भर्तृहरि के अनुसार अर्थ का लक्ष्य क्या है? - bhartrhari ke anusaar arth ka lakshy kya hai?

मनीषी कहते हैं, पुरुषार्थी अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करते हैं। केवल आलसी अपने भाग्य को कोसते हैं। पुरुषार्थी, आलस्यरहित रहना ठीक समझता है। साधारणतया जिसे हम भाग्य या प्रारब्ध कहते हैं, वह हमारे पूर्व संचित कर्म ही होते हैं। श्रेष्ठ पुरुष दौड़ लगाते हैं, आगे चलते हैं, उनके पीछे और लोग चलते हैं। जो दौड़ता है उसे लक्ष्य मिलने की संभावना अधिक होती है। महाराज भर्तृहरि ने मनुष्यों को तीन श्रेणियों में बाँट दिया था - अधम, मध्यम और उत्तम। अधम क्लेश के डर से कोई काम प्रारम्भ नहीं करते। मध्यम लोग कार्य प्रारम्भ कर तो देते हैं, परन्तु कोई विघ्न पड़ने पर दुःखी होकर बीच में ही छोड़ देते हैं। परन्तु उत्तम लोग बार-बार कष्ट, विघ्न आने पर भी प्रारम्भ किए गए काम को नहीं छोड़ते वरन्‌ उसे पूरा करके ही दम लेते हैं । ऐसे लोग पुरुषार्थी कहलाते हैं। उपनिषद्‌ कहते हैं - चरैवेति-चरैवेति अर्थात्‌ चलते रहो, चलते रहो। जो हमारा समय निकल गया उसकी चिंता छोड़ें। जो जीवन शेष बचा है उसके बारे में विचार करें।

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भर्तृहरि एक महान संस्कृत कवि थे । संस्कृत साहित्य के इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध है । उनके शतकत्रय (नीतिशतक, श्रंगारशतक, वैराग्यशतक) की उपदेशात्मक कहानियाँ भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती है। प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक है । बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था इसलिए इनका एक लोक प्रचलित नाम बाबा भर्तृहरि भी है।


भर्तहरि ने नीतिशतकम् के विभिन्न श्लोंकों में “मूर्खपद्धति” का वर्णन किया है जो इस प्रकार है -


अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः। ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्माऽपि तं नरं न रञ्जयति॥


अल्पज्ञानी घमण्डी मनुष्य के स्वभाव का वर्णन करते हुए आचार्य भर्तृहरि कहते है - बिल्कुल अनजान व्यक्ति को प्रसन्न करना तथा समझाना अत्यंत सरल बात है। इसी प्रकार विशिष्ट ज्ञानी मनुष्य को समझाना तथा सन्तुष्ट करना और भी अधिक सरल है किंतु थोड़े से ज्ञान के कारण अपने को विद्वान् तथा पण्डितराज समझने वाले दम्भी मनुष्य को संतुष्ट करना असम्भव कार्य है । स्वयं भगवान भी यदि उसे समझाने का प्रयत्न करें तो उनका भी प्रयत्न निष्फल रहेगा , अतः भर्तृहरि कहते है कि ऐसे मनुष्य को संतुष्ट करने तथा समझाने का प्रयत्न करना ही नहीं चाहिए।


प्रसह्यं मणिमुद्धरेन्मकरवक्त्रदंष्ट्रान्तरा- त्समुद्रमपि सन्तरेल्वचलदू्मिमालाकुलम्। भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारयेत्न न तु प्रतिनिविष्टि मूर्खजनचित्तमाराधयेत्।।


भर्तहरि इस श्लोक में बताना चाहते है कि मनुष्य असम्भव कार्य को भी करने में सक्षम हो सकता है किंतु मूर्ख एवं दुराग्रही ढीठ व्याक्ति को कभी किसी प्रकार भी संतुष्ट नहीं किया जा सकता। उनके अनुसार मनुष्य यदि प्रयत्न करे तो मगरमच्छ जैसे हिंसक जीव की दाढों में स्थित मणि को भी बाहर निकालने में सफल हो सकता है, इसी प्रकार ऊपर उठती हुई लहरों वाले समुद्र को भी पार कर सकता है और क्रोधित सांप को पुष्प की तरह अपने सिर पर भी धारण करने में सक्षम हो सकता है किन्तु दुराग्रही मूर्ख व्यक्ति को संतुष्ट करने में कोई भी सफल नहीं हो सकता। ऐसा व्यक्ति अपने हठ पर अड़ा रहता है तथा वह किसी की कोई बात सुनने को तैयार ही नहीं होता है, फिर किसी की बात मानने का तो प्रश्न ही नहीं होता। अतः ऐसे ढीठ मूर्ख व्यक्ति को संतुष्ठ करना बिल्कुल भी सम्भव नहीं है।


लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन्पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दित:। कदाचिदपि पर्यटञ्छशविषाणमासादयेत् न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत।।


भर्तृहरि का यह मानना है कि मनुष्य यदि प्रयत्न करे तो वह बालू (रेत) को दबाने से तेल निकाल सकता है, जल का भ्रम उत्पन्न करने वाले रेत के कणों में भी वह जल प्राप्त करके अपनी प्यास को बुझा सकता है तथा इसी प्रकार इधर-उधर घूमता हुआ भी वह खरगोश के सींग भी प्राप्त कर सकता है, इस प्रकार से असम्भव कार्य तो सम्भव हो सकते है किंतु दुराग्रही (ढीठ) मूर्ख व्याक्ति के मन को संतुष्ट करना कदापि सम्मव हो ही नही सकता। मूर्ख व्यक्ति अहंकार ग्रस्त होता है, अतः उससे अपनी बात मनवाना बिल्कुल सम्भव नही है।


व्यालं बालमृणालतन्तुभिरसौ रोद्धुं समुज्जृम्भते छेतुं वज्रमणिं शिरीषकुसुमप्रान्तेन संनह्यते। माधुर्यं मधुबिन्दुना रचयितुं क्षाराम्बुधेरीहते नेतुं वाञ्छति यः खलान्पथि सतां सूक्तैः सुधास्यन्दिभि॥


प्रस्तुत श्लोक में भर्तृहरि बताना चाहते है कि मूर्खों को सज्जनों के मार्ग की ओर प्रेरित करना उसी प्रकार असंभव है जैसे कोमल कमलनाल के रेशों से मदमस्त हाथी को बांधना असंभव है या जैसे शिरीष जैसे कोमल पुष्प से कठोर मणि को काटना सम्भव नहीं है या जैसे शहद की एक बूंद से विशाल एवं गम्भीर समुद्र के खारे जल को मीठा बनाना संभव नहीं । इस प्रकार मूर्ख मनुष्यों को अमृत जैसे मधुर तथा बहुमूल्य वचनों से भी सज्जन बनाने का प्रयास निष्फल ही होता है । मूर्ख मनुष्य दूसरे लोगों की बात सुनने को तैयार ही नहीं होते, अनः उनकी मूर्खता को दूर करने का प्रयत्न निष्फल ही रहती है।


स्वायत्तमेकान्तगुणं विधात्रा विनिर्मितं छादनमज्ञताया:। विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम्।।


“मूखो की मूर्खता को छिपाने के लिए मौन धारण करना एक श्रेष्ठ आभूषण है” इस विषय को प्रस्तुत करते हुए भर्तृहरि कहते है - ब्रह्म ने कृपा करके मूर्खों के लिए उनकी मूर्खता को छिपाने का अत्यंत हितकर साधन “चुप रहना” बनाया है जो उनके ही अधीन है अर्थात् जो पूर्णतया उनके ही वश में है तथा इससे विद्वानों की सभा में उनकी शोभा भी बढ़ती है । इस प्रकार मौन रहने से मूर्खों की मूर्खता तो छिप ही जाती है साथ ही विद्वानों की सभा में यह उनका आभूषण बनकर उनकी शोभा को भी बढ़ाता है । चुप रहने से उनकी मूर्खता का भी पता नहीं चलता है।


यदा किम्मेज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्ध: समभवं तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः।यदा किञ्चित्किञ्चिद्बुधजनसकाशादवगतंतदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः॥


“थोड़ी सी जानकारी अहंकार को उत्पन्न करने वाली होती है तथा विद्वानों की संगति इस अहंकार की विनाशिका होती है” इस भाव को प्रस्तुत करते. भर्तृहरि कहते है कि विद्वानों की संगति से मनुष्य का अभिमान बिल्कुल नष्ट हो जाता है। थोड़ी सी जानकारी प्राप्त करके मनुष्य अभिमान से अंधा होने लगता है, वह अपने आपको सर्वज मानने लगता है, वह मदमस्त हाथी की तरह गर्वोन्मत्त हो जाता है किंतु विद्वानों की संगति प्राप्त करके वह शीघ्र ही अपने को मूर्ख अनुभव करने लगता है। वह समझ जाता है कि उसने तो अभी ज्ञान प्राप्त किया ही नहीं है, शास्त्रों का अध्ययन किया ही नहीं है। उसका अहंकार नष्ट होने लगता है और वह ज्ञान अर्जित करने के लिए प्रवृत हो जाता है। इस प्रकार विद्वानों की संगति कितनी हितकर है- यह तथ्य भी प्रस्तुत किया गया है और साथ ही अहंकारशून्यता ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनिवार्य है- यह भी बताया गया है।


कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं नं विगन्धि जुगुप्सितं निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम्।सुरपतिमपि श्र्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङकते नहि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम्॥


इस श्लोक में भर्तृहरि बताना चाहते है कि नीच व्यक्ति अपने द्वारा अपनाई हुई वस्तु की निस्सारता पर ध्यान नहीं देता।

प्राणी अपने स्वभाव के अनुसार वस्तु को प्राप्त करके उससे पूर्ण संतुष्टि प्राप्त कर लेता है महान् प्राणी श्रेष्ठ वस्तु को प्राप्त किए बिना संतुष्ट नहीं होता किंतु नीच प्राणी तुच्छ वस्तु से भी असीम सन्तोष प्राप्त कर लेता है। कुत्ते का उदाहरण देकर कवि इस भाव को प्रस्तुत करते हुए यहां बताते है कि कुत्ता कीड़ों से व्याप्त, लार से गीली, दुर्गन्धमय, घृणाजनक तथा मांसरहित हड्डी को चाटता रहता है, उससे उसे अत्यंत संतोष मिलता है। उस समय यदि स्वयं इन्द्र भी वहां उपस्थित हो जाएं तो उसे लज्जा अनुभव नहीं होती। क्योंकि यह सत्य है कि नीच व्यक्ति को अपनी वस्तु तुच्छ होते हुए भी तुच्छ नहीं लगती। वह अपने द्वारा प्राप्त वस्तु को ही श्रेष्ठ समझता है और उसे नहीं छोड़ता (त्यागता) है। इसी प्रकार नीच व्यक्ति निन्दनीय कार्य करने से भी नहीं चूकता, घृणित कार्य करने में भी उसे लज्जा अनुभव (महसूस) नहीं होती।


शिर: शार्वं स्वर्गात्पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरंमहीध्रादुत्तङ्गादवनिमवनेश्र्चापि जलधिम्। अधोऽधो गंगेयं पदमुपगता स्तोकमथवा विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः।।


अविवेकी लोगों का अध: पतन किस प्रकार होता है- इसका वर्णन करते हुए कवि भर्तृहरि बताते है-

सुरसरिता गंगा अपने तीव्र प्रवाह के साथ स्वर्ग लोक में बहती थी। अपनी तेज गति के गर्व से वह विवेक शूल्य हो गई और धीरे-धीरे उसका अधःपतन होना आरम्भ हो गया। वह सर्वोच्च स्थान स्वर्ग से निम्नतम स्थान पाताल लोक में पहुंच गई क्योंकि विवेक शून्य लोग इसी प्रकार सैकड़ों प्रकार से पतन प्राप्त करते है। इस प्रकार भर्तृहरि मनुष्य मात्र को यह उपदेश देना चाहते है कि मनुष्य को विवेक से काम लेना चाहिए तथा अपनी उन्नति पर कभी गर्व नहीं करना चाहिए। विवेकशून्यता तथा दर्प मनुष्य की अवनति का मूल कारण होता है।


शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक्छत्रेण सूर्यातपो नागेन्द्रो निशिताङकुशेन समदो दण्डेन गोगर्दभौ। व्याधिर्भेषजसंग्रहैश्च विविधैर्मंत्रप्रयोगैर्विषं सर्वस्योषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम्॥


“मूर्ख की मूर्खता को दूर करने का कोई उपाय नहीं है” इस विषय का वर्णन करते हुए भर्तृहरि कहते है कि सभी परेशानियों का कुछ न कुछ इलाज (समाधान) शास्त्रों में वर्णित है किन्तु मूर्ख को समझाने का या उसकी मूर्खता को दूर करने का कोई उपाय नहीं है । अनेक उदाहरणों द्वारा अपनी बात को सिद्ध करते हुए बताते है- जैसे अग्नि को पानी से बुझाया जा सकता है, छतरी के प्रयोग से सूर्य की गर्मी को कम किया जा सकता है, तीक्ष्ण अंकुश से विशालकाय तथा मदमस्त हाथी को भी वश में किया जा सकता है, बैल तथा गधे को डण्डे से मारकर वश में कर सकते। औषधि के सेवन से रोग से छुटकारा मिल सकता है तथा मंत्र-तन्त्रों के जाप से विष को दूर किया जा सकता है। इस प्रकार शास्त्रों में हर समस्या का समाधान तथा कष्ट का निवारण वर्णित है किंतु मूर्ख के लिए कोई दवा वर्णित नहीं है अर्थात मूर्ख को समझाना असंभव है, क्योंकि वह किसी की कोई बात सुनने या समझने को तत्पर ही नहीं होता । मूर्खता को एक असाध्य रोग के रूप में वर्णित किया गया है।


वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरै: सह। न मूर्खजनसम्पर्क: सुरेन्द्रभवनेष्वपि॥


कवि इस श्लोक के माध्यम से मनुष्य मात्र को शिक्षा देते है कि मूर्ख लोगों की संगति से बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए मूर्खों की संगति चाहे कितनी भी सुख सुविधा देने वाली क्यों न हो फिर भी वह त्याज्य है तथा वनवासियों के साथ पर्वत या दुर्गम स्थलों पर कष्टपूर्वक भी चाहे भटकना पड़े वह निस्संदेह अच्छा है क्योंकि हम मूर्खों के दुर्गणों से बचे रहेंगे। इस प्रकार मूर्ख व्यक्ति के संपर्क से कष्टों से पूर्ण वनवासियों का संग भी श्रेयस्कर बताया गया है।


निष्कर्ष:-

थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त करके जो व्यक्ति स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगता है, अपने पर अहंकार करता है उस ढीठ व्यक्ति को समझाने का प्रयास सदैव निष्फल ही होता है क्योंकि वह ढीठ व्यक्ति समझने की बजाय उस बात को काटता रहता है, स्वयं इन्द्र भी ऐसे व्यक्ति को नहीं समझा सकते है, अतः ऐसे व्यक्ति को समझाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। भर्तृहरि कहते है कि मनुष्य अनेक असंभव कार्य को संभव कर सकता है किंतु थोडे से ज्ञान वाले मूर्ख व्यक्ति को संतुष्ट करना असंभव है। भर्तृहरि बताते है कि शास्त्रों में सभी परेशानियों का इलाज (समाधान) मौजूद है किंतु मूर्खता को दूर करने का कोई उपाय नहीं मिलता। भर्तृहरि मनुष्यमात्र को शिक्षा देते है कि मूर्ख लोगों का साथ कितना ही सुखदायी क्यों न हो उसकी अपेक्षा वनवासियों के साथ कष्टपूर्वक ही दुर्गम स्थानों पर भटकना अच्छा है, इससे हम मूर्खों के दुर्गुणों से बचे रहेंगे। अर्थात् मूर्खों के साथ नहीं रहना चाहिए।

भर्तृहरि ने अनुवाद का अर्थ क्या लिया है?

भर्तृहरि ने अनुवाद अर्थ 'दोहराना' पुनर्कथन लिया है। अर्थात् जो बात कही जा चुकी है उसे उसी भाषा में दूसरी भाषा में व्यक्त करना या दोहरा देना, अनुवाद है। कुछ शब्दों के हेर फेर के साथ आज सारी पश्चिमी जगत भी इसी परिभाषा के आधार पर अनुवाद कार्य को स्वीकार कर रहा है।

भर्तृहरि के शतक कितने है?

भर्तृहरि संस्कृत मुक्तककाव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है। इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर,रसपूर्ण तथा प्रवाहमयी है।

भर्तृहरि के गुरु कौन थे?

प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था इसलिये इनका एक लोकप्रचलित नाम बाबा भरथरी भी है। जनश्रुति और परम्परा के अनुसार भर्तृहरि विक्रमसंवत् के प्रवर्तक सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के अग्रज माने जाते हैं।

भर्तृहरि का जन्म कब हुआ था?

570 ईस्वीभर्तृहरि / जन्म तारीखnull