कवि यह क्यों कहता है कि अच्छा होता दुख न कभी होता? - kavi yah kyon kahata hai ki achchha hota dukh na kabhee hota?

Bihar Board Class 9 Hindi Book Solutions Godhuli Bhag 1 पद्य खण्ड Chapter 8 मेरा ईश्वर Text Book Questions and Answers, Summary, Notes.

BSEB Bihar Board Class 9 Hindi Solutions पद्य Chapter 8 मेरा ईश्वर

Bihar Board Class 9 Hindi मेरा ईश्वर Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
मेरा ईश्वर मुझसे नाराज है। कवि ऐसा क्यों कहता है?
उत्तर-
‘मेरा ईश्वर’ लीलाधर जगूड़ी द्वारा रचित काव्य पाठ से ये पंक्तियाँ ली गई हैं। इन पंक्तियों में कवि ईश्वर का प्रतीक प्रयोग किया है। ईश्वर शब्द का मूल सांकेतिक अर्थ है-समाज में रहनेवाले प्रभुत्वशाली वर्ग से।

कवि यह क्यों कहता है कि अच्छा होता दुख न कभी होता? - kavi yah kyon kahata hai ki achchha hota dukh na kabhee hota?

कवि आम आदमी की पीड़ा, वेदना, त्रासदी को स्वयं के रूप में व्यक्त करते हुए इसके लिए ईश्वर को दोषी या जिम्मेदार माना है। समाज का शोषक वर्ग आम आदमी को सुखी या प्रसन्न रूप में देखना नहीं चाहता। इस पंक्तियों में यही भाव : छिपा है। कवि स्वयं कहता है कि मैं दुख से मुक्ति के लिए संकल्पित मन से तैयार हो गया हूँ। अब मिहनत या कर्म के बल पर अपने भाग्य की रेखा को बदल डालूँगा। मेरे ईश्वर नाराज रहें, इसकी मुझे तनिक भी परवाह नहीं।

उपरोक्त पंक्तियों में ईश्वर भारतीय समाज के शोपक, संपन्न वर्ग का प्रतीक है जो अपनी मनमर्जी से आम आदमी को जीने-मरने के लिए विवश कर देता है। इन पंक्तियों का मूलभाव यह है कि भारतीय समाज में आज भी भाग्यवादी लोग हैं जो सबकुछ संपन्न वर्ग के रहमोकरम पर ही जीवन-यापन करते हैं। इस प्रकार ईश्वर पर तीखा प्रहार कवि ने किया है। वह अब ईश्वर की सत्ता को चुनौती देता है। अब वह उनके संबल पर या दया के बल पर जीना नहीं चाहता। इस प्रकार इन पंक्तियों ‘ में आम आदमी की वेदना व्यक्त हुई है।

अपनी कविताओं द्वारा कवि ने आम आदमी को संघर्षशील और कर्त्तव्यनिष्ठ बनने की सीख दी है।

प्रश्न 2.
कवि ने क्यों दुखी न रहने की ठान ली है?
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियां-“क्योंकि मैंने दुखी न रहने की ठान ली’ में कवि ने । दृढ़ संकलित होने के इरादा को प्रकट करता है। वह हृदय से चाहता हैं मैं ईश्वर के बल पर क्यों रहूँ? क्यों उसकी दया का पात्र बनूँ? क्यों उसी के सहारे जीने की कामना करूँ? मेरे भीतर का जो पौरुष है उसे ही क्यों न जगाऊँ? यहाँ कवि के भीतर आत्मबल का भाव जागरित होता है। वह अपने कर्म और श्रम पर विश्वास प्रकट करता है। दुख का जो कारण है-उसके निवारण के लिए वह स्वयं को सजग और सहेज करते हुए कर्मठता की ओर ध्यान आकृष्ट करता है।

यहाँ कवि स्वयं की पीडा दख को दर करने की जो बातें कहता है वह कवि की निजी पीड़ा या दुख नहीं है, वह जनता की णेड़ा है वह आम आदमी की पीड़ा है, कष्ट है, वेदना है। कवि उनके भीतर क स्व को जगाते हुए निज पैरों पर खड़े होने का संदेश देता है। उन्हें सोए हुए से जगाता है। उनके भीतर के पौरुष को जगाकर उनमें चेतनामय करना चाहता है।

कवि यह क्यों कहता है कि अच्छा होता दुख न कभी होता? - kavi yah kyon kahata hai ki achchha hota dukh na kabhee hota?

इस प्रकार कवि मनुष्य के भीतर जो उसका निजी मनुष्य सोया हुआ है उसे जगाकर जीवन के मैदान में लड़ने के लिए ललकारता है। सोया हुआ आदमी लक्ष्य शिखर पर नहीं चढ़ पाता है। यह पंक्ति उद्बोधन का भी भाव जगाती है। आदमी के भीतर जो ऊर्जा है, श्रम है, हूनर है उसका सही इस्तेमाल होने पर दुख खुद भाग जाएगा।
सामाजिक प्रभु वर्गों के शोषण से तभी मुक्ति मिल सकती है जब मनुष्य मिहनत करने की ठान ले।

प्रश्न 3.
कवि ईश्वर के अस्तित्व पर क्यों प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है?
उत्तर-
कवि ‘मेरा ईश्वर’ कविता में ईश्वर के अस्तित्व को नकारता है। वह कर्म पर विश्वास करता है। अगर मनुष्य दृढ़ संकल्प कर ले। जीवन में कुछ करने की ठान ले तो कछ भी असंभव नहीं। यहाँ मनष्य के भीतर आत्मबल होना चाहिए। उसके भीतर ‘स्व’ की चेतना की लौ जलनी चाहिए।

ईश्वर भी उसी की मदद करता है जो स्वयं अपनी मदद करता है। जो श्रमवीर है, कर्मवीर है, उन्हें किसी दूसरे के संबल पर जीने की क्या जरूरत? कवि कहता है कि मेरी परेशानी का आधार ईश्वर क्यों हो यानि हम अपनी परेशानियों के लिए। ईश्वर को क्यों दोप दें। यहाँ कर्म पर कवि जोर देता है। जीवन के पल-पल का अगर सही सदुपयोग हो तो दुख, कहाँ टिकेगा? अब मुझे दुख दूर कैसे हो? वैसा कारोबार यानि रोजगार को करना है। दुख न रहे, आदमी सुखी हो, इस पर ध्यान केन्द्रित करते हुए बुरी लत से छुटकारा पाना है।

दूसरे अर्थ में समाज के प्रभुत्वशाली या शोषक वर्ग के बल पर हम क्यों आश्रित रहें। हम दुख को दूर करने के लिए क्यों न कसमें खायें और जीवन में कुछ करने की जिद ठान लें। उनके बताए मार्ग या आश्रय में रहने पर दुख से छुटकारा असंभव है। अत: उपरोक्त पंक्तियों में ईश्वर के प्रतीकार्थ रूप में प्रभुत्ववर्ग की शोषण-दमन नीति का विरोध करते हुए जन-जन में, चेतना श्रम और संकल्प के प्रति दृढ़ भाव जगाते हुए दुख को दूर करने के लिए मिहनत करनी होगी।

प्रश्न 4.
कवि दुख को ही ईश्वर की नाराजगी का कारण वयों बताता है?
उत्तर-
यहाँ ‘मेरा ईश्वर’ कविता पाठ में कवि के भाव के दो अर्थ लगाए जा सकते हैं। एक तरफ कवि ईश्वर की नाराजगी के कारण ही जन-जन दुख और पीड़ा से पीड़ित है, ऐसा मानता है। यहाँ भाग्यवादी विचारधारा पर प्रकाश पड़ता है तथा ईश्वर यानि परमात्मा को ही दुख का कारण माना जा सकता है।

कवि यह क्यों कहता है कि अच्छा होता दुख न कभी होता? - kavi yah kyon kahata hai ki achchha hota dukh na kabhee hota?

दूसरे अर्थ में ईश्वर माने समाज का प्रभुत्वशाली वर्ग जो समाज में दु:ख और – पीड़ा देने का कारक है, को माना जा सकता है। भारतीय समाज की बनावट ही ऐसी है कि जो संपन और सामंती भावना से ग्रसित वर्ग है वह आम आदमी की प्रगति में बाधक है। उसके कुचक्रों एवं षड्यंत्रों के विषय जाल में आम आदमी पीड़ित एवं शोषित है। इस प्रकार कवि की उपरोक्त पंक्तियों से परम ब्रह्म परमेश्वर को भी दुख के दाता के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। ईश्वर जब नाराज होता है तब जन-जन की पीड़ा दुख में जीना पड़ता है। दूसरी ओर सामाजिक व्यवस्था के तहत सामंती सोच या संपन्न वर्ग की शोषण नीति से आम आदमी प्रभावित होता है और वह दुख के साये में जीने के लिए विवश हो जाता है। यहाँ हम दोनों अर्थ को ले सकते हैं। कवि अत्याधुनिक युग का चेतना संपन्न रचनांकन है, अतः उसकी दृष्टि २ सामाजिक व्यवस्था को ही आम आदमी की पीड़ा एवं दुख का कारण मानता है। भले ही वह ईश्वर का प्रतीक प्रयोग कर अपने भावों को मूर्त रूप दिया हो।

आशय स्पष्ट करें:

प्रश्न 5.
(क) मेरे देवता मुझसे नाराज हैं
क्योंकि जो जरूरी नहीं है
मैंने त्यागने की कसम खा ली है।
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘मेरा ईश्वर’ काव्य पाठ से ली गई हैं। इन पंक्तियों में कवि ने अपने हृदय के भाव को व्यक्त किया है। मेरे देवता मुझसे नाराज हैं, क्योंकि मैंने अपने जीवन में जो चीजें जरूरी नहीं है, उसे त्याग करने की कसमें खा ली हैं।
यहाँ कहने का मूल आशय है कि ईश्वर के भरोसे मैं जीना नहीं चाहता। दूसरे के आश्रय या संबल पर जीने से अच्छा स्वावलंबी बनकर जीने में है। यहाँ कवि ईश्वर की सत्ता को चुनौती देता है। वह उसके भरोसे जीना नहीं चाहता। कहने का भाव यह है कि कवि भाग्यवादी नहीं है, वह कर्मवादी है। वह श्रम बल पर विश्वास करता है। दूसरे अर्थ में भारतीय समाज की जो बनावट है उसमें प्रभुत्व वर्ग अपनी मर्जी के मुताबिक समाज को दिशा देने का काम करता है अत: आम आदमी उसी के सहारे या संबल पर जीता है। उसका ‘स्व’ रह नहीं पाता। अतः उसका जीवन कारुणिक एवं वेदनामय हो जाता है।

उपरोक्त पंक्तियों में कवि ने अपने क्रांतिकारी विचारों को प्रकट करते हुए ईश्वर के भरोसे जीना-मरना नहीं चाहता। वह जीवन की भाग्य रेखाओं को अपने कौशल से बदलना चाहता है। इसी कारण वह देवता को नाराज कर देता है। उनकी चिंता या परवाह नहीं करता। मनुष्य के जीवन में श्रम ही सब कुछ है। ईश्वर के -अस्तित्व को मानकर जीना पराधीन रूप में जीने के समान है यानि शोषण से मुक्त जीवन से मुक्त जीवन ही सर्वोत्तम है।

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आशय स्पष्ट करें:

प्रश्न 5.
(ख) पर सुख भी तो कोई नहीं है मेरे पास
सिवा इसके की दुखी न रहने की ठान ली है।
उत्तर-
लीलाधर जगूडी द्वारा रचित ‘मेरा ईश्वर’ कविता पाठ से उपरोक्त पंक्तियाँ ली गई हैं। इन पंक्तियों में कवि ने अपने विचार को स्पष्ट शब्दों में प्रकट किया है। कवि कहता है कि मेरे पास यानि मेरे जीवन में दूसरे प्रकार का कोई सुख भी तो नहीं है। लेकिन सबसे बड़ी विशेषता यह है कि सुख के नहीं रहने पर भी मैंने दुखी न रहने की ठान ली है यानि संकल्प कर लिया है। अभावों के बीच भी मैं दुखी नहीं रहूँगा। मेरे भीतर का आत्मबल जग गया है उसके आगे सुख-दुख दोनों फीका है। आदमी भीतर से जब जग जाता है तब उसके सामने सांसारिक सुख-सुविधा कोई मायने नहीं रखता। यहाँ भी यही बात है।

कवि का मन आत्मतोष से भरा पूरा है। वह सांसारिक सुख-दुख से अपने को ऊपर रखते हुए चिंतन के उच्च धरातल पर अपने को रखता है। कवि की भावना प्रबल रूप में हमें दिखाई पड़ती है कि उसने दुखी न रहने के लिए संकल्प ले लिया है। कहने का आशय यह है कि कर्म पर उसे भरोसा है, भाग्य या ईश्वर या देवता के बल पर वह जीना नहीं चाहता। उसने दुख को दूर करने के लिए अपनी मिहनत, आत्मबल और पौरुष पर भरोसा किया है। इस प्रकार आत्म चेतना से संपन्न कवि जीवन के यथार्थ का सम्यक् चित्रण करता है। कष्ट से घबड़ाता नहीं बल्कि, उसे दूर करने के लिए संकल्पित मन से जीवन में कुछ करने की ठान लेता है।

आशय स्पष्ट करें:-

प्रश्न 5.
(ग) मेरी परेशानियाँ और मेरे दुख ही ईश्वर का आधार क्यों हों?
उत्तर-
‘मेरा ईश्वर’ काव्य पाठ से उपरोक्त पंक्तियाँ ली गई हैं। इस कविता के रचयिता लीलाधर जगूड़ी आधुनिक युग के चर्चित कवि हैं। कवि ने मानव जीवन में परेशानियों एवं दुख में मूल कारण को खोज रहा है। वह इसके लिए ईश्वर को क्यों आधार माना जाय, इस प्रकार की धारणा को प्रकट करता है।

कवि यह क्यों कहता है कि अच्छा होता दुख न कभी होता? - kavi yah kyon kahata hai ki achchha hota dukh na kabhee hota?

आम आदमी चेतना शून्य होता है, उसे आत्मज्ञान या युगबोध का ज्ञान नहीं होता इसीलिए वह परेशानियों एवं दुख के कारण के लिए ईश्वर की नाराजगी को मानता है। जबकि कवि उसे नकाराता है। वह ईश्वर की सत्ता को चुनौती देता है। वह ईश्वर को इन बातों के लिए मूल कारण नहीं मानता। ईश्वर पर ही सब कुछ छोड़ कर भाग्य भरोसे बैठकर रहने से जीवन के दुख और परेशानियों का अंत नहीं होने वाला।

कवि सामाजिक व्यवस्था की खामियों पर भी सूक्ष्म भाव प्रकट करता है। उसके अनुसार समाज में भी ईश्वर या देवता के रूप में एक ऐसा प्रभुत्व वर्ग है जो अपने काले-कारनामों द्वारा आम आदमी को दुखी और परेशानियों में डाल देते हैं। इस प्रकार कवि अत्याधुनिक युग में बदलती सामाजिक व्यवस्थाओं एवं मानव मूल्यों के गिरते स्तर पर चिंतित है। वह इसके लिए आम आदमी के भीतर चेतना जगाने का काम अपनी कविताओं द्वारा कर रहा है। जबतक ईश्वर, देवता या प्रभुत्व वर्ग पर आमजन आश्रित रहेगा तबतक वह परेशानियों एवं दुखों से मुक्ति नहीं पा सकेगा। अगर उसे इन सबसे मुक्ति पाना है तो स्वयं को जगाना होगा। अपने आत्मबल के बल पर श्रम की महत्ता देनी होगी। प्रभुत्व वर्ग के झाँसे में नहीं आना होगा। उनके शिकंजे में नहीं फँसना होगा उनके हाथ की कठपुतली नहीं बनना होगा तभी परेशानियों एवं दुखों का अंत होगा और आम आदमी उससे निजात पा सकेगा।

प्रश्न 6.
कविता का केन्द्रीय भाव स्पष्ट करें।
उत्तर-
‘मेरा ईश्वर’ कविता जो युग बोध से युक्त कविता है आम आदमी के जीवन की समग्र स्थितियों पर प्रकाश डालती है।
लीलाधर जगूडी अत्याधुनिक काल के कवि हैं। कवि की कविता समसामयिकता को लेकर लिखी गयी है। कवि बदलते जीवन-मूल्यों से भलीभाँति परिचित है अतः उनकी कविताओं में जन चेतना को जगाने का भाव छिपा हुआ है। लीलाधर जगूड़ी जी की कविता में जीवन के कटुतिक्त अनुभव विद्यमान हैं। काव्य में जो विविधता आयी है उनका दर्शन होता है। भाषिक प्रयोगशीलता भी विद्यामन हैं। कवि अपनी कविताओं में एक विस्मयकारी लोक की रचना करता है।

प्रस्तुत कविता लीलाधर जगूड़ी के कविता संग्रह ईश्व की अध्यक्षता में से ली गई है। यह कविता भारतीय समाज के प्रभु वर्ग पर गहरी चोट करनी है। मनुष्य जो जैसे-तैसे इन प्रभु वर्गों के शिकंजे में फंस जाता है और सदा के लिए इनकी हाथ की कठपुतली बन जाता है, उसी से संबंधित यह कविता है।

कवि ने ईश्वर और देवता के माध्यम से भारतीय समाज के सामंती वर्ग के चरित्र का उद्घाटन किया है। आम आदमी की प्रसन्नता या सुख से यह वर्ग दुखी हो जाता है, नाराज हो जाता है। इस वर्ग को आम आदमी भगवान से भी बढ़कर समझता है। इनके रहमोकरम पर उनका जीना-मरना संभव है।

कवि यह क्यों कहता है कि अच्छा होता दुख न कभी होता? - kavi yah kyon kahata hai ki achchha hota dukh na kabhee hota?

जब-जब आम आदमी जीवन में कुछ करने, कुछ बनने की ठानता है तब इस वर्ग के छाती पर साँप लोटने लगता है। वे नाराज हो जाते हैं।

कवि पुनः कहता है कि आदमी दुखी नहीं रहे इसके लिए कुछ न कुछ कारोबार तो करना ही होगा। सुख के मार्ग में जो अवरोधक तत्व हैं यानि बूरे व्यसन हैं उनसे तो छुटकारा पाना ही होगा। हम ईश्वर के भरोसे कब तक बैठे रहेंगे? कब तक वह हमारी दुख दूर करेगा? वह कबतक परेशानियों से मुक्ति दिलाएगा? उसके भरोसे बैठकर रहना तो निरीमूर्खता है। सारे दुखों परेशानियों की जड़ में मनुष्य की हीन भावना और भाग्यवादी बनना है। उसे ईश्वर की सत्ता को चुनौती देनी चाहिए और अपने आत्मबल के सहारे दुखों, कष्टों, से निजात पाना चाहिए।

पुनः कवि मूल भाव को प्रकट करते हुए कहता कि मेरे पास सुख नहीं है लेकिन दुख को दूर करने के लिए भी तो मैंने संकल्प ले लिया है। कसमें खा ली हैं। जब मानव जग जाता है तब प्रकृति भी उसकी मदद करती है। इस प्रकार ‘मेरा ईश्वर’ कविता का केन्द्रीय भाव आदमी के भीतर जो उसका ‘स्व’ है उसे जगाना है। उसके भीतर जो आत्महीनता है उसे दूर करना है। मनुष्य ही इस धरा पर अपना स्वयं भाग्य विधाता है। वह अपनी सूझ-बूझ से, अपनी मिहनत से, समाज की व्यवस्था और जीवन की दशा को नया स्वरूप दे सकता है।

ईश्वर की सत्ता को नकारते हुए मनुष्य अपने कर्म, श्रम और आत्मबल पर विश्वास करे। साथ ही दृढ़ संकल्पित होकर जीवन में कुछ करने, कुछ बनने की ठान ले तो जीवन में दुख और परेशानियाँ स्वतः दूर हो जाएंगी।
माथ ही प्रभुत्वशाली वर्ग भी सरल और सहज भाव से आम आदमी के विकास में सहयोगी बनेंगे। शर्त यही है कि आम आदमी सहज और क्रियाशील रहे।

प्रश्न 7.
कविता में सुख, दुख और ईश्वर के बीच क्या संबंध बताया गया है? –
उत्तर-
‘मेरा ईश्वर’ कविता एक सामाजिक भावधारा से जुड़ी हुई कविता है। लीलाधर जगूड़ी जी अत्याधुनिक काल के सशक्त कवि हैं। इनकी कविताओं में युग का सफल चित्रण हुआ है।

अपनी कविता में ‘ईश्वर’ का प्रयोग कवि ने प्रभुत्व-वर्ग की संस्कृति को दर्शाने के लिए किया है। आम आदमी ईश्वर की सत्ता को मानकर भाग्य के भरोसे बैठा रहता है वह क्रियाशील होकर जीवन क्षेत्र में नहीं उतरता। इसी कारण वह जीवन में दुखी रहता है। सुख की छाँह उसे नसीब नहीं होती।

कवि यह क्यों कहता है कि अच्छा होता दुख न कभी होता? - kavi yah kyon kahata hai ki achchha hota dukh na kabhee hota?

कवि अपनी कविता में कहता है कि “मेरी परेशानियों और मेरे दुख ही ईश्वर का आधार क्यों हो” में ईश्वर के अस्तित्व पर प्रकाश डाला है। कवि की दृष्टि में दुख और परेशानियों का कारण ईश्वर नहीं है। वह कौन होता है जो हमें परेशानियों में डाले या दुख के साये में जीने के लिए विवश कर दे। इस कविता में ईश्वर दुख और कष्टों का कारण नहीं है। जब मनुष्य चेतस हो जाएगा, आत्म बल से पुष्ट हो जाएगा तो दुख और कष्ट से खुद निजात पा जाएगा। सुख का संबंध भी ईश्वर से नहीं है। सुखी रहने के लिए बुरी आदतों को त्यागना आवश्यक है।

इस प्रकार उक्त कविता में सुख, दुख और ईश्वर के त्रिकोण से कवि ने जीवन के यथार्थ को स्पष्ट करते हुए तीनों के बीच के संबंधों पर प्रकाश डाला है।

सुख की प्राप्ति बिना श्रम या संकल्पित हुए बिना संभव नहीं। ईश्वर या देवता दुख क्यों देंगे जब मनुष्य दुख से लड़ने के लिए तैयार हो जाए। यानि जबतक वह भाग्यवादी रहेगा दुख और परेशानियाँ साथ नहीं छोड़ेगी। जब वह स्वयं पर भरोसा कर कर्मवादी बनेगा तभी इन चीजों से छुटकारा पाएगा।

दूसरे संदर्भो में कवि समाज में व्याप्त अव्यवस्था और ईश्वर या देवता के रूप में अवस्थित प्रभुत्व वर्ग के क्रिया-कलापों से भी सुख-दुख और शोषक वर्ग के त्रिकोण के संबंधों की व्याख्या करता है। समाज में प्रभुत्व वर्ग अपने षड्यंत्रों के माध्यम से आम आदमी के जीवन में ऐसा जाल बुनते हैं कि उसमें फंसकर आम आदमी आजीवन उनके हाथों की कठपुतली बनकर दुख और परेशानियों के बीच जीता-मरता है। सुख उसे नसीब ही नहीं होता। इस प्रकार सुख-दुख और ईश्वर रूपी प्रभु वर्ग के त्रिकोण में आम आदमी का जीवन पीसता रहेगा, पेंडुलम की तरह डोलता रहेगा, जबतक वह चेतना संपन्न नहीं हो जाता अपने संकल्प को नहीं जगाता। कुछ करने, कुछ बनने की कसमें नहीं खा लेता। जीवन को कर्म और निष्ठा की कसौटी पर कसना होगा। तभी सुख की प्राप्ति होगी और ईश्वर और दुख से मुक्ति मिलेगी।

कवि यह क्यों कहता है कि अच्छा होता दुख न कभी होता? - kavi yah kyon kahata hai ki achchha hota dukh na kabhee hota?

नीचे लिखे पद्यांशों को ध्यानपूर्व पढ़कर नीचे पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें।

1. मेरा ईश्वर मुझसे नाराज है
क्योंकि मैंने दुःखी न रहने की ठान ली
मेरे देवता नाराज हैं
क्योंकि जो जरूरी नहीं है
मैंने त्यागने की कसम खा ली है।
(क) कवि और कविता के नाम लिखें।
(ख) मेरा ईश्वर मुझसे नाराज है। कवि के इस कथन को स्पष्ट करें।
(ग) कवि ने दुःखी न रहने की क्यों ठान ली है?
(घ) कवि के देवता उससे क्यों नाराज हैं?
(ङ) कवि ने क्या त्यागने की कसम खा ली है? स्पष्ट करें।
उत्तर-
(क) कवि-लीलाधर जगूडी, कविता-मेरा ईश्वर

(ख) कवि का कथन है कि उसका ईश्वर उससे नाराज है। कवि की दृष्टि में उसकी नाराजगी का कारण यह है कि मनुष्य रूप कवि (श्रमजीवी) अपने श्रम के बल पर अपनी खराब हालत को सुधारने के लिए पूर्ण सक्षम है। उसके लिए इसे अब ईश्वर पर (प्रभ या स्वामी) आश्रित नहीं होना है तथा प्रार्थना और निवेदन नहीं करना है। अब स्थिति ऐसी आ गई है कि ईश्वर अब यह समझ बैठा है कि कवि (मनुष्य) अब उसके हाथ की कठपुतली नहीं रह गया है और उसके अस्तित्व का विरोध कर रहा है। इसलिए ईश्वररूप और प्रभु इस पर नाराज है।

(ग) कवि यह समझता है कि दु:ख की स्थिति में पड़े रहने पर मनुष्य का कोई मूल्य नहीं रह जाता। दु:ख के कारण व्यक्ति अपने तमाम मूल्यों को खोने के लिए बेचारा होने की स्थिति में बाध्य हो जाता है। उस समय उसकी स्थिति उसे कठपुतली बनने पर बाध्य कर देती है। फलतः वह दु:खी रहना नहीं चाहता है तभी वह प्रभु या मालिक की गुलामी और दासता से मुक्त रहकर स्वाभिमान और आत्मगौरव का परिचय दे सकता है।

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(घ) कविता में चर्चित देवता आज के प्रभुवर्ग के प्रतीक हैं। वे सर्वशक्तिमान तथा तथाकथित सभी गुणों से भूषित हैं। वे यह समझते हैं कि उनकी जो भी इच्छा है वह मान ली जाए। इसका नतीजा यह होता है कि वे अपने भाव, विचार एवं इच्छा को दूसरे पर थोपना चाहते हैं। इस संदर्भ में कवि का कथन है कि अब वह उनकी इच्छा को मानने क लिए बाध्य महीं है। कवि का कथन है कि अब वह उनकी इच्छा को मानने के लिए बाध्य नहीं है। कवि प्रभु की थोपी हुई इच्छा या आदेश को अब माने को बाध्य नहीं है। यही कारण है कि उसके देवता उससे अब नाराज हैं। पहले ऐसी स्थिति नहीं थी।

(ङ) कवि अपने प्रभु द्वारा थोपी गई इच्छा, आदेश, सलाह या बात मानना कोई जरूरी नहों समझता है। इस परिस्थिति में उसने प्रभु की उस अनावश्यक और व्यर्थ की बात और उसे मानते रहने की प्रवृत्ति को त्यागने की कसम खा ली है। कवि की यह सोच है कि जो जरूरी नहीं है, उसे त्यागने की कसम खा ही लेनी चाहिए।

2. न दुःखी रहने का कारोबार करना है
न सुखी रहने का व्यसन
मेरी परेशानियाँ और, मेरे दुःख ही
ईश र का आधार क्यों हों?
पर सुख भी तो कोई नहीं है मेरे पास
सिवा इसके की दुःखी न रहने की ठान ली है।
(क) कवि और कविता के नाम लिखें।
(ख) कवि दुःखी रहने का कारोबार क्यों नहीं करना चाहता है?
(ग) कवि सुखी रहने के व्यसन से भी मुक्त रहना चाहता है। क्यों?
(घ) कवि के अनुसार उसकी परेशानियों और उसके दुःख ही ईश्वर का आधार क्यों थे?
(ङ) प्रस्तुत पद्यांश का आशय अपने शब्दों में व्यक्त करें।
उत्तर-
(क) कवि-लीलाधर जगूड़ी, कविता-मेरा ईश्वर

(ख) कवि यह जानता है कि दु:ख इंसान को इंसान नहीं रहने देता। वह उसे परेशानियों में डाले रहता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य (कवि) अपने मौलिक गुणों से विरत हो जाता है। उसके पास कोई नैतिक मूल्य बच नहीं पाता है। ऐसा मनुष्य प्रभुवर्ग के सामने गिर जाता है, झुक जाता है और दुःख से मुक्ति पाने के लिए गिड़गिड़ाने लगता है। कवि की दृष्टि में दु:ख की यह स्थिति दुःखद और अग्राह्य होती है। इसीलिए कवि दु:खी रहना नहीं चाहता।

कवि यह क्यों कहता है कि अच्छा होता दुख न कभी होता? - kavi yah kyon kahata hai ki achchha hota dukh na kabhee hota?

(ग) दुःख की तरह सुख से भी कवि मुक्त और विरत रहना चाहता है। सुख को वह भौतिक सुखों की आसक्ति समझता है। वह जानता है कि व्यक्ति जब सुखी होता है तब उसमें झूठे अहम का भाव जग जाता है। उस सुख की स्थिति में मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता और वह एक आरोपित या झूठे मनुष्य के रूप में रह जाता है। यह स्थिति भी कवि की दृष्टि में ग्राह्य नहीं मानी जाती है। इसी कारण से वह सुखी रहने के व्यसन से भी मुक्त रहना चाहता है।

(घ) कवि के अनुसार मनुष्य की परेशानियाँ और उसके दुःख के कारण ही ईश्वर या प्रभु का अस्तित्व है। इंसान जब बहुत दु:खी होता है और परेशानियों के गहन जंगल में ठोकरें खाते रहने के लिए बाध्य हो जाता है, तभी वह ईश्वर या प्रभु या मालिक की शरण में जाता है। वह उनको याद करता है। उनकी प्रार्थना करता है और अपने कष्ट और दु:ख के हरण के लिए उनसे निवेदन करता है। इस रूप में कवि को लगता है कि ईश्वर की अवधारणा या अस्तित्व का मूल आधार मनुष्य की परेशानियाँ और उसके दुःख ही हैं।

(ङ) इस पद्यांश में कवि दुःख और सुख दोनों की अतिवादि स्थितियों से मुक्त रहने का अपना संकल्प व्यक्त करता है। उसकी अवधारणा है कि संसार में ईश्वर, प्रभु या मालिक का अस्तित्व मनुष्य की दु:खी रहने की स्थिति के ही कारण है। उसकी नजर में सुख इंसान को अहम के भाव से भर देता है। वह अपने मालिक या ईश्वर के अस्तित्व पर इस रूप में एक प्रश्न-चिन्ह लगा देता है। वह यह नहीं चाहता है कि कोई मनुष्य दुःख की दुर्दशा में पड़े और वह ईश्वर की शरण में जाकर प्रभुवर्ग के हाथों की कठपुतली बने।