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तक्षक द्वारा कश्यप का मार्ग छल से रोकनातब मुनिश्रेष्ठ शमीक ने तुम्हारे पिता के पास अपने शिष्य गौरमुख को भेजा, जो सुशील और गुणवान था। उसने विश्राम कर लेने पर राजा से सब बातें बतायी और महर्षि का संदेश इस प्रकार सुनाया - ‘भूपाल! मेरे पुत्र ने तुम्हें शाप दे दिया है; अतः सावधान हो जाओ।' ‘महाराज! (सात दिन के बाद) तक्षक नाग तुम्हें अपने विष से जला देगा।’ जनमेजय! यह भयंकर बात सुनकर तुम्हारे पिता नागश्रेष्ठ तक्षक से अत्यन्त भयभीत हो सतत सावधान रहने लगे। तदनन्तर जब सातवाँ दिन उपस्थित हुआ, तब उस दिन ब्रह्मर्षि कश्यप ने राजा के समीप जाने का विचार किया। मार्ग में नागराज तक्षक ने उस समय कश्यप को देखा। विप्रवर कश्यप बड़ी उतावली से पैर बढ़ा रहे थे। उन्हें देखकर नागराज ने (ब्राह्मण का वेष धारण करके) इस प्रकार पूछा - द्विजश्रेष्ठ! आप कहाँ इतनी तीव्र गति से जा रहे हैं और कौन-सा कार्य करना चाहते हैं?’ कश्यप ने कहा - ब्रह्मन! मैं वहाँ जाता हूँ जहाँ कुरुकुल के श्रेष्ठ राजा परीक्षित रहते हैं। आज ही तक्षक नाग उन्हें डँसेगा। अतः मैं तत्काल ही उन्हें नीरोग करने के लिये जल्दी-जल्दी वहाँ जा रहा हूँ मेरे द्वारा सुरक्षित नरेश को वह सर्प नष्ट नहीं कर सकेगा। तक्षक का छलतक्षक ने कहा:- ब्रह्मन! मेरे डँसे हुए मनुष्य को जिलाने की इच्छा आप कैसे रखते हैं। मैं ही वह तक्षक हूँ! मेरी अद्भुत शक्ति देखिये। मेरे डँस लेने पर उस राजा को आप जीवित नहीं कर सकते। ऐसा कहकर तक्षक ने एक वृक्ष को डँस लिया। नाग के डँसते ही वह वृक्ष जलकर भस्म हो गया। राजन! तदनन्तर कश्यप ने (अपनी मन्त्र विद्या के बल से) उस वृक्ष को पूर्ववत जीवित (हरा-भरा) कर दिया। अब तक्षक कश्यप को प्रलोभन देने लगा। उसने कहा - ‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो।’ तक्षक के ऐसा कहने पर कश्यप ने उससे कहा - ‘मैं तो वहाँ धन की इच्छा से जा रहा हूँ।’ उनके ऐसा कहने पर तक्षक ने महात्मा कश्यप से मधुर वाणी में कहा- ‘अनघ! तुम राजा से जितना धन पाना चाहते हो, उससे भी अधिक मुझसे ही ले लो और लौट जाओ।' तक्षक नाग की यह बात सुनकर मनुष्यों में श्रेष्ठ कश्यप उससे इच्छानुसार धन लेकर लौट गये। ब्राह्मण के चले जाने पर तक्षक ने छल से भूपालों में श्रेष्ठ तुम्हारे धर्मात्मा पिता राजा परीक्षित के पास पहुँच कर, यद्यपि वे महल में सावधानी के साथ रहते थे, तो भी उन्हें अपनी विषाग्नि से भस्म कर दिया। नरश्रेष्ठ! तदनन्तर विजय की प्राप्ति के लिये तुम्हारा राजा के पद पर अभिषेक किया गया। नृपश्रेष्ठ! यद्यपि यह प्रसंग बड़ा ही निष्ठुर ओर दुःखदायक है; तथापित तुम्हारे पूछने से हमने सब बातें तुमसे कहीं हैं। यह सब कुछ हमने अपनी आँखों से देखा और कानों से भी ठीक-ठीक सुना है।[2] टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेखमहाभारत आदिपर्व में उल्लेखित कथाएँपर्वसंग्रह पर्व वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोजअ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह क्ष त्र ज्ञ ऋ ॠ ऑ श्र अः "https://hi.krishnakosh.org/w/index.php?title=श्रृंगी_ऋषि_का_परिक्षित_को_शाप&oldid=339789" से लिया गया श्रृंगी ऋषि का आश्रम कहाँ है?'सिहावा' की पहाड़ियों पर, 'महेंद्रगिरि' के नाम से प्रसिद्ध 'त्रेतायुग के प्रसिद्ध श्रृंगी ऋषि' का आश्रम है। यह स्थान महानदी नदी का उद्गम है।
श्रृंगी ऋषि का जन्म कैसे हुआ था?पौराणिक कथाओं के अनुसार ऋष्यशृंग विभाण्डक तथा अप्सरा उर्वशी के पुत्र थे। विभाण्डक ने इतना कठोर तप किया कि देवतागण भयभीत हो गये और उनके तप को भंग करने के लिए उर्वशि को भेजा। उर्वशी ने उन्हें मोहित कर उनके साथ संसर्ग किया जिसके फलस्वरूप ऋष्यशृंग की उत्पत्ति हुयी।
श्रृंगी ऋषि कौन से जाति के थे?ऐसा माना जाता है कि ऋंग ऋषि और शांता का वंश ही आगे चलकर सेंगर राजपूत बना। सेंगर राजपूत को ऋंगवंशी राजपूत कहा जाता है। महाभारत काल के श्रृंगी ऋषि : पाण्डवों के स्वर्गारोहण के बाद अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित ने शासन किया। उसके राज्य में सभी सुखी और संपन्न थे।
श्रृंगी ऋषि कितने थे?श्रृंगी ऋषि नाम के दो ऋषि हुए एक #त्रेता युग में तो दुसरे #द्वापर महाभारत काल के पश्चात जो शमीक ऋषि के पुत्र थे। विभण्डक ऋषि पुत्र श्रृंगी ऋषि का विवाह अंगदेश के राजा रोमपाद की दत्तक पुत्री #शान्ता से सम्पन्न हुआ जो कि वास्तव में दशरथ की पुत्री थीं।
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