खानवा के युद्ध में कौन विजयी हुआ था? - khaanava ke yuddh mein kaun vijayee hua tha?

खानवा का युद्ध – मार्च, 1527 के आरंभ में राणा साँगा और बाबर की सेनाएँ खानवा के मैदान में आमने-सामने आ डटी। यद्यपि फारसी इतिहासकारों ने तथा स्वयं बाबर ने राणा साँगा के सैनिकों की संख्या बहुत अधिक बढा चढाकर बतलायी है। फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि बाबर की तुलना में साँगा के पास अधिक सैनिक थे। परंतु बाबर के पास एशिया का सर्वश्रष्ठ तोपखाना था, जबकि साँगा के पास इसका अभाव था। बाबर ने अपनी सेना की व्यवस्था पानीपत के युद्ध के ढंग से की तथा राणा की सेना प्रचलित राजपूती ढंग से व्यवस्थित थी। कर्नल टॉड के अनुसार युद्ध से पूर्व बाबर ने राणा साँगा से संधि करने का प्रयास किया था तथा रायसेन के शासक सलहदी तंवर ने इस संधि के लिये मध्यस्थता की थी। यद्यपि सभी मुगल अफगान लेखक इस संधि प्रस्ताव का उल्लेख नहीं करते चूँकि यह तथ्य मुगल पक्ष की दुर्बलता का प्रमाण था, अतः संभव है कि फारसी वृत्तांतकारों ने इस संबंध में मौन रहना ही उचित समझा हो। बाबर की तत्कालीन कमजोर स्थिति तथा राणा की विशाल सैन्य शक्ति को देखते हुये इस प्रकार के प्रस्ताव की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

खानवा के युद्ध में कौन विजयी हुआ था? - khaanava ke yuddh mein kaun vijayee hua tha?

17 मार्च 1527 को प्रातः नौ बजे के लगभग रणभेरी बज उठी तथा राणा ने अपने सेना के बाँयें सैनिक दल को मुगल सेना के दाहिने दल पर धावा बोलने का आदेश दे दिया। यह आक्रमण इतना तीव्र था कि मुगल सेना इस प्रारंभिक आक्रमण को सहन न कर सकी और बाबर को अपने दाहिने दल की सहायतार्थ तुरंत चिन तैमूर सुल्तान को ससैन्य उधर भेजना पङा। इसी समय मुस्तफारूमी की तोपों की मार से राजपूतों में भगदङ मच गयी। इस अवसर पर मुगल सेना ने भी तत्परता दिखाई तथा शत्रु दल को बिखेरने में तोपखाने और अश्वारोही दल ने अपना कमाल दिखाया। आग उगलती तथा भीषण गर्जना करती हुयी मुगल तोपों ने राजपूतों में आतंक उत्पन्न कर दिया। इसी समय राजपूतों की सहायतार्थ भी कुछ सेना आयी और मुगल सेना के दाहिने भाग पर पुनः दबाव डाला, लेकिन बाबर ने अपनी सेना के मध्य भाग को दाहिने भाग की सहायतार्थ भेजा, जिसने राजपूतों के आक्रमण को विफल कर डाला। अब साँगा ने मुगल सेना के बाँये भाग पर ध्यान दिया, किन्तु मुगलों ने राजपूतों के प्रत्येक आक्रमण को विफल कर दिया। इसी समय बाबर ने अपनी तुलुगमा पद्धति का प्रयोग किया। रुस्तमखान तुर्कमान तथा मुनीम अक्ता ने अपनी सैनिक टुकङियों के साथ चक्कर काटते हुये राजपूत सेना के पार्श्व भाग पर आक्रमण कर दिया। धीरे-धीरे राजपूतों के कई शूरवीर सेनानायक चंद्रभान, भोपतराय, माणिकचंद्र, दलपत आदि धराशायी हो गये। हसनखाँ मेवाती भी गोली का शिकार हो गा। राजपूतों की भारी क्षति से बाबर का हौसला बढ गया और उसने अपने सभी सुरक्षित सैनिकों को युद्ध में झोंक दिया।

इस नये आक्रमण का सामना करते हुये रावत जग्गा, रावत बाघ, कर्मचंद आदि कई सरदार मारे गये। ऐसी गंभीर स्थिति में राणा ने स्वयं को भी युद्ध में झोंक दिया। परंतु दुर्भाग्यवश से अचानक राणा सांगा के सिर में तीर लगने से राणा मूर्छित हो गया। अतः राणा के विश्वस्त सहयोगियों ने तत्काल राणा को युद्ध स्थल से बाहर निकाल लिया तथा अजमेर के पृथ्वीराज, जोधपुर के मालदेव और सिरोही के अखयराज की देखरेख में राणा को बसवा ले जाया गया। युद्ध भूमि में उपस्थित राजपूतों ने अंतिम दम तक लङने का निश्चय किया तथा राजपूत सैनिकों को राणा के घायल होने और युद्ध स्थल से चले जाने की बात मालूम न हो और उनका मनोबल बना रहे, इसके लिये हलवद (काठियावाङ)के शासक झाला राजसिंह के पुत्र झाला अज्जा को राणा साँगा के राज्यचिह्न धारण करवाये तथा उसे हाथी पर बैठा दिया। कुछ समय तक झाला अज्जा के नेतृत्व में युद्ध चला, लेकिन शीघ्र युद्ध स्थल में राणा की अनुपस्थिति की बात फैल गयी, जिससे राजपूत सेना में खलबली मच गयी। इसी समय मुगल सेना ने राजपूतों को चारों ओर से घेर कर भीषण धावा बोल दिया। राजपूत वीरतापूर्वक लङे, परंतु तोपों के गोलों के समक्ष उनकी एक न चली। अंत में विवश होकर वे युद्ध क्षेत्र से भाग खङे हुए। राजपूतों को भागते देख सलहदी और नागौर के खानजादा ने राजपूतों का पक्ष छोङ दिया और वे बाबर की सेना से जा मिले। उन्होंने बाबर को, राणा को घायलावस्था में युद्ध स्थल से बाहर ले जाने की सूचना दी बाबर की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। दोपहर तक युद्ध समाप्त हो गया । युद्ध भूमि पर मृतक तथा घायल राजपूतों के अलावा कोई राजपूत सैनिक दिखाई नहीं दे रहा था। बाबर की विजय निर्णायक रही। लाशों के टीले और कटे हुये सिरों की मीनारें बनाकर विजय की प्रसन्नता प्रकट की गयी। इस विजय के बाद बाबर ने गाजी की उपाधि धारण की।

राणा साँगा की पराजय के कारण

खानवा के युद्ध में राणा साँगा की निर्णायक पराजय हुई। इस पराजय के कारण निम्नलिखित थे

राजपूत सेना संख्या में मुगलों से अधिक होते हुये भी एक नेता के अधीन संगठित नहीं थी, बल्कि भिन्न-भिन्न राजपूत राजाओं और सामंतों के अधीन थी, जिनकी स्वामिभक्ति राणा की अपेक्षा अपने सामंतों एवं राजाओं के अधीन थी, जिनकी स्वामिभक्ति राणा की अपेक्षा अपने सामंतों एवं राजाओं के प्रति अधिक थी। ऐसी स्थिति में सेना में अनुशासन बनाये रखना संभव नहीं था तथा राजपूत सेना में आपसी तालमेल का भी अभाव था।

राणा साँगा को बाबर की सैन्य व्यवस्था तथा रण कौशल एवं तुलुगमा पद्धति की विशेष जानकारी नहीं थी। साँगा ने बाबर को साधारण शत्रु समझकर राजपूतों की परंपरागत युद्ध पद्धति को अपनाया, जो बाबर की नवीन युद्ध व्यवस्था के समक्ष अधिक समय तक नहीं टिक सकी। बाबर की तुलुगमा पद्धति इतनी कारगर एवं प्रभावशाली थी कि राजपूत इस पद्धति को तथा बाबर की चाल को न समझ सके। परिणाम यह हुआ कि अचानक वे मुगल सेना से घिर गये और लङते हुये मारे गये।

राणा साँगा की पराजय का एक कारण मुगलों के अश्वारोही सैनिक दस्ते की गतिशीलता तथा चातुर्यपूर्ण रण कौशल था। राणा के अधिकांश सैनिक पदाति थे और अश्वारोही सैनिक दस्ता था भी तो वह तेज गति से चलने वाले मुगल अश्वारोही सैनिक दस्ते की तुलना में अत्यन्त निम्नतर सिद्ध हुआ।

राणा साँगा की पराजय का एक महत्त्वपूर्ण कारण बाबर का तोपखाना था। मुगलों की आग उगलती हुई तोपों के समक्ष राजपूतों के परंपरागत हथियार और उनका शौर्य सफल नहीं हो सका। भला आग उगलती तोपों और दनदनाती गोलियों के समक्ष तीर भाले कितने समय तक टिक पाते? फिर बाबर के तोपखाने और अश्वारोही सैनिक दस्ते में इतने कुशल सामंजस्य था कि उनके समक्ष राणा के हाथियों और पैदल सैनिकों की कतारें बेकास सिद्ध हुई। राजपूत अचानक युद्ध में कूद पङते थे और बिना सोचे-समझे शत्रु सैनिकों के बीच तथा आग उगलती तोपों के बीच आगे बढने का प्रयास करते थे, जिसका परिणाम होता था – केवल मृत्यु। जबकि मुगल सैनिक कुशल रण-नीति अपनाते हुये, परिस्थितियों को देखते हुए आगे बढते थे या पीठे हटते थे। राजपूत मरना जानते थे, लङना नहीं, जबकि मुगल मरना नहीं, लङना और जीतना जानते थे। क्योंकि वे जानते थे कि पराजय की स्थिति में वे भागकर हजारों मील दूर अपने देश नहीं पहुँच पायेंगे। अतः वे प्राणप्रण से लङने में विश्वास रखते थे। मुगलों में राजपूतों की अपेक्षा युद्ध करने की लगन अधिक थी।

साँगा का अपने आपको युद्ध में झोंक देना, उसकी पराजय का कारण बन गया, जबकि बाबर एक निश्चित स्थान पर खङे रहकर युद्ध का संचालन करता था। बाबर ने कभी अपने आपको शत्रु के सामने नहीं आने दिया। साँगा बिना सोचे समझे स्वयं युद्ध में उतर आया तथा शत्रु के सामने आते ही शत्रु को उस पर वार करने का अवसर मिल गया। अतः शत्रु का तीर लगना, उसका मुर्च्छित होना, उसे युद्ध क्षेत्र से बाहर ले जाने के बाद राजपूतों का जोश और साहस धीरे-धीरे कम होता गया और अंत में वे युद्ध क्षेत्र से भाग खङे हुए।

बयाना पर विजय प्राप्त करने के बाद राणा साँगा ने सीधा सीकरी की ओर न जाकर भुसावर होते हुये सीकरी का मार्ग पकहा, फलस्वरूप उसने एक महीना व्यर्थ में ही नष्ट कर दिया। इससे मुगलों को विश्राम करने, युद्ध स्थल में उचित स्थान पर चयन करने तथा पर्याप्त तैयारी करने का समय मिल गया। इसके विपरीत साँगा, जब भुसावर का चक्कर काटकर युद्ध मैदान में पहुँचा तो उसे तैयारी का पर्याप्त समय भी नहीं मिला और थके-माँदे राजपूतों को तत्काल युद्ध में कूदना पङा। यदि साँगा बयाना से सीधा सीकरी पहुँचकर हतोत्साहित मुगलों पर धावा बोल देता तो युद्ध का परिणाम ही दूसरा होता।

युद्ध के आरंभ होने तक सांगा को यही गलतफहमी रही कि वह शीघ्र की अपनी विशाल सेना की सहायता से शत्रु को पराजित कर देगा। इसलिए उसने अपने बचाव की कोई सुरक्षात्मक सावधानी नहीं दिखाई। फिर विशाल सेना के कारण चित्तौङ से बयाना और तत्पश्चात बयाना से सीकरी जाते समय उसकी रफ्तार बहुत ही कम रही। इन गंभीर त्रुटियों के कारण राणा स्वयं ही अपनी पराजय का कारण बन गया।

कर्नल टॉड,हरबिलास शारदा, श्यामलदास आदि इतिहासकारों की मान्यता है, कि युद्ध के अंतिम दौर में सलहदी तंवर तथा नागौर के खानजादा द्वारा राणा से विश्वासघात करके मुगलों से मिल जाना युद्ध का निर्णय करने में सहायक रहा। यह सही है कि जब युद्ध निर्णायक स्थिति में पहुँचा हुआ था तथा सलहदी और खानजादा द्वारा राणा का पक्ष त्यागने और बाबर से मिल जाने से राजपूतों के मनोबल पर अवश्य ही प्रतिकूल प्रभाव पङा होगा। लेकिन ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि सलहदी और खानजादा ने अपना पक्ष उस समय बदला था जबकि राणा को घायल एवं मूर्छित अवस्था में युद्ध क्षेत्र से ले जाया जा चुका था और राजपूत सेना पराजय के कगार तक पहुँच चुकी थी। इस समय यदि वे अपना पक्ष नहीं बदलते तो भी राजपूतों की हार निश्चित थी। वास्तव में सलहदी के पक्ष बदलने से पहले ही राणा की पराजय सुनिश्चित हो चुकी थी। फिर भी जैसा कि निजामुद्दीन ने लिखा है कि किसी अदृश्य सेना ने मुगल पक्ष की सहायता की, इस संकेत के आधार पर अनेक विद्वानों का मानना है कि सलहदी के पक्ष परिवर्तन का अवश्य ही महत्त्वपूर्ण प्रभाव पङा था क्योंकि उनके विचार में सलहदी के अधीन लगभग 30-50 हजार सैनिक थे और इतनी विशाल सेना का अचानक शत्रु पक्ष की ओर चले जाने से निश्चय ही राणा की पराजय पर प्रभाव डाला था। एलफिन्स्टन एवं डॉ.ओझा की तो मान्यता है कि बयाना से शीघ्र सीकरी न पहुँचना ही राणा की पराजय का मुख्य और महत्त्वपूर्ण कारण था।

खानवा के युद्ध के परिणाम

राणा साँगा की मृत्यु

घायल राणा साँगा को पालकी में डालकर मेवाङ की ओर ले जाया गया। परंतु बसवा पहुँचने के पूर्व ही राणा को होश आ गया और वह पुनः युद्ध स्थल में जाने को उद्यत हुआ। उसके साथी सरदारों ने उसे खानवा युद्ध के सर्वनाश और राजपूतों की पराजय का विवरण दिया तब उसे भारी आघात लगा। उसने प्रतिज्ञा की कि जब तक वह बाबर को परास्त नहीं कर देगा और अपनी पराजय का बदला नहीं ले लेगा, वह वापस चित्तौङ नहीं जायेगा। ज्योंही वह ठीक हुआ वह पुनः बाबर का सामना कर पिछली पराजय का बदला लेने के लिये उत्सुक हो उठा । अतः जब उसे सूचना मिली कि बाबर जनवरी, 1528ई. के प्रारंभ में काल्पी से ससैन्य चंदेरी पर आक्रमण करने हेतु बढा चला आ रहा है, तब राणा साँगा भी मेदिनीराय की सहायतार्थ ससैन्य चल पङा। लेकिन रास्ते में ही उसकी तबीयत खराब हो गयी और 30 जनवरी, 1528 ई. को उसका देहावसान हो गया। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि इस नये युद्ध का विरोध करने वाले राणा साँगा के राजपूत साथियों ने ही राणा को विष दे दिया। कुछ विद्वानों के अनुसार साँगा की मृत्यु काल्पी में हुई और काल्पी से उसके शव को माण्डलगढ लाया गया और वहाँ विधिवत दाह-संस्कार किया गया। लेकिन काल्पी में उसकी मृत्यु होने के बाद माण्डलगढ ले जाकर वहाँ उसकी दाह-क्रिया की बात स्वीकार करना भौगोलिक, सामरिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वथा भ्रमपूर्ण प्रतीत होती है।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
खानवा के युद्ध में कौन विजयी हुआ था? - khaanava ke yuddh mein kaun vijayee hua tha?
Online References
wikipedia : खानवा का युद्ध