स्वर्गीय प्रेमचंदजी के घर पर दो दिन रहने का सौभाग्य मुझे आज से 23 वर्ष पूर्व प्राप्त हुआ था और तभी से मैंने इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक की लेखिका के दर्शन भी किये थे। उस समय ‘विशाल भारत’ में मैंने एक लेख लिखा था—‘प्रेमचंदजी के साथ दो दिन’। उसका अंतिम वाक्य था- Show ‘‘प्रेमचंदजी के सत्संग में एक अजीब आकर्षण है। उनका घर एक निष्कपट, आडम्बर-शून्य सद्गृहस्थ का घर है और यद्यपि प्रेमचंद जी काफी प्रगतिशील हैं—समय के साथ बराबर चल रहे हैं—फिर भी उनकी सरलता तथा विवेकशीलता ने उनके गृह-जीवन के सौन्दर्य को अक्षुण्ण तथा अविचलित बनाये रखा है।’’ श्रीमती शिवरानी देवी जी के ग्रन्थ को पढ़ते हुए वे पुरानी स्मृतियाँ जागृत हो गईं। प्रेमचंद जी के दर्शन मैंने सन् 1924 में लखनऊ में किए थे और पत्र-व्यवहार तो उनके स्वर्गवास से कुछ महीने पहले तक होता रहा था। अपने उस जनवरी’ 32 वाले लेख में मैंने लिखा था— ‘‘प्रेमचंदजी के सिवा भारत की सीमा का उल्लंघन करने की क्षमता रखने वाला कोई दूसरा हिन्दी कलाकार इस समय हिन्दी जगत में विद्यमान नहीं है और आज भी, जबकि उनकी रचनाएँ अन्तर्राष्ट्रीय कीर्ति प्राप्त कर चुकी हैं, मुझे वही वाक्य दुहराना पड़ता है।’’ भले ही कुछ मनचले लेखक अपने को प्रेमचंद या गोर्की के मुकाबले का समझें पर यह उनकी अहम्मन्यता ही है। प्रेमचंद अद्वितीय थे। और चिरकाल तक अद्वितीय रहेंगे। वैसे हिन्दी माता एक-से-एक योग्य सपूत को जन्म देती रही है और भविष्य में भी वह गोद सूनी न होगी, पर प्रेमचंद अपने ढंग के निराले थे और उनके इस निरालेपन को कोई छीन नहीं सकता। कोई उनकी बराबरी नहीं कर सकता। प्रेमचंदजी जैसे उच्च कोटि के कलाकार के गृह-जीवन की झांकियां देखने के लिए पाठकों
की इच्छा होना सर्वथा स्वाभाविक है और निसन्देह हिन्दी जगत के लिए यह बड़े गौरव की बात है कि श्रीमती शिवरानी देवी ने इन झांकियों को बड़ी स्पष्टता, सहृदयता और ईमानदारी के साथ दिखलाया है। एक बात इस ग्रन्थ के प्रत्येक अध्याय से बिल्कुल साफ़-साफ़ ज़ाहिर हो जाती है, चित्र में जिस प्रकार प्रकाश और छाया भाग का उचित समिश्रण आवश्यक है उसी प्रकार चरित्र-चित्रण में खूबियों के साथ-साथ कमजोरियों का भी ज़िक्र आना ज़रूरी है। इस ग्रन्थ में लेखिका ने अपनी सहज स्वाभाविकता के साथ प्रेमचंदजी की त्रुटियों का उल्लेख कर दिया है। प्रेमचंदजी की एक उपपत्नी या रखैल का ज़िक्र ऐसे प्रसंग में किया गया है कि कोई भी सहृदय पाठक प्रेमचंदजी को अपराधी नहीं कह सकता और उन पर जज बनकर बैठ सकता है। अपनी अंतिम बीमारी के दिनों में वे मानों अपनी सती-साध्वी पत्नी से क्षमा-याचना कर रहे थे। इस पुस्तक के कई प्रसंग इतने महत्त्वपूर्ण बन पड़े हैं कि उन्हें स्वतन्त्र पाठ के रूप में पाठ्य-पुस्तकों में उद्धृत किया जाना चाहिए। अभी उस दिन सुप्रसिद्ध रूसी पत्र ‘प्रवदा’ के भारतीय संवाददाता को हमने इसी पुस्तक से गोर्की-विषयक अध्याय अंग्रेज़ी में अनुवाद करके सुनाया। उसे पढ़ते हुए स्वयं हमारा गला भर आया और नेत्र सजल हो गये, जब कि इस प्रकार की घटना हमारे साथ बहुत ही कम घटती है। श्रीमती शिवरानी देवी ने लिखा है- ‘‘गोर्की के मरने की चर्चा वे कई दिनों तक करते रहे। जब-जब गोर्की के विषय में बातें करते, तब-तब उनके हृदय में एक प्रकार का दर्द-सा उठता दिखाई पड़ता। गोर्की के प्रति उनके हृदय में असीम श्रद्धा थी। वही उनका अन्तिम भाषण था। गोर्की का कोई समकक्ष लेखक उनकी निगाह में नहीं आता था।’’ प्रेमचंदजी की अन्तर्राष्ट्रीयता का इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है ? यह भी एक दैवी दुर्घटना ही थी कि गोर्की और प्रेमचंद जी दोनों ही चार महीने के अंतर से उसी वर्ष स्वर्गवासी हुए। पर गोर्की का सम्मान उनके देश ने बहुत किया, जबकि हमलोग प्रेमचंदजी का यथोचित सम्मान न तो उनके जीवन में ही कर सके और न उनके स्वर्गवास होने के बाद इन बीस वर्षों में ! प्रेमचंदजी का कोई अच्छा स्मारक हमारे यहां विद्यमान नहीं। प्रेमचंदजी के पास घुटभइयों की भीड़ लगी रहती थी और दिन-भर वे अपना साहित्यिक कार्य भी नहीं कर पाते थे। रात को उठकर उन्हें काम करना पड़ता था। जब भी शिवरानीदेवी ने इसकी आलोचना की तो उन्होंने कहा- यदि प्रेमचंदजी के जीवन पर कभी कोई फिल्म बनाई जाय, और हमें दृढ़ विश्वास है कभी-न-कभी यह ज़रूर बनेगी, तो इस पुस्तक में कई घटनाएं ऐसी मिलेंगी जो बड़े प्रभावशाली ढंग से चित्रित की जा सकती हैं। ‘हंस’ के प्रेमचंद अंक में 25 जून 1936 की जो हृदय-बेधक डायरी उन्होंने दी थी उसकी याद करके अब भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। खून की कै हो रही है, रात-भर नींद नहीं आ रही, फिर भी रोशनी करके ‘मंगल-सूत्र के पृष्ठ-पर-पृष्ठ लिखे जा रहे हैं ! भय के मारे शिवरानी रोकती हैं तो कभी-कभी रुक जाते हैं और अनेक बार मना करने पर भी नहीं रुकते। शिवरानीजी उनकी खाट के आस-पास चक्कर काटती हैं और उनका सिर सहला देती हैं। युगयुगान्तर तक यब चित्र कलाकारों को प्रोत्साहित करता रहेगा। प्रेमचंदजी तथा शिवरानी देवीजी के वार्तालाप इतने स्वाभाविक ढंग से लिखे गये हैं कि वे किसी भी पाठक पर अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहेंगे। इन वार्तालापों से जहां प्रेमचंदजी का सहृदयतापूर्ण रूप प्रकट होता है, वहीं शिवरानीजी का अपना अक्खड़पन भी कम आकर्षक नहीं है। यह बात इस पुस्तक के पढ़ने से स्पष्ट हो जाती है कि
शिवरानी जी प्रेमचंद की पूरक थीं, उनकी कोरमकोर छाया या प्रतिबिम्ब नहीं। Mrs.Premchand would feel so much delighted to have your review. She has received scant justice from litrary world yet. Because I overshadow her or may be because some wisacers may be thinking. I am the real author ! I do not deny that I am responsible litrery finish but the conception and execution is entirel hers. A militant woman speaks in every line, a man of my peaceful disposition could not conceive such aggressively womanish plots.’’ अर्थात् ‘‘श्रीमती प्रेमचंद को बहुत प्रसन्नता होगी यदि आप उनकी पुस्तक की आलोचना कर सकें। साहित्य-जगत से उन्हें अभी तक बहुत कम इन्साफ़ मिला है। सम्भवतः इसका कारण यह है कि उन पर मेरे व्यक्तित्व की छाया पर जाती है और यह भी मुमकिन है कि कुछ अक्लमन्दों की निगाह में मैं ही उनकी रचनाओं का असली लेखक हूं ! मैं इस बात से इन्कार नहीं करता कि इन कहानियों के साहित्यिक साज-सिंगार में मैंने मदद दी है, पर कहानियों की कल्पना श्रीमती प्रेमचंद की है, और उसे पूरी तौर पर रूप भी उन्हों ने ही दिया है। एक योद्धा स्त्री उनकी प्रत्येक पंक्ति में बोल रही है। मेरे जैसा शान्तिमय स्वभाववाला आदमी इस प्रकार के अक्खड़पन से भरे ज़ोरदार स्त्री जाति सम्बन्धी प्लाटों की कल्पना भी नहीं कर सकता था।’’ ‘प्रेमचंद : घर में’ पुस्तक में भी श्रीमती शिवरानी का यह रूप निरन्तर सामने आता रहता है। ‘हिन्दीवालों के लिए सचमुच कलंक की बात है कि उनके सर्वश्रेष्ठ कलाकार को आर्थिक संकट बना रहता है। संभवतः इसमें कुछ दोष प्रेमचंदजी का भी है, जो अपनी प्रबन्ध-शक्ति के लिए प्रसिद्ध नहीं और जिनके व्यक्तित्व में वह लौहदृढ़ता भी नहीं जो उन्हें साधारण कोटि के आदमियों के शिकार बनने से बचा सके। कुछ भी हो पर हिन्दी जनता अपने अपराध से मुक्त नहीं हो सकती। हमें इस बात की आशंका है कि आगे चलकर हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखक को कहीं यह न लिखना पड़े— ‘‘ ‘दैव ने हिन्दी वालों को एक उत्तम कलाकार दिया था, जिसका उचित सम्मान वे अपनी मूर्खतावश न कर सके।’ ’’ आज 23 वर्ष बाद हम फिर
अपनी उस बात को दुहरा रहे हैं—प्रेमचंद के जीवन-काल में हम उनका कुछ भी सम्मान न कर सके। क्या अब 20 वर्ष बाद भी उनकी स्मृति में किसी महान् साहित्यिक यज्ञ का सूत्रपात नहीं कर सकते ? पाठकों के सामने इस पुस्तक को रखते हुए मुझे वही सुख अनुभव हो रहा है जो किसी व्यक्ति को
अपना कर्तव्य पूरा करने से होता है। इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य उस महान आत्मा की कीर्ति फैलाना नहीं है, जैसा कि अधिकांश जीवनियों का होता है। इस पुस्तक में आपको घरेलू संस्मरण मिलेंगे पर इन संस्मरणों का साहित्यिक मूल्य भी इस दृष्टि से है कि उनसे उस महान् साहित्यिक के व्यक्तित्व का परिचय मिलता है। उनके और उनके असंख्य प्रेमियों के प्रति यह मेरी बेवफाई होती अगर मैं उनकी मानवता का थोड़-सा परिचय न देती। मेरा विश्वास है कि यह पुस्तक साहित्यिक आलोचकों को भी प्रेमचन्द-साहित्य समझने में मदद पहुंचायेगी क्योंकि उनकी आदमियत की छाप उनकी एक-एक पंक्ति और एक-एक शब्द पर है। पुस्तक के लिखने में मैंने केवल एक बात का अधिक-से-अधिक ध्यान रखा है और वह है ईमानदारी, सचाई। घटनाएं जैसे-जैसे याद आती गईं हैं, मैं उन्हें लिखती गई हूं। उन्हें सजाने का न तो मुझे अवकाश था और न साहस। इसलिए हो सकता है कि कहीं-कहीं पहले की घटनाएं बाद में और बाद की घटनाएं पहले आ गई हों। यह भी हो सकता है कि अनजाने में ही मैंने किसी घटना का जिक्र दो बार कर दिया हो। ऐसी भूलों को पाठक क्षमा करेंगे। साहित्यिकता के भूखे पाठकों को सम्भव है इस पुस्तक से कुछ निराशा हो क्योंकि साहित्यिकता मेरे अन्दर ही नहीं है। पर मेरी ईमानदारी उनके दिल के अन्दर घर करेगी, यह मैं जानती हूं; कि अगर उनके गुणों का बखान करने में मैं तिल का ताड़ भी बनाती तो भी उनके चरित्र की विशालता का पूरा परिचय न मिल पाता। पर मैंने तो सभी बातें, बगैर अपनी तरफ़ से कुछ भी मिलाये, ज्यों-की-त्यों कह दी हैं 1 |