सी वी रमन ने क्या खोज की? - see vee raman ne kya khoj kee?

सी वी रमन का जीवन परिचय (Dr. C. V. Raman Ka Jeevan Parichay), सर चंद्रशेखर वेंकेट रमन का जन्म 7 नवम्बर, सन् 1888 ई० में तमिलनाडु के तिरुचरापल्ली जिले के थिखनैवकवल नामक गाँव में हुआ। वे अपने पिता श्री चंद्रशेखर अय्यर की दूसरी संतान थे। पिताजी गणित व भौतिकी के शिक्षक थे। एक स्थानीय विद्यालय में अध्यापन के साथ-साथ वे स्वयं भी पठन-पाठन में जुटे रहते।

सी वी रमन का जीवन परिचय (Dr. C. V. Raman Ka Jeevan Parichay)

सी वी रमन ने क्या खोज की? - see vee raman ne kya khoj kee?

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सी वी रमन का जीवन परिचय

वैज्ञानिक विभूति, नोबेल पुरस्कार विजेता सी० वी० रमन आजीवन वैज्ञानिक रहस्यों को सुलझाने में लीन रहे। उन्होंने हमें संदेश दिया कि प्रकृति के प्रत्येक क्रिया-कलाप में कोई न कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण अवश्य छिपा रहता है।

डॉ. सी वी रमन के द्वारा किये गये आविष्कार

S.No आविष्कार
1. ‘रामन प्रभाव’ अन्वेषण पर नोबेल पुरस्कार
2. ‘ध्वनि कंपन’ व ‘शब्द विज्ञान’ पर प्रयोग
3. इंडियन एकेडमी ऑफ साइंस की स्थापना

आवश्यकता है तो उसे जानने व पहचानने की। सर सी० वी० रमन के किसी भी चित्र को देखें तो वे आपको कोट, पैंट, टाई व दक्षिण भारतीय पगड़ी में दिखाई देंगे। वस्तुतः उनकी वेषभूषा की यही सादगी उनका अलंकरण थी।

वीणावादन में पारंगत, आठ भाषाओं के ज्ञाता, नोबेल व अन्य अनेक पुरस्कारों के विजेता सी० वी० रमन जी प्रत्येक व्यक्ति से इतनी आत्मीयता से मिलते थे कि आगंतुक एक क्षण को यह भी भूल जाता था कि वह इतने महान व्यक्ति से भेंट कर रहा है।

इसी लगन के बल पर कुछ ही वर्षों में उनकी नियुक्ति आंध्रप्रदेश के विशाखापत्तनम् के मिसेज ए०वी०एम० कॉलेज में गणित व भौतिकी के प्राध्यापक के रूप में हो गई। विज्ञान प्रेमी पिता से ही रमन ने गहरे संस्कार पाए।

रमन के पिता ने जीवन में आगे बढ़ने के निश्चय से अपने पारंपरिक कर्म कृषि को त्याग कर अध्यापन कार्य को चुना था। उनकी पत्नी, श्रीमती पार्वती अम्मल एक शास्त्री परिवार की कन्या होने के नाते स्वयं भी संस्कारवान् थीं। उन्होंने ही पुत्र को भारत की उदात्त व महान सभ्यता व संस्कृति से परिचित करवाया। बालक रमन ने अपने जीवन की प्रथम पाठशाला अर्थात् माँ से ही निरंतर परिश्रम, अध्यवसाय व सेवा भाव का पाठ पढ़ लिया था।

नन्हा रमन बाल्यकाल से ही जिज्ञासु, संगीत व प्रकृति प्रेमी था। पिता के वीणावादन का वह भी किसी वयस्क की भांति रसास्वादन करता। किसी तार को छूने से उत्पन्न होने वाली यह स्वर लहरियाँ उसके नन्हे मस्तिष्क के लिए बहुत विचित्र थीं।

कौन जानता था कि एक दिन इसी रुझान के बल पर वे पारंपरिक भारतीय वाद्य यंत्रों को पश्चिमी वाद्य यंत्रों की तुलना में श्रेष्ठ सिद्ध कर दिखाएंगे। रमन ने अपने पिता से ही वीणावादन सीखा। गणित व विज्ञान पिता के प्रिय विषय थे अतः समय पाते ही पिता-पुत्र इन दोनों विषयों की पुस्तकों में रम जाते।

कॉलेज प्रिंसिपल श्रीमान आयंगर से रमन अंग्रेजी पढ़ते थे। वे उनके पड़ोसी भी थे। इस प्रकार विजगापट्टम प्रवास में रमन प्रकृति की शोभा से एकाकार होते हुए अपने अध्ययन को आगे बढ़ाने लगे। अध्यवसाय की इसी लगन के कारण रमन ने अल्पायु में ही अंग्रेजी भाषा पर असाधारण अधिकार पा लिया। अंग्रेजी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से उनकी जिज्ञासा तो शांत होती ही साथ ही वे अपना शब्द ज्ञान भी बढ़ाते चलते।

हाई स्कूल में पहुँचने तक रमन भौतिकी विज्ञान की अनेक पुस्तकें हृदयंगम कर चुके थे। आश्चर्य की बात तो यह थी कि वे सभी पुस्तकें पाठ्यक्रम से बाहर की थीं।

जिस आयु में रमन के सहपाठी समुद्र के किनारे पड़ी बालू से रेत के महल बना कर उसे शंख व सीपियों से सजाते उसी आयु में रमन अपने कक्ष में किसी वैज्ञानिक पुस्तक के रहस्यमयी संसार में खोए मिलते। बाल्यकाल से ही उनका शरीर दुबला-पतला था।

पढ़ने के शौक ने उन्हें स्वास्थ्य की ओर से लापरवाह कर दिया था परंतु माँ की दृष्टि से पुत्र के शरीर की दशा छिपी न थी। वे प्रायः उनसे कहतीं “रमन ! तुम्हें अपने खान-पान की ओर भी ध्यान देना चाहिए। यदि शरीर बिगड़ गया तो तुम्हारा लक्ष्य भी अधूरा रह जाएगा।” रमन शांत भाव से उत्तर देते “माँ ! इस समय मुझे पुस्तकों से अधिक रस कहीं और नहीं मिलता अतः चाहने पर भी स्वास्थ्य रक्षा मेरे लिए संभव नहीं है।”

बस माँ-बेटे का वार्तालाप इन्हीं वाक्यों पर थम जाता और रमन किसी नई पुस्तक की खोज में पुस्तकालय की ओर चल देते। माँ की आशंका निराधार नहीं थी। मैट्रिक की परीक्षाएं सिर पर थीं और बालक रमन रोगशय्या पर थे। उनका रोगग्रस्त शरीर सभी के लिए चिंता का विषय बन गया। उनके प्रथम आने की संभावनाएं क्षीण होती जा रही थीं।

खैर परीक्षाएं तो देनी ही थीं। माता-पिता को कुछ खास उम्मीद नहीं थी परंतु सबकी आशा के विपरीत रमन का नाम मैरिट लिस्ट में सर्वप्रथम था। बारह वर्षीय रमन ने मैट्रिक की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। उन्हीं दिनों उनके जीवन में एक ऐसा मोड़ आया जिसने उनके मानसिक जगत की भाव-प्रवणता को और भी गहरा दिया।

श्रीमती ऐनी बेसेन्ट उन दिनों भारत के विभिन्न क्षेत्रों के दौरे पर थीं। उनके भाषण श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते। भाषण की एक-एक पंक्ति धर्म व संस्कृति से ओत-प्रोत रहती। रमन के परिवार का वातावरण प्रगतिवादी था। पाश्चात्य विचारधारा के पोषक पिता के सान्निध्य में रमन ने भारतीय सभ्यता का ऐसा परिचय इतिपूर्व नहीं पाया था। माता का स्वभाव धार्मिक तो था किन्तु परिवार में धार्मिक कर्मकाण्डों का आयोजन न के बराबर थे।

रमन की वैज्ञानिक रुचि जाने कुछ समय के लिए कहाँ विलुप्त हो गई ? वे धर्म ग्रंथों के अध्ययन व पठन-पाठन में खो गए। उनकी पुस्तकों की अलमारियों में भौतिक विज्ञान के ग्रंथों का स्थान रामायण व महाभारत आदि ने ले लिया। श्रीमती बेसेन्ट के सभी ग्रंथों व लेखों का उन्होंने बार-बार अध्ययन किया।

एफ० ए० के छात्र द्वारा धर्म का इतना गहन अध्ययन माता-पिता व अध्यापकों के लिए आश्चर्य का विषय था जबकि रमन की वैज्ञानिक अभिरुचियाँ तो सभी को ज्ञात थीं। रमन ने इन दिनों धार्मिक विषयों पर गहन व गूढ़ निबंध लिखे। उनके निबंधों की भाषा सुरुचिपूर्ण थी। महाकाव्य पर लिखे एक निबंध पर उन्हें पुरस्कार भी प्राप्त हुआ।

इसके बावजूद वे एफ० ए० की परीक्षा में अच्छे अंकों से पास हुए। उन्होंने विश्वविद्यालय में अच्छा स्थान पाया। चौदह वर्षीय रमन की कद-काठी भी ऐसी थी जिसे देख कर उनकी विद्वता का अनुमान लगाना कठिन था।

सन् 1902 में उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। सभी शुभचिंतकों का परामर्श था कि उन्हें ऐसे विषय चुनने चाहिए जिनकी सहायता से शीइन सिविल सर्विसेज की प्रतियोगिता पास करने में मदद मिल सके। प्रतियोगिता में इतिहास की जानकारी होना भी आवश्यक था अतः उन्हें बी०ए० में इतिहास लेने को कहा गया। रमन ने स्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया “भविष्य में होने वाली किसी भी प्रतियोगिता के लिए मैं अपनी रुचि का बलिदान नहीं करना चाहता। मैं तो विज्ञान ही पढूँगा। विज्ञान मेरा प्रिय विषय है।”

कॉलेज का पहला दिन रमन अपनी सादी-सी पोशाक में, नंगे पांव, कक्षा में पधारे। नाटा कद, दुबला-पतला शरीर और मुख पर सरल स्मित। कोई विश्वास नहीं कर पा रहा था कि रमन बी०एस०सी० के प्रथम वर्ष के छात्र थे। कक्षा में अंग्रेजी के प्रोफेसर श्री ई० एच० इलियट का आगमन हुआ। उन्होंने इस नए छात्र को हैरानी से देख कर प्रश्न किया

“क्या तुम इसी कक्षा के विद्यार्थी हो ?” “जी, मेरा कक्षा में पहला दिन है।” “तुम्हारी आयु कितनी है ?” “जी, मैं चौदह वर्ष का हूँ।” “क्या तुमने एफ०ए० पास कर लिया है ?” “जी हाँ” रमन ने आत्मविश्वास युक्त स्वर में कहा। प्राध्यापक अब भी संशय में थे। उन्होंने फिर पूछा “कहाँ से?” “सर ! वॉल्टेयर के इण्टर कॉलेज से मैंने एफ०ए० पास किया है। और मुझे पूरा विश्वास है कि मैं सही कक्षा में बैठा हूँ।”

रमन के आत्मविश्वास ने केवल अंग्रेजी के अध्यापक नहीं वरन् सभी का मन मोह लिया। सभी अध्यापक शीघ्र ही जान गए कि रमन का मानसिक स्तर अन्य छात्रों से कहीं ऊँचा है। रमन केवल पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों के अध्ययन से संतुष्ट नहीं थे। निरंतर बढ़ती ज्ञान-पिपासा ने उन्हें भौतिकी विज्ञान के अनेक प्रमाणिक ग्रंथ पढ़ने की प्रेरणा दी।

प्रयोगशाला में वे जब भी कोर्स के अतिरिक्त कोई प्रयोग करना चाहते तो प्रोफेसर रोक देते परंतु कुछ ही दिनों में सभी प्रोफेसर जान गए कि रमन को मनचाहे प्रयोग करने से वंचित करके वे उनकी प्रतिभा को कुंठित कर देंगे। अन्त में उन्हें मनचाहे प्रयोग करने का अवसर दे दिया गया। इसी प्रयोगशाला में रमन ने गणित व यंत्र विज्ञान पर अनेक प्रयोग किए। उनकी मौलिक अन्वेषण क्षमता को निखरने का पूरा अवसर मिला।

सन् 1904 में रमन की बी०एस०सी० की परीक्षा प्रथम श्रेणी में तथा भौतिक विज्ञान में विशेष योग्यता सहित पास की। उन्हें भौतिक विज्ञान का अर्णी स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। तत्पश्चात् उन्होंने उसी कॉलेज में भौतिक विज्ञान में ही एम०ए० में दाखिला ले लिया।

शोध कार्यों में उनकी रुचि बढ़ती जा रही थी। सन् 1906 में लंदन की एक जानी-मानी वैज्ञानिक पत्रिका “फिलासाफिकल मैगजीन” में एक शोधपत्र प्रकाशित हुआ। जिसका शीर्षक था “अनसिमेट्रिकल डिफ्रैक्शन बैंडस् ड्यू टू रैक्टैंगुलर एपरचर ।”

इस शोधपत्र के लेखक रमन ही थे। लगभग अठारह वर्ष की आयु में ही रमन ने अनेक ग्रंथों व शोध-पत्रों पर कार्य कर लिया था। एम.ए. की परीक्षा उन्होंने प्रथम श्रेणी में प्राप्त की। उन दिनों भारत में प्रतिभाशाली युवकों के लिए साधनों व सुविधाओं का अभाव था।

राजकीय उच्च सेवाओं के लिए प्रतियोगिता परीक्षाओं का आयोजन भी इंग्लैंड में ही होता था। केवल अर्थ-विभाग के लिए कलकत्ता में प्रतियोगिता परीक्षा आयोजित की जाती थी। शुभचिंतकों के परामर्श, उन्हें वकील व अध्यापक रूप में देखना चाहते थे परंतु रमन के हृदय में वैज्ञानिक बनने की तीव्र अभिलाषा थी।

परंतु परिस्थितियाँ कई बार मनुष्य को अपना निर्णय बदलने को विवश कर देती हैं। वैज्ञानिक बनने से पूर्व परिवार के भरण-पोषण की समस्या का स्थाई समाधान आवश्यक था। पिता भी यही चाहते थे कि पुत्र कुछ कमाए व परिवार को आर्थिक सहायता प्रदान करे। पिता के आग्रह पर रमन ने इस अर्थ-विभाग की परीक्षा में बैठने का निश्चय कर लिया।

इस परीक्षा में साहित्य, विज्ञान, संस्कृत व राजनीति आदि विषय थे। प्रतिभाशाली रमन को इस परीक्षा को पास करने में कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई और वे भारत सरकार द्वारा कलकत्ता के अर्थ-विभाग में डिप्टी डायरेक्टर के पद पर नियुक्त किए गए।

सी० वी० रमन परंपराओं व आधुनिकता के मिश्रण से बनी जीवन पद्धति के समर्थक थे। उन्होंने स्वयं अपने विवाह के लिए कन्या पसंद की। अठारह वर्षीय रमन ने तरेह वर्षीया लोकसुंदरी को पहली नजर में ही अपनी वधू चुन लिया। कोई भी निश्चय कर लेने के पश्चात् वे उसे क्रियान्वित करने में समय नहीं लगाते थे।

उन्होंने अपने माता-पिता को अपने निर्णय से अवगत कराया तो वे खुशी से झूम उठे। लोकसुंदरी के पिता श्री कृष्णस्वामी अय्यर, सामुद्रिक चुंगी विभाग के अधीक्षक थे। रमन-सा उच्चपदासीन, सुशिक्षित व सुयोग्य दामाद भला उन्हें कहाँ मिलता ? हालांकि उनका कुल रमन के कुल से ऊँचा था परंतु उन्होंने कट्टरपंथी ब्राह्मणों के तीव्र विरोध की अवहेलना कर इस विवाह संबंध को स्वीकृति दे दी।

श्रीमती रमन अपने पति के साथ कलकत्ता में ही रहने लगीं। कुछ ही दिन में वे पति के स्वभाव से भली-भांति परिचित हो गई और एक सच्ची अर्धागिनी के रूप में पति की सेवा करने लगीं। रमन अपनी वर्तमान नौकरी से संतुष्ट तो अवश्य थे किन्तु वैज्ञानिक बनने व एक अनुसंधान संस्थान की स्थापना का स्वप्न वे भुला नहीं पा रहे थे।

फलतः नौकरी करने के पश्चात् वे बचे हुए समय में प्रयोगशाला में जाने लगे। सुविधाएं कम थीं पर वे “ध्वनि कंपन और शब्द विज्ञान” के प्रयोगों में जुटे रहते। भारतीय वाद्यों पर उनकी समझ बहुत गहरी थी अतः वे इन्हीं के सिद्धांतों पर काम करने लगे।

उन्होंने वॉयलिन, तानपूरा, सेलो व पियानो जैसे विदेशी वाद्य यंत्रों पर भी काम किया। इन्हीं अध्ययनों के विषय में उनके अनेक लेख विभिन्न की एम सेसन सध्या वर्गीकरण संख्या पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे।

अर्थ-विभाग के अफसर के रूप में भी उनकी धाक चारों ओर जम चुकी थी। भ्रष्टाचार से उनका कड़ा बैर था। काम न करने वाले व समय पर न आने वाले कर्मचारियों के प्रति उन्हें कोई सहानुभूति न थी। उन्हें वे अवश्य दंडित करते। विभाग में चारों ओर उनकी कठोरता के किस्से प्रचलित थे। यहाँ तक कि विरोधियों ने उन पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाए परंतु उच्च अधिकारियों द्वारा जाँच में वे सभी आरोप निराधार निकले।

बिना किसी शिकायत के रमन अपनी लक्ष्य पूर्ति में जुटे थे पर किसी अच्छी प्रयोगशाला का अभाव उन्हें प्रायः खटकता। एक दिन ट्राम से जाते समय उनकी नजर एक बोर्ड पर पड़ी जिस पर लिखा था।

“इण्डियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ साईस” यह नामपट्ट पढ़ते ही रमन बिना कुछ सोचे-विचारे ट्राम से उतरे और सीधा संस्था में जा पहुँचे। वह संस्था डॉ. महेंद्र लाल सरकार द्वारा स्थापित की गई थी तथा सर आशुतोष मुखर्जी उसके अध्यक्ष थे। कुछ ही घंटों की भेंट में डॉ. सरकार इस वैज्ञानिक के विषय में काफी कुछ अनुमान लगा चुके थे।

महान उद्देश्य के बावजूद इस संस्था की प्रयोगशाला में साधनों का अभाव ही था। रमन दिन में नौकरी करते और देर रात तक प्रयोगशाला के प्रयोगों के खोए रहते। प्रयोगशाला से प्रकाशित होने वाले बुलेटिन के माध्यम से उनके आविष्कारों की ख्याति विदेशों तक जा पहुँची जिससे संस्थान की लोकप्रियता में भी वृद्धि हुई।

सर आशुतोष मुखर्जी तो उन्हें अपने छोटे भाई की भाँति स्नेह देने लगे थे पर इस अनुकूल चलती धारा में अचानक अवरोध उत्पन्न हो गया। रमन का स्थानांतरण रंगून कर दिया गया। आर्थिक दृष्टि से नौकरी छोड़ना भी कठिन था अतः कुछ अनिच्छा से ही रमन रंगून के

लिए रवाना हुए। रंगून में रमन अपने सीमित साधनों के बल पर प्रयोग करते रहे। जीवन में शायद ही कभी ऐसा अवसर आया होगा जब उन्होंने वैज्ञानिक प्रयोग से मुख मोड़ा हो । तत्पश्चात् उन्हें नागपुर जाने का आदेश मिला। वहाँ भी उन्होंने एक छोटी-सी चलती-फिरती प्रयोगशाला बना ली। लगभग एक वर्ष पश्चात् पुनः कलकत्ता के लिए स्थानांतरण आदेश आए तो उनका मन मयूर नाच उठा।

भारतीय विज्ञान परिषद की प्रयोगशाला ने बाँहें फैला कर इस उत्साही वैज्ञानिक का स्वागत किया। कलकत्ता में अपने शब्द विज्ञान से संबंधित प्रयोगों के कारण उन्हें शब्द विज्ञान का प्रकाण्ड पंडित माना जाने लगा। रमन अपने सरकारी पद पर थे जब कलकत्ता में विज्ञान कॉलेज की स्थापना हुई। सब की निगाहें रमन महोदय पर जा टिकीं।

उन्हें भौतिक विज्ञान का प्रोफेसर बनने की पेशकश रखी गई। अधिकांश परिचितों का यही मत था कि वेंकट रमन को अपनी बंधी बंधाई सरकारी नौकरी से त्यागपत्र नहीं देना चाहिए परंतु रमन तो इस प्रस्ताव में अपने वर्षों से पालित स्वप्नों को साकार होता देख रहे थे। अंततः पच्चीस वर्षीय वेंकट रमन कलकत्ता विश्वविद्यालय में जा पहुँचे।

उसी परिसर में उन्हें रहने के लिए आवास भी दे दिया गया। श्रीमती रमन भी इस परिवर्तन से प्रसन्न थीं। उन्हें वेतन व सुविधाएं कम होने का खेद नहीं था। वे जानती थीं कि इस नौकरी में उनके पति की वैज्ञानिक प्रतिभा और भी खुल कर सामने आएगी।

रमन ने इस विश्वविद्यालय में जिस उत्साह व लगन से कार्य किया वह सभी के लिए एक उदाहरण बन गया। कॉलेज के विज्ञान छात्रों ने उनके विचारों का लाभ लिया और अनेक क्षेत्रों से छात्र इस साइंस कॉलेज में पहुँचने लगे। रमन भारतीय विज्ञान परिषद के उपसभापति भी थे किन्तु श्री सरकार की मृत्यु के पश्चात् उन्हें संस्थान का मंत्री पद भी संभालना पड़ा।

इस दिनों उनके अनुसंधान का विषय था “प्रकाश का रंग” । उनके अनेक सहयोगी व विद्यार्थी भी उनकी प्रेरणा से इसी विषय पर काम कर रहे थे। सन् 1921 में उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों के प्रतिनिधि के रूप में लंदन भेजा गया। इस प्रथम विदेश यात्रा ने विज्ञान जगत का बहुत कल्याण किया।

समुद्री यात्रा के दौरान रमन ने समुद्र का नीला जल देखा तो एक प्रश्न उनके मस्तिष्क में कौंधा “इस नीलेपन का क्या कारण है ?” इसी प्रश्न के कारण “रामन प्रभाव” की खोज हो सकी। भारत लौटते ही वे इस प्रश्न का उत्तर खोजने में लग गए। कई प्रयोगों के पश्चात् वे इस निर्णय पर पहुँचे कि समुद्र के जल में नीला रंग प्रकाश के प्रभाव से होता है।

अनेक प्रयोगों व अध्ययनों के पश्चात् उन्होंने एक निबंध लिखा (Molecular diffraction of light) इस निबंध ने वैज्ञानिकों के बीच खलबली मचा दी। रमन ने सिद्ध कर दिया था कि केवल पारदर्शक द्रव्यों में ही नहीं, अन्य ठोस पारदर्शक पदार्थों जैसे बर्फ आदि में भी अणुओं की गति के कारण प्रकाश किरणों का परिक्षेपण होता है।

सन् 1924 में कनाडा में ब्रिटिश साम्राज्य के वैज्ञानिकों का सम्मेलन हुआ। वहाँ रमन ने भी भाग लिया। इस सम्मेलन में उनकी भेंट विश्व के अनेक वैज्ञानिकों से हुई। इसी यात्राकाल में उन्होंने ग्लेसियर के टुकड़े पर भी कुछ प्रयोग किए।

रमन प्रभाव – रामन प्रभाव के अन्वेषण पर उन्होंने प्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार पाया। सात वर्षों की अनवरत तपस्या का फल था ‘रामन प्रभाव’ 28 फरवरी सन् 1928 को उनके सहयोगी वैज्ञानिक ने खोज को तथ्यों सहित लिखित रूप दिया व रामन प्रभाव (Raman Effect) का नाम दिया। तब से प्रतिवर्ष उन्हीं के सम्मान में इस दिन को “राष्ट्रीय विज्ञान दिवस” के रूप में मनाया जाता है।

इस आविष्कार से उन्होंने सिद्ध किया कि जब अणु प्रकाश बिखेरते हैं तो उस समय मूल प्रकाश में परिवर्तन हो जाता है। परक्षिप्त प्रकाश में जो किरणें दिखाई दीं, उन्हें ही ‘रमन किरणें’ अथवा ‘रमन प्रभाव’ कहा गया ।

कर्तव्य पालन में वे सदैव आगे रहे। इतनी बड़ी खोज कर लेने के पश्चात् भी उन्हें याद रहा कि उन्हें कक्षा लेने जाना सहयोगी को शांत भाव से कहा । उन्होंने “तुम इस प्रभाव को अन्य वैज्ञानिकों को दिखा कर उनका परामर्श लो, तब तक मैं कक्षा को पढ़ा कर आता हूँ।” कहते हैं कि उन्होंने अपने इस आविष्कार पर मात्र 200 रु. खर्चा किया था।

8 मार्च सन् 1928 को ‘नेचर’ पत्रिका में उनकी खोज का पूरा विवरण छपा और विज्ञान जगत में खलबली मच गई। सन् 1930 में उनका नाम नोबेल पुरस्कार के लिए भेजा गया। महान वैज्ञानिक रदरफोर्ड, नील्स बोर, चाल्सन आदि ने उनका नाम प्रस्तावित किया। रमन तो मानो अपनी इस सफलता के लिए बहुत पहले से तैयार थे। सन् 1924 में जब वे एक बार रॉयल सोसायटी में सभा का आयोजन कर रहे थे तो अपने व्याख्यान में उन्होंने कहा था

“आप सबने मुझे जो सम्मान दिया, उसे मैं सादर ग्रहण करता हूँ पर मैं आपसे एक बात अवश्य कहना चाहूँगा कि यह मेरे लिए सबसे बड़ा सम्मान नहीं है। मुझे आशा ही नहीं अपितु पूरा विश्वास है कि अगले पाँच वर्षों में मुझे नोबेल पुस्कार के लिए चुन लिया जाएगा ?”

उनका कथन सत्य सिद्ध हुआ। नोबेल पुरस्कार की घोषणा व पुरस्कार विवरण समारोह के बीच के समय का अंतराल तीन या चार सप्ताह का होता है। यह समय उक्त स्थान पर पहुँचने के लिए कम था क्योंकि उन दिनों जल यात्रा का ही प्रचलन था।

रमन ने पहले ही जहाज के दो टिकट खरीद लिए क्योंकि उन्हें पूरा विश्वास था कि नोबेल पुरस्कार के असली विजेता वही होंगे। पूरे विश्व ने जाना कि भारत में भी ऐसी प्रतिभाएं हैं जिनमें नोबेल पुरस्कार तक पाने की योग्यता है।

पुरस्कार पाते समय उनके हृदय में बस एक ही पीड़ा थी। उनके स्थान पर अंग्रेज सरकार का झंडा लहरा रहा था। उन्होंने अपने भाषण में स्पष्ट किया कि वे भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और भारत की प्रतिभाएं भी उभर सकती हैं यदि उनका मार्ग अवरुद्ध न किया जाए।

भोज समारोह में भी उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से न कहते हुए भी कह दिया कि भारत पर अंग्रेजों का राज सर्वथा अनुचित है तथा वो दिन दूर नहीं जब अंग्रेजों को भारत छोड़ना होगा।

पुरस्कार की प्राप्ति के पश्चात् उन्हें सन् 1933 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस का निदेशक बनाया गया। भारी रकम खर्च होने के बावजूद संस्थान की प्रगति ज्यों-की-त्यों थी। 150 हैक्टेयर में फैले संस्थान को डॉ. रमन ने रंग-बिरंगे पुष्पों व लताओं से सजा दिया । उन्होंने वहाँ अनुसंधान के लिए आवश्यक उपकरण भी जुटाए।

कई नए यंत्रों का निर्माण भी हुआ ताकि संस्थान में अनुसंधान कार्य को बढ़ावा दिया जा सके। इसके अतिरिक्त उन्होंने सुयोग्य छात्रों के लिए छात्रवृत्ति का प्रबंध किया और अनेक नए अनुसंधान प्रकाश में आए। इतना कुछ करने पर भी अंग्रेज सरकार द्वारा प्रायः बाधाएं उत्पन्न की जातीं। वास्तव में सरकार नहीं चाहती थी कि भारत के युवा वैज्ञानिक आगे निकल पाएं। गुलाम देश के बच्चे तो केवल गुलामी ही कर सकते हैं। यदि वे आगे निकल गए तो जाने क्या सितम ढा दें।

इस परेशानी से बचने के लिए डॉ. रमन ने एक ऐसी संस्था को जन्म दिया जो सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त थी “इंडियन एकेडमी ऑफ साइंस”। उनकी ही प्रेरणा से करैंट साइंस नामक पत्रिका का प्रकाशन भी होने लगा।

आजीवन विज्ञान की सेवा करने के पश्चात् जब वे सन् 1948 में अपने पद से सेवानिवृत्त हुए तो एक नई संस्था खोलने की योजना बना डाली परंतु इससे पूर्व ही उनकी पूरी जमा-पूंजी साउथ सी बबल इंवेस्टमेंट में डूब गई परंतु उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और चंदे से जमा किए रुपयों से संस्थान खोला गया।

धीरे-धीरे साधन बनते गए और उनकी प्रयोगशाला एक नए अन्वेषण केंद्र के रूप में उभरी। उनकी संस्था की जमीन पर चारों ओर फूलों की बहार थी। उन्होंने अपनी इस संस्था को सरकारी हस्तक्षेप से बिल्कुल मुक्त रखा।

डॉ. रमन ने फूलों के रंगों पर अन्वेषण आरंभ किया और युवा वैज्ञानिकों को अपने साथ जोड़ा। वृद्धावस्था में भी उनके शरीर की चुस्ती देखते ही बनती थी। वे प्रायः कहते “मैं अभी अपना वैज्ञानिक जीवन प्रारंभ ही कर रहा हूँ, मैं इसी भावना से कार्य करता हूँ।

जो वैज्ञानिक अपने कार्यों के लिए पुरस्कार व सम्मान की अभिलाषा रखता है, समझो, उसका वैज्ञानिक जीवन समाप्त। सम्मान, प्रशंसा व पुरस्कार, वैज्ञानिक के जीवन की साधारण घटनाएँ हैं। उसे इनकी तनिक परवाह नहीं करनी चाहिए।” सन् 1970 में डॉ. रमन का निधन हो गया। यद्यपि उनका पार्थिव शरीर हमारे बीच नहीं परंतु उनके विचारों की सुरभि आज भी हमारे चारों ओर महकती है।