वहीं आग 
जलती देखते हैं। वानर-भालु व्याकुल हो गये। फिर वह रेत बरसाने लगा॥ ४॥ 
नोट--१ “थक मारु बोलहिं घोर; यथा--“मारु मारु धरु थरु अरु मारू। सीस तोरि गहि भुजा उपाख॥' 
(५२। ६) देखिये। भय उत्पन्न करनेके लिये ये शब्द करते हैं, यह बात 'घोर' पदसे जना दी है। 
नोट--२ 'पुनि लाग बरष बालु' जिसमें अन्धकार हो जाय, किसीको देख न पड़े। यथा--'बरषि थूरि कीन्हेसि 
अधियारा। सूझ न आपन हाथ पसाद॥” (५१। ४) रा० प्र०-कार बालूसे तप्त रेतका भाव कहते हैं। 
नोट--३ “तब लगे कीस परान'/ “तब” का भाव कि पिशाचादिकों देखकर न डरे, उनके शब्दसे 
न डरे, योगिनियाँ कराल हैं यह भी देख न डरे। कारण कि पूर्व इस मायाकों देख चुके हैं और जानते 
हैं कि यह सब झूठा है। जब वे खाने दौड़ीं तब इस मायाकों सत्य समझकर डरकर भागे। जब वे 
भगे तब जिधर जायँ उधर आग दिखायी पड़ी तब व्याकुल हुए कि अब 'सबकर मरन बना एहि लेखे 
छंद--जहँ तहैँ थकित करि कीस गर्जेड बहुरि दससीस। 
लधछिमन कपीस समेत भए सकल बीर अचेत॥५॥ 
हा राम हा रघुनाथ कहि सुभट मीजहिं हाथ। 
एहि बिधि सकल बल तोरि तेहिं कीन्‍्ह कपट बहोरि॥६॥ 
अर्थ-वानरोंको जहाँ-तहाँ (जो जहाँ हैं उनको वहीं) थकित करके फिर दशशीश गर्जा। श्रीलक्षषण और 
सुप्रीवसहित सब बीर वानर अचेत हो गये॥ ५॥ हा राम! हा रघुनाथ! (भाव कि हम बड़े कष्टमें हैं) कहकर 





दोहा १००, छंद (७-८ ) # श्रीमद्रामचन्भचरणौ शरण प्रपश्े # ५१५ लड्जाकाण्ड 





सुभट अपने हाथ मलते हैं। इस प्रकार सारी सेनाका बल तोड़कर उसने फिर और माया रचौ॥ ६॥ 
रा० प्र०-१ “गर्जेड' जयसूचक है कि वानर अब कहीं न तो ठहर ही सकते हैं और न भागनेकी 
जगह पाते हैं। २ 'लक्तिमन कपीस समेत” का भाव कि सामान्य-विशेषकी कथा ही क्या? 
च० प० प्र०-'अचेत” का अर्थ यहाँ मूर्छित नहीं है, किंतु 'किंकर्तव्यविमूढ़' है। क्या करना चाहिये, 
इससे कैसे बचें इत्यादि कुछ भी तिर्णय न करनेमें समर्थ नहीं हैं। भाव कि सब आर्त्त हैं। 'रहत न 
आरत के चित चेतू।' (२। २६९। ४) रावणकी मायाके सामने इन सबको अतुलित बीरता निष्क्रिय हो 
जानेसे इनको यहाँ “बीर' मात्र कहा, बलवीर अथवा महावीर आदि न कहा। 
चां०--'हा राम” का भाव कि आप सबमें रमे हैं, हमारी विपत्ति देखिये। 'रथुनाथ” का भाव कि आप 
विपत्ति-निवारणमें कुशल हैं, हमारी विपत्ति हटाइये। आपके नाथ होते हुए भी हम अनाथ-से हो रहे हैं। 
रा० प्र० का मत है कि 'हा राम हा रघुनाथ' का भाव यह है कि कुछ पराक्रम नहीं चल सकता। 
अपनी दशासे रघुनाथजीको न देखकर 'हा राम! हा रघुनाथ!” करके हाथ मलते हैं। भाव कि अपनी- 
सी दशा रामजीकौ भी मानते हैं। 
नोट-१ “मीजहीं हाथ” अर्थात्‌ कुछ वश नहीं चलता, कुछ हो नहीं सकता, जीते-जिताये हारे जाते 
हैं। (पं०) 'हाथ मींजना या मलना' मुहावरा है। शोक, पश्चात्ताप, निराशा, कोध और कष्टमें हाथ मलते हैं। 
यथा--“कर मीजहिं सिर धुनि पछिताहीं। २। ७६। ५।' (शोक 'निराशासे), 'अबला बालक बृद्ध जन कर 
मींजहिं पछिताहिं।' (२। १२१; पश्चात्ताप, बेबशीसे), “मीजि हाथ सिर धुनि पछिताई। (२। १४४ यश्चात्तापादिसे) 
२ 'एहि' बिधि सकल बल तोरि।' भाव कि इस मायासे तो सेनाभरका बल क्षीण कर दिया, सब मनमें हार 
गये। अब रहे राम, सो उनका बल भी तोड़ूँ; इसलिये फिर दूसरी प्रकारकी माया रची। 
च० प० प्र०-'हा सम हा रघुताथ' इति। यहाँ उपदेश है कि अहड्जारजनित मायाकी शक्तिसे कोई 
भी जीव, कितना ही बड़ा धीर-बौर क्यों न हो, अपनी सामर्थ्यसे बच नहीं सकता। ऐसी दशामें जिसके 
अन्तःकरणसे 'क्राहि ज्रहि आरति हरत सरन सुखद रघुनाथ' ऐसी पुकार निकलेगी वही बच सकेगा, अन्य 
सब मायके चक्करमें ही भ्रमते और घबड़ाते रहेंगे 
छंद-प्रगटेसि. बिपुल हनुमान थाए. गहे. पाषाना 
तिन्ह रामु घेरे जाइ चहुँ दिसि बरूथ बनाइ॥७॥ 
मारहु धरहु जनि जाइ कटकटहिं पूँछ उठाइ। 
दस दिसि लँगूर बिराज तेहिः मध्य कोसलराज॥८॥ 
शब्दार्थ-बरूथ-सेना, दल, टोली। 
अर्थ-उसने बहुत-से हनुमान्‌ प्रकट किये, जो पत्थर लिये दौड़े। चारों ओर दल बनाकर उन्होंने 
श्रीरामचन्द्रजीकों जा घेरा॥ ७॥ पूँछ उठाकर कटकटाकर कहते हैं कि मारो, पकड़ आाँधो, जाने न पाये। 
दसों दिशाओँमें लंगूर और उनके बीचमें कोसलराज श्रोरामजी विराजमान हैं॥ ८॥ 
नोट--'तैहि कौन्ह कपट बहोरि। वह माया यह है। अभीतक जितनी माया रची उससे श्रीरामजी मोहित 
न हुए, शेष सब मोहित हो गये। अतः अब यह दूसरी माया उनको मौहित करनेके विचारसे रची। 
करु०-एक ही हनुमानने लड्ढा भस्म कर दी, एक हो अद्जदने रावणका सभामें कैसा अपमान किया। 
ऐसे अगणित हनुमान्‌ रावणने अपनी मायासे रच लिये-यह रावणका प्रताप है। तो रावणने प्रथम ही 
यह प्रताप क्‍यों न दिखाया था? इसका समाधान यह है कि रावण तो इनको कुछ न समझता था, पर 
उसने सोचा कि यदि ये (हनुमान्‌ और अज्भद) मेरा प्रताप जान लेंगे तो फिर लड्जाको न आवेंगे और 
न जाननेसे जाकर रघुनाथजीसे अपनी प्रभुता और मेरी लघुता कहेंगे तब रघुनाथजी संग्रामके लिये शीघ्र 
आबेंगे। उस समय मैं अपना प्रताप सबको दिखाऊँगा। 


मसानस-पीयूष ५१६ # श्रीमते रामचन्द्राय नम: के दोहा १ न >नस्ननसस--+- 3 कलम लपावभफक.___ होह2४: हद) छंद (१) 





प० प० प्र०-लड्जादहनादिके समय विविध माया-कृतिसे हनुमान्‌-अड्भदादिको भयभीत न करनेमें 
अनेक कारण हो सकते हैं। जैसे-(१) अपने दासोंकी कीर्सि बढ़ानेकी भगवान्‌की इच्छा। (२) सभी 
राक्षसोंक विनाशकी (श्रीरामजीकी) प्रतिज्ञा। (३) सभी राक्षसोंको रणाड्वणमें खर-दूषणादिके समान विरोध- 
चैर करते हुए स्वयं प्रभुके हाथसे मरवाकर और स्वयं उनके हाथों मरकर भवसागर पार कराके अपनी 
“प्रभु सर प्रान तजे भव तरऊँ” इस प्रतिज्ञाकों पूरा करना। (४) रावणका महत्त्व बढ़ानेके लिये इसी समय 
भगवान्‌की इच्छासे उसमें ऐसी इच्छाका होना। (५) श्रीलक्ष्मणजी, श्रीहनुमानजी आदि महावीरोंको अपने 
बल-पराक्रमादिका कभी अभिमान न होने पाये, इस कृपामूलक भगवदिच्छाने हौ यह कराया। 'राम कीन्ह 
चाहहिं सोड़ होईं। करे अन्यथा अस नहीं कोई ॥; “उर प्रेरक रघुबंस' बिभूषतर'| (६) जैसे पूर्व “रन सोभा 
लगि प्रभुहि बैधायउ” वैसे हो अब रण-शोभाके लिये रावणकों ऐसी प्रेरणा की गयी। इत्यादि। 
गौड़जी--मायारचित रूपो्में सभी गुण-कर्म नकली होते हैं, असली नहीं। इसीलिये असली पराक्रम 
भी नहीं होता। मायाकी-खूबी यहों है कि देखकर असलीका भ्रम हो जाय, डर समा जाय। जब यह 
पता चल जाता है कि यह मायाके रूप हैं असली नहीं, तब तो साधारण कपि भी “मर्दहिं कोटिक 
ऱवण।' रावण तो भगवान्‌कौ मायासे स्वयं मोहित होकर उन्हें मनुष्य समझता है, इसीलिये यहाँ 'प्रयठे 
बिपुल हनुमात” उसे पहलेका अनुभव है कि मायामृगसे यह छले जा चुके हैं फिर मायाके हनुमानूसे 
क्यों न छले जायँगे। फिर भी विपुल हनुमान्‌ प्रकट करके अपनी मूर्खता पूर्णतया दिखा देता है। 
छंद--तेहि मध्य कोसलराज सुंदर स्थाम तन सोभा लही। 
जनु इन्द्रधनुष अनेक की बर बारि तुंग तमाल ही॥ 
प्रभु देख हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी। 
रघुबीर एकहि तीर कोपि निमेष महुँ माया हरी॥१॥ 
शब्दार्थ-तुंग-ऊँचा। बारी-बाग, खेत, वृक्ष आदिके चारों तरफ रक्षाके लिये बनाया हुआ घेरा। 
अर्थ-उनके मध्यमें कोसलराजका सुन्दर श्यामशरीर कैसी शोभाको प्राप्त हुआ मानो अनेकों इन्द्रधनुषोंकी 
श्रेष्ठ ऊँची बाड़के बीचमें ऊँचा तमाल वृक्ष हो। प्रभुको देखकर देवताओंके हृदयमें हर्ष और विषाद दोनों 
उत्पन्न हुए और वे जय-जयकार करके जय बोलते हैं। तदनन्तर श्रौरघुवीरने कोप करके एक ही बाणसे 
पलभरमें समस्त माया हर ली॥ १॥ 
नोट-₹ “प्रभु देखि हरष बियाद उर' इति। “प्रभु' अर्थात्‌ समर्थ हैं। उनका सामर्थ्य समझ और अद्भुत छरा 
देख हर्ष हुआ अतएव जय-जयकार करने लगे। और, रावणने यह माया रच रखो है उसमें प्रभुको अवरुद्ध देख 
विषाद हुआ।--दोनों भाव एक साथ उदय होनेसे 'प्रथम समुच्चय अलंकार' हुआ। अबकी कोई देवता न भागे, 
अत: 'प्रभु देखि” पद दिया। भाव कि उनको देख सामर्थ्य भी स्मरण हो आया। पूर्व भी जो देवता न भागे थे 
उनके सम्बन्धमें भी कहा था कि “रहे बिरंचि संभु मुत्रि ज्ञानी। जिन्‍्ह जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी॥' (९५। ८) 
नोट--२ “बदत जय जय जय करी” अर्थात्‌ जोर-जोर 'पुकारकर जय-जयकार करते हैं। अब रावणका 
डर नहीं रह गया, अब ये “प्रधु' को,/सत्य ही प्रभु जान गये हैं। पिछली बार रावणसे भागनेपर इनको 
रक्षा की गयी, इसलिये अब निःशह्ढूं हो गये। 
रा० प्र०--हर्ष और विषाद कि रावणने ऐसी माया की। वा, पहिले परम विषाद हुआ फिर प्रभुको 
देख हर्ष हुआ। पहिले विषाद किया फिर हर्ष, इसौसे “बिबाद” शब्दके बाद “जय जय करी” पद दिया। 
“बदत” दीपदेहरी-न्यायसे दोनोंमें लगेगा। शब्दोंद्राय विषाद प्रकट किया फिर “जय' उच्चारण किया। 
प्र० प० प्र०--“रघुवीर' शब्दसे यहाँ विद्या, कृपा और पराक्रम तीन बीरताएँ सूचित कौं। विद्यावीर 
हैं अतः जान लिया कि यह राक्षसी माया है। कृपावीर हैं अत: “हा राम रघुनाथ” सुन सबको आर्त 
जान कृपा कौ। प्रराक्रमबीर हैं अतः एक ही बाणसे पलमात्रमें माया हर ली। 


दोहा १००, छंद (२) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्ये ५९१७ लड्जाकाण्ड 





नोट--३ "पूर्व जब-जब माया रचो गयी। तब-तब हँसकर प्रभुने उसे काटा। 
१--पुनि कृपाल हँसि चाप चढ़ाबा। पावकसायक सपदि चलाबा॥ 
भरएउ प्रकास कतहुँ तम नाहीं। ज्ञान उदय जिमि संसय जाहीं॥' (४६। ३-४) 
२--'कौंतुक देखि राम मुसुकाने। भए सभीत सकल कपि जाने॥ 
एक बाच काटी सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर निकाबा॥” (५१। ७-८) 
३--निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसलथनी। 
माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी॥' (८८ छन्द) 
४--'सुर बानर देखे बिकल हस्‍्थों कोसलाधीस। सजि सारंग एक सर हते सकल दससीस॥ (९५) 
“प्रभु छत महँ माया सब काटी। जिमि रबि उए जाहिं तम फाटी॥' 
पर यहाँ 'हँसी' की जगह 'कोप' किया है। भेदका भाव यह है कि जबतक क्रीड़ा करना था तबतक 
हँसते रहे और राक्षस माया करते रहे। परम कौतुकी हैं ही, कौतुक देखते रहे--“कौतुक देखि राम मुसुकाने'। 
अबकी लक्ष्मण और सुग्रीबतक अचेत हो गये; इसलिये अब क्रोड़ा समाप्त करना चाहा तब कोप किया। 
'कोप होनेपर फिर माया न हुई। लक्ष्मणजीने मेघनाद-युद्धमें ऐसा ही विचारकर क्रोध किया थां। यथा--'बिबिथ 
बेष धरि करड़ लराई। कबहुँक प्रगट कबहूँ दुरि जाई॥ देखि अजय रिपु डरपे कीसा। परम क्रुद्ध तब भयउ 
अहीसा॥ लछिमन मत अस मंत्र दृढ़ाबा। एहि पापिहि मैं बहुत खेलाबा॥ सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा। सर संधान 
कीन्ि करि दापा॥' (७५। १२-१५) पुन, प्रभुका हास्य माया है। अबतक मायाका खेल देखना और सबको 
दिखाना था अत: हँसते रहे। आप भी मायामें सम्मिलित रहे। पुनः, रावणकी मायाका पूरा बल देख लिया 
और सबको दिखा दिया तब कोप किया। “रघुवीर' पद देकर जनाया कि ये पराक्रमवीर हैं, इनके लिये 
यह माया क्‍या है? अब अपना पराक्रम दिखाते हैं, जिससे फिर वह माया न कर सकेगा। 
गौड़जी--कोपका कारण यह है कि मायाके अनेक हनुमानोंका; परम भागवतोंका विनाश, रावण स्वयं 
प्रभुके हाथों ही करा रहा है। ऐसी क्रोड़ा प्रभुको इष्ट नहीं है। अत: क्रोध किया कि ऐसी क्रौड़ाका 
तुरंत अन्त हो जाया 
'घ० घ० प्र०--“कोपि' इति। भाव कि जैसे महामुनि कपिलदेवजीने अपने कोपके हुद्भारसे ही सगरपुत्रोंको 
भस्म कर दिया वैसे ही श्रीरामजीने अपने तीर-के साथ अपना कोप ही छोड़ा। इससे यह भी जनाया 
कि अब रावणको निर्वाण देनेका समय समीप आ गया। मारीचने कहा है “निर्वांनन दायक क्रोध जाकर। 
बीरकबि-रामचन्द्रजीके चारों ओर असंख्यों हनुमान्‌ पूँछ डठाये हुए विद्यमान हैं, यही उ्प्रेक्षाका 
विषय है। पूँछ और इन्द्रधनुष, रामतन और तमालवृक्ष उपमेय-उपमान हैं। यह बिलक्षण कल्पना है, जो 
न कहीं सुनी न देखी गयी। अतः यहाँ “अनुक्तविषया-वस्तूत्येक्षालंकार' है। 
छं०--माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे। 
सर निकर छाँड़े राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे॥ 
श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गाठवहीं। 


सत सेष सारद निगम कबि तेड तदपि पार न पावहीं॥२॥ 

अर्थ-माया दूर होनेपर वानर और भालु प्रसन्न हुए और वृक्ष तथा पर्वत ले-लेकर सब लौट पड़े। 
श्रीरामचन्द्रजीने बाणसमूह छोड़े, जिनसे रावणके बाहु और सिर फिर कट-कटकर पृथ्वीपर गिरे। श्रीराम- 
राबणके युद्ध-चरित्र यदि सैकड़ों शेष, शारद, वेद और कवि अनेक कल्पॉतक गाते रहें तो भी वे लोग 
उसका पार नहीं पा सकते॥ २॥ 

नोट--१ अबकौ बार बानरोंका उत्साह भी बढ़ा, इससे वे पर्वतादि लिये हुए फिरे। पिछली बार 
फिरे थे पर पर्वतादि न लाये थे और प्रथम बार तो उत्साहहीन ही हो गये थे। 'फिरे” का भाव कि 
पूर्व रावणके भयसे भागे थे, यथा--“तब लगे कीस यरात्र” अब फिरे। 


मानस-पीयूष ५१८ # अ्रीमते रामचद्धाय नम: # दोहा १०० 





नोट--२ (क) शेष, शारद, वेद और कवि ये चारों गायक हैं और रामचरित गाते रहते हैं, यथा--'सारद 
सेष महेस बिधि आग निगम पुरान। नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर यात्र॥' (१। १२) इससे इनका गाना 
कहा। शेष दो हजार जिहासे और शारदा सबको जिह्ासे गातो है और बेद तो प्रभुकी स्वयं वाणी है। पुनः भाव 
कि--(ख) एक-एक पार नहीं पाते यह तो प्रसिद्ध ही है, कदाचित्‌ बहुत-से कहें तो कह सकें, उसपर वक्ता 
कहते हैं कि अगणित भी एकत्र होकर कहें तब भी न चुके। तात्पर्य कि अपार है। पुन, (ग) न कह सकनेका 
कारण यह कि राम-रावण-युद्धकी कोई उपमा ब्रह्माण्डमें नहों मिलती, राम-रावण-युद्धमें अनन्वयालंकार है। 
यधा-'गश्ध्वाप्सरसां सा दृष्ठा युद्धमनूषमम्‌। गगने गगनाकारं सागर: सागरोपम: ॥ रामराबणयोर्युद्धं रामशवणयोरिव ॥ 
एवं ब्रुवन्तो ददृशुस्तद्युद्धं रामगावणम्‌॥' (११०। २३-२४; च० सं०) 

पं० बि० त्रिपाठीजी--जिस भाँति राम-रावण-समर-चरित्र ब्रह्माण्डमें हुआ, उसी भाँति राम-रावण- 
समर प्रत्येक पिण्डमें हो रहा है। विनय-पत्रिकाके “बपुष ब्रह्माण्ड सुप्रवृत्ति लंकादुर्ग' शीर्षक भजनमें इसका 
सविस्तर निरूपण किया है। पिण्डमें मोह रावण है, ज्ञान राम हैं, जानकीजी भक्ति हैं, हनुमानजी बैराग्य 
हैं, प्रवृत्ति लड्ढा-दुर्ग है; कुम्भकर्ण अहंकार है, विभीषण जीव हैं, कैवल्यके साधन वबानरी सेना हैं, सो 
अनन्तकालसे प्रत्येक पिण्डमें राम-रावण-युद्ध होता चला आया है और होता चला जायगा। कभी रामकी 
जीत होती है कभी रावणकी जीत है। ब्रह्मद्रारा मोहका सिर कटता है, परंतु फिर निकल आता है, उसका 
मरना दुष्कर व्यापार है। लाखों, करोड़ों साधकोंमेंसे किसी एकका मोह मारा जाता है तो उसे स्वराज्यकी 
प्राप्ति होती है, अत: यह समर-चरितके सम्यक्‌ ज्ञानमें सचमुच शत शेष, शारद, निगम कवि सभी असमर्थ 
हैं। वह बात तो केवल अध्यात्मदृष्टिसे कही गयी, अब यदि इसोमें आधिभौतिक दृष्टि और आधिदैविक 
दृष्टिसे जो राम-रावण-समर-चरित हुआ उसे भी जोड़ दिया जाब तो पाराबार. कहाँ मिलेगा? 

दो०--ताके गुनगन कछु कहे* जड़मति तुलसीदास। 
निज| पौरुष अनुसार जिमि मसक उड़ाहिं अकास॥ १००॥ 

अर्थ-मुझ मंदबुद्धि तुलसीदासने उनके कुछ गुणगण कहे, जैसे अपने पुरुषार्थक अनुसार मक्खी भी 
आकाशमें उड़ती हैं॥ १००॥ 

नोट--१ “श्रीराम रावत समर चरित” शब्द छन्दमें देकर और दोहेमें “ताके गुतगन कछु कहे” कहकर यहाँ 
अपने 'श्रीराम-रावण-समरचरित' की इति लगायी। आगे अब रावणका कोई पुरुषार्थ नहीं दिखाया गया है। 

नोट-२ “गुन्गन कछु कहे”““”। भाव कि ऐसे-ऐसे बुद्धिमान्‌ वक्ता नहीं कह सकते तब मेरा कहना 
तो मूर्खता ही है। क्‍योंकि मेरी बुद्धि तो अति नीच है, यथा--'मति अति नीचि ऊँचि रुचि आछी।' 
(१। ८। ७), “मंत्र मति रंक मनोरथ राऊ', 'लघुमति मोरि चरित अवगाहा।' (१। ८। ५-६) फिर कहा 
क्यों? न कहते। उसपर कहते हैं कि सभी कहते हैं, यद्यपि पार नहीं पा सकते वैसे ही मैं भी बुद्धिभर 
कहता हूँ, कुछ पार पानेके लिये नहीं कहता। मिलान कौजिये बा० १३ (९) से दोहा १३ तक। 'जेहि 
मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥' इत्यादिमें भाव आ चुके हैं। 

नोट--३ 'जिमि निजबल अनुरूपते माछी उड़े अकास'। यथा-- 'तुम्हहिं आदि खय मसक प्रज॑ता। नभ 
उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता॥ तिमि रघुपति महिमा अबगाहा। तात कबहूँ कोड पाव कि थाहा॥' (७। ९१। 
५-६), “निज निज मति मुनि हरिगुन गावहिं। निगय सेष सिर पार न यावहिं॥” (७॥ ९१। ४) 

यहाँ गोस्वामीजी अपनेको मच्छर और शेष-शारदादिको गरुड़ जनाते हैं। पार तो दोनों हो नहीं पाते। 
अपने-अपने पुरुषार्थभर आकाशमें उड़ते हैं। वैसे ही पार तो शेष-शारदादि भी नहीं पाते, पर अपनी शक्तिभर 
कहते हैं तथा मैंने भी शक्तिभर कहा। 

नोट--४ घ्कका० मा०, म०, पं० “में पाठ यह है--“निज पौरुष अनुसार जिमि मसक उड़ाहिं अकास ॥ 





* कहे तासु गुनगन कछू। + 'जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उड़ह अकास।” 'निज पौरुष”“'--भाव्दा०। 


दोहा १००, १०१ (१-२) # श्रीमद्रामचद्रचरणौ शरणं प्रपद्ये # ५१९ लड्जाकाण्ड 





रा० गु० द्वि० और भा० दा० आदिका पाठ “जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उड़े अकास” है। काशीवाला 
पाठ अधिक उत्तम जान पड़ता है। क्योंकि 'मसक' “माछी'से छोटा होता है और मच्छड़का दृष्टान्त कबिने 
उत्तरकाण्डमें दिया भी है। 

बं० पा०--माछी' से मधुमक्खी समझो! मधुमक्खी पुष्पोंका रस लेकर तब मधुका छत्ता लगाती है, 
बैसे ही गोस्वामीजीने नाना पुराणादि अनेक ग्रन्थ-पुष्पॉका रस लेकर यह मानस-पग्रन्थ मधुछत्ता लगाया है, 
अतएव ये मधुकर मक्खी हैं।-[पर यहाँ कवितामें सबसे छोटा जन्तु ही मानना प्रशस्त है--(मा० सं०)]। 


“रावण-बध '-प्रकरण 
दो०--काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लंकेस। 


प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध * मुनि ब्याकुल देखि कलेस॥ १००॥ 

अर्थ-सिर और भुजाओंके बारम्बार कटनेपर भी लड्भापति योद्धा रावण मरता नहीं। प्रभु तो क्रीड़ा 
(खेल) कर रहे हैं किन्तु सुर, सिद्ध, मुनि प्रभुको क्लेशमान देखकर व्याकुल होते हैं॥ १००॥ 

नोट- प्रभु क्रीड़त' ” यथा--'प्रभु कृत खेल सुर बिकलई' (९३। ३) यहाँ “प्रथम उल्लास 
अलंकार' है। 

काटत बढ़हिं सीस समुदाई | जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥१॥ 
मरै न रिपु श्रम भएउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा॥२॥ 

अर्थ-काटते ही सिरोंका समुदाय (समूह) बढ़ता ही जाता है। जैसे प्रत्येक लाभपर लोभ बढ़ता 
है॥ १॥ शत्रु नहों मरता और परिश्रम बहुत हुआ। तब श्रीरामचन्द्जीने विभीषणकी ओर देखा॥ २॥ 

नोट--१ “जिमि प्राति लाभ लोध अधिकाई '। जैसे कोई किसी एक बातकी कामना करे और वह 
पूरी हो जाय तो फिर वह और कामनाएँ करने लगता है, वे पूरी हुईं तो और बड़ी बस्तुकी कामना 
होती है। इस प्रकार लोभ बढ़ता जाता है। उसका अन्त नहीं हो पाता। यथा--कामस्थान्तं च क्षुत्तडभ्यां 
क्रोधस्यैतत्फलोदबात्‌। जनो याति न लोभस्थ जित्वा भुक्त्वा दिशो भुव:॥'--(श्रीमदूभागवत ७। १५। २०) 

अर्थात्‌-कामका अन्त भ्रख-प्याससे और क्रोधका किसीके प्रहारसे वा कठोर वचन कहनेसे हो सकता 
है, पर दशों दिशाएँ जीतनेपर भी, उसके समस्त भोगोंके पानेपर भी लोभका अन्त नहों। 

श्रम भएउ बिसेषा 

पं०-(क) विशेष इससे कि फाल्गुन शुक्ल द्वादशीसे चैत्र कृ० १४ तक अर्थात्‌ १८ दिन-रात बराबर 
युद्ध हुआ है। (ख)--विभीषणकी ओर देखनेका भाव कि हमने इसे “लंकेश' पद दिया था और राबण 
लंकेश मरता नहीं, तब क्‍या होगा? अथवा, देखकर सूचित किया कि तुम उपाय कुछ जानते हो तो कहों। 

शीला--अन्तर्यामी होकर भी पूछते हैं। इसमें भाव यह है कि श्रीरामजी प्रणतकुद्ुम्बपाल हैं। अतएव 
वे विभीषणसे कहलाकर, कि 'इसे मारिये" तब रावणको मारेंगे।-(इसी तरह वालोकों तभी मारा था 
जब सुग्रीवसे कहला लिया था कि “बंधु त होड़ मोर यह काला)। 

रा० प्र०--रणक्रौड़ामें स्थूलदृष्टिमें श्रम हुआ। 

नोट--'अ्रम भएउ बिसेषा” वाल्मी० १०७ में कई बार घोर रोमहर्षण युद्ध होना लिखा है। दोनोंके चलाये 
हुए बाण न तो उत्साहरहित होते थे और न निष्फल ही। अपना-अपना कार्य अवश्य करते थे। अनेक प्रकारसे 
युद्ध हुआ। सूर्य प्रभारहित हो गये, पवनका चलना बंद हो गया, देवता बड़ी चिन्ताको प्राप्त हुए। तब रामचन्द्रजीने 
तीक्ष्ण बाणसे रावणका सिर काटा, सिर काटते हो पुनः ज्यों-का-त्यों वहाँ दूसरा सिर जम आता था, इस तरह 








*मुनि सिद्ध सुर-(का०)। 


मानस-पीयूष ५२० * श्रीमते रामचन्द्राय नमः + दोहा १०१ (३-४) 





सैकड़ों बार काटा और बराबर सिर नये जुड़ते जाते थे, न उसके सिरोंका अन्त होता था और न बाणोंका। 
यथा--'एवमेव शत छित्र॑ शिरसां तुल्यवर्चसाम्‌॥ न चैव रावणस्यान्तो दृश्यते जीवितक्षये।' (५७-५८) तब रामचन्द्रजीको 
चिन्ता हुई और वे विचार करने लगे कि जिन बाणोंसे हमने मारीच और खर-दूषणको मारा, क्रौंचवनमें कबंधको 
मारा, दण्डकारण्यमें विराधकों मारा, सप्तताल वृक्ष गिराये और बालीको मारा तथा समुद्रको क्षुब्ध कर दिया, चे 
सब सफल बाण विद्यमान हैं। फिर किस कारणसे वे रावणपर मन्दतेज हो रहे हैं। यथा--“मारीचो निहतो चैस्तु 
खरो यस्तु सदूषण: ॥ क्रौंचावटे विराधस्तु कबन्धो दण्डकाबने। थै; साला गिरयो भग्ना वाली च क्षुभितो उम्बुधि: ॥ 
त इमे सायका:ः सर्वे युद्धप्रात्यविका मम। किं नु तत्कारणं येन राबणे मन्दतेजस:॥ इति चिन्तापरश्चासीदप्रमत्तश्च 
संयुगे। बवर्ष शरवर्षाण राघवो रावणोरसि॥' (५९-६२) यह सोचकर पुनः सावधान हो बाणोंकी वर्षा करने 
लगे। फिर रोमहर्षण युद्ध हुआ। कभी पृथ्वीपर, कभी अन्तरिक्षमें और कभी पर्वतपर युद्ध होता। इस तरह सात 
दिन-रात निरन्तर युद्ध हुआ, क्षणमात्र बंद न हुआ।--'तत्पवृत्तं महद्युद्धं तुमुलं रोमहर्षणम्‌। अन्तरिक्षे च भूमौ च 
पुनश्च गिरिपूर्द्धनि॥ देबदानवयक्षानां पिशाचोरगरक्षसाम्‌। पश्यतां तन्महब्युद्धं सर्वरात्रमवर्तत॥ नैव रात्रिं न दिवस 
न मुहूर्त्त न च क्षणम्‌। रामरावणयोयुर््ध विराममुपगच्छति॥' (वाल्मी० १०७। ६४-६६) 

ऐसा घोर युद्ध हुआ। अतः कहा कि “श्रम भएउ बिसेया'। सर्ग १०७ होमें कई बार 'रोमहर्षण' 
युद्ध पद आया है। यधा--'एवं तु तौ सुसंक्रुद्धी चक्रतुय्युद्धपुत्तमम्‌। मुहूर्तमभवद्युद्ध॑ तुमुल॑ रोमहर्षणम्‌॥' (२८), 
“तत्पवृत्त पुनर्युद्धं तुमुलं रोमहर्षणम्‌॥' (४४), 'रामरावणयोयुंद्ध॑ सुधोर॑ रोमहर्षणम्‌॥' (५०), “तत्प्रवृत्तं महद्युद्धं 
तुमुलं रोमहर्षणम्‌॥' (६४) वाल्मोकीयका यह पूरा प्रसड़ “श्रम भएउ बिसेषा' से सूचित किया है। 

इसके बाद वाल्मी० १०९ में मातलिने यह देख रामचन्द्रजीको ब्रह्मास्त्रका स्मरण कराया है कि उसका 
प्रयोग कौजिये और अध्यात्म एवं आनन्द रामायणोंमें विभीषणकी ओर प्रभुका रुख करना लिखा है। 
यथा-'वै्ैर्बाणैहता दैत्या महासच्त्वपराक्रमा:। एते ते निष्फल यातो रावणस्य निपातने॥ इति चिन्ताकुले रामे 
समीपस्थों विभीषण:। उबाच राघवं बाक्यं ब्रह्मदत्तवरों हासौ॥' (अ० रा० १०। ५०-५१) अर्थात्‌ जिन- 
जिन बाणोंने महाबलवान्‌ पराक्रमी दैत्योंका वध किया वे रावणवधर्में निष्फल हो रहे हैं, इस प्रकार चिन्तित 
देख समीपस्थ विभीषण बोले कि ब्रह्माजीने इसे वरदान दिया है। 

इन शब्दोंसे यह भाव ध्वनित होता है कि रघुनाथजीने उनकी ओर दृष्टि की तब उन्होंने यह कहा था। 

उमा कालु मर जाकी ईछा। सो प्रभु जन कर* प्रीति परीछा॥३॥ 


सुनु सर्वज्ञ॒ चराचरनायक। प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक॥४॥ 

अर्थ-है उमा! जिनकी इच्छामात्रसे काल भी मर जाता है वहीं प्रभु अपने जनकी प्रीतिकी परीक्षा 
ले रहे हैं॥ ३॥ विभीषणजी बोले-हे सर्वज्ञ! हे चराचरके स्वामी! हे शरणागतके पालन करनेवाले! हे 
देवता और मुनियोंके सुख देनेवाले! सुनिये॥ ४॥ 

नोट--१/कर प्रीति परीक्षा ' इति। (क)--इसका प्रेप हमपर दृढ़ है या नहीं। इसका प्रेम हममें है या भाईमें, 
प्रेम दृढ़ होगा तो माधुर्यमें न भूलेगा, न दृढ़ होगा तो घबड़ा जायगा। भाईपर प्रेम होगा तो जाभिकुण्डमें अमृतका 
होना न बतायेगा, हममें प्रेम होगा तो तुरंत बता देगा। मा० मयंककार लिखते हैं कि विभीषणकी ओर देखा 
'कि--मैं तुम्होरे ही लिये यह परिश्रम कर रहा हूँ, अतएब तुम उसकी यृत्युका उपाय बताओ। अथवा, रावणकी 
प्रचण्डताका कारण पूछा। अथवा, जनाया कि इस परिश्रमकी लाज तुम्हारे हाथ है। इत्यादि।' 

वि० त्रि०--'उम्रा कालु मरु“““““परीछा'। विभीषणजी सरकारके सचिव हैं। यथा-“कह लंकेस मंत्र 
लगि काना।” रावण भी कहता है कि “सचिव सभीत बिभीयन जाके। बिजय बिभूति कहाँ जग ताके ॥' 
समयपर बिना पूछे भी मन्त्र देते हैं, यथा--'इहाँ बिभीषतु मंत्र बिचारा। सु्हु नाथ बल अतुल उदारा॥' 
सो विभीषण देख रहे हैं कि कितनी बार सिर काटा गया, रावण मरता नहीं है। सुर, सिद्ध, मुनि प्रभुका 





+ कर जन-(का०)। 


दोहा १०१ (५-६) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्े ५२९ लड्ढाकाण्ड 





क्लेश देखकर व्याकुल हो गये। यथा-'सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस।” पर विभीषण जानते हुए, 
कि सिर काटनेसे यह नहीं मरेगा, कुछ बोलते नहों, तो कया इसके आत्मसमर्पणमें कुछ कमी है, भाईका 
कुछ प्रेम हृदयमें छिपा तो नहीं है; अत: उसकी परीक्षाके लिये श्रमनाट्य करते हुए उसकी ओर देखा। 
विभौषणने तुरंत उपाय बता दिया। रावण मारा गया। परंतु सरकारको शह्भामें तथ्य था। विभीषणके हृदयमें 
रावणके प्रति प्रेम इतना छिपा था कि वह स्वयं नहीं जानता था (यथा--“बन्धु दसा देखत दुख कीन्हा) 
मेघनाद-कुम्भकर्णकी दशा देखकर दुःख नहीं किया, फिर भी विभीषण प्रीति-परीक्षामें उत्तीर्ण हो गये। 
पूर्णाू १०० में ९० पानेवाला छात्र उत्तम श्रेणीमें उत्तीर्ण माना जाता है। 

नोट-२ (क) 'सर्बज्ञ” का भाव कि आप इसका मरणकाल और इसके हृदयमें अमृतका होना सब 
कुछ जानते हैं तो भी मुझसे पूछते हैं। तीनों कालका ज्ञान आपको है। (ख)--/चराचरनायक'। भाव 
कि चर-अचर (जड़-चेतन) सभीके आप नियन्ता हैं, सबको व्यवस्था आपके ही हाथमें है, आप सब 
लोकोंके स्वामी हैं, यथा--'ते तुम्ह सकल लोकपति साईं। पूछेहु मोहि मनुज की नाडं॥, “सुनहु राम तुम्ह 
कहाँ मुन्ति कहहीं। राम चराचर नायक अहहीं॥' 

(ग) 'प्रततपाल!। गौ, सुर, विप्र, सिद्ध, मुनि आदि सब आपकी शरण जा चुके हैं, यथा-'मत्र 
बच क्रम बानी छॉड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा।' “मुनि सिद्ध सकल सुर परम भातुर नमत नाथ 
पद कंजा।' (१। १८६) इत्यादि। और आप सबको अभय दे चुके हैं, यथा-“जनि डरपहु मुनि सिद्ध 
/ , 'निश्चिचरहीन करउँ महि भुज उठाड़ पन कीन्ह।' (३। ९); अतएव अब इसे मारिये। (घ) 
आप “सुर मुनि सुख दायक' हैं। सुरमुनिको दुष्टक वधसे ही सुख होगा। यथा--“जब रबुनाथ समर रिपु 
जीते। सुर तर मुनि सब के भय बीते॥' (आ० २१। १), 'पंचबटी बसि श्रीरशुन्ायक। करत चारित सुरमुनि 
सुखदायक ॥; अतएव उसे मारिये। (पं०) इस समय सुरमुनि सब दुःखित हैं, यथा--'प्रभु क्रीड़त मुनि 
सिद्ध सुर ब्याकुल देखि कलेस।' (१००) अत: अब उसे मारकर उनका क्लेश दूरकर सबको सुखी कीजिये। 

नाभि कुंड पियूष* बस याके | नाथ जिअत रावन बल ताके॥५॥ 


सुनत बिभीषन बचन कृपाला | हरषि गहे कर बान कराला॥६॥ 

अर्थ-इसके नाभिकुण्डमें अमृतका निवास है। हे नाथ! रावण इसके ही बलपर जीता है॥ ५॥ विभीषणके 
बचन सुनकर कृपालु रघुनाथजोने प्रसन्न हो हाथमें कठिन भीषण बाण लिये॥ ६॥ 

४छ" समानार्थी श्लोक-'नाभिदेशेउमृं तस्थ कुण्डलाकारसंस्थितम्‌॥ तच्छोषयानलास्त्रेण तस्य मृत्युस्ततो 
भबेत्‌। विभीषणवच: श्रुत्वा राम: शीघ्रपराक्रम:॥ पावकास्त्रेण संयोज्य नाभिं विव्याध रक्षसः।' (अ० रा० 
३११। ५३-५५) अर्थात्‌ इसके नाभिमें कुण्डलाकार अमृत स्थित है, उसे प्रथम पावकास्त्रसे सोख लीजिये 
तब उसको मृत्यु होगी। विभीषणके बचन सुन प्रभुने वैसा ही किया। 

टिप्पणी-१ “एहिके हृदय बस जानकी” यह त्रिजटाकी वाणों है जो हनुमनताटकसे मिलती है। यह 
बात श्रीसीताजीके बोध्यार्थ कही गयी। और, “नाभि कुंड पियूष बस याके ' यह विभीषणवाक्य है जो अध्यात्मसे 
मिलता है। यह रामचन्द्रजीके प्रश्कका सहेतुक उत्तर विभीषणजीने दिया है। अतएब दोनों वाक्योंमें विरोध 
नहीं है। वा, कल्पभेदसे दोनों ही ठीक हो सकते हैं। जैसे नाटकमें परशुराम धनुषयंज्ञमें आकर मिले 
और वाल्मी० रा० में विवाहके पीछे मार्गमें जनकपुरसे १२ कोसपर मिले। 

मा० मु० टी०-अपने मनसे मारनेसे ऐश्वर्य प्रकट होगा, अतः विभीषणकी ओर देखा। श्रीजानकीजीका 
ध्यान छूटनेपर रामजीने विभीषणसे पूछा, इस तरह दोनों हेतुओंका यथार्थ निर्दाह हो गया। 

मा० म०--'हरषि” और “कृपाला' से सूचित किया कि विभीषण रावणके मरणका हाल भली प्रकार 
जानता है। अत: उसके बताये उपायके सहारे मैं रावणको मार सबको सुखी करूँगा। 








* “नाभी कुण्ड सुधा।'--(का०)। “नाभि कुण्ड पियूष।'--छ०, भा० दा०। 


मानस-पीयूष ५२२ # श्रीमते रामचन्द्राय नम: + दोहा १०१ (५-६) 





नोट--१ जिज्ञासा होती है कि अमृत रावणके नाभिमें कहाँसे हुआ और यदि रावणके शरोरमें अमृत 
था तो वह मरा क्यों? क्या अमृतका गुण जाता रहा? अमृतके प्रभावसे वानर जीवित हो गये, राहु अमर 
हो गया। मर्यादापुरुषोत्तमके समक्ष अमृतका गुण नष्ट होता समझमें नहीं आता? इस सम्बन्धमें वन्दनपाठकजी 
लिखते हैं कि अमृतके वाससे जनाया कि सञ्जीवनी-मुद्रा करता है। योगमें अमृत-प्रादुर्भाव एक मुद्रा है 
जिससे ब्रह्मरन्ध्रसे अमृत स्न॒वता है और नाड़ीद्वारा नाभिकुण्डमें आता है। किल्जितृ-किश्चित्‌ भरते-भरते बहुत 
कालमें नाभिकुण्ड भर पाता है। बे० भूषणजीने इसीको विस्तारसे यों लिखा है-- 

श्रीपातझलि-ऋषि-प्रणीत योगदर्शन विभूतिपादके--'नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम्‌॥, कण्ठकूपे क्षृत्पिपासानिवृत्ति:॥, 
कूर्मनाडां स्थै्यम्‌॥, मूर्थज्योतिषि सिद्धदर्शनम्‌॥, प्रतिभाद्वा सर्वम॥' (२९--३३) इन सूत्रोंपर भाष्य करते 
हुए कुछ दिद्ानोंने प्रसंगवशात्‌ यह भी बतलाया है कि योगकी सझ्ीवनी-मुद्राके द्वारा ब्रह्मरन्श्रमें जिह्लासे 
अमृतस्नाव होता है और बह अमृत “कूर्मनाड्यां स्थैर्यम्‌॥' (३१) इस सूत्रके वर्णित कुण्डलित सर्पकी तरह 
स्थित कूर्म (सुषुम्णा) नाड़ीसे प्रवाहित होकर नाभिकुण्डमें जाता है और जाकर शरीरको परिपुष्ट बनाया 
करता है। यदि युक्तिसे उस अमृतका अधिक सर्जन करके संग्रह किया जाय तो सैकड़ों वर्षोमें नाभिकुण्डमें 
विशेषरूपसे संस्थित होकर मृत्युसे रक्षा किया करता है। वैद्यक शास्त्रके अनुसार-'अबःपलं गुग्गुलुरलयोज्य: 
पल्ब्रयं व्योषपलानि पतञ्ञ। पलानि चाष्टौ त्रिफलारजश्न करें लिहन्‌ यात्यमरत्वमेव॥' ( भावप्रकाश) (पाँच गुंजाका 
एक माशा, सोलह माशाका एक कर्ष और चार कर्षका एक पल) एक पल शुद्ध लौहचूर्ण, तीन पल 
गुग्गुल, पाँच पल व्योष (समभाग-शुंठि-मरीच-पिप्पली) और आठ पल त्रिफलाचूर्ण। सब ओषधियॉंको 
'एकमें मिलाकर उसमेंसे नित्य एक कर्ष सेवन करे तो सौ वर्षमें देवत्वको प्राप्ति हो जाती है। अर्थात्‌ 
जिह्मासे अमृतस्नाव होने लगता है, जिसे योगकी सञ्जीवनी-मुद्राद्वारा कुण्डलित सर्पबत्‌ू-स्थित कूर्मनाड़ीके 
रास्ते नाभिकुण्डमें संगृहोत किया जा सकता है। 

रावण महाविद्वान्‌ परम तेजस्वों योगी तो था ही उपर्युक्त प्रकासे औषध और योगके द्वारा अपनी 
नाभिमें अमृत संचित कर रखा था। स्मरण रहे कि उपर्युक्त क्रियाद्वारा संचित अमृत ही सुखाया जा सकता 
है। समुद्रमन्‍थनसे प्राप्त अमृत नहीं, क्योंकि वह नाभि या शरीरके किसी एक देशमें संचित नहीं होता 
अपितु पान करते मात्र ही सारे शरीरमें प्रविष्ट होकर अमर बना देता है। 

पं०--“कृपाला' का भाव कि विभीषणपर (रावणवध करके राज्य देनेकी), सुर-मुनि आदिपर एवं 
रावणपर (उसको शापमुक्त करनेकी) कृपा करेंगे। 

नोट--२ वाल्मी० में अगस्त्यजीके दिये हुए ब्रह्मास्त्रसे रावणबध हुआ। इस अस्त्रके वेगमें पषन, फलके 
अग्रभागमें अग्नि और सूर्य, सर्वाड्रमें ब्रह्मा और भारीपनमें मेरु और मन्दराचलके अधिष्ठाता देवता वास करते 
थे--(वाल्मी० १०८। १--१३) | यह चमकते हुए सुवर्णके सुन्दर पंखोंसे भूषित तथा सब प्राणियोंके तेजसे इसका 
निर्माण हुआ था। इसकी करालताके विषयमें वाल्मीकिजी लिखते हैं कि वह काले नागके विषके समान चमकता 
था और मनुष्य, हाथी-घोड़ोंके समूहोंकों तथा द्वारों, परिधों, पर्वतॉंको भेदन करनेवाला था। नाना प्रकारके रुधिरोंसे 
युक्त तथा चर्बीके लगनेसे अति दारुण, वज़सारसे भी पुष्ट, महानादयुक्त, नाना प्रकारके संग्रामोंके लिये दारुण, 
देखनेवालोंको भयप्रद, विषधर श्वास छोड़ते हुए सर्पके समान भयड्जूर, युद्धमें नित्य ही कंक, गृदूध्र, श्रृगालादिको 
भोजन देनेवाला, यमराजके समान सबको भय पहुँचानेवाला और गरुड़के चित्र-विचित्र पंखोंसे युक्त था। रामचन्द्रजीने 
बेदविधिसे उसे मन्त्रित करके धनुषपर चढ़ाया और रावणके मर्मस्थल हृदयको वेधनेके लिये छोड़ा। 

'प० प० प्र०--'नाभि कुंड पियूष““““ “” इति। आध्यात्मिक अर्थ--'नाभि'>परा वाणी और वृत्तियोंका 
उद्गम स्थान। दशशीश-दशेन्द्रियोंकी वृत्तियाँ। बीस भुज-दस प्राण और दस इन्द्रियोंके कर्म। जबतक वृत्तियोंके 
उद्‌गमका कारण नष्ट न होगा, तबतक वृत्तिरूपी सिर बढ़ते ही रहेंगे, नित्य नवीन उत्पन्न होते रहेंगे। (विषयाकार) 
वृत्तिका कारण वासना है। वासनाका मूल द्वैत-भाव है और द्वैद-भावका मूल अज्ञान है। जबतक अज्ञान गुप्तरूपमें 
भी रहता है तबतक वृत्तिकों काटनेसे भी अहंकाररूपी रावण न मरेगा। अज्ञानका पूर्ण नाश ज्ञान-विज्ञानसे ही 








दोहा १०१ (७--९) 'लड्ढाकाण्ड 


होगा। ज्ञान अग्नि है--'ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्‌ कुरुते' (गीता)। “तच्छोषथाउनलास्त्रेण तस्य मृत्युस्ततो 
भवेत्‌।' ऐसा विभीषणजीने अ० रा० में कहा भी है। 'ज़ान अनल जिमि कसे कनकसे।' मानसमें भी कहा ही है। 
वबाल्मी० के अनुसार ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया है। यह भी आध्यात्मिक दृष्टया ठौक ही है। ब्रह्म>ब्रह्माकार 
यृत्ति-सोहमस्मि ड़ति वृत्ति अखंडा। यही अस्त्र है। यह अस्त्र भी पावकमय हो होता है। 
योगदृष्टिसे सारांशरूपमें अर्थ इस प्रकार है--“नाभिदेशेउमृतं तस्य कुण्डलाकारसंस्थितम्‌।' (अ० रा०) 
यह कुण्डलाकारस्थित अमृत कुण्डलिनीशक्ति है जो कुण्डलाकार नाड़ीमें स्थित है। पर वह सुप्त (गुल्त- 
सौ) है। जब प्राणापानके संयोगजनित अग्निसे यह जाग उठेगी और अपना निवासस्थान छोड़कर बाहर 
निकलेगी तब वह विषयाकार वृत्तियॉंको खा जायगी और सहस्त्रारचक्रमें ब्रह्मरन्श्रमें मन-प्राणॉंसहित जीवको 
ले जायगी और उन्मनी प्राप्त कराके जीवशिवैक्य स्थापितकर अहंकारका विनाश कर देगी। विशेष विस्तारके 
लिये योगशिखोपनिषद्‌ तथा श्रीमदाचार्यकृत “सौन्दर्य लहरी' के प्रथम ४१ श्लोक देखिये। 
असुभ ' होन लागे तब नाना। रोवहिं खर सृकाल बहु* स्वाना॥७॥ 
बोलहिं खग जग आरति हेतू। प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू॥८॥ 
शब्दार्थ--सूकाल (श्रृगाल)-गीदड़। केतु-पुच्छल तारा। इस ताराके साथ एक प्रकाशकी पूँछ दिखायी 
देती है। ये अनेक माने जाते हैं। 
अर्थ-तब अनेक अपशकुन होने लगे। बहुत-से गदहे, गोदड़ और कुत्ते बहुत जोर-जोर रोने लगे॥७॥ 
रहे हैं। जहाँ-तहाँ केतु आकाशमें प्रकट हो गये हैं॥ ८॥ 
” इति। खर, श्रूगाल और श्वानकों एक साथ कहने और एक ही क्रिया 
देनेका भाव कि ये सब एक साथ मिलकर रो रहे हैं। बथा-- विनेदुरशिवा गृध्षा वायसैरभिमिश्रिता: --( वाल्मी० 
९५। ४७)। इनका एक साथ रोना परम भयावन है मानो कालदूत उल्लू बोलते हैं। पंजाबीजी लिखते 
हैं कि श्रृगालका दिनमें, गदहोंका राज़िमें और कुत्तोंका दिन-रात दोनोंमें रोना भयदायक है। कौओंका रातमें 
और उलूकादिका दिनमें बोलना दुःखदायक है। 
नोट-२ ”इति। (क) यथा--'रटहिं कुभाँति कुखेत करारा: 'द्विजाश्न नेदुर्घोराश्च 
“गोमायु गीध कराल खररब स्वान बोलहिं अति बनें। जनु कालदूत ऊलूक बोलहिं बचन परम भयावने।' (७७ 
छंद) पुनश्च 'कुर्वत्यः कलहं घोर सारिकास्तद्रथ॑ प्रति। निपेतु: शतशस्तत्र दारुणं दारुणा रुता:॥' (वाल्मी० १०६। 
३१) अर्थात्‌ जोरसे लड़ती हुई सैकड़ों मैनाओंके झुण्ड दारुण शब्द करते हुए रावणके रथपर गिरते हैं। पुनः 
भाव कि गीदड़, कुत्ते और गर्दभ पृथ्वीपर रोते हैं और गृद्ध्व नभपर रावणके रथपर उड़ते हुए शब्द करते हैं, 
इस तरह पृथ्वी और आकाश दोनोंमें अमड्रल शब्द हो रहा है। (ख) “जग आरति हेतू' से जनाया कि पक्षी अमज्जल 
शब्द कर रहे हैं। यथा--' गृष्चैरनुगताश्षास्य बमन्तों ज्वलनं मुख: । प्रणेदुर्मुखमीक्षत्य: संरव्धप्रशिवं शिवा: ॥' (वाल्मी० 
१०६। २७) अर्थात्‌ पीछे-पीछे गृप्न और आगे-आगे श्रृगाल रावणका मुख देखते हुए ज्वालाएँ उगलते हुए अमड्जल 
शब्द कर रहे हैं। करुणासिन्धुजो लिखते हैं कि 'जग आरति हेतू” का भाव यह है कि वे अपनी बोलीसे जनाते 
हैं कि जगत्‌के प्राणी रावणसे पीड़ित हैं (इनका दुःख शीघ्र हरण कीजिये)। अथवा “जग आरति हेतू”'खग' 
का विशेषण है अर्थात्‌ जो जगत्में दुःखके कारणस्वरूप हैं--(रा० प्र०)। 
नोट--३ “प्रयट भए इति। केतुका उदय जहाँ होता है वहाँ उत्पात, उपद्रव, घोर घटनाएँ, 
राजाकी मृत्यु, प्रजाकों क्लेश इत्यादि अरिष्ट होते हैं। यथा-'उदय केतु सम हित सबहीके, 'दुष्ट उदय 
जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू॥' (3० १२१) “जग आरति हेतू” दीपदेहरी है। केतुका 
उदय 'जग आरतिहेतु' है और पक्षियोंका शब्द भी। 
दस दिसि दाह होन अति लागा। भएउ परब बिनु रबि उपरागा॥९॥ 















* बहु सृकाल खर-(का०)। 


मानस-पीयूष ५२४ # श्रीमते रामचद्धाब नम: के दोहा १०१ (१०) छंद 





मंदोदरि उर कंपति भारी | प्रतिमा स््रवहिं नयन मग बारी॥१०॥ 
शब्दार्थ-उपराग-सूर्य वा चन्द्रग्रहण | परब ( पर्वत)-पुण्यकाल | 'पर्व क्लीबं महे ग्रन्धौ प्रस्तावे लक्षणान्तरे। 
दर्शप्रतिपदो: संघौ विषुवत्प्रभृतिष्वपि॥' (इति मेदिनी), 'पर्व स्थादुत्सवे ग्रन्थौ प्रस्तावे विषुवादिषु। दर्शप्रतिपदो: 
संधौ स्यात्तिभेः पञ्चकान्तरे॥' (इति धरणि:)। (प० प० प्र०) यहाँ 'रवि” के सम्बन्ध अमावस्यासे तात्पर्य 
है। अमावस्या और प्रतिपदा एवं पूर्णिमा और प्रतिपद्की सन्धिमें ही ग्रहण पर्व होता है। 
अर्थ-दसों दिशाओंमें अत्यन्त दाह होने लगा। बिना पर्वके (परिवाकी संधिबिना) ही सूर्व्रहण होने लगे॥९॥ 
मन्दोदरीका हृदय बहुत कांप रहा है। प्रतिमाएँ नेत्रमार्गसे जल गिरा रही हैं अर्थात्‌ रो रही हैं॥ १०॥ 
नोट--१ (क) “दस दिसि दाह”“””! यह चिह छत्रभंगका सूचक है, यथा--'हाट बाट नहीं जाड़ निहारी। 
जनु पुर दहँ दिसि लागि दबारी॥' (२। १५९। १) सब ओर ऐसा ताप हो रहा है जैसा अग्नि लगी होनेसे 
होता है। वाल्मीकिजी लिखते हैं कि गुलदुपहरीके फूलके वा लालचन्दनके समान परम दारुण लाल रंगकी 
संध्यासे लंका आच्छादित हो गयी जिससे वहाँकी भूमि दिनमें भी जलती हुई-सो दिखायी देने लगी। 
यथा-'सन्ध्यया चावृता लंका जपापुष्पनिकाशया। दृश्यते सम्प्रदीप्तेव दिवसेडपि वसुन्धरा॥' (वाल्मी० १०६। 
२३), “रक्तचन्दनसंकाशा सम्ध्या परमदारुणा।' (वाल्मो० २३। ६) वही भाव यहाँ “दस दिसि दाह” से सूचित 
किया है। (ख) “अति लागा' से जनाया कि कई दिनसे दाह होता था पर आज अत्यन्त बढ़ गया है। 
पं०--'द्ससों दिशामें दाह' का भाव कि प्रात:-सन्ध्यामें पूर्व दिशा और सायं-सन्ध्यामें पश्चिम दिशा 
रक्तवर्ण रहती है। 
नोट--२ “भएउ परब बितु”“””” इति। भाव यह कि चैत्र कृ० १४ को रावणका वध हुआ। उसी 
दिन सूर्यग्रहण हो गया था, यह अघटित घटना हुई। इसीसे उसे उत्पात और अपशकुन कहा। 
नोट--३ “कंपति भारी "-अपशकुन देखकर। अथवा यह स्वयं अपशकुन है। (ख) “भारी” का भाव 
कि जब सेना उतरकर आयी थी, तभी मन्दोदरी काँप उठी थी, उसको अपने सोहागकी चिन्ता हुई थी, 
यथा-'अस कहि तयन नीर भरि गहि पद कंपित गात। नाथ भजहु रघुबीर पद अचल होड़ अहिवात॥' 
(दोहा ७) फिर राम-रावण-युद्धके आरम्भमें मातलिके घायल होनेपर जब प्रभु क्रुद्ध हुए उस समय मन्दोदरीके 
हृदयमें पुनः कम्प हुआ था, यथा--'मंदोदरी उर कंप कंपति कमठ भू भूथर तसे।' (९०) और अब तो रावणके 
मृत्युसूचक सब अपशकुन उपस्थित हैं, मृत्यु होनेको हो है, अत: अब “उर कंपति भारी। पुनः, पहले जो 
उत्पात हुए (समुद्रादिका त्रसित होना) वह (“मनुजाद सब मारुत ग्रसेको छोड़ अन्य) सब मन्दोदरीने देखे 
नहीं थे, दिव्यदृष्टि देवता ही उसे जान पाये। इससे मन्दोदरीके हृदयमें तब कम्पमात्र था और अब सब 
उत्पात उसके दृष्टिगोचर हैं। अत: 'उर कंपति भारी । 
पुनः प्र० स्वामीजी भी ठीक ही लिखते हैं कि “उत्पातों और अपशकुनोंको देखनेसे मन्दोदरीका 
हृदय काँपने लगा' ऐसा समझनेकी आवश्यकता नहीं है। अत्यन्त दूरस्थित प्रेमी व्यक्तिपर जब कोई महान 
संकट आ पड़ता है अथवा उसकी मृत्यु समीप आ जाती या हो जाती है तब सैकड़ों कोसॉपर स्थित . 
दूसरे प्रेमी व्यक्तिक हृदयमें दृष्ट या श्रुत कारणके बिना भी कम्प होता है। यह अनेकोंकी अनुभूति है। 
नोट--३ “प्रतिमा स्रवहिं”“' यथा--“रुदन्ति देवलिड्वानि स्विद्यन्ति प्रचलन्ति च'-(अ० रा० ५। 
२९; माल्यवंतवाक्य)। 
छंद-प्रतिमा रुदहिं* पत्रिषात नभ अति बात बह डोलति मही। 
बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही॥ 
'उतपात अमित बिलोकि नभय सुर बिकल बोलहिं जय जए। 


सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए॥ 
* र्ूवहि | सुर मुनि।-(का०)। 





दोहा १०१ (छंद) # श्रीमद्रामचन्द्रचरणौ शरण प्रपद्ये # ५२५ लक्लाकाण्ड 





अर्थ-प्रतिमाएँ रोती हैं, आकाशसे बहुत वद्रपात होते हैं, अत्यन्त प्रचण्ड वायु चलने लगी, पृथ्वी हिलती 
है, बादल रुधिर, बाल और रज बरस रहे हैं। इत्यादि, अत्यन्त अमड्जल हो रहे हैं, उनको कौन कह सकता 
है? (अर्थात्‌ इसीसे मैं इतनेहीसे बस करता हूँ।) असंख्यों उत्पात देखकर आकाशमें देवता व्याकुल होकर 'जय 
जय' बोल रहे हैं (भाव कि व्याकुल हैं फिर भी स्वार्थ सधते देख प्रसन्न हो रहे हैं कि अब अवश्य शत्रुवध 
होनेको है)। देवताओंको भयभीत जानकर कृपालु रघुनाथजी धनुषपर बाण सन्धान करने लगे। 

नोट--१ (क) “पत्रियात नभ' प्रथम चरणमें कहकर चौथे चरणमें “बरषहिं बलाहक' कहा। दोनोंको 
पृथक्‌ करनेका भाव कि बिना बादलके वज्रपात होता है। यथा--'निपेतुस्द्राशनयः सैन्ये चास्य समन्ततः। 
दुर्विषह्वस्थता घोरा विना जलधरस्वनम्‌।' (वाल्मी० १०६। २९) अर्थात्‌ रावणकी सेनामें चारों ओर भयंकर 
और असहा वज्रपात होने लगे और बिना बादलके ही आकाशसे बादलके गरजनेका शब्द सुन पड़ने लगा 
(च०-सं०)। (ख) “अति बात बह!। भाव कि वायुमण्डल बाँधकर प्रचण्ड वेगसे वज़पातका-सा शब्द 
करती हुईं प्रतिकूल चल रही है। यथा--'प्रतिलोम बा बायुर्निधांतिसमनिःस्वन:'-(वाल्मी० ५१। २४; 
धूम्राक्षयुद्धेग समय) अर्थात्‌ वज़के समान शब्द करता हुआ पवन सम्मुखसे बहने लगा। पुनः, यथा-“बाता 
मण्डलिनस्तीत्ा व्यपसब्यं प्रचक्रमु:।' (वाल्मी० १०६। २१) अर्थात्‌ मण्डलाकार बबंडरके आकारकी वायु 
बायीं ओर चक्कर काटकर चलने लगी। यह वायु रावणके प्रतिकूल चल रहो है जिससे उसके नेत्रोंमें 
धूलि भरनेसे उसके नेत्र बंद हो जाते हैं, यथा--'प्रतिकुलं बबी बायू रणे पांसून्समुत्किरन्‌। तस्य राक्षसराजस्य 
कुर्बन्‌ दृष्टिविलोपनम्‌।' (वाल्मी० १०६। २८) (ग) “डोलति मही” भाव कि जहाँ रावण है वहाँकी भूमि 
काँपने लगी, यथा--'राबणश्च बतस्तत्र प्रचचाल वसुन्धरा'--(वाल्मी> १०६। २५)। (घ) “बरषहिं बलाहक 
रूधिर” इति। रुधिर स्वयं ही भयंकर है, उसपर भी गर्म-गर्म बरस रहा है। यथा--'शोणितेनाभिवर्षन्त 
लक्लामुष्णेन सर्वदा।' (अ० रा० ५। २९; माल्यवंतवाक्य) | एवं 'बवर्ष रुधिरं देवो रावणस्व रथोपरि'-- (वाल्मी० 
१०६। २१)। (घ) 'असुभ अति! अर्थात्‌ अमित और अत्वन्त अम्ल अशुभ हैं, राज्य-नष्टटसमय या 
मृत्युकालमें हो ऐसे अशुभ होते हैं। यथा--'उल्कापाते च दिग्दाहे भूकम्प केतुदर्शने। त्रयोदशदिने पक्षे क्षत्रभंगो 
न संशयः॥' (वाराहीसंहिता) 'समुत्पेतुरथोत्याता दारुणा रोमहर्षणा:। रावणस्थ विनाशाय राघवस्थ जयाय च॥' 
(वाल्मी० १०६। १९) अर्थात्‌ उल्कापात, दिशाओंका दाह, भूकम्प और केतुदर्शनसे तेरह दिनसे लेकर 
पक्षभरमें राज्य नष्ट-भ्रष्ट होता है इसमें संशय नहीं। रावणके नाश और रामजीके जयके लिये भी दारुण 
उत्पात होने लगे। 

नोट-२ (क) “उत्पात अमित” इति। भाव कि इतने ही नहीं, सभी ओर और सभी 'मृत्युसूचक 
उत्पात हो रहे हैं। वाल्मी० १०६ में १३ श्लोकोमें उत्पातोंका वर्णन कर फिर भी उन्होंने यही लिखा है 
कि रावणके विनाशके लिये इस तरहके बहुत-से दारुण उत्पात हुए जितको देख देखनेवालोंको भय -होता 
था। यथा--'एबंप्रकारा बहबः समुत्पाता भयावहा:। राबणस्य विनाशाय दारुणा: संप्रजज्ञिर॥' (३३) (ख) “सुर 
बिकल बोलहिं जय जए”। सुस्मुनि निज पक्षकी रक्षा एवं भलाईके लिये व्याकुल हैं, उनको चैन नहीं पड़ता। 
यथा-' स्वार्थ बिबस बिकल तुम्ह होहृ।' (२। २२०। २) अथबा, व्याकुलसे जनाया कि वाणी गदगद है, 
मुँहसे वचन नहीं निकलता। फिर यह सोचकर कि अ्रभुने रावण-बध-हेतु बाण लिया है और इसीसे ये उत्पात 
हो रहे हैं, बे जय-जयकार कर रहे हैं।' (रा० प्र०) पुनः, जो अमंगल हो रहे हैं वे रावणकी ओर हो 
रहे हैं और श्रीरामचद्धजोके सामने सब कल्याणकारक सौम्ब निमित्त दिखायी दे रहे हैं, जो रघुनाथजोकी 
जय बता रहे थे। इन्हें देख श्रीरामजी हर्षित हुए। “रामस्थापि निमित्तानि सौम्यानि च शिवानि च। बभूवुर्जयशंसीनि 
प्रादुर्भूतानि सर्वश:॥ निमित्तानि च सौम्यानि राघवस्थ जवाब च। दृष्ठा परमसंह्टो हत॑ मेने च रावणम्‌॥' (वाल्मी० 
१०६। ३४-३५) निज जयसूचक इस प्रकारके शुभ शकुनोंको देख श्रीरामजी अत्यन्त हर्षित हुए और रावणको 
मरा हुआ समझा। अतएव देबादिका व्याकुल होना इससे है कि यद्यपि लंकामें घोर उत्पात देख पड़ते हैं 
तथापि रावण मरता नहीं, न जाने मरे या न मेरे। और श्रीरामजीको ओर मड्भलशकुन होते देख हर्ष होनेसे 





मानस-पीयूष ५२६ # श्रीमते रामचद्धाय नमः # दोहा १०१, १९०२( १-२) 





जय-जयकार करते हैं। पंजाबीजीका मत है कि 'रावणका अद्भुत पराक्रम देख मरण निश्चय नहीं होता, 
न जानें कौन जीते यह संदेह है, अत: व्याकुल हुए और “जय जए' चालाकौके शब्द हैं, इसमें नाम किसीका 
नहीं है यद्यपि जीसे तो रघुनाथजीकी ही जय चाहते हैं पर अपनी बचत भी रखे हैं कि यदि रावणकी 
जय हुई तो हम कह देंगे कि तुम्हारी ही तो जय बोलते थे।' 

दो०--खैंचि सरासन श्रवन लगि* छाँड़े सर एकतीस। 


रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस॥१०१॥ 
अर्थ-कानोंतक धनुषकों खांचकर श्रीरघुनाथजीने इकतीस बाण छोड़े। उनके बाण ऐसे चले मानों 
कालसर्प चल रहे हैं॥ १०१॥ 

7७ “खेंचि सरासन अवन लगि' इति। ताटका, सुबाहु, मारीच, विराध और कबन्धादिके मारनेमें शरासन 
तानना नहीं कहा गया। बालिवधमें केवल तानना कहा है; यथा--'मारा बालि राम तब हृदय माँझ सर 
तानि॥” (४। 4) और खर-दूषण, कुम्भकर्ण और रावणयुद्धमें श्रवणपर्यन्त धनुषका तानना कहा गया है। 
क्रमसे प्रमाण ग्रैथा- 

१ खरदूष॑पा--“तानि सरासन श्रवन लागि युनि छाँड़े न्रिज तीर/““““॥#' (३। १९) 

;$ तब चले बान कराल। फुंकरत जनु बहु ब्याल॥# 
२ कुम्भकर्ण--'सभव देव करुनानिधि जानेठ। श्रबन प्रजंत सरासन तानेउ॥“““+ 
तब फिर कोपि तीक्र सर लीन्हा। धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा॥' (७०। १, ४) 

३ रावण--मातलिके मारे जोनेपर कोप करके तब “तानेउ चाप शअ्रवत लगि छाँड़े बिसिख कराल॥' 
(९०) और फिर वधके समय यहाँ। 

'प० प० प्र०-कुम्भकर्ण-युद्धमें (प्रभुके बाण 'काल सर्प जनु घले सपच्छा॥' (६७। ३) और रावणके 
साथ प्रथम युद्धमें “चले बात सपच्छ जनु उरगा॥'(९१। १) काल कुम्भकर्णके वशमें न था अतः वहाँ 
"काल सर्प! कहा। रावणके घोड़े सर्पदंशसे मरने योग्य थे अतः उसके घोड़ों आदिके मारनेके लिये 'सपक्ष 
उरग समान” बाण चलाये गये। पर काल रावणके वशमें था, फणीश रावणके वशमें न थे, अतः राबणका 
वध करनेके लिये “काल फत्रीस” समान बाणोंका चलाना कहा गया। कितनी सावधानी है! 

पूर्ण बल लगाना होता है तब कानतक धनुष खींचा जाता है। ३१ बाण जोड़नेका कारण कवि 
स्वयं आगे देते हैं-दस सिरोंके लिये १०, २० भुजाओंके लिये २० और एक हृदयबेधनके लिये।+ 

पु० रा० कु०-फणीश अकेले ही समर्थ हैं और यहाँ तो ३१ फणीश हैं तब प्राण कैसे बच सकते हैं। "कालफणीश' 
का भाव कि ये प्राण हरण करने जा रहे हैं, काल प्राण हरता ही है। यहाँ उक्तबिषया उस्तूत््रेक्षा है। 

सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा॥ १॥ 
लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा॥ २॥ 
अर्थ--एक बाणने नाभिके अमृत कुण्डको सोख लिया। अन्य ३० बाण कोप करके उसके सिर 
और भुजाओंमें जा लगे॥ १॥ बाण सिरों और भुजाओंको काटकर ले चले। सिरभुजरहित धड़ पृथ्वीपर 
नाचने लगा॥ २॥ 








* आकरपेठ धनु कान लगि--(क०)। 

| रा० प्र०--“कानतक धनुष खौंचनेका भाव कि रावण ब्रुतिविरोधो है। और राम श्रुतिपालक हैं। अत: रावणवधहेतु 
श्रुति (कान) पर्यन्त खोंचा। ३१ तीरका भाव कि २४ और ३० से परे।'-[पर ये भाव वाग्विलासके हैं।] 

 “पावकास्त्रेण संयोज्य नाभि विव्याध रक्षस:।' (११। ५५), 'पावकास्त्रेण तच्छीघ्नं शोषयामास राघव:। ततः 
शिरांसि बाहूंअ्॒ चिच्छेद रावणस्य सः॥' (२८०) 


कवि ने बादल को अनंत के घन क्यों कहा?

मित्र कवि ने बादल को अनंत घन इसलिए कहा है ,क्योंकि बादलों का कभी अंत नहीं होता है। वे निरंतर बनते रहते हैं।

कवि ने बादलों को अनंत के घन कहकर संबोधित किया है क्यों उत्साह कविता के आधार पर स्पष्ट कीजिए?

कवि बादल को संपूर्ण आकाश को घेर लेने के लिए इसलिए कहता है ताकि वे मृतप्राय पड़ी संपूर्ण सृष्टि में एक साथ जीवन का संचार कर सकें। 9. “विद्युत-छवि उर में' पंक्ति का अर्थ स्पष्ट कीजिए

बादलों को अनंत के घन क्यों कहा गया है 1 Point वे क्रांतिकारी हैं वे वर्षा करते हैं वे अनंत ईश्वर की कृति हैं?

ओ./ कृ.

कवि ने बादलों को क्या क्या कहा है और क्यों?

कवि बादल को गरजने के लिए इसलिएये कहता है क्योंकि कवि को घनघोर बादलों का रूप और गरजना पसंद है । बादलों के गर्जन से ही तपती धरती के पीड़ितों के दुःख दूर हो सकते हैं। इसलिए कवि बादलो को गरजने के लिए कहता है।