समुद्र मंथन में निकले विष का क्या नाम था? - samudr manthan mein nikale vish ka kya naam tha?

समुद्र मंथन में निकले विष का क्या नाम था? - samudr manthan mein nikale vish ka kya naam tha?

अपनी रसोई

समुद्र मंथन में निकले विष का क्या नाम था? - samudr manthan mein nikale vish ka kya naam tha?

पांच कन्याये कौन कौन थी समुद्र मंथन से निकली उनको कहा भेजा गया? जानिए

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समुद्र मंथन आरम्भ हुआ और भगवान कच्छप के एक लाख योजन चौड़ी पीठ पर मन्दराचल पर्वत घूमने लगा। हे राजन! समुद्र मंथन से सबसे पहले जल का हलाहल विष निकला। उस विष की ज्वाला से सभी देवता तथा दैत्य जलने लगे और उनकी कान्ति फीकी पड़ने लगी। इस पर सभी ने मिलकर भगवान शंकर की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना पर महादेव जी उस विष को हथेली पर रख कर उसे पी गये किन्तु उसे कण्ठ से नीचे नहीं उतरने दिया। उस कालकूट विष के प्रभाव से शिव जी का कण्ठ नीला पड़ गया। इसीलिये महादेव जी को नीलकण्ठ कहते हैं। उनकी हथेली से थोड़ा सा विष पृथ्वी पर टपक गया था जिसे साँप, बिच्छू आदि विषैले जन्तुओं ने ग्रहण कर लिया।
देवताओं के साथ उनके ही भाई बंधु दैत्य भी रहते थे।


समुद्र मंथन में निकले विष का क्या नाम था? - samudr manthan mein nikale vish ka kya naam tha?

Samudra Manthan ke 14 Ratnas List

जब कोई भी व्यक्ति किसी भी लक्ष्य को पाने के लिए कोई भी कार्य शुरू करता है, तब शुरुआत में कई प्रकार की समस्याएँ आती हैं. अगर व्यक्ति इन परेशानियों से ही घबराकर अपना रास्ता या कार्य छोड़ देता है, तो वह आगे नहीं बढ़ सकता. लेकिन जब व्यक्ति के आत्मविश्वास और दृढ़ता के सामने समस्याएँ अपने घुटने टेक देती हैं और परिस्थितियां कुछ अच्छी होने लगती हैं, तब कई तरह के मोह, लालच, बाधाएं आदि भी आती हैं, तब ये सभी मिलकर व्यक्ति को बीच रास्ते में ही रुक जाने के लिए प्रेरित करते हैं. अंत में लक्ष्य या सफलता तक वही पहुंच पाता है, जो इन सबको छोड़कर या इन पर विजय पाकर चलता रहता है… इसी का नाम है समुद्र मंथन (Samudra Manthan).

देवताओं और असुरों के बीच समुद्र मंथन यानी मन के अच्छे और बुरे विचारों के बीच का मंथन. प्रचलित कथा के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान सागर से 14 रत्न (Sagar Manthan ke 14 Ratnas) निकले थे-
कालकूट विष, ऐरावत हाथी, कामधेनु गाय, उच्चैश्रवा घोड़ा, कौस्तुभमणि, कल्पवृक्ष, अप्सरा, श्रीमहालक्ष्मी, वारुणी, चंद्रमा, पारिजात, शंख, भगवान धन्वंतरि और अमृत कलश.

ये सभी 14 रत्न 5 कर्मेन्द्रियां (मुख, हाथ, पैर, गुदा और लिंग), 5 ज्ञानेन्द्रियां (कान, आंख, जीभ, नाक और त्वचा) और 4 अन्य मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के प्रतीक माने गए हैं.

ये 14 रत्न जिस क्रम में निकले थे, वह क्रम किसी भी व्यक्ति या प्राणी के जीवन या उसके हर कार्य क्षेत्र पर लागू होता है. सबसे पहले विष निकला और सबसे बाद में अमृत. सबके बीच में लड़ाई अमृत के लिए ही है, यानी हर कोई अमृत को पाना चाहता है. लेकिन अमृत, मंजिल या सफलता किसी को भी सीधे नहीं मिलती. उसे पाने के लिए तमाम तरह के विचारों, मोह, लालच, बाधाओं आदि से गुजरना पड़ता है, उन सब पर विजय पानी होती है, तभी अंतिम लक्ष्य या मंजिल या अमृत को पाया जा सकता है.

आप कोई भी उदाहरण ले लें. जैसे- जब हम कोई भी कार्य शुरू करते हैं, तब हमारे जीवन में जितनी भी परेशानियां या समस्याएं आती हैं, वे सभी विष का ही तो रूप हैं. अगर इन परेशानियों को हल करना हमारे वश में नहीं है, तो इन्हें हमें उसी तरह भगवान के ऊपर छोड़कर अपने कर्म करते रहना चाहिए, जिस तरह विष को खत्म करने के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की गई थी.

यानी भगवान की शरण में रहकर हमें अपने कार्य करते रहना चाहिए, अपना धर्म (कर्तव्य) निभाते रहना चाहिए, जैसे अर्जुन ने महाभारत में किया. विष यानी परेशानियां खत्म हो जाने के बाद अन्य 13 रत्नों के समान ही तमाम तरह की परिस्थितियां या विचार आते हैं, जिन्हें पार कर लेने पर ही अमृत (सफलता) मिलता है. आइए इसे क्रम से समझते हैं-

समुद्र मंथन में निकले विष का क्या नाम था? - samudr manthan mein nikale vish ka kya naam tha?

हलाहल (विष) (Samudra Manthan Vish)-

समुद्र मंथन से सबसे पहले कालकूट विष निकला, जिसे भगवान शिव ने ग्रहण कर लिया. इसका मतलब है कि अमृत भी सबके मन में ही है, लेकिन उसे पाने के लिए अपने मन को मथना पड़ता है. मन को मथने पर सबसे पहले बुरे विचार ही बाहर निकलते हैं, यानी मन का विष. या किसी भी लक्ष्य को पाने के रास्ते में सबसे पहले जो भी परेशानियां आती हैं, जिन पर हमारा कोई वश नहीं, उन्हें देखकर घबराने की बजाय उन्हें भगवान पर छोड़ देना चाहिए और अपना कार्य आगे बढ़ाना चाहिए.

भगवान शिव से सीखना चाहिए कि उन्होंने विष को अपने कंठ में ही धारण किया, उसे नीचे नहीं उतारा, क्योंकि उसे नीचे उतारने का मतलब है- मन और बुद्धि में भी जहर फैलाना.

कामधेनु गाय (Samudra manthan kamdhenu)-

समुद्र मंथन से दूसरे नंबर पर कामधेनु गाय निकली, जिसे ऋषियों ने अपने पास रख लिया, क्योंकि यह यज्ञ की सामग्री उत्पन्न करने वाली थी. कामधेनु निर्मलता का प्रतीक है. यानी विष के निकल जाने के बाद जब मन निर्मल हो जाता है, तब भगवान को पाने का रास्ता कुछ आसान हो जाता है. या जब परेशानियां खत्म हो जाती हैं, तब मन में फिर से अच्छे या सकारात्मक विचार आने लगते हैं और मन अपने लक्ष्य की तरफ अग्रसर होने लगता है.

उच्चैश्रवा घोड़ा (Samudra manthan Uchhaishravas)-

तीसरे नंबर पर निकला सफेद रंग का उच्चैश्रवा घोड़ा, जिसे राक्षसों के राजा बलि ने अपने पास रख लिया. घोड़े को गति का प्रतीक माना जाता है, और मन की गति सबसे तेज मानी गई है. जब परेशानियां खत्म हो जाती हैं, तब मन में कार्य को लेकर नया उत्साह जागने लगता है, विचारों में फिर से गति आने लगती है.

लेकिन किसी भी कार्य की सफलता के लिए मन की गति पर नियंत्रण यानी आत्मसंयम बनाए रखना बहुत जरूरी है, क्योंकि अगर मन की लगाम हाथ में ही रहती है, तो व्यक्ति अपने रास्ते से भटकता नहीं. वहीं, मन की अनियंत्रित गति का मतलब है- उत्साह या आवेश में केवल मन के अनुसार ही चलना.

ऐरावत हाथी (Samudra manthan Airavata)-

चौथे नंबर पर निकला सफेद चमकदार ऐरावत हाथी, जिसके चार बड़े-बड़े दांत थे. इसे देवराज इंद्र ने अपना वाहन बना लिया. ऐरावत को बुद्धि और उसके चार बड़े दांतों को लोभ, मोह, काम और क्रोध का प्रतीक माना गया है.

जब मन निर्मल हो जाता है, साथ ही हमारे नियंत्रण में भी होता है, तब बुद्धि भी सही दिशा में जाने लगती है… और तब इन विकारों पर भी काबू पाना आसान हो जाता है. लोभ, मोह, काम और क्रोध पर नियंत्रण से कार्य सफलता की संभावनाएं बहुत बढ़ जाती हैं.

कौस्तुभमणि (Samudra manthan Kaustubha)-

पांचवे नंबर पर कौस्तुभमणि निकली, जिसे भगवान विष्णु ने अपने हृदय पर धारण कर लिया. कौस्तुभमणि भक्ति का प्रतीक मानी गई है, और भगवान के हृदय में केवल भक्ति को ही स्थान मिलता है.

जब मन निर्मल है, नियंत्रण में है, यानी लोभ, मोह, काम और क्रोध भी नियंत्रण में है, तब हृदय में भक्ति के लिए ही स्थान बचता है, जो भगवान तक पहुंचने का सबसे बड़ा रास्ता है… या जब मन नियंत्रण में होता है, उसमें कोई विकार नहीं रहता, तब हमें अपने कार्य से प्यार हो जाता है. जब हम अपने कार्य से प्यार करने लगते हैं, तब सफलता के करीब भी पहुंचने लगते हैं.

कल्पवृक्ष (Samudra manthan Kalpavriksha)-

छठे नंबर पर निकले कल्पवृक्ष को बैठे-बैठे ही इच्छाओं की पूर्ति करने का साधन माना जाता है. कहा जाता है कि इस वृक्ष के नीचे बैठकर जो भी इच्छा की जाती है, वह पूरी हो जाती है. इसे देवताओं के यहां स्वर्ग में स्थापित कर दिया गया. यह क्रम बताता है कि फल की इच्छा से कर्म न करो, साथ ही सफलता पाने या मंजिल तक पहुंचने के लिए कभी शॉर्टकट का रास्ता न चुनो.

जब हम लगातार चलते हुए अपनी मंजिल तक पहुंच रहे होते हैं, तब बीच में कोई आता है, जो हमें जल्द मंजिल तक पहुंचाने या हमारी सभी इच्छाओं को जल्द पूरा करने का लालच देने लगता है… इन सबसे भी बचकर हमें सही रास्ते पर आगे बढ़ते हुए मंजिल तक पहुंचने का प्रयास करना चाहिए.

अप्सरा (Samudra manthan Apsaras)-

सुंदर वस्त्र और आभूषणों से सजी अप्सरा किसी भी व्यक्ति के अंदर छिपी हुई वासना का प्रतीक है. जब हम अपने लक्ष्य या सफलता के करीब पहुंचने लगते हैं, तब इसी तरह के कई लालच हमारे रास्ते में आते हैं. ये लालच हमें अपनी तरफ खींचने की पूरी कोशिश करते हैं और हमें अपने मार्ग से विचलित करने का प्रयास करते हैं. लेकिन अगर हमारा मन और बुद्धि हमारे ही कंट्रोल में है, हमारे हृदय में भक्ति का भी प्रवेश हो चुका है, तो वासना भी हमारे मन को विचलित नहीं कर सकती.

महालक्ष्मी (Samudra manthan Lakshmi ji)-

जब व्यक्ति अपने मन पर विजय पाकर और सभी बाधाओं से लड़ते हुए अपना कर्म करते चला जाता है, तो वह सांसारिक सुखों को पाने का अधिकारी हो जाता है और एक दिन उसे ये सब मिलते भी हैं. देवी महालक्ष्मी धन-संपदा, सुख-ऐश्वर्य और सांसारिक सुखों का प्रतीक हैं.

निश्चित ही इस धरती पर लगभग सभी मनुष्यों का लक्ष्य सभी सांसारिक सुखों को प्राप्त करना ही होता है. लेकिन ये सांसारिक सुख हमेशा साथ नहीं रहते, पर मंजिल तक पहुंचने का रास्ता सुगम जरूर बना देते हैं, रास्ते की कठिनाइयों को कम कर देते हैं… इसलिए सांसारिक सुखों को पाने के बाद अपना मार्ग नहीं छोड़ देना चाहिए, बल्कि इनके लिए भगवान को धन्यवाद देते हुए इनकी भी सहायता से आगे बढ़ते रहना चाहिए.

वारुणी देवी (Samudra manthan Varuni)-

वारुणी का मतलब है मदिरा यानी नशा. इसे राक्षसों ने ले लिया था. जब किसी व्यक्ति को धन-सम्पदा, सांसारिक सुख प्राप्त हो जाते हैं, तो उसके पास दो रास्ते होते हैं- या तो अपना मार्ग छोड़कर उन्हीं सांसारिक सुखों का भोग करना शुरू कर दे, उन्हीं का आदी हो जाए या उन्हीं के नशे में चूर हो जाए, या उन्हें साधन की तरह इस्तेमाल करके अपने मार्ग पर आगे बढ़ता चला जाए.

सही रास्ता यही है कि वारुणी का त्याग कर अपने पास उपलब्ध साधनों का इस्तेमाल करके अपने मार्ग पर आगे बढ़ते चले जाना.

चंद्रमा (Samudra manthan Chandra)-

चंद्रमा को शीतलता का प्रतीक माना गया है. जब हम रास्ते में किसी बाधा से नहीं घबराए, अपने मन के मैल को दूर कर चुके होते हैं, हमारा मन और बुद्धि भी हमारे नियंत्रण में ही है… तमाम तरह के लोभ और वासना भी हमें हमारे रास्ते से नहीं भटका सकी, भगवान की भक्ति भी हमारे साथ है, सभी सांसारिक सुख पाकर भी हम उन सबके आदी नहीं हुए, और अपनी मंजिल तक बढ़ते चले गए,

तब हम देखते हैं कि हम अपनी मंजिल के बहुत करीब पहुंच चुके हैं. तब हमारा मन भी चंद्रमा की तरह शीतल हो जाता है. हमारा मन और भी अच्छे तथा सकारात्मक विचारों से भर जाता है. यानी ऐसा व्यक्ति निश्चय ही सफलता पाने के योग्य होता है.

पारिजात वृक्ष (Samudra manthan parijat)-

11वें नंबर पर निकले पारिजात वृक्ष को देवताओं ने रख लिया था. इस वृक्ष को छूने से ही सारी थकान मिट जाती है. इसका मतलब होता है कि जब हम कोई बहुत लंबी और कठिन यात्रा तय करके आते हैं, और फिर जैसे ही हमें हमारी मंजिल सामने नजर आती है, हमारी सारी थकान अपने आप मिट जाती है, मन में शांति का एहसास होता है. यानी यह मंजिल में कदम रखने से पहले मिलने वाली शांति है.

पाञ्चजन्य शंख (Samudra manthan shankh)-

इसे भगवान विष्णु जी ने अपने पास रख लिया था. शंख विजय का प्रतीक है और इसकी ध्वनि बहुत शुभ मानी जाती है. जब हम अपनी मंजिल तक पहुंच जाते हैं, तब विजय का शंखनाद भी जरूर होता है. मन का खालीपन इसी नाद या स्वर या उल्लास से भर जाता है. वहीं, गंधर्वों की तरह दुनिया हमारा सम्मान करने लगती है. हमें अपनी मेहनत या संघर्ष पर गर्व होने लगता है.

भगवान धन्वंतरि और अमृत कलश (Samudra manthan dhanvantari amrit)-

अंत में भगवान धन्वंतरि अपने हाथों में अमृत कलश लेकर निकलते हैं. धन्वंतरि निर्मल, शांत मन और निरोगी तन के प्रतीक हैं. जब हमारा तन-मन स्वच्छ और स्वस्थ होता है, तब सफलता या अमृत का स्वाद जरूर चखने को मिलता है और तब अमृत यानी सफलता का स्वाद भी बहुत मीठा लगता है. इस अमृत को पिलाने में खुद भगवान हमारी सहायता करते हैं और इसे पीने के बाद किसी भी संकट का भय नहीं रह जाता.

समुद्र मंथन का ये क्रम किसी भी प्राणी या व्यक्ति के जीवन के हर सफर में लागू होता है. भगवद गीता भी यही सिखाती है कि भगवान की शरण में रहकर अपने धर्म (कर्तव्य) निभाते जाओ, अपना कर्म करते चले जाओ… सफलता आपका इंतजार कर रही है.

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समुद्र मंथन में विष का क्या नाम है?

सबसे पहले निकला हलाहल समुद्र मंथन के दौरान सबसे पहले हलाहल अर्थात विष निकला। इस जहर के प्रभाव से सृष्टि नष्ट न हो जाए इसलिए भगवान शिव ने इसे मुंह में भर लिया। शिवजी ने इस विष को गले में ही रखा, इस कारण उनका गला नीला हो गया और शिवजी का नाम नीलकंठ पड़ा।

समुद्र मंथन से निकलने वाले सात सिर वाले घोड़े का नाम क्या?

समुद्र मंथन ने चौदह रत्न निकले थे , सुरभि गाय और ऐरावत हाथी भी निकला था , तीसरे न0 पर घोड़ा निकला था जिसे हम उच्चैःश्रवा घोड़ा कहते है । घोड़े तो कई हुए लेकिन श्वेत रंग का उच्चैःश्रवा घोड़ा सबसे तेज और उड़ने वाला घोड़ा माना जाता था।

समुद्र मंथन से निकले उस विश्व का नाम क्या था जिसे भगवान शिव ने अपने कंठ में रख लिया था?

सबसे पहले समुद मंथन में हलाहल विष निकला. शिवजी देवता,असुर और समस्त सृष्टि की रक्षा हेतू इस विष को स्वयं पी गए. विष के कारण उनका कंठ नीला पड़ गया था. इसीलिए शिवजी के कई नामों में उनका एक नाम नीलकण्ठ भी पड़ा.

समुद्र मंथन से प्राप्त उस हाथी का क्या नाम था जो श्वेत वर्ण का था?

ऐरावत इंद्र के हाथी का नाम था। देव और दानवों के बीच हुए समुद्र-मंथन से जो 14 र| प्राप्त हुए थे, उनमें से एक ऐरावत भी था। पुराणों में ऐरावत का वर्णन मिलता है कि वह चमकता हुआ श्वेत वर्ण का है।