श्रीमती मन्नू भंडारी की कहानियों के कथानक रोचक, जिज्ञासा से युक्त, सरल एवं मौलिक हैं। कथानक अत्यंत गतिशील बने रहते हुए अपने लक्ष्य तक पहुंचते हैं। Show श्रीमती मन्नू भंडारी की कहानियों में पात्रों की संख्या कम है जिससे पाठक शीघ्र ही उनसे परिचित हो जाता है और उनसे तादात्म्य स्थापित कर लेता है। सभी पात्र सजीव एवं जीवन की विभिन्न समस्याओं से जूझते हुए पाए जाते हैं। वातावरण निर्माण की कला में भी उनका कोई मुकाबला नहीं है। वातावरण की सजीवता ही इनकी कहानियों की मौलिकता एवं विश्वसनीयता बनाए रखती है। विषय-निरूपण अर्थात् उद्देश्य की दृष्टि से भी श्रीमती मन्नू भंडारी की कहानियाँ सफल सिद्ध हुई हैं। इनकी कहानियों में जीवन की विविध समस्याओं को उद्घाटित किया गया है। कहानी को बदलती हुई परिस्थितियों के साथ जोड़कर कहानी को नया रूप प्रदान किया गया है। स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय जीवन-शैली में आए परिवर्तन से हमारे संस्कारों पर प्रभाव पड़ा है। पुरानी पीढ़ी के लोग पुराने संस्कारों से चिपके हुए हैं और वे उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं चाहते, जबकि नई पीढ़ी के लोग उन संस्कारों को सहन नहीं करते। इसलिए नए-पुराने संस्कारों की जो टकराहट की स्थिति बनी हुई है, उसका यथार्थ चित्रण श्रीमती भंडारी की कहानियों में देखा जा सकता है। 4. भाषा-संवादों की सफल योजना से श्रीमती मन्नू भंडारी ने पात्रों के चरित्रों के रहस्य उद्घाटन के साथ-साथ, वातावरण निर्माण और कथानक को गतिशील बनाया है। इन्होंने अपनी कहानियों में पात्रानुकूल एवं प्रसंगानुकूल सरल एवं सार्थक भाषा का प्रयोग किया है। एक कहानी यह भी पाठ का सार प्रश्न- लेखिका का जन्म मध्य प्रदेश के भानपुरा गाँव में हुआ था। किंतु उनका बचपन राजस्थान के अजमेर नगर के एक मुहल्ले में बीता। उनका घर दो-मंजिला था। नीचे पूरा परिवार रहता था, किंतु ऊपर की मंजिल पर उनके पिता का साम्राज्य था। अजमेर आने से पहले वे इंदौर में रहते थे। वहाँ उनके परिवार की गिनती प्रतिष्ठित परिवारों में होती थी। उनके पिता जी शिक्षा में गहन रुचि रखते थे। कमज़ोर छात्रों को तो घर बुलाकर पढ़ाते थे। उनके पढ़ाए हुए छात्र आज बड़े-बड़े पदों पर काम कर रहे हैं। उनके पिता उदार हृदय, कोमल स्वभाव, संवेदनशील होने के साथ-साथ क्रोधी और अहंकारी स्वभाव वाले भी थे। एक बहुत बड़े आर्थिक झटके ने उन्हें अंदर तक हिलाकर रख दिया। इसीलिए वे इंदौर से अजमेर आए थे। यहाँ आकर उन्होंने हिंदी-अंग्रेजी कोश तैयार किया। वह अपनी तरह का पहला शब्द-कोश था। उससे उन्हें ख्याति तो खूब मिली, किंतु धन नहीं। कमजोर आर्थिक स्थितियों के कारण उनका सकारात्मक स्वभाव दबकर रह गया। वे अपनी गिरती आर्थिक स्थिति में अपने बच्चों को भागीदार नहीं बनाना चाहते थे। आरंभ से अच्छा-ही-अच्छा देखने वाले उनके पिता जी के लिए ये दिन देखने बड़े ही कष्टदायक लगते थे। इससे उनका स्वभाव संदेहशील बन गया था। ऐसी मनोदशा में हर किसी को संदेह की दृष्टि से देखते थे। लेखिका ने अपने पिता की अच्छी और बुरी आर्थिक दशा का उल्लेख करने के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व के गुणों और अवगुणों की ओर भी संकेत किया है। नवाबी आदतों, अधूरी महत्त्वाकांक्षाओं और सदा शीर्ष पर रहने के बाद नीचे उतरने की पीड़ा सदा क्रोध के रूप में उनकी पत्नी पर बरसती रहती थी। अपने बहुत निकट के लोगों से विश्वासघात मिलने के कारण वे बड़े शक्की स्वभाव के हो गए थे। उनके उस शक के लपेटे में अकसर लेखिका और उसके भाई-बहिन भी आ जाते थे। लेखिका ने अपने विषय में कहा है कि वह काली और दुबली-पतली थी। लेखिका की उससे दो वर्ष बड़ी बहिन खूब गोरी, हँसमुख और स्वस्थ थी। पिता की कमज़ोरी गोरा रंग था। अतः हर बात में उसकी प्रशंसा और उससे तुलना ने लेखिका में एक ऐसी हीन-भावना भर दी कि वे आजीवन उससे उभर न सकीं। किंतु माँ का स्वभाव पिता के ठीक विपरीत था। लेखिका ने उनमें धरती से भी कहीं अधिक धैर्य और सहनशक्ति को देखा था। किंतु असहाय और विवशता में लिपटा उनका यह त्याग कभी उनके बच्चों के लिए आदर्श नहीं बन सका। लेखिका ने अपने से दो वर्ष बड़ी बहिन सुशीला के साथ बचपन में हर प्रकार का खेल खेला था। लेखिका के दो बड़े भाई पढ़ने हेतु बाहर चले गए थे। किंतु बचपन में वह उनके साथ भी खेलती थी। पतंग उड़ाना, मांजा सूतना, यहाँ तक कि गुल्ली डंडा खेलना भी उसके खेलों में सम्मिलित था। किंतु उसकी सीमा अपने घर या फिर मोहल्ले-पड़ोस तक ही होती थी। उन दिनों पड़ोस को तो घर का ही हिस्सा माना जाता था। उन दिनों की तुलना में आज महानगरों के फ्लैटों का जीवन अत्यधिक संकुचित हो गया है। लेखिका की कहानियों के अधिकांश पात्र उनके मुहल्ले से हैं। यहाँ तक कि ‘दा’ साहब भी मौका मिलते ही ‘महाभोज’ नामक उपन्यास में प्रकट हो गए। तब लेखिका को पता चला कि बचपन की याद कितनी गहरी होती है। सन् 1944 में बड़ी बहिन सुशीला का विवाह हो गया, बड़े भाई पढ़ने के लिए बाहर चले गए। तब उनके पिता जी ने मन्नू की पढ़ाई की ओर ध्यान दिया। पिता जी को यह पसंद नहीं था कि उसे पढ़ाई के साथ-साथ रसोई में भी कुशल बनाया जाए। उनके अनुसार रसोई का काम लड़कियों की प्रतिभा व क्षमता को नष्ट करता है। रसोई का काम उनकी दृष्टि में भटियारखाना था। वे चाहते थे कि लेखिका उनके साथ राजनीतिक बहसों में शामिल हो। उनके घर में आए दिन किसी-न-किसी राजनीतिक पार्टी की मीटिंग होती रहती थी। कभी कांग्रेस, कभी सोशलिस्ट तो कभी कम्युनिस्ट पार्टी और कभी आर.एस.एस. के लोग आते थे। पिता जी चाहते .थे कि वह देश की गतिविधियों के विषय में भी जानकारी रखें। किंतु लेखिका का बालक मन पचड़ों को नहीं समझता था। वह क्रांतिकारियों और उनके महान् बलिदानों से जरूर रोमांचित हो उठती थी। लेखिका ने दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् कॉलेज में प्रवेश लिया। तभी उनका परिचय कॉलेज की हिंदी विषय की प्राध्यापिका श्रीमती शीला अग्रवाल से हुआ। शीला अग्रवाल ने उन्हें कुछ महान् साहित्यकारों की रचनाएँ पढ़ने के लिए प्रेरित किया। आगे चलकर लेखिका ने शरत्चंद्र, प्रेमचंद, जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा आदि के उपन्यास पढ़े और अपनी प्राध्यापिका से उन पर चर्चा परिचर्चा भी की। लेखिका जैनेंद्र की लेखन-शैली से बहुत प्रभावित हुई। ‘सुनीता’, ‘शेखर : एक जीवन’, ‘नदी के द्वीप’ जैसे उपन्यासों के पढ़ने से लेखिका के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ। जीवन मूल्य भी बड़ी तेज़ गति से बदल रहे थे। पुरानी मान्यताएँ टूट रही थीं और नई धारणाओं का निर्माण हो रहा था। उन दिनों स्वतंत्रता आंदोलन अपने पूरे जोरों पर था। सब ओर जलसे जुलूस, प्रभात – फेरी, हड़ताल, भाषण आदि का बोलबाला था। हर युवक इस ओजस्वी माहौल में शामिल था। भला ऐसे में लेखिका कैसे चैन से बैठ सकती थी। शीला अग्रवाल की जोशीली बातों ने लेखिका की रग-रग में लावा भर दिया था। लेखिका सड़कों पर घूम-घूम कर हड़ताल करवाती, भाषण देती। उसने अब सारी वर्जनाओं को तोड़कर खुलेआम भाषण देने आरंभ कर दिए थे। लेखिका और उनके पिता के विचारों में टकराहट उत्पन्न हो गई थी। विवाह के विषय में भी विरोध चलता रहा। एक बार तो कॉलेज की प्राचार्या ने भी उनकी गतिविधियों के सिलसिले में उनके पिता जी को बुला भेजा था। प्राचार्या ने उनसे कहा, क्यों न आपकी बेटी की गतिविधियों को लेकर उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए। यह सुनकर वे आग – बबूला हो उठे। बोले, न जाने यह लड़की मुझे कैसे-कैसे दिन दिखलाएगी। गुस्से में भरकर कॉलेज पहुँचे। वापिस आए तो लेखिका डर गई और पड़ोस के घर में छुपकर बैठ गई। सोचा कि जब पिता जी का गुस्सा ठंडा पड़ जाएगा तो घर चली आएगी। किंतु कॉलेज से वे बहुत खुश लौटे। पता चला कि पिता जी उन पर बहुत गर्व कर रहे थे। उन्हें पता चला कि सारा कॉलेज उनकी बेटी के इशारों पर चलता है। प्रिंसिपल के लिए कॉलेज चलाना कठिन हो रहा था। पिता जी ने कहा कि यह आंदोलन तो पूरे देश में चल रहा है। यह समय की पुकार है। भला इसे कौन रोक सकता है? उन दिनों आज़ाद हिंद फौज के मुकद्दमे को लेकर देश भर में हड़तालें चल रही थीं। दिनभर विद्यार्थियों के साथ घूम-घूमकर लेखिका भी हड़ताल करवाती रही और संध्या के समय बाज़ार के चौराहे पर एकत्रित विद्यार्थियों ने भाषण बाज़ी की। लेखिका ने भी जोशीला भाषण दिया जिसे सुनकर लोग बहुत प्रभावित हुए। पिता जी के किसी दकियानूसी मित्र ने लेखिका के प्रति उनके कान भर दिए और फिर क्या था कि उनका क्रोध भड़क उठा। उन्होंने लेखिका को घर से बाहर न निकलने की चेतावनी दे डाली। किंतु तभी नगर के प्रतिष्ठित डॉक्टर श्री अंबालाल ने लेखिका को देखते ही उसके जोशीले भाषण की खूब तारीफ की, जिससे पिता जी की छाती गर्व से फूल उठी। इस प्रकार लेखिका पिता जी के क्रोध से बच गई। बात यह थी, लेखिका के पिता जी अंतर्विरोधमय जीवन जी रहे थे। वे नगर में विशिष्ट भी बनना चाहते थे और सामाजिक छवि के बारे में भी जागरूक रहते थे। वे दोनों चीजें एक साथ प्राप्त करना चाहते थे। सन् 1947 में मई मास में कॉलेज प्रबंधक समिति ने प्राध्यापिका अग्रवाल को लड़कियों को भड़काने के आरोप में कॉलेज से नोटिस भेज दिया। उधर थर्ड इयर की कक्षाएँ बंद कर दी गईं। लेखिका और उसकी दो सहेलियों को भी कॉलेज से निकाल दिया गया। किंतु लेखिका ने कॉलेज से बाहर रहकर भी आंदोलन जारी रखा और अंततः कॉलेज को थर्ड इयर खोलना पड़ा। लेखिका को खुशी मिली। किंतु 15 अगस्त, 1947 में इससे भी बड़ी खुशी पूरे देश को मिली जब भारत आज़ाद हुआ। कठिन शब्दों के अर्थ (पृष्ठ-93) साम्राज्य = राज्य चलाने का अधिकार, शासन। अव्यवस्थित = व्यवस्था रहित। डिक्टेशन = मुँह से बोलकर लिखवाना। सदैव = सदा के लिए। चर्चे = बातें। प्रतिष्ठा = सम्मान, आदर। बेहद = सीमा रहित, अत्यधिक। संवेदनशील = भावुक। अहंवादी = घमंडी। भग्नावशेष = टूटे हुए अंश। आर्थिक झटका = धन की हानि होना। बल-बूते = शक्ति। यश = प्रसिद्धि। अर्थ = धन। सकारात्मक पहलू = अच्छे गुणों वाला भाग। विस्फारित = फैला हुआ। अहं = घमंड। अनुमति = स्वीकृति। विवशता = मज़बूरी। नवाबी आदतें = फिजूलखर्च करने की आदत । महत्त्वाकांक्षाएँ = महत्त्व प्राप्ति की इच्छा। यातना = पीड़ा। शीर्ष = सबसे ऊपर। हाशिए पर = महत्त्वहीन स्थान पर। विश्वासघात = धोखा देना। आँख मूंदकर = बिना सोचे-समझे। (पृष्ठ-94) चपेट में आना = प्रभावित होना। पितृ-गाथा = पिताजी की कहानी। गौरव-गान = यश संबंधी वर्णन। खूबी = अच्छाई। खामियाँ = कमियाँ। गुंथी होना. = रची हुई व बँधी हुई होना। ग्रंथि = मन की उलझन, गाँठ। दुबली = कमज़ोर । हीन-भाव = छोटा होने का भाव। उबर पाना = मुक्त होना। लेखकीय उपलब्धि = लेखक के रूप में सफलता पाना। गड़ने-गड़ने को हो आना = शर्म में बहुत अधिक संकोच करना। अचेतन = मन की सुप्त अवस्था। तुक्का = भाग्य से प्राप्त। भन्ना जाना = क्रोध करना। खंडित विश्वास = टूटे हुए विश्वास। व्यथा = दुःख। झलक = प्रकाश। उपजा = पैदा हुआ। होश संभालना = समझदार होना। टक्कर चलना = संघर्ष होना। कुंठा = मन में दबी और रुकी भावना। प्रतिच्छाया = किसी चीज की छाया पड़ना। भिन्नता = अलगाव। परंपरा = पीछे से चली आती हुई आदतें। नकारना = मना करना, इंकार करना। अहसास = अनुभव। अतीत = बीता हुआ समय। जड़ जमाना = अंदर तक पैठना। प्रवाह = बहाव। विपरीत = उलटी। ज़्यादती = अत्याचार । प्राप्य = भाग्य, मिलने योग्य वस्तु । फरमाइश = इच्छा। फर्ज = कर्तव्य । सहानुभूति = दया, किसी के दुःख में दुःखी होना। असहाय = जिसकी सहायता करने वाला कोई न हो, मजबूर। सहिष्णुता = सहनशीलता। पैतृक-पुराण = पिता से संबंधित कहानियाँ। (पृष्ठ-95) धुंधली = हल्की। माँजा सूतना = पतंग की डोर तैयार करना। दायरा = सीमा, घेरा। पाबंदी = मनाही। शिद्दत = कष्ट। आधुनिक दबाव = नए युग की कामनाएँ। फ्लैट = ऊपर-नीचे बने मकान। पड़ोस-कल्वर = पड़ोस में रहने के रीति-रिवाज़। विच्छिन्न = अलग-अलग होना। असुरक्षित = जो सुरक्षित नहीं है। किशोरावस्था = जवानी और बचपन के बीच की अवस्था। युवावस्था = जवानी। छाप = प्रभाव । अंतराल = फासला, दूरी। अभिव्यक्ति = प्रकट करना। वजूद = सत्ता, जीवन। सुखद = सुख देने वाला। आश्चर्य = हैरानी। सुघड़ गृहिणी = कुशल स्त्री। पाक – शास्त्री = भोजन बनाने की कला को जानने वाला विद्वान। नुस्खे = ढंग। आग्रह = अनुरोध । भटियारखाना = भटियार के रहने का स्थान। प्रतिभा = बुद्धि, गुण। क्षमता = शक्ति। भट्टी में झोंकना = नष्ट कर देना। जमाव होना = देर-देर तक बैठकें करना। (पृष्ठ-96) नीतियाँ = नियम। मतभेद = मतों में अंतर, विचारों की भिन्नता। रोमानी आकर्षण = रोमांचित करने वाला खिंचाव। कुर्बानी = बलिदान । परिचित = जानकार। आक्रांत = जिस पर हमला किया गया हो। बाकायदा = नियमानुसार/सीमित। दायरा = छोटी-सी दुनिया। मूल्य = नियम/सिद्धांत। मंथन करना = सोच-विचार करना। ध्वस्त = टूटा-फूटा हुआ। संदर्भ = प्रसंग। भागीदारी = भाग लेना। प्रभात फेरी = सुबह के समय गीत गाकर लोगों को जगाना। दमखम = शक्ति। जोश-खरोश = उत्साह। उन्माद = नशा। लावा = ज्वालामुखी पर्वत से निकलने वाली पिघली हुई आग। (पृष्ठ-97) सड़कें नापना = सड़कों पर इधर-उधर घूमना। बर्दाश्त = सहन करना। वर्जना = मनाही। कामना = इच्छा। यश-लिप्सा = यश पाने का लाभ। दुर्बलता = कमज़ोरी। धुरी = केंद्र। सिद्धांत = नियम। विशिष्ट = खास। वर्चस्व = अधिकार। अनुशासनात्मक कार्रवाई = अनुशासन भंग करने के विरुद्ध उठाया गया कदम। आग-बबूला = अत्यधिक गुस्सा आना। कहर बरपना = मुसीबत आना। गुबार निकालना = गुस्सा निकालना।गर्व = अभिमान । अवाक् = मौन। हकीकत= सच्चाई। आहान = बुलावा। (पृष्ठ-98) दकियानूसी = पुराने विचारों वाला। मत मारी जाना = बुद्धि नष्ट होना। आबरू = इज्जत। आग लगाना = भड़काना। भभकना = गुस्सा होना। थू-थू करना = अपमान करना। बेखबर = अनजान बने रहना। अंतरंग = अत्यंत समीपता, आत्मीयता। प्रतिष्ठित = सम्मानित । गर्मजोशी = उत्साह सहित। यू हैव मिस्ड समथिंग = तुमने कुछ खो दिया है। (पृष्ठ-99) राहत की साँस लेना = सुख अनुभव करना। झिझक = डर, संकोच। मूल = असली। अंतर्विरोध = परस्पर विरोध। प्रबल = तेज़। लालसा = इच्छा। सजगता = जागरूकता। (पृष्ठ-100) नोटिस थमा देना = नौकरी से निकालने की सूचना देना। थर्ड इयर = तीसरा वर्ष। निषिद्ध = मनाही। चिर प्रतीक्षित = जिसकी लंबे समय से प्रतीक्षा थी। बिला जाना = गायब हो जाना। शताब्दी = सौ वर्ष। एक कहानी यह भी के प्रश्न उत्तर HBSE 10th Class प्रश्न 1. लेखिका अपनी प्राध्यापिका शीला अग्रवाल के जीवन से भी अत्यधिक प्रभावित रही है। लेखिका को अध्ययनशील, क्रांतिकारी व आंदोलनकारी बनाने में शीला अग्रवाल का भी योगदान रहा है। शीला अग्रवाल ने लेखिका को महान साहित्यकारों की रचनाएँ पढ़ने के लिए उपलब्ध करवाईं, जिससे उसके मन में साहित्य के प्रति आकर्षण उत्पन्न हुआ। आगे चलकर वे स्वयं एक महान् लेखिका बनीं। उन्होंने अपनी जोशीली बातों से लेखिका के व्यक्तित्व में जोश और क्रांति के शोले भड़का दिए। एक कहानी यह भी पाठ के प्रश्न उत्तर HBSE 10th Class प्रश्न 2. Ek Kahani Yah Bhi Solution HBSE 10th Class प्रश्न 3. Ek Kahani Yeh Bhi Question Answers HBSE 10th Class प्रश्न 4. Ek Kahani Yah Bhi Question Answer HBSE 10th Class प्रश्न 5. रचना और अभिव्यक्ति Ek Kahani Yeh Bhi Class 10 Question Answers HBSE प्रश्न 6. Class 10 Hindi Ek Kahani Yeh Bhi Question Answers HBSE प्रश्न 7. आस-पड़ोस के लोगों से मिलजुल कर रहने की भावना का विकास होता है। आगे चलकर ऐसे बच्चों का समाज में भी समायोजन अच्छी प्रकार हो सकता है। आस-पड़ोस के लोग आपस में सुख – दुःख बाँटते हैं। अच्छे-बुरे की पहचान भी बच्चे आस-पड़ोस से ही करते हैं। आस-पड़ोस के कारण ही व्यक्ति दुःख के समय अपने आपको अकेला अनुभव नहीं करता। किंतु बड़े शहरों में व्यक्ति घर में तो अकेला होता ही है किंतु आस-पड़ोस में भी परिचय न होने के कारण वह बाहर भी अकेला ही अनुभव करता है। सभी लोग अपने जीवन को अपने ढंग से जीना पसंद करते हैं। इसलिए वहाँ के लोग एकाकीपन के कारण असुरक्षा, असहाय और मानसिक तनाव के शिकार हो जाते हैं इसलिए मानव जीवन में आस-पड़ोस का होना अति अनिवार्य है। परंतु महानगरों में रहने वाले लोग प्रायः इस सुख से वंचित रह जाते हैं। Class 10 Hindi Chapter Ek Kahani Yeh Bhi Question Answers HBSE प्रश्न 8. Ek Kahani Yah Bhi Summary HBSE 10th Class प्रश्न 9. भाषा-अध्ययन- एक कहानी यह भी HBSE 10th Class प्रश्न 10. पाठेतर सक्रियता इस आत्मकथ्य से हमें यह जानकारी मिलती है कि कैसे लेखिका का परिचय साहित्य की अच्छी पुस्तकों से हुआ। आप इस जानकारी का लाभ उठाते हुए अच्छी साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने का सिलसिला शुरू कर सकते हैं। कौन जानता है कि आप में से ही कोई अच्छा पाठक बनने के साथ-साथ अच्छा रचनाकार भी बन जाए। लेखिका के बचपन के खेलों में लँगड़ी टाँग, पकड़म-पकड़ाई और काली-टीलो आदि शामिल थे। क्या आप भी यह खेल खेलते हैं। आपके परिवेश में इन खेलों के लिए कौन-से शब्द प्रचलन में हैं। इनके अतिरिक्त आप जो खेल खेलते हैं, उन पर चर्चा कीजिए। स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भी सक्रिय भागीदारी रही है। उनके बारे में जानकारी प्राप्त कीजिए और उनमें से किसी एक पर प्रोजेक्ट तैयार कीजिए। उत्तर- HBSE 10th Class Hindi एक कहानी यह भी Important Questions and Answersविषय-वस्तु संबंधी प्रश्नोत्तर Class 10th Hindi Ek Kahani Yah Bhi Question Answer HBSE प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्नन 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. विचार/संदेश संबंधी प्रश्नोत्तर- प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. अति लघुत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. प्रश्न 18. प्रश्न 19. प्रश्न 20. एक कहानी यह भी गद्यांशों के आधार पर अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (1) पर यह सब तो मैंने केवल सुना। देखा, तब तो इन गुणों के भग्नावशेषों को ढोते पिता थे। एक बहुत बड़े आर्थिक झटके के कारण वे इंदौर से अजमेर आ गए थे, जहाँ उन्होंने अपने अकेले के बल-बूते और हौसले से अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश (विषयवार) के अधूरे काम को आगे बढ़ाना शुरू किया जो अपनी तरह का पहला और अकेला शब्दकोश था। इसने उन्हें यश और प्रतिष्ठा तो बहुत दी, पर अर्थ नहीं और शायद गिरती आर्थिक स्थिति ने ही उनके व्यक्तित्व के सारे सकारात्मक पहलुओं को निचोड़ना शुरू कर दिया। सिकुड़ती आर्थिक स्थिति के कारण और अधिक विस्फारित उनका अहं उन्हें इस बात तक की अनुमति नहीं देता था कि वे कम-से-कम अपने बच्चों को तो अपनी आर्थिक विवशताओं का भागीदार बनाएँ। नवाबी आदतें, अधूरी महत्वाकांक्षाएँ, हमेशा शीर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरकते चले जाने की यातना क्रोध बनकर हमेशा माँ को कँपाती-थरथराती रहती थीं। अपनों के हाथों विश्वासघात की जाने कैसी गहरी चोटें होंगी वे जिन्होंने आँख मूंदकर सबका विश्वास करने वाले पिता को बाद के दिनों में इतना शक्की बना दिया था कि जब-तब हम लोग भी उसकी चपेट में आते ही रहते। [पृष्ठ 93-94] प्रश्न (क) पाठ एवं लेखिका का नाम लिखिए। (ख) लेखिका के पिता मूलतः इंदौर के रहने वाले थे, किंतु वहाँ उनकी आर्थिक स्थिति इतनी अस्त-व्यस्त हो गई थी कि उन्हें इंदौर छोड़कर अजमेर आना पड़ा था। (ग) ‘भग्नावशेषों को ढोते पिता’ का अर्थ है कि उनके पिता की पहले आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी। उनका परिवार धन-वैभव से परिपूर्ण था। उनके पिता को इसका अहंकार था। किंतु अब उनकी आर्थिक दशा अस्थिर हो गई थी। अब वे अपने पुराने वैभव की यादों के सहारे जीते थे अर्थात् वे अपनी जिंदगी जैसे-तैसे काट रहे थे। (घ) वस्तुतः लेखिका की माँ बहुत साधारण एवं सहज स्वभाव वाली नारी थी। वह उनके पिता की आज्ञाकारी सेविका थी। (ङ) लेखिका के पिता ने हिंदी-अंग्रेज़ी के अत्यंत सफल शब्दकोश की रचना की। इस शब्दकोश से उन्हें खूब यश प्राप्त हुआ। किंतु धन प्राप्त नहीं हुआ। धन के बिना उनके परिवार की स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं आया। (च) लेखिका के पिता घमंडी व अहंकारी स्वभाव के थे, किंतु अपनों के द्वारा धोखा दिए जाने पर उनकी आर्थिक स्थिति डाँवाडोल हो गई थी। इसलिए अपनों से धोखा खाने पर उनका स्वभाव शक्की हो गया था। (छ) ‘हाशिए पर सरकना’ का अभिप्राय है कि पहले की अपेक्षा महत्त्वहीन होना। मुख्यधारा या प्रधान स्थान से हटकर किनारे पर आ जाना। लेखिका के पिता की आर्थिक स्थिति अस्त-व्यस्त होने के कारण उनकी पारिवारिक स्थिति ठीक नहीं रही। इसलिए वे मुख्य स्थान से हट गए और उन्हें इंदौर छोड़कर अजमेर आना पड़ा। (ज) लेखिका के पिता के क्रोधी होने का कारण था, उनकी बिगड़ती आर्थिक दशा। पुरानी नघाबी आदतें और अधूरी महत्वाकांक्षाएँ, चोटी पर या शिखर पर होने पर भी उनके महत्त्व का घटना आदि उनके क्रोधी होने के कारण थे। (झ) इस गद्यांश को पढ़ने से पता चलता है कि लेखिका के पिता अत्यंत महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति थे। उनकी आदतें भी नवाबी थीं अर्थात् वे खुले दिल से खर्च करने वाले थे। वे दूसरों पर आँख मूंद कर विश्वास करते थे, इसी कारण उन्हें अपने ही लोगों से धोखा खाना पड़ा। विपरीत परिस्थितियों में पड़ने के कारण उनका स्वभाव भी क्रोधी हो गया था। इतना कुछ होने पर भी वे अहंकार नहीं छोड़ सके। इसलिए परिवार वालों को कदम-कदम पर उनका विरोध व तनाव भी सहन करना पड़ता था। (ञ) आशय/व्याख्या-प्रस्तुत गद्यांश में लेखिका ने अपने पिता की गिरती आर्थिक दशा से उत्पन्न मनोदशा का सजीव चित्रण किया है। लेखिका ने अपने जीवन में जो कुछ अपने परिवार व पिता के विषय में देखा, उसके विषय में यहाँ बताया है। लेखिका का कथन है कि आर्थिक हानि के कारण पिता जी इंदौर से अजमेर आ गए थे। वहाँ उन्होंने अंग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश लिखा। इससे उन्हें प्रसिद्धि तो बहुत प्राप्त हुई, किंतु आर्थिक लाभ नहीं। गिरती हुई आर्थिक दशा ने उनके पिता के व्यक्तित्व के सभी सकारात्मक पहलुओं को कुंठित कर दिया। यहाँ तक कि वे अपने बच्चों को भी अपनी आर्थिक विवशताओं का भागीदार बनाए बिना न रह सके। अपनी अधूरी महत्वाकांक्षाओं तथा हमेशा महत्त्वपूर्ण स्थान पर रहने के कारण अब हाशिए पर आने के कारण उनका क्रोध बढ़ गया। उनका यह क्रोध लेखिका की माता पर ही प्रकट होता था। अपनों के द्वारा विश्वासघात होने के कारण वे अब सब पर यहाँ तक कि अपने बच्चों पर भी शक करने लगे थे। कहने का भाव है कि लेखिका के परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ने के कारण उनके पिता की मनोदशा कुंठित हो गई थी। (2) पर यह पित-गाथा मैं इसलिए नहीं गा रही कि मुझे उनका गौरव-गान करना है, बल्कि मैं तो यह देखना चाहती हूँ कि उनके व्यक्तित्व की कौन-सी खूबी और खामियाँ मेरे व्यक्तित्व के ताने-बाने में गुंथी हुई हैं या कि अनजाने-अनचाहे किए उनके व्यवहार ने मेरे भीतर किन ग्रंथियों को जन्म दे दिया। मैं काली हूँ। बचपन में दुबली और मरियल भी थी। गोरा रंग पिता जी की कमजोरी थी सो बचपन में मुझसे दो साल बड़ी, खूब गोरी, स्वस्थ और हँसमुख बहिन सुशीला से हर बात में तुलना और फिर उसकी प्रशंसा ने ही, क्या मेरे भीतर ऐसे गहरे हीन-भाव की ग्रंथि पैदा नहीं कर दी कि नाम, सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के बावजूद आज तक मैं उससे उबर नहीं पाई? [पृष्ठ 94] प्रश्न (ख) लेखिका ने अपने पिता के विषय में इसलिए चर्चा की है ताकि यह अनुमान लगाया जा सके कि उनके व्यक्तित्व के किन-किन गुणों-अवगुणों की झलक उसके व्यक्तित्व में भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में आ गई है। उसके व्यक्तित्व को पिता के व्यक्तित्व ने किन-किन रूपों में प्रभावित किया है। (ग) लेखिका ने अपने पिता के विषय में बताया है कि उनके पिता एक प्रतिष्ठित विद्वान थे। वे सदा पढ़ने-लिखने में लगे रहते थे। वे एक अच्छे समाज-सुधारक भी थे। वे कांग्रेस के द्वारा चलाए गए राष्ट्रीय आंदोलनों से भी जुड़े रहते थे। वे शिक्षा के प्रचार-प्रसार में भी पूर्ण सहयोग देते थे। उन्होंने अनेक गरीब विद्यार्थियों की सहायता भी की थी। (घ) उनके पिता की नवाबी आदतें और अहंकारी स्वभाव था। आर्थिक स्थिति के डगमगा जाने के कारण उनके मन में गुस्सा एवं झुंझलाहट रहती थी। (ङ) लेखिका के पिता के व्यक्तित्व का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा था। उनके पिता के अनजाने व अनचाहे व्यवहार ने उनके व्यक्तित्व में हीन भाव की ग्रंथियाँ उत्पन्न कर दी थीं। . (च) लेखिका काली और पतली-दुबली थी। जबकि उसकी बड़ी बहिन सुशीला गोरी, स्वस्थ और हंसमुख थी। उसके पिता सदा ही उसकी प्रशंसा किया करते। हर बात में तुलना करने के कारण उसके भीतर हीन भावना की ग्रंथि उत्पन्न हो गई थी। वह ग्रंथि आजीवन बनी रही। (छ) इन पक्तियों में बताया गया है कि लेखिका एक साधारण बालिका थी। वह अन्य लड़कियों की अपेक्षा कमज़ोर थी। उसका रंग भी काला था। पिता के भेद-भावपूर्ण व्यवहार ने उसके व्यक्तित्व में हीन-भावना की ग्रंथि उत्पन्न कर दी थी। इसलिए वह नाम और सम्मान पाने के पश्चात् भी उस हीन भावना से उभर नहीं सकी थी। उसे लगता था कि वह अपनी बहिन के मुकाबले में हीन है।। (ज) आशय/व्याख्या-प्रस्तुत गद्यांश में लेखिका ने अपने व्यक्तित्व के गुण-दोषों का आकलन करते हुए देखना चाहा है कि उनके पिता के व्यक्तित्व की कौन-कौन-सी कमियाँ उनके व्यक्तित्व में अनायास ही आ गई हैं। लेखिका ने यहाँ स्पष्ट किया है कि उनके पिता के व्यक्तित्व के गुण-दोषों में से कौन-कौन-सी खूबियाँ या खामियाँ उसके अपने व्यक्तित्व में आई हैं और उनके किस व्यवहार ने लेखिका के जीवन में हीन-भावना की ग्रंथियों को जन्म दिया है। उसके पिता को गोरा रंग बहुत पसंद था। जबकि वह बचपन से काले रंग की एवं कमजोर थी। उसकी बड़ी बहन गोरी और स्वस्थ थी। बात-बात में उसके पिता उसे उसकी इस कमी को अनुभव करवा देते थे। उसके जीवन में काले रंग की होने की हीन-भाव की ग्रंथि बन गई थी। अब इतनी प्रसिद्धि प्राप्त होने पर भी वह अपनी इस हीन-भाव की ग्रंथि से उबर नहीं सकी। (3) पिता जी के जिस शक्की स्वभाव पर मैं कभी भन्ना-भन्ना जाती थी, आज एकाएक अपने खंडित विश्वासों की व्यथा के नीचे मुझे उनके शक्की स्वभाव की झलक ही दिखाई देती है…बहुत ‘अपनों के हाथों विश्वासघात की गहरी व्यथा से उपजा शक। होश सँभालने के बाद से ही जिन पिता जी से किसी-न-किसी बात पर हमेशा मेरी टक्कर ही चलती रही, वे तो न जाने कितने रूपों में मुझमें हैं… कहीं कुंठाओं के रूप में, कहीं प्रतिक्रिया के रूप में तो कहीं प्रतिच्छाया के रूप में। केवल बाहरी भिन्नता के आधार पर अपनी परंपरा और पीढ़ियों को नकारने वालों को क्या सचमुच इस बात का बिल्कुल अहसास नहीं होता कि उनका आसन्न अतीत किस कदर उनके भीतर जड़ जमाए बैठा रहता है! समय का प्रवाह भले ही हमें दूसरी दिशाओं में बहाकर ले जाए. ..स्थितियों का दबाव भले ही हमारा रूप बदल दे, हमें पूरी तरह उससे मुक्त तो नहीं ही कर सकता! . [पृष्ठ 94] प्रश्न (ख) लेखिका के पिता को उनके अपने भाई-बंधुओं ने धोखा दिया था। इसलिए उनका स्वभाव शक्की बन गया था। अब वे अपने परिवार के सभी सदस्यों पर शक करने लगे थे। लेखिका पिता के शक्की स्वभाव का विरोध करती थी, किंतु हुआ इसके विपरीत अर्थात् समय के बीतने के साथ पिता के व्यक्तित्व का यह अवगुण उनके व्यक्तित्व में आ गया। (ग) लेखिका और उनके पिता जी के विचार भिन्न थे। इसलिए दोनों में विचारों को लेकर टक्कर होती थी। उनके वे संघर्ष अर्थात् संघर्ष करने का स्वभाव आज भी उनके जीवन में विविध रूपों में विद्यमान है। (घ) हम अपनी परंपरा और पुरानी पीढ़ी के प्रभाव को चाहते हुए भी अनदेखा नहीं कर सकते। इसका प्रभाव हमारे जीवन में गहराई से व्याप्त रहता है। हम ऊपरी तौर पर या किसी के बहकावे में आकर भले ही विरोध करते रहें किंतु वे परंपराएँ और उनका प्रभाव हमारे स्वभाव का अभिन्न अंग बन चुकी होती हैं इसलिए उनको नकारना या उन्हें अनदेखा करना संभव नहीं है। जैसे लेखिका ने अपने पिता के शक्की स्वभाव का विरोध किया, किंतु वह उनके स्वभाव में समाता ही चला गया। (ङ) लेखिका ने अतीत के विषय में लिखा है कि वह कभी प्रतिक्रिया के रूप में व्यक्त होता है। कभी वह कुंठाओं के रूप में और कभी-कभी वह प्रतिबिंब के रूप में व्यक्त होता है। कहने का अभिप्राय है कि पिछले संस्कारों के कारण हम वर्तमान को झुंझलाहट के रूप में अपनाते हैं तो कभी उस पर अपना असंतोष व्यक्त करते हैं। इस प्रकार अतीत भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होता है। (च) लेखिका को भी उनके अपनों ने ही चोट पहुंचाई। वह जिन पर पूर्ण विश्वास करती थी उन्होंने ही उसे धोखा दिया, उसके साथ विश्वासघात किया। इसी कारण उसके विश्वास खंडित हो गए थे। (छ) आसन्न अतीत’ का अर्थ है-वह अतीत जो अभी-अभी बीता है। लेखिका ने इसका प्रयोग अपने अभी-अभी बीते अतीत को व्यक्त करने के लिए किया है। वह अतीत हमारी आदतों में ढला हुआ होता है। हम वैसे ही बन जाते हैं जैसा कि हम अपने साथ घटित होते देखते हैं। यथा लेखिका के साथ विश्वासघात हुआ तो वह शक्की स्वभाव की बन गई। (ज) आशय/व्याख्या इस गद्यांश में लेखिका ने अपने शक्की स्वभाव होने के कारणों और बदलती हुई परिस्थितियों में अपने स्वभाव के निर्माण के विषय में बताया है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया है कि समय का बहाव हमें भले ही विपरीत या दूसरी दिशाओं में ले जाए, किंतु हम अपने मूल स्वभाव से पूर्ण रूप से कभी मुक्त नहीं हो सकते। लेखिका अपने पिता के शक्की स्वभाव पर क्रोधित हो जाती थी। किंतु अब उसकी समझ में आ गया है कि मूलतः उनका शक्की स्वभाव नहीं था बल्कि अपनों के विश्वासघात ने ही उन्हें शक्की स्वभाव वाला बना दिया था। पिता और लेखिका के बीच किसी-न-किसी बात को लेकर तकरारबाजी होती रहती थी। इसलिए लेखिका के व्यक्तित्व में भी पिता के जीवन के गुण-दोष दोनों कुंठाओं के रूप में, प्रतिक्रिया व्यक्त करने के रूप में व प्रतिछाया के रूप में विद्यमान हैं। लेखिका मानती है कि अपनी परंपरा और पुरानी पीढ़ी के प्रभाव को चाहते हुए भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। समय का परिवर्तन भले ही उन्हें दूसरी दिशा में ले जाए, परिस्थितियों का दबाव भले ही उनका रूप भी बदल दे, किंतु उन्हें अपने मूल स्वभाव से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं कर सकता। कहने का भाव है कि व्यक्ति के मूल स्वभाव का अंश कहीं-न-कहीं अवश्य दिखाई पड़ जाता है। (4) पिता के ठीक विपरीत थीं हमारी बेपढ़ी-लिखी माँ। धरती से कुछ ज़्यादा ही धैर्य और सहनशक्ति थी शायद उनमें। पिता जी की हर ज़्यादती को अपना प्राप्य और बच्चों की हर उचित-अनुचित फरमाइश और ज़िद को अपना फर्ज समझकर बड़े सहज भाव से स्वीकार करती थीं वे। उन्होंने जिंदगी भर अपने लिए कुछ माँगा नहीं, चाहा नहीं… केवल दिया ही दिया। हम भाई-बहिनों का सारा लगाव (शायद सहानुभूति से उपजा) माँ के साथ था लेकिन निहायत असहाय मजबूरी में लिपटा उनका यह त्याग कभी मेरा आदर्श नहीं बन सका…न उनका त्याग, न उनकी सहिष्णुता। खैर, जो भी हो, अब यह पैतृक-पुराण यहीं समाप्त कर अपने पर लौटती हूँ। [पृष्ठ 94] प्रश्न (ख) लेखिका की माँ एक साधारण गृहिणी थी। उसका स्वभाव अत्यंत सहनशील एवं शांत था। वह अत्यंत त्यागशील नारी थी। (ग) लेखिका की माँ अपने साथ होने वाली हर प्रकार की ज़्यादती को सहन करती थी। लेखिका का पिता अहंकारी एवं गुस्से में रहने वाला व्यक्ति था। वह बात-बात पर उसे प्रताड़ित करता रहता था। वह उनकी हर बात सहन करती थी। बच्चों की भी उचित-अनुचित फरमाइश को अपना कर्त्तव्य समझ बड़े सहज भाव से स्वीकार कर लेती थी। इसीलिए लेखिका ने उन्हें धरती से भी अधिक धैर्यवान बताया है। (घ) लेखिका ने अपनी माँ के व्यक्तित्व की अनेक विशेषताओं की ओर संकेत किया है। वह त्यागशील नारी थी। वह सदा अपने परिवार के लिए काम करती थी। परिवार के सुख के लिए अपना सुख-चैन सब कुछ त्याग दिया था। सहनशीलता उसके जीवन की प्रमुख विशेषता थी। पिता के क्रोध के कारण तो वह सदा डरी-डरी सी रहती थी। (ङ) माँ के प्रति उनके लगाव का कारण शायद उनके प्रति सहानुभूति अथवा उनकी विवशता थी। (च) लेखिका एक सजग नारी थी। वह बात को सोच-समझकर और तर्क की तुला पर तोलकर स्वीकार करने के पक्ष में थी। जबकि उनकी माता निहायत असहाय और मजबूरी की स्थिति में जीवन व्यतीत करती थी। उनका त्याग भी मजबूरी और उनकी असहाय अवस्था के कारण था। इसलिए माँ का यह त्याग लेखिका का आदर्श नहीं बन सका था। (छ) आशय/व्याख्या-प्रस्तुत गद्यांश में लेखिका ने अपने बचपन की मोहल्ले की संस्कृति तथा महानगरों के फ्लैट में रहने वाले लोगों की संकुचित एवं संकीर्ण संस्कृति के अंतर को स्पष्ट किया है लेखिका का मत है कि उसके बचपन के समय में घर केवल चारदीवारी तक ही सीमित नहीं होता था, अपितु पूरा मोहल्ला ही घर होता था। मोहल्ले के लोगों में आपस में आत्मीयता की भावना होती थी। सभी लोग व बच्चे एक-दूसरे के घर आते-जाते थे तथा एक-दूसरे से स्नेह से मिलते थे। दूसरी ओर लेखिका ने आज के महानगरीय जीवन के विषय में बताते हुए कहा है कि उसमें आत्मीयता की भावना नहीं रह गई है। आज के महानगरों में लोग फ़्लैटों में रहते हैं। अत्यधिक व्यस्तता के कारण लोग आत्मकेंद्रित हो गए हैं। आज का महानगरीय जीवन अत्यंत संकीर्ण हो गया है। प्रत्येक व्यक्ति में अजनबीपन की भावना घर कर गई है तथा अब व्यक्ति अपने आप को असुरक्षित अनुभव करता है। लेखिका ने अपनी आरंभिक कहानियों के पात्र अपने मोहल्ले से ही चुने हैं। लेखिका के मन पर उस वातावरण की गहरी छाप पड़ी हुई है जिसमें उसने बचपन बिताया था। इस बात को उसने अपनी कहानियाँ लिखते समय अनुभव किया। लेखिका की माँ का सबसे अच्छा गुण कौन सा है?लेखिका की माँ खादी की साड़ी पहनने वाली आजीवन गाँधी जी के सिद्धांतों का पालन करती रहीं।. उसकी माँ में खूबसूरती, नज़ाकत, ईमानदारी और निष्पक्षता का संगम था। ... . उनमें आज़ादी के प्रति जुनून तथा लगाव था।. वे हमेशा किसी की गोपनीय बात को गोपनीय ही रखती थीं तथा किसी के सामने प्रकट नहीं करती थीं।. लेखिका की मां के 2 गुण कौन कौन से थे?2. वे धार्मिक स्वभाव की महिला थीं। 3. वे पूजा-पाठ किया करती थीं तथा ईश्वर में आस्था रखती थीं।
लेखिका की परदादी ने ऐसी क्या मन्नत माँगी कि लोगों के मुँह खुले रह गए थे?Answer: उन्होंने भगवान से यह दुआ माँगी कि उनकी पतोह की पहली संतान लड़की पैदा हो न कि लड़का। समाज सदा से ही लड़कों की कामना करता रहा है, पर लेखिका की परदादी ने वह दुआ माँगी जिसे समाज बोझ समझता था। उनकी मन्नत के बारे में जानकर सभी हैरान रह गए क्योंकि उन्होंने यह बात सभी को बात दी थी।
लेखिका की माँ को ससुराल में बहुत सम्मान मिलता था क्यों?Solution. लेखिका ने अपनी माँ को परीजात-सी जादुई इसलिए कहा है क्योंकि उनमें खूबसूरती, नज़ाकत गैर दुनियादारी, ईमानदारी और निष्पक्षता जैसे गुणों का संगम था। इन गुणों के कारण ससुराल में उनकी स्थिति यह थी कि उनसे कोई ठोस काम करने के लिए कोई नहीं कहता था।
|