इस संवाद के कवि तुलसीदास जी है: यह प्रसंग राम के धनुष तोड़ने और मिथिलेश कुमारी सीता से विवाह करने के समय की परिस्थितियों का वर्णन करता है। परशुराम लक्ष्मण संवाद में जो भी दोहे और चौपाईया ली गयी है, वह तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस के कई सारे कांड में से जो बालकाण्ड नामक कांड है, वहां से लिया गया है। इस कांड में राम के जन्म से लेकर उनके विवाह तक का प्रसंग इसमें वर्णित है। Show यह उस समय का दृश्य है जब मिथिला के राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता के विवाह हेतु स्वयंवर आयोजित किया था और देश विदेश से सभी शक्तिशाली राजाओं को न्योता भेज उन्हें अपने राज्य में उपस्थित होने का निमंत्रण दिया था। इस स्वयंवर में मुनि विश्वामित्र भी अयोध्या के दो सुंदर राजकुमारों श्री राम और लक्ष्मण के साथ पधारे। अंत में जब कोई राजा धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर कोई उसे हिला भी न सका तब राम ने धनुष उठाया और उनके धनुष उठाते ही उसका खंडन हो गया। उस शिव धनुष के टूटने की गर्जना इतनी तेज थी कि तीनों लोको में हाहाकार मच गया। सीता ने राम को वरमाला पहनाई और उन्हें अपने पति के रूप में स्वीकार किया। भगवान परशुराम शिव जी के अनन्य सेवक थे, वे सदैव शिव की भक्ति में लीन रहते थे। जब उन्हें पता चला कि उनके आराध्य भगवान शिव का धनुष किसी ने तोड़ दिया है तो परशुराम अति क्रोधित हुए। वे तुरंत मिथिला नगरी पहुंच गये, राम लक्ष्मण परशुराम संवाद | Ram Laxman Parshuram Samvad चौपाई 1. नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।। अर्थ – परशुराम जी के क्रोध को देखकर राम, परशुराम से कहते है कि हे नाथ! शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला आपका ही कोई दास ही होगा। आप क्रोधित ना हो मुझे आज्ञा दे, मुझसे कहे यह सुनकर परशुराम और ज्यादा नाराज हो जाते है और कहते है कि चौपाई सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई।। अर्थ – सुनो राम! सेवक का कार्य तो सेवा करना होता है किन्तु जो सेवक शत्रु के समान कार्य करे तो युद्ध तो सुनिश्चित है और जिसने यह धनुष तोड़ा वह तो सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु हो चुका है। चौपाई सो बिलगाइ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा।। अर्थ – फिर वे सभा में बैठे सभी राजाओं की ओर देखते है और कहते है कि जिस किसी ने भी इस शिव धनुष को तोड़ा है, वह स्वयं ही इस समाज से बिलग बैठ जाये नहीं तो यहाँ उपस्थित सभी राजाओं का अंत मेरे हाथों निश्चित है। परशुराम जी के ऐसे चेतावनी भरे वचन सुनकर लक्ष्मण जी हंसने लगे, उनके मुख पर मुस्कान खेल गयी। वे परशुराम जी से ऊँचे स्वर में बोले। चौपाई बहु धनुही तोरी लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस किन्हि गोसाईँ।। अर्थ – हे मुनिश्रेष्ठ! बालपन में हमने बहुत सारे धनुष खेल-खेल में ही तोड़ डाले लेकिन तब तो आपको कोई क्रोध नहीं आया लेकिन इस धनुष से इतना मोह क्यों? इस धनुष से अधिक प्रेम का क्या कारण है, भगवन! लक्ष्मण जी की बातों ने परशुराम जी के क्रोध की अग्नि में घी डालने का कार्य किया। वह और अधिक क्रोध में आ गये और बोले चौपाई रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार्। अर्थ – अरे राजा के बालक! तुम जरा संभल कर क्यों नहीं बात करते, ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हारे सिर पर काल मंडरा रहा है। भगवान त्रिपुरारी के विश्व प्रसिद्ध धनुष की तुलना तुम अपने बालपन के धनुष से कैसे कर सकते हो। चौपाई लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।। अर्थ – तब राजकुमार लक्ष्मण ने हँसते हुए कहा हे मुनिराज! मेरे लिए तो सभी धनुष की शक्ति एक समान है एक पुराने से धनुष के टूटने से भला किसी को क्या लाभ अथवा क्या हानि प्राप्त हो सकती है। मेरे भईया राम ने तो इसे नया समझकर उठाया और प्रत्यंचा चढाने की कोशिश की थी। राम लक्ष्मण परशुराम संवाद | Ram Laxman Parshuram Samvad चौपाई छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू।। अर्थ – लेकिन यह तो भईया राम के छूने मात्र से खंडित हो गया। इसमें श्रीराम का कोई दोष नहीं, इसीलिए हे मुनि श्रेष्ठ! आप अकारण क्रोधित ना हो। इसके बाद श्री परशुराम ने अपने फरसा उठाया और फरसे की तरफ देखते हुए बोले हे दुष्ट बालक! लगता है तुम मेरे स्वभाव से अपरिचित हो। चौपाई बालकु बोलि बधौं नहि तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।। अर्थ – मैं तो तुम्हें नन्हा बालक जानकर तुम पर प्रहार नहीं कर पा रहा हूँ और तुम मुझे साधारण जानकर मेरा उपहास कर रहे हो। मैं बाल ब्रह्मचारी, अत्यंत क्रोधी और क्षत्रिय कुल नाशक के रूप में समस्त विश्व में विख्यात हूँ। चौपाई भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।। अर्थ – मेरे भुजबल के प्रताप से एक नहीं बल्कि कई बार यह पृथ्वी क्षत्रिय विहीन हुई है। मैंने क्षत्रियों का संहार कर सारी पृथ्वी ब्राह्मणों को दान में दे डाली है। मैंने भगवान शंकर से अपने तपोबल के आधार पर वर भी प्राप्त किये है। मेरे इसी फरसे से मैंने सहस्रबाहु की भुजाये काट डाली थी, इसीलिए राजा के लड़के! तुम ये फरसा ध्यान से देख लो। दोहा- मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर। अर्थ – तुम्हारा व्यवहार तुम्हें दुर्गति की ओर ले जा रहा है। तुम्हारी दशा से तुम्हारे माता-पिता को अत्यंत दुःख भोगना पड़ सकता है। तुम्हें पता नहीं मेरे फरसे की भयंकर गर्जना से गर्भवती स्त्रियों का गर्भ नष्ट हो जाता है। चौपाई बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।। अर्थ – परशुराम जी की बाते सुनकर छोटे राजकुमार लक्ष्मण ने मीठी वाणी का प्रयोग किया और कहा, हे भगवन! आप स्वयं की अति श्रेष्ठ मानते है और बार बार मुझे फरसा दिखाकर डराना चाहते है। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आप केवल फूंक मारकर ही पहाड़ उडाना चाह रहे है। चौपाई इहाँ कुम्हड़बतिया कोऊ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं।। अर्थ – यहाँ कोई कुम्हड़े का बतिया नहीं है जो मात्र तर्जनी अंगुली दिखाने से ही मर (कुम्हला) जाता है, मैंने तो सिर्फ आपके कठोर वचनों और धनुषबाण ही देखे और तब जाकर यह बात पूरे अभिमान से कह डाली। चौपाई भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी।। अर्थ – आपके जनेऊ से जान पड़ता है कि आप भृगुवंशी ब्राह्मण है, इसीलिए मै ब्राह्मण- सम्मान में अभी तक शांत बैठा हूँ, हमारे कुल की नीति अनुसार हम देवताओं, ब्राह्मणों, हरिजन तथा गायों पर अपनी शक्ति नहीं दिखाते। राम लक्ष्मण परशुराम संवाद | Ram Laxman Parshuram Samvad चौपाई बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहू पा परिअ तुम्हारें।। अर्थ – क्योंकि इनकी हत्या करने से मनुष्य पाप का भागीदार होता है और यदि युद्ध में इनसे हार हो जाये तो अपयश होता है इसीलिए आप शस्त्र उठाये तो हमे स्वयं झुक जाना चाहिए। आपके मुख से निकले हुए वचन करोड़ों बज्रो के समान आघात पहुचाते है, आपने तो ये फरसा और ये धनुष नाहक ही धारण कर रखा है। दोहा – जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर। अर्थ – हे मुनिवर! यदि आपके शस्त्रों को देखकर मेरे मुख से कुछ अनुचित निकल गया हो तो मुझे क्षमा करें। लक्ष्मण के वचन सुन कर परशुराम जी थोड़े गंभीर हो गये और कहने लगे। चौपाई कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु। कुटिलु कालबस निज कुल घालकु।। अर्थ – हे मुनि विश्वामित्र! यह राजा का लड़का बहुत चतुर दिखाई पड़ता है। इसका चरित्र कुटिल और यह स्वयं कुबुद्धि जान पड़ता है, यह काल से शत्रुता कर अपने ही वंश का घातक सिद्ध हो रहा है। यह चन्द्र के समान सूर्य कुल में कलंक है। चौपाई कालकवलु होइहि छन माहीं। कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं।। अर्थ – यह बालक कुछ क्षणों में ही काल को प्रिय हो जायेगा। मैं अभी कह देता हूँ बाद में कोई मेरा दोष ना देना, यदि तुम इस लड़के की रक्षा चाहते हो तो इसे बताओ कि मैं अति क्रोधी हूँ इसे मेरे बल और प्रताप का ज्ञान कराओ। चौपाई लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।। अर्थ – इतना सुनते ही राजकुमार बोले हे ऋषि श्रेष्ठ! आपके प्रताप और बल का बखान आपकी उपस्थिति में कोई और कैसे कर सकता है। आप अपनी कीर्ति का बखान स्वयं ही किये जा रहे है। आपने अनेक तरीको से अपने कार्यो का वर्णन चौपाई नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।। अर्थ – यदि इतना बखान भी पर्याप्त नहीं है आप संतुष्ट नही है तो जो बाकी हो कह डालिए। अपने क्रोध और अपनी भावनाओ को दबाकर पीड़ा मत सहिये। आप तो स्वयं वीर है, वीरता आपका आभूषण है, इसीलिए अपशब्दों या गारी देते हुए आपकी शोभा कदापि नहीं बढती। राम लक्ष्मण परशुराम संवाद | Ram Laxman Parshuram Samvad दोहा- सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु। अर्थ – वीर पुरुष व्यर्थ ही अपनी बड़ाई स्वयं नहीं करते, रण में ही अपनी वीरता का परिचय देते है और खुद को वीर सिद्ध करते है। युद्ध के समय शत्रु को अपनी बातोबातों से प्रभावित नहीं करते। बखान करना तो कायर पुरुषों का कार्य है। चौपाई तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा।। अर्थ – हमें तो ऐसा लग रहा है कि आप बार-बार यमराज को आवाज दे रहे है और उन्हें मेरे लिए ही आमंत्रित कर रहे है। राजकुमार लक्ष्मण के कडवे वचनों ने परशुराम जी को और क्रोधित कर दिया। उन्होंने क्रोध वश अपना फरसा उठा लिया। चौपाई अब जनि दै दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू।। अर्थ – और तेज स्वर में कहा अब मेरा कोई दोष नहीं यदि इस कुटिल बालक को मैं यमराज के पास पहुंचा दू तो मैं तो इसके वचनों को बालपन की भूल समझ कर क्षमा किये जा रहा था। लेकिन यह क्षमा योग्य नहीं इसकी मृत्यु इसके सर पर नाच रही है। चौपाई कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू।। अर्थ – परशुराम का क्रोध और उनकी गर्जना देखकर विश्वामित्र बोले, हे भगवन! आप तो साधू है और साधू बालक के अवगुणों और उनके दोषों की गणना नही करते, आप अबोध बालक जानकर इसे क्षमा कर दे। विश्वामित्र की बाते सुन परशुराम चौपाई उतर देत छोड़ौं बिनु मारे। केवल कौसिक सील तुम्हारे।। अर्थ – और उत्तर पे उतर दिए जा रहा है फिर भी मै इसे दंड नही दे रहा हूँ, बिना मारे छोड़ देता हूँ, हे मुनि विश्वामित्र यह सिर्फ आपके प्रेम का प्रतिफल है। अन्यथा मैं इसी क्षण मेरे फरसे से इसका अंत कर देता और बिना किसी श्रम के ही अपने गुरु का ऋण चुकाने का अवसर मुझे प्राप्त हो जाता। दोहा – गाधिसूनू कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ। अर्थ – परशुराम जी की बाते सुन विश्वामित्र ह्रदय में ही मुस्कुराने लगे और मन ही मन विचार करने लगे। अभी तक मुनि जी ने सभी क्षत्रियो को परास्त किया है, उन पर विजय ही पाई है, इसी कारण ये अयोध्या कुमारों को साधारण क्षत्रिय ही मान रहे है। ये छोटा राजकुमार फौलादी जिगर वाला है। किसी गन्ने की खांड का नहीं है, अवश्य ही परशुराम जी इन बालकों की क्षमता और वीरता से परिचित नहीं है। चौपाई कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा।। अर्थ – तभी लक्ष्मण जी बोल पड़े, भगवान! आपके पराक्रम से सारा संसार परिचित है, विश्व भर में आपकी ख्याति फैली हुई है कि किस प्रकार आपने अपने माता-पिता का ऋण चुकाया है और अब गुरु का भी ऋण चुकाने पर विचार कर रहे है। चौपाई सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा। दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा।। अर्थ – और अब गुरु ऋण चुकाने का कार्य भी मेरे माथे मढना चाहते है। दिन तो बहुत बीत चुके है। ऋण में ब्याज भी जुड़ गये होंगे। यह एक बेहतरीन अवसर है। आप किसी हिसाब करने वाले को क्यों नहीं बुला लेते। मैं तो तुरंत अपनी झोली फैला फैला दूंगा और आपका ऋण चुकता हो जायेगा। चौपाई सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।। अर्थ – लक्ष्मण के मुख से कडवे वचनों को सुनकर भगवान परशुराम अपना नियंत्रण खो बैठे और फरसा उठा कर लक्ष्मण की तरफ आघात करने के लिए दौड़े, सारी सभा में हाहाकार मच गया। लक्ष्मण जी फिर बोले, हे मुनिराज आप तो बार-बार मुझे फरसा दिखाते है और डराने का प्रयास करते है। हे क्षत्रिय कुलनाशक मैं भी आपको ब्राह्मण जान बार-बार क्षमा किये जा रहा हूँ। राम लक्ष्मण परशुराम संवाद | Ram Laxman Parshuram Samvad चौपाई मिले न कबहोँ सुभट रन गाढ़े। द्विजदेवता घरहि के बाढ़े।। अर्थ – हे मुनिराज! लगता है इससे पहले आपकी कभी सच्चे वीर, सच्चे बलवान से आपकी भेंट नहीं हुई है। आप तो सिर्फ घर में ही श्रेष्ठ है, इतना सुन कर सभा में बैठे सभी राजा उच्च स्वरों में अनुचित अनुचित कहने लगे। तब श्री राम आगे आये और लक्ष्मण को इशारा कर उन्हें रोक लिया। दोहा- लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु। अर्थ – लक्ष्मण के इस प्रकार के उत्तर से परशुराम जी का क्रोध प्रचंड रूप ले चुका था जब राम ने देखा कि मुनि का क्रोध अब अधिक हो चुका है तो वे स्वयं आगे आये। जिस प्रकार अग्नि की शांति उसमें जल डालने की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार क्रोधी को शांत करने के लिए मीठे-मीठे वचनों की आवश्यकता होती है, वही कार्य श्री राम ने भी किया। उन्होंने मीठे वचनों का प्रयोग कर परशुराम जी के क्रोध को शांत कराने का प्रयास किया। राम लक्ष्मण परशुराम संवाद | Ram Laxman Parshuram Samvad तुलसी दास जी का जीवन परिचयरामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास का जन्म सन् 1532 में उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के राजापुर नाम के एक छोटे से गांव में हुआ था। कुछ विद्वान ऐसा मानते हैं कि उनका जन्मस्थान बाँदा जिला भी बल्कि एटा जिला है। पिता आत्माराम दूबे और माता हुलसी के घर एक पुत्र रत्न को प्राप्ति हुई। लेकिन ये पुत्र जन्म के बाद रोया नहीं बल्कि इसके मुख से जो प्रथम शब्द निकला वह शब्द था “राम “। इस कारण उनके बचपन का नाम रामबोला पड़ गया। तुलसी दास के जीवन की शुरुआत ही संघर्षों से हुई। बालपन में ही वे अपने माता पिता से बिछड़ गए। जन्म के दुसरे दिन ही माता की मृत्यु हो गई, इस कारण से पिता ने इनका त्याग कर दिया और इन्हें चुनिया नाम की एक दासी को सौंप दिया, उसी ने इनका लालन पालन किया। 5 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पालने वाली माता को भी खो दिया और ये पूरी तरह अनाथ हो गए और गलियों-गलियों में भटकने लगे। भीख मांगकर किसी तरह इन्होंने अपना पेट पाला। ऐसा माना जाता हैं कि उनके गुरु की कृपा से ही तुलसीदास के जीवन को नया मार्ग मिला। रामशैल निवासी बाबा नरहरी दास ने बहुचर्चित बालक रामबोला को ढूंढा और विधिवत उनका नामकरण किया “गोस्वामी तुलसीदास” उसके बाद वे उन्हें अयोध्या ले गए। वहां तुलसीदास को राम मंत्र की दीक्षा मिली और वही उनका अध्यापन कार्य भी हुआ। जब वे 29 वर्ष के हुए तो उनका विवाह पंडित दीनबंधु पाठक की सुंदर कन्या रत्नावली से हुआ। रत्नावली सुंदर तथा विदुषी महिला थी । सब कुछ सही चल रहा था, एक बार रत्नावली अपने मायके गई और तुलसी दास से उनका वियोग सहन नहीं हुआ। वे अपने आप को रोक नहीं पाए और अंधेरी रात में बारिश के मौसम में भी लाश को लकड़ी की लट्ठ समझ कर, उसी के सहारे उफनती हुई यमुना नदी ही पार कर ली और रत्नावली के पास पहुंच गए। वहां पेड़ से लटक रहे सांप को रस्सी समझा और फिर उसी के सहारे उसके कमरे तक पहुंच गए। उनकी इस हरकत से रत्नावली बहुत शर्मिंदा हुई और धिक्कारते हुए मार्मिक लहजे में एक दोहा सुनाया: अस्थि चर्म मय देह यह, ता सौ ऐसी प्रीत इस दोहे का अर्थ है “मेरे इस हाड़ मांस के शरीर से तुम्हें इतनी प्रीति है। यदि इतनी प्रीति प्रभु से होती तो तुम्हारा जीवन संवर गया होता।” यह सुनकर तुलसी दास को बहुत बड़ा धक्का लगा, उनकी आंखे खुल गई वो तुरंत वहा से लौट गए। अपनी मूर्खता पर उन्हें बहुत लज्जा का अनुभव हुआ। उनका इस प्रकार हृदय परिवर्तन हुआ कि वे महान गोस्वामी तुलसीदास जी बन गए। इसके बाद इनकी भेंट साधुओं के एक समूह से हुई रामभक्त साधुओं के मिलन ने इन्हें ज्ञान प्राप्त करने का अवसर दिया। इसके बाद ये भ्रमण करने लगे, जिससे इनका सीधा संपर्क समाज की तत्कालीन स्थितियों से हुआ। इन सभी अनुभवों का प्रयोग तुलसी दास जी ने अपने लेखन को और बेहतर बनाने में किया। उनके अनुभवों और अध्ययन का बेहतरीन परिणाम उनकी अमूल्य कृतियों के रूप में बाहर आया। जो उस समय भी भारत के समाज की उन्नति का मार्ग था और आज भी मर्यादित मानव जीवन के लक्ष्य में अति उपयोगी है। ऐसा बताया जाता है कि तुलसी दास जी ने कुल 39 ग्रंथो की रचना की इनमे रामचरित मानस, विनयपत्रिका (ब्रज भाषा), दोहावली, कवितावली (ब्रज भाषा), गीतावाली, कृष्ण गीतावाली, जानकीमंगल, बरवै रामायण, हनुमान चालीसा आदि मुख्य है। इसकी रचना में जिस मुख्य भाषा का प्रयोग किया गया है, वह अवधी और ब्रज भाषा है। विनयपत्रिका की रचना के पद गेय पदो में है जबकि कवितावली सवैया और कवित्त छंद का मिश्रण है। उनकी रचनाओं में मुक्तक और प्रबंध दोनों की प्रकार के काव्य देखने को मिलते है। रामचरित मानस की कुछ विशेषताएंतुलसी दास जी प्रसिद्ध है श्री राम के अनन्य भक्ति के लिए। रामचरित मानस उनकी इसी भक्ति और सृजन कौशल का प्रमाण है। रामचरित मानस में उन्होंने राम के चरित का वर्णन किया है, जो मानवीय आदर्शो के प्रतीक है, उन्हे मर्यादा पुरुषोत्तम कहते है। उत्तर भारत की एक प्रमुख लोकप्रिय रचना जिसे अवधी भाषा में लिखा गया है। इसमें चौपाइयां और दोहे है, इसमें बीच-बीच में सोरठे, छंदों और हरिगितिका का भी सुंदर प्रयोग है। सन् 1632 में काशी से वे स्वर्ग सिधार गए। तुलसीदास राम के अनन्य भक्त है और राम का चरित लिखने वाले अतुलनीय कवि भी। तुलसी दास जी का जीवन परिचय विस्तार से पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। यह भी पढ़े
Telegram Rahul Singh Tanwar इनका नाम राहुल सिंह तंवर है। इनकी रूचि नई चीजों के बारे में लिखना और उन्हें आप तक पहुँचाने में अधिक है। इनको 4 वर्ष से अधिक SEO का अनुभव है और 6 वर्ष से भी अधिक समय से कंटेंट राइटिंग कर रहे है। इनके द्वारा लिखा गया कंटेंट आपको कैसा लगा, कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं। आप इनसे नीचे दिए सोशल मीडिया हैंडल पर जरूर जुड़े। लक्ष्मण के अनुसार परशुराम के वचन कैसे हैं?Answer: लक्ष्मण के अनुसार परशुराम के वचन वज्र के समान कठोर है।
लक्ष्मण के वचन परशुराम के लिए क्या थे?उत्तर – मेरे अनुसार लक्ष्मण और परशुराम के संवाद का सबसे अच्छा अंश निम्नलिखित है:. लक्ष्मणः हे मुनि! धनुष तोड़ने में हम किसी लाभ-हानि की चिंता नहीं करते। ... . परशुराम: हे दुष्ट बालक! तू मुझसे तथा मेरे स्वभाव से परिचित नहीं है। ... . लक्ष्मण: हे मुनि! आप स्वयं को बहुत योद्धा मान रहे हैं।. लक्ष्मण ने परशुराम के प्रति क्या व्यंग्य वचन कहे?लक्ष्मण ने परशुराम के स्वभाव पर व्यंग्य किया कि मुनिवर स्वयं को महान योद्धा मान रहे हैं। वे मुझे अपना फ़रसा दिखाकर ही डराना चाहते हैं। लक्ष्मण ऐसा कहकर परशुराम की वीरता पर व्यंग्य कर रहे हैं।
लक्ष्मण जी के कठोर वचन सुनकर परशुराम जी ने क्या किया?लक्ष्मण जी के ऐसे कठोर वचन सुनते ही परशुराम जी का क्रोध और बढ़ गया। उन्होंने अपने भयानक फरसे को घुमाकर अपने हाथ में ले लिया और बोले अब मुझे कोई दोष नहीं देना। इतने कड़वे वचन बोलने वाला यह बालक मारे जाने योग्य है। बालक देखकर इसे मैंने बहुत बचाया , लेकिन लगता है कि अब इसकी मृत्यु निकट आ गई है।
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