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लेखकलेखक परिचयप्रमुख रचनाएँ:
स्वयं प्रकाश आधुनिक हिन्दी साहित्य में एक प्रसिद्ध नाम है। स्वयं प्रकाश जी को प्रेमचंद परम्परा का महत्त्वपूर्ण लेखक माना जाता है। अब तक इनके पाँच उपन्यास और नौ कहानी-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी कहानियों का अनुवाद रूसी भाषा में भी हो चुका है। स्वयं प्रकाश जी ने अपनी रचनाओं में मध्यमवर्गीय जीवन की समस्याओं, उनकी पीड़ाओं और उनके संघर्षों के विविध पक्षों को पाठकों के सम्मुख उपस्थित किया है। इन्होंने अपनी खिलंदड़ी किन्तु अत्यंत सहज भाषा में रचनाएँ लिखकर अपने पाठकों का मन मोह लिया है।इन्हें पहल सम्मान, वनमाला सम्मान, राजस्थान साहित्य अकादमी सम्मान तथा 2011 में आनंद सागर कथाक्रम सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है। पाठ के बहानेसुभाष चन्द्र बोस, (जन्म: 23 जनवरी 1897, मृत्यु: 18 अगस्त 1945) जो नेता जी के नाम से भी जाने जाते हैं, भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी नेता थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था। अंग्रेजों के बंधन से भारत देश को मुक्त कराना इसका मुख्य उद्देश्य था। उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया है। "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा" का नारा भी उनका था जो उस समय अत्यधिक प्रचलन में आया। अन्य जानकारीरैंकोजी मन्दिर जापान के टोकियो में स्थित एक बौद्ध मन्दिर है। 1594 में स्थापित यह मन्दिर बौद्ध स्थापत्य कला का दर्शनीय स्थल है। एक मान्यता के अनुसार भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रिम सेनानी सुभाष चन्द्र बोस की अस्थियाँ यहाँ आज भी सुरक्षित रखी हुई हैं। दरअसल 18 सितम्बर 1945 को उनकी अस्थियाँ इस मन्दिर में रखी गयीं थीं। परन्तु प्राप्त दस्तावेज़ों के अनुसार नेताजी की मृत्यु एक माह पूर्व 18 अगस्त 1945 को ही ताइहोकू के सैनिक अस्पताल में रात्रि 21.00 बजे हो गयी थी। जापान के लोग यहाँ प्रति वर्ष 18 अगस्त को नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का बलिदान दिवस मनाते हैं। पात्र परिचयरैंकोजी मन्दिर टोकियो के परिसर में स्थापित नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की आवक्ष प्रतिमा हालदार साहब - एक भावुक एवं सहृदय व्यक्ति। कहानी का सारहालदार साहब को हर पंद्रहवें दिन कंपनी के काम से एक छोटे कस्बे से गुजरना पड़ता था। उस कस्बे में लड़कों का एक स्कूल, लड़कियों का एक स्कूल, एक सीमेंट का कारखाना, दो ओपन सिनेमा घर और एक नगरपालिका थी। नगरपालिका कुछ ना कुछ करती रहती थी। कभी सड़कें पक्की करवाने का काम करती, तो कभी शौचालय बनवाने का काम करती, तो कभी कवि सम्मेलन करवा दिया करती आदि। एक बार नगर पालिका के एक उत्साही अधिकारी ने मुख्य बाजार के चौराहे पर सुभाष चंद्र बोस की संगमरमर की प्रतिमा लगवा दी। चूँकि बजट ज्यादा नहीं था इसीलिए मूर्ति बनाने का काम कस्बे के इकलौते हाई स्कूल के शिक्षक को सौंप दिया गया।मूर्ति सुंदर बनी थी, बस एक चीज की कमी थी। नेताजी की आँखों पर पत्थर का चश्मा नहीं था। एक सचमुच के चश्मे का चौड़ा काला फ्रेम मूर्ति को पहना दिया गया था। जब हालदार साहब आए, तो उन्होंने सोचा -- भाई वाह! आइडिया ठीक है। मूर्ति तो पत्थर की थी, पर चश्मा वास्तविक था। दूसरी बार जब हालदार साहब आए तो उन्हें मूर्ति पर तार का फ्रेम वाला गोल चश्मा लगा दिखा। तीसरी बार उन्होंने नया चश्मा पाया। इस बार वे पान वाले से पूछ बैठे कि नेताजी का चश्मा हरदम बदल कैसे जाता है। पान वाले ने बताया कि यह काम कैप्टन चश्मे वाले का है। हालदार साहब को समझते देर न लगी कि बिना चश्मे वाली मूर्ति कैप्टन को खराब लगती होगी इसीलिए वह अपने उपलब्ध फ्रेम में से एक को नेता जी की मूर्ति पर सेट कर देता होगा। जब कोई ग्राहक वैसे ही प्रेम की मांग करता जैसा मूर्ति पर लगा है, तो वह मूर्ति से उतारकर उसे ग्राहक को दे देता और मूर्ति पर नया प्रेम लगा देता, क्योंकि मूर्ति बनाने वाला मास्टर चश्मा बनाना भूल गया था या चश्मा बना नहीं पाया था। हालदार साहब ने पान वाले से जानना चाहा कि कैप्टन चश्मे वाला नेता जी का साथी है या आजाद हिंद फौज का कोई भूतपूर्व सिपाही। शायद इसी कारण उनकी बिना चश्मेवाली मूर्ति वह नहीं देख पाता है। पानवाले ने यह बताता है कि यह लंगड़ा कैप्टन घूम-घूम कर चश्मे बेचता है, तब हालदार बाबू के मन में देशभक्त कैप्टन चश्मे वाले के लिए आदर का भाव उमड़ पड़ा। हालदार साहब को एक देशभक्त का मजाक बनते देखना अच्छा नहीं लगा। कैप्टन को देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ क्योंकि वह एक बूढ़ा मड़ियल लंगड़ा सा आदमी था जिसके सिर पर गाँधी टोपी तथा चश्मा था, उसके हाथ में एक छोटी सी संदूकची और दूसरे में एक बार में टंगे ढेरों चश्मे थे। वह उसका वास्तविक नाम जानना चाहते थे परंतु पान वाले ने इससे ज्यादा बताने से मना कर दिया। दो साल के भीतर हालदार साहब ने नेताजी की मूर्ति पर कई चश्मे लगते हुए देखें। एक बार जब हालदार साहब कस्बे से गुजर रहे थे तो मूर्ति पर कोई चश्मा नहीं दिखा। पूछने पर पता चला कि कैप्टन चश्मे वाला मर गया। उन्हें बहुत दुख हुआ। 15 दिन बाद कस्बे से गुजरे तो सोचा कि वहां नहीं रुकेंगे, पान भी नहीं खाएंगे, मूर्ति की ओर देखेंगे भी नहीं। परंतु आदत से मजबूर हालदार साहब की नजर चौराहे पर आते ही आंखें मूर्ति की ओर उठ गईँ। अजीब से उतरे और मूर्ति के सामने जाकर खड़े हो गए। मूर्ति की आंखों पर सरकंडे से बना हुआ छोटा-सा चश्मा रखा था, जैसा बच्चे बना लेते हैं। यह देखकर हालदार साहब की आँखें नम हो गई। कहानी का उद्देश्य'नेताजी का चश्मा' हर भारतीय के अंदर देशभक्ति की भावना और अपने स्वतंत्रता-सेनानियों के प्रति सम्मान का
भाव जागृत करने का प्रयास करती है। शीर्षक की सार्थकतानेताजी का चश्मा कहानी सुभाष चंद्र बोस के चश्मे से ही संबंधित है, नेताजी को चित्रों में सदैव चश्मे में ही देखा है। यहाँ भी नेता जी की संगमरमर की प्रतिमा पर चश्मा है, किंतु वह संगमरमर का ना होकर असली चश्मा है। यही हालदार साहब को आकृष्ट करता है उस चश्मे की जानकारी हालदार साहब पान वाले से प्राप्त करते हैं
वेस्ट में बेचने वाले निर्धन कैप्टन के द्वारा अभिव्यक्त नेताजी के प्रति सम्मान से अवगत होते हैं कहानी के अंत में भी नेता जी की मूर्ति पर सरकंडे से बना चश्मा देखते हैं, जिसे देखकर हालदार साहब भावुक हो उठते हैं। कठिन शब्दार्थ[इस कहानी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग अधिक किया गया है, क्योंकि दैनिक जीवन में प्रायः सभी अंग्रेजी मिश्रित हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं। समाज का वर्तमान रूप दिखाने के लिए अंग्रेजी शब्द प्रयुक्त किए गए हैं।] कस्बा - छोटा शहर या नगर अवतरणों पर आधारित प्रश्नोत्तरसंदर्भ -१"क्या कैप्टन चश्मेवाला नेताजी का साथी है या आज़ाद हिंद फ़ौज का भूतपूर्व सिपाही ?" प्रश्न (i) प्रस्तुत पंक्ति कौन, किससे पूछ रहा है ?
(iii) कैप्टन के बारे में हालदार साहब द्वारा पूछे जाने पर पानवाले ने टिप्पणी की कि वह लंगड़ा फ़ौज में क्या जाएगा, वह तो पागल है। पानवाले द्वारा ऐसी टिप्पणी करना उचित नहीं था। कैप्टन शारीरिक रूप से अक्षम था जिसके लिए वह फौज में नहीं जा सकता था। परंतु उसके हृदय में जो अपार देशभक्ति की भावना थी, वह किसी फौजी से कम नहीं थी। कैप्टन अपने कार्यों से जो असीम देशप्रेम प्रकट करता था
उसी कारण पानवाला उसे पागल कहता था। ऐसा कहना पानवाले की स्वार्थपरता की भावना को दर्शाता है, जो सर्वथा अनुचित है। (iv) सेनानी न होते हुए भी चश्मेवाले को लोग कैप्टन इसलिए कहते थे क्योंकि उसके अंदर देशभक्ति की भावना कूट-कूटकर भरी हूई थी। वह स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले सेनानियों का भरपूर सम्मान करता था| वह नेताजी की प्रतिमा को बार-बार चश्मा पहना कर देश के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा प्रकट करता था। देश के प्रति त्याग व समर्पण की भावना उसके हृदय में किसी भी फ़ौजी से कम नहीं थी। संदर्भ - 2
प्रश्न उत्तर
नोट्सअपना-अपना भाग्य पर नोट्स पेढ़ें। नोट्ससूर के पद पर नोट्स पेढ़ें। नोट्सदो कलाकार पर नोट्स मूर्ति निर्माण में नगरपालिका को देर क्यों लगी?एक बार नगरपालिका के एक उत्साही अधिकारी ने मुख्य बाज़ार के चैराहे पर सुभाषचन्द्र बोस की संगमरमर की प्रतिमा लगवा दी। चूँकि बजट ज्यादा नही था इसलिए मूर्ति बनाने का काम कस्बे के इकलौते हाई स्कूल के शिक्षक को सौंपा गया। मूर्ति सुन्दर बनी थी बस एक चीज़ की कमी थी, नेताजी की आँख पर चश्मा नहीं था।
मूर्ति के निर्माण कार्य में देरी का क्या कारण था?नगरपालिका का मूर्ति बनाने का बजट सीमित था इसलिए उन लोगों ने मूर्ति बनाने का कार्य स्थानीय स्कूल के ड्राइंग मास्टर मोतीलाल जी को दे दिया।
नगरपालिका द्वारा किसकी मूर्ति को कहाँ लगवाने का निर्णय लिया गया *?नगरपालिका द्वारा किसकी मूर्ति को कहाँ लगवाने का निर्णय लिया गया? नेताजी सुभाषचंद्र बोस की मूर्ति को नगरपालिका द्वारा लगवाने का निर्णय लिया गया। इस मूर्ति को कस्बे के बीचोबीच चौराहे पर लगवाने का फैसला किया गया। ताकि हर आने-जाने वाले की दृष्टि उस पर पड़ सके।
नगरपालिका ने नेताजी की मूर्ति चौराहे पर लगवाने की हड़बड़ाहट क्यों दिखाई थी *?प्रशासनिक अधिकारियों की हड़बड़ाहट का अंदेशा मूर्ति देखकर लगाया जा सकता है।
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