राजनीतिक सिद्धांत का प्रमुख उद्देश्य क्या? - raajaneetik siddhaant ka pramukh uddeshy kya?

इसे सही ढंग से समझने के लिए ‘राजनीतिक’ तथा ‘सिद्धांत’ इन दोनों शब्दों को अलग-अलग समझना आवश्यक है। यहाँ शब्द ‘सिद्धांत’ तथा ‘राजनीतिक’ एक दूसरे की विशेषता बताते हैं कि राजनीति सिद्धांत या राजनीति का सिद्धांत किसी विशिष्ट विषय की तरफ इशारा करते हैं। आइये इन्हें थोड़ा बारीकी से समझें। 

पहला, सिद्धांत का अर्थ क्या है? शब्द ‘थ्यूरी’ (Theory) एक ग्रीक शब्द है जहाँ यह दो अन्य शब्दों में सम्बन्धित था जो विचार करने योग्य है-

  1. थ्यूरिया (Theoria) जिसका अर्थ है जो हमारे आसपास घटित हो रहा है उसे समझने की क्रिया अथवा प्रक्रिया इसे ‘सैद्धान्तीकरण’ (Theorizing) कहा जाता है तथा 
  2. थ्योरमा (Theorema) जिसका अर्थ है वह निष्कर्ष जो इस सैद्धान्तीकरण की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप निकलते हैं, इन्हें थ्योरम (Theorem) कहा जाता है। 
इन दोनों शब्दावलियों की पहली विशिष्टता यह है कि ये सैद्धान्तीकरण प्रक्रिया (activity of theorizing) तथा इस प्रक्रिया से निकलने वाले निष्कर्षों (outcome of the activity) में अन्तर करती हैं। अर्थात् शब्द सैद्धान्तीकरण का सम्बन्ध किसी घटना को समझने का प्रयत्न है। 


इसका अभिप्राय किसी परिणाम अथवा निष्कर्ष को सिद्ध करना अथवा उसे वैध ठहराना नहीं है। यह केवल खोज, अन्वेषण अथवा जाँच की प्रक्रिया है। सैद्धान्तीकरण उन घटनाओं के इर्द-गिर्द आरम्भ होता है जो हमारे आसपास घटित हो रही होती है और जिनके बारे में हम थोड़ा-बहुत जानते हैं और सैद्धान्तीकरण की प्रक्रिया इसलिए आरम्भ होती है क्योंकि सिद्धांतकार इन घटनाओं के प्रति अधूरे ज्ञान से असंतुष्ट होता है और वह इसे विस्तारपूर्वक एवं तार्किक स्तर पर समझना चाहता है।


सैद्धान्तीकरण शोध की प्रक्रिया के माध्यम से समझने की प्रक्रिया हैं। इस सैद्धान्तीकरण के परिणामस्वरूप प्राप्त किए गए निष्कर्ष अर्थात् ‘थ्योरम’ किसी घटना की बेहतर समझ होगी जिसके बारे में हम पहले केवल अस्पष्ट रूप से जानते थे। 


अत: सैद्धान्तीकरण का अभिप्राय किसी विषय अथवा घटना को समझने का निरन्तर, अविरल, अबाध प्रयत्न होता है। यह ऐसे विषय अथवा घटना से आरम्भ होता है जिसके बारे में हम थोड़ा बहुत जानते हैं परन्तु जिसे विस्तारपूर्वक और स्पष्ट रूप से जानने की आवश्यकता है अर्थात् यह किसी घटना अथवा विषय के बारे में और अधिक जानने तथा ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया है और इसका मूल मन्त्र है-’समाप्त’ शब्द का नाम मत लो (Never say the end) अर्थात् समझने की यह प्रक्रिया उतनी देर तक चलती रहेगी जब तक कि घटनाएँ अथवा विषय पूरी तरह पारदश्र्ाी नहीं हो जाते जब तक रहस्यों की आखिरी गुत्थी नहीं सुलझ जाती या जब तक सिद्धांतकार के पास पूछने लायक प्रश्न समाप्त नहीं हो जाते एक सिद्धांतकार का कार्य किसी अनुभव अथवा घटना के तथ्य को कुछ एक अवधारणाओं या यदि हो सके तो अवधारणाओं की व्यवस्था के आधार पर समझना होता है अर्थात् सम्बद्ध अवधारणाओं के समूह के आधार पर जैसे विचारमन्थन, उद्देश्य, मन्शा, निष्कर्ष, औचित्य, स्वतन्त्रता, समानता, सन्तुष्टि आदि।

दूसरा, यदि सैद्धान्तीकरण का अर्थ किसी विषय को समझने की इच्छा है तो ‘राजनीतिक’ वस्तुत: वह शर्त, सीमा अथवा केन्द्रबिन्दु है जिसका सैद्धान्तीकरण किया जाना है। राजनीतिक सिद्धांत में-’राजनीतिक’ का अभिप्राय राजनीतिक से है। थ्योरी (सिद्धांत) की तरह ‘पॉलिटिक्स’ (राजनीतिक) शब्द भी एक ग्रीक शब्द है जो शब्द ‘पोलिस’ (Polis) से निकला है जिसे ‘नगर-राज्य’ (city-state) कहा जाता है अर्थात किसी भी समुदाय के अच्छे जीवन से सम्बन्धित सभी पक्षों के लिए निर्णय लेने की सामूहिक शक्ति। अरस्तु जैसे सिद्धांतकारों ने राजनीतिक प्रक्रियाओं तथा उनके कार्यान्वयन को समझने के सन्दर्भ में राजनीतिक को परिभाषित करने की कोशिश की। 


अरस्तु का यह कथन-कि ‘मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है’- समाज की अन्तर्निहित मानवीय आवश्यकता की तरफ इशारा करता है तथा इस तथ्य की तरफ भी कि मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा आत्म-सिद्धि केवल राजनीतिक समुदाय के माध्यम से ही प्राप्त कर सकता है। अरस्तु के लिए ‘राजनीतिक’ महत्त्वपूर्ण इसलिए था क्योंकि यह एक ऐसे साझे राजनीतिक स्थान का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें सभी नागरिक भाग ले सकते हैं।

अपने आधुनिक रूप में ‘राजनीतिक’ शब्द राज्य तथा इससे सम्बन्धित संस्थाओं जैसे सरकार, विधानमंडल अथवा सार्वजनिक नीति का प्रतिनिधित्व करता है। विभिन्न विचारधाराओं के बावजूद, ‘राजनीतिक’ के सदर्भ में अभी हाल तक आधुनिक ‘नगर राज्य’ अथवा राज्य अधिकतर राजनीतिक सिद्धांतकारों का साझा विषय रहा है। जैसे कि विल किमिलिका लिखते हैं, ‘अधिकतर पश्चिमी राजनीतिक सिद्धांतकार नगर-राज्य के एक ऐसे आदर्शवादी मॉडल पर कार्य करते आये हैं जिसमें सभी नागरिक एक सामान्य वंश, भाषा तथा संस्कृति साझी करते हैं।’ यहाँ राजनीतिक सिद्धांत के ‘राजनीतिक’ पक्ष का सम्बन्ध रहा है-राज्य तथा सरकारों के स्वरूप, प्रकृति तथा संगठन एवं इन सभी का व्यक्तिगत नागरिकों के साथ सम्बन्ध का अध्ययन।

राजनीतिक सिद्धांत की उदारवादी परम्परा का यह प्रमुख फोकस रहा है। इसके विपरीत माक्र्सवादी विचारधारा प्रबल रूप से उदारवाद के इस ‘राजनीतिक’ तथा ‘गैर-राजनीतिक’ अन्तर को पूरी तरह रद्द कर देता है और यह तर्क देता है कि राजनीतिक शक्ति और कुछ नहीं, केवल आर्थिक शक्ति की दास होती है। परन्तु समस्त रूप से, अवधारणा के स्तर पर असमंजसता के बावजूद, राजनीति के सैद्धान्तीकरण का साझा आधार अभी भी राज्य ही है।

तथापि, पिछले तीन दशकों में, राजनीतिक की स्थापित अवधारणाओं के प्रति असन्तोष बढ़ता जा रहा है, मुख्यत: इन आधारों पर कि ये समकालीन जीवन के अनेक तथ्यों के साथ मेल नहीं खाती या ये ‘राजनीतिक’ की समकालीन धारणा की उचित अभिव्यक्त नहीं कर पा रही। अत: ‘राजनीतिक’ की राज्य तथा सरकार की अवधारणाओं के अतिरिक्त ‘राजनीतिक’ के वर्तमान अन्य दावेदार-समानता, स्वतंत्रता, तार्किकता, निष्पक्षता तथा न्याय की साझी धारणाओं पर आधारित राजनीतिक का विचार तथा (ii) शक्ति, वर्ग, लिंग, औपनिवेशिक अथवा विशिष्ट वर्गीय राजनीतिक के साथ सम्बन्ध। साथ ही, ‘राजनीतिक’ की वर्तमान धारणा में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्र भी निहित है जैसे उदारवाद, माक्र्सवाद, संकीर्णवाद, समुदायवाद, अस्मिता, नारीवाद, नागरिकता, प्रजातन्त्र, शक्ति, सत्ता, वैधता, राष्ट्रवाद वैश्वीकरण तथा पर्यावरण। 

राजनीतिक सिद्धांत परिभाषा 

‘राजनीतिक’ तथा ‘सिद्धांत’ शब्दों के स्पष्टीकरण के बाद अब हम राजनीतिक सिद्धांत को कुछ परिभाषाओं के माध्यम से समझने का प्रयत्न करते हैं। सर्वसाधारण स्तर पर, राजनीतिक सिद्धांत राज्य से सम्बन्धित ज्ञान है जिसमें ‘राजनीतिक’ का अर्थ है ‘सार्वजनिक हित के विषय’ तथा सिद्धांत का अर्थ है ‘क्रमबद्ध ज्ञान’। 


डेविड हैल्ड के अनुसार, राजनीतिक सिद्धांत का महत्व इस बात से प्रकट होता है कि एक क्रमबद्ध अध्ययन के अभाव में राजनीति उन स्वाथ्र्ाी और अनभिज्ञ राजनीतिक नेताओं के हाथ का खिलौना मात्र बन कर रह जायेगी जो इसे शक्ति प्राप्त करने के एक यन्त्र के अतिरिक्त कुछ नहीं समझते।