लोगों का पिछड़ापन कैसे दूर हो सकता है बताइए - logon ka pichhadaapan kaise door ho sakata hai bataie

रांची : नीति आयोग की अध्यक्षता में आयोजित नेशनल कॉनक्लेव में राज्य सरकार ने विकास के क्षेत्र में अन्य राज्यों से पिछड़े होने की बात स्वीकार की. साथ ही इससे निपटने के लिए किये जा रहे उपायों और कुछेक क्षेत्रों में अपनी सक्सेस स्टोरी की जानकारी आयोग को दी. आयोग ने स्वास्थ्य, शिक्षा सहित कुछ अन्य सामाजिक क्षेत्रों में झारखंड को दूसरे राज्यों के मुकाबले काफी पीछे बताया है.


राज्य सरकार इन क्षेत्रों में अपने पिछड़ेपन को दूर करने की कोशिश कर रही है. सरकार ने राज्य विकास परिषद के माध्यम से एक तीन वर्षीय एक्शन प्लान तैयार किया है. इसमें कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा सहित सभी क्षेत्रों में सुधार के लिए विस्तृत योजना बनायी है. इसके लिए 15 क्षेत्रों को चिह्नित किया गया है. इन क्षेत्रों में योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए विभागीय तालमेल बनाने के साथ-साथ बेहतर मॉनिटरिंग की भी व्यवस्था की गयी है.

सेंटर अॉफ फिस्कल स्टडी का गठन

राज्य सरकार ने वित्तीय मामलों के अध्ययन व राजस्व वृद्धि के उद्देश्य से सेंटर अॉफ फिस्कल स्टडी का भी गठन किया है. विकास में आम लोगों की भागीदारी हो, उनकी जरूरत के अनुरूप योजनाएं बने, इस उद्देश्य से योजना बनाओ अभियान शुरू किया है. इसमें हर क्षेत्र में जाकर लोगों से उनकी जरूरतें जानी जाती है और उसे पूरा करने के लिए आवश्यक प्रावधान किया जाता है. राज्य सरकार ने अपनी सक्सेस स्टोरी का उल्लेख करते हुए राजमिस्त्री का प्रशिक्षण और पोषण एप का विशेष रूप से उल्लेख किया. इस मामले में सरकार की ओर से कहा गया कि ग्रामीण क्षेत्रों में बीपीएल परिवारों काे आवास उपलब्ध कराने के लिए निर्धारित लक्ष्य को राजमिस्त्री की कमी से पूरा करना संभव नहीं हो पा रहा था. सरकार ने इस स्थिति से निपटने के लिए कौशल विकास योजना के तहत राजमिस्त्री का प्रशिक्षण दिया और उन्हें प्रधानमंत्री आवास योजना से जोड़ा. इससे ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों के लिए बनाये जा रहे आवास में काफी प्रगति हुई.

कुपोषण से निपटने के लिए एप बनाया

कुपोषण की स्थिति से निपटने के लिए पोषण नामक एप को विकसित किया गया है. इस एप पर सूचना डालने पर अति कुपोषित बच्चे की स्थिति में सुधार के लिए कहां क्या होता है, इसकी जानकारी दी जाती है. इससे लोगों को अति कुपोषित बच्चों के इलाज में आसानी हो रही है. बैठक में विकास आयुक्त अमित खरे ने प्रजेंटेशन के माध्यम से यह बात बतायी थी.

पिछड़ापन दूर करने के लिए सब समाजों को मिलजुलकर काम करना होगा। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षणिक रूप से समानता लाने के लिए काम करना जरूरी है।

यह बात रविवार को सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज फैजानुद्दीन ने अल्पसंख्यक, अनुसूचित जनजाति, जनजाति और पिछड़ा वर्ग के तत्वावधान में आयोजित राज्य स्तरीय सम्मेलन में कही। रिटायर्ड आईएएस अफसर सरदार सिंह डंगस ने कहा कि हमारा संगठन पिछड़े वर्ग के कल्याण के लिए अच्छा काम कर रहा है। आगे भी हमें अपने अधिकारों के लिए लड़ाई जारी रखना होगा। देश की राजनीति में पिछड़े वर्ग के पिछड़ने के कारणों पर वक्ताओं का कहना था कि भारत का सकल घरेलू उत्पाद जापान से भी कम है। जापान की जनसंख्या 15 करोड़ है और भारत की 125 करोड़ हैं। इसे देखते हुए जरूरत है कि लोगों में आर्थिक पिछड़ापन दूर किया जाए। उन्होंने कहा िक पहले राजनीतिक पिछड़ने के कारणों का पता लगाया जाए। इसके बाद दल बार पिछड़े वर्ग के लोगों की भागीदारी का प्रतिशत देखा जाए।

अचानक ही पिछड़ेपन का मुद्दा चल निकला है। दिल्ली में हुई जनता दल यूनाइटेड की रैली के बाद से ही पिछड़ेपन की बहस के दरवाजे खुल गए हैं। विकास के अर्थशास्त्र की किताबों में पिछड़ेपन की अवधारणा की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है। विभिन्न देश इस शब्द का इस्तेमाल उन इलाकों के लिए करते रहे हैं, जो विकास के पैमाने पर पीछे रह जो हैं।

पूर्व सोवियत संघ ने इस मसले को क्षेत्रीय विषमता के रूप में देखा था और 1928 से शुरू योजना युग में इससे निपटने के लिए क्षेत्रीय उत्पादन कांप्लेक्स बनवाए थे। ब्रिटेन ने ऐसे क्षेत्रों की पहचान अविकसित या विशेष क्षेत्र के तौर पर की थी। अमेरिका ने इन्हें एपलचेन क्षेत्र कहा था, जिन्हें आगे बढम्ने के लिए खास संरक्षण की जरूरत हो। इटली ने भी विकसित उत्तरी क्षेत्र और अविकसित दक्षिणी क्षेत्र में विकास की दूरी पाटने के लिए विशेष अभियान चलाया था।

भारत भी लंबे समय से इस समस्या के निदान की कोशिश में जुटा है। क्षेत्रीय विकास में संतुलन कायम करने की जरूरत का जिक्र तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-66) में ही हुआ था, उस समय उद्योग लगाकर इससे निपटने की बात कही गई थी। इस सोच को चौथी पंचवर्षीय योजना में और विस्तार दिया गया। इसमें राज्यों की विषमता और गरीबी-रेखा के नीचे रहने वाली आबादी के प्रतिशत पर गौर किया गया। इसी के साथ गाडगिल फॉर्मूला भी शुरू हुआ, जिसमें यह कहा गया कि अगर केंद्र सभी राज्यों को बराबर मदद देता है, तो इससे सभी राज्यों का एक बराबर विकास नहीं होगा।

इसके बाद पिछड़े क्षेत्रों में केंद्र सरकार की बड़ी भूमिका की बात शुरू हुई, जिसे पांचवीं पंचवर्षीय योजना में जगह मिली। पिछड़ेपन के मसले के लिए समय-समय पर जो समितियां बनीं, उनकी जानकारी भी यहां काफी दिलचस्प हो सकती है। इसका सारा ध्यान शुरुआत में औद्योगीकरण पर था, जो बाद में सामाजिक और विकास के सूचकांकों की तरफ मुड़ गया। चौथी पंचवर्षीय योजना के दौरान इसके लिए जो अध्ययन दल बना था, उसने पांच श्रेणियों में विकास के 15 ऐसे सूचकांक चुने थे, जिन पर ज्यादा ध्यान देने की बात कही गई थी। ये श्रेणियां थीं- मरुस्थल, सूखाग्रस्त क्षेत्र, पर्वतीय क्षेत्र, आदिवासी क्षेत्र और अति सघन क्षेत्र।

लगभग इसी दौरान पिछड़े क्षेत्रों के औद्योगीकरण पर बनी समिति (जिसे पांडे समिति भी कहा जाता है) की रिपोर्ट आई थी। 1972 में प्रोफेसर सुखमय चक्रोबर्ती की अध्यक्षता में पिछड़े क्षेत्रों के लिए रणनीति तय करने को एक समिति बनाई गई थी। इसकी रिपोर्ट को अंतिम रूप नहीं दिया जा सका, लेकिन रिपोर्ट के मसौदे में अशिक्षा, विद्युत का इस्तेमाल, बेरोजगारी आदि को पैमाना बनाने की बात थी। पिछड़ेपन की सोच में बड़ा बदलाव तब आया, जब 1981 में बी शिवरमन की अध्यक्षता में बनी नेशनल कमेटी ऑन डेवलपमेंट ऑफ बैकवर्ड एरियाज की रिपोर्ट आई।

इस रिपोर्ट के अनुसार, उन क्षेत्रों के विकास के लिए खास कोशिश होनी चाहिए- जिनमें विकास की संभावना हो, कुछ ऐसी बाधाए हों, जो इस संभावना के आड़ें आ रही हों और इन बाधाओं को दूर करने के लिए विशेष कार्यक्रम बनाने की जरूरत हो। इसमें पिछड़े क्षेत्रों की पहचान- मरुस्थल, सूखाग्रस्त क्षेत्र, आदिवासी क्षेत्र, पर्वतीय क्षेत्र, बाढ़ग्रस्त क्षेत्र व लवण की अधिकता से प्रभावित तटवर्ती क्षेत्र के रूप में की गई थी। विभिन्न समितियों की रिपोर्ट के आधार पर योजना आयोग ने 70 के दशक में पिछड़े क्षेत्रों को जिला के आधार पर तय करने की बात की। आज भी पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष से पिछड़े जिलों को अनुदान दिया जाता है। इसके दो भाग हैं- एक के तहत बिहार व उड़ीसा के कुछ जिलों के लिए चल रही विशेष योजना आती है और दूसरे में 250 पिछड़े जिलों के लिए राष्ट्रीय सम विकास योजना है।

इसके तहत जो जिले आते हैं, उन्हीं में से 200 जिलों को सबसे पहले मनरेगा के लिए चुना गया था। इस बात को देखा गया है कि पिछड़ेपन से हमेशा ही गांव, ब्लॉक या जिला स्तर पर नहीं निपटा जा सकता। कुछ ऐसी बाधाएं भी होती हैं, जिन्हें राज्य स्तर पर ही दूर किया जा सकता है। गाडगिल फॉर्मूले के तहत काम करते समय पांचवां वित्त आयोग भी इसी नतीजे पर पहुंचा था। इसी के तहत उन तीन पर्वतीय राज्यों को विशेष दर्जा दिया गया था, जहां आबादी काफी कम है और वे अंतरराष्ट्रीय सीमा से भी जुड़ते हैं। बाद में इसका दायरा बढ़ा और अब यह दर्जा 11 राज्यों को हासिल है। इन राज्यों को केंद्रीय मदद के अलावा केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं में एक बड़ा हिस्सा मिलता है। इस सबके बावजूद आज भी देश के राज्यों में कई तरह की असमानता है।

पहली असमानता है, राज्यों की प्रति व्यक्ति आय के मामले में। इसमें अधिकतम और न्यूनतम का अंतर पांच और एक का है। मसलन, बिहार में प्रति व्यक्ति सालाना आय 13,632 रुपये है, जबकि राष्ट्रीय औसत 35,993 रुपये का है और महाराष्ट्र में यह 62,729 रुपये है। दूसरी, गरीबी रेखा के मामले में 2009-10 के आंकड़ों के हिसाब से देश की 29.8 फीसदी आबादी इस रेखा से नीचे गुजर-बसर करती है, जबकि बिहार की 53.5 फीसदी आबादी इस रेखा से नीचे है।

तीसरी, सड़क, रेलवे और विद्युत की प्रति व्यक्ति उपलब्धता के आधार पर बने इन्फ्रास्ट्रक्चर इंडेक्स के हिसाब से भी राज्यों में खासी असमानता है। बिहार में प्रति व्यक्ति 122 मेगावॉट विद्युत उपलब्ध है, जबकि राष्ट्रीय औसत 778 मेगावॉट है। चौथी असमानता यह है कि शिक्षा, शिशु व मातृ मत्यु दर जैसे मानव विकास सूचकांकों के मामले में भी बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे राज्य राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे हैं। पांचवीं, यही हाल औद्योगिक उत्पादन के मामले में भी है। बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में कुल मिलाकर देश की 35 फीसदी आबादी रहती है, लेकिन यहां देश का कुल नौ फीसदी औद्योगिक उत्पादन होता है।

ये सूचकांक बताते हैं कि योजना के बावजूद राज्यों में समता की बजाय विषमता बढ़ी है। केंद्र पर उनकी निर्भरता बढ़ने के कारण अब वे अपनी योजनाएं विकसित करने की स्थिति में भी नहीं हैं। इसलिए अब हमें अपने लक्ष्य बदलने चाहिए। गरीबी उन्मूलन की योजनाएं ऐसी होनी चाहिए कि जहां उनकी जरूरत सबसे ज्यादा हो, वहां सबसे ज्यादा मदद पहुंचे। इसके अलावा विकास कार्यक्रम ऐसे होने चाहिए, जिनमें राज्यों की बड़ी भूमिका हो।

अब समय आ गया है कि पिछड़ेपन की अवधारणा को पूरी तरह बदला जाए। क्षेत्रीय विषमताओं को खत्म करना भारत का राष्ट्रीय मकसद होना चाहिए। इसके लिए हमें पिछड़ेपन की ऐसी अवधारणा अपनानी होगी, जो दलगत राजनीति से उदासीन हो और आर्थिक रूप से न्यायपूर्ण भी। और इस नई समझ के हिसाब से ही हमें विभिन्न राज्यों को दिए जाने वाले विशेष दर्जे पर भी विचार करना होगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

लोगों का पिछड़ापन कैसे दूर करें?

पिछड़ापन दूर करने के लिए सब समाजों को मिलजुलकर काम करना होगा। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षणिक रूप से समानता लाने के लिए काम करना जरूरी है।

बिहार के पिछड़ेपन को दूर करने के क्या उपाय हैं?

जनसंख्या पर नियंत्रण - राज्य में तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या पर रोक लगाया जाए। ... .
कृषि का तेजी से विकास - बिहार में कृषि ही जीवन का आधार है। ... .
बाढ़ पर नियंत्रण - बिहार के विकास में बाढ़ है एक बहुत बड़ा बाधक है। ... .
आधारिक संरचना का विकास - बिहार में बिजली की काफी कमी है।.

भारत के पिछड़ेपन का मुख्य कारण क्या है?

भारत के पिछड़ने का कारण क्या है? भारत विकास में इसलिए पिछड़ा हुआ है क्योंकि यहाँ के पढ़े लिखे और अमीर लोगों का बड़ा हिस्सा बेईमान है.. यह ग़रीब को लगातार गरीब बनाए रखने के उपाय करते रहते है। ये सबसे बड़ा कारण है।

पिछड़ापन क्या होता है?

- 1. किसी व्यक्ति तथा समूह का आर्थिक, सामाजिक तथा शिक्षा के क्षेत्र में दूसरों की तुलना में पीछे रह जाना 2. अज्ञानता, आडंबर तथा पुरानी मान्यताओं को ज्यों का त्यों मानने से उपजी अराजकता 3. ज्ञान की कमी।