देवनागरी लिपि के गुण एवं दोषों की समीक्षा कीजिए। - devanaagaree lipi ke gun evan doshon kee sameeksha keejie.

देवनागरी को लिखने में भी वैज्ञानिकता

“देवनागरी” लिपि को “गढ़ने”में भारतीय ऋषियों ने अत्यन्त वैज्ञानिक दृष्टि का प्रयोग किया है।

देवनागरी लिपि के वर्ण जैसे बोले जाते हैं, वैसे ही लिखे जाते हैं, जैसे लिखे जाते हैं, वैसे ही बोले जाते हैं। उनके बोलने और लिखने में अन्य भाषाओं की लिपियों के समान, भेद नहीं है।

हिन्दी में हम “स” ही बोलेंगे और “स” ही लिखेंगे परन्तु उर्दु में “सीनः””स्वाद”, से इन तीनों वर्गों के लिखने का झगड़ा पैदा होगा और वहाँ भी लिखने तथा बोलने से भेद रहेगा। यही अवस्था अंग्रेजी के “सी” और “एस” की है।

अंग्रेजी में लिखा जायेगा काल्म (calm) और पढ़ा जायेगा “काम”। लिखा जायेगा (school) स्चूल और पढ़ा जायेगा “स्कूल” । इस प्रकार का दोष देवनागरी लिपि में नहीं है।

इस प्रकार देवनागरी लिपि पूर्ण वैज्ञानिक सिद्ध होती है। देवनागरी लिपि में वैज्ञानिकता इस प्रकार है कि उसके वर्गों को लिखने में

1. सर्वप्रथम स्वतन्त्र रूप से उच्चारित वर्णों (स्वरों) को स्थान दिया गया है और फिर स्वरों की सहायता से बोले जाने योग्य वर्णों (व्यंजनों) को महत्त्व दिया गया है।

2. दूसरी विशेषता यह है कि लघु स्वर पहले लिखे जाते हैं उसके बाद दीर्घ स्वर और उसके पश्चात् गुण वृद्धि स्वर (ए,ओ, ऐ, औ) के अनुसार लिखे जाते  हैं।

3. उच्चारण की दृष्टि से भी इन स्वरों में क्रम निर्धारित किया गया है।

4. इसी प्रकार स्पर्श व्यंजनों में पाँच वर्ग बना दिये गये हैं। प्रत्येक वर्ग के अक्षर एक-एक उच्चारण-स्थान से बोले जाते हैं।

5. फिर वर्ग के पाँच अक्षरों के क्रम में भी वैज्ञानिकता है। सभी वर्गों के वर्गों के उच्चारण में एक ही उच्चारण-स्थान काम करता है और इसी प्रकार अगले सभी वर्गों में इस प्रकार अन्तःस्थ और ऊष्म में भी वैज्ञानिक बुद्धि से काम लिया गया है।

व्यवस्थित वर्णमाला– नागरी लिपि की वर्णमाला का रूप अत्यन्त व्यवस्थित है। इसमें स्वरों और व्यंजनों को अलग-अलग रखा गया है। स्वरों में भी हस्व और दीर्घ के युग्म (अ, आ, इ, ई, उ, ऊ) हैं। पहले मूल स्वर रखे गए हैं, फिर संयुक्त स्वर

स्पर्श ध्वनियों के अंतर्गत पहले कण्ठ ध्वनियों को रखा गया, एवं अंत में ओष्ठ्य ध्वनियों को।

यहाँ तक कि प्रत्येक वर्ग की प्रथम, तृतीय एवं अंतिम ध्वनियाँ अल्प प्राण ध्वनि (क, ग, ङ) तथा द्वितीय एवं चतुर्थ ध्वनि महाप्राण ध्वनि (ख, घ) हैं। प्रत्येक वर्ग की अंतिम ध्वनि को अनुनासिक रखा गया है, जैसे-ङ,ञ, ण, न एवं म।

इस प्रकार प्रत्येक वर्ग की ध्वनियों में पहले अघोष एवं उसके बाद सघोष ध्वनियों का उल्लेख है। इस प्रकार पहले की दो ध्वनियाँ अघोष तथा अंतिम तीन ध्वनियाँ सघोष हो जाती हैं।

 उच्चारण के अनुरूपलेखन -नागरी लिपिअक्षरात्मक लिपि है। अक्षरात्मक लिपि में प्रत्येक ध्वनि के लिए पृथक-पृथक वर्ण होते हैं। इसमें प्रत्येक स्तर के लिए भिन्न चिह्न होता है, जो उच्चारण के अनुरूप लिखे जाते हैं।

जैसे यदि ‘रहीम’ बोलना है, तो उसे र+अ+ह+ई+म+अ लिखना होगा। जबकि अंग्रेजी में ऐसा नहीं है। उसमें अनेक लिखी हुई ध्वनियों का उच्चारण नहीं होता। जैसे-‘KNIFE’ | इसका उच्चारण ‘नाईफ है। इसमें ‘K’ ध्वनि का उच्चारण नहीं होता।

 एक ध्वनि एक लिपि-नागरी लिपि में प्रत्येक ध्वनि के लिए अलग-अलग चिह्न हैं, तथा एक चिह्न की एक ही ध्वनि है। जबकि रोमन लिपि में एक ध्वनि के लिए अनेक लिपिचिह्न हैं । जैसे-रोमन लिपि में ‘S’ की तीन ध्वनियाँ हैं-स, ज, श,। इसी प्रकार ‘क’ ध्वनि के लिए C,K,Q, का प्रयोग किया जाता है।

व्यंजन चिह्न की आक्षरिकता– इससे तात्पर्य है-व्यंजन के उच्चारण के साथ स्वर का उच्चारण होना। यह गुण नागरी लिपि में ही है, रोमन आदि में नहीं। इसके कारण नागरी लिपि में लेखन की गति बढ़ जाती है।

उदाहरण के लिए यदि ‘मदन’ को अंग्रेजी में लिखना होगा, तो लिखेंगे- MADANAA स्पष्ट है कि जहाँ नागरी में इसे केवल तीन चिह्नों द्वारा व्यक्त कर दिया गया है, वहीं रोमन में छ: चिह्नों की आवश्यकता पड़ी है।

पृथक-पृथक् लिपि चिह्न- इसमें प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन ध्वनि के लिए पृथक् लिपि चिह्न है। यद्यपि ऐसा करने से कुल स्वर एवं व्यंजनों की संख्या रोमन लिपि की तुलना में अधिक अवश्य हो गई है, किन्तु इससे लिपि में वैज्ञानिकता अधिक आ गई है।

उदाहरण के लिए नागरी लिपि में अल्पप्राण एवं महाप्राण ध्वनियों के लिए अलग-अलग लिपि हैं। जैसे-क (अल्पप्राण). ख (महाप्राण). जबकि रोमन लिपि में इसके लिए होगा-K (क), KH (ख)।

लिपि की परिभाषा

भाषा लेखन के लिए निश्चित चिह्नों की व्यवस्था को लिपि कहते हैं ।

भाषा के दो रूप हैं-

१. मौखिक भाषा

२. लिखित भाषा

भाषा का लिखित रूप ही लिपि है  जो ध्वनियों को अंकित करने के लिए प्रयोग में लाई जाती है। विश्व की सभी भाषाओं की अपनी- अपनी लिपियां हैं। हिंदी, मराठी, नेपाली और संस्कृत की लिपि 'देवनागरी' है। अंग्रेजी, जर्मन, फ्रांसीसी आदि भाषाओं की लिपि 'रोमन 'है । उर्दू और फारसी 'फारसी' लिपि में लिखी जाती है। पंजाबी भाषा की लिपि 'गुरुमुखी'  है।

देवनागरी लिपि का इतिहास, उद्भव एवं विकास

भारत में प्राचीनतम उपलब्ध अभिलेखों में दो लिपियों का प्रयोग मिलता है-

१. खरोष्ठी लिपि

२. ब्राह्मी लिपि

इनमें ब्राह्मी लिपि का क्षेत्र अधिक व्यापक था । देवनागरी लिपि का उद्भव ब्राह्मी लिपि से हुआ है । देवनागरी लिपि के समान ही ब्राह्मी लिपि भी बाईं से दाईं ओर ही लिखी जाती थी । ब्राह्मी के उत्तरोत्तर विकास के फलस्वरुप 'गुप्त लिपि' तथा 'कुटिल लिपि' का विकास हुआ, तदनंतर १० वीं शताब्दी में यह नागरी लिपि के रूप में प्रकट हुई। इसी का नाम देवनागरी है।  भारत में सबसे अधिक प्रचलित लिपि यही है। भारत के संविधान में देवनागरी लिपि का स्थान राजभाषा हिंदी की लिपि के रूप में किया गया है ।

देवनागरी लिपि का सर्वप्रथम प्रयोग गुजरात के नरेश जयभट्ट के एक शिलालेख में मिलता है। ८ वीं शताब्दी में राष्ट्रकुल नरेशों में भी यही लिपि प्रचलित थी और ९ वीं शताब्दी में बडौदा के ध्रुव-

राज ने भीअपने राज्यादेशों में इसी लिपि का प्रयोग किया है।

देवनागरी लिपि का विकास

             ‌  ‌  ब्राह्मी लिपि

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       ।                                           ।        ‌       

उत्तरी ब्राह्मी (३५०ई. तक)           दक्षिणी ब्राह्मी

       ।

गुप्त लिपि ( ४-५ वीं सदी )

      ।

सिद्धमात्रिक लिपि ( ६वीं सदी )

      ।

कुटिल लिपि

     ।

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    ।                                   ।

नागरी लिपि                    शारदा लिपि

( देवनागरी लिपि)                  ।

                 ------------------------------

                 ।            ।          ।             ।

         गुरुमुखी    कश्मीरी      लहंदा      टाकर

देवनागरी शब्द की व्युत्पत्ति के विषय में कई मत प्रस्तुत  किए गए हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित है -

( १) कुछ विद्वानों गुजरात के नागर ब्राह्मणों की लिपि होने से इसे नागरी लिपि कहते है ।

(२) कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि इस लिपि का प्रयोग प्राय: नगरों में किया जाता है, इसलिए इसका नाम नागरी पड़ा ।

(३) कुछ विद्वान 'नागलिपि' से इसकी व्युत्पत्ति मानते हैं।

(४) दक्षिण में किसी नन्दिनागर से संबंधित करके इसका नाम नन्दिनागरी भी माना गया है।

(५) देवनागरी के संबंध में अपने विचारों को प्रस्तुत करते हुए राधेश्याम शास्त्री जी कहते हैं कि देवताओं की मूर्तियां बनाने के पूर्व उनकी उपासना सांकेतिक चिह्नों द्वारा होती थी जो कई त्रिकोण तथा चक्रों आदि से बने हुए यंत्र के ( जो देवनगर कहलाता था ) मध्य में लिखे जाते थे। ' देवनगर 'के मध्य लिखे जाने वाले अनेक प्रकार के सांकेतिक चिह्न कालांतर में उन नामों से पहले अक्षर माने जाने लगे और ' देवनगर 'के मध्य उनका स्थान होने के कारण उनका नाम ' देवनागरी 'पड़ गया ।

(६) डॉ. धीरेंद्र वर्मा जी ने कहा है कि मध्ययुग में स्थापत्य कला की अनेक शैलियों में से एक शैली का नाम 'नागर' शैली था और इस शैली के अंतर्गत चौकोर आकृतियां बनाई जाती थी और नागरी लिपि के अक्षरों में भी चौकोर आकृतियां होती थी। इस समानता के कारण इस लिपि का नाम 'नागरी' लिपि पड़ा।

(७) कुछ विद्वानों का कहना है कि इस लिपि का प्रचलन काशी में बहुत अधिक था और काशी को ' भगवान शिव की नगरी ' या ' देवनागर 'कहा जाता था। यह लिपि ' देवनागर ' में प्रचलित होने के कारण ' देवनागरी 'कहलाई ।

(८) डॉ.उदयनारायण तिवारी का विचार हैं कि इस लिपि का प्रयोग देवभाषा संस्कृत लिखने में हुआ है, इसलिए  इसका नाम देवनागरी पड़ गया। 

वस्तुत: ये सभी व्युत्पत्तियां कल्पना पर आधारित है। इनमें डॉ. उदयनारायण तिवारी का मत अधिक पुष्ट, तर्कसंगत एवं समीचीन  है ।इसकी व्युत्पत्ति  के विषय में इतना ही कहा जा सकता है कि देवनागरी का विकास ब्राह्मी लिपि की उत्तरी शाखा से हुआ है। प्राचीन काल में इसे नागरी कहा जाता था । अब इसे देवनागरी कहते हैं। देवनागरी लिपि १० वीं शती से मिलने लगी हैं। इसके वर्णों का क्रमश: विकास होता रहा है।११वीं

शती में लिपि का पर्याप्त विकास हो गया था और १२ वीं शती में लिपि का आधुनिक रूप प्रचलित हो गया था। संक्षेप में देवनागरी की वर्णमाला के विकास के विषय में यही कहा जा सकता है कि ब्राह्मी लिपि ही गुप्त और कुटिल के माध्यम से आधुनिक देवनागरी बनी है ।

देवनागरी लिपि के गुण (विशेषताएं)

देवनागरी लिपि में अनेक ऐसे गुण  उप- लब्ध होते हैं जो इसका स्थान संसार की लिपियों  में अधिक महत्वपूर्ण बनाए हुए हैं । इस लिपि के मुख्य गुण (विशेषताएं) निम्नलिखित हैं-

( १ ) यह लिपि अत्यंत  वैज्ञानिक हैं। इसमें वर्णमाला के अक्षरों का वर्गीकरण वैज्ञानिक रीति से किया गया है। देवनागरी में केवल स्वर व्यंजनों की दृष्टि से ही वैज्ञानिक वर्गीकरण नहीं किया गया ,बल्कि प्रत्येक ध्वनि यथास्थान रखी गई है। परस्पर सम्बद्ध स्वर ध्वनियों को एक साथ रखा गया है तथा व्यंजनों का उच्चारण -स्थान के अनुसार वर्गीकरण किया गया है। ऐसा वर्गीकरण किसी भी लिपि में नहीं मिलता।

( २ ) देवनागरी लिपि में जैसे उच्चारण किया जाता है वैसे ही लिखा जाता है।

( ३ ) स्वरों के लिए अलग वर्ण एवं उनकी मात्राओं के लिए अलग वर्ण है जबकि रोमन ,फारसी में मात्राओं के लिए अलग से कोई चिह्न नहीं है ।

( ४ ) देवनागरी लिपि की एक विशेषता यह है कि यह देश के बहुत बड़े क्षेत्र में प्रयुक्त होती है। यह भारत के सबसे  बड़े हिंदी भाषा -भाषी प्रदेश की लिपि है।

( ५ ) देवनागरी लिपि  में हरेक ध्वनि के लिए एक लिपि चिह्न निश्चित है। जैसे -'कमल' शब्द में 'क'  की ध्वनि के लिए एक लिपि चिह्न  'क' नियत है । इस ध्वनि के लिए 'K', 'C' अथवा  'Q'आदि अनेक चिह्नों का भ्रामक प्रयोग नहीं होता ।

( ६ ) देवनागरी लिपि का एक मुख्य गुण यह है कि समस्त प्राचीन वाङ्ममय इसी लिपि में मिलता है ।

( ७ ) स्वर और व्यंजन का मेल प्रस्तुत करने का ऐसा वैज्ञानिक नियम अन्य लिपियों में नहीं है, जैसा देवनागरी में मात्रा संबंधी है‌। उच्चारण संबंधी इतनी वैज्ञानिकता रोमन लिपि में भी नहीं है।

( ८ ) देवनागरी लिपि अधिक से अधिक ध्वनि चिह्नों से संपन्न है।

(  ९ ) इस लिपि में  यह व्यवस्था है कि जब किसी व्यंजन को स्वर रहित करके दिखाना हो तो उसके नीचे हलन्त का चिह्न लगा दिया जाता है । जैसे-

म = म् + अ          री  = र् + ई

कु = क् + उ           वो = व् + ओ

( १० ) देवनागरी लिपि में स्थानीय अनु- नासिक ध्वनियों के लिए अलग-अलग स्वतंत्र वर्ण (ङ्,ण्,न्,म्) है, जो संसार की किसी भी लिपि में नहीं पाए जाते ।

(११) लेखन और उच्चारण में एकरूपता है जबकि रोमन में साइक्लोजी को Psychology लिखा जाता है जो उच्चारण के अनुरूप नहीं है ।

(१२) ध्वन्यात्मक लिपि है । हर व्यंजन में स्वर मिला रहता है । जैसे-म्+अ=म जबकि रोमन लिपि में स्वरों  को अलग से लिखना होता है ।

तात्पर्य यह है कि देवनागरी लिपि संसार की लिपियों में सर्वाधिक वैज्ञानिक है । इसके सामने रोमन लिपि भी सदोष दिखाई देती है । सर्वोपरि,यह भारत की संस्कृति और परंपराओं के अनुकूल है।

देवनागरी लिपि के दोष

( १ ) देवनागरी लिपि में कुछ वर्ण ऐसे हैं जिनकी ध्वनियां इस  समय भाषाओं में नहीं हैं,परंतु प्राचीनकाल में इनका अस्तित्व था इसलिए ये लिपि चिह्न वैज्ञानिक दृष्टि से फालतू हैं। ये लिपि चिह्न हैं-ऋ,ॠ,लृ,ष,ण।

( २ ) देवनागरी लिपि में कुछ ध्वनियां ऐसी हैं, जिनके लिए उपयुक्त चिह्न नहीं हैं।जैसे- डॉक्टर में ' ऑ ',न्ह, म्ह, स्वतंत्र ध्वनि तत्व हैं, किंतु इनके लिए चिह्न नहीं हैं।

( ३ ) ' ख ' वर्ण के संबंध में भ्रांति  हो जाती है, क्योंकि इसे ' रव ' भी पढ़ा जा सकता है ।

( ४ ) कुछ ध्वनियां ऐसी हैं जिनका उच्चारण कुछ परिवर्तित हैं।जैसे-ङ्,ञ् का उच्चारण ' न् ' जैसा हो गया है ।अत: इन लिपि चिह्नों के  स्थान पर अनुस्वार ( ं) से काम चल सकता है ।

( ५ )  कुछ लिपि चिह्न वैज्ञानिक दृष्टि से अनावश्यक है। जैसे-क्ष, त्र, ज्ञ आदि।

( ६ )  शिरोरेखा होने से तेजी से लिखने में कठिनाई होती है ।

( ७ ) टंकण मुद्रण में जटिल है।

( ८ ) ' र ' वर्ण संयुक्त रूप में तीन नए रूप धारण करता है । जैसे-त्र,(प्र),र्ट, ट्र में ।

( ९ ) ' इ ' की मात्रा अवैज्ञानिक है। इसका उच्चारण अक्षर के बाद में होता है, पर यह लगती है पहले। जैसे ' रि ' में  ' इ 'का उच्चारण' र ' के बाद में होता है,पर है यह पहले।  संयुक्ताक्षरों में तो इसकी स्थिति और भी कठिन हो जाती है ।

( १० ) उच्चारण की दृष्टि से ' व ' द्वयोष्ठ्य भी है और दन्त्योष्ठ्य भी है। ' स्वर ' में द्वयोष्ठ्य है और ' वीर ' में

दन्त्योष्ठ्य है, किंतु दोनों के लिपि चिह्न एक ही हैं। रोमन में इनके लिए क्रमशःं ' W ' और '  V ' हैं।

( ११ ) अनुस्वार एवं अनुनासिकता के प्रयोग में एकरुपता का अभाव होना ।

( १२ )  इनके अतिरिक्त यह वर्णमाला बड़ी लंबी है, जिससे टाइपराइटर बहुत बड़ा हो गया है‌। साथ ही  हिंदी के अक्षर अन्य लिपियों से अधिक स्थान धेरते हैं ।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि देवनागरी लिपि आधुनिक आवश्यकताओं के अनुसार सरल नहीं है। इसकी वर्णमाला बड़ी है और साथ ही मात्राएं और संयुक्त व्यंजन भी हैं।

लिपि -सुधार

देवनागरी लिपि निर्विवाद रूप से भार- तीय लिपियों में राष्ट्र -लिपि होने की अधिकारिणी है। देवनागरी लिपि में सुधार के लिए बहुत से लोगों ने अपना सहयोग किया है। अतएव इसे आधुनिक युग के अनुकूल बनाने के जो  प्रयत्न किए गए हैं,उनमें से कुछ नीचे दिए जा रहे हैं-

( १ )  सर्वप्रथम बम्बई के महादेव गोविंद रानाडे ने एक लिपि सुधार समिति का गठन किया । तदनन्तर महाराष्ट्र साहित्य परिषद पुणे में सुधार योजना तैयार की।

( २ )  बाल गंगाधर तिलक ने सन 1904 ई. में अपने पत्र 'केसरी' के लिए 1926 टाइपो की छपाई करके 190 टाइपो का एक फॉन्ट साइज बनाया, जिसे 'तिलक फॉन्ट' भी कहते हैं। यह बनाकर के देवनागरी लिपि सुथार का आरंभ किया।

( ३ ) सर्वप्रथम महाराष्ट्र में सावरकर बंधुओं ने 'अ ' की बारहखडी तैयार की और महात्मा गांधी जी के ' हरिजन सेवक ' में इसका प्रयोग हुआ  ।

( ४ ) सर्वप्रथम डॉ. श्यामसुंदर दास ने पंचमाक्षर ( ङ्,ञ्,ण्,न्,म् ) के स्थान पर अनुस्वार ( '  ) के प्रयोग का प्रस्ताव रखा था ।

( ५ ) डॉ. गोरखप्रसाद जी ने मात्राओं को व्यंजन के बाद दाहिनी तरफ लिखने का प्रस्ताव रखा था।

( ६ )  'हरिजन' पत्र में श्री काका कालेलकर के प्रयत्नों के पलस्वरूप देवनागरी लिपि में जो सुधार किए गए ,वो इस प्रकार हैं -

( क) स्वरों की संख्या कम करने के लिए 'अ' में ही सभी मात्राएं लगें। जैसे-आ, 'ऋ' को स्थान न दिया जाए।

(ख) महाप्राण वर्णों की आवश्यकता न समझते हुए 'ह' के योग से काम चलाया जाए। जैसे - 'ख' के लिए क्ह।

( ग ) ङ्,ञ्,ण् तथा ज्ञ,त्र, को अनावश्यक समझ कर निकाल दिया जाए।

( ७ ) श्रीनिवास ने सुझाव दिया कि महाप्राण वर्णों के बदले  अल्पप्राण वर्णों के नीचे कोई चिह्न लगा दिया जाए जिससे वर्णों की संख्या में कमी आएगी।

( ८ ) सन् 1935 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी के सभापतित्व में हिंदी साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमें  लिपि सुधार समिति का गठन हुआ। 5 अक्टूबर, सन् 1941 को इस लिपि  सुधार समिति ने कुछ सुझाव दिए, जिनमें से महत्वपूर्ण सुझाव निम्नलिखित हैं-

(क) सभी मात्राओं ,अनुस्वार, रेफ आदि को ऊपर -नीचे  न रखकर  उच्चारण क्रम में रखा जाए। 

जैसे-

अंग= अ ऺ ग           खेल = ख ॆल

( ख) संयुक्ताक्षरों में  आधे अक्षर को आधे रूप में और पूरे अक्षर को पूरे रूप में लिखा जाना चाहिए। 

जैसे-

त्रिकोण = त्रिकोण

लक्ष्य = लक्ष्य

(ग) स्वरों के स्थान पर 'अ'  में मात्राएं लगाकर काम चलाया जाए। 

जैसे-

(घ) पूर्ण विराम के लिए खड़ी रेखा प्रयुक्त की जाए ।

(ङ) 'ख' के स्थान पर गुजराती 'ख' का प्रयोग करें।

( ९ ) सन् 1947 में उत्तर प्रदेश सरकार ने आचार्य नरेंद्रदेव देव की अध्यक्षता में एक लिपि सुधार समिति का गठन किया जिसने निम्नांकित सुझाव दिए-

(क) अ  की  बाराहखडी भ्रामक है।

(ख) मात्राएं यथास्थान रहें, किंतु उन्हें थोड़ा दाहिनी ओर  हटाकर लिखा जाए।

(ग) अनुस्वार तथा पंचम वर्ण के स्थान सर्वत्र शून्य से काम चलाया जाए।

(घ) ' र '  के संयुक्ताक्षर में ' र ' लिखना ।

जैसे-

गर्व = गरव्।          

प्रखर= प् रखर

(१०)  डॉ .सुनीति कुमार चटर्जी ने परिवर्तनों के साथ  देवनागरी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि को स्वीकार कर लेने का सुझाव दिया था।

निष्कर्ष:

सारांश यह है कि अभी तक देवनागरी लिपि में जो सुधार प्रस्तुत किए गए हैं वे भ्रामक और अपर्याप्त हैं। सच तो यह है कि परंपरा की विशाल नींव पर टिकी इस लिपि में सुधार करना सहज नहीं है।

Written By:

देवनागरी लिपि के गुण एवं दोषों की समीक्षा कीजिए। - devanaagaree lipi ke gun evan doshon kee sameeksha keejie.

 Dr. Gunjan A. Shah 

 Ph.D. (Hindi)

 Hindi Lecturer (Exp. 20+)

देवनागरी लिपि के गुण क्या है?

अधिकतर भाषाओं की तरह देवनागरी भी बायें से दायें लिखी जाती है। प्रत्येक शब्द के ऊपर एक रेखा खिंची होती है (कुछ वर्णों के ऊपर रेखा नहीं होती है) जिसे शिरोरेखा कहते हैं। देवनागरी का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। यह एक ध्वन्यात्मक लिपि है जो प्रचलित लिपियों (रोमन, अरबी, चीनी आदि) में सबसे अधिक वैज्ञानिक है।

देवनागरी लिपि का दोष कौनसा है?

संस्कृत के लिए प्रयुक्त देवनागरी वर्णमाला में तो ॠ, लृ तथा लृ भी सम्मिलित है, किंतु हिंदी में इन वर्गों का प्रयोग न होने के कारण इन्हें हिंदी की मानक वर्णमाला में स्थान नहीं दिया गया है।

देवनागरी लिपि की उत्पत्ति कैसे हुई है?

देवनागरी लिपि की जड़ें प्राचीन ब्राह्मी परिवार में हैं। गुजरात के कुछ शिलालेखों की लिपि नागरी लिपि से बहुत मेल खाती है। ये शिलालेख प्रथम शताब्दी से चौथी शताब्दी के बीच के हैं। ७वीं शताब्दी और उसके बाद नागरी का प्रयोग लगातार देखा जा सकता है।

देवनागरी लिपि का कौन सा गुण नहीं है?

उदाहरण- देवनागरी लिपि में क, ख, ग, घ आदि का नाम और उच्चारण समान है इसके विपरीत रोमन में अक्षरों के नाम और उच्चारण में अंतर होता है। २. एक अक्षर एक ही ध्वनि का वाहक होना चाहिए। कभी-कभी ऐसे लिपि चिन्ह भी देखे जाते हैं जिनके उच्चारण का उन से प्रकट होने वाली ध्वनियों से कोई संबंध नहीं होता।