वर्णानामर्थसंघानां रसानां छंदसामपि। Show अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छंदों और मंगलों की कर्त्री सरस्वती और गणेश की मैं वंदना करता हूँ॥ 1॥ भवानीशंकरौ वंदे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ। श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप पार्वती और शंकर की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अंत:करण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥ 2॥
वंदे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्। ज्ञानमय, नित्य, शंकररूपी गुरु की मैं वंदना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चंद्रमा भी सर्वत्र होता है॥ 3॥ सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ। सीताराम के गुणसमूहरूपी पवित्र वन में विहार करनेवाले, विशुद्ध विज्ञान संपन्न कवीश्वर वाल्मीकि और कपीश्वर हनुमान की मैं वंदना करता हूँ॥ 4॥
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्। उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करनेवाली, क्लेशों को हरनेवाली तथा संपूर्ण कल्याणों को करनेवाली राम की प्रियतमा सीता को मैं नमस्कार करता हूँ॥ 5॥ यन्मायावशवर्त्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा जिनकी माया के वशीभूत संपूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रम की भाँति यह सारा दृश्य जगत सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के लिए एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणों से परे राम कहानेवाले भगवान हरि की मैं वंदना करता हूँ॥ 6॥ नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् अनेक पुराण, वेद और शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध रघुनाथ की कथा को तुलसीदास अपने अंत:करण के सुख के लिए अत्यंत मनोहर भाषा रचना में निबद्ध करता है॥ 7॥ सो० - जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन। जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणों के स्वामी और सुंदर हाथी के मुखवाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम (गणेश) मुझ पर कृपा करें॥ 1॥ मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन। जिनकी कृपा से गूँगा बहुत सुंदर बोलनेवाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है, वे कलियुग के सब पापों को जला डालनेवाले दयालु (भगवान) मुझ पर द्रवित हों॥ 2॥ नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन। जो नीलकमल के समान श्यामवर्ण हैं, जिनके पूर्ण खिले हुए लाल कमल के समान नेत्र हैं और जो सदा क्षीरसागर पर शयन करते हैं, वे (नारायण) मेरे हृदय में निवास करें॥ 3॥ कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना
अयन। जिनका कुंद के पुष्प और चंद्रमा के समान (गौर) शरीर है, जो पार्वती के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करनेवाले (शंकर) मुझ पर कृपा करें॥ 4॥ बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि। मैं उन गुरु के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में हरि ही हैं और जिनके वचन महामोहरूपी घने अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥ 5॥ बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥ मैं गुरु के चरण कमलों की रज की वंदना करता हूँ, जो सुरुचि, सुगंध तथा अनुरागरूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो संपूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करनेवाला है। सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥ वह रज सुकृति (पुण्यवान पुरुष) रूपी शिव के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनंद की जननी है, भक्त के मनरूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करनेवाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करनेवाली है। श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥ श्री गुरु के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करनेवाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं। उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥ उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसाररूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं रामचरित्ररूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं। दो० - जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान। जैसे सु-अंजन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से ही बहुत-सी खानें देखते हैं॥ 1॥ गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥ गुरु के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करनेवाला है। उस अंजन से विवेकरूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ानेवाले राम के चरित्र का वर्णन करता हूँ। बंदउँ प्रथम महीसुर
चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥ पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वंदना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरनेवाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूँ। साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥ संतों का चरित्र कपास के चरित्र के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है। मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥ संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज है, जहाँ राम भक्तिरूपी गंगा की धारा हैं और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वती हैं। बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥ विधि और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरनेवाली सूर्यतनया यमुना हैं और भगवान विष्णु और शंकर की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनंद और कल्याणों को देनेवाली हैं। बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥ अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज है। वह सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करनेवाला है। अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥ वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है एवं तत्काल फल देनेवाला है, उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है। दो० - सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग। जो मनुष्य इस संत समाजरूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यंत प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - चारों फल पा जाते हैं॥ 2॥ मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥ इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है। बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥ वाल्मीकि, नारद और अगस्त्य ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का वृत्तांत) कही है। जल में रहनेवाले, जमीन पर चलनेवाले और आकाश में विचरनेवाले नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं - मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥ उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है। बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम
कृपा बिनु सुलभ न सोई॥ सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और राम की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि ही फल है और सब साधन तो फूल है। सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥ दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है, किंतु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥ ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पंडितों की वाणी भी संत-महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है, वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचनेवाले से मणियों के गुणसमूह नहीं कहे जा सकते। दो० - बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ। मैं संतों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा और जिसने उनको रखा उन) दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं (वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।)॥ 3 (क)॥ संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु। संत सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके राम के चरणों में मुझे प्रीति दें॥ 3 (ख)॥ बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥ अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करनेवाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है।
हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥ जो हरि और हर के यशरूपी पूर्णिमा के चंद्रमा के लिए राहु के समान हैं (अर्थात जहाँ कहीं भगवान विष्णु या शंकर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे बाधा देते हैं) और दूसरों की बुराई करने में सहस्रबाहु के समान वीर हैं। जो दूसरों के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और दूसरों के हितरूपी घी के लिए जिनका मन मक्खी के समान है (अर्थात जिस प्रकार मक्खी घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाए काम को अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं), तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥ जो तेज (दूसरों को जलानेवाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुणरूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिए केतु (पुच्छल तारे) के समान है, और जिनके कुंभकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है, पर अकाजु लगि
तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥ जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को (हजार मुखवाले) शेष के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराए दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं। पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥ पुनः उनको राजा पृथु (जिन्होंने भगवान का यश सुनने के लिए दस हजार कान माँगे थे) के समान जानकर प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानों से दूसरों के पापों को सुनते हैं। फिर इंद्र के समान मानकर उनकी विनय करता हूँ, जिनको सुरा (मदिरा) अच्छी और हितकारी मालूम देती है (इंद्र के लिए भी सुरानीक अर्थात देवताओं की सेना हितकारी है)। बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥ जिनको कठोर वचनरूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं। दो० - उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल
रीति। दुष्टों की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है॥ 4॥ मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥ मैंने अपनी ओर से विनती की है, परंतु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेंगे। कौओं को बड़े प्रेम से पालिए, परंतु वे क्या कभी मांस के त्यागी हो सकते हैं? बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥ अब मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वंदना करता हूँ, दोनों ही दुःख देनेवाले हैं, परंतु उनमें कुछ अंतर कहा गया है। वह अंतर यह है कि एक (संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते हैं, तब दारुण दुःख देते हैं। उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥ दोनों (संत और असंत) जगत में एक साथ पैदा होते हैं, पर साधु अमृत के समान (मृत्युरूपी संसार से उबारनेवाला) और असाधु मदिरा के समान (मोह, प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करनेवाला) है, दोनों को उत्पन्न करनेवाला जगतरूपी अगाध समुद्र एक ही है। (शास्त्रों में समुद्रमंथन से ही अमृत और मदिरा दोनों की उत्पत्ति बताई गई है।) भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥ भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश की संपत्ति पाते हैं। अमृत, चंद्रमा, गंगा और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात कर्मनाशा और हिंसा करनेवाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं, किंतु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है। दो० - भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु। भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण किए रहता है। अमृत की सराहना अमर करने में होती है और विष की मारने में॥ 5॥
खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥ दुष्टों के पापों और अवगुणों की और साधुओं के गुणों की कथाएँ - दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं। इसी से कुछ गुण और दोषों का वर्णन किया गया है, क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्याग नहीं हो सकता। भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥ भले-बुरे सभी ब्रह्मा के पैदा किए हुए हैं, पर गुण और दोषों को विचार कर वेदों ने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण-अवगुणों से सनी हुई है। दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥ दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन) - मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, संपत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य (ये सभी पदार्थ ब्रह्मा की सृष्टि में हैं।) वेद-शास्त्रों ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है। दो० - जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार। विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किंतु संतरूपी हंस दोषरूपी जल को छोड़कर गुणरूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥ 6॥ अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥ विधाता जब इस प्रकार का (हंस का-सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं। सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥ भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परंतु उनका कभी भंग न होनेवाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता। लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥ जो (वेषधारी) ठग हैं, उन्हें भी अच्छा वेष बनाए देखकर वेष के प्रताप से जगत पूजता है, परंतु एक न एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं, अंत तक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहु का हाल हुआ। किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥ बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जगत में जाम्बवान और हनुमान का हुआ। बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं। गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥ पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहनेवाले) जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं। धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥ कुसंग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंग से) सुंदर स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता है और वही धुआँ जल, अग्नि और पवन के संग से बादल होकर जगत को जीवन देनेवाला बन जाता है। दो० - ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग। ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र - ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार में बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर एवं विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते हैं॥ 7(क)॥ सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह। महीने के दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, परंतु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है (एक का नाम शुक्ल और दूसरे का नाम कृष्ण रख दिया)। एक को चंद्रमा का बढ़ानेवाला और दूसरे को उसका घटानेवाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया॥ 7(ख)॥ जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि। जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वंदना करता हूँ॥ 7(ग)॥ देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब। देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गंधर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ। अब सब मुझ पर कृपा कीजिए॥ 7(घ)॥ आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥ चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अंडज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। जानि कृपाकर किंकर
मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥ मुझको अपना दास जानकर कृपा की खान आप सब लोग मिलकर छल छोड़कर कृपा कीजिए। मुझे अपने बुद्धि-बल का भरोसा नहीं है, इसीलिए मैं सबसे विनती करता हूँ। करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥ मैं रघुनाथ के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परंतु मेरी बुद्धि छोटी है और राम का चरित्र अथाह है। इसके लिए मुझे उपाय का एक भी अंग अर्थात कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं, किंतु मनोरथ राजा है। मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥ मेरी बुद्धि तो अत्यंत नीची है और चाह बड़ी ऊँची है, चाह तो अमृत पाने की है, पर जगत में जुड़ती छाछ भी नहीं। सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा करेंगे और मेरे बाल वचनों को मन लगाकर (प्रेमपूर्वक) सुनेंगे। जौं बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥ जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है, तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं, किंतु क्रूर, कुटिल और बुरे विचारवाले लोग जो दूसरों के दोषों को ही भूषण रूप से धारण किए रहते हैं (अर्थात जिन्हें पराए दोष ही प्यारे लगते हैं), हँसेंगे। निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥ रसीली हो या अत्यंत फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किंतु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगत में बहुत नहीं हैं। जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई॥ हे भाई! जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं (अर्थात अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं)। समुद्र-सा तो कोई एक विरला ही सज्जन होता है, जो चंद्रमा को पूर्ण देखकर (दूसरों का उत्कर्ष देखकर) उमड़ पड़ता है। दो० - भाग छोट
अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास। मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी है, परंतु मुझे एक विश्वास है कि इसे सुनकर सज्जन सभी सुख पायेंगे और दुष्ट हँसी उड़ायेंगे॥ 8॥ खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥ किंतु दुष्टों के हँसने से मेरा हित ही होगा। मधुर कंठवाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा करते हैं। जैसे बगुले हंस को और मेढक पपीहे को हँसते हैं, वैसे ही मलिन मनवाले दुष्ट निर्मल वाणी को हँसते हैं। कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥ जो न तो कविता के रसिक हैं और न जिनका राम के चरणों में प्रेम है, उनके लिए भी यह कविता सुखद हास्यरस का काम देगी। प्रथम तो यह भाषा की रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है, इससे यह हँसने के योग्य ही है, हँसने में उन्हें कोई दोष नहीं। प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी॥ जिन्हें न तो प्रभु के चरणों में प्रेम है और न अच्छी समझ ही है, उनको यह कथा सुनने में फीकी लगेगी। जिनकी हरि (भगवान विष्णु) और हर (भगवान शिव) के चरणों में प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करनेवाली नहीं है (जो हरि-हर में भेद की या ऊँच-नीच की कल्पना नहीं करते), उन्हें रघुनाथ की यह कथा मीठी लगेगी। राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥ सज्जनगण इस कथा को अपने जी में राम की भक्ति से भूषित जानकर सुंदर वाणी से सराहना करते हुए सुनेंगे। मैं न तो कवि हूँ, न वाक्य रचना में ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूँ। आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥ नाना प्रकार के अक्षर, अर्थ और अलंकार, अनेक प्रकार की छंद रचना, भावों और रसों के अपार भेद और कविता के भाँति-भाँति के गुण-दोष होते हैं। कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥ इनमें से काव्य संबंधी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं कोरे कागज पर लिखकर (शपथपूर्वक) सत्य-सत्य कहता हूँ। दो० - भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक। मेरी रचना सब गुणों से रहित है, इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है। उसे विचार कर अच्छी बुद्धिवाले पुरुष, जिनके निर्मल ज्ञान है, इसको सुनेंगे॥9॥ एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥ इसमें रघुनाथ का उदार नाम है, जो अत्यंत पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों को हरनेवाला है, जिसे पार्वती सहित भगवान शिव सदा जपा करते हैं। भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोउ॥ जो अच्छे कवि के द्वारा रची हुई बड़ी अनूठी कविता है, वह भी राम नाम के बिना शोभा नहीं पाती। जैसे चंद्रमा के समान मुखवाली सुंदर स्त्री सब प्रकार से सुसज्जित होने पर भी वस्त्र के बिना शोभा नहीं देती। सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥ इसके विपरीत, कुकवि की रची हुई सब गुणों से रहित कविता को भी, राम के नाम एवं यश से अंकित जानकर, बुद्धिमान लोग आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं, क्योंकि संतजन भौंरे की भाँति गुण ही को ग्रहण करनेवाले होते हैं। जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रगट एहि माहीं॥ यद्यपि मेरी इस रचना में कविता का एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें राम का प्रताप प्रकट है। मेरे मन में यही एक भरोसा है। भले संग से भला, किसने बड़प्पन नहीं पाया? धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥ धुआँ भी अगर के संग से सुगंधित होकर अपने स्वाभाविक कड़ुवेपन को छोड़ देता है। मेरी कविता अवश्य भद्दी है, परंतु इसमें जगत का कल्याण करनेवाली रामकथारूपी उत्तम वस्तु का वर्णन किया गया है। (इससे यह भी अच्छी ही समझी जाएगी।)
छं० - मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की। तुलसीदास कहते हैं कि रघुनाथ की कथा कल्याण करनेवाली और कलियुग के पापों को हरनेवाली है। मेरी इस भद्दी कवितारूपी नदी की चाल पवित्र जलवाली नदी (गंगा) की चाल की भाँति टेढ़ी है। प्रभु रघुनाथ के सुंदर यश के संग से यह कविता सुंदर तथा सज्जनों के मन को भानेवाली हो जाएगी। श्मशान की अपवित्र राख भी महादेव के अंग के संग से सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करनेवाली होती है। दो० - प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग। राम के यश के संग से मेरी कविता सभी को अत्यंत प्रिय लगेगी। जैसे मलय पर्वत के संग से काष्ठमात्र (चंदन बनकर) वंदनीय हो जाता है, फिर क्या कोई काठ (की तुच्छता) का विचार करता है?॥ 10(क)॥ स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान। श्यामा गौ काली होने पर भी उसका दूध उज्ज्वल और बहुत गुणकारी होता है। यही समझकर सब लोग उसे पीते हैं। इसी तरह गँवारू भाषा में होने पर भी सीताराम के यश को बुद्धिमान लोग बड़े चाव से गाते और सुनते हैं॥ 10(ख)॥ मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥ मणि, माणिक और मोती की जैसी सुंदर छवि है, वह साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती। राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर को पाकर ही ये सब अधिक शोभा को प्राप्त होते हैं। तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥ इसी तरह, बुद्धिमान लोग कहते हैं कि सुकवि की कविता भी उत्पन्न और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है (अर्थात कवि की वाणी से उत्पन्न हुई कविता वहाँ शोभा पाती है, जहाँ उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्श का ग्रहण और अनुसरण होता है)। कवि के स्मरण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वती ब्रह्मलोक को छोड़कर दौड़ी आती हैं। राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥ सरस्वती की दौड़ी आने की वह थकावट रामचरितरूपी सरोवर में उन्हें नहलाए बिना दूसरे करोड़ों उपायों से भी दूर नहीं होती। कवि और पंडित अपने हृदय में ऐसा विचार कर कलियुग के पापों को हरनेवाले हरि के यश का ही गान करते हैं। कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥ संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वती सिर धुनकर पछताने लगती हैं (कि मैं क्यों इसके बुलाने पर आई)। बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्र के समान कहते हैं। जौं बरषइ बर बारि बिचारू। होहिं कबित मुकुतामनि चारू॥ इसमें यदि श्रेष्ठ विचाररूपी जल बरसता है तो मुक्तामणि के समान सुंदर कविता होती है। दो० - जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग। उन कवितारूपी मुक्तामणियों को युक्ति से बेधकर फिर रामचरित्ररूपी सुंदर तागे में पिरोकर सज्जन लोग अपने निर्मल हृदय में धारण करते हैं, जिससे अत्यंत अनुरागरूपी शोभा होती है (वे आत्यंतिक प्रेम को प्राप्त होते हैं)॥ 1 ॥ जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥ जो कराल कलियुग में जन्मे हैं, जिनकी करनी कौए के समान है और वेष हंस का-सा है, जो वेदमार्ग को छोड़कर कुमार्ग पर चलते हैं, जो कपट की मूर्ति और कलियुग के पापों के भाँड़ें हैं। बंचक भगत कहाइ
राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥ जो राम के भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो धन (लोभ), क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो धींगाधींगी करनेवाले, धर्मध्व (धर्म की झूठी ध्वजा फहरानेवाले दंभी) और कपट के धंधों का बोझ ढोनेवाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है। जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ॥ यदि मैं अपने सब अवगुणों को कहने लगूँ तो कथा बहुत बढ़ जाएगी और मैं पार नहीं पाऊँगा। इससे मैंने बहुत कम अवगुणों का वर्णन किया है। बुद्धिमान लोग थोड़े ही में समझ लेंगे। समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥ मेरी अनेकों प्रकार की विनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष नहीं देगा। इतने पर भी जो शंका करेंगे, वे तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और बुद्धि के कंगाल हैं। कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन
गावउँ॥ मैं न तो कवि हूँ, न चतुर कहलाता हूँ, अपनी बुद्धि के अनुसार राम के गुण गाता हूँ। कहाँ तो रघुनाथ के अपार चरित्र, कहाँ संसार में आसक्त मेरी बुद्धि! जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥ जिस हवा से सुमेरु जैसे पहाड़ उड़ जाते हैं, कहिए तो, उसके सामने रूई किस गिनती में है। राम की असीम प्रभुता को समझकर कथा रचने में मेरा मन बहुत हिचकता है। दो० - सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान। सरस्वती, शेष, शिव, ब्रह्मा, शास्त्र, वेद और पुराण - ये सब 'नेति-नेति' कहकर (पार नहीं पाकर 'ऐसा नहीं', ‘ऐसा नहीं’ कहते हुए) सदा जिनका गुणगान किया करते हैं॥ 12॥ सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥ यद्यपि प्रभु राम की प्रभुता को सब ऐसी (अकथनीय) ही जानते हैं, तथापि कहे बिना कोई नहीं रहा। इसमें वेद ने ऐसा कारण बताया है कि भजन का प्रभाव बहुत तरह से कहा गया है। एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥ जो परमेश्वर एक है, जिनके कोई इच्छा नहीं है, जिनका कोई रूप और नाम नहीं है, जो अजन्मा, सच्चिदानंद और परमधाम है और जो सबमें व्यापक एवं विश्व रूप है, उसी भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकार की लीला की है। सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥ वह लीला केवल भक्तों के हित के लिए ही है, क्योंकि भगवान परम कृपालु हैं और शरणागत के बड़े प्रेमी हैं। जिनकी भक्तों पर बड़ी ममता और कृपा है, जिन्होंने एक बार जिस पर कृपा कर दी, उस पर फिर कभी क्रोध नहीं किया। गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥ वे प्रभु रघुनाथ गई हुई वस्तु को फिर प्राप्त करानेवाले, गरीबनवाज, सरल स्वभाव, सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। यही समझकर बुद्धिमान लोग उन हरि का यश वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र और उत्तम फल देनेवाली बनाते हैं। तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥ उसी बल से मैं राम के चरणों में सिर नवाकर रघुनाथ के गुणों की कथा कहूँगा। इसी विचार से मुनियों ने पहले हरि की कीर्ति गाई है। भाई! उसी मार्ग पर चलना मेरे लिए सुगम होगा। दो० - अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं। जो अत्यंत बड़ी श्रेष्ठ नदियाँ हैं, यदि राजा उन पर पुल बँधा देता है, तो अत्यंत छोटी चींटियाँ भी उन पर चढ़कर बिना ही परिश्रम के पार चली जाती हैं। (इसी प्रकार मुनियों के वर्णन के सहारे मैं भी रामचरित्र का वर्णन सहज ही कर सकूँगा)॥ 13॥ एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥ इस प्रकार मन को बल दिखलाकर मैं रघुनाथ की सुहावनी कथा की रचना करूँगा। व्यास आदि जो अनेकों श्रेष्ठ कवि हो गए हैं, जिन्होंने बड़े आदर से हरि का सुयश वर्णन किया है।
सो० - बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ। मैं उन वाल्मीकि मुनि के चरण कमलों की वंदना करता हूँ, जिन्होंने रामायण की रचना की है, जो खर सहित होने पर भी खर से विपरीत बड़ी कोमल और सुंदर है तथा जो दूषणसहित होने पर भी दूषण अर्थात दोष से रहित है॥ 14(घ)॥ बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस। मैं चारों वेदों की वंदना करता हूँ, जो संसार समुद्र के पार होने के लिए जहाज के समान हैं तथा जिन्हें रघुनाथ का निर्मल यश वर्णन करते स्वप्न में भी खेद (थकावट) नहीं होता॥ 14(ङ)॥ बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहिं कीन्ह जहँ। मैं ब्रह्मा के चरण रज की वंदना करता हूँ, जिन्होंने भवसागर बनाया है, जहाँ से एक ओर संतरूपी अमृत, चंद्रमा और कामधेनु निकले और दूसरी ओर दुष्ट मनुष्यरूपी विष और मदिरा उत्पन्न हुए॥ 14(च)॥ दो० - बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर
जोरि। देवता, ब्राह्मण, पंडित, ग्रह - इन सबके चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर कहता हूँ कि आप प्रसन्न होकर मेरे सारे सुंदर मनोरथों को पूरा करें॥ 14(छ)॥ पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥ फिर मैं सरस्वती और देवनदी गंगा की वंदना करता हूँ। दोनों पवित्र और मनोहर चरित्रवाली हैं। एक (गंगा) स्नान करने और जल पीने से पापों को हरती है और दूसरी (सरस्वती) गुण और यश कहने और सुनने से अज्ञान का नाश कर देती है। गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥ महेश और पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँ, जो मेरे गुरु और माता-पिता हैं, जो दीनबंधु और नित्य दान करनेवाले हैं, जो सीतापति राम के सेवक, स्वामी और सखा हैं तथा मुझ तुलसी का सब प्रकार से कपटरहित (सच्चा) हित करनेवाले हैं। कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥ जिन शिव-पार्वती ने कलियुग को देखकर, जगत के हित के लिए, शाबर मंत्र समूह की रचना की, जिन मंत्रों के अक्षर बेमेल हैं, जिनका न कोई ठीक अर्थ होता है और न जप ही होता है, तथापि शिव के प्रताप से जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष है। सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥ वे उमापति शिव मुझ पर प्रसन्न होकर (राम की) इस कथा को आनंद और मंगल का मूल बनाएँगे। इस प्रकार पार्वती और शिव दोनों का स्मरण करके और उनका प्रसाद पाकर मैं चाव भरे चित्त से राम चरित्र का वर्णन करता हूँ। भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥ मेरी कविता शिव की कृपा से ऐसी सुशोभित होगी, जैसी तारागण के सहित चंद्रमा के साथ रात्रि शोभित होती है। जो इस कथा को प्रेम सहित एवं सावधानी के साथ समझ-बूझकर कहें-सुनेंगे, वे कलियुग के पापों से रहित और सुंदर कल्याण के भागी होकर राम के चरणों के प्रेमी बन जाएँगे। दो० - सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ। यदि मु्झ पर शिव और पार्वती की स्वप्न में भी सचमुच प्रसन्नता हो, तो मैंने इस भाषा कविता का जो प्रभाव कहा है, वह सब सच हो॥ 15॥ बंदउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥ मैं अति पवित्र अयोध्यापुरी और कलियुग के पापों का नाश करनेवाली सरयू नदी की वंदना करता हूँ। फिर अवधपुरी के उन नर-नारियों को प्रणाम करता हूँ, जिन पर प्रभु राम की ममता थोड़ी नहीं है (अर्थात बहुत है)। सिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए॥ उन्होंने (अपनी पुरी में रहनेवाले) सीता की निंदा करनेवाले (धोबी और उसके समर्थक पुर-नर-नारियों) के पाप समूह को नाश कर उनको शोकरहित बनाकर अपने लोक (धाम) में बसा दिया। मैं कौशल्यारूपी पूर्व दिशा की वंदना करता हूँ, जिसकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही है। प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥ जहाँ (कौशल्यारूपी पूर्व दिशा) से विश्व को सुख देनेवाले और दुष्टरूपी कमलों के लिए पाले के समान रामरूपी सुंदर चंद्रमा प्रकट हुए। सब रानियों सहित राजा दशरथ को पुण्य और सुंदर कल्याण की मूर्ति मानकर मैं मन, वचन और कर्म से प्रणाम करता हूँ। अपने पुत्र का सेवक जानकर वे मुझ पर कृपा करें, जिनको रचकर ब्रह्मा ने भी बड़ाई पाई तथा जो राम के माता और पिता होने के कारण महिमा की सीमा हैं। सो० - बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद। मैं अवध के राजा दशरथ की वंदना करता हूँ, जिनका राम के चरणों में सच्चा प्रेम था, जिन्होंने दीनदयालु प्रभु के बिछुड़ते ही अपने प्यारे शरीर को मामूली तिनके की तरह त्याग दिया॥ 16॥ प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥ मैं परिवार सहित राजा जनक को प्रणाम करता हूँ, जिनका राम के चरणों में गूढ़ प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भोग में छिपा रखा था, परंतु राम को देखते ही वह प्रकट हो गया। प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥ सबसे पहले मैं भरत के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जिनका नियम और व्रत वर्णित नहीं किया जा सकता तथा जिनका मन राम के चरणकमलों में भौंरे की तरह लुभाया हुआ है, कभी उनका पास नहीं छोड़ता। बंदउँ लछिमन पद जल जाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥ मैं लक्ष्मण के चरण कमलों को प्रणाम करता हूँ, जो शीतल, सुंदर और भक्तों को सुख देनेवाले हैं। रघुनाथ की कीर्तिरूपी विमल पताका में जिनका यश (पताका को ऊँचा करके फहरानेवाले) दंड के समान हुआ। सेष सहस्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥ जो हजार सिरवाले और जगत के कारण (हजार सिरों पर जगत को धारण कर रखनेवाले) शेष हैं, जिन्होंने पृथ्वी का भय दूर करने के लिए अवतार लिया, वे गुणों की खान कृपासिंधु सुमित्रानंदन लक्ष्मण मुझ पर सदा प्रसन्न रहें। रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥ मैं शत्रुघ्न के चरणकमलों को प्रणाम करता हूँ, जो बड़े वीर, सुशील और भरत के पीछे चलनेवाले हैं। मैं महावीर हनुमान की विनती करता हूँ, जिनके यश का राम ने स्वयं वर्णन किया है॥ सो० -
प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन। मैं पवनकुमार हनुमान को प्रणाम करता हूँ, जो दुष्टरूपी वन को भस्म करने के लिए अग्निरूप हैं, जो ज्ञान की घनमूर्ति हैं और जिनके हृदयरूपी भवन में धनुष-बाण धारण किए राम निवास करते हैं॥ 17॥ कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥ वानरों के राजा सुग्रीव, रीछों के राजा जाम्बवान, राक्षसों के राजा विभीषण और अंगद आदि जितना वानरों का समाज है, सबके सुंदर चरणों की मैं वदना करता हूँ, जिन्होंने अधम शरीर में भी राम को प्राप्त कर लिया। रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥ पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुर समेत जितने राम के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलों की वंदना करता हूँ, जो राम के निष्काम सेवक हैं। सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥ शुकदेव, सनकादि, नारद मुनि आदि जितने भक्त और परम ज्ञानी श्रेष्ठ मुनि हैं, मैं धरती पर सिर टेककर उन सबको प्रणाम करता हूँ, हे मुनीश्वरो! आप सब मुझको अपना दास जानकर कृपा कीजिए। जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥ राजा जनक की पुत्री, जगत की माता और करुणानिधान राम की प्रियतमा जानकी के दोनों चरण कमलों को मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाऊँ। पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल
बंदउँ सब लायक॥ फिर मैं मन, वचन और कर्म से कमलनयन, धनुष-बाणधारी, भक्तों की विपत्ति का नाश करने और उन्हें सुख देनेवाले भगवान रघुनाथ के सर्व समर्थ चरण कमलों की वंदना करता हूँ। दो० - गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न। जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जल की लहर के समान कहने में अलग-अलग हैं, परंतु वास्तव में अभिन्न हैं, उन सीताराम के चरणों की मैं वंदना करता हूँ, जिन्हें दीन-दुःखी बहुत ही प्रिय हैं॥ 18॥
अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद। मैं अब रघुनाथ के चरण कमलों को हृदय में धारण कर और उनका प्रसाद पाकर दोनों श्रेष्ठ मुनियों के मिलन का सुंदर संवाद वर्णन करता हूँ॥ 43(ख)॥ भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥ भरद्वाज मुनि प्रयाग में बसते हैं, उनका राम के चरणों में अत्यंत प्रेम है। वे तपस्वी, निगृहीत चित्त, जितेंद्रिय, दया के निधान और परमार्थ के मार्ग में बड़े ही चतुर हैं। माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥ माघ में जब सूर्य मकर राशि पर जाते हैं तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं। पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥ वेणीमाधव के चरणकमलों को पूजते हैं और अक्षयवट का स्पर्श कर उनके शरीर पुलकित होते हैं। भरद्वाज का आश्रम बहुत ही पवित्र, परम रमणीय और श्रेष्ठ मुनियों के मन को भानेवाला है। तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥ तीर्थराज प्रयाग में जो स्नान करने जाते हैं, उन ऋषि-मुनियों का समाज वहाँ (भरद्वाज के आश्रम में) जुटता है। प्रातःकाल सब उत्साहपूर्वक स्नान करते हैं और फिर परस्पर भगवान के गुणों की कथाएँ कहते हैं।
दो० - ब्रह्म निरूपन धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग। ब्रह्म का निरूपण, धर्म का विधान और तत्त्वों के विभाग का वर्णन करते हैं तथा ज्ञान-वैराग्य से युक्त भगवान की भक्ति का कथन करते हैं॥ 44॥ एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥ इसी प्रकार माघ के महीनेभर स्नान करते हैं और फिर सब अपने-अपने आश्रमों को चले जाते हैं। हर साल वहाँ इसी तरह बड़ा आनंद होता है। मकर में स्नान करके मुनिगण चले जाते हैं। एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥ एक बार पूरे मकर भर स्नान करके सब मुनीश्वर अपने-अपने आश्रमों को लौट गए। परम ज्ञानी याज्ञवल्क्य मुनि को चरण पकड़कर भरद्वाज ने रख लिया। सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥ आदरपूर्वक उनके चरण कमल धोए और बड़े ही पवित्र आसन पर उन्हें बैठाया। पूजा करके मुनि याज्ञवल्क्य के सुयश का वर्णन किया और फिर अत्यंत पवित्र और कोमल वाणी से बोले - नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥ हे नाथ! मेरे मन में एक बड़ा संदेह है; वेदों का तत्त्व सब आपकी मुट्ठी में है पर उस संदेह को कहते मुझे भय और लाज आती है और यदि नहीं कहता तो बड़ी हानि होती है। दो० - संत कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव। हे प्रभो! संत लोग ऐसी नीति कहते हैं और वेद, पुराण तथा मुनिजन भी यही बतलाते हैं कि गुरु के साथ छिपाव करने से हृदय में निर्मल ज्ञान नहीं होता॥ 45॥ अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥ यही सोचकर मैं अपना अज्ञान प्रकट करता हूँ। हे नाथ! सेवक पर कृपा करके इस अज्ञान का नाश कीजिए। संतों, पुराणों और उपनिषदों ने राम नाम के असीम प्रभाव का गान किया है। संतत जपत संभु अबिनासी।
सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥ कल्याण-स्वरूप, ज्ञान और गुणों की राशि, अविनाशी भगवान शंभु निरंतर राम नाम का जप करते रहते हैं। संसार में चार जाति के जीव हैं, काशी में मरने से सभी परम पद को प्राप्त करते हैं। सोपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया॥ हे मुनिराज! वह भी राम (नाम) की ही महिमा है, क्योंकि शिव दया करके (काशी में मरनेवाले जीव को) राम नाम का ही उपदेश करते हैं। हे प्रभो! मैं आपसे पूछता हूँ कि वे राम कौन हैं? हे कृपानिधान! मुझे समझाकर कहिए। एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥ एक राम तो अवध नरेश दशरथ के कुमार हैं, उनका चरित्र सारा संसार जानता है। उन्होंने स्त्री के विरह में अपार दुःख उठाया और क्रोध आने पर युद्ध में रावण को मार डाला।॥4॥ दो० - प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि। हे प्रभो! वही राम हैं या और कोई दूसरे हैं, जिनको शिव जपते हैं? आप सत्य के धाम हैं और सब कुछ जानते हैं, ज्ञान विचार कर कहिए॥ 46॥ जैसें मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥ हे नाथ! जिस प्रकार से मेरा यह भारी भ्रम मिट जाए, आप वही कथा विस्तारपूर्वक कहिए। इस पर याज्ञवल्क्य मुसकराकर बोले, रघुनाथ की प्रभुता को तुम जानते हो। रामभगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारि मैं
जानी॥ तुम मन, वचन और कर्म से राम के भक्त हो। तुम्हारी चतुराई को मैं जान गया। तुम राम के रहस्यमय गुणों को सुनना चाहते हो, इसी से तुमने ऐसा प्रश्न किया है मानो बड़े ही मूढ़ हो। तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥ हे तात! तुम आदरपूर्वक मन लगाकर सुनो; मैं राम की सुंदर कथा कहता हूँ। बड़ा भारी अज्ञान विशाल महिषासुर है और राम की कथा (उसे नष्ट कर देनेवाली) भयंकर काली हैं। रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥ राम की कथा चंद्रमा की किरणों के समान है, जिसे संतरूपी चकोर सदा पान करते हैं। ऐसा ही संदेह पार्वती ने किया था, तब महादेव ने विस्तार से उसका उत्तर दिया था। दो० - कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद। अब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार वही उमा और शिव का संवाद कहता हूँ। वह जिस समय और जिस हेतु से हुआ, उसे हे मुनि! तुम सुनो, तुम्हारा विषाद मिट जाएगा॥ 47॥ एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥ एक बार त्रेता युग में शिव अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके साथ जगज्जननी भवानी सती भी थीं। ऋषि ने संपूर्ण जगत के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया। रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥ मुनिवर अगस्त्य ने रामकथा विस्तार से कही, जिसको महेश्वर ने परम सुख मानकर सुना। फिर ऋषि ने शिव से सुंदर हरिभक्ति पूछी और शिव ने उनको अधिकारी पाकर (रहस्य सहित) भक्ति का निरूपण किया। कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥ रघुनाथ के गुणों की कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिव वहाँ रहे। फिर मुनि से विदा माँगकर शिव दक्षकुमारी सती के साथ घर (कैलास) को चले। तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥ उन्हीं दिनों पृथ्वी का भार उतारने के लिए हरि ने रघुवंश में अवतार लिया था। वे अविनाशी भगवान उस समय पिता के वचन से राज्य का त्याग करके तपस्वी या साधु वेश में दंडकवन में विचर रहे थे। दो० - हृदयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ। शिव हृदय में विचारते जा रहे थे कि भगवान के दर्शन मुझे किस प्रकार हों। प्रभु ने गुप्त रूप से अवतार लिया है, मेरे जाने से सब लोग जान जाएँगे॥ 48(क)॥ सो० - संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ। शंकर के हृदय में इस बात को लेकर बड़ी खलबली उत्पन्न हो गई, परंतु सती इस भेद को नहीं जानती थीं। तुलसीदास कहते हैं कि शिव के मन में डर था, परंतु दर्शन के लोभ से उनके नेत्र ललचा रहे थे॥ 48(ख)॥ रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥ रावण ने (ब्रह्मा से) अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से माँगी थी। ब्रह्मा के वचनों को प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ तो बड़ा पछतावा रह जाएगा। इस प्रकार शिव विचार करते थे, परंतु कोई भी युक्ति ठीक नहीं बैठती थी। ऐहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेही समय जाइ दससीसा॥ इस प्रकार महादेव चिंता के वश हो गए। उसी समय नीच रावण ने जाकर मारीच को साथ लिया और वह (मारीच) तुरंत कपट मृग बन गया। करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥ मूर्ख (रावण) ने छल करके सीता को हर लिया। उसे राम के वास्तविक प्रभाव का कुछ भी पता न था। मृग को मारकर भाई लक्ष्मण सहित हरि आश्रम में आए और उसे खाली देखकर (अर्थात वहाँ सीता को न पाकर) उनके नेत्रों में आँसू भर आए। बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥ रघुनाथ मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया। दो० - अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान। रघुनाथ का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मंदबुद्धि हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं॥ 49॥ संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा॥ शिव ने उसी अवसर पर राम को देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न हुआ। शोभा के उस समुद्र को शिव ने नेत्र भरकर देखा, परंतु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया। जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥ जगत को पवित्र करनेवाले सच्चिदानंद की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करनेवाले शिव चल पड़े। कृपानिधान शिव बार-बार आनंद से पुलकित होते हुए सती के साथ चले जा रहे थे। सतीं
सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥ सती ने शंकर की वह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया। (वे मन-ही-मन कहने लगीं कि) शंकर की सारा जगत वंदना करता है, वे जगत के ईश्वर हैं; देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं। तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा॥ उन्होंने एक राजपुत्र को सच्चिदानंद परधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न हो गए कि अब तक उनके हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती। दो० - ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद। जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है?॥ 50॥ बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥ देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करनेवाले जो विष्णु भगवान हैं, वे भी शिव की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान विष्णु क्या अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे? संभुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥ फिर शिव के वचन भी झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि शिव सर्वज्ञ हैं। सती के मन में इस प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता था। जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥ यद्यपि भवानी ने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अंतर्यामी शिव सब जान गए। वे बोले - हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न रखना चाहिए। जासु कथा कुंभज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥ जिनकी कथा का अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव रघुवीर हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं। छं० - मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं। ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतंत्र, ब्रह्मरूप भगवान राम ने अपने भक्तों के हित के लिए रघुकुल के मणिरूप में अवतार लिया है। सो० - लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु। यद्यपि शिव ने बहुत बार समझाया, फिर भी सती के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब महादेव मन में भगवान की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले - ॥ 51॥ जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥ जो तुम्हारे मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी बड़ की छाँह में बैठा हूँ। जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥ जिस प्रकार तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, विवेक के द्वारा सोच-समझकर तुम वही करना। शिव की आज्ञा पाकर सती चलीं और मन में सोचने लगीं कि भाई! क्या करूँ? इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता
कहुँ नहिं कल्याना॥ इधर शिव ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्षकन्या सती का कल्याण नहीं है। जब मेरे समझाने से भी संदेह दूर नहीं होता तब विधाता ही उलटे हैं, अब सती का कुशल नहीं है। होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥ जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। (मन में) ऐसा कहकर शिव भगवान हरि का नाम जपने लगे और सती वहाँ गईं जहाँ सुख के धाम प्रभु राम थे। दो० - पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप। सती बार-बार मन में विचार कर सीता का रूप धारण करके उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे मनुष्यों के राजा राम आ रहे थे॥ 52॥ लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥ सती के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मण चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत गंभीर हो गए, कुछ कह नहीं सके। धीर- बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथ के प्रभाव को जानते थे। सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥ सब कुछ देखनेवाले और सबके हृदय की जाननेवाले देवताओं के स्वामी राम सती के कपट को जान गए, जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान राम हैं। सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥ स्त्री स्वभाव का असर तो देखो कि वहाँ भी सती छिपाव करना चाहती हैं। अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, राम हँसकर कोमल वाणी से बोले। जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥ पहले प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिव कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं? दो० - राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति
संकोचु। राम के कोमल और रहस्य भरे वचन सुनकर सती को बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई शिव के पास चलीं, उनके हृदय में बड़ी चिंता हो गई॥ 53॥ मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥ कि मैंने शंकर का कहना न माना और अपने अज्ञान का राम पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिव को क्या उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते) सती के हृदय में अत्यंत भयानक जलन पैदा हो गई।
जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥ राम ने जान लिया कि सती को दुःख हुआ, तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सती ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि राम सीता और लक्ष्मण सहित आगे चले जा रहे हैं। फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर बेषा॥ उन्होंने पीछे की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मण और सीता के साथ राम सुंदर वेष में दिखाई दिए। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु राम विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं। देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥ सती ने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक-से-एक बढ़कर असीम प्रभाववाले थे। भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता राम की चरणवंदना और सेवा कर रहे हैं। दो० - सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप। उन्होंने अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं। जिस-जिस रूप में ब्रह्मा आदि देवता थे, उसी के अनुकूल रूप में ये सब भी थीं॥ 54॥ देखे जहँ जहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥ सती ने जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथ देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा। संसार में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे। पूजहिं प्रभुहि देव
बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥ अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु राम की पूजा कर रहे हैं, परंतु राम का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता सहित रघुनाथ बहुत-से देखे, परंतु उनके वेष अनेक नहीं थे। सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भईं सभीता॥ वही रघुनाथ, वही लक्ष्मण और वही सीता - सती ऐसा देखकर बहुत ही डर गईं। उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में बैठ गईं। बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥ फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी को कुछ भी न दिख पड़ा। तब वे बार-बार राम के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ शिव थे। दो० - गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात। जब पास पहुँचीं, तब शिव ने हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने राम की किस प्रकार
परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो॥ 55॥ सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥ सती ने रघुनाथ के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिव से छिपाव किया और कहा - हे स्वामिन्! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, (वहाँ जाकर) आपकी ही तरह प्रणाम किया। जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥ आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा विश्वास है। तब शिव ने ध्यान करके देखा और सती ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया। बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥ फिर राम की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया। सुजान शिव ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छारूपी भावी प्रबल है। सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥ सती ने सीता का वेष धारण किया, यह जानकर शिव के हृदय में बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है। दो० - परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु। सती परम पवित्र हैं, इसलिए इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है। प्रकट करके महादेव कुछ भी नहीं कहते, परंतु उनके हृदय में बड़ा संताप है॥ 56॥
तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥ तब शिव ने प्रभु राम के चरण कमलों में सिर नवाया और राम का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के इस शरीर से मेरी भेंट नहीं हो सकती और शिव ने अपने मन में यह संकल्प कर लिया। अस बिचारि संकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥ स्थिर-बुद्धि शंकर ऐसा विचार कर रघुनाथ का स्मरण करते हुए अपने घर (कैलास) को चले। चलते समय सुंदर आकाशवाणी हुई कि हे महेश! आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की। अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥ आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप राम के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सती के मन में चिंता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिव से पूछा - । कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥ हे कृपालु! कहिए, आपने कौन-सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सती ने बहुत प्रकार से पूछा, परंतु त्रिपुरारि शिव ने कुछ न कहा। दो० - सतीं हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य। सती ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिव सब जान गए। मैंने शिव से कपट किया। स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और बेसमझ होती है॥ 57(क)॥ सो० - जलु पय सरिस बिकाइ देखहु
प्रीति कि रीति भलि। प्रीति की सुंदर रीति देखिए कि जल भी (दूध के साथ मिलकर) दूध के समान भाव बिकता है, परंतु फिर कपटरूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और स्वाद (प्रेम) जाता रहता है॥ 57(ख)॥ हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहिं बरनी॥ अपनी करनी को याद करके सती के हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिंता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। शिव कृपा के परम अथाह सागर हैं। इससे प्रकट में उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा। संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥ शिव का रुख देखकर सती ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता, परंतु हृदय कुम्हार के आँवे के समान अत्यंत तपे रहा है। सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥ वृषकेतु शिव ने सती को चिंतायुक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिए सुंदर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे। तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥ वहाँ फिर शिव अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। शिव ने अपना स्वाभाविक रूप संभाला। उनकी अखंड और अपार समाधि लग गई। दो० - सती
बसहिं कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं। तब सती कैलास पर रहने लगीं। उनके मन में बड़ा दुःख था। इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं जानता था। उनका एक-एक दिन युग के समान बीत रहा था॥ 58॥ नित नव सोचु सती उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥ सती के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख-समुद्र के पार कब जाऊँगी। मैंने जो रघुनाथ का अपमान किया और फिर पति के वचनों को झूठ जाना - । सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥ उसका फल विधाता ने मुझको दिया, जो उचित था वही किया; परंतु हे विधाता! अब तुझे यह उचित नहीं है, जो शंकर से विमुख होने पर भी मुझे जिला रहा है। कहि न जाइ कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामहि सुमिर सयानी॥ सती के हृदय की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती। बुद्धिमती सती ने मन में राम का स्मरण किया और कहा - हे प्रभो! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेदों ने आपका यह यश गाया है कि आप दुःख को हरनेवाले हैं, तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥ तो मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि मेरी यह देह जल्दी छूट जाए। यदि मेरा शिव के चरणों में प्रेम है और मेरा यह व्रत मन, वचन और कर्म से सत्य है, दो० - तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ। तो हे सर्वदर्शी प्रभो! सुनिए और शीघ्र वह उपाय कीजिए, जिससे मेरा मरण हो और बिना ही परिश्रम यह (पति-परित्यागरूपी) असह्य विपत्ति दूर हो जाए॥ 59॥ एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥ दक्षसुता सती इस प्रकार बहुत दुःखित थीं, उनको इतना दारुण दुःख था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिव ने समाधि खोली। राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं
जगतपति जागे॥ शिव रामनाम का स्मरण करने लगे, तब सती ने जाना कि अब जगत के स्वामी (शिव) जागे। उन्होंने जाकर शिव के चरणों में प्रणाम किया। शिव ने उनको बैठने के लिए सामने आसन दिया। लगे कहन हरि कथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥ शिव भगवान हरि की रसमयी कथाएँ कहने लगे। उसी समय दक्ष प्रजापति हुए। ब्रह्मा ने सब प्रकार से योग्य देख-समझकर दक्ष को प्रजापतियों का नायक बना दिया। बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिनामु हृदयँ तब आवा॥ जब दक्ष ने इतना बड़ा अधिकार पाया, तब उनके हृदय में अत्यंत अभिमान आ गया। जगत में ऐसा कोई नहीं पैदा हुआ जिसको प्रभुता पाकर मद न हो। दो० - दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग। दक्ष ने सब मुनियों को बुला लिया और वे बड़ा यज्ञ करने लगे। जो देवता यज्ञ का भाग पाते हैं, दक्ष ने उन सबको आदर सहित निमंत्रित किया॥ 60॥ किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥ (दक्ष का निमंत्रण पाकर) किन्नर, नाग, सिद्ध, गंधर्व और सब देवता अपनी-अपनी स्त्रियों सहित चले। विष्णु, ब्रह्मा और महादेव को छोड़कर सभी देवता अपना-अपना विमान सजाकर चले। सतीं बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुंदर बिधि नाना॥ सती ने देखा, अनेकों प्रकार के सुंदर विमान आकाश में चले जा रहे हैं, देव-सुंदरियाँ मधुर गान कर रही हैं, जिन्हें सुनकर मुनियों का ध्यान छूट जाता है। पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥ सती ने (विमानों में देवताओं के जाने का कारण) पूछा, तब शिव ने सब बातें बतलाईं। पिता के यज्ञ की बात सुनकर सती कुछ प्रसन्न हुईं और सोचने लगीं कि यदि महादेव मुझे आज्ञा दें, तो इसी बहाने कुछ दिन पिता के घर जाकर रहूँ। पति
परित्याग हृदयँ दुखु भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी॥ क्योंकि उनके हृदय में पति द्वारा त्यागी जाने का बड़ा भारी दुःख था, पर अपना अपराध समझकर वे कुछ कहती न थीं। आखिर सती भय, संकोच और प्रेमरस में सनी हुई मनोहर वाणी से बोलीं - । दो० - पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ। हे प्रभो! मेरे पिता के घर बहुत बड़ा उत्सव है। यदि आपकी आज्ञा हो तो हे कृपाधाम! मैं आदर सहित उसे देखने जाऊँ॥ 61॥ कहेहु नीक मोरेहूँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥ शिव ने कहा - तुमने बात तो अच्छी कही, यह मेरे मन को भी पसंद आई, पर उन्होंने न्योता नहीं भेजा, यह अनुचित है। दक्ष ने अपनी सब लड़कियों को बुलाया है; किंतु हमारे बैर के कारण उन्होंने तुमको भी भुला दिया। ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥ एक बार ब्रह्मा की सभा में हमसे अप्रसन्न हो गए थे, उसी से वे अब भी हमारा अपमान करते हैं। हे भवानी! जो तुम बिना बुलाए जाओगी तो न शील-स्नेह ही रहेगा और न मान-मर्यादा ही रहेगी। जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥ यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता। भाँति अनेक संभु समुझावा। भावी
बस न ग्यानु उर आवा॥ शिव ने बहुत प्रकार से समझाया, पर होनहारवश सती के हृदय में बोध नहीं हुआ। फिर शिव ने कहा कि यदि बिना बुलाए जाओगी, तो हमारी समझ में अच्छी बात न होगी। दो० - कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि। शिव ने बहुत प्रकार से कहकर देख लिया, किंतु जब सती किसी प्रकार भी नहीं रुकीं, तब त्रिपुरारि महादेव ने अपने मुख्य गणों को साथ देकर उनको बिदा कर दिया॥ 62॥ पिता भवन जब गईं भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥ भवानी जब पिता (दक्ष) के घर पहुँची, तब दक्ष के डर के मारे किसी ने उनकी आवभगत नहीं की, केवल एक माता भले ही आदर से मिली। बहनें बहुत मुस्कुराती हुई मिलीं। दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकी जरे सब गाता॥ दक्ष ने तो उनकी कुछ कुशल तक नहीं पूछी, सती को देखकर उलटे उनके सारे अंग जल उठे। तब सती ने जाकर यज्ञ देखा तो वहाँ कहीं शिव का भाग दिखाई नहीं दिया। तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ॥ तब शिव ने जो कहा था, वह उनकी समझ में आया। स्वामी का अपमान समझकर सती का हृदय जल उठा। पिछला (पति परित्याग का) दुःख उनके हृदय में उतना नहीं व्यापा था, जितना महान दुःख इस समय (पति अपमान के कारण) हुआ। जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥ यद्यपि जगत में अनेक प्रकार के दारुण दुःख हैं, तथापि जाति-अपमान सबसे बढ़कर कठिन है। यह समझकर सती को बड़ा क्रोध हो आया। माता ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया-बुझाया। दो० - सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध। परंतु उनसे शिव का अपमान सहा नहीं गया, इससे उनके हृदय में कुछ भी प्रबोध नहीं हुआ। तब वे सारी सभा को हठपूर्वक डाँटकर क्रोधभरे वचन बोलीं - ॥ 63॥
सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह संकर निंदा॥ हे सभासदो और सब मुनीश्वरो! सुनो। जिन लोगों ने यहाँ शिव की निंदा की या सुनी है, उन सबको उसका फल तुरंत ही मिलेगा और मेरे पिता दक्ष भी भली भाँति पछताएँगे। संत संभुपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥ जहाँ संत, शिव और लक्ष्मीपति विष्णु भगवान की निंदा सुनी जाए, वहाँ ऐसी मर्यादा है कि यदि अपना वश चले तो उस (निंदा करनेवाले) की जीभ काट ले और नहीं तो कान मूँदकर वहाँ से भाग जाए। जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥ त्रिपुर दैत्य को मारनेवाले भगवान महेश्वर संपूर्ण जगत के आत्मा हैं, वे जगत्पिता और सबका हित करनेवाले हैं। मेरा मंदबुद्धि पिता उनकी निंदा करता है और मेरा यह शरीर दक्ष ही के वीर्य से उत्पन्न है। तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥ इसलिए चंद्रमा को ललाट पर धारण करनेवाले वृषकेतु शिव को हृदय में धारण करके मैं इस शरीर को तुरंत ही त्याग दूँगी। ऐसा कहकर सती ने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर डाला। सारी यज्ञशाला में हाहाकार मच गया। दो० - सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस। सती का मरण सुनकर शिव के गण यज्ञ विध्वंस करने लगे। यज्ञ विध्वंस होते देखकर मुनीश्वर भृगु ने उसकी रक्षा की॥ 64॥ समाचार सब संकर पाए।
बीरभद्रु करि कोप पठाए॥ ये सब समाचार शिव को मिले, तब उन्होंने क्रोध करके वीरभद्र को भेजा। उन्होंने वहाँ जाकर यज्ञ विध्वंस कर डाला और सब देवताओं को यथोचित फल (दंड) दिया। भै जगबिदित दच्छ गति सोई। जसि कछु संभु बिमुख कै होई॥ दक्ष की जगत्प्रसिद्ध वही गति हुई, जो शिवद्रोही की हुआ करती है। यह इतिहास सारा संसार जानता है, इसलिए मैंने संक्षेप में वर्णन किया। सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा॥ सती ने मरते समय भगवान हरि से यह वर माँगा कि मेरा जन्म-जन्म में शिव के चरणों में अनुराग रहे। इसी कारण उन्होंने हिमाचल के घर जाकर पार्वती के शरीर से जन्म लिया। जब तें उमा सैल गृह जाईं। सकल सिद्धि संपति तहँ छाईं॥ जब से उमा हिमाचल के घर जनमीं, तब से वहाँ सारी सिद्धियाँ और संपत्तियाँ छा गईं। मुनियों ने जहाँ-तहाँ सुंदर आश्रम बना लिए और हिमाचल ने उनको उचित स्थान दिए। दो० - सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति। उस सुंदर पर्वत पर बहुत प्रकार के सब नए-नए वृक्ष सदा पुष्प-फलयुक्त हो गए और वहाँ बहुत तरह की मणियों की खानें प्रकट हो गईं॥ 65॥ सरिता सब पुनीत जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं॥ सारी नदियों में पवित्र जल बहता है और पक्षी, पशु, भ्रमर सभी सुखी रहते हैं। सब जीवों ने अपना स्वाभाविक बैर छोड़ दिया है और पर्वत पर सभी परस्पर प्रेम करते हैं। सोह सैल गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ॥ पार्वती के घर आ जाने से पर्वत ऐसा शोभायमान हो रहा है जैसा रामभक्ति को पाकर भक्त शोभायमान होता है। उस (पर्वतराज) के घर नित्य नए-नए मंगलोत्सव होते हैं, जिसका ब्रह्मादि यश गाते हैं। नारद समाचार सब पाए। कौतुकहीं गिरि
गेह सिधाए॥ जब नारदजी ने ये सब समाचार सुने तो वे कौतुक ही से हिमाचल के घर पधारे। पर्वतराज ने उनका बड़ा आदर किया और चरण धोकर उन्हें उत्तम आसन दिया। नारि सहित मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा॥ फिर अपनी स्त्री सहित मुनि के चरणों में सिर नवाया और उनके चरणोदक को सारे घर में छिड़काया। हिमाचल ने अपने सौभाग्य का बहुत बखान किया और पुत्री को बुलाकर मुनि के चरणों पर डाल दिया। दो० - त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि। (और कहा -) हे मुनिवर! आप त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ हैं, आपकी सर्वत्र पहुँच है। अतः आप हृदय में विचार कर कन्या के दोष-गुण कहिए॥ 66॥ कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥ नारद मुनि ने हँसकर रहस्ययुक्त कोमल वाणी से कहा - तुम्हारी कन्या सब गुणों की खान है। यह स्वभाव से ही सुंदर, सुशील और समझदार है। उमा, अंबिका और भवानी इसके नाम हैं। सब लच्छन संपन्न कुमारी। होइहि संतत पियहि पिआरी॥ कन्या सब सुलक्षणों से संपन्न है, यह अपने पति को सदा प्यारी होगी। इसका सुहाग सदा अचल रहेगा और इससे इसके माता-पिता यश पाएँगे। होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं॥ यह सारे जगत में पूज्य होगी और इसकी सेवा करने से कुछ भी दुर्लभ न होगा। संसार में स्त्रियाँ इसका नाम स्मरण करके पतिव्रतारूपी तलवार की धार पर चढ़ जाएँगी। सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥ हे पर्वतराज! तुम्हारी कन्या सुलच्छनी है। अब इसमें जो दो-चार अवगुण हैं, उन्हें भी सुन लो। गुणहीन, मानहीन, माता-पिता-विहीन, उदासीन, संशयहीन (लापरवाह)। दो० - जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष। योगी, जटाधारी, निष्काम हृदय, नंगा और अमंगल वेषवाला, ऐसा पति इसको मिलेगा। इसके हाथ में ऐसी ही रेखा पड़ी है॥ 67॥ सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥ नारद मुनि की वाणी सुनकर और उसको हृदय में सत्य जानकर पति-पत्नी (हिमवान और मैना) को दुःख हुआ, किंतु पार्वती प्रसन्न हुईं। नारद ने भी इस रहस्य को नहीं जाना, क्योंकि सबकी बाहरी दशा एक-सी होने पर भी भीतरी समझ भिन्न-भिन्न थी। सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥ सारी सखियाँ, पार्वती, पर्वतराज हिमवान और मैना सभी के शरीर पुलकित थे और सभी के नेत्रों में जल भरा था। देवर्षि के वचन असत्य नहीं हो सकते, (यह विचारकर) पार्वती ने उन वचनों को हृदय में धारण कर लिया। उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू॥ उन्हें शिव के चरण कमलों में स्नेह उत्पन्न हो आया, परंतु मन में यह संदेह हुआ कि उनका मिलना कठिन है। अवसर ठीक न जानकर उमा ने अपने प्रेम को छिपा लिया और फिर वे सखी की गोद में जाकर बैठ गईं। झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहिं दंपति सखीं सयानी॥ देवर्षि की वाणी झूठी न होगी, यह विचार कर हिमवान, मैना और सारी चतुर सखियाँ चिंता करने लगीं। फिर हृदय में धीरज धरकर पर्वतराज ने कहा - हे नाथ! कहिए, अब क्या उपाय किया जाए? दो० - कह मुनीस हिमवंत सुनु
जो बिधि लिखा लिलार। मुनीश्वर ने कहा - हे हिमवान! सुनो, विधाता ने ललाट पर जो कुछ लिख दिया है, उसे देवता, दानव, मनुष्य, नाग और मुनि कोई भी नहीं मिटा सकते॥ 68॥ तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥ तो भी एक उपाय मैं बताता हूँ। यदि दैव सहायता करें तो वह सिद्ध हो सकता है। उमा को वर तो निःसंदेह वैसा ही मिलेगा, जैसा मैंने तुम्हारे सामने वर्णन किया है। जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहिं मैं अनुमाने॥ परंतु मैंने वर के जो-जो दोष बतलाए हैं, मेरे अनुमान से वे सभी शिव में हैं। यदि शिव के साथ विवाह हो जाए तो दोषों को भी सब लोग गुणों के समान ही कहेंगे। जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं॥ जैसे विष्णु भगवान शेषनाग की शय्या पर सोते हैं, तो भी पंडित लोग उनको कोई दोष नहीं लगाते। सूर्य और अग्निदेव अच्छे-बुरे सभी रसों का भक्षण करते हैं, परंतु उनको कोई बुरा नहीं कहता। सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥ गंगा में शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता। सूर्य, अग्नि और गंगा की भाँति समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता। दो० - जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ बिबेक अभिमान। यदि मूर्ख मनुष्य ज्ञान के अभिमान से इस प्रकार होड़ करते हैं, तो वे कल्पभर के लिए नरक में पड़ते हैं। भला कहीं जीव भी ईश्वर के समान (सर्वथा स्वतंत्र) हो सकता है?॥ 69॥ सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥ गंगा जल से भी बनाई हुई मदिरा को जानकर संत लोग कभी उसका पान नहीं करते। पर वही गंगा में मिल जाने पर जैसे पवित्र हो जाती है, ईश्वर और जीव में भी वैसा ही भेद है। संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब
बिधि कल्याना॥ शिव सहज ही समर्थ हैं, क्योंकि वे भगवान हैं, इसलिए इस विवाह में सब प्रकार कल्याण है, परंतु महादेव की आराधना बड़ी कठिन है, फिर भी क्लेश (तप) करने से वे बहुत जल्द संतुष्ट हो जाते हैं। जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥ यदि तुम्हारी कन्या तप करे, तो त्रिपुरारि महादेव होनहार को मिटा सकते हैं। यद्यपि संसार में वर अनेक हैं, पर इसके लिए शिव को छोड़कर दूसरा वर नहीं है। बर दायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन॥ शिव वर देनेवाले, शरणागतों के दुःखों का नाश करनेवाले, कृपा के समुद्र और सेवकों के मन को प्रसन्न करनेवाले हैं। शिव की आराधना किए बिना करोड़ों योग और जप करने पर भी वांछित फल नहीं मिलता। दो० - अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस। ऐसा कहकर भगवान का स्मरण करके नारद ने पार्वती को आशीर्वाद दिया। (और कहा -) हे पर्वतराज! तुम संदेह का त्याग कर दो, अब यह कल्याण ही होगा॥ 70॥ कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥ यों कहकर नारद मुनि ब्रह्मलोक को चले गए। अब आगे जो चरित्र हुआ उसे सुनो। पति को एकांत में पाकर मैना ने कहा - हे नाथ! मैंने मुनि के वचनों का अर्थ नहीं समझा। जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरूपा॥ जो हमारी कन्या के अनुकूल घर, वर और कुल उत्तम हो तो विवाह कीजिए। नहीं तो लड़की चाहे कुमारी ही रहे (मैं अयोग्य वर के साथ उसका विवाह नहीं करना चाहती); क्योंकि हे स्वामिन्! पार्वती मुझको प्राणों के समान प्यारी है। जौं न मिलिहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू॥ यदि पार्वती के योग्य वर न मिला तो सब लोग कहेंगे कि पर्वत स्वभाव से ही जड़ (मूर्ख) होते हैं। हे स्वामी! इस बात को विचारकर ही विवाह कीजिएगा, जिसमें फिर पीछे हृदय में संताप न हो। अस कहि परी चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥ इस प्रकार कहकर मैना पति के चरणों पर मस्तक रखकर गिर पड़ीं। तब हिमवान ने प्रेम से कहा - चाहे चंद्रमा में अग्नि प्रकट हो जाए, पर नारद के वचन झूठे नहीं हो सकते। दो० - प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहुभगवान। हे प्रिये! सब सोच छोड़कर भगवान का स्मरण करो, जिन्होंने पार्वती को रचा है, वे ही कल्याण करेंगे॥ 71॥ अब जौं तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावनु देहू॥ अब यदि तुम्हें कन्या पर प्रेम है, तो जाकर उसे यह शिक्षा दो कि वह ऐसा तप करे, जिससे शिव मिल जाएँ। दूसरे उपाय से यह क्लेश नहीं मिटेगा। नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू॥ नारद के वचन रहस्य से युक्त और सकारण हैं और शिव समस्त सुंदर गुणों के भंडार हैं। यह विचारकर तुम संदेह का त्याग कर दो। शिव सभी तरह से निष्कलंक हैं। सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥ पति के वचन सुन मन में प्रसन्न होकर मैना उठकर तुरंत पार्वती के पास गईं। पार्वती को देखकर उनकी आँखों में आँसू भर आए। उसे स्नेह के साथ गोद में बैठा लिया। बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥ फिर बार-बार उसे हृदय से लगाने लगीं। प्रेम से मैना का गला भर आया, कुछ कहा नहीं जाता। जगज्जननी भवानी तो सर्वज्ञ ठहरीं। (माता के मन की दशा को जानकर) वे माता को सुख देनेवाली कोमल वाणी से बोलीं -। दो० - सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि। माँ! सुन, मैं तुझे सुनाती हूँ; मैंने ऐसा स्वप्न देखा है कि मुझे एक सुंदर गौरवर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मण ने ऐसा उपदेश दिया है - ॥ 72॥ करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥ हे पार्वती! नारद ने जो कहा है, उसे सत्य समझकर तू जाकर तप कर। फिर यह बात तेरे माता-पिता को भी अच्छी लगी है। तप सुख देनेवाला और दुःख-दोष का नाश करनेवाला है। तपबल रचइ प्रपंचु बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥ तप के बल से ही ब्रह्मा संसार को रचते हैं और तप के बल से ही विष्णु सारे जगत का पालन करते हैं। तप के बल से ही शंभु (रुद्र रूप से) जगत का संहार करते हैं और तप के बल से ही शेष पृथ्वी का भार धारण करते हैं। तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी॥ हे भवानी! सारी सृष्टि तप के ही आधार पर है। ऐसा जी में जानकर तू जाकर तप कर। यह बात सुनकर माता को बड़ा अचरज हुआ और उसने हिमवान को बुलाकर वह स्वप्न सुनाया। मातु पितहि बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई॥ माता-पिता को बहुत तरह से समझाकर बड़े हर्ष के साथ पार्वती तप करने के लिए चलीं। प्यारे कुटुंबी, पिता और माता सब व्याकुल हो गए। किसी के मुँह से बात नहीं निकलती। दो० - बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ। तब वेदशिरा मुनि ने आकर सबको समझाकर कहा। पार्वती की महिमा सुनकर सबको समाधान हो गया॥ 73॥ उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥ प्राणपति (शिव) के चरणों को हृदय में धारण करके पार्वती वन में जाकर तप करने लगीं। पार्वती का अत्यंत सुकुमार शरीर तप के योग्य नहीं था, तो भी पति के चरणों का स्मरण करके उन्होंने सब भोगों को तज दिया। नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥ स्वामी के चरणों में नित्य नया अनुराग उत्पन्न होने लगा और तप में ऐसा मन लगा कि शरीर की सारी सुध बिसर गई। एक हजार वर्ष तक उन्होंने मूल और फल खाए, फिर सौ वर्ष साग खाकर बिताए। कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥ कुछ दिन जल और वायु का भोजन किया और फिर कुछ दिन कठोर उपवास किया - जो बेल पत्र सूखकर पृथ्वी पर गिरते थे, तीन हजार वर्ष तक उन्हीं को खाया। पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नामु तब भयउ अपरना॥ फिर सूखे पर्ण (पत्ते) भी छोड़ दिए, तभी पार्वती का नाम 'अपर्णा' हुआ। तप से उमा का शरीर क्षीण देखकर आकाश से गंभीर ब्रह्मवाणी हुई - । दो० - भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि। हे पर्वतराज की कुमारी! सुन, तेरा मनोरथ सफल हुआ। तू अब सारे असह्य क्लेशों को (कठिन तप को) त्याग दे। अब तुझे शिव मिलेंगे॥ 74॥ अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भए अनेक धीर मुनि ग्यानी॥ हे भवानी! धीर, मुनि और ज्ञानी बहुत हुए हैं, पर ऐसा (कठोर) तप किसी ने नहीं किया। अब तू इस श्रेष्ठ ब्रह्मा की वाणी को सदा सत्य और निरंतर पवित्र जानकर अपने हृदय में धारण कर। आवै पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं॥ जब तेरे पिता बुलाने आएँ, तब हठ छोड़कर घर चली जाना और जब तुम्हें सप्तर्षि मिलें तब इस वाणी को ठीक समझना। सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी॥ (इस प्रकार) आकाश से कही हुई ब्रह्मा की वाणी को सुनते ही पार्वती प्रसन्न हो गईं और (हर्ष के मारे) उनका शरीर पुलकित हो गया। (याज्ञवल्क्य भरद्वाज से बोले कि) मैंने पार्वती का सुंदर चरित्र सुनाया, अब शिव का सुहावना चरित्र सुनो। जब तें सतीं जाइ तनु त्यागा। तब तें सिव मन भयउ बिरागा॥ जब से सती ने जाकर शरीर त्याग किया, तब से शिव के मन में वैराग्य हो गया। वे सदा रघुनाथ का नाम जपने लगे और जहाँ-तहाँ राम के गुणों की कथाएँ सुनने लगे। दो० - चिदानंद सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम। चिदानंद, सुख के धाम, मोह, मद और काम से रहित शिव संपूर्ण लोकों को आनंद देनेवाले भगवान हरि (राम) को हृदय में धारण कर पृथ्वी पर विचरने लगे॥ 75॥ कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥ वे कहीं मुनियों को ज्ञान का उपदेश करते और कहीं राम के गुणों का वर्णन करते थे। यद्यपि सुजान शिव निष्काम हैं, तो भी वे भगवान अपने भक्त (सती) के वियोग के दुःख से दुःखी हैं। एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती॥ इस प्रकार बहुत समय बीत गया। राम के चरणों में नित नई प्रीति हो रही है। शिव के (कठोर) नियम, (अनन्य) प्रेम और उनके हृदय में भक्ति की अटल टेक को (जब राम ने) देखा। प्रगटे रामु कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला॥ तब कृतज्ञ (उपकार माननेवाले), कृपालु, रूप और शील के भंडार, महान तेजपुंज भगवान राम प्रकट हुए। उन्होंने बहुत तरह से शिव की सराहना की और कहा कि आप के बिना ऐसा (कठिन) व्रत कौन निबाह सकता है। बहुबिधि राम सिवहि समुझावा। पारबती कर जन्मु सुनावा॥ राम ने बहुत प्रकार से शिव को समझाया और पार्वती का जन्म सुनाया। कृपानिधान राम ने विस्तारपूर्वक पार्वती की अत्यंत पवित्र करनी का वर्णन किया। दो० - अब बिनती मम सुनहु
सिव जौं मो पर निज नेहु। (फिर उन्होंने शिव से कहा -) हे शिव! यदि मुझ पर आपका स्नेह है, तो अब आप मेरी विनती सुनिए। मुझे यह माँगने दीजिए कि आप जाकर पार्वती के साथ विवाह कर लें॥ 76॥ कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥ शिव ने कहा - यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परंतु स्वामी की बात भी मेटी नहीं जा सकती। हे नाथ! मेरा यही परम धर्म है कि मैं आपकी आज्ञा को सिर पर रखकर उसका पालन करूँ। मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥ माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना विचारे ही शुभ समझकर करना (मानना) चाहिए। फिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं। हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिर-माथे है। प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना। भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना॥ शिव की भक्ति, ज्ञान और धर्म से युक्त वचन रचना सुनकर प्रभु राम संतुष्ट हो गए। प्रभु ने कहा - हे हर! आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई। अब हमने जो कहा है, उसे हृदय में रखना। अंतरधान भए अस भाषी। संकर सोइ मूरति उर राखी॥ इस प्रकार कहकर राम अंतर्धान हो गए। शिव ने उनकी वह मूर्ति अपने हृदय में रख ली। उसी समय सप्तर्षि शिव के पास आए। प्रभु महादेव ने उनसे अत्यंत सुहावने वचन कहे - । दो० - पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा
लेहु। आप लोग पार्वती के पास जाकर उनके प्रेम की परीक्षा लीजिए और हिमाचल को कहकर (उन्हें पार्वती को लिवा लाने के लिए भेजिए तथा) पार्वती को घर भिजवाइए और उनके संदेह को दूर कीजिए॥ 77॥ रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमंत तपस्या जैसी॥ ऋषियों ने (वहाँ जाकर) पार्वती को कैसी देखा, मानो मूर्तिमान तपस्या ही हो। मुनि बोले - हे शैलकुमारी! सुनो, तुम किसलिए इतना कठोर तप कर रही हो? केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरमु किन कहहू॥ तुम किसकी आराधना करती हो और क्या चाहती हो? हमसे अपना सच्चा भेद क्यों नहीं कहतीं? (पार्वती ने कहा -) बात कहते मन बहुत सकुचाता है। आप लोग मेरी मूर्खता सुनकर हँसेंगे। मनु हठ परा न सुनइ सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा॥ मन ने हठ पकड़ लिया है, वह उपदेश नहीं सुनता और जल पर दीवाल उठाना चाहता है। नारद ने जो कह दिया उसे सत्य जानकर मैं बिना पंख के ही उड़ना चाहती हूँ। देखहु मुनि अबिबेकु हमारा। चाहिअ सदा सिवहि भरतारा॥ हे मुनियो! आप मेरा अज्ञान तो देखिए कि मैं सदा शिव को ही पति बनाना चाहती हूँ। दो० - सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तव देह। पार्वती की बात सुनते ही ऋषि लोग हँस पड़े और बोले - तुम्हारा शरीर पर्वत से ही तो उत्पन्न हुआ है! भला, कहो तो नारद का उपदेश सुनकर आज तक किसका घर बसा है?॥ 78॥ दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥ उन्होंने जाकर दक्ष के पुत्रों को उपदेश दिया था, जिससे उन्होंने फिर लौटकर घर का मुँह भी नहीं देखा। चित्रकेतु के घर को नारद ने ही चौपट किया। फिर यही हाल हिरण्यकशिपु का हुआ। नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥ जो स्त्री-पुरुष नारद की सीख सुनते हैं, वे घर-बार छोड़कर अवश्य ही भिखारी हो जाते हैं। उनका मन तो कपटी है, शरीर पर सज्जनों के चिह्न हैं। वे सभी को अपने समान बनाना चाहते हैं। तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥ उनके वचनों पर विश्वास मानकर तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर-कपालों की माला पहननेवाला, कुलहीन, बिना घर-बार का, नंगा और शरीर पर साँपों को लपेटे रखनेवाला है। कहहु कवन सुखु अस
बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ॥ ऐसे वर के मिलने से कहो, तुम्हें क्या सुख होगा? तुम उस ठग (नारद) के बहकावे में आकर खूब भूलीं। पहले पंचों के कहने से शिव ने सती से विवाह किया, परंतु फिर उसे त्यागकर मरवा डाला। दो० - अब सुख सोवत सोचु नहिं भीख मागि भव खाहिं। अब शिव को कोई चिंता नहीं रही, भीख माँगकर खा लेते हैं और सुख से सोते हैं। ऐसे स्वभाव से ही अकेले रहने वालों के घर भी भला क्या कभी स्त्रियाँ टिक सकती हैं?॥ 79॥ अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥ अब भी हमारा कहा मानो, हमने तुम्हारे लिए अच्छा वर विचारा है। वह बहुत ही सुंदर, पवित्र, सुखदायक और सुशील है, जिसका यश और लीला वेद गाते हैं। दूषन रहित सकल गुन रासी।पति पुर बैकुंठ निवासी॥ वह दोषों से रहित, सारे सद्गुणों की राशि, लक्ष्मी का स्वामी और बैकुंठपुरी का रहनेवाला है। हम ऐसे वर को लाकर तुमसे मिला देंगे। यह सुनते ही पार्वती हँसकर बोलीं - । सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै बरु देहा॥ आपने यह सत्य ही कहा कि मेरा यह शरीर पर्वत से उत्पन्न हुआ है, इसलिए हठ नहीं छूटेगा, शरीर भले ही छूट जाए। सोना भी पत्थर से ही उत्पन्न होता है, सो वह जलाए जाने पर भी अपने स्वभाव (सुवर्णत्व) को नहीं छोड़ता। नारद बचन न मैं परिहरऊँ।
बसउ भवनु उजरउ नहिं डरउँ॥ अतः मैं नारद के वचनों को नहीं छोड़ूँगी, चाहे घर बसे या उजड़े, इससे मैं नहीं डरती। जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती। दो० - महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम। माना कि महादेव अवगुणों के भवन हैं और विष्णु समस्त सद्गुणों के धाम हैं, पर जिसका मन जिसमें रम गया, उसको तो उसी से काम है॥ 80॥ जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥ हे मुनीश्वरे! यदि आप पहले मिलते, तो मैं आपका उपदेश सिर-माथे रखकर सुनती, परंतु अब तो मैं अपना जन्म शिव के लिए हार चुकी! फिर गुण-दोषों का विचार कौन करे? जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी॥ यदि आपके हृदय में बहुत ही हठ है और विवाह की बातचीत (बरेखी) किए बिना आपसे रहा ही नहीं जाता, तो संसार में वर-कन्या बहुत हैं। खिलवाड़ करने वालों को आलस्य तो होता नहीं (और कहीं जाकर कीजिए)। जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥ मेरा तो करोड़ जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिव को वरूँगी, नहीं तो कुमारी ही रहूँगी। स्वयं शिव सौ बार कहें, तो भी नारद के उपदेश को न छोड़ूँगी। मैं पा परउँ कहइ जगदंबा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा॥ जगज्जननी पार्वती ने फिर कहा कि मैं आपके पैरों पड़ती हूँ। आप अपने घर जाइए, बहुत देर हो गई। (शिव में पार्वती का ऐसा) प्रेम देखकर ज्ञानी मुनि बोले - हे जगज्जननी! हे भवानी! आपकी जय हो! जय हो!! दो० - तुम्ह माया भगवान सिव सकल गजत पितु मातु। आप माया हैं और शिव भगवान हैं। आप दोनों समस्त जगत के माता-पिता हैं। (यह कहकर) मुनि पार्वती के चरणों में सिर नवाकर चल दिए। उनके शरीर बार-बार पुलकित हो रहे थे॥ 81॥ जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥ मुनियों ने जाकर हिमवान को पार्वती के पास भेजा और वे विनती करके उनको घर ले आए, फिर सप्तर्षियों ने शिव के पास जाकर उनको पार्वती की सारी कथा सुनाई। भए मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥ पार्वती का प्रेम सुनते ही शिव आनंदमग्न हो गए। सप्तर्षि प्रसन्न होकर अपने घर (ब्रह्मलोक) को चले गए। तब सुजान शिव मन को स्थिर करके रघुनाथ का ध्यान करने लगे। तारकु असुर भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥ उसी समय तारक नाम का असुर हुआ, जिसकी भुजाओं का बल, प्रताप और तेज बहुत बड़ा था। उसने सब लोक और लोकपालों को जीत लिया, सब देवता सुख और संपत्ति से रहित हो गए। अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई॥ वह अजर-अमर था, इसलिए किसी से जीता नहीं जाता था। देवता उसके साथ बहुत तरह की लड़ाइयाँ लड़कर हार गए। तब उन्होंने ब्रह्मा के पास जाकर गुहार की। ब्रह्मा ने सब देवताओं को दुःखी देखा। दो० - सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ। ब्रह्मा ने सबको समझाकर कहा - इस दैत्य की मृत्यु तब होगी जब शिव के वीर्य से पुत्र उत्पन्न हो, इसको युद्ध में वही जीतेगा॥ 82॥ मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि
सहाई॥ मेरी बात सुनकर उपाय करो। ईश्वर सहायता करेंगे और काम हो जाएगा। सती ने जो दक्ष के यज्ञ में देह का त्याग किया था, उन्होंने अब हिमाचल के घर जाकर जन्म लिया है। तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥ उन्होंने शिव को पति बनाने के लिए तप किया है, इधर शिव सब छोड़-छाड़कर समाधि लगा बैठे हैं। यद्यपि है तो बड़े असमंजस की बात, तथापि मेरी एक बात सुनो। पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु संकर मन माहीं॥ तुम जाकर कामदेव को शिव के पास भेजो, वह शिव के मन में क्षोभ उत्पन्न करे (उनकी समाधि भंग करे)। तब हम जाकर शिव के चरणों में सिर रख देंगे और जबरदस्ती (उन्हें राजी करके) विवाह करा देंगे। एहि बिधि भलेहिं देवहित होई। मत अति नीक कहइ सबु कोई॥ इस प्रकार से भले ही देवताओं का हित हो (और तो कोई उपाय नहीं है) सबने कहा - यह सम्मति बहुत अच्छी है। फिर देवताओं ने बड़े प्रेम से स्तुति की। तब विषम (पाँच) बाण धारण करनेवाला और मछली के चिह्नयुक्त ध्वजावाला कामदेव प्रकट हुआ। दो० - सुरन्ह कही निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार। देवताओं ने कामदेव से अपनी सारी विपत्ति कही। सुनकर कामदेव ने मन में विचार किया और हँसकर देवताओं से यों कहा कि शिव के साथ विरोध करने में मेरी कुशल नहीं है॥ 83॥ तदपि करब मैं काजु
तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥ तथापि मैं तुम्हारा काम तो करूँगा, क्योंकि वेद दूसरे के उपकार को परम धर्म कहते हैं। जो दूसरे के हित के लिए अपना शरीर त्याग देता है, संत सदा उसकी बड़ाई करते हैं। अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥ यों कह और सबको सिर नवाकर कामदेव अपने पुष्प के धनुष को हाथ में लेकर (वसंतादि) सहायकों के साथ चला। चलते समय कामदेव ने हृदय में ऐसा विचार किया कि शिव के साथ विरोध करने से मेरा मरण निश्चित है। तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥ तब उसने अपना प्रभाव फैलाया और समस्त संसार को अपने वश में कर लिया। जिस समय उस मछली के चिह्न की ध्वजावाले कामदेव ने कोप किया, उस समय क्षणभर में ही वेदों की सारी मर्यादा मिट गई। ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥ ब्रह्मचर्य, नियम, नाना प्रकार के संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, जप, योग, वैराग्य आदि विवेक की सारी सेना डरकर भाग गई। छं० - भागेउ बिबेकु सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे। विवेक अपने सहायकों सहित भाग गया, उसके योद्धा रणभूमि से पीठ दिखा गए। उस समय वे सब सद्ग्रंथरूपी पर्वत की कंदराओं में जा छिपे (अर्थात ज्ञान, वैराग्य, संयम, नियम, सदाचारादि ग्रंथों में ही लिखे रह गए, उनका आचरण छूट गया)। सारे जगत में खलबली मच गई (और सब कहने लगे -) हे विधाता! अब क्या होनेवाला है? हमारी रक्षा कौन करेगा? ऐसा दो सिरवाला कौन है, जिसके लिए रति के पति कामदेव ने कोप करके हाथ में धनुष-बाण उठाया है? दो० - जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम। जगत में स्त्री-पुरुष संज्ञावाले जितने चर-अचर प्राणी थे, वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश में हो गए॥ 84॥ सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥ सबके हृदय में काम की इच्छा हो गई। लताओं (बेलों) को देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने लगीं। नदियाँ उमड़-उमड़कर समुद्र की ओर दौड़ीं और ताल-तलैयाँ भी आपस में संगम करने (मिलने-जुलने) लगीं। जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥ जब जड़ (वृक्ष, नदी आदि) की यह दशा कही गई, तब चेतन जीवों की करनी कौन कह सकता है? आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरनेवाले सारे पशु-पक्षी (अपने संयोग का) समय भुलाकर काम के वश में हो गए। मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥ सब लोक कामांध होकर व्याकुल हो गए। चकवा-चकवी रात-दिन नहीं देखते। देव, दैत्य, मनुष्य, किन्नर, सर्प, प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल - । इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥ ये तो सदा ही काम के गुलाम हैं, यह समझकर मैंने इनकी दशा का वर्णन नहीं किया। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महान योगी भी काम के वश होकर योगरहित या स्त्री के विरही हो गए। छं० - भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै। जब योगीश्वर और तपस्वी भी काम के वश हो गए, तब पामर मनुष्यों की कौन कहे? जो समस्त चराचर जगत को ब्रह्ममय देखते थे, वे अब उसे स्त्रीमय देखने लगे। स्त्रियाँ सारे संसार को पुरुषमय देखने लगीं और पुरुष उसे स्त्रीमय देखने लगे। दो घड़ी तक सारे ब्रह्मांड के अंदर कामदेव का रचा हुआ यह कौतुक (तमाशा) रहा। सो० - धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे। किसी ने भी हृदय में धैर्य नहीं धारण किया, कामदेव ने सबके मन हर लिए। रघुनाथ ने जिनकी रक्षा की, केवल वे ही उस समय बचे रहे॥ 85॥ उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु
संभु पहिं गयऊ॥ दो घड़ी तक ऐसा तमाशा हुआ, जब तक कामदेव शिव के पास पहुँच गया। शिव को देखकर कामदेव डर गया, तब सारा संसार फिर जैसा-का- तैसा स्थिर हो गया। भए तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे॥ तुरंत ही सब जीव वैसे ही सुखी हो गए, जैसे मतवाले (नशा पिए हुए) लोग मद (नशा) उतर जाने पर सुखी होते हैं। दुर्धर्ष (जिनको पराजित करना अत्यंत ही कठिन है) और दुर्गम (जिनका पार पाना कठिन है) भगवान (संपूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश,, ज्ञान और वैराग्य रूप छह ईश्वरीय गुणों से युक्त) रुद्र (महाभयंकर) शिव को देखकर कामदेव भयभीत हो गया। फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥ लौट जाने में लज्जा मालूम होती है और करते कुछ बनता नहीं। आखिर मन में मरने का निश्चय करके उसने उपाय रचा। तुरंत ही सुंदर ऋतुराज वसंत को प्रकट किया। फूले हुए नए-नए वृक्षों की कतारें सुशोभित हो गईं। बन उपबन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥ वन-उपवन, बावली-तालाब और सब दिशाओं के विभाग परम सुंदर हो गए। जहाँ-तहाँ मानो प्रेम उम़ड़ रहा है, जिसे देखकर मरे मनों में भी कामदेव जाग उठा। छं० - जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही। मरे हुए मन में भी कामदेव जागने लगा। वन की सुंदरता कही नहीं जा सकती। कामरूपी अग्नि का सच्चा मित्र शीतल-मंद-सुगंधित पवन चलने लगा। सरोवरों में अनेकों कमल खिल गए, जिन पर सुंदर भौंरों के समूह गुंजार करने लगे। राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे और अप्सराएँ गा-गाकर नाचने लगीं॥ दो० - सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत। कामदेव अपनी सेना समेत करोड़ों प्रकार की सब कलाएँ (उपाय) करके हार गया, पर शिव की अचल समाधि न डिगी। तब कामदेव क्रोधित हो उठा॥ 86॥ देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा॥ आम के वृक्ष की एक सुंदर डाली देखकर मन में क्रोध से भरा हुआ कामदेव उस पर चढ़ गया। उसने पुष्प-धनुष पर अपने (पाँचों) बाण चढ़ाए और अत्यंत क्रोध से (लक्ष्य की ओर) ताककर उन्हें कान तक तान लिया। छाड़े बिषम बिसिख उर लागे। छूटि समाधि संभु तब जागे॥ कामदेव ने तीक्ष्ण पाँच बाण छोड़े, जो शिव के हृदय में लगे। तब उनकी समाधि टूट गई और वे जाग गए। ईश्वर (शिव) के मन में बहुत क्षोभ हुआ। उन्होंने आँखें खोलकर सब ओर देखा। सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका॥ जब आम के पत्तों में (छिपे हुए) कामदेव को देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ, जिससे तीनों लोक काँप उठे। तब शिव ने तीसरा नेत्र खोला, उनके देखते ही कामदेव जलकर भस्म हो गया। हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी॥ जगत में बड़ा हाहाकर मच गया। देवता डर गए, दैत्य सुखी हुए। भोगी लोग कामसुख को याद करके चिंता करने लगे और साधक योगी निष्कंटक हो गए। छं० - जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई। योगी निष्कंटक हो गए, कामदेव की स्त्री रति अपने पति की यह दशा सुनते ही मूर्च्छित हो गई। रोती-चिल्लाती और भाँति-भाँति से करुणा करती हुई वह शिव के पास गई। अत्यंत प्रेम के साथ अनेकों प्रकार से विनती करके हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गई। शीघ्र प्रसन्न होनेवाले कृपालु शिव अबला (असहाय स्त्री) को देखकर सुंदर (उसको सांत्वना देनेवाले) वचन बोले - दो० - अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु। हे रति! अब से तेरे स्वामी का नाम अनंग होगा। वह बिना शरीर के ही सबको व्यापेगा। अब तू अपने पति से मिलने की बात सुन॥ 87॥ जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥ जब पृथ्वी के बड़े भारी भार को उतारने के लिए यदुवंश में कृष्ण का अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में उत्पन्न होगा। मेरा यह वचन अन्यथा नहीं होगा। रति गवनी सुनि संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥ शिव के वचन सुनकर रति चली गई। अब दूसरी कथा बखानकर कहता हूँ। ब्रह्मादि देवताओं ने ये सब समाचार सुने तो वे बैकुंठ को चले। सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥ फिर वहाँ से विष्णु और ब्रह्मा सहित सब देवता वहाँ गए, जहाँ कृपा के धाम शिव थे। उन सबने शिव की अलग-अलग स्तुति की, तब शशिभूषण शिव प्रसन्न हो गए। बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥ कृपा के समुद्र शिव बोले - हे देवताओ! कहिए, आप किसलिए आए हैं? ब्रह्मा ने कहा - हे प्रभो! आप अंतर्यामी हैं, तथापि हे स्वामी! भक्तिवश मैं आपसे विनती करता हूँ। दो० - सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु। हे शंकर! सब देवताओं के मन में ऐसा परम उत्साह है कि हे नाथ! वे अपनी आँखों से आपका विवाह देखना चाहते हैं॥ 88॥ यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन॥ हे कामदेव के मद को चूर करनेवाले! आप ऐसा कुछ कीजिए, जिससे सब लोग इस उत्सव को नेत्र भरकर देखें। हे कृपा के सागर! कामदेव को भस्म करके आपने रति को जो वरदान दिया, सो बहुत ही अच्छा किया। सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥ हे नाथ! श्रेष्ठ स्वामियों का यह सहज स्वभाव ही है कि वे पहले दंड देकर फिर कृपा किया करते हैं। पार्वती ने अपार तप किया है, अब उन्हें अंगीकार कीजिए। सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा
सुखु मानी॥ ब्रह्मा की प्रार्थना सुनकर और प्रभु राम के वचनों को याद कर शिव ने प्रसन्नतापूर्वक कहा - 'ऐसा ही हो।' तब देवताओं ने नगाड़े बजाए और फूलों की वर्षा करके 'जय हो! देवताओं के स्वामी जय हो' ऐसा कहने लगे। अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥ उचित अवसर जानकर सप्तर्षि आए और ब्रह्मा ने तुरंत ही उन्हें हिमाचल के घर भेज दिया। वे पहले वहाँ गए जहाँ पार्वती थीं और उनसे छल से भरे मीठे (विनोदयुक्त, आनंद पहुँचानेवाले) वचन बोले - । दो० - कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस॥ नारद के उपदेश से तुमने उस समय हमारी बात नहीं सुनी। अब तो तुम्हारा प्रण झूठा हो गया, क्योंकि महादेव ने काम को ही भस्म कर डाला॥ 89॥ सुनि बोलीं मुसुकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥ यह सुनकर पार्वती मुसकराकर बोलीं - हे विज्ञानी मुनिवरो! आपने उचित ही कहा। आपकी समझ में शिव ने कामदेव को अब जलाया है, अब तक तो वे विकारयुक्त (कामी) ही रहे! हमरें जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी॥ किंतु हमारी समझ से तो शिव सदा से ही योगी, अजन्मे, अनिंद्य, कामरहित और भोगहीन हैं और यदि मैंने शिव को ऐसा समझकर ही मन, वचन और कर्म से प्रेम सहित उनकी सेवा की है। तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा॥ तो हे मुनीश्वरो! सुनिए, वे कृपानिधान भगवान मेरी प्रतिज्ञा को सत्य करेंगे। आपने जो यह कहा कि शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया, यही आपका बड़ा भारी अविवेक है। तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥ हे तात! अग्नि का तो यह सहज स्वभाव ही है कि पाला उसके समीप कभी जा ही नहीं सकता और जाने पर वह अवश्य नष्ट हो जाएगा। महादेव और कामदेव के संबंध में भी यही न्याय (बात) समझना चाहिए। दो० - हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास। पार्वती के वचन सुनकर और उनका प्रेम तथा विश्वास देखकर मुनि हृदय में बड़े प्रसन्न हुए। वे भवानी को सिर नवाकर चल दिए और हिमाचल के पास पहुँचे॥ 90॥ सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥ उन्होंने पर्वतराज हिमाचल को सब हाल सुनाया। कामदेव का भस्म होना सुनकर हिमाचल बहुत दुःखी हुए। फिर मुनियों ने रति के वरदान की बात कही, उसे सुनकर हिमवान ने बहुत सुख माना। हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई। शिव के प्रभाव को मन में विचार कर हिमाचल ने श्रेष्ठ मुनियों को आदरपूर्वक बुला लिया और उनसे शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और शुभ घड़ी शोधवाकर वेद की विधि के अनुसार शीघ्र ही लग्न निश्चय कराकर लिखवा लिया। पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल
कीन्ही॥ फिर हिमाचल ने वह लग्नपत्रिका सप्तर्षियों को दे दी और चरण पकड़कर उनकी विनती की। उन्होंने जाकर वह लग्न पत्रिका ब्रह्मा को दी। उसको पढ़ते समय उनके हृदय में प्रेम समाता न था। लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥ ब्रह्मा ने लग्न पढ़कर सबको सुनाया, उसे सुनकर सब मुनि और देवताओं का सारा समाज हर्षित हो गया। आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी, बाजे बजने लगे और दसों दिशाओं में मंगल-कलश सजा दिए गए। दो० - लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान। सब देवता अपने भाँति-भाँति के वाहन और विमान सजाने लगे, कल्याणप्रद मंगल शकुन होने लगे और अप्सराएँ गाने लगीं॥ 91॥ सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥ शिव के गण शिव का श्रृंगार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया। शिव ने साँपों के ही कुंडल और कंकण पहने, शरीर पर विभूति रमाई और वस्त्र की जगह बाघंबर लपेट लिया। ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥ शिव के सुंदर मस्तक पर चंद्रमा, सिर पर गंगा, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुंडों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं। कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥ एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू सुशोभित है। शिव बैल पर चढ़कर चले। बाजे बज रहे हैं। शिव को देखकर देवांगनाएँ मुस्कुरा रही हैं (और कहती हैं कि) इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी। बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥ विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों पर चढ़कर बारात में चले। देवताओं का समाज सब प्रकार से अनुपम (परम सुंदर) था, पर दूल्हे के योग्य बारात न थी। दो० - बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज। तब विष्णु भगवान ने सब दिग्पालों को बुलाकर हँसते हुए ऐसा कहा - सब लोग अपने-अपने दल समेत अलग-अलग होकर चलो॥ 92॥ बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥ हे भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है। क्या पराए नगर में जाकर हँसी कराओगे? विष्णु भगवान की बात सुनकर देवता मुसकराए और वे अपनी-अपनी सेना सहित अलग हो गए। मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥ महादेव (यह देखकर) मन-ही-मन मुस्कुराते हैं कि विष्णु भगवान के व्यंग्य-वचन (दिल्लगी) नहीं छूटते! अपने प्यारे (विष्णु भगवान) के इन अति प्रिय वचनों को सुनकर शिव ने भी भृंगी को भेजकर अपने सब गणों को बुलवा लिया। सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस
तिन्ह नाए॥ शिव की आज्ञा सुनते ही सब चले आए और उन्होंने स्वामी के चरण कमलों में सिर नवाया। तरह-तरह की सवारियों और तरह-तरह के वेषवाले अपने समाज को देखकर शिव हँसे। कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥ कोई बिना मुख का है, किसी के बहुत-से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैर का है तो किसी के कई हाथ-पैर हैं। किसी के बहुत आँखें हैं तो किसी के एक भी आँख नहीं है। कोई बहुत मोटा-ताजा है, तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है। छं० - तन कीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें। कोई बहुत दुबला, कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किए हुए है। भयंकर गहने पहने हाथ में कपाल लिए हैं और सब के सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैं। गधे, कुत्ते, सूअर और सियार के-से उनके मुख हैं। गणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने? बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगिनियों की जमाते हैं। उनका वर्णन करते नहीं बनता। सो० - नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब। भूत-प्रेत नाचते और गाते हैं, वे सब बड़े मौजी हैं। देखने में बहुत ही बेढंगे जान पड़ते हैं और बड़े ही विचित्र ढंग से बोलते हैं॥ 93॥ जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥ जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बारात बन गई है। मार्ग में चलते हुए भाँति-भाँति के कौतुक होते जाते हैं। इधर हिमाचल ने ऐसा विचित्र मंडप बनाया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता। सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥ जगत में जितने छोटे-बड़े पर्वत थे, जिनका वर्णन करके पार नहीं मिलता तथा जितने वन, समुद्र, नदियाँ और तालाब थे, हिमाचल ने सबको नेवता भेजा। कामरूप सुंदर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥ वे सब अपनी इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले सुंदर शरीर धारण कर सुंदरी स्त्रियों और समाजों के साथ हिमाचल के घर गए। सभी स्नेह सहित मंगल गीत गा रहे हैं। प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥ हिमाचल ने पहले ही से बहुत-से घर सजवा रखे थे। यथायोग्य उन-उन स्थानों में सब लोग उतर गए। नगर की सुंदर शोभा देखकर ब्रह्मा की रचना चातुरी भी तुच्छ लगती थी। छं०
- लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही। नगर की शोभा देखकर ब्रह्मा की निपुणता सचमुच तुच्छ लगती है। वन, बाग, कुएँ, तालाब, नदियाँ सभी सुंदर हैं, उनका वर्णन कौन कर सकता है? घर-घर बहुत-से मंगलसूचक तोरण और ध्वजा-पताकाएँ सुशोभित हो रही हैं। वहाँ के सुंदर और चतुर स्त्री-पुरुषों की छवि देखकर मुनियों के भी मन मोहित हो जाते हैं।
दो० - जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ। जिस नगर में स्वयं जगदंबा ने अवतार लिया, क्या उसका वर्णन हो सकता है? वहाँ ऋद्धि, सिद्धि, संपत्ति और सुख नित-नए बढ़ते जाते हैं॥ 94॥ नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥ बारात को नगर के निकट आई सुनकर नगर में चहल-पहल मच गई, जिससे उसकी शोभा बढ़ गई। अगवानी करनेवाले लोग बनाव-श्रृंगार करके तथा नाना प्रकार की सवारियों को सजाकर आदर सहित बारात को लेने चले। हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥ देवताओं के समाज को देखकर सब मन में प्रसन्न हुए और विष्णु भगवान को देखकर तो बहुत ही सुखी हुए, किंतु जब शिव के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन (सवारियों के हाथी, घोड़े, रथ के बैल आदि) डरकर भाग चले। धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥ कुछ बड़ी उम्र के समझदार लोग धीरज धरकर वहाँ डटे रहे। लड़के तो सब अपने प्राण लेकर भागे। घर पहुँचने पर जब माता-पिता पूछते हैं, तब वे भय से काँपते हुए शरीर से ऐसा वचन कहते हैं - कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता॥ क्या कहें, कोई बात कही नहीं जाती। यह बारात है या यमराज की सेना? दूल्हा पागल है और बैल पर सवार है। साँप, कपाल और राख ही उसके गहने हैं। छं० - तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल
भयंकरा। दूल्हे के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने हैं, वह नंगा, जटाधारी और भयंकर है। उसके साथ भयानक मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं, जो बारात को देखकर जीता बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पुण्य हैं और वही पार्वती का विवाह देखेगा। लड़कों ने घर-घर यही बात कही। दो० - समुझि महेस समाज सब जननि जनक
मुसुकाहिं। महेश्वर (शिव) का समाज समझकर सब लड़कों के माता-पिता मुस्कुराते हैं। उन्होंने बहुत तरह से लड़कों को समझाया कि निडर हो जाओ, डर की कोई बात नहीं है॥ 95॥ लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥ अगवान लोग बारात को लिवा लाए, उन्होंने सबको सुंदर जनवासे ठहरने को दिए। मैना (पार्वती की माता) ने शुभ आरती सजाई और उनके साथ की स्त्रियाँ उत्तम मंगलगीत गाने लगीं। कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥ सुंदर हाथों में सोने का थाल शोभित है, इस प्रकार मैना हर्ष के साथ शिव का परछन करने चलीं। जब महादेव को भयानक वेष में देखा तब तो स्त्रियों के मन में बड़ा भारी भय उत्पन्न हो गया। भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥ बहुत ही डर के मारे भागकर वे घर में घुस गईं और शिव जहाँ जनवासा था, वहाँ चले गए। मैना के हृदय में बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने पार्वती को अपने पास बुला लिया। अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी॥ और अत्यंत स्नेह से गोद में बैठाकर अपने नीलकमल के समान नेत्रों में आँसू भरकर कहा - जिस विधाता ने तुमको ऐसा सुंदर रूप दिया, उस मूर्ख ने तुम्हारे दूल्हे को बावला कैसे बनाया? छं० - कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई। जिस विधाता ने तुमको सुंदरता दी, उसने तुम्हारे लिए वर बावला कैसे बनाया? जो फल कल्पवृक्ष में लगना चाहिए, वह जबरदस्ती बबूल में लग रहा है। मैं तुम्हें लेकर पहाड़ से गिर पड़ूँगी, आग में जल जाऊँगी या समुद्र में कूद पड़ूँगी। चाहे घर उजड़ जाए और संसार भर में अपकीर्ति फैल जाए, पर जीते जी मैं इस बावले वर से तुम्हारा विवाह न करूँगी। दो० - भईं बिकल अबला
सकल दुखित देखि गिरिनारि। हिमाचल की स्त्री (मैना) को दुःखी देखकर सारी स्त्रियाँ व्याकुल हो गईं। मैना अपनी कन्या के स्नेह को याद करके विलाप करती, रोती और कहती थीं - ॥ 96॥ नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥ मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया और जिन्होंने पार्वती को ऐसा उपदेश दिया कि जिससे उसने बावले वर के लिए तप किया। साचेहुँ उन्ह कें मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥ सचमुच उनके न किसी का मोह है, न माया, न उनके धन है, न घर है और न स्त्री ही है, वे सबसे उदासीन हैं। इसी से वे दूसरे का घर उजाड़नेवाले हैं। उन्हें न किसी की लाज है, न डर है। भला, बाँझ स्त्री प्रसव की पीड़ा को क्या जाने। जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥ माता को विकल देखकर पार्वती विवेकयुक्त कोमल वाणी बोलीं - हे माता! जो विधाता रच देते हैं, वह टलता नहीं; ऐसा विचार कर तुम सोच मत करो! करम लिखा जौं बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥ जो मेरे भाग्य में बावला ही पति लिखा है, तो किसी को क्यों दोष लगाया जाए? हे माता! क्या विधाता के अंक तुमसे मिट सकते हैं? वृथा कलंक का टीका मत लो। छं० - जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं। हे माता! कलंक मत लो, रोना छोड़ो, यह अवसर विषाद करने का नहीं है। मेरे भाग्य में जो दुःख-सुख लिखा है, उसे मैं जहाँ जाऊँगी, वहीं पाऊँगी! पार्वती के ऐसे विनय भरे कोमल वचन सुनकर सारी स्त्रियाँ सोच करने लगीं और भाँति-भाँति से विधाता को दोष देकर आँखों से आँसू बहाने लगीं। दो० - तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत। इस समाचार को सुनते ही हिमाचल उसी समय नारद और सप्त ऋषियों को साथ लेकर अपने घर गए॥ 97॥ तब नारद सबही समुझावा। पूरुब कथा प्रसंगु सुनावा॥ तब नारद ने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया (और कहा) कि हे मैना! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लड़की साक्षात जगज्जनी भवानी है। अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा संभु अरधंग निवासिनि॥ ये अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शक्ति हैं। सदा शिव के अर्द्धांग में रहती हैं। ये जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार करनेवाली हैं; और अपनी इच्छा से ही लीला शरीर धारण करती हैं। जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुंदर तनु पाई॥ पहले ये दक्ष के घर जाकर जन्मी थीं, तब इनका सती नाम था, बहुत सुंदर शरीर पाया था। वहाँ भी सती शंकर से ही ब्याही गई थीं। यह कथा सारे जगत में प्रसिद्ध है। एक बार आवत सिव संगा।
देखेउ रघुकुल कमल पतंगा॥ एक बार इन्होंने शिव के साथ आते हुए (राह में) रघुकुलरूपी कमल के सूर्य राम को देखा, तब इन्हें मोह हो गया और इन्होंने शिव का कहना न मानकर भ्रमवश सीता का वेष धारण कर लिया। छं० - सिय बेषु सतीं जो कीन्ह तेहिं अपराध संकर परिहरीं। सती ने जो सीता का वेष धारण किया, उसी अपराध के कारण शंकर ने उनको त्याग दिया। फिर शिव के वियोग में ये अपने पिता के यज्ञ में जाकर वहीं योगाग्नि से भस्म हो गईं। अब इन्होंने तुम्हारे घर जन्म लेकर अपने पति के लिए कठिन तप किया है ऐसा जानकर संदेह छोड़ दो, पार्वती तो सदा ही शिव की प्रिया हैं। दो० - सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद। तब नारद के वचन सुनकर सबका विषाद मिट गया और क्षणभर में यह समाचार सारे नगर में घर-घर फैल गया॥ 98॥ तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥ तब मैना और हिमवान आनंद में मग्न हो गए और उन्होंने बार-बार पार्वती के चरणों की वंदना की। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध नगर के सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए। लगे होन पुर मंगल गाना। सजे सबहिं हाटक घट नाना॥ नगर में मंगल गीत गाए जाने लगे और सबने भाँति-भाँति के सुवर्ण के कलश सजाए। पाक-शास्त्र में जैसी रीति है, उसके अनुसार अनेक भाँति की ज्योनार हुई (रसोई बनी)। सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥ जिस घर में स्वयं माता भवानी रहती हों, वहाँ की ज्योनार (भोजन सामग्री) का वर्णन कैसे किया जा सकता है? हिमाचल ने आदरपूर्वक सब बारातियों, विष्णु, ब्रह्मा और सब जाति के देवताओं को बुलवाया। बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥ भोजन (करनेवालों) की बहुत-सी पंगतें बैठीं। चतुर रसोइए परोसने लगे। स्त्रियों की मंडलियाँ देवताओं को भोजन करते जानकर कोमल वाणी से गालियाँ देने लगीं। छं० - गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं। सब सुंदरी स्त्रियाँ मीठे स्वर में गालियाँ देने लगीं और व्यंग्य भरे वचन सुनाने लगीं। देवगण विनोद सुनकर बहुत सुख अनुभव करते हैं, इसलिए भोजन करने में बड़ी देर लगा रहे हैं। भोजन के समय जो आनंद बढ़ा वह करोड़ों मुँह से भी नहीं कहा जा सकता। (भोजन कर चुकने पर) सबके हाथ-मुँह धुलवाकर पान दिए गए। फिर सब लोग, जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गए। दो० - बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ। फिर मुनियों ने लौटकर हिमवान को लगन (लग्न पत्रिका) सुनाई और विवाह का समय देखकर देवताओं को बुला भेजा॥ 99॥ बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि
जथोचित आसन दीन्हे॥ सब देवताओं को आदर सहित बुलवा लिया और सबको यथायोग्य आसन दिए। वेद की रीति से वेदी सजाई गई और स्त्रियाँ सुंदर श्रेष्ठ मंगल गीत गाने लगीं। सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा॥ वेदिका पर एक अत्यंत सुंदर दिव्य सिंहासन था, जिस (की सुंदरता) का वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह स्वयं ब्रह्मा का बनाया हुआ था। ब्राह्मणों को सिर नवाकर और हृदय में अपने स्वामी रघुनाथ का स्मरण करके शिव उस सिंहासन पर बैठ गए। बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाईं। करि सिंगारु सखीं लै आईं॥ फिर मुनीश्वरों ने पार्वती को बुलाया। सखियाँ श्रृंगार करके उन्हें ले आईं। पार्वती के रूप को देखते ही सब देवता मोहित हो गए। संसार में ऐसा कवि कौन है, जो उस सुंदरता का वर्णन कर सके? जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥ पार्वती को जगदंबा और शिव की पत्नी समझकर देवताओं ने मन-ही-मन प्रणाम किया। भवानी सुंदरता की सीमा हैं। करोड़ों मुखों से भी उनकी शोभा नहीं कही जा सकती। छं० - कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा। जगज्जननी पार्वती की महान शोभा का वर्णन करोड़ों मुखों से भी करते नहीं बनता। वेद, शेष और सरस्वती तक उसे कहते हुए सकुचा जाते हैं, तब मंदबुद्धि तुलसी किस गिनती में है? सुंदरता और शोभा की खान माता भवानी मंडप के बीच में, जहाँ शिव थे, वहाँ गईं। वे संकोच के मारे पति (शिव) के चरणकमलों को देख नहीं सकतीं, परंतु उनका मनरूपी भौंरा तो वहीं (रस-पान कर रहा) था। दो० - मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि। मुनियों की आज्ञा से शिव और पार्वती ने गणेश का पूजन किया। मन में देवताओं को अनादि समझकर कोई इस बात को सुनकर शंका न करे (कि गणेश तो शिव-पार्वती की संतान हैं, अभी विवाह से पूर्व ही वे कहाँ से आ गए?)॥ 100॥ जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥ वेदों में विवाह की जैसी रीति कही गई है, महामुनियों ने वह सभी रीति करवाई। पर्वतराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकड़कर उन्हें भवानी (शिवपत्नी) जानकर शिव को समर्पण किया। पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥ जब महेश्वर (शिव) ने पार्वती का पाणिग्रहण किया, तब (इंद्रादि) सब देवता हृदय में बड़े ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमंत्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिव का जय-जयकार करने लगे। बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥ अनेकों प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह हो गया। सारे ब्रह्मांड में आनंद भर गया।
दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥ दासी, दास, रथ, घोड़े, हाथी, गायें, वस्त्र और मणि आदि अनेक प्रकार की चीजें, अन्न तथा सोने के बर्तन गाड़ियों में लदवाकर दहेज में दिए, जिनका वर्णन नहीं हो सकता। छं० - दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो। बहुत प्रकार का दहेज देकर, फिर हाथ जोड़कर हिमाचल ने कहा - हे शंकर! आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ? (इतना कहकर) वे शिव के चरणकमल पकड़कर रह गए। तब कृपा के सागर शिव ने अपने ससुर का सभी प्रकार से समाधान किया। फिर प्रेम से परिपूर्ण हृदय मैना ने शिव के चरण कमल पकड़े (और कहा -) दो० - नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु। हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान (प्यारी) है। आप इसे अपने घर की टहलनी बनाइएगा और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहिएगा। अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिए॥ 101॥ बहु बिधि संभु सासु समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥ शिव ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। तब वे शिव के चरणों में सिर नवाकर घर गईं। फिर माता ने पार्वती को बुला लिया और गोद में बिठाकर यह सुंदर सीख दी - करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥ हे पार्वती! तू सदाशिव के चरणों की पूजा करना, नारियों का यही धर्म है। उनके लिए पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है। इस प्रकार की बातें कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू भर आए और उन्होंने कन्या को छाती से चिपटा लिया। कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥ (फिर बोलीं कि) विधाता ने जगत में स्त्री जाति को क्यों पैदा किया? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता। यों कहती हुई माता प्रेम में अत्यंत विकल हो गईं, परंतु कुसमय जानकर (दुःख करने का अवसर न जानकर) उन्होंने धीरज धरा। पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥ मैना बार-बार मिलती हैं और (पार्वती के) चरणों को पकड़कर गिर पड़ती हैं। बड़ा ही प्रेम है, कुछ वर्णन नहीं किया जाता। भवानी सब स्त्रियों से मिल-भेंटकर फिर अपनी माता के हृदय से जा लिपटीं। छं० - जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं। पार्वती माता से फिर मिलकर चलीं, सब किसी ने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिए। पार्वती फिर-फिरकर माता की ओर देखती जाती थीं। तब सखियाँ उन्हें शिव के पास ले गईं। महादेव सब याचकों को संतुष्ट कर पार्वती के साथ घर (कैलास) को चले। सब देवता प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा करने लगे और आकाश में सुंदर नगाड़े बजाने लगे। दो० - चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु। तब हिमवान अत्यंत प्रेम से शिव को पहुँचाने के लिए साथ चले। वृषकेतु (शिव) ने बहुत तरह से उन्हें संतोष कराकर विदा किया॥ 102॥ तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥ पर्वतराज हिमाचल तुरंत घर आए और उन्होंने सब पर्वतों और सरोवरों को बुलाया। हिमवान ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सबकी विदाई की। जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥ जब शिव कैलास पर्वत पर पहुँचे, तब सब देवता अपने-अपने लोकों को चले गए। (तुलसीदास कहते हैं कि) पार्वती और शिव जगत के माता-पिता हैं, इसलिए मैं उनके श्रृंगार का वर्णन नहीं करता। करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥ शिव-पार्वती विविध प्रकार के भोग-विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे। वे नित्य नए विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया। तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुरु समर जेहिं मारा॥ तब छह मुखवाले पुत्र (स्वामिकार्तिक) का जन्म हुआ, जिन्होंने (बड़े होने पर) युद्ध में तारकासुर को मारा। वेद, शास्त्र और पुराणों में स्वामिकार्तिक के जन्म की कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत उसे जानता है। छं० - जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा। षडानन (स्वामिकार्तिक) के जन्म, कर्म, प्रताप और महान पुरुषार्थ को सारा जगत जानता है। इसलिए मैंने वृषकेतु (शिव) के पुत्र का चरित्र संक्षेप में ही कहा है। शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गाएँगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मंगलों में सदा सुख पाएँगे। दो० - चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु। गिरिजापति महादेव का चरित्र समुद्र के समान (अपार) है, उसका पार वेद भी नहीं पाते। तब अत्यंत मंदबुद्धि और गँवार तुलसीदास उसका वर्णन कैसे कर सकता है!॥ 103॥ संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुखु पावा॥ शिव के रसीले और सुहावने चरित्र को सुनकर मुनि भरद्वाज ने बहुत ही सुख पाया। कथा सुनने की उनकी लालसा बहुत बढ़ गई। नेत्रों में जल भर आया तथा रोमावली खड़ी हो गई। प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥ वे प्रेम में मुग्ध हो गए, मुख से वाणी नहीं निकल रही थी। उनकी यह दशा देखकर ज्ञानी मुनि याज्ञवल्क्य बहुत प्रसन्न हुए (और बोले -) हे मुनीश! अहा! तुम्हारा जन्म धन्य है, तुमको गौरीपति शिव प्राणों के समान प्रिय हैं। सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥ शिव के चरण कमलों में जिनकी प्रीति नहीं है, वे राम को स्वप्न में भी अच्छे नहीं लगते। विश्वनाथ शिव के चरणों में निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम होना यही रामभक्त का लक्षण है। सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥ शिव के समान रघुनाथ (की भक्ति) का व्रत धारण करनेवाला कौन है? जिन्होंने बिना ही पाप के सती जैसी स्त्री को त्याग दिया और प्रतिज्ञा करके रघुनाथ की भक्ति को दिखा दिया। हे भाई! राम को शिव के समान और कौन प्यारा है? दो० - प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार। मैंने पहले ही शिव का चरित्र कहकर तुम्हारा भेद समझ लिया। तुम राम के पवित्र सेवक हो और समस्त दोषों से रहित हो॥ 104॥ मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥ मैंने तुम्हारा गुण और शील जान लिया। अब मैं रघुनाथ की लीला कहता हूँ, सुनो। हे मुनि! सुनो, आज तुम्हारे मिलने से मेरे मन में जो आनंद हुआ है, वह कहा नहीं जा सकता। राम चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥ हे मुनीश्वर! रामचरित्र अत्यंत अपार है। सौ करोड़ शेष भी उसे नहीं कह सकते। तथापि जैसा मैंने सुना है, वैसा वाणी के स्वामी (प्रेरक) और हाथ में धनुष लिए हुए प्रभु राम का स्मरण करके कहता हूँ। सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥ सरस्वती कठपुतली के समान हैं और अंतर्यामी स्वामी राम (सूत पकड़कर कठपुतली को नचानेवाले) सूत्रधार हैं। अपना भक्त जानकर जिस कवि पर वे कृपा करते हैं, उसके हृदयरूपी आँगन में सरस्वती को वे नचाया करते हैं। प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥ उन्हीं कृपालु रघुनाथ को मैं प्रणाम करता हूँ और उन्हीं के निर्मल गुणों की कथा कहता हूँ। कैलास पर्वतों में श्रेष्ठ और बहुत ही रमणीय है, जहाँ शिव-पार्वती सदा निवास करते हैं। दो० - सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किंनर मुनिबृंद। सिद्ध, तपस्वी, योगीगण, देवता, किन्नर और मुनियों के समूह उस पर्वत पर रहते हैं। वे सब बड़े पुण्यात्मा हैं और आनंदकंद महादेव की सेवा करते हैं॥ 105॥ हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥ जो भगवान विष्णु और महादेव से विमुख हैं और जिनकी धर्म में प्रीति नहीं है, वे लोग स्वप्न में भी वहाँ नहीं जा सकते। उस पर्वत पर एक विशाल बरगद का पेड़ है, जो नित्य नवीन और सब काल (छहों ऋतुओं) में सुंदर रहता है। त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥ वहाँ तीनों प्रकार की (शीतल, मंद और सुगंध) वायु बहती रहती है और उसकी छाया बड़ी ठंडी रहती है। वह शिव के विश्राम करने का वृक्ष है, जिसे वेदों ने गाया है। एक बार प्रभु शिव उस वृक्ष के नीचे गए और उसे देखकर उनके हृदय में बहुत आनंद हुआ। निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठे सहजहिं संभु कृपाला॥ अपने हाथ से बाघंबर बिछाकर कृपालु शिव स्वभाव से ही (बिना किसी खास प्रयोजन के) वहाँ बैठ गए। कुंद के पुष्प, चंद्रमा और शंख के समान उनका गौर शरीर था। बड़ी लंबी भुजाएँ थीं और वे मुनियों के-से (वल्कल) वस्त्र धारण किए हुए थे। तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥ उनके चरण नए (पूर्ण रूप से खिले हुए) लाल कमल के समान थे, नखों की ज्योति भक्तों के हृदय का अंधकार हरनेवाली थी। साँप और भस्म ही उनके भूषण थे और उन त्रिपुरासुर के शत्रु शिव का मुख शरद (पूर्णिमा) के चंद्रमा की शोभा को भी हरनेवाला (फीकी करनेवाला) था। दो० - जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल। उनके सिर पर जटाओं का मुकुट और गंगा (शोभायमान) थीं। कमल के समान बड़े-बड़े नेत्र थे। उनका नील कंठ था और वे सुंदरता के भंडार थे। उनके मस्तक पर द्वितीया का चंद्रमा शोभित था॥ 106॥ बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥ कामदेव के शत्रु शिव वहाँ बैठे हुए ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो शांत रस ही शरीर धारण किए बैठा हो। अच्छा मौका जानकर शिवपत्नी माता पार्वती उनके पास गईं। जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥ अपनी प्यारी पत्नी जानकार शिव ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया और अपनी बाईं ओर बैठने के लिए आसन दिया। पार्वती प्रसन्न होकर शिव के पास बैठ गईं। उन्हें पिछले जन्म की कथा स्मरण हो आई। पति हियँ हेतु
अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥ स्वामी के हृदय में (अपने ऊपर पहले की अपेक्षा) अधिक प्रेम समझकर पार्वती हँसकर प्रिय वचन बोलीं। (याज्ञवल्क्य कहते हैं कि) जो कथा सब लोगों का हित करनेवाली है, उसे ही पार्वती पूछना चाहती हैं। बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥ (पार्वती ने कहा -) हे संसार के स्वामी! हे मेरे नाथ! हे त्रिपुरासुर का वध करनेवाले! आपकी महिमा तीनों लोकों में विख्यात है। चर, अचर, नाग, मनुष्य और देवता सभी आपके चरण कमलों की सेवा करते हैं। दो० - प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम। हे प्रभो! आप समर्थ, सर्वज्ञ और कल्याणस्वरूप हैं। सब कलाओं और गुणों के निधान हैं और योग, ज्ञान तथा वैराग्य के भंडार हैं। आपका नाम शरणागतों के लिए कल्पवृक्ष है॥ 107॥ जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥ हे सुख की राशि ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और सचमुच मुझे अपनी दासी (या अपनी सच्ची दासी) जानते हैं, तो हे प्रभो! आप रघुनाथ की नाना प्रकार की कथा कहकर मेरा अज्ञान दूर कीजिए। जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥ जिसका घर कल्पवृक्ष के नीचे हो, वह भला दरिद्रता से उत्पन्न दुःख को क्यों सहेगा? हे शशिभूषण! हे नाथ! हृदय में ऐसा विचार कर मेरी बुद्धि के भारी भ्रम को दूर कीजिए। प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥ हे प्रभो! जो परमार्थतत्त्व (ब्रह्म) के ज्ञाता और वक्ता मुनि हैं, वे राम को अनादि ब्रह्म कहते हैं और शेष, सरस्वती, वेद और पुराण सभी रघुनाथ का गुण गाते हैं। तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥ और हे कामदेव के शत्रु! आप भी दिन-रात आदरपूर्वक राम-राम जपा करते हैं - ये राम वही अयोध्या के राजा के पुत्र हैं? या अजन्मे, निर्गुण और अगोचर कोई और राम हैं? दो० - जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि। यदि वे राजपुत्र हैं तो ब्रह्म कैसे? (और यदि ब्रह्म हैं तो) स्त्री के विरह में उनकी मति बावली कैसे हो गई? इधर उनके ऐसे चरित्र देखकर और उधर उनकी महिमा सुनकर मेरी बुद्धि अत्यंत चकरा रही है॥ 108॥ जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥ यदि इच्छारहित, व्यापक, समर्थ ब्रह्म कोई और है, तो हे नाथ! मुझे उसे समझाकर कहिए। मुझे नादान समझकर मन में क्रोध न लाइए। जिस तरह मेरा मोह दूर हो, वही कीजिए। मैं बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥ मैंने (पिछले जन्म में) वन में राम की प्रभुता देखी थी, परंतु अत्यंत भयभीत होने के कारण मैंने वह बात आपको सुनाई नहीं। तो भी मेरे मलिन मन को बोध न हुआ। उसका फल भी मैंने अच्छी तरह पा लिया। अजहूँ कछु संसउ मन मोरें। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥ अब भी मेरे मन में कुछ संदेह है। आप कृपा कीजिए, मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ। हे प्रभो! आपने उस समय मुझे बहुत तरह से समझाया था (फिर भी मेरा संदेह नहीं गया), हे नाथ! यह सोचकर मुझ पर क्रोध न कीजिए। तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥ मुझे अब पहले जैसा मोह नहीं है, अब तो मेरे मन में रामकथा सुनने की रुचि है। हे शेषनाग को अलंकार रूप में धारण करनेवाले देवताओं के नाथ! आप राम के गुणों की पवित्र कथा कहिए। दो० - बंदउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि। मैं पृथ्वी पर सिर टेककर आपके चरणों की वंदना करती हूँ और हाथ जोड़कर विनती करती हूँ। आप वेदों के सिद्धांत को निचोड़कर रघुनाथ का निर्मल यश वर्णन कीजिए॥ 109॥ जदपि जोषिता नहिं अधिकारी।
दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥ यद्यपि स्त्री होने के कारण मैं उसे सुनने की अधिकारिणी नहीं हूँ, तथापि मैं मन, वचन और कर्म से आपकी दासी हूँ। संत लोग जहाँ आर्त अधिकारी पाते हैं, वहाँ गूढ़ तत्त्व भी उससे नहीं छिपाते। अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥ हे देवताओं के स्वामी! मैं बहुत ही आर्तभाव (दीनता) से पूछती हूँ, आप मुझ पर दया करके रघुनाथ की कथा कहिए। पहले तो वह कारण विचारकर बतलाइए, जिससे निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप धारण करता है॥ पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥ फिर हे प्रभु! राम के अवतार (जन्म) की कथा कहिए तथा उनका उदार बाल चरित्र कहिए। फिर जिस प्रकार उन्होंने जानकी से विवाह किया, वह कथा कहिए और फिर यह बतलाइए कि उन्होंने जो राज्य छोड़ा सो किस दोष से। बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥ हे नाथ! फिर उन्होंने वन में रहकर जो अपार चरित्र किए तथा जिस तरह रावण को मारा, वह कहिए। हे सुखस्वरूप शंकर! फिर आप उन सारी लीलाओं को कहिए जो उन्होंने राज्य (सिंहासन) पर बैठकर की थीं। दो० - बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम। हे कृपाधाम! फिर वह अद्भुत चरित्र कहिए जो राम ने किया - वे रघुकुल शिरोमणि प्रजा सहित किस प्रकार अपने धाम को गए?॥ 110॥ पुनि
प्रभु कहहु सो तत्त्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥ हे प्रभु! फिर आप उस तत्त्व को समझाकर कहिए, जिसकी अनुभूति में ज्ञानी मुनिगण सदा मग्न रहते हैं और फिर भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य का विभाग सहित वर्णन कीजिए। औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥ (इसके सिवा) राम के और भी जो अनेक रहस्य (छिपे हुए भाव अथवा चरित्र) हैं, उनको कहिए। हे नाथ! आपका ज्ञान अत्यंत निर्मल है। हे प्रभो! जो बात मैंने न भी पूछी हो, हे दयालु! उसे भी आप छिपा न रखिएगा। तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥ वेदों ने आपको तीनों लोकों का गुरु कहा है। दूसरे पामर जीव इस रहस्य को क्या जानें! पार्वती के सहज सुंदर और छलरहित (सरल) प्रश्न सुनकर शिव के मन को बहुत अच्छे लगे। हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥ महादेव के हृदय में सारे रामचरित्र आ गए। प्रेम के मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आया। रघुनाथ का रूप उनके हृदय में आ गया, जिससे स्वयं परमानंदस्वरूप शिव ने भी अपार सुख पाया। दो० - मगन ध्यान रस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह। शिव दो घड़ी तक ध्यान के रस (आनंद) में डूबे रहे, फिर उन्होंने मन को बाहर खींचा और तब वे प्रसन्न होकर रघुनाथ का चरित्र वर्णन करने लगे॥ 111॥
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥ जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है; और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है। बंदउँ बालरूप सोइ रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥ मैं उन्हीं राम के बाल रूप की वंदना करता हूँ, जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। मंगल के धाम, अमंगल के हरनेवाले और दशरथ के आँगन में खेलनेवाले (बालरूप) राम मुझ पर कृपा करें। करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥ त्रिपुरासुर का वध करनेवाले शिव राम को प्रणाम करके आनंद में भरकर अमृत के समान वाणी बोले - हे गिरिराजकुमारी पार्वती! तुम धन्य हो! धन्य हो!! तुम्हारे समान कोई उपकारी नहीं है। पूँछेहु रघुपति कथा
प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥ जो तुमने रघुनाथ की कथा का प्रसंग पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करनेवाली गंगा के समान है। तुमने जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम रघुनाथ के चरणों में प्रेम रखनेवाली हो। दो० - राम कृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं। हे पार्वती! मेरे विचार में तो राम की कृपा से तुम्हारे मन में स्वप्न में भी शोक, मोह, संदेह और भ्रम कुछ भी नहीं है॥ 112॥ तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥ फिर भी तुमने इसीलिए वही (पुरानी) शंका की है कि इस प्रसंग के कहने-सुनने से सबका कल्याण होगा। जिन्होंने अपने कानों से भगवान की कथा नहीं सुनी, उनके कानों के छिद्र साँप के बिल के समान हैं। नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥ जिन्होंने अपने नेत्रों से संतों के दर्शन नहीं किए, उनके वे नेत्र मोर के पंखों पर दिखनेवाली नकली आँखों की गिनती में हैं। वे सिर कड़वी तूँबी के समान हैं, जो हरि और गुरु के चरणतल पर नहीं झुकते। जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥ जिन्होंने भगवान की भक्ति को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुए ही मुर्दे के समान हैं। जो जीभ राम के गुणों का गान नहीं करती, वह मेढ़क की जीभ के समान है। कुलिस
कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥ वह हृदय वज्र के समान कड़ा और निष्ठुर है, जो भगवान के चरित्र सुनकर हर्षित नहीं होता। हे पार्वती! राम की लीला सुनो, यह देवताओं का कल्याण करनेवाली और दैत्यों को विशेष रूप से मोहित करनेवाली है। दो० - रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि। राम की कथा कामधेनु के समान सेवा करने से सब सुखों को देनेवाली है, और सत्पुरुषों के समाज ही सब देवताओं के लोक हैं, ऐसा जानकर इसे कौन न सुनेगा!॥ 113॥ रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी॥ राम की कथा हाथ की सुंदर ताली है, जो संदेहरूपी पक्षियों को उड़ा देती है। फिर रामकथा कलियुगरूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। हे गिरिराजकुमारी! तुम इसे आदरपूर्वक सुनो। राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥ वेदों ने राम के सुंदर नाम, गुण, चरित्र, जन्म और कर्म सभी अनगिनत कहे हैं। जिस प्रकार भगवान राम अनंत हैं, उसी तरह उनकी कथा, कीर्ति और गुण भी अनंत हैं। तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥ तो भी तुम्हारी अत्यंत प्रीति देखकर, जैसा कुछ मैंने सुना है और जैसी मेरी बुद्धि है, उसी के अनुसार मैं कहूँगा। हे पार्वती! तुम्हारा प्रश्न स्वाभाविक ही सुंदर, सुखदायक और संतसम्मत है और मुझे तो बहुत ही अच्छा लगा है। एक बात
नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥ परंतु हे पार्वती! एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि वह तुमने मोह के वश होकर ही कही है। तुमने जो यह कहा कि वे राम कोई और हैं, जिन्हें वेद गाते और मुनिजन जिनका ध्यान धरते हैं - । दो० - कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच। जो मोहरूपी पिशाच के द्वारा ग्रस्त हैं, पाखंडी हैं, भगवान के चरणों से विमुख हैं और जो झूठ-सच कुछ भी नहीं जानते, ऐसे अधम मनुष्य ही इस तरह कहते-सुनते हैं॥ 114॥ अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकुर मन लागी॥ जो अज्ञानी, मूर्ख, अंधे और भाग्यहीन हैं और जिनके मनरूपी दर्पण पर विषयरूपी काई जमी हुई है, जो व्यभिचारी, छली और बड़े कुटिल हैं और जिन्होंने कभी स्वप्न में भी संत समाज के दर्शन नहीं किए; कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥ और जिन्हें अपने लाभ-हानि नहीं सूझती, वे ही ऐसी वेदविरुद्ध बातें कहा करते हैं, जिनका हृदयरूपी दर्पण मैला है और जो नेत्रों से हीन हैं, वे बेचारे राम का रूप कैसे देखें! जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥ जिनको निर्गुण-सगुण का कुछ भी विवेक नहीं है, जो अनेक मनगढ़ंत बातें बका करते हैं, जो हरि की माया के वश में होकर जगत में (जन्म-मृत्यु के चक्र में) भ्रमते फिरते हैं, उनके लिए कुछ भी कह डालना असंभव नहीं है। बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥ जिन्हें वायु का रोग (सन्निपात, उन्माद आदि) हो गया हो, जो भूत के वश हो गए हैं और जो नशे में चूर हैं, ऐसे लोग विचारकर वचन नहीं बोलते। जिन्होंने महामोहरूपी मदिरा पी रखी है, उनके कहने पर कान नहीं देना चाहिए। सो० - अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद। अपने हृदय में ऐसा विचार कर संदेह छोड़ दो और राम के चरणों को भजो। हे पार्वती! भ्रमरूपी अंधकार के नाश करने के लिए सूर्य की किरणों के समान मेरे वचनों को सुनो!॥ 115॥ सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥ सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है - मुनि, पुराण, पंडित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है। जो गुन
रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥ जो निर्गुण है वही सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले में भेद नहीं। (दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं।) जिसका नाम भ्रमरूपी अंधकार के मिटाने के लिए सूर्य है, उसके लिए मोह का प्रसंग भी कैसे कहा जा सकता है? राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥ राम सच्चिदानंदस्वरूप सूर्य हैं। वहाँ मोहरूपी रात्रि का लवलेश भी नहीं है। वे स्वभाव से ही प्रकाश रूप और (षडैश्वर्ययुक्त) भगवान है, वहाँ तो विज्ञानरूपी प्रातःकाल भी नहीं होता (अज्ञानरूपी रात्रि हो तब तो विज्ञानरूपी प्रातःकाल हो; भगवान तो नित्य ज्ञानस्वरूप हैं)। हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥ हर्ष, शोक, ज्ञान, अज्ञान, अहंता और अभिमान - ये सब जीव के धर्म हैं। राम तो व्यापक ब्रह्म, परमानंदस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं। इस बात को सारा जगत जानता है। दो० - पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ। जो (पुराण) पुरुष प्रसिद्ध हैं, प्रकाश के भंडार हैं, सब रूपों में प्रकट हैं, जीव, माया और जगत सबके स्वामी हैं, वे ही रघुकुल मणि राम मेरे स्वामी हैं - ऐसा कहकर शिव ने उनको मस्तक नवाया॥ 116॥ निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥ अज्ञानी मनुष्य अपने भ्रम को तो समझते नहीं और वे मूर्ख प्रभु राम पर उसका आरोप करते हैं, जैसे आकाश में बादलों का परदा देखकर कुविचारी (अज्ञानी) लोग कहते हैं कि बादलों ने सूर्य को ढँक लिया। चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥ जो मनुष्य आँख में उँगली लगाकर देखता है, उसके लिए तो दो चंद्रमा प्रकट (प्रत्यक्ष) हैं। हे पार्वती! राम के विषय में इस प्रकार मोह की कल्पना करना वैसा ही है, जैसा आकाश में अंधकार, धुएँ और धूल का सोहना (दिखना)। (आकाश जैसे निर्मल और निर्लेप है, उसको कोई मलिन या स्पर्श नहीं कर सकता, इसी प्रकार भगवान राम नित्य निर्मल और निर्लेप हैं।) बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥ विषय, इंद्रियाँ, इंद्रियों के देवता और जीवात्मा - ये सब एक की सहायता से एक चेतन होते हैं। (अर्थात विषयों का प्रकाश इंद्रियों से, इंद्रियों का इंद्रियों के देवताओं से और इंद्रिय-देवताओं का चेतन जीवात्मा से प्रकाश होता है।) इन सबका जो परम प्रकाशक है (अर्थात जिससे इन सबका प्रकाश होता है), वही अनादि ब्रह्म अयोध्या नरेश राम हैं। जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥ यह जगत प्रकाश्य है और राम इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य-सी भासित होती है। दो० - रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि। जैसे सीप में चाँदी की और सूर्य की किरणों में पानी की (बिना हुए भी) प्रतीति होती है। यद्यपि यह प्रतीति तीनों कालों में झूठ है, तथापि इस भ्रम को कोई हटा नहीं सकता॥ 117॥ एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥ इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता। जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई।
गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥ हे पार्वती! जिनकी कृपा से इस प्रकार का भ्रम मिट जाता है, वही कृपालु रघुनाथ हैं। जिनका आदि और अंत किसी ने नहीं (जान) पाया। वेदों ने अपनी बुद्धि से अनुमान करके इस प्रकार (नीचे लिखे अनुसार) गाया है - बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥ वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिह्वा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना वाणी के बहुत योग्य वक्ता है। तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥ वह बिना शरीर (त्वचा) के ही स्पर्श करता है, आँखों के बिना ही देखता है और बिना नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है (सूँघता है)। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती। दो० - जेहि इमि गावहिं
बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान। जिसका वेद और पंडित इस प्रकार वर्णन करते हैं और मुनि जिसका ध्यान धरते हैं, वही दशरथनंदन, भक्तों के हितकारी, अयोध्या के स्वामी भगवान राम हैं॥ 118॥ कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥ (हे पार्वती!) जिनके नाम के बल से काशी में मरते हुए प्राणी को देखकर मैं उसे (राम मंत्र देकर) शोकरहित कर देता हूँ (मुक्त कर देता हूँ), वही मेरे प्रभु रघुश्रेष्ठ राम जड़-चेतन के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जाननेवाले हैं। बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥ विवश होकर (बिना इच्छा के) भी जिनका नाम लेने से मनुष्यों के अनेक जन्मों में किए हुए पाप जल जाते हैं। फिर जो मनुष्य आदरपूर्वक उनका स्मरण करते हैं, वे तो संसाररूपी (दुस्तर) समुद्र को गाय के खुर से बने हुए गड्ढे के समान (अर्थात बिना किसी परिश्रम के) पार कर जाते हैं। राम सो
परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥ हे पार्वती! वही परमात्मा राम हैं। उनमें भ्रम (देखने में आता) है, तुम्हारा ऐसा कहना अत्यंत ही अनुचित है। इस प्रकार का संदेह मन में लाते ही मनुष्य के ज्ञान, वैराग्य आदि सारे सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥ शिव के भ्रमनाशक वचनों को सुनकर पार्वती के सब कुतर्कों की रचना मिट गई। रघुनाथ के चरणों में उनका प्रेम और विश्वास हो गया और कठिन असंभावना (जिसका होना सम्भव नहीं, ऐसी मिथ्या कल्पना) जाती रही! दो० - पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि। बार- बार स्वामी (शिव) के चरणकमलों को पकड़कर और अपने कमल के समान हाथों को जोड़कर पार्वती मानो प्रेमरस में सानकर सुंदर वचन बोलीं॥ 119॥ ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥ आपकी चंद्रमा की किरणों के समान शीतल वाणी सुनकर मेरा अज्ञानरूपी शरद-ऋतु (क्वार) की धूप का भारी ताप मिट गया। हे कृपालु! आपने मेरा सब संदेह हर लिया, अब राम का यथार्थ स्वरूप मेरी समझ में आ गया। नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥ हे नाथ! आपकी कृपा से अब मेरा विषाद जाता रहा और आपके चरणों के अनुग्रह से मैं सुखी हो गई। यद्यपि मैं स्त्री होने के कारण स्वभाव से ही मूर्ख और ज्ञानहीन हूँ, तो भी अब आप मुझे अपनी दासी जानकर - प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥ हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो जो बात मैंने पहले आपसे पूछी थी, वही कहिए। (यह सत्य है कि) राम ब्रह्म हैं, चिन्मय (ज्ञानस्वरूप) हैं, अविनाशी हैं, सबसे रहित और सबके हृदयरूपी नगरी में निवास करनेवाले हैं। नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥ फिर हे नाथ! उन्होंने मनुष्य का शरीर किस कारण से धारण किया? हे धर्म की ध्वजा धारण करनेवाले प्रभो! यह मुझे समझाकर कहिए। पार्वती के अत्यंत नम्र वचन सुनकर और राम की कथा में उनका विशुद्ध प्रेम देखकर - दो० - हियँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान। तब कामदेव के शत्रु, स्वाभाविक ही सुजान, कृपा-निधान शिव मन में बहुत ही हर्षित हुए और बहुत प्रकार से पार्वती की बड़ाई करके फिर बोले - ॥ 120(क)॥
सो० - सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल। हे पार्वती! निर्मल रामचरितमानस की वह मंगलमयी कथा सुनो जिसे काकभुशुंडि ने विस्तार से कहा और पक्षियों के राजा गरुड़ ने सुना था॥ 120(ख)॥ सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब। वह श्रेष्ठ संवाद जिस प्रकार हुआ, वह मैं आगे कहूँगा। अभी तुम राम के अवतार का परम सुंदर और पवित्र (पापनाशक) चरित्र सुनो॥ 120(ग)॥
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित। हरि के गुण, मान, कथा और रूप सभी अपार, अगणित और असीम हैं। फिर भी हे पार्वती! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहता हूँ, तुम आदरपूर्वक सुनो॥ 120(घ)॥ सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥ हे पार्वती! सुनो, वेद-शास्त्रों ने हरि के सुंदर, विस्तृत और निर्मल चरित्रों का गान किया है। हरि का अवतार जिस कारण से होता है, वह कारण 'बस यही है' ऐसा नहीं कहा जा सकता (अनेकों कारण हो सकते हैं और ऐसे भी हो सकते हैं, जिन्हें कोई जान ही नहीं सकता)। राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥ हे सयानी! सुनो, हमारा मत तो यह है कि बुद्धि, मन और वाणी से राम की तर्कना नहीं की जा सकती। तथापि संत, मुनि, वेद और पुराण अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार जैसा कुछ कहते हैं। तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन
मोही॥ और जैसा कुछ मेरी समझ में आता है, हे सुमुखि! वही कारण मैं तुमको सुनाता हूँ। जब-जब धर्म का ह्रास होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं। करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥ और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गो, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति के (दिव्य) शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं। दो० - असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु। वे असुरों को मारकर देवताओं को स्थापित करते हैं, अपने (श्वास रूप) वेदों की मर्यादा की रक्षा करते हैं और जगत में अपना निर्मल यश फैलाते हैं। राम के अवतार का यह कारण है॥ 121॥ सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥ उसी यश को गा-गाकर भक्तजन भवसागर से तर जाते हैं। कृपासागर भगवान भक्तों के हित के लिए शरीर धारण करते हैं। राम के जन्म लेने के अनेक कारण हैं, जो एक-से-एक बढ़कर विचित्र हैं। जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥ हे सुंदर बुद्धिवाली भवानी! मैं उनके दो-एक जन्मों का विस्तार से वर्णन करता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो। हरि के जय और विजय दो प्यारे द्वारपाल हैं, जिनको सब कोई जानते हैं। बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह
तिन्ह पाई॥ उन दोनों भाइयों ने ब्राह्मण (सनकादि) के शाप से असुरों का तामसी शरीर पाया। एक का नाम था हिरण्यकशिपु और दूसरे का हिरण्याक्ष। ये देवराज इंद्र के गर्व को छुड़ानेवाले सारे जगत में प्रसिद्ध हुए। बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥ वे युद्ध में विजय पानेवाले विख्यात वीर थे। इनमें से एक (हिरण्याक्ष) को भगवान ने वराह (सूअर) का शरीर धारण करके मारा, फिर दूसरे (हिरण्यकशिपु) का नरसिंह रूप धारण करके वध किया और अपने भक्त प्रह्लाद का सुंदर यश फैलाया। दो० - भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान। वे ही (दोनों) जाकर देवताओं को जीतनेवाले तथा बड़े योद्धा, रावण और कुंभकर्ण नामक बड़े बलवान और महावीर राक्षस हुए, जिन्हें सारा जगत जानता है॥ 122॥ मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥ भगवान के द्वारा मारे जाने पर भी वे (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) इसीलिए मुक्त नहीं हुए कि ब्राह्मण के वचन (शाप) का प्रमाण तीन जन्म के लिए था। अतः एक बार उनके कल्याण के लिए भक्तप्रेमी भगवान ने फिर अवतार लिया। कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥ वहाँ (उस अवतार में) कश्यप और अदिति उनके माता-पिता हुए, जो दशरथ और कौसल्या के नाम से प्रसिद्ध थे। एक कल्प में इस प्रकार अवतार लेकर उन्होंने संसार में पवित्र लीलाएँ कीं। एक
कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥ एक कल्प में सब देवताओं को जलंधर दैत्य से युद्ध में हार जाने के कारण दुःखी देखकर शिव ने उसके साथ बड़ा घोर युद्ध किया, पर वह महाबली दैत्य मारे नहीं मरता था। परम सती असुराधिप नारी। तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी॥ उस दैत्यराज की स्त्री परम सती (बड़ी ही पतिव्रता) थी। उसी के प्रताप से त्रिपुरासुर (जैसे अजेय शत्रु) का विनाश करनेवाले शिव भी उस दैत्य को नहीं जीत सके। दो०
- छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह। प्रभु ने छल से उस स्त्री का व्रत भंग कर देवताओं का काम किया। जब उस स्त्री ने यह भेद जाना, तब उसने क्रोध करके भगवान को शाप दिया॥ 123॥ तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥ लीलाओं के भंडार कृपालु हरि ने उस स्त्री के शाप को प्रामाण्य दिया (स्वीकार किया)। वही जलंधर उस कल्प में रावण हुआ, जिसे राम ने युद्ध में मारकर परमपद दिया। एक जनम कर कारन एहा। जेहि लगि राम धरी नरदेहा॥ एक जन्म का कारण यह था, जिससे राम ने मनुष्य देह धारण किया। हे भरद्वाज मुनि! सुनो, प्रभु के प्रत्येक अवतार की कथा का कवियों ने नाना प्रकार से वर्णन किया है। नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥ एक बार नारद ने शाप दिया, अतः एक कल्प में उसके लिए अवतार हुआ। यह बात सुनकर पार्वती बड़ी चकित हुईं (और बोलीं कि) नारद तो विष्णु भक्त और ज्ञानी हैं। कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥ मुनि ने भगवान को शाप किस कारण से दिया। लक्ष्मीपति भगवान ने उनका क्या अपराध किया था? हे पुरारि (शंकर)! यह कथा मुझसे कहिए। मुनि नारद के मन में मोह होना बड़े आश्चर्य की बात है। दो० - बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ। तब महादेव ने हँसकर कहा - न कोई ज्ञानी है न मूर्ख। रघुनाथ जब जिसको जैसा करते हैं, वह उसी क्षण वैसा ही हो जाता है॥ 124(क)॥ सो० - कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु। (याज्ञवल्क्य कहते हैं -) हे भरद्वाज! मैं राम के गुणों की कथा कहता हूँ, तुम आदर से सुनो। तुलसीदास कहते हैं - मान और मद को छोड़कर आवागमन का नाश करनेवाले रघुनाथ को भजो॥ 124(ख)॥ हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप
सुरसरी सुहावनि॥ हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उसके समीप ही सुंदर गंगा बहती थीं। वह परम पवित्र सुंदर आश्रम देखने पर नारद के मन को बहुत ही सुहावना लगा। निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥ पर्वत, नदी और वन के (सुंदर) विभागों को देखकर नादर का लक्ष्मीकांत भगवान के चरणों में प्रेम हो गया। भगवान का स्मरण करते ही उन (नारद मुनि) के शाप की (जो शाप उन्हें दक्ष प्रजापति ने दिया था और जिसके कारण वे एक स्थान पर नहीं ठहर सकते थे) गति रुक गई और मन के स्वाभाविक ही निर्मल होने से उनकी समाधि लग गई। मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह सनमाना॥ नारद मुनि की (यह तपोमयी) स्थिति देखकर देवराज इंद्र डर गया। उसने कामदेव को बुलाकर उसका आदर-सत्कार किया (और कहा कि) मेरे (हित के) लिए तुम अपने सहायकों सहित (नारद की समाधि भंग करने को) जाओ। (यह सुनकर) मीनध्वज कामदेव मन में प्रसन्न होकर चला। सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥ इंद्र के मन में यह डर हुआ कि देवर्षि नारद मेरी पुरी (अमरावती) का निवास (राज्य) चाहते हैं। जगत में जो कामी और लोभी होते हैं, वे कुटिल कौए की तरह सबसे डरते हैं। दो० - सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज। जैसे मूर्ख कुत्ता सिंह को देखकर सूखी हड्डी लेकर भागे और वह मूर्ख यह समझे कि कहीं उस हड्डी को सिंह छीन न ले, वैसे ही इंद्र को (नारद मेरा राज्य छीन लेंगे, ऐसा सोचते) लाज नहीं आई॥ 125॥ तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥ जब कामदेव उस आश्रम में गया, तब उसने अपनी माया से वहाँ वसंत ऋतु को उत्पन्न किया। तरह-तरह के वृक्षों पर रंग-बिरंगे फूल खिल गए, उन पर कोयलें कूकने लगीं और भौंरे गुंजार करने लगे। चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु
बढ़ावनिहारी॥ कामाग्नि को भड़कानेवाली तीन प्रकार की (शीतल, मंद और सुगंध) सुहावनी हवा चलने लगी। रंभा आदि नवयुवती देवांगनाएँ, जो सब की सब कामकला में निपुण थीं, करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हिं पानि पतंगा॥ बहुत प्रकार की तानों की तरंग के साथ गाने लगीं और हाथ में गेंद लेकर नाना प्रकार के खेल खेलने लगीं। कामदेव अपने इन सहायकों को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और फिर उसने नाना प्रकार के मायाजाल किए। काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥ परंतु कामदेव की कोई भी कला मुनि पर असर न कर सकी। तब तो पापी कामदेव अपने ही (नाश के) भय से डर गया। लक्ष्मीपति भगवान जिसके बड़े रक्षक हों, भला, उसकी सीमा (मर्यादा) को कोई दबा सकता है? दो० - सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन। तब अपने सहायकों समेत कामदेव ने बहुत डरकर और अपने मन में हार मानकर बहुत ही आर्त (दीन) वचन कहते हुए मुनि के चरणों को जा पकड़ा॥ 126॥ भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥ नारद के मन में कुछ भी क्रोध न आया। उन्होंने प्रिय वचन कहकर कामदेव का समाधान किया। तब मुनि के चरणों में सिर नवाकर और उनकी आज्ञा पाकर कामदेव अपने सहायकों सहित लौट गया। मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥ देवराज इंद्र की सभा में जाकर उसने मुनि की सुशीलता और अपनी करतूत सब कही, जिसे सुनकर सबके मन में आश्चर्य हुआ और उन्होंने मुनि की बड़ाई करके हरि को सिर नवाया। तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥ तब नारद शिव के पास गए। उनके मन में इस बात का अहंकार हो गया कि हमने कामदेव को जीत लिया। उन्होंने कामदेव के चरित्र शिव को सुनाए और महादेव ने उन (नारद) को अत्यंत प्रिय जानकर (इस प्रकार) शिक्षा दी - बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥ हे मुनि! मैं तुमसे बार-बार विनती करता हूँ कि जिस तरह यह कथा तुमने मुझे सुनाई है, उस तरह भगवान हरि को कभी मत सुनाना। चर्चा चले तब भी इसको छिपा जाना। दो० - संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान। यद्यपि शिव ने यह हित की शिक्षा दी, पर नारद को वह अच्छी न लगी। हे भरद्वाज! अब कौतुक (तमाशा) सुनो। हरि की इच्छा बड़ी बलवान है॥ 127॥ राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥ राम जो करना चाहते हैं, वही होता है, ऐसा कोई नहीं जो उसके विरुद्ध कर सके। शिव के वचन नारद के मन को अच्छे नहीं लगे, तब वे वहाँ से ब्रह्मलोक को चल दिए। एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥ एक बार गानविद्या में निपुण मुनिनाथ नारद हाथ में सुंदर वीणा लिए, हरिगुण गाते हुए क्षीरसागर को गए, जहाँ वेदों के मस्तकस्वरूप (मूर्तिमान वेदांतत्त्व) लक्ष्मी निवास भगवान नारायण रहते हैं। हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥ रमानिवास भगवान उठकर बड़े आनंद से उनसे मिले और ऋषि (नारद) के साथ आसन पर बैठ गए। चराचर के स्वामी भगवान हँसकर बोले - हे मुनि! आज आपने बहुत दिनों पर दया की। काम चरित नारद सब भाषे।
जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥ यद्यपि शिव ने उन्हें पहले से ही बरज रखा था, तो भी नारद ने कामदेव का सारा चरित्र भगवान को कह सुनाया। रघुनाथ की माया बड़ी ही प्रबल है। जगत में ऐसा कौन जन्मा है, जिसे वे मोहित न कर दें। दो० - रूख बदन करि बचन मृदु बोलेभगवान। भगवान रूखा मुँह करके कोमल वचन बोले - हे मुनिराज! आपका स्मरण करने से दूसरों के मोह, काम, मद और अभिमान मिट जाते हैं (फिर आपके लिए तो कहना ही क्या है?)॥ 128॥ सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥ हे मुनि! सुनिए, मोह तो उसके मन में होता है, जिसके हृदय में ज्ञान-वैराग्य नहीं है। आप तो ब्रह्मचर्य व्रत में तत्पर और बड़े धीर बुद्धि हैं। भला, कहीं आपको भी कामदेव सता सकता है? नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥ नारद ने अभिमान के साथ कहा - भगवन! यह सब आपकी कृपा है। करुणानिधान भगवान ने मन में विचारकर देखा कि इनके मन में गर्व के भारी वृक्ष का अंकुर पैदा हो गया है। बेगि सो मैं डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥ मैं उसे तुरंत ही उखाड़ फेंकूँगा, क्योंकि सेवकों का हित करना हमारा प्रण है। मैं अवश्य ही वह उपाय करूँगा, जिससे मुनि का कल्याण और मेरा खेल हो। तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥ तब नारद भगवान के चरणों में सिर नवाकर चले। उनके हृदय में अभिमान और भी बढ़ गया। तब लक्ष्मीपति भगवान ने अपनी माया को प्रेरित किया। अब उसकी कठिन करनी सुनो। दो० - बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार। उस (हरिमाया) ने रास्ते में सौ योजन (चार सौ कोस) का एक नगर रचा। उस नगर की भाँति-भाँति की रचनाएँ लक्ष्मीनिवास भगवान विष्णु के नगर (बैकुंठ) से भी अधिक सुंदर थीं॥ 129॥ बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥ उस नगर में ऐसे सुंदर नर-नारी बसते थे, मानो बहुत-से कामदेव और (उसकी स्त्री) रति ही मनुष्य शरीर धारण किए हुए हों। उस नगर में शीलनिधि नाम का राजा रहता था, जिसके यहाँ असंख्य घोड़े, हाथी और सेना के समूह (टुकड़ियाँ) थे। सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥ उसका वैभव और विलास सौ इंद्रों के समान था। वह रूप, तेज, बल और नीति का घर था। उसके विश्वमोहिनी नाम की एक (ऐसी रूपवती) कन्या थी, जिसके रूप को देखकर लक्ष्मी भी मोहित हो जाएँ। सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥ वह सब गुणों की खान भगवान की माया ही थी। उसकी शोभा का वर्णन कैसे किया जा सकता है। वह राजकुमारी स्वयंवर करना चाहती थी, इससे वहाँ अगणित राजा आए हुए थे। मुनि कौतुकी नगर तेहि गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥ खिलवाड़ी मुनि नारद उस नगर में गए और नगरवासियों से उन्होंने सब हाल पूछा। सब समाचार सुनकर वे राजा के महल में आए। राजा ने पूजा करके मुनि को (आसन पर) बैठाया। दो० - आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि। (फिर) राजा ने राजकुमारी को लाकर नारद को दिखलाया (और पूछा कि -) हे नाथ! आप अपने हृदय में विचार कर इसके सब गुण-दोष कहिए॥ 130॥ देखि रूप मुनि बिरति बिसारी।
बड़ी बार लगि रहे निहारी॥ उसके रूप को देखकर मुनि वैराग्य भूल गए और बड़ी देर तक उसकी ओर देखते ही रह गए। उसके लक्षण देखकर मुनि अपने आपको भी भूल गए और हृदय में हर्षित हुए, पर प्रकट रूप में उन लक्षणों को नहीं कहा। जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥ (लक्षणों को सोचकर वे मन में कहने लगे कि) जो इसे ब्याहेगा, वह अमर हो जाएगा और रणभूमि में कोई उसे जीत न सकेगा। यह शीलनिधि की कन्या जिसको वरेगी, सब चर-अचर जीव उसकी सेवा करेंगे। लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥ सब लक्षणों को विचारकर मुनि ने अपने हृदय में रख लिया और राजा से कुछ अपनी ओर से बनाकर कह दिए। राजा से लड़की के सुलक्षण कहकर नारद चल दिए। पर उनके मन में यह चिंता थी कि - करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥ मैं जाकर सोच-विचारकर अब वही उपाय करूँ, जिससे यह कन्या मुझे ही वरे। इस समय जप-तप से तो कुछ हो नहीं सकता। हे विधाता! मुझे यह कन्या किस तरह मिलेगी? दो० - एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल। इस समय तो बड़ी भारी शोभा और विशाल (सुंदर) रूप चाहिए, जिसे देखकर राजकुमारी मुझ पर रीझ जाए और तब जयमाल (मेरे गले में) डाल दे॥ 131॥ हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥ (एक काम करूँ कि) भगवान से सुंदरता माँगूँ; पर भाई! उनके पास जाने में तो बहुत देर हो जाएगी। किंतु हरि के समान मेरा हितू भी कोई नहीं है, इसलिए इस समय वे ही मेरे सहायक हों। बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥ उस समय नारद ने भगवान की बहुत प्रकार से विनती की। तब लीलामय कृपालु प्रभु (वहीं) प्रकट हो गए। स्वामी को देखकर नारद के नेत्र शीतल हो गए और वे मन में बड़े ही हर्षित हुए कि अब तो काम बन ही जाएगा। अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥ नारद ने बहुत आर्त (दीन) होकर सब कथा कह सुनाई (और प्रार्थना की कि) कृपा कीजिए और कृपा करके मेरे सहायक बनिए। हे प्रभो! आप अपना रूप मुझको दीजिए, अन्य किसी प्रकार से मैं उस (राजकन्या) को नहीं पा सकता। जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥ हे नाथ! जिस तरह मेरा हित हो, आप वही शीघ्र कीजिए। मैं आपका दास हूँ। अपनी माया का विशाल बल देख दीनदयालु भगवान मन-ही-मन हँसकर बोले - दो० - जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार। हे नारद! सुनो, जिस प्रकार आपका परम हित होगा, हम वही करेंगे, दूसरा कुछ नहीं। हमारा वचन असत्य नहीं होता॥ 132॥ कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥ हे योगी मुनि! सुनिए, रोग से व्याकुल रोगी कुपथ्य माँगे तो वैद्य उसे नहीं देता। इसी प्रकार मैंने भी तुम्हारा हित करने की ठान ली है। ऐसा कहकर भगवान अंतर्धान हो गए। माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥ (भगवान की) माया के वशीभूत हुए मुनि ऐसे मूढ़ हो गए कि वे भगवान की अगूढ़ (स्पष्ट) वाणी को भी न समझ सके। ऋषिराज नारद तुरंत वहाँ गए जहाँ स्वयंवर की भूमि बनाई गई थी। निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित
समाजा॥ राजा लोग खूब सज-धजकर समाज सहित अपने-अपने आसन पर बैठे थे। मुनि (नारद) मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे थे कि मेरा रूप बड़ा सुंदर है, मुझे छोड़ कन्या भूलकर भी दूसरे को न वरेगी। मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥ कृपानिधान भगवान ने मुनि के कल्याण के लिए उन्हें ऐसा कुरूप बना दिया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता, पर यह चरित कोई भी न जान सका। सबने उन्हें नारद ही जानकर प्रणाम किया। दो० - रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ। वहाँ शिव के दो गण भी थे। वे सब भेद जानते थे और ब्राह्मण का वेष बनाकर सारी लीला देखते-फिरते थे। वे भी बड़े मौजी थे॥ 133॥ जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥ नारद अपने हृदय में रूप का बड़ा अभिमान लेकर जिस समाज (पंक्ति) में जाकर बैठे थे, ये शिव के दोनों गण भी वहीं बैठ गए। ब्राह्मण के वेष में होने के कारण उनकी इस चाल को कोई न जान सका। करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥ वे नारद को सुना-सुनाकर, व्यंग्य वचन कहते थे - भगवान ने इनको अच्छी 'सुंदरता' दी है। इनकी शोभा देखकर राजकुमारी रीझ ही जाएगी और 'हरि' (वानर) जानकर इन्हीं को खास तौर से वरेगी। मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥ नारद मुनि को मोह हो रहा था, क्योंकि उनका मन दूसरे के हाथ (माया के वश) में था। शिव के गण बहुत प्रसन्न होकर हँस रहे थे। यद्यपि मुनि उनकी अटपटी बातें सुन रहे थे, पर बुद्धि भ्रम में सनी हुई होने के कारण वे बातें उनकी समझ में नहीं आती थीं (उनकी बातों को वे अपनी प्रशंसा समझ रहे थे)। काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥ इस विशेष चरित को और किसी ने नहीं जाना, केवल राजकन्या ने (नारद का) वह रूप देखा। उनका बंदर का-सा मुँह और भयंकर शरीर देखते ही कन्या के हृदय में क्रोध उत्पन्न हो गया। दो० - सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल। तब राजकुमारी सखियों को साथ लेकर इस तरह चली मानो राजहंसिनी चल रही है। वह अपने कमल जैसे हाथों में जयमाला लिए सब राजाओं को देखती हुई घूमने लगी॥ 134॥ जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेहिं न बिलोकी भूली॥ जिस ओर नारद (रूप के गर्व में) फूले बैठे थे, उस ओर उसने भूलकर भी नहीं ताका। नारद मुनि बार-बार उचकते और छटपटाते हैं। उनकी दशा देखकर शिव के गण मुसकराते हैं। धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥ कृपालु भगवान भी राजा का शरीर धारण कर वहाँ जा पहुँचे। राजकुमारी ने हर्षित होकर उनके गले में जयमाला डाल दी। लक्ष्मीनिवास भगवान दुलहिन को ले गए। सारी राजमंडली निराश हो गई। मुनि अति बिकल मोहँ मति नाठी। मनि गिरि गई
छूटि जनु गाँठी॥ मोह के कारण मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई थी, इससे वे (राजकुमारी को गई देख) बहुत ही विकल हो गए। मानो गाँठ से छूटकर मणि गिर गई हो। तब शिव के गणों ने मुसकराकर कहा - जाकर दर्पण में अपना मुँह तो देखिए! अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥ ऐसा कहकर वे दोनों बहुत भयभीत होकर भागे। मुनि ने जल में झाँककर अपना मुँह देखा। अपना रूप देखकर उनका क्रोध बहुत बढ़ गया। उन्होंने शिव के उन गणों को अत्यंत कठोर शाप दिया - दो० - होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ। तुम दोनों कपटी और पापी जाकर राक्षस हो जाओ। तुमने हमारी हँसी की, उसका फल चखो। अब फिर किसी मुनि की हँसी करना॥ 135॥ पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥ मुनि ने फिर जल में देखा, तो उन्हें अपना (असली) रूप प्राप्त हो गया, तब भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। उनके होठ फड़क रहे थे और मन में क्रोध (भरा) था। तुरंत ही वे भगवान कमलापति के पास चले। देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोरि उपहास कराई॥ (मन में सोचते जाते थे -) जाकर या तो शाप दूँगा या प्राण दे दूँगा। उन्होंने जगत में मेरी हँसी कराई। दैत्यों के शत्रु भगवान हरि उन्हें बीच रास्ते में ही मिल गए। साथ में लक्ष्मी और वही राजकुमारी थीं। बोले मधुर बचन सुरसाईं।
मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥ देवताओं के स्वामी भगवान ने मीठी वाणी में कहा - हे मुनि! व्याकुल की तरह कहाँ चले? ये शब्द सुनते ही नारद को बड़ा क्रोध आया, माया के वशीभूत होने के कारण मन में चेत नहीं रहा। पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥ (मुनि ने कहा -) तुम दूसरों की संपदा नहीं देख सकते, तुममें ईर्ष्या और कपट बहुत है। समुद्र मथते समय तुमने शिव को बावला बना दिया और देवताओं को प्रेरित करके उन्हें विषपान कराया। दो० - असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु। असुरों को मदिरा और शिव को विष देकर तुमने स्वयं लक्ष्मी और सुंदर (कौस्तुभ) मणि ले ली। तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। सदा कपट का व्यवहार करते हो॥ 136॥ परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥ तुम परम स्वतंत्र हो, सिर पर तो कोई है नहीं, इससे जब जो मन को भाता है, (स्वच्छंदता से) वही करते हो। भले को बुरा और बुरे को भला कर देते हो। हृदय में हर्ष-विषाद कुछ भी नहीं लाते। डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥ सबको ठग-ठगकर परक गए हो और अत्यंत निडर हो गए हो, इसी से (ठगने के काम में) मन में सदा उत्साह रहता है। शुभ-अशुभ कर्म तुम्हें बाधा नहीं देते। अब तक तुम्हें किसी ने ठीक नहीं किया था। भले
भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥ अबकी तुमने अच्छे घर बैना दिया है (मेरे जैसे जबरदस्त आदमी से छेड़खानी की है)। अतः अपने किए का फल अवश्य पाओगे। जिस शरीर को धारण करके तुमने मुझे ठगा है, तुम भी वही शरीर धारण करो, यह मेरा शाप है। कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥ तुमने हमारा रूप बंदर का-सा बना दिया था, इससे बंदर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। (मैं जिस स्त्री को चाहता था, उससे मेरा वियोग कराकर) तुमने मेरा बड़ा अहित किया है, इससे तुम भी स्त्री के वियोग में दुःखी होगे। दो० - श्राप सीस धरि हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि॥ शाप को सिर पर चढ़ाकर, हृदय में हर्षित होते हुए प्रभु ने नारद से बहुत विनती की और कृपानिधान भगवान ने अपनी माया की प्रबलता खींच ली॥ 137॥ जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥ जब भगवान ने अपनी माया को हटा लिया, तब वहाँ न लक्ष्मी ही रह गईं, न राजकुमारी ही। तब मुनि ने अत्यंत भयभीत होकर हरि के चरण पकड़ लिए और कहा - हे शरणागत के दुःखों को हरनेवाले! मेरी रक्षा कीजिए। मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥ हे कृपालु! मेरा शाप मिथ्या हो जाए। तब दीनों पर दया करनेवाले भगवान ने कहा कि यह सब मेरी ही इच्छा (से हुआ) है। मुनि ने कहा - मैंने आप को अनेक खोटे वचन कहे हैं। मेरे पाप कैसे मिटेंगे? जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरत बिश्रामा॥ (भगवान ने कहा -) जाकर शंकर के शतनाम का जप करो, इससे हृदय में तुरंत शांति होगी। शिव के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, इस विश्वास को भूलकर भी न छोड़ना। जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥ हे मुनि ! पुरारि (शिव) जिस पर कृपा नहीं करते, वह मेरी भक्ति नहीं पाता। हृदय में ऐसा निश्चय करके जाकर पृथ्वी पर विचरो। अब मेरी माया तुम्हारे निकट नहीं आएगी। दो० - बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान। बहुत प्रकार से मुनि को समझा-बुझाकर (ढाढ़स देकर) तब प्रभु अंतर्धान हो गए और नारद राम के गुणों का गान करते हुए सत्य लोक (ब्रह्मलोक) को चले॥ 138॥ हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगत मोह मन हरष बिसेषी॥ शिव के गणों ने जब मुनि को मोहरहित और मन में बहुत प्रसन्न होकर मार्ग में जाते हुए देखा तब वे अत्यंत भयभीत होकर नारद के पास आए और उनके चरण पकड़कर दीन वचन बोले - हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥ हे मुनिराज! हम ब्राह्मण नहीं हैं, शिव के गण हैं। हमने बड़ा अपराध किया, जिसका फल हमने पा लिया। हे कृपालु! अब शाप दूर करने की कृपा कीजिए। दीनों पर दया करनेवाले नारद ने कहा - निसिचर जाइ
होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥ तुम दोनों जाकर राक्षस होओ; तुम्हें महान ऐश्वर्य, तेज और बल की प्राप्ति हो। तुम अपनी भुजाओं के बल से जब सारे विश्व को जीत लोगे, तब भगवान विष्णु मनुष्य का शरीर धारण करेंगे। समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥ युद्ध में हरि के हाथ से तुम्हारी मृत्यु होगी, जिससे तुम मुक्त हो जाओगे और फिर संसार में जन्म नहीं लोगे। वे दोनों मुनि के चरणों में सिर नवाकर चले और समय पाकर राक्षस हुए। दो० - एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार। देवताओं को प्रसन्न करनेवाले, सज्जनों को सुख देनेवाले और पृथ्वी का भार हरण करनेवाले भगवान ने एक कल्प में इसी कारण मनुष्य का अवतार लिया था॥ 139॥ एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥ इस प्रकार भगवान के अनेक सुंदर, सुखदायक और अलौकिक जन्म और कर्म हैं। प्रत्येक कल्प में जब-जब भगवान अवतार लेते हैं और नाना प्रकार की सुंदर लीलाएँ करते हैं, तब-तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥ तब-तब मुनीश्वरों ने परम पवित्र काव्य रचना करके उनकी कथाओं का गान किया है और भाँति-भाँति के अनुपम प्रसंगों का वर्णन किया है, जिनको सुनकर समझदार (विवेकी) लोग आश्चर्य नहीं करते। हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं
सुनहिं बहुबिधि सब संता॥ हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। रामचंद्र के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते। यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥ (शिव कहते हैं कि) हे पार्वती! मैंने यह बताने के लिए इस प्रसंग को कहा कि ज्ञानी मुनि भी भगवान की माया से मोहित हो जाते हैं। प्रभु कौतुकी (लीलामय) हैं और शरणागत का हित करनेवाले हैं। वे सेवा करने में बहुत सुलभ और सब दुःखों के हरनेवाले हैं। सो० - सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल। देवता, मनुष्य और मुनियों में ऐसा कोई नहीं है, जिसे भगवान की महान बलवती माया मोहित न कर दे। मन में ऐसा विचारकर उस महामाया के स्वामी (प्रेरक) भगवान का भजन करना चाहिए॥ 140॥ अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा
बिस्तारी॥ हे गिरिराजकुमारी! अब भगवान के अवतार का वह दूसरा कारण सुनो - मैं उसकी विचित्र कथा विस्तार करके कहता हूँ - जिस कारण से जन्मरहित, निर्गुण और रूपरहित ब्रह्म अयोध्यापुरी के राजा हुए। जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥ जिन प्रभु राम को तुमने भाई लक्ष्मण के साथ मुनियों का-सा वेष धारण किए वन में फिरते देखा था और हे भवानी! जिनके चरित्र देखकर सती के शरीर में तुम ऐसी बावली हो गई थीं कि - अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥ अब भी तुम्हारे उस बावलेपन की छाया नहीं मिटती, उन्हीं के भ्रमरूपी रोग के हरण करनेवाले चरित्र सुनो। उस अवतार में भगवान ने जो-जो लीला की, वह सब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार तुम्हें कहूँगा। भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसुकानी॥ (याज्ञवल्क्य ने कहा -) हे भरद्वाज! शंकर के वचन सुनकर पार्वती सकुचाकर प्रेमसहित मुसकराईं। फिर वृषकेतु शिव जिस कारण से भगवान का वह अवतार हुआ था, उसका वर्णन करने लगे। दो० - सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाइ। हे मुनीश्वर भरद्वाज! मैं वह सब तुमसे कहता हूँ, मन लगाकर सुनो। राम की कथा कलियुग के पापों को हरनेवाली, कल्याण करनेवाली और बड़ी सुंदर है॥ 141॥ स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै
नरसृष्टि अनूपा॥ स्वायंभुव मनु और (उनकी पत्नी) शतरूपा, जिनसे मनुष्यों की यह अनुपम सृष्टि हुई, इन दोनों पति-पत्नी के धर्म और आचरण बहुत अच्छे थे। आज भी वेद जिनकी मर्यादा का गान करते हैं। नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरिभगत भयउ सुत जासू॥ राजा उत्तानपाद उनके पुत्र थे, जिनके पुत्र (प्रसिद्ध) हरिभक्त ध्रुव हुए। उन (मनु) के छोटे लड़के का नाम प्रियव्रत था, जिनकी प्रशंसा वेद और पुराण करते हैं। देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥ पुनः देवहूति उनकी कन्या थी, जो कर्दम मुनि की प्यारी पत्नी हुई और जिन्होंने आदि देव, दीनों पर दया करनेवाले समर्थ एवं कृपालु भगवान कपिल को गर्भ में धारण किया। सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्त्व बिचार निपुन भगवाना॥ तत्त्वों का विचार करने में अत्यंत निपुण जिन (कपिल) भगवान ने सांख्य शास्त्र का प्रकट रूप में वर्णन किया, उन (स्वायंभुव) मनु ने बहुत समय तक राज्य किया और सब प्रकार से भगवान की आज्ञा का पालन किया। सो० - होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन॥ घर में रहते बुढ़ापा आ गया, परंतु विषयों से वैराग्य नहीं होता (इस बात को सोचकर) उनके मन में बड़ा दुःख हुआ कि हरि की भक्ति बिना जन्म यों ही चला गया॥ 142॥ बरबस राज सुतहि तब
दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥ तब मनु ने अपने पुत्र को जबरदस्ती राज्य देकर स्वयं स्त्री सहित वन को गमन किया। अत्यंत पवित्र और साधकों को सिद्धि देनेवाला तीर्थों में श्रेष्ठ नैमिषारण्य प्रसिद्ध है। बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥ वहाँ मुनियों और सिद्धों के समूह बसते हैं। राजा मनु हृदय में हर्षित होकर वहीं चले। वे धीर बुद्धिवाले राजा-रानी मार्ग में जाते हुए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों ज्ञान और भक्ति ही शरीर धारण किए जा रहे हों। पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥ (चलते-चलते) वे गोमती के किनारे जा पहुँचे। हर्षित होकर उन्होंने निर्मल जल में स्नान किया। उनको धर्मधुरंधर राजर्षि जानकर सिद्ध और ज्ञानी मुनि उनसे मिलने आए। जहँ जहँ तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥ जहाँ-जहाँ सुंदर तीर्थ थे, मुनियों ने आदरपूर्वक सभी तीर्थ उनको करा दिए। उनका शरीर दुर्बल हो गया था। वे मुनियों के-से (वल्कल) वस्त्र धारण करते थे और संतों के समाज में नित्य पुराण सुनते थे। दो० - द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग। और द्वादशाक्षर मंत्र (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का प्रेम सहित जप करते थे। भगवान वासुदेव के चरणकमलों में उन राजा-रानी का मन बहुत ही लग गया॥ 143॥ करहिं
अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥ वे साग, फल और कंद का आहार करते थे और सच्चिदानंद ब्रह्म का स्मरण करते थे। फिर वे हरि के लिए तप करने लगे और मूल-फल को त्यागकर केवल जल के आधार पर रहने लगे। उर अभिलाष निरंतर होई। देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥ हृदय में निरंतर यही अभिलाषा हुआ करती कि हम (कैसे) उन परम प्रभु को आँखों से देखें, जो निर्गुण, अखंड, अनंत और अनादि हैं और परमार्थवादी (ब्रह्मज्ञानी, तत्त्ववेत्ता) लोग जिनका चिंतन किया करते हैं। नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥ जिन्हें वेद 'नेति-नेति' (यह भी नहीं, यह भी नहीं) कहकर निरूपण करते हैं। जो आनंदस्वरूप, उपाधिरहित और अनुपम हैं एवं जिनके अंश से अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु भगवान प्रकट होते हैं। ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥ ऐसे (महान) प्रभु भी सेवक के वश में हैं और भक्तों के लिए (दिव्य) लीला विग्रह धारण करते हैं। यदि वेदों में यह वचन सत्य कहा है, तो हमारी अभिलाषा भी अवश्य पूरी होगी। दो० - एहि बिधि बीते बरष षट सहस बारि आहार। इस प्रकार जल का आहार (करके तप) करते छह हजार वर्ष बीत गए। फिर सात हजार वर्ष वे वायु के आधार पर रहे॥ 144॥ बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥ दस हजार वर्ष तक उन्होंने वायु का आधार भी छोड़ दिया। दोनों एक पैर से खड़े रहे। उनका अपार तप देखकर ब्रह्मा, विष्णु और शिव कई बार मनु के पास आए। मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥ उन्होंने इन्हें अनेक प्रकार से ललचाया और कहा कि कुछ वर माँगो। पर ये परम धैर्यवान (राजा-रानी अपने तप से किसी के) डिगाए नहीं डिगे। यद्यपि उनका शरीर हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया था, फिर भी उनके मन में जरा भी पीड़ा नहीं थी। प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥ सर्वज्ञ प्रभु ने अनन्य गति (आश्रय)वाले तपस्वी राजा-रानी को 'निज दास' जाना। तब परम गंभीर और कृपारूपी अमृत से सनी हुई यह आकाशवाणी हुई कि 'वर माँगो'। मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रवन रंध्र होइ उर जब आई॥ मुर्दे को भी जिला देनेवाली यह सुंदर वाणी कानों के छेदों से होकर जब हृदय में आई, तब राजा-रानी के शरीर ऐसे सुंदर और हृष्ट-पुष्ट हो गए, मानो अभी घर से आए हैं। दो० - श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात। कानों में अमृत के समान लगनेवाले वचन सुनते ही उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। तब मनु दंडवत करके बोले, प्रेम हृदय में समाता न था - ॥ 145॥ सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥ हे प्रभो! सुनिए, आप सेवकों के लिए कल्पवृक्ष और कामधेनु हैं। आपके चरण रज की ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी वंदना करते हैं। आप सेवा करने में सुलभ हैं तथा सब सुखों के देनेवाले हैं। आप शरणागत के रक्षक और जड़-चेतन के स्वामी हैं। जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होई यह बर देहू॥ हे अनाथों का कल्याण करनेवाले! यदि हम लोगों पर आपका स्नेह है, तो प्रसन्न होकर यह वर दीजिए कि आपका जो स्वरूप शिव के मन में बसता है और जिस (की प्राप्ति) के लिए मुनि लोग यत्न करते हैं। जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥ जो काकभुशुंडि के मनरूपी मान सरोवर में विहार करनेवाला हंस है, सगुण और निर्गुण कहकर वेद जिसकी प्रशंसा करते हैं, हे शरणागत के दुःख मिटानेवाले प्रभो! ऐसी कृपा कीजिए कि हम उसी रूप को नेत्र भरकर देखें। दंपति बचन परम प्रिय लागे। मृदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥ राजा-रानी के कोमल, विनययुक्त और प्रेमरस में पगे हुए वचन भगवान को बहुत ही प्रिय लगे। भक्तवत्सल, कृपानिधान, संपूर्ण विश्व के निवास स्थान (या समस्त विश्व में व्यापक), सर्वसमर्थ भगवान प्रकट हो गए। दो० - नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम। भगवान के नीले कमल, नीलमणि और नीले (जलयुक्त) मेघ के समान (कोमल, प्रकाशमय और सरस) श्यामवर्ण शरीर की शोभा देखकर करोड़ों कामदेव भी लजा जाते हैं॥ 146॥ सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर
ग्रीवा॥ उनका मुख शरद (पूर्णिमा) के चंद्रमा के समान छवि की सीमास्वरूप था। गाल और ठोड़ी बहुत सुंदर थे, गला शंख के समान (त्रिरेखायुक्त, चढ़ाव-उतारवाला) था। लाल होठ, दाँत और नाक अत्यंत सुंदर थे। हँसी चंद्रमा की किरणावली को नीचा दिखानेवाली थी। नव अंबुज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँतीजी की॥ नेत्रों की छवि नए (खिले हुए) कमल के समान बड़ी सुंदर थी। मनोहर चितवन जी को बहुत प्यारी लगती थी। टेढ़ी भौंहें कामदेव के धनुष की शोभा को हरनेवाली थीं। ललाट पटल पर प्रकाशमय तिलक था। कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥ कानों में मकराकृत (मछली के आकार के) कुंडल और सिर पर मुकुट सुशोभित था। टेढ़े (घुँघराले) काले बाल ऐसे सघन थे, मानो भौंरों के झुंड हों। हृदय परवत्स, सुंदर वनमाला, रत्नजड़ित हार और मणियों के आभूषण सुशोभित थे। केहरि कंधर चारु जनेऊ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥ सिंह की-सी गर्दन थी, सुंदर जनेऊ था। भुजाओं में जो गहने थे, वे भी सुंदर थे। हाथी की सूँड़ के समान (उतार-चढ़ाववाले) सुंदर भुजदंड थे। कमर में तरकस और हाथ में बाण और धनुष (शोभा पा रहे) थे। दो० - तड़ित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि। (स्वर्ण-वर्ण का प्रकाशमय) पीतांबर बिजली को लजानेवाला था। पेट पर सुंदर तीन रेखाएँ (त्रिवली) थीं। नाभि ऐसी मनोहर थी, मानो यमुना के भँवरों की छवि को छीने लेती हो॥ 147॥ पद राजीव बरनि नहिं जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥ जिनमें मुनियों के मनरूपी भौंरे बसते हैं, भगवान के उन चरणकमलों का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। भगवान के बाएँ भाग में सदा अनुकूल रहनेवाली, शोभा की राशि जगत की मूलकारणरूपा आदि शक्ति जानकी सुशोभित हैं। जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥ जिनके अंश से गुणों की खान अगणित लक्ष्मी, पार्वती और ब्रह्माणी (त्रिदेवों की शक्तियाँ) उत्पन्न होती हैं तथा जिनकी भौंह के इशारे से ही जगत की रचना हो जाती है, वही (भगवान की स्वरूपा-शक्ति) सीता राम की बाईं ओर स्थित हैं। छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥ शोभा के समुद्र हरि के रूप को देखकर मनु-शतरूपा नेत्रों के पट (पलकें) रोके हुए एकटक (स्तब्ध) रह गए। उस अनुपम रूप को वे आदर सहित देख रहे थे और देखते-देखते अघाते ही न थे। हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥ आनंद के अधिक वश में हो जाने के कारण उन्हें अपने देह की सुधि भूल गई। वे हाथों से भगवान के चरण पकड़कर दंड की तरह (सीधे) भूमि पर गिर पड़े। कृपा की राशि प्रभु ने अपने करकमलों से उनके मस्तकों का स्पर्श किया और उन्हें तुरंत ही उठा लिया। दो० - बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि। फिर कृपानिधान भगवान बोले - मुझे अत्यंत प्रसन्न जानकर और बड़ा भारी दानी मानकर, जो मन को भाए वही वर माँग लो॥ 148॥ सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥ प्रभु के वचन सुनकर, दोनों हाथ जोड़कर और धीरज धरकर राजा ने कोमल वाणी कही - हे नाथ! आपके चरणकमलों को देखकर अब हमारी सारी मनःकामनाएँ पूरी हो गईं। एक लालसा बड़ि उर माहीं। सुगम अगम कहि जाति सो नाहीं॥ फिर भी मन में एक बड़ी लालसा है। उसका पूरा होना सहज भी है और अत्यंत कठिन भी, इसी से उसे कहते नहीं बनता। हे स्वामी! आपके लिए तो उसका पूरा करना बहुत सहज है, पर मुझे अपनी कृपणता (दीनता) के कारण वह अत्यंत कठिन मालूम होता है। जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥ जैसे कोई दरिद्र कल्पवृक्ष को पाकर भी अधिक द्रव्य माँगने में संकोच करता है, क्योंकि वह उसके प्रभाव को नहीं जानता, वैसे ही मेरे हृदय में संशय हो रहा है। सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥ हे स्वामी! आप अंतर्यामी हैं, इसलिए उसे जानते ही हैं। मेरा वह मनोरथ पूरा कीजिए। (भगवान ने कहा -) हे राजन! संकोच छोड़कर मुझसे माँगो। तुम्हें न दे सकूँ ऐसा मेरे पास कुछ भी नहीं है। दो० - दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ। (राजा ने कहा -) हे दानियों के शिरोमणि! हे कृपानिधान! हे नाथ! मैं अपने मन का सच्चा भाव कहता हूँ कि मैं आपके समान पुत्र चाहता हूँ। प्रभु से भला क्या छिपाना!॥ 149॥ देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥ राजा की प्रीति देखकर और उनके अमूल्य वचन सुनकर करुणानिधान भगवान बोले - ऐसा ही हो। हे राजन! मैं अपने समान (दूसरा) कहाँ जाकर खोजूँ! अतः स्वयं ही आकर तुम्हारा पुत्र बनूँगा। सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरें॥ शतरूपा को हाथ जोड़े देखकर भगवान ने कहा - हे देवी! तुम्हारी जो इच्छा हो, सो वर माँग लो। (शतरूपा ने कहा -) हे नाथ! चतुर राजा ने जो वर माँगा, हे कृपालु! वह मुझे बहुत ही प्रिय लगा। प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥ परंतु हे प्रभु! बहुत ढिठाई हो रही है, यद्यपि हे भक्तों का हित करनेवाले! वह ढिठाई भी आपको अच्छी ही लगती है। आप ब्रह्मा आदि के भी पिता (उत्पन्न करनेवाले), जगत के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जाननेवाले ब्रह्म हैं। अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥ ऐसा समझने पर मन में संदेह होता है, फिर भी प्रभु ने जो कहा वही प्रमाण (सत्य) है। (मैं तो यह माँगती हूँ कि) हे नाथ! आपके जो निज जन हैं, वे जो (अलौकिक, अखंड) सुख पाते हैं और जिस परम गति को प्राप्त होते हैं। दो० - सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु। हे प्रभो! वही सुख, वही गति, वही भक्ति, वही अपने चरणों में प्रेम, वही ज्ञान और वही रहन-सहन कृपा करके हमें दीजिए॥ 150॥ सुनि मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥ (रानी की) कोमल, गूढ़ और मनोहर श्रेष्ठ वाक्य रचना सुनकर कृपा के समुद्र भगवान कोमल वचन बोले - तुम्हारे मन में जो कुछ इच्छा है, वह सब मैंने तुमको दिया, इसमें कोई संदेह न समझना।
मातु बिबेक अलौकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें॥ हे माता! मेरी कृपा से तुम्हारा अलौकिक ज्ञान कभी नष्ट न होगा। तब मनु ने भगवान के चरणों की वंदना करके फिर कहा - हे प्रभु! मेरी एक विनती और है - सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ॥ आपके चरणों में मेरी वैसी ही प्रीति हो जैसी पुत्र के लिए पिता की होती है, चाहे मुझे कोई बड़ा भारी मूर्ख ही क्यों न कहे। जैसे मणि के बिना साँप और जल के बिना मछली (नहीं रह सकती), वैसे ही मेरा जीवन आपके अधीन रहे (आपके बिना न रह सके)। अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥ ऐसा वर माँगकर राजा भगवान के चरण पकड़े रह गए। तब दया के निधान भगवान ने कहा - ऐसा ही हो। अब तुम मेरी आज्ञा मानकर देवराज इंद्र की राजधानी (अमरावती) में जाकर वास करो। दो० - तहँ करि भोग बिसाल तात गएँ कछु काल पुनि। हे तात! वहाँ (स्वर्ग के) बहुत-से भोग भोगकर, कुछ काल बीत जाने पर, तुम अवध के राजा होगे। तब मैं तुम्हारा पुत्र होऊँगा॥ 151॥ इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारें॥ इच्छानिर्मित मनुष्य रूप सजकर मैं तुम्हारे घर प्रकट होऊँगा। हे तात! मैं अपने अंशों सहित देह धारण करके भक्तों को सुख देनेवाले चरित्र करूँगा। जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव
तरिहहिं ममता मद त्यागी॥ जिन (चरित्रों) को बड़े भाग्यशाली मनुष्य आदरसहित सुनकर, ममता और मद त्यागकर, भवसागर से तर जाएँगे। आदिशक्ति यह मेरी (स्वरूपभूता) माया भी, जिसने जगत को उत्पन्न किया है, अवतार लेगी। पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥ इस प्रकार मैं तुम्हारी अभिलाषा पूरी करूँगा। मेरा प्रण सत्य है, सत्य है, सत्य है। कृपानिधान भगवान बार-बार ऐसा कहकर अंतर्धान हो गए। दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥ वे स्त्री-पुरुष (राजा-रानी) भक्तों पर कृपा करनेवाले भगवान को हृदय में धारण करके कुछ काल तक उस आश्रम में रहे। फिर उन्होंने समय पाकर, सहज ही (बिना किसी कष्ट के) शरीर छोड़कर, अमरावती (इंद्र की पुरी) में जाकर वास किया। दो० - यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु। (याज्ञवल्क्य कहते हैं -) हे भरद्वाज! इस अत्यंत पवित्र इतिहास को शिव ने पार्वती से कहा था। अब राम के अवतार लेने का दूसरा कारण सुनो॥ 152॥ सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी॥ हे मुनि! वह पवित्र और प्राचीन कथा सुनो, जो शिव ने पार्वती से कही थी। संसार में प्रसिद्ध एक कैकय देश है। वहाँ सत्यकेतु नाम का राजा रहता (राज्य करता) था। धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना॥ वह धर्म की धुरी को धारण करनेवाला, नीति की खान, तेजस्वी, प्रतापी, सुशील और बलवान था, उसके दो वीर पुत्र हुए, जो सब गुणों के भंडार और बड़े ही रणधीर थे। राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही॥ राज्य का उत्तराधिकारी जो बड़ा लड़का था, उसका नाम प्रतापभानु था। दूसरे पुत्र का नाम अरिमर्दन था, जिसकी भुजाओं में अपार बल था और जो युद्ध में (पर्वत के समान) अटल रहता था। भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती॥ भाई-भाई में बड़ा मेल और सब प्रकार के दोषों और छलों से रहित (सच्ची) प्रीति थी। राजा ने जेठ पुत्र को राज्य दे दिया और आप भगवान (के भजन) के लिए वन को चल दिया। दो० - जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस। जब प्रतापभानु राजा हुआ, देश में उसकी दुहाई फिर गई। वह वेद में बताई हुई विधि के अनुसार उत्तम रीति से प्रजा का पालन करने लगा। उसके राज्य में पाप का कहीं लेश भी नहीं रह गया॥ 153॥ नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥ राजा का हित करनेवाला और शुक्राचार्य के समान बुद्धिमान धर्मरुचि नामक उसका मंत्री था। इस प्रकार बुद्धिमान मंत्री और बलवान तथा वीर भाई के साथ ही स्वयं राजा भी बड़ा प्रतापी और रणधीर था। सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा॥ साथ में अपार चतुरंगिणी सेना थी, जिसमें असंख्य योद्धा थे, जो सब के सब रण में जूझ मरनेवाले थे। अपनी सेना को देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और घमाघम नगाड़े बजने लगे। बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥ दिग्विजय के लिए सेना सजाकर वह राजा शुभ दिन (मुहूर्त) साधकर और डंका बजाकर चला। जहाँ-तहाँ बहुत-सी लड़ाइयाँ हुईं। उसने सब राजाओं को बलपूर्वक जीत लिया। सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै
दंड छाड़ि नृप दीन्हे॥ अपनी भुजाओं के बल से उसने सातों द्वीपों (भूमिखंडों) को वश में कर लिया और राजाओं से दंड (कर) ले-लेकर उन्हें छोड़ दिया। संपूर्ण पृथ्वी मंडल का उस समय प्रतापभानु ही एकमात्र (चक्रवर्ती) राजा था। दो० - स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु। संसार भर को अपनी भुजाओं के बल से वश में करके राजा ने अपने नगर में प्रवेश किया। राजा अर्थ, धर्म और काम आदि के सुखों का समयानुसार सेवन करता था॥ 154॥ भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥ राजा प्रतापभानु का बल पाकर भूमि सुंदर कामधेनु (मनचाही वस्तु देनेवाली) हो गई। (उनके राज्य में) प्रजा सब (प्रकार के) दुःखों से रहित और सुखी थी और सभी स्त्री-पुरुष सुंदर और धर्मात्मा थे। सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥ धर्मरुचि मंत्री का हरि के चरणों में प्रेम था। वह राजा के हित के लिए सदा उसको नीति सिखाया करता था। राजा गुरु, देवता, संत, पितर और ब्राह्मण - इन सबकी सदा सेवा करता रहता था। भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने॥ वेदों में राजाओं के जो धर्म बताए गए हैं, राजा सदा आदरपूर्वक और सुख मानकर उन सबका पालन करता था। प्रतिदिन अनेक प्रकार के दान देता और उत्तम शास्त्र, वेद और पुराण सुनता था। नाना बापीं
कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा॥ उसने बहुत-सी बावलियाँ, कुएँ, तालाब, फुलवाड़ियाँ सुंदर बगीचे, ब्राह्मणों के लिए घर और देवताओं के सुंदर विचित्र मंदिर सब तीर्थों में बनवाए। दो० - जहँ लजि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग। वेद और पुराणों में जितने प्रकार के यज्ञ कहे गए हैं, राजा ने एक-एक करके उन सब यज्ञों को प्रेम सहित हजार-हजार बार किया॥ 155॥ हृदयँ
न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥ (राजा के) हृदय में किसी फल की टोह (कामना) न थी। राजा बड़ा ही बुद्धिमान और ज्ञानी था। वह ज्ञानी राजा कर्म, मन और वाणी से जो कुछ भी धर्म करता था, सब भगवान वासुदेव को अर्पित करते रहता था। चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥ एक बार वह राजा एक अच्छे घोड़े पर सवार होकर, शिकार का सब सामान सजाकर विंध्याचल के घने जंगल में गया और वहाँ उसने बहुत-से उत्तम-उत्तम हिरन मारे। फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥ राजा ने वन में फिरते हुए एक सूअर को देखा। (दाँतों के कारण वह ऐसा दिख पड़ता था) मानो चंद्रमा को ग्रसकर (मुँह में पकड़कर) राहु वन में आ छिपा हो। चंद्रमा बड़ा होने से उसके मुँह में समाता नहीं है और मानो क्रोधवश वह भी उसे उगलता नहीं है। कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल
पीवर अधिकाई॥ यह तो सूअर के भयानक दाँतों की शोभा कही गई। (इधर) उसका शरीर भी बहुत विशाल और मोटा था। घोड़े की आहट पाकर वह घुरघुराता हुआ कान उठाए चौकन्ना होकर देख रहा था। दो० - नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु। नील पर्वत के शिखर के समान विशाल (शरीरवाले) उस सूअर को देखकर राजा घोड़े को चाबुक लगाकर तेजी से चला और उसने सूअर को ललकारा कि अब तेरा बचाव नहीं हो सकता॥ 156॥ आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥ अधिक शब्द करते हुए घोड़े को (अपनी तरफ) आता देखकर सूअर पवन वेग से भाग चला। राजा ने तुरंत ही बाण को धनुष पर चढ़ाया। सूअर बाण को देखते ही धरती में दुबक गया। तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा॥ राजा तक-तककर तीर चलाता है, परंतु सूअर छल करके शरीर को बचाता जाता है। वह पशु कभी प्रकट होता और कभी छिपता हुआ भाग जाता था और राजा भी क्रोध के वश उसके साथ (पीछे) लगा चला जाता था। गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥ सूअर बहुत दूर ऐसे घने जंगल में चला गया, जहाँ हाथी-घोड़े का निबाह (गमन) नहीं था। राजा बिलकुल अकेला था और वन में क्लेश भी बहुत था, फिर भी राजा ने उस पशु का पीछा नहीं छोड़ा। कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा॥ राजा को बड़ा धैर्यवान देखकर, सूअर भागकर पहाड़ की एक गहरी गुफा में जा घुसा। उसमें जाना कठिन देखकर राजा को बहुत पछताकर लौटना पड़ा, पर उस घोर वन में वह रास्ता भूल गया। दो० - खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत। बहुत परिश्रम करने से थका हुआ और घोड़े समेत भूख-प्यास से व्याकुल राजा नदी-तालाब खोजता-खोजता पानी बिना बेहाल हो गया॥ 157॥ फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट
मुनिबेषा॥ वन में फिरते-फिरते उसने एक आश्रम देखा, वहाँ कपट से मुनि का वेष बनाए एक राजा रहता था, जिसका देश राजा प्रतापभानु ने छीन लिया था और जो सेना को छोड़कर युद्ध से भाग गया था। समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥ प्रतापभानु का समय (अच्छे दिन) जानकर और अपना कुसमय (बुरे दिन) अनुमान कर उसके मन में बड़ी ग्लानि हुई। इससे वह न तो घर गया और न अभिमानी होने के कारण राजा प्रतापभानु से ही मिला (मेल किया)। रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा॥ दरिद्र की भाँति मन ही में क्रोध को मारकर वह राजा तपस्वी के वेष में वन में रहता था। राजा (प्रतापभानु) उसी के पास गया। उसने तुरंत पहचान लिया कि यह प्रतापभानु है। राउ तृषित नहिं सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना॥ राजा प्यासा होने के कारण (व्याकुलता में) उसे पहचान न सका। सुंदर वेष देखकर राजा ने उसे महामुनि समझा और घोड़े से उतरकर उसे प्रणाम किया, परंतु बड़ा चतुर होने के कारण राजा ने उसे अपना नाम नहीं बताया। दो० - भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरू दीन्ह देखाइ। राजा को प्यासा देखकर उसने सरोवर दिखला दिया। हर्षित होकर राजा ने घोड़े सहित उसमें स्नान और जलपान किया॥ 158॥ गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥ सारी थकावट मिट गई, राजा सुखी हो गया। तब तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया और सूर्यास्त का समय जानकर उसने (राजा को बैठने के लिए) आसन दिया। फिर वह तपस्वी कोमल वाणी से बोला - को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें॥ तुम कौन हो? सुंदर युवक होकर, जीवन की परवाह न करके वन में अकेले क्यों फिर रहे हो? तुम्हारे चक्रवर्ती राजा के से लक्षण देखकर मुझे बड़ी दया आती है। नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥ (राजा ने कहा -) हे मुनीश्वर! सुनिए, प्रतापभानु नाम का एक राजा है, मैं उसका मंत्री हूँ। शिकार के लिए फिरते हुए राह भूल गया हूँ। बड़े भाग्य से यहाँ आकर मैंने आपके चरणों के दर्शन पाए हैं। हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥ हमें आपका दर्शन दुर्लभ था, इससे जान पड़ता है कुछ भला होनेवाला है। मुनि ने कहा - हे तात! अँधेरा हो गया। तुम्हारा नगर यहाँ से सत्तर योजन पर है। दो० - निसा घोर गंभीर बन पंथ न सुनहु सुजान। हे सुजान! सुनो, घोर अँधेरी रात है, घना जंगल है, रास्ता नहीं है, ऐसा समझकर तुम आज यहीं ठहर जाओ, सबेरा होते ही चले जाना॥ 159(क)॥ तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ। तुलसीदास कहते हैं - जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है, वैसी ही सहायता मिल जाती है। या तो वह आप ही उसके पास आती है या उसको वहाँ ले जाती है॥ 159(ख)॥ भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥ हे नाथ! बहुत अच्छा, ऐसा कहकर और उसकी आज्ञा सिर चढ़ाकर, घोड़े को वृक्ष से बाँधकर राजा बैठ गया। राजा ने उसकी बहुत प्रकार से प्रशंसा की और उसके चरणों की वंदना करके अपने भाग्य की सराहना की। पुनि बोलेउ मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु
करउँ ढिठाई॥ फिर सुंदर कोमल वाणी से कहा - हे प्रभो! आपको पिता जानकर मैं ढिठाई करता हूँ। हे मुनीश्वर! मुझे अपना पुत्र और सेवक जानकर अपना नाम (धाम) विस्तार से बतलाइए। तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुहृद सो कपट सयाना॥ राजा ने उसको नहीं पहचाना था, पर वह राजा को पहचान गया था। राजा तो शुद्ध-हृदय था और वह कपट करने में चतुर था। एक तो वैरी, फिर जाति का क्षत्रिय, फिर राजा। वह छल-बल से अपना काम बनाना चाहता था। समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥ वह शत्रु अपने राज्य सुख को समझ करके (स्मरण करके) दुःखी था। उसकी छाती (कुम्हार के) आँवे की आग की तरह (भीतर-ही-भीतर) सुलग रही थी। राजा के सरल वचन कान से सुनकर, अपने वैर को यादकर वह हृदय में हर्षित हुआ। दो० - कपट बोरि बानी मृदल बोलेउ जुगुति समेत। वह कपट में डुबोकर बड़ी युक्ति के साथ कोमल वाणी बोला - अब हमारा नाम भिखारी है, क्योंकि हम निर्धन और अनिकेत (घर-द्वारहीन) हैं॥ 160॥ कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥ राजा ने कहा - जो आपके सदृश विज्ञान के निधान और सर्वथा अभिमानरहित होते हैं, वे अपने स्वरूप को सदा छिपाए रहते हैं, क्योंकि कुवेष बनाकर रहने में ही सब तरह का कल्याण है (प्रकट संत वेश में मान होने की संभावना है और मान से पतन की)। तेहि तें कहहिं संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें॥ इसी से तो संत और वेद पुकारकर कहते हैं कि परम अकिंचन (सर्वथा अहंकार, ममता और मानरहित) ही भगवान को प्रिय होते हैं। आप सरीखे निर्धन, भिखारी और गृहहीनों को देखकर ब्रह्मा और शिव को भी संदेह हो जाता है (कि वे वास्तविक संत हैं या भिखारी)। जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी॥ आप जो हों सो हों (अर्थात जो कोई भी हों), मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। हे स्वामी! अब मुझ पर कृपा कीजिए। अपने ऊपर राजा की स्वाभाविक प्रीति और अपने विषय में उसका अधिक विश्वास देखकर - सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥ सब प्रकार से राजा को अपने वश में करके, अधिक स्नेह दिखाता हुआ वह (कपट-तपस्वी) बोला - हे राजन! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मुझे यहाँ रहते बहुत समय बीत गया। दो० - अब
लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु। अब तक न तो कोई मुझसे मिला और न मैं अपने को किसी पर प्रकट करता हूँ, क्योंकि लोक में प्रतिष्ठा अग्नि के समान है, जो तपरूपी वन को भस्म कर डालती है॥ 161(क)॥ सो० - तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर। तुलसीदास कहते हैं - सुंदर वेष देखकर मूढ़ नहीं (मूढ़ तो मूढ़ ही हैं), चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं। सुंदर मोर को देखो, उसका वचन तो अमृत के समान है और आहार साँप का है॥ 161(ख)॥ तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥ (कपट-तपस्वी ने कहा -) इसी से मैं जगत में छिपकर रहता हूँ। हरि को छोड़कर किसी से कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता। प्रभु तो बिना जनाए ही सब जानते हैं। फिर कहो संसार को रिझाने से क्या सिद्धि मिलेगी। तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥ तुम पवित्र और सुंदर बुद्धिवाले हो, इससे मुझे बहुत ही प्यारे हो और तुम्हारी भी मुझ पर प्रीति और विश्वास है। हे तात! अब यदि मैं तुमसे कुछ छिपाता हूँ, तो मुझे बहुत ही भयानक दोष लगेगा। जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥ ज्यों-ज्यों वह तपस्वी उदासीनता की बातें कहता था, त्यों ही त्यों राजा को विश्वास उत्पन्न होता जाता था। जब उस बगुले की तरह ध्यान लगानेवाले (कपटी) मुनि ने राजा को कर्म, मन और वचन से अपने वश में जाना, तब वह बोला - नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोलेउ पुनि सिरु नाई॥ हे भाई! हमारा नाम एकतनु है। यह सुनकर राजा ने फिर सिर नवाकर कहा - मुझे अपना अत्यंत (अनुरागी) सेवक जानकर अपने नाम का अर्थ समझाकर कहिए। दो० - आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि। (कपटी मुनि ने कहा -) जब सबसे पहले सृष्टि उत्पन्न हुई थी, तभी मेरी उत्पत्ति हुई थी। तबसे मैंने फिर दूसरी देह नहीं धारण की, इसी से मेरा नाम एकतनु है॥ 162॥ जनि आचरजु करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥ हे पुत्र! मन में आश्चर्य मत करो, तप से कुछ भी दुर्लभ नहीं है, तप के बल से ब्रह्मा जगत को रचते हैं। तप के ही बल से विष्णु संसार का पालन करनेवाले बने हैं। तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥ तप ही के बल से रुद्र संहार करते हैं। संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं जो तप से न मिल सके। यह सुनकर राजा को बड़ा अनुराग हुआ। तब वह (तपस्वी) पुरानी कथाएँ कहने लगा। करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका॥ कर्म, धर्म और अनेकों प्रकार के इतिहास कहकर वह वैराग्य और ज्ञान का निरूपण करने लगा। सृष्टि की उत्पत्ति, पालन (स्थिति) और संहार (प्रलय) की अपार आश्चर्यभरी कथाएँ उसने विस्तार से कहीं। सुनि
महीप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहन तब लयउ॥ राजा सुनकर उस तपस्वी के वश में हो गया और तब वह उसे अपना नाम बताने लगा। तपस्वी ने कहा - राजन ! मैं तुमको जानता हूँ। तुमने कपट किया, वह मुझे अच्छा लगा। सो० - सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप। हे राजन! सुनो, ऐसी नीति है कि राजा लोग जहाँ-तहाँ अपना नाम नहीं कहते। तुम्हारी वही चतुराई समझकर तुम पर मेरा बड़ा प्रेम हो गया है॥ 163॥ नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥ तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन! गुरु की कृपा से मैं सब जानता हूँ, पर अपनी हानि समझकर कहता नहीं। देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई॥ हे तात! तुम्हारा स्वाभाविक सीधापन (सरलता), प्रेम, विश्वास और नीति में निपुणता देखकर मेरे मन में तुम्हारे ऊपर बड़ी ममता उत्पन्न हो गई है, इसीलिए मैं तुम्हारे पूछने पर अपनी कथा कहता हूँ। अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं॥ अब मैं प्रसन्न हूँ, इसमें संदेह न करना। हे राजन! जो मन को भावे वही माँग लो। सुंदर (प्रिय) वचन सुनकर राजा हर्षित हो गया और (मुनि के) पैर पकड़कर उसने बहुत प्रकार से विनती की। कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें॥ हे दयासागर मुनि! आपके दर्शन से ही चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) मेरी मुट्ठी में आ गए। तो भी स्वामी को प्रसन्न देखकर मैं यह दुर्लभ वर माँगकर (क्यों न) शोकरहित हो जाऊँ। दो० - जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ। मेरा शरीर वृद्धावस्था, मृत्यु और दुःख से रहित हो जाए, मुझे युद्ध में कोई जीत न सके और पृथ्वी पर मेरा सौ कल्प तक एकछत्र अकंटक राज्य हो॥ 164॥
कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥ तपस्वी ने कहा - हे राजन! ऐसा ही हो, पर एक बात कठिन है, उसे भी सुन लो। हे पृथ्वी के स्वामी! केवल ब्राह्मण कुल को छोड़ काल भी तुम्हारे चरणों पर सिर नवाएगा। तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥ तप के बल से ब्राह्मण सदा बलवान रहते हैं। उनके क्रोध से रक्षा करनेवाला कोई नहीं है। हे नरपति! यदि तुम ब्राह्मणों को वश में कर लो, तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तुम्हारे अधीन हो जाएँगे। चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई॥ ब्राह्मण कुल से जोर-जबरदस्ती नहीं चल सकती, मैं दोनों भुजा उठाकर सत्य कहता हूँ। हे राजन! सुनो, ब्राह्मणों के शाप बिना तुम्हारा नाश किसी काल में नहीं होगा। हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥ राजा उसके वचन सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ और कहने लगा - हे स्वामी! मेरा नाश अब नहीं होगा। हे कृपानिधान प्रभु! आपकी कृपा से मेरा सब समय कल्याण होगा। दो० - एवमस्तु कहि कपट मुनि बोला कुटिल बहोरि। 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहकर वह कुटिल कपटी मुनि फिर बोला - (किंतु) तुम मेरे मिलने तथा अपने राह भूल जाने की बात किसी से (कहना नहीं, यदि) कह दोगे, तो हमारा दोष नहीं॥ 165॥ तातें मैं तोहि बरजउँ राजा। कहें
कथा तव परम अकाजा॥ हे राजन! मैं तुमको इसलिए मना करता हूँ कि इस प्रसंग को कहने से तुम्हारी बड़ी हानि होगी। छठे कान में यह बात पड़ते ही तुम्हारा नाश हो जाएगा, मेरा यह वचन सत्य जानना। यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा॥ हे प्रतापभानु! सुनो, इस बात के प्रकट करने से अथवा ब्राह्मणों के शाप से तुम्हारा नाश होगा और किसी उपाय से, चाहे ब्रह्मा और शंकर भी मन में क्रोध करें, तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी। सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥ राजा ने मुनि के चरण पकड़कर कहा - हे स्वामी! सत्य ही है। ब्राह्मण और गुरु के क्रोध से, कहिए, कौन रक्षा कर सकता है? यदि ब्रह्मा भी क्रोध करें, तो गुरु बचा लेते हैं, पर गुरु से विरोध करने पर जगत में कोई भी बचानेवाला नहीं है। जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें॥ यदि मैं आपके कथन के अनुसार नहीं चलूँगा, तो (भले ही) मेरा नाश हो जाए। मुझे इसकी चिंता नहीं है। मेरा मन तो हे प्रभो! (केवल) एक ही डर से डर रहा है कि ब्राह्मणों का शाप बड़ा भयानक होता है। दो० - होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ। वे ब्राह्मण किस प्रकार से वश में हो सकते हैं, कृपा करके वह भी बताइए। हे दीनदयालु! आपको छोड़कर और किसी को मैं अपना हितू नहीं देखता॥ 166॥ सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥ (तपस्वी ने कहा -) हे राजन! सुनो, संसार में उपाय तो बहुत हैं; पर वे कष्ट-साध्य हैं (बड़ी कठिनता से बनने में आते हैं) और इस पर भी सिद्ध हों या न हों (उनकी सफलता निश्चित नहीं है) हाँ, एक उपाय बहुत सहज है; परंतु उसमें भी एक कठिनता है। मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥ हे राजन! वह युक्ति तो मेरे हाथ है, पर मेरा जाना तुम्हारे नगर में हो नहीं सकता। जब से पैदा हुआ हूँ, तब से आज तक मैं किसी के घर अथवा गाँव नहीं गया। जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू॥ परंतु यदि नहीं जाता हूँ, तो तुम्हारा काम बिगड़ता है। आज यह बड़ा असमंजस आ पड़ा है। यह सुनकर राजा कोमल वाणी से बोला, हे नाथ! वेदों में ऐसी नीति कही है कि - बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज
सिरनि सदा तृन धरहीं॥ बड़े लोग छोटों पर स्नेह करते ही हैं। पर्वत अपने सिरों पर सदा तृण (घास) को धारण किए रहते हैं। अगाध समुद्र अपने मस्तक पर फेन को धारण करता है और धरती अपने सिर पर सदा धूलि को धारण किए रहती है। दो० - अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल। ऐसा कहकर राजा ने मुनि के चरण पकड़ लिए। (और कहा -) हे स्वामी! कृपा कीजिए। आप संत हैं। दीनदयालु हैं। (अतः) हे प्रभो! मेरे लिए इतना कष्ट (अवश्य) सहिए॥ 167॥ जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥ राजा को अपने अधीन जानकर कपट में प्रवीण तपस्वी बोला - हे राजन! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, जगत में मुझे कुछ भी दुर्लभ नहीं है। अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥ मैं तुम्हारा काम अवश्य करूँगा, (क्योंकि) तुम, मन, वाणी और शरीर (तीनों) से मेरे भक्त हो। पर योग, युक्ति, तप और मंत्रों का प्रभाव तभी फलीभूत होता है जब वे छिपाकर किए जाते हैं। जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई॥ हे नरपति! मैं यदि रसोई बनाऊँ और तुम उसे परोसो और मुझे कोई जानने न पाए, तो उस अन्न को जो-जो खाएगा, सो-सो तुम्हारा आज्ञाकारी बन जाएगा। पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ॥ यही नहीं, उन (भोजन करने वालों) के घर भी जो कोई भोजन करेगा, हे राजन! सुनो, वह भी तुम्हारे अधीन हो जाएगा। हे राजन! जाकर यही उपाय करो और वर्ष भर (भोजन कराने) का संकल्प कर लेना। दो० - नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार। नित्य नए एक लाख ब्राह्मणों को कुटुंब सहित निमंत्रित करना। मैं तुम्हारे सकंल्प (के काल अर्थात एक वर्ष) तक प्रतिदिन भोजन बना दिया करूँगा॥ 168॥ एहि बिधि भूप कष्ट अति
थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥ हे राजन! इस प्रकार बहुत ही थोड़े परिश्रम से सब ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जाएँगे। ब्राह्मण हवन, यज्ञ और सेवा-पूजा करेंगे, तो उस प्रसंग (संबंध) से देवता भी सहज ही वश में हो जाएँगे। और एक तोहि कहउँ लखाऊ। मैं एहिं बेष न आउब काऊ॥ मैं एक और पहचान तुमको बताए देता हूँ कि मैं इस रूप में कभी न आऊँगा। हे राजन! मैं अपनी माया से तुम्हारे पुरोहित को हर लाऊँगा। तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना॥ तप के बल से उसे अपने समान बनाकर एक वर्ष यहाँ रखूँगा और हे राजन! सुनो, मैं उसका रूप बनाकर सब प्रकार से तुम्हारा काम सिद्ध करूँगा। गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे॥ हे राजन! रात बहुत बीत गई, अब सो जाओ। आज से तीसरे दिन मुझसे तुम्हारी भेंट होगी। तप के बल से मैं घोड़े सहित तुमको सोते ही में घर पहुँचा दूँगा। दो० - मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि। मैं वही (पुरोहित का) वेश धरकर आऊँगा। जब एकांत में तुमको बुलाकर सब कथा सुनाऊँगा, तब तुम मुझे पहचान लेना॥ 169॥ सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥ राजा ने आज्ञा मानकर शयन किया और वह कपट-ज्ञानी आसन पर जा बैठा। राजा थका था, (उसे) खूब (गहरी) नींद आ गई। पर वह कपटी कैसे सोता। उसे तो बहुत चिंता हो रही थी। कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥ (उसी समय) वहाँ कालकेतु राक्षस आया, जिसने सूअर बनकर राजा को भटकाया था। वह तपस्वी राजा का बड़ा मित्र था और खूब छल-प्रपंच जानता था। तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥ उसके सौ पुत्र और दस भाई थे, जो बड़े ही दुष्ट, किसी से न जीते जानेवाले और देवताओं को दुःख देनेवाले थे। ब्राह्मणों, संतों और देवताओं को दुःखी देखकर राजा ने उन सबको पहले ही युद्ध में मार डाला था। तेहिं खल पाछिल बयरु सँभारा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा॥ उस दुष्ट ने पिछला बैर याद करके तपस्वी राजा से मिलकर सलाह की और जिस प्रकार शत्रु का नाश हो, वही उपाय रचा। भावीवश राजा (प्रतापभानु) कुछ भी न समझ सका। दो० - रिपु
तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु। तेजस्वी शत्रु अकेला भी हो तो भी उसे छोटा नहीं समझना चाहिए। जिसका सिर मात्र बचा था, वह राहु आज तक सूर्य-चंद्रमा को दुःख देता है॥ 170॥ तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥ तपस्वी राजा अपने मित्र को देख प्रसन्न हो उठकर मिला और सुखी हुआ। उसने मित्र को सब कथा कह सुनाई, तब राक्षस आनंदित होकर बोला।
अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥ हे राजन! सुनो, जब तुमने मेरे कहने के अनुसार (इतना) काम कर लिया, तो अब मैंने शत्रु को काबू में कर ही लिया (समझो)। तुम अब चिंता त्याग सो रहो। विधाता ने बिना ही दवा के रोग दूर कर दिया। कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथें दिवस मिलब मैं आई॥ कुल सहित शत्रु को जड़-मूल से उखाड़-बहाकर, (आज से) चौथे दिन मैं तुमसे आ मिलूँगा। (इस प्रकार) तपस्वी राजा को खूब दिलासा देकर वह महामायावी और अत्यंत क्रोधी राक्षस चला। भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥ उसने प्रतापभानु राजा को घोड़े सहित क्षणभर में घर पहुँचा दिया। राजा को रानी के पास सुलाकर घोड़े को अच्छी तरह से घुड़साल में बाँध दिया। दो० - राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि। फिर वह राजा के पुरोहित को उठा ले गया और माया से उसकी बुद्धि को भ्रम में डालकर उसे उसने पहाड़ की खोह में ला रखा॥ 171॥ आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥ वह आप पुरोहित का रूप बनाकर उसकी सुंदर सेज पर जा लेटा। राजा सबेरा होने से पहले ही जागा और अपना घर देखकर उसने बड़ा ही आश्चर्य माना। मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहिं जेहिं जान न रानी॥ मन में मुनि की महिमा का अनुमान करके वह धीरे से उठा, जिसमें रानी न जान पाए। फिर उसी घोड़े पर चढ़कर वन को चला गया। नगर के किसी भी स्त्री-पुरुष को पता नहीं चला। गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥ दो पहर बीत जाने पर राजा आया। घर-घर उत्सव होने लगे और बधावा बजने लगा। जब राजा ने पुरोहित को देखा, तब वह (अपने) उसी कार्य का स्मरण कर उसे आश्चर्य से देखने लगा। जुग सम नृपहि गए दिन
तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥ राजा को तीन दिन युग के समान बीते। उसकी बुद्धि कपटी मुनि के चरणों में लगी रही। निश्चित समय जानकर पुरोहित (बना हुआ राक्षस) आया और राजा के साथ की हुई गुप्त सलाह के अनुसार (उसने अपने) सब विचार उसे समझाकर कह दिए। दो० - नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत। (संकेत के अनुसार) गुरु को (उस रूप में) पहचानकर राजा प्रसन्न हुआ। भ्रमवश उसे चेत न रहा (कि यह तापस मुनि है या कालकेतु राक्षस)। उसने तुरंत एक लाख उत्तम ब्राह्मणों को कुटुंब सहित निमंत्रण दे दिया॥ 172॥ उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥ पुरोहित ने छह रस और चार प्रकार के भोजन, जैसा कि वेदों में वर्णन है, बनाए। उसने मायामयी रसोई तैयार की और इतने व्यंजन बनाए, जिन्हें कोई गिन नहीं सकता। बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥ अनेक प्रकार के पशुओं का मांस पकाया और उसमें उस दुष्ट ने ब्राह्मणों का मांस मिला दिया। सब ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलाया और चरण धोकर आदर सहित बैठाया। परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥ ज्यों ही राजा परोसने लगा, उसी काल (कालकेतुकृत) आकाशवाणी हुई - हे ब्राह्मणो! उठ-उठकर अपने घर जाओ, यह अन्न मत खाओ। इस (के खाने) में बड़ी हानि है। भयउ रसोईं
भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥ रसोई में ब्राह्मणों का मांस बना है। (आकाशवाणी का) विश्वास मानकर सब ब्राह्मण उठ खड़े हुए। राजा व्याकुल हो गया (परंतु), उसकी बुद्धि मोह में भूली हुई थी। होनहारवश उसके मुँह से (एक) बात (भी) न निकली। दो० - बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार। तब ब्राह्मण क्रोध सहित बोल उठे - उन्होंने कुछ भी विचार नहीं किया - अरे मूर्ख राजा! तू जाकर परिवार सहित राक्षस हो॥ 173॥ छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥ रे नीच क्षत्रिय! तूने तो परिवार सहित ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें नष्ट करना चाहा था, ईश्वर ने हमारे धर्म की रक्षा की। अब तू परिवार सहित नष्ट होगा। संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥ एक वर्ष के भीतर तेरा नाश हो जाए, तेरे कुल में कोई पानी देनेवाला तक न रहेगा। शाप सुनकर राजा भय के मारे अत्यंत व्याकुल हो गया। फिर सुंदर आकाशवाणी हुई - बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥ हे ब्राह्मणो! तुमने विचार कर शाप नहीं दिया। राजा ने कुछ भी अपराध नहीं किया। आकाशवाणी सुनकर सब ब्राह्मण चकित हो गए। तब राजा वहाँ गया, जहाँ भोजन बना था। तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥ (देखा तो) वहाँ न भोजन था, न रसोइया ब्राह्मण ही था। तब राजा मन में अपार चिंता करता हुआ लौटा। उसने ब्राह्मणों को सब वृत्तांत सुनाया और (बड़ा ही) भयभीत और व्याकुल होकर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। दो० - भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर। हे राजन! यद्यपि तुम्हारा दोष नहीं है, तो भी होनहार नहीं मिटता। ब्राह्मणों का शाप बहुत ही भयानक होता है, यह किसी तरह भी टाले टल नहीं सकता॥ 174॥ अस
कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥ ऐसा कहकर सब ब्राह्मण चले गए। नगरवासियों ने (जब) यह समाचार पाया, तो वे चिंता करने और विधाता को दोष देने लगे, जिसने हंस बनाते-बनाते कौआ कर दिया (ऐसे पुण्यात्मा राजा को देवता बनाना चाहिए था, पर राक्षस बना दिया)। उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई॥ पुरोहित को उसके घर पहुँचाकर असुर (कालकेतु) ने (कपटी) तपस्वी को खबर दी। उस दुष्ट ने जहाँ-तहाँ पत्र भेजे, जिससे सब (बैरी) राजा सेना सजा-सजाकर (चढ़) दौड़े। घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होइ लराई॥ और उन्होंने डंका बजाकर नगर को घेर लिया। नित्य प्रति अनेक प्रकार से लड़ाई होने लगी। (प्रतापभानु के) सब योद्धा (शूरवीरों की) करनी करके रण में जूझ मरे। राजा भी भाई सहित खेत रहा। सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा॥ सत्यकेतु के कुल में कोई नहीं बचा। ब्राह्मणों का शाप झूठा कैसे हो सकता था। शत्रु को जीतकर, नगर को (फिर से) बसाकर सब राजा विजय और यश पाकर अपने-अपने नगर को चले गए।
पेट की आग को कौन बुझा सकता है?(ग) कवि के अनुसार, पेट की आग को रामरूपी घनश्याम ही बुझा सकते हैं।
पेट की आग कैसे शांत हो सकती है?एसिडिटी से तुरंत छुटकारा पाने के लिए खाने वाला या बेकिंग सोडा एक गिलास पानी में मिलाकर पीएं। इसके सेवन से तुरंत आराम मिलेगा। रात के समय त्रिफला चूर्ण और शहद का सेवन करने से भी एसिडिटी में आराम मिलता है। थोड़ी सी अजवाइन को एक गिलास पानी में मिलाकर पीने से भी एसिडिटी या पेट की जलन बंद हो जाती है।
पेट की आग को शांत करने के लिए लोग क्या क्या निम्न कार्य कर रहे हैं?पेट की आग का शमन ईश्वर (राम) भक्ति का मेघ ही कर सकता है-तुलसी का यह काव्य-सत्य समकालीन युग में भी सत्य था और आज भी सत्य है। राम को तुलसी ने घनश्याम कहा है। तुलसी प्रभु की कृपा को पेट की आग शमन के लिए आवश्यक मानते हैं। उनकी दृष्टि में ईश्वर भक्ति एक मेघ के समान है।
तुलसी ने पेट की आग को शांत करने का क्या उपाय बताया है?2. पेट की आग का शमन ईश्वर (राम) भक्ति का मेघ ही कर सकता है – तुलसी का यह काव्य-सत्य क्या इस समय का भी युग-सत्य है? तर्कसंगत उत्तर दीजिए। उत्तर:- तुलसी ने कहा है कि पेट की आग का शमन ईश्वर (राम) भक्ति का मेघ ही कर सकता है।
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