भारत का महाभारत युद्ध अभूतपूर्व विनाश के साथ समाप्त हो चुका था। भरतवंश के उत्तराधिकारी युधिष्ठिर का मन खिन्न था, उचाट। श्रीकृष्ण ने उन्हें शरशय्या पर बुझी हुई अग्नि के समान पड़े वृद्ध भरतवंशी भीष्म के पास जा कर शिक्षा लेने को कहा, कहा कि इस समय भीष्म मेरा ध्यान कर रहे हैं अत: मेरा मन भी उन्हीं में लगा है। हे पार्थिव! मुझे राजधर्म का उपदेश करें : राजधर्म में धर्म, अर्थ एवं काम तीनों का समावेश है - त्रिवर्गो हि समासक्तो राजधर्मेषु। मोक्ष भी उसमें समाविष्ट है। अश्व एवं हाथी को नियंत्रित रखने हेतु जिस प्रकार वल्गा एवं अङ्कुश आवश्यक हैं, उसी प्रकार लोक मर्यादा हेतु राजधर्म आवश्यक है - नरेन्द्रधर्मो लोकस्य तथा प्रग्रहणं स्मृतम्। ... कुरुवंश की दो पीढ़ियाँ एक दूसरे के समक्ष आहत समय पर औषधि लेप की चिंता में बैठी थीं। बताने वाला वह था जिसने सक्षम होते हुये भी राजसिंहासन का त्याग कर दिया था, जिसने मर्यादा की वल्गा तोड़ने की अपेक्षा अशुभ का पोषण रक्षण करना चुना था, जो शरशय्या पर मृत्यु की प्रतीक्षा में था। पूछने वाला भी वृद्ध हो चला था, जाने कितने नरसंहार की सञ्चित पीड़ा के बीच उसके मन में राजसिंहासन की अपेक्षाओं को ले कर शंकायें थीं, जिसका विश्वास डोल रहा था किंतु धर्मबुद्धि तब भी स्थिर थी। मृत्यु को भी वश में करने वाला आहत प्रपितामह धर्म उपदेश देने लगा। युधिष्ठिर जैसा सुपात्र एवं जिज्ञासु श्रोता उसे कभी मिला ही नहीं था। युद्ध पीछे रह गया, प्रशान्त ज्ञानसरि बह चली... राज्ञा रञ्जनकाम्यया - राजा को प्रजा के रञ्जन की कामना से देवता एवं ब्राह्मणों के प्रति यथाविधि व्यवहार करना चाहिये। युधिष्ठिर ! तुम सदैव पुरुषार्थ हेतु प्रयत्नशील रहना। उसके बिना प्रारब्ध
राजाओं का प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकता - न ह्युत्थानमृते दैवं राज्ञामर्थं प्रसादयेत्। मैं पुरुषार्थ को ही प्रधान मानता हूँ - पौरुषं हि परं मन्ये। आरम्भ किया हुआ कार्य पूरा न हो तब भी तुम उसका दु:ख न मान अपने पुरुषार्थ में लगे रहना - विपन्ने च समारम्भे संतापं मा स्म वै कृथा: । |