जीवन परिचय-आनंद यादव का जन्म सन 1935 में महाराष्ट्र के कोल्हापुर में हुआ था। इनका पूरा नाम आनंद रतन यादव है। इन्होंने मराठी एवं संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की। ये बहुत समय तक पुणे विश्वविद्यालय में मराठी विभाग में कार्यरत रहे। इनकी लगभग पच्चीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इन्होंने उपन्यास, कविता व समालोचनात्मक विधाओं पर लेखन-कार्य किया है। इनकी ‘नटरंग’ पुस्तक बहुत चर्चित रही। ‘जूझ’ उपन्यास पर इन्हें सन 1990 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पाठ का सारांश यह अंश लेखक के बहुचर्चित आत्मकथात्मक उपन्यास का है। यह एक किशोर के देखे और भोगे हुए गाँवई जीवन के खुरदरे यथार्थ और उसके रंगारंग परिवेश की विश्वसनीय जीवंत गाथा है। इस आत्मकथात्मक उपन्यास में जीवन का मर्मस्पर्शी पिईईई अत-व्रत अल्मत निमाध्ययग्रमण समाज औरलते-जूते किसानमष्ट्रों के संर्ष को भ अनूठी झाँकी है। लेखक के पिता ने उसे पाठशाला जाने से रोक दिया तथा खेती के काम में लगा दिया। उसका मन पाठशाला जाने के लिए तड़पता था, परंतु वह पिता से कुछ कहने की हिम्मत नहीं रखता था। उसे पिटाई का डर था। उसे विश्वास था कि खेती से कुछ नहीं मिलने वाला क्योंकि क्रमश: इससे मिलनेवाला लाभ घट रहा है। पढ़ने के बाद नौकरी लगने पर उसके पास कुछ पैसे आ जाएँगे। दीवाली के बाद ईख पेरने के लिए कोल्हू चलाया जाता था क्योंकि उसके पिता को सबसे पहले गुड़ बेचना होता था ताकि ओधिक कीमत मिल सके। हालाँकि पहले ईख काटने से उसमें रस कम निकलता था। इस वर्ष भी लेखक के पिता ने जल्दी कार्य शुरू किया। अत: ईख पेरने का काम सबसे पहले संपन्न हो गया। एक दिन लेखक धूप में कंडे थाप रही थी और वह बाल्टी में पानी भर-भरकर उसे दे रहा था। अच्छा मौका देखकर लेखक ने माँ से पढ़ाई की बात की माँ ने अपनी लाचारी प्रकट करते हुए कहा कि तेरी पढ़ाई-लिखाई की बात करने पर वह बरहेला सुअर की तरह गुर्राता है। लेखक ने सुझाव दिया कि वह दत्ता जी राव सरकार से उसकी पढ़ाई के बारे में बात करे। माँ तैयार हो गई। वह बच्चे की तड़पन समझती थी। अत: रात को लेखक की पढ़ाई के संबंध में बात करने के लिए दत्ता जी राव देसाई के पास गई और उनसे सारी बात बताई। उसने यह भी बताया कि दादा सारे दिन बाजार में रखमाबाई के पास गुजार देता है। वह खेती का काम नहीं करता। उसने बच्चे की पढ़ाई इसलिए बंद कर दी ताकि वह सारे गाँव भर में आजादी के साथ घूमता रहे। यह बात सुनकर देसाई चिढ़ गए। चलते-चलते लेखक ने यह भी कहा कि यदि वह अब भी कक्षा में पढ़ने लगे तो दो महीने में पाँचवीं पास कर लेगा और इस तरह उसका साल बच जाएगा। पहले ही उसका एक साल खराब हो चुका था। राव ने लेखक से कहा कि घर आने पर दादा को मेरे पास भेज देना और घड़ी भर बाद तुम भी आ जाना। माँ-बेटा ने राव को सचेत किया कि हमारे आने की बात उसे मत बताना। राव ने उन्हें निर्भय होकर जाने को कहा। रात को दादा घर पर मालिक दिखाई नहीं दिया। खेत से आ जाने पर इधर भेजना। यह सुनकर दादा सम्मान की बात समझकर तुरंत चला गया। आधा घंटे बाद लेखक उन्हें खाने के लिए बुलाने चला गया। राव ने लेखक से पूछा कि कौन-सी कक्षा में पढ़ता है रे तू? लेखक ने बताया कि वह पाँचवीं में था, पर अब स्कूल नहीं जाता क्योंकि दादा ने मना कर दिया। उन्हें खेतों में पानी लगाने वाला चाहिए था। राव ने दादा से पूछा तो उसने लेखक के कथन को स्वीकार कर लिया। देसाई ने दादा को खूब फटकार लगाई और कहा कि तुम्हारा ध्यान खेती में नहीं है। बीवी-बच्चों को खेत में जोतकर खुले साँड़ की तरह घूमता है तथा अपनी मस्ती के लिए लड़के के जीवन की बलि चढ़ा रहा है। उसने लेखक को कहा कि तू सवेरे पाठशाला जा तथा मन लगाकर पढ़। यदि यह मना करे तो मेरे पास आना। मैं तुझे पढ़ाऊँगा। लेखक के पिता ने उस पर गलत आदतों का आरोप लगाया-कंडे बेचना, चारा बेचना, सिनेमा देखना या जुआ खेलना, खेती व घर के काम पर ध्यान न देना आदि। लेखक ने अपने उत्तर से उन्हें संतुष्ट कर दिया। देसाई ने पूछा कि कभी नापास तो नहीं हुआ। लेखक के मना करने पर उसे पाठशाला जाने का आदेश देकर घर भेज दिया। बाद में उसने रतनाप्पा को समझाया। दादा ने भी पाठशाला भेजने की हामी भर दी। घर आकर दादा ने लेखक से यह वचन ले लिया कि दिन निकलते ही खेत पर जाना और वहीं से पाठशाला पहुँचना। । पाठशाला से छुट्टी होते ही घर में बस्ता रखकर सीधे खेत पर आकर घंटा भर ढोर चराना और खेतों में ज्यादा काम होने पर पाठशाला से गैर-हाजिर रहना होगा। लेखक ने सभी शतें स्वीकार कर लीं। लेखक पाँचवीं कक्षा में जाकर बैठने लगा। कक्षा के दो लड़कों को छोड़कर सभी नए बच्चे थे। वह बाहरी-अपरिचित जैसा एक बेंच के एक सिरे पर कोने में जा बैठा। वह पुरानी किताबों को ही थैले में भर लाया। कक्षा के शरारती लड़के ने उसका मजाक उड़ाया और उसका गमछा छीनकर मास्टर की मेज पर रख दिया। फिर उसे सिर पर लपेटकर मास्टर की नकल उतारनी शुरू की। तभी मास्टर जी आ गए। लेखक ने उसे सब कुछ बता दिया। बीच की छुट्टी में लड़कों ने उसकी धोती खोलने की कोशिश की, परंतु असफल रहे। वे उसे तरह-तरह से परेशान करते रहे। उसका मन उदास हो गया। उसने माँ से नयी टोपी व दो नाड़ी वाली चड्ढी मैलखाऊ रंग की मैंगवा ली। धीरे-धीरे लड़कों से परिचय बढ़ गया। मंत्री नामक मास्टर आए। वे छड़ी का उपयोग नहीं करते थे। वे लड़के की पीठ पर घूसा लगाते थे। शरारती लड़के उनसे बहुत डरते थे। वे गणित पढ़ाते थे। इस कक्षा में वसंत पाटील नाम का कमजोर शरीर वाला व होशियार लड़का था। वह शांत स्वभाव का था तथा हमेशा पढ़ने में लगा रहता था। मास्टर ने उसे कक्षा मॉनीटर बना दिया था। लेखक भी उसकी तरह पढ़ने में लगा रहा। वह अपनी कापी-किताबों को व्यवस्थित रखने लगा। शीघ्र ही वह गणित में होशियार हो गया। दोनों में दोस्ती हो गई। मास्टर लेखक को ‘आनंदा’ कहने लगे। अब उसका मन पाठशाला में लगने लगा। न०वा० सौंदलगेकर मास्टर मराठी पढ़ाते थे। पढ़ाते समय वे स्वयं रम जाते थे। सुरीले कंठ, छद व रसिकता के कारण वे कविता बहुत अच्छी पढ़ाते थे। उन्हें मराठी व अंग्रेजी की अनेक कविताएँ याद थीं। वे कविता के साथ ऐसे जुड़े थे कि अभिनय करके भावबोध कराते थे। वे स्वयं भी कविता रचते थे। लेखक उनसे बहुत प्रभावित था। खेत पर पानी लगाते समय या ढोर चराते समय वह मास्टर के अनुसार ही कविताएँ गाता था। वह उन्हीं की तरह अभिनय करता। उसी समय उसे अनुभव हुआ कि अन्य कविताएँ भी इसी तरह पढ़ी जा सकती हैं। लेखक को महसूस हुआ कि पहले जिस काम को करते हुए उसे अकेलापन खटकता था, अब वह समाप्त हो गया। उसे एकांत अच्छा लगने लगा। एकांत के कारण वह ऊँचे स्वर में कविता गा सकता था, नृत्य कर सकता था। उसने कविता गाने की अपनी पद्धति विकसित की। वह अभिनय के साथ गाने लगा तथा अब उसके चेहरे पर कविता के भाव आने लगे। मास्टर को लेखक का गायन अच्छा लगा और उससे छठी-सातवीं कक्षा के बालकों के सामने गवाया। पाठशाला के एक समारोह में भी उससे गवाया। मास्टर स्वयं कविता रचते थे। उनके पास मराठी कवियों के काव्य-संग्रह थे। वे उन कवियों के संस्मरण भी सुनाते थे। इस कारण अब वे कवि उसे ‘आदमी’ लगने लगे थे। सौंदलगेकर स्वयं कवि थे। इस कारण लेखक को यह विश्वास हुआ कि कवि भी उसकी तरह ही हाड़-मांस का व क्रोध-लोभ का मनुष्य होता है। लेखक को लगा कि वह स्वयं भी कविता कर सकता है। मास्टर के दरवाजे पर छाई हुई मालती की बेल पर एक कविता लिखी। लेखक ने मालती लता व कविता दोनों ही देखी थी। इससे उसे लगा कि वह अपने आस-पास, अपने गाँव, खेतों आदि पर कविता बना सकता है। भैंस चराते-चराते वह फसलों व जंगली फूलों पर तुकबंदी करने लगा। वह उन्हें जोर से गुनगुनाता तथा मास्टर को दिखाता। कविता लिखने के लिए वह कागज व पेंसिल रखने लगा। उनके न होने पर वह लकड़ी के छोटे टुकड़े से भैंस की पीठ पर रेखा खींचकर लिखता या पत्थर की शिला पर कंकड़ से लिख लेता। कंठस्थ हो जाने पर उसे पोंछ देता। वह अपनी कविता मास्टर को दिखाता था। कभी-कभी वह रात को ही मास्टर के घर जाकर कविता दिखाता। वे उसे कविता के शास्त्र के बारे में समझाते। वे उसे छद, अलंकार, शुद्ध लेखन, लय का ज्ञान कराते। वे उसे पुस्तकें व कविता-संग्रह भी देते थे। उन्होंने उसे कविता करने के अनेक ढरें सिखाए। इस प्रकार लेखक को मास्टर की निकटता मिलती और उसकी मराठी भाषा में सुधार आने लगा। शब्दों का महत्व उसकी समझ में आने लगा। शब्दार्थ गड्ढे में धकेलना – पतन की ओर ले जाना। कोल्हू – गन्ने का रस निकालने वाला यंत्र। बहुतायत – अत्यधिक। भाव नीचे उतरना – सस्ता होना, मंदी आना। जन – मनुष्य। कडे –पशुओं के गोबर से बने उपले। मन रखना – ध्यान देना। तड़पन – पीड़ा। जोत देना – लगा देना। बाड़ा – अहाता। जीमने – खाना खाने। राह देखना – इंतजार करना। जिरह –बहस। हजामत बनाना – फटकारना। श्रम – मेहनत। लागत – खर्च। नायास – अनुत्तीर्ण। बालिस्टर – बैरिस्टर, वकील। रोते-थोते – जैसे-तैसे। अपरिचित – अनजान। द्वतजार –प्रतीक्षा। खिल्ली उड़ाना – मजाक बनाना। पोशाक – वस्त्र। मटमैली – गंदी। गमछा – पतले कपड़े का तौलिया। काछ – धोती का छोर जिसे जाँघों के बीच से पीछे ले जाकर खोंसते हैं। चोंच मार-मारकर घायल करना – बार-बार पीड़ा देना। निबाह – निर्वाह। उमग – उत्साह। मैलखाऊ – जिसमें मैल दिखाई न दे। दहशत – डर, भय। ठोंक देना – पिटाई करना। पसीना छूटना – भयभीत होना। मुनासिब – उचित। व्यवस्थित – ठीक तरह से। एकाग्रता – ध्यान की अवस्था। कठस्थ – जबानी याद होना। अभिनय – नाटक करना। संस्मरण – पुरानी बातों की याद। भान – आभास। दम रोककर – तन्मय होकर। यति-गति – कविता में रुकने व आगे बढ़ने के नियम। आरोह-अवरोह – स्वर को भावानुसार कम या ज्यादा करना। खटकाना – महसूस करना। अयेक्षा – तुलना। तुकबदी – छदबद्ध सामान्य कविता। महफिल – सभा। ढरों – शैली। सूक्ष्मता – बारीकी। पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न पाठ के साथ प्रश्न 1: प्रश्न 2: प्रश्न 3: अथवा सौंदलगकर के व्यक्तित्व के आधार पर किसी अध्यापक के लिए आवश्यक जीवन-मूल्यों पर प्रकाश डालिए। प्रश्न 4: प्रश्न 5: प्रश्न 6: अन्य हल प्रश्न I. बोधात्मक प्रशन प्रश्न 1: प्रश्न 2: प्रश्न 3: प्रश्न 4: प्रश्न 5: प्रश्न 6: प्रश्न 7: प्रश्न 8: प्रश्न 9: प्रश्न 10: अथवा ‘जूझ’ कहानी के लेखक में कविता-रचना के प्रति रुचि कैसे उत्पन्न हुई? अथवा ‘जूझ’ के लखक के कवि बनने की कहानी का वर्णन कीजिए। प्रश्न 11: अथवा बालक आनद यादव के पिता ने किन शतों पर उसे विद्यालय जाने दिया?
प्रश्न 12: प्रश्न 13: प्रश्न 14: II. निबंधस्ताक प्रश्न प्रश्न 1: प्रश्न 2: अथवा दस्ता जी राव ने लेखक की पढाई काँ समस्या का समाधान किस प्रकार किया? प्रश्न 3: प्रश्न 4: प्रश्न 5:
प्रश्न 6: प्रश्न 7: अथवा ‘जूझ‘ पात के आधार पर राव साहब का चरित्रडवित्रण र्काजिए।
प्रश्न 8: प्रश्न 9: प्रश्न 10:
प्रश्न 11: III. मूल्यपरक प्रश्न प्रश्न 1: (अ) पाठशाला जाने के लिए मन तड़पता था। लेकिन दादा के सामने खहै होकर यह कहने को हिम्मत नहीं होती कि “मैं पढ़ने जाऊँगा।” डर लगता था कि हडूडी–पसली एक कर देगा। इसलिए मैं इस ताक में रहता कि कोई दादा को समझा दे। मुझे इसका विश्वास था कि जन्म–भर खेत में काम करते रहने पर भी हाथ कुछ नहीं लगेगा। जो बाबा के समय था, वह पापा के समय नहीं रहा। यह खेती हमें गइढे में धकेल रही है। पढ़ जाऊँगा तो नौकरी लग जाएगी, चार पैसे हाथ में रहेगें, विठोबा आपणा की तरह कुछ धंधा–कारोबार किया जा सकेगा। अंदर…ही–अंदर इस तरह के विचार चलते रहते।
उतार –
(ब) उठते-उठते मैंने भी दत्ता जी राव से कहा, ‘अब जनवरी का महीना है। अब परीक्षा नजदीक आ गई है। मैं यदि अभी भी कक्षा में जाकर बैठ गया और पढ़ाई की दुहराई कर ली तो दो महीने में पाँचवीं की सारी तैयारी हो जाएगी और मैं परीक्षा में पास हो जाऊँगा। इस तरह मेरा साल बच जाएगा। अब खेती में ऐसा कुछ काम नहीं है। मेरा पहले ही एक वर्ष बेकार में चला गया है।”“ठीक है, ठीक है। अब तुम दोनों अपने घर जाओ-जब वह आ जाए तो मेरे पास भेज देना और उसके पीछे से घड़ी भर बाद में तू भी आ जाना रे छोरा।” “जी!” कहकर हम खड़े हो गए। उठते-उठते हमने यह भी कहा कि “हमने यहाँ आकर ये सभी बातें कही हैं, यह मत बता देना, नहीं तो हम दोनों की खैर नहीं है। माँ अकेली साग-भाजी देने आई थी। यह बता देंगे तो अच्छा होगा।”
उत्तर –
(स) “हाँ, यदि नहीं आया किसी दिन तो देख, गाँव में जहाँ मिलेगा वहीं कुचलता हूँ कि नहीं, तुझे। तेरे ऊपर पढ़ने का भूत सवार हुआ है। मुझे मालूम है, बालिस्टर नहीं होने वाला है तू?” दादा बार-बार कुर-कुर कर रहा था-मैं चुपचाप गरदन नीची करके खाने लगा था। रोते-धोते पाठशाला फिर से शुरू हो गई। गरमी-सरदी, हवा-पानी, वर्षा, भूख-प्यास आदि का कुछ भी खयाल न करते हुए खेती के काम की चक्की में, ग्यारह से पाँच बजे तक पिसते रहने से छुटकारा मिल गया। उस चक्की की अपेक्षा मास्टर की छड़ी की मार अच्छी लगती थी। उसे मैं मजे से सहन कर लेता था। दोपहरी-भर की कड़क धूप का समय पाठशाला की छाया में व्यतीत हो रहा था-गरमी के दो महीने आनंद में बीत गए।
उत्तर –
प्रश्न 2:
प्रश्न 3: प्रश्न 4: स्वयं करें प्रश्न: 1.निम्नलिखित गदयांशों को पढ़कर पूछे गए मूल्यपरक प्रश्नों के उत्तर दीजिए – (अ) सवेरे बैठे हो जाने पर मैं उमंग में था-फिर से पाठशाला चला गया। माँ के पीछे पड़कर एक नयी टोपी और दो नाड़ी वाली चड्डी मैलखाऊ रंग की आठ दिन में मैंगवा ली। चड्डी पहनकर पाठशाला में और धोती पहनकर खेत पर जाना शुरू हुआ। धीरे-धीरे लड़कों से परिचय बढ़ गया। मंत्री नामक मास्टर कक्षा-अध्यापक के रूप में बीच में आए। वे प्राय: छड़ी का उपयोग नहीं करते थे। हाथ से गरदन पकड़कर पीठ पर घूसा लगाते थे। पीठ पर एक जोर का बैठते ही लड़का हूक भरने लगता। लड़कों के मन में उनकी दहशत बैठी हुई थी। इसके कारण ऊधम करने वाले लड़कों को प्राय: मौका नहीं मिलता था। पढ़ने वाले लड़कों को शाबाशी मिलने लगी। मंत्री मास्टर गणित पढ़ाते थे। एकाध सवाल गलत हो जाता तो उसे वे अपने पास बुलाकर समझा देते। एकाध लड़के की कोई मूर्खता दिखाई दी तो वे उसे वहीं ठोंक देते। इसलिए सभी का पसीना छूटने लगता। सभी लड़के घर से पढ़ाई करके आने लगे।
(ब) कभी-कभी वसंत पाटील के साथ-साथ, एक तरफ़ से वह तो दूसरी तरफ़ से मैं लड़कों के सवाल जाँचने लगा। इसके कारण मेरी और वसंत की दोस्ती जम गई। एक-दूसरे की सहायता से कक्षा में हम अनेक काम करने लगे। मास्टर मुझे ‘आनंदा’ कहकर बुलाने लगे। मुझे पहली बार किसी ने ‘आनंदा’ कहकर पुकारा। माँ कभी ‘आनंदा’ कहती, परंतु बहुत कम। मास्टरों के इस अपनेपन के व्यवहार के कारण और वसंता की दोस्ती के कारण पाठशाला में मेरा विश्वास बढ़ने लगा। न०वा० सौंदलगेकर मास्टर मराठी पढ़ाने आते थे। पढ़ाते समय वे स्वयं रम जाते थे। विशेषत: वे कविता बहुत ही अच्छे ढंग से पढ़ाते थे। सुरीला गला, छंद की बढ़िया चाल और उसके साथ ही रसिकता भी उनके पास। पुरानी-नयी मराठी कविताओं के साथ-साथ उन्हें अनेक अंग्रेजी कविताएँ कंठस्थ थीं। अनेक छदों की लय, गीत, ताल उन्हें अच्छी तरह आते थे। पहले वे एकाध कविता गाकर सुनाते थे-फिर बैठे-बैठे अभिनय के साथ कविता का भाव ग्रहण कराते। उसी भाव की किसी अन्य कवि की कविता भी सुनाकर दिखाते। बीच में कवि यशवंत, बा०भ० बोरकर, भा०रा० ताँबे, गिरीश, केशव कुमार आदि के साथ अपनी मुलाकात के संस्मरण सुनाते। वे स्वयं भी कविता करते थे। |