मोहर्रम की 10 तारीख को क्या हुआ था? - moharram kee 10 taareekh ko kya hua tha?

हर कौम पुकारेगी हमारे हैं हुसैन

मोहर्रम की 10 तारीख को क्या हुआ था? - moharram kee 10 taareekh ko kya hua tha?

मंगलवार को मुहर्रम की 10 तारीख यानी यौमे-आशूरा पर ताजिए व अखाड़े निकाले जाएंगे। सरकारी ताजियों के साथ-साथ अन्य स्थानों से निकलने वाले ताजिए कर्बला पहुंचेंगे। हिन्दू-मुस्लिम श्रद्धालु बड़ी तादाद में ताजिए के साथ रहेंगे। इस दिन मस्जिदों में खुसूसी मजलिसें होंगी, जिनमें मुहर्रम व वाकिआते कर्बला के मुख्तलिफ पहलुओं पर तकरीरें होंगी। विशेष दुआएं भी की जाएंगी।

सिंध के सूफी संत व सिंधी भाषा के महान कवि शाह अब्दुल लतीफ भिटाई, इमाम हुसैन को यूँ श्रद्धांजलि देते हैं।

'बड़ी मुश्किल से दुनिया को मिलेगी,
मिसाल ऐसी मिसाली आशिकी की,
रहेगी जॉफरोशों को सदा याद,
जवाँ मर्दी हुसैन इबने अली की।'

हजरत इमाम हुसैन को शहीद करने के बाद उनकी लाश के सिर को एक नेजे पर रख कर कर्बला के मैदान से दमश्क की तरफ यजीद को भेजा गया था।

पैगंबर ऐ इस्लाम मोहम्मद साहब के निवासे इमाम हुसैन को पूरे आल समेत प्यासा व भूखा रख कर शहीद किया गया था। यजीद ने सल्तनत की खातिर इस्लाम के उसूलों को मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी और इमाम हुसैन ने शहादत देकर इस्लाम के उसूलों को जिन्दा रखा।

मोहर्रम की 10 तारीख को क्या हुआ था? - moharram kee 10 taareekh ko kya hua tha?

'कत्ले हुसैन असल में मरगे यजीद हैं, इस्लाम जिन्दा होता है हर कर्बला के बाद।' कर्बला की लड़ाई हकीकत में सच व झूठ की लड़ाई थी। ये मानवता, लोकतंत्र व समानता की लड़ाई थी। इस्लाम के मानने वालों की बहुसंख्या मोहम्मद साहब के नवासे, अली के बेटे और फातिमा के जिगर के टुकड़े इमाम हुसैन के साथ थी, और ऐयाश व जालिम बादशाह यजीद ने अपने कबीले बन्नी उमेय की फौजी व माली ताकत के बल पर बादशाही हासिल की थी।

जनता ऐसे जालिम व ऐयाश को अपना खलीफा मानने को तैयार नहीं थी और इमाम हुसैन की शहादत हुई। ये शहादत केवल इस्लाम के मानने वालों के लिए नहीं थी वरन्‌ पूरी इंसानियत के लिए थी। हर कौम जो इंसाफ, लोकतंत्र व समानता के उसूलों को चाहती है, उसके लिए कुर्बानी थी। किसी कवि ने ठीक ही कहा है। 'इंसान को बेदार तो हो लेने दो, हर कौम पुकारेगी हमारे हैं हुसैन।'

- चुन्नीलाल वाधवानी

ऐयाश व जालिम बादशाह यजीद को मरलक बिन अश्तर की बेटी रेहाना ने 1 नवंबर ईसवी सन्‌ 683 को अपने छूपे खंजर से नाच करते हुए मार दिया था। यजीद उस वक्त 36 वर्ष के थे। रेहाना ने यह काम करके इतिहास में अपना नाम लिखवा लिया। क्या आज का मुसलमान इमाम हुसैन के बताए हुए रास्ते, मानवता लोकतंत्र व समानता के उसूलों पर चल रहा है।




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- चुन्नीलाल वाधवानी

मंगलवार को मोहर्रम की 10 तारीख यानी यौमे-आशूरा पर ताजिए व अखाड़े निकाले जाएंगे। सरकारी ताजियों के साथ-साथ अन्य स्थानों से निकलने वाले ताजिए कर्बला पहुंचेंगे। हिन्दू-मुस्लिम श्रद्धालु बड़ी तादाद में ताजिए के साथ रहेंगे। इस दिन मस्जिदों में खुसूसी मजलिसें होंगी, जिनमें मोहर्रम व वाकिआते कर्बला के मुख्तलिफ पहलुओं पर तकरीरें होंगी। विशेष दुआएं भी की जाएंगी।  

सिंध के सूफी संत व सिंधी भाषा के महान कवि शाह अब्दुल लतीफ भिटाई, इमाम हुसैन को यूं श्रद्धांजलि देते हैं।

'बड़ी मुश्किल से दुनिया को मिलेगी,

मिसाल ऐसी मिसाली आशिकी की,

रहेगी जॉफरोशों को सदा याद,

जवां मर्दी हुसैन इबने अली की।'

हजरत इमाम हुसैन को शहीद करने के बाद उनकी लाश के सिर को एक नेजे पर रख कर कर्बला के मैदान से दमश्क की तरफ यजीद को भेजा गया था।

पैगंबर ऐ इस्लाम मोहम्मद साहब के निवासे इमाम हुसैन को पूरे आल समेत प्यासा व भूखा रख कर शहीद किया गया था। यजीद ने सल्तनत की खातिर इस्लाम के उसूलों को मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी और इमाम हुसैन ने शहादत देकर इस्लाम के उसूलों को जिन्दा रखा।

'कत्ले हुसैन असल में मरगे यजीद हैं, इस्लाम जिन्दा होता है हर कर्बला के बाद।' कर्बला की लड़ाई हकीकत में सच व झूठ की लड़ाई थी। यह मानवता, लोकतंत्र व समानता की लड़ाई थी। इस्लाम के मानने वालों की बहुसंख्या मोहम्मद साहब के नवासे, अली के बेटे और फातिमा के जिगर के टुकड़े इमाम हुसैन के साथ थी, और ऐयाश व जालिम बादशाह यजीद ने अपने कबीले बन्नी उमेय की फौजी व माली ताकत के बल पर बादशाही हासिल की थी।

जनता ऐसे जालिम व ऐयाश को अपना खलीफा मानने को तैयार नहीं थी और इमाम हुसैन की शहादत हुई। यह शहादत केवल इस्लाम के मानने वालों के लिए नहीं थी वरन्‌ पूरी इंसानियत के लिए थी। हर कौम जो इंसाफ, लोकतंत्र व समानता के उसूलों को चाहती है, उसके लिए कुर्बानी थी। किसी कवि ने ठीक ही कहा है। 'इंसान को बेदार तो हो लेने दो, हर कौम पुकारेगी हमारे हैं हुसैन।' >  

मोहर्रम की 10 तारीख को क्या हुआ था? - moharram kee 10 taareekh ko kya hua tha?

मुहर्रम का 10वां दिन या 10वीं तारीख यौम-ए-आशूरा के नाम से जानी जाती है. (Photo: Pixabay)

मुहर्रम माह से ही इस्लामिक कैलेंडर का आगाज होता है. मुहर्रम का 10वां दिन या 10वीं तारीख यौम-ए-आशूरा (Ashura) के नाम से जानी जाती है. यह दिन मातम का होता है. इस दिन मुस्लिम समुदाय मातम मनाता है.

  • News18Hindi
  • Last Updated : August 06, 2022, 09:15 IST

हाइलाइट्स

मुस्लिम धर्म में रमजान के बाद दूसरा सबसे पवित्र माह मुहर्रम का होता है.
हजरत इमाम हुसैन की शहादत मुहर्रम के 10वें दिन यानि आशूरा को हुई थी.

मुस्लिम धर्म में रमजान के बाद दूसरा सबसे पवित्र माह मुहर्रम (Muharram) का होता है. मुहर्रम माह से ही इस्लामिक कैलेंडर का आगाज होता है. यह इस्लामिक कैलेंडर वर्ष का पहला महीना है. इस साल मुहर्रम का प्रारंभ 31 जुलाई से हुआ है. मुहर्रम का 10वां दिन या 10वीं तारीख यौम-ए-आशूरा (Ashura) के नाम से जानी जाती है. यह दिन मातम का होता है. इस दिन मुस्लिम समुदाय मातम मनाता है. आइए जानते हैं कि भारत में आशूरा कब है और इसका ऐतिहासिक महत्व क्या है?

भारत में कब है आशूरा?
भारत में मुहर्रम का प्रारंभ 31 जुलाई को हुआ था, इसलिए आशूरा 09 अगस्त दिन मंगलवार को है. पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी आशूरा 09 अगस्त को ही है. वहीं सऊदी अरब, ओमान, कतर, संयुक्त अरब अमीरात, इराक, बहरीन और अन्य अरब देशों में मुहर्रम का प्रारंभ 30 जुलाई से हुआ था, इसलिए वहां पर आशूरा 08 अगस्त दिन सोमवार को है.

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आशूरा का ऐतिहासिक महत्व
पैगंबर हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन की शहादत मुहर्रम के 10वें दिन यानि आशूरा को हुई थी. करीब 1400 साल पहले इस्लाम की रक्षा के लिए हजरत इमाम हुसैन ने अपने परिवार और 72 साथियों के सा​थ शहादत दे दी थी. हजरत इमाम हुसैन और यजीद की सेना के बीच यह जंग इराक के शहर कर्बला में हुई थी.

शिया समुदाय निकालता है ताजिया
आशूरा के दिन शिया समुदाय के लोग ताजिया निकालते हैं और मातम मनाते हैं. इराक में हजरत इमाम हुसैन का मकबरा है. उसी तरह का ताजिया बनाया जाता है और जुलूस निकाला जाता है. रास्ते भर लोग मातम मनाते हैं और कहते हैं कि ‘या हुसैन, हम न हुए’.

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उन ताजियों को कर्बला की जंग के शहीदों का प्रतीक माना जाता है. जुलूस का प्रारंभ इमामबाड़े से होता है और समापन कर्बला पर होता है. वहां पर सभी ताजिए दफन कर दिए जाते हैं. जुलूस में शामिल लोग काले कपड़े पहनते हैं.

ताजिया के जुलूस के समय बोलते हैं- ‘या हुसैन, हम न हुए’. इसका अर्थ है कि हजरत इमाम हुसैन हम सब गमजदा हैं. कर्बला की जंग में हम आपके साथ नहीं थे, वरना हम भी इस्लाम की रक्षा के लिए अपनी कुर्बानी दे देते.

(Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारियां और सूचनाएं सामान्य मान्यताओं पर आधारित हैं. Hindi news18 इनकी पुष्टि नहीं करता है. इन पर अमल करने से पहले संबधित विशेषज्ञ से संपर्क करें)

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Tags: Dharma Aastha, Muslim religion

FIRST PUBLISHED : August 06, 2022, 09:15 IST

10 मोहर्रम को क्या हुआ था कर्बला में?

इस महीने को इस्लामी मान्यताओं के मुताबिक रमजान के बाद दूसरा सबसे मुकद्दस महीना माना जाता है। साथ ही इसी महीने के दसवें दिन पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के नवासे हजरत हुसैन सहित हुसैन इब्रे अली को उनके परिवार सहित 72 लोगों को इराक के कर्बला में शहीद कर दिया गया। शहादत को ही याद करने के लिए यौम-ए-आशूरा मनाया जाता है।

मोहर्रम की 10 तारीख को क्या करना चाहिए?

(करबला, इराक) 10 मुहर्रम 61 हिजरी।

मोहर्रम की 9 तारीख को क्या हुआ था?

शनिवार को इस्लामी महीने की 30 तारीख होगी। रविवार 31 जुलाई को पहली मोहर्रम होगी। चांद कमेटियों ने बताया कि आशूरा 9 अगस्त को होगा। मोहर्रम के दौरान इमामबाड़ों को सजाने के लिए लोग घरों में भी ताजिये बना

मोहर्रम का क्या इतिहास है?

इन दिन को इस्लामिक कैलेंडर में बेहद अहम माना गया है क्योंकि इसी दिन हजरत इमाम हुसैन की शहादत हुई थी। इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद साहब के छोटे नवासे हजरत इमाम हुसैन ने कर्बला में अपने 72 साथियों के साथ शहादत दी थी। इसलिए इस माह को गम के महीने के तौर पर मनाया जाता है।