खुली पुस्तक परीक्षा के गुण व दोष - khulee pustak pareeksha ke gun va dosh

आजकल बहुत से महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में विकल्प आधारित क्रेडिट प्रणाली (CBCS), सेमेस्टर प्रणाली, ग्रेडिंग प्रणाली, खुली पुस्तक परीक्षा (Open Book Exam), माँग-आधारित परीक्षा या ऑन डिमांड परीक्षा (On Demand Exam) तथा ऑनलाइन परीक्षा (Online Exam) शिक्षा और मूल्यांकन के क्षेत्र में नवीन परीक्षा प्रवृत्ति एवं प्रमुख परीक्षा प्रणाली का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। प्रमुख परीक्षा प्रणालियों का विस्तृत विवरण निम्नलिखित है –

  • विकल्प आधारित क्रेडिट प्रणाली (Choice Based Credit System)
  • ग्रेडिंग प्रणाली (Grading System)
    • ग्रेडिंग प्रणाली के लाभ (Advantage of Grading System)
    • ग्रेडिंग प्रणाली की हानियाँ (Disadvantage of Grading System)
  • खुली पुस्तक परीक्षा प्रणाली (Open Book Exam)
    • खुली पुस्तक परीक्षा के लाभ (Advantage of Open Book Exam)
    • खुली पुस्तक परीक्षा के दोष (Disadvantage of Open Book Exam)
  • माँग-आधारित परीक्षा या ऑन डिमांड परीक्षा (On Demand Exam)
    • ऑन-डिमांड परीक्षा प्रणाली की विशेषताएँ
    • ऑन-डिमांड परीक्षा प्रणाली के लाभ
  • ऑनलाइन परीक्षा (Online Exam)
    • ऑनलाइन परीक्षा की विशेषताएं (Characteristics of Online Exam)
    • ऑनलाइन परीक्षा के लाभ (Advantage of Online Exam)
    • ऑनलाइन परीक्षा की सीमाएं (Limitation of Online Exam)

विकल्प आधारित क्रेडिट प्रणाली (Choice Based Credit System)

आजकल बहुत से महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में प्रमुख परीक्षा प्रणाली के रूप में प्रचलित प्रवृत्ति “विकल्प आधारित क्रेडिट प्रणाली“, शिक्षा और मूल्यांकन के क्षेत्र में प्रचलित बहुत सी प्रवृत्तियों जैसे-विद्यालय शिक्षा और उच्चतर शिक्षा व्यवस्था में उपस्थित सेमेस्टर प्रणाली, ग्रेडिंग प्रणाली और समग्र एवं सतत् मूल्यांकन (CCE) आदि के अलावा एकदम से नवीन प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करती है। विद्यालय अनुदान आयोग (UGC) की पहल, मार्गदर्शन समर्थन तथा सहायता के द्वारा ‘विकल्प आधारित क्रेडिट प्रणाली‘ वर्तमान उच्चतर शिक्षा व्यवस्था में किए गए विभिन्न मूल्यांकन-सह-शैक्षणिक सुधारों में एक महत्त्वपूर्ण सुधार है। इसका मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों और उच्चतर शिक्षा संस्थानों को उचित स्वायत्तता प्रदान करते हुए मूल्यांकन एवं शैक्षणिक प्रणाली में इस प्रकार के गुणात्मक सुधार लाना है जिससे वर्तमान दौर की चुनौतियों विशेषकर वैश्वीकरण से संबंधित बातों से सामंजस्य करने में सफलता मिले। अपने नाम के अनुसार ‘विकल्प आधारित क्रेडिट प्रणाली‘ में विकल्प और क्रेडिट के नाम से जाने वाले दो मुख्य आकर्षण और विशेषताएँ देखने को मिलती है-

(1) इस व्यवस्था में विकल्प पद से तात्पर्य है-

  1. अधिगमकर्ता क्या सीखना चाहता है, इसके लिए उसे स्वीकृति देना (प्रस्तावित पाठ्यक्रम में से चयन करना, जैसे-अनिवार्य, वैकल्पिक या अन्य कौशल पाठ्यक्रम के रूप में निर्देशित विषय या पेपर)
  2. अपनी स्वयं की गति से अधिगम करने के संदर्भ में अपना विकल्प चयन करने की स्वीकृति देना।
  3. जिस विद्यालय में वे पढ़ रहे हैं, वहीं पर अपना अध्ययन जारी रखने या अपने आगे के अध्ययन के लिए नई संस्था या कार्यक्रम में, अब तक अर्जित क्रेडिट के स्थानांतरण की सुविधा सहित, प्रवेश लेने की स्वीकृति देना।
  4. संस्था (विद्यालय, महाविद्यालय या विश्वविद्यालय) के लिए ‘विकल्प‘ पद से अभिप्राय यह है कि वह क्या पढ़ाना है और कैसे पढ़ाना है इसके बारे में अपनी स्वयं के चयन या विकल्पों के बारे में निर्णय लेने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र है और इसमें वह अपनी स्वायत्तता का उपयोग कर सकती है। कोई भी कोर्स या कार्यक्रम चलाने के बारे में उनके स्वयं के द्वारा निर्णय लिया जा सकता है। वह राष्ट्रीय फ्रेमवर्क नीति के अनुसार शिक्षा में गुणात्मकता लाने के लिए जो भी उचित समझती है, इसके लिए निर्णय लेने में पूर्ण रूप से स्वतंत्र है।

(2) इस व्यवस्था में क्रेडिट पद का संबंध शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया और इसके परिणामों के प्रबंधन और मूल्यांकन से है। जैसा कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (2015) द्वारा प्रकाश डाला गया है, विकल्प आधारित क्रेडिट प्रणाली की विशेषताएँ निम्नानुसार हैं-

  1. अधिगमकर्ताओं के अधिगम अवसरों में वृद्धि करना।
  2. अधिगमकर्ताओं को ज्ञान संबंधी योग्यताओं तथा महत्त्वाकांक्षाओं का मिलान करना।
  3. अधिगमकर्ताओं की एक संस्थान से दूसरे संस्थान में अंतरनीयता (एक सेमेस्टर के पूरा हो जाने के बाद)।
  4. ऐसी व्यवस्था करना जिसमें अकादमिक कार्यक्रम के एक भाग को नामांकन के संस्थान में पूरा करने का तथा दूसरे भाग को विशेषीकृत (एवं मान्यता प्राप्त) संस्थान में पूरा करने का प्रावधान हो।
  5. शैक्षिक गुणवत्ता तथा उत्कृष्टता में सुधार।
  6. कामकाजी अधिगमकर्ताओं को कार्यक्रम को विस्तारित समय में पूरा करने के लिए लचीली व्यवस्था उपलब्ध कराना।

विकल्प आधारित क्रेडिट प्रणाली को अपनाने की जो उपयोगिताएँ हैं, उनको संक्षेप में निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) इससे परंपरागत शिक्षक केंद्रित और विषय केंद्रित उपागम के बदले अधिगमकता केंद्रित उपागम को अपनाया जा सकता है।

(2) इस व्यवस्था में बहुत से विषयों में से अध्ययन के लिए कोर्स चयन करने का विकल्प प्राप्त होता है।

(3) इसमें विद्यार्थी अपनी गति से तथा अपनी सुविधानुसार किसी एक या अन्य कोर्स का अध्ययन कर सकते हैं।

(4) यह व्यवस्था विद्यार्थियों को अपने विषय क्षेत्र से बाहर किसी अन्य कोर्स का अध्ययन करने की सुविधा प्रदान करती है।

(5) यह व्यवस्था विद्यार्थियों को अपने कोर्स के लिए निर्धारित क्रेडिट के अलावा अन्य कोर्स का अध्ययन करने की भी स्वीकृति देती है।

शिक्षा में छात्रों द्वारा की गई प्रगति और अधिकांश का मूल्यांकन अति आवश्यक और अनिवार्य है। अध्यापकों के लिये भी यह जानना उपयोगी और सन्तोषप्रद होता है कि उनके शिक्षण से उनके विद्यार्थी कितना लाभान्वित हुये हैं। इसके अतिरिक्त अभिभावक भी यह जानने के लिये उत्सुक रहते हैं कि उनके बच्चों ने कैसी प्रगति की है। इसे जानकर शिक्षक और अभिभावक बच्चों का सही मार्ग दर्शन कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त विद्यार्थियों को भी अपनी शैक्षिक उपलब्धि का ज्ञान प्राप्त हो जाता है जिससे वे अपनी शैक्षिक योजनायें उसी के अनुसार बनाते हैं। हमारे देश में वर्षों से इसके लिये परीक्षाओं की व्यवस्था होती रही है। जिसमें छात्र प्रश्न पत्रों में दिये गये प्रश्नों के उत्तर देते हैं और परीक्षकों द्वारा उन्हें अंक प्रदान किये जाते रहे हैं। यह अंक 0 से 100 तक के प्राप्तांक हो सकते हैं। इनके आधार पर पूर्व निर्धारित मनचाहे विभाजन के आधार पर छात्रों को प्रथम, द्वितीय या तृतीय श्रेणी प्रदान कर दी जाती है। यह प्रणाली वर्षों से बिना किसी संशोधन या परिवर्धन के चली आ रही है, जिसका कोई तार्किक और वैज्ञानिक आधार नहीं है।

इस प्रणाली (अंकन प्रणाली) की आलोचना समय-समय पर की जाती रही है। इसकी आलोचना परीक्षकों द्वारा अपनी विचारधारा और उस समय की उनकी मानसिक स्थिति के आधार पर की जाती रही है। इसके अतिरिक्त जहाँ 59.8% प्राप्तांक पाने वाला छात्र द्वितीय श्रेणी प्राप्त करता है वही 60% अंक प्राप्त करने वाला छात्र प्रथम श्रेणी प्राप्त करता है जबकि वास्तव में दोनों छात्रों की योग्यता में कोई अन्तर नहीं होता। इस प्रकार के मूल्यांकन में विषय की प्रकृति द्वारा अंकों का निर्धारण होता है, जैसे गणित में 100% अंक प्राप्त करना सम्भव है, पर इतिहास या भाषा में यह सम्भव नहीं है।

अंकन प्रणाली की इन कमियों के कारण माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-1953) तथा शिक्षा आयोग (1964-66) ने अंकों के स्थान पर ग्रेड प्रणाली का सुझाव दिया। 1975 में NCERT के द्वारा जारी ‘Frame work of curriculum for ten year school’ में भी ग्रेड प्रणाली की सिफारिश की गई थी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की ‘Plan of Action’ National Policy on Education’ में भी विश्वविद्यालय स्तर पर ग्रेड प्रणाली अपनाने की बात कही गयी है।

परीक्षा सुधार के क्षेत्र में कार्यरत विषय विशेषज्ञों का ध्यान ग्रेड प्रणाली ने आकर्षित किया। उनके विचार में फलांकों के वर्गों (Marking Categories) को कम करके आंकिक प्रक्रिया की त्रुटियों को कम किया जा सकता है। इस प्रकार ग्रेड प्रणाली के अपनाये जाने को सिद्धान्त रूप में स्वीकार पश्चात् भी ग्रेडों की संख्या पर एक मत निर्णय नहीं पाया गया।

कुछ लोगों के मत में 5 बिन्दु ग्रेड, कुछ लोगों के मत में 7 और अन्य कुछ लोगों के मत में 9 बिन्दु ग्रेड प्रणाली उचित थी।

ग्रेडिंग पद्धति में विद्यार्थियों को उनकी उपलब्धि तथा निष्पादन (performance) के आधार पर प्राय: 5 श्रेणियों में विभाजित करके अक्षर ग्रेड प्रदान किए जाते हैं। इसके लिए क्रमशः दो प्रकार के अक्षर ग्रेड प्रचलित हैं। एक में इन अक्षर श्रेणियों के नाम हैं A, B, C, D और E तथा में दूसरे में है 0, A, B, C तथा D अक्षर समूह इनमें से कोई भी चुना जाए परंतु ये जिस प्रभावी उपलब्धि और निष्पादन स्तर का प्रतिनिधित्व करते हैं वह है उत्कृष्ट (Outstanding), बहुत अच्छा (Very Good), अच्छा (Good), कमजोर (Poor) तथा बहुत कमजोर (Very Poor)।

केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने 9 बिंदुओं वाली ग्रेडिंग व्यवस्था को लागू किया है जिसमें ‘अक्षर वाले ग्रेड’ (A1, A2, B1, B2, C1, C2, D1, D2 तथा E) हैं जिनके अनुरूप प्रतिशत वाली सीमाएँ हैं (जो 91-100, 81-90, 71-80, 61-70, 51-60, 41-50, 33-40, 21-32 तथा 20 एवं उससे कम के रूप में हैं)।

विश्वविद्यालय अनुदान (UGC) तथा अनेक विश्वविद्यालयों में 1975 और 1976 में ग्रेड प्रणाली पर कार्यशालायें आयोजित की गईं और इसके आधार पर 7 बिन्दु ग्रेड प्रणाली अपनाने पर सहमति बन गई। यह ग्रेड 0, A,B,C, D, E और F है।

भारत में इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय (इग्नू) ने अपने यहाँ पाँच बिंदु वाली ग्रेडिंग व्यवस्था (A, B, C, D तथा E) लागू की हुई है।

ग्रेड प्रणाली में परीक्षक छात्रों के प्रश्न वार उत्तरों को सीधे-सीधे ग्रेड देकर मूल्यांकन कर सकते हैं तथा संपूर्ण उत्तर पुस्तिका के लिए औसत ग्रेड ज्ञात कर सकते हैं। ग्रेड औसत की गणना के लिए सभी ग्रेडों को अंकों में परिवर्तित कर लिया जाता है और उसके पश्चात् उनका औसत ज्ञात कर लिया जाता है जिसे ग्रेड बिंदु औसत (Grade Point Average) कहा जाता है। ज्ञात बिंदु ग्रेड प्रणाली में 0 को 6, A को 5, B को 4, C को 3, D को 2, E को 1 और F को शून्य अंक दिए जा सकते हैं। जब विभिन्न प्रश्नों के लिए भार (weightage) असमान हो तब विभिन्न प्रश्नों के ग्रेड बिंदुओं को प्रतिशत में गणना कर उनका योग कर लेते हैं और उसे 100 से भाग देने पर ग्रेड बिंदु ज्ञात हो जाता है।

ग्रेडिंग प्रणाली के लाभ (Advantage of Grading System)

  1. ग्रेडिंग प्रणाली में अधिक संख्या में छात्र उत्तीर्ण होते हैं।
  2. आंतरिक मूल्यांकन के कारण विद्यालय तथा छात्र के मध्य संबंध सकारात्मक होते हैं।
  3. यह विद्यार्थियों के शैक्षिक निष्पादन के विषय में सटीक जानकारी प्रदान करता है।
  4. यह परीक्षा परिणामों के प्रति समाज के लोगों तथा अभिभावकों की समझ को आसान बनाता है।
  5. छात्रों में समूह कार्य होने के कारण सामूहिकता की भावना जागृत होती है।
  6. इसमें विभिन्न विश्वविद्यालयों और बोर्ड के विद्यार्थियों की तुलना सरलता से की जा सकती है।
  7. ग्रेड की सहायता से किया गया मूल्यांकन अधिक विश्वसनीय होता है।
  8. ग्रेड प्रणाली एक सामान्य मापनी (Common Scale) का कार्य करती है जिससे विभिन्न विषयों और संकायों में अध्ययनरत विद्यार्थियों की शैक्षिक उपलब्धि की तुलना सरलता से की जा सकती है।
  9. ग्रेड प्रणाली में छात्रों का एक विश्वविद्यालय या संस्था से दूसरे विश्वविद्यालय या संस्था में स्थानांतरण सरलता से किया जा सकता है।

ग्रेडिंग प्रणाली की हानियाँ (Disadvantage of Grading System)

  1. ग्रेडिंग प्रणाली परीक्षा में 99 प्रतिशत तथा 90 प्रतिशत अंक लाने वाले छात्रों को एक ही ग्रेड दिया जाता है, जिससे अपेक्षाकृत अधिक प्रयत्न तथा परिश्रम करने वाले छात्रों में असंतोष की भावना उत्पन्न हो जाती है, उन्हें लगता है कि साल भर परिश्रम करने तथा परीक्षा की दृष्टि से कम समय में परीक्षोपयोगी प्रश्न रटकर प्रश्न करने तथा परीक्षा देने में कोई अंतर नहीं है, ग्रेडिंग प्रणाली में इस विषय में सुधार करने की आवश्यकता है।
  2. ग्रेडिंग वर्षभर किए जाने वाले विभिन्न प्रोजेक्ट्स तथा अन्य क्रियाओं पर दिए जाते हैं। जिससे छात्रों को पढ़ाई करने का उचित समय नहीं मिलता है तथा वे वर्ष भर विभिन्न प्रकार के प्रोजेक्ट्स में व्यस्त रहते हैं।
  3. ग्रेडिंग में केवल शैक्षिक उपलब्धि संबंधी ग्रेड दिए जाते हैं। इससे छात्रों का संपूर्ण मूल्यांकन नहीं हो पाता है, यह उपलब्धि छात्र प्रश्नों को रटकर भी प्राप्त कर सकते हैं। कुछ छात्र परीक्षा में बेईमानी करके भी अच्छे ग्रेड्स प्राप्त कर लेते हैं, जिससे छात्र में धोखा देने की भावना भी जागृत होती है। अत: छात्र की संपूर्ण योग्यता को जाँचने के लिए वर्तमान ग्रेडिंग प्रणाली पूर्ण रूप से सार्थक नहीं है।

खुली पुस्तक परीक्षा प्रणाली (Open Book Exam)

शैक्षिक उपलब्धि के मापन और आंकलन को एक ऐसे रोग ने ग्रस्त कर लिया है जिसका निदान बतलाने में शिक्षाविद् गम्भीरता से विचार करते हैं। यह रोग है नकल। आज इस रोग ने भयावह रूप धारण कर लिया है। नकल को रोकने के लिए परीक्षा प्रणाली में सुधार के लिए अनेक विकल्प सुझाये गये हैं। उनमें से एक विकल्प खुली पुस्तक प्रणाली का है।

खुली पुस्तक परीक्षा व्यवस्था वह व्यवस्था है, जिसमें परीक्षार्थी को प्रश्नों के उत्तर देते समय अपनी पाठ्य-पुस्तकों, नोट्स तथा दूसरी पाठ्य-सामग्री से परामर्श करने की आज्ञा दी जाती है। खुली पुस्तक परीक्षा व्यवस्था में समस्या समाधान तथा आलोचनात्मक चिंतन के कौशलों की जाँच की जाती है। खुली पुस्तक परीक्षा में परीक्षार्थी को शब्द कोष, लोगरिथम टेबल आदि के प्रयोग की भी इजाजत होती है।

खुली पुस्तक परीक्षा का उद्देश्य सूचना तथा ज्ञान को ढूँढ़ना तथा उसका प्रयोग करने की योग्यता को जाँचना है।

खुली पुस्तक परीक्षा परीक्षार्थी की याददाश्त का परीक्षण नहीं करती है। यह परीक्षा समस्या समाधान के लिए सूचना को प्राप्त करना तथा उसको प्रयोग करने की योजना का परीक्षण करना है।

बंद पुस्तक परीक्षा तथा खुली पुस्तक परीक्षा में मौलिक अंतर यह है कि पहले वाले विकल्प में इस बात का मूल्यांकन किया जा सकता है कि विद्यार्थी ने कितना याद कर लिया है किंतु दूसरे विकल्प में इस बात की संभावना नहीं है। खुली पुस्तक विकल्प में प्रश्न के द्वारा विद्यार्थी को प्रश्न के सिद्धांत की जानकारी दे दी जाती है और उसके बाद यह कहा जाता है कि वे उस सिद्धांत को परिदृश्य (scenario) में लागू करने की योग्यता का प्रदर्शन करें। बंद पुस्तक प्रश्न में उम्मीदवार के लिए यह आवश्यकता होती है वह सिद्धांतों को याद कर लें। इस संबंध में खुली पुस्तक वाली परीक्षा कार्यकारी वातावरण के ज्यादा निकट है जहाँ कर्मचारी की पहुँच नियमावलियों (manuals) तथा पिछले कार्य के उदाहरणों तक भी होती है जिनका उपयोग वह कर सके। एक खुली पुस्तक के प्रश्न में ‘वर्णन करें’ (describe) अथवा ‘स्पष्ट करें’ या ‘व्याख्या करें’ जैसे शब्दों का प्रयोग शायद ही कभी किया जाता हो क्योंकि ऐसे शब्द प्रायः प्रश्न की प्रस्तावना के रूप में होते हैं तथा उम्मीदवार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी स्मरण शक्ति से उस सैद्धांतिक उपागम को याद करे।

खुली पुस्तक परीक्षाओं के प्रायः निम्न दो रूप देखने को मिल सकते हैं-

1. नियंत्रणहीन खुली पुस्तक परीक्षा- इस प्रकार की खुली पुस्तक परीक्षाएँ ही वास्तव में अपने सही खुले रूप का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसमें परीक्षार्थियों के ऊपर किसी प्रकार की निरर्थक पाबंदियाँ नहीं लगाई जाती हैं।

2. नियंत्रित खुली पुस्तक परीक्षा- इस प्रकार की परीक्षा में विद्यार्थियों को इस प्रकार की स्वतंत्रता नहीं होती जैसा कि नियंत्रणहीन खुली पुस्तक परीक्षा में होती है। यहाँ उन्हें केवल विषय विशेष से संबंधित अनुभोदित पुस्तकें, शब्दकोश, लॉगटेबल इत्यादि का उपयोग करने की अनुमति होती है, वे अपने साथ कोई ऐसी हस्तलिखित या मुद्रित सामग्री नहीं ले जा सकते जिसको अनुमति उस परीक्षा में न दी गई हो।

खुली पुस्तक परीक्षा के लाभ (Advantage of Open Book Exam)

खुली पुस्तक परीक्षा के लाभ निम्न हैं-

  1. खुली पुस्तक परीक्षा व्यवस्था में परीक्षार्थी को सामग्री रटने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। उन्हें तथ्यों तथा आकृतियों व पुस्तकों को परीक्षा में प्रयोग करने की आज्ञा होती है।
  2. इससे विद्यार्थियों में समस्यात्मक समाधान के लिए आलोचनात्मक चिंतन का विकास होता है।
  3. इससे बच्चों में बोध तथा संश्लेषणात्मक कौशलों का विकास होता है।
  4. इससे बच्चों में सूचना खोजने से संबंधित कौशलों का विकास होता है।

खुली पुस्तक परीक्षा के दोष (Disadvantage of Open Book Exam)

खुली पुस्तक परीक्षा के दोष निम्न हैं-

  1. विद्यार्थी पढ़ना छोड़ देंगे तथा सिर्फ परीक्षा भवन में प्रदान की गई खुली पुस्तक से नकल करने का प्रयास करेंगे।
  2. जहाँ पाठ्यपुस्तकों की अनुमति दी जाती है, तब अध्यापकों तथा अन्य स्टाफ द्वारा यह सुनिश्चित किया जाना अनिवार्य है कि विद्यार्थियों को उचित पाठ की साफ प्रतिलिपियाँ उपलब्ध कराई जाएँ या फिर आंकलन रणनीति में किसी वैकल्पिक व्यवस्था को स्पष्ट किया जाए यथा-पाठ पर विद्यार्थियों को नोट बनाने की अनुमति देना।
  3. यह भी संभव है कि प्रक्रिया में मनमाने तत्त्वों को शामिल कर लिया जाए यथा-क्या विद्यार्थियों के पास उचित सामग्री है या फिर प्रयुक्त किए गए नोट्स विद्यार्थी के स्वयं के अपने हैं।
  4. अध्यापकों तथा अन्य स्टाफ द्वारा विद्यार्थियों के लिए इस संबंध में और अधिक विस्तृत दिशा निर्देश जारी किए जाने चाहिए कि वे परीक्षा भवन में क्या ले जा सकते हैं और क्या नहीं।
  5. बोर्ड की परीक्षाएँ अपना महत्त्व खो देंगी तथा कोई भी व्यक्ति बोर्ड द्वारा अथवा किसी प्रमाणीकरण संस्था द्वारा प्रदान किए गए अंकों अथवा ग्रेडों के आधार पर किसी व्यक्ति की योग्यता तथा क्षमता का आंकलन नहीं करना चाहेगा।

सावधानियाँ- खुली पुस्तक परीक्षा प्रणाली की पृष्ठभूमि में तर्क यह है कि छात्र बिना पुस्तक को पढ़े परीक्षा भवन में प्रश्नों के उत्तर पुस्तक से ढूँढ़ नहीं सकेगा। दूसरी ओर परीक्षकों को प्रश्न निर्माण में भी सावधानी बरतनी होगी। इसमें पूछे जाने वाले प्रश्नों की प्रकृति प्रचलित परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों से भिन्न होगी । खुली पुस्तक परीक्षा के पूछे जाने वाले प्रश्न, विश्लेषण, कौशल, संश्लेषण आदि पर आधारित होने चाहिए न कि वर्णात्मक जैसे कि वर्तमान में पूछे जाते हैं। प्रश्न-पत्र निर्माताओं को ऐसे प्रश्न निर्मित करने होंगे जिसके उत्तर पुस्तक में सीधे-सीधे (Readymade) न मिल सके। इस प्रकार की परीक्षा प्रणाली से छात्रों में रटने की प्रकृति कम होगी तथा वे पाठ्य सामग्री को समझ कर पढ़ेंगे और विषय-वस्तु का कौशलतापूर्वक व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करेंगे साथ ही नकल की प्रवृत्ति समाप्त हो जायेगी।

माँग-आधारित परीक्षा या ऑन डिमांड परीक्षा (On Demand Exam)

‘माँग-आधारित परीक्षा’ या ‘ऑन डिमांड परीक्षा‘ उस मनोवैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित है जिसके अनुसार जब एक विद्यार्थी को आवश्यकता या सुविधा हो तो उसके अनुसार उसकी माँग होने पर ही उसकी परीक्षा ली जाए। परीक्षा या आंकलन के इस वैकल्पिक स्वरूप को शुरू करने की जरूरत परंपरागत परीक्षा प्रणाली में आवश्यक लचीलापन लाने की जरूरत के कारण हो महसूस की गई। यह तो एक खुला तथ्य है कि पूर्ण वर्ष में एक निश्चित तिथि पर एक बार या दो बार परीक्षा लेने की परंपरागत प्रणाली अधिगमकर्ता के आंकलन में खुलापन और लचीलापन के मापदंड को प्राप्त नहीं कर सकती है। ऑन-डिमांड परीक्षा की अवधारणा विद्यार्थियों को जरूरी लचीलापन, खुलापन और स्वतंत्रता देने के विचार के कारण ही अस्तित्व में आई, जिससे विद्यार्थियों का अपनी अधिगम गति के अनुसार मूल्यांकन या आंकलन किया जा सके।

ऑन-डिमांड परीक्षा प्रणाली की विशेषताएँ

ऑन-डिमांड परीक्षा प्रणाली की विशेषताएँ निम्नानुसार हैं-

  1. परीक्षा की यह अभिनव योजना शिक्षार्थी-अनुकूल है।
  2. अधिक लचीली तथा परीक्षा के पारंपरिक नियत समय सीमा से मुक्त।
  3. छमाही सत्र के समापन पर होने वाली परीक्षा के लिए प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं।
  4. परीक्षा के दिन ही प्रश्न पत्रों के विभिन्न सेट बनाए जाते हैं।
  5. कदाचार (malpractices) अथवा अनुचित साधनों का प्रयोग किए जाने को कम से कम संभावना।
  6. भविष्य में सत्र के अंत में होने वाली परीक्षाओं के बोझ को कम करती है।
  7. यह विद्यार्थियों, अध्यापकों तथा परीक्षा की संपूर्ण व्यवस्था के कार्यभार को कम करती है।

ऑन-डिमांड परीक्षा प्रणाली के लाभ

ऑन-डिमांड परीक्षा प्रणाली के लाभ निम्नानुसार हैं-

  1. यह विद्यार्थियों को, जब भी वे तैयार हों तो परीक्षा देने की अनुमति प्रदान करती है। यह तैयारी संस्था या विभाग पर नहीं बल्कि विद्यार्थियों पर निर्भर करती है।
  2. यह विद्यार्थियों को अपनी परीक्षा की तिथि का चयन करने की अनुमति देती है।
  3. यह परीक्षा में फेल होने के भय को कम करती है।
  4. यह सत्र के अंत में होने वाली परंपरागत परीक्षा से सामान्यत: उत्पन्न भग्नाशा या हताशा, आत्मगौरव की समाप्ति, सहपाठियों की भर्त्सना और निराशा आदि को दूर करती है।
  5. इसमें विद्यार्थी अपने अधिगम निष्पत्ति के स्तर और डिग्री के बारे में स्वयं निर्णय लेता है। निष्पत्ति स्तर असंतोषजनक होने पर उसमें सुधार करने के लिए वह जितनी बार चाहे परीक्षा में बैठ सकता है, जब तक कि उसे संतुष्टि प्राप्त न हो जाए।
  6. यह व्यवस्था परीक्षा में होने वाली दूषित प्रवृत्तियों पर भी अंकुश लगाती है क्योंकि यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें प्रत्येक वैयक्तिक विद्यार्थी के लिए अलग-अलग परीक्षा उपकरण का प्रयोग किया जाता है। प्रश्न पत्र विद्यार्थी के कठिनाई स्तर के अनुसार अलग-अलग होते हैं।

ऑनलाइन परीक्षा (Online Exam)

आज तकनीकी विकास की जो गति है उसी का परिणाम है कि जीवन के अधिकांश क्षेत्रों में कम्प्यूटर का प्रयोग होने लगा है, फिर भला शिक्षा का क्षेत्र इससे कैसे अछूता रह सकता है। परीक्षा कार्य को गति प्रदान करने के लिए और मानवीय त्रुटियों को कम करने के लिए कम्प्यूटर का प्रयोग अत्यंत आवश्यक हो गया है।

शैक्षिक विकास की जाँच करने में कम्प्यूटर के दो प्रमुख कार्य हैं-

  1. कम्प्यूटर से परीक्षण पदों एवं अभ्यास के प्रश्नों के निर्माण में सहायता प्राप्त होती है।
  2. परीक्षा की सामग्री, फलांकन एवं परीक्षण पदों एवं पद विश्लेषण की प्रक्रिया में कम्प्यूटर बहुत अधिक लाभकारी और मितव्ययी सिद्ध हुआ है।

कम्प्यूटर एक ओर जहाँ पदों और प्रश्नों के निर्माण, परिमार्जन एवं संग्रहण में सहायता पहुँचाता है, वहीं दूसरी ओर वह परीक्षा की अपार वस्तु-सामग्री, प्राप्तांकों, पदविश्लेषण एवं सांख्यिकी गणना में सहायक होकर परीक्षा कार्य को त्वरित कर उसमें विश्वसनीयता, शुद्धता, वैधता और वस्तुनिष्ठता प्रदान करता है।

ऑनलाइन परीक्षा में सभी प्रश्न बहु-विकल्पीय होते हैं, जिनमें परीक्षार्थी को एक सही विकल्प चुनना होता है। ऑनलाइन परीक्षा में समय को निर्धारण सीमा होती है। निर्धारित समय के अंदर ही परीक्षार्थी को प्रश्नों का जवाब देना होता है।

परीक्षा के लिए कोई हार्ड कॉपी नहीं मिलती। लेकिन परीक्षा में सवालों के हल के लिए रबड, पैंसिल, कागज आदि सामग्री रफ कार्य के लिए मिलती है। अनुत्तरित प्रश्नों के बारे में भी कम्प्यूटर बताता है। सभी प्रश्नों को हल करने के बाद सबमिट बटन पर क्लिक करना आवश्यक है, जो इस परीक्षा प्रक्रिया के समापन को चिह्नित करता है।

ऑनलाइन परीक्षा की विशेषताएं (Characteristics of Online Exam)

ऑनलाइन/ई-परीक्षा में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए-

परीक्षा निर्देश (Examination Instruction)- परीक्षा की अवधि, प्रत्येक अनुभाग, प्रश्न, वर्ग, उत्तर देने की विधि, प्रश्नों के प्रकार आदि के लिए आवंटित अंक आदि का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया जाना चाहिए।

पंजीकरण (Registration)- जो विद्यार्थी ऑनलाइन और ई-परीक्षाओं का प्रयास करना चाहते हैं उन्हें अपना अकाउंट पंजीकृत कराना आवश्यक है, जहाँ प्रश्नों में उनके अधिगम का परीक्षण किया जाएगा। या तो परीक्षक प्रश्न निर्माण करेगा जो केवल विद्यार्थियों द्वारा हल किए जा सकते हैं या परीक्षा ऑनलाइन उपलब्ध होगी, जिसका लॉगिन पासवर्ड दर्ज करके मूल्यांकन किया जा सकता है।

परीक्षा की वैध समय अवधि (Valid Time Period of Examination)- इस प्रकार की परीक्षा एक निश्चित समय तक ही वैध होती है, जो बाद में अनुपलब्ध हो जाती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि परीक्षा का पैटर्न इस तरीके से निर्धारित किया जाता है जिससे विद्यार्थियों को पारंपरिक परीक्षा के विपरीत प्रश्न का हल करने के लिए अतिरिक्त समय मिलने का प्रावधान नहीं होता।

समय का स्मरण दिलाना (Time Reminder)- इस प्रकार की परीक्षा में जैसे-जैसे विद्यार्थी आगे बढ़ेगा, सिस्टम स्वतः ही चेतावनी देता रहेगा कि कितना समय बचा है, कितने प्रश्न बचे हैं या आधा उत्तर दिया है आदि। इस तरह के संकेत विद्यार्थियों के लिए अनुस्मारक के रूप में कार्य करते हैं ताकि वे समय पर परीक्षा पूरी कर सकें।

उत्तर की प्रस्तुति (Submission of Answer)- विद्यार्थी एक समय में पूरे या एक प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत कर सकते हैं। उपरोक्त दोनों स्थितियों में उत्तर चेतावनी संकेत ऐसे उत्पन्न होंगे : क्या उत्तर पूरा हो गया है, क्या वे उत्तर संशोधित करना चाहते हैं, आदि। इससे विद्यार्थियों को अपने उत्तरों की पुनः जाँच करने में मदद मिलती है।

परिणामों की घोषणा (Declaration of Results)- इस प्रकार की व्यवस्था में बच्चों के उत्तर देने के दो विकल्प होते हैं। सिस्टम उत्तर देने की स्थिति (चाहे उत्तर सही या गलत है) उत्पन्न कर सकता है या फिर सभी प्रश्नों के उत्तर सबमिट करने के बाद, परिणाम संपूर्ण रूप में दिखाई दे सकता है।

ऑनलाइन परीक्षा के लाभ (Advantage of Online Exam)

ऑनलाइन/ई-परीक्षाओं के कुछ लाभ निम्नलिखित हैं-

ई-परीक्षा में मानव त्रुटियाँ न्यूनतम होती हैं। पारंपरिक परीक्षाओं में उत्तर लिपियों का मूल्यांकन, मूल्यांकन ग्रेड दर्ज करने, नकल की पहचान करने आदि में गलतियों की संभावनाएँ उच्च होती हैं। दूसरी ओर ई-परीक्षा में अधिकांश गतिविधियाँ डिजिटल प्रकृति में होती हैं और इसलिए मानव त्रुटियों की संभावना बहुत कम होती हैं।

इस प्रकार की परीक्षा से गलत व्यवहार में शामिल होने की आदत को समाप्त किया जा सकता है चूँकि बच्चों को परीक्षाओं में सम्मिलित होने के लिए कम्प्यूटर वा अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण प्रदान किए जाते हैं, अत: गलत व्यवहार की संभावना न्यूनतम होती है।

पारंपरिक परीक्षाओं में प्रश्न पत्रों और उत्तर पुस्तिकाओं को एक स्थान से दूसरे स्थान तक परीक्षा भवन में लाने तथा ले जाने की आवश्यकता है लेकिन ऑनलाइन/ई-परीक्षाओं में ऐसा नहीं होता है। इस प्रकार ऑनलाइन परीक्षाओं में परीक्षा सामग्री को इधर-उधर ले जाना न्यूनतम होता है।

परंपरागत परीक्षाओं के आयोजन में मानवीय शक्ति की बहुत आवश्यकता होती है जबकि ऑनलाइन परीक्षा में मानव शक्ति की कम आवश्यकता होती है।

प्रश्न पत्रों के वितरण के बाद ऑनलाइन/ई-परीक्षाओं में काम का बोझ कम होता है क्योंकि मूल्यांकन और परिणाम आई.सी.टी. आधारित होते हैं। जबकि पारंपरिक परीक्षाओं के संचालन में काम का बोझ बहुत होता है जैसे प्रश्न पत्र तैयार करना, परीक्षाएँ निष्पादित करना, उत्तर पत्रकों का मूल्यांकन करना आदि।

ऑनलाइन परीक्षा की सीमाएं (Limitation of Online Exam)

डिजिटल युग में कई शैक्षणिक संस्थान और सरकारी एजेंसियाँ तकनीक का उपयोग करती हैं लेकिन सच यह है कि तकनीक के कुछ नुकसान भी हैं, जो निम्नानुसार हैं-

  • अधिकांश हितधारक ऑनलाइन/ई-परीक्षा संचालित करने के लिए समर्थ नहीं होते हैं।
  • ऑनलाइन/ई-परीक्षाओं के लिए विशेष रूप से विशिष्ट व्यवस्थाएँ और सुविधाओं के संचालन, संस्थानों और शिक्षकों के लिए विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता होती है।
  • इलेक्ट्रॉनिक मशीनों में तकनीकी त्रुटि की संभावना होती है और इसके कारण परिणाम पाने में असफलता हो सकती है।
  • सॉफ्टवेयर द्वारा परीक्षा में वायरस/बग/इंटरनेट आक्रमणों की समस्या ऑनलाइन/ई-परीक्षाओं के लिए एक खतरा है।
  • ऑनलाइन/ई-परीक्षा कराने की लागत अधिक होती है और यह कुछ संस्थाओं/संगठनों के लिए वित्तीय समस्याएँ पैदा करता है।
  • बच्चों को ऑनलाइन/ई-परीक्षाओं के लिए प्रशिक्षित होने की आवश्यकता है।