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“केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए क्यों आज ‘रामचरितमानस’ सब कहीं सम्मान्य है? सत्काव्य-युत उसमें परम आदर्श का प्राधान्य है।”[4] मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत-भारती’ तो राष्ट्रीय-चेतना को प्रस्फुटित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह भारतीयों के नवजागरण कालीन मानसिकता का परिचायक है। ‘भारत-भारती’ में गुप्त जी ने ब्रिटिश शासन की आलोचना और विरोध करने से पूर्व भारतीय जनता को स्वमूल्यांकन के लिए प्रेरित किया है – “हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी आओ, विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी।”[5] अब तक के विश्लेषण से स्पष्ट है कि द्विवेदी युग विषयों की नवीनता और विविधता के लिए विख्यात है। अब कविता भक्ति और रीति की सीमा में नहीं बँधती। यह उचित ही है क्योंकि जब साहित्य सामान्य जन-जीवन से जुड़ता है तब जीवन के विविध आयाम साहित्य में स्थान पाते हैं। नवीन विषयों के अतिरिक्त द्विवेदी युगीन कवियों ने प्राचीन और पारंपरिक विषयों में भी नई भाव-भंगिमाएँ भरीं। इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’। उन्होंने सूर की राधा का चरित्र-विस्तार किया। ‘प्रियप्रवास’ में राधा पूर्णतः विरहिणी ही नहीं हैं। राधा अपने निजी दु:ख को सारे समाज के दु:ख में विलीन कर देती है और समाज-सेवा का व्रत लेती हैं। शताब्दियों से चले आते राधा के चरित्र में यह एक सर्वथा नई भंगिमा ‘हरिऔध’ ने उकेरी है। द्विवेदी युग में प्रकृति को देखने का नजरिया परिवर्तित हो जाता है। रीतिकाल की तरह प्रकृति को उद्दीपन विभाव मानकर चित्रित करने की परंपरा पर विराम लगा। अब प्रकृति को आलंबन-रूप में देखा जाने लगा। और तो और स्वच्छंदतावादी कवियों के साथ-साथ ‘हरिऔध’ जैसे पारंपरिक कवि ने प्रकृति का स्वतंत्र चित्रण किया है जो आगे चलकर छायावाद की प्रमुख विशेषता बनी। उदाहरण द्रष्टव्य है – “दिवस का अवसान समीप था। गगन था कुछ लोहित हो चला।। तरु-शिखा पर थी अब राजती। कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा।।”[6] द्विवेदी युग का प्रकृति-संबंधी यह परिवर्तित दृष्टिकोण आधुनिक हिंदी कविता की प्रमुख विशेषता है जिसका उत्तरोत्तर विकास हुआ। द्विवेदी युग में नारी-प्रश्न पर विचार करने की परंपरा का सूत्रपात हुआ। नारी-जीवन की समस्याओं– बाल-विवाह, विधवा पुनर्विवाह, बहु-विवाह प्रथा आदि– पर विचार तो भारतेंदु युग में भी हुआ। किन्तु समाज में स्त्रियों की भूमिका पर सर्वप्रथम विचार द्विवेदीयुगीन कवि मैथिलीशरण गुप्त ने किया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘कवियों की उर्मिला-विषयक उदासीनता’ से प्रेरित होकर ‘साकेत’ जैसे महाकाव्य की रचना की। इतिहास द्वारा उपेक्षित नारी-चरित्र उर्मिला के अतिरिक्त गोपा (‘यशोधरा’) के महत्त्व व उनकी प्रासंगिकता का विवेचन गुप्त जी का उद्देश्य था। इन चरित्रों के माध्यम से गुप्त जी समाज में सामान्य स्त्रियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते हैं। गुप्त जी की ‘अबला’ नारी महादेवी वर्मा के यहाँ ‘नीर भरी दु:ख की बदली’ के समान अपनी करुण कहानी सुनाती हुई कृष्णा सोबती की ‘मित्रो’ और उससे भी आगे पहुँच चुकी है। आज नारीवादी साहित्य हिंदी साहित्य की प्रमुख धारा है। निश्चय ही इसका प्रस्थान बिंदु द्विवेदी युग विशेषतः मैथिलीशरण गुप्त एवं ‘हरिऔध’ आदि की कविताएँ हैं। प्रश्नाकुलता जो आधुनिक होने का प्रमाण है, द्विवेदी युग में यह प्रवृत्ति बहुतायत से पाई जाती है। स्वच्छंदतावादी कवियों में प्रकृति के प्रति जिज्ञासा तो दिखती ही है, इस युग में ईश्वर की अवधारणा को भी सीधी चुनौती दी गई है। ईश्वर की सत्ता को शक की निगाह से देखना तथाकथित आधुनिक मनुष्य की पहचान बन गया है। आधुनिक काल में मनुष्य सम्पूर्ण रचना और चिंतन के केंद्र में है, ईश्वर अब व्यक्तिगत आस्था का विषय है, चित्रण का नहीं। इस दृष्टिकोण की पहली सशक्त उद्घोषणा ‘प्रियप्रवास’ के रचना-विधान में तो मिलती ही है, कृति की लंबी भूमिका में भी कवि ने इसका निर्भ्रांत आख्यान किया है। ‘ग्रंथ का विषय’ शीर्षक के अंतर्गत ‘हरिऔध’ लिखते हैं– “मैंने श्रीकृष्ण चंद्र को इस ग्रंथ में एक महापुरुष की भांति अंकित किया है, ब्रह्म करके नहीं।”[7] आधुनिक हिंदी कविता में प्रश्नाकुलता की शुरूआत का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि मनुष्य ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्न-चिन्ह लगा देता है। मैथिलीशरण गुप्त ने ‘साकेत’ में लिखा है– “राम तुम मानव हो? ईश्वर नहीं हो क्या? विश्व में रमे हुए नहीं सभी कहीं हो क्या?”[8] द्विवेदी युग की खड़ीबोली हिंदी कविता को आधार बनाया जाए तो यह कहा जा सकता है कि यह युग ऐहिकता(सांसारिकता) की चेतना से संपृक्त है। इस युग में अलौकिकता से लौकिकता की ओर एक सतत यात्रा दिखाई देती है। मैथिलीशरण गुप्त तो इसे समस्त आधुनिक काल की प्रवृत्ति घोषित करते हुए कहते हैं– “भव में नव वैभव व्याप्त कराने आया, नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया! संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया, इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।”[9] 1857 ई० से लेकर आज तक का अर्थात् आधुनिक हिंदी साहित्य इसी ऐहिकता, इहलौकिकता का साहित्य है। श्रीधर पाठक खड़ी बोली के प्रथम कवि के तौर पर जाने जाते हैं। अयोध्याप्रसाद खत्री ने हिंदी कविता में खड़ी बोली के प्रयोग के लिए आंदोलन चलाया। बाद में, आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से खड़ी बोली को गद्य के साथ-साथ पद्य की भाषा के तौर पर स्थापित करने का उद्योग किया। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने तो खड़ी बोली के साहित्य को व्याकरण के स्तर पर परिमार्जित किया, साथ ही साहित्य में खड़ी बोली की विविधता को मानकीकृत करने का प्रयास किया। लेकिन, रचनात्मक स्तर पर इस समस्या से पहले-पहल श्रीधर पाठक ही जूझे। द्विवेदी युग खड़ी बोली को आधुनिक हिंदी कविता की भाषा के तौर पर प्रतिष्ठित करने के लिए जाना जाता है। खड़ी बोली को काव्य-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में उपरोक्त कारकों के अतिरिक्त मैथिलीशरण गुप्त का समग्र साहित्य और अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ का प्रथम महाकाव्य(खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य) ‘प्रियप्रवास’ आदि का भी अन्यतम योगदान है। मैथिलीशरण गुप्त ने ‘भारत-भारती’ लिखकर खड़ी बोली को काव्य-भाषा के तौर पर पूर्णतया प्रतिष्ठित किया; तो ‘हरिऔध’ ने खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य ‘प्रियप्रवास’ लिखकर खड़ी बोली की कवित्व-शक्ति से संशय के बादल हटा दिए। खड़ी बोली को काव्य-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में द्विवेदी युग की मौलिक रचनाओं के अतिरिक्त उस काव्य के अनूदित साहित्य का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। द्विवेदी युग के अनेक कवियों ने देशी-विदेशी साहित्य का खड़ी बोली के अलावा ब्रजभाषा में भी अनुवाद किया है। श्रीधर पाठक ने गोल्डस्मिथ कृत ‘हरमिट’, ‘डेज़र्टेड विलेज’ तथा ‘द ट्रैवेलर’ का क्रमशः ‘एकांतवासी योगी’ (ब्रजभाषा), ‘उजड़ग्राम’ और ‘श्रांत पथिक’ शीर्षक से काव्यानुवाद किया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी ‘लाइट ऑफ एशिया’ का ‘बुद्धचरित’ नाम से अनुवाद किया। कालिदास की कई रचनाओं का भी अनुवाद किया गया। रामचन्द्र शुक्ल की उपर्युक्त अनूदित रचना अनुवाद साहित्य की अन्यतम रचना है। खड़ी बोली कविता के प्रारम्भिक दौर में काव्य-विषय, काव्य-रूप, काव्य-शैली आदि के अभाव में अनुवाद ने आधुनिक हिंदी कविता के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अनुवाद का एक उदाहरण प्रस्तुत है– “नहीं किन्तु ममभाग्य जो कि ऐसा विनोद सुख पाऊँ मैं, निज यौवन जब दु:खित भ्रमण और चिंता बीच बिताऊँ मैं।”[10] द्विवेदीयुगीन कवियों का अनुवाद शब्दानुवाद नहीं भावानुवाद की कोटि में आता है, जो कि अनुवाद की उत्तम कोटि है। द्विवेदी युग में अनुवाद ने आधुनिक कविता के विकास के लिए वह समतल जमीन तैयार की जिस पर खड़ी बोली हिंदी कविता फर्राटा भर सके। साहित्य और पत्रकारिता का परस्पर संबंध भारतेंदु युग में ही स्थापित हो चुका था। द्विवेदी युग में यह संबंध और अधिक प्रगाढ़ हुआ। द्विवेदी युग और ‘सरस्वती’ पत्रिका एक-दूसरे के पर्याय बन गए। एक तरह से इस स्थिति को भरतेंदुयुगीन पूर्व परंपरा के गुणात्मक विकास के रूप में देखा जाना चाहिए। साहित्य और पत्रकारिता का यह गठजोड़ विलक्षण है। आज भी पत्र-पत्रिकाएँ साहित्यिक प्रगति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘सरस्वती’ पत्रिका ने पत्र और साहित्य के परस्पर संबंध को सुनिश्चित किया। इतिवृत्तात्मकता(Matter of Fact) और स्थूलता(शिल्प के स्तर पर) द्विवेदी युगीन हिंदी कविता की पहचान है। प्रायः सभी आलोचकों ने उक्त प्रवृत्ति की आलोचना की है। यह सही है कि द्विवेदी युग की उक्त दोनों ही प्रवृत्ति अभिव्यक्ति के कमजोर पक्ष का परिचायक है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि खड़ी बोली हिंदी कविता की शुरूआत ही हुई है द्विवेदी युग से। वस्तुतः यह खड़ी बोली हिंदी कविता के प्रारंभ से जुड़ी हुई स्वाभाविक समस्या है। जयशंकर प्रसाद, जिन्होंने ‘कामायनी’ में सूक्ष्मतम अभिव्यंजना की है, की भी द्विवेदी युगीन प्रारंभिक रचनाएँ स्थूलता और इतिवृत्तात्मकता नामक तथाकथित कमियों से संपृक्त है। डॉ. तारकनाथ बाली ने भी कहा है– “‘झरना’ के पूर्व की सभी रचनाएँ द्विवेदी-युग के अंतर्गत लिखी गई थीं। प्रसाद जी की आरंभिक शैली बहुत-कुछ अयोध्यासिंह उपाध्याय की संस्कृतगर्भित शैली से मिलती-जुलती है, जो स्थूल और बहिर्मुखी है। छायावादी प्रवृत्तियों के दर्शन सबसे पहले ‘झरना’ में होते हैं।”[11] निष्कर्ष : निष्कर्षतः द्विवेदीयुगीन कविता विषय, भाषा, छंद और काव्य-रूप आदि के स्तर पर आधुनिक खड़ी बोली हिंदी कविता के लिए प्रस्थान बिंदु है। यह नवजागरण और आधुनिक राष्ट्रीयता के अतिरिक्त स्वच्छंद मनोभावों का काव्य है। रीतिकालीन शास्त्रबद्धता, रूढ़ियों, स्त्रियों व प्रकृति से संबंधित रूढ़ मान्यताओं से कविता पहले-पहल इसी काल में मुक्त होती है। काव्य-भाषा के तौर पर खड़ी बोली के स्वरूप-निर्धारण और विकास का श्रेय भी इसी कालखंड को है। द्विवेदी युग में छंद-प्रयोग की विविधता भी हमें अचंभित करती है, विशेषकर खड़ी बोली के संदर्भ में। इस युग में सभी काव्य-रूपों का सफल प्रयोग हुआ है। यद्यपि इस युग की अधिकांश कविता में कलात्मक श्रेष्ठता और सूक्ष्मता नहीं है, किन्तु राष्ट्र के उद्बोधन, जागरण, सुधार और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के अद्भुत सामर्थ्य एवं खड़ी बोली के स्वरूप-निर्माण और संस्कार के कारण हिंदी-कविता के इतिहास में द्विवेदी युग का अवमूल्यन नहीं किया जा सकता। द्विवेदीयुगीन हिंदी कविता ने आधुनिक हिंदी कविता के प्रारंभिक युग की भूमिका को बखूबी निभाया है। द्विवेदी युग की कई काव्य-प्रवृत्तियों का कालांतर में गुणात्मक विकास भी हुआ, साथ ही अनेक काव्य-प्रवृत्तियों का नवोन्मेष भी। [1]रामस्वरुपचतुर्वेदी, ‘हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास’, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2009, पृ० 101 प्रीति राय शोधार्थी, हिंदी भवनविश्व-भारती, शांतिनिकेतन। अपनी
माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue खडी बोली हिंदी के कवि के रूप में कौन विख्यात है?पहले खड़ी बोली के कवि की बात करें तो नाम आता है अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' का जो हिन्दी के एक सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे। वह दो बार हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति रह चुके हैं और सम्मेलन द्वारा विद्यावाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किये जा चुके हैं। प्रिय प्रवास हरिऔध जी का सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
खड़ी बोली के प्रथम समर्थ कवि के रूप में कौन माने जाते हैं?खड़ी बोली के प्रथम विश्व-कवि 'हरिऔध'
खड़ी बोली का जनक और पहला कवि कौन है?हिन्दी खड़ी बोली के जन्मदाता— भारतेन्दु हरिश्चन्द्र .
निम्नलिखित में से कौन खड़ी बोली के प्रथम कवि के रूप में प्रतिष्ठित है?प्रियप्रवास अयोध्यासिंह उपाध्याय "हरिऔध" की हिन्दी काव्य रचना है। यदि 'प्रियप्रवास' खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है तो 'हरिऔध' खड़ी बोली के प्रथम महाकवि।
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