सामाजिक समूह क्या है इसके प्रकारों को समझाइए? - saamaajik samooh kya hai isake prakaaron ko samajhaie?

सामाजिक समूह के तहत सदस्य आपस में पसंद के आधार पर और INTIMATE (आत्मीय) सम्बन्ध के आधार पर एक दूसरे से बंधे होते हैं समूह मानव जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं। यदि यह कहा जाए कि मनुष्य का सामाजिकरण एवं व्यक्तित्व विकास के लिए अनेकों समूहों के सामूहिक प्रयत्नों का प्रतिफल है। तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

जब कभी भी दो या अधिक व्यक्ति आपसी सामान्य हितों व जानकारी या पहचान के आधार पर एक दूसरे से संबंध स्थापित कर जाते हैं। तो इसे ही समूह या गुट के नाम से जाना जाता है। समूह के तहत अपने पारिवारिक या रक्त संबंधी लोग भी हो सकते हैं, और अन्य लोग भी हो सकते हैं।

सामाजिक समूह का अर्थ 

समूह के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी विचारों और अनुभवों को हस्तांतरित किया जाता रहा है। साधारणतया व्यक्तियों के संगठन के लिए समूह शब्द का प्रयोग किया जा सकता है। इसमें परिवार सामाजिक व धार्मिक व व्यवसाय के जैसे विभिन्न वर्गों एवं भीड़ अनेकों प्रजातियां आदि को सम्मिलित किया जा सकता है।

इस तरह सामाजिक समूह के दो या अधिक व्यक्तियों का आपस में प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष संबंध का होना, समूह के मूलभूत आधार स्तंभ है। इस रूप में लोगों के समूह को उसी रूप में समूह कहा जा सकता है जब उनके मध्य कोई स्थाई प्रतिमान विद्यमान हो, इसीलिए मध्यम वर्ग के व्यक्ति या किसी गांव में निवासरत व्यक्तियों को और कहीं न कहीं प्रबंधकों को भी सामाजिक समूह की श्रेणी में नहीं कहा जा सकता है । क्योंकि ये एक रूप से सामाजिक कोटियों अथवा श्रेणियां है।

जबकि सामाजिक समूहों के लिए व्यक्तियों के मध्य आपस में अंतर क्रिया के द्वारा एक दूसरे को प्रभावित करना अनिवार्य होता है।

सामाजिक समूह की परिभाषा

इस प्रकार के समूह की समाजशास्त्रीय परिभाषा इन समाज देवताओं के द्वारा दी गई है जो इस तरह से।

 मैकाइवर तथा पेज

इनके शब्दों में सामाजिक समूह से मतलब व्यक्तियों के किसी भी संगठन / संग्रह से है, जो एक दूसरे के साथ सामाजिक सम्बन्ध बनाते हैं।

आगबर्न एवम निमकाफ

इनके अनुसार जब व्यक्ति आपस में ही मिलकर या सहयोग कर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, तो वह एक समूह का निर्माण करते हैं।

निमकाफ की परिभाषा का अवलोकन के उपरांत कह सकते हैं कि सामाजिक संबंध स्थापित करते हैं। परंतु कितनी मात्रा में और किस तरह से करते हैं, यह बात स्पष्ट नहीं होती।

T.B. बोटोमोर

इनके अनुसार सामाजिक समूह व्यक्तियों का एक ऐसा संग्रह है, जिसमें

1 विभिन्न व्यक्तियों के मध्य एक निश्चित संबंध स्थापित होता है। 

2 सभी व्यक्ति समूह और उसके जुड़े प्रतीकों के प्रति सचेत होते हैं।

अर्थात सामाजिक समूह की एक प्रारंभिक संरचना हो (जिसमें नियमों, संस्कार आदि हों) तथा सदस्यों में चेतना का एक मनोवैज्ञानिक आधार हो, जैसे परिवार, राष्ट्र, गांव, राजनीतिक दल, मजदूर संगठन आदि।

 R.B. केटल

केटल ने सामाजिक समूह के परिभाषा देते हुए कहा है कि” समूह मानव का एक ऐसा एकत्रीकरण है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति का सहयोग कुछ आवश्यकताओं को प्राप्त करने के लिए किया जाए

 हैरी एम जानसन

इन्होने भी समूह के निर्माण हेतु सदस्यों के आपसी सहयोग को जरूरी मानते हैं।

फिचटर

मनुष्य ऐसे सामाजिक व्यक्तियों की एक जानी पहचानी व ढांचे पूर्ण निरंतर सामूहिकता है, जो सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सामाजिक व्यवहार, आदर्शों, स्वार्थों और मूल्यों के अनुसार पारस्परिक आदान-प्रदान के कार्य करते हैं।

 हाट एवम रास

इनके सामाजिक समूह की परिभाषा देते हुए लिखा है कि, समूह अंतःक्रियाओं में संलग्न व्यक्तियों का एक व्यवस्थित संकलन है।

 सेंडर्सन

इनके शब्दों में समूह दो या दो से अधिक लोगों का ऐसा संकलन है, जिसमें मनोवैज्ञानिक अतः क्रियाओं का एक निश्चित ढंग पाया जाता है, जो अपनी विशेष तरह की सामूहिक व्यवहार के कारण अपने सदस्यों तथा अन्य लोगों के द्वारा भी वास्तविक समझा जाता है।

 मैरिल तथा एल्ड्रिज

इन्होंने सामाजिक समूह की परिभाषा इस प्रकार से दी है।” सामाजिक समूह व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जिसमें बहुत पहले यानि लम्बे समय से संचार हो रहा हो, तथा एक ही सामान्य प्रकार्य व प्रयोजन के आधार पर कार्य करते हो।

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि, सामाजिक समूहों के लिए जो सबसे अधिक जरूरी है। वह है, सदस्यों के मध्य पारस्परिक सम्बन्ध जिनको हम सामाजिक सम्बन्ध भी कह सकते हैं। इन सामाजिक सम्बन्धों के लिए जरूरी है।

1 सदस्यों के मध्य आपस में कुछ ना कुछ आदान-प्रदान होना ही चाहिए ।

2 पारस्परिक जागरूकता।

इसी तरह से सामाजिक समूह, व्यक्तियों के संग्रह को तभी कह सकते हैं। जब संकलित सदस्यों के मध्य अंतः प्रेरणा तथा अंतः प्रेरणा का प्रभाव पाया जाता हो।

अर्थात स्पष्ट है कि जब कुछ व्यक्ति अपने सामान्य हितों या लक्ष्यों के लिए आपस में संपर्क में आते हैं। और आपस में प्रभावित करते हैं, तो व्यक्तियों के ऐसे संग्रह या संकलन को समूह का जाता है।

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5-सामाजिक भूमिका 

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समूह का वर्गीकरण

यह सच है कि समाज में बने अनेकों समूह को श्रेणीबद्ध वर्गीकरण करना कठिन है। तथापि समाज वेताओें ने अलग-अलग आधारों पर बनाए गए मानवीय समूह का एक सरल वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। जिसका आधार स्थायित्व, सदस्यों की संख्या, प्रकार्य, हम की भावना आकांक्षा और सामाजिक सम्बन्धों की गहनता आदि को माना जाता है। जो कि इस प्रकार से है।

संख्या के आधार पर

इसके आधार पर छोटे वह बड़े समूहों का उल्लेख किया जाता है। उदाहरण के लिए जॉर्ज सिमेल तथा जानसन एवं होमनस नामक समाज वेताओं ने छोटे समूह को सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना है। जबकि मैकाइवर तथा पेज ने सदस्यों की संख्या के आधार पर राष्ट्रीय एवं प्रांत जैसे समूहों का जिक्र किया है। जबकि मर्टन ने बड़े समूह जैसे राष्ट्र वह प्रांत को अंतः क्रिया के आधार पर ग्रुप (समूह) के रूप में स्वीकार नहीं किया।

स्थायित्व के आधार पर

इसके आधार पर समाजिक समूहों को वर्गीकृत किया जा सकता है। जैसे परिवार, नातेदारी तथा शिक्षण संस्थाएं आदि स्थाई समूह हो सकते हैं। क्योंकि इन समूह की समाज में बार-बार एवं हर किसी व्यक्ति को आवश्यकता होती है। इसीलिए इनको स्थाई समूह की श्रेणी में रखा जा सकता है।

जबकि भीड़ एवं श्रोता समूह को अस्थाई समूह के रुप में सम्मिलित किया जा सकता है। क्योंकि इनका निर्माण क्षणिक होता है। उद्देश्य पूरा होने पर यह स्वयं समाप्त हो जाते हैं।  जबकि टीवी वोटोमोर ने एक अन्य समूह जिसे अर्ध समूह अथवा आभासी समूह कहा जाता है। का उल्लेख किया है, इस प्रकार के समूह में ढांचे वह संगठन का नितांत अभाव पाया जाता है। जैसे सामाजिक वर्ग, परिस्थिति, आयु व लिंग समूह इसके उदाहरण हैं।

हम की भावना पर

इस भावना पर भी समूह को अंतः समूह व बाहरी समूह का या बाह्य समूह भी कहा जाता है। इन में अंतः समूह में हम यानी की सामुदायिक भावना पाई जाती है। इसीलिए इन समूहों में सदस्यों के मध्य एकता की भावना का विकास पाया जाता है। जबकि बाहरी समूह में हम की भावना का अभाव पाया जाता है। इस प्रकार के समूह में वह या वे की भावना पाई जाती है। रॉबर्ट वीरस्टिड ने भी अंतः और बाह्य समूह का उल्लेख किया है।

प्रकार्यात्मक आधार

चूंकि मानव एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए उसकी अनेकों ख्वाहिश और आवश्यकताएं होती है। जिस को पूरा करने के लिए वह अनेक सम्बन्धों का निर्माण करता है। जिनमें  शैक्षिक, बौद्धिक, या फिर राजनीतिक इत्यादि।

इसी संदर्भ में गिड्डिंग्स तथा ग्रीन और ग्रीन जैसे विद्वानों व समाज वेताओं ने समूह को ऐच्छिक तथा अनैच्छिक समूह के रूप में समझाया है। जबकि मोरेनो नामक विद्वान ने माना कि प्रकार्यतमक दृष्टि को मध्य नजर रखते हुए बड़े समूह के वनस्पत अपेक्षाकृत छोटे समूह में सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए अधिक महत्व रखते हैं।

आकांक्षा के आधार पर

इसके आधार पर संदर्भ समूह की विवेचना मर्टन नामक विद्वान ने की है। मर्टन ने उन समूह को इस कैटेगरी में रखा है। जिसमें कोई व्यक्ति सदस्यता ग्रहण नहीं करता है, परंतु उसकी आकांक्षा है कि वह इस समूह का सदस्य बने,जो उसकी मनोवृत्तियों तथा व्यवहारों को प्रभावित करती है। इसी क्रम में स्टाउफर ने अपने साथियों के साथ अमेरिकी सिपाहियों की आकाक्षाओं का अध्ययन किया, तथा उनको संदर्भ समूह में जोड़ने का भी प्रयत्न किया था। इसी को मद्देनजर रखते हुए शैरीफ तथा ऑटो लाइनवर्ग ने संदर्भ समूह को परिभाषित किया है।

सामाजिक सम्बन्धों के आधार पर

इस प्रकार के सम्बन्ध के आधार पर समूह को सर्वप्रथम चार्ल्स कुले ने वर्गीकृत करने का प्रयास किया था। जिसके आधार पर चाल्स कुले ने समूह को प्राथमिक समूह तथा द्वितीयक समूह में वर्गीकृत किया। इनके अलावा मेकाईवर तथा पेज ने भी समूह को वर्गीकृत  करने का प्रयास किया था। उन्होंने तीन आधारों पर समूह को विभाजित करने का प्रयास किया है। जो इस तरह से है।

1 संयुक्त प्रादेशिक इकाइयां इसके तहत समुदाय गांव आस-पड़ोस आदि आ जाते हैं।

2 हित चेतन इकाइयां वाले समूह जिनका संगठन स्पष्ट नहीं होता है।

3 इन इकाइयों (हित चेतन इकाइयों) वाले समूह जिनका संगठन स्पष्ट होता है।

 प्राथमिक समूह

इस समूह शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग चाल्स कुले ने  सन 1909 में अपनी पुस्तक सोशल ऑर्गेनाइजेशन के माध्यम से किया था।

प्राथमिक समूह का अर्थ 

इस समूह की परिभाषा देते हुए सर्वप्रथम चार्ल्स कूले ने कहा था कि “प्राथमिक समूह ऐसे समूह होते हैं। जिनकी विशेषताओं में पारस्परिक घनिष्ठ सम्बन्ध व सहयोग हैं, जो अनेक अर्थों में प्राथमिक है,मुख्य रूप से इस कारण से ही है कि वह एक व्यक्ति विशेष की सामाजिक प्रकृति और आदर्शों को बनाने में मौलिक हैं।

जैसे की कुले की परिभाषा से स्पष्ट है की प्राथमिक समूह के तहत उन समूह को शामिल किया जा सकता है, जिनके सदस्यों के बीच में प्रत्यक्ष अथवा आमने-सामने का सम्बन्ध अथवा आपस में एक दूसरे से सीधे संपर्क में होते हैं, इस प्रकार के समूह में मित्र आस-पड़ोस के लोग परिवार के सदस्य या नातेदारी आदि लोग आ जाते हैं। जो किसी न किसी रूप से सदैव मिलते रहते हैं।

इन समूह की परिभाषा

सबसे पहले श्रीमान चार्ल्स कुले ने अपने खेलकूद के साथियों व परिवार तथा पुरुषों को प्राथमिक समूह के रूप में चयनित किया था। क्योंकि इन लोगों के बीच आपस में सहानुभूति एवं सद्भावना देखी जा सकती है। क्योंकि  भावनाएं इन लोगों के मध्य सामाजिक मूल्यों और उद्देश्यों की एकरूपता के कारण समूह के व्यक्तियों में रच बस जाता है। जिसके कारण सदस्य के मध्य तेरा और मेरा खत्म हो जाता है। और हम की भावना बलवती होती है। जिससे ही पारस्परिक एकता एवं सहानुभूति की भावना का उदय होता है। सदस्यों की इन्हीं भावनाओं के कारण प्राथमिक सदस्य्ता जीवन्त बनी रहती हैं परिणामतः सदस्य एक दूसरे के सुख दुख को अपना मानने लगते हैं। इस रूप में प्राथमिक समूह सीमित सदस्यों का घनिष्ठ एवं अप्रत्यक्ष संबंध वाला समूह होता है।

जिनमें पारस्परिक समानता सद्भावना एवं सहानुभूति व सहयोग पाया जाता है।

 लुंडवर्ग 

इन्होने कहा कि प्राथमिक समूह वे समूह होते हैं, जो दो से अधिक व्यक्तियों से मिलकर बना हो तथा आपस में घनिष्ठ सहभागी और व्यक्तिगत रूप से एक दूसरे से व्यवहार करते हैं।

फेयरचाइल्ड

उनके अनुसार ऐसे समूह व्यक्तिगत सम्बन्ध के आधार पर आधारित होते हैं जिसमें सदस्य आपस में तुरन्त व्यवहार करते हैं।

 प्राथमिक समूह की महत्वपूर्ण विशेषता

शारीरिक समीपता

प्रो डेविस ने शारीरिक समिप्ता को तवज्जो दी है। ताकि सदस्यों के मध्य गहरे सम्बन्ध स्थापित हो सके। सदस्य गणों के आपस में नजदीक आने से एक दूसरे की भावनाओं एवं विचारों का बड़ी आसानी से आदान-प्रदान हो जाता है। जिससे एक दूसरे के साथ सहयोग व सहानुभूति का उदय होता है। हालांकि प्राथमिक समूह के लिए शारीरिक समिप्ता के अलावा अन्य चीजें भी मायने रखती है। क्योंकि शारीरिक समिप्ता तो भीड़ व मेले में भी हो जाती है। परन्तु उनको प्राथमिक समूह में नहीं रखा जा सकता है ।

अधिक स्थायित्व

प्राथमिक समूह अपेक्षाकृत अधिक स्थायित्व प्रवृत्ति के होते हैं। इसका प्रमुख कारण होता है कि इन समूह की स्थापना किसी विशेष उद्देश्यों के लिए नहीं होती है। बल्कि सामान्य उद्देश्यों को प्राथमिकता के आधार पर लिया जाता है। जिससे उनकी प्रवृत्ति या प्रकृति स्थाई ही होती है।

समूह का लघु आकार

अपेक्षा अनुसार प्राथमिक समूह का आकार छोटा होता है, अथवा सदस्यों की संख्या सीमित होती है। इस सम्बन्ध में कुले ने प्राथमिक समूह के लिए अधिक से अधिक 50 वर्ष 60 सदस्यों तक ही सीमित रखा था। क्योंकि अधिक सदस्य या बड़े समूह में प्राथमिक सम्बन्धों का उदय होना थोड़ा मुश्किल होता है।

 उद्देश्यों की समानता

जैसा कि मैंने बताया है कि प्राथमिक समूह में सदस्यों के मध्य घनिष्ठता पाई जाती है। जिसके कारण सदस्यों के उद्देश्य और इच्छाएं भी एक जैसी ही होती है। परिणाम स्वरूप एक दूसरे के सुख दुख में एक दूसरे को सहयोग और सपोर्ट करते हैं। जैसे कि हमने अक्सर परिवारों में देखा है, यदि एक भाई थोड़ा परेशानी में है। तो दूसरा भाई उसकी सहायता हेतु खड़ा हो जाता है।

सम्बन्धों में वास्तविकता

रिलेशन में यथार्थता प्राथमिक समूह की प्रमुख विशेषताओं में से एक है। क्योंकि इस प्रकार के समूह में सम्बन्धों के संदर्भ में किसी भी प्रकार का कोई दबाव या शर्तें  नहीं होती है अपनी व्यक्ति खुशी वह इच्छा से अपने संबंध स्थापित करता है।

 प्राथमिक नियंत्रण

इस समूह में सभी सदस्य गण एक दूसरे को भलीभांति जानते और पहचानते हैं जिनसे उनके मध्य एक सामूहिक भावना का विकास होता है। जो एक दूसरे पर नियंत्रण का कार्य करती है। जैसे परिवार में माता-पिता द्वारा बच्चों को डांटना डपटना इसका एक सुन्दर उदाहरण है।

सम्बन्ध स्वयं साध्य होते है

प्राथमिक समूह का निर्माण सदस्यों के स्वार्थों एवं विशेष हितों के लिए नहीं है, वरन सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अक्सर समूह संगठित होते हैं। जैसे परिवार में एक माता अपने बच्चों के लालन-पालन में अनेक कष्टों को सहन करती है। जिसे मां किसी अपने विशेष स्वार्थ या हितों के लिए नहीं करती, बल्कि उन कष्टों को सहन करने में ही उसकी खुशी एवम शक्ति  होती है। मां और बच्चों का यह सम्बन्ध किसी प्रत्यक्ष लाभ के लिए नहीं होता है। और यह तो स्वभाविक रूप से ऐच्छिक एवम स्वयं साध्य होता है।

व्यैक्तिक सम्बन्ध

इस प्रकार की सम्बन्धों में सदस्य एक दूसरे को भलीभांति पहचानते हैं। जिससे उनके मध्य घनिष्ठ सम्बन्धों की स्थापना होती है। यह ऐसे सम्बन्ध होते हैं जो किसी संचार के माध्यमों अथवा साधनों यथा रेडियो, इंटरनेट, मोबाइल या फिर टेलीविजन जैसे अप्रत्यक्ष माध्यमों से स्थापित नहीं होते हैं। वरन व्यक्तिक सम्बन्ध प्रत्यक्ष रूप से स्थापित सम्बन्ध होते है।

 सदस्यों के मध्य अधिक घनिष्ठता

घनिष्ठता का होना प्राथमिक समूह का एक जरूरी तत्व होता है। इसके अभाव में समूह को प्राथमिक समूह नहीं कहा जा सकता है। घनिष्ठता से ही सदस्यों के मध्य विचारों का आदान प्रदान संभवतया सरलता से हो पाता है। तथा अपने हितों की पूर्ति कर सकते हैं।

 सम्बन्धों की विशेषीकरण का अभाव

प्राथमिक समूह का यह सबसे बड़ा गुण या विशेषता है कि इसकी स्थापना किसी विशेष लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए नहीं किया जाता है। वरन प्राथमिक समूह के सदस्य परस्पर सामान्य आधार पर मिलते हैं तथा किसी स्पेशल उद्देश्य पर बल नहीं देते हैं।

 प्राथमिक समूह का महत्व

श्रीमान कुले के अनुसार जो प्राथमिक समूह होते है इनमे सबसे पहले व्यक्ति के अनुभव को प्राथमिकता दी जाती है। जो कि इस प्रकार से स्पष्ट हो जाता है।

 प्राथमिक समूह संपूर्ण व्यक्तित्व की रचना करते हैं

 इस  समूह का प्रभाव व्यक्ति के जीवन पर प्रारंभ यानि बाल्यावस्था से ही हो जाता है। जब बच्चे का जन्म किसी भी परिवार में होता है, तो परिवार के सदस्यों के द्वारा बच्चे का लालन-पालन किया जाता है। जहां से बच्चा अनेक चीजें सीखता है जैसे संस्कार, रीति रिवाज, परंपराएं इत्यादि धीरे-धीरे बच्चा एक सामाजिक प्राणी के रूप में विकसित होता है। क्योंकि अब बच्चा सिर्फ एक मास एवम हड्डी का कोई पुतला नहीं होता बल्कि एक सामाजिक प्राणी के रूप में अपने आप को स्थापित कर देता है। मानव के व्यक्तित्व के आधार पर नीव प्राथमिक समूह में ही बन रही होती है।

सामाजिक व्यवहारों का उचित मान का निर्माण करते है

परिवार के द्वारा बच्चों को अपने से बड़े बुजुर्गों से अनेक प्रकार की शिक्षा प्राप्त होती है। जो बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए बहुत आवश्यक होते हैं। जो बच्चे को आगे चलकर समाज के अनुसार कार्य करने के लिए अनुकूल दशाएं प्रदान करता है।

प्राथमिक समूह हमारे त्योहारों व कार्यों आदि पर नियंत्रण करता है

क्योंकि प्राथमिक समूह में सभी सदस्य एक दूसरे से अच्छी तरह से परिचित रहते हैं परिणामतया सदस्य कोई भी गलत कार्य नहीं कर पाते हैं। अथवा समूह के सभी सदस्य समूह की सामूहिक शक्ति से प्रभावित होते हैं। उनका व्यवहार कार्य भी इन्हीं पर पारस्परिक आदर्शों तथा संस्कारों के अनुरूप ही होता है। अतः कह सकते हैं कि प्राथमिक समूह हमारे व्यवहार व कार्यों पर नियंत्रण रखता है।

प्राथमिक समूह अच्छे गुणों को उत्पन्न करते हैं

इन समूहों के द्वारा छोटे बच्चों को परस्पर सद्भावना, देशभक्ति, स्नेह, प्रेम एवं सहयोग का पाठ पढ़ाया जाता है। प्राथमिक सदस्य से बच्चों को जो सीख मिलती है। निश्चित रूप से अनवरत उनके साथ बनी रहती है। साथ ही प्राथमिक समूह में पारस्परिक रूप से घनिष्ठता बनी रहती है, जिसके कारण बच्चों व युवाओं के व्यवहार पर नियंत्रण बना रहता है।

संतोष देने में सहायक

प्राथमिक समूह प्रायः गहरे सामाजिक सम्बन्धों वाले समूह होते हैं। जिससे सदस्यों के मध्य आमोद प्रमोद विचार-विमर्श सेवा व संगत सहानुभूति इत्यादि पाया जाना स्वाभाविक होता है। जिससे सदस्यों को आंतरिक आत्म संतोष की प्राप्ति की अनुभूति होती है।

कार्य क्षमता में वृद्धि

क्योंकि प्राथमिक समूह व्यक्ति को आंतरिक संतोष प्रदान करता है जिसके कारण सदस्य/ व्यक्ति अपने आपको अपनों की भावना एवं एहसासों के बीच पाता है। जिससे वह मानसिक रूप से स्वस्थ वह शांत महसूस करता है। जिससे किसी भी व्यक्ति की कार्य कुशलता में वृद्धि होती है, क्योंकि व्यक्ति किसी भी कार्य को इन परिस्थितियों में अधिक उत्साहित होने का प्रयास करता है।

सांस्कृतिक संचार

इसके संचार में भी प्राथमिक समूह की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस समूह के माध्यम से अपने सदस्यों को सांस्कृतिक सरोकारों से परिचित कराता है। जो धीरे-धीरे व समयानुसार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तगत होता रहता है। यह सब प्राथमिक समूह के माध्यम से ही संभव हो पाता है।

 द्वितीयक समूह

प्राथमिक समूह के एकदम विपरीत विशेषता वाले ग्रुप (समूह) को द्वितीयक समूह कहा जाता है। यह भी सच है कि प्राथमिक समूह के माध्यम से ही द्वितीयक समूह की अवधारणा का उदय हुआ है। खास बात तो यह है कि द्वितीय समूह का प्रतिपादन भी चाल्स कुले ने  सर्वप्रथम किया था। देखा जाए तो द्वितीयक समूह आधुनिक समाज की देन है, क्योंकि आधुनिक समाजों में जटिलता में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है।

 द्वितीयक समूह की परिभाषा

इन समूह की परिभाषा निम्नलिखित विद्वानों के द्वारा दी गई है।

 चाल्स कुले

इन्होने द्वितीय समूह के परिभाषा देते हुए कहा है कि द्वितीयक समूह में घनिष्ठता नहीं पाई जाती है,और प्राथमिक समूह में पाई गई विशेषताओं का अभाव होता है।

 किंग्सले डेविस

इनके अनुसार द्वितीय समूह को स्थूल रूप से सभी प्राथमिक समूह के विपरीत कहकर परिभाषित किया जा सकता है।

वीरस्टिड

द्वितीयक समूह की परिभाषा देते हुए वीरस्टिड ने कहा है कि “ऐसे सभी समूह द्वितीयक हैं जो प्राथमिक समूह नहीं होते हैं।”

आर्गबन तथा निमकाफ

इन्होंने द्वितीयक समूह की परिभाषा देते हुए लिखा है कि, “ऐसे सभी समूह जिनमें घनिष्ठता का भाव का अनुभव किया जाता है उसे द्वितीयक समूह कहा जाता है।”

 लुण्डवर्ग

उन्होंने कहा कि “ऐसे समूह जो सदस्यों के सम्बन्ध में अव्यक्तिक हित प्रमुख एवं व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर होते है।” 

 उपर्युक्त परीभाषाओं को मद्य नजर रखते हुए कहा जा सकता है कि,

1 द्वितीयक समूह विशेष स्वार्थों को प्राप्त करते हैं।

2 अपेक्षाकृत आकार में बड़े होते हैं।

3 घनिष्ठता व निकटता का अभाव पाया जाता है।

उपर्युक्त गुणों के द्वारा निर्मित समूह को द्वितीय समूह कहा जाता है।

 द्वितीयक समूह की विशेषताएं

आकार में बड़ा होना

इन समूहों में सदस्यों की संख्या में आधिक्य होता है। अथवा असीमित होते हैं। जिसके कारण द्वितीयक समूह के सदस्यों के मध्य पारस्परिक व व्यक्तिगत सम्बन्ध स्थापित करना थोड़ा असंभव होता है।

अप्रत्यक्ष संपर्क

हालांकि इस तरह के समूहों में प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष सम्बन्ध देखे जा सकते हैं। परंतु अधिकांशतय अप्रत्यक्ष सम्बन्ध ही पाए जाते हैं। जैसे रेडियो,टीवी,या इंटरनेट आदि की द्वारा संबंध स्थापित किए जाते हैं।

उद्देश्यों का विशेषीकरण

द्वितीयक समूह जो होते है, उनकी स्थापना किसी खास स्वार्थों या लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ही की जाती है। जैसे विश्वविद्यालयों की स्थापना शिक्षण से संबंधित कुछ खास लक्ष्यों को लेकर की जाती है। ठीक इसी तरह किसी कारखाने का मुख्य लक्ष्य आर्थिक हित एवं उत्पादन को प्राप्त करना है। इसी संबंध में किम्बल यंग ने इन समूहों के लिए एक खास शब्द स्वार्थ समूह का इस्तेमाल किया है।

सम्यक विचारोंप्रांत स्थापित

इनकी स्थापना प्राथमिक समूह की अपेक्षा अधिक विचारोंप्रांत की जाती है। क्योंकि स्वार्थ समूह किसी खास कार्य को पूरा करने के लिए ही बनाए जाते हैं। मानव की यह प्रवृत्ति रही है कि यदि उसका कोई उद्देश्य है, जिसको प्राप्त किया जाना हो। तो उसके लिए वह अपने स्तर से विशेष प्रयास करता है। जिसकी अभिव्यक्ति ही द्वितीयक समूह होते हैं।

 औपचारिक संबंध

अक्सर द्वितीय समूह में सम्बन्ध औपचारिक स्वरूप में पाए जाते हैं। अथवा सदस्यों के द्वारा स्थापित पारस्परिक सम्बन्ध कुछ नियमों तथा कानूनों अथवा परंपराओं के अधीन या नियंत्रणाधीन होते हैं।

अव्यक्तिक सम्बन्ध

इस प्रकार के समूह में हालांकि पारस्परिक सम्बन्धों का स्वरूप अव्यक्तिक संबन्ध भी हो सकते हैं। यह भी संभावना है कि द्वितीयक समूह के सदस्य प्रत्येक दिन किसी न किसी कार्य हेतु मिलती भी होंगे और आदान-प्रदान की प्रक्रिया भी होती होगी, परन्तु वे एक दूसरे से चीर परिचित नहीं होते है। इसकी मुख्य वजह द्वितीय समूह का आकार एवं उसमें सदस्यों की संख्या की अधिकता का होना होता है।

घनिष्ट सम्बन्धों का अभाव

इन समूह में सदस्यों की संख्या अधिक होती है। जिसके कारण द्वितीयक समूह का आकार बहुत अधिक विस्तृत होता है। परिणाम स्वरूप सदस्यगण एक दूसरे से भली भांति परिचित नहीं हो पाते हैं। इसीलिए द्वितीयक समूह में घनिष्ठता का भाव देखा जाता है, क्योंकि घनिष्ठता का जन्म संभवतया स्थाई सम्बन्धों तथा आमने-सामने के सम्बन्धों से होता है।जिसका की द्वितीयक समूह में प्रायः अभाव देखा जाता है।

उद्देश्यों की भिन्नता

द्वितीयक समूह प्राथमिक समूह के ठीक विपरीत विशेषताओं से परिपूर्ण होते हैं। इसका प्रमुख कारण सदस्यों की संख्या की अधिकता का होना है। इसीलिए सदस्य एक दूसरे को अच्छी तरह से जान नहीं पाते हैं, सदस्य गण अपने हितों को पूरा करने में लगे रहते हैं। जिसके कारण इस समूह में घनिष्ठता का अपेक्षाकृत कम पाया जाना पाया गया है। इसलिए कोई भी एक दूसरे के सुख दुख में काम कम ही आते हैं, इसी का परिणाम है कि द्वितीय समूह में औपचारिक एवं आकस्मिक व अव्यक्ति सम्बन्ध ही पाए जाते हैं।

द्वितीयक समूह का महत्व

यह समूह सभ्यता के विकास तथा द्रुत सामाजिक परिर्वतन में सहायक होते है

इन समूहों का महत्व इसलिए भी अधिक होता है कि यहां पर बड़े कार्यो पर फोकस किया जाता है। इसीलिए इन समूह में अविष्कार सम्बन्धी कार्य अधिक किए जाते हैं। इसके कारण एक तरफ जहां सभ्यता का विकास होता है, तो दूसरी तरफ वहीं सामाजिक बदलाव भी देखा जाता है। जैसे नगरों में द्वितीयक समूह की अधिकता पाई जाती है, इसलिए नगरों में गतिशीलता अपेक्षाकृत अधिक देखी जा सकती है।

सामाजिक नियंत्रण में सहायक

वर्तमान में औद्योगिकरण से स्थापित नगरों में समूह के द्वारा ही सामाजिक नियंत्रण अपेक्षाकृत अधिक सरलता से बनाया जा सकता है। अथवा पुलिस कानून तथा प्रशासनिक संगठनों के द्वारा सामाजिक व्यवस्थाओं को बनाए रखा जा सकता है।

जागरूकता लाने में सहायक

द्वितीयक समूह में तार्किक दृष्टिकोण को अधिक महत्व दिया जाता है। साथ ही इन समूह में व्यक्ति अपने अधिकारों को लेकर अधिक सजग रहते हैं, वहीं दूसरी तरफ महिलाओं को भी उन समूह में प्रगति की अनेक अवसर सुलभ उपलब्ध होते हैं।

श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण तथा श्रम को प्रोत्साहन

द्वितीयक समूह में श्रम को अधिक महत्व दिया जाता रहा है। और व्यक्ति को जोखिम उठाने के लिए हमेशा से प्रेरित किया जाता रहा है। व्यक्ति की इस प्रवृत्ति के विकास में गतिशीलता को बढ़ावा दिया जा सकता है। साथ ही सदस्यों के मध्य सहिष्णुता एवं उदारता के भाव को भी देखा जाता है। क्योंकि द्वितीयक समूह में अनेक प्रकार के लोग होते हैं, जिनके साथ मिलकर कार्य करना होता है इसीलिए द्वितीयक समूह में श्रम विभाजन को महत्व दिया जाता है। इससे व्यक्ति के ज्ञान में,कुशलता में वृद्धि होती है।

द्वितीयक समूह सामाजिक आदान-प्रदान का विस्तृत क्षेत्र प्रदान करते है। वहीं अधिक संतोष भी प्रधान करते है

जैसी जैसी मानव सभ्यता अपनी विकास की चरम पर आगे बढ़ रही है। वैसे-वैसे मानव की जरूरतें भी बढ़ रही है। जिन को पूरा करना अकेले प्राथमिक समूह के माध्यम से नहीं किया जा सकता है। इसीलिए द्वितीयक समूह यथा कारखाना,विश्वविद्यालय,नगर,राष्ट्र,कारपोरेशन आदि पूरा करते हैं। वही द्वितीयक समूह मानव को दुनियां से भी जोड़ कर रखता है। जिससे सामाजिक आदान-प्रदान का दायरा भी विस्तृत हो जाता है, और मानव के बड़े सपनो को भी पूरा कर सकता है।

प्राथमिक व द्वितीयक समूह में अंतर 

प्राथमिक समूह द्वितीयक समूह यह प्राय छोटे समूह होते है।यह अक्सर बड़े समूह होते है।प्राथमिक समूह में सदस्यों की संख्या कम होती है।द्वितीयक समूह में सदस्यों की संख्या अधिक होती है।यहाँ पर घनीष्ठा पायी जाती है।यहाँ पर घनिष्ठा का अभाव पाया जाता है।प्रायः समबन्ध स्थाई होते है।अस्थाई समबन्ध पाए जाते है।सम्बन्ध में निरंतरता आयी जाती है।यहाँ पर निरंतरता नहीं पायी जाती है।अनौपचारिक संबन्ध पाए जाते है।औपचारिक संबन्ध पाए जाते है।संबन्ध खुद बन जाते है।संबन्ध सम्यक विचारों प्रान्त बनाये जाते है।सामान्य उद्देश्य होते है।हितों में भिन्नता होती है।सदस्य्ता अनिवार्य होते हैअनिवार्य नहीं होते है।संबन्ध साध्य होते है।द्वितीयक समूह में संबन्ध साध्य नहीं होते हैं।मानवीय व्यक्तित्व को प्रभावित करते है।व्यक्तित्व निर्माण में भूमिका कम होती है।आमने सामने के संबन्ध पाए जाते है।अप्रत्यक्ष संबन्ध पाए जाते है।सामूहिकवाद पर जोर।व्यक्तिवाद पर जोर।इस समूह का कार्य क्षेत्र कम होता है।इनका कार्य क्षेत्र अधिक होता है।प्राथमिक समूह सार्वभौमिक होते है।द्वितीयक समूह सार्वभौमिक नहीं होते है।यह समूह प्राचीन होते है।वर्तमान युग की देन।इनकी संख्या अपेक्षाकृत काम होती है।इनकी अधिक होती है।इनमे द्वितीयक समूह नहीं होते है।इनमे प्राथमिक समूह होते है।

 

संदर्भ समूह

इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम हाईमैन ने 1942 में किया था। और धीरे-धीरे समाजशास्त्र में इसकी लोकप्रियता बढ़ती चली गई। संदर्भ समूह की अवधारणा बहुत महत्वपूर्ण होती है क्योंकि यह सीधे-सीधे व्यक्ति की मासिक आधार पर निर्भर होता है। कई बार क्या हो रहा होता है कि कोई मनुष्य किसी समूह का मन ही मन सदस्य बन जाता है। इस दृष्टिकोण से समूह को दो रूप में बांटा जा सकता है।

1 सदस्यता समूह

2 संदर्भ समूह

 सदस्यता समूह

ऐसे समूह जिनका मानव या व्यक्ति सदस्य होता है और उस समूह को भी वह अपना ही समूह मानता है और उसके कार्यों में अपनी सहभागिता भी देता है ऐसे ही समूह को हम सदस्यता समूह कह सकते हैं।

 संदर्भ समूह

परंतु कई बार ऐसा भी देखा जा सकता है कि कोई व्यक्ति मानसिक रूप से या मनोवैज्ञानिक आधार पर किसी समूह का सदस्य बन जाता है। और उसकी जो क्रियाकलाप है, जो आदर्श हैं, जो नियम है उनको अपने जीवन में स्वता ही उतार रहा होता है। वह उस समूह के  अनुसार कार्य कर रहा होता है। जिसका की वो यथार्थ रूप से सदस्य भी नहीं हो होता है। इस प्रकार के समूह को हम संदर्भ समूह कह सकते हैं।

ये संदर्भ समूह इस अर्थ में भी होते हैं कि व्यक्ति के हाव-भाव, आचरण, पहनावा उसकी मनोवृति और उसके विचार कुछ हद तक उस समूह के अनुसार बन जाते है। या दूसरे शब्दों में कहें तो, उस समूह के अनुरूप अपने व्यवहार को बदल देता है। इसको हम एक उदाहरण के माध्यम से भी समझ सकते हैं। कॉलेज में जो विद्यार्थी गण होते हैं, वह अपने पहनावे को, बालों की स्टाइल को, चलने फिरने के ढंग को, या बोलने के ढंग अभिनेताओं की तरह करते हैं। जबकि वह उस समूह का यथार्थ रूप से सदस्य नहीं है केवल अपनी कल्पनाओं के आधार पर ही वह अपने आप को उस समूह का सदस्य मान बैठता है।

इन समूह की परीभाषाओं के अध्ययन से इसके अर्थ को और अधिक रूप से समझ जा सकता है।

संदर्भ समूह की परीभाषाओं

शेरिफ तथा शेरीफ

इनके अनुसार वह समूह संदर्भ समूह कहलाते हैं, जिनसे व्यक्ति अपने को समूह के एक इकाई के रूप में अपने आप को सम्बंधित करता है, अथवा मनोवैज्ञानिक रूप से उस समूह का सदस्य होने की आकांक्षा रखता है। साथ ही रोज बोलचाल में या अपने साथियों के साथ उस समूह के रूप में अपनी पहचान बनाता है। या उसके अनुसार एकात्मिकरण करने की लालसा रखता है।

आटो कलाइवर्ग 

इनके अनुसार संदर्भ समूह में व्यक्ति एक ऐसी सांचे में खुद को डाल देता है, जिसका कि वह वास्तविक रूप से सदस्य नहीं हो रहा होता है,जबकि वह किसी और समूह का सदस्य होता है। इसके बावजूद भी वह उस समूह के आदर्शों को, उसके मूल्यों को, उसके आचरण को अपनी जिंदगी में उतार रहा होता है। जिनसे वह कम से कम मनोवैज्ञानिक स्तर पर जुड़ना चाह रहा है, या सम्बन्ध बनाए रखने की इच्छा रखता हो। इसी प्रकार के समूह कम संदर्भ समूह कहते हैं।

संदर्भ समूह के आवश्यक तत्व या विशेषताएं

1 आकांक्षा

संदर्भ समूह की उत्पति का मुख्य कारण  यह है कि व्यक्ति की आकांक्षा होती है कि, वह समाज मै एक ऐसे समूह से संबद्ध कर ले जिसका समाज में मान प्रतिष्ठा हो। 

2 अनेक प्रकार के संदर्भ

समाज में क्यूंकि अनेक प्रकार के लोग रहते है। अतः व्यक्ति अपने अपने अनुसार किसी भी समूह से संबद्ध मान सकता है। ये भी हो सकता है कि अनेक व्यक्तियों का संदर्भ समूह एक हो और एक व्यक्ति के अनेक संदर्भ समूह हो। इसका मुख्य कारण यह हैक समाज में अनेक प्रकार के संदर्भ समूह पाए जाते है। 

3 दृश्टिकोण

सन्दर्भ समूह का अस्तितव इस बात पर निर्भर रहता है की व्यक्ति विशेष का उस समूह के प्रति क्या दृश्टिकोण है। हो सकता है कि जो समूह किसी व्यक्ति के लिए आदर्श हो  ओ  किसी अन्य व्यक्ति के लिए आदर्श न हो। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति उस समूह के मूल्यों और आदर्शों को अपनाना चाहता है की नहीं। 

4 बदलाव 

यह भी सच हो सकता है कि कोई व्यक्ति किसी सन्दर्भ समूह का सदस्य जीवनपर्यन्त न रह पाए। क्यूंकि अलग अलग समय परिस्तिथियों में स्थान और मनोविज्ञान के आधार पर व्यक्ति की सोच में बदलाव आ सकता है। अतः व्यक्ति समयनुसार अपने संदर्भ समूह को बदल सकता है। 

5 उच्च स्थान

समाज में अक्सर देखा जाता है की व्यक्ति जिस स्थान एवं परस्तिथि में वास कर रहा हो वह उससे ऊपर उठना या बढ़ना चाहता हो ऐसी परिस्तिथि में व्यक्ति किसी बड़े या उच्च स्थान के समूह को अपने संदर्भ समूह के रूप में चयन कर सकते है।

 
6 रूचि

समाज के लिए सभी संदर्भ समूह आदर्श समूह हों ऐसा नहीं होता है। कोई संदर्भ समूह आदर्श समूह है या नहीं यह सब व्यक्ति के रूचि पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए कोई अपराधी समूह किसी व्यक्ति के लिए आदर्श हो सकता है। जबकि एक समाज के लिए कदापि नहीं।  

निष्कर्ष

इस टॉपिक यथा समाजिक समूह में हमने समाजिक समूह के प्रकारों की विवेचना की है ,साथ ही सामाजिक समूह का एक इंसान के लिए किस प्रकार का महत्व है। उसकी विशेषता क्या है ,प्राथमिक समूह एवं द्वितीयक समूह के बारे में विस्तार से बताया गया है। आशा करता हूँ आपको हमारी ये पोस्ट अच्छी लगी होगी।

सामाजिक समूह क्या है इसके प्रकार लिखिए?

मिलर (Miller) ने सामाजिक समूहों को क्षैतिज (Horizontal) एवं उदग्र (Vertical) में विभक्त किया है। पहले प्रकार के समूह विशाल एवं अन्तर्मुखी समूह होते हैं; यथा—राष्ट्र, धार्मिक संगठन एवं राजनीतिक दल। दूसरे प्रकार के समूह छोटे उपविभाग होते हैं; यथा—आर्थिक वर्ग।

समूह क्या है इसके मुख्य प्रकारों का वर्णन कीजिए?

" समूह से हमारा तात्पर्य ऐसे व्यक्तियों के संग्रह से है जो एक-दूसरे के साथ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं ।" समूह का निर्माण करते हैं ।" उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि सामाजिक समूह केवल व्यक्तियों का संग्रह मात्र ही नहीं है। इन व्यक्तियों के मध्य पारस्परिक सम्बन्धों का होना अत्यावश्यक है।

समूह के प्रकार कौन कौन से हैं?

उदाहरण के लिए प्राथमिक समूह (primary group) छोटे आकार का वह समूह है जिसके सदस्य आपस में निकट, वैयक्तिक, चिरस्थायी सम्बन्ध रखते हैं। (जैसे- परिवार, बचपन के मित्र) । इसके विपरीत द्वितीयक समूह (secondary group) वे समूह हैं जिनके सदस्यों के बीच अन्तःक्रियाएँ अधिक अवैयक्तिक होती हैं और वे साझे हित पर आधारित होते हैं

सामाजिक समूह से क्या अभिप्राय है सामाजिक समूह के प्रकारों का वर्णन कीजिए?

प्रत्येक व्यक्ति समूह और उसके प्रतीकों के प्रति सचेत होता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि एक सामाजिक समूह का कम से कम प्रारंभिक ढांचा और संगठन होता है और उसके सदस्यों की चेतना का मनोवैज्ञानिक आधार होता है। इस प्रकार का परिवार, गांव, राष्ट्र, मजदूर संगठन अथवा राजनीतिक दल का समूह है।