पेशवा को कहाँ कैद करके रखा गया? - peshava ko kahaan kaid karake rakha gaya?

कैद में है पहली क्रांति का गवाह पेशवा महल

प्रथम स्वाधीनता संग्राम का जिक्र होते ही कानपुर और बिठूर से जुड़ी तमाम यादे जेहन मे कौध जाती है। बिठूर मे नाना साहब पेशवा की अगुवाई मे तात्याटोपे, अजीमुल्ला के साथ लड़ी गई लड़ाई की यादे आज भी ताजा है। चाहे वहां क्रांतिकारी बाबा राघवदास द्वारा बनवाया गया ध्वज स्तंभ हो या फिर प्राचीन कुआं। बिठूर मे घुसते ही वाल्मीकि आश्रम मे बनी स्वर्ग की सीढ़ी क्रांतिकारियों के लिए कभी वाचटावर का काम करती थी।

कानपुर, [लोकेश प्रताप सिंह]। प्रथम स्वाधीनता संग्राम का जिक्र होते ही कानपुर और बिठूर से जुड़ी तमाम यादें जेहन में कौंध जाती हैं। बिठूर में नाना साहब पेशवा की अगुवाई में तात्याटोपे, अजीमुल्ला के साथ लड़ी गई लड़ाई की यादें आज भी ताजा हैं। चाहे वहां क्रांतिकारी बाबा राघवदास द्वारा बनवाया गया ध्वज स्तंभ हो या फिर प्राचीन कुआं। बिठूर में घुसते ही वाल्मीकि आश्रम में बनी स्वर्ग की सीढ़ी क्रांतिकारियों के लिए कभी वाचटावर का काम करती थी। यहां नाना साहब पेशवा के नाम से उत्तार प्रदेश पर्यटन विभाग ने भले ही पार्क स्थापित करके उनकी मूर्ति लगा दी, लेकिन उसके बगल ही स्थित नाना साहब के महल पर एक पूर्व जमीदार का कब्जा है, लंबी कानूनी लड़ाई के बाद भी इस ऐतिहासिक विरासत को मुक्त नहीं कराया जा सका।

1857 की यादों को खंगालने के लिए बिठूर में नाना साहब पेशवा के किले में अभी भी उस दौर की याद दिलाने वाले खंडहर व स्मारक मौजूद हैं। नानाराव पार्क के ठीक बगल में ऊंची चहारदीवारी व कंटीली बाड़ के पार जंगल जैसा दृश्य दिखाई देता है। इसी जंगल के भीतर है नाना साहब पेशवा के उस ऐतिहासिक महल का खंडहर, जिसके बारे में लिखा गया है, नाना के संग पढ़ती थी वह नाना के संग खेली थी, बरछी ढाल कृपाण कटारी उसकी यही सहेली थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो..। बिठूर में बाबा राघवदास द्वारा बनवाए गए ध्वज स्थल पर ही बैठ कर कभी कानपुर से फूंके गए विरोध के बिगुल की योजना तैयार की गई थी। ध्वज स्थल पर लगा पत्थर गवाह है कि वहां पर नाना साहेब पेशवा के नेतृत्व में तात्याटोपे, अजीमुल्ला खां व राव साहब ने बैठक की थी। यहीं से देश भर की सशस्त्र क्रांति को संगठित करके आगे बढ़ने का संदेश दिया गया था। सशस्त्र क्रांति में मुंह की खाने के बाद बौखलाए विदेशी हुक्मरानों ने नाना साहेब के विशाल प्रासाद को तोपों से ध्वस्त करा दिया, फिर भी उसके कुछ अंश अभी भी मौजूद हैं। यहां तक की उसके अवशेष मिटाने को उस स्थान की जुताई कराकर वहां खेत बना दिया गया, फिर भी अभी महल के कुछ अवशेष मौजूद हैं। नाना साहेब पेशवा के इस किले में ही रानी लक्ष्मीबाई ने भी वीरता के गुण सीखे थे। क्रांति का बिगुल फूंकने वाले इन वीर सपूतों को इसी स्तंभ के नीचे प्रत्येक 15 अगस्त व 26 जनवरी को स्थानीय स्कूल के बच्चे श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। नाना के किले में ही एक पुराना कुंआ है किवदंती है कि इसी कुएं से ही नाना की सेना को पानी की आपूर्ति की जाती थी। बिठूर की सीमा में प्रवेश करते ही वहां वाल्मीकि आश्रम में बनी स्वर्ग की सीढ़ी से कभी क्रांतिकारी पूरे बिठूर व गंगा जी से अंग्रेजों की गतिविधियों पर नजर रखते थे। इस टावर में वर्ष के दिनों के बराबर 365 आले बने हैं। जिनमें रोज एक दिया जलाया जाता था इससे वहां रहने वालों को दिन की पहचान रहती थी। दीपावली में साल पूरा होता था और इस दिन पूरे 365 आलों में दिए जगमगाते थे।

बिठूर था 321 एकड़ का छावनी क्षेत्र

कानपुर में अंग्रेजी हुकूमत ने फौज के लिए जहां पूरब दिशा में छावनी क्षेत्र विकसित किया, वहीं पश्चिम में रमेल, चौधरीपुरा, बिठूर खुर्द में 321 एकड़ में पेशवा बाजीराव के लिए कैंटोंमेंट एरिया बसाया गया, जिसे आराजी लश्कर भी कहा जाता है। यह क्षेत्र राजस्व अभिलेखों में आज भी आराजी लश्कर दर्ज है।

अंग्रेजों के शासन में सामान्य लोगों की नजर में 'कंपू' एक सशक्त छावनी थी, जहां पग-पग अंग्रेजी हुकूमत का अहसास होता था। आज जहां परेड बस्ती है, वह सारी बस्ती भारतीय मूल के सेनानियों का शिविर यानी कैम्प के नाम से जानी जाती थी। बाद में इसे 'कंपू' नाम से जाना जाने लगा। 1818 में गर्वनर जनरल मॉलकम ने बाजीराव द्वितीय को यह कैंटूनमेंट एरिया दिया। बाजीराव द्वितीय के पूर्वज 1761 तक पूरे देश में राजस्व वसूलते थे। नाना राव पेशवा के सेनापति तात्या टोपे के पौत्र विनायक राव टोपे तत्कालीन इतिहास के हवाले से बताते हैं कि प्रतिकूल परिस्थितियों में मॉलकम के प्रस्ताव पर महाराष्ट्र व पुणे छोड़कर बाजीराव द्वितीय अपने आश्रितों, कर्मचारियों को लेकर ब्रह्मावर्त के करीब बसने को तैयार हो गए थे। इन लोगों की संख्या एक हजार से अधिक थी। तत्कालीन गवर्नर जनरल के निर्देश पर रमेल, चौधरीपुर, मोहम्मदपुर व बिठूर खुर्द में से 321 एकड़ भूमि अलग कर छावनी क्षेत्र बसाया गया। बाद में इस ग्राम का पूरा स्वामित्व बिठूर के सूबेदार परिवार ने तत्कालीन उत्तार-पश्चिम प्रांत के राज्यपाल से 1895 में 7,000 रुपये देकर खरीदा। इसी बीच आराजी लश्कर, बिठूर खुर्द व बिठूर कलां को जोड़कर पूरे क्षेत्र को टाउन एरिया घोषित किया गया। आज भी इसका नाम नगर पंचायत बिठूर है।

आराजी लश्कर में 1819 से 1852 तक 32 वर्ष पेशवा बाजीराव को कंपनी सरकार की ओर से आठ लाख रुपये सालाना मिलता रहा। दिल्ली, हरियाणा से लेकर बिहार तक 'रोटी' व 'कमल के फूल' के माध्यम से क्रांति का संदेश प्रचारित किया गया था।

नानाराव के किले में प्रतिरक्षा कारखाना

वर्ष 1858-59 में अंग्रेजों ने नाना के किले में कब्जा करने के बाद यहां अपनी फौज के घुड़सवार दस्ते के लिए चमड़े का साजो-सामान तैयार करने की यूनिट खोली थी। रक्षा मंत्रालय ने तीन दशक पहले हार्नेस एंड सैडलरी फैक्ट्री का नाम बदल कर भले ही ओईएफ [आर्डनेंस इक्विपमेंट फैक्ट्री] कर दिया हो, लेकिन आज भी शहर में लोग इसे किला के नाम से ही पुकारते हैं। एक जमाने में इस फैक्ट्री में करीब 12 हजार मजदूर कार्य करते थे, वर्तमान में चार हजार से अधिक कर्मचारी-अधिकारी हैं। ओईएफ स्टेडियम के पास बने फैक्ट्री के हास्पिटल में रखा नानाराव पेशवा के जमाने का नावों का लंगर और बिठूर तक जाने वाली सुरंग भी है। बताते हैं यह सुरंग इतनी चौड़ी थी कि इसमें एकसाथ दो घुड़सवार दौड़ सकते थे। फैक्ट्री के बाहरी हिस्से में आज भी पुराने किले की झलक दूर से नजर आती है।

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