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यूपी बोर्ड कक्षा 10 हिन्दी किताब का सम्पूर्ण हल

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उस दिन कक्षा में पढ़ाया जाने वाला रेलगाड़ी नामक पाठ पृष्ठ पर था - us din kaksha mein padhaaya jaane vaala relagaadee naamak paath prshth par tha

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अध्याय 01 मित्रता

लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी

'मित्रता पाठ के सभी गद्यांशों के रेखांकित अंशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या

 

सभी गद्यांशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या

 मित्रता – रामचन्द्र शुक्लआचार्य जी

उस दिन कक्षा में पढ़ाया जाने वाला रेलगाड़ी नामक पाठ पृष्ठ पर था - us din kaksha mein padhaaya jaane vaala relagaadee naamak paath prshth par tha

1.हम लोग ऐसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरम्भ करते हैं, जबकि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है। हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते हैं, जिसे जो जिस रूप का चाहे उस रूप का करे-चाहे राक्षस बनावे, चाहे देवता। ऐसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है, जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प के हैं; क्योंकि हमें उनकी हर एक बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है। पर ऐसे लोगों का साथ करना और बुरा है, जो हमारी ही बात को ऊपर रखते हैं; क्योंकि ऐसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई दबाव रहता है और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है। 

प्रश्न(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए। 

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) लेखक के अनुसार, हमें किन लोगों की संगति में नहीं रहना चाहिए?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी कहते हैं कि जब हम किशोरावस्था के पश्चात् युवावस्था में प्रवेश करने पर घर की सीमाओं से बाहर निकलकर समाज में कार्य करना आरम्भ करते हैं, तब हमें संसार व समाज के लोगों के साथ रहने का अनुभव बिल्कुल नहीं होता, हमें दुनियादारी की बिल्कुल समझ नहीं होती। उस समय हमारा मन बहुत कोमल होता है, जो किसी प्रकार के अच्छे या बुरे संस्कार ग्रहण करने के योग्य होता है। हमारी बुद्धि इतनी विकसित नहीं होती कि उसे उचित-अनुचित का ज्ञान हो पाए। उस समय हमारी बुद्धि कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान होती है, जिस पर अच्छी या बुरी किसी बात का प्रभाव बहुत जल्दी पड़ता है। उस समय हम जैसे स्वभाव के लोगों के सम्पर्क में आते हैं उनके विचारों का हमारे मन पर वैसा ही प्रभाव पड़ता है। यदि किसी सुयोग्य व्यक्ति के सम्पर्क में हम आ जाते हैं, तो हम में देवताओं जैसे अच्छे गुण व संस्कार आ जाते हैं। यदि किसी दुश्चरित्र व दुष्ट व्यक्ति का साथ मिल जाता है, तो उसके सम्पर्क में रहकर हम भी दुर्गुण, बुरे संस्कार व घृणित कार्य करने वाले बनकर समाज में अपमानित होते हैं।

ऐसे समय में ही हमें एक सच्चे मित्र की आवश्यकता होती है, जो हमें सही मार्ग दिखाकर हमारे चरित्र व व्यक्तित्व को निखार दे। शुक्ल जी कहते हैं कि हम यदि ऐसे लोगों की संगति में रहने लग जाते हैं, जिनकी इच्छाशक्ति हमसे प्रबल होती है तथा वह अधिक दृढ़ निश्चय वाले होते हैं, तब हम उनके सामने कुछ भी बोल नहीं पाते और हमें उन्हीं के विचारों व आदर्शों पर चुपचाप चलना पड़ता है। उनकी अच्छी व बुरी सभी बातों को हमें बिना विरोध के मानना पड़ता है फलस्वरूप हम कमजोर पड़ते जाते हैं तथा हमारी सोचने-समझने की शक्ति व कार्यक्षमता घटती जाती है।

(ग) लेखक के अनुसार, हमें दो प्रकार के लोगों की संगति में नहीं रहना चाहिए, एक तो वे व्यक्ति जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्पी हैं, क्योंकि हम उनकी प्रत्येक सलाह को बिना सोचे-समझे मान लेते हैं, इससे हमारा व्यक्तित्व दब जाता है। दूसरे, हमें उन लोगों के साथ भी नहीं रहना चाहिए, जो हमारी बात का विरोध किए बिना स्वीकार कर लेते हैं। ऐसे लोग हमारे व्यावहारिक जीवन को बिल्कुल भी प्रभावित नहीं कर सकते और अपने गुणों से हमें लाभान्वित भी नहीं कर सकते।

2.हँसमुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी चतुराई या साहस—ये ही दो-चार बातें किसी में देखकर लोग झटपट उसे अपना मित्र बना लेते हैं। हम लोग यह नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या है? क्या जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है। यह बात हमें नहीं सूझती कि यह एक ऐसा साधन है, जिससे आत्मशिक्षा का कार्य बहुत सुगम हो जाता है। एक प्राचीन का वचन-विश्वासपात्र मित्र से बड़ी रक्षा रहती है, जिसे ऐसा मित्र मिल जाए उसे समझना चाहिए कि खज़ाना मिल गया।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

 (ग) सामान्यतः लोग व्यक्ति में क्या देखकर मित्रता कर लेते हैं?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी कहते हैं कि मित्र बनाते समय हम इस बात पर विचार नहीं करते कि जिसे हम मित्र बना रहे हैं, उसकी संगति में रहकर क्या हम अपने जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं या नहीं। क्या उस व्यक्ति में वे सभी गुण विद्यमान हैं, जिनकी हमारे जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यकता है।

यदि हमें जीवन में सच्चा मित्र मिल जाता है तो हमें एक ऐसा साधन मिल जाता है, जो आत्मशिक्षा प्राप्त करने में हमारा सहायक हो सकता है तथा हमें जीवन के उच्च लक्ष्यों को प्राप्त करने में हमारी सहायता कर सकता है। एक प्राचीन विद्वान् का भी यही मत है कि एक सच्चा व अच्छा विश्वास के योग्य मित्र बहुत भाग्य से ही प्राप्त होता है। वह हर समय हमारी रक्षा करता है, हमारा मार्गदर्शन करता है, हमें हर बुराई से बचाता है। जिस व्यक्ति को ऐसा मित्र प्राप्त हो जाए, उसे यह समझना चाहिए कि मानो उसे संसार का कोई बड़ा खजाना मिल गया हो अर्थात् कोई बहुमूल्य निधि प्राप्त हो गई हो।

(ग) सामान्य रूप से व्यक्ति किसी का हँसमुख-सा चेहरा, उसका बातचीत करने का आकर्षक ढंग, उसकी चतुराई और उसका साहस देखकर सोचते हैं कि यही व्यक्ति मित्र बनाने के योग्य है और वे उसे ही अपना मित्र बना लेते हैं।

3.विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषध है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों में हमें दृढ़ करेंगे, दोषों और त्रुटियों से हमें बचाएँगे, हमारे सत्य, पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करेंगे, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे, तब वे हमें सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साहित होंगे, तब हमें उत्साहित करेंगे। सारांश यह है कि वे हमें उत्तमतापूर्वक जीवन निर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे। सच्ची मित्रता में उत्तम-से-उत्तम वैद्य की-सी निपुणता और परख होती है, अच्छी-से-अच्छी माता की-सी धैर्य और कोमलता होती है। ऐसी ही मित्रता करने का प्रयत्न प्रत्येक पुरुष को करना चाहिए।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।

(ग) (i) व्यक्ति को अपने मित्र से क्या उम्मीद करनी चाहिए? अथवा हमें अपने मित्रों से कौन-सी आशा रखनी चाहिए?

 (ii) एक सच्चा मित्र किसे कहा गया है?

(घ) लेखक ने सच्ची मित्र की तुलना किससे की है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या

आचार्य शुक्ल जी कहते हैं कि विश्वासपात्र मित्र दवा के समान होता है। जिस प्रकार अच्छी दवा लेने से व्यक्ति का रोग दूर हो जाता है, उसी प्रकार विश्वासपात्र मित्र हमारे जीवन में आकर हमारे बुरे संस्कार व दुर्गुणरूपी रोगों से हमें मुक्ति दिलवाता है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे हमें दोषों, अवगुणों व बुराइयों से बचाएँ और हमारे विचारों व संकल्पों को मजबूत बनाने में हमारी सहायता करें। हमारे हृदय में अच्छे विचारों को उत्पन्न करें तथा हमें हर प्रकार की बुराइयों से बचाते रहें। हमारे मन में सत्य, मर्यादा व पवित्रता के प्रति प्रेम विकसित करें। यदि हम किसी कारणवश या लोभवश किसी गलत मार्ग पर चल पड़े हैं, तब वे हमारा मार्गदर्शन करके हमें गलत मार्ग पर चलने से बचाएँ। यदि हम निराश व हताश हो जाएँ तो वह हमें सही मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहित करें। तात्पर्य यह है कि वे हमें हर प्रकार से उत्तम जीवन जीने के लिए प्रेरित करें।

लेखक सच्चे मित्र के गुण बताते हुआ कहता है कि सच्चा मित्र एक कुशल वैद्य के समान होता है। जिस प्रकार एक उत्तम वैद्य रोगी की नब्ज़ देखकर ही उसके रोग का पता लगा लेता है, उसी प्रकार एक सच्चा मित्र भी मित्र के हाव-भाव व उसके लक्षणों को देखकर उसके गुण-दोषों की परख कर लेता है तथा उसका सही मार्गदर्शन करके उसको भटकने से बचा लेता है। जिस प्रकार एक अच्छी माता पुत्र के सभी कष्टों को धैर्य से स्वयं सहन करके अपने पुत्र को सभी मुसीबतों से बचाती है तथा कोमलता से उसे समझा-बुझाकर सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है, ठीक उसी प्रकार के मित्र की खोज मनुष्य को करनी चाहिए, जिसमें एक अच्छे वैद्य की परख तथा अच्छी माँ जैसा धैर्य व कोमलता हो। तभी मानव का जीवन दिनों-दिन उन्नति को प्राप्त करेगा।

(ग) (i) व्यक्ति को अपने मित्रों से यह उम्मीद करनी चाहिए कि वे उसे संकल्पवान बनाएँगे, अच्छे कार्य करने के लिए प्रेरित करेंगे, मन में अच्छे विचार उत्पन्न करेंगे, बुराइयों और गलतियों से बचाकर मानवीय गुण प्रगाढ़ करने तथा अच्छे मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करेंगे। वे हमें उत्साहित भी करेंगे।

(ii) एक सच्चा मित्र उसे कहा गया है, जो उत्तम वैद्य के समान हमारे दुर्गुणों को पहचान कर हमें उनसे मुक्ति दिलाए। उसमें अच्छी माता जैसा धैर्य हो तथा जो किसी भी स्थिति में कोमलता न छोड़े।

(घ) 'मित्रता' पाठ के आधार पर विश्वासपात्र मित्र की तुलना औषधि अर्थात् दवा से की गई है। जिस प्रकार अच्छी औषधि रोगी का रोग दूर करती है, ठीक उसी प्रकार विश्वासपात्र मित्र हमारे बुरे संस्कारों व दुर्गुणरूपी रोगों से हमें मुक्ति दिलाता है।

3.सुन्दर प्रतिमा, मनभावनी चाल और स्वच्छन्द प्रकृति ये ही दो-चार बातें देखकर मित्रता की जाती है, पर जीवन-संग्राम में साथ देने वाले मित्रों में इनसे कुछ अधिक बातें होनी चाहिए। मित्र केवल उसे नहीं कहते, जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करें, पर जिससे हम स्नेह न कर सकें, जिससे अपने छोटे-मोटे काम तो हम निकालते जाएँ, पर भीतर-ही-भीतर घृणा करते रहें? मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान होना चाहिए, जिस पर हम पूरा विश्वास कर सकें, भाई के समान होना चाहिए, जिसे हम अपना प्रीति-पात्र बना सकें; हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए—ऐसी सहानुभूति, जिससे एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना हानि-लाभ समझे। मित्रता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दो मित्र एक ही प्रकार के कार्य करते हों या एक ही रुचि के हों। इसी प्रकार प्रकृति और आचरण की समानता भी आवश्यक या वांछनीय नहीं है। दो भिन्न प्रकृति के मनुष्यों में बराबर प्रीति और मित्रता रही है। 

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

 (ग) लेखक ने अच्छे मित्र की क्या विशेषताएँ बताई हैं? 

(घ) हमारे और हमारे मित्र के बीच कैसी सहानुभूति होनी चाहिए?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या शुक्ल जी के अनुसार, सच्चा मित्र वह नहीं हो सकता, जिसके गुणों व कार्यों की हम प्रशंसा तो करते हैं, लेकिन अपने मन से उसे प्रेम नहीं करते। सच्चे मित्र को हृदय प्रेम करना आवश्यक हो जाता है। यदि कोई ऐसा व्यक्ति है, जिससे हम अपने छोटे-मोटे काम तो निकलवाते रहते हैं, किन्तु हृदय में कहीं उसके लिए घृणा का भाव समाया हो, तो उसे हम अपना मित्र नहीं कह सकते उसे तो हमने केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए मित्र बनाया था। वह हमारा सच्चा शुभ चिन्तक नहीं हो सकता। शुक्ल जी कहते हैं कि मित्र के प्रति हमारे हृदय में सच्चा व निष्कपट प्रेम होना चाहिए तथा मित्र भी हमारा सच्चा मार्गदर्शक होना चाहिए, जिस पर हम पूर्ण रूप से विश्वास कर सकें। दोनों मित्रों में परस्पर सहानुभूति हो तथा भाई के समान निःस्वार्थ प्रेम हो। एक-दूसरे की बात को सहन करने की शक्ति हो। मित्रता में दोनों मित्रों में ऐसे गुण होने चाहिए कि वे एक-दूसरे के लाभ-हानि को अपना ही लाभ-हानि समझें और एक-दूसरे के सुख-दुःख को अपना ही सुख-दुःख मानकर उसकी सहायता को सदैव तत्पर रहें। आचार्य शुक्ल जी कहते हैं कि सच्ची मित्रता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दो मित्र एक-सा कार्य करते हों, समान हैं रुचि के हों। इसी प्रकार समान प्रकृति और समान आचरण भी सच्ची मित्रता के लिए आवश्यक नहीं है। भिन्न-भिन्न प्रकृति व आचरण वाले व्यक्ति भी आपस में मित्र हो सकते हैं।

(ग) लेखक ने अच्छे मित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं

 (i) अच्छा मित्र ऐसा होना चाहिए, जो व्यक्ति को सच्चे पथ-प्रदर्शक की भाँति सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करे।

(ii) अच्छा मित्र वह होता है, जिससे हम प्रेम करते हैं। 

(iii) अच्छा मित्र वैद्य के समान हितकारी होता है, जो हमारे दुर्गुणों को पहचानकर हमें उनसे मुक्ति दिलाता है। 

(iv) अच्छे मित्र में अपने मित्र के प्रति सच्ची सहानुभूति होती है।

(v) अच्छा मित्र विश्वसनीय होता है।

(घ) हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए। यह सहानुभूति ऐसी होनी चाहिए कि दोनों मित्र एक-दूसरे के लाभ-हानि को अपना ही लाभ-हानि समझें और एक-दूसरे के सुख-दुःख को अपना ही सुख-दुःख मानकर उसकी सहायता करने के लिए हमेशा तैयार रहें।

5.इसी प्रकार प्रकृति और आचरण की समानता भी आवश्यक या वांछनीय नहीं है। दो भिन्न प्रकृति के मनुष्यों में बराबर प्रीति और मित्रता रही है। राम धीर और शान्त प्रकृति के थे, लक्ष्मण उग्र और उद्धत स्वभाव के थे, पर दोनों भाइयों में अत्यन्त प्रगाढ़ स्नेह था। उदार तथा उच्चाशय कर्ण और लोभी दुर्योधन के स्वभावों में कुछ विशेष समानता न थी, पर उन दोनों की मित्रता खूब निभी। यह कोई बात नहीं कि एक ही स्वभाव और रुचि के लोगों में ही मित्रता हो सकती है। समाज में विभिन्नता देखकर लोग एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं, जो गुण हम में नहीं हैं, हम चाहते हैं कि कोई ऐसा मित्र मिले, जिसमें वे गुण हों। चिन्ताशील मनुष्य प्रफुल्लित चित्त का साथ ढूँढता है, निर्बल बली का, धीर उत्साही का। उच्च आकांक्षा वाला चन्द्रगुप्त युक्ति और उपाय के लिए चाणक्य का मुँह ताकता था। नीति-विशारद अकबर मन बहलाने के लिए बीरबल की ओर देखता था।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।

(ग) लेखक के अनुसार, समाज में विभिन्नता देखकर लोग एक-दूसरे की ओर क्यों आकर्षित होते हैं?

अथवा

 क्या देखकर लोग एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं? सोदाहरण समझाइए।

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या

शुक्ल जी का कहना है कि दो व्यक्तियों में मित्रता के लिए यह बात महत्त्वपूर्ण नहीं होती है कि उनका स्वभाव भी एक-सा हो। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे एक-दूसरे से कितनी सहानुभूति रखते हैं। यदि वे परस्पर सहानुभूति रखते हैं, तो विपरीत स्वभाव वालों में मित्रता कायम रहती है। यह मित्रता लम्बे समय तक चलती भी है और सच्ची सिद्ध भी होती है। श्रीराम-लक्ष्मण व कर्ण-दुर्योधन की मित्रता सच्ची मित्रता के साक्षात् उदाहरण हैं। श्रीराम कितने धीर-गम्भीर स्वभाव के थे और। लक्ष्मण कितने चंचल, उग्र व उद्धत स्वभाव के थे, लेकिन स्वभाव की भिन्नता होने पर भी उनमें घनिष्ठ स्नेह था। इसी प्रकार से कर्ण वीर, साहसी होने के साथ-साथ उच्च विचारों वाले, गम्भीर व दानी स्वभाव के थे, जबकि दुर्योधन स्वार्थी व लोभी था, फिर भी उन दोनों की मित्रता जीवन के अन्तिम क्षणों तक भी अटूट रही।

लेखक कहता है कि यह ज़रूरी नहीं है कि दो व्यक्तियों में मित्रता होने के लिए उनके स्वभाव और रुचियाँ एक-सी ही हों। मित्रता तो विपरीत स्वभाव और रुचियों वाले व्यक्तियों में भी हो सकती है। किसी व्यक्ति में जो गुण नहीं होता है, उसी गुण को दूसरे व्यक्ति में देखकर उससे आकर्षित होकर वह दोस्ती कर लेता है। इससे उस व्यक्ति के गुण की कमी की पूर्ति मित्रता के माध्यम से हो जाती है। व्यक्ति को ऐसे ही परस्पर विपरीत गुणों वाले व्यक्ति की तलाश रहती है। चिन्ताग्रस्त लोग प्रसन्नचित्त व्यक्ति से, कमज़ोर व्यक्ति बलवान से, धैर्यवान व्यक्ति उत्साही व्यक्ति से मित्रता इसलिए करना चाहता है, ताकि उसकी अपनी कमियाँ पूरी हो जाएँ।

(ग) लेखक के अनुसार, समाज में लोग विभिन्नता देखकर एक-दूसरे की ओर इसलिए आकर्षित होते हैं ताकि उनसे वे उन गुणों का लाभ उठा सकें, जिन गुणों की कमी वे अपने अन्दर महसूस करते हैं; जैसे-निर्बल व्यक्ति बलवान से, धैर्यवान व्यक्ति उत्साही व्यक्ति से मित्रता करना चाहता है।

अथवा

लोग विपरीत गुणों को देखकर एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं अर्थात् जो गुण वे अपने अन्दर नहीं पाते हैं, उसकी पूर्ति के लिए वे ऐसे व्यक्ति से दोस्ती करते हैं, जिसमें वे गुण हों। उदाहरणार्थ- चन्द्रगुप्त के पास उच्च आकांक्षा थी, पर उसे पूरा करने के लिए आवश्यक विपरीत गुण वाले अर्थात् युक्ति और उपाय सम्पन्न चाणक्य से उसने मित्रता की।

6.मित्र का कर्त्तव्य इस प्रकार बताया गया है—उच्च और महान् कार्य में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना कि तुम अपनी निज की सामर्थ्य से बाहर काम कर जाओ। यह कर्त्तव्य उसी से पूरा होगा, जो दृढ़-चित्त और सत्य-संकल्प का हो। इससे हमें ऐसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए, जिनमें हम से अधिक आत्मबल हो। हमें उनका पल्ला उसी तरह पकड़ना चाहिए, जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था। मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुद्ध हृदय के हों, मृदुल और पुरुषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिससे हम अपने को उनके भरोसे पर छोड़ सकें और यह विश्वास कर सकें कि उनसे किसी प्रकार का धोखा नहीं होगा।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) मित्र का कर्त्तव्य स्पष्ट कीजिए। अथवा अच्छे मित्र का क्या कर्त्तव्य होना चाहिए? अथवा मित्र का कर्त्तव्य कैसा होना चाहिए?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी कहते हैं कि सहायता करना, उत्साहित करना व मनोबल बढ़ाने का कार्य वही व्यक्ति कर सकता है, स्वयं भी दृढ़ इच्छाशक्ति वाला, परिश्रमी तथा सत्य संकल्पों वाला हो। अतः मित्र बनाते समय हमें ऐसे ही व्यक्ति को ढूँढना चाहिए, जो हम भी अधिक साहसी, परिश्रमी, दृढ़ इच्छाशक्ति वाला व उच्च आत्मबल से वाला हो। यदि सौभाग्य से ऐसा मित्र मिल जाता है, तो फिर हमें उसका साथ नहीं छोड़ना चाहिए; जैसे-वानर-राज सुग्रीव ने श्रीराम की आत्मशक्ति, ओज व बल का विश्वास हो जाने पर ही उनका आश्रय ग्रहण किया और फिर कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। श्रीराम की शक्ति के बल पर ही वह अपनी पत्नी व अपने राज्य को पुनः प्राप्त कर सके। श्रीराम जैसा मित्र पाकर तो सुग्रीव धन्य हो गया था।

मित्र का चयन करते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मित्र ऐसा जिसकी समाज में प्रतिष्ठा व सम्मान हो, जो निश्छल व निष्कपट हृदय का हो, स्वभाव से मृदुल हो, परिश्रमी हो, सभ्य आचरण वाला हो, सत्यनिष्ठ हो अर्थात् सत्य का आचरण करने वाला हो। ऐसे व्यक्ति पर हम यह विश्वास कर सकते हैं कि हमें उससे किसी प्रकार का धोखा नहीं मिलेगा।

 (ग) सच्चे मित्र का कर्त्तव्य है कि वह अपने मित्र को निम्नलिखित गुणों से अवगत कराए शिष्ट आचरण करने की सीख दे।सत्यनिष्ठ बनने की प्रेरणा दे। • आलस्य छोड़ उद्यमी बनने में सहयोग दे।बुरे मार्ग से हटाकर अच्छे मार्ग पर ले जाए।

7.जिनकी आत्मा अपने इन्द्रिय-विषयों में ही लिप्त है: जिनका हृदय नीचाशयों और कुत्सित विचारों से कलुषित है, ऐसे नाशोन्मुख प्राणियों को दिन-प्रतिदिन अन्धकार में पतित होते देख कौन ऐसा होगा, जो तरस न खाएगा?-उसे ऐसे प्राणियों का साथ नहीं करना चाहिए।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) उपरोक्त गद्यांश का साहित्यिक सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए। 

अथवा 

कौन-से लोग फूल-पत्तियों में सौन्दर्य का, झरने में संगीत का, सागर-तरंगों में रहस्यों का आभास नहीं कर पाते हैं?

उत्तर

(क)सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी कहते हैं कि जो लोग केवल विषय-वासनाओं में फँसे हैं तथा इन्द्रिय-सुख को ही सर्वोपरि मानकर उसी की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, जिनका हृदय गन्दे व घृणित विचारों से सदैव युक्त रहता है, ऐसे लोग दिन-प्रतिदिन अपने बुरे विचारों व बुरे आचरण के कारण विनाश की ओर ही अग्रसर होते हैं तथा अवनति व अज्ञान के दल-दल में फँसकर नष्ट हो जाते हैं, जिन्हें देखकर सभी को उन पर दया आती है। ऐसे विनाश व पतन की ओर जाने वाले लोगों के साथ कभी भी मित्रता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वे अपने गन्दे विचारों से दूसरों को केवल मार्ग से भटका ही सकते हैं। ऐसे भ्रष्ट आचरण वाले व्यक्ति का साथ नहीं करना चाहिए।

(ग) गद्यांश का साहित्यिक सौन्दर्य

• भाषा तत्सम शब्दावलीयुक्त, सुबोध व साहित्यिक हिन्दी है।वर्णनात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।

शब्द चयन उपयुक्त तथा भावाभिव्यक्ति में सक्षम है। प्रस्तुत गद्यांश में बुरे विचार रखने वाले पतनोन्मुख लोगों से मित्रता न करने का सन्देश निहित है।

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अथवा

8.जो लोग इन्द्रियों के सुख की कामना करते हुए, उनकी पूर्ति के लिए सतत प्रयासरत रहते हैं, ऐसे लोग भोग-विलास की संलिप्तता के कारण फूल-पत्तियों की सुन्दरता का, झरने के मधुर संगीत का और सागर की लहरों में छिपे रहस्य का आनन्द नहीं उठा पाते हैं। वे प्रकृति के निकट रहकर भी उसके आकर्षण एवं सौन्दर्य से वंचित रह जाते हैं।

8) कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-प्रतिदिन अवनति के गड्ढे में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जाएगी।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

 (ग) (i) युवा पुरुष की संगति के बारे में क्या कहा गया है? 

(ii) अच्छी संगति के लाभों का वर्णन कीजिए। 

(iii) कुसंग का क्या प्रभाव होता है?

अथवा

 कुसंग का प्रभाव व्यक्ति के जीवन पर किस प्रकार पड़ता है?

(घ) गद्यांश का साहित्यिक सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए।

(ङ) कुसंग और अच्छी संगति में क्या अन्तर है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – आचार्य शुक्ल जी कहते हैं कि मानव जीवन पर संगति का प्रभाव सबसे अधिक पड़ता है। बुरे और दुष्ट लोगों की संगति घातक बुखार की तरह हानिकारक होती है। जिस प्रकार भयानक ज्वर व्यक्ति की सम्पूर्ण शक्ति व स्वास्थ्य को नष्ट कर देता है तथा कभी-कभी रोगी के प्राण भी ले लेता है, उसी प्रकार बुरी संगति में पड़े हुए व्यक्ति की बुद्धि, विवेक, सदाचार, नैतिकता व सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं तथा वह उचित-अनुचित व अच्छे-बुरे का विवेक भी खो देता है। मानव जीवन में युवावस्था सबसे महत्त्वपूर्ण अवस्था होती है। कुसंगति किसी भी युवा पुरुष की सारी उन्नति व प्रगति को उसी प्रकार बाधित करती है, जिस प्रकार किसी व्यक्ति के पैर में बंधा हुआ भारी पत्थर उसको आगे नहीं बढ़ने देता, बल्कि उसकी गति को अवरुद्ध करता है। उसी प्रकार कुसंगति भी हमारे विकास व उन्नति के मार्ग को अवरुद्ध करके अवनति व पतन की ओर धकेल देती है तथा दिन-प्रतिदिन विनाश की ओर अग्रसर करती है। दूसरी ओर, यदि युवा व्यक्ति की संगति अच्छी होगी तो वह उसको सहारा देने वाली बाहु (हाथ) के समान होगी, जो अवनति के गर्त में गिरने वाले व्यक्ति की भुजा पकड़कर उठा देती है तथा सहारा देकर खड़ा कर देती है और उन्नति के मार्ग पर अग्रसर कर देती है।

(ग) 

(i) युवा पुरुष यदि बुरी संगति करता है, तो विकास की अपेक्षा उसका विनाश होना तय है। यदि वह अच्छी संगति करेगा, तो उन्नति के पथ पर आगे बढ़ता जाएगा।

(ii) अच्छी संगति के लाभ निम्नलिखित हैं

• व्यक्ति को पतन से बचाती है।

 • मानवीय गुणों का विकास करती है।व्यक्ति को समाज में प्रतिष्ठा दिलाती है। जीवन की रक्षा करने वाली औषधि (दवा) के समान होती है। 

(iii) कुसंग/कुसंगति का व्यक्ति के जीवन पर निम्नलिखित प्रकार से प्रभाव पड़ता है 

• व्यक्ति पतन के गड्ढे में गिर जाता है।

. व्यक्ति का सदाचार नष्ट हो जाता है। वह दुराचार करने लगता है। व्यक्ति की बुद्धि व विवेक का नाश हो जाता है।

(घ) गद्यांश का साहित्यिक सौन्दर्य

• भाषा तत्सम शब्दावलीयुक्त खड़ी बोली है।

भाषा सरल, सुबोध और प्रवाहमयी है।

 प्रस्तुत गद्यांश में व्याख्यात्मक गद्य शैली है।

• शब्द चयन भावानुकूल तथा भावाभिव्यक्ति में सक्षम है। कुसंगति और अच्छी संगति में अन्तर स्पष्ट किया गया है।

(ङ) कुसंग/कुसंगति हमारे विकास व उन्नति के मार्ग को अवरुद्ध करके अवनति व पतन की ओर धकेल देती है तथा दिन-प्रतिदिन विनाश की ओर अग्रसर करती है, जबकि अच्छी संगति सहारा देने वाले हाथ के समान होती है जो अवनति के गर्त में गिरने वाले व्यक्ति की भुजा पकड़कर उठा देती है और सहारा देकर खड़ा कर देती है, साथ ही उन्नति के मार्ग पर अग्रसर कर देती है।

9.बहुत-से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहाँ वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता, जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होती। बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिनके घड़ीभर के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है; क्योंकि उतने ही बीच में ऐसी-ऐसी बातें कही जाती हैं जो कानों में न पड़नी चाहिए,चित्त पर ऐसे प्रभाव पड़ते हैं, जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती हैं। इस बात को प्रायः सभी लोग जानते हैं कि भद्दे व फूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते हैं, उतनी जल्दी कोई गम्भीर या अच्छी बात नहीं।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) 'बहुत से लोग इसे अपना दुर्भाग्य समझते।' यहाँ पर 'इसे' शब्द द्वारा किस प्रसंग की ओर संकेत किया गया है?

(घ) आध्यात्मिक उन्नति के लिए क्या आवश्यक है?

(ङ) बुराई की प्रकृति कैसी होती है?

(च) व्यक्ति पर बुरी बात का प्रभाव जल्दी होता है, इसे उदाहरण के द्वारा स्पष्ट कीजिए।

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – आचार्य शुक्ल जी कहते हैं कि मानव मन पर बुरी बातों का प्रभाव बहुत जल्दी पड़ता है। बुरी संगति सदैव व्यक्ति की उन्नति में बाधक होती है। समाज में अनेक ऐसे लोग होते हैं, जिनका कुछ देर का साथ भी व्यक्ति की बुद्धि को भ्रष्ट कर देता है, क्योंकि अच्छी बातों की अपेक्षा बुरी बातों का प्रभाव बहुत जल्दी पड़ता है और अधिक देर तक रहता है। कुछ लोग थोड़ी ही देर में ऐसी-ऐसी घिनौनी बातें कह डालते हैं, जो सामान्य व्यक्ति के कहने या सुनने योग्य नहीं होतीं। उनकी बातें सामान्य व्यक्ति की बुद्धि को भी भ्रष्ट कर देती हैं और मन की पवित्रता को भी नष्ट कर देती हैं तथा हमारे मन में भी बुरे विचार पनपने लगते हैं। यह मानव मन का स्वभाव है कि बुरी बातों का प्रभाव, अच्छी बातों की अपेक्षा जल्दी होता है।

(ग) 'इसे' शब्द द्वारा उस प्रसंग की ओर संकेत किया गया है, जब इंग्लैण्ड के एक विद्वान् को युवावस्था में राजदरबारियों में स्थान प्राप्त नहीं हुआ तब उसने इस प्रकार का स्थान न मिलना अपना दुर्भाग्य नहीं माना, पर दूसरे लोग इसे दुर्भाग्य मानते थे।

(घ) आध्यात्मिक उन्नति के लिए मन में पवित्र विचारों का होना बहुत आवश्यक है। ये विचार चिरस्थायी होने चाहिए। (ङ) बुराई की प्रकृति बुरी होती है। वह हमारी धारणा में जल्दी बैठती है और लम्बे समय तक हमारा पीछा नहीं छोड़ती है।

(च) बुराई का प्रभाव व्यक्ति पर जल्दी होता है, इसका उदाहरण यह है कि भद्दे और फूहड़ (मूर्खतापूर्ण) गीत जितनी सरलता से हमारे मनोमस्तिष्क में जगह बना लेते हैं, उतनी सरलता से गम्भीर और अच्छी बाते हमारे मस्तिष्क में जगह नहीं बना पाती है।

10 . सावधान रहो, ऐसा न हो कि पहले-पहल तुम इसे एक बहुत सामान्य बात समझो और सोचो कि एक बार ऐसा हुआ, फिर ऐसा न होगा अथवा तुम्हारे चरित्र-बल का ऐसा प्रभाव पड़ेगा कि ऐसी बातें बढ़ने वाले आगे चलकर आप सुधर जाएँगे। नहीं, ऐसा नहीं होगा। जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है, तब फिर यह नहीं देखता है कि वह कहाँ और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभ्यस्त होते-होते तुम्हारी घृणा कम हो जाएगी। पीछे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी; क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़ने की बात ही क्या है! तुम्हारा विवेक कुण्ठित हो जाएगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान नहीं रह जाएगी।अन्त में होते-होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे। अतः हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगत की छूत से बचो।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) विवेक कुण्ठित हो जाने से मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ता है? अथवा बुरी बातों का मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ता है?

(घ) लेखक ने हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का क्या उपाय सुझाया है? 

अथवा 

हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय क्या है?

(ङ) लेखक ने उपरोक्त गद्यांश में क्या सन्देश दिया है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'मित्रता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या शुक्ल जी कहते हैं कि जब मनुष्य बुराई के मार्ग पर चलने लगता है, तो उसे बुरे कार्यों में भी कोई बुराई नज़र नहीं आती, क्योंकि मनुष्य एक बार बुराई के मार्ग पर कदम बढ़ा देता है, तो आगे बढ़ता ही जाता है, परन्तु ऐसा नहीं करना चाहिए धीरे-धीरे जब तुम उनकी बातों के आदी हो जाओगे और तुम्हें वह बातें गलत व बुरी नहीं लगेंगी। फिर तुम उससे चिढ़ना भी बन्द कर दोगे। ऐसा करने से तुम्हारी सोचने-समझने की शक्ति धीरे-धीरे कम होती जाएगी, बुद्धि मन्द हो जाएगी और तुम्हें अच्छे-बुरे व नैतिक-अनैतिक कार्यों की समझ न रहेगी। अन्त में धीरे-धीरे तुम भी बुराइयों के दास बन जाओगे।

अतः अपने आपको इन बुराइयों से बचाने का सबसे सरल उपाय यह है कि बुरी संगति का हर प्रकार से त्याग कर दो, तभी तुम्हारा जीवन उज्ज्वल और कलंकरहित हो पाएगा। अतः हमें अपने हृदय को सहज एवं निर्मल तथा निष्कलंक रखने के लिए बुरी संगत से दूर रहना चाहिए। 

(ग) विवेक कुण्ठित हो जाने से मनुष्य पर निम्न प्रभाव पड़ते हैं

● व्यक्ति का विवेक नष्ट होता जाता है और वह बुराइयों के जाल में फँसता चला जाता है।

धीरे-धीरे वह बुराइयों के प्रति आकर्षित होने लगता व्यक्ति को बुराइयों में ही अच्छाइयाँ दिखती हैं। वह बुराइयों को बुरा नहीं मानता। बुरी बातें व्यक्ति को अपने जाल में इस प्रकार फँसाती हैं कि व्यक्ति चाहकर भी उन्हें छोड़ नहीं पाता है। बुरी बातों का व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

(घ) लेखक हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यह बताया है कि मनुष्य को सदैव बुरी संगत से दूर रहना चाहिए। बुरी संगत छूत का एक रोग है और इस रोग से सदैव बचने का प्रयास करना चाहिए।

(ङ) लेखक ने उपरोक्त गद्यांश में मनुष्य को कुसंगति से बचने का सन्देश दिया है। कुसंगति एक ऐसा रोग है, जो मनुष्य के जीवन को पूर्णतः नष्ट कर देता है, इसलिए हमें सदैव इस कुसंगति से बचना चाहिए।

subhansh

अध्याय 02 ममता

लेखक 'जयशंकर प्रसाद

Class 10th Hindi chapter 2 ममता यशंकर प्रसाद 

गद्यांशों के रेखांकित अंशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या एवं प्रश्नोत्तर

उस दिन कक्षा में पढ़ाया जाने वाला रेलगाड़ी नामक पाठ पृष्ठ पर था - us din kaksha mein padhaaya jaane vaala relagaadee naamak paath prshth par tha

  1. रोहतास दुर्ग के प्रकोष्ठ में बैठी हुई युवती ममता, सोन नदी के तीक्ष्ण गम्भीर प्रवाह को देख रही है। ममता विधवा थी। उसका यौवन सोन नदी के समान ही उमड़ रहा था। मन में वेदना, मस्तक में आँधी, आँखों में पानी की बरसात लिए, वह सुख के कंटक-शयन में विकल थी। वह रोहतास-दुर्गपति के मन्त्री चूड़ामणि की अकेली दुहिता थी, फिर उसके लिए कुछ अभाव होना असम्भव था, परन्तु वह विधवा थी-हिन्दू-विधवा संसार में सबसे तुच्छ निराश्रय प्राणी है-तब उसकी विडम्बना का कहाँ अन्त था?

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) उपरोक्त गद्यांश में हिन्दू-विधवा की स्थिति कैसी बताई गई है?

(घ) ममता कौन थी? वह क्या देख रही थी?

(ङ) ममता का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

उत्तर

(क) सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'ममता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'जयशंकर प्रसाद' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या जयशंकर प्रसाद जी कहते हैं कि रोहतास दुर्ग (राजप्रासाद) के मुख्य द्वार के पास अपने कक्ष में बैठी हुई ममता सोन नदी के तेज बहाव को देख रही है। लेखक ममता के यौवन और सोन नदी के प्रबल वेग से प्रवाहित होने की तुलना करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार सोन नदी अपने तेज बहाव से उफनती हुई बह रही है, उसी प्रकार ममता का यौवन भी पूर्ण रूप से अपने उफान पर है। ममता रोहतास दुर्गपति के मन्त्री की इकलौती पुत्री है, जोकि बाल-विधवा है। रोहतास दुर्गपति के मन्त्री की पुत्री होने के कारण ममता सभी प्रकार के भौतिक सुख-साधनों से सम्पन्न है, परन्तु वह विधवा जीवन के कटु सत्य को अभिशाप रूप में झेलने के लिए विवश है। उसके मन मस्तिष्क में दुःख रूपी आँधी तथा आँखों से आँसू बह रहे हैं। उसका मन भिन्न-भिन्न प्रकार के विचारों और भावों की आँधी से भरा हुआ है। उसकी स्थिति काँटों की शय्या पर सोने वाले व्याकुल व्यक्ति के समान है अर्थात् जिस प्रकार काँटों की शय्या पर सोने वाला व्यक्ति हर समय व्याकुल रहता है, उसी प्रकार सभी प्रकार के भौतिक सुख-साधनों से परिपूर्ण होते हुए भी ममता का जीवन दुःखदायी प्रतीत होता है। बाल्यावस्था में ही विधवा हो जाने के कारण ही ममता की स्थिति दयनीय हो गई थी। हिन्दू समाज में विधवा स्त्रियों को संसार का सबसे तुच्छ प्राणी माना जाता है। प्रत्येक विधवा स्त्री को विभिन्न प्रकार के कष्ट सहने पड़ते हैं तथा समाज में अनेक प्रतिबन्धों का सामना करना पड़ता है। विधवा का जीवन स्वयं विधवा के लिए भार-सा बन जाता है। ममता भी एक ऐसी ही स्त्री थी, जो सभी प्रकार के भौतिक साधन होते हुए भी असहाय और दयनीय स्थिति का सामना कर रही थी। वह अपने बाल-विधवा जीवन के भार को ढो रही थी, जिससे छुटकारा पाने का हिन्दू समाज में कोई विकल्प ही नहीं है।

(ग) उपरोक्त गद्यांश में हिन्दू-विधवा की स्थिति को दयनीय, शोचनीय, तुच्छ और उस प्राणी के समान बताया गया है, जिसे कोई आश्रय नहीं देना चाहता है। वह तरह-तरह के दुःख सहने के लिए विवश होती है।

(घ) ममता रोहतास-दुर्ग के सेनापति चूड़ामणि की इकलौती पुत्री थी, जो बचपन में विधवा हो गई थी। वह अपने कमरे में बैठकर सोन नदी के उफनते बहाव को देख रही थी।

(ङ) ममता रोहतास दुर्ग के सेनापति चूड़ामणि की इकलौती पुत्री थी, जो बचपन में विधवा होकर हिन्दू समाज द्वारा बनाए गए नियमों में बँधकर अपना जीवन व्यतीत कर जी रही थी। उसके जीवन में दुःख की सीमा न थी। भौतिक सुखों का ढेर लगा होने पर भी ममता सुखी न थी।

  1. हे भगवान! तब के लिए! विपद के लिए! इतना आयोजन! परमपिता की इच्छा के विरुद्ध इतना साहस! पिताजी, क्या भीख न मिलेगी? क्या कोई हिन्दू भू-पृष्ठ पर न बचा रह जाएगा, जो ब्राह्मण को दो मुट्ठी अन्न दे सके? यह असम्भव है। फेर दीजिए पिताजी, मैं कॉप रही हूँ-इसकी चमक आँखों को अन्धा बना रही है।

उत्तर

(क) सन्दर्भप्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'ममता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'जयशंकर प्रसाद' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या जयशंकर प्रसाद जी कहते हैं कि चाँदी के दस थालों में लाए गए ढेर सारे सोने को देखकर ममता चकित होकर अपने पिता से कहती है कि हे भगवान! उस समय के लिए जब आपका मन्त्रित्व न रहेगा, उन विपदा भरे दिनों के लिए इतना सारा आयोजन अभी से ही, यह अच्छा नहीं है। रिश्वत में लिया गया इतना सारा सोना लेकर आपने ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध कार्य और उसका अपमान किया है। यदि ईश्वर की इच्छा से हमें दुःख मिलने वाला है, तो हमें उसे सहने के लिए सहर्ष तैयार रहना चाहिए। पिताजी! मन्त्रित्व न रहने पर भी हमें पेट भरने के लिए कम-से-कम भीख तो मिल ही जाएगी। इस रिश्वत की अपेक्षा तो भीख माँगकर जीवित रहना अधिक उचित है। इस पृथ्वी पर उस समय भी बहुत से हिन्दू ऐसे होंगे, जो हम ब्राह्मणों को दो मुट्ठी अनाज भीख में दे देंगे।

() ममता बाल-विधवा थी, जो ब्राह्मण जाति से सम्बन्ध रखती थी। ईश्वर और भाग्य में उसकी प्रबल आस्था थी। वह सुख-दुःख दोनों को ही ईश्वर को इच्छा मानती थी। आने वाले कुसमय के लिए रिश्वत के रूप में धन एकत्र करने को वह ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध मानती थी। इस प्रकार गद्यांश में ममता की भाग्यवादी, करुणामयी, निर्लोभी तथा ईश्वरवादी मनोवृत्ति को स्पष्ट किया गया है।

  1. काशी के उत्तर में धर्मचक्र विहार मौर्य और गुप्त सम्राटों की कीर्ति का खण्डहर था। भग्न चूड़ा, तृण गुल्मों से ढके हुए प्राचीन, ईंटों के ढेर में बिखरी हुई भारतीय शिल्प की विभूति, ग्रीष्म की चन्द्रिका में अपने को शीतल कर रही थी। जहाँ पंचवर्गीय भिक्षु गौतम का उपदेश ग्रहण करने के लिए पहले मिले थे, उसी स्तूप के भग्नावशेष की मलिन में एक झोंपड़ी के दीपालोक में एक स्त्री पाठ कर रही थी

“अनन्याश्चिन्तयन्तो मा ये जनाः पर्युपासते-"

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) धर्मचक्र कहाँ स्थित था?

(घ) पंचवर्गीय भिक्षु कौन थे? ये गौतम से क्यों और कहाँ मिले थे?

उत्तर

(क)सन्दर्भप्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'ममता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'जयशंकर प्रसाद' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्याप्रसाद जी कहते हैं कि काशी के उत्तर में अनेक बौद्ध स्मारक हैं। इन स्मारकों को मौर्य वंश एवं गुप्त वंश की शान बढ़ाने के लिए बनवाया गया था। ये स्मारक अब टूट-फूट चुके हैं। इनकी टूटी-फूटी चोटियाँ, दीवारें, कंगूरे खण्डहर बन गए हैं। इन पर झाड़ियाँ उग आई हैं, पत्ते बिखरे हैं। इन खण्डहरों को देखकर ऐसा लगता है मानो ईंट के ढेर में बिखरी हुई भारतीय शिल्पकला की आत्मा ग्रीष्म ऋतु की चाँदनी से स्वयं को शीतलता प्रदान कर रही थी।

(ग)धर्मचक्र काशी नगर के उत्तर में स्थित है, जिसे भगवान गौतम बुद्ध ने सारनाथ नामक स्थान पर स्थापित किया था।

()पंचवर्गीय भिक्षु गौतम बुद्ध के प्रथम पाँच शिष्य थे, ये पाँचों शिष्य गौतम बुद्ध से उपदेश ग्रहण करने के लिए काशी के उत्तर में स्थित उन खण्डहरों में मिले थे, जो सारनाथ नामक स्थान पर स्थित है।

  1. "मैं ब्राह्मणी हूँ, मुझे तो अपने धर्म-अतिथि देव की उपासना का पालन करना चाहिए, परन्तु यहाँ ……. नहीं – नहीं, सब विधर्मी दया के पात्र  नहीं।परन्तु यह दया तो नहीं …...कर्त्तव्य करना है। तब?

  मुगल अपनी तलवार टेककर उठ खड़ा हुआ। ममता ने कहा-"क्या आश्चर्य है कि तुम छल करोः ठहरो।" "छल! नहीं, तब नहीं, स्त्री! जाता हूँ, तैमूर का वंशधर स्त्री से छल करेगा? जाता हूँ। भाग्य का खेल है।"

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) ममता के मन में क्या अन्तर्द्वन्द्व चल रहा था?

 (घ) ममता मन-ही-मन क्या विचारती है?

(ङ) 'क्या आश्चर्य है कि तुम छल करो।' यह कथन किसने, किससे कहा और क्यों?

(च) 'छल! नहीं, तब नहीं स्त्री! जाता हूँ।' यह कथन किसके द्वारा किसे और क्यों कहा गया?

उत्तर

(क) सन्दर्भप्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'ममता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'जयशंकर प्रसाद' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्यालेखक कहता है कि जब हुमायूँ ममता की झोंपड़ी में शरण लेता है, तब ममता के मन में अन्तर्द्वन्द्व चलता है कि वह हुमायूँ की मदद करे अथवा नहीं। ममता मन-ही-मन विचार करती है कि मैं तो ब्राह्मणी हूँ और सच्चा ब्राह्मण कभी अपने धर्म से विमुख नहीं होता, इसलिए मुझे तो अपने अतिथि-धर्म का पालन करना ही चाहिए और उसकी सेवा करनी चाहिए, परन्तु दूसरी ओर उसके मन में विचार आया कि यह तो अत्याचारी, पापी है।

इन मुगलवंशियों ने तो मेरे पिताजी की हत्या की थी। यदि कोई और पापी होता तो उसके प्रति दया दिखाकर उसे सहारा दिया जा सकता था, परन्तु पिता की हत्या करने वाले को कभी नहीं। एक बार पुनः उसके मन में विचलन होना आरम्भ हो जाता है और वह कहती है-मैं इसके ऊपर दया-भाव तो नहीं दिखा रही हूँ, परन्तु अपना कर्त्तव्य निर्वाह कर रही हूँ।

(ग)ममता के मन में अन्तर्द्वन्द्व चल रहा था कि हुमायूँ की मदद करे अथवा नहीं। 

() ममता मन-ही-मन यह विचारती है कि मैं तो ब्राह्मणी हूँ और सच्चा ब्राह्मण कभी अपने धर्म से विमुख नहीं होता।

(ङ)क्या आश्चर्य है कि तुम भी छल करो।" यह कथन ममता ने हुमायूँ से कहा, क्योंकि ममता के पिता की हत्या भी मुगलों ने छल से ही की थी।

(च) "छल! नहीं, तब नहीं स्त्री! जाता हूँ।" यह कथन हुमायूँ द्वारा ममता से कहा गया, हुमायूँ ने कहा तैमूरवंशी कुछ भी कर सकते हैं, परन्तु किसी स्त्री के साथ छल कभी नहीं कर सकते।

5 अश्वारोही पास आया। ममता ने रुक-रुककर कहा-"मैं नहीं जानती कि वह शहंशाह था या साधारण मुगल; पर एक दिन इसी झोंपड़ी के नीचे वह रहा। मैंने सुना था कि वह मेरा घर बनवाने की आज्ञा दे चुका था। मैं आजीवन अपनी झोंपड़ी खो जाने के डर से भयभीत रही। भगवान ने सुन लिया, मैं आज इसे छोड़े जाती हूँ। अब तुम इसका मकान बनाओ या महल मैं अपने चिर-विश्राम गृह में जाती हूँ।”

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) वह आजीवन क्यों भयभीत रही?

(घ) (i) 'शहंशाह' शब्द किसके लिए प्रयुक्त हुआ है?

 (ii) 'चिर-विश्राम-गृह' से क्या आशय है?

उत्तर

(क)  सन्दर्भप्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित 'ममता' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'जयशंकर प्रसाद' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या प्रसाद जी कहते हैं कि मरणासन्न पड़ी ममता ने अश्वारोही सैनिक को अपने पास बुलाया और कहा कि किसी समय इस झोपड़ी में रात बिताने वाले व्यक्ति ने एक सैनिक को यहाँ घर बनवाने के लिए कहा था। मैं इस झोंपड़ी को खोने के भय से पूरी ज़िन्दगी डरती रही, क्योंकि इस झोंपड़ी के साथ उसके जीवन की बहुत-सी यादें जुड़ी हुई थीं। मैं जब तक ज़िन्दा रही, तब तक ईश्वर ने इसे बचाए रखने की मेरी प्रार्थना सुन ली। अब मैं यह दुनिया छोड़कर जा रही हूँ। अब तुम चाहे मकान बनवाओ या महल। मैं तो मृत्यु की गोद में चिर-विश्राम करने जा रही हूँ, जहाँ मुझे अनन्त काल तक विश्राम मिलेगा।

(ग) ममता आजीवन इसलिए भयभीत रही, क्योंकि पता नहीं कब उसकी झोपड़ी को गिराकर महल बनाने का आदेश दे दिया जाए और उसके सामने रहने

की समस्या आ जाए। वह जीवनभर अपनी झोंपड़ी छोड़ना नहीं चाहती थी।

(घ) (i) 'शहंशाह' शब्द अकबर के पिता हुमायूँ के लिए प्रयुक्त हुआ है, जिसने ममता की झोपड़ी में शरण ली थी और शेरशाह से अपनी जान बचाई थी।

व्यक्ति उत्सकुता और आश्चर्य से अपने आप से बेखबर हो गया था। अर्थात् वे अपनी सुध-बुध खो बैठे थे।

(ग)संसार के समस्त व्यक्ति अर्थात् वह (ii) "चिर-विश्राम-गृह' से आशय मौत की गोद से है, जहाँ जाकर आदमी सांसारिक भाग-दौड़ से मुक्ति पा जाता है और सदा के लिए विश्राम करता है। Subhansh classes 'गद्य खण्ड' अध्याय 01 पानी में चन्दा और चाँद पर आदमी' नामक लेखक 'जयप्रकाश भारती दुनिया के सभी भागों में स्त्री-पुरुष और बच्चे रेडियो से कान सटाए बैठे थे, जिनके पास टेलीविजन थे, वे उसके पर्दे पर आँखें गड़ाए थे। मानवता के सम्पूर्ण इतिहास की सर्वाधिक रोमांचक घटना के एक क्षण के वे भागीदार बन रहे थे-उत्सुकता और कुतूहल के कारण अपने अस्तित्व से बिल्कुल बेखबर हो गए थे। प्रश्न (क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए। (ख) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए। (ग) रोमांचक घटना के भागीदार कौन बन रहे थे? उत्तर (क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पानी में चन्दा और चाँद पर आदमी' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'जयप्रकाश भारती हैं। (ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक कहता है कि मानव का चन्द्रमा पर उतरना मनुष्य के अब तक के इतिहास की सबसे अधिक रोमांचक घटना थी। दुनिया के सभी स्थानों के स्त्री-पुरुष और बच्चे इस महत्त्वपूर्ण घटना के इस अद्भुत क्षण का हिस्सा बन रहे थे। यह सब सुनकर प्रत्येक प्रत्येक स्त्री-पुरुष और बालक जो रेडियो पर मानव के चाँद पर उतरने की खबर सुन रहे थे, इस रोमांचक घटना के भागीदार बन रहे थे।

  1. मानव को चन्द्रमा पर उतारने का यह सर्वप्रथम प्रयास होते हुए भी असाधारण रूप से सफल रहा यद्यपि हर क्षण, हर पग पर खतरे थे। चन्द्रतल पर मानव के पाँव के निशान, उसके द्वारा वैज्ञानिक तथा तकनीकी क्षेत्र में की गई असाधारण प्रगति के प्रतीक हैं, जिस क्षण डगमग-डगमग करते मानव के पग उस धूलि-धूसरित अनछुई सतह पर पड़े तो मानो वह हजारों-लाखों वर्षों से पालित-पोषित सैकड़ों अन्धविश्वासों तथा कपोल-कल्पनाओं पर पद-प्रहार ही हुआ। कवियों की कल्पना के सलोने चाँद को वैज्ञानिकों ने बदसूरत और जीवनहीन करार दे दिया-भला अब चन्द्रमुखी कहलाना किसे रुचिकर लगेगा।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए। 

(ग) चन्द्रतल पर मानव के पाँव के निशान किस बात के प्रतीक थे?

(घ) चन्द्रतल पर मानव के पग पड़ने से उसके अन्धविश्वासों तथा कल्पनाओं पर पद-प्रहार कैसे हुआ?

अथवा

 मानव के चन्द्रमा पर उतरने का क्या भाव प्रतिध्वनित हुआ?

उत्तर

(क) सन्दर्भ –  प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पानी में चन्दा और चाँद पर आदमी' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'जयप्रकाश भारती हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या –लेखक कहता है कि जिस समय अमेरिकी चन्द्रयान चन्द्रमा की सतह पर पहुंचा और मानव ने अपने लड़खड़ाते हुए कदम सफलतापूर्वक चन्द्रमा की सतह पर रखे, उस समय ही चन्द्रमा के सम्बन्ध में प्राचीनकाल से आज तक चली आ रही कोरी कल्पनाएँ तथा अन्धविश्वास व निरर्थक अनुमान असत्य सिद्ध हो गए। मनुष्य द्वारा चन्द्रमा 

पर पहुँचने के कारण उसके विषय में यथार्थ सत्य के रूप में सबके सम्मुख आ गया। प्राचीन कवियों ने चन्द्रमा को सुन्दर कहते हुए नारियों के मुख की तुलना उससे की थी, परन्तु चन्द्रमा की सतह पर पहुंचकर वैज्ञानिकों ने कवियों की इन भ्रान्तियों व सन्देह को असत्य सिद्ध कर दिया। वैज्ञानिकों ने चन्द्रमा के विषय में बताया कि वह बहुत कुरूप, ऊबड़ खाबड़ और जीवन रहित है। आज यदि कोई व्यक्ति किसी सुन्दर मुख वाली स्त्री की तुलना चन्द्रमा से करेगा तो अब वह अपने को चन्द्रमुखी कहलाना कैसे पसन्द करेगी? अर्थात् चन्द्रमा तो कुरूप है और कोई सुन्दरी स्वयं की तुलना उस कुरूप चन्द्रमा से नहीं करवाना चाहेगी।

(ग) चन्द्रतल पर मनुष्य के जो पैरों के निशान पड़े हैं, वे मनुष्य की वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के अतिरिक्त उसके अदम्य साहस, अलौकिक इच्छा और अलौकिक वैज्ञानिक प्रगति के प्रतीक थे।

(घ)मनुष्य, चन्द्रमा के सौन्दर्य से आदिकाल से आकर्षित होता रहा है। उसने चन्द्रमा के विषय में अनेक कल्पनाएँ और अन्धविश्वास पाल रखे थे परन्तु चन्द्रतल पर मानव के कदम पड़ने के पश्चात् इन कल्पनाओं और अन्धविश्वासों पर प्रहार हुआ, क्योंकि उसने चाँद को ऊबड़-खाबड़ सतह वाला और जीवन के अयोग्य पाया। इस प्रकार उसके अन्धविश्वास और कल्पनाओं पर प्रहार हुआ।

  1. हमारे देश में ही नहीं संसार की प्रत्येक जाति ने अपनी भाषा में चन्द्रमा के बारे में कहानियाँ गढ़ी हैं और कवियों ने कविताएँ रची हैं। किसी ने उसे रजनीपति माना तो किसी ने उसे रात्रि की देवी कहकर पुकारा। किसी विरहिणी ने उसे अपना दूत बनाया तो किसी ने उसके पीलेपन से क्षुब्ध होकर उसे बूढ़ा और बीमार ही समझ लिया। बालक श्रीराम चन्द्रमा को खिलौना समझकर उसके लिए मचलते हैं तो सूर के श्रीकृष्ण भी उसके लिए हठ करते हैं। बालक को शान्त करने के लिए एक ही उपाय था-चन्द्रमा की छवि को पानी में दिखा देना।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

 (ग) राम और कृष्ण चन्द्र के लिए क्यों हठ करते थे? उनके हठ को कैसे शान्त किया जाता था?

अथवा

 बालक को शान्त करने के लिए क्या उपाय था?

(घ) उपरोक्त गद्यांश का साहित्यिक सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए।

उत्तर

(क) सन्दर्भ –  प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पानी में चन्दा और चाँद पर आदमी' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'जयप्रकाश भारती हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या –लेखक कहता है कि किसी कवि ने चन्द्रमा को रात्रि के अधिपति की उपमा दी है, तो किसी ने इसका निशा देवी के रूप में वर्णन किया है। प्रेमी के वियोग में दुःखी प्रेमिका ने भी चन्द्रमा को में दूत बनाकर स्वयं के सन्देशों को प्रियतम तक पहुँचाने का असफल प्रयत्न किया है, तो कभी उसका पीलापन देखकर उसे बूढ़ा, बीमार और दुर्बल समझ लिया गया है। बाल्यकाल में श्रीराम और श्रीकृष्ण जैसे श्रेष्ठ पुरुष भी इस चन्द्रमा की ओर आकर्षित हुए तो उन्होंने इसे खिलौने के रूप में लेने की हठ कर ली। बालक की जिद के समक्ष बेबस माँ कौशल्या और यशोदा क्या करती? उनके सम्मुख बालक राम और कृष्ण के हठ को शान्त करने का एक ही उपाय था, चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब (परछाई) को पानी में दिखा दिया जाए। उस समय उन्हें इस बात का बोध नहीं था कि एक दिन वास्तव में चन्द्रमा के पास पहुंचना सम्भव हो सकेगा किन्तु आज मानव में इतनी प्रगति कर ली है कि इस असम्भव कार्य को सम्भव करके दिखा दिया है। मानव विकास की इस कहानी को महादेवी वर्मा ने इस प्रकार स्पष्ट किया है कि प्राचीन समय में चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को पानी में दिखाकर उसे पृथ्वी पर उतारा जाता था, किन्तु आधुनिक समय में स्वयं मानव चन्द्रमा पर उतर गया है अर्थात् कहने का तात्पर्य यह है कि पहले चन्द्रमा को प्राप्त करने की कल्पनाएँ की जाती थीं, किन्तु आज मनुष्य उस तक पहुँचने में सफल हो गया है।

(ग) कवि तुलसीदास के श्रीराम और सूरदास के श्रीकृष्ण चन्द्रमा को खिलौना समझकर उसे पाने की बार-बार ज़िद करते रहे हैं। उनकी ज़िद को पूरा करने के लिए थाली में पानी रखकर उसमें चाँद का प्रतिबिम्ब दिखाकर उन्हें शान्त किया जाता था।

(घ) साहित्यिक सौन्दर्य

भाषा सरल, सहज, बोधगम्य (प्रवाहमयी) साहित्यिक हिन्दी। गद्य शैली भावात्मक वाक्य-विन्यास सुगठित

शब्द चयन विषय-वस्तु के अनुरूप तथा भावाभिव्यक्ति में समर्थ । विचार-विश्लेषण चाँद के आकर्षण से आकर्षित होकर उसके विषय में कहानियाँ गढ़ लेने तथा लम्बी यात्रा के पश्चात् चाँद पर पहुंचने का सुन्दर वर्णन किया गया है।

  1. मानव मन सदा से ही अज्ञात के रहस्यों को खोलने और जानने-समझने को उत्सुक रहा है। जहाँ तक वह नहीं पहुँच सकता था, वहाँ वह कल्पना के पंखों पर पहुँचा। उसकी अनगढ़ और अविश्वसनीय कथाएँ उसे सत्य के निकट पहुँचाने में प्रेरणाशक्ति का काम करती रहीं। अन्तरिक्ष युग का सूत्रपात 4 अक्टूबर, 1947 को हुआ था, जब सोवियत रूस ने अपना पहला स्पूतनिक छोड़ा। प्रथम अन्तरिक्ष यात्री बनने का गौरव यूरी गागरिन को प्राप्त हुआ। अन्तरिक्ष युग के आरम्भ के ठीक 11 वर्ष 9 मास 17 दिन पश्चात् चन्द्र तल पर मानव उतर गया।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए। 

(ग) अन्तरिक्ष युग का सूत्रपात कब हुआ?

अथवा अन्तरिक्ष युग का आरम्भ कब हुआ? प्रथम अन्तरिक्ष यात्री बनने का श्रेय किस व्यक्ति को है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ –  प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पानी में चन्दा और चाँद पर आदमी' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'जयप्रकाश भारती हैं।

 (ख) रेखांकित अंश की व्याख्या –  लेखक कहता है कि मानव अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण सदैव नई वस्तुओं व नए विषयों को जानने के लिए जिज्ञासु रहा है। इसी प्रवृत्ति के कारण वह सदैव अज्ञात रहस्यों को सुलझाने में सफलता प्राप्त करता रहा है। अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार वह अनजाने (अज्ञात) रहस्यों पर पड़े पर्दे को हटाने के लिए निरन्तर प्रयास करता रहा है और जो उसकी सामर्थ्य से बाहर है वहाँ वह कल्पना द्वारा उसे जानने की चेष्टा करता है।मानव ने अपनी कल्पना शक्ति के द्वारा अनेक काल्पनिक कहानियाँ गढ़ी हैं, यद्यपि यह कल्पित कथाएँ सत्य से परे निराधार मालूम पड़ती है, किन्तु इन्हीं कल्पनाओं के सहारे वह सत्य के निकट पहुँचने का प्रयास करता रहा है और अनजाने रहस्यों पर पड़े पर्दे को हटाने में सफलता प्राप्त कर रहा है। मानव की जिज्ञासु प्रवृत्ति ही उसे सदैव सत्य की खोज के लिए प्रेरित करती रहेगी। अन्तरिक्ष युग का सूत्रपात सोवियत रूस के द्वारा पहले स्पतनिक को छोड़े जाने की तिथि अक्टूबर, 1917 थी। अतः यूरी गागरिन को प्रथम अन्तरिक्ष यात्री बनने का गौरव प्राप्त हुआ। अन्तरिक्ष युग के प्रारम्भ में 11 वर्ष 9 महीने 17 दिन पश्चात् चन्द्रमा के तल पर मानव ने अपना पहला कदम रखा अर्थात् मानव चन्द्रतल पर उतर गया।

(ग) अन्तरिक्ष युग का सूत्रपात 4 अक्टूबर, 1947 को उस समय हुआ, जब रूस ने अपना पहला स्पूतनिक यान छोड़ा और यूरी गागरिन को प्रथम अन्तरिक्ष यात्री बनने का अवसर मिला।

  1. अभी चन्द्रमा के लिए अनेक उड़ानें होंगी। दूसरे ग्रहों के लिए मानव रहित यान छोड़े जा रहे हैं। अन्तरिक्ष में परिक्रमा करने वाला स्टेशन स्थापित करने की दिशा में तेज़ी से प्रयत्न किए जा रहे हैं। ऐसा स्टेशन बन जाने पर ब्रह्माण्ड के रहस्यों की पर्तें खोजने में काफी सहायता मिलेगी। यह पृथ्वी मानव के लिए पालने के समान है। वह हमेशा-हमेशा के लिए इसकी परिधि में बँधा हुआ नहीं रह सकता। अज्ञात की खोज में वह कहाँ तक पहुँचेगा, कौन कह सकता है?

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) मानव किसकी परिधि में नहीं बँधा रह सकता और क्यों?

उत्तर

(क) सन्दर्भ –  प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पानी में चन्दा और चाँद पर आदमी' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'जयप्रकाश भारती हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – मनुष्य जिज्ञासु प्रवृत्ति का प्राणी है। उसकी जिज्ञासा उसे नित नए तथ्य जानने के लिए प्रेरित करती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर लेखक कहता है कि मनुष्य ने 21 जुलाई, 1969 को चन्द्रमा के तल पर अपने कदम रखकर भले ही उसके कुछ रहस्यों को समझ लिया हो, पर मनुष्य इतने से ही शान्त नहीं होगा। वह चन्द्रमा के विषय में और अधिक जानने के लिए बार-बार उड़ान भरेगा।

उसकी जिज्ञासा यहीं शान्त नहीं होगी। वह चन्द्रमा पर अपने कदम रखने से उत्साहित होकर अन्य ग्रहों का रहस्य जानने के लिए मानव रहित यान छोड़ने में जुटा है। वह चाहता है कि अन्तरिक्ष में निरन्तर घूमने वाला कोई स्टेशन स्थापित हो जाए। इस दिशा में वह तेजी से निरन्तर प्रयासरत है। ऐसा स्टेशन बन जाने पर ब्रह्माण्ड के अनेक अनसुलझे रहस्यों को जानने व समझने में काफी सहायता मिलेगी।

(ग) मानव पृथ्वी की परिधि में बंधकर नहीं रह सकता है। इसका कारण है—पृथ्वी से बाहर की दुनिया का रहस्य जानने की जिज्ञासा। वह पृथ्वी के अतिरिक्त अन्तरिक्ष और ब्रह्माण्ड के अज्ञात रहस्यों की खोज में निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। चन्द्रमा के विषय में कुछ रहस्यों को जानने के पश्चात् उसका मनोबल और भी बढ़ गया है।

  1. चरन-कमल बंदौं हरि राइ जाकी कृपा पंगु

 गिरि लंघै, अंधे कौं सब कुछ दरसाइ।। बहिरौ सुनै, गूंग पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराइ सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंदौ तिहिं पाइ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद में सूरदास जी ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण के चरणों की वन्दना करते हुए उनकी महिमा का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है।

व्याख्या – भक्त शिरोमणि सूरदास जी श्रीकृष्ण के चरण कमलों की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे प्रभु! मैं आपके चरणों की, जो कमल के समान कोमल हैं, वन्दना करता हूँ, इनकी महिमा अपरम्पार है, जिनकी कृपा से लंगड़ा व्यक्ति पर्वतों को लाँघ जाता है, अन्धे व्यक्ति को सब कुछ दिखाई देने लगता है, बहरे को सुनाई देने लगता है, गूँगा बोलने लगता है और गरीब व्यक्ति राजा बनकर अपने सिर पर छत्र धारण कर लेता है। सूरदास जी कहते हैं कि हे कृपालु और दयालु प्रभु! मैं आपके मैं चरणों की बार-बार वन्दना करता हूँ। आपकी कृपा से असम्भव से असम्भव कार्य भी। सम्भव हो जाते हैं। अतः ऐसे दयालु श्रीकृष्ण के चरणों की मैं बार-बार वन्दना करता हूँ।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने ईश्वर के चरणों की महिमा व्यक्त करते हुए उनके प्रति भक्ति भाव को व्यक्त किया है।

भाषा               साहित्यिक ब्रज

शैली                    मुक्तक             

गुण                     प्रसाद

रस                 भक्ति

शब्द-शक्ति।         लक्षणा

छन्द               गेयात्मक

अलंकार

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'बार-बार' में एक शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

 अनुप्रास अलंकार 'सूरदास स्वामी' में 'स' वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

रूपक अलंकार 'चरण कमल' में कमलरूपी कोमल चरणों के बारे में बताया गया है। इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।

  1. अबिगत-गति कछु कहत न आवै। ज्या गूँगे मीठे फल को रस अंतरगत ही भावै।। परम स्वाद सबही सु निरंतर अमित तोष उपजावै। मन-बानी की अगम-अगोचर, सो जानै जो पावै।। रूप-रेख-गुन-जाति-जुगति-बिनु निरालंब कित धावै। सब विधि अगम विचारहिं तातै सूर सगुन-पद गावै।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पधांश में सूरदास ने कृष्ण के कमल-रूपी सगुण रूप के प्रति अपनी भक्ति का निरूपण किया है। इन्होंने निर्गुण भगवान की आराधना को अत्यन्त कठिन तथा सगुण ब्रह्म की उपासना को अत्यन्त सुगम और सरल बताया है।

व्याख्या सूरदास जी कहते हैं कि निर्गुण अथवा निराकार ब्रह्म की स्थिति का वर्णन नहीं किया जा सकता । वह अवर्णनीय है । निर्गुण ब्रह्म की उपासना के आनन्द का कोई नहीं कर सकता । जिस प्रकार गूंगा व्यक्ति मीठे फल का स्वाद अपने हृदय में ही अनुभव करता है, वह उसका शाब्दिक वर्णन नहीं कर सकता । उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म की भक्ति के आनन्द का  केवल अनुभव किया जा सकता है,उसे मौखिक रूप से (बोलकर ) प्रकट नहीं किया जा सकता। यद्यपि निर्गुण की प्राप्ति से निरन्तर अत्यधिक आनन्द होता है और उपाय को उससे असीम सन्तोग भी प्राप्त होता है। मा द्वारा उस ईश्वर तक पहुंचा नहीं जा सकता, जो इन्द्रियों से है, इसलिए उसे अगम एवं अगोचर कहा गया है। उसे जो प्राप्त कर लेता है, वही उसे जानना निर्गुण ईश्वरान कोई रूप हैन आकृति, न ही हमें उसके गुणों का ज्ञान जिससे हम उसे प्राप्त कर सके। बिना किसी आधार के न जाने उसे कैसे पाया है? ऐसी स्थिति में भक्त का मन बना किसी आधार के न जाने कहाँ कहाँ भटकता रहेगा, क्योंकि निर्गुण ब्रह्म तक पहुंचना असम्भव है। इसी कारण सर्भ प्रकार से विचार करके ही सूरदास जी ने सगुण श्रीकृष्ण की लीला के पद का अधिक उचित समझा है।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना की अपेक्षा सगुण ब्रह्म की उपासना को सरल बताया है।

भाषा      साहित्यिक ब्रज

छन्द।          गीतात्मक 

शब्द-शक्ति।     लक्षणा

गुण                 प्रसाद

रस।              भक्ति और शान्त

शैली।                 मुक्तक

अलंकार

 अनुप्रास अलंकार 

'अगम-अगोदर' और 'मन-बानी में क्रमश'अ' 'ग' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

दृष्टांत अलंकार ज्यों गूंगे नीठे फल में उदाहरण अर्थात फल के माध्यम से मानव हृदय के भाव को प्रकट किया गया है।इसलिए यहाँ दृष्टान्त अलंकार है। 

  1. किलकत कान्हा धुतुरुवन आवत।मनिमय कनक नंद के आँगन, बिम्ब पकरिव धावत।। कमर्हु निरखि हरि आपु छाँह कौ, कर सौंपकरन चाहत ।किलकि हंसत राजत द्वि दतियाँ, पुनि-पुनि तिहि अवगाह कनक- भूमि पर कर-पग छाया, यह उपमा इक राजति करि करि प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति।। बाल-दसा-मुख निरधि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलायति । अँचरा तर लै ढंकी , सूर के प्रभु को दूध पियावति ।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने मणियुक्त आँगन में घुटनों के बल चलते हुए बालक श्रीकृष्ण की शोभा का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि सूरदास जी श्रीकृष्ण की बाल-मनोवृत्तियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि बालक कृष्ण किलकारी मारते हुए घुटनों के बल चल रहे हैं। नन्द द्वारा बनाए मणियों से युक्त आँगन में श्रीकृष्ण अपनी परछाई देख उसे पकड़ने के लिए दौड़ने लगते हैं। कभी तो अपनी परछाई देखकर हँसने लगते हैं और कभी उसे पकड़ना चाहते हैं, जब श्रीकृष्ण किलकारी मारते हुए हँसते हैं, तो उनके आगे के दो दाँत बार-बार दिखाई देने लगते हैं, जो अत्यन्त सुशोभित लग रहे हैं।

श्रीकृष्ण के हाथ-पैरों की छाया उस पृथ्वी रूपी सोने के फर्श पर ऐसी प्रतीत हो रही है, मानो प्रत्येक मणि में उनके बैठने के लिए पृथ्वी ने कमल का आसन सजा दिया हो अथवा प्रत्येक मणि पर उनके कमल जैसे हाथ-पैरों का प्रतिबिम्ब पड़ने से ऐसा लगता है कि पृथ्वी पर कमल के फूलों का आसन बिछ रहा हो।

श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को देखकर माता यशोदा जी बहुत आनन्दित होती है और बाबा नन्द को बार-बार वहाँ बुलाती है। उसके पश्चात् माता यशोदा सूरदास के प्रभु बालक श्रीकृष्ण को अपने आँचल से ढककर दूध पिलाने लगती है।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने श्रीकृष्ण की बाल-क्रीड़ाओं का अत्यन्त मनोहारी चित्रण किया है।

भाषा         ब्रज

शैली         मुक्तक

गुण      प्रसाद और माधुर्य

छंद          गीतात्मक

रस         वात्सल्य 

शब्द-शक्ति    लक्षणा

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'किलकत कान्ह' और 'प्रतिपद प्रतिमनि' में क्रमशः 'क', 'प' तथा 'त' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुपास अलंकार है। 

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'पुनि-पुनि' और 'करि-करि में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

 उपमा अलंकार 'कनक-भूमि' और 'कमल बैठकी' अर्थात् स्वर्ण रूपी फर्श और कमल जैसा आसन में उपमेय-उपमान की समानता प्रकट की गई है, इसलिए उपमा अलंकार है।

  1. मैं अपनी सब गाइ चरैहौ।प्रात होत बल कै संग जैहाँ, तेरे कहै न रैहौ।। ग्वाल बाल गाइनि के भीतर, नैकहुँ डर नहिं लागत। आजु न सोवौ नंद-दुहाई, रैनि रहौंगौ जागत।। और ग्वाल सब गाइ चरैहैं, मैं घर बैठो रैहौ।सूर स्याम तुम सोइ रहौ अब, प्रात जान मैं देहौं।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्रीकृष्ण के स्वाभाविक बालहठ का चित्रण किया है, जिसमें वे अपने ग्वाल सखाओं के साथ अपनी गायों को चराने के लिए वन में जाने की हठ कर रहे हैं।

व्याख्या – बालक कृष्ण अपनी माता यशोदा से हठ करते हुए कहते हैं कि है माता! मैं भी अपनी गायों को चराने वन जाऊँगा। प्रातःकाल होते ही मैं भैया बलराम के साथ बन में जाऊँगा और तुम्हारे कहने पर भी घर में न रुकूँगा, क्योंकि बन में ग्वाल सखाओं के साथ रहते हुए मुझे तनिक भी डर नहीं लगता। आज में नन्द बाबा की कसम खाकर कहता हूँ कि में रातभर नहीं सोऊंगा, जागता रहूँगा। हे माता! अब ऐसा नहीं होगा कि सब ग्वाल बाल गाय चराने जाएं और में घर में बैठा रहूँ। ये सुनकर माता यशोदा ने कृष्ण को विश्वास दिलाया हे पुत्र अब तुम सो जाओ, सुबह होने पर तुम्हें गायें चराने के लिए अवश्य भेज दूंगी।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने श्रीकृष्ण के बाल मनोविज्ञान का स्वाभाविक चित्रण किया है।

भाषा          ब्रज

शैली         मुक्तक  

 रस        वात्सल्य

गुण        माधुर्य

छन्द       गेह पद

अलंकार

अनुप्रास अलंकार रैनि रहेंगौ', 'ग्वाल बाल' और 'सूर स्याम' में क्रमश: 'र', 'ल' और 'स' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

  1. मैया हौं न चरैहौं गाइ।सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौं, मेरे पाई पिराइ जौं न पत्याहि पूछि बलदाउहिं, अपनी सौहं दिवाइ।यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ मैं पठवति अपने लरिका कौं, आवै मन बहराइ सूर स्याम मेरौ अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में माता यशोदा ने श्रीकृष्ण द्वारा हठ किए जाने पर उन्हें वन भेज दिया, किन्तु वन में ग्वाल सखाओं ने उन्हें परेशान किया तथा प्रस्तुत पद में श्रीकृष्ण घर लौटकर माता यशोदा से उनकी शिकायत करते हैं।

 व्याख्या – श्रीकृष्ण माता यशोदा से कहते हैं कि हे माता! अब मैं गाय चराने नहीं जाऊँगा। सभी ग्वाले मुझसे ही अपनी गायों को घेरने के लिए कहते हैं, इधर से उधर दौड़ते-दौड़ते मेरे पैरों में दर्द होने लगता है। हे माता! यदि आपको मेरी बात पर विश्वास न हो तो अपनी सौगन्ध दिलाकर बलराम भैया से पूछ लो। यह सुनकर माता यशोदा क्रोधित होकर ग्वालों को गाली देने लगती हैं। सूरदास जी कहते हैं कि माता यशोदा कहती हैं कि मैं अपने पुत्र को वन में इसलिए भेजती हूँ कि उसका मन बहल जाए। मेरा कृष्ण अभी बहुत छोटा है, ये ग्वाले उसे इधर-उधर दौड़ाकर मार डालेंगे।

काव्य सौन्दर्य

कवि सूरदास ने श्रीकृष्ण व माता यशोदा का स्थितिवश व्यवहार का यथार्थपरक चित्रण किया है।

भाषा          ब्रज

गुण           माधुर्य 

शैली           मुक्तक

छन्द           गेय पद

रस।           वात्सल्य

शब्द-शक्ति       अभिधा

छन्द अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'मोसौं मेरे', 'पाइँ पिराई', 'ग्वालनि गारी' और 'सूर स्याम' में क्रमश: 'म', 'प' तथा 'इ', 'ग' और 'स' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

  1. सखी री, मुरली लीजै चोरि। 'जिनि गुपाल कीन्हे अपनै बस, प्रीति सबनि की तोरि।। छिन इक घर-भीतर, निसि-बासर, धरत न कबहूँ छोरि । कबहूँ कर, कबहूँ अधरनि, कटि कबहूँ खोसत जोरि ।। ना जानौं कछु मेलि मोहिनी, राखे अँग-अँग भोरि। सूरदास प्रभु कौ मन सजनी, बँध्यौ राग की डोरि।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पोश में श्रीकृष्ण का मुरलों के प्रति प्रेम तथा उससे ईर्ष्या करती गोपियों को मनोदशा का चित्रण किया गया है।

 व्याख्या – गोपियों एक-दूसरे से कहती है कि है सखी! कृष्ण की मुरली को हमे बुरा लेना चाहिए। इस पुरती ने श्रीकृष्ण को अपनी ओर आकर्षित कर अपने वश में कर लिया है। श्रीकृष्ण ने भी मुरली के वशीभूत होकर हम सभी गोपियों को भुला दिया है। वे घर के भीतर हो बाहर कभी एक पल के लिए भी मुरली को नहीं छोड़ते। कभी हाथ में रखते हैं तो कभी होठो पर और कभी कमर में खास लेते है। इस तरह से श्रीकृष्ण भी उसे कभी भी अपने से दूर नहीं होने देते। यह हमारी समझ में नहीं आ रहा कि मुरली ने कौन-सा मोहिनी मन्त्र श्रीकृष्ण पर चला दिया है, जिससे श्रीकृष्ण पूर्णरूपेण उसके वश में हो गए हैं। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों कह रही है कि हे सजनी इस वंशी ने श्रीकृष्ण का मन प्रेम की डोरी से बांधा हुआ है।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने श्रीकृष्ण की मुरली के प्रति ईर्ष्या भाव का स्वाभाविक चित्रण किया है।

भाषा            ब्रज 

गुण              माधुर्य

रस                 श्रृंगार

शैली              मुक्तक और गीतात्मक 

छंद                 गेव पद

शब्द-शक्ति          लक्षणा

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'कबहूँ कर कबहूँ' और 'मेलि मोहनी' में क्रमश: 'क' तथा 'ह' और 'म' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'अँग-अंग' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है। 

रूपक अलंकार 'राग की डोरी' अर्थात् प्रेम रूपी डोर का वर्णन किया गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।

  1. ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं। बृन्दाबन गोकुल बन उपबन, सघन कुंज की छाँही। प्रात समय मात जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत। माखन रोटी दह्यौ सजायौ, अति हित साथ खवावत।। गोपी ग्वाल बाल संग खेलत, सब दिन हँसत सिरात।सूरदास धनि धनि बजबासी, जिनसौं हित जदु-जात ।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्रीकृष्ण की मनोदशा का चित्रण किया है। उद्धव ने मथुरा पहुँचकर श्रीकृष्ण को वहाँ की सारी स्थिति बताई, जिसे सुनकर श्रीकृष्ण भाव-विभोर हो गए।

व्याख्या श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे उद्धव! मैं ब्रज को भूल नहीं पाता हूँ। मैं सबको भुलाने का बहुत प्रयत्न करता हूँ, पर ऐसा करना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पाता। वृन्दावन और गोकुल, वन, उपवन सभी मुझे बहुत याद आते हैं। वहाँ के कुंजों की घनी छाँव भी मुझसे भुलाए नहीं भूलती। प्रातः काल माता यशोदा और नन्द बाबा मुझे देखकर हर्षित होते तथा अत्यन्त सुख का अनुभव करते थे। माता यशोदा मक्खन, रोटी और दही मुझे बड़े प्रेम से खिलाती थी। गोपियाँ और ग्वाल-बालों के साथ अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ करते थे और सारा दिन हँसते-खेलते हुए व्यतीत होता था। ये सभी बाते मुझे बहुत याद आती हैं। 

सूरदास जी ब्रजवासियों की सराहना करते हुए कहते हैं कि वे ब्रजवासी धन्य हैं, क्योंकि श्रीकृष्ण स्वयं उनके हित की चिन्ता करते हैं और इनका प्रतिक्षण ध्यान करते हैं। उन्हें श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ऐसा हितैषी और कौन मिल सकता है।

काव्य सौन्दर्य

श्रीकृष्ण साधारण मनुष्य की भाँति अपने प्रियजनों को याद कर द्रवित हो रहे हैं। यद्यपि उनका व्यक्तित्व अलौकिक है फिर भी ब्रज की स्मृतियाँ उन्हें व्याकुल कर देती हैं।

भाषा       ब्रज

गुण          माधुर्य

रस           श्रृंगार

छन्द          गेयात्मक

शब्द-शक्ति   अभिधा और व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'ब्रज बिसरत', 'गोपी ग्वाल' और 'अति हित' में क्रमश: 'ब', 'ग' और 'त' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'धनि-धनि' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

  1. ऊधौ मन न भए दस बीस'एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को अवराधे ईस।। इंद्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस। आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस।। तुम तौ सखा स्याम सुन्दर के, सकल जोग के ईस सूर हमारैं नँद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश 'भ्रमरगीत' का एक अंश है। श्रीकृष्ण मथुरा चले जाते हैं और गोपियाँ उनको याद कर-कर के अत्यन्त व्याकुल हैं। श्रीकृष्ण उद्धव को गोपियों के पास भेजते हैं। वह ज्ञान और योग का सन्देश लेकर ब्रज में पहुंचते हैं, लेकिन वे उनके इस सन्देश को स्वीकार करने में स्वयं को असमर्थ बताती हैं, क्योंकि वे श्रीकृष्ण को छोड़कर किसी अन्य की आराधना नहीं कर सकती है।

व्याख्या – गोपियाँ, उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव! हमारे दस-बीस मन नहीं हैं। हमारे पास तो एक ही मन था, वह भी श्रीकृष्ण के साथ चला गया। अब हम किस मन से तुम्हारे द्वारा बताए गए निर्गुण ब्रह्म की आराधना करें? अर्थात् जब मन ही नहीं है तो किस प्रकार हम तुम्हारे द्वारा बताए गए धर्म का पालन करें। श्रीकृष्ण के बिना हमारी सारी इन्द्रियाँ शिथिल (कमजोर) हो गई है अर्थात् शक्तिहीन और निर्बल हो गई हैं। इस समय इनकी स्थिति ठीक वैसी ही हो गई है, जैसी बिना सिर के प्राणी की हो जाती है। श्रीकृष्ण के बिना हम निष्प्राण हो गई हैं। हमें हमेशा उनके आने की आशा बनी रहती है। इसी कारण हमारे शरीर में श्वास चल रही है। इसी आशा में हम करोड़ों वर्षों तक जीवित रह सकती हैं।

गोपियाँ कहती है कि हे उद्धव! आप तो श्रीकृष्ण के मित्र है और सभी प्रकार के योग विद्या के स्वामी हैं, सम्पूर्ण योग विद्या तथा मिलन के उपायों को जानने वाले हैं। आप ही श्रीकृष्ण से हमारा मिलन करा सकते हैं। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों ने स्पष्ट रूप से उद्धव को बता दिया कि नन्द जी के पुत्र श्रीकृष्ण के बिना उनका कोई और आराध्य नहीं है। उनके अतिरिक्त वे और किसी की आराधना नहीं कर सकती।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने श्रीकृष्ण के विरह में विचलित गोपियों की शारीरिक व मानसिक स्थिति का चित्रण किया है।

भाषा             ब्रज

रस             शृंगार (वियोग

शैली             मुक्तक

गुण।              माधुर्य

छन्द।              गेय पद

शब्द-शक्ति।       व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'दस बीस', 'स्याम सँग' और 'नंद-नंदन' में क्रमश 'स', 'स' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

उपमा अलंकार 'ज्यौं देही बिनु सीस' अर्थात् बिना सिर के प्राणी के रूप में मानवीय वेदना का वर्णन किया गया है। इसलिए उपमा अलंकार है।

श्लेष अलंकार 'ज्यौं देही बिनु सीस' में 'ज्यौं' वाचक शब्द का प्रयोग किया गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।

भाव साम्य

इसी प्रकार का भाव व्यक्त करते हुए तुलसीदास ने भी कहा है.

 "एक भरोसो, एक बल, एक आस बिस्वास

एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास "

  1. ऊधौ जाहु तुमहिं हम जाने। स्याम तुमहिं ह्या को नहिं पठयौ, तुम हौ बीच भुलाने।। ब्रज नारिनि सौं जोग कहत हौ, बात कहत न लजाने। बड़े लोग न बिवेक तुम्हारे, ऐसे भए अयाने।। हमसौं कही लई हम सहि कै, जिय गुनि लेह सयाने। कहँ अबला कहँ दसा दिगंबर, मष्ट करौ पहिचाने।। साँच कहौं तुमको अपनी सौं, बूझतिं बात निदाने। सूर स्याम जब तुमहिं पठायौ, तब नैकहुँ मुसकाने।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं- हे उद्धव! हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म को नहीं मानेंगी। उद्धव तथा गोपियों के बीच हुए तर्क-वितर्क का वर्णन किया गया है।

व्याख्या – गोपियाँ, उद्धव से कहती हैं कि तुम यहाँ से वापस चले जाओ। हम तुम्हें भली प्रकार से जानती हैं। हमें ऐसा प्रतीत हो रहा है कि तुम्हें यहाँ श्रीकृष्ण ने नहीं भेजा है। तुम स्वयं रास्ता भटककर यहाँ आ गए हो। तुम ब्रज की नारियों (गोपियाँ) से योग की बात कह रहे हो, तुम्हें लज्जा नहीं आती। तुम भले ही बुद्धिमान और ज्ञानी होंगे, परन्तु हमें ऐसा लगता है कि तुममें विवेक नहीं है, नहीं तो तुम ऐसी अज्ञानतापूर्ण बातें हमसे क्यों करते? तुम ये मन में विचार कर लो, जो हमसे कह दिया ब्रज में किसी अन्य से ऐसी बात न कहना। हमने तो सहन कर लिया, कोई दूसरी गोपी सहन नहीं करेगी। कहाँ योग की दिगम्बर (वस्त्रहीन) अवस्था और कहाँ हम अबला नारियाँ। अतः अब तुम चुप हो जाओ और जो भी कहना सोच-समझकर कहना। अब तुम सच-सच बताओ कि जब श्रीकृष्ण ने तुम्हें यहाँ भेजा था, वह क्या थोड़ा-सा मुस्कुराए थे। वे अवश्य मुस्कुराए होंगे। तभी तो उन्होंने तुम्हारे साथ उपहास करने लिए तुम्हें यहाँ भेजा है।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने निर्गुण ब्रह्म की श्रेष्ठता तथा गोपियों द्वारा उद्धव की उलाहना का हास्यस्पद चित्रण किया गया है।

भाषा          ब्रज

गुण            माधुर्य

छन्द        गेय पद

शैली       मुक्तक

रस       शृंगार का वियोग रूप

शब्द-शक्ति    व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'स्याम तुमहिं', 'बात कहत', 'बूझति बात' और 'नैकहुँ मुसकाने' में क्रमशः 'स', 'त', 'ब' और 'क' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

  1. निरगुन कौन देस कौ बासी? मधुकर कहि समुझाइ सौह दै, बूझतिं साँच न हाँसी।। को है जनक, कौन है जननी, कौन नारि, को दासी? कैसो बरन, भेष है कैसो, किहिं रस मैं अभिलाषी? पावैगौ पुनि कियौ आपनौ, जो रे करैगौ गाँसी। सुनत मौन हवै रह्यौ बाबरौ, सूर सबै मति नासी।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

 प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास ने गोपियों के माध्यम से निर्गुण ब्रह्म की उपासना का खण्डन तथा सगुण कृष्ण की भक्ति का मण्डन किया है।

व्याख्या – गोपियाँ भ्रमर की अन्योक्ति के माध्यम से उद्धव को सम्बोधित करते हुए कहती है कि हे उद्धव! ये निर्गुण ब्रह्म किस देश के निवासी है? हम तुम्हें सौगन्ध देकर पूछती है, कि तुम हमें सच-सच बताओ, हम कोई हंसी-मजाक नहीं कर रही हैं। तुम यह बताओ कौन उसका पिता है, कौन माता है, कौन स्त्री है और कौन उसकी दासी है? उसका रंग-रूप कैसा है, उसकी वेशभूषा कैसी है? तथा वह किस रस की इच्छा रखने वाला है?

गोपियाँ, उद्धव को चेतावनी देते हुए कहती है कि हमें सभी बातों का ठीक-ठीक उत्तर देना। गोपियाँ कहती है कि यदि तुम हमसे कपट करोगे तो उसका परिणाम तुम्हे अवश्य भुगतना पड़ेगा। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों के इस प्रकार व्यंग्यात्मक तर्कपूर्ण प्रश्नों को सुनकर उद्धव स्तब्ध हो गए। वह उनके प्रश्नों का कुछ उत्तर न दे सके। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो उनका सारा ज्ञान समाप्त हो गया हो। गोपियों ने अपने वाक्चातुर्य से ज्ञानी उद्धव को परास्त कर दिया अर्थात् उद्धव का सारा ज्ञान अनपढ़ गोपियों के सामने नष्ट हो गया।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने गोपियों द्वारा निर्गुण ब्रह्म का उपहास अत्यन्त व्यंग्यात्मक तथा तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया है।

भाषा         ब्रज

शैली        मुक्तक

 गुण       माधुर्य

छन्द       गेह पद

रस    वियोग शृंगार एवं हास्य

 शब्द-शक्ति        व्यंजना

अलंकार

 अनुप्रास अलंकार 'समुझाई सौह', 'कैसो किहिं', 'पावैगो पुनि' और 'सुनत मौन' में क्रमश: 'स', 'क', 'प' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

अन्योक्ति अलंकार मधुकर अर्थात् भ्रमर के रूप में उद्धव की तुलना की गई है, जिस कारण अन्योक्ति अलंकार है।

  1. सँदेसौ देवकी सौं कहियौ ।हौं तो धाइ तिहारे सुत की, मया करत ही रहियौ ।। जदपि टेव तुम जानति उनकी, तऊ मोहिं कहि आवै।प्रात होत मेरे लाल लड़ैते, माखन रोटी भावै।। तेल उबटनौ अरु तातो जल, ताहि देखि भजि जाते। जोइ-जोइ माँगत सोइ सोइ देती, क्रम-क्रम करि कै न्हाते।। सूर पथिक सुन मोहिं रैनि-दिन बढ्यौ रहत उर सोच। मेरौ अलक लड़ैतो मोहन हैहै करत संकोच।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्रीकृष्ण की माता देवकी के पास मथुरा चले जाने के बाद माता यशोदा के स्नेह तथा उनकी पीड़ा का वर्णन किया है।

व्याख्या – यशोदा जी देवकी को एक पथिक के हाथ सन्देश भिजवाते हुए कहती हैं कि मैं तो तुम्हारे पुत्र की धाय माँ (माँ समान पालन-पोषण करने वाली सेविका) हूँ पर वह मुझे मैया कहता रहा है। इसलिए मेरा उसके प्रति वात्सल्य भाव स्वाभाविक है। यद्यपि आप तो उसकी सारी आदतें जानती होंगी, फिर भी मेरा मन आपसे कुछ कहने को उत्कंठित हो रहा है।

मेरे लाड़ले कृष्ण को सुबह होते ही माखन-रोटी खाने की आदत है। उबटन, तेल और गर्म पानी को देखते ही मेरे लाड़ले कृष्ण भाग जाते हैं। उन्हें यह सब पसन्द नहीं है। स्नान के समय वे जो माँगा करते थे, मैं उन्हें दिया करती थी। उन्हें धीरे-धीरे स्नान करने की आदत है। सूरदास जी कहते हैं कि माता यशोदा के हृदय में रात-दिन यही चिन्ता रहती है कि उनका लाड़ला कृष्ण मथुरा में कुछ माँगने में संकोच तो नहीं करता।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने पुत्र वियोगी माता यशोदा का श्री कृष्ण के प्रति अथाह प्रेम का स्वाभाविक रूप व्यक्त किया है।

भाषा          ब्रज

रस            वात्सल्य

शैली          मुक्तक

 गुण           माधुर्य

छन्द          गेय-पद

शब्द-शक्ति।   – व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'सँदेसौ देवकी', 'मोहिं कहि', 'लाल लड़ैतैं' और 'रैनि-दिन' में क्रमश: 'द', 'ह', 'ल' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'जोइ-जोइ', 'सोइ-सोइ' और 'क्रम-क्रम में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

 हिन्दी कक्षा-10 पद्यांशों की सन्दर्भ व प्रसंग सहित व्याख्या एवं उनका काव्य सौन्दर्य

  1. उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग। बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंगा। नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी।। मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने ।। भए बिसोक कोक मुनि देवा। बारसहिं सुमन जनावहिं सेवा।। गुरु पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा। सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में तुलसीदास जी ने श्रीराम द्वारा धनुष-भंग से पहले गुरुओं और मुनियों से आज्ञा माँगने, सभा में उपस्थित राजाओं की मनःस्थिति, राम की विनयशीलता तथा उदारता का वर्णन किया है।

व्याख्या – तुलसीदास कहते हैं कि जब श्रीराम जी स्वयंवर सभा में की आज्ञा प्राप्त करके धनुष-भंग के लिए मंच से उठे, तो उनकी शोभा ऐसी प्रतीत हो गुरु विश्वामित्र रही थी, जैसे मंच-रूपी उदयाचल पर्वत पर श्रीराम रूपी बाल सूर्य का उदय हो गया हो, जिसे देखकर सन्तरूपी कमल पुष्प खिल उठे हों और उनके नेत्ररूपी भौंरे प्रसन्न हो गए हों अर्थात् जब श्रीराम मंच से खड़े हुए उस समय स्वयंवर सभा में उपस्थित सभी जन हर्षित हो उठे।कवि कहते हैं कि जब श्रीराम धनुष-भंग के लिए मंच से उठे तो स्वयंवर सभा में उपस्थित राजाओं की सीता को प्राप्त करने की मनोकामना नष्ट हो गई तथा उनके वचनरूपी तारों का समूह चमकना बन्द हो गया अर्थात् वे सभी मौन हो गए। वहाँ जो अभिमानी कुमुदरूपी राजा थे, वे सकुचाने लगे तथा श्रीराम रूपी सूर्य को देखकर मुरझा गए और कपटरूपी उल्लू की तरह छिप गए। जिस प्रकार रात होने पर चकवा-चकवी अपने बिछोह के कारण शोक में डूब जाते हैं, उसी प्रकार सभा में उपस्थित मुनि व देवता भी चकवारूपी शोक में डूबे हुए थे, परन्तु श्रीराम की तत्परता देख उनका दुःख समाप्त हो गया।

अब राम और सीता के संयोग की बाधा समाप्त हो गई। श्रीराम को देखकर सभा में उपस्थित समस्त जन फूलों की वर्षा कर रहे हैं। इसी बीच श्रीराम अपने गुरु विश्वामित्र के चरणों की प्रेमपूर्वक वन्दना कर अन्य सभी मुनियों से धनुष-भंग करने की अनुमति माँगते हैं। सम्पूर्ण जगत् के स्वामी श्रीराम अपने गुरु विश्वामित्र जी के चरणों की वन्दना कर तथा अन्य मुनियों की आज्ञा प्राप्त करके सुन्दर मतवाले हाथी की भाँति मस्त चाल से धनुष की ओर स्वाभाविक रूप से बढ़ रहे हैं।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने उस समय का मनोहरी चित्रण किया है, जब गुरु विश्वामित्र की आज्ञा से श्रीराम धनुष-भंग के लिए मंच से उठ खड़े होते हैं।

भाषा           अवधी

शैली           प्रबन्ध और विवेचनात्मक/चित्रात्मक

गुण            माधुर्य

रस             भक्ति / शृंगार

छन्द           दोहा

शब्द-शक्ति।           अभिधा और व्यंजना

अनुप्रास अलंकार 'उदित उदयगिरि', और 'संत सरोज सब', 'निसिनासी' मानी महिप, बरसहि सुमन, पद बँदि में क्रमश: 'उ', 'द' और 'स' 'न', 'म', 'स', 'द' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

रूपक अलंकार 'रघुबर बालपतंग' में मंच रूपी उदयांचल का वर्णन किया गया है, 'कपटी भूप उलूक लुकाने' कपटरूपी उल्लू के समान राजा का वर्णन किया गया है। जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।

  1. सखि सब कौतुकु देखनिहारे। जेउ कहावत हितू हमारे।। कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं।। रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा।। सो धनु राजकुअर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी की माता का राम के प्रति चिन्ता का वर्णन है। श्रीराम की कोमलता को देखकर उनका मन चिन्तित है। जब शक्तिशाली राजा इस धनुष को हिला तक नहीं सके, तब यह बालक इस धनुष को कैसे तोड़ पाएगा?

व्याख्या – सीता जी की माता अपनी सखियों से कहती हैं कि हे सखि! जो लोग हमारे हितैषी कहलाते हैं, वे सभी तमाशा देखने वाले हैं। क्या इनमें से कोई भी राम के गुरु विश्वामित्र को समझाने के लिए जाएगा कि ये (राम) अभी बालक हैं। इस धनुष को तोड़ने के लिए हठ (जिद) करना अच्छा नहीं अर्थात् इस धनुष को बड़े-बड़े योद्धा हिला तक नहीं पाए।

धनुष को तोड़ने के लिए विश्वामित्र का आज्ञा देना और राम का आज्ञा मानकर चल देना तमाशे जैसा नहीं है। यह मेरी पुत्री का स्वयंवर है खेल नहीं, फिर इन्हें कोई क्यों नहीं समझाता ? इस धनुष की कठोरता के कारण रावण और बाणासुर जैसे वीर योद्धाओं ने इसे छुआ तक नहीं। सभी राजाओं का धनुष तोड़ने का घमण्ड टूट चुका है अर्थात् सभी अपनी हार मान चुके हैं, तो धनुष को तोड़ने के लिए इस राजकुमार के हाथों में क्यों दे दिया है? कोई इन्हें समझाता क्यों नहीं कि क्या हंस का बच्चा कभी मन्दराचल पहाड़ उठा सकता है अर्थात् शिवजी के जिस धनुष को रावण और बाणासुर जैसे महान् शक्तिशाली योद्धा छू तक नहीं सकें, उसे तोड़ने के लिए विश्वामित्र का श्रीराम को आज्ञा देना अनुचित है। श्रीराम का भी उसे तोड़ने के लिए आगे बढ़ना बालहठ ही है।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने धनुष भंग से पहले सभा में उपस्थित सीता जी की माता के श्रीराम के प्रति व्याकुलता भाव को स्पष्ट किया है।

भाषा   –    अवधी

शैली   –    प्रबन्ध और विवेचनात्मक

गुण    –    प्रसाद

रस    –    वात्सल्य छन्द चौपाई 

अलंकार 

अनुप्रास अलंकार –'सखि सब', 'हितू हमारे', 'बुझाइ कहइ' और 'बाल मराल' में क्रमशः 'स', 'ह', 'इ' और 'ल' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है। 

दृष्टान्त अलंकार – 'रावन बान हुआ नहिं चापा' में रावण का उदाहरण दिया गया है, इसलिए यहाँ दृष्टान्त अलंकार है। 

रूपक अलंकार – 'बाल मराल कि मंदर लेहीं यहाँ धनुष की #तुलना पहाड़ से की गई है, जिस कारण रूपक अलंकार है।

  1. बोली चतुर सखी मृदु बानी तेजवंत लघु गनिअ न रानी ।। कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा।। रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा ।। दोहा- मंत्र परम लघु जासु बस, विधि हरि हर सुर सर्व महामत्त गजराज कहुँ, बस कर अंकुस खर्ब ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी की माता श्रीराम की कोमलता को देखकर विचलित हो उठती है, तब उनकी सखियाँ उनको शंका को दूर करती हैं कि तेजस्वी व्यक्ति चाहे छोटा ही क्यों न हो, उसे छोटा नहीं मानना चाहिए।

व्याख्या एक सखी सीता जी की माता की शंका का निवारण करते हुए मधुर वाणी में कहती है कि हे रानी। तेजवान व्यक्ति चाहे उम्र में छोटा ही क्यों न हो, उसे छोटा नहीं मानना पतिकहाँ घड़े से उत्पन्न होने वाले मुनि अगस्त्य और कहाँ विस्तृत और दोनों में यद्यपि कोई समानता नहीं है, पर मुनि ने अपने पराक्रम से उस अपार समुद्र को सोख लिया था। इस कारण उनका यश सारे संसार में विद्यमान है। इसी प्रकार सूर्य का घेरा छोटा-सा दिखाई देता है, किन्तु सूर्य के उदित होते ही तीनों लोकों का अन्धकार दूर हो जाता है, उसी प्रकार तुम श्रीराम को छोटा मत समझो।

दोहे का अर्थ 'ओ३म्' का मन्त्र अत्यन्त छोटा है, पर ब्रह्मा, विष्णु, शिव और समस्त देवगण उसके वश में हैं। इसी प्रकार महान् मदमस्त हाथी को वश में करने वाला अंकुश भी बहुत छोटा-सा होता है। अतः तुम भी श्रीराम को छोटा मत समझो। वह उम्र में छोटे क्यों न हो, तुम उनकी कोमलता पर मत जाओ, वे अवश्य ही धनुष

को तोड़ेंगे। 

काव्य सौन्दर्य

सीता जी की माता की सखी द्वारा दिए गए तर्क श्रीराम के महत्व को दर्शाते हैं।

भाषा.      अवधी

गुण           प्रसाद

रस          वीर छन्द चौपाई 

शैली.        प्रबन्ध और विवेचनात्मक

अलंकार

अनुप्रास अलंकार हरि हर, 'कहँ कुंभज कहँ' और 'तासु तिभुवन' हरि हर में क्रमश: 'प', 'स', 'क' और 'त' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

  1. मंत्र परम लघु जासु बस, बिधि हरि हर सुर सर्ब महामत्त गजराज कहूँ, काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन बस अपने कीन्हे ।। देबि तजिय संसउ अस जानी। मिटा बिषाद् बढ़ी अति प्रीती ।।बस कर अंकुस खर्ब ।।भंजब धनुषु राम सुनु रानी ।। सखी बचन सुनि भै परतीती।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत दोहा-चौपाई में सीता जी की माता की सखी श्रीराम की तेजस्विता का वर्णन करते हुए अनेक तथ्यों द्वारा उनका संशय दूर करती है, तभी सीता जी, श्रीराम से विवाह करने के लिए सभी देवताओं से विनती करती है। इसी मोहकता का यहाँ वर्णन किया गया है।

व्याख्या तुलसीदास जी कहते हैं कि सीता जी की माता जब श्रीराम को छोटा समझकर उनके प्रति अपनी शंका प्रकट करती हैं, तब एक सखी सीता जी की माता से कहती है कि हे रानी! जिस प्रकार ओ३म का मन्त्र अत्यन्त छोटा होता है पर ब्रह्मा, विष्णु, शिव और समस्त देवगण उसके वश में हैं, उसी प्रकार महान् मदमस्त हाथी को वश में करने वाला अंकुश भी बहुत छोटा-सा होता है। अतः तुम श्रीराम को छोटा मत समझो वह उम्र में छोटे क्यों न हो, आप उनकी कोमलता पर मत जाओ, वे अवश्य ही धनुष तोड़ देंगे।

सीता जी की माता को उनकी सखी श्रीराम की वीरता का वर्णन करते हुए कहती हैं कि कामदेव ने फूलों का ही धनुष-बाण लेकर सारे संसार को अपने वश में कर रखा है। अतः हे देवी! आप अपने मन की शंका का परित्याग कर दीजिए। श्रीराम इस शिव-धनुष को अवश्य ही तोड़ देंगे। आप मेरी बात का विश्वास कीजिए। अपनी सखी के ऐसे वचन सुनकर रानी को श्रीराम की क्षमता पर विश्वास हो गया और उनका दुःख (उदासी) समाप्त हो गया तथा उनका विषाद श्रीराम के प्रति स्नेह के रूप में परिवर्तित हो गया।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने श्रीराम के पराक्रम तथा उनकी वीरता का बखान सीता जी की माता की सखी द्वारा व्यक्त किया गया है।

भाषा           अवधी

शैली         प्रबन्ध, उद्धरण और वर्णनात्मक

रस.            श्रृंगार

गुण             माधुर्य

छन्द           दोहा

शब्द-शक्ति        अभिधा और लक्षणा

अलंकार

अनुप्रास अलंकार मंत्र परम', 'बस विधि', 'हरि हर', 'सुर सर्व में क्रमश: 'म', 'ब', 'ह' और 'स' तथा 'काम कुसुम', 'संसउ अस 'सुनु रानी' और 'विषादु बढ़ी में क्रमशः 'क', 'स', तथा 'न' और 'ब' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

  1. लखन लखेड रघुवंसमनि, ताकेउ हर कोदड्डु। पुलकि गात बोले बचन, चरन चापि ब्रह्मांडु || दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला धरहु धरनि धरि धीर न डोला। राम चहहिं संकर धनु तोरा, होहु सजग सुनि आयसु मोरा ।। चाप समीप रामु जब आए, नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए सब कर संसउ अरु अग्यानू, मंद महीपन्ह कर अभिमानू ।। भृगुपति केरि गरब गरुआई, सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई ।। सिय कर सोचु जनक पछितावा, रानिन्ह कर दारुन दुख दावा ।। संभुचाप बड़ बोहितु पाई, चढ़े जाइ सब संगु बनाई।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में लक्ष्मण द्वारा श्रीराम को देखकर प्रसन्न होना, लक्ष्मण द्वारा कच्छप, शेषनाग आदि को चेताना करना तथा राजाओं द्वारा शंका करना कि क्या श्रीराम धनुष तोड़ पाएंगे आदि का वर्णन किया गया है।

व्याख्या तुलसीदास जी कहते हैं कि जब लक्ष्मण जी ने देखा कि रघुकुलमणि श्रीराम, शिवजी के धनुष को खण्डित करने की दृष्टि से देख रहे हैं, तो उनका शरीर आनन्दित हो उठा। शिव-धनुष के खण्डन से ब्रह्माण्ड में उथल-पुथल न हो जाए, इसलिए लक्ष्मण जी ने अपने चरणों से ब्रह्माण्ड को दबा लिया।

लक्ष्मण जी कहते हैं कि हे दिग्गजों! हे कच्छप! हे शेषनाग! हे वाराह! आप सभी धैर्य धारण करें तथा पृथ्वी को संभालकर रखें, क्योंकि श्रीराम इस शिव धनुष को तोड़ने जा रहे हैं, इसलिए आप सब मेरी इस आज्ञा को सुनकर सतर्क हो जाइए। जब श्रीराम धनुष के पास गए, तब वहाँ उपस्थित नर-नारी अपने पुण्यों को मनाने लगे, क्योंकि सभी को श्रीराम के धनुष तोड़ने पर शंका तथा अज्ञान है कि श्रीराम इस धनुष को तोड़ पाएँगे या नहीं। सभा में उपस्थित नीच अहंकारी राजाओं को भी यही लग रहा

काव्य सौन्दर्य

सीता जी की माता की सखी द्वारा दिए गए तर्क श्रीराम के महत्व को दर्शाते हैं।

भाषा।        अवधी

गुण            प्रसाद

शैली      – प्रबन्ध और विवेचनात्मक

रस            वीर

 छन्द        चौपाई

अलंकार

अनुप्रास अलंकार हरि हर, 'कहँ कुंभज कहँ' और 'तासु तिभुवन' हरि हर में क्रमश: 'प', 'स', 'क' और 'त' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

है कि श्रीराम धनुष नहीं तोड़ पाएंगे, क्योंकि जब हम से यह धनुष नहीं टूटा तो राम से कैसे टूटेगा ? कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि परशुराम के गर्व की गुरुता, सभी देवता तथा श्रेष्ठ मुनियों का भय, सीता जी की चिन्ता, राजा जनक का पछतावा और उनकी

रानियों के दारुण दुःख का दावानल, ये सभी शिवजी के धनुषरूपी बड़े जहाज को पाकर उसमें सब एक साथ चढ़ गए है।

  1.  गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी प्रगट न लाज निसा अवलोकी ।। लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना। सकुची व्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी।। तन मन बचन मोर पनु साचा रघुपति पद सरोज चितु राचा।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी का श्रीराम के प्रति सात्विक प्रेम का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया गया है।

व्याख्या – यहाँ कवि सीता जी की वाणी की असमर्थता को प्रकट करते हुए कहते हैं कि सीता जी के प्रेमभाव की वाणीरूपी भ्रमरी को उनके मुखरूपी कमल ने रोक रखा है अर्थात् वह कुछ बोल नहीं पा रही हैं। जब वह भ्रमरी लज्जारूपी रात देखती है, तो वह अत्यन्त मौन होकर कमल में बैठी रहती है और स्वयं को प्रकट नहीं करती, क्योंकि वह तो रात्रि के बीत जाने पर ही प्रातःकाल में प्रकट होकर गुनगुनाती है अर्थात् सीता जी लज्जा के कारण कुछ नहीं कह पाती और उनके मन की बात मन में ही रह जाती है।

उनका मन अत्यन्त भावुक है, जिसके कारण उनकी आँखों में आँसू छलछला आते हैं, परन्तु वह उन आँसुओं को बाहर नहीं निकलने देती।

सीता जी के आँसू आँखों के कोनों में ऐसे समाए हुए हैं जैसे महाकंजूस का सोना घर के कोनों में ही गड़ा रहता है। सीता जी अत्यन्त विचलित हो रही थीं, जब उन्हें अपनी इस व्याकुलता का बोध हुआ तो वह सकुचा गईं और अपने हृदय में धैर्य रखकर अपने मन में यह विश्वास लाई कि यदि मेरे तन, मन, वचन से श्रीराम का वरण सच्चा है, रघुनाथ जी के चरणकमलों में मेरा चित्त वास्तव में अनुरक्त है तो ईश्वर मुझे उनकी दासी अवश्य बनाएँगे।

 काव्य सौन्दर्य

कवि ने सीता जी के प्रेम तथा श्रीराम से विवाह करने की विचलित स्थिति को व्यक्त किया है।

भाषा              अवधी 

 गुण               माधुर्य

छन्द                 दोहा

शैली                प्रबन्ध और चित्रात्मक

रस।                 शृंगार 

शब्द-शक्ति।       अभिधा एवं लक्षणा

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'लोचन कोना', 'परम कृपन' और 'धीरे धीरजु' में क्रमश: 'न', 'प' और 'घ' तथा 'र' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

उपमा अलंकार 'जैसे परम कृपन कर सोना' यहाँ समता बताने वाले शब्द 'जैसे का प्रयोग किया गया है। इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।

  1.  देखी बिपुल बिकल वैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही।। तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा ।। का बरषा सब कृषी सुखानें समय चुके पुनि का पछितानें ।। अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी।। गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा ।। दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ।। लेत चढ़ावत खैचत गाढ़े। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें ।। तेहि छन राम मध्य धनु तोरा भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।। छन्द – भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले। चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले ।। सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं। कोदंड खंडेठ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं।। 

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में राजा जनक की राज्यसभा में सीता जी के स्वयंवर का दृश्य है। श्रीराम जी ने देखा कि धनुष-भंग का सही समय आ गया है, उन्होंने देखा कि सारा समाज व्याकुल हो रहा है। यदि समय रहते काम सम्पन्न न हो तो बाद में व्यर्थ ही पछताना पड़ता है। इसी का मनमोहक चित्रण कवि ने किया है।

व्याख्या – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीराम चन्द्र जी ने सीता जी को अत्यन्त व्याकुल देखा, उन्होंने अनुभव किया कि उनका एक-एक क्षण एक-एक कल्प के समान बीत रहा था तभी श्रीराम जी को ऐसा प्रतीत हुआ कि अब बिना एक पल का भी विलम्ब किए मुझे धनुष-भंग कर देना चाहिए, क्योंकि यदि कोई प्यासा व्यक्ति पानी न मिलने पर शरीर त्याग दे, तो उसकी मृत्यु के पश्चात् अमृत के तालाब का भी कोई औचित्य नहीं। खेती के सूख जाने पर अगर वर्षा होती है, तो उसका क्या लाभ? समय बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ?

अतः किसी भी कार्य को सही अवसर पर ही करना चाहिए अन्यथा बाद में हाथ मलने से कोई लाभ नहीं होता। ऐसा हृदय में विचारकर श्रीराम जी ने सीता जी की ओर देखा और अपने प्रति उनका विशेष प्रेम देखकर प्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए। तब मन-ही-मन उन्होंने अपने गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से उस धनुष को अपने हाथ में उठा लिया।

ज्यों ही श्रीराम ने धनुष को अपने हाथ में उठाया, त्यों ही वह बिजली की भाँति चमका और आकाश में मण्डलाकार हो गया। श्रीराम ने यह सब कार्य इतनी फुर्ती और कुशलता से किया कि सभा में उपस्थित लोगों में से किसी ने भी उन्हें हाथ में धनुष लेते हुए, प्रत्यंचा चढ़ाते और जोर से खींचते हुए नहीं देखा अर्थात् किसी को पता ही नहीं चला कि कब उन्होंने धनुष हाथ में लिया, कब प्रत्यंचा चढ़ाई और कब खींच दिया। सारे कार्य एक क्षण में ही हो गए। किसी को कुछ पता ही नहीं चला। सभी ने श्रीराम को धनुष खींचते ही खड़े देखा। उसी क्षण उन्होंने धनुष को बीच में से तोड़ डाला। धनुष के टूटने की इतनी भयंकर ध्वनि हुई कि वह तीनों लोकों में व्याप्त हो गई।

छन्द का अर्थ – तीनों लोकों में उस भयंकर कर्कश ध्वनि की गूंज व्याप्त हो गई, जिससे घबराकर सूर्य के रथ के घोड़े मार्ग को छोड़कर चलने लगे। समस्त दिशाओं के हाथी चिंघाड़ने लगे, पृथ्वी काँपने लगी, शेषनाग, वाराह और कच्छप व्याकुल हो उठे। देवता, राक्षस और मुनि कानों पर हाथ रखकर व्याकुल होकर विचारने लगे। तुलसीदास जी कहते हैं कि जब सभी को यह विश्वास हो गया कि श्रीराम जी ने यह धनुष तोड़ डाला, तब सब श्रीराम चन्द्र जी की जय बोलने लगे।

काव्य सौन्दर्य कवि ने श्रीराम द्वारा धनुष भंग करने का सादृश्य चित्रण प्रस्तुत किया है।

भाषा             अवधी

गुण              माधुर्य

छन्द           दोहा

शैली।          प्रबन्ध और सूक्तिपरक

 रस             शृंगार और अद्भुत 

शब्द-शक्ति     अभिधा और लक्षणा

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'बिपुल विकल वैदेही', 'करइ का', 'जिस जानि' 'भरे भवन' 'रव रबि कोल कूरूम' बिकल बिचारहीं' और 'प्रभु पुलके' में क्रमशः 'ब', 'क', 'ज' 'भ', 'र', क, 'ब' प वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

दृष्टान्त अलंकार – तृषित बारि दिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा' और ' का बरषा सब कृषी सुखानें', यहाँ एक ही आशय को दो भिन्नार्थो में व्यक्त किया गया है। इसलिए यहाँ दृष्टान्त अलंकार है। 

अतिशयोक्ति अलंकार – इस पद्यांश में धनुष तोड़ने का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया है, इसलिए यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है।

  1. पुर तें निकसी रघुबीर-बधू, धरि धीर दए मग में डग है। झलकी भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गए मधुराधर वै।। फिरि बूझति है—“चलनो अब केतिक, पर्णकुटी करिहौ कित है?" तिय की लखि आतुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चलीं जल च्वै।। 

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में श्रीराम, सीता तथा लक्ष्मण वन में जा रहे हैं। सुकोमल शरीर वाली सीता जी चलते-चलते थक गई हैं, उनकी व्याकुलता का अत्यन्त

मार्मिक वर्णन यहाँ किया गया है।

व्याख्या कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीराम, लक्ष्मण तथा अपनी सुकोमल प्रिया (पत्नी) के साथ महल से निकले तो उन्होंने बहुत धैर्य से मार्ग में दो कदम रखे। सीता जी थोड़ी ही दूर चली थीं कि उनके माथे पर पसीने की बूँदें आ गई तथा सुकोमल होंठ बुरी तरह से सूख गए। तभी वे श्रीराम से पूछती हैं कि अभी हमें कितनी दूर और चलना है और हम अपनी पर्णकुटी (झोपड़ी) कहाँ बनाएँगे? पत्नी (सीता जी) की इस दशा व व्याकुलता को देखकर श्रीराम जी की आँखों से आँसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी। राजमहल का सुख भोगने वाली अपनी पत्नी की ऐसी दशा देखकर वे द्रवीभूत हो गए।

काव्य सौन्दर्य

कवि तुलसीदास जी ने वन मार्ग पर जाते समय सीता जी की थकान भरी स्थिति को देख श्रीराम की व्याकुलता प्रस्तुत की है।

भाषा       ब्रज

गुण       प्रसाद और माधुर्य

शैली          चित्रात्मक और मुक्तक

शब्द-शक्ति।    लक्षणा एवं व्यंजना

छन्द।        सवैया

रस          शृंगार 

 अलंकार 

अनुप्रास अलंकार 'रघुबीर बधू', 'भरि भाल', 'पर्णकुटी करिहौ' और 'अँखियाँ अति' में क्रमश: 'ब', 'भ', 'क' और 'अ' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

 स्वाभावोक्ति अलंकार 'झलकी भरी भाल कनी जल की पुट सूखि गए मधुराधर वै' में यथावत स्वाभाविक स्थिति का वर्णन किया गया है, इसलिए यहाँ स्वाभावोक्ति अलंकार है।

  1. जल को गए लक्खन हैं लरिका, परिखौ, पिय! छाँह घरीक है ठाढ़े। पोछि पसेउ बयारि करौं, अरु पायँ पखरिहौं भूभुरि डाढ़े।।” तुलसी रघुबीर प्रिया सम कै बैठि बिलंब लौ कंटक काढ़े। जानकी नाह को नेह लख्यौ, पुलको तनु बारि बिलोचन बाढ़े।। 

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में तुलसीदास जी ने सीता जी की व्याकुलता तथा सीता जी के प्रति राम के प्रेम का सजीव वर्णन किया है।

 व्याख्या – कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि सीता जी चलते-चलते थक गई हैं और उन्हें प्यास लगने लगती है, तो लक्षमण उनके लिए जल लेने के लिए गए हुए है। तभी सीता जी, श्रीराम से कहती है कि जब तक लक्ष्मण नहीं आते, तब तक हम घड़ी भर (कुछ देर के लिए) कहीं छाँव में खड़े होकर उनकी प्रतीक्षा कर लेते हैं। सीता जी, श्रीराम से कहती हैं, मैं तब तक आपका पसीना पोछकर हवा कर देती हूँ तथा बालू से तपे हुए पैर धो देती हूँ। श्रीराम समझ गए कि सीता जी थक चुकी हैं और वह कुछ समय विश्राम करना चाहती हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि जब श्रीराम ने सीता जी को थका हुआ देखा तो उन्होंने बहुत देर तक बैठकर उनके पैरों में से काँटे निकाले। सीता जी ने अपने स्वामी के प्रेम को देखा तो उनका शरीर पुलकित हो उठा और आँखों में प्रेमरूपी आँसू छलक आए। 

काव्य सौन्दर्य

कवि ने वन मार्ग की कठिनाइयाँ तथा वनवासी जीवन की परिस्थितियाँ प्रकट

की हैं।

भाषा         ब्रज

रस          शृंगार

शैली       मुक्तक

छन्द       सवैया

गुण।     माधुर्य

शब्द-शक्ति      लक्षणा एवं व्यंजना

 अलंकार 

अनुप्रास अलंकार – "परिखो पिय', 'बैठि बिलंब', 'कंटक काढ़े और 'जानकी नाह' में क्रमश: 'प'. 'ब' 'क' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

  1.  रानी मैं जानी अजानी महा, पबि पाहन हूँ ते कठोर हियो है। राजहु काज अकाज न जान्यो, कह्यो तिय को जिन कान कियो है।। ऐसी मनोहर मूरति ये, बिछुरे कैसे प्रीतम लोग जियो है? । आँखिन में, सखि! राखिबे जोग, इन्हें किमि कै बनवास दियो है? ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में गोस्वामी तुलसीदास जी ने ग्रामीण स्त्रियों के माध्यम से कैकेयी और राजा दशरथ की निष्ठुरता पर प्रतिक्रिया का वर्णन किया है।

व्याख्या – श्रीराम, सीता और लक्ष्मण वन में जा रहे हैं, उन्हें देखकर गाँव की स्त्रियाँ आपस में वार्तालाप कर रही है। एक स्त्री दूसरी से कहती है कि मुझे यह ज्ञात हो गया है कि रानी कैकेयी बड़ी अज्ञानी है। वह पत्थर से भी अधिक कठोर हृदय वाली नारी है, क्योंकि उन्हें इन तीनों को वनवास देते समय तनिक भी दया नहीं आई।

दूसरी ओर वे राजा दशरथ को भी बुद्धिहीन समझकर कहती हैं कि राजा दशरथ ने उचित-अनुचित का भी विचार नहीं किया, उन्होंने भी पत्नी का कहा माना और उन्हें वन भेज दिया। ये तीनों तो इतने सुन्दर और मनोहर हैं कि इनसे बिछुड़कर इनके प्रियजन कैसे जीवित रहेंगे? हे सखी! ये तीनो तो आँखों में योग्य हैं। इनको अपने से दूर नहीं किया जा सकता। इन्हें किस कारण वनवास दे दिया गया है? ये तो सदैव अपने सामने रखने योग्य हैं।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने ग्रामीण स्त्रियों के माध्यम से रानी कैकेयी की कठोरता तथा राजा दशरथ को राज-काज न जानने वाला बताया है।

भाषा         ब्रज

शैली       मुक्तक

रस         शृंगार और करुण

 गुण        माधुर्य

छन्द       सवैया

शब्द-शक्ति       अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार पवि पाहन', 'कान कियो', 'मनोहर मूरति' और 'सखि राखिने' में क्रमशः 'प', 'क', 'म' और 'ख' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

  1. सीस जटा, उर बाहु बिसाल बिलोचन लाल, तिरीछी सी भी हैं। तून सरासन बान धरे, तुलसी बन-मारग में सुठि सोहैं। सादर बारहि बार सुभाय चितै तुम त्यों हमरो मन मोहैं। पूछति ग्राम बधू सिय सो 'कहाँ साँवरे से, सखि रावरे को हैं?' ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में श्रीराम, सीता और लक्ष्मण वन को जा रहे हैं। मार्ग में ग्रामीण स्त्रियाँ उत्सुकतावश सीता जी से प्रश्न पूछती है। वे श्रीराम जी के बारे में जानना चाहती हैं। वे उनसे परिहास भी करती हैं।

व्याख्या – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि ग्रामीण स्त्रियाँ सीता जी से पूछती हैं कि जिनके सिर पर जटाएँ हैं, जिनकी भुजाएँ और हृदय विशाल हैं, लाल नेत्र हैं, तिरछी भौहे हैं, जिन्होंने तरकश, बाण और धनुष सँभाल रखे हैं, जो वन मार्ग में अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं, जो बार-बार आदर और रुचि या प्रेमपूर्ण चित्त के साथ तुम्हारी ओर देखते हैं, उनका यह सौन्दर्य हमारे मन को मोहित कर रहा है। ग्रामीण स्त्रियाँ सीता जी से प्रश्न पूछती हैं कि हे सखी! बताओ तो सही, ये साँवले से मनमोहक तुम्हारे कौन हैं?

काव्य सौन्दर्य

यहाँ ग्रामीण स्त्रियों की उत्सुकता का सहज चित्रण हुआ है।

भाषा    ब्रज

शैली।      मुक्तक

गुण।     माधुर्य 

शब्द-शक्ति      व्यंजना

रस       शृंगार

छन्द      सवैया

अलंकार

 अनुप्रास अलंकार 'बाहु बिसाल', 'बिलोचन लाल', 'सरासन बान','सादर बारहि' और 'सावरे से सखि में क्रमश: 'ब', 'ल', 'न', 'र' और 'स' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

  1. सुनि सुन्दर बैन सुधारस-साने, सयानी हैं जानकी जानी भली। तिरछे करि नैन दे सैन तिन्है, समुझाइ कछू मुसकाइ चली ।। तुलसी तेहि औसर सोहैं सबै, अवलोकति लोचन-लाहु अली। अनुराग-तड़ाग में भानु उदै, बिगसी मनो मंजुल कंज-कली ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग– प्रस्तुत पद्यांश में श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वन में जा रहे हैं। ग्रामीण स्त्रियों ने सीता जी से उनके पति के विषय में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया। इस पर सीता जी ने संकेतों के माध्यम से श्रीराम जी के विषय में सब बता दिया।

व्याख्या गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि ग्राम वधुओं ने सीता जी से राम के विषय में पूछा कि ये साँवले और सुन्दर रूप वाले तुम्हारे क्या लगते हैं? उनकी यह अमृत के समान मधुर वाणी सुनकर सीता जी समझ गईं कि ये स्त्रियाँ बहुत चतुर हैं, वे उनके

मनोभावों को समझ गईं। ये प्रभु (श्रीराम) के साथ मेरा सम्बन्ध जानना चाहती हैं। तब सीता जी ने उनके प्रश्न का उत्तर अपनी मुस्कुराहट तथा संकेत भरी दृष्टि से ही दे दिया। उन्होंने अपनी मर्यादा का पूर्ण रूप से पालन किया। उन्होंने संकेत के द्वारा ही यह समझा दिया कि ये मेरे पति हैं। अपने नेत्र तिरछे करके, इशारा करके, समझा कर मुस्कुराती हुई आगे बढ़ गईं अर्थात् उन्हें कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी।

तुलसीदास जी कहते हैं कि उस समय वे स्त्रियाँ श्रीराम की सुन्दरता को एकटक देखती हुई, अपने नेत्रों को आनन्द प्रदान करने लगीं अर्थात् उनके सौन्दर्य को देखकर जीवन को धन्य मानने लगीं। उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो प्रेम के सरोवर में रामरूपी सूर्य उदित हो गया हो और ग्राम वधुओं के नेत्ररूपी कमल की सुन्दर कलियाँ खिल गई हों अर्थात् उनके नेत्रों ने अपने जीवन को सफल बना लिया हो।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने सीता जी द्वारा ग्रामीण वधुओं को संकेतपूर्ण उत्तर देने से भारतीय नारी की मर्यादा को चित्रित किया है।

भाषा      ब्रज

शैली।     चित्रात्मक व मुक्तक

 गुण।   माधुर्य

छन्द       सवैया

रस       शृंगार

शब्द-शक्ति      व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'सुनि सुन्दर', 'जानकी जानी', 'तिरछे करि', 'तुलसी तेहि' और 'लोचन लाहु' में क्रमश: 'स', 'ज', 'न', 'र', 'त' और 'ल' वर्ण की पुनरावृत्ति से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

रूपक अलंकार 'सुधारस साने' में उपमेय और उपमान में कोई भेद नहीं है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।

उत्प्रेक्षा अलंकार 'मनो मंजुल कंज कली' में उपमेय में उपमान की सम्भावना को व्यक्त किया गया है। इसलिए यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।

 धनुष-भंग, वन-पथ पर,गोस्वामी तुलसीदास 

  1. ईर्ष्या का यही अनोखा वरदान है, जिस मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या घर बना लेती है, वह उन चीजों से आनन्द नहीं उठाता, जो उसके पास मौजूद हैं, बल्कि उन वस्तुओं से दुःख उठाता है, जो दूसरों के पास हैं। वह अपनी तुलना दूसरों के साथ करता है और इस तुलना में अपने पक्ष के सभी अभाव उसके हृदय पर दंश मारते रहते हैं। दंश के इस दाह को भोगना कोई अच्छी बात नहीं है। मगर ईर्ष्यालु मनुष्य करे भी तो क्या? आदत से लाचार होकर उसे यह वेदना भोगनी पड़ती है।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।

(ग) (i) ईर्ष्या का अनोखा वरदान क्या है?

अथवा लेखक ने ईर्ष्या को अनोखा वरदान क्यों कहा है? 

अथवा ईर्ष्यालु व्यक्ति को ईर्ष्या से क्या कष्ट मिलता है?

(ii) ईर्ष्या की किन विशेषताओं का उल्लेख किया गया है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या

लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' कहते हैं कि जो व्यक्ति ईर्ष्यालु प्रवृत्ति के होते हैं, उन्हें ईर्ष्या एक अद्भुत एवं अनोखा वरदान देती है। यह वरदान है बिना दुःख के दुःख भोगने का। जब व्यक्ति की के साथी ईर्ष्या बन जाती है या उसके हृदय में बस जाती है, तब वह व्यक्ति सदैव दुःख का अनुभव करता है। उसके दुःखी अनुभव करने के पीछे कोई कारण नहीं होता है। वह अकारण ही कष्ट भोगता है अर्थात् जिस व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में अन्य व्यक्ति की प्रगति और उन्नति को देख ईर्ष्या भाव जाग्रत हो उठता है, वह जीवनभर सुख प्राप्त करने में असमर्थ हो जाता है। वह स्वयं के समीप विद्यमान असंख्य सुख-साधनों के भोग के पश्चात् भी आनन्दित महसूस नहीं कर पाता है, जिसके पीछे का कारण यह है कि वह दूसरों की वस्तुओं को देखकर ज्वलनशील प्रवृत्ति का बन जाता है।

लेखक ईर्ष्या और उसके स्वभाव के विषय में कहता है कि इस डंक से उत्पन्न कष्ट और पीड़ा को सहना उचित नहीं हैं। ईर्ष्या की आग में जलना बुरा होता है। ईर्ष्या करने वाला अपनी इस आदत को आसानी से छोड़ नहीं पाता है। दूसरे की वस्तुएँ देखकर ईर्ष्या करना उसकी आदत बन जाती है। ईर्ष्या से व्यक्ति को सुख तो मिलता नहीं, अपितु उसे पीड़ा ही सहनी पड़ती है, व्यक्ति अपनी ईर्ष्या करने की आदत से यह पीड़ा झेलने को विवश होता है तथा व्यक्ति अपने पास सब कुछ होते हुए भी कष्ट को सहने तथा वेदना (दुःख) को भोगने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकता।

(ग) (i)ईर्ष्या का अनोखा वरदान है-दुःख न होते हुए भी दुःख की पीड़ा भोगना। इसे अनोखा वरदान इसलिए कहा गया है, क्योंकि व्यक्ति के पास जो भी वस्तुएँ हैं, उनका आनन्द उठाने के बजाय वह उन वस्तुओं से दुःखी होता है, जो उसके पास नहीं हैं। वह दूसरों की वस्तुएँ देखकर ईर्ष्या करता है और दुःखी होता है।

 (ii)ईर्ष्या की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख प्रस्तुत गद्यांश में किया गया है

() ईर्ष्या के कारण मनुष्य अपने पास मौजूद चीजों का आनन्द नहीं उठा पाता और दुःख उठाता है।

(ब) ईर्ष्यालु मनुष्य अपनी तुलना दूसरों के साथ करता है

  1. एक उपवन को पाकर भगवान को धन्यवाद देते हुए उसका आनन्द नहीं लेता और बराबर इस चिन्ता में निमग्न रहना कि इससे भी बड़ा उपवन क्यों नहीं मिला, यह एक ऐसा दोष है, जिससे ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र भी भयंकर हो उठता है। अपने अभाव पर दिन-रात सोचते सोचते वह सृष्टि की प्रक्रिया को भूलकर विनाश में लग जाता है और अपनी उन्नति के लिए उद्यम करना छोड़कर वह दूसरों को हानि पहुँचाने को ही अपना श्रेष्ठ कर्त्तव्य समझने लगता है।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए। 

(ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र कब भयंकर हो उठता है?

अथवा

 लेखक ने ईर्ष्यालु व्यक्ति के चरित्र के भयंकर हो उठने का क्या कारण बताया है?

(घ) ईर्ष्यालु व्यक्ति किस बात को अपना श्रेष्ठ कर्त्तव्य समझता है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या

. लेखक ईर्ष्या से मुक्ति का साधन बताते हुए कहता है कि ईश्वर ने जो वस्तुएं छोटी या बड़ी, कम या ज्यादा, सुन्दर या कुरूप, चाहे जिस रूप में भी प्रदान की हैं, उनके लिए हमें ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए और उपलब्ध वस्तुओं से जीवन को आनन्दमय बनाना चाहिए, परन्तु इसके विपरीत यदि हम सारा समय इसी चिन्ता में व्यर्थ करेंगे कि अन्य व्यक्तियों के पास जो सुख-सुविधा के साधन मुझसे अधिक हैं, वे मेरे पास क्यों नहीं है ऐसा सोचते रहने पर ईर्ष्या बढ़ती जाती है और अन्दर-ही-अन्दर ज्वलनशीलता पैदा होती जाती है। इस कारण ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र भयंकर हो उठता है। लेखक आगे कहता है कि जय-पराजय, उत्थान-पतन, जीवन-मृत्यु ये सभी ईश्वर के अधीन हैं। हमें इसको प्राप्त करने के लिए दिन-रात चिन्तामग्न रहकर अपने जीवन को कष्टों से युक्त नहीं बनाना चाहिए।

• मनुष्य दूसरे सम्पन्न व्यक्तियों से अपनी तुलना करते रहने पर तथा अपने अभावों पर दिन-रात चिन्तित रहने के कारण सृष्टि की रचना-प्रक्रिया को भूलकर अपना सम्पूर्ण समय ईर्ष्या में व्यर्थ कर देता है। वह कार्य करना छोड़ देता है। वह इस सोच में लगा रहता है कि मैं अन्य सम्पन्न व्यक्ति को किस प्रकार हानि पहुँचा सकता हूँ। इसी कार्य को वह अपने जीवन का उच्चतम व उत्तम कर्त्तव्य समझने लगता है। लेखक कहता है कि ऐसी विचारधारा का जन्म उन व्यक्तियों में होता है, जो असन्तोषी स्वभाव के होते हैं, उनमें ईर्ष्या की भावना अधिक पाई जाती है।

(ग)ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र तब भयंकर हो उठता है, जब अपने सुख के साधनों को यह कमतर मान बैठता है और दूसरों के साधनों को बेहतर मान कर उन्हें भी अपना न होने की सोच में जलने लगता है। वह सोचने लगता है कि भगवान ने हमें और अधिक क्यों नहीं दिया।

(घ)ईर्ष्यालु व्यक्ति ईर्ष्या में जलते हुए अपनी सृजनात्मकता खो बैठता है। वह अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी उन्नति के लिए दूसरों को नीचा दिखाने के लिए अधिक करता है। वह विनाश के कृत्य करता है और उसे ही अपना श्रेष्ठ कर्त्तव्य समझने लगता है।

  1. ईर्ष्या की बड़ी बेटी का नाम निन्दा है, जो व्यक्ति ईर्ष्यालु होता है, वही बुरे " किस्म का निन्दक भी होता है। दूसरों की निन्दा वह इसलिए करता है कि इस प्रकार दूसरे लोग जनता अथवा मित्रों की आँखों से गिर जाएँगे और जो स्थान रिक्त होगा, उस पर मैं अनायास ही बैठा दिया जाऊँगा।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए। 

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

 (ग) ईर्ष्यालु और निन्दक का क्या सम्बन्ध है?

(घ) ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों की निन्दा क्यों करता है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या –लेखक कहता है कि ईर्ष्या की बड़ी बेटी का नाम निन्दा है अर्थात् जिस व्यक्ति में ईर्ष्या करने का भाव उत्पन्न हो जाता है, उस व्यक्ति में निन्दा करने की आदत अपने आप पड़ जाती है। ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों की बहुत निन्दा करता है। इस निन्दा में भी उसे एक आनन्दानुभूति होती है। वह जिस व्यक्ति की निन्दा करता है, उसके बारे में चाहता है कि सभी उसकी निन्दा करें। वह दूसरों की निन्दा करके समाज की दृष्टि में उस व्यक्ति को गिराना चाहता है, जिसकी वह निन्दा कर रहा है। वह सोचता है कि ऐसा करने से मित्रों और परिचितों की आँखों से वह गिर जाएगा और इस प्रकार उसके रिक्त हुए स्थान स्वयं को स्थापित कर लेगा अर्थात् दूसरों की दृष्टि में प्रशंसा का पात्र बन जाएगा। इस प्रकार वह अपनी उन्नति के चक्कर में दूसरों को गिराने का सतत प्रयास करता रहता है।

(ग)ईर्ष्यालु और निन्दक का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है, जो व्यक्ति किसी से जितनी अधिक ईर्ष्या करता है, वह उतनी ही अधिक उसकी निन्दा भी करता है अर्थात् वही निन्दक होता है, जो स्वभाव से ईर्ष्यालु होता है।

(घ)ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों की निन्दा इसलिए करता है, क्योंकि वह (ईर्ष्यालु) यह मानने की भूल कर बैठता है कि निन्दा करने से वह व्यक्ति अपने मित्रों और परिचितों की दृष्टि में गिर जाएगा, जिसकी वह निन्दा कर रहा है। इस प्रकार उस व्यक्ति के स्थान को वह स्वयं ले लेगा और वह सम्मानित बन जाएगा।

  1. मगर ऐसा न आज तक हुआ है और न होगा। दूसरों को गिराने की कोशिश तो अपने को बढ़ाने की कोशिश नहीं कहीं जा सकती। एक बात और है कि संसार में कोई भी मनुष्य निन्दा से नहीं गिरता। उसके पतन का कारण सद्गुणों का ह्रास होता है। इसी प्रकार कोई भी मनुष्य दूसरों की निन्दा करने से अपनी उन्नति नहीं कर सकता। उन्नति तो उसकी तभी होगी, जब वह अपने चरित्र को निर्मल बनाए तथा अपने गुणों का विकास करे।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए। 

(ग) ऐसी कौन-सी बात है, जो न आज तक हुई है और न होगी?

(घ) मनुष्य के पतन का क्या कारण होता है? 

(ङ) मनुष्य की उन्नति कैसे हो सकती है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या –लेखक कहता है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति हमेशा दूसरे व्यक्तियों की निन्दा करके उन्हें नीचा दिखाने का प्रयास करता है और स्वयं को उसके स्थान पर स्थापित करना चाहता है, परन्तु आज तक ऐसा न हुआ है और न भविष्य में ऐसा होगा। ऐसा न होने के पीछे के कारण को बताते हुए लेखक कहता है कि जो व्यक्ति संसार में ऊंचा उठना चाहता है, वह अपने सुकमों से ही ऊँचा उठ सकता है। दूसरों की निन्दा करके या दूसरों के प्रति ईर्ष्या भाव रखकर कभी कोई श्रेष्ठ व्यक्ति नहीं बन सकता। यदि किसी व्यक्ति का पतन भी होता है तो उसके पीछे निन्दा को दोष दिया जाना भी उचित नहीं है, जबकि उसके पतन के पीछे का कारण उस व्यक्ति के अच्छे गुणों का नष्ट हो जाना होता है, इसलिए लेखक कहता है किकिसी भी व्यक्ति की उन्नति के लिए आवश्यक बात यह है कि मनुष्य निन्दा करना छोड़कर अपने चरित्र को स्वच्छ एवं साफ बनाए तथा अपने अतिरिक्त गुणों का विकास करे। ऐसा करने में सफल होने वाले व्यक्ति की उन्नति सुनिश्चित होती है तथा उसकी उन्नति में न तो निन्दा, न ईर्ष्या और न ही किसी अन्य प्रकार के विकार बाधा उत्पन्न कर सकते हैं।

(ग) दूसरों को नीचा दिखाकर अपने को ऊँचा बनाने और समाज में सम्मानित स्थान पाने की बात न आज तक हुई है और न ही भविष्य में होगी। अपनी उन्नति के लिए सद्गुणों का विकास आवश्यक है।

(घ) मनुष्य के पतन का कारण उसके सद्गुणों का ह्रास होता है, क्योंकि दूसरों की निन्दा करके स्वयं की कभी भी उन्नति नहीं की जा सकती। 

(ङ) मनुष्य की उन्नति तभी हो सकती है जब मनुष्य निन्दा करना छोड़कर अपने चरित्र को स्वच्छ एवं साफ बनाए तथा अपने अतिरिक्त गुणों का विकास करे।

  1. ईर्ष्या का काम जलाना है, मगर सबसे पहले वह उसी को जलाती है, जिसके हृदय में उसका जन्म होता है। आप भी ऐसे बहुत से लोगों को जानते होंगे, जो ईर्ष्या और द्वेष की साकार मूर्ति हैं और जो बराबर इस फिक्र में लगे रहते हैं कि कहाँ सुनने वाला मिले और अपने दिल का गुबार निकालने का मौका मिले। श्रोता मिलतेही उनका ग्रामोफोन बजने लगता है और वे बड़ी ही होशियारी के साथ एक-एक काण्ड इस ढंग से सुनाते हैं, मानो विश्व कल्याण को छोड़कर उनका और कोई ध्येयनहीं हो। अगर ज़रा उनके अपने इतिहास को देखिए और समझने की कोशिश कीजिए कि जब से उन्होंने इस सुकर्म का आरम्भ किया है, तब वे अपने क्षेत्र मेंआगे बढ़े हैं या पीछे हटे हैं। यह भी कि वे निन्दा करने में समय व शक्ति का अपव्यय नहीं करते तो आज इनका स्थान कहाँ होता।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए। (ग) उपरोक्त गद्यांश में ईर्ष्यालु व्यक्ति की मनोदशा कैसी बताई गई है?

(घ) ईर्ष्या का क्या कार्य है? वह सबसे पहले किसे जलाती है?

उत्तर

(क)सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या ईर्ष्यालु व्यक्ति के स्वभाव पर प्रकाश डालते हुए लेखक कहता है कि जिस व्यक्ति के मन में ईर्ष्या का भाव उत्पन्न होता है, सबसे पहले ईर्ष्या उसी को जलाती है। ईर्ष्या से उत्पन्न दुःख सबसे पहले उसी को भुगतना पड़ता है। यह ईर्ष्या का काम है। ऐसे लोग अपने दुःख को सुनाने के लिए दूसरों को खोजते रहते हैं। ईर्ष्यालु व्यक्ति हर जगह सरलता से मिल जाते हैं। वे ईर्ष्या की जीती-जागती मूर्ति होते हैं।

(ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति इस मनोदशा में रहता है कि कब उसके दुःखो को सुनने वाला कोई मिले और वह अपना दुःख-पुराण बाँचना शुरू कर दे। सुनने वाला मिलते ही ईर्ष्यालु बड़ी होशियारी से दूसरों की निन्दा की एक-एक बात बढ़ा-चढ़ाकर इस प्रकार बताता है मानो संसार के कल्याण का सर्वश्रेष्ठ कार्य वही है। 

(घ) ईर्ष्या का कार्य है-जलाना। वह सबसे पहले उसी व्यक्ति को दुःख पहुँचाती और जलाती है, जिसके हृदय में उसका जन्म होता है।

  1. चिन्ता को लोग चिता कहते हैं, जिसे किसी प्रचण्ड चिन्ता ने पकड़ लिया है, उस बेचारे की ज़िन्दगी ही खराब हो जाती है, किन्तु ईर्ष्या शायद चिन्ता से भी बदतर चीज़ है, क्योंकि वह मनुष्य के मौलिक गुणों को ही कुण्ठित बना डालती है। मृत्यु शायद फिर भी श्रेष्ठ है, बनिस्वत इसके कि हमें अपने गुणों को कुण्ठित बनाकर जीना पड़े। चिन्ता-दग्ध व्यक्ति समाज की दया का पात्र है, किन्तु ईर्ष्या से जला-भुना आदमी जहर की एक चलती-फिरती गठरी के समान है, जो हर जगह वायु को दूषित करती फिरती है।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।

(ग) चिन्ता को लोग चिता क्यों कहते हैं?

(घ) ईर्ष्या चिन्ता से भी हानिकारक चीज़ क्यों है?

 (ङ) ईर्ष्यालु और चिन्ताग्रस्त व्यक्ति में क्या अन्तर है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या

लेखक चिन्ता की तुलना चिता से करते हुए कहता है कि चिन्ता व्यक्ति को उसी प्रकार जलाती है, जैसे चिता। चिता मृत शरीर को जलाती है, परन्तु चिन्ता जीवित व्यक्ति को धीरे-धीरे जलाती है, जिस व्यक्ति को चिन्ता ने जकड़ लिया, उसका जीवन कष्टदायक हो जाता है। व्यक्ति का जीवन दुःखमय बन जाता है, क्योंकि वह हर समय चिन्ता में घुलता रहता है।

लेखक कहता है कि मृत्यु को फिर भी श्रेष्ठ कहा जा सकता है। ईर्ष्या व्यक्ति के सद्गुणों का नाश कर देती है, जिस व्यक्ति के सद्गुण नष्ट हो गए हों उसके जीने से अच्छा है मर जाना। सद्गुणों के बिना मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। व्यक्ति के पास सारे सुख-साधन हों और वह ईर्ष्या के कारण उनसे लाभान्वित न हो सके ऐसे व्यक्ति पर समाज दया नहीं करता है। हाँ चिन्ता से ग्रस्त व्यक्ति पर समाज ज़रूर दया करता है, क्योंकि वह समाज का अहित नहीं करता है। उसके विचार और कार्य से दूसरों का अहित नहीं होता है। इसके विपरीत ईर्ष्यालु व्यक्ति ज़हर की पोटली के समान होता है, जिसके विचारों और कार्यों से समाज का वातावरण दूषित होता जाता है।

(ग) चिन्ता को लोग चिता इसलिए कहते हैं, क्योंकि चिता व्यक्ति के मृत शरीर को जलाती है और चिन्ता भी व्यक्ति को जलाने का ही कार्य करती है। वह व्यक्ति के जीवित शरीर अर्थात् जीवन को तिल-तिल कर जलाती है। अतः चिन्ता, चिता से भयंकर है। चिन्ता किसी व्यक्ति को चिता से भी अधिक हानि पहुँचाती है।

(घ) ईर्ष्या चिन्ता से भी हानिकारक चीज़ है, क्योंकि ईर्ष्या व्यक्ति के सद्गुणों का नाश कर देती है। जिस व्यक्ति के सद्गुण नष्ट हो जाएँ उसे जीने का कोई लाभ नहीं है। सद्गुणों के बिना मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। 

(ङ) चिन्ताग्रस्त व्यक्ति समाज में दया का पात्र होता है, क्योंकि वह समाज का अहित नहीं करता, परन्तु ईर्ष्यालु आदमी जहाँ भी जाता है, वहाँ के वातावरण को दूषित कर देता है।

  1. ईर्ष्या मनुष्य का चारित्रिक दोष ही नहीं है, प्रत्युत इससे मनुष्य के आनन्द में भी बाधा पड़ती है, जब भी मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या का उदय होता है, सामने का सुख उसे मद्धिम-सा दिखने लगता है। पक्षियों के गीत में जादू नहीं रह जाता और फूल तो ऐसे हो जाते हैं, मानो वह देखने के योग्य ही न हों। आप कहेंगे कि निन्दा के बाण से अपने प्रतिद्वन्द्रियों को बेधकर हँसने में एक आनन्द है और यह आनन्द ईर्ष्यालु व्यक्ति का सबसे बड़ा पुरस्कार है। मगर यह हँसी मनुष्य की नहीं राक्षस की होती है और यह आनन्द भी दैत्यों का होता है।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

 (ग) ईर्ष्यालु की मनोदशा कैसी होती है?

(घ) ईर्ष्यालु व्यक्ति का सबसे बड़ा पुरस्कार क्या है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या –ईर्ष्या के स्वभाव पर प्रकाश डालते हुए लेखक रामधारी सिंह कहते हैं कि ईर्ष्या मनुष्य के चरित्र का दोष नहीं है। यह भाव व्यक्ति के आनन्दमय क्षणों में भी बाधा उत्पन्न करता है। जिस व्यक्ति के हृदय में ईर्ष्या का भाव जाग्रत हो जाता है, उसे अपना सुख भी दुःख-सा प्रतीत होने लगता है। वह सुखद स्थिति में होते हुए भी सुख से वंचित रहता है। सुख के साधनों से सम्पन्न होने के बाद भी उसे सुख की अनुभूति नहीं होती। पक्षियों के कलरव अथवा उनके मधुर स्वर में उसे कोई आकर्षण नहीं दिखता। उसे सुन्दर और खिले हुए फूलों से भी ईर्ष्या होने लगती है और उसमें कोई सुन्दरता का अनुभव नहीं होता अर्थात् प्राकृतिक सौन्दर्य भी उसे सुख व आनन्द प्रदान नहीं करता। लेखक आगे कहता है कि निन्दा करने वाला प्रायः अपने वचनों के बाणों से अपने प्रतिद्वन्द्वी को घायल करके आनन्द और सुख का अनुभव करता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति समझता है कि उसने निन्दा करके अपने प्रतिद्वन्द्वी को हीन दिखा दिया है और अपना स्थान दूसरों की दृष्टि में ऊँचा बना लिया है, इसीलिए वह खुश होता है और इसी खुशी को प्राप्त करना उसका सबसे बड़ा पुरस्कार होता है। वास्तव में, ईर्ष्यालु व्यक्ति की यह हँसी और यह क्रूर आनन्द उसमें छिपे हुए राक्षस की हँसी और आनन्द है अर्थात् यह उसके राक्षसी स्वभाव को प्रकट करता है।

(ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों के सुख के साधनों का रोना रोता रहता है कि उसके ये साधन अपने क्यों न हुए। वह ईर्ष्या की आग में जलता रहता है और उसे अपने सामने के सुख में कोई आनन्द नहीं मिल पाता है। वह ऐसी मनोदशा में जीता है कि उसे पक्षियों के गीत और फूल भी आकर्षित नहीं कर पाते हैं।

 (घ)ईर्ष्यालु व्यक्तियों का सबसे बड़ा पुरस्कार है-अपनी ईर्ष्या और निन्दा के कुछ वाक्यों से किसी को दुःख पहुँचाकर हँसना और आनन्द उठानाअर्थात् दूसरों को दुःखी करके आनन्दित होना ईर्ष्यालु का सबसे बड़ा पुरस्कार है। 

  1. ईर्ष्या का सम्बन्ध प्रतिद्वन्द्विता से होता है, क्योंकि भिखमंगा करोड़पति से ईर्ष्या नहीं करता। यह एक ऐसी बात है, जो ईर्ष्या के पक्ष में भी पड़ सकती है, क्योंकि प्रतिद्वन्द्विता से मनुष्य का विकास होता है, किन्तु अगर आप संसारव्यापी सुयश चाहते हैं, तो आप रसेल के मतानुसार शायद नेपोलियन से स्पर्द्धा करेंगे, मगर याद रखिए कि नेपोलियन भी सीजर से स्पर्द्धा करता था और सीजर सिकन्दर से तथा सिकन्दर हरक्युलिस से। 

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए। 

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) विश्वव्यापी प्रसिद्धि के इच्छुक लोगों को किस से स्पर्द्धा करनी चाहिए और उन्हें क्या याद रखना चाहिए?

(घ) प्रतिद्वन्द्विता से क्या लाभ है? 

(ङ) ईर्ष्या से प्रतिद्वन्द्विता का क्या सम्बन्ध है?

उत्तर

(क)सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या –लेखक ने ईर्ष्या का सम्बन्ध प्रतिद्वन्द्विता से बताते हुए उसे मनोवैज्ञानिक सत्य के रूप में प्रस्तुत किया है। लेखक कहता है कि कोई धनी व्यक्ति किसी भिखारी या कंगाल व्यक्ति से ईष्यां नहीं करता है। ईर्ष्या का कारण है-प्रतिद्वन्द्विता और यह प्रतिद्वन्द्विता सदैव अपने बराबर वालों में ही उत्पन्न होती है अर्थात् किसी धनी व्यक्ति का प्रतिद्वन्द्वी कोई गरीब न होकर धनी व्यक्ति ही होगा। लेखक कहता है कि ईर्ष्या मनुष्य का चारित्रिक दोष है, क्योंकि वह व्यक्ति के आनन्दमय जीवन में बाधा उत्पन्न करती है, परन्तु यह एक दृष्टि से लाभप्रद भी हो सकती हैं, क्योंकि ईर्ष्या के अन्दर ही प्रतिद्वन्द्विता का भाव समाहित होता है। ईर्ष्या के कारण ही मनुष्य किसी अन्य व्यक्ति से स्पर्द्धा (प्रतियोगिता) करता है और अपने जीवन स्तर को विकासशील बनाता है।

रसेल के अनुसार, जो व्यक्ति संसार में अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ना चाहता है, वह शायद नेपोलियन से स्पर्द्धा करेगा, किन्तु नेपोलियन भी सीजर से स्पर्द्धा करता था और सीजर हरक्युलिस से। आशय यह है कि जो व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को प्रभावी, शक्तिशाली आदि समझता है, वह उनसे स्पर्द्धा करके अपना विकास करता है। इस प्रकार यह कहना अनुचित न होगा कि स्पर्द्धा या प्रतिद्वन्द्विता ईर्ष्या के ही रूप हैं तथा ये रूप निश्चित रूप से उपयोगी हैं। स्पर्द्धा या प्रतिद्वन्द्विताओं से जुड़ी हुई यही एक बात ईर्ष्या को उचित सिद्ध कर सकती है, क्योंकि स्पर्द्धा से ही कोई भी मनुष्य जाति उन्नति के पथ पर अग्रसर होकर अपने जीवन को विकासशील बना सकता है।

(ग) विश्वव्यापी प्रसिद्धि पाने के इच्छुक लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि इसके लिए नेपोलियन जैसे विश्वविख्यात और महत्त्वाकांक्षी शासक से प्रतिस्पर्द्धा करनी होगी। उसे यह बात भी याद रखनी होगी कि नेपोलियन जूलियस सीजर से, सीजर सिकन्दर से और सिकन्दर हरक्युलिस से प्रतिस्पर्द्धा करता था। प्रतिस्पर्द्धा की भावना के कारण ये शासक इतने महान् तथा विश्वप्रसिद्ध बन सके।

(घ) प्रतिद्वन्द्विता से यह लाभ है कि मनुष्य के मन में विकास करने की इच्छा जाग उठती है और वह विकास की दिशा में सकारात्मक प्रयास करती है। 

(ङ) ईर्ष्या से प्रतिद्वन्द्विता का सम्बन्ध बताते हुए लेखक ने उसे मनोवैज्ञानिक सत्य के रूप में प्रस्तुत किया है। लेखक कहता है कि कोई धनी व्यक्ति किसी भिखारी या कंगाल व्यक्ति से ईर्ष्या नहीं करता है। ईर्ष्या का कारण है-प्रतिद्वन्द्रिता और यह प्रतिद्वन्द्रिता सदैव अपने बराबर वालों में ही उत्पन्न होती है।

  1. ईर्ष्या का एक पक्ष सचमुच ही लाभदायक हो सकता है, जिसके अधीन हर आदमी, हर जाति और हर दल अपने को अपने प्रतिद्वन्द्वी का समकक्ष बनाना चाहता है, किन्तु यह तभी सम्भव है, जब कि ईर्ष्या से जो प्रेरणा आती हो, वह रचनात्मक हो। अक्सर तो ऐसा ही होता है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति यह महसूस करता है कि कोई चीज़ है जो उसके भीतर नहीं है, कोई वस्तु है, जो दूसरों के पास है,किन्तु वह यह नहीं समझ पाता कि इस वस्तु को प्राप्त कैसे करना चाहिए और गुस्से में आकर वह अपने किसी पड़ोसी मित्र या समकालीन व्यक्ति को अपने से श्रेष्ठ मानकर उससे जलने लगता है, जबकि वे लोग भी अपने आप से शायद वैसे ही असन्तुष्ट हों।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए। 

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति लोगों से ईर्ष्या क्यों करता है? 

अथवा ईर्ष्यालु व्यक्ति क्या महसूस करता है

 (घ) ईर्ष्या का लाभदायक पक्ष क्या है?

उत्तर

(क)सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या –लेखक का कहना है कि ईर्ष्या व्यक्ति को हर प्रकार से हानि पहुँचाती है। ईर्ष्या करने वाला मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता है, परन्तु इसका एक सकारात्मक पक्ष भी है। ईर्ष्या का यह सकारात्मक पक्ष व्यक्ति के लिए लाभदायक होता है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक समाज व प्रत्येक जाति में स्वाभाविक इच्छा उत्पन्न होती है कि वह अपने प्रतिद्वन्द्वी के समान ही उन्नति करे और इसके लिए सकारात्मक प्रयास करे। ऐसा करना तभी सम्भव है, जब ईर्ष्या से उत्पन्न यह प्रेरणा विनाशात्मक न होकर रचनात्मक हो अर्थात् प्रतिद्वन्द्विता करते हुए। प्रगति करने के लिए रचनात्मक प्रयास करने की आवश्यकता होती है।

(ग)ईर्ष्यालु व्यक्ति लोगों से इसलिए ईर्ष्या करने लगता है, क्योंकि दूसरे के पास उन वस्तुओं को देखकर उसे दुःख होता है, जो उसके पास नहीं हैं। वह उन वस्तुओं को कैसे प्राप्त करें, वह यह समझ नहीं पाता और क्रोध में भरकर उस व्यक्ति से जलने लगता है, जिसके पास वे वस्तुएँ होती हैं। वह उन्हें अपने से श्रेष्ठ भी मानने लगता है। यही सोच धीरे-धीरे उसकी ईर्ष्या का कारण बन जाती है।

(घ)जो प्रत्येक व्यक्ति व समूह को अपने प्रतिद्वन्द्वी के समान बनने की प्रेरणा देता है। वही ईर्ष्या का लाभदायक पक्ष है।

  1. तो ईर्ष्यालु लोगों से बचने का क्या उपाय है? नीत्से कहता है कि "बाज़ार की मक्खियों को छोड़कर एकान्त की ओर भागो, जो कुछ भी अमर तथा महान् है, उसकी रचना और निर्माण बाज़ार तथा सुयश से दूर रहकर किया जाता है, जो लोग नए मूल्यों का निर्माण करने वाले हैं, वे बाज़ारों में नहीं बसते, वे शोहरत के पास नहीं रहते।" जहाँ बाज़ार की मक्खियाँ नहीं भिनकतीं, वहाँ एकान्त है।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए। (ग) ईर्ष्यालु लोगों से बचने का क्या उपाय है?

(घ) नीत्से ने बाज़ार की मक्खियाँ किन्हें कहा है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या –  ईर्ष्यालु लोग सामाजिक वातावरण को दूषित करते हैं। ऐसे लोगों से बचने का उपाय बताता हुआ लेखक कहता है कि जो लोग समाज की प्रगति के नए-नए मूल्यों और सिद्धान्तों की रचना करते हैं, जो व्यक्ति अपना स्वयं का विकास चाहते हैं, उन्हें ऐसी बाजारू मक्खियों के समान भिनभिनाने वाले लोगों से दूर रहना चाहिए, क्योंकि इन बाजारू मक्खियों के साथ रहकर कोई भी सुकार्य पूर्ण नहीं किया जा सकता। कोई भी रचनात्मक एवं महान् कार्य बाज़ार या भीड़ से दूर रहकर ही किया जाता है। श्रेष्ठ कार्य करने के लिए प्रसिद्धि के लोभ को त्यागना पड़ता है। जो व्यक्ति समाज में नए मूल्यों का निर्माण करते हैं, वे बाज़ार जैसे स्पर्द्धा के स्थानों से सदैव दूर व भिन्न रहते हैं और महान् व निर्माणात्मक कार्य में अपना सहयोग देते हैं।

(ग)ईर्ष्यालु लोगों से बचने का उपाय यही है कि यश, वैभव, मान, प्रतिष्ठा आदि देखकर जलने वालों से दूर रहा जाए। यश प्राप्ति का लोभ त्यागकर मन में लोगों के कल्याण की कामना रखते हुए एकान्त में रहना चाहिए।

(घ)नीत्से ने बाज़ार की मक्खियाँ उन लोगों को कहा है, जो दूसरों की सुख-सुविधाओं, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा, पद आदि से जलते हैं और ईर्ष्या करने लगते हैं।

  1. ईर्ष्या से बचने का उपाय मानसिक अनुशासन है, जो व्यक्ति ईर्ष्यालु स्वभाव का है, उसे फालतू बातों के बारे में सोचने की आदत छोड़ देनी चाहिए। उसे यह भी पता लगाना चाहिए कि जिस अभाव के कारण वह ईर्ष्यालु बन गया है, उसकी पूर्ति का रचनात्मक तरीका क्या है? जिस दिन उसके भीतर यह जिज्ञासा आएगी, उसी दिन से वह ईर्ष्या करना कम कर देगा।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

 (ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) ईर्ष्या से बचने के लिए क्या उपाय करना चाहिए?

अथवा ईर्ष्या से बचने के क्या उपाय हैं? 

(घ) ईर्ष्यालु व्यक्ति कब से ईर्ष्या करना कम कर सकता है?

उत्तर

(क)सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या लेखक ईर्ष्या से बचने के उपाय को उजागर करते हुए कहता है कि हमें अपने मन पर नियन्त्रण करना चाहिए। मन पर नियन्त्रण करना ही मानसिक अनुशासन कहलाता है। ऐसा माना जाता है कि मन का स्वभाव चंचल होता है और इसको नियन्त्रित करके ही ईर्ष्या भाव से बचा जा सकता है। कहने का आशय यह है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति यदि अपने मन व मस्तिष्क को नियन्त्रित करेगा, तो वह फालतू और निरर्थक बातों पर विचार करने की बुरी आदत से छुटकारा पा सकेगा। जो वस्तु हमारे पास नहीं है, उसके विषय में सोचना व्यर्थ है, जिसके मन में ईर्ष्या-भाव जाग्रत हो गया है उसे यह जानना आवश्यक है कि किस साधन के अभाव के कारण उसके मन में ईर्ष्या भाव उत्पन्न हुआ है। इसके पश्चात् उसे उन अभावों को दूर करने का सकारात्मक प्रयत्न करना चाहिए। उस व्यक्ति को ऐसे उपायों की खोज करनी चाहिए, जिससे उन अभावों की पूर्ति रचनात्मक तरीके से हो सके। जिस दिन ईर्ष्यालु व्यक्ति को यह जानने की इच्छा जागेगी कि किस अभाव के कारण वह ईर्ष्यालु बन गया है और उस अभाव की पूर्ति का सकारात्मक व रचनात्मक उपाय क्या है? उसी दिन से वह ईर्ष्या करना कम कर देगा।

(ग) ईर्ष्या से बचने के लिए व्यक्ति को चाहिए कि वह स्वयं को मानसिक अनुशासन में बाँध ले। जिन वस्तुओं का उसे अभाव है, उनके बारे में व्यर्थ का सोच-विचार नहीं करना चाहिए तथा अभावों की पूर्ति के लिए सकारात्मक प्रयास करना चाहिए।

(घ) जिस दिन व्यक्ति की समझ में यह आ जाएगा कि किस वस्तु की कमी के कारण उसके मन में ईर्ष्या भाव उत्पन्न हुआ है तथा उस वस्तु को पाने का सकारात्मक उपाय क्या है, इसका ज्ञान होते ही ईर्ष्या करना बन्द कर देगा।

पाठ का नाम ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से लेखक रामधारी सिंह दिनकर

लेखक

रचनाएं, कृतियां

विधा

विट्ठलनाथ

शृंगार रस मण्डन

ब्रजभाषा गद्य

गोकुलनाथ

चौरासी वैष्णवन की वार्ता ,दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता

गद्य साहित्य

नाभादास

अष्टयाम

ब्रजभाषा गद्य

बैकुण्ठमणि शुक्ल

अगहन महात्म्य, वैशाख महात्म्य


ब्रजभाषा गद्य

लल्लूलाल

माधव विलास,


प्रेम सागर

ब्रजभाषा गद्य


कहानी

बनारसी दास

बनारसी विलास

ब्रजभाषा गद्य

वैष्णव दास

भक्त माल प्रसंग


ब्रजभाषा गद्य

गंग

चन्द्र-छन्द बरनन की महिमा

खड़ी बोली गद्य


रामप्रसाद निरंजनी

भाषा-योगवाशिष्ठ

खड़ी बोली गद्य

दौलतराम

पद्म पुराण


भाषानुवाद


मथुरानाथ शुक्ल

पंचांग दर्शन

भाषानुवाद

इंशा अल्ला खाँ

रानी केतकी की कहानी

कहानी

मुंशी सदासुखलाल


सुख सागर

खड़ी बोली गद्य

सदल मिश्र

नासिकेतोपाख्यान

आख्यान

जटमल

गोरा बादल की कथा

खड़ी बोली गद्य

देवकीनन्दन खत्री

चन्द्रकान्ता

उपन्यास

राजा शिवप्रसाद

'सितारेहिन्द'

राजा भोज का सपना

कहानी

राजा लक्ष्मण सिंह 

शकुन्तला


नाटक

किशोरीलाल गोस्वामी

इन्दुमती


कहानी

लेखक

रचनाएं

विधा

श्रीनिवासदास


परीक्षा गुरु

उपन्यास


स्वामी दयानन्द

सरस्वती

सत्यार्थ प्रकाश


धार्मिक ग्रन्थ

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र


अँधेर नगरी, सत्य हरिश्चन्द्र, भारत दुर्दशा, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति दिल्ली दरबार, दर्पण, मदालसा, सुलोचना

नाटक

निबन्ध-संग्रह

प्रतापनारायण मिश्र

हठी हम्मीर, संगीत 

शकुन्तला 


कलिकौतुक


हमारा कर्तव्य और युग धर्म


नाटक

पद्य-नाटक


 निबन्ध

श्यामसुन्दर दास

रहस्य रूपक, साहित्यालोचन,


हिन्दी भाषा और साहित्य का इतिहास


भाषा विज्ञान, भाषा रहस्य


वैज्ञानिक कोश, हिन्दी शब्द सागर

आलोचना

इतिहास

भाषा विज्ञान

कोश

प्रेमचन्द

गोदान,गबन, कर्मभूमि, रंगभूमि,सेवा सदन, प्रेमा श्रम, निर्मला


प्रेम की वेदी, संग्राम, 'कर्बला'


मानसरोवर (आठ भाग)


पूस की रात, प्रेमांजलि


कुछ विचार


उपन्यास

नाटक

कहानी संग्रह

कहानी

निबन्ध

वियोगी हरि

श्रद्धाकण, प्रार्थना, अन्तर्नाद


शुद्ध वाणी, उद्यान, भावना

गद्य-काव्य 

उपदेश

हरिभाऊ उपाध्याय

सर्वोदय की बुनियाद,स्वतन्त्रता की ओर


 पुण्य स्मरण


बापू के आश्रम में


निबन्ध

संस्मरण

गुलाबराय

नर से नारायण, ठलुआ क्लब

मेरे निबन्ध, मन की बातें मेरी असफलताएँ


हिन्दी काव्य विमर्श

सिद्धान्त और अध्ययन


नवरस, हिन्दी नाट्य विमर्श, आलोचक रामचन्द्र शुक्ल,

हिन्दी साहित्य का सुबोध इतिहास

निबन्ध

आत्म कथा

आलोचना

इतिहास

विनोबा भावे


भूदान यज्ञ, गंगा, गीता प्रवचन, जीवन 

और शिक्षण, गाँव सुखी हम सुखी, चिर-तारुण्य की साधना, विनोबा के विचार, आत्मज्ञान और विज्ञान 


राजघाटकी सन्निधि में

उपदेश

संस्मरण

हजारीप्रसाद द्विवेदी

कुटज , कल्पलता, अशोक के फूल, विचार प्रवाह


पुनर्नवा, बाणभट्ट की आत्मकथा,चारुचन्द्र लेख, अनामदास का पोथा


हिन्दी साहित्य की भूमिका, हिन्दी साहित्य का आदिकाल


हिन्दी साहित्य, कबीर, सूरसाहित्य, नाथ, सिद्धों की बानियाँ

निबंध

उपन्यास

इतिहास

आलोचना

महादेवी वर्मा

विवेचनात्मक गद्य, श्रृंखला की कड़ियाँ


अतीत के चलचित्र,स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी 

मेरा परिवार

निबन्ध

संस्मरण और रेखाचित्र


गेहूँ और गुलाब


पतितों के देश में 


चिता के फूल


माटी की मूरते


अम्ब पाला


पैरों में पंख बांधकर

निबन्ध


उपन्यास


कहानी

रेखा चित्र


नाटक


यात्रावृत

श्रीराम शर्मा

सन् बयालीस के संस्मरण, सेवाग्राम की डायरी


जंगल के बीच, शिकार, बोलती प्रतिमा, प्राणों का सौदा


संस्मरण

शिकार साहित्य

काका कालेलकर

सर्वोदय, जीवन का काव्य यात्रा


 हिमालय प्रवास,

उस पार के पड़ोसी

बापू की झाँकियाँ


जीवन लीला


निबंध

यात्रावृत

संस्मरण


आत्मचरित

विनयमोहन शर्मा


दक्षिण भारत की एक झलक,साहित्यावलोकन दृष्टिकोण


साहित्य शोधन समीक्षा,भाषा साहित्य समीक्षा,


रेखाएँ और रंग हिन्दी गीत गोविन्द ,शोध-प्रविधि

निबंध

आलोचना

संस्मरण और रेखा चित्र

धर्मवीर भारती

गुनाहों का देवता,


सूरज का सातवाँ घोड़ा ,अन्धायुग ,नदी प्यासी थी


ठेले पर हिमालय ,कहनी-अनकहनी,

पश्यन्ती


चाँद और टूटे हुए लोग

नीली झील


मानव मूल्य और साहित्य


उपन्यास

नाटक

निबन्ध

कहानी-संग्रह

अकांकी


आलोचना

लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय

फोर्ट विलियम कॉलेज


हिन्दी साहित्य का इतिहास

आलोचना

इतिहास

वृंदावनलाल वर्मा

मृगनयनी

उपन्यास


लेखक 

रचनाएं, कृतियां

विधा

विष्णु प्रभाकर

आवारा मसीहा

जीवनी

मोहन राकेश

आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस


नाटक

सूर्यकान्त त्रिपाठी  'निराला'

कुल्ली भाट 

नाटक

माखनलाल चतुर्वेदी

साहित्य देवता


कला का अनुवाद

निबन्ध संग्रह


कहानी संग्रह

अमृतराय

कलम का सिपाही


जीवनी

पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र'

अपनी खबर

आत्मकथा

हरिवंशराय बच्चन'

क्या भूलूँ क्या याद करूँ ?, नीड़ का निर्माण फिर 

आत्म कथा

डॉ. रामकुमार वर्मा

दीपदान, पृथ्वीराज की आँखें 

एकांकी

देवकीनन्दन खत्री

चन्द्रकान्ता सन्तति,भूतनाथ


उपन्यास

अज्ञेय

शेखर: एक जीवनी

उपन्यास

चन्द्रधर शर्मा

"गुलेरी'


उसने कहा था


कहानी

राहुल सांकृत्यायन

मेरी लद्दाख यात्रा,

मेरी तिब्बत यात्रा

यात्रा साहित्य

डॉ. नामवर सिंह

कविता के नए प्रतिमान

आलोचना

जैनेन्द्र कुमार


चिड़िया की बच्ची


त्यागपत्र

कहानी


उपन्यास

फणीश्वरनाथ 'रेणु'

मैला आँचल

उपन्यास

किशोरी लाल गोस्वामी

इंदुमति

कहानी

लेखक

रचनाएं ,कृतियां

विधा

रामचन्द्र शुक्ल

ग्यारह वर्ष का समय

रसमीमांसा


चिन्तामणि


भ्रमरगीत सार


त्रिवेणी


हिन्दी साहित्य का इतिहास


विचार वीथी

कहानी

आलोचना


निबंध


आलोचना


आलोचना


आलोचना

निबंध संग्रह

जयशंकर प्रसाद

आकाशदीप,

आँधी,पुरस्कार,

इन्द्रजाल


तितली,कंकाल


स्कन्दगुप्त,

अजातशत्रु,

चन्द्रगुप्त,

ध्रुवस्वामिनी,

राज्यश्री


एक घूँट


जनमेजय का नागयज्ञ

,कामायनी,


कानन कुसुम


कहानी

उपन्यास

नाटक

एकांकी

महाकाव्य

कविता

पदुमलाल

पुन्नालाल बख्शी

झलमला

कुछ बिखरे पन्ने,

पंचपात्र, क्या लिखूँ,पद्म वन,

तीर्थ सलिल,

प्रबन्ध पारिजात,

मकरन्द बिन्दु


कहानी

निबन्ध

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद

साहित्य संस्कृति का अध्ययन,

बापू जी के कदमों में


भारतीय शिक्षा ,शिक्षा और संस्कृति,

गाँधीजी की देन


मेरी यूरोप यात्रा

निबन्ध

विविध

यात्रावृत्त


रामधारी सिंह 'दिनकर'

उजली आग,


मिट्टी की ओर

वट पीपल,


अर्द्धनारीश्वर

रेती के फूल

,राष्ट्र भाषा और राष्ट्रीय एकता 

,दर्शन देश-विदेश

संस्कृति के चार अध्याय,

भारतीय संस्कृति की एकता शुद्ध

शुद्ध कविता की ओर,

साहित्य और कला

रसवन्ती


निबंध

यात्रावृत्त

संस्कृति ग्रन्थ

आलोचना

काव्य

भगवतशरण

उपाध्याय


विश्व को एशिया की देन,इतिहास साक्षी है,इतिहास साक्षी है,खून के छींटे

निबंध








































Aacharya Ramchandra Shukla Ka Jivan parichay।। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय, साहित्यिक परिचय, साहित्य में स्थान एवं भाषा शैली

जीवन परिचय 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय: -

जीवन परिचय : एक दृष्टि में

नाम

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

जन्म

1884 ईस्वी में

जन्म स्थान

उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले का अगोना गांव

पिताजी का नाम

श्री चंद्रबली शुक्ल

शिक्षा

इंटरमीडिएट ,एम.ए

आजीविका

अध्यापन, लेखन, प्राध्यापक

मृत्यु

सन 1941 ईस्वी में

लेखन विधा

आलोचना, निबंध, नाटक, पत्रिका काव्य, इतिहास आदि।

भाषा

शुद्ध साहित्यिक, सरल एवं व्यावहारिक भाषा

शैली

वर्णनात्मक, विवेचनात्मक, व्याख्यात्मक, आलोचनात्मक, भावात्मक तथा हास्य व्यंग्यात्मक।

साहित्य में पहचान

निबंधकार, अनुवादक, आलोचक, संपादक

साहित्य में स्थान

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी को हिंदी साहित्य जगत में आलोचना का सम्राट कहा जाता है।

जीवन परिचय:- हिंदी भाषा के उच्च कोटि के साहित्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल की गणना प्रतिभा संपन्न निबंधकार, समालोचक, इतिहासकार, अनुवादक एवं महान शैलीकार के रूप में की जाती है। गुलाब राय के अनुसार, "उपन्यास साहित्य में जो स्थान मुंशी प्रेमचंद का है, वही स्थान निबंध साहित्य में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का है।"

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म 1884 ईसवी में बस्ती जिले के अगोना नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम चंद्रबली शुक्ल था। इंटरमीडिएट में आते ही इनकी पढ़ाई छूट गई। ये सरकारी नौकरी करने लगे, किंतु स्वाभिमान के कारण यह नौकरी छोड़कर मिर्जापुर के मिशन स्कूल में चित्रकला अध्यापक हो गए। हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, बांग्ला, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं का ज्ञान इन्होंने स्वाध्याय से प्राप्त किया। बाद में 'काशीनागरी प्रचारिणी सभा' काशी से जुड़कर इन्होंने 'शब्द-सागर' के सहायक संपादक का कार्यभार संभाला। इन्होंने काशी विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष का पद भी सुशोभित किया।

शुक्ला जी ने लेखन का शुभारंभ कविता से किया था। नाटक लेखन की ओर भी इनकी रुचि रही, पर इनकी प्रखर बुद्धि इनको निबंध लेखन एवं आलोचना की ओर ले गई। निबंध लेखन और आलोचना के क्षेत्र में इनका सर्वोपरि स्थान आज तक बना हुआ है।

जीवन के अंतिम समय तक साहित्य साधना करने वाले शुक्ल जी का निधन सन 1941 में हुआ।

रचनाएं:- शुक्ला जी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। इनकी रचनाएं निम्नांकित हैं-

निबंध:- चिंतामणि (दो भाग), विचार वीथी।

आलोचना:- रसमीमांसा, त्रिवेणी (सूर, तुलसी और जायसी पर आलोचनाएं)।

इतिहास:- हिंदी साहित्य का इतिहास।

संपादन:- तुलसी ग्रंथावली, जायसी ग्रंथावली, हिंदी शब्द सागर, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भ्रमरगीत सार, आनंद कादंबिनी।

काव्य रचनाएं:- 'अभिमन्यु वध' , '11 वर्ष का समय' ।

प्रमुख कृतियां - हिंदी साहित्य का इतिहास, हिंदी शब्द सागर, चिंतामणि व नागरी प्रचारिणी पत्रिका।

भाषा शैली:- शुक्ल जी का भाषा पर पूर्ण अधिकार था। इन्होंने एक ओर अपनी रचनाओं में शुद्ध साहित्यिक भाषा का प्रयोग किया तथा संस्कृत की तत्सम शब्दावली को प्रधानता दी। वहीं दूसरी ओर अपनी रचनाओं में उर्दू, फारसी और अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रयोग किया। शुक्ल जी की शैली विवेचनात्मक और संयत है। इनकी शैली निगमन शैली भी कहलाती है। शुक्ल जी की सबसे प्रमुख विशेषता यह थी कि वे कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक बात कहने में सक्षम थे।

हिंदी साहित्य में स्थान:- हिंदी निबंध को नया आयाम प्रदान करने वाले शुक्ल जी हिंदी साहित्य के आलोचक, निबंधकार एवं युग प्रवर्तक साहित्यकार थे। इनके समकालीन हिंदी गद्य के काल को 'शुक्ल युग' के नाम से संबोधित किया जाता है। इनकी साहित्यिक सेवाओं के फलस्वरुप हिंदी को विश्व साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो सका।

अन्य - जायसी ग्रंथावली, तुलसी ग्रंथावली, भ्रमरगीत सार, हिंदी शब्द सागर, काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका, आनंद कादंबरी।

इसके अतिरिक्त शुक्ल जी ने कहानी (11 वर्ष का समय ) काव्य कृति (अभिमन्यु वध) की रचना की तथा अन्य भाषाओं के कई ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद भी किया। मेगस्थनीज का भारतवर्षीय विवरण, आदर्श जीवन, कल्याण का आनंद, विश्व प्रबंध, बुद्ध चरित्र (काव्य) आदि प्रमुख है। 

शुक्ला जी की भाषा संस्कृतनिष्ठ, शुद्ध तथा परिमार्जित खड़ी बोली है। परिष्कृत साहित्यिक भाषा में संस्कृत के शब्दों का प्रयोग होने पर भी उसमें बोधगम्यता सर्वत्र  विद्यमान है। कहीं-कहीं आवश्यकतानुसार उर्दू ,फारसी और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग भी देखने को मिलता है। शुक्ला जी ने मुहावरे और लोकोक्तियां का प्रयोग करके भाषा को अधिक व्यंजना पूर्ण, प्रभावपूर्ण एवं व्यवहारिक बनाने का भरकर प्रयास किया है।

शुक्ला जी की भाषा शैली गठी हुई है, उसमें व्यर्थ का एक भी शब्द नहीं आ पाता । कम से कम शब्दों में अधिक विचार व्यक्त कर देना इनकी विशेषता है। अवसर के अनुसार इन्होंने वर्णनात्मक, विवेचनात्मक,भावनात्मक तथा व्याख्यात्मक शैली का प्रयोग किया है। हास्य व्यंग प्रधान शैली के प्रयोग के लिए भी शुक्ल की प्रसिद्ध है।

प्रस्तुत मित्रता निबंध शुक्ल जी के प्रसिद्ध निबंध संग्रह चिंतामणि से संकलित है। इस निबंध में अच्छे मित्र के गुण की पहचान तथा मित्रता करने की इच्छा और आवश्यकता आदि का सुंदर विश्लेषणात्मक वर्णन किया गया है। इसके साथ ही कुशल के दुष्परिणामों का विशद विवेचन किया गया है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के जीवन से संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्न और उनके उत्तर

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म कहां हुआ था?

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म सन 1884 ई मैं बस्ती जिले के आगोरा नामक गांव में हुआ था।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के माता का नाम क्या था?

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की माता का नाम निवासी था।

जन्म - 4 अक्टूबर,1884 ई.

निधन - 2 फरवरी 1941 ई.

जन्म स्थान - बस्ती जिले के अगौना गांव में उत्तर प्रदेश

1.विधिवत शिक्षा इंटर तक हुई।

2.संस्कृत ,हिंदी ,अंग्रेजी का विषाद ज्ञान स्वाध्याय के बल पर प्राप्त किया।

3.पिता ने शुक्ल पर उर्दू और अंग्रेजी पढ़ने पर जोर दिया पर वह आंख बचाकर हिंदी पढ़ते थे।

4.शुक्ला जी गणित में कमजोर थे

5.शुक्ला जी ने मिर्जापुर के पंडित केदार नाथ पाठक और बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन के संपर्क में आकर अध्ययन अध्यवसाय पर बल दिया।

6.1910ई. से 1910 ई. के लगभग हिंदी शब्द सागर के संपादन में वैतनिक सहायक के रूप में काशी रहे।

7.शुक्ला जी कुछ समय हिंदू विश्वविद्यालय बनारस के हिंदी अध्यापक रहे।

8.शुक्ला जी ने महीने भर के लिए अलवर में भी नौकरी की।

9.विभागाध्यक्ष नियुक्ति हुई इसी पद पर रहते हुए 1941 ईस्वी में श्वास के दौरे में हृदय गति बंद होने से उनकी मृत्यु हुई।

शुक्ल जी द्वारा संपादित कृतियां

1.जायसी ग्रंथावली (1925 ईस्वी)

2.भ्रमरगीत सार (1926 ईस्वी)

3.गोस्वामी तुलसीदास

4.वीर सिंह देव चरित

5.भारतेंदु संग्रह

6.हिंदी शब्द सागर

मौलिक रचना - कविताएं

1.जायसी

2.तुलसी

3.सूरदास

4.रस मीमांसा (1949 ईस्वी)

5.भारत में वसंत

6.मनोहारी छटा

7.मधु स्रोत

अनुवाद कार्य

1.कल्पना का आनंद

2.राज्य प्रबंध शिक्षा

3.विश्व प्रपंच

4.आदर्श जीवन

5.मेगस्थनीज का भारत विषय का वर्णन

6.बुद्ध चरित्र

7.शशांक

8.हिंदी साहित्य का इतिहास 1929 (ईसवी)

9.फारस का प्राचीन इतिहास

निबंध संग्रह

1.काव्य में रहस्यवाद (1929 ईस्वी)

2.विचार वीथी 1930 (ईस्वी), 1912 ईस्वी से 1919 ईस्वी तक

3.रस मीमांसा (1949 ईस्वी)

4.चिंतामणि भाग 1 (1945 ईस्वी)

5.चिंतामणि भाग 2 (1945 ईस्वी)

6.चिंतामणि भाग 3 (नामवर सिंह द्वारा संपादित)

7.चिंतामणि भाग 4 (कुसुम चतुर्वेदी संपादित शुक्ल द्वारा लिखी गई विभिन्न पुस्तकों की भूमिका और गोष्ठियों में दिए गए उदाहरण।)

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के निबंध

1.काव्य में प्राकृति दृश्य

2.रसात्मक बोध के विविध स्वरूप

3.काव्य में अभिव्यंजनावाद

4.कविता क्या है?

5.काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था

6.भारतेंदु हरिश्चंद्र

7.काव्य में रहस्यवाद

8.मानस की जन्मभूमि

9.साहित्य

10.उपन्यास

11.मित्रता

12.साधारणीकरण और व्यक्ति 

13.तुलसी का भक्ति मार्ग

करुणा निबंध का सारांश लिखिए।

सारांश यह है कि कवना के प्राप्ति के लिए पात्र में दुख के अतिरिक्त और किसी विशेषता की अपेक्षा नहीं। पर दूसरों के दुख के परिज्ञान से जो दुख होता है वह करुणा, दया आदि नामों से पुकारा जाता है और अपने कारण को दूर करने की उत्तेजना करता है। माना जाता है कि संपूर्ण विश्व में परोपकार की भावना का मूल तत्व करुणा ही है। बुधवा महावीर ने करुणा पर अत्यधिक बल दिया है। कहा से मिलता जुलता एक अन्य भाव दया है। दया वा कुंडा में निम्नलिखित अंतर है।

शुक्ला जी ने किस पत्रिका का संपादन किया ?

शुक्ला जी ने नागरी प्रचारिणी पत्रिका का संपादन किया।

उनकी विधिवत शिक्षा कहां तक हुई ?

अध्ययन के प्रति लगनशीलता शुक्ल जी में बाल्यकाल से ही थी। किंतु इसके लिए उन्हें अनुकूल वातावरण ना मिल सका। मिर्जापुर के लंदन मिशन स्कूल से स्थान 1901 में स्कूल फाइनल परीक्षा उत्तीर्ण की।

 डॉ. भगवतशरण उपाध्याय जी का जीवन परिचय एवं रचनाए

डॉ. भगवतशरण उपाध्याय जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय

              संक्षिप्त परिचय

नाम

डॉ. भगवतशरण उपाध्याय

जन्म


सन् 1910

जन्म स्थान

बलिया जिले के उजियारपुर

गाँव में

शिक्षा

एम. ए.

आजीविका

प्रोफेसर एवं साहित्य सृजन

मृत्यु

सन् 1982

लेखन-विधा

आलोचना, यात्रा - साहित्य, पुरातत्त्व, संस्मरण एवं रेखाचित्र

साहित्य में पहचान

महान् शैलीकार, समर्थ आलोचक एवं पुरातत्त्व ज्ञाता

भाषा

शुद्ध, प्राकृत और परिमार्जित

शैली

विवेचनात्मक, वर्णनात्मक, भावात्मक शैली


साहित्य में योगदान

उपाध्याय जी ने साहित्य,


संस्कृति के विषयों पर सौ से भी अधिक पुस्तकों की रचना की है। ये संस्कृत एवं पुरातत्त्व के परम ज्ञाता रहे हैं।





जीवन-परिचय

पुरातत्त्व कला के पण्डित, भारतीय संस्कृति और इतिहास के सुप्रसिद्ध विद्वान् एवं प्रचारक तथा लेखक डॉ. भगवतशरण उपाध्याय का जन्म सन् 1910 में बलिया जिले के उजियारपुर गाँव में हुआ था। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् उपाध्याय जी काशी आए और यहीं से प्राचीन इतिहास मेंएम.ए. किया। वे संस्कृत साहित्य और पुरातत्त्व के परम ज्ञाता थे। हिन्दी साहित्य की उन्नति में इनका विशेष योगदान था।

उपाध्याय जी ने पुरातत्त्व एवं प्राचीन भाषाओं के साथ-साथ आधुनिक यूरोपीय भाषाओं का भी अध्ययन किया। इन्होंने क्रमशः 'पुरातत्त्व विभाग', 'प्रयाग संग्रहालय', 'लखनऊ संग्रहालय' के अध्यक्ष पद पर, 'बिड़ला महाविद्यालय' में प्राध्यापक पद पर तथा विक्रम महाविद्यालय में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष पद पर कार्य किया और यहीं से अवकाश ग्रहण किया।

उपाध्याय जी ने अनेक बार यूरोप, अमेरिका, चीन आदि देशों का भ्रमण किया तथा वहाँ पर भारतीय संस्कृति और साहित्य पर महत्त्वपूर्ण व्याख्यान दिए। इनके व्यक्तित्व की एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति के अध्येता और व्याख्याकार होते हुए भी ये रूढ़िवादिता और परम्परावादिता से ऊपर रहे। अगस्त, 1982 में इनका देहावसान हो गया। हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाने की दिशा में उपाध्याय जी का योगदान स्तुत्य है।

इन्होंने साहित्य, कला, संस्कृति आदि विभिन्न विषयों पर सौ से अधिक पुस्तकों की रचना की। आलोचना, यात्रा साहित्य, पुरातत्त्व, संस्मरण एवं रेखाचित्र आदि विषयों पर उपाध्याय जी ने प्रचुर साहित्य का सृजन किया।

रचनाएँ – उपाध्याय जी ने सौ से अधिक कृतियों की रचना की। इनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं

आलोचनात्मक ग्रन्थ विश्व साहित्य की रूपरेखा, साहित्य और कला, इतिहास के पन्नों पर विश्व को एशिया की देन, मन्दिर और भवन आदि।

यात्रा साहित्य कलकत्ता से पीकिंग।

अन्य ग्रन्थ ठूंठा आम, सागर की लहरों पर, कुछ फीचर कुछ एकांकी, इतिहास साक्षी है, इण्डिया इन कालिदास आदि।

भाषा-शैली –  डॉ. उपाध्याय ने शुद्ध परिष्कृत और परिमार्जित भाषा का प्रयोग किया है। भाषा में प्रवाह और बोधगम्यता है, जिसमें सजीवता और चिन्तन की गहराई दर्शनीय है।

उपाध्याय जी की शैली तथ्यों के निरूपण से युक्त कल्पनामयी और सजीव है। इसके अतिरिक्त विवेचनात्मक, वर्णनात्मक और भावात्मक शैलियों का इन्होंने प्रयोग किया है।

हिन्दी साहित्य में स्थान

डॉ. भगवतशरण उपाध्याय की संस्कृत साहित्य एवं पुरातत्त्व के अध्ययन में विशेष रुचि रही है। भारतीय संस्कृति एवं साहित्य विषय पर इनके द्वारा विदेशों में दिए गए व्याख्यान हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। पुरातत्त्व के क्षेत्र में इन्हें विश्वव्यापी ख्याति मिली। इन्हें कई देशों की सरकारों ने शोध के लिए आमन्त्रित किया। डॉ. उपाध्याय हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।

 जयप्रकाश भारती जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय

Jay prakash Bharti ji ka jivan Parichay avm rachnaye

           संक्षिप्त परिचय

नाम

जयप्रकाश भारती

जन्म

2 जनवरी

जन्म-स्थान

1936 उत्तर प्रदेश के मेरठ नगर में


पिता का नाम

श्री रघुनाथ सहाय

शिक्षा

बी. एस. सी.

आजीविका

सम्पादक

मृत्यु

5 फरवरी, 2005

लेखन-विद्या

पत्रिका एवं पुस्तक तथा

बाल-साहित्य

भाषा

सरल एवं सहज

शैली

वर्णनात्मक, चित्रात्मक व भावात्मक शैली।

साहित्य में स्थान

विज्ञान विषयक साहित्य के प्रणेता एवं बाल-साहित्यकार

के रूप में प्रसिद्ध हैं।


जीवन-परिचय

लोकप्रिय बाल पत्रिका 'नन्दन' के सम्पादक एवं प्रसिद्ध लेखक जयप्रकाश भारती का जन्म 2 जनवरी, 1936 में उत्तर प्रदेश के प्रमुख नगर मेरठ में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री रघुनाथ सहाय था, जो मेरठ के प्रसिद्ध वकील और कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे। भारती जी ने अपनी बी. एस. सी. तक की शिक्षा मेरठ में ही पूरी की। छात्र जीवन में इन्होंने अपने पिता को अनेक सामाजिक गतिविधियों में संलिप्त देखा था, जिसका व्यापक प्रभाव इनके जीवन पर भी पड़ा। इससे इन्होंने समाजसेवी संस्थाओं में प्रमुखता से भाग लेना आरम्भ कर दिया। साक्षरता के प्रचार-प्रसार में इनका उल्लेखनीय योगदान रहा है, इन्होंने अनेक वर्षों तक मेरठ में निःशुल्क प्रौढ़ रात्रि पाठशाला का संचालन किया। इनका निधन 5 फरवरी, 2005 को हो गया। सम्पादन के क्षेत्र में इनकी विशेष रुचि रही। इन्होंने 'सम्पादन-कला विशारद' की उपाधि प्राप्त करके मेरठ से प्रकाशित 'दैनिक प्रभात' तथा दिल्ली से प्रकाशित 'नवभारत टाइम्स' में पत्रकारिता का व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त किया। ये अनेक वर्षों तक दिल्ली से प्रकाशित 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' के सह-सम्पादक भी रहे।

 रचनाएँ – भारती जी की अनेक पुस्तकें यूनेस्को और भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत की गई हैं

-हिमालय की पुकार, अनन्त प्रकाश, अथाह सागर, विज्ञान की विभूतियाँ, देश हमारा देश हमारा, चलो चाँद पर चलें, सरदार भगतसिंह, हमारे गौरव के प्रतीक, उनका बचपन यूँ बीता, ऐसे थे हमारे बापू, लोकमान्य तिलक, बर्फ की गुड़िया, अस्त्र-शस्त्र आदिम युग से अणु युग तक, भारत का संविधान, संयुक्त राष्ट्र संघ, दुनिया रंग-बिरंगी आदि। इसके अतिरिक्त इन्होंने ढेर सारा बाल-साहित्य भी सृजित किया है।

भाषा-शैली – अधिकांशतः बाल साहित्य का सृजन करने वाले जयप्रकाश भारती की रचनाओं की भाषा स्वाभाविक रूप से सरल है। विज्ञान सम्बन्धी रचनाओं में विज्ञान की पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग हुआ है, पर शेष स्थानों पर सरल साहित्यिक हिन्दी का प्रयोग हुआ है। जयप्रकाश भारती ने अपनी रचनाओं में वर्णनात्मक, चित्रात्मक व भावात्मक शैली का प्रयोग किया है।

हिन्दी साहित्य में स्थान

जयप्रकाश भारती जी मुख्यतः बाल साहित्य और वैज्ञानिक लेखों के क्षेत्र में प्रसिद्ध हुए हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने लेख, कहानियाँ, रिपोर्ताज आदि अन्य साहित्यिक विधाओं से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है। इन्होंने वैज्ञानिक विषयों को हिन्दी में प्रस्तुत करके तथा उसे सरल, रोचक, उपयोगी और चित्रात्मक बनाकर अन्य साहित्यकारों का मार्ग निर्देशन किया है।

ram naresh tripathi ji ka jeevan parichay avm rachnaye

रामनरेश त्रिपाठी निराला जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय तथा रचनाएं

                  संक्षिप्त परिचय

नाम

रामनरेश त्रिपाठी


जन्म

1889 ई.


जन्म स्थान


कोइरीपुर गाँव (उ.प्र.)


पिता का नाम

पं. रामदत्त त्रिपाठी


मृत्यु

वर्ष 1962

शिक्षा

कोइरीपुर गाँव (नवीं तक)

संस्कृत, बांग्ला, गुजराती,

हिन्दी भाषा का ज्ञान

कृतियाँ

पथिक, मिलन

(खण्डकाव्य), वीरांगना,

लक्ष्मी (उपन्यास), सुभद्रा, जयन्त (नाटक), स्वप्नों


के चित्र (कहानी संग्रह)

उपलब्धि

हिन्दी साहित्य सम्मेलन,

प्रयाग के प्रचार मन्त्री

साहित्य में योगदान

हिन्दी का प्रचार-प्रसार,

'हिन्दी मन्दिर' की स्थापना कर साहित्य में बहुमूल्य योगदान दिया।

जीवन-परिचय

राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत काव्य का सृजन करने वाले कवि रामनरेश त्रिपाठी का जन्म 1889 ई. में जिला जौनपुर के अन्तर्गत कोइरीपुर ग्राम के एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता पं. रामदत्त त्रिपाठी, ईश्वर में आस्था रखने वाले ब्राह्मण थे। केवल नवीं कक्षा तक पढ़ने के पश्चात् इनकी पढ़ाई छूट गई। बाद में इन्होंने स्वतन्त्र रूप से हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, बांग्ला तथा गुजराती का गहन अध्ययन किया तथा साहित्य सेवा को अपना लक्ष्य बनाया।

ये हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के प्रचार मन्त्री भी रहे। इन्होंने दक्षिणी राज्यों में हिन्दी के प्रचार हेतु सराहनीय कार्य किया। साहित्य की विविध विधाओं पर इनका पूर्ण अधिकार था। वर्ष 1962 में कविता के आदर्श और सूक्ष्म सौन्दर्य को चित्रित करने वाला यह कवि पंचतत्त्व में विलीन हो गया।

साहित्यिक परिचय

त्रिपाठी जी मननशील, विद्वान् और थे। हिन्दी के प्रचार-प्रसार और साहित्य-सेवा की भावना से प्रेरित होकर इन्होंने 'हिन्दी मन्दिर' की स्थापना की। अपनी कृतियों का प्रकाशन भी इन्होंने स्वयं ही किया। ये द्विवेदी युग के उन साहित्यकारों में से हैं, जिन्होंने द्विवेदी मण्डल के प्रभाव से पृथक रहकरअपनी मौलिक प्रतिभा से साहित्य के क्षेत्र में कई कार्य किए। इन्होंने भावप्रधान काव्य की रचना की। राष्ट्रीयता, देशप्रेम, सेवा, त्याग आदि भावना प्रधान विषयों पर इन्होंने उत्कृष्ट साहित्य की रचना की।

कृतियाँ (रचनाएँ)

त्रिपाठी जी ने हिन्दी साहित्य की अनन्य सेवा की। हिन्दी की विविध विधाओं पर इन्होंने अपनी लेखनी चलाई। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं

1. खण्डकाव्य पथिक, मिलन और स्वप्न

2. उपन्यास वीरांगना और लक्ष्मी

3. नाटक सुभद्रा, जयन्त और प्रेमलोक

4. कहानी संग्रह स्वप्नों के चित्र

5. आलोचना तुलसीदास और उनकी कविता

6. सम्पादित रचनाएँ कविता कौमुदी और शिवाबावनी 7. संस्मरण तीस दिन मालवीय जी के साथ

8. बाल साहित्य आकाश की बातें, बालकथा कहानी, गुपचुप कहानी, फूलरानी और बुद्धिविनोद

9. जीवन चरित महात्मा बुद्ध तथा अशोक

10. टीका साहित्य 'श्रीरामचरितमानस' का टीका। इनके खण्डकाव्य में 'मिलन' दाम्पत्य प्रेम तथा 'पथिक' और 'स्वप्न' राष्ट्रीयता पर आधारित भावनाओं से ओत-प्रोत हैं। मानसी इनकी फुटकर रचनाओं का संग्रह है, जिसमें देशप्रेम, मानव की सेवा, प्रकृति वर्णन तथा बन्धुत्व की भावनाओं पर आधारित प्रेरणादायी कविताएँ संगृहीत हैं। 'कविता कौमुदी' में इनकी स्वरचित कविताओं का संग्रहण है तथा 'ग्राम्य गीत' में लोकगीतों का संग्रह है।

भाषा-शैली

त्रिपाठी जी की भाषा भावानुकूल, प्रवाहपूर्ण, सरल खड़ी बोली है। संस्कृत के तत्सम शब्दों एवं समासिक पदों की भाषा में अधिकता है। शैली सरल, स्पष्ट एवं प्रवाहमयी है। मुख्य रूप से इन्होंने वर्णनात्मक और उपदेशात्मक शैली का प्रयोग किया है। इनका प्रकृति-चित्रण वर्णनात्मक शैली पर आधारित है। छन्द का बन्धन इन्होंने स्वीकार नहीं किया है तथा प्राचीन और आधुनिक दोनों ही छन्दों में काव्य रचना की है। इन्होंने शृंगार, शान्त और करुण रस का प्रयोग किया है। अनुप्रास, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग दर्शनीय है।

हिन्दी साहित्य में स्थान

त्रिपाठी जी एक समर्थ कवि, सम्पादक एवं कुशल पत्रकार थे। राष्ट्रीय भावनाओं पर आधारित इनका काव्य अत्यन्त हृदयस्पर्शी है। इनके निबन्ध हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इस प्रकार ये कवि, निबन्धकार, सम्पादक आदि के रूप में हिन्दी में सदैव जाने जाएँगे।

सुभद्रा कुमारी चौहान जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय

Subhadra Kumari Chauhan ji ka jivan Parichay avm rachnaye

           संक्षिप्त जीवन परिचय

नाम

सुभद्रा कुमारी चौहान

जन्म

वर्ष 1904

जन्म-स्थान

इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश)

पिता का नाम


रामनाथ सिंह

शिक्षा

क्रॉस्थवेट गर्ल्स कॉलेज

की छात्रा, देश सेवा में

लग जाने के कारण

शिक्षा अधूरी

निधन

वर्ष 1948

कृतियाँ

मुकुल, त्रिधारा, बिखरे

मोती इत्यादि।


उपलब्धियाँ

'मुकुल' काव्य संग्रह पर सेकसरिया पुरस्कार।

जीवन-परिचय

स्वतन्त्रता संग्राम की सक्रिय सेनानी, राष्ट्रीय चेतना की अमर गायिका एवं वीर रस की एकमात्र कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म वर्ष 1904 में इलाहाबाद के के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इन्होंने प्रयाग के 'क्रॉस्थवेट गर्ल्स कॉलेज' में शिक्षा प्राप्त की। 15 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह खण्डवा के ठाकुर लक्ष्मणसिंह चौहान के साथ हुआ। विवाह के बाद गाँधी जी की प्रेरणा से ये पढ़ाई-लिखाई छोड़कर देश सेवा में सक्रिय हो गईं तथा राष्ट्रीय कार्यों में भाग लेने लगीं। इन्होंने कई बार जेल-यात्राएँ भी कीं। माखनलाल चतुर्वेदी की प्रेरणा से इनकी देशभक्ति का रंग और भी गहरा हो गया। वर्ष 1948 में एक मोटर दुर्घटना में इनकी असामयिक मृत्यु हो गई।

सुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाओं में देशभक्ति एवं राष्ट्रीयता का स्वर मुखरित हुआ है। इनके काव्य की ओजपूर्ण वाणी ने भारतीयों में नवचेतना का संचार कर दिया। इनकी अकेली कविता 'झाँसी की रानी' ही इन्हें अमर कर देने के लिए पर्याप्त है। इनकी कविता 'वीरों का कैसा हो वसन्त' भी राष्ट्रीय भावनाओं को जगाने वाली ओजपूर्ण कविता है। इन्होंने राष्ट्रीयता के अलावा वात्सल्य भाव से सम्बन्धित कविताओं की भी रचना की।

कृतियाँ (रचनाएँ)

सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपने साहित्यिक जीवन में भले ही कम रचनाएँ लिखीं, लेकिन उनकी रचनाएँ अद्वितीय हैं। देशभक्ति की भावना को काव्यात्मक रूप प्रदान करने वाली इस कवयित्री की रचनाएँ निम्नलिखित हैं

काव्य संग्रह मुकुल और त्रिधारा। कहानी संकलन सीधे-सादे चित्र, बिखरे मोती तथा उन्मादिनी।

'मुकुल' काव्य संग्रह पर इनको 'सेकसरिया' पुरस्कार प्रदान किया गया।

भाषा-शैली

सुभद्रा जी की शैली अत्यन्त सरल एवं सुबोध है। इनकी रचना-शैली में ओज, प्रसाद और माधुर्य भाव से युक्त गुणों का समन्वित रूप देखने को मिलता है। राष्ट्रीयता पर आधारित इनकी कविताओं में सजीव एवं ओजपूर्ण शैली का प्रयोग हुआ है।

हिन्दी साहित्य में स्थान

सुभद्रा जी हिन्दी साहित्य में अकेली ऐसी कवयित्री हैं, जिन्होंने राष्ट्रप्रेम को जगाने वाली कविताएँ लिखीं। इनकी कविताओं ने भारतीयों को स्वतन्त्रता संग्राम में स्वयं को झोंक देने के लिए प्रेरित किया। इन्होंने नारी की जिस निडर छवि को प्रस्तुत किया, वह नारी जगत् के लिए अमूल्य देन है। हिन्दी साहित्य में इनको गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है।

मैथिलीशरण गुप्त जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय तथा रचनाएं

मैथिलीशरण गुप्त जी का जीवन परिचय एवं रचनाएं

maithilesharan gupt ji ka jivan parichay aur rachnaye

             संक्षिप्त परिचय

नाम

मैथिलीशरण गुप्त

जन्म

1886 ई.

जन्म स्थान

चिरगाँव, झाँसी, उ.प्र.

पिता का नाम

सेठ रामचरण गुप्त

माता का नाम


काशीबाई

गुरु

महावीरप्रसाद द्विवेदी

मृत्यु

1964 ई.

मृत्यु स्थान

चिरगाँव झाँसी

कृतियाँ

भारत भारती, साकेत, यशोधरा, पंचवटी, द्वापर, जयद्रथ वध आदि।


साहित्य में योगदान

अपने काव्य से राष्ट्रीय भावों की गंगा बहाने का श्रेय गुप्त जी को है। द्विवेदी युग के यह अनमोल रत्न रहे हैं।

जीवन-परिचय

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झाँसी जिले के चिरगाँव नामक स्थान पर 1886 ई. में हुआ था। इनके पिताजी का नाम सेठ रामचरण गुप्त और माता का नाम काशीबाई था। इनके पिता को हिन्दी साहित्य से विशेष प्रेम था, गुप्त जी पर अपने पिता का पूर्ण प्रभाव पड़ा। इनकी प्राथमिक शिक्षा चिरगाँव तथा माध्यमिक शिक्षा मैकडोनल हाईस्कूल (झाँसी) से हुई। घर पर ही अंग्रेजी, बांग्ला, संस्कृत एवं हिन्दी का अध्ययन करने वाले गुप्त जी की प्रारम्भिक रचनाएँ कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले 'वैश्योपकारक' नामक पत्र में छपती थीं। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी जी के सम्पर्क में आने पर उनके आदेश, उपदेश एवं स्नेहमय परामर्श से इनके काव्य में पर्याप्त निखार आया। भारत सरकार ने इन्हें 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया। 12 दिसम्बर, 1964 को माँ भारती का यह सच्चा सपूत सदा के लिए पंचतत्त्व में विलीन हो गया।

साहित्यिक परिचय

गुप्त जी ने खड़ी बोली के स्वरूप के निर्धारण एवं विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। गुप्त जी की प्रारम्भिक रचनाओं में इतिवृत्त कथन की अधिकता है, किन्तु बाद की रचनाओं में लाक्षणिक वैचित्र्य एवं सूक्ष्म मनोभावों की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। गुप्त जी ने अपनी रचनाओं में प्रबन्ध के अन्दर गीति-काव्य का समावेश कर उन्हें उत्कृष्टता प्रदान की है।

कृतियाँ (रचनाएँ)

गुप्त जी के लगभग 40 मौलिक काव्य ग्रन्थों में भारत-भारती (1912), रंग में भंग (1909), जयद्रथ वध, पंचवटी, झंकार, झंकार, साकेत, यशोधरा, द्वापर, जय भारत, विष्णु प्रिया आदि उल्लेखनीय हैं।

भारत-भारती ने हिन्दी भाषियों में जाति और देश के प्रति गर्व और गौरव की भावना जगाई। 'रामचरितमानस' के पश्चात् हिन्दी में राम काव्य का दूसरा प्रसिद्ध उदाहरण 'साकेत' है। 'यशोधरा' और 'साकेत' मैथिलीशरण गुप्त ने दो नारी प्रधान काव्यों की रचना की।

श्याम नारायण पाण्डेय जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय तथा रचनाएं

श्याम नारायण पाण्डेय जी का जीवन परिचय एवं रचनाएं

shyam narayan Pandey ji ka jivan Parichay avm rachnaye

                 संक्षिप्त परिचय

नाम

श्याम नारायण पाण्डेय

जन्म


1907 ई.

जन्म स्थान

डुमराँव गाँव, उत्तर प्रदेश


मृत्यु

1991 ई. डुमराँव

मृत्यु स्थान

डुमराँव

काव्य कृतियाँ

'हल्दीघाटी', 'जौहर','तुमुल', 'रूपान्तर','आरती', तथा 'जय हनुमान' आदि।


साहित्य में योगदान

वीर रस के सुविख्यात हिन्दी कवि।




जीवन-परिचय

श्याम नारायण पाण्डेय का जन्म श्रावण कृष्ण पंचमी को सन् 1907 में डुमराँव गाँव, आजमगढ़ उत्तर प्रदेश में हुआ था। आरम्भिक शिक्षा के बाद श्याम नारायण पाण्डेय संस्कृत अध्ययन के लिए काशी (बनारस) आए। काशी विद्यापीठ से वे साहित्याचार्य की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। स्वभाव से सात्विक, हृदय से विनोदी और आत्मा से निर्भीक स्वभाव वाले पाण्डेय जी के स्वस्थ्य-पुष्ट व्यक्तित्व में शौर्य, सत्त्व और सरलता का अनूठा मिश्रण था। संस्कार द्विवेदीयुगीन, दृष्टिकोण उपयोगितावादी और भाव-विस्तार मर्यादावादी थे। लगभग दो दशकों से ऊपर वे हिन्दी कवि-सम्मेलनों के मंच पर अत्यन्त लोकप्रिय रहे। उन्होंने आधुनिक युग में वीर काव्य की परम्परा को खड़ी बोली के रूप में प्रतिष्ठित किया। पाण्डेय जी का देहान्त वर्ष 1991 में डुमराँव नामक ग्राम में हुआ था।

साहित्यिक परिचय

श्याम नारायण पाण्डेय आधुनिक काव्य धारा के प्रमुख वीर कवियों में से एक थे। वीर काव्य को इन्होंने अपनी कविताओं का मुख्य विषय बनाया। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को अपने काव्य का आधार बनाकर इन्होंने पाठकों पर गहरी छाप छोड़ी है।

कृतियाँ (रचनाएँ)

श्याम नारायण पाण्डेय ने चार उत्कृष्ट महाकाव्यों की रचना की थी, जिनमें से 'हल्दीघाटी (1937-39 ई.)' और 'जौहर (1939-44 ई.)' को अत्यधिक प्रसिद्धि मिली। 'हल्दीघाटी' में वीर राणा प्रताप के जीवन और 'जौहर' में चित्तौड़ की रानी पद्मिनी के आख्यान हैं। इनके अतिरिक्त पाण्डेय जी की रचनाएँ निम्नलिखित हैं। तुमुल (1948 ई.), रूपान्तर (1948), आरती (1945-46 ई.), 'जय हनुमान' (1956 ई.) ।

तुमुल 'त्रेता के दो वीर' नामक खण्ड काव्य का परिवर्धित संस्करण है, जबकि 'माधव', 'रिमझिम',' आँसू के कण' और 'गोरा वध' उनकी प्रारम्भिक लघु कृतियाँ हैं।

भाषा-शैली

श्याम नारायण पाण्डेय ने अपने काव्यों में खड़ी बोली का प्रयोग किया है। श्याम नारायण पाण्डेय वीर रस के सुविख्यात हिन्दी कवि थे। इनके काव्यों में वीर रस के साथ-साथ करुण रस का गम्भीर स्थान है। पाण्डेय जी ने काव्य में गीतात्मक शैली के साथ-साथ मुक्त छन्द का प्रयोग किया है। भाषा में सरलता और सहजता इस स्तर पर है कि उनके सम्पूर्ण काव्य के पाठन में चित्रात्मक शैली के गुण दिखाई पड़ते हैं।

हिन्दी साहित्य में स्थान

श्याम नारायण पाण्डेय जी हिन्दी साहित्य के महान् कवियों में से एक के हैं। इन्होंने इतिहास को आधार बनाकर महाकाव्यों की रचना की, जोकि हिन्दी साहित्य में सराहनीय प्रयास रहा। द्विवेदी युग के इस रचनाकार को वीरग्रन्थात्मक काव्य सृजन के लिए हिन्दी साहित्य में अद्वितीय स्थान दिया जाता है।

गोस्वामी तुलसीदास जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय तथा रचनाएं

गोस्वामी तुलसीदास जी का जीवन परिचय एवं रचनाएं

tulsedas ji ka jivan parichay aur rachnaye

               संक्षिप्त परिचय

नाम

गोस्वामी तुलसीदास

जन्म

1532 ई.

जन्म स्थान

राजापुर गाँव


पिता का नाम

आत्माराम दुबे

माता का नाम

हुलसी

पत्नी का नाम

रत्नावली


शिक्षा

सन्त बाबा नरहरि दास ने भक्ति की शिक्षा वेद-वेदांग, दर्शन, इतिहास, पुराण आदि की शिक्षा दी।

भक्ति

राम भक्ति

प्रसिद्ध महाकाव्य

'रामचरितमानस'

उपलब्धि

लोकमानस कवि


साहित्य में योगदान

हिन्दी साहित्य में कविता की सर्वतोन्मुखी उन्नति।

मृत्यु

1623 ई.

मृत्यु का स्थान

काशी

जीवन-परिचय

लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास भारत के ही नहीं, सम्पूर्ण मानवता तथा संसार के कवि हैं। उनके जन्म से सम्बन्धित प्रामाणिक सामग्री अभी तक प्राप्त नहीं हो सकी है। इनका जन्म 1532 ई. (भाद्रपद शुक्ल पक्ष एकादशी, विक्रम संवत् 1589) स्वीकार किया गया है। तुलसीदास जी के जन्म और जन्म स्थान के सम्बन्ध को लेकर सभी विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं। इनके जन्म के सम्बन्ध में एक दोहा प्रचलित है

"पंद्रह सौ चौवन बिसै, कालिंदी के तीर। श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी धर्यो सरीर ।। "

'तुलसीदास' का जन्म बाँदा जिले के 'राजापुर' गाँव में माना जाता है। कुछ विद्वान् इनका जन्म स्थल एटा जिले के 'सोरो' नामक स्थान को मानते हैं। तुलसीदास जी सरयूपारीण ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे एवं माता का नाम हुलसी था। कहा जाता है कि अभुक्त मूल-नक्षत्र में जन्म होने के कारण इनके माता-पिता ने इन्हें बाल्यकाल में ही त्याग दिया था। इनका बचपन अनेक कष्टों के बीच व्यतीत हुआ।

इनका पालन-पोषण प्रसिद्ध सन्त नरहरिदास ने किया और इन्हें ज्ञान एवं भक्ति की शिक्षा प्रदान की। इनका विवाह पण्डित दीनबन्धु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था। इन्हें अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम था और उनके सौन्दर्य रूप के प्रति वे अत्यन्त आसक्त थे। एक बार इनकी पत्नी बिना बताए मायके चली गईं तब ये भी अर्द्धरात्रि में आँधी-तूफान का सामना करते हुए उनके पीछे-पीछे ससुराल जा पहुँचे। इस पर इनकी पत्नी ने उनकी भर्त्सना करते हुए कहा

"लाज न आयी आपको दौरे आयेहु साथ।"

पत्नी की इस फटकार ने तुलसीदास जी को सांसारिक मोह-माया से विरक्त कर दिया और उनके हृदय में श्रीराम के प्रति भक्ति भाव जाग्रत हो उठा। तुलसीदास जी ने अनेक तीर्थों का भ्रमण किया और ये राम के अनन्य भक्त बन गए। इनकी भक्ति दास्य-भाव की थी। 1574 ई. में इन्होंने अपने सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य 'रामचरितमानस' की रचना की तथा मानव जीवन के सभी उच्चादर्शों का समावेश करके इन्होंने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया। 1623 ई. में काशी में इनका निधन हो गया।

साहित्यिक परिचय

तुलसीदास जी महान् लोकनायक और श्रीराम के महान् भक्त थे। इनके द्वारा रचित 'रामचरितमानस' सम्पूर्ण विश्व साहित्य के अद्भुत ग्रन्थों में से एक है। यह एक अद्वितीय ग्रन्थ है, जिसमें भाषा, उद्देश्य, कथावस्तु, संवाद एवं चरित्र-चित्रण का बड़ा ही मोहक चित्रण किया गया है। इस ग्रन्थ के माध्यम से इन्होंने जिन आदर्शों का भावपूर्ण चित्र अंकित किया है, वे युग-युग तक मानव समाज का पथ-प्रशस्त करते रहेंगे। इनके इस ग्रन्थ में श्रीराम के चरित्र का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। मानव जीवन के सभी उच्च आदर्शों का समावेश करके इन्होंने श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया है। तुलसीदास जी ने सगुण-निर्गुण, ज्ञान-भक्ति, शैव-वैष्णव और विभिन्न मतों एवं सम्प्रदायों में समन्वय के उद्देश्य से अत्यन्त प्रभावपूर्ण भावों की अभिव्यक्ति की।

कृतियाँ (रचनाएँ)

महाकवि तुलसीदास जी ने बारह ग्रन्थों की रचना की। इनके द्वारा रचित महाकाव्य रामचरितमानस सम्पूर्ण विश्व के अद्भुत ग्रन्थों में से एक है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित है

1. रामलला नहछू गोस्वामी तुलसीदास ने लोकगीत की सोहर' शैली में इस ग्रन्थ की रचना की थी। यह इनकी प्रारम्भिक रचना है।

2. वैराग्य-सन्दीपनी इसके तीन भाग हैं, पहले भाग में छः छन्दों में मंगलाचरण है तथा दूसरे भाग में 'सन्त-महिमा वर्णन' एवं तीसरे भाग में 'शान्ति-भाव वर्णन है।

3. रामाज्ञा प्रश्न यह ग्रन्थ सात सर्गों में विभाजित है, जिसमें शुभ-अशुभ शकुनी का वर्णन है। इसमें रामकथा का वर्णन किया गया है।

4. जानकी-मंगल इसमें कवि ने श्रीराम और जानकी के मंगलमय विवाह उत्सव का मधुर वर्णन किया है। 5. रामचरितमानस इस विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के सम्पूर्ण जीवन के चरित्र का वर्णन किया गया है।

6. पार्वती-मंगल यह मंगल काव्य है, इसमें पूर्वी अवधि में 'शिव-पार्वती के विवाह' का वर्णन किया गया है। गेय पद होने के कारण इसमें संगीतात्मकता का गुण भी विद्यमान है।

7. गीतावली इसमें 230 पद संकलित हैं, जिसमें श्रीराम के चरित्र का वर्णन किया गया है। कथानक के आधार पर ये पद सात काण्डों में विभाजित हैं।

8. विनयपत्रिका इसका विषय भगवान श्रीराम को कलियुग के विरुद्ध प्रार्थना-पत्र देना है। इसमें तुलसी भक्त और दार्शनिक कवि के रूप में प्रतीत होते हैं। इसमें तुलसीदास की भक्ति-भावना की पराकाष्ठा देखने को मिलती है।

9. गीतावली इसमें 61 पदों में कवि ने ब्रजभाषा में श्रीकृष्ण के मनोहारी रूप का वर्णन किया है।

10. बरवै-रामायण यह तुलसीदास की स्फुट रचना है, जिसमें श्रीराम कथा संक्षेप में वर्णित है। बरवै छन्दों में वर्णित इस लघु काव्य में अवधि भाषा का प्रयोग किया गया है।

11. दोहावली इस संग्रह ग्रन्थ में कवि की सूक्ति शैली के दर्शन होते हैं। इसमें दोहा शैली में नीति, भक्ति और राम महिमा का वर्णन है।

12. कवितावली इस कृति में कवित्त और सवैया शैली में रामकथा का वर्णन किया गया है। यह ब्रजभाषा में रचित श्रेष्ठ मुक्तक काव्य है।

भाषा-शैली

तुलसीदास जी ने अवधी तथा ब्रज दोनों भाषाओं में अपनी काव्यगत रचनाएँ लिखीं। रामचरितमानस अवधी भाषा में है, जबकि कवितावली, गीतावली, विनयपत्रिका आदि रचनाओं में ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है। रामचरितमानस में प्रबन्ध शैली, विनयपत्रिका में मुक्तक शैली और दोहावली में साखी शैली का प्रयोग किया गया है। भाव-पक्ष तथा कला-पक्ष दोनों ही दृष्टियों से तुलसीदास का काव्य अद्वितीय है। तुलसीदास जी ने अपने काव्य में तत्कालीन सभी काव्य-शैलियों का प्रयोग किया है। दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया, पद आदि काव्य शैलियों में कवि ने काव्य रचना की है। सभी अलंकारों का प्रयोग करके तुलसीदास जी ने अपनी रचनाओं को अत्यन्त प्रभावोत्पादक बना दिया है।

हिन्दी साहित्य में स्थान

गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं, इन्हें समाज का पथ-प्रदर्शक कवि कहा जाता है। इसके द्वारा हिन्दी कविता की सर्वतोमुखी उन्नति हुई। मानव प्रकृति के जितने रूपों का सजीव वर्णन तुलसीदास जी ने किया है, उतना अन्य किसी कवि ने नहीं किया। तुलसीदास जी को मानव-जीवन का सफल पारखी कहा जा सकता है। वास्तव में तुलसीदास जी हिन्दी के अमर कवि हैं, जो युगों-युगों तक हमारे बीच जीवित रहेंगे।

केदारनाथ सिंह जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय तथा रचनाएं    

केदारनाथ सिंह जी का जीवन परिचय एवं रचनाएं

kedarnath singh ji ka jivan parichay aur rachnaye

              संक्षिप्त परिचय

नाम

केदारनाथ सिंह

जन्म

वर्ष 1934

जन्म-स्थान

चकिया गाँव, बलिया जिला (उत्तर प्रदेश)

शिक्षा

हिन्दी एम.ए. (बनारस विश्वविद्यालय) पी.एच.डी

कृतियाँ

'अभी बिल्कुल अभी', 'जमीन पक रही है', 'यहाँ से देखो', 'अकाल में सारस', 'बाघ', 'टॉल्सटॉय और साइकिल'

उपलब्धियाँ

साहित्य अकादमी पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, कुमारन आशातन पुरस्कार, दिनकर पुरस्कार, जीवन भारती सम्मान, व्यास सम्मान, शलाका सम्मान, ज्ञानपीठ पुरस्कार। 


साहित्य में योगदान

केदारनाथ सिंह साहित्य में मानव-मूल्य, भ्रष्टाचार, विषमता और मूल्यहीनता जैसे विषयों का सृजन कर प्रगतिशील कवियों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं, जो सदैव ही बना रहेगा।

जीवन परिचय

समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर श्री केदारनाथ सिंह का जन्म वर्ष 1934 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में चकिया नामक गाँव में हुआ था। उन्होंने बनारस विश्वविद्यालय से वर्ष 1956 में हिन्दी में एम. ए. और वर्ष 1964 में पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। वे अनेक कॉलेजों में पढ़ाते हुए अन्त में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में हिन्दी के विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए। हिन्दी साहित्य की उत्कृष्ट सेवाओं के लिए उन्हें अनेक सम्मानों द्वारा सम्मानित किया गया। उनकी कविता में गाँव एवं शहर का द्वन्द्व स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। 'बाघ' नामक लम्बी कविता को नई कविता के क्षेत्र में मील का पत्थर माना जाता है।

श्री केदारनाथ सिंह को उनकी कविता 'अकाल में सारस' के लिए वर्ष 1989 का साहित्य अकादमी पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, दिनकर सम्मान, जीवन भारती सम्मान और व्यास सम्मान दिया गया है। हिन्दी साहित्य अकादमी के वर्ष 2009-10 के प्रतिष्ठित और सर्वोच्च शलाका सम्मान से उन्हें सम्मानित किया गया, पर यह सम्मान उन्होंने ठुकरा दिया। साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' वर्ष 2013 का प्रो. केदारनाथ को प्रदान किया गया। केदारनाथ सिंह की कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता है-अपनी संस्कृति, सभ्यता, भाषायी सिद्धपन, मानवता और अपनी ज़मीन से जुड़े रहना। इनसे उनका जुड़ाव शाश्वत और सकारात्मक है। उनकी कविताओं में सर्वत्र निराशा में भी आशा की किरण दिखाई देती है, पतझड़ में वसन्त की आहट सुनाई देती है। जन-जन में मानव मूल्यों के संचार का प्रयास भी हर पद में दिखाई देता है। उनकी यह विशेषता उन्हें अन्य कवियों से सबसे अलग, किन्तु उच्च स्तर पर खड़ा करती है। किन्तु उसकी प्रवाहमयता नदी के समान अविरल है। वे काव्य की भाषा का परिष्कार करते हुए दिखाई देते हैं। उनका झुकाव भाषा की मुक्ति की ओर है।

कृतियाँ (रचनाएँ)

केदारनाथ सिंह की प्रमुख कृतियाँ निम्नांकित हैं-अभी बिलकुल अभी, ज़मीन पक रही है, यहाँ से देखो, अकाल में सारस, उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ-बाघ, टॉल्सटॉय और साइकिल ।

भाषा-शैली

केदारनाथ सिंह की भाषा अत्यन्त सरल व स्पष्ट है। इनकी भाषा के सम्बन्ध में कहा गया है कि भाषा को लेकर यह निरन्तर निरीक्षण करते दिखाई देते हैं कि भाषा कहाँ है, कैसे बचेगी और कहाँ विफल है. और कहाँ विकसित किए जाने की आवश्यकता है। इनकी शैली मानव-मूल्यों के संचार के लिए सदैव प्रयासरत रही है, जिसमें मनुष्य की कभी न नष्ट होने वाली ऊर्जा तथा अदम्य जीजिविषा है। इन्होंने मुक्तक शैली का प्रयोग किया है।

हिन्दी साहित्य में स्थान

केदारनाथ सिंह समकालीन कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे भाषा की मुक्ति चाहते हैं, पर उसमें गुणात्मक परिवर्तन भी करते रहते है। यह सुधार उनकी कविता तक ही सीमित नहीं रहता है। अपनी कृतियों के माध्यम से उन्होंने हिन्दी साहित्य को अत्यधिक समृद्ध किया है। हिन्दी साहित्य जगत् में उन्हें उच्च स्थान प्राप्त है।

पदुमलाल पुन्ना लाल बख्शी जी का जीवन परिचय

पदुमलाल पुन्ना लाल बख्शी जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय

जीवन-परिचय

द्विवेदी युग के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का जन्म 1894 ई. में छत्तीसगढ़ राज्य के खैरागढ़ नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम श्री उमराव बख्शी और पितामह का नाम बाबा पुन्नालाल बख्शी था। इन दोनों का साहित्य से विशेष लगाव था। इनकी माता भी साहित्यानुरागिनी थीं। ऐसे ही परिवेश में इस लेखक का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा हुई। अतः परिवार के साहित्यिक वातावरण का गहरा प्रभाव इनके मन पर भी पड़ा और ये विद्यार्थी जीवन से ही कविता लिखने लगे। बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् इन्होंने साहित्य-सेवा को अपना लक्ष्य बनाया। इन्होंने कहानी और कविता लेखन शुरू किया, जो 'हितकारिणी' और उत्तरोत्तर अन्य पत्रों में छपने लगा। द्विवेदीजी के सम्पर्क में आने पर इनकी रचनाएँ 'सरस्वती' पत्रिका में छपने लगीं। इनके लेखन कौशल से द्विवेदीजी इतने प्रभावित थे कि 'सरस्वती' पत्रिका का सम्पादन इनके हाथों में सौंपकर निश्चिन्त हो गए। कई वर्षों तक इस पत्रिका का सम्पादन करने के उपरान्त ये खैरागढ़ चले गए और शिक्षण कार्य करने लगे। सन् 1971 में 77 वर्ष की आयु में यह साहित्यकार इस दुनिया को छोड़कर चला गया।

रचनाएँ – बख्शीजी मननशील विद्वान् तथा बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इन्होंने साहित्य, कला, नाटक, काव्य और आलोचना आदि से सम्बन्धित विषयों की रचनाएँ कीं। इनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं

काव्य संग्रह –  शतदल और अश्रुदल।

कहानी संग्रह – अंजलि और झलमला।

आलोचना – विश्व साहित्य, हिन्दी साहित्य विमर्श, हिन्दी उपन्यास साहित्य, हिन्दी कहानी साहित्य आदि।

निबन्ध संग्रह – पंच-पात्र, प्रबन्ध-पारिजात, कुछ यात्री, कुछ बिखरे पन्ने और पद्मवन।

अनूदित रचनाएँ – प्रायश्चित, उन्मुक्ति का निबन्ध, तीर्थस्थल।

लघुकथा – 'झलमला' इनके द्वारा लिखी गई अत्यन्त प्रसिद्ध कहानी थी। बाल साहित्य से सम्बन्धित अनेक पुस्तकें भी इन्होंने लिखी थीं।

सम्पादन –  सरस्वती और छाया।

भाषा-शैली – बख्शी जी की भाषा का अपना एक आदर्श है। इनकी भाषा में जटिलता और रूखापन नहीं है। इनकी रचनाओं में यत्र-तत्र उर्दू के शब्द भी मिलते हैं, तो कहीं-कहीं अंग्रेजी के व्यावहारिक शब्दों का प्रयोग भी किया गया है। इन शब्दों के प्रयोग से भाषा की सरसता एवं प्रवाहमयता में वृद्धि हुई है। इनके निबन्धों में भावात्मक, व्याख्यात्मक और विचारात्मक शैलियों के दर्शन होते हैं।

हिन्दी साहित्य में स्थान

महावीरप्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आने से बख्शी जी की साहित्यिक प्रतिभा में निखार आया। इन्होंने कई प्रभावपूर्ण कृतियों की रचना की, जिससे इन्हें खूब प्रसिद्धि मिली। इनके निबन्ध उच्चकोटि के विचारात्मक, आलोचनात्मक एवं समीक्षात्मक श्रेणी के थे। इनकी कहानियाँ भावना प्रधान एवं मर्मस्पर्शी थीं। बख्शी जी एक कुशल सम्पादक एवं अनुवादक भी थे। इन्होंने अंग्रेज़ी एवं बांग्ला के कई नाटकों एवं कहानियों का अनुवाद कर हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाने में अपना योगदान दिया।

सुमित्रानंदन पन्त की पधाश रचना , चींटी और चन्द्रलोक में प्रथम बाररचनाओं की संदर्भ प्रसंग व्याख्या

              चींटी

चींटी को देखा ?

वह सरल, विरल, काली रेखा देखो ना, 

तम के तागे सी जो हिल-डुल,

चलती लघुपद पल-पल मिल-जुल

वह है पिपीलिका पाँति देखो ना किस भाँति 

काम करती वह सतत कन-कन कनके चुनती अविरत !

सन्दर्भ – प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रकृति के सुकुमार कवि 'सुमित्रानन्दन पन्त' द्वारा रचित 'युगवाणी' काव्य संग्रह में शामिल तथा हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में शामिल शीर्षक 'चींटी' से उद्धृत हैं।

प्रसंग – इन पंक्तियों में कवि ने चींटी जैसे तुच्छ प्राणी की निरन्तर गतिशीलता का निर्भय होकर विचरण करने, कभी हार न मानने जैसी प्रवृत्ति का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि क्या तुमने कभी चींटी को देखा है? वह अत्यन्त सरल और सीधी है। वह पतली और काली रेखा की भाँति, काले धागे की भाँति हिलती-डुलती हुई, अपने छोटे-छोटे पैरों से प्रत्येक क्षण चलती है। वे सब एक पंक्ति में आगे-पीछे अर्थात् मिलकर होती हुई चलती हैं तथा देखने में काले धागे की रेखा-सी दिखती हैं।

कवि चींटी की गतिशीलता और निरन्तर परिश्रम करते रहने की विशेषता का वर्णन करते हुए कहता है कि वह पंक्तिबद्ध होकर निरन्तर अपने मार्ग पर बढ़ती चली जाती है। देखो! वह किस प्रकार बिना रुके काम करती रहती है, एक-एक कण एकत्रित करती है और अपने घर तक ले जाती है अर्थात् वह कभी हार नहीं मानती तथा लगातार अपने श्रम से, अपने परिवार के लिए भोजन को एकत्र करने के काम में लगी रहती है। चींटी श्रम की साकार व सजीव मूर्ति है, यद्यपि वह अत्यन्त लघु प्राणी है।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने चींटी के माध्यम से निरन्तर गतिशील रहने की प्रेरणा दी है।

भाषा गुण             साहित्यिक खड़ी बोली 

शैली                    वर्णनात्मक

रस                      वीर

गुण         ओज

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'हिल-डुल', 'पिपीलिका पाँति' और 'कन-कन कनके' में क्रमश: 'ल', 'प', 'क' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

उपमा अलंकार 'तम के तागे सी' और 'काली रेखा' यहाँ उपमेय में उपमान की समानता को व्यक्त किया गया है, इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'पल-पल' और 'कन-कन' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

            चन्द्रलोक में प्रथम बार

 2.चन्द्रलोक में प्रथम बार, मानव ने किया पदार्पण,

छिन्न हुए लो, देश काल के,

दिग्-विजयी मनु-सुत,

निश्चय, यह महत् ऐतिहासिक क्षण,

भू-विरोध हो शांत। निकट आएँ सब देशों के जन। 

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के 'काव्यखण्ड' से 'चन्द्रलोक में प्रथम बार' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित 'ऋता' काव्य संग्रह से ली गई है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने मानव के चन्द्रमा पर पहुँचने की ऐतिहासिक घटना के महत्त्व को व्यक्त किया है। यहाँ कवि ने उन सम्भावनाओं का वर्णन किया है, जो मानव के चन्द्रमा पर पैर रखने से साकार होती प्रतीत होती हैं।

व्याख्या – कवि कहता है कि जब चन्द्रमा पर प्रथम बार मानव ने अपने कदम रखे तो ऐसा करके उसने देश-काल के उन सारे बन्धनों, जिन पर विजय पाना कठिन माना जाता था, उन्हें छिन्न-भिन्न कर दिया। मनुष्य को यह विश्वास हो गया कि इस ब्रह्माण्ड में कोई भी देश और ग्रह-नक्षत्र अब दूर नहीं है। आज निश्चय ही मानव ने दिग्विजय प्राप्त कर ली है अर्थात् उसने समस्त दिशाओं को जीत लिया है। यह एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक क्षण है कि अब सभी देशों के निवासी मानवों को परस्पर विरोध समाप्त कर एक-दूसरे के निकट आना चाहिए और प्रेम से रहना चाहिए। सम्पूर्ण विश्व ही एक देश में परिवर्तित हो जाए तथा सभी देशों के मनुष्य एक-दूसरे के निकट आएँ, यही कवि की मंगलकामना है।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने स्पष्ट किया है कि आधुनिक व ज्ञानिक समय ने सम्पूर्ण विश्व को एकता के सूत्र में बाँध दिया है।

भाषा           साहित्यिक खड़ी-बोली

गुण              ओज

शैली             प्रतीकात्मक

छन्द          तुकान्त मुक्त 

रस             वीर

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'बाधा बंधन' में 'ब' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

(3) अणु-युग बने धरा जीवन हित 

स्वर्ग-सृजन का साधन,मानवता ही विश्व सत्य

भू-राष्ट्र करें आत्मार्पण।

धरा चन्द्र की प्रीति परस्पर जगत प्रसिद्ध, पुरातन, हृदय-सिन्धु में उठता स्वर्गिक ज्वार देख चन्द्रानन!

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के 'काव्यखण्ड' से 'चन्द्रलोक में प्रथम बार' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित 'ऋता' काव्य संग्रह से ली गई है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कविवर 'सुमित्रानन्दन पन्त' ने अणु-युग के प्रति लोककल्याण की भावना को प्रकट किया है। कवि चाहता है कि विज्ञान का विकास मानव के कल्याण के लिए हो।

व्याख्या – कवि कामना करता है कि अणु-युग का विकास मानव जाति के कल्याण के लिए हो अर्थात् विज्ञान का प्रयोग मानव के विकास के लिए हो, जिससे यह पृथ्वी स्वर्ग के समान सुखी और सम्पन्न हो जाए। आपसी बैर-विरोध समाप्त हो जाए, भाईचारे की भावना उत्पन्न हो जाए और सब मिल-जुलकर रहें। इस संसार में केवल मानवता ही सत्य है। अतः सभी राष्ट्रों को अपनी स्वार्थ भावना का त्याग कर देना चाहिए।

कवि कहता है कि पृथ्वी और चन्द्रमा का प्रेम संसार में प्रसिद्ध हैं और यह अत्यन्त प्राचीन प्रेम सम्बन्ध है। ऐसी मान्यता है कि चन्द्रमा पहले पृथ्वी का ही एक भाग था, जो बाद में उससे अलग हो गया। आज भी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा को देखकर समुद्र के हृदय में ज्वार आता है, मानो यह पृथ्वी और चन्द्रमा के प्रेम का परिचायक हो। .

काव्य सौन्दर्य

कवि का मानना है कि विश्व की उन्नति तभी सम्भव होगी, जब हम आपसी भेदभाव भुलाकर परस्पर प्रेम से रहेंगे।

भाषा              साहित्यिक खड़ी-बोली

गुण                प्रसाद

शैली            प्रतीकात्मक एवं भावात्मक

रस।             शान्त

छन्द           तुकान्त-मुक्त

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'स्वर्ण सृजन' और 'प्रीति परस्पर' में क्रमशः 'स' तथा 'प' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

महादेवी वर्मा जी की गधांश रचना, हिमालय 'वर्षा सुन्दरी' के 'प्रति रचनाओं की संदर्भ,प्रसंग, व्याख्या, काव्य सौदंर्भ 

महादेवी वर्मा जी की गधांश रचनाओं की संदर्भ प्रसंग व्याख्या

            हिमालय 

  1. टूटी है तेरी कब समाधि, झंझा लौटे शत हार- हार; बह चला दृगों से किन्तु नीर! सुनकर जलते कण की पुकार ! सुख से विरक्त दुःख में समान!

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड 'हिमालय से शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित 'सान्ध्य गीत' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री ने हिमालय की दृढ़ता का वर्णन किया है, साथ ही उसके प्रति अपनी भावात्मक अनुभूति का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवयित्री कहती है कि हे हिमालय! तुम तो एक तपस्वी की भाँति समाधि लगाकर बैठे हो। तुम्हारी यह समाधि कब टूटी है? आँधी के सैकड़ों झटके तुम्हें लगे, पर वे तुम्हारा कुछ न बिगाड़ सकें। तुम विचलित नहीं हुए। वे स्वयं ही हार मान कर चले गए।

एक ओर तो तुम्हारे अन्दर इतनी दृढ़ता एवं कठोरता है कि कोई भी बाधा तुम्हारे मार्ग की रुकावट नहीं बन सकती और दूसरी ओर तुम इतने सहृदय और भावुक हो कि धूप में जलते हुए कण की पुकार सुनकर तुम्हारे नेत्रों से आँसुओं की धारा फूट पड़ती है। तुम किसी का दुःख नहीं देख सकते। तुम एक योगी हो जो सुख से विरक्त रहते हो अर्थात् सुख की कामना नहीं करते। तो तुम भाव सुख और दुःख स्थित रहते हो और यही भावना तुम्हारी उच्चता की प्रतीक है। 

काव्य सौन्दर्य

यहाँ हिमालय का मानवीकरण किया गया है। उसे वाले योगी के समान बताया है। सुख और दुःख में समान रहने वाले योगी के समान बताया है।

भाषा         खड़ी-बोली हिन्दी

गुण           माधुर्य

शैली           गीति

छन्द           अतुकान्त मुक्त

रस           शान्त 

शब्द-शक्ति      लक्षणा

अलंकार

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'हार-हार' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है। 

मानवीकरण अलंकार इस पद्यांश में समाधि' शब्द में मानवरूपी प्रस्तुति की गई है। अतः यहाँ मानवीकरण अलंकार है।

2.मेरे जीवन का आज मूक, 

तेरी छाया से हो मिलाप,

तन तेरी साधकता छू ले,

मन ले करुणा की थाह नाप!

उर में पावस दृग में विहान!

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड 'हिमालय से शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित 'सान्ध्य गीत' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री हिमालय को देखकर उसके गुणों को अपने मन में सहेजने की कामना करती है।

व्याख्या – महादेवी जी कहती हैं कि मैं तो यह कामना करती हूँ कि मैं अपने जीवन के मौन को तुम्हारी छाया में मिला दूँ अर्थात् वह हिमालय के गुणों को अपने आचरण में उतारना चाहती हैं। वह कामना करती हुई कहती है कि मेरा शरीर भी तुम्हारी तरह कठोर साधना शक्ति से परिपूर्ण हो और मेरा मन इतनी करुणा से भर जाए, जितनी करुणा तुम्हारे हृदय में भरी हुई है। मेरे हृदय में भी वर्षा का निवास है तथा नेत्रों में प्रात:कालीन सौन्दर्य भरा हुआ है अर्थात् मेरे हृदय में करुणा के कारण सरसता बनी रहे। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार हिमालय सारे कष्टों को सहन करता है, वैसे ही मैं भी संकटों से विचलित न होऊँ।

काव्य सौन्दर्य

कवयित्री हिमालय के गुणों को अपनाना चाहती है। वह स्वयं को हिमालय के समान साधना और करूणा से भरना चाहती है।

भाषा           खड़ी बोली हिन्दी

शैली           भावात्मक गीति

गुण              माधुर्य

रस              शान्त

छन्द          अतुकान्त-मुक्त

शब्द-शक्ति      लक्षणा

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'तन तेरी' में 'त' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

मानवीकरण अलंकार इस पद्यांश में हिमालय का मानवीकरण किया गया है। अतः यहाँ मानवीकरण अलंकार है।

         वर्षा सुन्दरी के प्रति

3.रूपसि तेरा घन-केश-पाश! श्यामल श्यामल कोमल कोमल, लहराता सुरभित केश-पाश! नभ- गंगा की रजतधार में धो आई क्या इन्हें रात ? कम्पित हैं तेरे सजल अंग, सिहरा सा तन हे सद्यस्नात! भीगी अलकों के छोरों से चूती बूँदें कर विविध लास! रूपसि तेरा घन-केश-पाश!

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड के 'वर्षा सुन्दरी' के 'प्रति' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित 'नीरजा' से लिया  गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में वर्षा का सुन्दरी के रूप में वर्णन किया गया है। इसमें वर्षा का मानवीकरण किया गया है। व्याख्या महादेवी जी कहती हैं कि हे वर्षा रूपी सुन्दरी! तेरे घने केश रूपी जाल बादलों के समान श्यामल हैं अर्थात् अत्यन्त कोमल हैं। ये सुगन्ध से भरकर लहरा रहे हैं। वह सुन्दरी से प्रश्न करती हैं कि क्या तू इन केशों को आकाशगंगा की चाँदी के समान श्वेत धारा में धोकर आई है? तेरे अंग भीगे हुए हैं और ठण्ड से कॉप रहे हैं। तेरा शरीर ऐसे सिहर रहा है, जैसे कोई महिला अभी-अभी स्नान करके आई हो। तेरे भीगे हुए बालों की लटों से जल की बूँदें टपक रही हैं, जो नृत्य करती हुई-सी प्रतीत होती हैं। हे सुन्दरी! तेरा यह बादलरूपी बालों का समूह अत्यन्त सुन्दर लग रहा है।

काव्य सौन्दर्य

यहाँ वर्षा का सुन्दरी के रूप में चित्रण किया गया है।

भाषा                साहित्यिक खड़ी बोली

गुण                  माधुर्य

छन्द              अतुकान्त मुक्त

शैली              चित्रात्मक 

रस               श्रृंगार

अलंकार

 पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'श्यामल श्यामल' और 'कोमल कोमल' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है। 

रूपक अलंकार 'रूपसि तेरा घन-केश-पाश!' में बादलरूपी घने बालों के समूह का वर्णन किया गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।

 मानवीकरण अलंकार पूरे पद्यांश में वर्षा का सुन्दरी के रूप में चित्रण कर प्रकृति का मानवीकरण किया गया है, जिस कारण यहाँ मानवीकरण अलंकार है।

4.सौरभ भीना झीना गीला लिपटा मृदु अंजन-सा दुकूल; चल अंचल से झर झर झरते पथ में जुगनू के स्वर्ण फूल;दीपक से देता बार-बार तेरा उज्ज्वल चितवन-विलास! रूपसि तेरा घन-केश-पाश!

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड के 'वर्षा सुन्दरी' के 'प्रति' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित 'नीरजा' से लिया  गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में वर्षा का सुन्दरी के रूप में सजीव चित्रण किया गया है।

व्याख्या – कवयित्री वर्षा को सम्बोधित करती हुई कहती है कि हे वर्षारूपी सुन्दरी! तेरे शरीर पर सुगन्ध से भरा महीन, गीला, कोमल और श्याम वर्ण का रेशमी वस्त्र लिपटा हुआ है, जो आँखों के काजल के समान प्रतीत हो रहा है अर्थात् यह काले बादल इस तरह प्रतीत हो रहे हैं जैसे किसी सुन्दरी के सुगन्धित, कोमल और काले रंग के वस्त्र हो । तेरे चंचल आँचल से रास्ते में जुगनू रूपी स्वर्ण निर्मित फूल झर रहे हैं। बादलों में चमकती बिजली तुम्हारी उज्ज्वल दृष्टि है। जब तुम अपनी ऐसी सुन्दर दृष्टि किसी पर डालती हो तो उसके मन में प्रेम के दीपक जगमगाने लगते हैं। हे रूपवती वर्षा सुन्दरी! तेरे ये बादलरूपी घने केश अत्यधिक सुन्दर हैं। काव्य सौन्दर्य वर्षा का मानवीकरण किया गया है।

भाषा          साहित्यिक खड़ी बोली

रस           श्रृंगार

शैली         चित्रात्मक

छन्द        चित्रात्मक

गुण         माधुर्य

अलंकार

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'झर-झर' और 'बार-बार' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है। 

उपमा अलंकार 'मृदु अंजन-सा दुकूल में रेशमी वस्त्र को काजल सा बताया गया है अर्थात् उपमेय में उपमान की समानता है, जिस कारण यहाँ उपमा अलंकार है।

रूपक अलंकार 'जुगनू के स्वर्ण फूल' में तारों का वर्णन स्वर्ण रूपी फूल के समान किया गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।

5.उच्छ्वसित वक्ष पर चंचल है तेरी निश्वासें छू भू को केकी-रव की नूपुर-ध्वनि सुन रूपसि तेरा घन-केश-पाश!बक-पाँतों का अरविन्द-हार;

बन बन जाती मलयज बयार, जगती-जगती की मूक प्यास!

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड के 'वर्षा सुन्दरी' के 'प्रति' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित 'नीरजा' से लिया  गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में वर्षा का मानवीकरण कर उसका सुन्दरी के रूप में चित्रण किया गया है।

व्याख्या – कवयित्री कहती हैं कि हे वर्षा रूपी सुन्दरी! दीर्घ श्वास के कारण तेरा वक्षस्थल कम्पित हो रहा है, जिसके कारण बगुलों की पंक्ति रूपी कमल के फूलों की माला चंचल-सी प्रतीत हो रही है। जब तुम्हारे मुख से निकली बूँदरूपी साँसे पृथ्वी पर गिरती हैं, तो उनके पृथ्वी के स्पर्श से उठने वाली एक प्रकार की महक मलयगिरि की सुगन्धित वायु प्रतीत होती है तुम्हारे आने पर चारों ओर नृत्य करते हुए मोरों की मधुरध्वनि सुनाई पड़ने लगती है, जोकि तुम्हारे पैरों में बँधे हुए घुंघरुओं के समान मालूम पड़ती है। जिसको सुनकर लोगों के मन में मधुर प्रेम की प्यास जाग्रत होने लगती है।तात्पर्य यह है कि मोरों की मधुर आवाज से वातावरण में जो मधुरता छा जाती है, वह लोगों को आनन्द और उल्लास से जीने की प्रेरणा प्रदान करती है। हे वर्षा रूपी सुन्दरी! तेरा केश रूपी पाश काले-काले बादलों के समान है।

काव्य सौन्दर्य

यहाँ प्रकृति का मानवीकरण हुआ है।

भाषा       साहित्यिक खड़ी बोली 

शैली       चित्रात्मक

छन्द।      अतुकान्त मुक्त

 रस          श्रृंगार 

गुण        माधुर्य

अलंकार

 अनुप्रास अलंकार 'जगती-जगती' में 'ज', 'ग' और 'त' वर्ण की पुनरावृत्ति हो रही है, जिस कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

 यमक अलंकार यहाँ जगती-जगती में दो अर्थ जाग्रत होना, संसार का प्रयोग हो रहा है, जिस कारण यहाँ यमक अलंकार है। 

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'बन बन' और 'जगती जगती' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

6.इन स्निग्ध लटों से छा दे तन  झुक सस्मित शीतल चुम्बन से दुलरा दे ना, बहला दे ना दे रूपसि तेरा घन-केश-पाश!पुलकित अंकों में भर विशाल; अंकित कर इसका मृदुल भाल; यह तेरा शिशु जग है उदास!

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड के 'वर्षा सुन्दरी' के 'प्रति' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित 'नीरजा' से लिया  गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री ने वर्षा में मातृत्व की और संसार में उसके शिशु की कल्पना की है।

व्याख्या कवयित्री वर्षारूपी सुन्दरी से आग्रह करती है कि हे वर्षा सुन्दरी ! तुम अपने कोमल बालों की छाया में इस संसाररूपी अपने शिशु को समेट लो।उसे अपनी रोमांचित और विशाल गोद में रखकर, के साथ चूम लो। हे सुन्दरी ! उसके मस्तक को मुस्कुराहट तुम्हारे बादलरूपी बालों की छाया से, मधुर चुम्बन और दुलार से इस संसाररूपी शिशु का मन बहल जाएगा और उसकी उदासी भी दूर हो जाएगी। हे वर्षारूपी सुन्दरी! तुम्हारी बादलरूपी काली केश राशि बड़ी मोहक प्रतीत हो रही है।

काव्य सौन्दर्य

भाषा         साहित्यिक खड़ी बोली

शैली         चित्रात्मक और भावात्मक

गुण          माधुर्य

रस         शृंगार और वात्सल्य

छन्द        अतुकान्त-मुक्त

अलंकार

रूपक अलंकार 'शिशु जग' में उपमेय में उपमान का आरोप है,इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।

मानवीकरण अलंकार इस पद्यांश में वर्षा को माता एवं पृथ्वी को पुत्र के रूप में वर्णित किया गया है। अतः यहाँ मानवीकरण अलंकार है

 माखन लाल चतुर्वेदी की गद्यांश रचना 'पुष्प की अभिलाषा' और जवानी , का सन्दर्भ, प्रसंग, व्याख्या, काव्य सौन्दर्य

गद्यांश रचना 'पुष्प की अभिलाषा' और जवानी , की संदर्भ, प्रसंग, व्याख्या, काव्य सौन्दर्य

                पुष्प की अभिलाषा

  1. चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ, चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ, चाह नहीं, सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ, चाह नहीं, देवों के सिर पर चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ, मुझे तोड़ लेना बनमाली, उस पथ में देना तुम फेंक। तृ-भूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'हिन्दी' के काव्यखण्ड 'पुष्प की अभिलाषा' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित 'युगचरण' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने पुष्प के माध्यम से मातृभूमि पर बलिदान होने की प्रेरणा दी है।

व्याख्या – कवि स्वयं को पुष्प मानकर अपनी अभिलाषा प्रकट करते हुए कहते हैं कि हे ईश्वर! मेरी यह अभिलाषा नहीं है कि मैं देवकन्या के आभूषणों में जड़कर उसके शृंगार की वस्तु बनूँ और न ही मेरी इच्छा पुष्पों की सुन्दर माला में गुँथकर प्रेमिका को रिझाने की है। वह कहता है कि हे ईश्वर! मेरी यह भी अभिलाषा नहीं है कि मैं सम्राटों के पार्थिव शरीर पर चढ़ाया जाऊँ और न ही मेरी इच्छा देवों के मस्तक पर सुशोभित होकर गर्व से इठलाने की है। वह कहता है कि मेरी तो केवल यही इच्छा है कि हे वनमाली! तुम मुझे उस पथ पर बिखेर देना, जिससे हमारी मातृ-भूमि के रक्षक, वीर सैनिक गुजरें। मैं उनके चरणों के स्पर्श से ही स्वयं को सौभाग्यशाली व गौरवान्वित अनुभव करूंगा, क्योंकि उनके चरणों का स्पर्श ही देश के बलिदानी वीरों के लिए सच्ची श्रद्धांजलि है।

काव्य सौन्दर्य

काव्यांश में पुष्प की अभिलाषा मुखरित हुई है। वह भी अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान होने का भाव प्रकट कर रहा है।

भाषा           सरल खड़ी बोली 

शैली         प्रतीकात्मक, आत्मपरक तथा भावात्मक

गुण          ओज

छन्द        तुकान्त मुक्त

शब्द-शक्ति         अभिधा एवं लक्षणा

अलंकार 

अनुप्रास अलंकार 'चाह नहीं', 'प्रेमी-माला', 'लेना बनमाली' और 'जिस पथ जायें वीर' में क्रमशः 'ह', 'म', 'न' और 'व' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

                    जवानी

  1. पहन ले नर-मुंड-माला,उठ स्वमुंड सुमेरु कर ले, भूमि-सा तू पहन बाना आज धानी, प्राण तेरे साथ हैं, उठ री जवानी!द्वार बलि का खोल चल,भूडोल कर दें,एक हिम-गिरि एक सिर, का मोल कर दें,मसल कर,अपने इरादों सी, उठा कर,दो हथेली हैं कि पृथ्वी गोल कर दें?रक्त है?या है नसों में क्षुद्र पानी! जाँच कर, तू सीस दे-देकर जवानी?

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'काव्यखण्ड' के 'जवानी' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित 'हिमकिरीटनी' से ली गई है।

प्रसंग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रवादी कवि हैं। 'जवानी' कविता से वे देश के युवाओं को उद्बोधित और प्रेरित करते हुए उन्हें उत्साहित कर रहे हैं कि वे देश की वर्तमान परिस्थिति को बदल दें।

व्याख्या वह कहते हैं कि यदि समर्पण की स्थिति आ जाए तो तुम देश के लिए खुद को समर्पित भी कर दो, पीछे मत हटो; जैसे- पृथ्वी हरे धानों की हरियाली से जीवन्त हो उठती है, वैसे ही युवा भी उत्साह से भर कर अपने नियत कार्य को करें। जीवन का उद्गम उनका प्राण साथ में है। अत: उस प्राणशक्ति के साथ आलस्य का त्याग करके अपने कर्त्तव्यों का पालन युवा वर्ग करें तथा आगे बढ़े।

कवि युवाओं को सम्बोधित करते हुए कह रहे हैं कि हे युवा वर्ग! तुम अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान का द्वार खोल दो। तुम चलो, आगे बढ़ो। तुम्हारे आगे बढ़ते उत्साहित कदमों में इतनी शक्ति हो कि उस पैर से पृथ्वी कम्पित हो उठे। हिमालय की रक्षा के लिए तुम सब अपने एक-एक सिर को समर्पित कर दो, अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दो। तुम्हारे इरादे (संकल्प) अत्यन्त मजबूत हो और तुम अपने इरादे रूपी हथेलियों को ऊंचे संकल्पों के समान उठाकर पृथ्वी को मसलकर गोल कर दो अर्थात् तुम अपने संकल्पों को दृढ़ करके कठिन से कठिन काम करने में सामर्थ्यवान बनो। हे वीरों! तुम अपनी युवावस्था की परख अपने शीश देकर कर सकते हो। इस बलिदानी परीक्षण से तुम्हें यह भी ज्ञात हो जाएगा कि तुम्हारी धमनियों में शक्तिशाली रक्त दौड़ रहा है अथवा उनमें केवल शक्तिहीन पानी ही भरा हुआ है।

काव्य सौन्दर्य

भाषा      शुद्ध परिमार्जित खड़ी बोली

गुण       ओज

छन्द       तुकान्त मुक्त

शैली         भावात्मक, उद्बोधन

रस                वीर

शब्द-शक्ति।        व्यंजना

अलंकार

'स्वमुण्ड सुमेरु', 'पहन बाना', 'बलि का खोल चल' आदि में अनुप्रास अलंकार तथा अपने इरादों सी उठा कर में रूपक अलंकार है।

  1. वह कली के गर्भ से फल रूप में, अरमान आया।देख तो मीठा इरादा, किस तरह, सिर तान आया! डालियों ने भूमि रुख लटका दिए फल, देख आली! मस्तकों को दे रही संकेत कैसे, वृक्ष डाली।

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'काव्यखण्ड' के 'जवानी' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित 'हिमकिरीटनी' से ली गई है।

प्रसंग प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने अपनी वाणी में वृक्ष और उसके फलों के माध्यम से युवकों को देश के लिए बलिदान होने की प्रेरणा प्रदान की है।

 व्याख्या कवि युवाओं को प्रकृति के माध्यम से देशहित के लिए स्वयं को समर्पित करने का आग्रह करते हुए कहते हैं कि हे वीरों! तुम अपनी युवावस्था की परख अपने शीश देकर कर सकते हों। इस बलिदानी परीक्षा से तुम्हें यह भी ज्ञात हो जाएगा कि तुम्हारी धमनियों में शक्तिशाली रक्त दौड़ रहा है अथवा उनमें केवल शक्तिहीन पानी ही भरा हुआ है। फल से लदे हुए वृक्षों की ओर देखो, जो कि पृथ्वी की ओर अपना सिर झुकाए हुए हैं। जिस प्रकार कली के भीतर से झाँकते फल कली के संकल्पों (अरमानों) को बता रहे हैं, उसी प्रकार तुम्हारे हृदय से भी समर्पित हो जाने का संकल्प प्रकट हो जाना चाहिए। अर्थात् देश के युवाओं तुम्हें भी अपने भीतर देश की रक्षा के लिए दृढ़ संकल्प लेना होगा और दूसरों की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने के लिए तत्पर रहना होगा। वृक्षों की डालियों ने भी अपने मस्तक रूपी फलों को बलिदान के लिए दे दिया है, अब तुम भी उनके इस आत्म-बलिदान की परम्परा को अपने आचरण में आत्मसात् कर लो और युग की आवश्यकतानुसार स्वयं को उसकी प्रगतिरूपी माला में गूंथते हुए आगे बढ़ते रहो।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने युवा पीढ़ी को उनकी शक्ति व वीरता के गुणों को प्रकृति के उपादानों के माध्यम से जागृत किया है।

भाषा।        ओजपूर्ण खड़ी बोली

गुण            ओज

छन्द         तुकान्त मुक्त

शैली            उद्बोधन

रस                वीर

शब्द-शक्ति।       व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'दे-देकर', 'अरमान आया' में 'द' और 'अ' वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

 रूपक अलंकार 'गर्भ से फल- रूप में अरमान आया' में अरमान रूपी फल का वर्णन किया गया, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।

  1.  विश्व है असि का? नहीं संकल्प का है! हर प्रलय का कोण कायाकल्प का है; फूल गिरते, शूल शिर ऊँचा लिए है; रसों के अभिमान को नीरस किए हैं। खून हो जाए न तेरा देख, पानी, मरण का त्योहार, जीवन की जवानी।

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'काव्यखण्ड' के 'जवानी' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित 'हिमकिरीटनी' से ली गई है।

प्रसंग कवि युवाओं को क्रान्ति का दूत मानते हुए उन्हें मातृभूमि के लिए आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा दे रहा है।

व्याख्या कवि युवाओं को क्रान्ति के लिए उत्साहित करते हुए उनसे पूछता है कि क्या यह संसार तलवार का है? क्या यह संसार तलवार और अन्य हिंसक हथियारों से ही जीता जा सकता है? कवि उनको स्वयं ही उत्तर देते हुए कह रहा है कि नहीं! ऐसी बात नहीं है। संसार दृढ़ संकल्प वाले व्यक्तियों का है। इसे दृढ़ संकल्प से जीता जा सकता है। संसार की प्रत्येक प्रलय का उद्देश्य संसार में क्रान्ति और बदलाव लाना होता है। इसी प्रकार युवा वर्ग यदि किसी बात के लिए संकल्प कर लेता है तो क्रान्ति आ सकती है और परिवर्तन प्रारम्भ हो सकता है। अतः युवाओं को अपने संकल्प से क्रान्ति के लिए आगे आना चाहिए।

व्यक्ति के अन्दर जब दृढ़ संकल्पों की कमी होती है, तो उसका पतन आरम्भ हो जाता है। हवा के हल्के से झोंके से कोमल होने के कारण पुष्प जमीन पर गिर जाते हैं और अपना सौन्दर्य खो बैठते हैं, परन्तु काँटे आँधी और तूफान में भी अपना सीना गर्व से ताने खड़े रहते हैं। हे नवयुवकों! दृढ़ संकल्प से उत्पन्न आत्मोत्सर्ग की भावना कभी विचलित नहीं होती है। काँटे फूलों की कोमलता और उनके सौन्दर्य के अभिमान को अपनी दृढ़ संकल्प शक्ति से नष्ट कर देते हैं। कवि युवाओं से कहता है कि हे युवा-वर्ग! तुम्हारी नसों के रक्त में जो उत्साह है, जो उष्णता है, वह जोश शीतल होकर नष्ट न हो जाए। जवानी उसी का नाम है, जो मृत्यु को त्योहार अर्थात् उल्लास का क्षण माने। मरण का त्योहार अर्थात् बलिदान का दिन ही जवानी का सबसे आनन्दमय दिन होता है।

काव्य सौन्दर्य

समाज में क्रान्ति लाने के लिए दृढ़ संकल्प अति आवश्यक है। युवाओं के संकल्प फूलों के नान कोमल नहीं, बल्कि काँटों के समान कठोर होने चाहिए।

भाषा             खड़ी बोली

शैली             उद्बोधनात्मक

गुण               ओज

रस                वीर

छन्द              तुकान्त मुक्त

शब्द-शक्ति       लक्षणा एवं व्यंजना

अलंकार

रूपक अलंकार 'मरण का त्योहार' में आत्म बलिदान को उत्साह का पर्व मानने के कारण यहाँ रूपक अलंकार है।

अनुप्रास अलंकार 'शूल शिर' और 'जीवन की जवानी' में 'श', 'ज' और 'व' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

रामनरेश त्रिपाठी निराला जी की गद्यांश रचना ' स्वदेश प्रेम , रचना के सभी गद्यांश की सन्दर्भ, प्रसंग, व्याख्या, काव्य सौन्दर्य 

स्वदेश प्रेम गद्यांश प्रसंग,सन्दर्भ, व्याख्या, काव्य सौन्दर्य 

  1. अतुलनीय जिनके प्रताप का, साक्षी है प्रत्यक्ष दिवाकर घूम-घूम कर देख चुका है, जिनकी निर्मल कीर्ति निशाकर। देख चुके हैं जिनका वैभव, ये नभ के अनन्त तारागण अगणित बार सुन चुका है नम जिनका विजय घोष रण-गर्जन।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने उन पूर्वजों का यशोगान किया है, जिनके यश के साक्षी आज भी विद्यमान हैं। इसमें भारत के गौरवपूर्ण अतीत की झाँकी प्रस्तुत की है।

व्याख्या – कवि कहता है कि तुम अपने उन पूर्वजों को स्मरण करो, जिनके यश की तुलना कोई नहीं कर सकता और सूर्य जिनके बल और प्रताप का स्वयं साक्षी है। हमारे पूर्वज तो ऐसे थे, जिनकी निर्मल और स्वच्छ कीर्ति को चन्द्रमा भी पूरे विश्व में घूम-घूम कर देख चुका है। आकाश के अनन्त तारों का समूह भी जिनके ऐश्वर्य को बहुत पहले देख चुका है।

यह आकाश भी हमारे पूर्वजों के विजय घोषों और युद्ध की गर्जनाओं को अनेक बार सुन चुका है अर्थात् हमारे पूर्वजों के प्रताप, वैभव, यश, युद्ध कौशल, सब कुछ अद्भुत और अभूतपूर्व है। इसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है।

काव्यगत सौन्दर्य

कवि ने अपने पूर्वजों का गुणगान किया है।

भाषा   संस्कृत शब्दों से युक्त साहित्यिक खड़ी बोली

शैली             भावात्मक

गुण            ओज

रस             वीर

छन्द           मात्रिक

शब्द-शक्ति    व्यंजना

अलंकार 

रूपक अलंकार 'दिवाकर', 'निशाकर' और 'तारागण' में उपमेय मेंउपमान का आरोप है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।

 अनुप्रास अलंकार 'अतुलनीय जिनके', 'कीर्ति निशाकर' और "जिनका विजय' में क्रमश: 'न', 'क' और 'ज' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'घूम-घूम' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

  1. शोभित है सर्वोच्च मुकुट से, जिनके दिव्य देश का मस्तक गूँज रही हैं सकल दिशाएँ जिनके जय-गीतों से अब तक।। जिनकी महिमा का है अविरल, साक्षी सत्य-रूप हिम-गिरि-वर। उतरा करते थे विमान-दल, जिसके विस्तृत वक्षःस्थल पर

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 

प्रसंग – इन पंक्तियों में कवि ने हमारे देश के दिव्य स्वरूप, प्राचीन महिमा और अतीत के गौरव का वर्णन किया है।

व्याख्या कवि कहता है कि भारत एक महान् एवं प्राचीन दिव्य देश है, जिसके मस्तक पर हिमालय रूपी सर्वोच्च मुकुट सुशोभित है। हमारे पूर्वज इतने ज्ञानी, गुणी, वीर और परोपकारी थे कि उनके विजय के यशगान से आज भी सम्पूर्ण दिशाएँ गूंज रही हैं। वे हमारे ही पूर्वज थे, जिनकी महिमा के साक्षी हिमालय पर्वत और वन प्रान्त के पेड़-पौधे हैं। हिमालय और वन आज भी उनके सत्य रूप का बोध कराते हैं। यह हमारे देश की विस्तृत भारत भूमि ही है, जिसके वक्षस्थल पर अन्य देशों के विमान भी उतरा करते थे अर्थात् भारत की कीर्ति को सुनकर दूर-दूर से विदेशी यहाँ आया करते थे। इस प्रकार भारत की कीर्ति सम्पूर्ण विश्व में फैली थी।

काव्यगत सौन्दर्य

हिमालय पर्वत को भारत के मुकुट के रूप में चित्रित किया गया है।

भाषा             साहित्यिक खड़ी बोली

शैली          भावात्मक और वर्णनात्मक

गुण           ओज

छन्द           मात्रिक

रस            वीर

शब्द-शक्ति      व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'जिनके जय', 'साक्षी सत्य' और 'विस्तृत वक्षःस्थल' में क्रमश: 'ज', 'स' और 'व' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

 रूपक अलंकार 'सर्वोच्च मुकुट' और 'सत्य-रूप हिम-गिरि-वर' में उपमेय में उपमान का आरोप है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।

  1. सागर निज छाती पर जिनके, अगणित अर्णव-पोत उठाकर। पहुँचाया करता था प्रमुदित, भूमण्डल के सकल तटों पर ।। नदियाँ जिसकी यश-धारा-सी, बहती हैं अब भी निशि-वासर । ढूँढ़ो, उनके चरण-चिह्न भी, पाओगे तुम इनके तट पर ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने अपने पूर्वजों की गरिमा तथा समर्पण भाव का चित्रण किया है।

व्याख्या कवि कहता है कि हमारे पूर्वजों (हमारे देश) का गौरवपूर्ण इतिहास है। समुद्र स्वयं उनकी सेवा में लीन रहता था। वह अपने वक्ष पर उनके अनगिनत

रहा जहाजों को उठाकर प्रसन्नता से पृथ्वी के समस्त तटों तक पहुँचाया करता था। हमारे देश में रात-दिन बहने वाली नदियों को देखकर ऐसा लगता है, मानो वे हमारे पूर्वजों का यशोगान गा रही हों। धन्य थे हमारे पूर्वज, जिन्होंने अपने समय में देश का गौरवान्वित रूप देखा। आज भी माना जाता है कि उनके चरण-चिह्न नदियों और समुद्रों के तट पर मिल जाएँगे अर्थात् पूर्वजों के समान व्यवहार करने से आज भी हमें उसी यश की प्राप्ति हो सकती है, जो उन्हें प्राप्त थी।

काव्यगत सौन्दर्य

भाषा        साहित्यिक खड़ी बोली

गुण         ओज

छन्द         मात्रिक

शैली       भावात्मक 

रस          वीर

शब्द-शक्ति।     व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'अगणित अर्णव' और 'चरण-चिह्न' में 'अ', 'ण' और 'च' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

 उपमा अलंकार 'यश-धारा-सी' में उपमेय में उपमान की समानता को व्यक्त किया गया है, इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।

 रूपक अलंकार इस पद्यांश में मनुष्य के यश की वृद्धि का परिचय नदी रूपी धारा से दिया गया है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।

  1. विषुवत् रेखा का वासी जो, जीता है नित हाँफ-हाँफ कर। रखता है अनुराग अलौकिक, वह भी अपनी मातृ-भूमि पर ।।ध्रुव-वासी, जो हिम में तम में, जी लेता है कॉप-काँप कर वह भी अपनी मातृ-भूमि पर, कर देता है प्राण निछावर ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 

प्रसंग – कवि ने विषम परिस्थितियों में जी रहे लोगों के देश-प्रेम का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपने देश से प्रेम करने की सीख दी है।

व्याख्या कवि अपने देश से असीम प्रेम करने की प्रेरणा देते हुए कहता है कि विषुवत् रेखा का वह भू-भाग जहाँ असहनीय गर्मी पड़ती है और वहाँ के लोग गर्मी के कारण हाँफ-हॉफ कर जीवन बिताते हैं, किन्तु इतने कष्टों के होने पर भी वे अपनी मातृभूमि से अत्यधिक लगाव रखते हैं। उनका अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम अतुलनीय होता है। वे गर्मी की मार से परेशान होने पर भी अन्यत्र जाकर बसने की बात नहीं सोचते हैं। इसी प्रकार ध्रुवीय प्रदेशों में जहाँ साल के अधिकांश महीनों में बर्फ जमी रहती है तथा भीषण सर्दी के कारण काँपते हुए जीवन बिताना पड़ता है। सर्दी, कोहरे और धुन्ध के कारण दिन-रात का अन्तर करना कठिन हो जाता है। वहाँ के लोग भी असहाय शारीरिक कष्ट सहते हुए भी वहीं रहना पसन्द करते हैं। इसका सीधा-सा कारण अपनी मातृभूमि के प्रति अटूट प्रेम ही तो है। यहाँ के निवासी शत्रुओं से रक्षा करते हुए अपनी मातृभूमि के लिए जान की बाजी तक लगा देते हैं।

काव्यगत सौन्दर्य

कवि ने स्पष्ट किया है कि विषम जलवायु में कष्टपूर्ण जीवन जी रहे लोग भी

अपने देश के प्रति असीम लगाव रखते हैं।

भाषा           सरल खड़ी बोली

गुण          ओज

छन्द         मात्रिक

शैली        भावात्मक

रस        वीर

शब्द-शक्ति   व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार अनुराग अलौकिक', 'मातृ-भूमि वीर

और 'ध्रुव-वासी' में क्रमश: 'अ', 'म' और 'व' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'हॉफ हॉफ' और 'कॉप-काँप' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

  1. तुम तो, हे प्रिय बन्धु स्वर्ग-सी, सुखद, सकल विभवों की आकर। धरा-शिरोमणि मातृ-भूमि में,धन्य हुए हो जीवन पाकर।। तुम जिसका जल अन्न ग्रहण कर,बड़े हुए लेकर जिसकी रज तन रहते कैसे तज दोगे,उसको, हे वीरों के वंशज

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने मातृभूमि को स्वर्ग से बढ़कर बताते हुए देशप्रेम की प्रेरणा प्रदान की है।

व्याख्या – कवि कहता है कि हे प्रिय बन्धु (भाई)! तुमने जहाँ जीवन पाया है, वह घरा स्वर्ग के समान सुख देने वाली, सम्पूर्ण सुखों की खान है। पृथ्वी का वह भाग जहाँ तुमने जन्म लिया है, वह सभी घरा-खण्डों से श्रेष्ठ है। तुम्हारी मातृभूमि धरा-शिरोमणि है। ऐसी धरती पर जन्म लेकर तुम धन्य हो। जिस देश के अन्न-जल को ग्रहण करके तथा जिस देश की धूल-मिट्टी में खेलकर तुम बड़े हुए हो। हे वीरों के वंशज उस देश को शरीर रहते हुए कैसे छोड़ दोगे? अपने देश से प्रेम करो तथा उसका त्याग मत करो, क्योंकि इस मातृभूमि की रक्षा करना तुम्हारा पुनीत कर्त्तव्य है।

काव्यगत सौन्दर्य

कवि ने मनुष्य को मातृभूमि के लिए त्याग व समर्पण की प्रेरणा दी है।

भाषा       खड़ी बोली

गुण         ओज

छन्द      मात्रिक

शैली      भावात्मक

रस        वीर

शब्द-शक्ति    व्यंजना

अलंकार

 अनुप्रास अलंकार 'सुखद सकल', 'धरा-शिरोमणि', 'मातृ-भूमि' और 'लेकर जिसकी' में क्रमशः 'स', 'र', 'म' और 'क' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

उपमा अलंकार 'स्वर्ग-सी' यहाँ धरती उपमेय और स्वर्ग उपमान में समानता दिखाई गई है। इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।

  1. जब तक साथ एक भी दम हो, हो अवशिष्ट एक भी धड़कन । रखो आत्म-गौरव से ऊँची-पलकें, ऊँचा सिर, ऊँचा मन।। जब तक मन में हे शत्रुंजय दीन वचन मुख से न उचारो, मानो नहीं मृत्यु का भी भय ।।एक बूँद भी रक्त शेष हो,

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवि लोगों को स्वाभिमान के साथ जीवन जीने का सन्देश दे रहा है।

व्याख्या – कवि कहता है कि हे मातृभूमि से प्रेम रखने वाले भाई तुम अपनी अन्तिम साँस तक और बची हुई एक भी धड़कन के घड़कने तक अपने आत्म-गौरव की रक्षा करो। पलकों को किसी के भय से या दबाव से गिरने मत दो, अपना मस्तक किसी के सामने मत झुकाओ उसे सदैव ऊँचा रखो। अपने मन को भी ऊंचा रखो।हे शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले! जब तक तुम्हारे शरीर में रक्त की एक भी बूंद शेष है, तुम्हारे भीतर शक्ति शेष है, तब तक तुम अपने मुख से किसी के भीसामने दीनता प्रदर्शित मत करो।मृत्यु का भय सामने उपस्थित होने पर भी अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए डटे रहना, मृत्यु से भयभीत न होना। इस शरीर को तुम फिर से प्राप्त कर सकते हो। जीवन और मृत्यु तो चक्रवत इस संसार में चलते रहते हैं, लेकिन अपने स्वाभिमान की रक्षा सबसे पहले करो।

काव्यगत सौन्दर्य

भाषा           खड़ी बोली

गुण            ओज

शैली           भावात्मक

रस              वीर

छन्द           मात्रिक

शब्द-शक्ति    व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'दीन वचन' में 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

  1. निर्भय स्वागत करो मृत्यु का, मृत्यु एक है विश्राम स्थल जीव जहाँ से फिर चलता है, धारण कर नव जीवन-संबल।। मृत्यु एक सरिता है, जिसमें, श्रम से कातर जीव नहाकर। फिर नूतन धारण करता है, काया-रूपी वस्त्र बहाकर।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में देश की रक्षा हेतु सर्वस्व समर्पित करने के लिए कहा गया है। देश की रक्षा करते हुए यदि मृत्यु का वरण करना पड़े तो वह भी श्रेयस्कर है।

व्याख्या – कवि कहता है, हे देशवासियों! मृत्यु का वरण सहर्ष करो। मृत्यु का स्वागत करो, क्योंकि मृत्यु एक विश्राम स्थल है। मृत्यु के बाद जीव पुनः नए शरीर को धारण करके फिर से अपनी जीवन-यात्रा को शुरू करता है। मृत्यु एक नदी के समान है, जिसमें नहाकर श्रम से कातर प्राणी पुराने शरीर रूपी वस्त्र का त्याग करके नए शरीर रूपी वस्त्र को धारण करता है।

कवि के कहने का तात्पर्य है कि कर्म करने के लिए जीव शरीर धारण करता है और संसार में जब वह थक जाता है, तो मृत्यु के बाद नए शरीर को नई शक्ति के साथ धारण करके पुनः अपनी जीवन-यात्रा को शुरू करता है। मृत्यु का वरण करके वह अपने पुराने काया रूपी वस्त्र को छोड़कर पुनः नए शरीर रूपी वस्त्र को धारण करता है। अतः मनुष्य को मृत्यु का स्वागत उल्लास और उत्साह से करना चाहिए।

काव्यगत सौन्दर्य

मृत्यु से भयभीत न होने की प्रेरणा देते हुए मृत्यु को जीवन का विश्राम स्थल बताया गया है। कवि की यह नितान्त मौलिक कल्पना है।

भाषा        खड़ी बोली

शैली        उद्बोधन

गुण          प्रसाद

रस          वीर

छन्द।        मात्रिक

शब्द-शक्ति।      व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'जीव जहाँ', 'धारण कर' और 'नव जीवन' में क्रमश: 'ज', 'र' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है। 

रूपक अलंकार 'मृत्यु एक सरिता है' में मृत्यु को नदी रूपी बताकर दोनों के मध्य का भेद समाप्त हो गया है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।

  1. सच्चा प्रेम वही है जिसकी तृप्ति आत्म-बलि पर हो निर्भर। त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण निछावर || देश-प्रेम वह पुण्य-क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित। आत्मा के विकास से जिसमें, मनुष्यता होती है विकसित।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 

प्रसंग – कवि सच्चे देश-प्रेम के लिए त्याग और बलिदान जैसे गुणों को आवश्यक मानता है।

व्याख्या – कवि कहता है कि सच्चा प्रेम उसे ही कहा जा सकता है, जिसमें आत्मत्याग की भावना कूट-कूटकर भरी होती है अर्थात् आत्मत्याग के अभाव में प्रेम को सच्चा नहीं कहा जा सकता है। सच्चे प्रेम को पाने के लिए यदि आत्मबलिदान भी देना पड़े, तो हमें हिचकना नहीं चाहिए। त्याग के बिना प्रेम निर्जीव-सा होता है। देश-प्रेम ऐसा पवित्र क्षेत्र है, जो निर्मल, निष्कलंक और त्याग जैसे गुणों से खिल उठता है, जिसकी कोई सीमा नहीं होती है अर्थात् देश-प्रेम की सुन्दरता असीम और पवित्र त्याग से दिखाई देती है। देश-प्रेम वह पवित्र भावना होती है, जो मनुष्य की आत्मा और मनुष्यता के विकास के लिए आवश्यक होती है। अतः मनुष्य में मनुष्यता में का पूर्ण विकास हो, इसके लिए उसमें देश-प्रेम की भावना आवश्यक है।

काव्यगत सौन्दर्य

देश-प्रेम के लिए त्याग और बलिदान आवश्यक है, इसी भाव को कवि ने यहाँ प्रकट किया है।

भाषा       सरल खड़ी बोली 

शैली      तुकान्त मुक्त भावात्मकता

गुण।       ओज

छन्द        मात्रिक

रस          वीर

शब्द-शक्ति    व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'अमल असीम' में 'अ' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है

सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित 'त्रिधारा' 'काव्यखण्ड' के 'झाँसी की रानी की समाधि पर' की सन्दर्भ, प्रसंग, व्याख्या, काव्य सौन्दर्य

1.इस समाधि में छिपी हुई है,एक राख की ढेरी।जल कर जिसने स्वतन्त्रता की, दिव्य आरती फेरी ।। यह समाधि, यह लघु समाधि है,झाँसी की रानी की।अंतिम लीलास्थली यही है,लक्ष्मी मरदानी की ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के 'काव्यखण्ड' के 'झाँसी की रानी की समाधि पर' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा

रचित 'त्रिधारा' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान और उनकी समाधि की गौरव-गाथा प्रस्तुत की है।

व्याख्या – कवयित्री लक्ष्मीबाई की समाधि की ओर संकेत करती हुई कहती हैं कि इस समाधि में उस वीरांगना की राख छिपी हुई है, जिसने स्वयं जलकर स्वतन्त्रता की देवी की अलौकिक आरती उतारी थी अर्थात् जिस प्रकार आरती उतारने के लिए दीप या कपूर आदि जलाया जाता है, उसी प्रकार लक्ष्मीबाई ने आरती के दीप के रूप में स्वयं को प्रस्तुत कर दिया था।

कवयित्री कहती हैं कि यह समाधि भले ही छोटी-सी है, पर यह लक्ष्मीबाई के साहस एवं वीरतापूर्ण बड़े-बड़े कारनामों की यादों को अपने अन्दर समेटे हुए है। यह झाँसी की रानी की अन्तिम लीला स्थली है। यहीं उन्होंने वीरता एवं साहस से युद्ध करते हुए अंग्रेज़ों के विरुद्ध अपना आखिरी युद्ध लड़ा था और उन्हें यहीं वीरगति

प्राप्त हुई थी। 

काव्य सौन्दर्य

काव्यांश में रानी लक्ष्मीबाई के वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए वीरगति पाने का वर्णन हुआ है।

भाषा         सरल, सुबोध खड़ी बोली

 गुण          प्रसाद एवं ओज

शैली          ओजपूर्ण आख्यानक गीति 

रस            वीर

छन्द            तुकान्त-मुक्त

शब्द-शक्ति        अभिधा

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'आरती फेरी' और 'लक्ष्मी मरदानी में 'र'और 'म' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

  1. यहीं कहीं पर बिखर गई वह,भग्न विजयमाला-सी। उसके फूल यहाँ संचित हैं,है यह स्मृतिशाला-सी।।सहे वार पर वार अंत तक,लड़ी वीर बाला-सी।आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर,चमक उठी ज्वाला-सी।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के 'काव्यखण्ड' के 'झाँसी की रानी की समाधि पर' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा

रचित 'त्रिधारा' से लिया गया है।

प्रसंग – इन पंक्तियों में रानी लक्ष्मीबाई की वीरता एवं अत्यन्त साहस के साथ अंग्रेजों से किए गए युद्ध का वर्णन है, जिसमें उन्हें वीरगति प्राप्त हुई थी।

व्याख्या – कवयित्री रानी लक्ष्मीबाई को भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करती हुई कहती है कि इसी समाधि के आस-पास वह वीर महिला टूटी हुई विजयमाला के समान बिखर गई थी अर्थात् उनकी विजयरूपी माला टूट कर यहीं बिखर गई थी। वे इस विजयमाला को और आगे न ले जा सकी, क्योंकि वे अंग्रेजों से युद्ध करते-करते शहीद हो गई थीं। रानी की अस्थियाँ इसी समाधि में संचित हैं, जो आने वाली पीढ़ियों को उनकी वीरता के स्मृति चिह्न के रूप में याद दिलाएंगी तथा देश के लिए कुछ कर गुज़रने की प्रेरणा देंगी।

कवयित्री रानी द्वारा अंग्रेजों के साथ किए गए युद्ध का वर्णन करती हुई कहती हैं कि रानी लक्ष्मीबाई अपने जीवन के अन्त तक अंग्रेज़ सैनिक की तलवारों के वार पर वार सहती रही। जिस तरह यज्ञ में हवन सामग्री की आहुति पड़ते ही ज्वाला प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार रानी के इस बलिदान ने स्वतन्त्रता की वेदी पर आहुति का काम किया। लोगों में इससे स्वतन्त्रा पाने की लालसा भड़क उठी और वे क्रान्ति के लिए पूर्ण रूप से तैयार हो उठे। रानी के युद्धभूमि में इस प्रकार वीरगति पाने से उनका यश चारों ओर फैल गया।

काव्य सौन्दर्य

कवयित्री ने रानी द्वारा किए गए वीरता एवं साहसपूर्ण युद्ध का वर्णन किया है,जिसमें रानी शहीद हो गईं।

भाषा         सरल, सुबोध खड़ी बोली

गुण          ओज

छन्द          तुकान्त मुक्त

शैली         ओजपूर्ण आख्यानक गीति

रस             वीर

शब्द-शक्ति       अभिधा

अलंकार

रूपक अलंकार रानी की अस्थियों को फूल रूपी अस्थियाँ कहा गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।

  1. बढ़ जाता है मान वीर का,रण में बलि होने से। मूल्यवती होती सोने की,भस्म यथा सोने से ।। रानी से भी अधिक हमें अब,यह समाधि है प्यारी।यहाँ निहित है स्वतन्त्रता की,आशा की चिनगारी ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के 'काव्यखण्ड' के 'झाँसी की रानी की समाधि पर' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा

रचित 'त्रिधारा' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान का वर्णन करते हुए कवयित्री कहती हैं कि देश की आजादी की रक्षा हेतु अपना बलिदान देने से रानी का गौरव और भी बढ़ गया है।

व्याख्या – युद्धभूमि से पलायन कायरों की निशानी है तथा युद्ध करते हुए वीरगति पाना वीरों की निशानी है। कवयित्री इन पंक्तियों में कह रही हैं कि स्वतन्त्रता की रक्षा करते हुए वीरगति पाने से वीरों का मान बढ़ जाता है। रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गई, इसलिए उनका मान भी ऐसे बढ़ गया, जैसे सोने से भी अधिक मूल्यवान उसकी भस्म होती है।

रानी ने भी अपना बलिदान देकर हम भारतीयों में स्वतन्त्रता की ज्योति जलाई है,

इसलिए उनकी यह समाधि हमें बहुत प्रिय है। इस समाधि में स्वतन्त्रता रूपी आशा की चिंगारी छिपी हुई है, जो अग्नि के रूप में फैलकर हम भारतीयों को भविष्य में अन्य किसी की दासता से मुक्त होने के लिए प्रेरित करती रहेगी। यह समाधि हम भारतीयों के अन्दर की स्वतन्त्रता की ज्योति को कभी बुझने नहीं देगी तथा आजादी न मिलने तक हमें निरन्तर इसके लिए संघर्ष करने की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी।

काव्य सौन्दर्य

कवयित्री ने रानी की समाधि को अधिक प्रिय होने तथा देश के लिए बलिदान देने पर उनकी महत्ता बढ़ने का भाव व्यक्त किया है।

भाषा          सरल-सुबोध खड़ी बोली

शैली         ओजपूर्ण आख्यानक गीति

गुण           ओज एवं प्रसाद

छन्द         तुकान्त-मुक्त

रस            वीर

शब्द-शक्ति      अभिधा

अलंकार

रूपक अलंकार 'आशा की चिनगारी' में आशा रूपी चिनगारी की बात की गई, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।

  1.  इससे भी सुन्दर समाधियाँ, हम जग में हैं पाते। उनकी गाथा पर निशीथ में, क्षुद्र जन्तु ही गाते ।।पर कवियों की अमर गिरा में,इसकी अमिट कहानी ।स्नेह और श्रद्धा से गाती है,वीरों की बानी ।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के 'काव्यखण्ड' के 'झाँसी की रानी की समाधि पर' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा

रचित 'त्रिधारा' से लिया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री ने रानी की समाधि की अन्य समाधियों से तुलना करते हुए, उनकी समाधि को श्रेष्ठ बताया है।

व्याख्या – कवयित्री कहती हैं कि हमारे देश में रानी लक्ष्मीबाई की समाधि से सुन्दर अनेक समाधियाँ देखने को मिलती हैं, परन्तु उन समाधियों का महत्त्व इस समाधि की तरह नहीं है। उन समाधियों पर क्षुद्र जन्तु; जैसे— कीड़े-मकोड़े, छोटे-छोटे जीव-जन्तु; जैसे- झींगुर और छिपकलियाँ आदि ही रात में गाते हैं। तात्पर्य यह है कि वे समाधियाँ गौरव-गान करने के लायक नहीं हैं, वे उपेक्षित हैं, तभी तो उन पर छोटे जीव-जन्तु निवास करते हैं। रानी लक्ष्मीबाई की समाधि गौरव से परिपूर्ण एक ऐसी समाधि है, जिसकी अमिट कहानी कवियों की अमर वाणी से सदा-सदा गाई जाती रहेगी। इस देश के लोग स्नेह और श्रद्धा से वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की अमर-कथा का गुणगान करते हैं।

काव्य सौन्दर्य

रानी लक्ष्मीबाई की समाधि को अन्य समाधियों से श्रेष्ठ बताया गया है।

भाषा      सरल, साहित्यिक खड़ी बोली 

शैली     ओजपूर्ण आख्यानक गीति

गुण        ओज

रस        वीर

छन्द         तुकान्त-मुक्त

शब्द-शक्ति     व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'सुन्दर समाधियाँ' और 'अमर गिरा' में 'स' और 'र' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

मैथिलीशरण गुप्त जी की गद्यांश रचना''भारत माता का मन्दिर यह' के गद्यांश की सन्दर्भ, प्रसंग, व्याख्या, काव्य सौन्दर्य

  1. भारत माता का मन्दिर यह समता का संवाद जहाँ सबका शिव कल्याण यहाँ है पावें सभी प्रसाद यहाँ । जाति-धर्म या सम्प्रदाय का, नहीं भेद-व्यवधान यहाँ, सबका स्वागत, सबका आदर सबका सम सम्मान यहाँ । राम, रहीम, बुद्ध, ईसा का, सुलभ एक सा ध्यान यहाँ, भिन्न-भिन्न भव संस्कृतियों के गुण गौरव का ज्ञान यहाँ ।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड के 'भारत माता का मन्दिर यह' शीर्षक से उद्धृत है। यह काव्यांश मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में मैथिलीशरण गुप्त जी ने भारत के गौरवशाली रूप का गुणगान करते हुए उसकी कल्याणकारी भावना का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि भारत ऐसा अद्वितीय देश है जिसकी कल्याणकारी भावना उसे विश्व के अन्य देशों से अलग करती है। कवि ने इस पद्यांश में भारत को ऐसे मन्दिर के रूप में स्थापित करके दिखाया है, जहाँ प्रत्येक मानव को अपने विचार प्रस्तुत करने का अधिकार समान रूप से है। भारत एक ऐसा देश है जहाँ सबका कल्याण होता है और सभी प्रसन्नता रूपी प्रसाद ग्रहण करते हैं।

इस देश में जाति-धर्म या किसी सम्प्रदाय की प्रगति को लेकर भेद-भाव रूपी बाधाएँ नहीं हैं। यहाँ हिन्दू, मुस्लिम, सिख तथा ईसाई सभी सम्प्रदायों का स्वागत हृदय से किया जाता है और बिना किसी भेद-भाव के समान रूप से सभी को सम्मान दिया जाता है। इस देश में जो स्थान राम का वही स्थान रहीम, बुद्ध और ईसा मसीह का है भी है। भारत में भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के बारे में सभी लोगों को बताया जाता है और उनके प्रति आदर और सम्मान का भाव रखने हेतु प्रेरित किया जाता है। 

काव्य सौन्दर्य

भाषा         खड़ी बोली 

गुण           प्रसाद

शैली          मुक्तक/गीतात्मक

छन्द             मुक्त

शब्द शक्ति       अभिधा

अलंकार

 'सबका स्वागत सबका आदर, सबका सम सम्मान यहाँ इस पंक्ति में 'स' वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

 'भिन्न-भिन्न' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है। 'गुण गौरव' में 'ग' वर्ण की आवृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

  1. नहीं चाहिए बुद्धि बैर की भला प्रेम का उन्माद यहाँ सबका शिव कल्याण यहाँ है, पावें सभी प्रसाद यहाँ । सब तीर्थों का एक तीर्थ यह हृदय पवित्र बना लें हम आओ यहाँ अजातशत्रु बनें, सबको मित्र बना लें हम। रेखाएँ प्रस्तुत हैं, अपने मन के चित्र बना लें हम। सौ-सौ आदर्शों को लेकर एक चरित्र बना लें हम।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड के 'भारत माता का मन्दिर यह' शीर्षक से उद्धृत है। यह काव्यांश मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित है।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने भारत की गौरवशाली महिमा का वखान किया है।

व्याख्या कति कहता है कि हमारे देश में असीमित प्रेम और मानवता की भावना विद्यमान है, इसीलिए हमें किसी से बैर या दुश्मनी की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रेम की आसीमितता के कारण यहाँ प्रत्येक व्यक्ति का कल्याण होता है और सभी प्रसन्न रहते हैं। कवि ने भारत देश को सभी तीर्थों का तीर्थ कहते हुए हमें अपना मन शुद्ध बनाए रखने के लिए प्रेरित किया है। कवि ने समस्त देशवासियों से अनुरोध करते हुए कहा है कि हमें शत्रुहीन बनना है और सभी से मित्रता करनी है। हमारे सम्मुख देश में स्थापित सौहार्द, समानता के गुण हैं, इन्हीं सद्गुणों को ग्रहण करते हुए हमें अपने भविष्य का निर्माण करना है। कवि आगे कहता है, भारत में गाँधी, भगत सिंह, सुभाषचन्द्र बोस, रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे अनेक महान् व्यक्तियों का जन्म हुआ है, जिनके आदर्शों पर चलकर समस्त भारतवासियों को अपना चरित्र निर्माण करना चाहिए।

काव्य सौन्दर्य

भाषा           खड़ी बोली

शैली           मुक्तक/गीतात्मक

गुण             प्रसाद

छन्द              मुक्त

 शब्द शक्ति     अभिधा

अलंकार

'सौ-सौ में एक शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

है।

  1. बैठो माता के आँगन में नाता भाई-बहन का समझे उसकी प्रसव वेदना वही लाल है माई का एक साथ मिल बॉट ला अपना हर्ष विषाद यहाँ हैसबका शिव कल्याण यहाँ है, पावें सभी प्रसाद यहाँ ।मिला सेव्य का हमें पूजारी सकल काम उस न्यायी का मुक्ति लाभ कर्तव्य यहाँ है एक-एक अनुयायी का कोटि-कोटि कण्ठों से मिलकर

उठे एक जयनाद यहाँ पावें सभी प्रसाद यहाँ

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने गाँधीवादी विचारधारा प्रकट करते हुए भारत माता का गुणगान किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि भारत माता के विस्तृत आँगन रूपी क्षेत्र में सभी व्यक्तियों को बन्धुत्व की भावना एवं भाई-चारे की भावना स्थापित करनी चाहिए। कवि ने भारत माता के सच्चे सपूत की पहचान बताते हुए कहा है कि जब देश में भेद-भाव एवं साम्प्रदायिकता की स्थिति उत्पन्न होती है, तब भारत माता की असहनीय पीड़ा को समझने वाला व्यक्ति ही उसका सच्चा सपूत होता है। कवि आगे कहता है कि भारत माता के सभी बच्चों को अपने सुख-दुःख को बाँटना चाहिए, जिससे प्रेम और बन्धुत्व की भावना प्रकट होगी तथा सबका कल्याण सम्भव होगा।

कवि कहता है कि भारत माता को महात्मा गाँधी जैसे सपूतों की आवश्यकता है। महात्मा गाँधी जैसे अहिंसा के पुजारी ने अपने सेवाभाव से समस्त भारतीयों को स्वतन्त्रता एवं न्याय दिलाने का कर्त्तव्य पूर्ण किया था। गाँधी जी का अनुसरण करने वाले प्रत्येक व्यक्ति ने भारत माता की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष एवं बलिदान को ही अपना कर्त्तव्य माना है तथा उसी को मुक्ति-मार्ग के रूप में स्वीकारा है। कवि ने भारतीयों की एकता और अखण्डता के बारे में कहा है कि वे एक साथ भारत माता की जयकार लगाते हैं। इन्हीं सबके कारण कवि ने भारत में सबका कल्याण माना है। भारत में स

काव्य सौन्दर्य

भाषा         खड़ी बोली

शैली          मुक्तक/गीतात्मक

गुण             प्रसाद

छन्द            मुक्त

शब्द शक्ति     अभिधा 

अलंकार 

'कोटि-कोटि कण्ठों' में 'क' वर्ण की आवृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

'एक-एक अनुयायी' में 'एक' वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है

केदारनाथ सिंह द्वारा राचित काव्य खण्ड‘नदी’पद्यांश का सन्दर्भ प्रसंग व्याख्या

  1. अगर धीरे चलो वह तुम्हें छू लेगीदौड़ो तो छूट जायेगी नदी अगर ले लो साथ वह चलती चली जायेगी कहीं भी यहाँ तक कि कबाड़ी की दुकान तक भी

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के हिन्दी 'काव्यखण्ड' के 'नदी' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि केदारनाथ सिंह द्वारा रचित 'विविधा' से ली गई है। 

प्रसंग – इन पंक्तियों में कवि ने मानव जीवन में नदी की महत्ता की ओर संकेत किया है और कहा है कि नदी मनुष्य का साथ हर क्षण निभाती है।

व्याख्या – कवि नदी का महत्त्व बताते हुए कहता है कि नदी सिर्फ बहते जल का स्रोत मात्र नहीं है, वह हमारी जीवन धारा है। वह हमारी सभ्यता और संस्कृति का जीवन्त रूप है। नदी हमारी रग-रग में प्रवाहित हो रही है। यदि हम गम्भीरतापूर्वक नदी को अपनी सभ्यता-संस्कृति से जोड़कर विचार करते हैं उसके साथ संवाद स्थापित करते हैं, तो नदी हमारे अन्तर्मन को छूकर हमें प्रसन्न कर देती है।

इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति आधुनिकता को पाने की होड़ में अन्धाधुन्ध भागता जाता है और नदी अर्थात् अपनी सभ्यता और संस्कृति को अनदेखा कर देता है, तो यह नदी उससे दूर हो जाती है और वह व्यक्ति नदी से दूर होता जाता है अर्थात् आधुनिकता की अन्धी दौड़ में शामिल व्यक्ति अपनी सभ्यता-संस्कृति को भूलता जाता है और उससे अलग होता जाता है।

यदि प्रगति की ओर बढ़ता आदमी नदी (सभ्यता और संस्कृति) का थोड़ा-सा भी ध्यान रखता है, तो नदी उसका अनुसरण करती उसके पीछे-पीछे वहाँ तक चली जाती है, जहाँ तक व्यक्ति उसे ले जाना चाहता है। फिर तो व्यक्ति उसे संसार के किसी कोने में ले जाए, यहाँ तक कि कबाड़ी की दुकान पर भी जाने के लिए नदी तैयार रहती है। वह सच्चे साथी की तरह कभी भी हमारा साथ नहीं छोड़ती, क्योंकि वह हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। 

काव्य सौन्दर्य

कवि द्वारा अपनी सभ्यता-संस्कृति से जुड़े रहने की प्रेरणा दी गई है।

भाषा               सहज और सरल खड़ी बोली

शैली               वर्णनात्मक व प्रतीकात्मक

गुण                प्रसाद

रस                 शान्त

छन्द              अतुकान्त व मुक्त

शब्द-शक्ति       अभिधा तथा लक्षणा

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'ले लो', 'चलती चली', 'कि कबाड़ी की में क्रमश: 'ल', 'च' और 'क' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

मानवीकरण अलंकार इस पद्यांश में 'नदी' को एक जीवन साथी के रूप में व्यक्त किया है, इसलिए यहाँ मानवीकरण अलंकार है।

  1. छोड़ दो तो वहीं अँधेरे में करोड़ों तारों की आँख बचाकर वह चुपके से रच लेगी एक समूची दुनिया एवं छोटे-से घोंघे में सचाई यह है कि तुम कहीं भी रहो तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी प्यार करती है एक नदी

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के हिन्दी 'काव्यखण्ड' के 'नदी' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि केदारनाथ सिंह द्वारा रचित 'विविधा' से ली गई है।

प्रसंग – कवि के कहने के अनुसार मनुष्य भले ही सभ्यता और संस्कृति की उपेक्षा करे, किन्तु सभ्यता और संस्कृति उसका पीछा नहीं छोड़ती है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि यदि मनुष्य अपनी सभ्यता और संस्कृति से दूरी बनाता है, थोड़े समय के लिए भी उससे दूर होता है या अलग हो जाता है, तो वह सारे समाज से अलग हो जाता है। यह सभ्यता और संस्कृति अजर-अमर है, जो किसी-न-किसी रूप में हमेशा जीवित रहती है। यदि इसका थोड़ा-सा भी अंश कहीं छूट जाता है, तो यह विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए अपना विकास कर लेती है।

अपने अस्तित्वरूपी बीज बचाए रखने के लिए इसे घोंघे जितना कम स्थान चाहिए। उसी थोड़े से स्थान में पल बढ़ कर संस्कृति अपना विकास कर लेती है। नदी अर्थात् सभ्यता और संस्कृति जीवन के सबसे कठिन समय में भी हमारा साथ नहीं छोड़ती है।

जब कभी दानवी प्रवृत्तियाँ मानवता पर आक्रमण करती हैं, तब भी सभ्यता और संस्कृति अपने आपको बचाए रखती है और मनुष्य का साथ नहीं छोड़ती है। यह मनुष्य को बहुत प्यार करती है, तभी तो अपने से बाँधे रखकर उसे अपने से अलग नहीं होने देती।

काव्य सौन्दर्य

अपनी सभ्यता-संस्कृति को अनदेखी करने वाला व्यक्ति समाज से कटकर अलग-थलग पड़ जाता है।

भाषा             सहज और सरल खड़ी बोली

शैली              वर्णनात्मक व प्रतीकात्मक

गुण                 प्रसाद

रस                  शान्त

छन्द               अतुकान्त व मुक्त

शब्द-शक्ति        अभिधा तथा लक्षणा

अलंकार

उपमा अलंकार 'छोटे-से घोंघे में' वाचक शब्द 'से' होने से उपमा अलंकार है।

 अशोक वाजपेयी की काव्य खण्ड रचना, युवा जंगल और भाषा एक मात्र अनन्त है , रचना की सन्दर्भ, प्रसंग, व्याख्या काव्य सौंदर्भ     

               युवा जंगल

  1. एक युवा जंगल मुझे, अपनी हरी उँगलियों से बुलाता है। मेरी शिराओं में हरा रक्त लगा है आँखों में हरी परछाँइयाँ फिसलती हैं कन्धों पर एक हरा आकाश ठहरा है होठ मेरे एक हरे गान में काँपते हैं— मैं नहीं हूँ और कुछ बस एक हरा पेड़ हूँ

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के काव्य खण्ड के 'युवा जंगल' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि अशोक वाजपेयी द्वारा रचित 'विविधा' से ली गई है।

प्रसंग 'युवा जंगल' में कवि ने मानव को भी वृक्षों की तरह हमेशा दृढ़ रहने और सहनशक्ति प्राप्त करने की प्रेरणा दी है, उन्होंने हरे जंगल को लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत मानकर उनसे आशा, उत्साह और प्रेरणा ग्रहण करने को कहा है। कवि ने वन-संरक्षण की आवश्यकता पर भी बल दिया है।

व्याख्या कवि कहते हैं कि हरे-भरे युवा जंगल को देखकर ऐसा लगता है, मानो नए वृक्षों वाला युवा जंगल उत्साहित होकर आकाश को छूने को उत्सुक अपनी पतली-पतली टहनियों से उसे ( कवि को) बुला रहा हो। युवा जंगल के आमन्त्रण से कवि की सूखी नसों में स्थित निराशा की भावना दूर हो जाती है तथा उनमें उत्साह और आशा का संचार होने लगता है। इस आमन्त्रण से कवि की आँखों में सुखद और सुनहरे भविष्य के सपने तैरने लगते हैं, अब कवि के जीवन का उद्देश्य बदल गया है और वह अपने कन्धों पर उस उत्तरदायित्व को महसूस कर रहा है, जिससे उसकी जीवनरूपी निराशा समाप्त हो गई है।

निराशा के कारण सूखकर कड़े हो चुके होंठों से जो हरियाली रूपी हँसी गायब हो चुकी थी, वह वृक्ष के आमन्त्रण से आशा एवं उत्साह का रस पाकर सरस हो उठी है अर्थात् जीवन के नए गीत गाने के लिए उत्सुक है। कवि को ऐसा लगता है, मानो वह व्यक्ति न होकर एक हरा-भरा पेड़ बन गया हो, जिसमें उत्साह रूपी हरी पत्तियों की आशा भर गई हो। कवि स्वयं को उत्साह से परिपूर्ण हरे-भरे लहराते युवा पेड़ों की तरह महसूस कर रहा है।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने जंगल को प्रेरणास्रोत के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसकी हरियाली देखकर व्यक्ति की निराशा दूर हो जाती है।

भाषा        साहित्यिक खड़ी बोली

शैली        प्रतीकात्मक तथा मुक्तक

गुण         प्रसाद

छन्द      अतुकान्त व छन्दमुक्त

रस        शान्त

शब्द-शक्ति        अभिधा व लक्षणा

अलंकार

मानवीकरण अलंकार जंगल को युवा के रूप में व्यक्त किया है, इसलिए यहाँ मानवीकरण अलंकार है।

          भाषा एक मात्र अनन्त है

  1. फूल झरता है फूल शब्द नहीं! बच्चा गेंद उछालता है,किसी दालान में बैठा हुआ! न बच्चा रहेगा, न बूढ़ा, न गेंद, न फूल, न दालान रहेंगे फिर भी शब्द सदियों के पार लोकती है उसे एक बच्ची ! बूढ़ा गाता है एक पद्य,दुहराता है दूसरा बूढ़ा,भूगोल और इतिहास से परे भाषा एकमात्र अनन्त है!

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'काव्यखण्ड' के 'भाषा एक मात्र अनन्त है' शीर्षक से उद्धृत है यह कवि अशोक वाजपेयी द्वारा रचित 'तिनका-तिनका काव्य संग्रह से ली गई है।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश में कवि भाषा (शब्द) की शक्ति की सामर्थ्य और उसकी शाश्वत सत्ता का वर्णन कर रहा है। 

व्याख्या – कवि कहते हैं कि भाषा ही एकमात्र अनन्त है अर्थात् जिसका अन्त नहीं है। फूल वृक्ष से टूटकर पृथ्वी पर गिरता है, उसकी पंखुड़ियाँ टूटकर बिखर जाती हैं और अन्त में वह मिट्टी में ही विलीन हो जाता है। प्रकृति ने फूल को जन्म दिया है। और अन्ततः वह प्रकृति में ही विलीन हो जाता है। फूल की तरह शब्द विलीन नहीं होते। भाषा जो शब्दों से बनी है, वह कभी समाप्त नहीं होती। सदियों पश्चात् भी भाषा का अस्तित्व उसी प्रकार बना रहता है, जिस प्रकार एक बालक गेंद को उछालता है और दूसरा उसे पकड़कर पुनः उछाल देता है। आज किसी ने कोई बात कही, सैकड़ों वर्षों बाद परिवर्तित स्वरूप में कोई दूसरा व्यक्ति भी उसी बात को कह देता है।

अतः भाषा ही एकमात्र अनन्त है, जिसका कभी कोई अन्त नहीं है, परन्तु 'शब्द' शाश्वत है। वह इतिहास और भूगोल की सीमाओं से परे है, क्योंकि शब्द कभी इतिहास नहीं बनता है। वह सदैव वर्तमान रहता है। किसी देश तथा जाति की भौगोलिक सीमा उसे अपने बन्धन में बाँध नहीं पाती है। उसका प्रयोग या विस्तार अनन्त है, सार्वकालिक है।

उदाहरण के रूप में एक वृद्ध व्यक्ति यदि किसी कविता को या गीत को गुनगुनाता है, तो उसका वह गीत उसके मरने के बाद समाप्त नहीं हो जाता, बल्कि वह गीत बहुत बाद की पीढ़ी के वृद्ध व्यक्ति के द्वारा बरामदा में बैठकर उसी प्रकार गाया जाता है, जिस प्रकार उसे पहली बार वृद्ध व्यक्ति के द्वारा बरामदा में बैठकर गाया गया था। इस प्रकार वह गीत कभी इतिहास नहीं बनता, सदैव वर्तमान में ही रहता है, क्योंकि वृद्धों के द्वारा उसे दुहराया जाता है। अन्त में कवि कहते हैं कि इस संसार में सभी वस्तुएँ नश्वर हैं। एक दिन वह गेंद उछालने वाला बच्चा, वह गीत गाने वाला वृद्ध, गेंद, फूल और बरामदा कुछ भी नहीं रहेगा, परन्तु गीत के शब्द सदैव जीवन्त रहेंगे, क्योंकि शब्द अर्थात् भाषा कभी मरती नहीं। वह अजर, अमर और अनन्त है। संसार में केवल भाषा (शब्द) ही अमर है, बाकी सब नश्वर है।

काव्य सौन्दर्य

भाषा        साहित्यिक खड़ी बोली

गुण          प्रसाद

छन्द          अतुकान्त व छन्दमुक्त

 शैली       विवेचनात्मक तथा मुक्तक

रस              शान्त

शब्द-शक्ति      अभिधा व लक्षणा

अलंकार

मानवीकरण अलंकार अप्राकृतिक वस्तुओं द्वारा यहाँ प्रकृति का मानवीकरण किया गया है, जिस कारण यहाँ मानवीकरण अलंकार है।

श्याम नारायण पाण्डेय जी की काव्य खण्ड ‘पद’ के सभी पद्यांश की संदर्भ,प्रसंग,व्याख्या, काव्य सौंदर्भ

  1. मेवाड़-केसरी देख रहा,केवल रण का न तमाशा था। वह दौड़-दौड़ करता था रण, वह मान रक्त का प्यासा था चढ़कर चेतक पर घूम-घूम करता सेना रखवाली था। ले महामृत्यु को साथ-साथ मानों प्रत्यक्ष कपाली था।

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड के 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। यह श्री श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा रचित काव्य 'हल्दीघाटी' से लिया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने महाराणा प्रताप की वीरता का वर्णन करते हुए, हल्दीघाटी के युद्ध का सजीव चित्रण किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि मेवाड़-केसरी अर्थात् महराणा प्रताप हल्दीघाटी के युद्ध को मात्र देख ही नहीं रहे थे, बल्कि वह स्वयं युद्ध क्षेत्र में जाकर उत्साहपूर्वक युद्ध कर रहे थे। वह मुगलों से युद्ध अपने मान-सम्मान की रक्षा के लिए कर रहे थे। इसके लिए वे बलिदान तक देने को तत्पर थे। उन्होंने अपने घोड़े पर चढ़कर पूरा युद्ध किया और मुगलों की सेना को ध्वस्त करते हुए अपनी सेना की रखवाली भी की। उन्होंने मुगलों की सेना का सामना दृढ़तापूर्वक किया था और सदैव उन पर हावी रहे थे। वे मृत्यु की परवाह किए बिना ही इस प्रकार रणक्षेत्र में युद्ध कर रहे थे मानो महाराणा प्रताप ने शिवजी का रूप धारण कर लिया हो।

काव्य सौन्दर्य

भाषा        खड़ी बोली

रस           वीर

शैली          प्रबन्ध

गुण           ओज

शब्द –शक्ति      अभिधा

छन्द            मुक्त

अलंकार

 'दौड़-दौड़', घूम-घूम तथा 'साथ-साथ' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है। 'मानो प्रत्यक्ष कपाली था' में 'मानो' बोधक शब्द है। अतः यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।

  1. चढ़ चेतक पर तलवार उठा,रखता था भूतल पानी को । राणा प्रताप सिर काट-काट,करता था सफल जवानी को ।। सेना नायक राणा के भी -रण देख-देखकर चाह भरे।मेवाड़ सिपाही लड़ते थे दूने-तिगुने उत्साह भरे।।

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड के 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। यह श्री श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा रचित काव्य 'हल्दीघाटी' से लिया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने महाराणा प्रताप और उनके सेना नायक के वीरत्व का वर्णन किया है।

व्याख्या महाराणा प्रताप की सेना और मुगलों की सेना के मध्य भयानक युद्ध चल रहा था। जिस प्रकार भूमि के नीचे पानी में हलचल होने पर उफान उठता है और उस उफान में बहुत कुछ तहस-नहस हो जाता है। उसी प्रकार अपने मान-सम्मान की रक्षा हेतु महाराणा प्रताप के हृदय में उफान उठ गया था। उन्होंने अपने घोड़े पर बैठकर तलवार उठा ली और अपने विरोधियों का संहार करना आरम्भ कर दिया।

मेवाड़ के राजकुमार ने मुगलों की सेनाओं के सर धड़ से अलग करके अपनी जवानी की सार्थकता को सिद्ध किया था। महाराणा प्रताप के इस रौद्र रूप को देखकर मेवाड़ सेनानायक और सिपाहियों में उत्साह का संचार होने लगा था। पहले की अपेक्षा अब मेवाड़ की सेना ने भी युद्ध में अपना प्रयास बढ़ा दिया और विपक्षियों को ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

काव्य सौन्दर्य

भाषा         खड़ी बोली

रस            वीर

शैली         प्रबन्ध

छन्द        मुक्त

गुण       ओज

शब्द-शक्ति     अभिधा

अलंकार

'चढ़ चेतक' में 'च' वर्ण की आवृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है। काट-काट में काट वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है

  1. क्षण मार दिया कर कोड़े से. रण किया उतर कर घोड़े से। राणा रण कौशल दिखा दिखा, चढ़ गया उतर कर घोड़े से क्षण भीषण हलचल मचा-मचा, राणा-कर की तलवार बढ़ी। था शोर रक्त पीने का यह रण चण्डी जीभ पसार बढ़ी।।

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड के 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। यह श्री श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा रचित काव्य 'हल्दीघाटी' से लिया गया है।

प्रसंग कवि ने हल्दीघाटी के युद्ध का भीषण चित्रण करते हुए राणा प्रताप के रौद्र रूप का वर्णन किया है।

व्याख्या कवि कहता है कि मेवाड़ के राजा के साथ-साथ अब उनकी सेना भी दोगुने उत्साह से युद्ध कर रही थी और विरोधियों को परास्त कर रही थी। महाराणा प्रताप ने मुग़ल सैनिकों को क्षण भर में कोड़े (चाबुक) मारकर रणभूमि में गिरा दिया था। अब महाराणा प्रताप अपने घोड़े से उतरकर युद्ध कौशल दिखा दिखाकर मुगल सैनिकों को मार रहे थे। अब ऐसा क्षण देखने को मिल रहा था, जो वास्तव में अत्यन्त भीषण था। महाराणा प्रताप ने विरोधी सैनिकों पर अपनी तलवार से आक्रमण कर दिया और यह देखकर कुछ ही क्षणों में चारों ओर भीषण हाहाकार मच गया था। रणभूमि में मचे इस भीषण नरसंहार को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो रणचण्डी (दुर्गा) की खून की प्यास बुझाने के लिए, राणा अपने विरोधियों का संहार कर रहे हों।

काव्य सौन्दर्य

भाषा         खड़ी बोली

रस           वीर और बीभत्स

 छन्द            मुक्त

शैली               प्रबन्ध

गुण                 ओज

शब्द शक्ति        अभिधा

अलंकार

'राणा रण', में 'र' वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण अनुप्रास अलंकार है। 'दिखा दिखा' और 'मचा-मचा' में एक शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

  1. वह हाथी दल पर टूट पड़ा, मानो उस पर पवि छूट पड़ा। कट गई वेग से भू, ऐसा शोणित का नाला फूट पड़ा। जो साहस कर बढ़ता उसको, केवल कटाक्ष से टोक दिया। जो वीर बना नभ-बीच फेंक, बरछे पर उसको रोक दिया।

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड के 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। यह श्री श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा रचित काव्य 'हल्दीघाटी' से लिया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने महाराणा प्रताप के शौर्य का बखान करते हुए विरोधी सेना की पराजित मनोवृत्ति का वर्णन किया है।

 व्याख्या कवि कहता है कि मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप ने मुगल सेना पर इस प्रकार प्रहार किया मानो उन पर वज्र गिर गया हो। महाराणा प्रताप के प्रहार से मुगल सेना के समस्त हाथी दल ध्वस्त हो गए थे। उनके प्रहार में इतनी शक्ति थी की उसकी प्रचण्डता से ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे धरती फट गई हो और उसमें से रक्त की धारा बह निकली हो। विरोधी दल के जो सैनिक अपने पराक्रम एवं साहस के बल पर कुछ आगे बढ़ते, उन्हें महाराणा अपने व्यंग्यों के बल से ही बीच रणभूमि में रोक देते थे। यह महाराणा के प्रति विरोधियों में भय की स्थिति को दर्शाता है। दूसरी ओर विपक्षी दल के जो सैनिक बहादुरी करते हुए आगे बढ़ रहे थे भाले के प्रहार ने बीच रणभूमि में ही रोक दिया। इन सब परिस्थितियों से स्पष्ट होता है कि मेवाड़ के राजा के सम्मुख मुगल सेना परास्त हो रही थी।

काव्य सौन्दर्य

भाषा             खड़ी बोली

शैली               प्रबन्ध

छन्द                मुक्त

गुण                 ओज

 शब्द शक्ति          अभिधा

रस                    वीर

अलंकार

 'मानो उस पर पवि छूट पड़ा' में 'मानो' बोधक शब्द है। अतः यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।

  1. क्षण उछल गया अरि घोड़े पर क्षण भर में गिरते रुण्डों से क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर मस्त गजों के शुण्डों से।बैरी दिल से लड़ते-लड़ते, क्षण खड़ा हो गया घोड़े परघोड़ों से विकल वितुण्डों से, पट नई भूमि नरमुण्डों से

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड के 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। यह श्री श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा रचित काव्य 'हल्दीघाटी' से लिया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने महाराणा प्रताप के युद्ध-कौशल एवं वीरता का वर्णन किया है।

व्याख्या कवि महाराणा प्रताप की वीरता का वर्णन करते हुए कहता है कि रणक्षेत्र में युद्ध के दौरान महाराणा प्रताप के घोड़े (चेतक) पर मुगल सैनिक चढ़ गया था। उसने महाराणा प्रताप से युद्ध करते हुए अपनी जान गँवा दी। महाराणा प्रताप ने अपने युद्ध कौशल का परिचय देते हुए विपक्षी दल से युद्ध किया। युद्ध में कुछ समय पश्चात् ही राणा प्रताप ने मुगल सेना को परास्त कर दिया। उन्होंने विपक्षी दल के सर धड़ से अलग कर दिए। मुगलों के हाथी की सेना और मेवाड़ के घोड़ों की सेना के मध्य चल रहे युद्ध में विरोधी दल का संहार इस प्रकार किया कि सम्पूर्ण रणक्षेत्र मुगलों के हाथियों के सूँड और मुगल सेना के कटे हुए सिर से पट गया था।

काव्य सौन्दर्य

भाषा      खड़ी बोली

रस           वीर और बीभत्स 

छन्द          मुक्त

शैली          प्रबन्ध

शब्द-शक्ति      अभिधा

अलंकार

गुण ओज 'लड़ते-लड़ते' में एक शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है। 'विकल वितुण्डों' में 'व' वर्ण की आवृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

  1. ऐसा रण राणा करता था, पर उसको था सन्तोष नहीं। मैं कर लूँ रक्त स्नान कहाँ क्षण-क्षण आगे बढ़ता था वह, जिस पर तय विजय हमारी है,कहता था लड़ता मान कहाँ,पर कम होता था रोष नहीं।। वह मुगलों का अभिमान कहाँ?

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड के 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। यह श्री श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा रचित काव्य 'हल्दीघाटी' से लिया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने महाराणा प्रताप के युद्ध-कौशल और देश-प्रेम की भावना को उजागर किया है।

व्याख्या कवि महाराणा प्रताप के युद्ध करने की कला का वर्णन करते हुए कहता है कि वे निडर होकर अपने विरोधियों से युद्ध करते थे, परन्तु उनको विरोधियों को परास्त करने भर से ही सन्तुष्टि नहीं मिलती थी। वह जितने अधिक शत्रुओं का नाश करते थे उतना ही रोष और क्रोध उनमें बढ़ता चला जाता था। जब तक कि विरोधी सेना के रक्त से वे स्नान नहीं कर लेते थे, तब तक वह मान-सम्मान के लिए रण-क्षेत्र में युद्ध करते रहते थे। महाराणा प्रताप के माध्यम से कवि कहता है कि जिस युद्ध में विजय मेवाड़ सेना और राजा महाराणा प्रताप की निश्चित है, उस पर मुगलों का झूठा अभिमान और घमण्ड करना सर्वथा व्यर्थ है।

काव्य सौन्दर्य

भाषा         खड़ी बोली

शैली           प्रबन्ध

गुण             ओज

छन्द            मुक्त

रस              वीर और रौद्र

शब्द-शक्ति        अभिधा

अलंकार

'रण राणा' में 'र' वर्ण की आवृत्ति होने के कारण अनुप्रास अलंकार है। 'क्षण-क्षण' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड‘वाराणसी’गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

गद्यांश 1

वाराणसी सुविख्याता प्राचीना नगरी। इयं विमलसलिलतरङ्गायाः गङ्गायाः कूले स्थिता। अस्याः घट्टानां वलयाकृतिः पङ्क्तिः धवलायां चन्द्रिकायां बहुराजते। अगणिताः पर्यटकाः सुदूरेभ्यः नित्यम् अत्र आयन्ति, अस्याः घट्टानाञ्च शोभां विलोक्य इमां बहुप्रशंसन्ति ।

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के संस्कृत खण्ड' में संकलित वाराणसी' नामक पाठ से लिया गया है। इस गद्यांश में वाराणसी नामक प्राचीन नगर के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है। 

अनुवाद – वाराणसी बहुत प्रसिद्ध पुरानी नगरी है। यह स्वच्छ व पावन जल की लहरों वाली गंगा के किनारे पर स्थित है। इसके घाटों की घुमावदार आकार वाली कतारें उज्ज्वल चन्द्रमा की सफेद चाँदनी में बहुत सुन्दर लगती हैं। यहाँ प्रतिदिन दूर-दूर से अनेक पर्यटक आते हैं और इसके घाटों का सौन्दर्य देखकर इसकी अत्यधिक प्रशंसा करते हैं।

गद्यांश 2

वाराणस्यां प्राचीनकालादेव गेहे गेहे विद्यायाः दिव्यं ज्योतिः द्योतते। अधुनाऽपि अत्र संस्कृतवाग्धारा सततं प्रवहति, जनानां ज्ञानञ्च वर्द्धयति । अत्र अनेके आचार्याः मूर्धन्याः विद्वांसः वैदिकवाङ्मयस्य अध्ययने अध्यापने च इदानीं निरताः। न केवलं भारतीयाः, अपितु वैदेशिकाः गीर्वाणवाण्याः अध्ययनाय अत्र आगच्छन्ति निःशुल्कं च विद्यां गृहणन्ति । अत्र हिन्दूविश्वविद्यालयः, संस्कृतविश्वविद्यालयः, काशीविद्यापीठम् इत्येते त्रयः विश्वविद्यालयाः सन्ति, येषु नवीनानां प्राचीनानाञ्च ज्ञानविज्ञानविषयाणाम् अध्ययनं प्रचलति ।

अथवा

अत्र अनेके आचार्याः मूर्धन्याः विद्वांसः वैदिकवाङ्मयस्य अध्ययने अध्यापने च इदानीं निरताः। न केवलं भारतीयाः, अपितु वैदेशिकाः गीर्वाणवाण्याः अध्ययनाय अत्र आगच्छन्ति निःशुल्कं च विद्यां गृहणन्ति । अत्र हिन्दूविश्वविद्यालयः, संस्कृतविश्वविद्यालयः, काशीविद्यापीठम् इत्येते त्रयः विश्वविद्यालयाः सन्ति येषु नवीनानां प्राचीनानञ्च ज्ञानविज्ञानविषयाणाम् अध्ययनं प्रचलति ।

अथवा

वाराणस्यां प्राचीनकालादेव गेहे-गेहे विद्यायाः दिव्यं ज्योतिः द्योतते । अधुनाऽपि अत्र संस्कृतवाग्धारा सततं प्रवहति, जनानां ज्ञानञ्च वर्द्धयति। अत्र अनेके आचार्याः मूर्धन्याः विद्वांसः वैदिकवाङ्मयस्य अध्ययने अध्यापने च इदानीं निरताः। न केवलं भारतीयाः, अपितु वैदेशिकाः गीर्वाणवाण्याः अध्ययनाय अत्र आगच्छन्ति निःशुल्कं च विद्यां गृहणन्ति ।

अथवा

अधुनाऽपि अत्र संस्कृतवाग्धारा सततं प्रवहति, जनानां ज्ञानञ्च वर्द्धयति। अत्र अनेके आचार्याः मूर्धन्याः विद्वांसः वैदिकवाङ्मयस्य अध्ययने अध्यापने च इदानीं निरताः। न केवलं भारतीयाः अपितु वैदेशिकाः गीर्वाणवाण्याः अध्ययनाय अत्र आगच्छन्ति निःशुल्कं च विद्यां गृहणन्ति। 

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के संस्कृत खण्ड' में संकलित वाराणसी' नामक पाठ से लिया गया है। इस गद्यांश में वाराणसी नामक प्राचीन नगर के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है। 

इस अंश में वाराणसी में स्थित ज्ञान के केन्द्र रूपी विभिन्न विश्वविद्यालयों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद वाराणसी में प्राचीनकाल से ही घर-घर में विद्या की अलौकिक ज्योति प्रकाशित है। आज भी यहाँ संस्कृत वाणी की धारा लगातार (निरन्तर) प्रवाहित हो रही है और लोगों का ज्ञान बढ़ा रही है। इस समय भी यहाँ अनेक आचार्य, उच्चकोटि के विद्वान्, वैदिक साहित्य के अध्ययन अध्यापन में लगे हुए हैं।

केवल भारतीय ही नहीं, बल्कि विदेशी भी देववाणी संस्कृत के अध्ययन के लिए यहाँ आते हैं और निःशुल्क विद्या प्राप्त करते हैं। यहाँ हिन्दू विश्वविद्यालय, संस्कृत विश्वविद्यालय और काशी विद्यापीठ-ये तीन विश्वविद्यालय हैं, जिनमें ज्ञान-विज्ञान के नए-पुराने विषयों का अध्ययन चलता रहता है।

गद्यांश 3

एषा नगरी भारतीयसंस्कृतेः संस्कृतभाषायाश्च केन्द्रस्थलम् अस्ति। इत एव संस्कृतवाङ्मयस्य संस्कृतेश्च आलोकः सर्वत्र प्रसृतः। मुगलयुवराजः दाराशिकोहः अत्रागत्य भारतीय-दर्शन-शास्त्राणाम् अध्ययनम् अकरोत्। स तेषां ज्ञानेन तथा प्रभावितः अभवत्, यत् तेन उपनिषदाम् अनुवादः फारसीभाषायां कारितः। 

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के संस्कृत खण्ड' में संकलित वाराणसी' नामक पाठ से लिया गया है। इस गद्यांश में वाराणसी नामक प्राचीन नगर के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।

इस अंश में वाराणसी के प्राचीन गौरव एवं महत्ता पर प्रकाश डाला गया है।

अनुवाद यह नगरी भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा का केन्द्रस्थल है। यहीं से संस्कृत साहित्य और संस्कृति का प्रकाश चारों ओर फैला है। मुगल युवराज दाराशिकोह ने यहीं आकर भारतीय दर्शनशास्त्रों का अध्ययन किया था। वह उनके ज्ञान से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उपनिषदों का अनुवाद फारसी भाषा में करवाया।

गद्यांश 4

इयं नगरी विविधधर्माणां सङ्गमस्थली। महात्मा बुद्धः, तीर्थङ्करः पार्श्वनाथः, शङ्कराचार्यः, कबीरः, गोस्वामी तुलसीदासः अन्ये च बहवः महात्मानः अत्रागत्य स्वीयान् विचारान् प्रासारयन्। न केवलं दर्शने, साहित्ये, धर्मे, अपितु कलाक्षेत्रेऽपि इयं नगरी विविधानां कलानां, शिल्पानाञ्च कृते लोके विश्रुता। अत्रत्याः कौशेयशाटिकाः देशे-देशे सर्वत्र स्पृह्यन्ते। अत्रत्याः प्रस्तरमूर्तयः प्रथिताः । इयं निजां प्राचीनपरम्पराम् इदानीमपि परिपालयति-तथैव गीयते कविभिः

मरणं मङ्गलं यत्र विभूतिश्च विभूषणम्। कौपीनं यत्र कौशेयं सा काशी केन मीयते ॥

                     अथवा

 मरणं मङ्गलं यत्र विभूतिश्च विभूषणम्। कौपीनं यत्र कौशेयं सा काशी केन मीयते।।

अथवा

इयं नगरी विविधधर्माणां सङ्गमस्थली। महात्मा बुद्धः, तीर्थङ्करः पार्श्वनाथः, शङ्कराचार्यः, कबीरः, गोस्वामी तुलसीदासः अन्ये च बहवः महात्मानः अत्रागत्य स्वीयान् विचारान् प्रासारयन्। न केवलं दर्शन, साहित्ये, धर्मे, अपितु कलाक्षेत्रेऽपि इयं नगरी विविधानां कलानां, शिल्पानाञ्च कृते लोके विश्रुता । अत्रत्याः कौशेयशाटिकाः देशे-देशे सर्वत्र स्पृह्यन्ते।

अथवा

महात्मा बुद्धः, तीर्थङ्करः पार्श्वनाथः शङ्कराचार्यः, कबीरः, गोस्वामी तुलसीदासः अन्ये च बहवः महात्मानः अत्रागत्य स्वीयान् विचारान् प्रासारयन्। न केवलं दर्शन, साहित्ये, धर्मे, अपितु कलाक्षेत्रेऽपि इयं नगरी विविधानां कलानां, शिल्पानाञ्च कृते लोके विश्रुता। 

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के संस्कृत खण्ड' में संकलित वाराणसी' नामक पाठ से लिया गया है। इस गद्यांश में वाराणसी नामक प्राचीन नगर के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।

इस अंश में वाराणसी की विशासिद्धि के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। 

अनुवाद यह नगरी (अर्थात काशी) अनेक धर्मों की संगमस्थली (मिलन स्थल) है। महात्मा बुद्ध, तीर्थकर पार्श्वनाथ, शंकराचार्य, कबीर, गोस्वामी तुलसीदास तथा अन्य बहुत-से महात्माओं ने यहाँ आकर अपने विचारों का प्रसार किया, केवल दर्शन, साहित्य और धर्म में ही नहीं, अपितु कला के क्षेत्र में भी यह नगरी तरह तरह की कलाओं और शिल्पों के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है।

यहाँ की रेशमी साड़ियाँ देश-देश में हर जगह पसन्द की जाती हैं। यहाँ की पत्थर की मूर्तियाँ प्रसिद्ध हैं। यह अपनी प्राचीन परम्परा का इस समय भी पालन कर रही है। इसलिए कवियों के द्वारा गाया गया है

श्लोक "जहाँ मरना कल्याणकारी हैं, जहाँ भस्म ही आभूषण (गहना) है और जहाँ लंगोट ही रेशमी वस्त्र है, वह काशी किसके द्वारा मापी जा सकती है?" अर्थात् काशी अतुलनीय है। इसकी तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती है।

प्रश्न  उत्तर

प्रश्न 1. वाराणसी नगरी कस्याः नद्याः कूले स्थिता?

  अथवा 

वाराणसी नगरी कुत्र स्थिता अस्ति?

उत्तरवाराणसी गङ्गायाः नद्याः कूले स्थिता अस्ति।

प्रश्न 2. कस्याः शोभाम् अवलोक्य वैदेशिका पर्यटका: वाराणसी बहुप्रशंसन्ति ?

अथवा 

वैदेशिका पर्यटकाः कस्याः शोभाम् अवलोक्य वाराणसीं प्रशंसन्ति ?

उत्तर गङ्गायाः घट्टानां शोभाम् अवलोक्य वैदेशिका: पर्यटका: वाराणसी बहुप्रशंसन्ति।

प्रश्न 3. वाराणस्यां गेहे-गेहे किं द्योतते?

उत्तरवाराणस्यां गेहे-गेहे विद्याया: दिव्यां ज्योतिः द्योतते।

प्रश्न 4. सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालयः कस्यां नगर्यां विद्यते?

उत्तर सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय: वाराणस्यां नगर्यां विद्यते।

प्रश्न 5. वाराणस्यां कियंतः विश्वविद्यालयाः सन्ति ?

अथवा

 वाराणस्यां कति विश्वविद्यालयः सन्ति ?

 उत्तरवाराणस्यां त्रयः विश्वविद्यालयाः सन्ति।

प्रश्न 6. वाराणसी कस्याः भाषायाः केन्द्रम् अस्ति?

उत्तर  वाराणसी संस्कृत भाषायाः केन्द्रस्थलम् अस्ति। 

प्रश्न 7. दाराशिकोहेन उपनिषदाम् अनुवाद: कस्यां भाषायां कारितः ?

उत्तरदाराशिकोहेन उपनिषदाम् अनुवाद: फारसी भाषायां कारितः।

प्रश्न 8. वाराणसी नगरी केषां सङ्गमस्थली अस्ति?

 अथवा

 का नगरी विविधधर्माणां सङ्गमस्थली अस्ति

उत्तर वाराणसी नगरी विविधधर्माणां सङ्गमस्थली अस्ति।

प्रश्न 9. वाराणसी किमर्थं प्रसिद्धा?

उत्तरवाराणसी विद्या दर्शन- साहित्य धर्म-कला-शिल्पार्थं प्रसिद्धा अस्ति।

प्रश्न 10. वाराणसी नगरी केषां कृते लोके विश्रुता अस्ति?

उत्तर वाराणसी नगरी विद्याकलानां संस्कृतभाषायाः संस्कृतेश्च कृते लोके विश्रुता अस्ति।

प्रश्न 11. वाराणस्यां कानि वस्तूनि प्रसिद्धानि सन्ति ?

उत्तर वाराणस्यां कला-शिल्प, कौशेयशाटिका: प्रस्तरमूर्तय च प्रसिद्धानि सन्ति।

प्रश्न 12. कुत्र मरणं मंगलम् भवति?

उत्तर वाराणस्यां मरणं मंङ्गलम् भवति ।

कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड अध्याय 2 अन्योक्तिविलास : (अन्योक्तियों का सौन्दर्य) के सभी गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

श्लोक 1

नितरां नीचोऽस्मीति त्वं खेदं कूप! कदापि मा कृथाः।

अत्यन्तसरसहृदयो यतः परेषां गुणग्रहीतासि ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।

प्रस्तुत श्लोक में अपने अवगुणों पर दुःखी न होने तथा दूसरे के गुणों को ग्रहण करने को श्रेष्ठ बताया गया है।

अनुवाद हे कुएँ! 'मैं अत्यधिक नीचा (गहरा) हूँ', तुम इस प्रकार कभी दुःखी मत होओ, क्योंकि तुम अत्यन्त सरस हृदय (जल से भरे हुए) हो और दूसरों के गुणों (रस्सियों) को ग्रहण करने वाले हो।

श्लोक 2

नीर-क्षीर- विवेके हंसालस्य त्वमेव तनुषे चेत् । विश्वस्मिन्नधुनान्यः कुलव्रतं पालयिष्यति कः।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।

प्रस्तुत श्लोक में अपने कुलधर्म व कर्त्तव्यपालन की शिक्षा दी गई है। 

अनुवाद हे हंस! यदि तुम ही नीर और क्षीर अर्थात् दूध और पानी का विवेक करने में आलस्य करोगे, तो इस संसार में कौन ऐसा (व्यक्ति) है, जो अपने कुलधर्म (दूध और पानी को अलग करना) व कर्तव्य का पालन करेगा ?

श्लोक 3

कोकिल! यापय दिवसान तावद् विरसान करीलविटपेषु। यावन्मिलदलिमालः कोऽपि रसालः समुल्लुसति ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।

प्रस्तुत श्लोक में बुरे दिनों में भी धैर्य रखने को प्रेरणा दी गई है। 

अनुवाद हे कोयल! जब तक भौरों से युक्त को अम का पेड़ लहराने नहीं लगता, तब तक तुम अपने नीरस (शुष्क) दिन को भी प्रकार से करील के पेड़ पर ही बिताओ। भाव यह है कि जब तक अच्छे दिन नहीं आते तब तक व्यक्ति को अपने बुरे दिनों को किसी न किसी प्रकार से व्यतीत कर चाहिए।

श्लोक 4

रे रे चातक! सावधानमनसा मित्र! क्षणं श्रूयताम्। अम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वेऽपि नेतादृशाः ।

केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा। यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः ।

सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।

प्रस्तुत श्लोक में चातक के माध्यम से यह बताया गया है कि हमें किसी के सामने दीन वचन बोलकर याचना नहीं करनी चाहिए।

अनुवाद हे हे चातक! सावधान मन से क्षण भर सुनो। आसमान में बादल रहते हैं, पर सभी एक जैसे (दानी, उदार) नहीं होते हैं। कुछ तो बहुत से पृथ्वी को गीला कर देते हैं, पर कुछ तो व्यर्थ में गर्जना करते हैं। अतः तुम जिस-जिस को देखते हो अर्थात् किसी को भी देखकर उसके सामने दीन वचन मत कहो।

भाव यह है कि हर किसी के सामने याचना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि हर कोई दानी नहीं होता, जो हमें कुछ दे।

श्लोक 5

न वै ताडनात तापनाद वह्निमध्ये

न वै विक्रयात् क्लिश्यमानोऽहमस्मि ।

सुवर्णस्य मे मुख्यदुःखं तदेकं

यतो मां जना गुञ्जया तोलयन्ति ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।

प्रस्तुत श्लोक में स्वर्ण के माध्यम से गुणवान और स्वाभिमानी व्यक्ति के मन की व्यथा को व्यक्त किया गया है।

अनुवाद में (स्वर्ण) न तो पीटे जाने से, न अग्नि में तपाए जाने से और न ही बेचे जाने से दुःखी होता हूँ। मेरे दुःख का सबसे बड़ा रण तो है कि लोग है कि मेरी तुलना किसी तुच्छ वस्तु से की जाती है अर्थात् गुणवान व स्वाभिमानी मुझे रत्ती (घुँघची) से तोलते हैं। सोने का अर्थात् मेरे दुःख का कारण तो एक ही है कि मेरी तुलना किसी तुच्छ वस्तु से की जाती है अर्थात गुणवान व स्वाभिमानी व्यक्ति को कष्टों को सहने में इतनी पीड़ा नहीं होती, जितनी मानसिक पीड़ा उसके स्वाभिमान को ठेस लगने से होती है।

श्लोक 6

रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभात।

भास्वानुदेष्यति हसिस्यति पङ्कजालिः ।। इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे। हा हन्त हन्त! नलिनी गज उज्जहारः।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।

प्रस्तुत श्लोक में कमलिनी में बन्द भौरे के माध्यम से जीवन की क्षणभंगुरता को बताया गया है।

अनुवाद खिले कमल के पराग का रसपान करता कोई भौंरा सूर्यास्त होने पर कमल में बन्द हो गया। वह रात भर यही सोचता रहा कि 'रात्रि बीत जाएगी, सुन्दर सवेरा होगा, सूर्य उदय होगा, कमल के झुण्ड खिल जाएँगे। दुःख का विषय है कि कमल की पंखुड़ियों में बन्द भौरे के इस प्रकार की बातें सोचते-सोचते किसी हाथी ने कमलिनी को उखाड़ लिया (और भौरा कमल के "पुष्प में बन्द रह गया)। भाव यह है कि व्यक्ति सोचता कुछ है, पर ईश्वर की इच्छा से कुछ और ही हो

जाता है।

            प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. कूप: किमर्थ दुःखम् अनुभवति? 

उत्तर अहम् नितरी नीच: अस्मि इति विचार्य कृपः दुःखम् अनुभवति।

प्रश्न 2. अत्यन्त सरस हृदयो यतः किं ग्रहीतासि?

 उत्तर अत्यन्त सरस हृदयो यतः परेषा गुणा ग्रहोतासि ।

प्रश्न 3. नीर-क्षीर-विषये हंसस्य का विशेषताः अस्ति

उत्तर यत् हंस: नीरें और पृथक पृथक करोति। इदमेव तस्य विशेषताः अस्ति। 

प्रश्न 4. कवि हंसं किं बोधयति? 

उत्तर कवि हंस बोधयति यत् त्या नीर क्षीर विवेके आलस्यं न कुर्यात्

प्रश्न 5. कवि कोकिल कि कथयति?

अथवा 

कतिः कोकिलं किं बोधयति ?

उत्तर कविः कोकिलं कथयति यत् यावत् रसालः न समुल्लसति तावत् त्वं करीलवृक्षेषु दिवसान् यापया

प्रश्न 6. कवि चातकं किम उपदिशति (शिक्षयति)?

उत्तर कवि चातकम् उपदिशति यत् यथा सर्वे अम्भोदा: जलं न यच्छन्ति तथैव सर्वे अनाः घनं न यच्छन्ति, अतः सर्वेषां गुरतः दीनं वचन मा ब्रूहि

प्रश्न 7. सुवर्णस्य मुख्यं दुःखं किम् अस्ति? 

अथवा 

स्वर्णस्य किं मुख्य दुःखम् अस्ति?

उत्तर सुवर्णस्य मुख्यं दुःखं अस्ति यत् जनाः नाम् गुज्जया सह तोलयन्ति। 

प्रश्न 8. कोशगतः भ्रमर किम अचिन्तयत् ?

 उत्तरकोशगत भ्रमरः अचिन्तयत् यत् रात्रिर्गमिष्यति, सुप्रभातं भविष्यति,भास्वानुदेस्यति पङ्कजालि: हसिष्यति। 

प्रश्न 9. यदा भ्रमरः चिन्तयति तदा गजः किम अकरोत?

अथवा

 गजः काम् उज्जहार?

उत्तर यदा भ्रमरः चिन्तयति तदा गज: नलिनीम् उज्जहार।

कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड 03 वीर : वीरेण पूज्यते (वीर के द्वारा वीर की पूजा की जाती है)

गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

गद्यांश 1

(स्थानम् – अलक्षेन्द्रस्य सैन्यशिविरम्। अलक्षेन्द्रः आम्भीक: च आसीनौ वर्तते। वन्दिनं पुरुराजम् अग्रेकृत्वा एकतःप्रविशति यवन-सेनापतिः।) 

सेनापतिः – विजयतां सम्राट्।

पुरुराजः– एष भारतवीरोऽपि यवनराजम् अभिवादयते।

अलक्षेन्द्रः –(साक्षेपम्) अहो! बन्धनगतः अपि आत्मानं वीर इति मन्यसे पुरुराज: ?

पुरुराज: – यवनराज! सिंहस्तु सिंह एव, वने वा भवतु पञ्जरे वा

अलक्षेन्द्रः  – किन्तु पञ्जरस्थ: सिंहः न किमपि पराक्रमते।

पुरुराज: –  पराक्रमते, यदि अवसरं लभते। अपि च यवनराज!

बन्धनं मरणं वापि जयो वापि पराजयः उभयत्र समो वीरः वीरभावो हि वीरता।।

अथवा

सेनापतिः – विजयतां सम्राट्।

पुरुराजः – एष भारतवीरोऽपि यवनराजम् अभिवादयते।

अलक्षेन्द्रः – (साक्षेपम्) अहो! बन्धनगतः अपि आत्मानं वीर इति मन्यसे पुरुराज: ?

पुरुराज: – यवनराज! सिंहस्तु सिंह एव, वने वा भवतु पञ्जरे वा 

अलक्षेन्द्रः – किन्तु पञ्जरस्थ: सिंह: न किमपि पराक्रमते ।

पुरुराज: – पराक्रमते, यदि अवसरं लभते।

अथवा

बन्धनं मरणं वापि जयो वापि पराजयः। 

उभयत्र समो वीरः वीरभावो हि वीरता।।

सन्दर्भ प्रस्तुत नाट्य खण्ड हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'वीर: वीरेण पूज्यते' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में सिकन्दर और पुरु की वार्ता प्रस्तुत की गई है।

अनुवाद (स्थान-सिकन्दर का सैनिक शिविर, सिकन्दर और आम्भीक दोनों बैठे हैं। बन्दी पुरु को आगे करके एक यवन सैनिक प्रवेश करता है।)

सेनापति   –  सम्राट की जय हो।

पुरुराज –यह भारतवीर भी यवनराज का अभिवादन करता है। 

सिकन्दर – (आक्षेप सहित) अरे! पुरुराज! बन्धन में पड़े हुए भी अपने को वीर मानते हो?

पुरुराज – हे यवनराज! सिंह तो सिंह ही है, चाहे वह वन में हो या पिंजरे में।

सिकन्दर  –  किन्तु पिंजरे में पड़ा हुआ सिंह कुछ भी पराक्रम नहीं करता है।

पुरुराज –  पराक्रम करता है, यदि उसे अवसर मिलता है। और यवनराज!

श्लोक 

 "बन्धन हो अथवा मृत्यु, जय हो अथवा पराजय, वीर पुरुष दोनों ही स्थितियों में समान रहता है। वीरों के भाव को ही वीरता कहते हैं।

गद्यांश 2

आम्भिराजः – सम्राट्! वाचाल एष हन्तव्यः । 

सेनापतिः    आदिशतु सम्राट्। 

अलक्षेन्द्रः – अथ मम मैत्रीसन्धेः अस्वीकरणे तव किम् अभिमतम् आसीत् पुरुराजः !

पुरुराज: – स्वराजस्य रक्षा, राष्ट्रद्रोहाच्च मुक्तिः।

अलक्षेन्द्रः  – मैत्रीकरणेऽपि राष्ट्रद्रोहः ?

पुरुराज: –आम्। राष्ट्रद्रोहः। यवनराज! एकम् इदं भारतं राष्ट्र, बहूनि चात्र राज्यानि, बहवश्च शासकाः। त्वं मैत्रीसन्धिना तान् विभज्य भारतं जेतुम् इच्छसि। आम्भीकः चास्य प्रत्यक्षं प्रमाणम्।

अलक्षेन्द्रः –  भारतम् एकं राष्ट्रम् इति तव वचनं विरुद्धम्। इह तावत् राजानः जनाः च परस्परं द्रुह्यन्ति। 

पुरुराज: –   तत् सर्वम् अस्माकम् आन्तरिकः विषयः। बाह्यशक्तेः तत्र हस्तक्षेपः असह्यः यवनराज! पृथग्धर्माः, पृथग्भाषाभूषा अपि वयं सर्वे भारतीयाः। विशालम् अस्माकं राष्ट्रम्। तथाहि -उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः॥

अथवा

पुरुराज: – आम्। राष्ट्रद्रोहः। यवनराज! एकम् इदं भारतं राष्ट्र, बहूनि चात्र राज्यानि, बहवश्च शासकाः। त्वं मैत्रीसन्धिना तान् विभज्य भारतं जेतुम् इच्छसि। आम्भीकः चास्य प्रत्यक्षं प्रमाणम्।

अलक्षेन्द्रः- भारतम् एकं राष्ट्रम् इति तव वचनं विरुद्धम्। इह तावत् राजानः जनाः च परस्परं दुह्यन्ति।

अथवा

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ॥

सन्दर्भ प्रस्तुत नाट्य खण्ड हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'वीर: वीरेण पूज्यते' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में सिकन्दर और पुरु की वार्ता प्रस्तुत की गई है।

अनुवाद 

आम्भिराज –सम्राट! यह वाचाल है, (इसकी) हत्या कर देनी चाहिए। सम्राट आज्ञा दें।

सेनापति –सम्राट आज्ञा दें।

सिकन्दर – हे पुरुराज! मेरी मैत्री सन्धि को अस्वीकार करने के पीछे तुम्हारी क्या इच्छा थी?

पुरुराज –अपने राज्य की इच्छा और राष्ट्रद्रोह से मुक्ति। 

सिकन्दर –  मित्रता करने में भी राजद्रोह ?

पुरुराज  –  हाँ राजद्रोह! यवनराज! यह भारत राष्ट्र एक है, जहाँ अनेक राज्य हैं और बहुत से शासक हैं। तुम मैत्री सन्धि के द्वारा उनमें बँटवारा करके भारत को जीतना चाहते हो और आम्भीक इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

सिकन्दर  – भारत राष्ट्र एक है, तुम्हारा यह कथन गलत है। यहाँ राजा और प्रजा आपस में द्वेष करते हैं।

पुरुराज – यह सब हमारा (भारतीयों का) अन्दरूनी मामला है। हे यवनराज! उसमें बाहरी शक्ति का हस्तक्षेप सहन करने योग्य नहीं है। अलग धर्म, अलग भाषा, अलग पहनावा होने पर भी हम सब भारतीय हैं। हमारा राष्ट्र विशाल है, क्योंकि

श्लोक

 "जो समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में स्थित है, वह भारत नाम का देश है, जहाँ की सन्तान भारतीय हैं।"

गद्यांश 3

अलक्षेन्द्रः – अथ मे भारतविजयः दुष्करः 

पुरुराजः – न केवलं दुष्करः असम्भवोऽपि ।

अलक्षेन्द्रः  – (सरोषम्) दुर्विनीत, किं न जानासि, इदानी विश्वविजयिनः अलक्षेन्द्रस्य अग्रे वर्तसे?

पुरुराजः – जानामि, किन्तु सत्यं तु सत्यम् एव यवनराज !भारतीयाः वयं गीतायाः सन्देशं न विस्मरामः

अलक्षेन्द्रः  –कस्तावत् गीतायाः सन्देश: ?

पुरुराज: –श्रूयताम्

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । निराशीनिर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ।।

अलक्षेन्द्रः –(किमपि विचिन्त्य) अलं तव गीतया पुरुराज! त्वम् अस्माकं बन्दी वर्तसे। ब्रूहि कथं त्वयि वर्तितव्यम्। 

पुरुराजः अलक्षेन्द्रः यथैकेन वीरेण वीरं प्रति।

अलक्षेन्द्रः –  (पुरो: वीरभावेन हर्षितः) साधु वीर! साधु! नूनं वीरः असि। धन्यः त्वं, धन्या ते मातृभूमिः । (सेनापतिम् उद्दिश्य) सेनापते!

सेनापति: – सम्राट्

अलक्षेन्द्रः वीरस्य पुरुराजस्य बन्धनानि मोचय। 

सेनापतिः  –  यत् सम्राट् आज्ञापयति।

अलक्षेन्द्रः –(एकेन हस्तेन पुरोः द्वितीयेन च आम्भीकस्य हस्तं गृहीत्वा) वीर पुरुराज! सखे आम्भीक! इतः परं वयं सर्वे समानमित्राणि, इदानी मैत्रीमहोत्सवं सम्पादयामः ।

(सर्वे निर्गच्छन्ति)

अथवा

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। निराशीनिर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ||

सन्दर्भ प्रस्तुत नाट्य खण्ड हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'वीर: वीरेण पूज्यते' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में सिकन्दर और पुरु की वार्ता प्रस्तुत की गई है।

अनुवाद

सिकन्दर – तो फिर मेरी भारत-विजय कठिन है। 

पुरुराज –न केवल कठिन, बल्कि असम्भव भी है।

सिकन्दर  –(गुस्से से) हे दुष्ट! क्या तुम नहीं जानते कि इस समय (तुम) विश्वविजेता सिकन्दर के सामने हो?

पुरुराज –जानता हूँ, किन्तु यवनराज! सत्य तो सत्य ही है। हम भारतीय गीता के सन्देश को नहीं भूले हैं। 

सिकन्दर – तो गीता का सन्देश क्या है?

पुरुराज –

सुनिए श्लोक (यदि तुम) मारे गए तो स्वर्ग को प्राप्त करोगे और यदि जीत गए तो पृथ्वी के सुख का भोग करोगे। (इसलिए) इच्छा, मोह और सन्ताप (दु:ख) से दूर रहकर युद्ध करो।

सिकन्दर –(कुछ सोचकर) पुरुराज! अपनी गीता को रहने दो। तुम हमारे कैदी हो। बताओ, तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाए?

पुरुराज – जैसा एक वीर (दूसरे) वीर के साथ करता है। 

सिकन्दर –(पुरु के वीर-भाव से प्रसन्न होकर) ठीक है वीर! ठीक है। तुम निश्चय ही वीर हो। तुम धन्य हो, तुम्हारी मातृभूमि धन्य है। (सेनापति को लक्ष्य करके) सेनापति !

सेनापति – सम्राट!

सिकन्दर – वीर पुरुराज के बन्धन खोल दो।

सेनापति  – सम्राट की जो आज्ञा ।

सिकन्दर – (एक हाथ से पुरु का और दूसरे हाथ से आम्भीक का हाथ पकड़कर) वीर पुरुराज! मित्र आम्भीक! अब से हम सब समान मित्र हैं। अब हम मित्रता का उत्सव मनाते हैं।

(सब निकल जाते हैं।)

अथवा

श्लोक

 (यदि तुम) मारे गए तो स्वर्ग को प्राप्त करोगे और यदि जीत गए तो पृथ्वी के सुख का भोग करोगे। (इसलिए) इच्छा, मोह और संताप (दुःख) से दूर रहकर युद्ध करो।

           प्रश्न  – उत्तर

प्रश्न 1. वीरः केन पूज्यते?

उत्तर वीर: वीरेण पूज्यते । 

प्रश्न 2. पुरुराजः केन सह युद्धम् अकरोत् ?

उत्तर पुरुराज: अलक्षेन्द्रेण सह युद्धम् अकरोत्।

प्रश्न 3. अलक्षेन्द्रः कः आसीत् ?

उत्तर अलक्षेन्द्रः यवन देशस्य राजा आसीत्।

प्रश्न 4. पुरुराजः कः आसीत् ?

उत्तर पुरुराज: भारतस्य एकः वीरः नृपः आसीत् ।

प्रश्न 5. वीरभावोः किं कथ्यते?

उत्तर वीरभावो हि वीरता कथ्यते।

प्रश्न 6. भारतम् एकं राष्ट्रम् इति विरुद्धम् कस्य उक्तिः? 

उत्तर भारतम् एकं राष्ट्रम् इति विरुद्धम् इयम् अलक्षेन्द्रस्य उक्तिः

प्रश्न 7. भारतविजयः न केवलं दुष्करः असम्भवोऽपि, कस्य उक्तिः ?

 उत्तर भारतविजयः न केवलं दुष्कर: असम्भवोऽपि, इति पुरुराजस्य उक्तिः

प्रश्न 8. गीतायाः कः सन्देशा: ?

अथवा 

पुरुराजः गीतायाः कं सन्देशम् अकथयत् ?

उत्तर गीतायाः सन्देशः अस्ति यदि त्वं हतो तदा स्वर्गम् प्राप्यसि, जित्वा पृथ्वीम् भोक्ष्यसे । अतएव आशा-मोह-सन्तापरहित: भूत्वा युद्धं कुरु।

प्रश्न 9. किं जित्वा भोक्ष्यसे महीम् ? 

उत्तर युद्धं जित्वा भोक्ष्यसे महीम्

प्रश्न 10. अलक्षेन्द्रः पुरोः केन भावेन हर्षितः अभवत् ? 

उत्तर अलक्षेन्द्रः पुरोः वीरभावेन हर्षितः अभवत् ।

कक्षा 10 हिन्दी ‘संस्कृत खण्ड’04 प्रबुद्धो ग्रामीण : (बुद्धिमान ग्रामीण) के गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

गद्यांश 1

एकदा बहवः जना धूमयानम् (रेलगाड़ी) आरुह्य नगरं प्रति गच्छन्ति स्म। तेषु केचित् ग्रामीणाः केचिच्च नागरिकाः आसन्। मौनं स्थितेषु तेषु एकः नागरिकः ग्रामीणान् अकथयत्, "ग्रामीणाः अद्यापि पूर्ववत् अशिक्षिताः अज्ञाश्च सन्ति। न तेषां विकासः अभवत् न च भवितुं शक्नोति।” तस्य तादृशं जल्पनं श्रुत्वा कोऽपि चतुरः ग्रामीणः अब्रवीत्-“भद्र नागरिक! भवान् एव किञ्चित् ब्रवीतु, यतो हि भवान् शिक्षितः बहुज्ञः च अस्ति।"

अथवा

तस्य तां वार्ता श्रुत्वा स चतुरः ग्रामीणः अकथयत्-“भोः वयम् अशिक्षिताः भवान् च शिक्षितः, वयम् अल्पज्ञाः भवान् च बहुज्ञः इत्येवं विज्ञाय अस्माभिः समयः कर्त्तव्यः वयं परस्परं प्रहेलिकां प्रक्ष्यामः। यदि भवान् उत्तरं दातुं समर्थः न भविष्यति तदा भवान् दशरूप्यकाणि दास्यति। यदि वयम् उत्तरं दातुं समर्थाः न भविष्यामः तदा दशरूप्यकाणाम् अर्धं पञ्चरूप्यकाणि दास्यामः।"

अथवा

इदम् आकर्ण्य स नागरिकः सदर्पो ग्रीवाम् उन्नमय्य अकथयत्, "कथयिष्यामि, परं पूर्व समयः विधातव्यः।" तस्य तां वार्ता श्रुत्वा स चतुरः ग्रामीणः अकथयत्- “भोः वयम् अशिक्षिताः भवान् च शिक्षितः, वयम् अल्पज्ञाः भवान् च बहुज्ञः, इत्येवं विज्ञाय अस्माभिः समयः कर्त्तव्यः वयं परस्परं प्रहेलिकां प्रक्ष्यामः। यदि भवान् उत्तरं दातुं समर्थः न भविष्यति तदा भवान् दशरूप्यकाणि दास्यति। यदि वयम् उत्तरं दातुं समर्थाः न भविष्यामः तदा दशरूप्यकाणाम् अर्ध पञ्चरूप्यकाणि दास्यामः।”

अथवा

भवान् एवं किञ्चित् ब्रवीतु, यतो हि भवान् शिक्षितः बहुज्ञः च अस्ति। इदम् आकर्ण्य स नागरिकः सदर्पो ग्रीवाम् उन्नमय्य अकथयत्-"कथयिष्यामि, परं पूर्व समयः विधातव्यः।” तस्य तां वार्ता श्रुत्वा स चतुरः ग्रामीणः अकथयत्- "भोः वयम् अशिक्षिताः भवान् च शिक्षितः, वयम् अल्पज्ञाः भवान् च बहुज्ञः इत्येवं विज्ञाय अस्माभिः समयः कर्त्तव्यः वयं परस्परं प्रहेलिकां प्रक्ष्यामः।

सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'प्रबुद्धो ग्रामीणः' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में ग्रामीणों की चतुराई को हास्यपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ग्रामीण और शहरी के बीच पहेली पूछने का वर्णन है।

अनुवाद – एक बार बहुत से मनुष्य रेलगाड़ी पर सवार होकर नगर की ओर जा रहे थे। उनमें कुछ ग्रामीण और कुछ शहरी व्यक्ति थे, उनके (ग्रामीणों) मौन रहने पर एक शहरी ने ग्रामीणों का उपहास करते हुए कहा, "ग्रामीण आज भी पहले की तरह अशिक्षित और मूर्ख हैं। न तो उनका (अब तक) विकास हुआ है और न हो सकता है।" उसकी इस तरह की बातें सुनकर कोई चतुर ग्रामीण बोला, "हे सभ्य शहरी! आप ही कुछ कहें, क्योंकि आप ही पढ़े-लिखे और जानकार हैं। यह सुनते ही शहरी ने घमण्ड के साथ गर्दन ऊँची उठाकर कहा-" कहूँगा, पर हमें पहले एक शर्त लगा लेनी चाहिए।" उसकी इस बात को सुनकर उस चतुर ग्रामीण ने कहा, "अरे हम अशिक्षित हैं और आप शिक्षित हैं, हम कम जानते हैं और आप बहुत जानते हैं, ऐसा जानकर शर्त लगानी चाहिए! हम

गद्यांश 2

“आम् स्वीकृतः समयः" इति कथिते तस्मिन् नागरिके स ग्रामीणः नागरिकम् अवदत्-"प्रथमं भवान् एव पृच्छतु।" नागरिकश्च तं ग्रामीणम् अकथयत्- "त्वमेव प्रथमं पृच्छ” इति। इदं श्रुत्वा स ग्रामीणः अवदत् "युक्तम्, अहमेव प्रथमं पृच्छामि अस्या उत्तरं ब्रवीतु भवान्।"

अपदो दूरगामी च साक्षरो न च पण्डितः।

अमुखः स्फुटवक्ता च यो जानाति स पण्डितः॥

अथवा

नागरिकः बहुकालं यावत् अचिन्तयत्, परं प्रहेलिकायाः उत्तरं दातुं समर्थः न अभवत् । अतः ग्रामीणम् अवदत्" अहम् अस्याः प्रहेलिकायाः उत्तरं न जानामि।" इदं श्रुत्वा ग्रामीणः अकथयत् यदि भवान् उत्तरं न जानाति, तर्हि ददातु दशरूप्यकाणि ।” अतः म्लानमुखेन नागरिकेण समयानुसारं दशरूप्यकाणि दत्तानि।

अथवा

अपदो दूरगामी च साक्षरो न च पण्डितः।

अमुखः स्फुटवक्ता च यो जानाति स पण्डितः ॥

सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'प्रबुद्धो ग्रामीणः' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में ग्रामीणों की चतुराई को हास्यपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ग्रामीण और शहरी के बीच पहेली पूछने का वर्णन है।

इस अंश में ग्रामीण द्वारा नागरिक से पहेली पूछने का वर्णन किया गया है। 

अनुवाद "हाँ! शर्त स्वीकार है", उस शहरी द्वारा ऐसा कहे जाने पर उस ग्रामीण ने शहरी (व्यक्ति) से कहा, "पहले आप पूछें।" और शहरी ने उस ग्रामीण से कहा, "पहले तुम ही पूछो, "यह सुनकर वह ग्रामीण बोला, "ठीक है, मैं ही पहले पूछता हूँ

श्लोक "बिना पैर वाला है, किन्तु दूर तक जाता है, साक्षर (अक्षर सहित) है, किन्तु पण्डित नहीं है। मुख नहीं है, किन्तु स्पष्ट बोलने वाला है, जो इसे जानता है, वह पण्डित ज्ञानी है। आप इसका उत्तर दें।"

शहरी (व्यक्ति) बहुत देर तक सोचता रहा, लेकिन पहेली का उत्तर देने में असमर्थ रहा। अतः उसने ग्रामीण से कहा, मैं इस पहेली का उत्तर नहीं जानता हूँ। यह सुनकर ग्रामीण ने कहा, यदि आप उत्तर नहीं जानते हैं, तो दस रुपये दें। अतः उदास मुख वाले शहरी (व्यक्ति) ने दस रुपये शर्त के अनुसार दे दिए।

गद्यांश 3

पुनः ग्रामीणोऽब्रवीत् - "इदानीं भवान् पृच्छतु प्रहेलिकाम्।" दण्डदानेन खिन्नः नागरिकः बहुकालं विचार्य न काञ्चित् प्रहेलिकाम् अस्मरत्, अतः अधिकं लज्जमानः अब्रवीत्-"स्वकीयायाः प्रहेलिकायाः त्वमेव उत्तरं ब्रूहि " तदा सः ग्रामीणः विहस्य स्वप्रहेलिकायाः सम्यक् उत्तरम् अवदत् "पत्रम्" इति। यतो हि इदं पदेन विनापि दूरं याति, अक्षरैः युक्तमपि न पण्डितः भवति। एतस्मिन्नेव काले तस्य ग्रामीणस्य ग्रामः आगतः। स विहसन् रेलयानात् अवतीर्य स्वग्रामं प्रति अचलता नागरिकः लज्जितः भूत्वा पूर्ववत् तूष्णीम् अतिष्ठत्। सर्वे यात्रिणः वाचालं तं नागरिकं दृष्ट्वा अहसन् । तदा स नागरिकः अन्वभवत् यत् ज्ञानं सर्वत्र सम्भवति। ग्रामीणाः अपि कदाचित् नागरिकेभ्यः प्रबुद्धतराः भवन्ति ।

अथवा

एतस्मिन्नेव काले तस्य ग्रामीणस्य ग्रामः आगतः। स विहसन् रेलयानात् अवतीर्य स्वग्रामं प्रति अचलत्। नागरिकः लज्जितः भूत्वा पूर्ववत् तूष्णीम् अतिष्ठत्। सर्वे यात्रिणः वाचालं तं नागरिकं दृष्ट्वा अहसन्। तदा स नागरिकः अन्वभवत् यत् ज्ञानं सर्वत्र सम्भवति। ग्रामीणाः अपि कदाचित् नागरिकेभ्यः प्रबुद्धतराः भवन्ति।

सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'प्रबुद्धो ग्रामीणः' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में ग्रामीणों की चतुराई को हास्यपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ग्रामीण और शहरी के बीच पहेली पूछने का वर्णन है।

इस अंश में नागरिक द्वारा अपनी भूल की अनुभूति होने एवं सीख मिलने का वर्णन है।

अनुवाद – फिर ग्रामीण बोला "अब आप पहेली पूछें। दण्ड चुकाने (देने) से दुःखी शहरी बहुत समय तक सोचने-विचारने के बाद भी कोई पहेली न याद कर सका। अत: बहुत अधिक लज्जा का अनुभव करता हुआ बोला, "अपनी पहेली का उत्तर तुम ही दो" तब उस ग्रामीण ने हँसकर अपनी पहेली का सही-सही उत्तर दिया 'पत्र | क्योंकि वह (पत्र) पैरों के बिना भी दूर-दूर तक जाता है और अक्षरों से युक्त होने पर भी पण्डित नहीं होता है। इसी समय उस ग्रामीण का गाँव आ गया। वह हँसकर रेलगाड़ी से उतरकर अपने गाँव की ओर चल पड़ा। शहरी (व्यक्ति) लज्जित होकर पहले की तरह बैठा रहा। सारे यात्री उस बहुत बोलने वाले शहरी (व्यक्ति) को देख कर हँस रहे थे। तब उस शहरी (व्यक्ति) ने अनुभव किया कि ज्ञान हर स्थान पर सम्भव है। कभी ग्रामीण भी शहरियों से अधिक बुद्धिमान होते (निकल आते हैं।

प्रश्न 2. ग्रामीणान् उपहसन् नागरिकः किम् अकथयत्?

उत्तर  – ग्रामीणान् उपहसन् नागरिक: अकथयत्- "ग्रामीणा: अद्यापि पूर्ववत् अशिक्षिताः अज्ञाश्च सन्ति। न तेषां विकासः अभवत् न च भवितुम् शक्नोति।"

प्रश्न 3. नागरिकः कथं किमर्थं लज्जितः अभवत् ?

उत्तर नागरिक: ग्रामीणस्य प्रहेलिकायाः उत्तरम् दातुं न अशक्नोत् अतः सःलज्जितः अभवत् ।

प्रश्न 4. ग्रामीणस्य प्रहेलिकायाः किम् उत्तरम् आसीत् ?

अथवा 

प्रहेलिकायाः किम् उत्तरम् आसीत् ? 

उत्तर ग्रामीणस्य प्रहेलिकाया: उत्तरं आसीत् 'पत्रम्' ।

प्रश्न 5. पदेन बिना किम् दूरं याति।

उत्तर पदेन बिना पत्रं दूरं याति।

प्रश्न 6. अमुखोऽपि कः स्फुटवक्ता भवति?

उत्तर अमुखोऽपि पत्रं स्फुटवक्ता भवति। 

प्रश्न 7. धूमयाने समयः केन जितः ?

उत्तर धूमयाने समय: ग्रामीणेन जितः।

प्रश्न 8. अन्ते नागरिकः किम् अनुभवम् अकरोत् ?

अथवा

 क: अन्वभवत् यत् ज्ञानं सर्वत्र सम्भवति?

उत्तर अन्ते नागरिक: अनुभवं अकरोत् यत् ज्ञानम् सर्वत्र सम्भवति

प्रश्न 9. ज्ञानं कुत्र सम्भवति? 

उत्तर ज्ञानं सर्वत्र सम्भवति।

प्रश्न 10. ग्रामीणं नागरिकम् अपृच्छत् ?

उत्तर ग्रामीणं नागरिकम् एकं प्रहेलिकाम् अपृच्छत् ।

कक्षा 10वी हिन्दी‘ संस्कृत खण्ड’अध्याय 05 देशभगक्त : चंद्रशेखर के गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

 गद्यांश 1

( स्थानम् – वाराणसीन्यायालयः, न्यायाधीशस्य पीठे एकः दुर्धर्षः पारसीक: तिष्ठति, आरक्षकाः चन्द्रशेखरं तस्य सम्मुखम् आनयन्ति। अभियोगः प्रारभते।

चन्द्रशेखरः पुष्टाङ्गः गौरवर्णः षोडशवर्षीयः किशोर: ।)

आरक्षकःश्रीमन्! अयम् अस्ति चन्द्रशेखरः। अयं राजद्रोही। गतदिने अनेनैव असहयोगिनां सभायां एकस्य आरक्षकस्य दुर्जयसिंहस्य मस्तके प्रस्तरखण्डेन प्रहारः कृतः तेन दुर्जयसिंहः आहतः।

न्यायाधीशः - (तं बालकं विस्मयेन विलोकयन्) रे बालक! तव किं नाम?

चन्द्रशेखर: - आजाद: (स्थिरीभूय) ।

न्यायाधीशः - तव पितुः किं नाम?

चन्द्रशेखर: – स्वतन्त्रः ।

न्यायाधीशः – त्वं कुत्र निवससि? तव गृहं कुत्रास्ति?

चन्द्रशेखरः  – कारागार एव मम गृहम् ।

न्यायाधीशः - (स्वगतम्) कीदृशः प्रमत्तः स्वतन्त्रतायै अयम् ? (प्रकाशम्) अतीव धृष्ट: उद्दण्डश्चायं नवयुवकः ।

अहम् इमं पञ्चदश कशाघातान् दण्डयामि।

चन्द्रशेखरः – नास्ति चिन्ता।

अथवा

न्यायाधीशः - (तं बालकं विस्मयेन विलोकयन) रे बालक! तव किं नाम ?

चन्द्रशेखरः  –आजाद: (स्थिरीभूय) ।

न्यायाधीशः – तव पितुः किं नाम?

चन्द्रशेखरः - स्वतन्त्रः।

न्यायाधीशः – त्वं कुत्र निवससि? तव गृहं कुत्रास्ति?

चन्द्रशेखरः कारागार एवं मम गृहम्।

न्यायाधीशः –(स्वगतम्) कीदृशः प्रमत्तः स्वतन्त्रतायै अयम् ?

(प्रकाशम्) अतीव धृष्टः उद्दण्डश्चार्य नवयुवकः 

अथवा

आरक्षकः – श्रीमन्! अयम् अस्ति चन्द्रशेखरः। अयं राजद्रोही। गतदिने अनेनैव असहयोगिनां सभायां एकस्य आरक्षकस्य दुर्जयसिंहस्य मस्तके प्रस्तरखण्डेन प्रहारः कृतः तेन दुर्जयसिंह आहतः ।

न्यायाधीशः – (तं बालकं विस्मयेन विलोकयन्) रे बालक! तव कि नाम?

चन्द्रशेखरः– आजाद: (स्थिरीभूय) ।

न्यायाधीशः – तव पितुः किं नाम ?

चन्द्रशेखरः – स्वतन्त्रः 

न्यायाधीशः – त्वं कुत्र निवससि ? तव गृहं कुत्रास्ति?

चन्द्रशेखरः – कारागार एव मम गृहम् ।

सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'देशभक्तः चन्द्रशेखरः' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में देशभक्त बालक चन्द्रशेखर की निर्भीकता का वर्णन है।

अनुवाद – (स्थान- वाराणसी न्यायालय न्यायाधीश के आसन पर एक उच्छृंखल पारसी बैठा है। सिपाही चन्द्रशेखर को उसके सामने लाते हैं। मुकदमा शुरू होता है। चन्द्रशेखर पुष्ट अंगोंवाला गोरे रंग का सोलह वर्षीय किशोर है।)

सिपाही – श्रीमान! यह चन्द्रशेखर है। यह राजद्रोही है। पिछले दिनों इसने ही असहयोगियों की सभा में एक सिपाही दुर्जनसिंह के माथे पर पत्थर के टुकड़े से प्रहार किया, जिससे दुर्जनसिंह घायल हो गया।

न्यायाधीश – (उस बालक को आश्चर्य से देखते हुए) रे बालक! तेरा क्या नाम है?

चन्द्रशेखर – आजाद (दृढ़ होकर)।

न्यायाधीश – तेरे पिता का क्या नाम है?

चंद्रशेखर – स्वतन्त्र

न्यायाधीश – तुम कहाँ रहते हो? तुम्हारा घर कहाँ है? 

चन्द्रशेखर –जेलखाना (कारागार) ही मेरा घर है। 

न्यायाधीश – (अपने आप से) यह स्वतन्त्रता के लिए कितना मतवाला है? (प्रकट रूप में) यह अत्यन्त ढीठ और उद्दण्ड नवयुवक है। मैं इसे पन्द्रह कोड़ों की सजा देता हूँ।

चन्द्रशेखर – चिन्ता नहीं है।

             गद्यांश 2

(ततः दृष्टिगोचरौ भवतः- कौपीनमात्रावशेषः, फलकेन दृढं बद्धः चन्द्रशेखरः, कशाहस्तेन चाण्डालेन, अनुगम्यमानः कारावासाधिकारी गण्डासिंहश्च)

गण्डासिंहः – (चाण्डालं प्रति) दुर्मुख! मम आदेशसमकालमेव कशाघातः कर्त्तव्यः । (चन्द्रशेखर प्रति) रे दुर्विनीत युवक ! लभस्व इदानीं स्वाविनयस्य फलम्। कुरु राजद्रोहम्। दुर्मुख! कशाघातः एकः (दुर्मुखः चन्द्रशेखरं कशया ताड़यति।) 

चन्द्रशेखर  –    जयतु भारतम्

गण्डासिंह: – दुर्मुख! द्वितीयः कशाघात:। (दुर्मुख: पुन: ताडयति।)ताडित: चन्द्रशेखर: पुन: पुन: "भारतं जयतु" इति वदति। (एवं स पञ्चदशकशाघातैः ताडितः ।)

यदा चन्द्रशेखर: कारागारात् मुक्त: बहिः आगच्छति, तदैव सर्वे जनाः तं परितः वेष्टयन्ति, बहवः बालकाः तस्य पादयोः पतन्ति, तं मालाभि अभिनन्दयन्ति च

चन्द्रशेखरः – किमिदं क्रियते भवद्भिः ? वयं सर्वे भारतमातुः अनन्यभक्ताः । तस्याः शत्रूणां कृते मदीया: रक्तबिन्दवः अग्निस्फुलिङ्गाः भविष्यन्ति

("जयतु भारतम्" इति उच्चैः कथयन्तः सर्वे गच्छन्ति।)

सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'देशभक्तः चन्द्रशेखरः' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में देशभक्त बालक चन्द्रशेखर की निर्भीकता का वर्णन है।

अनुवाद (तब लँगोट मात्र धारण किए हुए, हथकड़ी से दृढ़तापूर्वक बँधे हुए चन्द्रशेखर तथा हाथ में कोड़ा थामे हुए चाण्डाल का अनुगमन करता हुआ जेल अधिकारी गण्डासिंह दिखाई पड़ता है।)

गण्डासिंह

(चाण्डाल से) हे दुर्मुख! मेरे आदेश देते ही कोड़े लगाना। (चन्द्रशेखर से) अरे उद्धण्ड युवक! अब तू अपनी उद्घण्डता का फल प्राप्त कर (और) राजद्रोह कर! हे दुर्मुख! एक कोड़े का प्रहार करो। (दुर्मुख चन्द्रशेखर को कोड़े लगाता है।)

चन्द्रशेखर – जय भारत।

गण्डासिंह –  हे दुर्मुख! दूसरा कोड़ा (लगा)। (दुर्मुख फिर कोड़ा लगाता है।) प्रताड़ित होने पर चन्द्रशेखर बार-बार कहता है। 'जय भारत'। (इस प्रकार वह पन्द्रह कोड़ों से पीटा जाता है।) जब चन्द्रशेखर बन्दीगृह (जेल) से छूटकर बाहर आता है, तब सारे लोग उसे चारों ओर से घेर लेते हैं। बहुत से बालक उसके पैरों पर गिरते हैं तथा मालाओं से उसका स्वागत करते हैं।

चन्द्रशेखर

आप लोग यह क्या कर रहे हैं? हम सब भारत माता के परम भक्त हैं। उसके दुश्मनों हेतु हमारी रक्त की ये बूंदे आग की चिंगारियाँ होगी। ('जय भारत' ऐसा ऊँची ध्वनि में कहते हुए सब चल पड़ते हैं।)

               प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. चन्द्रशेखरः कः आसीत् ?

उत्तर चन्द्रशेखर: एकः प्रसिद्धः क्रान्तिकारी देशभक्तः आसीत्।

प्रश्न 2. केन कारणेन चन्द्रशेखरः न्यायालये आनीत: ?

उत्तर चन्द्रशेखर: राजद्रोहस्य आरोपे न्यायालये आनीतः। 

प्रश्न 3. चन्द्रशेखर: स्वनाम किम् अकथयत् ?

उत्तर चन्द्रशेखर: स्वनाम आजादः इति अकथयत् ।

प्रश्न 4. चन्द्रशेखर: स्वपितुः नामः किम् अकथयत् ?

उत्तर चन्द्रशेखरः स्वपितुः नामः स्वतन्त्र इति अकथयत्।

प्रश्न 5. 'कारागार एवं मम गृहम्' इति कः अवदत् ? अथवा 

'कारागर एव मम गृहम् कस्य वचनम् अस्ति?

उत्तर 'कारागार एव मम गृहम्' इति चन्द्रशेखरः अवदत् । 

प्रश्न 6. चन्द्रशेखर: स्वगृहम् कुत्र किम् अवदत् ?

उत्तर चन्द्रशेखर: स्वगृहम् कारागारम् अवदत् । 

प्रश्न 7. न्यायाधीश: चन्द्रशेखरं किम् अदण्डयत् ?

अथवा

 न्यायाधीश: चन्द्रशेखरं कथम् अदण्डयत् ?

 उत्तर न्यायाधीश: चन्द्रशेखरं पञ्चदश कशाघातान् अदण्डयत्।

प्रश्न 8. दुर्मुखः कः आसीत् ? 

उत्तर दुर्मुख: चाण्डाल: आसीत्।

प्रश्न 9. कशयाताहितः चन्द्रशेखरः पुनःपुनः किम् अवदत् ?

 उत्तर कशयाताड़ितः चन्द्रशेखरः पुनः पुनः 'जयतु भारतम्' इति अवदत् । 

प्रश्न 10. चन्द्रशेखरस्य रक्तबिन्दवः अग्निस्फुलिङ्गाः केषां कृते भविष्यन्ति ?

उत्तर चन्द्रशेखरस्य रक्तबिन्दवः शत्रूणां कृते अग्निस्फुलिङ्गाः भविष्यन्ति

कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड 06 केन किं वर्धते? (किससे क्या बढ़ता है)गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

गद्यांश

सुवचनेन मैत्री,                  इन्दुदर्शनेन समुद्रः,

शृङ्गारेण रागः,                 विनयेन गुणः,

दानेन कीर्तिः,                 उद्यमेन श्रीः,

सत्येन धर्मः,।                 पालनेन उद्यानम्

सदाचारेण विश्वासः,          अभ्यासेन विद्या

न्यायेन राज्यम्,।              औचित्येन महत्त्वम्,

औदार्येण प्रभुत्वम्,             क्षमया तपः

पूर्ववायुना जलदः,               लाभेन लोभः,

पुत्रदर्शनेन हर्षः,                  मित्रदर्शनेन आह्लादः

दुर्वचनेन कलहः,।                तृणैः वैश्वानरः

नीचसङ्गेन दुश्शीलता,            उपेक्षया रिपुः

कुटुम्बकलहेन दुःखम्,।         दुष्टहृदयेन दुर्गतिः,

अशौचेन दारिद्र्यम्,              अपथ्येन रोगः

असन्तोषेण तृष्णा,                व्यसनेन विषयः।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'केन किं वर्धते?' पाठ से लिया गया है। इसमें जीवनोपयोगी बातें बतायी गई हैं कि किन-किन गुणों से क्या-क्या बढ़ता है।

अनुवाद – सुन्दर वचनों से मित्रता, चन्द्रमा के दर्शन से समुद्र, शृंगार करने से प्रेम, विनम्रता से गुण, दान से यश, परिश्रम करने से लक्ष्मी (धन), सत्य का पालन करने से धर्म, पालन-पोषण (देख-भाल) करने से उद्यान, सदाचार से विश्वास, अभ्यास से विद्या, न्याय करने से राज्य, उचित व्यवहार से महत्त्व, उदारता से प्रभुत्व, क्षमा से तप, पूर्व से चलने वाली हवा (पुरवाई) से बादल, लाभ से लोभ, पुत्र को देखने से खुशी, मित्र को देखने से आनन्द, बुरे वचनों से कलह, तिनकों (घास-फूँस) से आग, नीच लोगों की संगति से दुष्टता, उपेक्षा से शत्रु, परिवार के झगड़े से दुःख, दुष्ट हृदय से दुर्गति, अपवित्रता से दरिद्रता, अपथ्य (परहेज न करने से) से रोग, असन्तोष से लालच और बुरी आदतों से विषय वासना बढ़ती है।

प्रश्न 1. मैत्री केन वर्धते?

अथवा

 सुवचनेन किं वर्धते?

 उत्तर मैत्री सुवचनेन वर्धते

प्रश्न 2. समुद्र केन वर्धते ।

अथवा 

इन्दुदर्शनेन कः वर्धते?

उत्तर इन्दुदर्शनेन समुद्रः वर्धते ।

प्रश्न 3. दानेन का वर्धते?

अथवा 

कीर्तिः केन वर्धते?

उत्तर दानेन कीर्तिः वर्धते।

प्रश्न 4. श्री केन वर्धते?

उत्तर श्री उद्यमेन वर्धते।

प्रश्न 5. सत्येन कः वर्धते? 

अथवा 

धर्म: केन वर्धते?

उत्तर सत्येन धर्म: वर्धते ।

प्रश्न 6. उद्यानम् केन वर्धते?

उत्तर उद्यानम् पालनेन वर्धते।

प्रश्न 7. विद्या केन वर्धते? अथवा अभ्यासेन किं वर्धते? 

उत्तर विद्या अभ्यासेन वर्धते।

प्रश्न 8. औदार्येण किं वर्धते?

उत्तर औदार्येण प्रभुत्वं वर्धते

प्रश्न 9. तपः केन वर्धते?

उत्तर तपः क्षमया वर्धते

प्रश्न 10. लोभः केन वर्धते?

उत्तर लोभ लाभेन वर्धते।

प्रश्न 11. पुत्रदर्शनेन कः वर्धते? उत्तर पुत्रदर्शनेन हर्षः वर्धते ।

प्रश्न 12. कलहः केन वर्धते?

उत्तर कलह: दुर्वचनेन वर्धते

प्रश्न 13. वैश्वानरः केन वर्धते? उत्तर वैश्वानरः तृणैः वर्धते ।

प्रश्न 14. नीचसङ्गेन का वर्धते?

उत्तर नीच सङ्गेन दुश्शीलता वर्धते

प्रश्न 15. रिपुः कया वर्धते?

उत्तर रिपुः उपेक्षया वर्धते

प्रश्न 16. रोग: केन वर्धते?

उत्तर रोग: अपथ्येन वर्धते।

प्रश्न 17. तृष्णा केन वर्धते?

उत्तर तृष्णा असन्तोषेण वर्धते।

कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड 07 आरुणि श्वेतकेतु संवाद (आरुणि श्वेतकेतु संवाद)गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

गद्यांश 1

सह द्वादश वर्ष उपेत्य चतुर्विंशति वर्षः सर्वान् वेदानधीत्य महामना अनूचानमानी स्तब्ध एयाय। तं हपितोवाच श्वेतकेतो यन्नु सोम्येदं महामना अनूचानमानी स्तब्धोऽस्युत तमादेशमप्रायः

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित "छांदोग्य उपनिषद् पष्ठोध्याय से "आरुणि श्वेतकेतु संवाद" नामक पाठ से उद्धृत है।

अनुवाद कुमार श्वेतकेतु बारह वर्ष तक गुरु के समीप रहते हुए 24 वर्ष की आयु तक सभी वेदों का अध्ययन करके बड़े ही गर्वित भाव से अपने घर वापस आया। तब उसके पिता आरुणि ने कहा हे पुत्र श्वेतकेतु! तुम्हारे द्वारा जो कुछ भी अपने गुरु से सीखा गया है वह मुझे बतलाओ तब महान् मन वाले पुत्र श्वेतकेतु पिता के द्वारा यह पूछने पर स्तब्ध रह गया।

आरुणि ने श्वेतकेतु से पूछा बेटे क्या तुम्हारे गुरु जी ने वह रहस्य भी बताया है, जिससे सारा अज्ञात ज्ञात हो जाता है। श्वेतकेतु वह नहीं जानता था। इसलिए वह स्तब्ध रह गया। उसने नम्रता पूर्वक पिता से पूछा ऐसा वह कौन सा रहस्य है, जो मेरे आचार्य ने मुझे नहीं बताया तब आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को उस रहस्य के बारे में प्रवचन किया।

गद्यांश 2

श्वेतकेतुर्हारुणेय आस त् हँ पितोवाच श्वेतकेतो वस ब्रह्मचर्यम । न वै सौम्यास्मत्कुलीनोऽननूच्य बृहमबन्धुरिव भवतीति । येनाश्रुतं श्रुतम् भवत्यमत। मतमविज्ञानं विज्ञातंमिति। कथं नु भगवः से आदेशो भवतीति। न वै नूनं भगवन्तस्त एतदवेदिषुर्यद्धयेतद वेदिष्यन् कथं मे नावक्ष्यन्निति भगवान् स्त्वेव मे तद्ब्रवीत्विति तथा सोम्येति होवाच । 

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित "छांदोग्य उपनिषद् पष्ठोध्याय से "आरुणि श्वेतकेतु संवाद" नामक पाठ से उद्धृत है।

अनुवाद एक दिन आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से कहा कि बेटा, किसी गुरु के आश्रम में जाकर तुम ब्रह्मचर्य की साधना करो। वहाँ नम्रता पूर्वक सभी वेदों का गहन अध्ययन करो। यही हमारे कुल की परम्परा रही है कि हमारे वंश में कोई भी केवल 'ब्रह्म बन्धु' (अर्थात् केवल ब्राह्मणों का सम्बन्धी अथवा स्वयं वेदों को न जानने वाला) नहीं रहा, अर्थात् तुम्हारे सभी पूर्वज ब्रह्म ज्ञानी हुए हैं। आरुणि ने पुत्र श्वेतकेतु से पूछा हे वत्स! क्या तुम्हारे गुरु जी ने से वह रहस्य तुम्हें समझाया है, जिससे सारा अज्ञात ज्ञात हो जाता है।

बिना सुना भी सुनाई देने लगता है। अमत भी मत बन जाता है। बिना विशेष ज्ञात हुआ भी विशिष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है तथा कैसे वह भगवान् का आदेश होता है यह सब कुछ ज्ञान-विज्ञान, सत्- असत् आदि का रहस्य क्या तुम्हें मालूम है। श्वेतकेतु स्तब्ध रह गया, उसने पिता से निवेदन किया कि है पिता जी अज्ञात को ज्ञात करने वाले उस रहस्य को आप मेरे लिए आदेश अथवा उपदेश कीजिए। ऐसा श्वेतकेतु ने अपने पिता आरुणि से कहा।

गद्यांश 3 

यथा सोम्यैकेन नखनिकृन्तनेन सर्व कार्ष्णायसं विज्ञातं स्याद्वाचा रम्भण विकारो नामधेयं कृष्णायसमित्येव सत्यमेव सोम्य स आदेशो भवतीति।। यथा सोम्यैकेन लोहमणिना सर्व लोहमयं विज्ञातं, स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं लोहमित्येव सत्यम् ॥ 

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित "छांदोग्य उपनिषद् पष्ठोध्याय से "आरुणि श्वेतकेतु संवाद" नामक पाठ से उद्धृत है।

अनुवाद – जब आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को वेदाध्ययन के बाद गर्वित / घमण्डी जाना तो उन्होंने पुत्र श्वेतकेतु का घमण्ड दूर करने के लिए उससे पूछा कि पुत्र क्या तुम्हें मालूम है कि वह कौन-सी शक्ति है जिसे प्राप्त करने से हम वह सब जान लेते हैं जिसे हमने न तो देखा है, न उसके बारे में कभी सुना है और न ही कभी सोचा है। यह सुन कर श्वेतकेतु स्तब्ध रह गया। वह बोला कि पिता जी यह सब तो मेरे गुरु जी ने मुझे नहीं सिखाया। मेरे गुरु जी से मुझे जो विद्या / ज्ञान मिला है। वह मुझे मालूम है। कृपया करके आप मुझे उस रहस्य के बारे में बताइए। पिता ने पूछा हे सौम्य!

जिस प्रकार जो लोहा नाखून काटने वाले औजार (नेल कटर) में है वहीं लोहा लोहे से बनी अन्य वस्तुओं में भी है विद्यमान है। यह कैसे मालूम पड़ता है। श्वेतकेतु ने निवदेन किंया कि हे पिता श्री आप मुझे वह सब बतलाएँ। पिता ने कहा कि लोहे से बनी सभी चीजों में एक तत्त्व सर्वमान्य होता है वह है लौह तत्त्व / यही ज्ञान हमें मिट्टी से बनी चीजों में मिट्टी तत्त्व तथा सोने से बनी चीजों में सर्वमान्य 'सोना' तत्त्व समझना चाहिए। यही आदेश है तथा यही उपदेश भी है।

प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. श्वेतकेतु: कस्य पुत्रः आसीत् ?

 उत्तर श्वेतकेतुः आरुणेः पुत्रः असीत् ।

प्रश्न 2. श्वेतकेतुः कति वर्षाणि उपेत्य विद्याध्ययनम् अकरोत् ?

उत्तर श्वेतकेतुः द्वादश वर्षाणि उपेत्य विद्याध्ययनम अकरोत् ।

 प्रश्न 3. कः वेदान् अधीत्य स्तब्ध एयाय?

उत्तर श्वेतकेतुः सर्वान् वेदान् अधीत्य स्तब्ध एयाय

प्रश्न 4. ब्रह्मबन्धुरिव कस्य कुले न अभवत् ?

 उत्तर ब्रह्मबन्धुरिव श्वेतकेतोः कुले न अभवत्।

प्रश्न 5. "आरुणिः श्वेतकेतुः संवादः" कस्मात्, ग्रन्थात् उद्धृतः अस्ति? 

उत्तर "आरुणि: श्वेतकेतु : संवादः" छान्दोग्योपनिषदस्य षष्ठोध्यायात् उद्धृतःअस्ति।

कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड (08) भारतीया संस्कृति : (भारतीय संस्कृति)गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

गद्यांश 1

मानवजीवनस्य संस्करणम् संस्कृतिः। अस्माकं पूर्वजाः मानवजीवनं संस्कर्तुं महान्तं प्रयत्नम् अकुर्वन्। ते अस्माकं जीवनस्य संस्करणाय यान् आचारान् विचारान् च अदर्शयन् तत् सर्वम् अस्माकं संस्कृतिः। "विश्वस्य स्रष्टा ईश्वरः एक एव" इति भारतीयसंस्कृतेः मूलम् । विभिन्नमतावलम्बिनः विविधैः नामभि एकम् एव ईश्वर भजन्ते ।

अथवा

मानवजीवनस्य संस्करणम् संस्कृतिः। अस्माकं पूर्वजाः मानव जीवन संस्कर्तुं महान्तं प्रयत्नम् अकुर्वन्। ते अस्माकं जीवनस्य संस्करणाय यान् आचारान् विचारान् च अदर्शयन् तत् सर्वम् अस्माकं संस्कृतिः ।

सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित भारतीया संस्कृतिः' पाठ से लिया गया है। इस अंश में भारतीय संस्कृति के महत्त्व को बताया गया है।

अनुवाद मानव जीवन को सजाना-सँवारना ही संस्कृति है। हमारे पूर्वजों ने मानव जीवन को सँवारने के लिए महान् प्रयत्न किए थे। उन्होंने हमारे जीवन को सजाने-सँवारने के लिए जिन आचरण और विचारों को प्रदर्शित किया था, वह सब (ही) हमारी संस्कृति है।

'संसार की रचना करने वाला ईश्वर एक ही है, यह भारतीय संस्कृतिका मूल है। विभिन्न मतों के अनुयायी अलग-अलग नामों से ईश्वर का भजन करते हैं।

गद्यांश 2

“विश्वस्य स्रष्टा ईश्वर एक एव" इति भारतीयसंस्कृतेः मूलम् । विभिन्नमतावलम्बिनः विविधैः नामभि एकम् एव ईश्वर: भजन्ते । अग्निः, इन्द्रः, कृष्णः, करीमः, रामः, रहीमः, जिनः, बुद्धः, ख्रिस्तः, अल्लाहः इत्यादीनि नामानि एकस्य एव परमात्मनः सन्ति। तम् एव ईश्वरं जनाः गुरुः इत्यपि मन्यन्ते। अतः सर्वेषां मतानां समभावः सम्मानश्च अस्माकं संस्कृतेः सन्देशः

सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित भारतीया संस्कृतिः' पाठ से लिया गया है। इस अंश में भारतीय संस्कृति के महत्त्व को बताया गया है।

इस अंश में सभी मतों के प्रति आदर-भाव रखने को भारतीय संस्कृति का अंग बताया गया है।

अनुवाद 'संसार की रचना करने वाला ईश्वर एक ही है, यह भारतीय संस्कृति का मूल है। विभिन्न मतों के अनुयायी अलग-अलग नामों से ईश्वर का भजन करते हैं। अग्नि, इन्द्र, कृष्ण, करीम, राम, रहीम, जिन, बुद्ध, ईसा, अल्लाह आदि एक ही ईश्वर के विभिन्न नाम हैं। उसी ईश्वर को लोग गुरु के रूप में भी मानते हैं। अतः सभी मतों के प्रति एक समान भाव (रखना) और सम्मान (करना) ही हमारी संस्कृति का सन्देश है।

गद्यांश 3

भारतीया संस्कृतिः तु सर्वेषां मतावलम्बिनां सङ्गमस्थली। काले काले विविधाः विचाराः भारतीयसंस्कृतौ समाहिताः। एषा संस्कृतिः सामासिकी संस्कृतिः यस्याः विकासे विविधानां जातीनां सम्प्रदायानां, विश्वासानाञ्च योगदानं दृश्यते। अतएव अस्माकं भारतीयानाम् एका संस्कृति एका च राष्ट्रीयता। सर्वेऽपि वयं एकस्याः संस्कृतेः समुपासकाः एकस्य राष्ट्रस्य च राष्ट्रीयाः। यथा भ्रातरः परस्परं मिलित्वा सहयोगेन सौहार्देन च परिवारस्य उन्नतिं कुर्वन्ति, तथैव अस्माभिः अपि सहयोगेन सौहार्देन च राष्ट्रस्य उन्नतिः कर्त्तव्या।

अथवा

भारतीया संस्कृतिः तु सर्वेषां मतावलम्बिनां सङ्गमस्थली। काले काले विविधाः विचाराः भारतीयसंस्कृती समाहिताः । एषा संस्कृतिः सामासिकी संस्कृतिः यस्याः विकासे विविधानां जातीनां, सम्प्रदायानां, विश्वासानाञ्च योगदानं दृश्यते। अतएव अस्माकं भारतीयानाम् एका संस्कृति एका च राष्ट्रीयताः। 

सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित भारतीया संस्कृतिः' पाठ से लिया गया है। इस अंश में भारतीय संस्कृति के महत्त्व को बताया गया है।

इस अंश में भारतीय संस्कृति को विभिन्न धर्मों की संगमस्थली कहा गया है।

अनुवाद भारतीय संस्कृति तो सभी मतों को मानने वालों की संगमप्रस्थली है। समय-समय पर भारतीय संस्कृति में अनेक विचार आ मिले। यह संस्कृति समन्वयात्मक संस्कृति है, जिसके विकास में विविध जातियों, सम्प्रदायों और विश्वासों का योगदान दिखाई देता है। अतः हम भारतीयों की एक संस्कृति और एक राष्ट्रीयता है। हम सभी एक संस्कृति की उपासना करने वाले हैं और एक राष्ट्र के नागरिक हैं।

जिस प्रकार भाई-भाई परस्पर मिलकर सहयोग और प्रेम से परिवार की उन्नति करते हैं, उसी प्रकार हमें भी सहयोग और प्रेम से राष्ट्र की उन्नति करनी चाहिए।

गद्यांश 4

अस्माकं संस्कृतिः सदा गतिशीला वर्तते । मानवजीवनं संस्कर्तुम् एषा यथासमयं नवां नवां विचारधरां स्वीकरोति, नवा शक्ति च प्राप्नोति। अत्र दुराग्रहः नास्ति, यत् युक्तियुक्तं कल्याणकारि च तदत्र सहर्ष गृहीतं भवति। एतस्याः गतिशीलतायाः रहस्य मानवजीवनस्य शाश्वतमूल्येषु निहितम् तद् यथा सत्यस्य प्रतिष्ठा, सर्वभूतेषु समभावः विचारेषु औदार्यम्, आचारे दृढ़ता चेति।

सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित भारतीया संस्कृतिः' पाठ से लिया गया है। इस अंश में भारतीय संस्कृति के महत्त्व को बताया गया है।

इस अंश में भारतीय संस्कृति की उदारता पर प्रकाश डाला गया है।

अनुवाद हमारी संस्कृति निरन्तर गतिशील है। मानव जीवन को संस्कारित करने के लिए यह समय-समय पर नई-नई विचारधाराएँ अपनाती रहती है और नई शक्ति प्राप्त करती है। यहाँ हठधर्मिता नहीं है, जो (कुछ) उचित और कल्याणकारी है, वह यहाँ खुशी-खुशी स्वीकार होता है।

इसकी गतिशीलता का रहस्य मानव जीवन के लिए सदा रहने वाले आदर्शों जैसे-सत्य की प्रतिष्ठा, सभी प्राणियों के लिए एक समान भाव, विचारों में उदारता और आचरण की दृढ़ता, में समाया हुआ है।

गद्यांश 5

एषां कर्मवीराणां संस्कृतिः। "कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः" इति अस्याः उद्घोषः। पूर्व कर्म, तदनन्तरं फलम्' इति अस्माकं संस्कृतेः नियमः। इदानी यदा वयं राष्ट्रस्य नवनिर्माण संलग्नाः स्मः निरन्तरं कर्मकरणम् अस्माकं मुख्यं कर्त्तव्यम् । निजस्य श्रमस्य फलं भोग्यं, अन्यस्य श्रमस्य शोषणं सर्वथा वर्जनीयम्। यदि वयं विपरीतमु आचरामः तदा न वय सत्य भारतीय संस्कृतेः उपासकाः । वयं तदैव यथार्थ भारतीयाः यदास्माकम् आचारे विचारेच अस्माकं संस्कृति लक्षिता भवेत्। अभिलाषामः वयं यत् विश्वस्य अभ्युदयाय भारतीयसंस्कृते एषः दिव्यः सन्देश लोके सर्वत्र प्रसरेत् -

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।

 सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत्।।

अथवा

इदानीं यदा वयं राष्ट्रस्य नवनिर्माण संलग्नाः स्मः निरन्तरं कर्मकरणम् अस्माकं मुख्य कर्त्तव्यम्। निजस्य श्रमस्य फलं भोग्यं, अन्यस्य श्रमस्य शोषणं सर्वधा वर्जनीयम्। यदि वयं विपरीतम् आचरामः तदा न वयं सत्यं भारतीय संस्कृतेः उपासकाः। वयं तदैव यथार्थ भारतीयाः यदास्माकम् आचारे विचारे च अस्माकं संस्कृतिः लक्षिता भवेत्।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत् 

सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित भारतीया संस्कृतिः' पाठ से लिया गया है। इस अंश में भारतीय संस्कृति के महत्त्व को बताया गया है।

इस अंश में भारतीय संस्कृति के लिए सन्देश का उल्लेख किया गया है।

अनुवाद यह कर्मवीरों की संस्कृति है। इस लोक में कर्मरत रहते हुए (मनुष्य) सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करें यह इसका (भारतीय संस्कृति का) उद्घोष है। पहले कर्म, उसके बाद फल-यह हमारी संस्कृति का नियम है। इस समय जबकि हम सब राष्ट्र के नव-निर्माण में जुटे हैं, (तब) निरन्तर परिश्रम करना हमारा कर्तव्य है। अपने परिश्रम का फल भोगने योग्य है, दूसरे के परिश्रम का शोषण सब तरह से त्यागने योग्य है। यदि हम इसके विपरीत व्यवहार करते हैं, तो हम भारतीय संस्कृति के सच्चे उपासक नहीं हैं। हम सब तभी सच्चे भारतीय हैं, जब हमारे आचार और विचार में हमारी संस्कृति दिखाई दे। हम चाहते हैं कि विश्व के उत्थान के लिए भारतीय संस्कृति का यह दिव्य सन्देश संसार में सर्वत्र फैले

श्लोकसभी (मनुष्य) सुखी हों, सभी (मनुष्य) नीरोग हों या रोगों से दूर हों, सभी कल्याण देखें (पाएँ) और कोई भी दुःख का भागी न हो।

प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. भारतीय संस्कृतेः किं तात्पर्यम् अस्ति?

अथवा

 संस्कृति शब्दस्य किम् तात्पर्यम् अस्ति?

 उत्तर अस्माकं पूर्वजाः जीवनं संस्कर्तुं यान् आचारान विचारान् च अदर्शयन् तत् सर्वं भारतीय संस्कृतेः तात्पर्यम अस्ति।

प्रश्न 2. विश्वस्य स्रष्टा कः ?

उत्तर विश्वस्य स्रष्टा ईश्वरः।

प्रश्न 3. भारतीय संस्कृतेः मूलं किम् अस्ति?

अथवा 

किं भारतीय संस्कृतेः मूलम् ?

उत्तर विश्वस्य स्रष्टा ईश्वर: एक एव अस्ति इति भारतीय संस्कृते: मूलम् अस्ति। 

प्रश्न 4. भारतीय संस्कृते कः दिव्य: (प्रमुख) सन्देशः अस्ति?

अथवा

 अस्माकं भारतीय संस्कृतेः कः सन्देशः ?

अथवा

 भारतीय संस्कृतेः कः दिव्यः सन्देशः ?

उत्तर सर्वेषां मतानां समभावः सम्मानश्च भारतीय संस्कृतेः दिव्यः सन्देशः अस्ति।

प्रश्न 5. भारतीय संस्कृति कीदृशी वर्तते? 

अथवा 

अस्माकं संस्कृतिः कीदृशी वर्तते ?.

अथवा 

अस्माकं संस्कृतिः कीदृशी?

उत्तर भारतीय संस्कृतिः सदा गतिशीला वर्तते

प्रश्न 6. अस्माकं संस्कृतेः कः नियमः ?

उत्तर पूर्व कर्म, तदनन्तरं फलम् इति अस्माकं भारतीय संस्कृते 

प्रश्न 7. भारतीय संस्कृतिः कस्य अभ्युदयाय इति?

 नियमः अस्ति।

उत्तर विश्वस्य अभ्युदयाय भारतीय संस्कृतिः इति ।

प्रश्न 8. “मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्" कस्या अस्ति एष दिव्यः सन्देशः ?

 उत्तर "मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत" एषः भारतीय संस्कृतेः दिव्य सन्देशः ।

कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड 09 जीवन-सूत्राणि के पद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

पद्यांश 1 

किंस्विद् गुरुतरं भूमेः किंस्विदुच्चतरं च खात्? किंस्वित् शीघ्रतरं वातात् किंस्विद् बहुतरं तृणात्? माता गुरुतरा भूमेः खात् पितोच्चतरस्तथा। मनः शीघ्रतरं वातात् चिन्ता बहुतरी तृणात्।।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'जीवन-सूत्राणि' पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।

अनुवाद (यक्ष पूछता है) भूमि से अधिक श्रेष्ठ क्या है? आकाश से ऊँचा क्या है? वायु से ज्यादा तेज चलने वाला क्या है? (और) तिनकों से भी अधिक (दुर्बल बनाने वाला) क्या है?

(युधिष्ठिर जवाब देते हैं)-माता भूमि से अधिक भारी है (और)। पिता आकाश से भी ऊँचा है। मन वायु से भी तेज चलने वाला है। चिन्ता तिनकों से अधिक (दुर्बल बनाने वाली) है।

पद्यांश 2

किंस्विद प्रवसतो मित्रं किंस्विन् मित्रं गृहे सतः । आतुरस्य च किं मित्रं किंस्विन् मित्रं मरिष्यतः

अथवा

सार्थः प्रवसतो मित्रं भार्या मित्रं गृहे सतः । 

आतुरस्य भिषङ् मित्रं दानं मित्रं मरिष्यतः।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'जीवन-सूत्राणि' पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।

इस श्लोक में यक्ष-युधिष्ठिर के माध्यम से विदेश व घर पर रहने वाले तथा रोगी व मरने वाले के मित्र के बारे में पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए

अनुवाद (यक्ष पूछता है)-विदेश में रहने वाले व्यक्ति का मित्र कौन है ? गृहस्थ (घर में रहने वाले व्यक्ति का मित्र कौन है ? का मित्र कौन है और मरने वाले का मित्र कौन है ?

(युधिष्ठिर जवाब देते हैं)-साथ जा रहे लोगों का दल (कारवाँ) विदेश में रहने वालों का मित्र है (और) घर पर रहने वालों का मित्र उसकी पत्नी होती है। रोगी का मित्र वैद्य है और मरने वाले का मित्र दान है।

पद्यांश 3

किस्विदेकपदं धर्म्य किंस्विदेकपदं यशः ।

किस्विदेकपदं स्वर्ग्यं किंस्विदेकपदं सुखम्

अथवा

दाक्ष्यमेकपदं धर्म्य दानमेकपदं यशः । 

सत्यमेकपदं स्वर्ग्यं शीलमेकपदं सुखम् ।।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'जीवन-सूत्राणि' पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।

इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से धर्म, यश, स्वर्ग व सुख के मुख्य स्थान के बारे में पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।

अनुवाद (यक्ष पूछता है) धर्म का मुख्य स्थान क्या है? यश का मुख्य स्थान क्या है ? स्वर्ग का मुख्य स्थान क्या है? और सुख का मुख्य स्थान क्या है? (युधिष्ठिर जवाब देते हैं) - धर्म का मुख्य स्थान उदारता है, यश का मुख्य स्थान दान है, स्वर्ग का मुख्य स्थान सत्य है और सुख का मुख्य स्थान शील है।

पद्यांश 4

- धान्यानामुत्तमं किंस्विद् धनानां स्यात् किमुत्तमम् । लाभानामुत्तमं किं स्यात् सुखानां स्यात् किमुत्तमम् ।

अथवा

धान्यानामुत्तमं दायधनानामुत्तमं श्रुतम् ।

 लाभानां श्रेया आरोग्य सुखानां तुष्टिरुत्तमा

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'जीवन-सूत्राणि' पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।

इस श्लोक में अन्न, धन लाभ और सुख में उत्तम क्या है? ऐसा प्रश्न यक्ष युधिष्ठिर से पूछता है और युधिष्ठिर यश के प्रश्नों का उत्तर देते हैं।

अनुवाद (यक्ष पूछता है) अन्नों में उत्तम (अन्न) क्या है? धन में उत्तम (धन) क्या है? लाभों में उत्तम (लाभ) क्या है? सुखों में उत्तम (सुख) क्या है ?

(युधिष्ठिर जवाब देते हैं) अन्नों में उत्तम (अन्न) चतुरता है। धनों में

उत्तम (धन) शास्त्र है। लाभों में उत्तम (लाभ) आरोग्य है। सुखों में उत्तम (सुख) सन्तोष है।

पद्यांश 5

किं नु हित्वा प्रियो भवति किन्नु हित्वा न शोचति ।

किं नु हित्वार्थवान् भवति किन्नु हित्वा सुखी भवेत्

अथवा

मानं हित्वा प्रियो भवति क्रोधं हित्वा न शोचति ।

कामं हित्वार्थवान् भवति लोभं हित्वा सुखी भवेत्।।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'जीवन-सूत्राणि' पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।

इस श्लोक में यक्ष ने युधिष्ठिर से त्याग के महत्त्व से सम्बन्धित प्रश्न पूछे हैं और युधिष्ठिर उसका जवाब देते हैं।

अनुवाद (यक्ष पूछता है)-क्या त्यागकर (मनुष्य) प्रिय हो जाता है? क्या त्यागकर (मनुष्य) शोक नहीं करता? क्या त्यागकर (मनुष्य) धनवान होता है? क्या त्यागकर (मनुष्य) सुखी बनता है? (युधिष्ठिर जवाब देते हैं) अभिमान त्यागकर (मनुष्य) (सब का) प्रिय हो जाता है। क्रोध त्यागकर (मनुष्य) शोक नहीं करता है। कामना (इच्छा) त्यागकर (मनुष्य) धनवान बनता है और लोभ छोड़कर (मनुष्य) सुखी बनता है।

                  प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. किंस्विद् गुरुतरा भूमेः ? 

अथवा 

भूमेः गुरुतरं किम् अस्ति?

उत्तर माता गुरुतरं भूमेः

प्रश्न 2. पिता कस्मात् उच्चतरः भवति?

अथवा

 खात् (आकाशात्) उच्चतरं किम् अस्ति?

उत्तर पिता खात् उच्चतरः भवति

प्रश्न 3. वातात् शीघ्रतरं किम् भवति?

उत्तर वातात् शीघ्रतरं मनः भवति।

प्रश्न 4. धनानां उत्तमं धनं किम् अस्ति? 

उत्तर सर्वेषु उत्तमं धनं श्रुतम् अस्ति।

प्रश्न 5. अनृतं केन जयेत् ?

उत्तर सत्येन अनृतं जयेत् ।

प्रश्न 6. मनुष्य किं हित्वा सुखी भवेत? 

अथना 

मनुष्यः किं हित्वा सुखी भवति?

उत्तर मनुष्य लोभं हित्वा सुखी भवेत।

रस किसे कहते हैं? रस की परिभाषा, प्रकार एवं उदाहरण बिल्कुल सरल भाषा में

रस किसे कहते हैं? रस की परिभाषा, प्रकार एवं उदाहरण बिल्कुल सरल भाषा में

रस किसे कहते हैं?

रस हमारे अंदर के भाव Emotions को कहते हैं। रस यानी हमारे अंदर छुपे हुए ऐसे भाव होते हैं जिन्हें हम हर दिन अलग-अलग तरीके से व्यक्त करते रहते हैं।

इन्हीं रस के वजह से हर इंसान अपने अंदर के भाव को प्रगट करके दूसरों के सामने रखता है जिससे सामने वालों को पता चलता है असल में वह क्या कहना चाहता है या उसका उद्देश्य क्या है।रस को  किसी भाषा की जरूरत नहीं होती अपने चेहरे के भाव से यह प्रगट होते  रहते हैं।

रस के कितने अंग होते हैं

रस के चार अंग है और हर एक का अलग ही महत्व है।

1 विभाव 

2 अनुभाव

3 स्थाई भाव

4 संचारी भाव

रस कितने प्रकार के होते हैं

रस एक प्रकार के होते हैं इसलिए उन्हें नवरस  भी कहा जाता है। इन्हें अपनी जिंदगी के साथ साथ एक्टिंग और डांस में भी बहुत महत्व है नवरस मतलब जो एक इमोशंस है वह कौन से हैं, नौ रसों के नाम से बारे में हम अभी विस्तार से पड़ेंगे इन्हें नवरस के जरिए लोग अंदाजा लगाते हैं कि आपका Character कैसा है।

रस के प्रकार और स्थाई भाव

1.श्रृंगार रस का स्थाई भाव  -  रति

2 हास्य रस का स्थाई भाव - हास

3 करूणा रस का स्थाई भाव - शोक

रौद्र रस का स्थाई भाव - क्रोध

5 वीर रस का स्थाई भाव - उत्साह

वीभत्स रस का स्थाई भाव - जुगुप्सा

7 भयानक रस का स्थाई भाव - भय

8 अद्भुत रस रस का स्थाई भाव - विस्मय

9 शांत रस का स्थाई भाव - निर्वेद

10 वात्सल्य रस का स्थाई भाव - वत्सल्य

1 श्रृंगार रस श्रृंगार रस को रसराज और रसपति पिक आ जाता है। नायक और नायिका के मन में संस्कार रूप में स्थित प्रेम या प्रति जब रस की अवस्था को पहुंचकर आस्वादन के योग हो जाता है तो वह श्रृंगार रस कहलाता है।

सरल शब्दों में बताएं तो श्रृंगार रस की प्रेम समझना थोड़ा मुश्किल होता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का प्यार जताने का तरीका अलग अलग होता है।

यदि आप अपने माता पिता को प्रेम जता रहे हैं तो आपका प्यार का तरीका अलग होगा और यदि आप अपने पति या पत्नी को प्यार जता रहे हैं तो उसका तरीका बिल्कुल अलग होगा श्रृंगार रस को समझने के लिए सबसे पहले आपको यह समझना होगा कि आप किस व्यक्ति के प्रति अपना प्यार जता रहे हैं। 

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।

 जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।।

2 हास्य रस  लोगों को हंसाना बहुत ही मुश्किल काम है एक्टिंग की दुनिया में खुद सामने वाले ऑडियंस को हासाना  वह भी आसान काम नहीं होता है एक एक्टर को ऑडियंस को हंसाने के लिए बहुत ही ज्यादा presence of Mind और Sense of हुनर होना जरूरी है

हास रस इसमें ऐसी सिचुएशन होते हैं जिसमें हंसी की बात ज्यादा होती है अगर कोई आपका दोस्त आपसे पूछता है कि कैसा है और आप भी हंसी मजाक में ही उसका जवाब देंगे एकदम मस्त हूं यार यह अलग तरीके की हंसी होती है।

''मैं यह तोही मैं लाखी भगति अपूरब बाल ।

 लाही प्रसाद माला जु भौ  तनु कदम्य की माल'।।

3.करुण रस सहृदय हृदय में स्थित अशोक नामक स्थाई भाव का जब विभाव अनुभव और संचारी भाव के साथ सहयोग होता है उसे करुण रस कहते हैं।

सब बंघुन उनको सोच ताजी-ताजी गुरुकुल को नेह।

हां सुशील सूत! किमी कियो अंनत लोक में गेह।।

4.वीर रस सहृदय के हृदय में स्थित उत्साह नामक स्थाई भाव का जब विभव अनुभव और संचारी भाव के साथ सहयोग होता है उसे वीर रस कहते हैं।

सहृदय बलि का खोल, चल,भूडोल कर दे।

एक हिम गिरी एक्सर का मॉल करते।।

5.रौद्र रस  सहृदय के ह्रदय में स्थित क्रोध नामक स्थाई भाव का जब विभाव अनुभव और संचारी भाव से संयोग होता है उसे रौंद्र रस कहते हैं।

रे बालक ! कलवास बोलत रोही ना संभार।

 धनुहि सम त्रिपुरारी धनु, विदित सकल संसार।।

6.भयानक रस सहृदय के हृदय में स्थित बैनामा की स्थाई भाव का जब भी भाव अनुभव और संचारी भाव के साथ संयोग होता है उसे भयानक रस कहते हैं।

नभ ते झपटत बाज  लखि भूल्यो सकल प्रपंच।

 कंपित तन व्याकुल नयन, लावक के हिल्यो न रंच।।

7.अद्भुत रस सहृदय ह्रदय में स्थित आश्चर्य में स्थाई भाव का जब विभाव अनुभव और संचारी भाव के साथ सहयोग होता है उसे अद्रुत रस कहते हैं।

हनुमान की पूंछ में लगन ना पाई आग।

सिग्री लंका जर गई गए निशाचर भाग।।

8.वीभत्स रस  सह्रदय ह्रदय में स्थित निर्वेद नामक स्थाई भाव का जब विभाव अनुभव संचारी भाव के साथ सहयोग होता है तो उसे वीभत्स रस कहते हैं।

''विस्टा पूय रुधिर कच हाड़ा ।

बरषइ कबहुं उपल बहु हाडा''

9.शांत रस शांत रस में अध्यात्म और मौक्ष की भावना उत्पन्न होती है जिसमें परमात्मा की वास्तविक रूप को जानकर शांति मिलती है। वह है शांत रस  का स्थाई भाव निर्वेद यानी उदासीनता होता है।

मन रे तन कागद का पुतला।

 लोगै बूंद बिनसि जाए छिन में, गरब करें क्या इतना।।

10.वात्सल्य रस - जहां से छोटे बच्चे के प्रति प्रेम, स्नेह, दुलारा आदि का प्रमुखता से वर्णन किया जाता है वहां वात्सल्य रस होता है इसका स्थाई भाव वात्सल है। सूरदास ने वात्सल्य रस का सुंदर निरूपण किया है।

बाल दसा सुख निरखी जसोदा, पुनी पुनी नंद बुलवाति अंचरा - तर लैं ढाकी सूर , प्रभु कौ दूध पियावति

                     रस

काव्य को पढ़ने, सुनने या उस पर आधारित अभिनय देखने से मन में (अर्थात् सहृदय को) जो आनन्द प्राप्त होता है, उसे रस कहते हैं। रस को काव्य की आत्मा' भी कहा जाता है। भरतमुनि के अनुसार, "विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।""

रस के अवयव

रस के चार अवयव या अंग हैं-स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव तथा संचारी या व्यभिचारी भाव। इन चारों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। 

स्थायी भाव

स्थायी भाव का अर्थ है-प्रधान भाव। जो भाव मनुष्य के हृदय में सदैव स्थायी रूप से विद्यमान होते हैं, उन्हें स्थायी भाव कहते हैं। स्थायी भावों की संख्या 9 मानी गई है, किन्तु बाद में आचार्यों ने दो और भावों (वात्सल्य और भक्ति रस) को स्थायी भाव मान लिया। इस प्रकार स्थायी भावों की संख्या 11 हो गई है, जो निम्न प्रकार हैं

क्र.सं

स्थायी भाव

रस

अर्थ

1.

रति/प्रेम

श्रृंगार रस

स्त्री-पुरुष का प्रेम

2

शोक

करुण रस

प्रिय के वियोग या हानि के कारण शोक भाव

3

निर्वेद

शान्त रस

संसार के प्रति उदासीन भाव


4

क्रोध

रौद्र रस

किसी कार्य की असफलता के कारण उत्पन्न भाव

5

उत्साह

वीर रस

दया, दान, वीरता आदि के सम्बन्ध में प्रसन्नता का भाव


6

हास


हास्य रस

अंगों या वाणी के विकास से उत्पन्न

उल्लास, हँसी


7

भय

भयानक रस

भयानक जीव या वस्तु को देखकर मन में उत्पन्न डर

8

जुगुप्सा/घृणा/ग्लानि

वीभत्स रस

घिनौने पदार्थ से मन में ग्लानि उत्पन्न होना; दूसरों की की जाने वाली निन्दा

9

विस्मय / आश्चर्य

अद्भुत रस

आकर्षक वस्तु देखकर मन में उत्पन्न आश्चर्य का भाव

10

वत्सलता/स्नेह

वात्सल्य रस

माता-पिता का सन्तान के प्रति प्रेम भाव


11

देव विषयक,

रति / अनुराग

भक्ति रस

ईश्वर के प्रति मन में उत्पन्न प्रेम भाव

विभाव

विभाव से अभिप्राय उन वस्तुओं, परिस्थितियों एवं विषयों के वर्णन से है, जिनके प्रति मन में किसी प्रकार का भाव या संवेदना जाग्रत होती है अर्थात् भाव के जो कारण होते हैं, उन्हें 'विभाव' कहते हैं। विभाग दो प्रकार के होते हैं, जो निम्न हैं

(i) आलम्बन विभाव किसी व्यक्ति अथवा वस्तु के कारण किसी व्यक्ति के मन में जब कोई स्थायी भाव जाग्रत होता है, तो उस व्यक्ति या वस्तु को उस भाव का 'आलम्बन विभाव' कहते हैं।

उदाहरण यदि किसी व्यक्ति के मन में मगरमच्छ को देखकर भय का स्थायी भाव जाग्रत हो जाए, तो यहाँ मगरमच्छ उस व्यक्ति के मन में उत्पन्न भय' नामक स्थायी भाव का आलम्बन विभाव होगा।

(ii) उद्दीपन विभाव – आश्रय के मन में भाव को उद्दीप्त करने वाले विषय की बाहरी चेष्टाओं और बाह्य वातावरण को 'उद्दीपन विभाव' कहते हैं। उदाहरण दुष्यन्त शिकार खेलते हुए कण्व के आश्रम में पहुँच जाते हैं। वहाँ वे शकुन्तला को देखते हैं। शकुन्तला को देखकर दुष्यन्त के मन में आकर्षण या रति भाव उत्पन्न होता है। उस समय शकुन्तला की शारीरिक चेष्टाएँ दुष्यन्त के मन में रति भाव को और अधिक तीव्र करती हैं। इस प्रकार, शकुन्तला की शारीरिक चेष्टाओं को उद्दीपन विभाव कहा जाएगा।

अनुभाव

जहाँ विषय की बाहरी चेष्टाओं को उद्दीपन कहा जाता है, वहीं आश्रय के शारीरिक विकारों को 'अनुभाव' कहते हैं। अनु का अर्थ है-पीछे अर्थात् बाद में स्थायी भाव के उत्पन्न होने पर उसके पश्चात् जो भाव उत्पन्न होते हैं, उन्हें अनुभाव कहा जाता है। अनुभावों के चार भेद होते हैं

1. कायिक शरीर की बनावटी (कृत्रिम) चेष्टा को कायिक अनुभाव कहते हैं।

2. मानसिक हृदय की भावना के अनुकूल मन में आनन्द, सुख, दुःख या मस्तिष्क में तनाव आदि से उत्पन्न होने वाले भाव, मानसिक अनुभाव कहलाते हैं। 

3. आहार्य मन के भावों के अनुसार अलग-अलग प्रकार की बनावटी वेश-रचना करने को आहार्य अनुभाव कहते हैं।

 4. सात्विक जो अनुभाव मन में आए भाव के कारण स्वयं प्रकट हो जाते हैं, सात्विक भाव कहलाते हैं। ऐसे शारीरिक विकारों पर आश्रय का कोई वश नहीं चलता।

सामान्यतः आठ प्रकार के सात्विक अनुभाव माने गए हैं- (i) स्तम्भ (शरीर के अंगों का जड़ हो जाना), (ii) स्वेद (पसीने-पसीने हो जाना), (iii) रोमांच (रोंगटे खड़े हो जाना), (iv) स्वर भंग (आवाज़ न निकलना), हकलाना (v) कम्प (काँपना), (vi) विवर्णता (चेहरे के रंग उड़ जाना), (vii) अश्रु (आँसू), (viii) प्रलाप (सुध-बुध खो बैठना)

संचारी या व्यभिचारी भाव

स्थायी भाव के साथ आते-जाते रहने वाले अन्य भावों को अर्थात् मन के चंचल विकारों को 'संचारी या व्यभिचारी भाव' कहते हैं। यह भी आश्रय के मन में उत्पन्न होता है। एक ही संचारी भाव कई रसों के साथ हो सकता है। वह पानी के बुलबुले की तरह उठता और शान्त होता रहता है। उदाहरण के लिए; शकुन्तला के प्रति रति भाव के कारण उसे देखकर दुष्यन्त के

मन में मोह, हर्ष, आवेग आदि जो भाव उत्पन्न हुए, उन्हें संचारी भाव कहते हैं। 

संचारी भावों की संख्या तैंतीस (33) बताई गई है।  जो इस प्रकार हैं-(1) निर्वेद, (2) आवेग, (3) दैन्य, (4) श्रम, (5) मद, (6) जड़ता (7) उग्रता, (8) मोह. (9) विबोध, (10) स्वप्न, (11) अपस्मार (12) गर्व, (13) मरण, (14) अलसता, (15) अमर्ष, (16) निद्रा, (17) अवहित्था, (18) औसुक्य, (19) उन्माद, (20) शंका, (21) स्मृति, (22) मति, (23) व्याधि, (24) सन्त्रास, (25) लज्जा, (26) हर्ष, (27) असूया, (28) विषाद, (29) धृति, (30) चपलता, (31) ग्लानि, (32) चिन्ता (33) वितर्क ।

रस के भेद

रस के मुख्यतः ग्यारह भेद होते हैं-शृंगार, करुण, शान्त, रौद्र, वीर, हास्य भयानक, वीभत्स, अद्भुत, वात्सल्य, भक्ति आदि।

हास्य रस

किसी पदार्थ या व्यक्ति की आकृति, वेशभूषा, चेष्टा आदि को देखकर सहृदय में जो विनोद का भाव जाग्रत होता है, उसे हास कहा जाता है। यही हास जब विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से पुष्ट हो जाता है, तो उसे 'हास्य रस' कहा जाता है।

उदाहरण

"गोपियाँ कृष्ण को बाला बना, वृष भावन के भवन चली मुसकाती वहाँ उनको निज सजनि बता,

रहीं उसके गुणों को बतलातीं। स्वागत में उठ राधा ने ज्यों, निज कंठ लगाया तो वे थीं ठठातीं

'होली है, होली है' कहके भी सब भेद बताकर खूब हँसाती।"

उपरोक्त उदाहरण में, कृष्ण का गोपी रूप धारण करना आलम्बन है तथा गोपियाँ आश्रय हैं। होली के त्योहार का वातावरण उद्दीपन विभाव है। गोपियों का हँसना, मुस्काना, कृष्ण की चेष्टाएँ अनुभाव हैं तथा लज्जा, हर्ष, चपलता आदि संचारी भाव हैं।

करुण रस

जब प्रिय व्यक्ति या मनचाही वस्तु के नष्ट होने या उसका कोई अनिष्ट होने पर हृदय शोक से भर जाए, तब 'करुण रस' जाग्रत होता है। इसमें विभाव, अनुभाव व संचारी भावों के मेल से शोक स्थायी भाव का जन्म होता है।

उदाहरण

"मेरे हृदय के हर्ष हा! अभिमन्यु अब तू है कहाँ?”

उपरोक्त उदाहरण में, द्रौपदी अभिमन्यु की मृत्यु के दुःख में डूबी हुई हैं। यहाँ द्रौपदी आश्रय है, अभिमन्यु का मृत शरीर आलम्बन है तथा शोकाकुल वातावरण उद्दीपन है। रोना, विलाप करना अनुभाव है। द्रौपदी का अभिमन्यु को याद करना, बीच-बीच में जड़ा (स्थिर) हो जाना इत्यादि संचारी भाव हैं। इस प्रकार यहाँ 'शोक' स्थायी भाव के कारण करुण रस की उत्पत्ति हुई है।

                   प्रश्न – उत्तर

प्रश्न 1. हास्य रस की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए।

अथवा

 हास्य रस की परिभाषा लिखिए तथा उसका एक उदाहरण दीजिए।

 अथवा

 हास्य रस का स्थायी भाव लिखिए तथा एक उदाहरण बताइए।

अथवा हास्य रस की परिभाषा लिखते हुए एक उदाहरण दीजिए। 

 उत्तर परिभाषा किसी पदार्थ या व्यक्ति की असाधारण आकृति, वेशभूषा, चेष्टा आदि को देखकर सहृदय में जो विनोद का भाव जाग्रत होता है, उसे हास कहा जाता है। यही हास जब विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से पुष्ट हो जाता है, तो उसे 'हास्य रस' कहा जाता है। 

उदाहरण "नाना वाहन नाना वेषा। विंहसे सिव समाज निज देखा।

कोउ मुखहीन, बिपुल मुख काहू। बिन पद-कर कोउ बहु पदबाहू।।"

स्पष्टीकरण

1. स्थायी भाव।      हास

 2. विभाव

(i) आलम्बन विभाव शिव समाज

(ii) आश्रयालम्बन स्वयं शिव

(iii) उद्दीपन  विचित्र वेशभूषा 

3. अनुभाव शिवजी का हँसना

4. संचारी भाव रोमांच, हर्ष, चापल्य अत: यहाँ 'हास्य रस' की निष्पत्ति हुई है।

प्रश्न 2. करुण रस की परिभाषा/लक्षण उदाहरण सहित लिखिए।

अथना 

करुण रस की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए। 

अथना 

करुण रस की परिभाषा लिखिए एवं उसका एक उदाहरण भी दीजिए।

अथना 

करुण रस को परिभाषित करते हुए उसका एक उदाहरण दीजिए।

अथवा 

करुण रस का स्थायी भाव लिखिए और एक उदाहरण भी दीजिए। 

अथना 

करुण रस का स्थायी भाव बताते हुए एक उदाहरण दीजिए।

 उत्तर परिभाषा प्रिय व्यक्ति या मनचाही वस्तु के नष्ट होने या उसका कोई अनिष्ट होने पर हृदय शोक से भर जाए, तब 'करुण रस' की निष्पत्ति होती है। इसमे विभाव, अनुभाव व संचारी भावों के संयोग से शीक स्थायी भाव का संचार होता है। 

उदाहरण

"अभी तो मुकुट बँधा था माथ, हुए कल ही हल्दी के हाथ खुले भी न थे लाज के बोल, खिले थे चुम्बन शून्य कपोल।।हाय रुक गया यहीं संसार,बना सिन्दूर अनल अंगार वातहत लतिका यह सुकुमार, पड़ी है छिन्नाधार!"

स्पष्टीकरण

1. स्थायी भाव शोक

 2. विभाव

(i) आलम्बन विभाव मृत पति

 (ii) आश्रयालम्बन नवविवाहित विधवा

(iii) उद्दीपन मुकुट का बँधना, हल्दी के हाथ होना, लाज के बोल न खुलना। 

3. अनुभाव वायु से आहत लता के समान नायिका का बेसहारा और बेसुध पड़े रहना।

 4. संचारी भाव दैन्य, स्मृति, जड़ता, विषाद आदि।

इस प्रकार यहाँ 'करुण रस' की अभिव्यक्ति हुई है। 

प्रश्न 3. निम्नलिखित में प्रयुक्त रस को पहचानकर लिखिए।

"बिन्ध्य के बासी उदासी तपोव्रतधारि महा बिनु नारि दुखारे। गौतमतीय तरी तुलसी, सो कथा सुनि भै मुनिबृन्द सुखारे ।।है हैं सिला सब चन्द्रमुखी, परसे पद-मंजुल-केज तिहारे।कीन्हीं भली रघुनायक जू करुना करि कानन को पगु धारे।।” 

उत्तर प्रस्तुत पद में हास्य रस है।

 स्पष्टीकरण

1. स्थायी भाव हास

2. विभाव

(i) आश्रयालम्बन पाठक

(ii) आलम्बन विन्ध्य के उदास वासी

(iii) उद्दीपन गौतम की स्त्री का उद्धार, स्तुति करना, अहिल्या की कथा सुनना, राम के आगमन पर प्रसन्न होना।

3. अनुभाव हँसना, मुनियों की कथा आदि सुनना। 

4. संचारी भाव हर्ष, स्मृति आदि।

अतः यहाँ 'हास्य रस' की निष्पत्ति हुई है।

प्रश्न 4. निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त रस का उल्लेख कीजिए

 अथवा 

निम्नलिखित पद्यांश में कौन-सा रस है? उसका नाम और स्थायी भाव लिखकर उस रस की परिभाषा लिखिए।

"हॉस-हॉस भाजै देखि दूलह दिगम्बर को, पाहुनी जे आवै हिमाचल के उछाह में।"

अथवा

 "सीस पर गंगा हँसै, भुजनि भुजंगा हँसै, हास ही को दंगा भयो, नंगा के विवाह में।।

उत्तर प्रस्तुत पंक्तियों में 'हास्य रस' है तथा इसका स्थायी भाव 'हास' है।

 परिभाषा किसी पदार्थ या व्यक्ति की असाधारण आकृति, वेशभूषा, चेष्टा आदि को देखकर सहृदय के मन में जो विनोद का भाव जाग्रत होता है, उसे 'हास' कहा जाता है। यही हास जब विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से पुष्ट हो जाता है, तो उसे 'हास्य रस' कहा जाता है।

प्रश्न 5. निम्नलिखित पद्यांश में कौन-सा रस है? उस रस का नाम तथा परिभाषा लिखिए।

हा! वृद्धा के अतुल धन हा! वृद्धता के सहारे!

हा! प्राणों के परम प्रिय हा! एक मेरे दुलारे!”

उत्तर उपरोक्त पद्यांश में 'करुण रस' है। इसका स्थायी भाव 'शोक' है।

परिभाषा जब प्रिय या मनचाही वस्तु के नष्ट होने या उसका कोई अनिष्ट होने पर हृदय शोक से भर जाए, तब करुण रस की निष्पत्ति होती है। इसमें विभाव, अनुभाव व संचारी भावों के मेल से शोक स्थायी भाव का संचार होता है। 

प्रश्न 6. निम्नलिखित पंक्तियों में कौन-सा रस है? उसका स्थायी भाव लिखिए।

(i) जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फन करिबर कर हीना।। अस मम जिवन बन्धु बिन तोही। जौ जड़ दैव जियावै मोही।।

(ii) राम-राम कहि राम कहि, राम-राम कहि राम।

तन परिहरि रघुपति विरह, राउ गयउ सुरधाम ।।

(iii) चहुँ दिसि कान्ह-कान्ह कहि टेरत, अँसुवन बहत पनारे। 

(iv) हे खग-मृग हे मधुकर श्रेनी! तुम्ह देखी सीता मृगनैनी।।

(v) मम अनुज पड़ा है चेतनाहीन होके, तरल हृदयवाली जानकी भी नहीं है। अब बहु दुःख से अल्प बोला न जाता, क्षणभर रह जाता है न उद्विग्नता से।।

(vi) तात तात हा तात पुकारी परे भूमितल व्याकुल भारी ।। चलन न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेउ मोही।।

(vii) जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेही न बिलोकी भूली ।। पुनि-पुनि मुनि उकसहि अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसुकाहीं।।

उत्तर

(i) रस - करुण

स्थायी भाव – शोक

(ii) रस – करुण 

स्थायी भाव – शोक

(iii) रस  – करुण

 स्थायी भाव – शोक

(iv) रस   – करुण

स्थायी भाव – शोक

(v) रस  - करुण

स्थायी भाव – शोक

(vi) रस - करुण

स्थायी भाव – शोक

(vii) रस  –   हास्य

स्थायी भाव –हास

प्रश्न. निम्नलिखित में से किसी एक रस के स्थायी भाव के साथ उसकी परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए- शृंगार, वीर, करुण, हास्य, शान्त।

              श्रृंगार रस 

अर्थ- सहृदय नायक-नायिका के चित्त में रति नामक स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से संयोग होता है तो वह शृंगार रस का रूप धारण कर लेता है। इस रस के दो भेद होते हैं

संयोग और वियोग, जिन्हें क्रमशः सम्भोग और विप्रलम्भ भी कहते हैं।

संयोग शृंगार  –संयोग-काल में नायक और नायिका की पारस्परिक रति को संयोग शृंगार कहा जाता है। 

उदाहरण

कौन हो तुम वसन्त के दूत विरस पतझड़ में अति सुकुमार; घन तिमिर में चपला की रेख

तपन में शीतल मन्द बयार! - प्रसाद: कामायनी 

इस प्रकरण में रति स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव है-श्रद्धा (विषय) और मनु (आश्रय)। उद्दीपन विभाव है-एकान्त प्रदेश, श्रद्धा की कमनीयता, कोकिल-कण्ठ और रम्य परिधान संचारी भाव है— आश्रय मनु के हर्ष, चपलता, आशा, उत्सुकता आदि भाव। इस प्रकार विभावादि से पुष्टि रति स्थायी भाव संयोग शृंगार रस की दशा को प्राप्त हुआ है।

वियोग शृंगार – जिस रचना में नायक एवं नायिका के मिलन का अभाव रहता है और विरह का वर्णन होता है, वहाँ वियोग शृंगार होता है।

 उदाहरण

मेरे प्यारे नव जलद से कंज से नेत्र वाले जाके आये न मधुवन से औ न भेजा सँदेशा। मैं रो-रो के प्रिय-विरह से बावली हो रही हूँ जा के मेरी सब दुख-कथा श्याम को तू सुना दे ।।

- हरिऔध: प्रियप्रवास 

इस छन्द में विरहिणी राधा की विरह-दशा का वर्णन किया गया है। रति स्थायी भाव है। राधा आश्रय और श्रीकृष्ण आलम्बन विभाव है। शीतल, मन्द पवन और एकान्त उद्दीपन विभाव है। स्मृति, रुदन, चपलता, आवेग, उन्माद आदि संचारियों से पुष्ट श्रीकृष्ण से मिलन के अभाव में यहाँ वियोग शृंगार रस का परिपाक हुआ है।

वीर रस

अर्थ- -उत्साह की अभिव्यक्ति जीवन के कई क्षेत्रों में होती है। शास्त्रकारों ने मुख्य रूप से ऐसे चार क्षेत्रों का उल्लेख किया है - युद्ध, धर्म, दया और दान। अतः इन चारों को लक्ष्य कर जब उत्साह का भाव जाग्रत और पुष्ट होता है तब वीर रस उत्पन्न होता है। उत्साह नामक स्थायी भाव; विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से वीर रस की दशा को प्राप्त होता है। 

उदाहरण

साजि चतुरंग सैन अंग मैं उमंग धारि, सरजा सिवाजी जंग जीनत चलत हैं।भूषन भनत नाद बिहद नगारन के,

नदी नद मद गैबरन के रलत हैं।

स्पष्टीकरण प्रस्तुत पद में शिवाजी की चतुरंगिणी सेना के प्रयाण का चित्रण है। 'शिवाजी के हृदय का उत्साह' स्थायी भाव है। 'युद्ध को जीतने की इच्छा' आलम्बन है। 'नगाड़ों का बजना' उद्दीपन है। 'हाथियों के मद का बहना' अनुभाव है तथा 'उग्रता' संचारी भाव है।

करुण रस

अर्थ -बन्धु - विनाश, बन्धु - वियोग, द्रव्य-नाश और प्रेमी के सदैव के लिए बिछड़ जाने से करुण रस उत्पन्न होता है। शोक नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से करुण रस दशा को प्राप्त होता है। 

उदाहरण

क्यों छलक रहा दुःख मेरा ऊषा की मृदु पलकों में, हाँ! उलझ रहा सुख मेरा सन्ध्या की घन अलकों में।

 – ‘आँसू' से

स्पष्टीकरण- प्रस्तुत पद में कवि के अपनी प्रेयसी के विरह में रुदन का वर्णन किया गया है। इसमें 'कवि के हृदय का शोक' स्थायी भाव है। यहाँ प्रियतमा आलम्बन है तथा प्रेमी (कवि) आश्रय है। कवि के हृदय के उद्गार अनुभाव हैं। के अन्धकाररूपी केशपाश तथा सन्ध्या उद्दीपन हैं। अश्रुरूपी प्रातःकालीन ओस की बूँदें संचारी भाव हैं। इस सबसे पुष्ट शोक नायक स्थायी भाव करुण रस की दशा को प्राप्त हुआ है।

वियोग शृंगार तथा करुण रस में अन्तर—वियोग शृंगार तथा करुण रस में मुख्य अन्तर प्रियजन के वियोग का है। वियोग शृंगार में बिछड़े हुए प्रियजन से पुन: मिलन की आशा बनी रहती है, परन्तु करुण रस में इस प्रकार के मिलन की कोई सम्भावना नहीं रहती।

हास्य रस

अर्थ-अपने अथवा पराये के परिधान (वेशभूषा), वचन अथवा क्रियाकला आदि से उत्पन्न हुआ हास नामक स्थायी भाव; विभाव, अनुभाव और संचार भावों के संयोग से हास्य रस का रूप ग्रहण करता है। 

उदाहरण

नाना वाहन नाना वेषा। विहसे सिव समाज निज देखा । कोउ मुखहीन, बिपुल मुख काहु। बिन पद-कर कोउ बहु पदबाहु।।

 - तुलसी : श्रीरामचरितमानस

स्पष्टीकरण शिव-विवाह के समय की ये पंक्तियाँ हास्यमय उक्ति हैं। इस उदाहरण में स्थायी भाव 'हास' का आलम्बन शिव-समाज है, आश्रय शिव स्वयं हैं, उद्दीपन विचित्र वेशभूषा है, अनुभाव शिवजी का हँसना है तथा रोमांच, हर्ष, चापल्य आदि संचारी भाव हैं। इनसे पुष्ट हुआ हास नामक स्थायी भाव हास्य रस की अवस्था को प्राप्त हुआ है।

शान्त रस

अर्थ-संसार की निस्सारता तथा इसकी वस्तुओं की नश्वरता का अनुभव करने से ही चित्त में वैराग्य उत्पन्न होता है। वैराग्य होने पर शान्त रस की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार निर्वेद नामक स्थायी भाव; विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से शान्त रस का रूप ग्रहण करता है।

 उदाहरण

अब लौं नसानी अब न नसैहौं । राम कृपा भव निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं । पायो नाम चारु चिंतामनि उरकर तें न खसैहौं । श्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचर्नाह कसैहौं ॥ परबस जानि हँस्यों इन इन्द्रिन निज बस है न हँसैहौं । मन मधुकर पन करि तुलसी रघुपति पद कमल बसैहौं ।

- तुलसी : विनय पत्रिका

स्पष्टीकरण–यहाँ 'निर्वेद' स्थायी भाव है। सांसारिक असारता और इन्द्रियों द्वारा उपहास उद्दीपन है। स्वतन्त्र होने तथा राम के चरणों में रति का कथन अनुभाव है। धृति, वितर्क, मति आदि संचारी भाव हैं। इन सबसे पुष्ट निर्वेद शान्त रस को प्राप्त हुआ है।

 अलंकार किसे कहते हैं कितने प्रकार के होते हैं सभी की परिभाषा उदाहरण सहित 

छंद किसे कहते हैं कितने प्रकार का होता है सभी की परिभाषा उदाहरण सहित

सोरठा छंद और रोला छंद की परिभाषा उदाहरण सहित

उपमा अलंकार, रूपक अलंकार, उत्प्रेक्षा अलंकार की परिभाषा उदाहरण सहित

                     अलंकार

अर्थ एवं परिभाषा

'अलंकार' दो शब्दों 'अलम्' तथा 'कार' से मिलकर बना है। अलम् का अर्थ ‘भूषण या सजावट' तथा कार का अर्थ 'करने वाला' होता है अर्थात् जो अलंकृत या भूषित करें वह अलंकार है। अलंकार का शाब्दिक अर्थ है-आभूषण। जिस प्रकार आभूषण शरीर की शोभा बढ़ाते हैं, वैसे ही अलंकार के प्रयोग से काव्य में चमत्कार, सौन्दर्य और आकर्षण उत्पन्न हो जाता है।

वस्तुतः भाषा को शब्द एवं शब्द के अर्थ से सुसज्जित एवं सुन्दर बनाने और आनन्द प्रदान करने वाली प्रक्रिया को 'अलंकार' कहा जाता है। 'अलंकार' काव्य भाषा के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं। यह भाव की अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावी बनाते हैं।

अलंकार के प्रकार / भेद

अलंकार मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं।

1. शब्दालंकार काव्य में शब्दों के प्रयोग द्वारा जो चमत्कार या सौन्दर्य उत्पन्न होता है, शब्दालंकार होता है। अनुपास, यमक और श्लेष प्रमुख शब्दालंकार हैं। 

2. अर्थालंकार ऐसे शब्द, जो वाक्य में प्रयुक्त होकर उसके अर्थ को चमत्कृत या अलंकृत करने वाला स्वरूप प्रदान करते हैं, 'अर्थालंकार' कहलाते हैं। 'अर्थालंकार' की निर्भरता शब्द पर न होकर शब्द के अर्थ पर होती है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, दृष्टान्त, मानवीकरण इत्यादि प्रमुख अर्थालंकार हैं।

3. उमयालंकार शब्द तथा अर्थ दोनों पर समान रूप से आश्रित रहने वाले अलंकार को 'उभयालंकार कहा जाता है। 

नोट नवीनतम पाठ्यक्रम के अन्तर्गत 'उपमा', 'रूपक' और 'उत्प्रेक्षा अलंकार को ही सम्मिलित किया गया है।

उपमा अलंकार

परिभाषा जब किसी वस्तु का वर्णन करने के लिए उससे अधिक प्रसिद्ध वस्तु से गुण, धर्म आदि के आधार पर उसकी समानता की जाती है, तब उपमा अलंकार होता है। अन्य शब्दों में, जहाँ पर उपमेय की उपमान से किसी समान धर्म के आधार पर तुलना की जाए, वहाँ उपमा अलंकार होता है।

 उदाहरण

(1) मुख मयंक सम मंजु मनोहरा

• इस काव्य-पंक्ति में 'मुख' उपमेय है, 'चन्द्रमा' उपमान है, 'मनोहर' समान धर्म है तथा 'सम' वाचक शब्द होने से उपमा अलंकार परिपुष्ट हो रहा है।

 (ii) प्रातः नम था, बहुत नीला शंख जैसे।

• इस काव्य-पंक्ति में 'नम' की उपमा 'शंख' से दी जा रही है। यहाँ 'शंख' 'उपमान' है, 'नम' उपमेय है तथा 'नीला' समान धर्म है। यहाँ 'जैसे' समानतावाचक शब्द का प्रयोग हुआ है।

रूपक अलंकार 

परिभाषा जब उपमेय और उपमान में भेद होते हुए भी दोनों में अभिन्नता प्रकट की जाए और उपमेय को उपमान के रूप में दिखाया जाए, तो रूपक अलंकार होता है।

उदाहरण

(i) चरण कमल बन्दौ हरिराई।

• इस काव्य-पंक्ति में उपमेय 'चरण पर उपमान 'कमल' का आरोप कर दिया गया है। दोनों में अभिन्नता है, दोनों एक हैं। इस अभेदता के कारण यहाँ रूपक अलंकार है।

(ii) उदित उदयगिरि मंच पर, रघुवर बाल पतंग

बिकसे सन्त-सरोज सब, हरषे लोचन भृंग।। •

 इस काव्य-पंक्ति में उपमेय 'राम' है तथा उपमान 'सूर्य' है।

उत्प्रेक्षा अलंकार

परिभाषा जब उपमान से भिन्नता जानते हुए भी उपनेय में उपमान सम्भावना व्यक्त की जाती है, तब उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। इसमें प्रायः मनु, मानो, मनो, मनहुँ, जनु, जानो, निश्चय जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। 

उदाहरण

(1) सोहत आईपी-पट स्याम सलोने गात। 

मनहुँ नीलमणि सैल पर आतपु पर्यो प्रभात।।

• इसकाव्यांश में श्रीकृष्ण के श्यामल शरीर पर नीलमणि पर्वत की तथा पीत-पट पर प्रातःकालीन धूप की सम्भावना व्यक्त की गई है। अतः यही उत्प्रेक्षा अलंकार है।

(ii) चलो मनो आँगन कठि, ताते राते पायें।

• इस काव्य-पंक्ति मे चरणों के लाल होने का कारण बताते हुए कहा गया है मानो कठोर औंगन में चली हो, इसलिए पैर लाल हो गए होंगे। अतः यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।

उपमा एवं उत्प्रेक्षा अलंकार में अन्तर

उपमा अलंकार में उपमेय' और 'उपमान' में समानता निश्चयपूर्वक प्रकट की जाती है। 

उदाहरण मुख चन्द्रमा के समान है। चरण कमल के समान है।

इन वाक्यों में 'मुख' तथा चन्द्रमा की और चरण' तथा 'कमल' के बीच समानता निश्चयपूर्वक प्रकट की गई है। इस प्रकार उपमा अलंकार में समानता समान गुण (धर्म) के आधार पर सामने आती है। उत्प्रेक्षा अलंकार में 'उपमेय और उपमान में समानता की सम्भावना मात्र प्रकट की जाती है।

 उदाहरणमुख मानो चन्द्रमा है। चरण मानो कमल है।

इन वाक्यों में मुख' तथा 'चरण के क्रमशः 'चन्द्रमा' और 'कमल' होने की सम्भावना प्रकट की गई है। अतः यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।

उपमा एवं रूपक अलंकार में अन्तर

उपमा में 'उपमेय' और 'उपमान में समानता स्थापित की जाती है, किन्तु रूपक अलंकार में उपमेय' तथा 'उपमान' में अभेद स्थापित किया जाता है। ऊपर दिए गए उदाहरण के अनुसार, उपमा अलंकार में 'मुख' को चन्द्रमा के समान माना जाता है, जबकि रूपक अलंकार में मुख' को 'चन्द्रमा' ही कहा जाता है।

                     प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. उपमा के चार अंग कौन-कौन से है? एक उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।

अथवा 

उपमा अलंकार की परिभाषा लिखकर एक उदाहरण दीजिए।

अथवा

 उपमा के चारों अवयवों का लक्षण सहित उल्लेख कीजिए। 

अथवा

 उपमा अलंकार की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए। 

उत्तरपरिभाषा जब किसी वस्तु का वर्णन करने हेतु उससे अधिक प्रसिद्ध वस्तु से गुण, धर्म आदि के आधार पर उसकी समानता की जाती है, तब उपमा अलंकार होता है। अन्य शब्दों में, जहाँ पर उपमेय की उपमान से किसी समान धर्म के आधार पर तुलना की जाए, वहाँ उपमा अलंकार होता है। 

उपमा अलंकार के अवयव या अंग

उपमा अलंकार के निम्न चार अवयव या अंग होते हैं

 (i) उपमेय जिसकी उपमा दी जाती है, वह उपमेय कहलाता है। 

(ii) उपमान जिससे उपमा दी जाती है अथवा जिससे तुलना की जाती है, वह उपमान होता है। 

(ii) समान धर्म उपमेय-उपमान का वह गुण, जिसके कारण दोनों में समता व्यक्त की जाती है, समान धर्म होता है।

(iv) वाचक शब्द समानता व्यक्त करने वाले शब्द वाचक शब्द कहलाते हैं.

जैसे-सम, सा, सी, सरिस, जैसे, इव, समान आदि।

उदाहरण

"सिन्धु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह

स्पष्टीकरण

उपरोक्त उदाहरण में सिन्धु' उपमान है, 'एक निर्वासित' उपमेव है, 'विस्तृत और अाह समान धर्म है तथा सा वाचक शब्द है। अतः यह उपमा अलंकार का उदाहरण है।

प्रश्न 2. रूपक अलंकार की परिभाषा तथा उदाहरण लिखिए।

अथवा

 रूपक अलंकार की परिभाषा सोदाहरण लिखिए। 

 उत्तरपरिभाषा जब उपमेय और उपमान में भेद होते हुए भी दोनों में समता की जाए और उपमेय को उपमान के रूप में दिखाया जा रूपक अलंकार है।

"विज्ञान-बान पर चड़ी हुई सभ्यता बने जाती है।"

उदाहरण स्पष्टीकरण

उपरोक्त पंक्ति में 'विज्ञान' उपमेय तथा 'यान' उपमान है, परन्तु 'विज्ञान' पर यान' का भेदरहित आरोप है। अत: यह रूपक अलंकार का उदाहरण है।

प्रश्न 3. उत्प्रेक्षा अलंकार की परिभाषा लिखिए तथा एक उदाहरण दीजिए।

अथवा उत्प्रेक्षा अलंकार की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए। 

अथवा उत्प्रेक्षा अलंकार की परिभाषा सोदाहरण सहित लिखिए। 

 उत्तरपरिभाषा जब उपमान से भिन्नता जानते हुए भी उपमेय में उपमान की सम्भावना व्यक्त की जाती है, तब उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।

 उदाहरण

"पाई अपूर्व थिरता मृदु वायु ने थी, मानो अचंचल विमोहित हो बनी थी।"

स्पष्टीकरण उपरोक्त काव्य-पंक्तियों में वायु के अचंचल अर्थात् स्थिर होने के कारण की सम्भावना करते हुए कहा गया है कि मानो वह मोहित हो गई है। वास्तव में, निर्जीव वायु को यहाँ मोहित माना जा रहा है, एक सम्भावना व्यक्त की जा रही है। अत: यह उत्प्रेक्षा अलंकार का उदाहरण है।

प्रश्न 4. उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकार में अन्तर बताइए।

उत्तरउपमा अलंकार में 'उपमेय' और 'उपमान' की गुण, धर्म आदि सम्बन्धी समानता निश्चयपूर्वक प्रकट की जाती है, जबकि उत्प्रेक्षा अलंकार में उपमेय में उपमान की सम्भावना मात्र प्रकट की जाती है।

प्रश्न 5. "सोहत ओढ़े पीतु-पटु, स्याम सलोने गात मनो नीलमनि सैल पर, आतपु पर्यो प्रभात।"

उत्तरउपरोक्त काव्य-पंक्तियों में उत्प्रेक्षा अलंकार है। 

परिभाषा जब उपमान से भिन्नता जानते हुए भी उपमेय में उपमान की सम्भावना व्यक्त की जाती है, तब उत्प्रेक्षा अलंकार उपस्थित होता है।

                         छन्द

अर्थ एवं परिभाषा

'छन्द' शब्द का शाब्दिक अर्थ है-'बन्धन'। जब वर्णों की संख्या, क्रम, मात्रा- गणना,तुक तथा यति गति आदि नियमों को ध्यान में रखकर शब्द योजना की जाती है, उसे'छन्द' कहते हैं। यह काव्य रचना का मूल आधार है। 'छन्द शब्द का सर्वप्रथम

उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। 'हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार, "अक्षर, अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा, मात्र गणना तथा यति गति आदि से सम्बन्धित विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्य रचना 'छन्द' कहलाती है। "

छन्द के अंग

छन्दबद्ध काव्य समझने अथवा रचना के लिए छन्द के निम्नलिखित अंगों का ज्ञान होना आवश्यक है।

1. चरण चरण या पाद छन्द की उस इकाई का नाम है, जिसमें अनेक छोटी-बड़ी ध्वनियों को सन्तुलित रूप से प्रदर्शित किया जाता है। साधारणतया छन्द के चार चरण होते हैं। पहले तथा तीसरे चरण को विषम चरण तथा दूसरे और चौथे चरण को सम चरण कहते हैं।

2. मात्रा और वर्ण किसी ध्वनि के उच्चारण में जो समय लगता है, उसकी सबसे छोटी इकाई को मात्रा कहते हैं। छन्दशास्त्र में दो से अधिक मात्रा किसी वर्ण की नहीं होतीं। मात्रा स्वरों की होती है, व्यंजनों की नहीं। यही कारण है कि मात्राएँ गिनते समय व्यंजनों पर ध्यान नहीं दिया जाता। वर्ण का अर्थ अक्षर से है। इसके दो भेद होते हैं 

(i) ह्रस्व वर्ण जिन वर्णों के उच्चारण में कम समय लगता है, उन्हें ह्रस्व वर्ण कहते हैं। छन्दशास्त्र में इन्हें लघु कहा जाता है। इनकी एक मात्रा मानी

गई है तथा इनका चिह्न '' है।

 हिन्दी में अ, इ, उ तथा ॠ चार लघु वर्ण हैं।

लघु के नियम 

लघु के नियम निम्न हैं.

 ह्रस्व स्वर से युक्त व्यंजन लघु वर्ण कहलाता है। 

यदि लघु स्वर में स्वर के ऊपर चन्द्रबिन्दु () है, तो उसे लघु ही माना जाएगा; जैसे-सँग, हँसना आदि।

. छन्दों में कहीं-कहीं हलन्त ( ) आ जाने पर लघु ही माना जाता है। • ह्रस्व स्वर के साथ संयुक्त स्वर हो, तो भी लघु ही माना जाता है। कभी-कभी उच्चारण की सुविधा के लिए भी गुरु को लघु ही मान

लिया जाता है। संयुक्त वर्ण से पूर्व ह्रस्व स्वर पर जोर न पड़े, तो वह भी लघु लिया जाता है। .

मान

(ii) दीर्घ वर्ण जिन वर्णों के उच्चारण में ह्रस्व वर्ण से दोगुना समय लगता है, उन्हें दीर्घ वर्ण' कहते हैं। इन्हें गुरु भी कहा जाता है। इनकी दो मात्राएँ होती हैं तथा इनका चिह्न 'S' है। आ, ई, ऊ, ओ, औ आदि दीर्घ वर्ण हैं।

गुरु के नियम

गुरु के नियम निम्न हैं

दीर्घ स्वर और उससे युक्त व्यंजन गुरु माने जाते हैं। 

यदि ह्रस्व स्वर के पश्चात् विसर्ग (:) आ जाए, तो वह गुरु माना जाता; जैसे-प्रातः आदि।

. अनुस्वार () वाले सभी स्वर एवं सभी व्यंजन भी गुरु माने जाते हैं। आवश्यकता पड़ने पर अन्तिम ह्रस्व स्वर को गुरु मान लिया जाता है।

 संयुक्त अक्षर या उसके ऊपर अनुस्वार हो तो भी ह्रस्व स्वर गुरु माना जाता है।

 3. यति छन्द पढ़ते समय उच्चारण करने की सुविधा के लिए तथा लय को ठीक रखने के लिए कहीं कहीं विराम लेना पड़ता है। इसी विराम या ठहराव को 'यति' कहते हैं। 

4. गति छन्द पढ़ने की लय को गति कहते हैं। हिन्दी के छन्दों में गति प्रायः अभ्यास और नाद के नियमों पर ही निर्भर है।

 5. तुक छन्द के चरणों के अन्त में वर्णों की आवृत्ति को 'तुक' कहते हैं।

6. संख्या, क्रम तथा गण छन्द में मात्राओं और वर्णों की गिनती को 'संख्या' कहते हैं तथा छन्द में लघु वर्ण और गुरु वर्ण की व्यवस्था को 'क्रम' कहते हैं। तीन वर्णों के समूह को 'गण' कहते हैं। गणों का प्रयोग वर्णिक (वृत्त) में लघु-गुरु के क्रम को बनाए रखने के लिए होता है। इनकी संख्या आठ निश्चित की गई है।

छन्द के भेद

सामान्यतः वर्ण और मात्रा के आधार पर छन्दों के निम्न चार भेद हैं

 1. वर्णिक छन्द जिन छन्दों में केवल वर्गों की संख्या और नियमों का पालन किया जाता है, वे 'वर्णिक छन्द' कहलाते हैं। घनाक्षरी, रूपघनाक्षरी,देवघनाक्षरी, मुक्तक, दण्डक, सवैया आदि वर्णिक छन्द हैं। 

2. मात्रिक छन्द यह छन्द मात्रा की गणना पर आधारित होता है, इसीलिए इसे 'मात्रिक छन्द' कहा जाता है। जिन छन्दों में मात्राओं की समानता के नियम का पालन किया जाता है, किन्तु वर्णों की समानता पर ध्यान नहीं दिया जाता, उन्हें मात्रिक छन्द कहा जाता है। दोहा, रोला, सोरठा, चौपाई, हरिगीतिका, छप्पय आदि प्रमुख मात्रिक छन्द हैं।

3. उभय छन्द जिन छन्दों में मात्रा और वर्ण दोनों की समानता एक साथ पाई जाती है, उन्हें उभय छन्द' कहते हैं।

4. मुक्त छन्द इन छन्दों को स्वच्छन्द छन्द भी कहा जाता है। इनमें मात्रा और वर्णों की संख्या निश्चित नहीं होती।

नोट नवीनतम पाठ्यक्रम में केवल 'सोरठा' तथा 'शेला' छन्द शामिल किए गए हैं। अतः आगे इन्हें ही विस्तारपूर्वक दिया जा रहा है। इसके लिए 2 अंक निर्धारित हैं।

                 सोरठा छन्द

सोरठा (परिभाषा / लक्षण/पहचान एवं उदाहरण)

परिभाषा दोहे का उल्टा रूप सोरठा' कहलाता है। यह एक अर्द्धसम मात्रिक छन्द है अर्थात् इसके पहले और तीसरे तथा दूसरे और चौथे चरणों में मात्राओं की संख्या समान रहती है। इसके विषम (पहले और तीसरे चरणों में 11-11 और सम (दूसरे और चौथे चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं। तुक विषम चरणों में ही होता है तथा सम चरणों के अन्त में जगण (ISI) का निषेध होता है।

उदाहरण

"मूक होइ वाचाल, पंगु चढ़े गिरिवर गहन ।

जासु कृपा सु दयाल, द्रवौ सकल कलिमल दहन।।"

स्पष्टीकरण

उपरोक्त उदाहरण के पहले (मूक होइ वाचाल) और तीसरे (जासु कृपा सु दयाल) चरण में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ हैं तथा दूसरे (पंगु चदै गिरिवर गहन) और चौथे (द्रवी सकल कलिमल दहन) चरण में तेरह-तेरह मात्राएँ हैं। विषम चरणों में तुक है तथा सम चरणों में जगण (ISI) नहीं है। अतः यह सोरठा छन्द का उदाहरण है।

रोला छन्द

रोला (परिभाषा/लक्षण/पहचान एवं उदाहरण)

 परिभाषा रोला एक सम मात्रिक छन्द है अर्थात् इसके प्रत्येक चरण में मात्राओं की संख्या समान रहती है। इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं तथा ग्यारह और तेरह मात्राओं पर यति होती है।

उदाहरण 

"कोठ पापिह पंचत्व, प्राप्त सुनि जमगन धावत। 

बनि बनि बावन वीर, बढ़त चौचंद मचावत।

 पैतकि ताकी लोच, त्रिपथगा के तट लावत।

तो है ग्यारह होत, तीन पाँचहि बिसरावत।।"

स्पष्टीकरण

उपरोक्त उदाहरण में चार चरण हैं और प्रत्येक चरण में चौबीस मात्राएँ है। ग्यारह और तेरह मात्राओं पर यति है। अतः यह रोला छन्द का उदाहरण है।

                    प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. निम्नलिखित में प्रयुक्त छन्द को पहचानकर लिखिए

बंद मुनि पद समापन जेहि निरम्यउ।

सरवर सुकमल मंजू, दोस रहित दूसन सहितः।

उत्तर प्रस्तुत उदाहरण में सोरठा छन्द है। 

स्पष्टीकरण- इस उदाहरण के पहले (चंदई मुनि पद क्रज) और तीसरे (सर सुकमल मंजु) चरणों में 11-11 मात्राएँ तथा दूसरे (रामायन जेहि निरमयड) और चौथे (दोस रहित दूसन रहित) चरणों में 13-13 मात्राएं है तथा सम चरणों के अन्त में जगण (1S1) का निषेध है। अतः यह सोरठा छन्द का उदाहरण है।

प्रश्न 2. रोला छन्द की परिभाषा, लक्षण तथा उदाहरण भी दीजिए।

अथवा रोला छन्द की परिभाषा सोदाहरण लिखिए।

अथवा रोला छन्द की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए।

 अथवा रोला छन्द का लक्षण और उदाहरण दीजिए।

उत्तर 

 परिभाषा रोला एक सम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती है तथा 11 और 13 मात्राओं पर (विराम) यति होती है।

उदाहरण

भई थकित छबि चकित हेरि हर-रूप मनोहर है आनहिं के प्रान रहे तन धरे धरोहर ।। भयो कोप कौ लोप चोप औरै उमगाई। चित चिकनाई चढ़ी कढ़ी सब रोष रुखाई।।

लक्षण रोला एक सम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं तथा 11 और 13 मात्राओं पर यति (विराम) होती है।

प्रश्न 3. सोरठा छन्द का लक्षण व परिभाषा बताइए।

अथवा सोरठा छन्द का उदाहरण लक्षण सहित बताइए।

अथवा सोरठा की परिभाषा सोदाहरण लिखिए।

अथवा सोरठा छन्द का लक्षण और उदाहरण दीजिए।

अथवा सोरठा छन्द की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए।

उत्तर 

परिभाषा दोहे का उल्टा रूप सोरठा कहलाता है। यह एक अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। इसके पहले और तीसरे चरणों में 11-11 तथा दूसरे और चौथे चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं। तुक विषम चरणों में ही होते हैं तथा सम चरणों के अन्त में जगण (ISI) नहीं होता है।

उदाहरण

नील     सरोरुह     स्याम

तरुन      अरुन   बारिज नयन

करउ       सोमम     उर  धाम

सदा       क्षीर      सागर सयन

स्पष्टीकरण इस छन्द के पहले और तीसरे चरण में 11-11 मात्राएँ तथा दूसरे और चौथे चरणों में 13-13 मात्राएँ हैं। अतः यह 'सोरठा' छन्द है।

प्रश्न 4. निम्नलिखित पंक्तियों में कौन-सा छन्द है? उसका लक्षण (परिभाषा) भी बताइए।

(i) जीती जाती हुई, जिन्होंने भारत बाजी । निज बल से बल मेट, विधर्मी मुगल कुराजी।। जिनके आगे ठहर, सके जंगी न जहाजी। हैं ये वही प्रसिद्ध छत्रपति भूप शिवाजी ।।

(ii) भरत चरित करि नेम, तुलसी जे सादर सुनहि। सियाराम पद प्रेम, अवसि होइ मन रस विरति ।।

उत्तर

 (i) छन्द रोला

लक्षण रोला एक सम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं तथा 11 और 13 मात्राओं पर यति (विराम) होती है।

(ii) छन्द सोरठा

लक्षण दोहे का उल्टा रूप सोरठा कहलाता है। यह एक अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। इसके पहले और तीसरे चरणों में 11-11 तथा दूसरे और चौथे चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं। तुक विषम चरणों में ही होते हैं तथा सम चरणों के अन्त में जगण (ISI) नहीं होता है।

 महत्त्वपूर्ण शब्दों की पर्यायवाची

महत्त्वपूर्ण वाक्यों का संस्कृत में अनुवाद

पर्यायवाची शब्द

अर्थ एवं परिभाषा

अर्थ की दृष्टि से समानता रखने वाले शब्द 'पर्यायवाची शब्द' कहलाते हैं, इन्हें समानार्थी शब्द भी कहा जाता है। जैसे-'आँख' के पर्यायवाची शब्द नेत्र, नयन, लोचन, चक्षु, विलोचन, दृग, अक्षि आदि हैं।

यह तथ्य ध्यान रखने योग्य है कि किसी भी भाषा में कोई भी दो शब्द पूर्ण रूप से समान नहीं होते हैं। यही कारण है कि पर्यायवाची शब्दों में समानता होने के बावजूद थोड़ी-बहुत भिन्नता अवश्य होती है। इसीलिए प्रसंग एवं सन्दर्भ के अनुकूल पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। अर्थ की अत्यधिक समानता होने पर भी पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग एक-दूसरे के स्थान पर नहीं हो सकता।

उदाहरणार्थ- आज प्रातःकाल से ही वर्षा हो रही है।

चौमासे के दौरान सभी नदी-नाले उफान पर होते हैं। उपरोक्त उदाहरणों में रेखांकित शब्द 'वर्षा' तथा 'चौमासा' एक-दूसरे के पर्याय हैं, परन्तु प्रस्तुत वाक्य पढ़ने से ही स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ 'वर्षा' और 'चौमासे' का एक-दूसरे के स्थान पर प्रयोग करना असंगत एवं अनुचित होगा।

महत्त्वपूर्ण पर्यायवाची शब्द

अध्यापक –आचार्य, गुरु, शिक्षक, प्रवक्ता, व्याख्याता

अप्सरा –अद्भुत, अनूठा, अपूर्व, अद्वितीय, अप्रतिम,

अनोखा

अनुपम –सुरबाला, देवबाला, देवांगना, दिव्यांगना, सुर-सुन्दरी

अन्धकार– तम, तिमिर, अँधेरा, तमिस्रा, ध्वान्त 

असुर  – दानव, दैत्य, राक्षस, निशाचर, खल, रचनीचर, दनुज

अपमान – अनादर, उपेक्षा, तिरस्कार, निरादर, अवमान, बेइज्जती 

अहंकार – अभिमान, गर्व, घमण्ड, मद, दर्प

आकाशगंगा – मन्दाकिनी, नभोनदी, नभगंगा, स्वर्गनदी, सुरनदी

आतंक – विभीषिका, उपद्रव, अतिभय, संत्रास, दहशत

आपत्ति – आपदा, मुसीबत, विपदा, विपत्ति

आशीर्वाद – आशीष, मंगलकामना, आशीर्वचन 

आभूषण – गहना, भूषण, अलंकार, जेवर

इन्द्रधनुष –शक्रचाप, सप्तकर्ण, धनु, इन्द्रधनु, सुरचाप, धनुक

 ईर्ष्या –  ईर्षा, जलन, डाह, कुढ़न, द्वेष 

उत्सव – मंगलकार्य, पर्व, जलसा, त्योहार, समारोह

ऐश्वर्य – वैभव, सम्पदा, सम्पन्नता, समृद्धि, श्री, धनसम्पत्ति

औषधि  – दवा, दवाई, रसायन, भेषज

कर –हस्त, हाथ, पाणि, भुज, भुजा

काक –कौआ, काग, काण, वायस, पिशुन, करठ

कान – कर्ण, श्रवण, श्रोत्र

खल –दुष्ट, अधम, पामर, नीच, शठ, दुर्जन, कुटिल, धूर्त, नृशंस

खेती – कृषि, किसानी, कृषिकार्य, काश्तकारी, कृषिकर्म 

गरुड़– खगेश, हरियान, वातनेय, खगपति, सुपर्ण, नागान्तक, वैनतेय

गाँव – ग्राम, मौजा, पुरवा, बस्ती, देहात 

जानकी – सीता, वैदेही, जनकसुता, जनकतनया, जनकात्मजा 

झण्डा – ध्वज, पताका, केतु, निशान

झरना – प्रपात, निर्सर, स्रोत, उत्स, प्रस्रवण

देवता – सुर, अमर, देव, त्रिदिव, आदित्य, गीर्वाण, अमर्त्य

दुःख – पीड़ा, कष्ट, व्यथा, विषाद, यातना, वेदना

द्रौपदी – कृष्णा, पांचाली, द्रुपदसुता, याज्ञसेनी

धन – द्रव्य, अर्थ, वित्त, सम्पत्ति, लक्ष्मी

नमक – लवण, लोन, रामरस, नोन, नून

निर्मल – शुद्ध, साफ, स्वच्छ, पवित्र, शुचि

नरक – दुर्गति, संघात, यमपुर, यमलोक, यमालय

नौका – नाव, तरिणी, जलयान, बेड़ा, पतंग, तरी

दूध-क्षीर, पय, गोरस, पीयूष, दुग्ध, अमृत 

 आम-आम्र, रसाल, पिकबन्धु, अमृतफल, अतिसौरभ

 शिव – महोदव, शंकर, गंगाधर, त्रिपुरारि, चन्द्रधर 

वसन – वस्त्र, कपड़ा, चीर, पट, अम्बर

चतुर–विज्ञ, निपुण, कुशल, दक्ष, प्रवीण, योग्य

 सुर-देव, अमर, देवता, आदित्य,अमर्त्य

कपड़ा – परिधान, वस्त्र, पटसन

 लक्ष्मी-रमा, लोकमाता, विष्णुप्रिय, श्री

 लता – बल्लरी, बल्ली, भेली

 विष्णु-माधव, केशव, लक्ष्मीपति, नारायण, चक्रपाणि

 मोर-मयूर, कलापी, शिखण्डी, शिख

 हाथी—गज, दन्ती, मतंग, वितुण्ड, हस्ती

पुष्प-फूल, कुसुम, सुमन, प्रसून, पुहुप, मंजरी, लतान्त

नदी-सरिता, निर्झरिणी, तरंगिणी, तरनी, स्रोतस्विनी, लहरी, तरणि,सरी, कल्लोलिनी

अग्नि–आग, अनल, पावक, दहक, ज्वाला, हुताशन

आकाश – नभ, गगन, आसमान, अम्बर, व्योम, अन्तरिक्ष

आँख-दृग, लोचन, नयन, अक्षि, चक्षु, नेत्र

 दिवस-वासर, वार, दिवा, दिन, अह

पक्षी-खग, विहग, नभचर, विहंगम, पतंग, शकुंत, पखेरू, खेचर,शकुनि

पर्वत – भूधर, गिरि, शैल, नग, भूमिधर, मेरु, महीधर, अचल, पहाड़,तुंग

बादल –मेघ, नीरद, जलज, घन, वारिद, पयोद, धराधर, अम्बुद

सूरज –रवि, सूर्य, भानु, दिनकर, दिवाकर, भास्कर, प्रभाकर, आदित्य, अर्क, दिनमणि, मारीचिमाला

 हंस-मराल, सरस्वतीवाहन, मुक्तभुक, कलकंठ, मानसौक

 जल – पानी, वारि, नीर, सलिल, सारंग, तोय, पय, अम्बु, उदक

हवा–पवन, वायु, वात, मारुत, समीर, अनिल 

अश्व – हय, बाजी, घोटक, तुरंग, घोड़ा, रविसुत 

 कामदेव–मदन, मार, स्मर, मनसिज, अनंग, मन्मथ, मनोज, मथन, मकरध्वज, मीनकेतु, मकरकेतु, कन्दर्प

 इन्द्र–सुरपति, शचीपति, मधवा, शक, देवराज, मेघपति, सुरेन्द्र, सुरेश, अमरपति, जिष्णु, वज्रधर

गणेश–विनायक, एकदन्त, गजानन, गणाधि, लम्बोदर, गणपति, महाकाय, गौरीसुत, मोदकप्रिय, मूषकवाहन, भवानीनन्दन

चाँद – निशानाथ, इन्दु, शशि, शशांक, सुधाकर, राकापति, विधु, राकेश, हिमांशु, चन्द्रमा 

 जंगल – वन, अरण्य, कानन, विपिन, विजन, अटवी

तालाब-तड़ाग, सर, जलाशय, कासार, ताल, सरसी, पुष्कर, छद, दह, पोखर, सरोवर

तीर-बाण, शर, तोमर, विशिख, शिलीमुख, नाराच, इषु, सायक, आशुग

नारी – महिला, औरत, स्त्री, रमणी, वनिता, ललना, वामा 

पण्डित-विद्वान्, प्राज्ञ, बुद्धिमान, धीमान, वीर, सुधी

 वज्र- अश्मि, पवि, कुलिश

शहद-मधु, पुष्परस, अमृत, सुधा

सोना-स्वर्ण, सुवर्ण, कंचन, हेम, हाटक, तामरस, जातरूप

समुद्र–सिन्धु, सागर, जलधि, उदधि, पयोधि, पारावार, नदीश, पयोनिधि, वारीश, रत्नाकर, अब्धि, वारिधि

साँप-सर्प, अहि, भुजंग, विषधर, मणिधर, व्याल, उरग, नाग, द्विजी, फणी,

संसार–विश्व, दुनिया, जग, जगत्, इहलोक

हिरण-मृग, सारंग, हरिण, सुरभी, कुरंग, चितल, बारहसिंगा

बिजली – तड़ित, चपला, दामिनी, विद्युत, धनप्रिया, इन्द्रवज्र

 वानर-बन्दर, कपि, मर्कट, कीश, शाखामृग, हरि

                      प्रश्न उत्तर

निम्नलिखित वाक्यों का संस्कृत में अनुवाद कीजिए

प्रश्न 1. शिष्य ने गुरु से प्रश्न किया।

उत्तर शिष्य: गुरुं प्रश्नं पृच्छेत्

प्रश्न 2. भिक्षुकों को दान दो।

उत्तर भिक्षुकेभ्यः दानं यच्छ।

प्रश्न 3. वे दोनों पाठशाला गए।

उत्तर तौ पाठशालाम् अगच्छताम्।

प्रश्न 4. मेरे मित्र ने चलचित्र देखा।

उत्तर मम मित्रं चलचित्रम् अपश्यत् ।

प्रश्न 5. वाराणसी गंगा तट पर स्थित है।

उत्तर वाराणसी गंगातटे स्थिता अस्ति।

प्रश्न 6. वह दिल्ली गया।

उत्तर स: इन्द्रप्रस्थम् अगच्छत्

प्रश्न 7. छात्र मैदान में खेलते हैं।

उत्तर छात्रा: क्षेत्रे क्रीडन्ति।

प्रश्न 8. भारतीय संस्कृति उदग्र और गतिशील है।

उत्तर भारतीया संस्कृति: उदग्रा गतिशीला च अस्ति।

प्रश्न 9. वे लड़के दिन में कहाँ पढ़ेंगे?

उत्तर ते बालकाः दिने कुत्र पठिष्यति।

 प्रश्न 10. अपने राष्ट्र की रक्षा करना हमारा धर्म है।

उत्तर स्वस्थ राष्ट्र रक्षणम् अस्माकं धर्म अस्ति।

प्रश्न 11. घर पर पत्नी मित्र होती है। 

उत्तर गृहे भार्या मित्र भवति।

प्रश्न 12. भारतीय संस्कृति सदैव गतिशील है।

 उत्तर भारतीया संस्कृतिः सदैव गतिशीला अस्ति।

प्रश्न 13. विद्या अभ्यास से बढ़ती है। 

उत्तर विद्या अभ्यासेन वर्धते।

प्रश्न 14. चन्द्रमा को देखकर समुद्र बढ़ता है।

उत्तर चन्द्रदर्शनेन समुंद्रः वर्धते।

प्रश्न 15. विक्रम परोपकारी राजा था।

उत्तर विक्रमः परोपकारी नृपः आसीत्

प्रश्न 16. क्या तुम घर जाओगे?

उत्तर किं त्वं गृहं गमिष्यसि ?

 प्रश्न 17. मेरा मित्र अच्छा लड़का है।

उत्तर मम मित्रं सुष्टु बालः अस्ति।

प्रश्न 18. लड़कों ने बहुत परिश्रम किया।

उत्तर बालका; बहु परिश्रयम् अकरोत्

प्रश्न 19. वे पुस्तक पढ़ते हैं।

उत्तर ते पुस्तकं पठन्ति

प्रश्न 20. राधा ने एक चित्र देखा।

उत्तर राधा एकं चित्रम् अपश्यत्

प्रश्न 21. देवदत्त अपने घर जाएगा।

उत्तर देवदत्तः स्वगृहे गमिष्यति।

प्रश्न 22. विद्या विनय देती है। 

उत्तर विद्या विनयं ददाति ।

प्रश्न 23. तुम कल प्रयाग गए। 

उत्तर त्वं हयः प्रयागं अगच्छ।

प्रश्न 24. सिकन्दर कौन था?

उत्तर सिकन्दरः कः आसीत् ?

प्रश्न 25. वाराणसी में गंगा के किनारे सुन्दर-सुन्दर घाट हैं।

उत्तर वाराणस्यां गङ्गायाः तटे सुन्दराणि घाटानि

सन्ति ।

प्रश्न 26. मैं आज वाराणसी जाऊँगा। 

उत्तर अहम् अद्य वाराणसी गमिष्यामि।

प्रश्न 27. हम दोनों को विद्यालय जाना चाहिए।

उत्तर आवाम् विद्यालयं गच्छेव। 

प्रश्न 28. सुभाष चन्द्र बोस देशभक्त थे।

उत्तर सुभाष चन्द्र बोसः देशभक्तः आसीत्।

 प्रश्न 29. वह विद्यालय जाती है।

उत्तर सा विद्यालयं गच्छति। 

प्रश्न 30. वह पैर से लंगड़ा है।

उत्तर सः पादेन खञ्जः अस्ति।

प्रश्न 31. कल मैं विद्यालय जाऊँगा।

उत्तर श्वः अहम् विद्यालयम् गमिष्यामि।

 प्रश्न 32. तुम अपने को वीर मानते हो।

उत्तर त्वम् निजम् वीरं मन्यसे

प्रश्न 33. सदा सच बोलो।

उत्तर सदा सत्यं वद

प्रश्न 34. अभ्यास से विद्या बढ़ती है।

उत्तर अभ्यासेन विद्या वर्धते

प्रश्न 35. वाराणसी गंगा के किनारे स्थित है।

उत्तर वाराणसी गङ्गायाः तटे स्थिता अस्ति।

प्रश्न 36. वृक्ष से फल गिरते हैं।

उत्तर वृक्षात् फलानि पतन्ति ।

प्रश्न 37. मोहन आज वाराणसी जाएगा।

उत्तर मोहनः अद्य वाराणसी गमिष्यति।

प्रश्न 38. मार्ग के दोनों ओर वृक्ष हैं।

उत्तर मार्गय् उभयतः वृक्षाः सन्ति ।

प्रश्न 39. मेरा मित्र विद्यालय जाता है।

उत्तर मम मित्रं विद्यालयं गच्छति।

प्रश्न 40. छात्रों को सत्य बोलना चाहिए।

उत्तर छात्राः सत्यं वदेयुः।

प्रश्न 41. वह सदा परिश्रम करेगा।

उत्तर सः सदा परिश्रमं करिष्यति।

प्रश्न 41. तुम आज्ञा का पालन करो।

उत्तर त्वम् आज्ञायाः पालनं कुरु।

प्रश्न 42. अपने राष्ट्र की रक्षा करना हमारा धर्म है। उत्तर स्वराष्ट्रस्य रक्षणम् अस्माकं धर्मः अस्ति।

प्रश्न 43. काशी संस्कृत भाषा का केन्द्र है।

 उत्तर काशी संस्कृतभाषायाः केन्द्रम् अस्ति।

प्रश्न 44. मुझे घर जाना चाहिए।

उत्तर अहं गृहं गच्छेयम्।

प्रश्न 45. मैं कल लखनऊ जाऊँगा।

उत्तर अहं श्वः लखनऊनगरं गमिष्यामि।

प्रश्न 46. सदा सत्य बोलना चाहिए। 

उत्तर सदा सत्यम् वदेत्

प्रश्न 47. मैं बाज़ार जाता हूँ।

उत्तर अहम् आपणं गच्छामि।

प्रश्न 48. वह घर गई।

उत्तर सा गृहम् अगच्छत्

प्रश्न 49. यह राम की किताब है।

 उत्तर इदम् रामस्य पुस्तकम् अस्ति।

प्रश्न 50. मैं विद्यालय जाऊँगा। 

उत्तर अहं विद्यालयं गमिष्यामि।

प्रश्न 51. मार्ग के दोनों ओर भवन थे। 

उत्तर मार्गम् उभयतः भवनानि आसन्।

प्रश्न 52. सन्तोष उत्तम सुख है।

उत्तर सन्तोष: उत्तमं सुखम् अस्ति।

 प्रश्न 53. मैं वाराणसी जाऊँगा।

उत्तर अहम् वाराणसी गमिष्यामि।

प्रश्न 54. सभी छात्र पत्र लिखेंगे।

उत्तर सर्वे छात्रा: पत्रं लेखिष्यन्ति।

प्रश्न 55. दान से कीर्ति बढ़ती है। 

उत्तर दानेन कीर्ति वर्धते।

प्रश्न 56. सोहन के साथ मोहन घर गया।

उत्तर सोहनेन सह मोहनः गृहम् अगच्छत्।

प्रश्न 57. हम सब पढ़ते हैं।

उत्तर वयं पठामः।

प्रश्न 58. मैं विद्यालय पढ़ने जाऊँगा।

उत्तर अहं विद्यालयं पठनाय गमिष्यामि।

प्रश्न 59. तुम वीर हो

 उत्तर त्वं वीरः असि।

प्रश्न 60. हमें देशभक्त होना चाहिए।

उत्तर वयं देशभक्ताः भवेम।

प्रश्न 61. तुम दोनों घर जाओ। 

उत्तर युवां गृहं गच्छतम्

प्रश्न 62. श्यामा पुस्तक पढ़ती है।

 उत्तर श्यामा पुस्तकं पठति।

प्रश्न 63. वे विद्यालय गए।

उत्तर ते विद्यालयम् अगच्छन्।

प्रश्न 64. हमें विद्यालय जाना चाहिए।

उत्तर वयं विद्यालयं गच्छेम।

lockdown par nibandh hindi mein 

lockdown par nibandh in Hindi

लॉकडाउन पर निबंध हिन्दी में 

लॉकडाउन : समस्या और समाधान

नमस्कार मित्रों स्वागत है आपका हमारी वेब साइट subhansh classes.com पर यदि आप गूगल पर सर्च कर रहे लॉकडाउन समस्या या समाधान पर निबंध लिखना देखना चाहते हैं तो आप बिल्कुल सही जगह पर आ गए हैं हम आपको बताने वाले हैं कि लॉक डाउन से क्या लाभ हुआ क्या हानि हुई है, इससे समस्या हुई है या समाधान हुआ है, लॉक डाउन पर निबंध से सम्बंधित पूरी जानकारी मिलेगी तो आपको हमारी पोस्ट को पूरा जरूर देखना है। यदि पसन्द आए तो अपने दोस्तो को भी शेयर करें। यदि आप YouTube channel पर निबंध लिखना देखना चाहते हैं तो आप YouTube पर search करना है Subhansh classes सर्च करने पर हमारा चैनल मिल जायेगा उसे आपको subscribe जरूर कर लेना है वहा पर आपको पढाई से सम्बंधित पूरी जानकारी मिलेगी।

प्रमुख विचार- बिंदु : (1) प्रस्तावना,  (2)  लॉकडाउन के लाभ,  (3)  लॉकडाउन से हानि,   (4) उपसंहार।

प्रस्तावना 

लॉकडाउन यह मानव जाति के इतिहास में पहली बार है, जहां पूरे देश में धारा 144 के तहत सबको घर में रहने की सलाह दी गई है। यह इसलिए किया गया; क्योंकि एक ऐसे जानलेवा वायरस ने हमला बोल दिया कि पूरी दुनिया में लाखों लोगों की जान चली गई है और अब भी संक्रमण का खतरा बढ़ रहा है। कोरोना वायरस से बचने का सिर्फ एक ही उपाय है, सामाजिक दूरी। यह संक्रमण एक इंसान से दूसरे इंसान में तेजी से फैलता है। भारत सरकार ने हिदायत दी है कि हम पर्सनल और‌‌ प्रोफेशनल रिश्ते से हर संभव दूरी बनाए रखे, तभी हमें इस वायरस से मुक्ति मिल सकती है। भारत के सभी राज्यों में लोग घर पर रहकर सरकार के निर्देशों का पूरी तरह से पालन कर रहे हैं। लॉकडाउन (lockdown) से तात्पर्य है- तालाबंदी। लॉकडाउन के तहत सभी को अपने-अपने घरों में रहने की सलाह दी गई है जिसका सरकार की तरफ से सख्ती से पालन भी करवाया जा रहा है। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि कोरोना वायरस  नामक महामारी मनुष्य जाति के इतिहास में पहली बार आई है।

अब संपूर्ण देश इस वायरस (virus) से लड़ने के लिए अपने-अपने घरों में कैद हो गया है। इस महामारी के कारण से लाखों लोग अपनी जान गंवा चुके हैं तथा इससे बचने का सिर्फ एक ही मार्ग है और वह रास्ता है सोशल डिस्टेंसिग अर्थात कि सामाजिक दूरी। यह संक्रमण एक से दूसरे मनुष्य तक बहुत तीव्र गति से फैलता है, जिसके कारण भारत सरकार ने लॉकडाउन को ही इससे बचने के लिए जरूरी बताया है।

अर्थात हम कह सकते हैं कि लॉकडाउन एक आपातकालीन व्यवस्था है, जो किसी आपदा या महामारी के समय लागू की जाती है। जिस इलाके में लॉकडाउन लगाया गया है, उस इलाके या स्थान के लोगों को घरों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं होती है। उन्हें सिर्फ दवा और खाने-पीने जैसी जरूरी चीजों की खरीदारी के लिए ही बाहर आने की आज्ञा या इजाजत मिलती है। लॉकडाउन के समय कोई भी व्यक्ति अनावश्यक कार्य के लिए सड़कों पर नहीं निकल सकता।

लॉकडाउन के लाभ 

रोजमर्रा की जिंदगी में हम कार्यालय के कार्यों में इतना व्यस्त हो जाते हैं कि हमें अपने परिवार के साथ वक्त बिताने का मौका नहीं मिलता। पहले 21 दिनों के लॉक डाउन में हमें वे बेहतरीन‌ पल मिले जिनमें अपने प्रियजनों के साथ वक्त व्यतीत किया। जहां कुछ लोगों ने यूट्यूब से वीडियो देखकर भोजन बनाना सीखा। कुछ लोगों ने घर पर परिवार संग अंत्याक्षरी खेला;  कुछ ने मशहूर फिल्म या चलचित्र और वेब सेसिस देखा। कुछ लोगों को जिन्हें अपने बच्चों के साथ वक्त बिताने का अवसर नहीं मिलता था, लॉकडाउन के कारण यह सु अवसर प्राप्त हुआ। बच्चों के साथ वीडियो गेम्स कैरम जैसे खेलों का आनंद लिया। विद्यालय में छुट्टी होने के कारण घर बैठकर शिक्षकों ने ऑनलाइन क्लासेज का सहारा लिया ताकि विद्यार्थियों की शिक्षा में कोई रुकावट नहीं आए।

लॉकडाउन से पहले के समय की बात करें तो उस वक्त हम सभी अपने रोजमर्रा के कामों में इतना व्यस्त रहते थे कि अपनों के लिए, अपने परिवार के लिए व बच्चों के लिए कभी समय ही नहीं निकाल पाते थे और सभी की सिर्फ यही शिकायत रहती थी कि आज की दिनचर्या को देखते हुए समय किसके पास है? लेकिन लॉकडाउन से ये सारी शिकायतें खत्म हो गई हैं। इस दौरान अपने परिवार के साथ बिताने के लिए लोगों को बेहतरीन पल मिले हैं। कई प्यारी-प्यारी यादें इस दौरान लोग सहेज रहे हैं, अपने घर के बुजुर्गों के साथ समय बिता रहे हैं और रिश्तों में आई कड़वाहट को मिटा रहे हैं।

लोगों को लाकडाउन के कुछ दिनों में अपने दिल में दबे शौक को पूर्ण करने का मौका मिला। आम आदमी से लेकर बड़े-बड़े हस्तियों ने इसका लाभ उठाया। किसी ने कोई वाद्ययंत्र बजाना सीखा, किसी ने नृत्य सीखा और अभ्यास किया, जो दैनिक जीवन में असंभव है।

लॉकडाउन रहने के कारण कोरोना वायरस के मरीजों में गिरावट आई और संक्रमण फैलने का खतरा कम हुआ। हमारे दैनिक जीवन में चीजों वा आवश्यक सामान की कमी ना हो इसलिए किराने के सामान,  फल,  सब्जी और दवाइयां बाजार में उपलब्ध रहें। भारत में लॉकडाउन से बड़े- बड़े कारखानों और वाहनों का चलना निषेध हो गया, जिसके कारण प्रदूषण की कमी आई। कल- कारखानों का कचरा जो बाहर नदी आदि के जल में प्रवाहित कर दिया जाता था, उस पर रोक लग गई। अब वायु प्रदूषण में नियंत्रण आ चुका है, साथ ही जल और ध्वनि प्रदूषण में भी गिरावट आई है, जो प्रकृति के लिए लाभदायक है। परिंदें आकाश में स्वच्छंद रूप से सैर कर रहे हैं। वायु पहले के मुकाबले शुद्ध हो गई है। आकाश का रंग नीला है जिस के रंग को हम भूल गए थे। लॉकडाउन के कारण प्रदूषित वातावरण हर प्रकार से शुद्ध हो गया है।

यदि हम लॉकडाउन से होने वाले लाभ की बात करते हैं, तो लॉक डाउन का सर्वाधिक लाभ हमारे स्वास्थ्य विभाग‌ एवं सूचना प्रौद्योगिकी या इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में मिला है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि लॉकडाउन के दौरान हमारे देश की स्वास्थ्य सेवाएं बहुत अधिक बेहतर हुई हैं और बहुत से स्थानों पर और अस्पतालों में ऑक्सीजन आपूर्ति के लिए नए-नए ऑक्सीजन के प्लांट की स्थापना की गई है जिससे कि दोबारा से देश में ऑक्सीजन की कमी ना हो पाए।

सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में लॉकडाउन के दौरान विशेष रुप से बहुत उन्नति हुई है। जहां बड़ी-बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को लॉकडाउन के दौरान वर्क फ्रॉम होम से कार्य करने की सुविधा प्रदान की है। वर्क फ्रॉम होम का अर्थ है कि अपने घर में ही रह कर ऑफिस के कार्य को निपटाना। इससे जहां सॉफ्टवेयर कंपनियों एवं आईटी क्षेत्र से संबंधित अन्य कंपनियों के ऑफिस, किराया एवं अन्य खर्च में कमी आई है। वहीं वर्क फ्रॉम होम से कर्मचारियों को अपने घर में रहकर ऑफिस कार्य करने की सुविधा मिलती है जिससे वे अपने घर के लोगों के साथ हंसी खुशी से जीवन व्यतीत करते हैं। वर्क फ्रॉम होम से कर्मचारियों को रोज ऑफिस नहीं जाना पड़ता है जिससे उनका यात्रा का खर्च बचता है, एवं वाहन न चलाने से प्रदूषण में भी कमी आती है।

लॉकडाउन से हानि

बड़े-बड़े कार्यालय, कल-कारखानों को बंद करने के कारण मजदूरों पर आफत आ गई है। जो मजदूर दैनिक मजदूरी पर जीवन यापन करते थे, उनके घरों का चूल्हा तक जलना बंद हो गया। बस्ती में लोग भूखे सो रहे हैं। गरीब घरों पर लॉक डाउन का सबसे ज्यादा असर पड़ा है। उनके पास घर लौटने तक के पैसे नहीं है। देश में ऐसी परिस्थिति के कारण को समझते हुए देश की सरकार ने प्रधानमंत्री राहत कोष से जरूरतमंद लोगों की सहायता करने का निर्णय लिया। बहुत सारे लोगों ने भी आगे आकर मदद करना आरंभ कर दिया। लगभग सभी देशों के कारोबार को भारी क्षति हुई है।

लॉकडाउन की वजह से मजदूरों को बहुत नुकसान हुआ है, जो रोजमर्रा के काम से अपने घर का पेट पालते थे। आज उनके लिए एक वक्त की रोटी भी बहुत मुश्किल हो गई। कई मजदूर ऐसे हैं, जो भूखे पेट ही सो रहे हैं। अगर लॉकडाउन का सबसे ज्यादा नुकसान किसी को हुआ है तो वह है मजदूर, जो अपने परिवार का पेट पालने के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं।

लॉकडाउन की वजह से देश की अर्थव्यवस्था को गंभीर नुकसान हुआ है। कारखानों को बंद रखने के कारण भारी नुकसान वहन करना पड़ रहा है, वहीं व्यापार भी पूरी तरह से ठप पड़ा हुआ है। लोगों की नौकरियां चली गई हैं जिसकी वजह से बेरोजगारी की समस्या भी उत्पन्न हो गई है। लॉकडाउन की वजह से देश आर्थिक रूप से कमजोर पड़ रहा है।

दिन-रात सिर्फ कोरोना से संबधित खबरें लोगों को मानसिक रूप से परेशान कर रही हैं, जो उन्हें नकारात्मक कर रही हैं। संपूर्ण दिन घर पर रहने और शारीरिक व्यायाम न होने से लोग खुद को स्वस्थ भी महसूस नहीं कर पा रहे हैं। बच्चे भी पूरे दिन घर पर रहकर चिड़चिड़ापन महसूस करने लगे हैं, क्योंकि वे बाहर खेलने हेतु अपने मित्रों के साथ मिलने में असमर्थ हैं। कोरोना वायरस की खबरें लोगों को परेशान कर रही हैं, जिससे कई लोग डिप्रेशन या अवसाद ग्रस्त जैसी समस्या से भी जूझ रहे हैं।

बड़े - बड़े कारखानों को बंद करने के कारण से उनको भयानक हानि सहन करने पड़ रही है। बाकी व्यवसायियों को भी काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। लॉकडाउन से भारत को अनुमानतः 100 अरब डालर तक घाटा होने की आशंका है। भारत सरकार ‌कोरोना वायरस से 14 अप्रैल तक देश में लॉकडाउन रखना चाहती थी किंतु अब 31 मई तक क्रमशः 4 चरणों में लाख डाउन की व्यवस्था की गई है। भारत में लॉकडाउन के कारण घर में रहते हुए लोगों को मानसिक समस्या हो सकती है। इससे छोटे बच्चों को काफी समस्या हुई है। वे बाहर खेलने कूदने में असमर्थ है। कई लोग डिप्रेशन का शिकार भी हो सकते हैं। इन सब से बचने के लिए एक उपाय यह है कि अपने आपको ज्यादा- से- ज्यादा कामकाजो में लगाए रखें, जिससे यह सब ख्याल हमारे मस्तिष्क में ना आए।

लॉकडाउन से लाभ तो बहुत कम है, किंतु इससे हानि बहुत अधिक होती है। यदि हम लॉकडाउन से होने वाली हानियों की बात करते हैं तो इससे देश के सभी वर्गों पर प्रभाव पड़ता है। सर्वाधिक हानि लॉकडाउन से बच्चों की पढ़ाई पर हुई है। लॉकडाउन के कारण पिछले 2 वर्षों से विद्यालय एवं कॉलेज बंद है जिससे कि बच्चे एवं युवाओं की पढ़ाई बाधित हुई है। लॉकडाउन के दौरान ग्रामीण क्षेत्र में ऑनलाइन पढ़ाई की व्यवस्था ना होने कारण वहां के बच्चे नहीं पढ़ पाते हैं। लॉकडाउन से देश की अर्थव्यवस्था भी बहुत बुरी तरह प्रभावित होती है। जिससे कि देश में आर्थिक मंदी आने का खतरा रहता है। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि लॉकडाउन से बहुत अधिक हानि होती है,  देश की अर्थव्यवस्था गिर जाती है,  रोजगार के साधन कम हो जाते हैं जिससे लोगों की नौकरियां जाने का खतरा बढ़ जाता है। यह तो हम सभी जानते हैं कि लॉकडाउन से कारोबार बुरी तरह से प्रभावित होता है, बाजार बंद हो जाते हैं बाजार में ग्राहक ना होने के कारण छोटे एवं मझोले व्यापारियों के सामने रोजी-रोटी का संकट आ जाता है।

उपसंहार

भारत में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना वायरस को नियंत्रण करने के लिए 14 अप्रैल तक पूरी तरह से लॉकडाउन की घोषणा की थी लेकिन संक्रमण को बढ़ते हुए देखकर चार चरणों में 31 मई तक बढ़ा दी है। इनके निर्देशों का पालन करना हमारा कर्तव्य है, ताकि शीघ्र अति शीघ्र इस जानलेवा महामारी से मुक्ति मिल सके। तभी हम और हमारी सरकार सामान्य जीवन व्यतीत कर पाएंगे। जिंदगी से बढ़कर कोई चीज नहीं होती, घर पर रहकर ही हम इस महामारी पर नियंत्रण कर सकते हैं।

कोरोना वायरस के प्रकोप को रोकने के लिए इस संक्रमण से मुक्ति के लिए भारत के प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन की घोषणा की थी, क्योंकि सामाजिक दूरी ही कोरोना को रोकने के लिए एकमात्र उपाय है। यही कारण है कि लॉकडाउन को बढ़ाया जा रहा है। इसलिए हम सभी की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि हम इस निर्णय का पूर्ण समर्थन करते हुए हम लॉकडाउन का पूरा पालन करें और इस वायरस को जड़ से मिटा दें।

       वन महोत्सव पर निबंध

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       वन महोत्सव पर निबंध

रूपरेखा—(1) प्रस्तावना, (2) वन महोत्सव का उद्देश्य, (3) वन महोत्सव की आवश्यकता, (4) वनों की कटाई के कारण, (5) वनों के लाभ, (6) वनों की कटाई के दुष्प्रभाव, (7) प्रदूषण का बढ़ना, (8) अकाल, (9) बाढ़, (10) वन्य जीव-जन्तुओं का विलुप्त होना, (11) ग्लोबल वार्मिंग, (12) वन क्षेत्र बचाने के उपाय अथवा उपसंहार।

प्रस्तावना- भारत में निरंतर वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण हमारे पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा था, और जितने पेड़ों की कटाई की जा रही थी उसमें से आधे भी नहीं लगाई जा रहे थे। जिसके कारण वनों को बचाने के लिए सरकार द्वारा जुलाई माह में वन महोत्सव का आयोजन किया गया इसको वन महोत्सव नाम इसलिए दिया गया ताकि ज्यादा-से-ज्यादा संख्या में लोग पेड़ लगाएँ और एक-दूसरे को पेड़ लगाने के लाभ बताएँ।

वन महोत्सव का उद्देश्य—वन महोत्सव का मुख्य उद्देश्य ही यह है कि सभी जगह पेड़-पौधे लगाए जाएँ और वनों के सिकुड़ते क्षेत्र को बचाया जाए। वन महोत्सव सप्ताह में हमारे पूरे देश में लाखों पेड़ लगाए जाते हैं लेकिन दुर्भाग्यवश इनमें से कुछ प्रतिशत ही पेड़ बच पाते हैं क्योंकि इनकी देखभाल नहीं की जाती है जिसके कारण यह या तो जीव-जन्तुओं द्वारा खा लिए जाते हैं या फिर जल नहीं मिलने के कारण नष्ट हो जाते हैं। हमारे देश में वनों को बचाने के लिए चिपको आन्दोलन और अप्पिको आन्दोलन बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इन आन्दोलनों के कारण ही वन क्षेत्रों की कटाई में थोड़ी कमी आई है।

वन महोत्सव की आवश्यकता-पेड़ों की कटाई के कारण पृथ्वी का वातावरण दूषित होने के साथ-साथ बदल रहा है जिसके फलस्वरूप आपने देखा होगा कि हिमालय तेजी से निकल रहा है पृथ्वी का तापमान फिर से बढ़ने लगा है असमय वर्षा होती है कहीं पर बाढ़ आ जाती है और कहीं पर आँधी तूफान आ रहे हैं जो कि प्रकृति की साफ चेतावनी है कि अगर हम अभी भी अचेत नहीं हुए तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी का विनाश हो जाएगा। वर्तमान में गर्मियों का समय बढ़ गया है और सर्दियों का समय बहुत कम नाममात्र का ही रह गया है। गर्मियों में तो राजस्थान में पारा 50 डिग्री तक पहुँच जाता है। इसका मतलब अगर इतनी तेज धूप में कोई व्यक्ति अगर आधे घंटे भी खड़ा हो जाए तो उसको हैजा जैसी बीमारी हो सकती है या फिर उसकी मृत्यु भी हो सकती है।

भारत में जितनी तेजी से औद्योगीकरण हुआ है उतनी ही तेजी से वनों की कटाई भी हुई है, लेकिन हम लोगों ने जितनी तेजी से वनों की कटाई की थी पुनः वृक्षारोपण नहीं किया। वन नीति 1988 के अनुसार धरती के कुल क्षेत्रफल के 33% हिस्से पर वन होने चाहिए तभी प्रकृति का संतुलन कायम रह सकेगा। लेकिन वर्ष 2001 की रिपोर्ट में चौकाने वाले नतीजे सामने आए जिसके अनुसार भारत में केवल 20% प्रतिशत ही वन बचे रह गए हैं। 2017 की वन-विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले वर्षों की तुलना में 2017 में वनों में 1% की वृद्धि हुई है। लेकिन यह वृद्धि दर काफी नहीं है क्योंकि जनसंख्या लगातार बढ़ रही है और साथ ही प्रदूषण भी बहुत तेजी से बढ़ रहा है इस प्रदूषण को अवशोषित करने के लिए हमारे वन अब भी काफी कम है। हमारे भारत देश में कुछ राज्यों में तो बहुत ज्यादा वन हैं। जैसे कि लक्षद्वीप, मिजोरम, अंडमान निकोबार द्वीप समूह लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा वनों से ढका हुआ है। लेकिन हमारे देश में कुछ ऐसे में राज्य भी हैं जो कि धीरे-धीरे रेगिस्तान बनते जा रहे हैं जैसे कि गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि ऐसे राज्य हैं। इन राज्यों में वन क्षेत्र को बढ़ाने की बहुत सख्त जरूरत है नहीं तो आने वाले दिनों में यहाँ पर भयंकर अकाल की स्थिति देखने को मिल सकती है।

वनों की कटाई के कारण-हमारे देश की बढ़ती हुई जनसंख्या वनों की कटाई का मुख्य कारण है क्योंकि जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती जा रही है उस जनसंख्या को निवास स्थान और खाने-पीने की वस्तुओं की जरूरत भी बढ़ गई है इसलिए वनों की कटाई करके इस सबकी पूर्ति की जा रही है। आजकल आपने देखा होगा कि आपके घरों में ज्यादातर दरवाजे और खिड़कियाँ और अन्य घरेलू सामान लकड़ी से बनता है और जनसंख्या वृद्धि के साथ लकड़ी की माँग में वृद्धि हुई है। इस वृद्धि को पूरा करने के लिए वनों की कटाई की जा रही है। वनों से हमें कई प्रकार की जड़ी-बूटियाँ प्राप्त होती हैं। इन जड़ी-बूटियों को हासिल करने के लिए मानव द्वारा वनों को नष्ट किया जा रहा है। भारत में आजकल कई ऐसे अवैध उद्योग धंधे जिनमें लकड़ी का उपयोग ज्यादा मात्रा में किया जाता है, उसकी पूर्ति के लिए पेड़ों की कटाई की जाती है। वनों की कटाई का एक अन्य कारण यह भी है कि आजकल लकड़ी के कई अवैध धंधे भी चल रहे हैं वे लोग बिना सरकार की मंजूरी के वनों से पेड़ों की कटाई करते हैं और अधिक मूल्य में लोगों को बेच देते हैं। मानव अपनी भोग विलास की वस्तु की इच्छा को पूरा करने के लिए बेवजह पेड़ों की कटाई करता है।

वनों के लाभ-वनों के कारण हमारी पृथ्वी के वातावरण में समानता बनी रहती. है, मिट्टी का कटाव नहीं होता है, पेड़-पौधों से हमें ऑक्सीजन मिलती है जो कि प्रत्येक जीवित प्राणी के लिए बहुत आवश्यक है। पेड़-पौधे कार्बन डाइ-ऑक्साइड जैसी जहरीली गैसों को अवशोषित कर लेते हैं। वनों में हमें कीमती चंदन जैसी लकड़ियाँ प्राप्त होती हैं। बीमारियों को दूर भगाने के लिए आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियाँ मिलती हैं। पेड़-पौधों के कारण वर्षा अच्छी होती हैं जिससे हर तरफ हरियाली-ही-हरियाली रहती है। आपातकालीन आपदा, सूखे की स्थिति, आँधी, तूफान और बाढ़ कम आती है। वन अन्य जीव-जन्तुओं के रहने का घर है।

वनों की कटाई के कारण-हमारे देश की बढ़ती हुई जनसंख्या वनों की कटाई का मुख्य कारण है क्योंकि जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती जा रही है उस जनसंख्या को निवास स्थान और खाने-पीने की वस्तुओं की जरूरत भी बढ़ गई है इसलिए वनों की कटाई करके इस सबकी पूर्ति की जा रही है। आजकल आपने देखा होगा कि आपके घरों में ज्यादातर दरवाजे और खिड़कियाँ और अन्य घरेलू सामान लकड़ी से बनता है और जनसंख्या वृद्धि के साथ लकड़ी की माँग में वृद्धि हुई है। इस वृद्धि को पूरा करने के लिए वनों की कटाई की जा रही है। वनों से हमें कई प्रकार की जड़ी-बूटियाँ प्राप्त होती हैं। इन जड़ी-बूटियों को हासिल करने के लिए मानव द्वारा वनों को नष्ट किया जा रहा है। भारत में आजकल कई ऐसे अवैध उद्योग धंधे जिनमें लकड़ी का उपयोग ज्यादा मात्रा में किया जाता है, उसकी पूर्ति के लिए पेड़ों की कटाई की जाती है। वनों की कटाई का एक अन्य कारण यह भी है कि आजकल लकड़ी के कई अवैध धंधे भी चल रहे हैं वे लोग बिना सरकार की मंजूरी के वनों से पेड़ों की कटाई करते हैं और अधिक मूल्य में लोगों को बेच देते हैं। मानव अपनी भोग विलास की वस्तु की इच्छा को पूरा करने के लिए बेवजह पेड़ों की कटाई करता है।

वनों के लाभ–वनों के कारण हमारी पृथ्वी के वातावरण में समानता बनी रहती है, मिट्टी का कटाव नहीं होता है, पेड़-पौधों से हमें ऑक्सीजन मिलती है जो कि प्रत्येक जीवित प्राणी के लिए बहुत आवश्यक है। पेड़-पौधे कार्बन डाइ-ऑक्साइड जैसी जहरीली गैसों को अवशोषित कर लेते हैं। वनों में हमें कीमतो चंदन जैसी लकड़ियाँ प्राप्त होती हैं। बीमारियों को दूर भगाने के लिए आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियाँ मिलती हैं। पेड़-पौधों के कारण वर्षा अच्छी होती हैं जिससे हर तरफ हरियाली-ही-हरियाली रहती है। आपातकालीन आपदा, सूखे की स्थिति, आँधी, तूफान और बाढ़ कम आती है। वन अन्य जीव-जन्तुओं के रहने का घर है।

वनों की कटाई के दुष्प्रभाव-वनों की कटाई के कारण केवल मानव जाति पर ही प्रभाव नहीं पड़ा है इसका प्रभाव सम्पूर्ण पृथ्वी पर पड़ा है, जिसके कारण आज ग्लोबल वॉर्मिंग की स्थिति पैदा हो गई आइए जानते हैं कि वनों की क कटाई के कारण क्या-क्या दुष्प्रभाव पड़ते हैं। वन क्षेत्र जैसे-जैसे सीमित होता न्य जा रहा है वैसे-वैसे पृथ्वी के तापमान में भी वृद्धि हो रही है। आपने देखा होगा कि सर्दियों की ऋतु का मौसम वर्ष में कुछ समय के लिए ही आता है और वह ज्यादातर समय गर्मियाँ ही रहती हैं। पिछले 10 सालों में पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी हुई है और हर साल इसमें बढ़ोतरी ही हो रही है।

प्रदूषण का बढ़ना – पेड़-पौधे उद्योग-धंधों एवं अन्य पदार्थों से निकलने वाली जहरीली गैसों को अवशोषित कर लेते हैं। अगर इनकी कटाई कर दी जाएगी तो यह जहरीली गैसें वातावरण में ज्यों-की-त्यों ही रहेंगी, जिनके कारण अनेक भयंकर बीमारियाँ जन्म लेंगी और अगर इसी प्रकार वनों की कटाई चलती रही तो मानव को साँस लेने में भी दिक्कत होगी क्योंकि पेड़ों द्वारा ही ऑक्सीजन का निर्माण किया जाता है और कार्बन डाइऑक्साइड को सोख लिया जाता है।

अकाल – वनों की कटाई के कारण अकाल की स्थिति भी उत्पन्न हो रही है, क्योंकि पेड़ों से ही अधिक वर्षा होती है। अगर पृथ्वी पर पेड़ ही नहीं रहेंगे तो वर्षा भी नहीं होगी। जिसके कारण अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। भारत के कई ऐसे राज्य हैं जिनमें वन क्षेत्र कम पाए जाते हैं जैसे कि गुजरात और राजस्थान तो यहाँ पर अक्सर अकाल की स्थिति बनी रहती है। इन राज्यों में वन क्षेत्र कम होने के कारण जल की कमी भी पाई जाती है।

बाढ़ – पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के कारण कई जगह अधिक वर्षा भी हो जाती है और वन क्षेत्र कम होने के कारण पानी का बहाव कम नहीं हो पाता है और जिससे बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

वन्य जीव-जन्तुओं का विलुप्त होना-बढ़ती हुई आबादी के कारण वन क्षेत्र सीमित हो गए हैं जिसके कारण वनों में रहने वाले वन्य जीवों को रहने के लिए बहुत कम जगह मिल रही है और साथ ही कई ऐसे पेड़ों की कटाई कर दी गई है। जो कि कई वन्य जीवों के जीने के लिए बहुत जरूरी थे। वनों की कटाई के कारण कई जीव-जन्तुओं की प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और अगर ऐसे ही वनों की कटाई होती रही तो जल्द ही सभी वन्य जीवों की प्रजातियाँ लुप्त हो जाएँगी।

 ग्लोबल वॉर्मिंग - पृथ्वी पर जलवायु में हो रहे परिवर्तन ग्लोबल वॉर्मिंग के अंतर्गत ही आते हैं। वर्तमान में आपने समाचारपत्र-पत्रिकाओं में पढ़ा होगा कि गर्मियों के समय बर्फ गिर रही है, रेगिस्तान क्षेत्र में बाढ़ आ रही है, हिमालय पिघल रहा है और साथ ही पृथ्वी का तापमान भी बढ़ रहा है यह सभी कारण ग्लोबल वॉर्मिंग के अंतर्गत आते हैं।

वन क्षेत्र बचाने के उपाय अथवा उपसंहार-वन क्षेत्र को बचाने के लिए हमें लोगों में अधिक-से-अधिक से जागरूकता फैलानी होगी। जनसंख्यावृद्धि दर को कम करना होगा। हमें वन महोत्सव जैसे कार्यक्रमों को बढ़ावा देना होगा जिससे कि अधिक-से-अधिक मात्रा में पेड़ लगाए जा सकें। वनों को बचाने का काम सिर्फ सरकार का ही नहीं है यह काम हमारा भी है क्योंकि जब तक हम स्वयं पेड़ नहीं लगाएँगे तब तक वन क्षेत्र नहीं बढ़ सकते हैं। हमें अवैध वनों की कटाई करने वाले लोगों के लिए सख्त कानून का निर्माण करना होगा। सभी लोगों को पेड़-पौधों के लाभ बताने होंगे जिससे कि वह अधिक-से-अधिक पेड़ लगाएँ। हमें लकड़ियों से बनी वस्तुओं का उपयोग कम करना होगा।

  भारत रत्न डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम  

 मेरा प्रिय नेता (डॉ. अब्दुल कलाम) 

किसी मेले का आँखों देखा वर्णन

  किसी देखे हुए मेले का वर्णन

पर उपदेश कुशल बहुतेरे

राष्ट्रभाषा हिन्दी

राष्ट्रभाषा का महत्त्व

 सम्पर्क भाषा: हिन्दी

वर्तमान में हिन्दी की स्थिति

वर्तमान समय में समाचार पत्र की उपादेयता

उस दिन कक्षा में पढ़ाया जाने वाला रेलगाड़ी नामक पाठ पृष्ठ पर था - us din kaksha mein padhaaya jaane vaala relagaadee naamak paath prshth par tha

  पर उपदेश कुशल बहुतेरे

संकेत बिन्दुप्रस्तावना, पर-उपदेश से सम्बन्धित कुछ उदाहरण, उपसंहार। 

प्रस्तावना अपने जीवन में आपने ऐसे बहुत से लोगों को देखा होगा जो कि दूसरों को सरलता से उपदेश दे देते हैं, परन्तु अपने जीवन में उन उपदेशों का बिलकुल भी पालन नहीं करते। किसी भी उपदेश का प्रभाव अधिक पड़ता है, जब उपदेशक स्वयं भी उन उपदेशों का अनुपालन करता है। अन्यथा उसका उपदेश देना निरर्थक है। जीवन में कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ आ जाती हैं कि हमें सामने वाले की कुछ बातें अनुचित लगती हैं और हम उसे उपदेश देने बैठ जाते हैं, परन्तु यहाँ महत्त्वपूर्ण यह है कि क्या उन उपदेशों को हमने भी अपने जीवन में उतारा है या नहीं।

पर उपदेश से सम्बन्धित कुछ उदाहरण यहाँ हम कुछ उदाहरणों के माध्यम से इस विषय पर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे। एक बार एक महिला अपने लड़के को लेकर महात्मा गाँधी के पास पहुँची। उसने उनसे कहा-महात्मा जी मेरा बेटा मीठा बहुत ज्यादा खाता है। आप इसे समझाइए। गांधी जी ने कहा-आप अगले सप्ताह आना, मैं इसे समझा दूंगा। एक सप्ताह गुजर जाने के बाद वह महिला अपने बच्चे को लेकर गांधीजी के पास आई। उस समय गांधी जी ने उसके बच्चे को समझाया कि बेटा, मीठा कम खाया करो। ज्यादा मीठा खाना सेहत के लिए हानिकारक होता है। लड़का बोला-ठीक है, अब से मैं कम मीठा खाया करूंगा। महिला चकित रह गई। गांधी जी से बोली- महात्मा जी यह बात तो आप तब भी बोल सकते थे। गांधी जी ने उत्तर दिया-उस समय मैं स्वयं ज्यादा मीठा खाता था। गांधी जी की इस बात का उस महिला पर बहुत प्रभाव पड़ा। अतः हमें यदि किसी अनुचित बात के लिए किसी भी व्यक्ति या बालक को टोकना है, तो पहले यह जाँच कर लेना आवश्यक है कि वह अनुचित कार्य कहीं हम स्वयं तो नहीं करते।

दूसरा अन्य प्रसंग भी गांधी जी से ही सम्बन्धित है। एक बार महात्मा गांधी जी की कस्तूरबा देवी बीमार पड़ गईं। डॉक्टर ने गांधी जी से कहा कि कस्तूरबा को कहिए पत्नी कि वे अपने आहार में नमक लेना बन्द कर दें। गांधी जी ने पहले स्वयं नमक खाना छोड़ा बाद में अपनी पत्नी को नमक खाने से मना किया। दूसरे को समझाने से पहले हमें सर्वप्रथम स्वयं में झाँक लेना चाहिए।

उपसंहार अतः स्पष्ट है कि उपदेशक द्वारा कही गई बातों का अनुसरण सभी लोग तब ही करेंगे, जब वह स्वयं भी उसे आचरण में लाता हो। जब तक स्वयं उपदेश देने वाला जीवनानुभवों से न जुड़ा तब तक उसके उपदेशों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। मेघनाथ वध के समय रावण द्वारा दिए गए नीति के उपदेशों के सम्बन्ध में तुलसीदास जो ने इस पंक्ति की रचना की थी कि- 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे रावण के यह वचन निरर्थक थे, क्योंकि वह स्वयं उनका पालन नहीं करता था। अतः योग की शिक्षा देने से पहले स्वयं योगी बनना पड़ता है, जब जाकर लोगों पर उस शिक्षा का प्रभाव पड़ता है।

भारत रत्न डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम  

                      अथवा

 मेरा प्रिय नेता (डॉ. अब्दुल कलाम) 

संकेत बिन्दु –प्रस्तावना, वैज्ञानिक उपलब्धियाँ, युवाओं के प्रेरणा स्रोत, पुरस्कारों से सम्मान, उपसंहार।

प्रस्तावना – 'मिसाइल मैन' के नाम से विख्यात भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का 27 जुलाई, 2015 को भारतीय प्रबन्धन संस्थान (आई आई एम) शिलांग में एक व्याख्यान के दौरान हृदयाघात होने से निधन हो गया। वैज्ञानिक क्षेत्रों में अद्वितीय उपलब्धियों के कारण डॉ. कलाम की गणना विश्व के महानतम वैज्ञानिक में की जाती है। सेण्ट जोसेफ, तिरुचिरापल्ली से बी.एस.सी. एवं मद्रास इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से अन्तरिक्ष विज्ञान में स्नातक करने के पश्चात् डॉ. कलाम ने एच.ए.एल., बंगलुरु में नौकरी करना प्रारम्भ कर दिया।

वैज्ञानिक उपलब्धियाँ – एक वैज्ञानिक के रूप में डॉ. कलाम के जीवन की यात्रा वर्ष 1960 से शुरू हुई, जब वह विक्रम साराभाई अन्तरिक्ष अनुसन्धान केन्द्र थुम्बा से जुड़े। वर्ष 1962 में इसरो से जुड़ने के पश्चात् कलाम ने होवरक्राफ्ट परियोजना पर कार्य आरम्भ किया। डॉ. कलाम कई उपग्रह प्रक्षेपण परियोजनाओं से भी जुड़े। उन्होंने परियोजना निदेशक के रूप में भारत के पहले स्वदेशी उपग्रह प्रक्षेपण यान एसएलवी-3 के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

वर्ष 1980 में कलाम ने रोहिणी उपग्रह को पृथ्वी की कक्षा के निकट स्थापित किया। वर्ष 1982 में डॉ. कलाम को भारतीय रक्षा अनुसन्धान एवं विकास संस्थान (डीआरडीओ) का निदेशक नियुक्त किया गया। इसरो लॉन्च व्हीकल प्रोग्राम की सफलता का श्रेय भी डॉ. कलाम को जाता है। उन्होंने स्वदेशी लक्ष्य भेदी नियन्त्रित प्रक्षेपास्त्र (गाइडेड मिसाइल) को डिज़ाइन किया तथा अग्नि और पृथ्वी जैसी मिसाइलों को स्वदेशी तकनीक से बनाया। वर्ष 1998 में डॉ. कलाम की देखरेख में भारत ने पोखरण में अपना दूसरा सफल परमाणु परीक्षण किया।

युवाओं के प्रेरणा स्रोत – राष्ट्रपति पद से 25 जुलाई, 2007 को सेवामुक्त होने के पश्चात् कलाम शिक्षण, लेखन, मार्गदर्शन और शोधन जैसे कार्यों में व्यस्त रहे। राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल में उन्होंने कई देशों का दौरा किया एवं भारत का शान्ति का सन्देश दुनियाभर को दिया। इस दौरान उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया एवं अपने व्याख्यानों द्वारा देश के नौजवानों का मार्गदर्शन करने एवं उन्हें प्रेरित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। वह भारतीय अन्तरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान, तिरुवनन्तपुरम के कुलाधिपति, अन्ना विश्वविद्यालय, चेन्नई में एयरोस्पेस इन्जीनियरिंग के प्रोफेसर बन गए। उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और अन्तर्राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, हैदराबाद में सूचना प्रौद्योगिकी विषय भी पढ़ाया। इस प्रकार डॉ. कलाम देशभर के बच्चों और युवाओं के प्रेरणा स्रोत बन गए।

पुरस्कारों से सम्मान – डॉ. कलाम की महान् उपलब्धियों को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 1981 में 'पद्म भूषण', वर्ष 1990 में 'पद्म विभूषण' और वर्ष 1997 में 'भारतरत्न' से सम्मानित किया। नेशलन स्पेस सोसायटी ने वर्ष • 2013 में उन्हें अन्तरिक्ष विज्ञान से सम्बन्धित परियोजनाओं के कुशल संचालन और प्रबन्धन के लिए 'वॉन ब्राउन अवॉर्ड' से पुरस्कृत किया। वर्ष 2014 में उन्हें एडिनबर्ग विश्वविद्यालय, यूनाइटेड किंगडम द्वारा 'डॉक्टर ऑफ साइंस' की मानद उपाधि प्रदान की गई।

उपसंहार – डॉ. कलाम ने सपना देखा था कि वर्ष 2020 तक भारत विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा होगा। ऐसे संकल्पवान व अपनी प्रतिभा के बल पर पूरी दुनिया में अपनी सफल पहचान बनाने वाले देश के इस महान् वैज्ञानिक को सच्ची श्रद्धांजलि तभी दी जा सकती है, जब देश का प्रत्येक नागरिक उनके बताए मार्ग पर चलने का संकल्प ले। उन्होंने कहा भी है

"अपने मिशन में कामयाब होने के लिए आपको अपने लक्ष्य के प्रति एकचित्त और निष्ठावान होना पड़ेगा।"

      किसी मेले का आँखों देखा वर्णन

                       अथवा 

          किसी देखे हुए मेले का वर्णन

संकेत बिन्दु –भूमिका/ प्रस्तावना, मार्ग के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन, मेले के दृश्य का चित्रण, उपसंहार

प्रस्तावना भारत मेलों का देश है। यहाँ आए दिन किसी-न-किसी जाति और किसी-न-किसी धर्म का मेला लगता ही रहता है। मानव ने सभ्यता के संघर्ष में जब-जब सफलता प्राप्त की, तब-तब उसने उसकी प्रसन्नता में कोई विशेष मेला प्रारम्भ कर दिया। प्राचीन काल में मेलों के ही बहाने से यातायात की सुविधा के अभाव में एक-दूसरे से मिल लेते थे, विचारों का आदान-प्रदान करते थे, एक-दूसरे से धार्मिक प्रेरणा प्राप्त करते थे तथा अपने विश्राम के समय को मनोरंजन में व्यतीत करते थे। मेलों के बहाने से वे जीवन की आवश्यक वस्तुएँ भी आसानी से खरीद लेते थे। दूर नगरों में जाकर कौन अपने चार छः दिन नष्ट करे, इसी भावना से प्रत्येक ग्राम के आस-पास चार छः महीनों में कोई-न-कोई मेला लगा करता था। आज भी ग्रामीणों के जीवन में इन मेलों का विशेष महत्त्व है। पिछले माह मैं अपने परिवार के साथ गंगा स्नान करने के लिए हरिद्वार गया। हमने बस द्वारा वहाँ जाने का निर्णय किया।

मार्ग के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन – मार्ग के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखने के लिए मैंने खिड़की से अपना सिर बाहर निकाल रखा था। सड़क का दृश्य बड़ा ही मनोहर था। सड़क के दोनों ओर बहुत से यात्री पैदल चल रहे थे। जाने वालों में स्त्रियों की संख्या अधिक थी। वे दस-दस और आठ-आठ की टोलियों में भजन गाती हुई जा रहीं थीं। किसी का बच्चा कन्धे पर बैठा था, तो किसी का बगल में, ज्यादा संख्या बिना बच्चों वाली महिलाओं की थी। वे बेचारी जल्दी पहुँचने के विचार से अपने-अपने घरों से बहुत जल्द चल दी थीं। बहुत से लोग साइकिलों पर थे; जिन्होंने कैरियरों पर अपने-अपने बिस्तर और कपड़े बाँध रखे थे। जब तक सड़क अच्छी थी। बस आराम से चलती रही, परन्तु जैसे ही कुछ गड्ढेदार सड़क आई हम लोग उछलने लगे, हमारे सिर बार-बार बस की छत से जाकर टकराते। बस में बैठे हुए बच्चों और औरतों को इस कूदने में बड़ी हँसी आ रही थी, सारी गाड़ी का वातावरण मनोविनोदपूर्ण था।

मेले के दृश्य का वर्णन – आज गंगा दशहरा था। प्रात:काल चार बजे से ही गंगा के दूर तक के तट भीड़ से भरे हुए दिखाई पड़ रहे थे। किनारों पर पेड़ों के तख्त बिछे हुए थे, जिन पर यात्री अपना सामान रखते, स्नान करते और फिर पण्डे से तिलक लगवाकर उसे दक्षिणा दे रहे थे। नहा-धोकर लोग मेले की ओर जा रहे थे। चारों ओर बाजार भरा हुआ दिखाई पड़ रहा था। मनचले नौजवान धक्केबाजी में ही आनन्द ले रहे थे और कुछ लोग भीड़ से बचकर निकलने की कोशिश कर रहे थे। खोमचे वालों की तरह-तरह की आवाज खेल-तमाशे वालों के गाने, रिकार्डों तथा चरखे वालों की चूँ चूँ ने सारा वातावरण कोलाहलपूर्ण बना रखा था, एक तरफ पूड़ी कचौड़ी वालों की दुकाने थीं। कहीं, पूड़ियाँ सिक रहीं थीं, तो कहीं गरम-गरम जलेबियाँ बहार दे रहीं थीं। कोई बर्फी खा रहा था, कोई लड्डू, कोई कलाकन्द का भोग लगा रहा था, तो कोई कचौरी पर आलू की सब्जी डलवा रहा था। हलवाइयों की दुकानों के भीतर चटाइयो पर बैठने का स्थान भी न मिल रहा था। एक ओर बिसातियों की दुकानें थी जिन पर गाँव की स्त्रियों की बेहद भीड़ थी। कोई कंघा ले रही थी तो कोई चुटिया। नई फैशन की लड़कियाँ रिबन खरीद रहीं थी। कोई शीशे में अपना मुँह देखकर उसका मोल कर रही थी। किसी को माथे की बिन्दी पसन्द आई थी, तो किसी को नाखूनों की पालिश। बच्चे अपनी माताओं से सीटी, गेंद और पैसे रखने का बटुआ लेने के लिए मचल रहे थे।

बच्चों और स्त्रियों की सबसे ज्यादा भीड़ मैंने चाट और खोमचे वालों के यहाँ देखी। कोई दही बड़े खा रहा था, तो कोई सोठ की पकौड़िया कोई आलू की टिकिया खा रहा था, तो कोई पानी के बताशे। कुछ किताबों की दुकानें थीं, जिन पर ग्रामीण साहित्य अर्थात् रसिया और ढोले की छोटी-छोटी किताबे गाँव वाले खूब खरीद रहे थे। किताबें खरीदकर वहीं, उनमें से गाना शुरू कर देते थे। कुछ घूमने वाले बाँसुरी बेच रहे थे। कहीं काठ की मालाएँ बिक रहीं थीं। कुछ दुकाने ऐसी थीं, जिन पर केवल गंगा जी का प्रसाद बिक रहा था, जो भी स्नान करके आता वह सफेद चिनौरियों का प्रसाद जरूर खरीदता। बच्चे अपनी माताओं से चरखे में झूलने के लिए मचल रहे थे और वे मना कर रही थीं। कहीं भजनोपदेश हो रहे थे तो कहीं धार्मिक सभाएँ।

उपसंहार – इस प्रकार चार-पाँच दिन मेले का आनन्द लिया। छठे दिन हम लोग घर आ चुके थे। भारतीय मेलों में भारत की प्राचीन आत्मा आज भी दिखाई पड़ती है। ये मेले हमारी सभ्यता, संस्कृति और धार्मिक भावनाओं के प्रेरणा स्रोत हैं और अतीत के इतिहास को आज भी हमारे नेत्रों के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं। परस्पर मिलाने और एक-दूसरे को समीप लाने में ये मेले बहुत सहायक सिद्ध होते हैं।

                 राष्ट्रभाषा हिन्दी

राष्ट्रभाषा का महत्त्व

 सम्पर्क भाषा: हिन्दी

वर्तमान में हिन्दी की स्थिति 

संकेत बिन्दु भूमिका, हिन्दी की संवैधानिक स्थिति, राजभाषा के रूप में चयन का कारण, हिन्दी की वास्तविक स्थिति, निष्कर्ष या उपसंहार

 भूमिका – किसी भी राष्ट्र की सर्वाधिक प्रचलित एवं स्वेच्छा से आत्मर की गई भाषा को 'राष्ट्रभाषा' कहा जाता है। हिन्दी, बांग्ला, उर्दू, पंजाबी, तेलुगू, तमिल, कन्नड़, मलयालम, उड़िया आदि भारत के संविधान द्वारा मान्य राष्ट्रभाषाएँ हैं। इन सभी भाषाओं में हिन्दी का स्थान सर्वोपरि है, क्योंकि यह भारत की राजभाषा भी है। राजभाषा वह भाषा होती है, जिसका प्रयोग देश में राज-काज को चलाने के लिए किया जाता है। हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की राजभाषा है।

हिन्दी की संवैधानिक स्थिति – संविधान के अनुच्छेद-343 के खण्ड-1 में कहा गया है कि भारत संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने वाले भारतीय अंकों का रूप, अन्तर्राष्ट्रीय रूप होगा। खण्ड-2 में यह प्रावधान किया गया कि 26 जनवरी, 1965 तक संघ के सभी सरकारी कार्यों के लिए अंग्रेज़ी का प्रयोग होता रहेगा और इन पन्द्रह वर्षों में हिन्दी का विकास कर इसे राजकीय प्रयोजनों के लिए उपयुक्त बना दिया जाएगा।

राजभाषा के रूप में चयन का कारण – देश की अन्य भाषाओं के बदले हिन्दी को राजभाषा बनाए जाने का मुख्य कारण यह है कि यह भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा के साथ-साथ देश की एकमात्र सम्पर्क भाषा भी है। हिन्दी राष्ट्र के बहुसंख्यक लोगों द्वारा बोली और समझी जाती है। इसकी लिपि देवनागरी है, जो अत्यन्त सरल है। इसमें आवश्यकतानुसार देशी-विदेशी भाषाओं शब्दों को आत्मसात् करने की शक्ति है। यह एकमात्र ऐसी भाषा है, जिसमें पूरे राष्ट्र में भावात्मक एकता स्थापित करने की पूर्ण क्षमता है। हिन्दी की इसी सार्वभौमिकता के कारण राजनेताओं ने हिन्दी को राजभाषा का दर्जा देने का निर्णय लिया था।

हिन्दी की वास्तविक स्थिति – आज हिन्दी को राजभाषा का सम्मान प्राप्त करने के लिए अंग्रेज़ी के साथ संघर्ष करना पड़ रहा है। भाषाओं की बहुलता के कारण भी दक्षिण में हिन्दी को नुकसान उठाना पड़ रहा है। कुछ राजनीतिज्ञ तथा राजनीतिक दल इसे इसका वास्तविक सम्मान दिए जाने का विरोध करते रहे हैं।

निष्कर्ष या उपसंहार – प्रत्येक देश की पहचान का एक मज़बूत आधार उसकी भाषा होती है। राष्ट्रभाषा के द्वारा आपस में सम्पर्क बनाए रखकर देश की एकता एवं अखण्डता बनाए रखने के लिए, हिन्दी को इसका सम्मान देना आवश्यक है, जिससे यह पूरे देश को एकता के सूत्र में बाँधने वाली भाषा की भूमिका सफलतापूर्वक निभा सके। जनता को भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा दिया गया यह मन्त्र समझना होगा

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को सूल।

वर्तमान समय में समाचार पत्र की उपादेयता

संकेत बिन्दुप्रस्तावना, समाचार पत्र का इतिहास,  समाचार पत्रों का महत्त्व, समाचार पत्रों का दुरुप्रयोग, उपसंहार 

प्रस्तावना – समाचार पत्र जनसंचार का एक सशक्त माध्यम है। समाचार पत्रों की निष्पक्षता, निर्भीकता एवं प्रामाणिकता के कारण इनकी विश्वसनीयता में तेज़ी से वृद्धि हुई है। यही कारण है कि सन्तुलित तरीके से समाचारों का प्रस्तुतीकरण कर रहे समाचार पत्रों की बिक्री दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है।

समाचार पत्र का इतिहास – सोलहवीं शताब्दी में प्रिण्टिंग प्रेस के आविष्कार के साथ ही समाचार पत्र की शुरुआत हुई थी, किन्तु इसका वास्तविक विकास अट्ठारहवीं शताब्दी में हो सका। उन्नीसवीं शताब्दी आते-आते इनके महत्त्व में तेज़ी से वृद्धि होने लगी, जिससे आगे के वर्षों में यह एक लोकप्रिय एवं शक्तिशाली माध्यम बनकर उभरा। समाचार पत्र कई प्रकार के होते हैं— त्रैमासिक, मासिक, पाक्षिक, साप्ताहिक एवं दैनिक। कुछ नगरों में समाचार पत्रों के प्रातःकालीन व सायंकालीन संस्करण भी प्रस्तुत किए जाते हैं। इस समय विश्व के अन्य देशों के साथ-साथ भारत में भी दैनिक समाचार पत्रों की संख्या अन्य प्रकार के पत्रों से अधिक है। भारत में भी समाचार पत्रो की शुरुआत अट्ठारहवीं शताब्दी में ही हुई थी।

भारत का पहला ज्ञात समाचार पत्र अंग्रेज़ी भाषा में प्रकाशित 'बंगाल गजट' था। इसका प्रकाशन 1780 ई. में जेम्स ऑगस्टस हिकी ने शुरू किया था। कुछ वर्षों बाद अंग्रेज़ों ने इसके प्रकाशन पर प्रतिबन्ध लगा दिया। हिन्दी का पहला समाचार पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' था। आरएनआई की वर्ष 2015-16 की प्रकाशित वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान समय में देशभर में पंजीकृत समाचार पत्रों की संख्या लगभग एक लाख है। भारत में अंग्रेज़ी भाषा के प्रमुख दैनिक समाचार पत्र 'द टाइम्स ऑफ इण्डिया', 'द हिन्दू', 'हिन्दुस्तान टाइम्स' इत्यादि हैं। हिन्दी के दैनिक समाचार पत्रों में 'दैनिक जागरण', 'दैनिक भास्कर', 'हिन्दुस्तान', 'नव-भारत टाइम्स', 'नई दुनिया' 'जनसत्ता' इत्यादि प्रमुख हैं।

समाचार-पत्रों के कार्य जहाँ तक समाचार पत्रों के कार्यों की बात है, तो यह लोकमत का निर्माण, सूचनाओं का प्रसार, भ्रष्टाचार एवं घोटालों का पर्दाफ़ाश तथा समाज की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करने के लिए जाना जाता है। समाचार पत्रों में प्रत्येक वर्ग के लोगों को ध्यान में रखते हुए समाचार फीचर एवं अन्य जानकारियाँ प्रकाशित की जाती है। लोग अपनी रुचि एवं आवश्यकता के अनुरूप समाचार, फीचर या अन्य विविध जानकारियों को पढ़ सकते हैं। टेलीविज़न के न्यूज़ चैनलों के विज्ञापन से जहाँ झल्लाहट होती है, वहीं समाचार पत्र के विज्ञापन पाठक के लिए सहायक सिद्ध होते हैं।

समाचार पत्रों का महत्त्व – रोज़गार की तलाश करने वाले लोगो एवं पेशेवर लोगों की तलाश कर रही कम्पनियों, दोनों के लिए समाचार पत्रों का विशेष महत्त्व है। तकनीकी प्रगति के साथ ही सूचना प्रसार में आई तेज़ी के बावजूद इण्टरनेट एवं टेलीविज़न इसका विकल्प नहीं हो सकते। समाचार पत्रों से देश की हर गतिविधि की जानकारी तो मिलती ही है, साथ ही मनोरंजन के लिए इनमें फैशन, खेल, सिनेमा इत्यादि समाचारों को भी पर्याप्त स्थान दिया जाता है। समाचार पत्र सरकार एवं जनता के बीच एक सेतु का कार्य भी करते हैं। आम जनता समाचार पत्रों के माध्यम से अपनी समस्याओं से सबको अवगत सकती है। इस तरह, आधुनिक समाज में समाचार पत्र लोकतन्त्र के प्रहरी का रूप ले चुके हैं। समाचार पत्रों की शक्ति का वर्णन करते हुए अकबर इलाहाबादी ने कहा है

"खींचो न कमानों को न तलवार निकालो।

 जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।”

समाचार-पत्रों की शक्ति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि कई बार लोकमत का निर्माण करने में ये महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लोकमत के निर्माण के बाद जनक्रान्ति ही नहीं, बल्कि अन्य अनेक प्रकार का परिवर्तन सम्भव है। यहाँ तक कि कभी-कभी सरकार को गिराने में भी ये सफल रहते हैं। बिहार में लालूप्रसाद यादव द्वारा किया गया चारा घोटाला, आन्ध्र प्रदेश में तेलगी द्वारा किया गया डाक टिकट घोटाला, ए. राजा का 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कलमाड़ी का राष्ट्रमण्डल खेल घोटाला इत्यादि अनेक प्रकार के घोटालों, मैच फिक्सिंग के पर्दाफ़ाश में समाचार पत्रों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है।

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में भी समाचार पत्रों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। बीसवीं शताब्दी में भारतीय समाज में स्वतन्त्रता की अलख जगाने एवं इसके लिए प्रेरित करने में तत्कालीन समाचार-पत्रों की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। महात्मा गाँधी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, लाला लाजपत राय, अरविन्द घोष, मदन मोहन मालवीय, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे अमर स्वतन्त्रता सेनानी भी पत्रकारिता से प्रत्यक्षतः जुड़े हुए थे। इन सबके अतिरिक्त मुंशी प्रेमचन्द, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, माखनलाल चतुर्वेदी, प्रतापनारायण मिश्र जैसे साहित्यकारों ने पत्रकारिता के माध्यम से समाचार-पत्रों को स्वतन्त्रता संघर्ष का प्रमुख एवं शक्तिशाली हथियार बनाया। नेपोलियन ने कहा था— “मैं लाखों बन्दूकों की अपेक्षा तीन विरोधी समाचार पत्रों से अधिक डरता हूँ।”

समाचार पत्रों का दुरुपयोग – इधर कुछ वर्षों से धन देकर समाचार प्रकाशित करवाने एवं व्यावसायिक लाभ के अनुसार 'पेड न्यूज़' समाचारों का चलन बढ़ा है। इसके कारण समाचार-पत्रों की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठने शुरू हो गए हैं। इसका कारण यह है कि भारत के अधिकतर समाचार पत्रों का स्वामित्व किसी-न-किसी उद्योगपति घराने के पास है। जनहित एवं देशहित से अधिक इन्हें अपने उद्यमों के हित की चिन्ता रहती है, इसलिए ये अपने हितों को प्राथमिकता देते हैं। सरकार एवं विज्ञापनदाताओं का प्रभाव भी समाचार पत्रों पर स्पष्ट देखा जा सकता है।

प्राय: समाचार पत्र अपने मुख्य विज्ञापनदाताओं के विरुद्ध कुछ भी छापने से बचते हैं। इस प्रकार की पत्रकारिता किसी भी देश के लिए घातक है। पत्रकारिता, व्यवसाय से अधिक सेवा है। व्यावसायिक प्रतिबद्धता पत्रकारिता के मूल्यों को नष्ट करती है।

उपसंहार – किसी भी देश में जनता का मार्गदर्शन करने के लिए निष्पक्ष एवं निर्भीक समाचार पत्रों का होना आवश्यक है। समाचार पत्र देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों की सही तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। चुनाव एवं अन्य परिस्थितियों में सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों से जन-साधारण को अवगत कराने की ज़िम्मेदारी भी समाचार पत्रों को वहन करनी पड़ती है। इसलिए समाचार पत्रों के अभाव में स्वस्थ लोकतन्त्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

महात्मा गांधी ने समाचार-पत्रों के बारे में बड़ी ही महत्त्वपूर्ण एवं स्पष्ट बात कही। हैं—“समाचार-पत्रों के तीन उद्देश्य होने चाहिए-

(i) जनमानस की लोकप्रिय भावनाओं को समझना और उन्हें अभिव्यक्ति देना,

 (ii) लोगों में वांछनीय संवेदना जागृत करना एवं 

(iii) लोकप्रिय दोषों को बेधड़क बेनकाब करना।” यदि समाचार-पत्रों के मालिक और इनके सम्पादन से सम्बद्ध लोग महात्मा गांधी की कही इन बातों से प्रेरणा लेकर समाचार-पत्रों को प्रकाशित करें, तो निश्चय ही इनसे जनमानस और देश का कल्याण होगा।

 विद्यालय में अनुशासन का महत्त्व

यातायात नियमों की दैनिक जीवन में उपयोगिता 

 सड़क मार्ग के नियम

परिवहन के दौरान सावधानियाँ, सड़क यातायात व परिवहन

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है

ग्राम्य स्वच्छता 

गाँव में सफाई का महत्त्व

उस दिन कक्षा में पढ़ाया जाने वाला रेलगाड़ी नामक पाठ पृष्ठ पर था - us din kaksha mein padhaaya jaane vaala relagaadee naamak paath prshth par tha

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सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

संकेत बिन्दुप्रस्तावना, भारत का प्राकृतिक सौन्दर्य, महापुरुषों की धरती, उपसंहार

प्रस्तावना – भारत देश हम सब भारतवासियों के लिए स्वर्ग के समान सुन्दर है। हमने इसी की पावन धरा पर जन्म लिया है। इसकी गोद में पलकर हम बड़े हुए हैं। इसके अन्न-जल से हमारा पालन-पोषण हुआ है, इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम इससे प्यार करें तथा इसकी रक्षा के लिए अपने प्राणों को बलिदान कर दें।

महाराजा दुष्यन्त और शकुन्तला के न्यायप्रिय पुत्र भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा। हिन्दू बाहुल्य होने के कारण इसे हिन्दुस्तान भी कहा जाता है।

आधुनिक भारत की सीमाएँ उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक और पूर्व में अरुणाचल से लेकर पश्चिम में गुजरात तक फैली हुई। भारत संसार का सबसे बड़ा प्रजातान्त्रिक देश है। यहाँ सभी लोग मिल-जुलकर निवास करते हैं।

हमारे देश में सभी धर्मों के लोगों को अपने ईश्वर की पूजा करने की पूरी स्वतन्त्रता है। इस प्रकार भारत देश एक कुटुम्ब के समान है जिस कारण इसे विभिन्न धर्मों का संगम-स्थल भी कहा जा सकता है। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने लिखा है- "वसुधैव कुटुम्बकम्।"

भारत का प्राकृतिक सौन्दर्य – भारत का प्राकृतिक सौन्दर्य केवल भारतवासियों को ही मोहित नहीं करता, बल्कि विदेशी भी हर साल काफी संख्या में भारत आते हैं। यह वह देश है जहाँ पर छह ऋतुएँ समय-समय पर आती हैं और इस देश की धरती को अनेक प्रकार के अनाज, फूलों एवं फलों से भर देती हैं।

भारत के पर्वत, झरने, नदियाँ, रेगिस्तान, वन-उपवन, हरे-भरे मैदान एवं समुद्रतट इस देश की शोभा बढ़ाते हैं। जहाँ एक ओर कश्मीर में स्वर्ग दिखाई पड़ता है, तो वहीं दूसरी ओर केरल की हरियाली स्वर्गिक आनन्द से परिपूर्ण है। भारत में अनेक नदियाँ हैं जो वर्ष भर इस देश की धरती को सींचती हैं, उसे हरा-भरा बनाती हैं और अन्न-उत्पादन में सहयोग करती हैं।

महापुरुषों की धरती – भारत को महापुरुषों की धरती भी कहा जाता है। यहाँ पर अनेक महान् ऋषि-मुनियों ने जन्म लिया, जिन्होंने वेदों का गान किया तथा उपनिषद् और पुराणों की रचना की। यहाँ श्रीकृष्ण का जन्म हुआ जिन्होंने गीता का ज्ञान देकर विश्व को कर्म का पाठ पढ़ाया। यहीं पर भगवान राम का जन्म हुआ था, जिन्होंने न्यायपूर्ण शासन का आदर्श स्थापित किया। यहीं पर महावीर स्वामी और बुद्ध ने अवतार लिया जिन्होंने मानव को अहिंसा की शिक्षा दी तथा क्रमशः जैन धर्म और बौद्ध धर्म का प्रतिपादन किया। यहाँ पर बड़े-बड़े वीर, प्रतापी सम्राट अशोक, अकबर, चन्द्रगुप्त मौर्य, विक्रमादित्य आदि हुए जो पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं। आधुनिक काल में गरीबों के मसीहा महात्मा गाँधी, शान्तिदूत पं. जवाहरलाल नेहरू, विश्व मानवता के प्रचारक रवीन्द्र नाथ टैगोर आदि का जन्म भी इसी महान् देश में हुआ।

उपसंहार – हमारे देश की शान्ति व अहिंसा आदि से प्रभावित धर्म, संस्कृति, दर्शन का संगम होने पर महान शायर इकबाल ने कहा था- "सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा। हम बुलबुले हैं इसकी यह गुलिस्ताँ हमारा।" अतः हमारे देश की यह धरती धन्य है और इसमें रहने वाले लोग भी बड़े सौभाग्यशाली हैं। हम अपने भारत देश पर गर्व करते हैं, जो हमेशा इसी तरह बना रहेगा।

       विद्यालय में अनुशासन का महत्त्व

संकेत बिन्दुप्रस्तावना, अनुशासन का महत्व, उपसंहार 

प्रस्तावना – समाज की सहायता के बिना मानव जीवन का अस्तित्व असम्भव है। सामाजिक जीवन को सुख-सम्पन्न बनाने के लिए कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। इन नियमों को हम सामाजिक जीवन के नियम कहते हैं। इनके अन्तर्गत मनुष्य व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से नियमित रहता है, तो उसके जीवन को अनुशासित जीवन कहते हैं। हमारे जीवन में 'अनुशासन' एक ऐसा ही गुण है, जिसकी आवश्यकता मानव जीवन में पग-पग पर पड़ती है। अनुशासन ही मनुष्य को एक अच्छा व्यक्ति व एक आदर्श नागरिक बनाता है। विद्यार्थी जीवन में अनुशासन ही विद्यार्थी को नैतिक उत्थान की ओर अग्रसर करता है।

किसी ने सही ही कहा है कि "अनुशासन सफलता की कुंजी है।" अनुशासन मनुष्य के विकास के लिए बहुत आवश्यक है। यदि मनुष्य अनुशासन में जीवन यापन करता है, तो वह स्वयं के लिए सुखद और उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण करता है। अनुशासन विद्यार्थी जीवन का आवश्यक अंग है। विद्यार्थी को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वह खेल का मैदान हो अथवा विद्यालय, घर हो अथवा घर से बाहर कोई सभा-सोसायटी, सभी जगह अनुशासन के नियमों का पालन करना चाहिए। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन का महत्त्व है। अनुशासन से धैर्य और समझदारी का विकास होता है, समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता बढ़ती है।

अनुशासन का महत्त्व – परिवार अनुशासन की आरम्भिक पाठशाला है। अनुशासन का पाठ बचपन से परिवार में रहकर सीखा जाता है। बचपन के समय में अनुशासन सिखाने की जिम्मेदारी माता-पिता तथा गुरुओं की होती है। एक सुशिक्षित और शुद्ध आचरण वाले परिवार का बालक स्वयं ही बढ़िया चाल-चलन और अच्छे आचरण वाला बन जाता है। माता-पिता की आज्ञा का पालन उसे अनुशासन का प्रथम पाठ पढ़ाता है। परिवार के उपरान्त अनुशासित जीवन की शिक्षा देने वाला दूसरा स्थान विद्यालय है। शुद्ध आचरण वाले सुयोग्य गुरुओं के शिष्य अनुशासित आचरण वाले होते हैं। ऐसे विद्यालय में बालक के शरीर, आत्मा और मस्तिष्क का सन्तुलित रूप से विकास होता है।

विद्यार्थी समाज की एक नव-मुखरित कली है। इन कलियों के अन्दर यदि किसी कारणवश कमी आ जाती है, तो कलियाँ मुरझा जाती हैं, साथ-साथ उपवन की छटा भी समाप्त हो जाती है। यदि किसी देश का विद्यार्थी अनुशासनहीनता का शिकार बनकर अशुद्ध आचरण करने वाला बन जाता है, तो यह समाज किसी-न-किसी दिन आभाहीन हो जाता है। विद्यार्थी हमारे देश का मुख्य आधार स्तम्भ है। यदि इनमें अनुशासन की कमी होगी, तो हम सोच सकते हैं कि देश का भविष्य कैसा होगा। विद्यार्थी के लिए अनुशासन में रहना और अपने सभी कार्यों को व्यवस्थित रूप से करना बहुत आवश्यक है।

विद्यार्थी को चाहिए कि विद्यालय में रहकर विद्यालय के बनाए सभी नियमों का पालन करे। अध्यापकों द्वारा पढ़ाए जा रहे सभी पाठों का अध्ययन पूरे मन से करना चाहिए, क्योंकि विद्यालय का जीवन व्यतीत करने के उपरान्त जब छात्र सामाजिक जीवन में प्रवेश करता है, तो उसे कदम-कदम पर अनुशासित व्यवहार की आवश्यकता होती है। यदि विद्याथियों में अनुशासन नहीं होगा तो समाज की दशा

बिगड़ेगी और यदि समाज की दशा बिगड़ेगी तो देश कैसे उससे अछूता रहेगा। अनुशाससित व्यक्ति केवल अपने लिए ही नहीं, समस्त देश व समाज के लिए घातक सिद्ध होता है। अनुशासित विद्यार्थी अनुशासित नागरिक बनते हैं एवं अनुशासित नागरिक एक अनुशासित समाज का निर्माण करते हैं।

उपसंहार – अनुशासन का वास्तविक अर्थ अपनी दूषित और दूसरों को हानि पहुँचाने वाली प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण करना है। अनुशासन के लिए बाहरी नियन्त्रण की अपेक्षा आत्मनियन्त्रण करना अधिक आवश्यक है। वास्तविक अनुशासन वही है जो कि मानव की आत्मा से सम्बद्ध हो, क्योंकि शुद्ध आत्मा कभी भी मानव को अनुचित कार्य करने को प्रोत्साहित नहीं करती।

    मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है 

संकेत बिन्दुप्रस्तावना, भाग्यवाद की धारणा गलत है, कर्म पर विश्वास करना ही उचित है, स्वावलम्बन व परावलम्बन, उपसंहार

प्रस्तावना – सुख-दु:ख, सफलता-असफलता, यश-अपयश आदि का कारण 'भाग्य' को मान लेना नितान्त अज्ञानता है। परमात्मा किसी के भाग्य में सुख और किसी के भाग्य में दुःख नहीं लिखता। यह सब अपने ही कर्मों का परिणाम होता है, जो हम भोगते हैं- चाहे वह आनन्ददायक हो या पीड़ादायक। कहने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य को भाग्यवादी न होकर उद्यमी होना चाहिए। मनुष्य अपने भाग्य से नहीं वरन् कर्म से महान बनता है।

भाग्यवाद की धारणा गलत है – भाग्य पर सब कुछ छोड़ना, उसी पर ही निर्भर होना, भाग्यवाद कहलाता है। भाग्यवाद का उपदेश आलसी व कर्म से जी चुराने वाले व्यक्ति ही देते हैं। जो मनुष्य भाग्य के भरोसे ही बैठे रहते हैं, वे जीवन में कुछ भी नहीं कर पाते। भाग्यवाद का सहारा लेने वाले मनुष्य जहाँ होते हैं, वहीं रह जाते हैं। अतः हमें चाहिए कि हम अपने भाग्य के भरोसे न बैठकर कर्म को प्रधानता दें कर्म करके ही मनुष्य भाग्य को संवार सकता है भाग्यवादी थोथे चने के समान होता है, जो बोलता तो ज्यादा है, परन्तु वास्तव में अन्दर से वह खोखला होता है। ऐसा मनुष्य स्वयं के लिए कुछ नहीं कर सकता, तो अन्य के क्या काम आ सकता है? भाग्यवाद का निर्धारण करने वाला अपने साथ कुछ भी गलत होने पर परमात्मा को दोष देता है, जो कि गलत है। अपनी कर्महीनता का विश्लेषण न करके अपनी आँखों पर भाग्य की पट्टी बाँध लेता है और दोष ईश्वर पर मढ़ देता है। अतः स्पष्ट है कि भाग्यवादी और उनके भाग्यवाद की धारणा दोनों ही गलत होते हैं।

कर्म पर विश्वास करना ही उचित है – किसी ने सत्य ही कहा है कि "मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है।" भाग्य के भरोसे बैठकर या तो वह स्वयं को अकर्मण्य बना सकता है या शेरपा तेनजिंग व एडमण्ड हिलेरी की तरह अपने अथक प्रयासों से अर्थात् कर्मठता से एवरेस्ट को भी फतह कर लेता है, जो व्यक्ति उद्यम अर्थात् अपने कर्म पर विश्वास करता है वह जीवन में असफलताओं के डर से अपने लक्ष्य से नहीं भटकता। वह बार-बार प्रयास करता है और अन्ततः सफलता हासिल कर ही लेता है। एक राजा युद्ध से हारा हुआ, भागकर एक गुफा में आश्रय ले लेता है। वहाँ वह एक चींटी के गुफा की दीवार पर बार-बार चढ़ने और गिरने के अथक उद्यम को देखता है। वह देखता है कि बार-बार प्रयास करने के बाद चींटी दीवार पर चढ़ जाती है। यह सब देखकर उसके अन्दर एक नव-शक्ति का संचार होता है। वह पुनः अपनी सेना का संगठन करता है और अपने शत्रु को हराकर अपना खोया हुआ राज्य पा लेता है। यही कर्म की शक्ति है। हमारे कर्म ही हमारे भाग्य का निर्माण करते हैं। हम संसार में निरन्तर कर्म करते हुए अपने किसी भी लक्ष्य को पा सकते है।

भाग्य का निर्माण न तो कोई अचानक होने वाला संयोग होता है और न ही उसका बनना-बिगड़ना किसी व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं होता है। यदि मनुष्य चाहे तो उसके भाग्य में समृद्धि, वैभव, यश, ऐश्वर्य सभी प्रकार की सुख-सुविधाएँ हो सकती हैं। परन्तु यह भी ध्यान रखना आवश्यक है। कि अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हम दुष्कर्मों में न प्रवृत्त हो जाएँ, अन्यथा हमें उनके दुष्परिणाम भोगने पड़ सकते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि- "जो मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल-परिणाम अवश्य मिलता है।" अतः हमें अपने भाग्य को बनाने के लिए सत्कर्मों की ओर ही प्रवृत्त होना चाहिए।

स्वावलम्बन व परावलम्बन – जो मनुष्य अपने कर्तव्य पथ का निर्माण स्वयं करता है, उसे स्वावलम्बी कहते हैं तथा जो मनुष्य अपने किसी भी कार्य के लिए दूसरो को तलाशता है, उसे परावलम्बी कहते हैं। अपनी उन्नति और सफलता के लिए हमें दूसरों का मुँह नहीं ताकना चाहिए।

इससे हमारी शक्तियाँ व क्षमताएँ कुण्ठित हो सकती है। परावलम्बन से आत्महीनता, आत्मविश्वास में कमी, साहस का अभाव आदि अवगुण विकसित हो जाते हैं।

परावलम्बी अपनी सफलता के लिए दूसरों पर निर्भर होने के साथ-साथ अपनो असफलताओं का कारण भी अन्य को ही मानता है। इससे उसमे ईर्ष्या, द्वेष-भाव का जन्म होता है और वह अपना आत्मबल खो देता है तथा अपनी इस संकीर्ण सोच के कारण अपने साथ-साथ दूसरे का भी अहित करता है, परन्तु पुरुषार्थी व्यक्ति अपने बलबूते ही आगे बढ़ता है और प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल कर लेता हैं। स्वावलम्बी व्यक्ति यदि असफल भी होता है, तो वह स्वयं की कमियों को हो उत्तरदायी मानकर पहले उनका निवारण करता है और अपने अन्दर निरन्तर सुधार और विकास करता है। अतः इस तरह वह निश्चय ही एक-न-एक दिन सफलता का स्वाद चख ही लेता है।

उपसंहार मनुष्य को चाहिए कि वह अपने भाग्य का निर्माता स्वयं को ही माने । सत्कर्म करे और कर्म-पथ पर आने वाली बाधाओं को अपने स्वावलम्बी स्वभाव से दूर करता हुआ निरन्तर प्रगति करे। इस प्रकार के मनुष्य को ही उन्नति तथा श्रेय का सौभाग्य मिलता है। ईश्वर ने सभी मनुष्यों को समान बनाया है। उसने उन्हें समान योग्यताएँ व क्षमताएँ दी हैं। जरूरत है केवल उन्हें पहचानने की और यह सब केवल कर्म को आधार मानने वाला ही कर सकता है, भाग्यवाद को नहीं।

         ग्राम्य स्वच्छता 

गाँव में सफाई का महत्त्व

संकेत बिन्दु – प्रस्तावना, अस्वच्छता होने के कारण, अस्वच्छता का प्रभाव, ग्राम्य स्वच्छता के लिए किए गए उपाय, उपसंहार

प्रस्तावना – हमारे देश का आर्थिक विकास पूर्णतः नागरिकों के विकास पर निर्भर हैं। परन्तु यदि नागरिकों का ही विकास धीमी गति से हो रहा हो, तो आर्थिक विकास में तीव्रता कहाँ से आएगी।

यह बात किसी देश के लिए और भी ज्यादा गम्भीर हो जाती है, तब उस देश की अधिकतम जनसंख्या गाँवों में निवास करती हो। गाँव में आज भी विकास की राह में जो रोड़ा है, वो स्वच्छता को लेकर है। आज भी कुछ गाँव स्वच्छता के बारे में अधिक जानकारी नहीं रखते हैं। अतः यह एक चिन्ता का विषय है।

अस्वच्छता होने के कारण – गाँवों में अस्वच्छता का मूल कारण जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ स्पष्टतः स्वच्छता के ज्ञान का अभाव है। 2011 की जनगणना के अनुसार, हमारे देश में 5.97 लाख से अधिक गाँवों की संख्या है, जिनमें 83.37 करोड़ से ज्यादा जनसंख्या निवास करती है। राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (NSS) के नतीजे बताते हैं कि 59.4% गाँवों के परिवार खुले में शौच करने के लिए विवश हैं, जो अस्वच्छता और बीमारियों का मूल कारण है। ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी भी इन परिणामों को बढ़ावा देती है।

अस्वच्छता का प्रभाव – ग्रामीण इलाकों में साफ-सफाई की जानकारी की कमी होने के कारण उनके खान-पान, रहन-सहन, जल सभी पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ग्रामीण इलाकों में शौचालय की पूर्ण व्यवस्था न होने के कारण ग्रामीण महिलाओं को खुले में शौच जाना पड़ता है। जिससे उनकी मान-मर्यादा के भी आहत होने का खतरा बना रहता है। दूषित जल व भोजन की वजह से अनेक बीमारियाँ घर कर लेती हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार डायरिया, पीलिया आदि की सबसे अधिक शिकायत ग्रामीण क्षेत्रों से ही मिलती हैं।

स्वच्छता के लिए आवश्यक साधनों की कमी से आर्थिक स्थिति पर भी प्रभाव पड़ता है। कई महिलाएँ, बालिकाएँ विद्यालय तक नहीं जा पातीं, जिससे वे आर्थिक गतिविधियों में अपना पूर्णरूपेण सहयोग भी नहीं कर पाती।

ग्राम्य स्वच्छता के लिए किए गए उपाय – ग्राम्य अस्वच्छता से निपटने के लिए बहुत-सी पहल की गई है। अब शहरों के साथ-साथ ग्रामीण इलाकों तथा वहाँ के विद्यालयों में शौचालय बनाने के लिए कॉर्पोरेट सेक्टर को प्रोत्साहित किया जा रहा है। वहीं केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल के हाल ही के फैसले के तहत 'निर्मल भारत अभियान' को स्वच्छ भारत (ग्रामीण) में पुनर्गठित कर दिया गया है। नई योजनाओं के तहत अधिक से अधिक घर निर्माण के तहत ग्रामीण शौचालय बनवाएँ, इसके लिए ग्रामीण इलाके में प्रत्येक घर में वित्तीय मदद ₹10,000 से बढ़ाकर ₹15,000 कर दी गई है। विद्यालयों में कन्याओं के लिए शौचालय बनाने की जिम्मेदारी मानव संसाधन मन्त्रालय के तहत आने वाले स्कूलों, शिक्षा और साक्षरता विभाग को सौंपी गई है।

स्वच्छता अभियान में शौच व्यवस्था के अतिरिक्त ठोस व तरल कचरे के प्रबन्धन की भी व्यवस्था पर जोर दिया गया है। जगह-जगह कचरा होने से, गन्दा पानी फैलने से इंसानों को ही नहीं पशुधन को भी नुकसान होता है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए नई योजना में कचरा प्रबन्धन की पुरानी व्यवस्था और वित्तीय सहायता के प्रावधानों को बरकरार रखा गया है, जिसके तहत केन्द्र, राज्य व ग्रामीण समुदाय मिलकर व्यय करेंगे।

उपसंहार – आज शहरों में ग्रामीण इलाके से पलायन बढ़ रहा है। भले ही शहरों में ग्रामीणों को कोई बेहतर स्वस्थ वातावरण न मिल पाता हो, फिर भी गाँवों में रोजगार की कमी उन्हें शहर जाने के लिए मजबूर करती है। अतः यदि स्वच्छ और स्वस्थ गाँव की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी, तो ग्रामीण, शहरों की ओर पयालन ही नहीं करेंगे। कहा जाता है कि गाँवों की हवा में जो ताजगी है, वो शहरों में नहीं होती। शहरों की तुलना में गाँवों में वायु व ध्वनि प्रदूषण कम मिलता है। फिर भी अगर गाँवों के लोग अस्वस्थ हैं, तो उसके लिए स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी एक कारण हो सकती हैं। अत: अधिक जरूरत इस बात की है कि गाँवों में बीमारी ही नहीं पनपे। स्वच्छ भारत अभियान इसी दिशा में एक सकारात्मक प्रयास है।

यातायात नियमों की दैनिक जीवन में उपयोगिता 

 सड़क मार्ग के नियम

परिवहन के दौरान सावधानियाँ, सड़क यातायात व परिवहन

 संकेत बिन्दु –प्रस्तावना, नियमों व उपनियमों का विधान, नियमों की उपयोगिता, यातायात पुलिस की व्यवस्था, महानगरों की गम्भीर समस्या,सार्वभौमिक नियम, उपसंहार

प्रस्तावना – सभ्य समाज के सामाजिक जीवन का आधार है- नियमबद्धता। आवागमन के तीव्र व आधुनिक साधनों के सुव्यवस्थित संचालन के परिप्रेक्ष्य में यह नियमबद्धता एक अनिवार्यता का रूप धारण कर लेती है। छोटे-बड़े मार्गों पर अनेक रूपों में यातायात व परिवहन के विभिन्न साधनों को दौड़ते हुए देखा जा सकता है।

नियमों व उपनियमों का विधान – प्रत्येक राष्ट्र की सरकार इस आवागमन को सुचारु रखने के लिए, अनेक नियम व उपनियमों को अधिनियमों के द्वारा लागू करती हैं। यदि इन नियमों की अवहेलना की जाती है या इन पर ध्यान नहीं दिया जाता है तो दुर्घटना होने की आशंका बलवती हो जाती है। कहावत भी है कि 'सावधानी हटी और दुर्घटना घटी।'

नियमों की उपयोगिता – वास्तव में, यातायात के आवागमन के नियमों का प्रणयन हमारी सुविधा के लिए ही किया गया है। अतः सड़क के नियमों को उचित ढंग से लागू करना और तद्नुरूप उनका अनुसरण करना हमारे व समाज के हित में ही है। सड़कों पर ट्रक, बस, टैम्पो, स्कूटर, रिक्शे व पैदलयात्री चलते हैं। नियमों का पालन करने के कारण ही ये सब एक साथ मार्गों पर आ-जा सकते हैं। जब भी नियमों का उल्लंघन किया जाती है, तब ही कोई बड़ा हादसा हमारी आँखों के सामने सड़क दुर्घटना के रूप में हो जाता है।

यातायात पुलिस की व्यवस्था – यातायात के नियमों को लागू करवाने तथा वाहनों की गति को नियन्त्रण में रखने के लिए यातायात पुलिस की व्यवस्था होती है। प्रत्येक बड़े और व्यस्त चौराहे पर गोल चक्कर के रूप में बना 'ट्रैफिक आइलैण्ड' होता है, जिस पर खड़े होकर यातायात पुलिस का सिपाही आने-जाने वाले राहगीरों व वाहनों को विभिन्न प्रकार के संकेत देता है। इन संकेतों का अनुगमन करना प्रत्येक नागरिक का दायित्व होता है। साधनों में वैज्ञानिक क्रान्ति के कारण अब इन चौराहों पर बिजली की रंगीन लाइटों को भी प्रयोग किया जाने लगा है। लाल लाइट का संकेत रुकने के लिए, पीली लाइट का तैयार होने के लिए तथा हरी लाइट का संकेत जाने के लिए होता है।

महानगरों की गम्भीर समस्या – महानगरों में यातायात का सुगम संचालन एक गम्भीर समस्या का रूप धारण करता जा रहा है। सुरसा (राक्षस) के मुँह के समान इसकी विकरालता बढ़ती ही जा रही है। ऐसी स्थिति में सड़क पर चलने के नियमों का अनुपालन करना और भी अधिक अपरिहार्य हो गया है।

सार्वभौमिक नियम – पदयात्रियों को सदैव सड़क के किनारे पर चलना चाहिए तथा जहाँ तक सम्भव हो एकसमान गति से चलना चाहिए। वाहनों के हॉर्न को आवश्यकता पड़ने पर ही प्रयोग करना चाहिए। बार-बार इसके उपयोग से प्रदूषण की समस्या उत्पन्न होने लगती है। आगे के वाहन को 'ओवरटेक' करते समय सदैव दाहिनी ओर से आगे निकलना चाहिए। सामान्य रूप से वाहन को सड़क के बाईं ओर या मध्य में चलाना चाहिए। दाहिनी दिशा सामने से आने वाले वाहन के लिए खाली छोड़ देनी चाहिए। घुमावदार मोड़ पर वाहन की गति को अपेक्षाकृत रूप से कर लेना चाहिए। कुछ कम

उपसंहार – वाहन हमारे जीवन का एक आवश्यक उपागम बन चुका है और सड़क पर चलना वो भी तीव्र गति से दौड़ना अब हमारी नियति बन चुकी है। अतः इस तेज दौड़ती धमा-चौकड़ी में गन्तव्य तक सही सलामत पहुँचने के लिए यातायात के नियमों का समवेत रूप से पालन करना परम आवश्यक है।

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कक्षा 10 हिन्दी खंडकाव्य मुक्ति दूत, ज्योति जवाहर, अग्रपूजा, मेवाड़ मुकुट, जय सुभाष, मातृ भूमि के लिए, कर्ण, कर्मवीर भरत, तुमुल खण्ड काव्य

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      01 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य

कथासार / कथानक / कथावस्तु / विषयवस्तु पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 1. 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।

अथवा 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग का सारांश लिखिए। 

 अथवा 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग की कथावस्तु अपने शब्दों में लिखिए।

अथवा डॉ. राजेन्द्र मिश्र द्वारा रचित 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य का सारांश (कथासार/कथानक/कथावस्तु/विषयवस्तु) लिखिए।

 उत्तर डॉ. राजेन्द्र मिश्र द्वारा रचित खण्डकाव्य 'मुक्ति दूत' महात्मा गांधी से प्रेरित होकर लिखा गया है। पाँच सर्गों में विभाजित इस खण्डकाव्य का कथासार निम्नलिखित है

                      प्रथम सर्ग

इस सर्ग में कवि ने महात्मा गांधी को दिव्य अवतारी पुरुष मानकर उनके चरित्र की महानता का वर्णन किया है। कवि का मानना है कि जब-जब धरती पर पाप और अत्याचार बढ़ता है, तब-तब ईश्वर किसी महापुरुष के रूप में धरती पर अवतार लेता है। राम, कृष्ण, महावीर, गौतम बुद्ध, ईसा मसीह, मुहम्मद साहब, गुरु गोविन्द सिंह आदि रूपों में ईश्वर ने अवतार लेकर न केवल भारतवर्ष, बल्कि पूरी दुनिया के लोगों के कष्ट दूर किए। अतः यह निश्चित है कि जब-जब जहाँ-जहाँ आवश्यकता हुई, वहाँ किसी महापुरुष का जन्म हुआ। जिस प्रकार लिंकन द्वारा अमेरिका और नेपोलियन द्वारा फ्रांस का उद्धार हुआ था। उसी प्रकार, जब हमारा देश परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था तथा आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक सभी क्षेत्रों में भारत का शोषण हो रहा था, तब भारत के उद्धार हेतु गुजरात के काठियावाड़ में पोरबन्दर नामक स्थान पर मोहनदास करमचन्द गांधी का जन्म हुआ था। महात्मा गांधी बचपन से ही संस्कारी थे। वह श्रवण कुमार और सत्य हरिश्चन्द्र के जीवन चरित्र से बहुत प्रभावित थे। यही उनके आदर्श थे। वह कुछ समय तक अफ्रीका में रहे, फिर भारत लौट आए। भारत आकर उन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया, उन्हें हरिजनों और हिन्दुस्तान दोनों से बहुत प्रेम था। वह तीस वर्षों तक देश की विभिन्न समस्याओं से जूझते रहे। उन्हीं के नेतृत्व में भारतवासियों ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध आज़ादी की लड़ाई लड़ी और उसमें सफलता पाई।

द्वितीय सर्ग

 इस खण्डकाव्य के मूल कथानक का आरम्भ इसी सर्ग से हुआ है। इस सर्ग की मुख्य कथावस्तु 'हरिजन' समस्या पर केन्द्रित है, जो आगे चलकर महात्मा गांधी को स्वतन्त्रता संग्राम का नेतृत्व करने के लिए प्रेरित करती है।

प्रातः काल हो चुका था। पशु-पक्षी मनुष्य सभी अपने-अपने दैनिक क्रियाकलाप प्रारम्भ कर चुके थे तथा गांधीजी भी उठ जाते हैं। जागने पर उन्हें उस रात देखा हुआ सपना स्मरण आया। उस रात सपने में उन्हें अपनी माताजी दिखाई दी। माताजी ने उनको समझाया कि 'प्यासे को पानी दो, भूखे को खाना दो, बेसहारा को सहारा दो, समदृष्टा बनकर तन-मन-धन से दूसरों की सेवा करो।' वह मन-ही-मन अपनी माता को याद कर अत्यन्त भावुक हो उठते हैं। वह माँ की करुणा और

ममता को संसार में अनमोल समझते हैं। उन्होंने संकल्प किया कि वह मातृभूमि की बेड़ियाँ काटकर इसकी करोड़ों सन्तानों की सेवा करेंगे, जब तक कोई भी भूखा-नंगा है, वह चैन से नहीं बैठेगे। वह सोचते हैं कि ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि में कितनी विषमता है। एक ओर भूखे, दरिद्र, दुःखी हैं तो दूसरी ओर धनी हैं, जो हर प्रकार से सम्पन्न तथा सुखी हैं। हरिजनों और दरिद्रों को ठुकराने के कारण ही भारत गुलाम बना हुआ है।

वह सोचते हैं कि गोरे-काले, लम्बे-ठिगने, सुन्दर-कुरूप आदि का भेद तो प्रकृति प्रदत्त है, जिसे दूर नहीं किया जा सकता, परन्तु जो भेदभाव हमारे द्वारा (मनुष्यों द्वारा किए जाते हैं, उन्हें तो अवश्य ही दूर किया जा सकता है। हरिजनों और वाल्मीकियों पर होने वाले अत्याचारों की कथा सुनकर उनका दिल पसीज जाता था। महात्मा गांधी के मन में यह भाव उठते हैं कि धर्म-ग्रन्थों में कहीं भी छुआछूत करने की सीख नहीं दी गई है। वशिष्ठ मुनि ने निषादराज को गले से लगाया था, राम ने शबरी के जूठे बेर खाए थे, गौतम का शिष्य सत्यकाम भी हरिजन ही था, जो बाद में एक महान् ऋषि बना था, इसलिए छुआछूत और कुछ नहीं, बस एक छलावा है। वह कहते हैं

"यदि हरिजन के छू लेने से मन्दिर का है कल्याण नहीं।

तो यही कहूँगा मन्दिर में बस पत्थर है, भगवान नहीं ।।”

वह सोचते हैं कि आर्य-द्रविड़ कितने उदार हृदय थे, जिन्होंने खश, शक, क्षत्रप, कुषाण, हूण, पारसी, मुसलमानों आदि को अपना लिया था, परन्तु आज उसी भारत में उनकी सन्तानें हरिजनों के साथ पशुओं से भी अधिक बुरा व्यवहार करती हैं। वास्तव में, ये दरिद्र नारायण हैं। हमें इनकी सेवा करनी चाहिए। यही सोचकर उन्होंने आश्रम में रहने के लिए हरिजनों को भी निमन्त्रित किया था, लेकिन लोगों में इसकी विपरीत प्रतिक्रिया हुई। आश्रम के प्रबन्धक मगनलाल ने गांधीजी को बताया कि इस कारण लोगों ने आश्रम के लिए चन्दा देना बन्द कर दिया है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो आश्रम का कोष खाली हो जाएगा। उनकी बात सुनकर गांधीजी क्रोधित होकर कहते हैं कि यदि आश्रम के लिए चन्दा नहीं मिल रहा है, तो मैं हरिजनों की बस्ती में रह लूँगा, उनके साथ मज़दूरी कर लूँगा, परन्तु मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव करने का पाप नहीं कर सकता।

यदि हरिजन साफ-सफाई आदि काम करना बन्द कर दें, तो सभी जगहों पर गन्दगी का साम्राज्य फैल जाएगा। मुझे अफ्रीका में 'काला-अछूत' कहकर गाड़ी से उतार दिया गया वह अपमान आज भी मुझे व्यथित कर देता है। इस अत्याचार को सहकर भी यदि मैं वैसा ही अत्याचार और घृणित अपराध करूं, तो यह सबसे बड़ा पाप होगा। वह कहते हैं कि

"मैं घृणा-द्वेष की यह आँधी चलने दूँगा न चलाऊँगा।

या तो खुद ही मर जाऊँगा या इसको मार भगाऊँगा।"

उन्हें विश्वास था कि देश को स्वतन्त्र कराने के बाद वह छुआछूत जैसी सामाजिक बुराई से भी लड़ लेंगे। सत्य और अहिंसा उनके अस्त्र-शस्त्र थे। वह जहाँ भी जाते थे, उनका लोग अभिनन्दन करते थे। वह देश को स्वतन्त्र कराने के लिए प्रतिबद्ध थे। रात्रि होने पर गांधीजी सो गए। पिछली रात उन्हें अपनी माता जी स्वप्न में दिखाई दी थीं, तो आज स्वप्न में बड़े भाई तुल्य गोपालकृष्ण गोखले दिखाई दिए। उन्होंने आशा प्रकट की कि जिस प्रकार तुमने दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेज़ों से टक्कर ली, उसी प्रकार भारत में भी उनका सामना करोगे। तुम भारत के मुक्ति दूत बनोगे, ऐसा मेरा विश्वास है। महात्मा गांधी मन-ही-मन भारतमाता को स्वतन्त्र कराने का संकल्प दोहराते हैं।

तृतीय सर्ग

तृतीय सर्ग में अंग्रेज़ों की दमन नीति के विरोध में गांधी जी का क्रोध प्रकट हुआ है। स्वप्न में अपने बड़े भाई तुल्य गोपालकृष्ण गोखले का उपदेश सुनकर गांधीजी ने देश को स्वतन्त्र कराने का प्रण किया। उस समय देश अंग्रेज़ो के अत्याचार से कराह रहा था। देश के सब उद्योग-धन्धे बन्द हो गए तथा लोग बेरोज़गार हो गए थे। बाज़ार में विदेशी वस्तुओं की बहुतायत थी। भारतीय अपमान भरा जीवन जीने को मज़बूर थे। छोटे-छोटे अपराधों को राजद्रोह कहकर जनता को तरह-तरह की यातनाएँ दी जाती थीं। केवल वही मुट्ठीभर लोग सुखी थे, जो अंग्रेज़ों की चाटुकारिता करते थे। भारत की दीन-हीन दशा देखकर और अंग्रेज़ों के अत्याचार सुनकर गांधीजी को बहुत दुःख होता था, किन्तु फिर भी वह नम्रता की नीति अपनाते थे, लेकिन अंग्रेज़ों पर नम्रता का कोई प्रभाव न हुआ। अत: गांधीजी ने 'सविनय सत्याग्रह' को अपना हथियार बनाया।

उसी समय प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। इंग्लैण्ड को तब भारत की सहायता की आवश्यकता थी। गांधीजी के कहने पर भारतीयों ने इस युद्ध में ब्रिटेन का साथ दिया। गांधीजी को आशा थी कि इस विश्वयुद्ध में अंग्रेज़ों की सहायता करने पर वे हमें आज़ाद कर देंगे, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। अंग्रेज़ों ने युद्ध में विजय प्राप्त करके भारतीयों पर और अधिक अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। अंग्रेज़ी सरकार ने (काला कानून) रौलेट एक्ट बनाकर अपना दमन-चक्र चलाना आरम्भ कर दिया। यह देखकर गांधीजी के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ जनव्यापी आन्दोलन छेड़ दिया, जिसमें तेजबहादुर सप्रू, मोहम्मद अली जिन्ना, सरदार पटेल, महामना मदनमोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू, बाल गंगाधर तिलक आदि बड़े-बड़े नेताओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। अब पूरा भारतवर्ष अंग्रेज़ों के विरुद्ध संघर्ष में एकजुट हो चुका था।

उसी दौरान जलियाँवाला बाग की क्रूर घटना घटी। उस समय अधिकांश पंजाबी नेता जेलों में बन्द थे। पहले ही काले कानून से क्षुब्ध जनता इसे सहन न कर सकी। इसलिए बैशाखी के त्योहार पर जलियाँवाला बाग में एक सार्वजनिक सभा आयोजित की गई, जिसका उद्देश्य अंग्रेजों के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करना था। बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सब इस सभा में शामिल होने पहुंचे थे। सभा शुरू होने के थोड़ी ही देर बाद क्रूर जनरल डायर ने वहाँ पहुंचकर अन्धाधुन्ध फायरिंग का आदेश दे दिया। दस मिनट तक लगभग साढ़े सोलह सौ गोलियाँ चली। जलियाँवाला बाग भारतीयों की लाशों से भर गया। इस घृणित मानव हत्याकाण्ड से सारे भारत में शोक फैल गया। इस दर्दनाक घटना से गांधी भी दहल गए और उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि अब अंग्रेज़ों को भारत में अधिक समय तक नहीं रहने देंगे।

चतुर्थ सर्ग

जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड से आहत गांधीजी ने अब अंग्रेजों के विरुद्ध कड़ा संघर्ष करने की ठान ली थी, उन्होंने एक के बाद एक, कई आन्दोलन चलाए। सभी आन्दोलनों में उन्हें जनता का भरपूर सहयोग मिला। अगस्त, 1920 में उन्होंने 'असहयोग आन्दोलन' प्रारम्भ किया। जनता ने उनके पीछे चलते हुए स्तर पर सरकार के साथ असहयोग किया। लोगों ने गोरी सरकार से मिली पदवी, उपाधि, सम्मान आदि को लौटाते हुए सरकारी नौकरियों से त्याग-पत्र दे दिया।

तब साइमन कमीशन भारत आया। साइमन कमीशन भारत पर अपने मनमाने कानून थोपने आया था। अत: गांधीजी के नेतृत्व में सारे देश में 'साइमन कमीशन वापस जाओ' का नारा गूंज उठा। लाला लाजपत राय, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, राजेन्द्र प्रसाद, नेहरू, पटेल, गफ्फार खान आदि नेताओं ने भी साइमन कमीशन का विरोध किया। सरकार ने फिर विद्रोह की आग को दबाने के लिए हिंसा का सहारा लिया, जगह-जगह लाठीचार्ज किया गया। लाला लाजपत राय पर भी लाहौर में विरोध करते हुए लाठियों पड़ी, जिसके कारण वे घायल हो गए और उनकी कुछ हफ्तों बाद ही मृत्यु हो गई। जनता फिर भड़क उठी। सत्य और अहिंसा को हथियार बना कर गांधीजी ने फिर अंग्रेज़ों के खिलाफ मोर्चा खोला और डाण्डी में नमक बनाकर नमक कानून तोड़ा। खीझकर सरकार ने गांधीजी को जेल में डाल दिया। धीरे-धीरे जेले सत्याग्रहियों से भर गईं। तभी दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया। अंग्रेज़ों को एक बार फिर भारत से सैन्य शक्ति की सहायता की आवश्यकता थी। गांधीजी ने अंग्रेज़ों के सामने शर्त रखी

आज़ादी हमको शीघ्र मिले यह पहली माँग हमारी है। दिल्ली में हो शासन अपना यह माँग दूसरी प्यारी है।"

अंग्रेज़ों ने इस प्रस्ताव को सुनते ही अस्वीकार कर दिया। इस पर गांधीजी ने करो या मरो' का नारा देकर 'भारत छोड़ो आन्दोलन' शुरू कर दिया। पूरे भारत में शीघ्र ही यह आन्दोलन फैल गया। बच्चे, बूढ़े, जवान सभी इस आन्दोलन में कूद पड़े। आन्दोलनकारियों ने सारी शासन व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। बौखलाकर सरकार ने लोगों का दमन करना आरम्भ कर दिया। गांधीजी ने जेल में इक्कीस दिनों का अनशन शुरू किया। भारत में अंग्रेज़ों के अत्याचार देखकर सारी दुनिया में गोरी सरकार की निन्दा होने लगी।

इसी बीच बापू की पत्नी कस्तूरबा की मृत्यु हो गई। पत्नी की मृत्यु से बापू का हृदय टूट गया।

धू-धू करके जब चिता जली बूढ़े बापू का युवा प्रणय

तिल भर भी संयत रह न सका रो उठा अकिंचन, विदा-सदय।।"

पत्नी की मृत्यु से आहत होकर बापू ने पुनः अंग्रेज़ों के विरुद्ध अपने मानसिक बल और प्रण को दृढ़ किया।

पंचम सर्ग

 खण्डकाव्य के इस अन्तिम सर्ग में उन परिस्थितियों का वर्णन है, जिनके कारण

भारत को आज़ादी मिली। भारत में प्रतिकूल माहौल को बनते देख गौरी सरकार ने गांधीजी को जेल से रिहा कर दिया। गांधीजी को लगातार अस्वस्थ देखकर सरकार ने विवश होकर यह कदम उठाया। इसी बीच मई, 1945 में जर्मनी की द्वितीय विश्वयुद्ध में हार हुई और वैश्विक राजनीति में परिवर्तन हुआ। ब्रिटेन में चुनाव हुए और वहाँ मज़दूर दल की सरकार बनी। अब अंग्रेज़ भी समझ चुके थे कि वे अब अधिक समय तक भारत को गुलाम बनाकर नहीं रख सकते। इसलिए एटली के नेतृत्व में बनी नई सरकार ने यह घोषणा की कि जून, 1947 के पूर्व ही ब्रिटेन भारत

को स्वतन्त्र कर देगा। यह घोषणा सुनकर भारतवासी अत्यन्त प्रसन्न हुए, किन्तु

साथ ही अंग्रेज़ों की चाल और मुस्लिम लीग की पाकिस्तान बनाने की माँग भी

सामने आई।

गांधीजी ने जिन्ना को मनाने का काफ़ी प्रयास किया, परन्तु जिन्ना पाकिस्तान बनाने की माँग पर अड़े रहे। इसी बीच नोआखाली में साम्प्रदायिक दंगे भड़क गए। बापू ने स्वयं वहाँ की यात्रा कर दंगे शान्त किए, परन्तु वह जान गए थे कि स्वतन्त्रता के साथ-साथ हमें विभाजन भी स्वीकार करना पड़ेगा। अन्ततः 15 अगस्त, 1947 को भारत अंग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद हुआ और

जनतन्त्र की स्थापना हुई। इस प्रकार, महात्मा गांधी को जहाँ एक ओर भारत के आज़ाद होने की खुशी हुई, तो दूसरी ओर देश के विभाजन का दुःख भी हुआ। नेहरू जी के हाथों में देश की बागडोर सौंपकर महात्मा गांधी ने सन्तोष की साँस ली।

खण्डकाव्य के अन्त में बापू को साबरमती के आश्रम में इतिहास को याद करते हुए दिखाया गया है। वह भारत के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं

"रहो खुश मेरे हिन्दुस्तान।तुम्हारा पथ हो मंगलमूल

सदा महके बन चन्दन चारु तुम्हारी अँगनाई की धूल

प्रश्न 2. 'मुक्ति-दूत' खण्डकाव्य के प्रतिपाद्य विषय (उद्देश्य) को समझाइए।

उत्तर कवि राजेन्द्र मिश्र द्वारा लिखे गए 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य में महात्मा गांधी नायक की भूमिका में हैं। कवि ने स्वतन्त्रता संग्राम के परिप्रेक्ष्य में उनके व्यक्तित्व एवं भारत को गुलामी से मुक्त कराने में उनके योगदान का वर्णन किया है। महात्मा गांधी के असाधारण व्यक्तित्व एवं योगदान को कवि ने इस खण्डकाव्य का प्रतिपाद्य विषय बनाया है तथा उनके चरित्र का वर्णन कर युवाओं को प्रेरित करना इस काव्य का उद्देश्य है। यह खण्डकाव्य गांधीजी के जीवन का एक शब्द चित्र है। इसमें उन घटनाओं का समावेश किया गया है, जो उनके 'मन' को एवं उसके अनुसार किए गए 'कर्म' को उजागर करती हैं। इसके लिए कवि ने हरिजन समस्या, भारत की दासता, तत्कालीन घटनाक्रम तथा दार्शनिक तथ्यों की व्याख्या का सहारा लिया है। गांधीजी न केवल भारतवर्ष के वरन दलित वर्ग के लिए भी मुक्ति दूत बनकर उभरते हैं। इस खण्डकाव्य से हमें गांधीजी के चरित्र का अनुसरण करने की प्रेरणा मिलती है। करुणा, दया, त्याग, समदृष्टा, दृढ निश्चयी, देशभक्ति आदि गुणों को अपनाकर हम गांधीजी के समान ही अपने चरित्र को उज्ज्वल बना सकते हैं।

प्रश्न 3. 'मुक्तिदूत' खण्डकाव्य के आधार पर गांधी जी के जीवन में घटित प्रमुख घटना को संक्षेप में लिखिए।

अथवा 'मुक्तिदूत' खण्डकाव्य के आधार पर किसी प्रमुख घटना का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।

अथवा 'मुक्तिदूत' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग की कथा (कथानक / कथावस्तु) संक्षेप में लिखिए।

उत्तर

तृतीय सर्ग

तृतीय सर्ग में अंग्रेजों की दमन नीति के विरोध में गांधीजी का क्रोध प्रकट हुआ है। गोपालकृष्ण गोखले का उपदेश सुनकर गांधीजी ने देश को स्वतन्त्र कराने का प्रण किया। उस समय देश अंग्रेजों के अत्याचार से कराह रहा था। देश के सभी उद्योग-धन्धे चौपट हो गए थे। लोग बेरोजगार हो गए थे। बाजार में विदेशी वस्तुओं की बहुतायत थी। भारतीय अपमान भरा जीवन जीने को मजबूर थे। अंग्रेजो द्वारा छोटे-छोटे अपराधों को राजद्रोह कहकर जनता को तरह-तरह की यातनाएं दी जाती थीं। केवल वही मुट्ठीभर लोग सुखी थे, जो अंग्रेजों की चाटुकारिता करते थे। भारत की दीन-हीन दशा देखकर और अंग्रेजों के अत्याचार सुनकर गांधीजी को बहुत दुःख होता था, किन्तु फिर भी वह नम्रता की नीति अपनाते थे, लेकिन अंग्रेजों पर नम्रता का कोई प्रभाव न हुआ। अत: गांधीजी ने 'सविनय सत्याग्रह' को अपना हथियार बनाया।

उसी समय प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। इंग्लैण्ड को तब भारत की सहायता की आवश्यकता थी। गांधीजी के कहने पर भारतीयों ने इस युद्ध में ब्रिटेन का साथ दिया। गांधीजी को आशा थी कि इस विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की सहायता करने पर वे हमें आजाद कर देंगे, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। अंग्रेजों ने युद्ध में विजय प्राप्त करके भारतीयों पर और अधिक अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। अंग्रेजी सरकार ने (काला कानून) रौलेट एक्ट बनाकर अपना दमन चक्र चलाना आरम्भ कर दिया।

यह देखकर गांधीजी के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जनव्यापी आन्दोलन छेड़ दिया, जिसमें तेजबहादुर सप्रू, मोहम्मद अली जिन्ना, सरदार पटेल, महामना मदन मोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू, बाल गंगाधर तिलक आदि बड़े-बड़े नेताओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। अब पूरा भारतवर्ष अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में एकजुट हो चुका था।

उसी दौरान जलियाँवाला बाग की क्रूर घटना घटी। उस समय अधिकांश पंजाबी नेता जेलों में बन्द थे। पहले ही काले कानून से क्षुब्ध जनता इसे सहन न कर सकी। इसलिए बैसाखी के त्योहार पर जलियाँवाला बाग में एक सार्वजनिक सभा आयोजित की गई, जिसका उद्देश्य अंग्रेज़ों के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करना था। बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सब इस सभा में शामिल होने पहुंचे थे। सभा शुरू होने के थोड़ी ही देर बाद क्रूर जनरल डायर वहाँ आ धमका और अन्धाधुन्ध फायरिंग का आदेश दे दिया।

लगभग दस मिनट तक साढ़े सोलह सौ गोलियाँ चली। जलियाँवाला बाग भारतीयों की लाशों से भर गया। इस घृणित मानव हत्याकाण्ड से सारे भारत में शोक फैल गया। इस दर्दनाक घटना से गांधीजी भी दहल गए और उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि अब अंग्रेजों को भारत में अधिक समय तक नहीं रहने देंगे।

चरित्र चित्रण पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 4. 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य के नायक का चरित्रांकन कीजिए। 

अथवा 'मुक्ति दूत खण्डकाव्य के आधार पर गांधीजी का चरित्र चित्रण कीजिए। 

अथना 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य के मुख्य पात्र के चरित्र की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।

अथवा मुक्ति दूत' खण्डकाव्य के उस पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए, जिसने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया हो।

अथवा 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य के आधार पर नायक महात्मा गांधी का चरित्र चित्रण कीजिए। 

 उत्तर डॉ. राजेन्द्र मिश्र द्वारा रचित 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य के नायक भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी हैं। इस खण्डकाव्य के आधार पर उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. अवतारी पुरुष खण्डकाव्य के आरम्भ में ही कवि ने स्पष्ट किया है कि महात्मा गांधी राम, कृष्ण, ईसा, मोहम्मद पैगम्बर, बुद्ध, महावीर आदि की तरह अवतारी पुरुष हैं, जिनका जन्म भारत एवं शेष विश्व के उत्थान हेतु हुआ है। कवि का मानना है कि महात्मा गांधी जैसे अलौकिक एवं असाधारण पुरुषों का कोई धर्म अथवा जाति नहीं होती। जहाँ उनकी आवश्यकता होती है, उनका जन्म वहीं होता है।

2. मानवीय गुणों के भण्डार महात्मा गांधी का चरित्र मानवीय गुणों का भण्डार था। वह सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। वह सदा सत्य के पथ पर चलते थे। अहिंसा उनके लिए सर्वोपरि थी। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में अहिंसा को ही अपना सबसे बड़ा शस्त्र बनाया। वे दुश्मन पर भी दया करते थे। करुणा, परोपकार, दया, विनम्रता आदि गुण स्वाभाविक रूप से उनके चरित्र के हिस्से थे।

3. हरिजनों के उद्धारक गांधीजी सभी मनुष्यों को समान भाव से देखते थे। वे जाति-पाँति अथवा धर्म के आधार पर भेदभाव करने में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने आजीवन दलित वर्ग के लिए काम किया, उन्होंने उनको दरिद्रनारायण कहकर गले लगाया। उनके आश्रम में हरिजनों के आने या रहने पर किसी प्रकार की पाबन्दी नहीं थी। वह छुआछूत को बहुत घृणित मानसिक वृत्ति मानते थे। समय-समय पर वह हरिजनों की बस्ती में भी रहते थे।

4. मातृ भक्त गांधीजी के जीवन एवं चरित्र पर उनकी माता की गहरी छाप थी। वह स्वप्न में अपनी माता को देखकर भाव-विभोर हो उठे थे तथा स्वप्न में दिए गए मां

के आदेश को वास्तविक मानकर उसका पालन करते हैं तथा परोपकार को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं।

5. राष्ट्रभक्त एवं भारत के मुक्ति दूत गांधीजी में देशभक्ति की भावना अत्यन्त प्रबल थी तथा उनका पूरा जीवन देश की सेवा करने में ही व्यतीत हुआ। उन्होंने देश को स्वतन्त्र कराने में अपनी सारी शक्ति झोंक दी थी। राष्ट्रभक्ति की भावना से भरकर उन्होंने देश को आज़ादी दिलाने के लिए एक के बाद एक अनेक आन्दोलन चलाए। उनके प्रयासों से अन्ततः देश को 15 अगस्त, 1947 को आज़ादी मिली।

6. अपने निश्चय पर अटल गांधीजी अपने वादों और इरादों के पक्के थे। उन्होंने जो भी प्रण किया, उसे पूरा करके ही दम लिया। स्वतन्त्रता संग्राम में उन्हें अनेक कष्ट झेलने पड़े, कई बार जेल जाना पड़ा, पत्नी का वियोग सहना पड़ा, परन्तु उनका मनोबल कभी क्षीण नहीं हुआ। उनके अटल और निर्भीक स्वभाव की एक झलक देखिए

मैं घृणा द्वेष की यह आँधी, चलने दूँगा न चलाऊँगा। या तो खुद ही मर जाऊँगा, या इनको मार भगाऊँगा।"

7. जन-जन में लोकप्रिय गांधीजी कद-काठी में अत्यन्त साधारण थे, परन्तु फिर भी वह सभी वर्गों और राज्यों में लोकप्रिय थे। उनके एक आह्वान पर देश के सभी नागरिक एकजुट हो जाते थे। बापू की कही बात सब पर जादू-सा असर करती थी। उस समय के राजनेता भी गांधीजी का ही अनुसरण करते थे। इस प्रकार गांधीजी न केवल गुलामी से आज़ाद कराने वाले मुक्ति दूत थे, बल्कि दबे-पिछड़े, शोषित एवं पीड़ितों के लिए भी मुक्ति दूत थे। वे न केवल इस खण्डकाव्य के, अपितु पूरे भारत के नायक है।

   02'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य

कथासार/कथानक / कथावस्तु / विषयवस्तु पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 1. 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य का सारांश लिखिए। 

अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य का सारांश संक्षेप में लिखिए। 

अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।

 अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य का कथानक संक्षेप में लिखिए।

अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य की कथा संक्षेप में लिखिए।

अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य का कथा सार लिखिए। 

उत्तर 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य की रचना श्री देवीप्रसाद शुक्ल 'राही' द्वारा की गई है। इस खण्डकाव्य में आधुनिक भारत के निर्माता और युगावतार पण्डित जवाहरलाल नेहरू के विराट व्यक्तित्व का चित्रण किया गया है। यह खण्डकाव्य घटनाप्रधान न होकर भावनाप्रधान है।

कवि कहता है कि पण्डित नेहरू का व्यक्तित्व इतना विराट है कि सम्पूर्ण भारतवर्ष की विशेषताएँ उनके व्यक्तित्व में समा गई हैं। वे सूर्य के समान तेजस्वी हैं, चन्द्रमा के समान सुन्दर हैं, उनका स्वाभिमान हिमालय के समान ऊँचा है तथा मन सागर के समान अथाह गहराई लिए हुए है।

भारतवर्ष में जन्मे इस महापुरुष के महान् व्यक्तित्व में भारतीय संस्कृति की छवि मिलती है। उन्होंने देश के अनेक महापुरुषों के गुणों को अपनाते हुए उनके अनेक

सांस्कृतिक एवं सामाजिक गुणों को अपने व्यक्तित्व में धारण किया। कवि के अनुसार नेहरू के व्यक्तित्व में भिन्न-भिन्न प्रान्तों और राज्यों के गुणों का समावेश

इस प्रकार हुआ है—

गुजरात राज्य में जन्मे महात्मा गांधी से नेहरूजी ने सत्य, अहिंसा, सद्भावना, प्रेम, मानवता तथा सहनशीलता का पाठ पढ़ा, जिस प्रकार श्रीराम ने गुरु वशिष्ठ से शिक्षा ग्रहण की थी, ठीक उसी प्रकार नेहरूजी ने महात्मा गांधी से प्रेरणा तथा •सीख ली थी। इसके अतिरिक्त उनके व्यक्तित्व पर गुजरात के ही भक्त कवि नरसी मेहता, वीर रस के कवि पद्मनाभ तथा महर्षि दयानन्द के गुणों का प्रभाव भी पड़ा।

महाराष्ट्र नेहरूजी को वीर शिवाजी की तलवार सौंपते हुए उन्हें अंग्रेज़ों से लोहा लेने की भी शक्ति प्रदान करता है। वह उन्हें प्रसिद्ध नारों-करो या मरो', 'स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है आदि का संकलन सौंपते हुए उनमें देशभक्ति का भाव भरता है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र नेहरू को गुरु रामदास की राष्ट्रीय चेतना, ज्ञानेश्वर का गीता आधारित कर्मवाद, केशव गुप्त के नव-चेतना प्रदान करने वाले ओजस्वी गीत तथा तुकाराम एवं लोकानाथ के गीतों की धरोहर प्रदान करता है। इस प्रकार महाराष्ट्र नेहरू जी के व्यक्तित्व को विभिन्न रूपों में समृद्ध प्रदान करता है।

राजस्थान नेहरू जी में वीरता और त्याग की भावना भरता है। राजस्थान की भूमि बंजर और रेगिस्तान भरी है, किन्तु इसने अनेक अभाव सहन करते हुए देश की सेवा की है। यह वीरता की भूमि कहलाती है। इसने राणा साँगा, जयमल, चन्दबरदाई, राणा कुम्भा और महाराणा प्रताप के शौर्य तथा स्वतन्त्रता की भावना का स्मरण कराते हुए नेहरू जी के व्यक्तित्व को प्रभावित किया। कर्त्तव्यनिष्ठ तथा स्वामिभक्त पन्ना धाय तथा हज़ारों क्षत्राणियों द्वारा किया गया जौहर नेहरूजी में देश की आन-बान तथा शान की रक्षा करने का भाव भरता है। इसके अतिरिक्त मीरा अपनी भक्ति-भावना से नेहरूजी के व्यक्तित्व को उज्ज्वल बनाती है। राजस्थान की इस वीर-भावना को देखकर सतपुड़ा राज्य भी कह उठा 

"बूढ़ा सतपुड़ा लगा कहने, हूँ दूर मगर अलगाव नहीं।

कम हुआ आज तक उत्तर से दक्षिण का कभी लगाव नहीं।।" 

से निकली नर्मदा, ताप्ती, महानदी, कृष्णा, कावेरी आदि नदियाँ नेहरू के सतपुड़ा दर्शन हेतु पूरव-पश्चिम में दूर-दूर तक फैली हुई थीं। दक्षिण भारत की प्रकृति भी नेहरूजी से मिलने के लिए विकल थी। सतपुड़ा अपने भीतर महावीर और गौतम के धर्मोपदेशों से मिले हुए ज्ञान को सँजोए हुए था। वह मानव धर्म के सार को नेहरूजी को सौंपता है। सतपुड़ा से नेहरूजी को कम्बन रामायण का ज्ञान मिला, रामानुजाचार्य और शंकराचार्य का आध्यात्मिक एवं दार्शनिक ज्ञान मिला तथा सन्त अप्पा के अहिंसावादी विचारों की विरासत मिली।

सतपुड़ा ने कला, साहित्य और संगीत के रूप में संजोकर रखी गई भारतीय संस्कृति की विशेषताओं को भी नेहरूजी के व्यक्तित्व हेतु समर्पित कर दिया। सतपुड़ा से नेहरूजी को कालिदास की भावुकता मिली, कुमारिल की अद्भुत प्रतिभा का परिचय मिला, मोढ़ा की व्याकुलता मिली, फकीर मोहन की अंगारों वाली भाषा मिली तथा अकबर से टक्कर लेने वाली चाँदबीबी का साहस मिला। सतपुड़ा तंजौर और भुवनेश्वर में निर्मित प्रतिभाओं में प्राचीन युगों का गौरव सहेज कर रखे हुए है। वहाँ तानसेन की वीणा के स्वरों की गूंज आज भी सुनाई देती है। ये सब नेहरूजी के व्यक्तित्व को गहराई से प्रभावित किए बिना नहीं रहते। बंगाल राज्य अमूल्य रत्नों का भण्डार है। वह भी नेहरूजी पर अपना खज़ाना लुटाने के लिए आतुर है। वह कहता है

 "बंगाल लगा हल्ला करने, कंगाल नहीं मैं रत्नों का तेरे हित अभी सँजोए हूँ, अरमान न जाने कितनों का।।”

बंगाल अपने हृदय में चण्डीदास एवं गोविन्ददास के गीतों की मधुरता, जयदेव के गीतों की ममता तथा कृतिवास द्वारा अनुवादित रामायण और महाभारत का ज्ञान सँजोए हुए है। चैतन्य महाप्रभु की भक्ति भी उसके गौरवशाली अतीत का हिस्सा है। बंगाल में ही रहकर दौलत काजी और शाह जफर ने गजलों की रचना की थी। बंगाल कर्मठी और देशभक्तों की भूमि भी रही है। वह विवेकानन्द, दीनबन्धु और सुभाषचन्द्र बोस की देशभक्ति की भावना नेहरू में भरना चाहता है। वह बंकिमचन्द्र का राष्ट्र-प्रेम, टैगोर तथा शरतचन्द्र के साहित्य की अमूल्य निधि आदि सहित अपना सब कुछ नेहरूजी पर न्योछावर कर देता है। नेहरूजी के व्यक्तित्व में अपनी छाप छोड़ने के लिए आसाम भी व्याकुल हो रहा है। वह कहता है

"मेरी हर धड़कन प्यासी है, तेरे चरणों के चुम्बन को। होती तैयार खड़ी है रे, जन-मन के स्नेह समर्पण को ।। "

आसाम अपनी हरियाली और मन-मोहिनी प्रकृति के साथ नेहरूजी का अभिनन्दन करने को तत्पर है। उसके पास उन्हें देने लिए बहुत कुछ है। वह कला और साहित्य का खजाना है। आसाम के माधव कन्दली ने रामायण का अनुवाद तथा भक्तकवि मनसा ने भक्तिगीतों की रचना करके जन-जन को मानसिक शान्ति तथा शुद्धता प्रदान की है। साहित्य तथा कला के रूप में संस्कृति को आगे बढ़ाने वाले गुरु शंकर आसाम के ही थे। आसाम के चरितपुथी ने विश्व को मानवता का पाठ पढ़ाया था। इस प्रकार आसाम कई प्रकार से नेहरू के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है।

बिहार की महिमा भी कुछ कम नहीं है। वह भी अपने भीतर व्याप्त करुणा, तप, सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, वीरता आदि गुणों को संचित किए हुए है। जैन तीर्थंकर महावीर से सम्बन्ध रखने वाला वैशाली नगर बिहार में ही है। महावीर ने जैन धर्म के रूप में मानवता को नई परिभाषा दी। बिहार में आज भी समुद्रगुप्त का यशोगान किया जाता है। उसके पुत्र चन्द्रगुप्त ने भी अपनी वीरता से भारत को गौरवान्वित किया है। कलिंग विजय के पश्चात् अहिंसा को अपने जीवन का दर्शन बनाने वाले अशोक भी बिहार के पुत्ररत्न थे। ये सभी नेहरूजी के व्यक्तित्व को अत्यन्त प्रभावित करते हैं। बिहार, पतंजलि के दर्शन और पुष्यमित्र शुंग के गुणों को नेहरूजी को समर्पित कर उन्हें अपने बौद्धिक ज्ञान, संस्कृति एवं साहित्य से समृद्ध कर देना चाहता है

उत्तर प्रदेश अपने आप को धन्य महसूस करता है, क्योंकि उसी की भूमि पर जवाहरलाल नेहरू ने जन्म लिया है। वह राम और कृष्ण के समय से महान् गुणों का वाहक रहा है। वह तुलसीदासकृत रामचरितमानस, सूरदास की वात्सल्यभरी वाणी, सारनाथ में दिए गए बुद्ध के उपदेश, कबीर का चिन्तन आदि को समेटे हुए नेहरूजी के सम्मुख प्रस्तुत है। वह इस महामानव से जुड़कर अति प्रसन्न है। पंजाब अपनी गौरवशाली परम्परा लिए हुए नेहरूजी का अभिनन्दन करता है। जलियाँवाला बाग के द्वारा पंजाब नेहरू में करुण रस का संचार कर उनमें नव-चेतना और राष्ट्र प्रेम जाग्रत करता है। वह विश्व की सबसे प्राचीन, परन्तु समृद्ध सभ्यता सिन्धु घाटी का घर है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा इसके मुख्य केन्द्र थे। पंजाब की मिट्टी में गुरुनानक की पावन करने वाली वाणी की अनुगूंज है। वह नेहरूजी के समक्ष श्रद्धानत होकर उनका स्वागत करता है।

कश्मीर जिसे धरती का स्वर्ग कहा जाता है, अपना विलक्षण और अपूर्व प्राकृतिक सौन्दर्य लेकर नेहरूजी को आकर्षित करता है। वह उनमें सौन्दर्य की अनुभूति करने एवं उसकी प्रशंसा करने का गुण भरना चाहता है।

कुरुक्षेत्र नेहरूजी को गीता ज्ञान देता हुआ, उन्हें अर्जुन के नाम से सम्बोधित करता है। वह उन्हें आदेश देता है कि जिस प्रकार अर्जुन ने अपने गाण्डीव से दुराचारी कौरवों का नाश किया था, उसी प्रकार तुम भी अत्याचारियों को समाप्त करो।

दिल्ली का अपना इतिहास बहुत करुणाजनक है। उसने बाबर और शेरशाह के अत्याचारों को निकट से देखा है। वह बार-बार उजड़ी और बसी भी वह खाली हाथ नहीं है। वह अकबर की साम्प्रदायिक सद्भावना से प्रभावित होकर उन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता का पाठ पढ़ाना चाहती है। परन्तु फिर

वह उन्हें जहाँगीर की न्याय-नीति देना चाहती है। लालकिले के रूप में शाहजहाँ की कलात्मकता अर्पित करना चाहती है। वह अन्तिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के बलिदान को याद दिलाकर 'संगम के राजा' नेहरूजी को भाव-विभोर कर देती है।

इस प्रकार जवाहरलाल नेहरू के विराट व्यक्तित्व को राम, कृष्ण, मीरा, महात्मा गांधी, शिवाजी, राणा साँगा, जयमल, चन्दबरदाई, राणा कुम्भा, महाराणा प्रताप, महावीर, गौतम, विवेकानन्द, दीनबन्धु, सुभाषचन्द्र बोस, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त, अशोक, अकबर, जहाँगीर तथा बहादुरशाह जफर आदि अनेक व्यक्तियों ने प्रभावित किया। वस्तुत: जवाहरलाल नेहरू के चरित्र का निर्माण करने के लिए भारतवर्ष के प्रत्येक

प्रान्त और राज्य ने कुछ-न-कुछ दिया है। ज्योति जवाहर' के इस नायक के चरित्र-निर्माण में सम्पूर्ण भारत ने अपना योगदान दिया है। अन्त में कवि कह उठता है 

"जब लगा देखने मानचित्र, भारत न मिला तुमको पाया।

जब तुमको देखा नयनों में, भारत का चित्र उभर आया।।”

 प्रश्न 2. 'ज्योति जवाहर' खण्ड-काव्य के आधार पर कलिंग युद्ध का वर्णन कीजिए। 

अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य के आधार पर प्रमुख घटना का वर्णन कीजिए। 

उत्तर 'ज्योति जवाहर' खण्ड-काव्य में कवि श्री देवीप्रसाद शुक्ल 'राही' ने आधुनिक भारत के निर्माता जवाहरलाल नेहरू को भारतीय संस्कृति और इतिहास के प्रतीक रूप में चित्रित किया है। इसके लिए कवि ने भारतीय इतिहास की अनेक घटनाओं का वर्णन किया है। इस काव्य में वर्णित घटनाओं में कलिंग युद्ध और उसके परिणाम का मेरे हृदय पर विशेष प्रभाव पड़ा है, क्योंकि इसका अत्यन्त मार्मिक वर्णन यहाँ किया गया है। संक्षेप में इसका प्रसंग निम्नवत् है

कलिंग युद्ध की प्रमुख घटना

कलिंग युद्ध की घटना सम्राट अशोक के शासन काल में हुई। इस विध्वंसकारी युद्ध में रक्त की नदियाँ बह गई थी, जिसमें सैनिक मछलियों के समान तैरते दिखाई दे रहे थे। इस युद्ध में अस्त्र-शस्त्रों की भयंकर ध्वनि सुनाई पड़ती थी। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी।

नरमुण्ड कट-कट कर धरती पर गिर रहे थे। न जाने कितनी माताओं की गोद सूनी हो गई और अनगिनत नारियों की माँग का सिन्दूर मिट गया था और अनेक बहनें अपने भाइयों की मृत्यु पर रो रही थीं। इस प्रकार के भयानक दृश्य को देखकर सभी का हृदय करुण क्रन्दन करने लगा था।

सम्राट अशोक ने जब इतना भयंकर नरसंहार देखा तो उनका हृदय द्रवित हो उठा। उसने यह प्रण किया कि वह अब कभी भी हिंसा नहीं करेगा और न ही कोई युद्ध लड़ेगा। वह अपने मन में विचार करने लगा कि मेरे संकेत मात्र से न जाने कितने निरपराध व्यक्ति काल के गाल में समा गए हैं। अशोक का मन विचलित हो उठा। उसके हृदय में वैराग्य भाव जाग्रत हो गया। साम्राज्य विशाल होते हुए भी वह उसे छोटा और सारहीन प्रतीत होने लगा। कवि ने अशोक की मनोदशा का वर्णन करते हुए कहा है

"सोने चाँदी का आकर्षण अब उसे घिनौना लगता था। साम्राज्यवाद का शीशमहल कुटिया से बौना लगता था।"

कलिंग युद्ध के बाद अशोक पूर्णतया अहिंसक और वैरागी बन गया था। इस युद्ध ने उसके हृदय पर गहरा आघात किया था

"जाने कैसी थी कचोट, दिन रहते जिसने जगा दिया। हिंसा की जगह अहिंसा का, अंकुर अन्तर में उगा दिया।।”

कलिंग युद्ध से अशोक का हृदय इतना दुःखी हुआ कि उसने सदैव के लिए तलवार फेंककर कभी युद्ध न करने की प्रतिज्ञा ली। वह महात्मा गौतम बुद्ध का अनुयायी हो बौद्ध भिक्षु बन गया। कवि ने अशोक की इस स्थिति का चित्रण इस प्रकार किया है

"जो कभी न हारा औरों से, वह आज स्वयं से हार गया।

भिक्षुक अशोक, राजा अशोक, से पहले बाजी मार गया।।" 

"ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य में अशोक के द्वारा कलिंग युद्ध करना, फिर वैराग्य पैदा हो जाना, इन सबका वर्णन खण्डकाव्य के नायक जवाहरलाल नेहरू के विचारों पर वैराग्य के प्रभाव को चित्रित करने के लिए किया गया है। सचमुच कलिंग युद्ध और उससे प्रभावित अशोक का यह प्रसंग बड़ा ही रोमांचकारी, भावपूर्ण तथा भारतीय इतिहास की अन्यान्य घटनाओं में प्रभावकारी, प्रमुख तथा महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुत खण्डकाव्य की कथा में कलिंग युद्ध के प्रसंग का बड़ा ही महत्त्व है। इसमें एक ओर तो अशोक को युद्ध में रत दिखाया है और दूसरी ओर युद्ध की भयंकरता तथा भीषण नरसंहार से उसके हृदय को परिवर्तित होते और हिंसा को छोड़कर अहिंसक बनते दिखाया गया है।

इस खण्डकाव्य में अशोक के द्वारा शान्ति और अहिंसा का सन्देश दूर-दूर तक फैलाने का वर्णन किया गया है। जवाहरलाल नेहरू भी शान्ति के अग्रदूत तथा हिंसा के विरोधी थे। कवि द्वारा अशोक से सम्बन्धित इस प्रसंग का वर्णन करके जवाहरलाल नेहरू के विचारों को अहिंसक बनाने का प्रयास किया गया है। प्रस्तुत काव्य का प्रमुख उद्देश्य इस प्रसंग के माध्यम से जवाहरलाल नेहरू के व्यक्तित्व को उजागर करना है। अतः यह प्रसंग मेरी दृष्टि में अति महत्त्वपूर्ण है।

 प्रश्न 3. 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य में व्यक्त राष्ट्रीय भावना पर प्रकाश डालिए। 

अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य का कथानक देश की विभिन्नताओं के बीच अभिन्नता की एक शाश्वत कड़ी के रूप में उभरकर सामने आता है।" इस कथन की पुष्टि कीजिए। 

 अथवा सिद्ध कीजिए कि 'ज्योति जवाहर' राष्ट्रीय एकता की भावनाओं से ओत-प्रोत है।

अथवा 'ज्योति जवाहर' राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने वाला काव्य है। सोदाहरण सिद्ध कीजिए। 

अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य के आधार पर जवाहरलाल नेहरू के भावनात्मक एकतामूलक विचारों की पुष्टि कीजिए। 

अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।

"अथवा "ज्योति जवाहर की रचना राष्ट्रीय एकता की भावना की पुष्टि हेतु की गई है।" इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।

अथवा ज्योति जवाहर में राष्ट्रीय एकता को महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है।" इस कथन को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।

"बूढ़ा सतपुड़ा लगा कहने, हूँ दूर मगर अलगाव नहीं। कम हुआ आज तक उत्तर से दक्षिण का कभी लगाव नहीं।"

 'ज्योति जवाहर' से उद्धृत उक्त पंक्तियों के आधार पर खण्डकाव्य में वर्णित राष्ट्रीय एकता पर प्रकाश डालिए।

उत्तर'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य के रचयिता कवि देवीप्रसाद शुक्ल 'राही’ ने नेहरूजी के चरित्र के विविध आयामों पर प्रकाश डालते हुए उन्हें इस खण्डकाव्य का नायक बनाया है। उनके चरित्र को भारतवर्ष की भावनात्मक एकता के रूप में प्रस्तुत करना ही इस खण्डकाव्य का प्रतिपाद्य विषय है, साथ ही जवाहरलाल नेहरू की प्रशंसा करना तथा उनके विराट चरित्र की प्रेरणादायी बातों को अपनाने के लिए प्रेरित करना ही इस खण्डकाव्य का मुख्य उद्देश्य है।

वस्तुतः प्रस्तुत खण्डकाव्य में नेहरूजी के माध्यम से देश की भावनात्मक एकता के माध्यम से नेहरूजी के चरित्र का वर्णन किया गया है। इस कथन का तात्पर्य यह है कि कवि ने नेहरू के व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए भारत के गौरवशाली अतीत की झाँकी प्रस्तुत की है तथा उसमें रची-बसी भावनात्मक एकता को स्पष्ट किया है। इस प्रकार कवि ने नेहरू के व्यक्तित्व में सम्पूर्ण भारत की छवि दर्शाते हुए, उनके व्यक्तित्व तथा भारतीय संस्कृति का सुन्दर समायोजन किया है। इन दोनों का समायोजन कर कवि अपने उद्देश्य की पूर्ति में भी सफल हुआ है।

इस खण्डकाव्य की भूमिका में कवि ने लिखा है, "जो लोग पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण का प्रश्न उठाकर जाति, भाषा, सम्प्रदाय और रीति-रिवाज की संकुचित मनोवृत्ति के आधार पर अलगाव और विघटन की बातें करते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि भारतवर्ष की सांस्कृतिक एकता सदियों से अपनी अखण्डता का उद्घोष करती हुई, समानताओं एवं विषमताओं की चट्टानों को तोड़ती हुई निरन्तर आगे बढ़ती जा रही है।" अपने इस कथन के अनुरूप कवि ने नेहरूजी के चरित्र को इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि भारतवर्ष की ये सारी विशेषताएँ उनके चरित्र में तिरोहित हो गई हैं। इस प्रकार 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य में नेहरू के व्यक्तित्व के माध्यम से भारतीय संस्कृति अपनी भावात्मक एकता के साथ मुखर हो उठी है।

चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 4. "ज्योति जवाहर" खण्डकाव्य के जिस पात्र ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया हो, उसका चरित्रांकन कीजिए।

अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य के आधार पर जवाहर लाल नेहरू की चरित्रिक विशेषताएँ लिखिए। 

अथवा ज्योति जवाहर खण्डकाव्य के आधार पर उसके प्रमुख पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए।

उत्तरकवि देवीप्रसाद शुक्ल 'राही' द्वारा रचित 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य के नायक आधुनिक भारत के निर्माता पण्डित जवाहरलाल नेहरू हैं। इस खण्डकाव्य में कवि ने सम्पूर्ण भारत की विशेषताओं को पण्डित नेहरू के व्यक्तित्व में ढालते हुए उन्हें युगावतार तथा लोकनायक के रूप में प्रस्तुत किया है। उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—

1. विराट व्यक्तित्व पण्डित जवाहरलाल नेहरू का व्यक्तित्व भारतवर्ष के समान ही विराट था। उनके व्यक्तित्व के विविध रूप थे और वे अपने हर रूप में उत्कृष्ट थे। सूर्य का तेज़, चाँद की सुघड़ता, सागर की गहराई, धरती का धैर्य और पवन की गति उनके व्यक्तित्व में समाहित थी।

2. आधुनिक भारत के निर्माता एवं देशभक्त जवाहरलाल नेहरू परम देशभक्त थे। उन्होंने गांधीजी का अनुसरण करते हुए देश को स्वतन्त्रता दिलाने में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया। स्वतन्त्रता मिलने के पश्चात् उन्होंने आधुनिक भारत की नींव रखी। उन्होंने भारत को धर्मनिरपेक्ष, पन्थनिरपेक्ष तथा गणतान्त्रिक देश घोषित करने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने स्वतन्त्र भारत के विकास हेतु पंचवर्षीय योजनाओं को आरम्भ किया। उनके दिखाए हुए मार्ग पर चलकर ही आज भारत विकास कर रहा है।

3. भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि जवाहरलाल नेहरू भारतीय संस्कृति के सच्चे प्रतिनिधि एवं पोषक है। वह अपने देश के अतीत पर गौरव अनुभव करते हैं तथा इससे प्रेरणा लेते हैं। वह भारत के हर क्षेत्र के महान व्यक्तियों के गुणों को ग्रहण करके अपने व्यक्तित्व को उदात्त बनाते हैं। उन्होंने राम, कृष्ण, गौतम, महावीर, महात्मा गांधी, अशोक, अकबर, सुभाषचन्द्र बोस, टीपू सुल्तान, शंकराचार्य, कालिदास, रामानुजाचार्य, मीरा, राणा, प्रताप, चाँदबीवी, भवभूति, तुकाराम आदि से विविध शिक्षाएँ ग्रहण की। इन सभी का उनके चरित्र पर गहरा प्रभाव पड़ा। 4. लोकप्रिय राजनेता जवाहरलाल नेहरू भारत की जनता में अत्यन्त लोकप्रिय

थे। कवि ने उनको युगावतार तथा लोकनायक के रूप में वर्णित किया है।

कवि कहता है "मथुरा वृन्दावन अवधपुरी की, गली-गली में बात चली। फिर नया रूप धर कर उतरा, द्वापर त्रेता का महाबली ।।"

एक सच्चे लोकनायक की भाँति नेहरूजी सभी देशवासियों के सुख-दुःख का

ॐ अनुभव करते हैं, इसलिए देश के सभी प्रान्त एवं राज्य उन पर अपनी सहेज

कर रखी गई अमूल्य निधि लुटाने में गौरव अनुभव करते हैं। 5. अहिंसा के समर्थक जवाहरलाल नेहरू के चरित्र पर सम्राट अशोक और महात्मा गांधी का प्रभाव था। इनसे उन्होंने अहिंसा की सीख ली थी, परन्तु उन्होंने अहिंसा को नए सिरे से परिभाषित किया था। उनके अनुसार “अत्याचारी के चरणों पर, झुक जाना भारी हिंसा है। पापी का शीश कुचल देना, जी, हिंसा नहीं अहिंसा है।"

6. विश्व शान्ति के अग्रदूत एवं युद्ध विरोधी भारतीय संस्कृति में विश्वास रखने वाले नेहरूजी विश्व शान्ति के अग्रदूत थे। वह युद्धों का सदा विरोध करते थे, उन्होंने निशस्त्रीकरण, पंचशील, गुट-निरपेक्ष आदि को बढ़ावा देकर विश्व में शान्ति की स्थापना करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। अतः कहा जा सकता है कि जवाहरलाल नेहरू के चरित्र में उन सभी गुणों का समावेश था, जिनके कारण उन्हें 'लोकनायक', 'युगावतार' तथा 'संगम का राजा' कहा जाता है। वह भारतीय संस्कृति के सच्चे अनुयायी थे, इसलिए उनके चरित्र में सम्पूर्ण भारत की छवि स्वतः ही मिल जाती है।

प्रश्न 5. "ज्योति जवाहर" खण्डकाव्य के आधार पर अशोक का

चरित्र चित्रण कीजिए।

(2018)

उत्तर 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य में श्रीदेवीप्रसाद शुक्ल 'राही' ने जवाहरलाल नेहरू के चरित्र के उजागर करने के साथ-साथ उनके चरित्र का सम्राट अशोक के चरित्र के साथ तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। उन्होंने भारतीय इतिहास की अनेक घटनाओं का वर्णन करते हुए कलिंग युद्ध का भी वर्णन किया है, जिसमें अशोक के चरित्र की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया गया है

1. साम्राज्यवादी सम्राट अशोक महान् शासक होने के साथ-साथ साम्राज्यवादी भी थे। उन्होंने राजा बनने से पहले ही बहुत से राज्यों को जीत लिया था। 

2. अजेय कहा जाता है कि सम्राट अशोक अपने जीवन में एक भी युद्ध न हारे थे। अतः वे अजेय शासक थे। कवि ने भी अपनी एक पंक्ति में इस बारे में उल्लेख किया है

‘जो कभी न हारा औरों से, वह आज स्वयं से हार गया।

3. पश्चातापी कहा जाता है कि सम्राट अशोक अपने जीवन में एक भी युद्ध न हारे थे। अत: वे अजेय शासक थे। कवि ने भी अपनी एक पंक्ति में इस बारे में उल्लेख किया है

जो कभी न हारा औरों से, वह आज स्वयं से हार गया।"

 4. बैरागी और अहिंसक कलिंग युद्ध के बाद अशोक पूर्ण रूप से अहिंसक और वैरागी बन चुके थे। इस युद्ध ने उनके हृदय पर गहरा आघात किया था। "जाने कैसी भी कचोट, दिन रहते जिसने जगा दिया।

हिंसा की जगह अहिंसा का, अंकुर अन्तर में उगा दिया।।"

 5. महान् बौद्ध भिक्षु कलिंग युद्ध के पश्चात् अशोक ने सदैव के लिए तलवार फेंक दी और कभी न युद्ध करने का प्रण दिया। एक बौद्ध भिक्षुक से दीक्षा ग्रहण कर सम्राट अशोक बौद्ध भिक्षु बन गए और जीवन पर्यन्त बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रचार करते रहे।

"भिक्षुक अशोक, राजा अशोक से पहले बाजी मार गया।"

          03'अग्रपूजा' खण्डकाव्य

कथासार / कथानक / कथावस्तु / विषयवस्तु पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 1. 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य का कथा का संक्षेप में वर्णन कीजिए।

अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य का कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।

अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य का कथासार अपने शब्दों में प्रस्तुत कीजिए।

अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य की कथा संक्षेप में लिखिए।

उत्तर'अग्रपूजा' की कथावस्तु महाभारत तथा भागवतपुराण से ली गई है। इसके लेखक पण्डित रामबहोरी शुक्ल जी हैं। पाण्डवों के विरुद्ध दुर्योधन के द्वारा रचे गए अनेक षड्यन्त्रों में से एक लाक्षागृह का निर्माण भी किया गया था। पाण्डव इन षड्यन्त्रों से बचते हुए ब्राह्मण रूप में द्रौपदी के स्वयंवर सभा में उपस्थित हुए। जहाँ अर्जुन ने सत्य भेदन करके शर्तानुसार द्रौपदी को प्राप्त किया तथा वहाँ उपस्थित अन्य आक्रमणकारियों एवं राजाओं को परास्त किया। व्यास और कुन्ती के कहने पर द्रौपदी पाँचों पाण्डवों की पत्नी बनी। पाण्डवों की इस सफलता पर दुर्योधन ने उनके विनाश की बात सोची, किन्तु भीष्म, द्रोण और विदुर की सम्मति से पाण्डवों को धृतराष्ट्र ने आधा राज्य देने का निर्णय किया। दुर्योधन आदि के विरोध करने पर भी उन्होंने युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया, युधिष्ठिर अपने भाइयों, माता और पत्नी के साथ 'खाण्डव' वन गए, जिसे विश्वकर्मा ने कृष्ण के आदेश से स्वर्गलोक के समान बना दिया तथा उसका नाम 'इन्द्रप्रस्थ' रखा गया। धर्मराज कुशलतापूर्वक राज्य कार्य करने लगे। नारद के कहने पर स्त्री विवाद न हो, इसलिए पाण्डव बारी-बारी से एक वर्ष तक द्रौपदी के साथ रहने लगे। इस नियम को भंग करने के फलस्वरूप 12 वर्ष का वनवास अर्जुन को मिला। वनवास की अवधि में भ्रमण करते हुए द्वारका में अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह किया तथा कृष्ण और सुभद्रा के साथ इन्द्रप्रस्थ लौटे। अग्निदेव के भोजन हेतु 'खाण्डव' वन का दाह करने पर अग्निदेव ने अर्जुन को कपिध्वज रथ तथा वरुण ने गाण्डीव धनुष दिया। अग्निदेव ने श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र तथा कौमुदी गदा दिए। खाण्डव-वन दाह के समय 'मय' की रक्षा करने पर मय ने अर्जुन को देवदत्त नामक शंख और भीम को भारी गदा प्रदान किया तथा श्रीकृष्ण के कहने पर युधिष्ठिर के लिए सुन्दर-सा सभा भवन का निर्माण किया।

युधिष्ठिर की प्रसिद्धि एक अच्छे राजा के रूप में तीनों लोकों में फैल गई। तब पाण्डु ने नारद से उन्हें सन्देश दिया कि वे राजसूय यज्ञ करें, जिससे वे पितृलोक ने में रह सकें तथा बाद में स्वर्ग में प्रवेश पा सकें। श्रीकृष्ण ने राजसूय यज्ञ करने के पूर्व सम्राट पद पाने के लिए जरासन्ध वध करने की सलाह दी। ब्राह्मण के वेश में कृष्ण, अर्जुन और भीम जरासन्ध के पास पहुँचे तथा मल्लयुद्ध में चतुराई से दोनों टाँगों को चीरते हुए उसे मार डाला तथा जरासन्ध के द्वारा बन्दी किए गए हजारों राजाओं को मुक्त किया। युधिष्ठिर ने चारों भाइयों को चारों दिशाओं में सैन्य बल बढ़ाने के लिए भेजा। उनके प्रयास से सभी राजाओं ने उनकी अधीनता स्वीकार की तथा युधिष्ठिर के ध्वज के नीचे आ गए। इसके बाद राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ होने लगीं। इसके लिए चारों दिशाओं में राजाओं को निमन्त्रण भेजा गया। अर्जुन द्वारका गए और भीम द्रुपद को लाने तथा नकुल कौरवों को आमन्त्रित करने गए। निमन्त्रण पाकर सभी लोग आए तथा सबको उचित जगह पर ठहराया गया। इस यज्ञ में देवता एवं असुर भी आए थे। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से यज्ञ को सफलतापूर्वक सम्पन्न करवाने की प्रार्थना की। इसलिए श्रीकृष्ण सम्पूर्ण सेना के साथ इन्द्रप्रस्थ आए। सभी नर-नारियों ने श्रीकृष्ण के दर्शन किए और अपने को धन्य माना। युधिष्ठिर, कृष्ण के रथ के सारथी बने तथा इन्द्रप्रस्थ में कृष्ण और उनके साथ आए हुए सभी लोगों का यथोचित स्वागत हुआ, जिससे कृष्ण से द्वेष रखने वाले रुक्मी और शिशुपाल बेचैन हो गए।

राजसूय यज्ञ में कार्य को अच्छी तरह से सम्पादित करने के लिए युधिष्ठिर ने अपने सभी सम्बन्धियों की उम्र एवं योग्यता को ध्यान में रखकर काम बाँट दिए थे। श्रीकृष्ण ने भोजन परोसने एवं लोगों के पैर धोने के काम को स्वेच्छा से चुना। सभी ने अपना काम निष्ठापूर्वक किया। सभा वर्णों के प्रतिष्ठित व्यक्ति सभा में पधारे। जब श्रीकृष्ण, बलराम और सात्यकि सभी में पधारे तो शिशुपाल को छोड़कर सभी उनके स्वागत में खड़े हो गए। भीष्म के द्वारा उठाए गए अग्रपूजा के प्रश्न पर सबने कृष्ण के नाम पर सहमति दी। चेदिराज शिशुपाल ने इस पर आपत्ति की तथा उनकी निन्दा की और अपमान भी किया। भीष्म आदि ने शिशुपाल को रोका। सहदेव ने शिशुपाल को धमकाया तथा श्रीकृष्ण को अर्घ्य दिया। श्रीकृष्ण को मारने के लिए दौड़ते हुए शिशुपाल को चारों ओर कृष्ण ही दिखाई देने लगते हैं।

शिशुपाल को कृष्ण ने समझाया कि उन्होंने श्रुतश्रवा फूफी को उसके सौ अपराध को क्षमा करने का वचन दिया है। इसलिए वे मौन हैं, मौन को दुर्बलता न मानकर वह अनुचित व्यवहार न करे, किन्तु शिशुपाल ने माना। सौ वचन पूरा होते ही कृष्ण ने शिशुपाल को बचने की चेतावनी देते हुए उस पर सुदर्शन चक्र चला दिया, जिससे उसका सिर, धड़ से अलग हो गया। विधिपूर्वक चलते हुए राजसूय यज्ञ को व्यास धौम्य आदि सोलह ऋषियों ने विधि-विधानपूर्वक सम्पन्न किया। धर्मराज ने विद्वानों, ब्राह्मणों, राजाओं तथा अन्य अतिथियों का उचित सत्कार किया तथा सम्मानपूर्वक उन्हें विदा किया तथा श्रीकृष्ण और बलराम के प्रति हृदय से आभार प्रकट किया, क्योंकि उनके बिना यज्ञ सुचारु रूप से सम्पन्न नहीं हो पाता।

प्रश्न 2. 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के आधार पर राजसूय यज्ञ का संक्षेप में वर्णन कीजिए।

अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के पूर्वाभास सर्ग का कथानक लिखिए।

अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के आधार पर जरासन्ध वध का वर्णन कीजिए।

अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग का कथानक लिखिए।

अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के आयोजन सर्ग का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।

उत्तर 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य साहित्य महौपाध्याय पण्डित रामबहोरी शुक्ल द्वारा रचित है। छः सर्गों में विभाजित इस खण्डकाव्य की कथावस्तु महाभारत तथा श्रीमद्भागवत पुराण से ली गई है। कवि ने खण्डकाव्य के प्रारम्भ में मंगलाचरण अंश में श्रीकृष्ण की स्तुति करने के बाद खण्डकाव्य की मुख्य सामग्री प्रस्तुत की है, जिसका कथासार निम्नलिखित है

प्रथम सर्ग (पूर्वाभास)

 इस सर्ग का आरम्भ महाभारत के लाक्षागृह प्रसंग से होता है। दुर्योधन ने पाण्डवों को मारने के लिए अनेक षड्यन्त्र रचे थे, जिनमें एक लाक्षागृह भी था, परन्तु कुन्ती सहित सभी पाण्डव लाक्षागृह से सुरक्षित बच निकले। दुर्योधन इस सत्य से अनजान था। उधर, पाण्डव छद्मवेश में विचरण करते हुए ब्राह्मण रूप में द्रौपदी के स्वयंवर में उपस्थित हुए। वहाँ अर्जुन ने शर्तानुसार मत्स्य भेदन कर स्वयंवर जीत लिया। इस पर वहाँ उपस्थित अन्य राजाओं ने अर्जुन पर आक्रमण किया, किन्तु भीम और अर्जुन ने उन्हें परास्त कर दिया।

महर्षि व्यास और कुन्ती के कहने पर द्रुपद ने पाँचों पाण्डवों से द्रौपदी का विवाह ने कर दिया और प्रचुर मात्रा में दहेज दिया। इस सारे घटनाक्रम को जानकर दुर्योधन मन-ही-मन जल उठा। हस्तिनापुर आकर उसने शकुनि, कर्ण और भूरिश्रवा से मन्त्रणा की और पाण्डवों का विनाश करने की बात सोची। भूरिश्रवा ने उसे पाण्डवों से मैत्री करने का तथा कर्ण ने उन्हें युद्ध में परास्त करने का सुझाव दिया।

धृतराष्ट्र ने भी दुर्योधन को पाण्डवों से दुर्व्यवहार न करने की सलाह दी। दुर्योधन की ओर से चिन्तित होकर धृतराष्ट्र ने भीष्म, द्रोण और विदुर की सम्मति से पाण्डवों को आधा राज्य देना स्वीकार किया और अगले ही दिन विदुर को भेजकर पाण्डवों को हस्तिनापुर बुलवा लिया। दुर्योधन और कर्ण ने इसका विरोध भी किया, परन्तु धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर का राज्याभिषेक कर दिया। युधिष्ठिर ने गुरुजनों से विदा लेकर कुन्ती, पत्नी द्रौपदी एवं सभी भाइयों समेत खाण्डव वन की ओर प्रस्थान किया।

द्वितीय सर्ग ( समारम्भ) 

उन दिनों खाण्डव वन एक भयानक जंगल था। पाण्डवों के परम हितैषी होने के कारण कृष्ण ने विश्वकर्मा को स्वर्ग लोक के समान सुन्दर नगर का निर्माण करने का आदेश दिया। विश्वकर्मा ने ऐसा ही किया। सुन्दर नगर का निर्माण हुआ और सभी वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे। यह देखकर श्रीकृष्ण ने कुन्ती की आज्ञा ले पाण्डवों से विदा ली और द्वारका लौट गए। जाते-जाते उन्होंने युधिष्ठिर को प्रजा- हित में शासन करने की सलाह दी। धर्मराज, श्रीकृष्ण के आदेशानुसार कर्तव्य परायणता, समरसता, दृढ़ता, उदारता और धर्म के अनुसार राज करने लगे। उनके राज में सभी सुखी थे और सभी अपने-अपने कर्त्तव्यों का पालन करते थे। राम राज्य सदृश उनके राज्य की कीर्ति धरती से लेकर देवलोक और पितृलोक तक फैल गई।

तृतीय सर्ग (आयोजन)

 पाण्डवों ने विचार किया कि धन, धरती और नारी के कारण संसार में सदा से संघर्ष होता आया है। कौरव धन और धरती के पीछे पहले से ही पड़े हुए है, कहीं द्रौपदी आपस के झगड़े का कारण न बन जाए, इसलिए उन्होंने नारद के कहने पर यह नियम बनाया कि द्रौपदी बारी-बारी से एक-एक वर्ष तक प्रत्येक पाण्डु-पुत्र के साथ रहे और यदि इस दौरान दूसरा पति उन्हें साथ देख ले तो दण्ड स्वरूप उसे बारह वर्ष के लिए वन में रहना पड़ेगा। एक बार एक ब्राह्मण की गायों की रक्षा के लिए अर्जुन को यह नियम भंग करना पड़ा।

इसके कारण उन्हें बारह वर्षों के लिए वन में निवास करने के लिए जाना पड़ा। कई वर्षों तक अनेक स्थलों का भ्रमण करते हुए अर्जुन अन्त में द्वारका पहुँचे। वहाँ कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ उनका विवाह सम्पन्न हुआ। तत्पश्चात् सुभद्रा को साथ लेकर अर्जुन कृष्णसहित इन्द्रप्रस्थ लौट आए। वहाँ उन्होंने अग्निदेव के भोजन हेतु खाण्डव वन का दाह किया। अग्निदेव ने प्रसन्न होकर अर्जुन को अबाध गति से चलने वाला कपिध्वज रथ तथा वरुण ने दो अक्षय तूणीर एवं गाण्डीव धनुष उपहार में दिए ।

श्रीकृष्ण को अग्निदेव से सुदर्शन चक्र तथा कौमुदी गदा प्राप्त हुए। उसी समय आग की लपटों से घिरे हुए मय दानव ने सहायता के लिए पुकारा। अर्जुन ने उसे अभय दान देकर बचा लिया। मय दानव ने कृतज्ञता से भरकर सेवा का प्रस्ताव रखा। तब श्रीकृष्ण के कहने पर उसने धर्मराज के लिए एक दिव्य आलौकिक सभा भवन का निर्माण किया। मय दानव ने अर्जुन को देवदत्त नामक शंख और भीम को एक भारी गदा भी भेंट की। फिर श्रीकृष्ण सभी से आज्ञा लेकर द्वारका लौट गए।

मय दानव ने सुन्दर भवन का निर्माण किया। इससे इन्द्रप्रस्थ की सुन्दरता में चार चाँद लग गए। धर्मराज ने धर्म के अनुसार आचरण करते हुए राज्य में सुख और शान्ति की स्थापना की। धर्मराज के सुशासन की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। स्वर्गलोक में पितृगण भी उनसे प्रसन्न हुए। तब पाण्डु ने नारद मुनि के द्वारा युधिष्ठिर को यह सन्देश भिजवाया कि वह राजसूय यज्ञ करे, जिससे कि मैं (पाण्डु) इन्द्रलोक में निवास करूँ, फिर अपनी आयु पूरी करने के बाद स्वर्ग में प्रवेश पा सकूँ।

युधिष्ठिर ने इस पर विचार करते हुए श्रीकृष्ण से विचार-विमर्श किया। श्रीकृष्ण ने कहा कि आपका राजसूय यज्ञ तभी सफल हो सकता है, जब आप जरासन्ध पर विजय प्राप्त कर लें, क्योंकि सम्राट बने बिना राजसूय यज्ञ नहीं किया जा सकता। अतः इसके लिए उसका (जरासन्ध) वध करना आवश्यक है। युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर श्रीकृष्ण अर्जुन और भीम को साथ लेकर ब्राह्मण वेश में जरासन्ध के पास पहुँचे और उसे मल्लयुद्ध के लिए ललकारा। जरासन्ध इसके लिए तैयार हो गया। उसने श्रीकृष्ण और अर्जुन को छोड़कर भीम के साथ मल्लयुद्ध करना स्वीकार किया। दोनों के मध्य तेरह दिन तक भयंकर मल्लयुद्ध चला। तेरहवें दिन जरासन्ध को थका हुआ देखकर और कृष्ण का संकेत पाकर भीम ने जरासन्ध का एक पैर दबाकर दूसरा पैर उठाया और उसे बीच में से चीरते हुए उसका वध कर दिया। इसके बाद उन्होंने जरासन्ध के पुत्र सहदेव का राज्याभिषेक किया और जरासन्ध द्वारा बन्दी बनाए गए हज़ारों राजाओं को मुक्त किया। इसके बाद श्रीकृष्ण उन सभी को साथ लेकर इन्द्रप्रस्थ पहुँचे और युधिष्ठिर को आश्वस्त किया कि अब आप विधि-विधानपूर्वक यज्ञ कर सकते हैं।

तत्पश्चात् धर्मराज ने अपने चारों भाइयों भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव को सैन्य प्रसार के लिए क्रमश: पूर्व, उत्तर पश्चिम और दक्षिण दिशा में भेजा। चारों भाइयों ने सारे राजाओं को अपने अधीन करते हुए सारे भारतवर्ष को युधिष्ठिर के ध्वज के नीचे ला दिया। यह काम सम्पन्न होने के बाद राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ प्रारम्भ होने लगीं। चारों दिशाओं में सभी राजाओं को निमन्त्रण भेजा गया। द्वारका में स्वयं अर्जुन गए। भीम द्रुपद को लेने गए तथा नकुल कौरवों को आमन्त्रित करने पहुंचे। निमन्त्रण पाकर सभी राजा, शूद्र, व्यापारी आदि अपने दल-बल सहित इन्द्रप्रस्थ पधारने लगे। सभी को उचित जगह पर ठहराया गया। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भाग लेने के लिए देवता एवं असुर भी आए हुए थे।

चतुर्थ सर्ग (प्रस्थान)

अर्जुन के द्वारा राजसूय यज्ञ में भाग लेने का निमन्त्रण पाकर यदुकुल अत्यन्त प्रसन्न हुआ। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से एकान्त में प्रार्थना की कि पाण्डव कुल की लाज आपके हाथ में है। आप ही इस यज्ञ को सफलतापूर्वक पूरा करवा सकते हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन की चिन्ता को समझा और विचार किया कि उनका पूर्ण सुसज्जित सेना के साथ इन्द्रप्रस्थ जाना उचित रहेगा, क्योंकि कुछ असन्तुष्ट राजा मिलकर उपद्रव कर सकते हैं। द्वारकापुरी में इन्द्रप्रस्थ जाने की तैयारियाँ पूरे मनोयोग से होने लगीं। उचित समय पर श्रीकृष्ण, इन्द्रप्रस्थ पहुँच गए। श्रीकृष्ण जहाँ से भी गुजर रहे थे वहाँ नर-नारियों की भीड़ उनके दर्शन हेतु एकत्रित हो जाती। उनकी शोभा देखकर सभी धन्य हो जाते हैं, जब श्रीकृष्ण इन्द्रप्रस्थ पहुँचे तो युधिष्ठिर ने स्वयं आगे बढ़कर उनका स्वागत किया और उनके रथ के सारथी बने। इन्द्रप्रस्थ में श्रीकृष्ण और उनके साथ आए सभी व्यक्तियों का यथोचित सत्कार हुआ। पाण्डवों की श्रीकृष्ण के प्रति अगाध श्रद्धा देखकर रुक्मी और शिशुपाल बेचैन हो गए। वे दोनों श्रीकृष्ण से द्वेष रखते थे।

पंचम सर्ग / राजसूय यज्ञ (अग्रपूजा) 

धर्मराज युधिष्ठिर ने पहले ही अपने सम्बन्धियों में काम बाँट दिए थे। भीम, दुःशासन, दुर्योधन, विदुर, अर्जुन, संजय, अश्वत्थामा, नकुल, सहदेव, कर्ण, भीष्म, द्रोण आदि को उनकी उम्र एवं योग्यता को ध्यान में रखकर काम दिए गए थे। श्रीकृष्ण ने भोजन परोसने एवं ब्राह्मणों के पैर धोने का कार्य स्वेच्छा से चुना। सभी ने अपना-अपना काम पूरी निष्ठा से किया। फिर सभी वर्गों के प्रतिष्ठित व्यक्ति सभा में पधारे।

जब श्रीकृष्ण बलराम और सात्यकि सहित सभा में आए तो सभी उनके सत्कार में स्वतः ही खड़े हो गए, केवल शिशुपाल ही बैठा रहा। जब भीष्म ने अग्र-पूजा का प्रश्न उठाया तो सबने सहर्ष श्रीकृष्ण के नाम पर सहमति दी। इस पर चेदिराज शिशुपाल ने आपत्ति प्रकट की। शिशुपाल ने श्रीकृष्ण की निन्दा की और भरी सभा में उनका अपमान किया। सहदेव, भीष्म और भीम ने शिशुपाल को रोकने का प्रयास किया। भीष्म ने शास्त्रों का हवाला देकर श्रीकृष्ण को ही अग्रपूजा के लिए उपयुक्त व्यक्ति बताया। इस पर शिशुपाल फिर बड़बड़ाया, किन्तु सहदेव ने उसे धमकाते हुए कहा कि

'अति हो गई, सहा अब तक अकथनीय तेरा बकवाद, किया एक भी अब अपवाद।

लूँगा खींच जीभ यदि आगे,पूजनीय श्रीकृष्ण प्रथम हैं देखें करता कौन अमान्य।"

और श्रीकृष्ण को अर्घ्य दिया। इस पर शिशुपाल उनको मारने दौड़ा, परन्तु श्रीकृष्ण शान्त भाव से बैठे रहे। शिशुपाल को चारों ओर श्रीकृष्ण ही दिखाई दे रहे थे। वह चारों ओर घूम-घूमकर उन्हें मारने का प्रयास करने लगा। सभी पागलों के समान उसकी क्रिया देखकर कुछ न पाए। श्रीकृष्ण ने उसे समझाते हुए कहा कि तू मेरा छोटा भाई है और मैंने श्रुतश्रवा फूफी को तेरे सौ अपराध क्षमा करने का वचन भी दिया है। यह सोचकर ही मैं अब तक मौन हूँ, परन्तु मेरे मौन को मेरी दुर्बलता समझना तेरी भूल है। अतः तुम यह अनुचित व्यवहार मत करो, लेकिन शिशुपाल ने फिर उनकी निन्दा की। उसके सौ अपराध पूरे हो चुके थे। श्रीकृष्ण ने उसे बचने की चेतावनी देते हुए अपना सुदर्शन चक्र छोड़ दिया और उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। धर्मराज ने आदरपूर्वक उसका अन्तिम संस्कार करवाकर शिशुपाल के पुत्र को चेदिराज बनाया।

षष्ठ सर्ग (उपसंहार)

जो भाग्य में लिखा होता है, वह होकर रहता है। चेदिराज की मृत्यु के बाद राजसूय यज्ञ विधिपूर्वक चलता रहा। व्यास, धौम्य आदि सोलह ऋषियों ने इस यज्ञ को विधि-विधानपूर्वक सम्पन्न किया। धर्मराज ने विद्वानों, ब्राह्मणों, राजाओं तथा अन्य अतिथियों का उचित सत्कार किया और सम्मानपूर्वक उन्हें विदा किया। ब्राह्मणों ने उन्हें सुख-समृद्धि का आशीर्वाद दिया। अन्त में युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण और बलराम के प्रति हृदय से आभार प्रकट किया, क्योंकि उनके बिना इस यज्ञ का सुचारु रूप से सम्पन्न होना असम्भव था।

चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 3. 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के नायक की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।

 अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के नायक का चरित्र चित्रण कीजिए।

अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के प्रमुख पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए।

अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के प्रधान पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए। 

अथना 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के आधार पर उसके किसी एक पात्र की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।

अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के नायक का चरित्रांकन कीजिए। 

अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के आधार पर श्रीकृष्ण की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।

अथवा खण्डकाव्य के नायक का चरित्र चित्रण कीजिए।

उत्तर पण्डित रामबहोरी शुक्ल द्वारा रचित 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के प्रमुख पात्र नायक श्रीकृष्ण है। यद्यपि महाभारत से सम्बन्धित होने के कारण इस खण्डकाव्य में पाण्डवों और कौरवों की उपस्थिति अवश्य है, परन्तु सम्पूर्ण काव्य का केन्द्रबिन्दु श्रीकृष्ण हैं। उनके चरित्र को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली विशेषताएँ निम्नलिखित है-

1. अद्वितीय सौन्दर्यशाली एवं आकर्षक श्रीकृष्ण का सौन्दर्य अद्भुत था। उनके सौन्दर्य का आकर्षण ऐसा था कि नगर के सब नर-नारी उनकी एक झलक पाने के लिए उमड़ पड़ते थे। उनके चन्द्र समान सलोने मुखमण्डल की आभा एवं सुन्दरता सभी को परम आनन्दित करती थी। जैसे ही कृष्ण लोगों की नज़रों से ओझल हो जाते थे, वैसे ही सभी उदास हो जाते। उनके रूप सौन्दर्य के बारे में एक साधारण स्त्री ने कहा है

"देखा सुना न पढ़ा कहीं भी, ऐसा अनुपम रूप अनिन्द

ऐसी मृदु मुसकान न देखी, सचमुच गोविन्द सम गोविन्द।।”

2. वीर एवं शक्तिसम्पन्न श्रीकृष्ण परमवीर है और असाधारण रूप से शक्तिवान हैं। उन्होंने बचपन में ही पूतना, बकासुर, वृषभासुर, व्योमासुर, मुष्टिक, चाणूर, कंस आदि का संहार कर लोगों को इनके अत्याचारों से मुक्ति दिलाई थी। उन्होंने कालिया नाग को भी दण्ड दिया था। जरासन्ध के वघ की योजना भी श्रीकृष्ण की ही थी। अन्त में वे दुष्ट शिशुपाल का वध भी करते हैं। शिशुपाल का वध करने से पूर्व कृष्ण उसे बचने की चेतावनी भी देते हैं, परन्तु उनका प्रहार इतना तीव्र गति से हुआ कि शिशुपाल स्वयं को बचा नहीं पाया।

3. पाण्डवों के शुभचिन्तक श्रीकृष्ण पाण्डवों के सबसे बड़े हितैषी एवं शुभचिन्तक थे। पाण्डवों के सभी शुभ कार्यों में वह उनका पूरा साथ देते हैं तथा उनके मार्ग में आने वाली बाधाओं का निवारण भी वही करते हैं। इन्द्रप्रस्थ को बसाने में श्रीकृष्ण ने ही पाण्डवों की मदद की थी। जरासन्ध-वध करवाने के कारण राजसूय यज्ञ की सफलता का श्रेय भी उन्हें जाता है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में कोई बाधा न आए, इसलिए वह सुसज्जित सेना सहित इन्द्रप्रस्थ पहुंचते हैं। अतः वह पाण्डवों के सबसे बड़े सहयोगी एवं शुभचिन्तक थे।

4. विनम्र एवं शिष्टाचारी श्रीकृष्ण जितने महान् एवं शक्तिशाली हैं, उतने ही विनम्र हैं। उनमें अभिमान लेश-मात्र भी नहीं है। वह जब भी अपने बड़ों से मिलते हैं, तो उनके चरण स्पर्श करते हैं तथा छोटों को प्रेम से गले लगाते हैं। वह स्वभाव से अत्यन्त विनम्र हैं। उनकी विनम्रता तब स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है, जब वह राजसूय यज्ञ के प्रथम दिन स्वेच्छा से ब्राह्मणों के चरण धोने जैसा तुच्छ कार्य स्वयं के लिए चुनते हैं। अग्रपूजा का पात्र होते हुए भी वह दूसरों के मान-सम्मान एवं सत्कार का पूरा ध्यान रखते हैं।

5. सहनशील एवं धैर्यवान सहनशीलता और धैर्य श्रीकृष्ण के चरित्र के अभिन्न गुण हैं। वह विपरीत परिस्थितियों में भी अपना नियन्त्रण नहीं खोते। अपनी बुआ को दिए गए वचन के कारण वह शिशुपाल की अशिष्टता को सहन करते हैं। जब शिशुपाल शिष्टाचार की सभी सीमाएँ तोड़ देता है और उसका अपराध अक्षम्य हो जाता है, तभी वह उसे दण्ड देते हैं।

6. सर्वगुण सम्पन्न दिव्य योगी पुरुष श्रीकृष्ण सभी लौकिक एवं अलौकिक गुणों से सम्पन्न हैं। सज्जनों के लिए वह पुष्प के समान कोमल हैं, तो दुष्टों के संहारक हैं। उनका हृदय दया, करुणा, ममता, प्रेम आदि का अगाध सागर है। वह धर्म और मर्यादा का पालन करने वाले हैं।

"शील सुजनता विनय प्रेम के, केशव हैं प्रत्यक्ष शरीर, मिटा अनीति धर्म-मर्यादा, स्थापन करते हैं यदुवीर।”

आध्यात्मिक ज्ञान के सन्दर्भ में वह भगवान विष्णु के सदृश ही ज्ञानी है अर्थात् वह जीवन के हर क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ हैं। उनकी समता करने का साहस किसी में नहीं है और न ही उनको जानना-समझना सरल है। ऊपर से वह सांसारिक कार्यों में व्यस्त दिखाई देते हैं, परन्तु उनके जैसा अनासक्त कर्मयोगी अन्य और कोई नहीं है।

इस प्रकार, श्रीकृष्ण के चरित्र में सभी मानवीय एवं दिव्य गुणों का समावेश है। उनके गुणों और विशेषताओं का वर्णन जितना भी करो, कम ही है। अतः इस खण्डकाव्य में वह मानव नहीं, अपितु महामानव के रूप में हमारे सामने आए हैं।

प्रश्न 4. 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के आधार पर युधिष्ठिर की चारित्रिक विशेषताएँ बताइए।

अथवा 'अग्रपूजा' के आधार पर युधिष्ठिर के चरित्र की विशेषताएँ बताइए।

उत्तर पण्डित रामबहोरी शुक्ल द्वारा रचित खण्डकाव्य 'अग्रपूजा' में युधिष्ठिर श्रीकृष्ण के बाद दूसरे प्रमुख पात्र हैं। वह पाण्डवों में ज्येष्ठ है। उनके चरित्र की उल्लेखनीय विशेषताएं निम्नलिखित है

1. धर्मपालक एवं न्यायप्रिय राजा युधिष्ठिर धर्म और न्याय की साकार मूर्ति हैं। वह सदा धर्म युक्त कार्य करते हैं तथा न्यायपूर्वक शासन करते हैं। इसी कारण वह न केवल अपनी प्रजा में लोकप्रिय हैं, अपितु उनकी कीर्ति देवलोक और पितृलोक में भी फैल गई है। उनकी प्रशंसा में नारद कहते हैं

 "बोल उठे गद्गद् वाणी से, 'धर्मराज, जीवन तव धन्य,

धरणी में सत्कर्म-निरत जन, नहीं दीखता तुम सा अन्य।" 

2. अत्यन्त विनम्र और आज्ञाकारी युधिष्ठिर स्वभाव से अत्यन्त विनम्र हैं। वह बड़ों की आज्ञा का पालन करते हैं। वह खाण्डव-वन के रूप में मिले हुए उजड़े राज्य को पाने पर भी तनिक भी क्रोध नहीं करते हैं। इसी प्रकार जब वह श्रीकृष्ण को पहली बार इन्द्रप्रस्थ से विदा करते हैं, तो स्वयं उनके रथ के सारथी बनते हैं। जब श्रीकृष्ण राजसूय यज्ञ में भाग लेने के लिए इन्द्रप्रस्थ पधारते हैं, तो भी वह आगे बढ़कर उनका स्वागत करते हैं और फिर उनके रथ के सारथी बनते हैं। वह श्रीकृष्ण से बड़े हैं, परन्तु फिर भी उन्हें इस प्रकार उनका सम्मान करना बुरा नहीं लगता है। वस्तुतः युधिष्ठिर विनम्र और आज्ञाकारी होने के साथ-साथ भी हैं।

3. उदारवादी युधिष्ठिर जैसा उदारवादी चरित्र महाभारत में अन्य कोई नहीं है। वह उसी रूप में इस खण्डकाव्य में प्रस्तुत किए गए हैं। उनके मन में घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, प्रतिशोध आदि जैसे दुर्विचारों के लिए कोई स्थान नहीं है। बार-बार उनका एवं उनके भाइयों का अहित करने वाले कौरवों को वह अपना शत्रु नहीं मानते। जरासन्ध एवं शिशुपाल के वध के पश्चात् वह उनके पुत्रों को ही राजा बनाते हैं। पूरे भारतवर्ष को वह एकता के सूत्र में बाँधना चाहते हैं, परन्तु किसी के राज्य पर अन्यायपूर्वक अधिकार करना उनके चरित्र की विशेषता नहीं है। वस्तुतः धर्मराज युधिष्ठिर परम विनीत एवं सहिष्णु हैं। उनमें वह सारे गुण हैं, जो एक राजा में होने चाहिए। उनका चरित्र आज भी प्रेरणादायी है।

प्रश्न 5. 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के आधार पर शिशुपाल का चरित्र-चित्रण कीजिए।

अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के आधार पर शिशुपाल के चारित्रिक गुणों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर चेदिराज शिशुपाल श्रीकृष्ण की बुआ श्रुतश्रवा का पुत्र था। वह इस खण्डकाव्य का प्रमुख प्रतिनायक है। उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं

1. अशिष्टाचारी शिशुपाल चेदि राज्य का राजा है, परन्तु राजा होने के बावजूद भी उसे सामान्य शिष्टाचार का ज्ञान नहीं है। वह छोटों और बड़ों सभी से अपमान करने वाली भाषा में बात करता है। वह न केवल अपने बड़े भाई कृष्ण का भरी सभा में अपमान करता है, वरन् भीष्म जैसे आदरणीय पुरुष को भी ‘लगता सठिया गए भीष्म हैं', कहकर उनका उपहास उड़ाता है। वह सहदेव से भी कहता है

“कैसी बात लड़कपन की यह कही यहाँ तुमने सहदेव? छोटे मुँह से बड़ी बात है, कहना उचित नहीं नरदेव।"

2. श्रीकृष्ण का निन्दक एवं शत्रु यद्यपि शिशुपाल और श्रीकृष्ण के मध्य भाई-भाई का सम्बन्ध था, परन्तु फिर भी शिशुपाल, श्रीकृष्ण का सबसे बड़ा निन्दक एवं शत्रु था। शिशुपाल रुक्मिणी से विवाह करना चाहता था, लेकिन रुक्मिणी पहले ही श्रीकृष्ण को अपना पति मान चुकी थी। अतः श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी से विधि-विधानपूर्वक विवाह किया। इसी प्रसंग के कारण शिशुपाल कृष्ण का शत्रु बन गया था। वह भरी सभा में श्रीकृष्ण को अहीर, गोपाल, कृतघ्न, मामा का हत्यारा, रणछोड़, मायावी, कपटी आदि कहकर उनकी निन्दा एवं अपमान करता है।

3. अभिमानी एवं क्रोधी शिशुपाल स्वभाव से क्रोधी एवं अभिमानी भी है। वह स्वयं पर अभिमान करता है तथा दूसरों को अकारण ही अपमानित करता है। भरी सभा में जब वह श्रीकृष्ण को दुर्वचन कहता है तो सहदेव, भीम, भीष्म और स्वयं श्रीकृष्ण भी उसे समझाने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु वह समझने के स्थान पर और भी क्रोधित हो जाता है और फिर श्रीकृष्ण को भला-बुरा कहने लगता है। यही उसकी मृत्यु का कारण बनता है।

4. ईर्ष्या एवं द्वेष-भाव रखने वाला वह श्रीकृष्ण को अपना शत्रु मानता है, इसलिए उनसे ईर्ष्या करता है। इन्द्रप्रस्थ में श्रीकृष्ण के आदर-सत्कार को देखकर वह जल-भुनकर राख हो जाता है। श्रीकृष्ण का मान-सम्मान होते देखकर वह मन-ही-मन उनसे द्वेष करने लगता है। वस्तुत: इस खण्डकाव्य में शिशुपाल के चरित्र के दोषों को ही उजागर किया गया है। उसमें कोई भी ऐसा गुण नहीं है, जिसकी प्रशंसा की जाए। खलनायक की भूमिका में वह उपयुक्त है, परन्तु खलनायकों की भाँति उसकी परिणिति भी दुःखद होती है।

04 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य

कथासार/कथानक / कथावस्तु / विषयवस्तु पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 1. 'मेवाड़ मुकुट' के अरावली सर्ग की कथा प्रस्तुत कीजिए। 

अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के आधार पर किसी प्रमुख घटना का उल्लेख कीजिए, जिसने आपको प्रभावित किया हो।

अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग की कथावस्तु लिखिए। 

अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के प्रथम एवं द्वितीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।

अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य की कथा संक्षेप में लिखिए।

अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के भामाशाह सर्ग की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।

अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के दौलत सर्ग की कथावस्तु लिखिए।

अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का कथानक संक्षेप में लिखिए

अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।

अथवा "मेवाड़ मुकुट" खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का कथानक लिखिए। 

 उत्तर 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य की रचना श्री गंगारन पाण्डेय द्वारा की गई है। सात सर्गों में विभाजित इस खण्डकाव्य की मूल कथा के केन्द्रीय पात्र इतिहास प्रसिद्ध महापुरुष महाराणा प्रताप हैं। इस खण्डकाव्य का सारांश निम्न है

प्रथम सर्ग (अरावली)

 इस खण्डकाव्य का आरम्भ 'अरावली' सर्ग से होता है, जिसमें अरावली पर्वत श्रृंखला के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन किया गया है। यहाँ आरम्भ में ही स्पष्ट हो चुका है कि मुगल सम्राट अकबर और महाराणा प्रताप के मध्य हल्दीघाटी का युद्ध हो चुका है। महाराणा प्रताप इस युद्ध में पराजित हो गए थे और इस समय उन्होंने अरावली में शरण ली हुई है।

अरावली पर्वत श्रृंखला भारतवर्ष के पश्चिमी भाग में फैली हुई है। शत्रुओं के आक्रमण को झेलकर भी अरावली मेवाड़ की रक्षा का भार सँभालते हुए गर्व से खड़ा हुआ है। इस अरावली पर्वत की भूमि कभी ऋषि-मुनियों और साधु-सन्तों की वेद-वाणी और वैदिक मन्त्रों से गुंजित रहती थी, किन्तु आज यह वीरों की शरण-स्थली है। युद्ध में पराजित राणा अपनी पत्नी लक्ष्मी, पुत्र अमर और धर्मपुत्री (अकबर की पुत्री) दौलत के साथ यहीं रहते हैं। वह विचार कर रहे हैं कि चित्तौड़ का दुर्ग हाथ से निकल गया तो क्या हुआ, अभी मेवाड़ का अधिकांश भाग उनका ही है। उनका प्रण है कि जब तक मातृभूमि मेवाड़ को पूरी तरह स्वतन्त्र नहीं करा लेंगे, तब तक चैन से नहीं बैठेंगे।

भगवान एकलिंग के प्रति गहरी आस्था होने के कारण उनमें देश, जाति और कुल की मर्यादा की रक्षा करने की इच्छाशक्ति और स्वाभिमान बना हुआ है। स्वतन्त्रता के इस असाधारण प्रेमी का मन इतना विशाल है कि वह शरण में आए हुए शत्रु को भी शरण देता है। राणा ने अकबर की पुत्री दौलत को अपनी धर्मपुत्री मानते हुए उसे शरण दी है। राणा प्रताप तुल्य पिता और लक्ष्मी जैसी माँ पाकर दौलत को यहाँ स्नेहपूर्ण वातावरण में अपने सगे-सम्बन्धियों की याद जरा भी नहीं सताती है। यहीं वन में सिसोदिया कुल की लक्ष्मी अपने शिशु को गोद में लिए हुए चिन्तन में डूबी हुई है।

द्वितीय सर्ग (लक्ष्मी)

दूसरे सर्ग में रात्रि के प्राकृतिक सौन्दर्य का चित्रण होने के साथ रानी लक्ष्मी के विविध मनोभावो और उसकी अभावग्रस्त करुण दशा का भी चित्रण हुआ है। पराजय के बाद अरावली पर्वत के गहन वन में महाराणा प्रताप अपनी पत्नी लक्ष्मी, शिशु अमर और दौलत के साथ रहने लगे थे। वहाँ उन्होंने एक कुटी बना ली थी। रानी लक्ष्मी कुटिया के बाहर बैठी हुई थी। रानी लक्ष्मी के भीतर विचारों का तूफान चल रहा था। अपने शिशु का मुख देखकर वह सोच रही थी कि इसका भी कैसा भाग्य है?

जिस कोमल सुकुमार को राजमहल में होना चाहिए था, वह जंगल में मुझ भिखारिन की गोद में पड़ा हुआ है। राणा की सन्तान होकर भी इसे अपनी माँ का दूध भी नसीब नहीं हो रहा है। वह शिशु को भूख से व्याकुल देखकर सोचती है कि- "कर्म-योग तो कोरा आदर्श है। कर्म-योग ही सच्चा दर्शन है। यह संसार भी कैसा है कि अत्याचारी सदा विजयी होते हैं और वीर एवं सदाचारी सदा कष्ट उठाते हैं।" राणा का अपराध बस इतना ही तो है कि उन्होंने अपने स्वाभिमान और देश की रक्षा हेतु परतन्त्रता स्वीकार नहीं की। वह संयमपूर्वक वन के कष्ट और अभाव सहन कर रहे हैं। वह मन-ही-मन कहती है कि मैं भूखी रह सकती हूँ, किन्तु अमर, दौलत और राणा की भूख मुझसे सहन नहीं होती।

फिर वह कुछ सँभलती है और कहती है कि यदि यह सब इसलिए हो रहा है कि हमने पराधीन रहना स्वीकार नहीं किया, तो यही सही। ये कष्ट हमें निर्बल नहीं बना पाएँगे। तभी पर्णकुटी से बाहर निकलकर राणा आए। उन्होंने लक्ष्मी से पूछा कि 'क्या हुआ'? लक्ष्मी अपने आँचल से आँसू पोछते हुए कहती है कि कुछ नहीं और यह कहकर कुटिया के भीतर चली जाती है। उसकी यह करुण दशा देखकर राणा भी दुःखी हो जाते हैं।

तृतीय सर्ग (प्रताप)

 तृतीय सर्ग में महाराणा प्रताप के मन में उठने-गिरने वाले भिन्न-भिन्न मनोभावों को प्रस्तुत किया गया है। लक्ष्मी के भीतर जाने के बाद राणा कुछ देर खोए-खोए से खड़े रहे। फिर उस पेड़ के नीचे चले गए, जहाँ वे दोपहरी बिताया करते थे। वह आँखें बन्द करके अपनी पत्नी लक्ष्मी के बारे में विचार कर रहे थे। उन्हें इस पर बहुत दुःख होता था कि राज भवनों में रहने वाली सिसोदिया कुल की राज-लक्ष्मी मेरे साथ निर्जन वन में रहने और धरती पर सोने के लिए विवश है। फिर वह स्वयं को दृढ़ करते हुए कहते हैं कि लेकिन मुझे तो दृढतापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करना और मेवाड़ को स्वतन्त्र कराना है।

फिर अगले ही पल वह सोचते हैं कि लेकिन यह कैसे सम्भव होगा अकबर ने साम, दाम, दण्ड, भेद की ऐसी नीति चली है कि मुझे छोड़कर अन्य राजपूत उसके माया जाल में फँस गए हैं। क्या राजपूत जाति का गौरव मिट जाएगा?

मानसिंह जैसा वीर भी अकबर का अनुयायी है। शक्तिसिंह जो मेरा ही भाई था, वह भी मेरा द्रोही निकला और अकबर से जा मिला। उससे मुझे द्वेष नहीं है, अपितु दया आती है। फिर उनकी आँखों के सामने हल्दीघाटी के युद्ध का दृश्य छा जाता है। वह याद करते हैं कि उस दिन शक्तिसिंह ने ही मेरे प्राण बचाए थे। वह अपने प्रसिद्ध घोड़े चेतक को भी याद करते हुए कहते हैं “जब हल्दीघाटी खोकर हम अस्त-व्यस्त भागे थे,

तब चेतक ने मुझे बचाकर स्वयं प्राण त्यागे थे।

चेतक! मेरे बन्धु! प्रिय सखा! जन्म-जन्म के साथी

अमर वीर हल्दीघाटी के! ऐसी जल्दी क्या थी?”

उस समय मानो अश्रु बहाकर राणा ने चेतक को श्रद्धांजलि दी। फिर वह सोचते हैं कि यदि उस दिन जरा-सी चूक न हुई होती, तो सलीम बच नहीं पाता और आज मेरी लक्ष्मी को दुःख न उठाना पड़ता। फिर उन्हें दौलत का ख्याल आता है कि जाने क्यों वह आगरा के महलों का सुख

त्यागकर यहाँ वन में पड़ी हुई है। ऐसा लगता है जैसे वह मेरी ही पुत्री हो। अन्ततः वह निश्चय करते हैं कि चाहे कुछ भी हो, वह मेवाड़ को स्वतन्त्र करा कर ही रहेंगे। वह अकबर के सामने न झुकने का पुनः प्रण करते हैं, लेकिन उन्हें यह भी पता है कि अकबर साधन-सम्पन्न है, जबकि उनके पास अपने प्रण को छोड़कर अन्य कोई सम्पत्ति नहीं है। इसलिए वह सिन्धु की ओर प्रस्थान करने का मन बनाते हैं ताकि वह निर्भय होकर साधन एवं शक्ति संचय कर सकें और अकबर को टक्कर दे सकें। उन्हें दौलत का ख्याल आता है कि उसका क्या होगा? पता नहीं वह आजकल किन विचारों में खोई रहती है?

चतुर्थ सर्ग (दौलत)

इस सर्ग में महाराणा की धर्मपुत्री बन चुकी अकबर की पुत्री दौलत का चित्रांकन है। यद्यपि इतिहास में मुगल सम्राट अकबर की पुत्री के रूप में दौलत का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। 'महाराणा प्रताप सिंह' नामक नाटक में द्विजेन्द्रलाल राय ने दौलत के पात्र की कल्पना की है। शायद उसी से प्रेरित होकर कवि ने यहाँ दौलत का चित्रांकन किया है। पर्णकुटी के पीछे एक कुंज में बैठी दौलत अपने ही विचारों में खोई हुई थी। अपने मन में वह सोच रही थी कि वे दिन भी क्या दिन थे, जब वह आगरा के महल में भोग-विलास भरा जीवन व्यतीत करती थी। फिर वह यहाँ वन में क्यों आ गई है? फिर वह स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर देती हुई कहती है कि मुझे वह जीवन कभी पसन्द नहीं था। वहाँ छल-कपट, द्वेष-स्वार्थ बहुत अधिक था। प्यार और सहृदयता नहीं थी। राणा की यह कुटिया महलों से कहीं

अधिक सुखदायक है, क्योंकि यहाँ शान्ति और सन्तोष भरा जीवन है। राणा के रूप में पिता पाकर मैंने अमूल्य निधि पा ली है। मुझे शत्रु की बेटी नहीं, वरन् अपनी ही बेटी मानते हैं। वह सोचती है कि राणा का स्वतन्त्रता प्रेम अतुलनीय है। शत्रु भी इनका यश-गान करते हैं, इसलिए तो मेवाड़ मुकुट कहलाते हैं। शक्तिसिंह भी इन्हीं का भाई है, परन्तु भाई-भाई में बहुत अन्तर है।

“शक्तिसिंह इनका भाई है, सिसोदिया कुल का है, पर भाई-भाई में भी तो अन्तर बहुत बड़ा है।

ये सूरज है, वह दीपक है, ये अमृत, वह पानी,

ये नर-नाहर, वह शृंगाल है, वह मूरख, ये ज्ञानी।" वह अपने मन में शक्तिसिंह के प्रति प्रेम-भाव को स्वीकार करती है, लेकिन उसने यह बात किसी को नहीं बताई, यहाँ तक की राणा को भी नहीं। वह सोचती है कि राणा पहले ही आजकल बहुत परेशान रहते हैं। मुझे उनकी मुश्किल बढ़ानी नहीं चाहिए, वरन् उनकी अनुगमी (आश्रित) बनकर उनकी सहायता करनी चाहिए। राणा जैसा पिता बड़े भाग्य से मिलता है। उनका स्नेह पाकर मैं बहुत सुखी हूँ, लेकिन मैं उनको चिन्तित देखकर व्याकुल हो जाती हूँ।

वह विचार करती है कि अवश्य ही कोई जटिल समस्या आ गई है, जिसके कारण वह आजकल बहुत परेशान और विचलित रहते हैं। वह इन्हीं विचारों में खोई हुई यह सोचती रहती है कि वह उनके लिए क्या कर सकती है। यहाँ इस सर्ग का समापन होता है।

पंचम सर्ग (चिन्ता)

इस सर्ग में दौलत एकान्त में विचारमग्न बैठी थी। वह अचानक राणा की पदचाप सुनकर सँभलकर खड़ी हो जाती है। राणा उसे उदास देखकर उससे उदासी का कारण पूछते हैं। दौलत ने कहा कि आपको पिता के रूप में पाकर मैं अत्यन्त सुखी हूँ, परन्तु मैं बहुत अभागी हूँ, जब से आपके पास आई हूँ, विपदा ही लाई हूँ। आपकी चिन्ता मुझे ग्लानि से भर देती है।

मुझे डर लगता है कि कहीं मेरे कारण मेवाड़ मुकुट का शीश न झुक जाए। इस पर राणा उसे स्नेहपूर्वक समझाते हैं कि बेटी कभी भी पिता की विपदा का कारण नहीं होती। तुझे पाकर मैं बहुत सुखी हूँ, परन्तु तेरी माता के आँसू मुझे बहुत व्यथित करते हैं। यदि तुम उन्हें सँभाल लो तो मेरा शीश महाकाल के सम्मुख भी नहीं झुक सकता। दौलत कहती है कि माँ जितनी कोमल हैं, उतनी ही दृढ़ भी हैं। वह सारे दुःखों को चुपचाप सहन कर लेती हैं। उनके धीर-गम्भीर स्वभाव के कारण मैं उनके पास जाने का साहस नहीं जुटा पाती, परन्तु आज आप साथ है तो मैं अवश्य संकोच त्यागकर उनके सन्ताप को दूर करने का प्रयत्न करूंगी।

उधर रानी लक्ष्मी शिशु को गोद में लिए कुटिया में अकेली बैठी थीं। चिन्तातुर लक्ष्मी सोच रही थी कि महाराज मेरे कारण ही कष्ट में हैं। फिर एक-एक करके वह अतीत की घटनाओं का स्मरण करती है। वह पति के रूप में वीर राणा को पाकर स्वयं को धन्य समझती है, जिन्होंने पराधीनता स्वीकार नहीं की और अब दिन-रात अपनी मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने के प्रयत्न में लगे हुए हैं। भूखे-प्यासे रहकर और वन के कष्ट झेलकर भी उनके स्वाभिमान पर आंच भी नहीं आई। वह गर्वित होकर सोचती है कि राणा का प्रयास अवश्य सफल होगा और यदि हम सफल नहीं हुए तो मृत्यु का वरण करेंगे। जननी और जन्मभूमि तो स्वर्ग से भी बढ़कर होती हैं। इनके लिए सब कुछ न्योछावर करने वाले सदा-सदा के लिए अमर हो जाते हैं। इसी समय राणा के साथ दौलत वहाँ आ पहुंचती है। लक्ष्मी को चिन्तित और व्यथित देखकर वह कहती है

"माँ! किस चिन्ता में एकाकी बैठी हो तुम चुपचाप इधर ? खोए-खोए से पिता अकेले सहते क्यों सन्ताप उधर?

क्यों आज तुम्हारी आँखों में फिर छलके अश्रु? बताओ माँ,

दुःख अपना दे दो मुझे, स्वयं को और न अधिक सताओ माँ।" तब रानी कहती है कि दौलत तू भी पगली है। बेटी माँ के दुःख क्यों झेलेगी? अभागिन तो मैं ही हूँ, मेरे कारण ही आज हम सभी पर मुसीबतें आई हैं। रानी की यह बात सुनकर राणा रोष में आ जाते हैं। वह कहते हैं कि स्वयं को अभागिन क्यों कहती हो। इन कष्टों को हमने स्वयं चुना है। हमें निराश होकर हार नहीं माननी है, वरन् उद्यमशील रहकर मेवाड़ को स्वतन्त्र कराना है। मैंने निश्चय कर लिया है कि अब हम अरावली छोड़कर सिन्धु देश से सैन्य-साधन जुटाएँगे और अकबर से अपना मेवाड़ छीन लेंगे। अब हम निष्क्रिय नहीं बैठेंगे, या तो हम अपने लक्ष्य को प्राप्त करेंगे या स्वयं मिट जाएँगे।

राणा की यह बात सुनकर लक्ष्मी उत्साहित हो जाती है। वह पूछती है कि हमें कब प्रस्थान करना है? महाराणा कहते हैं कि हम कल ही प्रस्थान करेंगे और स्वतन्त्रता की खातिर नए अभियान का शुभारम्भ करेंगे। इस सर्ग में राणा और उनकी पत्नी रानी लक्ष्मी के उच्च मानसिक बल का परिचय मिलता है। वे दोनों स्वतन्त्रता के लिए किसी भी प्रकार का कष्ट सहने के लिए सहर्ष तैयार हैं।

षष्ठ सर्ग (पृथ्वीराज)

घष्ठ सर्ग में पृथ्वीराज की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है। रात बीत गई और सवेरा हुआ। प्रातःकाल के सूर्य की लालिमा चारों ओर फैल गई। पशु-पक्षी नवीन उत्साह के साथ अपने दैनिक क्रिया-कलापों में जुट गए। राणा ने भी नवीन उत्साह के साथ संकल्प किया कि मेवाड़ की मुक्ति के लिए मैं जीवनभर संघर्षरत् रहूंगा। उन्होंने अपने सेवकों के सामने घोषणा की कि हमें शीघ्र ही मरु-भूमि पार कर सिन्धु देश के लिए प्रस्थान करना है और वहाँ रहकर युद्ध के लिए साधन जुटाने है।

सभी यात्रा के प्रबन्ध की तैयारी करने में व्यस्त हो गए। यह सब देखकर रानी लक्ष्मी अति प्रसन्न थी। तभी राणा का अनुचर एक पत्र लेकर उपस्थित हुआ। पत्र पढ़कर राणा कुछ असमंजस में पड़ गए। फिर उन्होंने उसे पृथ्वीराज को बुला लाने के लिए कहा। उन्होंने रानी लक्ष्मी से कहा कि लगता है अकबर ने पृथ्वों से भी छल किया है। जाकर देखता हूँ कि अकबर का यह कवि-सख्खा क्या प्रस्ताव लेकर आया है।

राणा प्रताप को देखते ही पृथ्वीराज उनका अभिवादन करता है और उनकी प्रशंसा करते हुए कहता है कि आपके दर्शन करके मेरा जीवन धन्य हो गया है। हे सिसोदिया कुल भूषण! राजपूतों की लाज केवल आप ही रख सकते हैं। हल्दीघाटी में आपके शौर्य को देखकर मातृभूमि का कण-कण आपका यशोगान कर रहा है। इस पर राणा कुछ रोष में कहते हैं कि जब राजपूतों का ध्वज झुका चा, बप्पा रावल के कुल की मर्यादा पर आघात हुआ था, तब आपको इसका ध्यान नहीं रहा था?

क्या अकबर की मनसबदारी करके, उसकी यशगाथा गाकर राजपूतों के गौरव में वृद्धि हो रही थी? इस तरह इतने दिनों तक मातृभूमि की सेवा करके अब आपने मानसिंह का साथ क्यों छोड़ दिया? वह आगे कहते हैं

"कैसे आज आपको सहसा याद हमारी आई? अहोभाग्य! इस अरावली ने नूतन गरिमा पाई।

पर प्रताप है आज अकिचन, निस्संबल, निस्साधन,

कैसे स्वागत करें? करें कैसे कृतज्ञता ज्ञापन?' पृथ्वीराज, राणा की बात सुनकर उत्तर देता है कि आपने जो भी कहा वह सत्य है। मैं भ्रमवश दिल्लीश्वर को जगदीश्वर समझ बैठा था और उसकी दासता में गर्व अनुभव कर रहा था। स्वार्थ के वशीभूत होकर मैं अपना गौरव भुलाकर स्वयं को उसका दास कहलाने में गर्व करने लगा था, परन्तु सत्य तो यही है कि हमने राजपूतों की आन-बान और शान को कलंकित किया है। अकबर केवल आपको ही अपने जाल में न फंसा सका। आप राम के वंशज हैं, आप उन्हीं के समान

मर्यादा का पालन करने वाले हैं। आप मातृभूमि के सच्चे सपूत हैं। अकबर का यह चारण अपने पाप धोने के लिए आपकी शरण में आया है। पृथ्वीराज का पश्चाताप देखकर राणा द्रवित होकर बोले, तुम्हारा पश्चाताप करना राजपूतों के लिए शुभ संकेत है, लेकिन ऐसी कौन-सी घटना घटी जिसके कारण तुमने अकबर का साथ छोड़ दिया। निर्भय होकर अपने मन की बात बताओ। पृथ्वीराज ने उनको बताया कि अकबर सत्ता के मद में चूर हो रहा है। उसने मेरे

ही कुल की लाज को लूटना चाहा, जो मुझसे सहा नहीं गया। सच तो यही है कि हमने ही उसे इतना शक्तिशाली बना दिया है। इस पर महाराणा प्रताप ने कहा कि जो होना था, सो हो चुका। अब आगे के लिए क्या विचार है? प्रतिशोध लेना है या यूँ श्चाताप करना है? यह सुनकर

पृथ्वीराज को मानो चेतना आई। उसने कहा

"बोले, हाँ प्रतिशोध, मात्र प्रतिशोध लक्ष्य अब मेरा, उसके हित ही लगा रहा हूँ अरावली का फेरा।"

वह कहता है कि मेवाड़ मुक्त हो और अकबर का मनोरथ विफल हो, अब यही मेरा लक्ष्य है। राणा कहते हैं कि केवल मनोरथ करने से ही सफलता नहीं मिलती। कविवर! इस समय परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल नहीं हैं। हम साधनहीन और असहाय हैं। इस प्रकार हम अकबर से टक्कर नहीं ले सकते। तब पृथ्वीराज उत्साह से भरकर कहता है कि यदि संकल्प और उद्देश्य महान् हो, तो साधन स्वयं ही जुट जाते हैं। भामाशाह आपकी सेवा में प्रस्तुत होना चाहते हैं। आप आज्ञा दें तो मैं उन्हें बुलाकर ले आऊँ।

सप्तम सर्ग (भामाशाह)

प्रस्तुत खण्ड में भामाशाह के योगदान का वर्णन किया गया है। पृथ्वीराज के जाने पर महाराणा प्रताप विचारों के सागर में डूब गए। वह सोचने लगे कि क्या इतिहास नया मोड़ लेने वाला है? तभी एकाएक मृगों का एक समूह उनके सामने से चौकड़ी भरते हुए निकल गया। वह सोचने लगे कि प्रकृति ने सभी को स्वतन्त्र बनाया है, फिर दूसरों को परतन्त्र बनाने का अधिकार किसी को नहीं है। दूसरों का शोषण करना और उनको अपना दास बनाना दानवता है। वह आशा से भरकर कहते हैं कि मेवाड़ का भाग्य अवश्य जागेगा और वह स्वाधीन होगा। शायद इसलिए पृथ्वीराज यहाँ तक आए और भामाशाह का सन्देश मुझ तक लाए। तभी भामाशाह प्रस्तुत होते हैं

"जय हो जननी जन्मभूमि की एकलिंग की जय हो।

जय हो सूर्यध्वज की! राणा का प्रताप अक्षय हो।" यह सुनकर राणा चौंक उठे और दुःखी होकर बोले- यहाँ राणा कौन है? यहाँ तो प्रताप अकेला निस्सहाय वन में घूम रहा है और चित्तौड़ पर तो सूर्यध्वज के स्थान पर अकबर का परचम फहरा रहा है, लेकिन मेरा संकल्प है कि मैं मातृभूमि को स्वतन्त्र कराकर रहूँगा और हम फिर वहीं निर्भय होकर निवास करेंगे। भामाशाह कहते हैं कि मेरा भी यही संकल्प है। आपके रहते हमारी मातृभूमि का शीश कदापि नहीं झुक सकता।

मैं आपकी सेवा में साधन लेकर प्रस्तुत हुआ हूँ। आप सैन्य-संग्रह करके शत्रु को रण में परास्त करें। महाराणा प्रताप को भामाशाह से सहायता लेने में संकोच हुआ। वह बोले कि मैं उपहार स्वरूप कुछ नहीं ले सकता। हमारे पूर्वजों ने सदा दिया ही दिया है, लिया नहीं। अत: मैं स्वयं अपने बाहुबल से युद्ध के लिए साधन जुटाऊँगा। मैं अपने कुल की मर्यादा को कलंकित नहीं कर सकता।

इस पर भामाशाह विनीत होकर कहता है कि मेरे पिता-दादा यह जो सम्पत्ति संचित की है, यह आपके कुल के पूर्वजों की ही देन है। यह मेरा सौभाग्य होगा कि मैं आज आपके चरणों में यह सम्पत्ति अर्पित करके आपका ऋण चुका सकूँ। मेरे लिए यह देश सेवा का महान् अवसर है। राणा फिर कहते हैं कि तुम बप्पा के कुल की मर्यादा भली-भाँति जानते हो। राजवंश का दिया हुआ मैं वापस नहीं लूँगा। जब तक प्राण है, मैं देश की सेवा करूंगा।

इस पर भामाशाह ने कहा, देव! क्षमा करें, परन्तु देश-सेवा का अधिकार और कर्तव्य सभी का है। मातृभूमि का ऋण उतार सके, जो, वह धन कहीं नहीं है। यदि देश-हित में थोड़ी भी सहायता कर सका, तो मैं स्वयं को धन्य समझँगा "यदि स्वदेश के मुक्ति-यज्ञ में यह आहुति दे पाऊँ,

पितरों सहित, देव, निश्चय ही मैं कृतार्थ हो जाऊँ यह कहते-कहते उनका स्वर हो आया अति कातर,

साश्रु-नयन गिर पड़े दण्डवत् राणा के चरणों पर।" राणा भामाशाह के निवेदन का उत्तर देने में सकुचा रहे थे। तभी कवि पृथ्वीराज बोल उठते हैं कि शौर्य और गरिमा का ऐसा संगम मिलना कठिन है। धन्य है। मेवाड़ की धरती, जहाँ जीवन के उच्च आदर्श निभाए जाते हैं। भामाशाह से प्रभावित होकर राणा उसे उठाकर गले लगा लेते हैं और कहते हैं कि स्वदेश के लिए अपना सर्वस्व दान देने के लिए तुम्हे युग-युग तक याद किया जाएगा। अब मैं मेवाड़ को छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा और यहाँ रहकर सैन्य बल एकत्र करूंगा। मेवाड़ अवश्य ही स्वतन्त्र होगा। जहाँ भामाशाह जैसे सपूत हों, वह देश अधिक समय तक गुलाम नहीं रह सकता। यहाँ इस खण्डकाव्य का अन्त होता है। इसमें एक ओर महाराणा प्रताप के उच्च मनोबल पर प्रकाश डाला गया है, तो दूसरी ओर भामाशाह के योगदान को रेखांकित किया गया है।

प्रश्न 2. 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य का प्रतिपाद्य विषय क्या है? इसके रचना उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए स्पष्ट कीजिए कि कवि अपने प्रयत्न में कहाँ तक सफल हुआ है? 

अथवा 'मेवाड़ मुकुट' में व्यंजित देशभक्ति-भावना का निरूपण कीजिए।

उत्तर कवि गंगारन पाण्डेय द्वारा रचित 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य में देशभक्ति की महान् भावना का निरूपण हुआ है। कवि ने यहाँ मेवाड़ के महाराणा प्रताप के चरित्र पर प्रकाश डालकर उसे अपने काव्य का प्रतिपाद्य विषय बनाया है। महाराणा प्रताप उन ऐतिहासिक महापुरुषों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी स्वतन्त्रता और स्वाभिमान की रक्षा हेतु अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया था। उन्होंने आजीवन अकबर की पराधीनता स्वीकार नहीं की। इसके लिए उन्हें अनेक कष्ट भी सहने पड़े।

यहाँ तक कि उन्हें अपनी पत्नी और बालक अमर सिंह के साथ वन में एकाकी जीवन बिताना पड़ा, जहाँ वे पर्याप्त भोजन भी नहीं जुटा पाते थे, परन्तु उन्होंने विषम परिस्थितियों का सामना करने पर भी हार नहीं मानी। इस खण्डकाव्य में कवि ने राणा प्रताप के सम्पूर्ण जीवन चरित्र का वर्णन न करके उनके जीवन के एक छोटे से हिस्से को ही प्रस्तुत किया है। इस खण्डकाव्य का आरम्भ हल्दीघाटी में मिली पराजय के साथ होता है और अन्त भामाशाह के द्वारा दिए गए दान के साथ होता है। कवि ने महाराणा प्रताप के जीवन के केवल उस अंश को काव्यवद्ध किया है, जो उनके जीवन का सबसे कठिन समय था। उसका मार्मिक चित्रण करके कवि ने पाठकों को झकझोर दिया है।

इस खण्डकाव्य के माध्यम से कवि अपने पाठकों को स्वतन्त्रता का महत्त्व समझाना चाहता है। उसके लिए देशहित से बढ़कर कुछ नहीं है। उसका उद्देश्य आज के आधुनिक समाज में देशहित को सर्वोपरि समझते हुए उसके लिए सर्वस्व त्याग एवं बलिदान की भावना जगाना है। इस खण्डकाव्य में विभिन्न स्थानों पर स्वदेश प्रेम की उत्कट भावना एवं उसके लिए संघर्ष का प्रण व्यक्त हुआ है, जिससे पाठक प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है।

अतः खण्डकाव्य की उद्देश्य पूर्ति में कवि को पूरी सफलता मिली है। ध्यान रहे कि महाराणा प्रताप और मुगल सम्राट अकबर के मध्य लड़ाई कोई साम्प्रदायिक संघर्ष नहीं था, वरन् अपने-अपने आदर्शों की रक्षा हेतु किया गया संघर्ष था। कवि ने इस खण्डकाव्य के नायक महाराणा प्रताप को 'मेवाड़ मुकुट' कहकर सम्बोधित किया है। मुकुट, व्यक्ति अथवा राष्ट्र के मान-सम्मान का प्रतीक होता है, उसकी आन-बान-शान का द्योतक होता है।

महाराणा प्रताप को ‘मेवाड़ मुकुट' कहना उचित ही है, क्योंकि वह अपनी मातृभूमि मेवाड़ के लिए अन्त तक संघर्षशील रहे। सभी राजपूत राजा एक-एक करके अकबर की पराधीनता स्वीकार कर रहे थे, परन्तु केवल महाराणा प्रताप ने ही यह स्वीकार नहीं किया। वे वास्तव में मेवाड़ की गौरवशाली परम्परा के रक्षक थे। उन्होंने अपनी मातृभूमि का शीश झुकने नहीं दिया।

अतः इस खण्डकाव्य के लिए निर्धारित किया गया शीर्षक 'मेवाड़ मुकुट' पूरी तरह उपयुक्त एवं सार्थक है। इस खण्डकाव्य के लिए इससे उपयुक्त अन्य शीर्षक हो ही नहीं सकता था। इस खण्डकाव्य का दूसरा प्रमुख पात्र ‘भामाशाह' भी प्रेरणादायी है, जिन्होंने संकट के समय अपनी मातृभूमि की सेवा के लिए अपनी तमाम सम्पत्ति उपहारस्वरूप महाराणा को समर्पित कर दी। आज धन के लिए जहाँ भाई-भाई आपस में संघर्ष कर रहे हैं, लड़-मर रहे हैं, वहाँ भामाशाह का चरित्र सभी के लिए प्रेरणादायी है।

चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 3. 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के किसी एक पात्र की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।

अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के नायक का चरित्र चित्रण कीजिए।

अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के प्रधान पात्र की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। 

अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के उस पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए जिसने आपको प्रभावित किया हो। 

 अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के आधार पर महाराणा प्रताप का चरित्रांकन कीजिए।

उत्तर कवि गंगारत्न पाण्डेय द्वारा रचित 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य महाराणा प्रतापको केन्द्र में रखकर लिखा गया है। वही इस खण्डकाव्य के नायक है। उनके चरित्र की उल्लेखनीय विशेषताएँ निम्नलिखित है।

1. मातृभूमि के रक्षक महाराणा प्रताप को अपनी मातृभूमि मेवाड़ से बहुत प्यार है। वह उसकी रक्षा के लिए हल्दीघाटी का युद्ध करते हैं। इस युद्ध में वह परास्त होते हैं, परन्तु वह पुनः अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु तत्पर हो जाते हैं और सैन्य बल जुटाने के लिए प्रयासरत होते हैं। वह अपनी अन्तिम साँस तक मातृभूमि के लिए लड़ते रहते हैं। अपनी मातृभूमि को स्वतन्त्र कराना ही उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य है।

2. शरणागतवत्सल राणा प्रताप शरणागतवत्सल हैं। यह उनके कुल की गरिमा के अनुकूल है। वह अपने शत्रु अकबर की पुत्री दौलत को शरण देते हैं तथा उसे अपनी पुत्री के समान स्नेह करते हैं। इस सम्बन्ध में कवि ने कहा है

“अरि की कन्या को भी उसने रख पुत्रीवत वन में एक नया आदर्श प्रतिष्ठित किया वीर जीवन में।"

3. स्नेहमयी पिता राणा प्रताप स्नेहमयी पिता है। अपने बच्चों को भूख से व्याकुल देखकर उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हो जाती है। स्वयं दौलत उनकी प्रशंसा में कहती है

"सचमुच ये कितने महान् हैं, कितने गौरवशाली। इनको पिता बनाकर मैंने बहुत बड़ी निधि पा ली।।”

4. दृढ़ संकल्पी एवं स्वप्नदृष्टा महाराणा प्रताप महान् स्वप्नदृष्टा थे और अपने सपनों को साकार करने हेतु दृढ़ संकल्पी भी थे। उनका एक ही स्वप्न था- मेवाड़ की स्वतन्त्रता। अपने इस स्वप्न को पूरा करने के लिए उन्होंने आजीवन संघर्ष किया।

उनके बारे में कवि गंगारल पाण्डेय ने इस खण्डकाव्य की भूमिका में हैलिखा

"राणा प्रताप कोरे स्वप्नदर्शी नहीं हैं। ऊँची-ऊँची कामनाएँ और महत्त्वाकांक्षाएँ पालना एक बात है, उन महत्त्वाकांक्षाओं को सफल करने के लिए सुविचारित कदम उठाना बिलकुल अलग बात है। स्वप्नदर्शी कोई भी हो सकता है। अपने सपनों को साकार रूप दे सकने वाले विरले ही होते हैं, क्योंकि इसके लिए जिस त्याग, साहस, शौर्य और धैर्य की आवश्यकता होती है, वह सर्वसुलभ नहीं है।"

5. महापराक्रमी एवं स्वाभिमानी महाराणा प्रताप परम वीर और महापराक्रमी है। चेतक पर चढ़कर जब राणा युद्ध के लिए सज्ज (तैयार) होते थे, तो उनके वीरतापूर्ण स्वरूप पर आँखे ठहर जाती थीं। शत्रु भी उनके पराक्रम और शौर्य की प्रशंसा किए बिना नहीं रहते। उनमें स्वाभिमान की भावना भी बहुत प्रबल थी, इसलिए वह राज्य छिन जाने पर भी अकबर की दासता स्वीकार नहीं करते। स्वाभिमान की रक्षा हेतु वह भामाशाह के प्रस्ताव को भी प्रथम बार अस्वीकार कर देते हैं। विषम परिस्थितियाँ भी उनके स्वाभिमान को हिला नहीं पातीं।

6. स्वाधीनता पूजक महाराणा प्रताप स्वाधीनता के रक्षक एवं पूजक है। जब सारे राजपूत राजा एक-एक करके अकबर की दासता स्वीकार कर रहे थे, तब उन्होंने राजपूतों को उनकी गौरवशाली मर्यादा एवं परम्परा का अहसास कराया। उन्होंने अन्त तक अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और जीवन भर उससे लोहा लिया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि महाराणा एक असाधारण युग पुरुष थे, जिनसे युगों-युगों तक स्वाभिमान, स्वाधीनता एवं आत्मगौरव के लिए सर्वस्व बलिदान करने की प्रेरणा मिलती रहेगी।

प्रश्न 4. 'मेवाइ मुकुट' खण्डकाव्य के आधार पर भामाशाह का चरित्र चित्रण कीजिए। 

अथवा 'मेवाड़ मुकुट' के आधार पर 'भामाशाह' का चरित्र चित्रण कीजिए तथा यह भी बताइए कि उनसे आपको क्या प्रेरणा मिलती है।

उत्तर कवि गंगारल पाण्डेय द्वारा रचित खण्डकाव्य 'मेवाड़ मुकुट' में नायक महाराणा प्रताप के बाद सबसे प्रमुख पात्र भामाशाह ही हैं। भामाशाह मेवाड़ के एक बहुत धनी सेठ थे, जिन्होंने महाराणा की उस समय सहायता की थी, जब वह

साधनहीन होकर विवशता में मेवाड़ को छोड़कर सिन्धु- देश जाने का मन बना चुके थे। उन्होंने मेवाड़ की रक्षा हेतु अपनी सारी सम्पत्ति राणा प्रताप को दे दी थी। उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं 1. परम दानवीर भामाशाह अपनी मातृभूमि की मुक्ति के लिए महाराणा प्रताप को सहर्ष अपनी सारी सम्पत्ति उपहार स्वरूप दे देते हैं। वह अपने पूर्वजों द्वारा

संगृहीत सम्पत्ति को दान में देने से जरा-सा भी संकोच नहीं करते। कवि पृथ्वीराज ने उनकी प्रशंसा में कहा है

धन्य स्वदेश-प्रेम भामा का! धन्य त्याग यह अक्षर ! शिव-दधीचि की गरिमा पा ली, तुमने सब-कुछ देकर।"

2. स्वदेश-प्रेमी केवल देश के लिए लड़ने वाले सैनिक ही देशभक्त नहीं होते, वरन् किसी भी रूप में देश की सेवा करने वाला भी देशभक्त होता है। भामाशाह ने यह सिद्ध कर दिखाया है। मातृभूमि के प्रति अगाध प्रेम होने के कारण ही उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति दान में दे दी। उनका मानना है कि देश के प्रति सभी को अपने कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए। वह कहते हैं

"उसके ऋण से उॠण करे जो वह धन, देव कहाँ है? तन-मन-धन- जीवन सब उसका अपना कुछ न यहाँ है।

अतः विनय है देव, कृपा की कोर करें सेवक पर, धन्य बनूँ मैं भी स्वदेश की थोड़ी-सी सेवा कर।"

3. कर्त्तव्यनिष्ठ भामाशाह का चरित्र एक कर्त्तव्यनिष्ठ व्यक्ति का है। वह देश के प्रति अपने कर्तव्य का भली-भाँति पालन करते हैं

"यदि स्वदेश के मुक्ति-यज्ञ में यह आहुति दे पाऊँ, पितरों सहित देव, निश्चय ही मैं कृतार्थ हो जाऊँ ।”

4. विनम्र भामाशाह का स्वभाव अत्यन्त विनम्र है, साथ ही वह शिष्टाचारी भी हैं। महाराणा प्रताप एक बार तो उनकी सहायता लेने से इनकार कर देते हैं, परन्तु वह अति विनम्र होकर महाराणा को अपना प्रस्ताव स्वीकार करने पर विवश कर देते हैं

"यह कहते-कहते उनको स्वर हो आया अति कातर, साश्रु-नयन गिर पड़े दण्डवत् राणा के चरणों।"

5. अपने राजा के प्रति निष्ठावान भामाशाह अपने राजा महाराणा प्रताप के प्रति सच्ची निष्ठा रखते हैं। उन्होंने संकट के समय अपने राजा की यथासम्भव मदद करके इसका परिचय दिया। वह न केवल आर्थिक रूप से राणा की  सहायता करते हैं, बल्कि उन्हें मानसिक बल भी देते हैं। वे राणा को प्रेरणा

देते हुए कहते हैं

"अविजित हैं, विजयी भी होंगे, देव, शीघ्र निःसंशय। मातृभूमि होगी स्वतन्त्र फिर, हम होंगे फिर निर्भय।।" अपने उपरोक्त गुणों के कारण भामाशाह का चरित्र अनुकरणीय है। उनका चरित्र आज भी उतना ही प्रासंगिक एवं प्रेरणादायी है। आज चारों ओर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। सरकारी अफसर देशसेवा की आड़ में अपने हितों की पूर्ति कर रहे हैं। आज भामाशाह जैसे दानवीरों का अकाल पड़ गया है। निश्चय ही वह एक आदर्श ऐतिहासिक पात्र हैं।

प्रश्न 5. 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के आधार पर किसी नारी-पात्र की चारित्रिक विशेषताओं को लिखिए।

अथना 'मेवाड मुकुट' खण्डकाव्य के आधार पर 'लक्ष्मी' का चरित्र चित्रण कीजिए।

उत्तर लक्ष्मी महाराणा प्रताप की अद्धांगिनी है, जो उनके साथ कष्ट सहते हुए वन-वन भटक रही है। रानी लक्ष्मी की चारित्रिक विशेषताएँ

महाराणा प्रताप की सहधर्मिणी रानी लक्ष्मी की प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. विचारशील रानी होकर भी सपरिवार वन-वन भटकना पड़ रहा है, इस तथ्य पर विचार करती हुई वह सोचती हैं कि शायद यही विधाता की लीला है। पर, क्या इसे विधाता की क्रूरता नहीं मानना चाहिए। वह सोचती हैं

कैसा यह अन्याय है, विधाता! कैसा तेरा कुटिल विधान रोना भी दुर्लभ है जिसमें, हे परमेश्वर हे भगवान।।"

2. भाग्यवादिनी रानी लक्ष्मी भाग्य में विश्वास करती हैं। वह अपने शिशु को गोद में लिए सोचती हैं कि जिसे राजभवन में होना चाहिए था, वह माता के भूखी होने के कारण माँ का दूध पीने को भी तरस रहा है। वह कहती हैं

"बड़ी साध से राजभवन में, यह पाला जाता सुकुमार किन्तु भाग्य में विजन लिख दिया, यह कैसी लीला कर्तार।।"

3. कर्मवाद में आस्था हिन्दू दर्शन कर्मवाद में आस्था रखता है। रानी लक्ष्मी को भी लगता है कि वह जो कुछ भी भोग रही हैं, वह कर्म का परिणाम है। वह कहती है—

कर्म-योग आदर्श मात्र है, कर्म-योग सच्चा दर्शन।"

4. स्वाभिमानिनी भीषण कष्ट सहकर भी रानी लक्ष्मी सन्तुष्ट हैं। उन्हें इस बात का अभिमान है कि भले ही सब-कुछ गवाँ दिया, पर राष्ट्र का गौरव बचा रहा। वह कहती है

"स्वाभिमान सद्धर्म देश को बेच दासता का जीवन नहीं किया स्वीकार, इसी से मिला उन्हें है निर्जन बन।।"

5. वात्सल्यमयी रानी लक्ष्मी को अपने शिशु अमरसिंह से ही नहीं, दौलत (धर्मपुत्री) से भी स्नेह है। वह बच्चों को भूखा देखकर व्यथित होकर कहती हैं

"होती यदि मैं निपट अकेली, निराहार रह जाती। किन्तु अमर, दौलत की, उनकी भूख नहीं सह पाती ।।"

6. आत्मविश्वासी एक सद्गृहिणी के रूप में लक्ष्मी की चिन्ता स्वाभाविक ही है कि उसके रहते पति और पुत्रादि भूखे रहें। पर, उसे विश्वास है कि यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं रहेगी। मेवाड़ स्वतन्त्र होगा और यह दुःखों का सागर भी समाप्त हो जाएगा। वह बड़े विश्वास से कहती हैं कि जो भी होना हो, हो जाए, पर मैं झुकूँगी नहीं। कवि के शब्दों में देखिए

"मुखरित हुए विचार, कहा- रानी ने स्वर ऊँचा कर हमको नहीं डुबा पाएगा यह कष्टों का सागर।।"

निष्कर्ष 'मेवाड़ मुकुट' की लक्ष्मी एक स्नेहमयी माँ और सद्गृहिणी हैं। भीषण कष्टों में रहकर भी उसे अपने पति महाराणा प्रताप और उनके स्वातन्त्र्य-संघर्ष में अपार आस्था है। उनका मानना है कि मेवाड़ अवश्य ही स्वतन्त्र होगा।

   05 'जय सुभाष' खण्डकाव्य

कथासार / कथानक / कथावस्तु / विषयवस्तु पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 1. 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग का सारांश लिखिए।

अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग और तृतीय सर्ग की कथावस्तु अपने शब्दों में लिखिए। 

अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का कथा-सार अपने शब्दों में लिखिए।

अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग का कथानक लिखिए।

अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य की कथावस्तु अपनी भाषा में लिखिए।

अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य की कथा/कथानक / कथावस्तु संक्षेप में लिखिए। 

 अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के सप्तम सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।

अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।

अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का कथानक लिखिए।

 अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के पंचम सर्ग की कथावस्तु लिखिए।

उत्तर 'जय सुभाष' खण्डकाव्य में अमर स्वतन्त्रता सेनानी सुभाषचन्द्र बोस का संक्षिप्त जीवन-परिचय है। विनोदचन्द्र पाण्डेय 'विनोद' द्वारा रचित इस खण्डकाव्य की कथावस्तु सात सर्गों में विभाजित की गई है। इसका सारांश निम्नलिखित है

प्रथम सर्ग

इस खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग के अन्तर्गत सुभाषचन्द्र बोस के जन्म से लेकर उनके द्वारा शिक्षा ग्रहण करने तक की घटनाओं का वर्णन किया गया है। 23 जनवरी, 1897 की तिथि इतिहास में अत्यन्त विशिष्ट है, क्योंकि इसी दिन महान् सेनानायक सुभाषचन्द्र बोस का कटक में जन्म हुआ था। उनके पिता श्री जानकीनाथ बोस तथा माता श्रीमती प्रभावती देवी दोनों इस पुत्र रत्न को पाकर धन्य हुए। सुभाष के रूप में तेजस्वी, सुन्दर और सलोना बालक पाकर घर और बाहर चारों ओर प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। सुभाष की बाल-क्रीड़ाएँ देख-देखकर उनके माता-पिता हर्षित होते रहते थे।

सुभाष के पिता एक प्रबुद्ध तथा महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति थे। उनकी माता एक धर्मपरायण, उदार तथा साध्वी महिला थी। सुभाष के जीवन पर इन दोनों का प्रभाव समान रूप से पड़ा। बचपन में उनकी माता ने उन्हें राम, कृष्ण, अर्जुन, भीम, शिवाजी, प्रताप, महावीर, भगवान बुद्ध, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब आदि महान् व्यक्तियों की कहानियाँ सुनाकर उनमें वीरता तथा साहस के संस्कार भर दिए। इस प्रकार महापुरुषों के जीवन से उन्हें महान् बनने की प्रेरणा मिली। सुभाष के पिता चाहते थे कि वह पढ़-लिखकर उच्च शिक्षा ग्रहण करे। इसलिए पढ़ाई में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा दिखाई और मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की। उनमें सेवा भाव भी कूट-कूटकर भरा हुआ था। एक बार जाजपुर में भयानक रोग फैला तो उन्होंने दिन-रात रोगियों की सेवा की। मातृभूमि की सेवा के लिए ही उन्होंने सुरेश बनर्जी के सम्पर्क में आने के बाद आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा ली। स्वामी विवेकानन्द का आख्यान सुनकर वह सत्य की खोज में भी गए, लेकिन उन्हें सन्तुष्टि नहीं हुई और पुनः आकर पढ़ाई करने लगे। उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। वहाँ 'ओटन' उन्हें पढ़ाता था। वह भारतीयों का अपमान करता था, जिससे आहत होकर सुभाष ने उसे तमाचा जड़ दिया। इस पर उन्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया, परन्तु उन्होंने पढ़ाई जारी रखी और बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहाँ से उन्होंने आई.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की, परन्तु इस पद को त्याग कर वे भारत लौट आए और मातृभूमि के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो गए।

द्वितीय सर्ग

सुभाष के पिता चाहते थे कि सुभाष आई.सी.एस. बनकर कुल का नाम रोशन करें, परन्तु जिस समय सुभाष स्वदेश लौटे, उस समय अंग्रेज़ों का अत्याचार चरम पर था। जनता में भारी रोष था। यह देखकर मातृभूमि की सेवा का व्रत ले चुके सुभाष ने आई.सी.एस. के पद से त्यागपत्र देकर देशबन्धु चितरंजनदास के नेतृत्व में स्वतन्त्रता से सम्बन्धित गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया। देशबन्धुजी ने उन्हें नेशनल कॉलेज का प्राचार्य नियुक्त किया, तो उन्होंने छात्र-छात्राओं में भी स्वतन्त्रता का भाव जगा दिया।

सुभाष के ओजस्वी भाषणों ने नई पीढ़ी को स्वतन्त्रता आन्दोलनों में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उनकी इन गतिविधियों से भयभीत होकर ब्रिटिश सरकार ने देशबन्धुजी के साथ-साथ उन्हें भी बन्दी बना लिया।

कारागार से बाहर आने पर अंग्रेज़ों से लोहा लेने की उनकी भावना और भी बलवती हो गई। उसी समय बंगाल में भयानक बाढ़ आई, तब सुभाष एक बार फिर आम जनता की सेवा में लग गए। कांग्रेस के कार्यक्रमों में भी वे निरन्तर भाग लेते रहे। उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु चितरंजनजी के साथ मोतीलाल नेहरू की स्वराज पार्टी में प्रवेश किया। कलकत्ता की महापालिका के चुनावों में सुभाष ने कई प्रतिनिधियों को जितवाया। चुनाव जीतने पर देशबन्धुजी को नगर प्रमुख बनाया गया तथा सुभाष को अधिशासी अधिकारी नियुक्त किया गया। उन्होंने सिर्फ आधे वेतन पर काम करके दीन-दुःखियों और श्रमिक जनों के कष्टों को दूर करना आरम्भ किया। धीरे-धीरे सुभाष की ख्याति बढ़ने लगी।

ब्रिटिश सरकार यह सहन न कर सकी। उन्हें अकारण ही अलीपुर जेल भेज दिया गया। वहाँ से बरहपुर और फिर माण्डले जेल भेजा गया। माण्डले जेल में उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा तो चारों ओर से उनकी रिहाई की माँग तेज़ हो गई। अन्ततः सरकार को झुकना पड़ा और सुभाष आज़ाद हुए, लेकिन मातृभूमि के लिए सभी कष्टों को सहने वाले सुभाष पहले के समान अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ते रहे।

तृतीय सर्ग

 इस सर्ग में वर्ष 1928 में कलकत्ता में आयोजित किए गए कांग्रेस के अधिवेशन में सुभाषचन्द्र बोस की भूमिका का वर्णन किया गया है। इस अधिवेशन के आयोजन का सारा भार सुभाष पर था, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। इस आयोजन पर देश के कोने-कोने से लाखो नर-नारी कलकत्ता पहुॅचे थे। लोगों में अपार उत्साह उमड़ रहा था। बोस के नेतृत्व में स्वयं सेवकों का दल सारी व्यवस्था सँभाल रहा था।

इस अधिवेशन में पण्डित मोतीलाल नेहरू को अध्यक्ष चुना गया। वे भी सुभाष से प्रभावित हुए बिना न रह सके।

उन्होंने सुभाष को पुत्र समान कहकर उनकी प्रशंसा की तथा स्वयं को देश सेवा के लिए समर्पित कर दिया। अधिवेशन की सफलता ने सुभाष की प्रसिद्धि में और भी वृद्धि की। उन्हें कलकत्ता का मेयर नियुक्त किया गया। यहाँ भी वे निष्ठापूर्वक कार्य करके लोगों की सेवा करते रहे। इसी बीच एक जुलूस निकाला गया। इसमें उन्होंने पुलिस की लाठियाँ भी हँसते-हँसते झेली।

सरकार ने एक बार फिर उनको जेल भेज दिया। नौ महीने के पश्चात् अलीपुर जेल से उनको रिहा किया गया, लेकिन वह कभी अपने कर्त्तव्य से विचलित नहीं हुए। उन्होंने देश के नवयुवकों में स्वतन्त्रता की चिंगारी सुलगा दी। सुभाष के ओज से डरी-सहमी विदेशी सरकार ने उनको पुनः सिवनी जेल में भेज दिया, जहाँ उनका स्वास्थ्य गिर गया। वहाँ से उनको भुगली भेजा गया, परन्तु स्वास्थ्य में कोई सुधार न हुआ। व्याकुल जनता ने अपने नायक को जेल से आज़ाद करने की माँग की, तो फिर उन्हें रिहा किया गया। इस बार सुभाष स्वास्थ्य सुधारने के लिए यूरोप चले गए। पश्चिम के वैभव को देखकर उनके मन में पराधीनता का रोष और भी बढ़ गया। इसी दौरान उनके पिताजी चल बसे।

सुभाष निरन्तर अपने कर्त्तव्य पथ पर चलते रहे। वे वियना गए, जहाँ उन्होंने 'इण्डियन स्ट्रगल' नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक को भारत में प्रतिबन्धित कर दिया गया। विदेश में रहकर भी सुभाष ने देश के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन किया। वर्ष 1936 में सुभाष भारत लौटे, लेकिन आते ही उन्हें जेल में डाल दिया गया। जब वह फिर से बीमार पड़े, तो क्रूर सरकार को झुकना पड़ा। वह फिर यूरोप चले गए। इसके पश्चात् वह पूर्ण स्वस्थ होकर पुनः भारत लौटे।

चतुर्थ सर्ग

इस सर्ग में ताप्ती नदी के किनारे हुए कांग्रेस के इक्यावनवें अधिवेशन के आयोजन का वर्णन किया गया है। विट्ठल नगर में आयोजित किए गए इस अधिवेशन में भाग लेने के लिए सुभाष इक्यावन बैलों के रथ में सवार होकर पधारे थे। वे इस अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने विनम्र होकर सबका धन्यवाद किया और नवयुवको को देशभक्ति के लिए प्रेरित किया। उनके ओजस्वी भाषण को सुनकर सभी जोश और उत्साह से भर गए। उन्होंने सभी धर्मों के लोगों को मिलकर रहने एवं गांधीजी का साथ देने का अनुरोध किया।

उन्होंने नवयुवकों से स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने का आह्वान किया। इस अधिवेशन में नेताजी ने पट्टाभि सीतारमैया को हराया था और वे अध्यक्ष पद के लिए चुने गए थे, परन्तु सीतारमैया की हार को गांधीजी ने अपनी हार बताया। सुभाष नहीं चाहते थे कि कांग्रेस आपस के मतभेदों के कारण दो धड़ों में बंट जाए।

अतः उन्होंने गांधीजी के रोष प्रकट करने पर स्वयं ही कांग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया औ'फॉरवर्ड ब्लॉक' नाम के अलग दल की स्थापना की। उनकी सभाओं में बच्चे, नर-नारी व वृद्ध सभी शामिल होने लगे। वे सभी के प्रिय नेता बन चुके थे। इसके पश्चात् सुभाष ने कलकत्ता में बने हुए एक अंग्रेज़ी स्मारक को हटवाने के लिए आन्दोलन किया, जिसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा। स्मारक तोड़ दिया गया और नेताजी जेल से छूट भी गए, लेकिन जेल से बाहर आने पर अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें उनके घर में ही नज़रबन्द कर दिया। सरकार उन्हें अपने लिए एक बड़ी चुनौती समझती थी।

पंचम सर्ग 

ब्रिटिश सरकार ने सुभाष को नज़रबन्द कर दिया था, जिससे वे बाहरी जगत् से लगभग पूरी तरह कट गए थे। उन तक बाहर का कोई भी समाचार नहीं पहुंच पाता था। यहाँ तक कि उन्हें अपने सम्बन्धियों से भी मिलने की अनुमति नहीं थी। पुलिस दिन-रात उन पर कड़ा पहरा रखती थी। मातृभूमि का सपूत इस प्रकार हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठ सकता था। अतः उन्होंने वहाँ से बाहर निकलने की योजना बनाई। अवसर पाकर उन्होंने दाढ़ी बढ़ा ली और 15 जनवरी, 1941 की आधी रात को मौलवी का वेश धारण कर नज़रबन्दी का पहरा तोड़ कर भाग निकले।

कलकत्ता से वे पेशावर होते हुए काबुल गए और अपने मित्र उत्तमचन्द्र के यहाँ ठहरे। उत्तमचन्द्र ने सच्चे मित्र की भाँति सुभाषचन्द्र का साथ दिया और उन्हें देश से बाहर भेजने में सहायता की। छिपते-छिपाते वे जर्मनी पहुँचे। वहाँ नेताजी ने 'आज़ाद हिन्द फौज' का गठन किया। विदेशों में बसे हुए भारतीयों ने नेताजी का हर प्रकार से साथ दिया। फिर वे जापान होते हुए सिंगापुर भी गए, जहाँ रासबिहारी बोस ने उनका स्वागत किया। दोनों ने मिलकर आज़ाद हिन्द सेना को संगठित किया। इस सेना में सभी वर्गों और धर्मों के नर नारी शामिल थे। इस सेना में नेहरू, गांधी, बोस और आज़ाद नामक चार ब्रिगेड थे। नेताजी के मज़बूत नेतृत्व में इस सेना का हर सिपाही देश की स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने के लिए तैयार था। भिन्न-भिन्न धर्मों के सैनिक होते हुए भी इस सेना में सभी परस्पर प्यार और भाईचारे से मिलजुल कर रहते थे।

षष्ठ सर्ग

 सुभाष की सेना अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर शत्रु पर आक्रमण करने के लिए कमर कस चुकी थी। सिंगापुर में नेताजी ने अपने सैनिकों को सम्बोधित करते हुए कहा, “दो तुम रक्त मुक्ति दूँ तुमको"। दिल्ली के लालकिले पर तिरंगा झण्डा फहराना ही इस सेना का लक्ष्य था, उन्होंने अपनी सेना में अतीत का गौरव और भविष्य के प्रति आशा भरते हुए कहा

"विजय-श्री है तुम्हें बुलाती,वीरों! बढ़ते जाओ।"

नेताजी के इन वचनों का सेना पर गहरा प्रभाव पड़ा और हर सैनिक उत्साह से भर गया। 'जय भारत', 'जय सुभाष', 'जय गांधी' का नारा लगाते हुए सुभाष के नेतृत्व में आज़ाद हिन्द सेना आगे बढ़ने लगी और अंग्रेज़ों से लोहा लेने लगी। 18 मार्च, 1944 को आज़ाद हिन्द सेना ने कोहिमा पर अधिकार कर लिया और 'मोराई टिड्डिम' आदि स्थानों पर से भी अंग्रेज़ों को खदेड़ते हुए अराकान पर अपनी विजय पताका फहरा दी। अपने विजित क्षेत्रों की रक्षा करते हुए आजाद हिन्द फौज के सैनिकों ने उत्साहपूर्वक नए वर्ष 1945 का स्वागत किया।

सप्तम सर्ग

सप्तम सर्ग 'जय सुभाष' खण्डकाव्य का अन्तिम सर्ग है। कवि कहता है कि जय-पराजय, उन्नति-अवनति, सुख-दुःख, उठने-गिरने का क्रम संसार में सदा चलता रहता है। दुर्भाग्य से आज़ाद हिन्द फौज भी शत्रुओं से पराजित होने लगी। रंगून पर अंग्रेज़ों ने पुनः अधिकार कर लिया। से

इसी बीच अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नगरों पर परमाणु बम गिरा दिए। इस नरसंहार को देखकर जापान ने जनहित को देखते हुए अमेरिका के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इससे आज़ाद हिन्द सेना के सैनिक व्याकुल हो उठे। सुभाष भी समझ गए कि इस समय युद्ध करना उनके पक्ष में नहीं है। उन्होंने आज़ाद हिन्द सेना के सैनिकों को अनुकूल समय की प्रतीक्षा करने के लिए कहकर उनसे विदा ली। सैनिकों ने गीले नयनों से अपने सेनानायक को विदा किया।

वे जहाज पर सवार होकर जापान के प्रधानमन्त्री हिरोहितो से मिलने जा रहे थे कि 18 अगस्त, 1945 को उनका जहाज ताइहोक में दुर्घटनाग्रस्त हो गया। जापानी रेडियो ने सबसे पहले यह समाचार दिया कि नेताजी अब इस दुनिया में नहीं रहे, लेकिन भारत में इस समाचार को सत्य नहीं माना गया। आज भी जन-जन में यह चर्चा होती रहती है कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में मारे नहीं गए थे।

यह सच है कि नेताजी कभी मर नहीं सकते। वे हमेशा हमारे दिलों में प्रेरणा का दीपक बनकर जलते रहेंगे। उनके यश की गाथा भारत का इतिहास सदा सुनाता रहेगा। रंगून, सिंगापुर और भारत की माटी सदा उन्हें स्मरण करेगी। यद्यपि सुभाष अंग्रेज़ों पर पूरी तरह विजय प्राप्त नहीं कर पाए, लेकिन भारत की आज़ादी में उनके योगदान को सदा याद किया जाएगा।

नेताजी जैसे युग-पुरुष बहुत कम होते हैं। देश के हर नागरिक को उन पर गर्व है। वीरता और असाधारण प्रतिभा के धनी सुभाषचन्द्र बोस हमें देश के लिए जीने और देश के लिए मरने का सन्देश देते हैं।

 प्रश्न 2. 'जय सुभाष' खण्डकाव्य का उद्देश्य सप्रमाण स्पष्ट कीजिए।

अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य से क्या सन्देश (शिक्षा) मिलता है?

उत्तर कवि विनोदचन्द्र पाण्डेय 'विनोद' द्वारा लिखित 'जय सुभाष' खण्डकाव्य का मुख्य प्रतिपाद्य विषय महान् स्वतन्त्रता सेनानायक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस

का जीवन चरित्र है। इस खण्डकाव्य में कवि ने उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं का संक्षिप्त रूप में वर्णन करते हुए उनके व्यक्तित्व की छवि प्रस्तुत की है।

नेताजी के चरित्र में स्वाभिमान, सेवा-भाव, मातृभूमि के प्रति प्रेम, राष्ट्रीयता, स्वतन्त्रता, दया, सहनशीलता, बौद्धिक प्रतिभा, युद्ध निपुणता, त्याग भावना आदि का अद्भुत समन्वय था। इस खण्डकाव्य में राय बहादुर जानकीनाथ, प्रभावती देवी, बेनीमाधव, महात्मा गांधी, चितरंजनदास, मोतीलाल नेहरू, रासबिहारी बोस आदि महापुरुषों का नाम भी आया है, परन्तु यहाँ उनकी चर्चा सुभाषचन्द्र बोस के व्यक्तित्व को उभारने के सन्दर्भ में ही हुई है। सुभाषचन्द्र ही इस खण्डकाव्य के नायक हैं। अतः इसका केन्द्रबिन्दु वही हैं।

'जय सुभाष' खण्डकाव्य के माध्यम से स्वतन्त्रता के अग्रणी नायक रहे सुभाषचन्द्र बोस को याद करना, उनके योगदान के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना तथा उनकी गौरवगाथा कहकर भारत के प्रत्येक नागरिक को देश-प्रेम की सीख देना ही कवि का उद्देश्य है। कवि ने कहा भी है

“वीर सुभाष अनन्त काल तक, शुभ आदर्श रहेंगे।

युग-युग तक भारत के वासी, उनकी कथा कहेंगे।" नेताजी सुभाष के चरित्र चित्रण द्वारा कवि भारत की युवा पीढ़ी को देश-प्रेम, मानवता, स्वाभिमान, परोपकार आदि उदात्त गुणों को अपनाने के लिए प्रेरित करना चाहता है। उनका चरित्र प्रत्येक दृष्टि से अनुकरणीय है। अतः कवि हर भारतीय में उनकी चारित्रिक विशिष्टताओं को देखना चाहता है। सरल भाषा, किन्तु ओजपूर्ण शैली में लिखा यह खण्डकाव्य अपने उद्देश्यों की पूर्ति में काफी हद तक सफल रहा।

 प्रश्न 3. 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के उन प्रमुख पात्रों का संक्षिप्त परिचय दीजिए, जिन्होंने सुभाष को विशेष रूप से प्रभावित किया।

उत्तर 'जय सुभाष' खण्डकाव्य महान् स्वतन्त्रता सेनानी और नेता, सुभाषचन्द्र बोस के संक्षिप्त जीवन-परिचय पर आधारित है। सुभाष जी जीवन पर्यन्त अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े रहे। उनके जीवन में कुछ ऐसे अवसर भी आए, जिनमें उस समय के कुछ प्रमुख व्यक्तित्वों ने उन्हें प्रभावित किया। उन्हें प्रभावित करने वाले व्यक्तियों में सर्वप्रथम उनके माता-पिता ही थे। इनकी माता श्रीमती प्रभावती देवी एक धर्म-परायण, उदार तथा साध्वी महिला थीं तथा सुभाष जी के पिता श्री जानकीनाथ बोस एक प्रबुद्ध तथा महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति थे। सुभाष जी के जीवन पर इन दोनों का प्रभाव समान रूप से पड़ा। बचपन में उनकी माता उन्हें राम, कृष्ण, अर्जुन, भीम, शिवाजी, प्रताप, महावीर, भगवान बुद्ध, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब आदि महान् व्यक्तियों की कहानियाँ सुनाती थी, जिससे उनमें वीरता तथा साहस के संस्कार आ गए।

इसी प्रकार सुभाषजी अपने जीवन में अनेक महापुरुषों से प्रभावित हुए और उनका अनुकरण करते रहे। सुरेश बनर्जी के सम्पर्क में आने के पश्चात् उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा ली। स्वामी विवेकानन्द के आख्यानों को सुनकर वे मथुरा, हरिद्वार, वृन्दावन, काशी व हिमालय की कन्दराओं में गए। अपने राजनैतिक गुरु देशबन्धु चितरंजनदास के सम्पर्क में आने के पश्चात् उन्होंने उनके नेतृत्व में स्वतन्त्रता से सम्बन्धित गतिविधियों में भाग लेना आरम्भ कर दिया। जर्मनी पहुँचने पर वे रासबिहारी बोस से मिले। वहाँ उन दोनों ने मिलकर आजाद हिन्द सेना का संगठन किया। इस सेना में सभी वर्गों के तथा सभी धर्मों के नर-नारी शामिल थे। इसी प्रकार सुभाषचन्द्र बोस जीवन भर अनेक महान् स्वतन्त्रता सेनानियों के सान्निध्य में रहे और भारत माता की सेवा में रत रहकर उसे गुलामी की जंजीरों से आजादी दिलाने का भरपूर प्रयत्न करते रहे।

चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 4. 'जय सुभाष' के प्रधान पात्र का चरित्रांकन कीजिए।

अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के आधार पर सुभाषचन्द्र बोस का चरित्र चित्रण कीजिए।

'अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के आधार पर सुभाषचन्द्र बोस की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।

अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के नायक की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। 

अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के आधार पर सुभाषचन्द्र बोस का चरित्रांकन कीजिए। 

अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के प्रमुख पात्र (सुभाष) की चारित्रिक विशेषताएँ लिखिए। 

उत्तर 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के रचयिता विनोदचन्द्र पाण्डेय 'विनोद' हैं। इसके नायक महान् स्वतन्त्रता सेनानी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस हैं, उनके चरित्र की उल्लेखनीय विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

1. असाधारण प्रतिभा के धनी सुभाषचन्द्र बोस प्रखर प्रतिभाशाली और बुद्धिमान थे। उनकी कुशाग्र बुद्धि का परिचय बाल्यकाल से ही मिलना आरम्भ हो गया था। उनकी योग्यता एवं उपलब्धियों से उनके माता-पिता और शिक्षकगण सभी प्रभावित थे। उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करके सभी को विस्मित कर दिया। इसके पश्चात् बी.ए. की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की। उन्होंने अपने पिता की इच्छा का मान रखते हुए आई.सी.एस. की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। उस समय आई.सी.एस. की परीक्षा में सफल होना भारतीयों के लिए अत्यन्त कठिन था।

2. समाज सेवक सुभाषचन्द्र बोस ने बचपन में ही अपने गुरु बेनीमाधव के प्रभाव में आकर समाज सेवा का सदगुण अपना लिया था। वह दीन, दुखियों और असहायों की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहते थे। बचपन में जब जाजपुर ग्राम में महामारी फैली तो सुभाष रोगियों की सेवा में दिन-रात जुटे रहे और जाजपुर के रोग-मुक्त होने पर ही घर लौटे। इस प्रकार जब बंगाल प्रान्त में भयंकर बाढ़ आई, तो उन्होंने अपने प्राणों की परवाह किए बिना पीड़ितों को हर सम्भव सहायता पहुँचाई। उनके लिए कवि ने कहा है

 "सेवा करने में सुभाष को मिलता था सुख भारी।

बने रहे वह आजीवन ही, पर सेवा व्रत धारी ।।" 

3. परम देशभक्त और स्वाभिमानी सुभाषचन्द्र बोस में देशभक्ति और स्वाभिमान की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। एक बार कॉलेज में उन्होंने अपने शिक्षक को इसलिए तमाचा जड़ दिया था कि वह भारत और भारतवासियों का अपमान करता रहता था। इसके लिए उन्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया, किन्तु उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। देशभक्ति की भावना के कारण ही उन्होंने आई.सी.एस. के पद से त्याग-पत्र दे दिया। था।

वह जीवनभर अंग्रेज़ों से लोहा लेते रहे। उन्होंने देश-विदेश में रहकर भारत को स्वतन्त्र कराने के सराहनीय प्रयास किए। इसके लिए उन्होंने आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना भी की।

4. ओजस्वी वक्ता एवं लोकप्रिय नेता सुभाषचन्द्र बोस एक ओजस्वी वक्ता थे। उनके भाषण सुनकर बच्चे, बूढ़े, युवक, युवतियाँ सभी जोश और उत्साह से भरकर देश सेवा के लिए समर्पित हो जाते थे। अपने ओजस्वी भाषणों से उन्होंने छात्रों से लेकर आज़ाद हिन्द फौज के सैनिकों को प्रेरित किया। उनके द्वारा दिए गए नारे 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा' को सुनकर आज भी लोग देशभक्ति की भावना से भर जाते हैं।

वे साधारण जनता में अत्यन्त लोकप्रिय थे। वह जहाँ भी जाते थे, वहीं भीड़ जुट जाती थी। उनकी एक आवाज़ पर हो हज़ारों युवक आज़ाद हिन्द फौज में शामिल हो गए थे। जन साधारण का उनके प्रति प्रेम देखकर सरकार को कई बार झुकना पड़ा और उन्हें कैद से रिहा करना पड़ा।

5. नीति-कुशल एवं महान् स्वतन्त्रता सेनानी सुभाषचन्द्र बोस बुद्धिमान होने के साथ-साथ नीति-कुशल भी थे। उनकी नीति-कुशलता केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं थी, वरन् युद्ध में भी दिखाई पड़ती है, उन्होंने विदेश में रहकर भी भारत को स्वतन्त्रता दिलवाने के लिए अनेक प्रयत्न किए। आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना इसी का परिणाम था। उनके कुशल नेतृत्व में इस सेना ने मेघालय को स्वतन्त्र भी करा लिया था। देश को स्वतन्त्र कराने के लिए वह अनेक बार जेल भी गए। अतः वे एक महान् स्वतन्त्रता सेनानी थे, यह स्वयं सिद्ध है।

6. आदर्श नायक सुभाषचन्द्र बोस एक आदर्श नायक थे, उनके चरित्र से हमें सहनशीलता, त्याग- भावना, राष्ट्रीयता, सेवा-भाव आदि की प्रेरणा मिलती है। वह दीन-दुखियों के लिए जितने कोमल हैं, शत्रुओं के लिए उतने ही कठोर हैं। वह भाषण देने में माहिर हैं, तो लड़ने में भी निपुण हैं। उन्होंने 'दि स्ट्रगल' पुस्तक लिखकर सिद्ध किया कि वे कलम और बन्दूक दोनों के सिपाही हैं। अतः उनका चरित्र हर दृष्टि से आदर्श चरित्र है।

“यों तो हुए देश में अगणित स्वतन्त्रता सेनानी। पर उनमें नेता सुभाष - सी कम की दिव्य कहानी ।।"

7. वीर नायक सुभाषचन्द्र बोस की वीरता, साहस, त्याग, उत्साह से सब लोग विस्मित थे। अंग्रेज प्राय: उनसे भयभीत रहते थे। अनेक बार उन्हें जेल में बन्द किया गया। जेल से मुक्त होने के पश्चात् उन्हें अपने घर पर ही नज़रबन्द रखा गया। उनके घर पर शासन का हमेशा पहरा लगा रहता था, पर वे कब चुप बैठने वाले थे। वे अपनी दाढ़ी बढ़ाकर तथा मौलवी का वेश धारण करके वहाँ से भाग निकले। जापान जाकर उन्होंने 'आज़ाद हिन्द फौज' का गठन किया, उन्होंने अपने भाषणों से वहाँ की जनता में नवचेतना जगाई। इस प्रकार सुभाषचन्द्र बोस एक वीर नायक थे।

इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस त्याग, अदम्य साहस, संघर्ष और नेतृत्व क्षमता के मूर्तिमान प्रतीक थे। उनकी ये सभी विशेषताएँ युगों-युगों तक देशवासियों को प्रेरित करती रहेंगी। उनमें एक नायक के सारे गुण विद्यमान थे।

अतः इस खण्डकाव्य का शीर्षक 'जय सुभाष' सर्वथा उचित है।

  06'मातृभूमि के लिए' खण्डकाव्य

कथासार/कथानक / कथावस्तु/ विषयवस्तु पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 1. 'मातृभूमि के लिए' खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग (संकल्प) का सारांश लिखिए।

अथवा 'मातृभूमि के लिए' खण्डकाव्य के आधार पर द्वितीय सर्ग की कथावस्तु का उल्लेख कीजिए।

 अथवा 'मातृभूमि के लिए' खण्डकाव्य के संकल्प सर्ग का कथा-सार लिखिए।

अथवा 'मातृभूमि लिए' खण्डकाव्य की कथावस्तु/कथानक संक्षेप (कथासार) में लिखिए।

अथवा 'मातृभूमि के लिए' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर'मातृभूमि के लिए' नामक खण्डकाव्य 'डॉ. जयशंकर त्रिपाठी' द्वारा रचित है। महान् स्वतन्त्रता सेनानी चन्द्रशेखर 'आज़ाद' के जीवनचरित पर आधारित यह खण्डकाव्य तीन सर्गों में विभाजित है। इसका कथासार निम्नलिखित है

प्रथम सर्ग (संकल्प)

15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्रता मिलने से पूर्व हमारा देश अंग्रेज़ों का गुलाम था। अंग्रेज़ अपने देश ब्रिटेन को समृद्ध करने के लिए हमारे देश की सम्पदा लूट रहे थे। देश के सभी उद्योग-धन्धे, व्यापार आदि नष्ट कर दिए गए थे। राजा-महाराजा अंग्रेज़ों के अनुयायी बनकर भोग-विलास में लिप्त थे। अंग्रेज़ों के अत्याचारों और अन्याय से त्रस्त जनता ने तब स्वयं ही उनका प्रतिकार करने की ठानी। अपनी स्वतन्त्रता एवं अधिकारों को प्राप्त करने के लिए देश के अनेक वीरों ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी।

लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी आदि जैसे महान् नेताओं के नेतृत्व में जनता अंग्रेजी सरकार का डटकर सामना कर रही थी। जब गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन का आह्वान किया तो जनता ने उसमें बढ़-चढ़कर अपना योगदान दिया, लेकिन अंग्रेज़ी सरकार का दमन-चक्र चलता रहा। उसी समय महान् स्वतन्त्रता सेनानी और क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद का नाम प्रकाश में आया। चन्द्रशेखर आज़ाद का जन्म झाबरा ग्राम के एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उस छोटे से गाँव में मुसलमानों और भीलों का आधिक्य था। बड़ा होने पर चन्द्रशेखर को विद्याध्ययन के लिए काशी भेजा गया। बालक चन्द्रशेखर स्वभाव से अत्यन्त सुशील था, परन्तु अंग्रेज़ों के अत्याचार सुन-सुनकर उसका रोष बढ़ता जाता था। तब भारत में रौलेट एक्ट लाया गया। रौलेट द्वारा बनाए गए इस एक्ट में राष्ट्रभक्तों पर राजद्रोह का अभियोग चलाकर दण्ड देने का प्रावधान था तथा उनके लिए जमानत का कोई विकल्प नहीं था।

इसमें सन्देह के आधार पर ही सारी कानूनी कार्यवाही करने का नियम था। कहने के लिए यह जनता के हितों की रक्षा करने के लिए था, परन्तु इसमें ब्रिटेन में बैठी विदेशी सरकार का ही हित निहित था। इस रौलेट एक्ट का देशभर में विरोध किया गया। जगह-जगह सभाएँ आयोजित की गईं। पंजाब में व्यापक स्तर पर जनता का रोष उभरकर सामने आया। वर्ष 1919 के अप्रैल माह में वैशाखी का उत्सव था। इस दिन जलियाँवाला बाग में एक विशाल जनसभा का आयोजन किया गया। इसका उद्देश्य रौलेट एक्ट का विरोध करना था। इसमें महिलाओं, पुरुषों, बच्चों, वृद्धों आदि ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। नेताओं ने भाषण दिए और विदेशी सरकार की निन्दा की। इन सारी गतिविधियों पर अंग्रेज़ी सरकार नज़र रखे सभा अभी चल रही थी कि अचानक गोलियों की बरसात होने लगी। हुए थी।

जनरल डायर के कहने पर लगभग 50 सैनिकों ने जलियाँवाला बाग में एकत्रित लोगों पर अन्धाधुन्ध गोलियाँ चलाईं। इस नर-संहार में हज़ारों लोग मारे गए। इस घटना को इतिहास की क्रूरतम घटनाओं में से एक माना जाता है, लेकिन अंग्रेज़ी सरकार के प्रतिनिधि जनरल डायर को इससे सन्तोष न हुआ। उसने अमृतसर में मार्शल लॉ लगाकर क्रूरता की सारी सीमाएँ तोड़ दीं। वहाँ 150 गज लम्बी एक गली थी। उस गली में दमन के विरोध में एक महिला पर हमला हुआ था। डायर के आदेशानुसार उस गली से गुजरने के लिए भारतवासियों को पेट के बल रेंगते हुए उसे पार करना पड़ता था। छोटा हो या बड़ा, नर हो या नारी, बूढ़ा हो या जवान सभी के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया था।

ये अमानुषिक खबरें अखबारों में छपी। चन्द्रशेखर को अखबार पढ़ने की आदत थी। जब उन्होंने रोज की तरह अखबार पढ़ा, तो अंग्रेज़ों द्वारा दी जाने वाली इन यातनाओं को पढ़कर उनका खून खौल उठा। उन्होंने तभी निश्चय कर लिया कि वे अपने देश को स्वतन्त्र कराकर रहेंगे। वे अपना अध्ययन छोड़कर गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। इस आन्दोलन का दमन करने के लिए अंग्रेज़ों ने फिर क्रूर रास्ता अपनाया, पर जनता को उनकी लाठियों की चिन्ता नहीं थी। अनेक नेताओं के साथ बालक चन्द्रशेखर को भी गिरफ्तार कर लिया गया। सजा देने के लिए चन्द्रशेखर को मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत किया गया। मजिस्ट्रेट ने जब चन्द्रशेखर से उनका नाम पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया- 'आज़ाद'। उन्होंने अपने पिता का नाम स्वाधीन बताया। मजिस्ट्रेट ने कुपित होकर उनको सोलह बेतों की सजा दी। उस समय उनकी आयु केवल पन्द्रह वर्ष थी। उनकी आयु को देखते हुए सोलह बेतों की सजा बहुत अधिक थी। सजा पाकर चन्द्रशेखर बाहर आए तो जनता ने उनको सिर आँखों पर बैठाया। फूल-मालाओं से उनका स्वागत किया गया। इसी घटना के पश्चात् उनका नाम 'आज़ाद' पड़ गया।

द्वितीय सर्ग (संघर्ष)

इस घटना के पश्चात् आज़ाद ने ठान लिया था कि अब तन-मन-धन से मातृभूमि की सेवा करनी है

"आजाद हुआ आजाद पुनः सब बन्धन से बँध गया एक ही बन्धन में, निज जीवन में वह राष्ट्र भक्ति का बन्धन था, सौभाग्य वड़ा जीवन का होता जो त्रिकाल में, त्रिभुवन में।"

आज़ाद ने देश के युवाओं में क्रान्ति की ज्वाला भड़का दी। उनके नाम को सुनकर ही युवक स्वतन्त्रता की खातिर लड़ने को तैयार हो जाते थे। उनके शौर्य और साहस पर मानो प्रकृति भी मोहित हो गई थी। असहयोग आन्दोलन जब मन्द पड़ गया तो आज़ाद-शस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गए। आज़ाद घर-बार सब कुछ छोड़कर ब्रिटिश शासन से टक्कर लेने लगे, उन्होंने अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए पिस्तौल और बमों का निर्माण भी करवाया।

इनके लिए जब धन की आवश्यकता हुई तो आज़ाद ने सरकारी खजानों को लुटवाना आरम्भ कर दिया। आज़ादी की खातिर उन्होंने ड्राइवरी सीखी और पैसे की खातिर एक मठाधीश के शिष्य बने। उन्होंने काकोरी में सरकारी खजाने को लूटा था, जो एक बड़ा कदम था। इस प्रकरण में रोशन, अशफाक और रामप्रसाद बिस्मिल को फाँसी की सजा मिली। बख्शी को आजीवन कारावास मिला तथा अन्य पन्द्रह को तीन वर्ष की कठोर जेल की सजा मिली। आज़ाद और भगतसिंह बच निकले थे। उनके हृदय में क्रान्ति की ज्वाला भड़क रही थी। वे अन्य क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर आगे की योजनाओं पर कार्य कर रहे थे। वर्ष 1928 में साइमन कमीशन भारत आया, जो भारत के झगड़ों व समस्याओं पर विचार करने आया था। उस दल के सारे सदस्य अंग्रेज़ थे। अतः साइमन कमीशन का भारी विरोध हुआ। देश भर में जहाँ-जहाँ साइमन कमीशन गया, उसका भारी विरोध हुआ।

"फिर जहाँ कमीशन गया वहाँ ही तीव्र रोष था बहिष्कार अपमान और जन-रोष मिला, लाठियाँ पुलिस बरसाती, होती जयकारे, शासन की सारी शान और सब जोश हिला।"

स्वयंसेवकों ने भी साइमन कमीशन का विरोध किया, इसका विरोध करने पर लखनऊ में जवाहरलाल नेहरू लाठियों के प्रहार से घायल हुए। उधर लाहौर में लाला लाजपत राय पर भी लाठियाँ पड़ीं। इंगित

"था पुलिस ऑफिसर वहाँ स्काट करके निर्मम प्रहार करवाता रहा खड़े होकर, पंजाब केसरी वयोवृद्ध ने सहन किया मन से, तन से योगी सम परम परे होकर।"

किन्तु बाद में उनका घायल अवस्था में देहान्त हो गया, उनकी मृत्यु से देशभर में शोक छा गया। उस समय पूर्वी भारत में चन्द्रशेखर आज़ाद क्रान्ति की लौ जला रहे थे और पंजाब तथा दिल्ली में सरदार भगतसिंह चन्द्रशेखर आज़ाद और भगतसिंह ने संयुक्त रूप से दिल्ली के फिरोजशाह मेले में क्रान्तिकारियों का सम्मेलन आयोजित किया। इस क्रान्तिकारी सम्मेलन में आज़ाद, बटुकेश्वर, यतीन्द्र, सरदार भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु आदि सभी देशभक्त क्रान्तिकारी आए। उन सबका एक ही लक्ष्य था— अंग्रेज़ी शासन को जड़ सहित उखाड़ फेंकना, इन्होंने मिलकर 'सोशलिस्ट गणतन्त्र सैन्य' की स्थापना की। आज़ाद इस संगठन के नेता चुने गए। इस संगठन के सभी सदस्य स्वतन्त्रता सेनानी थे, किन्तु यह सारी कार्यवाही अत्यन्त गुप्त रूप से हुई थी। एक दिन लाहौर के पुलिस कार्यालय से एक गोरा अफसर निकला। सरदार भगतसिंह और राजगुरु ने उसे लक्ष्य बनाकर गोलियाँ दागीं। अफसर लहूलुहान होकर नीचे गिर पड़ा और मर गया। भगतसिंह और राजगुरु तत्काल वहाँ से भागे, परन्तु पुलिस का एक सिपाही भगतसिंह के पीछे लग गया। आज़ाद उस समय वहीं थे।

उन्होंने उसे देख लिया था। आज़ाद ने उसी क्षण उसे अपनी गोली का निशाना बनाकर ढेर कर दिया। मारा गया गोरा अफसर साण्डर्स था। इस घटना भयभीत होकर विदेशी सरकार ने असेम्बली में 'जनता-रक्षा बिल' लाने की तैयारी की। सरकार की ओर से दो बार यह बिल पेश किया गया, लेकिन विट्ठलभाई की अध्यक्षता में दोनों बार यह बिल पारित न हो सका। उधर अंग्रेज़ी शासन दिनोदिन बढ़ती देशभक्ति की ज्वाला से भयभीत हो रही थी।

इसी बीच 8 अप्रैल को असेम्बली में बम धमाका हुआ। सारा भवन धुएँ से भर गया। बम धमाके की गूँज के साथ-साथ भारतमाता की जय-जयकार के स्वर भी सुनाई दे रहे थे। जयकारे लगाने वाले दो वीर, सरदार भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त थे। दोनों को तुरन्त गिरफ्तार कर लिया गया। पहले उन्हें आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया, परन्तु बाद में लाहौर काण्ड का अभियुक्त भी बनाकर उन्हें राजद्रोह के अपराध में फांसी की सजा दी गई। अब संगठन का सारा कार्यभार आज़ाद पर आ गया था।

"भारत माता का मस्तक अब गर्वोन्न्त था।

पर आँखें थीं आँसू के जल में भीग गई, ये लाल चढ़ गए बलिवेदी पर और इधर था स्वतन्त्रता-रण शेष अभी होना विजयी।"

तृतीय सर्ग (बलिदान)

 इस सर्ग का आरम्भ चन्द्रशेखर आज़ाद और उनके मित्र रुद्र के मध्य हो रहे वार्तालाप से आरम्भ होता है। वे दोनों इस समय सातार नदी के किनारे बैठे हुए हैं। आज़ाद चिन्तामग्न होकर रुद्र से कहते हैं कि आखिर हमारी पावन भूमि कब तक गुलाम रहेगी। तब रूद्र उन्हें समझाते हैं कि हमारे काफी मित्र पकड़े गए हैं, कही तुम भी अत्याचारी अंग्रेज़ों की गिरफ्त में न आ जाओ। अतः इस समय तुम्हें स्वयं को बचाए रखना चाहिए और संगठन की सक्रियता से दूरी बनाकर रखो। शक्ति-संचय करके अकस्मात् ही विस्फोट करना उचित होगा। इससे अंग्रेज़ दहल उठेंगे। आज़ाद गम्भीर होकर उसकी बातें सुन रहे थे।

आज़ाद उसकी बातें सुनकर अधीर हो गए। सूर्य की लालिमा में गुस्से से उनका मुख और भी लाल हो गया। वे कहने लगे, "अंग्रेजों ने अब तक हमें पीड़ा ही दी है। मैं अंग्रेज़ो का शासन समाप्त करके ही रहूँगा। बिस्मिल, अशफाक, रुधिर, खुदीराम बोस, रोशन, यतीन्द्र, बादशाह जफर के बेटे आदि को उन्होंने मार दिया। भगतसिंह और राजगुरु को भी प्राणदण्ड मिला है और अभी कैद में है। इनका बदला लेने के लिए और भारतमाता को स्वतन्त्र कराने के लिए मैं निश्चय ही मज़बूत होकर लडूंगा। मुझे सेना के युवकों को संगठित करना होगा। मैं हाल ही में चटगांव के सूर्यसेन से मिलकर लौटा हूँ। हमारा देश स्वतन्त्र होकर रहेगा।"

तभी उन्हें गणेश शंकर विद्यार्थी के साथ दो वर्ष पूर्व हुई मुलाकात ध्यान में आती है। रुद्र को बताते हुए वे कहते हैं कि कानपुर राष्ट्रसेवकों की संगम-स्थली है। वहाँ 'प्रताप' समाचार पत्र का कार्यालय, जिसके सम्पादक विद्यार्थी जी हैं, क्रान्तिकारियों का आश्रय स्थल है। एक बार फूलबाग में एक सभा हो रही थी। नेता का भाषण हो रहा था। मैं भी श्रोता बनकर सब कुछ सुन रहा था। विद्यार्थी जी को सन्देह हुआ कि नेता की अहिंसा और असहयोग की बातें सुनकर मुझे रोष न आ जाए तथा मैं सभा भंग न कर दूँ। इसलिए वे मुझे नेता की बातों पर ध्यान न देने की सलाह देते हैं, लेकिन उनका यह विचार भ्रम था। मुझे अपनी रक्षा का ध्यान था। जैसे ही लोगों को पता चला कि मैं उस सभा में उपस्थित हूँ, मैं तत्काल सभा से प्रस्थान कर गया। सबको मुझ पर अटल विश्वास और श्रद्धा है। इसलिए मुझे बीती बातों से शिक्षा लेकर संगठन को फिर से खड़ा करना है। वह आगे कहते हैं कि मैं प्रयाग जाकर जवाहरलाल से मिलना चाहता हूँ। फिर कानपुर जाकर पार्टी की सुध लूँगा। प्रयाग में जाकर इस संकट को दूर करने का उपाय सोचूँगा।

अगले दृश्य में चन्द्रशेखर आज़ाद प्रयाग में स्थित अल्फ्रेड पार्क में अपने मित्रों के साथ गम्भीर वार्तालाप कर रहे थे। वह पार्क दिन-रात सूना पड़ा रहता था। शायद वे अपने मित्रों के साथ वहाँ किसी का इन्तजार कर रहे थे, परन्तु अवधि बीत जाने पर उसके न आने पर वहाँ से निकलने वाले थे। उन्हें लगा कि उनके साथ गद्दारी हुई है, तभी पुलिस की गाड़ी वहाँ आकर रुकी। उनका शक सही निकला। उन्होंने उसी क्षण मित्रों को विदा किया और बन्दूक में गोलियाँ भरकर मोर्चा सँभारत पहली ही गोली में उन्होंने एक देशी अफसर का जबड़ा उड़ा दिया, जिसे लिया। देखकर एस.पी. नाटबावर सकते में आ गया। एक घण्टे तक पुलिस और आज़ाद के बीच भयंकर युद्ध हुआ।

"यह एक दण्ड का युद्ध महा विस्मयकारी भयकारी था। इतिहास लगा कहने, ऐसा न लड़ा राघव वनचारी था।" आज़ाद का साहस देखकर पुलिस बल सहम गया था। लड़ते-लड़ते नाटबावर की कलाई भी आज़ाद की गोली से उड़ गई थी।

"भारत की कोटि-कोटि जनता का मुक्ति सिपाही एकाकी,

लड़ता था, साहस था असीम, सीमा थी शासन सत्ता की।" आस-पास का सारा वातावरण गोलियों की आवाज़ से गूंज उठा, लेकिन उधर आज़ाद के पास गोलियाँ खत्म हो गईं। जब एक गोली शेष रह गई तो वह असमंजस में पड़ गए कि क्या पुलिस के हाथों जीवित पकड़ा जाऊँ? परन्तु कुछ क्षण बाद आज़ाद ने पिस्तौल अपनी कनपटी पर तान कर स्वयं को ही गोली मार ली। उनकी इस विस्मयकारी और साहसिक मुत्यु पर अंग्रेज़ अधिकारी नाटबावर को सन्देह था। इसलिए उसने आज़ाद के मृत शरीर के पास पहुँचकर उनके पैर पर गोली मारकर यह परखा कि कहीं वह जिन्दा तो नहीं है। उनकी मृत्यु ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया। अपने इस महान् नायक को खोकर जनता की आँखें गीली थीं। आज भी साधारण जन आज़ाद के नाम को बड़ी श्रद्धा से याद करता है और उनके शौर्य की गाथा गाता है।

मरने पर भी डर रहा, जनरल बन कर क्षुद्र वन्दनीय तुम राष्ट्र के, साहस शौर्य समुद्र गाकर तेरा चरित यह, मिटता हर्ष-विषाद राष्ट्र प्रेम जगता प्रबल, शौर्य-मूर्ति 'आज़ाद'।''

प्रश्न 2. 'मातृभूमि के लिए' खण्डकाव्य के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।

उत्तर 'मातृभूमि के लिए' नामक खण्डकाव्य के नायक प्रसिद्ध क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद हैं। डॉ. जयशंकर त्रिपाठी कृत इस खण्डकाव्य का प्रतिपाद्य विषय उनका ही जीवन-चरित्र है। चन्द्रशेखर आज़ाद का जन्म एक छोटे से गाँव में हुआ था, लेकिन वे केवल अपने गाँव तक ही सीमित नहीं रहे। उनके ओजस्वी एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व ने पूरे भारतवर्ष को उनका दीवाना बना दिया था। इस खण्डकाव्य में कवि ने उनके जीवन की सभी घटनाओं को शामिल न करते हुए संक्षिप्त में ही उनका जीवन परिचय दिया है। कवि ने उनके जीवन के प्रेरणादायी प्रसंगों को अवश्य ही पर्याप्त स्थान दिया है। उनके चरित्र का वर्णन कर आज की

युवा पीढ़ी के मन में राष्ट्र एवं राष्ट्रभक्तों के प्रति सम्मान, श्रद्धा तथा प्रेम का भाव

जगाना ही इस खण्डकाव्य के रचयिता का उद्देश्य है। आज़ाद, भारत के अमर शहीद क्रान्तिकारियों में अग्रणी स्थान रखते हैं। बाल्यकाल से ही क्रान्तिकारी गतिविधियों में संलग्न हो जाने वाले आज़ाद ने निःस्वार्थ भाव से देश-सेवा की। उनका केवल एक ही लक्ष्य था- अपने देश को गुलामी की जंजीरों से आज़ाद कराना। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उन्होंने अपने पारिवारिक, सामाजिक तथा सांसारिक रिश्ते-नातों का भी पूरी तरह से त्याग कर दिया था। उनका पूरा जीवन मातृभूमि के लिए ही था। इस प्रकार 'मातृभूमि के लिए' जीने-मरने वाले इस वीर को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए लिखा गया यह खण्डकाव्य अनुपम है। अतः इस खण्डकाव्य के केन्द्रीय भाव को स्पष्ट करने वाला इसका शीर्षक 'मातृभूमि के लिए' पूरी तरह से सार्थक एवं उपयुक्त है।

चन्द्रशेखर आज़ाद का पूरा जीवन ही प्रेरणादायी है। जिन परिस्थितियों में उन्होंने अंग्रेज़ी सरकार से लोहा लिया और अन्त में लड़ते हुए वीरोचित गति पाई, वह अत्यन्त मार्मिक है। उनका असीम साहस, त्याग, बलिदान और देश-प्रेम हमारे लिए किसी धरोहर से कम नहीं है। आने वाली पीढ़ियों को हमेशा उनसे प्रेरणा मिलती रहेगी। चन्द्रशेखर आज़ाद के योगदान को रेखांकित करते हुए लिखा गया यह खण्डकाव्य युवाओं को प्रेरित करने के उद्देश्य से ही लिखा गया है और अपनी इस उद्देश्य पूर्ति में इसे एक सफल कृति माना जा सकता है।

प्रश्न 2. 'मातृभूमि के लिए' खण्डकाव्य के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।

उत्तर 'मातृभूमि के लिए' नामक खण्डकाव्य के नायक प्रसिद्ध क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद हैं। डॉ. जयशंकर त्रिपाठी कृत इस खण्डकाव्य का प्रतिपाद्य विषय उनका ही जीवन चरित्र है। चन्द्रशेखर आज़ाद का जन्म एक छोटे से गाँव में हुआ था, लेकिन वे केवल अपने गाँव तक ही सीमित नहीं रहे। उनके ओजस्वी एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व ने पूरे भारतवर्ष को उनका दीवाना बना दिया था।

इस खण्डकाव्य में कवि ने उनके जीवन की सभी घटनाओं को शामिल न करते हुए संक्षिप्त में ही उनका जीवन परिचय दिया है। कवि ने उनके जीवन के प्रेरणादायी प्रसंगों को अवश्य ही पर्याप्त स्थान दिया है। उनके चरित्र का वर्णन कर आज की युवा पीढ़ी के मन में राष्ट्र एवं राष्ट्रभक्तों के प्रति सम्मान, श्रद्धा तथा प्रेम का भाव जगाना ही इस खण्डकाव्य के रचयिता का उद्देश्य है।

आज़ाद, भारत के अमर शहीद क्रान्तिकारियों में अग्रणी स्थान रखते हैं। बाल्यकाल से ही क्रान्तिकारी गतिविधियों में संलग्न हो जाने वाले आज़ाद ने नि:स्वार्थ भाव से देश-सेवा की। उनका केवल एक ही लक्ष्य था-अपने देश को गुलामी की जंजीरों से आज़ाद कराना। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उन्होंने अपने पारिवारिक, सामाजिक तथा सांसारिक रिश्ते-नातों का भी पूरी तरह से त्याग कर दिया था। उनका पूरा जीवन मातृभूमि के लिए ही था। इस प्रकार 'मातृभूमि के लिए' जीने-मरने वाले इस वीर को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए लिखा गया यह खण्डकाव्य अनुपम है। अतः इस खण्डकाव्य के केन्द्रीय भाव को स्पष्ट करने वाला इसका शीर्षक 'मातृभूमि के लिए' पूरी तरह से सार्थक एवं उपयुक्त है।

चन्द्रशेखर आज़ाद का पूरा जीवन ही प्रेरणादायी है। जिन परिस्थितियों में उन्होंने अंग्रेजी सरकार से लोहा लिया और अन्त में लड़ते हुए वीरोचित गति पाई, वह अत्यन्त मार्मिक है। उनका असीम साहस, त्याग, बलिदान और देश-प्रेम हमारे लिए किसी धरोहर से कम नहीं है। आने वाली पीढ़ियों को हमेशा उनसे प्रेरणा मिलती रहेगी। चन्द्रशेखर आज़ाद के योगदान को रेखांकित करते हुए लिखा गया यह खण्डकाव्य युवाओं को प्रेरित करने के उद्देश्य से ही लिखा गया है और अपनी इस उद्देश्य पूर्ति में इसे एक सफल कृति माना जा सकता है।

चरित्र चित्रण पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 3. 'मातृभूमि के लिए' खण्डकाव्य के आधार पर 'चन्द्रशेखर आज़ाद का चरित्र चित्रण कीजिए।

अथवा 'चन्द्रशेखर आजाद उत्कृष्ट देश प्रेमी थे।' खण्डकाव्य के आधार पर पुष्टि कीजिए। 

अथना 'मातृभूमि के लिए खण्डकाव्य के किसी एक पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए।

 अथवा 'मातृभूमि के लिए खण्डकाव्य के आधार पर नायक का चरित्रांकन कीजिए।

 अथना 'मातृभूमि के लिए खण्डकाव्य के नायक की चारित्रिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर डॉ. जयशंकर त्रिपाठी द्वारा रचित 'मातृभूमि के लिए खण्डकाव्य अमर स्वतन्त्रता सेनानी चन्द्रशेखर आज़ाद को केन्द्र में रखकर लिखा गया है। वे इस खण्डकाव्य के नायक हैं। उनके चरित्र की प्रमुख अनुकरणीय विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. प्रभावशाली व्यक्तित्व ब्राह्मण परिवार में जन्मे चन्द्रशेखर आजाद का व्यक्तित्व अत्यन्त प्रभावशाली था। वह राष्ट्रभक्त अति बाँका था।' कहकर कवि ने उनके शारीरिक सौन्दर्य की छवि प्रस्तुत की है। इसके अतिरिक्त, व्यावहारिक रूप से भी उनका व्यक्तित्व चुम्बक के समान आकर्षक था। उनके एक आह्वान पर हज़ारों युवक स्वतन्त्रता के खातिर अपने प्राणों की बाजी लगाने के लिए तैयार हो जाते थे।

2. महान् क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद बचपन से ही क्रान्तिकारी स्वभाव के थे। जलियाँवाला बाग और 150 गज लम्बी गली को पेट के बल रेंग कर पार करने की घटनाओं ने उनके भीतर सोए हुए क्रान्तिकारी को जगा दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे काशी में अध्ययन को छोड़कर असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। बाद में उन्होंने क्रान्तिकारी दल 'सोशलिस्ट गणतन्त्र सैन्य' नामक दल की स्थापना की। उन्होंने बम फैक्ट्री की स्थापना भी की थी। उनके नेतृत्व में सरकारी खजाने लूटे गए। लाला लाजपतराय की हत्या का बदला भी उन्हीं की प्रेरणा से लिया गया था।

3. साहसी एवं निर्भीक चन्द्रशेखर आज़ाद के साहस की तुलना किसी अन्य वीर से करना बेईमानी होगी। मात्र पन्द्रह वर्ष की उम्र में मिली सोलह बेतों की सजा को भी उन्होंने हँसते-हँसते झेला था। मजिस्ट्रेट द्वारा नाम पूछने पर उन्होंने अपना नाम 'आज़ाद' और पिता का नाम 'स्वाधीन' बताया था। उनकी इस निर्भयता से कुपित होकर ही मजिस्ट्रेट ने उनको सोलह बेतों का कड़ा दण्ड दिया था। उनके साहस से अंग्रेज़ी सरकार भी सदा आतंकित रहती थी "जननी का एक लाल इसमें सागर-सी वाणी जिसकी थी, सुन करके जिसका उग्र रोष, सरकार बितानी काँपती थी।" अल्फ्रेड पार्क में शहीद होने से पूर्व उन्होंने अकेले ही अंग्रेज़ सैनिकों से टक्कर ली। अंग्रेज़ों में उनका खौफ था कि वे आज़ाद के मृत शरीर के पास आने की हिम्मत भी बड़ी मुश्किल से जुटा पाए थे।

4. महान् देशभक्त एवं स्वतन्त्रता सेनानी आज़ाद में देशभक्ति की भावना बहुत प्रबल थी। वह अपनी मातृभूमि के प्रति अगाध स्नेह रखते थे और इसे स्वतन्त्र कराने के प्रति दृढ़ निश्चयी थे। देश को स्वतन्त्र कराने के लिए उन्होंने अपनी पढ़ाई भी बीच में ही छोड़ दी थी। स्वतन्त्रता संग्राम में पड़ने वाली ज़रूरत को देखते हुए ही उन्होंने ड्राइवरी भी सीखी। मात्र 25 वर्ष की आयु में ही शहीद हो जाने वाले आज़ाद अन्त तक मातृभूमि के प्रति अपने कर्तव्य को निभाते रहे। उनका कथन था

"उनके हित कमर कहूँगा मैं, अंग्रेज़ों पर बरखूँगा मैं, करके स्वतन्त्र भारत माँ को, जननी की गोद बसूँगा मैं।"

5. त्यागी एवं बलिदानी आज़ाद ने मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने का प्रण लिया था, इसके लिए उन्होंने सब कुछ त्याग दिया था और अन्त में मातृभूमि के लिए लड़ते हुए ही वीरगति को प्राप्त हुए।

"माता थी पड़ी गाँव में, भाई-पिता कहीं,

'आज़ाद' राष्ट्र की बलिवेदी पर खड़े हुए

भारत की ब्रिटिश हुकूमत की आँखों में थे जीवन जीये थे भल्ल-नोक से अड़े हुए।"

6. संगठन की अद्भुत शक्ति चन्द्रशेखर आज़ाद में एक नेता के सभी गुण विद्यमान थे। 'सोशलिस्ट गणतन्त्र सैन्य' दल की स्थापना का श्रेय उन्हीं को जाता है। इस संगठन का मुखिया भी उन्हें ही चुना गया। इस दल के सभी कार्य उन्हीं की देख-रेख में होते थे। भगतसिंह ने भी आज़ाद से ही प्रेरणा पाई थी।

“संगठन शक्ति का, पैसे का, वे करते थे व्यक्तित्व खींचता था चुम्बक-सा अमृत-सा 'तुम' पण्डित जी से मिलो, राह आज़ादी की बतलाएँगे हर युवक बोलता निश्चित-सा।"

7. वीर एवं स्वाभिमानी वीरता का गुण चन्द्रशेखर आज़ाद में जन्म से ही था। सोलह बेतों की सजा मिलने पर भी उनके मुख से 'भारत माता की जय' के नारे निकलते रहे। सरकार उन्हें जीवित पकड़ना चाहती थी, लेकिन परम स्वाभिमानी आज़ाद को यह कभी भी स्वीकार्य नहीं था। अपने और अपनी मातृभूमि के स्वाभिमान की रक्षा हेतु उन्होंने अन्तिम गोली स्वयं को ही मारकर वीरगति पाई। उनकी वीरता के किस्से सुनकर सरकार भी उनसे सहमी-सहमी रहती थी।

"जिसके साहस का लोहा अब इतिहास बन गया धरती पर 'आज़ाद' वीर ने शेष एक गोली ली तान कनपटी पर।”

चन्द्रशेखर आज़ाद के इन गुणों से स्पष्ट होता है कि वे एक उत्कट (महान्) देश-प्रेमी थे। त्याग, बलिदान, साहस, शौर्य, राष्ट्र-प्रेम, संघर्षशीलता आदि उनके चरित्र के अनुकरणीय गुण हैं। इस दृढ़-संकल्पी महान् क्रान्तिकारी से हमें मातृभूमि से प्रेम करने एवं उसके लिए अपना सब कुछ समर्पित करने की प्रेरणा मिलती है। वे आज भी हर हिन्दुस्तानी के हृदय पर राज करते हैं।

         07 'कर्ण' खण्डकाव्य

कथासार/कथानक /कथावस्तु/ विषयवस्तु पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 1. 'कर्ण' खण्डकाव्य के तृतीय तथा चतुर्थ सर्ग की कथा लिखिए। 

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य की कथावस्तु संक्षेप में अपनी भाषा में लिखिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य की कथावस्तु/कथानक संक्षेप में लिखिए। 

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' द्वारा रचित 'कर्ण' एक खण्डकाव्य है, जिसका प्रमुख पात्र महाभारत का सबसे उपेक्षित और तिरस्कृत चरित्र कर्ण है। इस खण्डकाव्य की मूलकथा महाभारत से ही ली गई है। इस खण्डकाव्य को सात सर्गों में विभाजित किया गया है, इनके नाम क्रमश: रंगशाला में कर्ण, द्यूत-सभा में द्रौपदी, कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान, श्रीकृष्ण और कर्ण, माँ-बेटा, कर्ण-वध और जलांजलि हैं।

प्रथम सर्ग

इस सर्ग में कर्ण के जन्म एवं आरम्भिक जीवन का वर्णन है। कुन्ती को सूर्यदेव की आराधना करने के कारण कौमार्यावस्था में ही पुत्र के रूप में कर्ण की प्राप्ति हुई, परन्तु कुल की मर्यादा ने उसकी ममता का गला घोंट दिया। वह अपने पुत्र का लालन-पालन न कर सकी। विवशतापूर्वक उसने कर्ण को त्याग दिया। अधिरथ नाम के सूत और उसकी पत्नी राधा ने बड़े स्नेह से कर्ण को अपनाया और उसका पालन-पोषण किया। राधा द्वारा पालन किए जाने के कारण कर्ण 'राधेय' कहलाया, परन्तु सूत-पुत्र होने के कारण उसे अत्यधिक अपमान सहना पड़ा। उसे रंगशाला में कृपाचार्य और पाण्डवों के व्यंग्य वचन सुनने पड़े। द्रौपदी ने भी उसे सूत-पुत्र कहते हुए उससे विवाह करने से इनकार कर दिया। पाण्डवों से अपमानित होने के पश्चात् दुर्योधन ने उसे अपना मित्र बनाया और उसे अंगदेश का राजा घोषित किया, परन्तु इसमें दुर्योधन का स्वार्थ निहित था।

द्वितीय सर्ग

इस सर्ग में द्रौपदी के अपमान का वर्णन है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होने आए दुर्योधन को मायावी महल के कारण स्थल और जल में भ्रम हो गया और वह जल में गिर गया। इस पर द्रौपदी को हँसी आ गई और उसने दुर्योधन पर व्यंग्य किया। द्रौपदी द्वारा अपमानित होने पर दुर्योधन से रहा न गया और उसने प्रतिशोध लेने के लिए पाण्डवों को द्यूत खेलने के लिए निमन्त्रित किया। छल से दुर्योधन ने द्यूत में युधिष्ठिर को हरा दिया। युधिष्ठिर अपना सब कुछ हार गए। उन्होंने द्रौपदी को अन्तिम दाँव पर लगाया, परन्तु दुर्भाग्यवश वह उसे भी हार गए।

दुर्योधन ने दुःशासन से द्रौपदी को राज-सभा में लेकर आने का आदेश दिया। द्रौपदी ने स्वयं की रक्षा करने का प्रयत्न किया, परन्तु दुस्साहसी दुःशासन उसके बाल पकड़कर घसीटते हुए उसे राज-सभा में लाया। विकर्ण ने इस प्रकार कुल-वधू का अपमान करने की निन्दा की, परन्तु कर्ण ने उसे रोक दिया। द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का आदेश दिया गया। कर्ण ने इस नीच कार्य में दुर्योधन और दुःशासन का साथ दिया, जो उसके जीवन का सबसे बड़ा अधर्म एवं घृणित कार्य था।

तृतीय सर्ग

इस सर्ग में कर्ण द्वारा कवच और कुण्डल दान करने के प्रसंग का उल्लेख हुआ है। कर्ण अर्जुन को मारने का प्रण कर चुका था, जिसे जानकर धर्मराज युधिष्ठिर और देवराज इन्द्र दोनों ही चिन्तित थे। इन्द्र ने ब्राह्मण का वेश धारण कर कर्ण से उसका कवच-कुण्डल दान में माँगने का षड्यन्त्र रचा, क्योंकि कवच और कुण्डल के रहते हुए कर्ण को परास्त करना असम्भव था। सूर्यदेव ने पूर्व में ही स्वप्न में आकर कर्ण को बता दिया था कि इन्द्र तुम्हारा कवच-कुण्डल माँगने आएँगे, जिन्हें तुम देने से इनकार कर देना, परन्तु कर्ण दानवीर था। वह किसी भी भिक्षुक को निराश नहीं करने का प्रण कर चुका था। अतः जब इन्द्र ब्राह्मण बनकर उसका कवच-कुण्डल माँगने आए, तो उसने सहर्ष इसे इन्द्र को दान में दे दिया। इससे इन्द्र भी उसकी दानवीरता से प्रभावित हुए बिना न रह सके।

चतुर्थ सर्ग

इस सर्ग में श्रीकृष्ण और कर्ण का संवाद है। युधिष्ठिर के कहने पर श्रीकृष्ण शान्ति दूत बनकर दुर्योधन को समझाने के लिए हस्तिनापुर पधारे, परन्तु दुर्योधन को युद्ध के अतिरिक्त और कुछ स्वीकार नहीं था। अन्ततः श्रीकृष्ण ने टालने की इच्छा से कर्ण को समझाया कि वह दुर्योधन का साथ छोड़ दे और उसे युद्ध यह भी बताया कि वह कुन्ती- पुत्र है। अतः पाण्डवों से जाकर मिल जाए, को कर्ण दुर्योधन का साथ छोड़ने के लिए तैयार न हुआ। उसने श्रीकृष्ण से यह भी लेकिन कहा कि युधिष्ठिर के सम्मुख यह भेद प्रकट न करना, क्योंकि वह उसे राज्य सौंप देगा जो अनुचित होगा। कर्ण ने यह भी माना कि जब तक श्रीकृष्ण पार्थ के साथ हैं, तब तक पार्थ का कुछ भी अनिष्ट नहीं हो सकता, लेकिन फिर भी वह अर्जुन-वध के प्रण से पीछे नहीं हटा।

पंचम सर्ग

इस सर्ग में कुन्तीं और कर्ण का संवाद प्रमुख है। भीषण युद्ध को रोकने हेतु कुन्ती स्वयं कर्ण के पास गई। उसने युद्ध रोकने की आशा से कर्ण को यह भेद बता दिया कि वह उसी का पुत्र है और पाण्डव उसके भाई हैं, परन्तु कर्ण ने कुन्ती को भी है वही उत्तर दिया जो श्रीकृष्ण को दिया था। कुन्ती की निराशा देखकर उसने कुन्ती को यह वचन दिया कि वह अर्जुन को छोड़कर किसी अन्य पाण्डव का वध नहीं करेगा। अर्जुन अथवा कर्ण दोनों में से किसी एक की मृत्यु के पश्चात् भी उसके पाँच पुत्र ही बने रहेंगे।

षष्ठ सर्ग

यह सर्ग इस खण्डकाव्य का सबसे मार्मिक अंश है। युद्ध में भाग लेने से पूर्व घायल पितामह भीष्म ने भी कर्ण को यही परामर्श दिया कि वह दुर्योधन का साथ छोड़कर अपने भाइयों के पक्ष में चला जाए, परन्तु कर्ण ने दुर्योधन की मित्रता का उपकार मानते हुए और अपने प्रण को स्मरण करते हुए इसे अस्वीकार कर दिया। अन्त में वही हुआ, जिसका कर्ण को पूर्वाभास था। जब कर्ण भूमि में धँसा हुआ अपने रथ का पहिया निकाल रहा था, तब अर्जुन ने श्रीकृष्ण का संकेत पाकर उसका वध कर दिया और इस प्रकार महाभारत के इस परमवीर पात्र का दुःखद अन्त हो गया।

सप्तम सर्ग

इस खण्डकाव्य का अन्तिम भाग है, जिसमें युद्ध के पश्चात् युधिष्ठिर द्वारा अपने सभी भाइयों और सम्बन्धियों का जलदान करने का वर्णन है। कुन्ती उसे कर्ण का भी जलदान करने को कहती है। इस पर युधिष्ठिर को आश्चर्य होता है, तब कुन्ती सबके सामने इस सत्य को उजागर करती है कि कर्ण उसी का ज्येष्ठ पुत्र था। यह जानकर युधिष्ठिर, कर्ण का भी जलदान करते हैं, परन्तु अपने ही बड़े भाई का वध करने की उन्हें घोर ग्लानि होती है, जो उन्हें जीवनभर व्यथित करती रही।

इस खण्डकाव्य का मुख्य उद्देश्य मूल रूप से महाभारत के सबसे उपेक्षित एवं तिरस्कृत पात्र कर्ण की महिमा को स्थापित करना है, परन्तु कवि यह भी मानता है कि वह महावीर और दानवीर होने के साथ अहंकारी भी था। इसीलिए तो उसने द्यूत सभा में दुर्योधन को उत्साहित किया और द्रौपदी के अपमान में सहभागी बना।

खण्डकाव्य की भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है। कवि ने क्लिष्ट शब्दों से बचने का प्रयास किया है तथापि कहीं-कहीं थोड़े बहुत कठिन शब्द आ गए हैं, परन्तु इससे विशेष कठिनाई नहीं होती। कुल मिलाकर कथानक एवं भाषा-शैली के दृष्टिकोण से यह खण्डकाव्य सुन्दर बन पड़ा है।

प्रश्न 2. 'कर्ण' खण्डकाव्य के किसी एक सर्ग की कथावस्तु लिखिए।

अथवा केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' द्वारा रचित 'कर्ण' खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग का कथानक अपने शब्दों में लिखिए। 

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग का सारांश लिखिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के रचनाकार का नाम बताते हुए क्रमशः सभी सर्गों का नामोल्लेख कीजिए।

'अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य की सबसे प्रभावशाली घटना का वर्णन कीजिए।

प्रथम सर्ग

उत्तर 'कर्ण' खण्डकाव्य के रचनाकार केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' हैं। यह खण्डकाव्य सात सर्गों क्रमश: रंगशाला में कर्ण, द्यूत-सभा में द्रौपदी, कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान, श्रीकृष्ण और कर्ण, माँ-बेटा, कर्ण-वध और जलांजलि में विभाजित है। इस खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग (रंगशाला में कर्ण) का सारांश निम्न है

सूर्यदेव की आराधना के फलस्वरूप विवाह से पूर्व ही कुन्ती को एक पुत्र रत्न प्राप्त हुआ। उस क्षण कुन्ती उस पुत्र का तेज और भोलापन देखकर निहाल हो उठी, परन्तु अगले ही क्षण उसे कुल की मर्यादा और सामाजिक नियमों का ध्यान हो आया। कौमार्यावस्था में ही सन्तान को जन्म देने के कारण कुन्ती और उसके कुल परिवार को सामाजिक रूप से अपमानित होना पड़ता। इसी भय से उसने अपनी ममता का गला घोटते हुए अपने ही हाथों से उस पुत्र को नदी की धारा में बहा दिया। ऐसा करते हुए उसका मन ग्लानि से भर उठा, परन्तु वह विवश थी। बहते-बहते वह शिशु अधिरथ नाम के एक सूत को मिला।

अधिरथ और उसकी पत्नी राधा ने उस पुत्र को अपनाकर प्रेमपूर्वक उसका लालन-पालन किया। राधा का पुत्र होने के नाते वह 'राधेय' कहलाया। अधिरथ और राधा को कहाँ पता था कि कर्ण के रूप में उन्हें एक अनमोल रत्न मिला है, जो इतिहास में दानवीर कर्ण के नाम से जाना जाएगा और महाभारत का एक प्रमुख पात्र होगा। यह एक विडम्बना ही थी जो एक क्षत्रिय और राजपुत्र था, वह सूत-पुत्र कहलाया तथा जीवन में पग-पग पर उसे घृणा, अनादर, अवहेलना, तिरस्कार और अपमान के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिला। एक बार बचपन में

कर्ण रंगशाला पहुँच गया, परन्तु राजपुत्र न होने के कारण कृपाचार्य ने उसे उत्सव में भाग न लेने दिया। पाण्डवों ने भी उसका उपहास किया। "हिंसा ने अर्जुन की वाणी में अपना मुँह खोला

कर्ण नीच राधेय, भीम का गर्व तड़प कर बोला" भरी सभा में केवल सूत- पुत्र होने के कारण अपमानित होने पर कर्ण क्रोध और क्षोभ से भर उठा। कर्ण की वीरता से प्रभावित होकर दुर्योधन ने अवसर का लाभ उठाया और उसे अंग देश का राजा घोषित कर दिया। वह कर्ण की वीरता को भाँप गया था। उसने कर्ण को यह कहकर सांत्वना एवं सहारा दिया

"सूत-पुत्र अब तुम्हें कहे जो उससे युद्ध करूंगा उसके अभिमानी मस्तक पर अपना चरण धरूंगा।"

उस समय कर्ण ने स्वयं को तेजहीन अनुभव किया, परन्तु कृतज्ञतापूर्वक उसने दुर्योधन की मित्रता स्वीकार की। कर्ण के जीवन में ऐसे और भी अवसर आए, जब उसे सूत-पुत्र होने के कारण अपमानित होना पड़ा। द्रौपदी के स्वयंवर में जब कर्ण लक्ष्य-वेध करने के लिए आगे बढ़ा, तब द्रौपदी ने भी उसका तिरस्कार करते हुए कहा

"सावधान, मत आगे बढ़ना होनी थी जो हो ली

सूत-पुत्र के साथ न मेरा गठबन्धन हो सकता

क्षत्राणी का प्रेम न अपने गौरव को खो सकता।"

उस समय कर्ण अपने क्रोध को पी गया, परन्तु महाभारत को जन्म देने वाली घटनाओं का तो प्रारम्भ हो चुका था। 

प्रश्न 3. 'कर्ण' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग का सारांश लिखिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर दुर्योधन का द्रौपदी से रुष्ट होने का कारण स्पष्ट कीजिए। '

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर 'द्यूत सभा' में द्रौपदी की दशा वर्णन कीजिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर द्यूत सभा प्रसंग का वर्णन कीजिए।

द्वितीय सर्ग

उत्तर 'कर्ण' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग का नाम 'द्यूत सभा में द्रौपदी' है। इस सर्ग में 'द्यूत सभा' का प्रसंग आया है। इसका सारांश निम्नलिखित है द्रौपदी के स्वयंवर में पाँचों पाण्डव भी ब्राह्मण वेश में उपस्थित थे। अवसर मिलने पर ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन ने लक्ष्य-वेध दिया और द्रौपदी ने उनके गले में वरमाला पहना दी। शीघ्र ही यह भेद खुल गया कि लक्ष्य-वेध करने वाला ब्राह्मण कोई अन्य नहीं, वरन् पाण्डु पुत्र अर्जुन है। द्रौपदी पाँचो पाण्डवों की पत्नी बनकर हस्तिनापुर पधारी। विदुर आदि के समझाने से युधिष्ठिर को आधा राज्य भी मिल गया। पाण्डवों ने आधा राज्य स्वीकार किया और इसके पश्चात् उन्होंने सफलतापूर्वक राजसूय यज्ञ किया।

इससे दुर्योधन का मन पाण्डवों के प्रति द्वेष से भर उठा। इस पर एक और अप्रिय घटना घटित हो गई, जिससे वह क्रोध से जलने लगा। पाण्डवों के महल में उसे यह भ्रम हुआ कि जल के स्थान पर स्थल है और वह जल में गिर गया। यह देखकर द्रौपदी ने उस पर व्यंग्य किया। दुर्योधन ने इसे अपना अपमान समझा और इसका प्रतिशोध लेने का प्रण किया। इसके लिए उसने हठपूर्वक पाण्डवों को द्यूत खेलने के लिए निमन्त्रित किया। धर्मराज अपने चारों भाइयों और पत्नी द्रौपदी सहित हस्तिनापुर पधारे और द्यूत खेला। इसमें वे अपना राज्य, धन-सम्पत्ति, सभी भाइयों और पत्नी द्रौपदी को भी हार गए। दुर्योधन ऐसे ही किसी अवसर की प्रतीक्षा में था। उसने द्रौपदी से अपने अपमान का बदला लेने के लिए दुःशासन को द्रौपदी को द्यूत सभा में लेकर आने का आदेश दिया। द्रौपदी ने दुःशासन को रोकने का प्रयास किया, परन्तु वह उसके बाल पकड़कर घसीटते हुए उसे वहाँ ले आया। दास बन चुके पाण्डव दुःशासन और दुर्योधन को रोक न सके। इस पर असहाय पांचाली ने सभी सभाजनों और धर्मराज से प्रश्न किया "तनिक विचारे धर्मराज ने लाई नीति कहाँ की

अपने को ही हार गए अधिकार कौन फिर बाकी

शेष न जब अधिकार मुझे कैसे हारे वे, बोलो।"

परन्तु पांचाली को किसी से कोई उत्तर न मिला। दुर्योधन के भाई विकर्ण ने अवश्य सभी के सामने कुल-वधू को अपमानित करने की निन्दा की और इस घृणित कार्य को रोकने का प्रयास किया, परन्तु स्वयंवर में द्रौपदी के व्यंग्य वचनों से आहत कर्ण ने विकर्ण को शिशु कहकर उसकी बात को अनसुना कर दिया। दुर्योधन और

दुःशासन को उत्साहित करते हुए उसने कहा कि जिसके पाँच-पाँच पति हो, वह कुल की लाज नहीं, अपितु वेश्या और छलना है। केवल यही नहीं, उसने आगे कहा

"दुःशासन! मत ठहर वस्त्र हर ले कृष्णा के सारे वह पुकार ले रो-रोकर चाहे वह जिसे पुकारे। "

यह सत्य है कि कर्ण वीर, धीर, दानी और तेजस्वी था, परन्तु उसका यह कृत्य उसके

जीवन का सबसे बड़ा अधर्म था, जिस पर वह पश्चात् में पछताता रहा। इस पर कवि

ने भी कहा है कि

"सत्य कि तुम थे कर्मवीर बल वीर धर्मधारी भी

दानी और महादानी, पर महा अहंकारी भी।" अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।

प्रश्न 4. 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण की दानशीलता का उल्लेख कीजिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण की दानशीलता का संक्षेप में वर्णन कीजिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए। 

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग की कथावस्तु का वर्णन कीजिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का कथानक/कथावस्तु अपने शब्दों में लिखिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान के प्रसंग का वर्णन कीजिए।

अथना 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण' 'कवच-कुण्डल दान' का वर्णन कीजिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान की कथा का वर्णन कीजिए। 

अथना 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर उन परिस्थितियों का वर्णन कीजिए, जिनमें कर्ण ने अपने कवच-कुण्डल का दान किया। इससे कर्ण के चरित्र की कौन-सी विशेषता उजागर होती है ? 

तृतीय सर्ग

उत्तर कर्ण ने 'महाभारत' में समय-समय पर अपनी दानशीलता का परिचय दिया है, परन्तु प्रस्तुत खण्डकाव्य 'कर्ण' के तृतीय सर्ग में हमें कर्ण की परम दानशीलता का परिचय मिलता है।

'कर्ण' खण्डकाव्य का तृतीय सर्ग दानवीर कर्ण के कवच-कुण्डल दान करने प्रसंग से सम्बन्धित है। इसका सारांश इस प्रकार है

जुए में अपना सब कुछ हारने के पश्चात् युधिष्ठिर अपने भाइयों और पत्नी द्रौपदी सहित वनों में भटकने लगे। इधर दुर्योधन ने वैष्णव यज्ञ सम्पन्न करके सम्राट की उपाधि प्राप्त की। दुर्योधन सम्राट बनकर प्रसन्न था, साथ ही उसकी प्रसन्नता का एक कारण और भी था। कर्ण ने अर्जुन को मारने का प्रण किया था "जब तक न करूँ, जब तक अर्जुन के हरून प्रान तब तक जो भी जो कुछ माँगे दे दूँगा वह दान

तब तक मांस और मदिरा दोनों गो-रक्त समान

तब तक चरण न धुलवाऊँगा जो भी हो परिणाम। " कर्ण की इस भीषण प्रतिज्ञा को सुनकर दुर्योधन को बहुत खुशी हुई, क्योंकि पाण्डव पक्ष में अर्जुन ही उसका सबसे प्रबल शत्रु था। दूसरी ओर युधिष्ठिर कर्ण की प्रतिज्ञा सुनकर चिन्तित थे, क्योंकि वे जानते थे कि कर्ण एक महान् योद्धा है और वह अपने इस प्रण को पूरा कर सकता है। कौरव पक्ष में भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा आदि एक से बढ़कर एक वीर थे, परन्तु कर्ण उन सभी में अद्वितीय था। युधिष्ठिर यह भी जानते थे कि जब तक कर्ण के पास दिव्य कवच और कुण्डल है, तब तक उसे परास्त करना असम्भव है। कर्ण के प्रण को सुनकर देवराज इन्द्र भी चिन्ता में पड़ गए, क्योंकि वे अर्जुन के पिता थे। उन्होंने अर्जुन को बचाने के लिए कर्ण से कवच और कुण्डल दान में माँगने का निश्चय किया। वे जानते थे कि कर्ण दान पाने की इच्छा से आए हुए किसी भी व्यक्ति को निराश नहीं करता था। इन्द्र के इस षड्यन्त्र को सूर्य ने जान लिया। उन्हें भी अपने पुत्र कर्ण की चिन्ता थी। अतः उन्होंने कर्ण को स्वप्न में आकर सारी बात बता दी और कवच-कुण्डल देने से मना कर दिया, परन्तु कर्ण ने यह कहकर सूर्यदेव की बात मानने से इनकार कर दिया कि

"ब्राह्मण माँगे दान, कर्ण निज हाथों को मोड़ उन्हें वज्र से इसके पहले ही वह देगा तोड़।'

सूर्यदेव ने उसे समझाने का प्रयत्न किया, परन्तु सब विफल रहा और जब इन्द्र ब्राह्मण के वेश में कर्ण के सम्मुख कवच-कुण्डल दान में पाने की आशा में उपस्थित हुए, तो कर्ण ने सहर्ष देवराज इन्द्र की इच्छा पूर्ण कर दी। कर्ण जानता था कि कवच और कुण्डल के बिना अर्जुन उस पर हावी हो सकता है, परन्तु कर्ण ने अपने सामर्थ्य पर विश्वास रखते हुए दान देने का अपना प्रण पूरा किया। वह जान गया था कि इन्द्र ही ब्राह्मण वेश में आए हैं तथापि उसने इन्द्र को निराश नहीं किया। इन्द्र की इच्छा तो पूरी हो गई, परन्तु तब इन्द्र को लगा कि मानो वही ठगे गए हैं। उन्होंने कर्ण की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की। इस पूरे प्रसंग से कर्ण की दानवीरता का पता चलता है। उसने जीवनभर अपने इस प्रण का पूरी निष्ठा से पालन किया।

 प्रश्न 5. 'कर्ण' खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग की कथा लिखिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग 'श्रीकृष्ण और कर्ण का लिखिए। 

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग का कथासार अपने शब्दों में लिखिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग का कथानक लिखिए।

 अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग का सारांश लिखिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर श्रीकृष्ण और कर्ण के बीच हुए वार्तालाप को अपने शब्दों/संक्षेप में लिखिए।

अथवा "जिसके सहायक कृष्ण हो, सर्वदा उसी की जय है।"-'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर उक्त कथन की पुष्टि कीजिए। "यों न उपेक्षित होता मैं, यो भाग्य न मेरा सोता।

अथवा स्नेहमयी जननी ने यदि रचक भी चाहा होता।" उक्त कथन की सार्थकता सिद्ध कीजिए।

चतुर्थ सर्ग

उत्तर 'कर्ण' खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग का नाम 'श्रीकृष्ण और कर्ण' है। इस सर्ग का कथानक निम्न है पाण्डव अधिकारस्वरूप अपना छिना हुआ राज्य माँगते हैं, परन्तु कौरवों को यह स्वीकार नहीं है। दोनों पक्षों की ओर से युद्ध की तैयारियाँ होने लगी। भीषण युद्ध की सम्भावना देखकर युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से युद्ध टालने का अनुरोध किया और उनसे विनती की कि वह शान्ति दूत बनकर हस्तिनापुर जाएँ और दुर्योधन को समझाने का प्रयत्न करें।

श्रीकृष्ण ने शान्ति दूत बनने का प्रस्ताव स्वीकार किया और हस्तिनापुर पहुंचे। उन्होंने अनेक प्रकार से दुर्योधन को सुमार्ग पर लाने की कोशिश की, परन्तु सब व्यर्थ सिद्ध हुआ। दुर्योधन युद्ध करने की ठान चुका था। लौटते समय श्रीकृष्ण ने संकेत करके कर्ण को अपने पास बुलाया और अपने रथ पर बिठाया। उन्होंने बड़े ही प्यार से कर्ण को समझाया कि दुर्योधन स्वार्थी, दुराचारी और अधर्मी है। उसका साथ छोड़कर तुम पाण्डवों के पास आ जाओ, क्योकि पाण्डव तुम्हारे भाई हैं।

उन्होंने रहस्य से पर्दा हटाते हुए कर्ण को बताया कि तुम राधेय नहीं, कौन्तेय हो और पाण्डवों के ज्येष्ठ भ्राता हो। युधिष्ठिर सहर्ष तुम्हें सम्राट पद दे देगा। तुम इस प्रकार इस भयंकर युद्ध को रोक सकते हो। श्रीकृष्ण की बात सुनकर कर्ण की आँखो से आँसू बहने लगे। उसने कृष्ण से प्रश्न किया कि यदि ऐसा ही था तो क्यों मुझे जीवनभर सूत-पुत्र होने का अपमान सहना पड़ा? यदि रंगशाला में ही यह भेद खुल गया होता, तो मुझे भरी सभा में अपमानित न होना पड़ता। उसने आगे कहा

"यो न उपेक्षित होता मैं, यो भाग्य न मेरा सोता।

स्नेहमयी जननी ने यदि रंचक भी चाहा होता।।

घृणा, अनादर, तिरस्क्रिया। यह मेरी करुण कहानी।

देखो, सुनो, कृष्ण! क्या कहता इन आँखों का पानी।" कर्ण ने दुर्योधन का साथ छोड़ने से मना कर दिया, क्योंकि दुर्योधन का उस पर उपकार था। इस पर श्रीकृष्ण ने उसे समझाया कि युद्ध में निश्चित रूप से पाण्डवों की विजय होगी। तुम अर्जुन को मारने का अपना प्रण पूरा नहीं कर पाओगे। यह सुनकर कर्ण ने कहा कि मैं जानता हूँ कि जिधर आप होंगे, विजयश्री उसी ओर होगी, परन्तु मैं अपने मित्र दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ सकता हे कृष्ण! यह भी हे मत कहो कि अर्जुन दुर्दम है, वीरों में उत्तम है। यदि तुम अर्जुन का साथ न दो, तो वह वीरों की दुनिया का एक भिखारी मात्र है। मेरे पास अब कवच-कुण्डल नहीं हैं, परन्तु अब भी मैं अर्जुन को परास्त कर सकता हूँ, तथापि मैं यह भी जानता हूँ कि आप पाण्डवों के साथ हैं, इसलिए अर्जुन अवश्य ही मेरा काल बनेगा। अन्त में कर्ण ने श्रीकृष्ण से निवेदन किया कि आप युधिष्ठिर समेत सभी पाण्डवों को यह न बताना कि मैं उनका ज्येष्ठ भ्राता हूँ। यह जानकर युधिष्ठिर मुझे ही राज-पाट सौंप देगा और मैं वह दुर्योधन को दे दूंगा। अन्त में, वह पांचाली के प्रति किए गए अधर्म और अत्याचार पर घोर दुःख व्यक्त करता है। श्रीकृष्ण ने कर्ण को दुराग्रही कहा, परन्तु कर्ण दुर्योधन का साथ छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ।

प्रश्न 6. 'कर्ण' खण्डकाव्य के पंचम सर्ग की कथा संक्षेप में लिखिए।

  'कर्ण' खण्डकाव्य के पंचम सर्ग के कथानक / कथा का सारांश लिखिए। 

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के पंचम सर्ग की घटनाओं का उल्लेख कीजिए। 

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कुन्ती और कर्ण के बीच हुए वार्तालाप का विवरण दीजिए।

पंचम सर्ग

उत्तर 'कर्ण' खण्डकाव्य के पंचम सर्ग का नाम 'माँ-बेटा' है, जिसमें युद्ध पूर्व कुन्ती और कर्ण के बीच का संवाद है। इसका कथानक इस प्रकार है महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने में केवल पाँच दिन शेष रह गए थे। इस युद्ध में कुरु-वंश का सर्वनाश निश्चित था। इसलिए कुन्ती की चिन्ता दिन-रात बढ़ती जा रही थी। वह कर्ण की ओर से भी चिन्तित थी कि कहीं भाई के हाथों भाई की हत्या न हो जाए। उसने इस विनाश को रोकने का निश्चय किया और कर्ण के पास पहुँची। उसने कर्ण को सत्य बताने का निश्चय किया। कुन्ती को सहसा अपने पास आए देख कर्ण चौक गया, परन्तु अपने आप को सँभालते हुए उसने कहा "सूत-पुत्र राधेय आपको करता देवि! प्रणाम

कैसे इधर महारानी आ गई, कहें क्या काम?" यह सुनकर कुन्ती ने कहा कि तुम राधेय नहीं, कौन्तेय हो और युधिष्ठिर के बड़े भाई हो। मुझे 'माँ' कहकर तृप्त करो और अपने भाइयों के साथ आकर मिल जाओ। कुन्ती के मुख से यह सत्य सुनकर कर्ण के नेत्र क्रोध से लाल हो गए और क्रोध एवं ग्लानि से उसका शरीर काँपने लगा। उसने कहा कि आज अपने पुत्रों पर काल मँडराता देखकर तुम मेरे प्रति मिथ्या स्नेह प्रकट करने आई हो! तब तुम्हारा पुत्र प्रेम कहाँ था, जब भरी सभा में मेरा अपमान और तिरस्कार हो रहा था। उस दिन तुमने क्यों नहीं कहा कि मैं तुम्हारा पुत्र हूँ? आज तुम मुझे कर्म-सुकर्म की शिक्षा दे रही हो, लेकिन जननी होकर ही तुमने मेरे साथ छल किया और मेरे जीवन को नरक बना दिया। तुमने मुझे छला और अब यह चाहती हो कि तुम्हारे

समान मैं भी अपने मित्र को छलूँ? लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकता। कर्ण के इन क्रोधपूर्ण वचनों को सुनकर कुन्ती व्यथित हो उठी और उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। यह देखकर कर्ण बहुत दुःखी हुआ। वह सोचने लगा कि यद्यपि मैंने सूत-पुत्र होने के कारण पग-पग पर तिरस्कार, उपहास और विषाद ही पाया है, परन्तु यह भी विडम्बना ही होगी कि एक माँ अपने पुत्र के पास से निराश लौट जाए।

यह विचार करते हुए उसने कुन्ती से कहा कि मैं जानता हूँ कि आप क्या आशा लेकर मेरे पास आई हो? इसलिए तुम्हे वचन देता हूँ कि मैं अर्जुन को छोड़कर

किसी अन्य पाण्डव पुत्र का वध नहीं करूंगा, परन्तु अर्जुन को नहीं छोड़ेंगा। यदि मैं अर्जुन के हाथों मारा गया तो तुम्हारे पाँच पुत्र बने रहेंगे और यदि मेरे हाथों अर्जुन मारा गया तो तुम मुझे अपना लेना, तब भी तुम्हारे पुत्रों की संख्या पाँच ही रहेगी। तुम्हारे पुत्रों की गिनती नहीं बिगड़ेगी। कुन्ती कर्ण की बात सुनकर चुपचाप लौट गई, परन्तु कर्ण विचारों के सागर में खो गया।

 प्रश्न 7. 'कर्ण' खण्डकाव्य के षष्ठ सर्ग की कथावस्तु अपने शब्दों में लिखिए। 

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के षष्ठ सर्ग का सारांश/कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण-वध का वर्णन कीजिए। 

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर भीष्म पितामह तथा कर्ण के बीच हुए संवाद का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। 

अथवा "वीर कर्ण पर ही कुछ सेना की विजय निर्भर थी।" 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर स्पष्ट कीजिए।

अथना 'कर्ण' खण्डकाव्य के षष्ठ सर्ग का सारांश लिखते हुए श्रीकृष्ण के कथन "युद्ध क्षेत्र में नहीं धर्म से नाता जोड़ा जाता।" के औचित्य पर प्रकाश डालिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण-वध' की मार्मिकता का चित्रांकन कीजिए।

षष्ठ सर्ग

उत्तर 'कर्ण' खण्डकाव्य का षष्ठ सर्ग 'कर्ण वध' इस पूरे काव्य का सबसे मार्मिक अंश है। इसका सारांश इस प्रकार है

अन्ततः युद्ध होना निश्चित हो ही गया। कौरवों की ओर से पितामह भीष्म सेनापति बनाए गए और पाण्डवों की ओर से द्रुपद-पुत्र धृष्टद्युम्न ने यह भार संभाला। भीष्म पितामह ने यह घोषणा कर दी कि सेनापति रहते हुए वह कर्ण को भाग लेने की अनुमति नहीं देंगे, क्योंकि उसने द्रौपदी के साथ हुए अत्याचार में दुर्योधन का साथ दिया है। युद्ध में

"कुरु सेना में हैं अनेक बल वीर और बलिदानी किन्तु कर्ण ही अर्धरथी है एक नीच अभिमानी।"

कर्ण ने भी निश्चय किया कि गंगापुत्र भीष्म के युद्ध क्षेत्र में रहते हुए मैं शस्त्र नहीं उठाऊँगा। अगले दिन भीषण युद्ध प्रारम्भ हो गया। निरन्तर युद्ध चलता रहा। दसवें दिन गंगापुत्र अर्जुन के बाणों से घायल हो गए और शरशय्या ग्रहण की। भीष्म के घायल होने का समाचार पाकर कर्ण से रहा नहीं गया और वह उनसे मिलने पहुंचा। पितामह ने प्रेमपूर्वक उसका स्वागत किया तथा दानवीर और धर्मवीर कहकर उसकी प्रशंसा की। उन्होंने इस बात पर भी खेद प्रकट किया कि तुम कौन्तेय हो, यह जानते हुए भी मैंने सूत-पुत्र कहकर तुम्हारा तिरस्कार और अपमान ही किया है। इसका मुझे बहुत दुःख है। आज बेटा कहकर तुम्हे जी भरकर निहारना चाहता हूँ। मेरा उद्देश्य बस केवल यही था कि तुम दुर्योधन का साथ छोड़ दो और भाई-भाई एक-दूसरे के विरुद्ध खड़े न हो। आज मैं देख रहा हूँ कि महाविनाश होने वाला है। तुम दुर्योधन का साथ छोड़कर अपने भाइयों से जा मिलो। इसी में सभी का कल्याण है। यह सुनकर कर्ण से रहा न गया। उसने कहा कि पितामह मैं जानता हूँ कि पाण्डव मेरे भाई हैं, परन्तु मैं अपने प्रण से बंधा हुआ हूँ।

अतः दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ सकता। मैं यह भी जानता हूँ कि अर्जुन के साथ गोविन्द है। अतः अर्जुन को हरा पाना असम्भव ही है, परन्तु मैं फिर भी अपने साहस का त्याग नहीं करूंगा और अर्जुन को मारने का अपना प्रण पूरा करने का प्रयास करूंगा। पितामह ने कर्ण के साहस की प्रशंसा करते हुए उसे उसके मार्ग पर आगे बढ़ने का आशीर्वाद दिया। भीष्म के पश्चात् द्रोणाचार्य सेनापति बने।

पन्द्रहवें दिन द्रोणाचार्य वीरगति को प्राप्त हुए। तब सोलहवें दिन कर्ण को सेनापति बनाया गया। यह जानकर धर्मराज युधिष्ठिर को अर्जुन की चिन्ता हुई। कर्ण के नेतृत्व में कौरव सेना ने उत्साहपूर्वक युद्ध करना प्रारम्भ किया। कुन्ती को अब भी पाण्डवों की चिन्ता थी, परन्तु वचन का धनी कर्ण अपना प्रण नहीं भूला था। उसने अवसर पाकर भी युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव का वध नहीं किया। उधर भीम के पुत्र घटोत्कच ने कौरव की सेना में हाहाकार मचा रखा था।

उसे रोकने के लिए कर्ण को विवशतापूर्वक इन्द्र द्वारा दी गई अमोघ शक्ति का प्रयोग करना पड़ा। अब यह निश्चित हो चुका था कि अर्जुन की विजय तय है। दिन अभी थोड़ा शेष था, सन्ध्या होने वाली थी। कर्ण भूमि में फँसा हुआ अपना पहिया निकाल रहा था। तभी अर्जुन ने कर्ण पर प्रहार करना चाहा, परन्तु उसे शस्त्रहीन और रथविहीन देखकर स्वयं को रोक लिया, परन्तु तब श्रीकृष्ण ने कहा

"रथारूढ़ हो, या कि विरथ हा रिपु कब छोड़ा जाता युद्ध-क्षेत्र में नहीं धर्म से नाता जोड़ा जाता।"

अर्थात् अधर्मी शत्रु का वध करना ही सबसे बड़ा धर्म है, फिर चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हो? तब अर्जुन ने तीर छोड़ दिया और कर्ण वीरगति को प्राप्त हुआ। कर्ण जैसे परमवीर और दानवीर की मृत्यु पर श्रीकृष्ण भी स्वयं को रोक नहीं सके।

“रथ से उतर जनार्दन दौड़े आँखों में जल धारा

'कर्ण हाय वसुसेन वीर' कह बारम्बार पुकारा।" इस प्रकार महाभारत के इस प्रमुख, परन्तु उपेक्षित पात्र का अन्त हुआ।

प्रश्न 8. 'कर्ण खण्डकाव्य के आधार पर सप्तम सर्ग का कथा-सार लिखिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के सप्तम सर्ग की कथा/कथानक संक्षेप में लिखिए।

अथना 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर सप्तम सर्ग का सारांश एवं उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।

अथना 'कर्ण' खण्डकाव्य के अन्तिम सप्तम सर्ग का मार्मिक चित्रांकन (सारांश) लिखिए।

अथना युधिष्ठिर द्वारा युद्ध में मृत सगे-सम्बन्धियों के अन्तकर्म के समय जलदान देते समय कुन्ती और युधिष्ठिर के बीच। वर्णन कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कीजिए। ह

अथना किन्तु आज इस पृथ्वी पर हतभाग्य न मुझ सा अन्य।।” उक्त पंक्तियों में व्यक्त वेदना का भाव पठित खण्डकाव्य के आधार स्पष्ट कीजिए।

सप्तम सर्ग

उत्तर 'कर्ण' खण्डकाव्य का सप्तम सर्ग जलांजलि' इस काव्य का अन्तिम भाग है। इसका कथानक निम्न है कर्ण के वीरगति प्राप्त करने के पश्चात् दुर्योधन का साहस टूट गया। उसे जिस पर सबसे अधिक भरोसा था, वह भी पाण्डवों के हाथों परास्त हो गया। कर्ण के पश्चात् शल्य सेनापति बनाए गए, परन्तु दुर्योधन के सपने तो कर्ण की मृत्यु के साथ ही समाप्त हो चुके थे। कर्ण के पश्चात् युद्ध अधिक समय तक नहीं चल पाया और अट्ठारहवें दिन कौरवों की पराजय के साथ युद्ध का अन्त हो गया। गदा- युद्ध में भीम ने दुर्योधन को हरा कर इस युद्ध की समाप्ति की। कुन्ती ने कहा कि पुत्र! तुम वीर कर्ण का नाम लेकर उसका भी जलदान करो। यह सुनकर युधिष्ठिर आश्चर्यचकित हो गए, परन्तु कुन्ती ने सत्य बताते हुए कहा वह मेरा ही पुत्र था और तुम्हारा बड़ा भाई था।

धर्मराज कुछ चौंके बोले 'सूत-पुत्र था कर्ण।'

कुन्ती बोली, "वत्स! कर्ण था मेरा रक्त सवर्ण।" यह जानकर युधिष्ठिर से रहा न गया और यह पूछ ही लिया कि आखिर यह क्या रहस्य है। तब कुन्ती ने विस्तारपूर्वक सारी बात बताई और यह भी बताया कि युद्ध पूर्व कर्ण को भी मैंने यह सत्य बताया था, परन्तु वह दुर्योधन से विलग होने के लिए तैयार न हुआ, लेकिन उसने वचन दिया था कि वह अर्जुन को छोड़कर मेरे किसी अन्य पुत्र का वध नहीं करेगा और उसने अपना वचन निभाया भी। सारी बात सुनकर युधिष्ठिर ग्लानि से भर उठे और भ्रातृ हत्या से उनका मन भर आया।

"ऐसा कीर्तिवान भाई पा, होता कौन न धन्य ।

किन्तु आज इस पृथ्वी पर, हतभाग्य न मुझ-सा अन्य।।"

कुन्ती ने युधिष्ठिर को समझाना चाहा कि दुःखी मत हो, कर्ण की यही नियति थी। इस पर युधिष्ठिर ने कुन्ती से कड़े स्वर में कहा कि अब व्यर्थ तर्क मत करो। तुमने माता होकर ही अपने पुत्र का अनिष्ट किया और भ्रातृ हत्या का कलंक हमारे मस्तक पर लगा दिया। अन्त में उन्होंने कर्ण को याद कर, उसके नाम से भी जलदान किया। युधिष्ठिर कर्ण-वध को कभी न भुला सके।

प्रश्न 9. 'कर्ण' खण्डकाव्य के प्रतिपाद्य, विषय एवं उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य का कथानक तथा उद्देश्य स्पष्ट कीजिए। 

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य पढ़ने से जो प्रेरणाएँ आपको मिली हों, उनका वर्णन कीजिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य का प्रभाव स्पष्ट कीजिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य ने आपको किस रूप में प्रभावित किया है? उसका वर्णन कीजिए।

उत्तर कवि केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' ने 'कर्ण' खण्डकाव्य में महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक कर्ण का चरित्र चित्रण किया है। उन्होंने महाभारत की मूलकथा से कोई छेड़छाड़ नहीं की है, परन्तु इसमें कर्ण के जीवन के सभी पक्षों का समावेश न करते हुए उन्होंने केवल उन्हीं घटनाओं, प्रसंगों आदि को वर्णित किया है, जिन्होंने कर्ण के जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव डाला था उसके जीवन को गति या दिशा दी।

कर्ण कुन्ती का पुत्र था, परन्तु कुन्ती द्वारा पैदा होते ही उसका त्याग किए जाने के कारण उसे अपने सम्पूर्ण जीवन में उपेक्षा, घृणा, तिरस्कार, अपमान तथा विषाद ही मिला था। कर्ण महाभारत का ऐसा पात्र है जो वीर भी था और विवेकवान एवं धर्म-अधर्म का ज्ञानी भी था, परन्तु इसके बावजूद भी उसे कभी उचित सम्मान नहीं मिला। अपने अस्तित्व के प्रश्न से जूझते हुए उसका पूरा जीवन विसंगतियों से भरा रहा। यह सत्य है कि कर्ण एक श्रेष्ठ योद्धा, दानवीर, अपने प्रण पर अटल रहने वाला, सच्चा मित्र, तेजस्वी तथा अद्भुत आत्मबल वाला था। उसके ये गुण निश्चय ही हमें प्रेरणा देते हैं।

लेकिन साथ ही, उसका चरित्र पूरी तरह से अनुकरणीय नहीं है। कवि ने उसके चरित्र के गुणों एवं दोषों को स्थान देते हुए निष्पक्ष रूप से उसका चरित्र चित्रण किया है। कवि जहाँ उसके सद्गुणों की प्रशंसा करते हुए उन्हें अपनाने की प्रेरणा देता है, वहीं उसके अवगुणों को उजागर करते हुए उनसे बचने के लिए भी सावधान करता है। कवि ने अप्रत्यक्ष रूप से यह दिया है कि व्यक्ति में सद्गुणों का होना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् उनका उचित उपयोग करना भी आवश्यक है। जो व्यक्ति सद्गुणी होते हुए भी अन्याय, अधर्म, दुराचार आदि का साथ देता है, उसका अन्त भी वही होता है जो अन्यायी का होता है। उसका अन्त सदा ही करुणाजनक एवं दुःखद होता है। यही इस खण्डकाव्य का मुख्य उद्देश्य है। इस खण्डकाव्य का शीर्षक 'कर्ण' सर्वथा उचित एवं सार्थक है, क्योंकि 'कर्ण' ही इस खण्डकाव्य का केन्द्रीय पात्र है और इसमें वर्णित सभी घटनाएँ उसी से सम्बन्धित हैं। अत: 'कर्ण' के अतिरिक्त इस खण्डकाव्य का कोई अन्य शीर्षक हो ही नहीं सकता।

चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 10. 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर प्रमुख पात्र की चारित्रिक विशेषताओं को लिखिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण का चरित्र चित्रण कीजिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के नायक की चरित्रगत विशेषताओं की विवेचना कीजिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। 

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण का चरित्रांकन कीजिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के नायक का चरित्र चित्रण कीजिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर नायक 'कर्ण' का चरित्र चित्रण कीजिए। 

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के नायक का चरित्रांकन कीजिए। अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के किसी एक प्रमुख पात्र का चरित्रांकन कीजिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के अनुसार कर्ण की वीरता तथा व्यक्तित्व का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर नायक कर्ण की दानशीलता/ दानवीरता पर प्रकाश डालते हुए, उसके अन्य गुणों का वर्णन कीजिए।

अथवा "भीष्म, द्रोण, कृपा, अश्वत्थामा सबमें कर्ण अनन्य वीरों में वह महावीर प्रत्येक दृष्टि से धन्य।।” 'कर्ण' खण्डकाव्य की उक्त पंक्तियों के आधार पर कर्ण के चरित्र पर प्रकाश डालिए।

 अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण की दानशीलता का उल्लेख कीजिए।

उत्तर कवि केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' द्वारा रचित 'कर्ण' एक खण्डकाव्य है, जिसका नायक महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक कर्ण है। इस पूरे खण्डकाव्य में उभरकर आई कर्ण की प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्न हैं

1. सुन्दर, आकर्षक एवं तेजस्वी जन्म से ही आकर्षक, सुन्दर, तेजस्वी, परन्तु तिरस्कृत कर्ण सूर्यदेव से उत्पन्न कुन्ती का पुत्र था। उसके मुख पर जन्म से ही सूर्य के समान तेज व्याप्त था। कुन्ती ने जब उसे पहली बार देखा था तो वह खुशी से फूली नहीं समाई थी।

“अकस्मात् ही मिला दान में एक अनोखा लाल माँ ने देखा बेटे को आँखें हो गईं निहाल।"

युद्ध से पूर्व जब वह कर्ण को समझाने गई थी तब भी उसके मुख पर वही तेज था।

"एक सूर्य था उगा गगन में ज्योतिर्मय छविमान और दूसरा खड़ा सामने पहले का उपमान एक सूर्य था उगा गगन में पौरुष-पुंज अनूप और दूसरा खड़ा सामने, पहले का प्रतिरूप।” सूर्य-पुत्र होने के कारण उसका रूप-सौन्दर्य सूर्य के समान ही आकर्षक एवं तेजस्वी था। कवि ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा है "अधिरथ को क्या ज्ञात कि उसने कौन रत्न पाया है।

वह क्या जाने तेज सूर्य का उसके घर आया है।।" तेज का स्वामी होने के बावजूद कर्ण को जन्म से उपेक्षा सहनी पड़ती है। सर्वप्रथम जन्म देने वाली माता कुन्ती ही उसका त्याग कर देती है। फिर रंगशाला में सूत-पुत्र कहकर कृपाचार्य और पाण्डव उसका अपमान करते हैं। स्वयंवर में द्रौपदी भी उसका तिरस्कार कर देती है। महाभारत के अन्य पात्र भीष्मादि भी बार-बार उसका अपमान एवं तिरस्कार करते हैं।

 2. धैर्यवान कर्ण के जीवन में ऐसे पल बार-बार आए, जब उसे अपमानित होना पड़ा और वह अपमान उसके लिए असहनीय हो गया। वह श्रीकृष्ण से कहता है

“घृणा, अनादर, तिरस्क्रिया, यह मेरी करुण कहानी।

देखो, सुनो, कृष्ण! क्या कहता इन आँखों का पानी।" लेकिन उसने कभी धीरज का त्याग नहीं किया। द्रौपदी के स्वयंवर में तिरस्कृत होने पर भी वह अपने क्रोध को पी गया, कुन्ती द्वारा अपने कौन्तेय होने का पता चलने पर भी उसने कुन्ती की इच्छा पूर्ण की। भीष्म द्वारा नीच अभिमानी कहे जाने पर भी वह उनके सम्मुख वाद-प्रतिवाद नहीं करता। इससे पता चलता है कि विषम परिस्थितियों में भी धैर्यवान बना रहता है।

3. प्रण व धुन का पक्का कर्ण अपने प्रण व धुन का पक्का था। उसकी प्रतिज्ञा थी कि वह किसी दान माँगने वाले को निराश नहीं लौटाएगा। इसलिए जब इन्द्र ब्राह्मण वेश में कवच और कुण्डल माँगने आए तो कर्ण ने खुशी-खुशी उनकी इच्छा पूर्ण की, यह जानते हुए भी कि कवच-कुण्डल न होने पर अर्जुन को मारना कठिन हो जाएगा। "मांस काटते थे शरीर का पर न हृदय में तड़पन बूँद-बूँद कर रक्त टपकता पर हँसते थे लोचन।" इसी प्रकार, कर्ण ने प्रण किया था कि वह अर्जुन का वध करेगा। अपने इस प्रण पर भी वह अन्त तक अडिग रहता है। श्रीकृष्ण, कुन्ती तथा भीष्म पितामह के यह समझाने पर कि पाण्डव तुम्हारे भाई हैं, वह अर्जुन-वध के अपने प्रण पर अडिग रहा। अन्त में उसे यह ज्ञान हो चुका था कि श्रीकृष्ण के रहते हुए अर्जुन को मारना दुष्कर है और इसकी सम्भावना अधिक है कि अर्जुन ही उसका वध कर दे, परन्तु वह अपने प्रण से नहीं हटा।

4. सच्चा मित्र कर्ण दुर्योधन का सच्चा मित्र था। दुर्योधन ने उस समय उसके सामने मित्रता का हाथ बढ़ाया था, जब सभी उसका उपहास कर रहे थे। कर्ण ने हृदय से दुर्योधन को अपना मित्र माना। यह जानते हुए कि दुर्योधन अधर्मी और अत्याचारी है तथा उसका अन्त निश्चित है एवं उसके साथ रहने पर उसका अन्त भी दुर्योधन जैसा ही होगा, उसने दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ा। आज भी जब सच्चे मित्रों की बात आती है तो कर्ण-दुर्योधन की मित्रता की चर्चा अवश्य होती है।

5. दानवीर परन्तु अहंकारी कर्ण की दानवीरता संसार भर में अमर है। उसने कभी दान देने में संशय नहीं किया। जन्म से ही अपने शरीर के अंग समान कवच और कुण्डल को, जो उसकी अपराजेयता का कारण भी थे, उन्हें भी दान में दे देना उसे महादानवीरों की श्रेणी में स्थापित करता है, परन्तु सत्य यह है कि वह अहंकारी भी था। इसीलिए उसने भरी द्यूत सभा में दुर्योधन और दुःशासन का उत्साहवर्द्धन कर द्रौपदी का अपमान किया। यह उसके चरित्र का कभी न मिटने वाला कलंक है। द्वितीय सर्ग के अन्त में कवि ने भी कहा है

"सत्य कि तुम थे कर्मवीर बलवीर धर्मधारी भी ज्ञानी और महादानी पर महा अहंकारी भी।"

6. कृतज्ञ किन्तु अन्यायी का साथ देने वाला कर्ण स्वभाव से कृतज्ञ था। यही कारण है कि वह जीवनभर दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ता है, फिर चाहे उसे अपने भाइयों के विरुद्ध ही शस्त्र क्यों न उठाने पड़े, लेकिन उसकी कृतज्ञता एवं मित्रता अन्धी थी। वह दुर्योधन नामक एक स्वार्थी राजा के प्रति कृतज्ञ था, जिसने उसकी शक्ति का अनुमान लगाकर उसे मित्र बनाया था। दुर्योधन जानता था कि केवल कर्ण ही अर्जुन को परास्त कर सकता है और इसी कारण उसने कर्ण की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया था। अपनी पहचान के प्रश्न से जूझने वाला कर्ण एक अन्यायी, दुराचारी और अत्याचारी के प्रति समर्पित था, जिसका उसे दुःखद परिणाम झेलना पड़ा।

7. साहसी एवं परमवीर परन्तु अन्त में पराजित महाभारत के सभी पात्रों में एक कर्ण ही ऐसा पात्र है, जिसके साहस, शौर्य और वीरता की सभी प्रशंसा करते हैं। युधिष्ठिर, पितामह भीष्म, अर्जुन यहाँ तक कि स्वयं श्रीकृष्ण भी कर्ण की वीरता के प्रशंसक थे। इसलिए कवि भी कहते हैं कि

“भीष्म, द्रोण, कृपा, अश्वत्थामा सब में कर्ण अनन्य वीरों में वह महावीर प्रत्येक दृष्टि से धन्य।"

परन्तु यही अनन्य वीर अन्त में अर्जुन के हाथों मारा जाता है, क्योंकि वह उस पक्ष की ओर से युद्ध रहा था, जिस ओर अन्याय एवं अधर्म था। अन्त में निष्कर्ष स्वरूप यह कहा जा सकता है कि कर्ण में एक नायक होने के सभी गुण विद्यमान हैं, परन्तु साथ ही उसके चरित्र में कुछ बुनियादी अन्तर्विरोध भी हैं। कुल मिलाकर उसका चरित्र एवं जीवन इतिहास का एक विलक्षण हिस्सा है।

प्रश्न 11. 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर स्त्री पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए।

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कुन्ती का चरित्र चित्रण कीजिए। 

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के प्रमुख नारी पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए। 

अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कुन्ती के चरित्र की किन्हीं तीन विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर 'कर्ण' खण्डकाव्य में केवल एक ही नारी पात्र है और वह है कर्ण को जन्म देने वाली कुन्ती । कुन्ती के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं

1. सामाजिक बन्धनों में बँधी नारी कुन्ती ने विवाह से पूर्व ही कर्ण को जन्म दिया था, परन्तु वह लोक-लाज, कुल- मर्यादा आदि सामाजिक बन्धनों के भय से उसका त्याग कर देती है। “किन्तु लाज कुल की हिंसा-सी जाग उठी तत्काल भय समाज का गरज उठा कैसा था स्वर विकराल अविरल आँसू की बूँदों से कर अन्तिम अभिषेक माता ने अपने ही हाथों दिया लाल वह फेंक।"

2. अपनी सन्तान के प्रति चिन्तित माता कुन्ती कर्ण, अर्जुन, भीम आदि वीर पुत्रों की माता होते हुए भी नारी सुलभ गुण, ममता से युक्त है। इसलिए युद्ध से पूर्व ही वह अपने पुत्रों को लेकर चिन्तित हो उठती है। कुन्ती की सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि युद्ध में दोनों ही ओर से उसके पुत्र एक-दूसरे के विरुद्ध अस्त्र-शस्त्र उठाकर खड़े होंगे। एक ओर युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल एवं सहदेव होंगे तो दूसरी ओर उसी का परमवीर पुत्र कर्ण होगा।

3. कर्ण जैसे पुत्र-रत्न को पुन: न पा सकने वाली अभिशप्त माता कुन्ती ने कर्ण के जन्म लेते ही उसका परित्याग कर दिया था। युद्ध से पूर्व वह किसी प्रकार साहस बटोरकर कर्ण के पास यह सत्य उद्घाटित करने जाती है कि वह उसी का पुत्र है। उसे आशा थी कि वह उसके पास लौट आएगा, परन्तु ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि कर्ण ने दुर्योधन का साथ छोड़ना स्वीकार नहीं किया।

"पर इतना कह पाई झूठा निकला विश्वास कहीं रहो, पर सुखी रहो जाने दो मुझे निराश ।”

इस प्रकार, इस खण्डकाव्य में कुन्ती का मातृरूप कई रूपों में सामने आया है। वस्तुतः उसका चरित्र भारतीय नारी की पारिवारिक एवं सामाजिक विवशताओं को मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान करता है, जो अपने नहीं कह सकती। पुत्र को अपना

प्रश्न 12. 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए।

उत्तर कवि केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' द्वारा रचित खण्डकाव्य 'कर्ण' में श्रीकृष्ण का पात्र अत्यन्त विशेष है। उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं

1. पाण्डवों के शुभचिन्तक श्रीकृष्ण आरम्भ से ही पाण्डवों के हितैषी रहे हैं। पाण्डवों की विजय में उनका अत्यन्त योगदान है। भले ही उन्होंने युद्ध अस्त्र-शस्त्र न उठाया हो, परन्तु पाण्डवों को विजयश्री उन्हीं के मार्गदर्शन में मिली। में

2. कूटनीतिज्ञ श्रीकृष्ण ने धर्म की स्थापना के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति अपनाई और पाण्डवों को भी यही समझाया। युद्ध टालने के लिए पहले दुर्योधन को समझाने का प्रयास करते हैं, फिर कर्ण को सम्राट बनाने का प्रलोभन भी देते हैं। कर्ण के नहीं मानने पर वे उसे समझाते हैं कि तुम्हारी हार निश्चित है। अन्त में वे कर्ण को असहाय अवस्था में मारने के लिए अर्जुन को तैयार भी कर लेते हैं। इस प्रकार वह एक कूटनीतिज्ञ की भाँति महाभारत की प्रत्येक घटना को प्रभावित करते हैं।

3. सद्गुणों के प्रशंसक श्रीकृष्ण शत्रु पक्ष के वीरों की प्रशंसा करने से नहीं चूकते। कर्ण की वीरता की प्रशंसा करते हुए वे कहते हैं

“धर्मप्रिय, धृति-धर्म धुरी को तुम करते हो। वीर धनुर्धर, धर्म भाव तुम भू-धर में भरते हो।"

4. मायावी श्रीकृष्ण को सभी परम मायावी मानते हैं, क्योंकि वे परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लेते हैं। यद्यपि वे युद्ध में अर्जुन के सारथी बनते हैं और अस्त्र-शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा करते हैं, परन्तु फिर भी सभी मानते हैं कि पाण्डवों को विजय श्रीकृष्ण ही दिला सकते हैं। कर्ण भी कहता है कि कृष्ण की माया अर्जुन को घेरे रहती है और अन्तत: वही होगा जो कृष्ण चाहेंगे।

     08 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य

कथासार/कथानक /कथावस्तु/ विषयवस्तु पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 1. 'कर्मवीर भरत' के 'राम-भरत-मिलन' सर्ग की कथा प्रस्तुत कीजिए। 

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का कथानक संक्षेप में लिखिए।

अथवा 'कर्मवीर भरत' के षष्ठ सर्ग की कथावस्तु लिखिए।

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग 'राजभवन' में वर्णित घटनाओं पर प्रकाश डालिए।

अथवा 'कर्मवीर भरत'' खण्डकाव्य के आधार पर 'राम-भरत-मिलन' का सारांश लिखिए। 

अथवा 'कर्मवीर भरत' की कथावस्तु अपनी भाषा में लिखिए।

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य का कथासार/कथावस्तु लिखिए।

अथना 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख कीजिए।

अथवा 'कर्मवीर भरत' के चतुर्थ सर्ग की कथा लिखिए। 

अथवा 'कर्मवीर भरत खण्डकाव्य के पंचम सर्ग 'वनगमन' का सारांश/ कथानक लिखिए। 

अथवा 'कर्मवीर भरत खण्डकाव्य के 'राम-भरत मिलन' सर्ग की कथावस्तु का वर्णन अपनी भाषा में कीजिए।

 अथना कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के आधार पर 'राम-भरत मिलन का वर्णन कीजिए।

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य की मुख्य कथावस्तु/ कथानक / सारांश संक्षेप में लिखिए। 

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के आधार पर उल्लेख कीजिए कि ननिहाल से लौटने पर भरत को अयोध्या के वातावरण में कौन-कौन से परिवर्तन दिखाई पड़े? 

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य में वर्णित भरत के अयोध्या आगमन का चित्रण कीजिए। 

उत्तरप्रस्तुत खण्डकाव्य 'कर्मवीर भरत' के रचयिता लक्ष्मीशंकर मिश्र 'निशंक' हैं। इस खण्डकाव्य की मुख्य कथावस्तु नई नहीं है। यह मूलतः रामायण एवं रामचरितमानस पर आधारित है, परन्तु यहाँ नायक राम न होकर उनके छोटे भाई भरत है। प्रारम्भ से लेकर अन्त तक भरत के कार्यों एवं चरित्र का ही विकास हुआ है। इस खण्डकाव्य का कथानक छः सर्गों में विभाजित है, जिनका कथासार निम्नलिखित हैं

प्रथम सर्ग (आगमन)

इस सर्ग का आरम्भ दशरथ की मृत्यु की घटना से होता है। उस समय भरत और शत्रुघ्न दोनों अपने ननिहाल गए हुए थे। अचानक अयोध्या के दूत वहाँ पहुँच गए और भरत को सन्देश दिया कि गुरु वशिष्ठ ने शीघ्र ही उन्हें अयोध्या बुलाया है। इस प्रकार अकस्मात् गुरुवर का सन्देश मिलने से भरत व्याकुल उठे। उन्हें किसी अमंगल का सन्देह हुआ। उन्होंने दूतों से पूछा कि उनके पिता, तीनों माताएँ, राम-लक्ष्मण एवं अयोध्यावासी सब कुशल से तो हैं ना, परन्तु गुरु के आदेश को मानते हुए दूतों ने सत्य छिपाया और कहा कि सब सकुशल हैं। दूतों के इस उत्तर से भरत को सन्तोष न हुआ। उनके मन में बार-बार यह प्रश्न उठ रहा था कि यदि सब ठीक है, तो उन्हें इस प्रकार अचानक बिना कारण बताए क्यों बुलाया गया है? उन्होंने शत्रुघ्न सहित तत्काल अपने मामा से विदा होने की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर प्रस्थान किया।

सात दिन की यात्रा के पश्चात् जब उन्होंने अवध में प्रवेश किया तो उनका हृदय और भी बैठ गया। मार्ग में पड़ने वाले सब घरों में उदासीनता का पहरा था। प्रकृति प्रतिदिन की भाँति लग रही थी, परन्तु फिर भी हर ओर सूनापन लगता था। अयोध्यापुरी ज्यों-की-त्यों थी, परन्तु फिर भी वैभवहीन लग रही थी। उन्हें इस बात पर भी आश्चर्य हो रहा था कि उनके आगमन की सूचना पाकर भी उनके स्वागत की कोई तैयारी नहीं की गई है।

सब मौन होकर संकेतों में बात कर रहे हैं। अयोध्या में उनका इस प्रकार का यह प्रथम अनुभव था। कोमल हृदय भरत यह तो जान गए कि कुछ अशुभ हुआ है, परन्तु क्या हुआ है? यह वे न जान पाए। वे रथ से उतरकर सीधे दशरथ भवन गए, किन्तु पिता को वहाँ न पाकर और वहाँ का सूनापन देखकर उनका दुःख अत्यधिक बढ़ गया। किसी में इतना साहस न था कि उन्हें दशरथ की मृत्यु का समाचार दे पाए। पिता को न पाकर और कहीं से कोई उत्तर न मिलने पर वह व्याकुल होकर अपनी माता कैकेयी के भवन की ओर चल दिए।

द्वितीय सर्ग (राज भवन)

कैकेयी अपने भवन में चुपचाप अकेली बैठी हुई थी। भरत के आने का समाचार पाकर वह पुत्र का स्वागत करने के लिए उठी। उसने प्रसन्नता से भरत का मस्तक चूमकर उसे आशीष दिया और कैकेय देश का कुशल मंगल पूछा। भरत ने उत्तर देते हुए कहा कि वहाँ तो सब कुशल है, किन्तु अयोध्या में आज क्यों सर्वत्र दुःख पसरा हुआ है? पिताजी, राम-लक्ष्मण, माताएँ आदि सब कहाँ है? क्या उन्हें नहीं पता कि भरत आ गया है? कैकेयी ने संयत स्वर में भरत को महाराज दशरथ की मृत्यु का समाचार सुनाया। इस दुःखद समाचार को सुनते ही भरत अपने आपको संभाल नहीं पाए और मूर्च्छित होकर गिर पड़े।

घबराई हुई कैकेयी ने किसी प्रकार भरत और शत्रुघ्न को सँभाला और उन्हें समझाते हुए कहने लगी कि वीरों को इस प्रकार का आचरण शोभा नहीं देता, परन्तु भरत को इससे सांत्वना न मिली। तब कैकेयी ने धीरज धारण करते हुए भरत को सँभालते हुए कहा कि जब भाग्य विपरीत होता है तब किसी का वश नहीं चलता। भले ही मुझे कोई कुटिल कुमाता कहे, परन्तु मैंने वही किया जिसमें पूरी मानवता का भला है। मैंने राम और भरत में कभी भेद नहीं किया।

अवधपुरी में सब प्रकार का सुख है। यहाँ के नर-नारी अनुशासित, सुशिक्षित, कर्त्तव्यनिष्ठ और सुख-वैभव से सम्पन्न हैं। इन पर शासन करना सरल है, किन्तु अब भी कुछ दीन-हीन ऐसे भी हैं, जिनके जीवन में युगों-युगों से घोर उदासी छाई हुई है, जिन्हें न ज्ञान का प्रकाश मिला है और न ही प्रेम, दया, करुणा, ममता आदि। उन्हें हम नीच पामर कहकर दूर भगा देते हैं, किन्तु मानवता के नाते उनका उद्धार करना राजा का कर्तव्य है। राम यदि राजा बनकर अवध में ही रह जाते तो मानवता का उद्धार नहीं हो सकता था। इसीलिए मैंने पहले वचन में तुम्हारे लिए अवध का राज्य मांगा और दूसरे वचन में राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास माँगा। पहले वचन को महाराज मान गए, परन्तु पुत्र प्रेम के कारण दूसरा वचन सुनते ही उनकी चेतना खो गई।

कैकेयी अपना पक्ष रखते हुए आगे कहती है कि जन-सेवा राज्य, धन-वैभव आदि से भी बढ़कर है। राम परम उदार, दयावान, यशस्वी, त्यागी और करुणावान हैं। साथ ही वह धीर, वीर, गम्भीर, महान् धनुर्धर, दैत्य संहारक, पतित उद्धारक हैं। राम की क्षमता के सामने राज्य तुच्छ है। मानवता और राष्ट्र का उद्धार करने में ही उसकी महानता सिद्ध होगी, किन्तु तुम्हारे पिता को मेरा दूसरा वरदान नहीं भाया। मैंने माता होने के नाते जो उचित समझा, वह किया। राम ने भी सहर्ष मेरी बात मान ली और सीता एवं लक्ष्मण के साथ वनगमन किया।

महाराज यह सहन नहीं कर सके और स्वर्ग सिधार गए। भरत स्तब्ध होकर कैकेयी की सारी बात सुन रहे थे। अन्त में कैकेयी ने कहा कि अब शोक का त्याग करो और पुत्र धर्म निभाते हुए महाराज का अन्तिम संस्कार करके राजकाज सँभालो। कैकेयी की अन्तिम बात सुनते ही शोक में डूबे हुए भरत क्रोध से भर गए। वह ग्लानि से भरकर राम को याद करने लगे। कैकेयी फिर भरत को समझाते हुए कहने लगी कि महाराज को श्रवण कुमार का वध करने पर मुनि-दम्पति से यही शाप मिला था कि उनकी मृत्यु इसी भाँति होगी, किन्तु भरत महाराज की मृत्यु और राम वनगमन के लिए स्वयं को ही दोषी मानते हुए विलाप करते हैं। वे कौशल्या, सुमित्रा, उर्मिला आदि के बारे में सोच-सोचकर उनके सामने जाने का साहस नहीं जुटा पाते और अपनी माँ को कहते हैं।

"ऐसी रानी कभी हुई है क्या त्रिभुवन में, जिसने पति को स्वर्ग पुत्र भेजे हो वन में।

भरत करेगा राज्य, राम को भेज विजन में? जाने क्यों तुमने ऐसा सोचा था मन में?माँग अवध का राज्य किया अपना मन भाया,किन्तु भरत के भाल अयश का तिलक लगाया।।" कैकेयी को भरत का इस प्रकार प्रलाप करना उचित नहीं लगा। उसने कहा कि तुम्हारा हृदय निर्मल है फिर तुम्हें इसमें छल क्यों दिखाई दिया? लगता है तुम्हें उस राम की शक्ति पर विश्वास नहीं है जिसने सुबाहु, ताड़का को मारा था, जिसने रावण का गर्व चूर किया था, जिसने परशुराम को भी झुका दिया था और जिसमें अमंगल को मंगल करने का तेज है। मैंने अपने हृदय पर पत्थर रखकर अपने पुत्रों को वन भेजा है। त्याग और बलिदान किए बिना संसार में किसी को यश नहीं मिलता है। वह भरत को कर्तव्य पालन के लिए कहती है, लेकिन भरत अपने अपयश के लिए कैकेयी को उत्तरदायी ठहराते हैं। वे किसी प्रकार साहस बटोरकर शत्रुघ्न को साथ लेकर कौशल्या के पास जाते हैं। इस खण्डकाव्य की सबसे बड़ी उपलब्धि कैकेयी के कलंकित विमाता के चरित्र को गौरव प्रदान करना है।

तृतीय सर्ग (कौशल्या-सुमित्रा मिलन)

इस सर्ग में भरत का कौशल्या तथा सुमित्रा से मिलने का वर्णन है। इसमें उर्मिला तथा माण्डवी के चरित्र पर भी प्रकाश डाला गया है।

भरत के आने का समाचार पाकर कौशल्या का हृदय प्रेम से भर आया। जैसे ही दोनों भाइयों ने सामने आकर चरण स्पर्श किए तो प्रेम से दोनों को गले लगाया और आशीर्वाद दिया। कौशल्या की करुण दशा देखकर भरत विकल हो उठे। भरत को गले लगाकर कौशल्या अत्यधिक विलाप करने लगी। कौशल्या की ऐसी दशा देखकर भरत स्वयं को धिक्कारने लगे। वे कहने लगे कि मैं ही पिता की मृत्यु और राम के वनगमन का कारण बना। मैं कुल-कलंक, दुःखमूल, दुष्ट, पापी और दुर्मति हूँ। अवध के सारे कष्टों का मूल मैं ही हूँ

"किस मुँह से कहूँ कि मैं कुछ जान न पाया, माँ की राजनीति रचना पहचान न पाया? शासन का अधिकार हाय! मैंने कब माँगा, राम गए वन, मुझसा, जग में कौन अभागा? राज-भोग मैं करूँ, राम हों वन के वासी, हाय! मिली जननी मुझको कैकेयी माँ सी।”

इतना कहते ही भरत ने कौशल्या के पैर पकड़ लिए। कौशल्या ने भरत को सँभालते हुए कहा कि पुत्र इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है और न ही किसी को कैकेयी पर रोष है। कैकेयी ने सदा राम का भला चाहा है। उसने मुझसे भी अधिक राम को प्यार दिया है, परन्तु मैं उसकी भाँति अपने हृदय को कठोर न कर पाई। उसने राम के हित को देखकर ही उसे वन भेजा है, लेकिन अब तुम आ गए हो तो मेरे हृदय का दुःख कम हो गया है। इस पर भरत कहते हैं कि किन्तु माता नगरवासी क्या कहेंगे? इतिहास तो मुझे राज्य का लोभी ही कहेगा। इतना सुनते ही कौशल्या बोली

"जिह्वा लूँगी खींच कहे जो ऐसी वाणी, सुनकर उनकी बात तमक कर बोली रानी।"

वह कहती है कि मैं जानती हूँ कि तुम्हें राज्य का लोभ नहीं है और यही सर्वोपरि सत्य है। वह भरत का उत्साह बढ़ाते हुए कहती है कि कर्मशील वीर पुरुष क्षणिक लोक-निन्दा पर ध्यान नहीं देते। जो इन बातों में उलझ जाते हैं, वे जग में कभी महान कार्य नहीं कर पाते। कैकेयी ने जो किया, वहीं सभी के लिए उचित है। अब तुम आत्मग्लानि दूर कर अपने कर्त्तव्य का पालन करो। जग में राम से भी अधिक सुयश तुम्हारा होगा।

जब सुमित्रा ने सुना कि भरत आ गया है, तो वह अपना सारा दुःख भुलाकर भरत से मिलने दौड़ी। उसने भरत और शत्रुघ्न, दोनों को गले लगाकर आशीर्वाद दिया। सुमित्रा के सम्मुख भी भरत स्वयं को दोषी ठहराने लगे और प्रलाप करने लगे। सुमित्रा ने भी कौशल्या की भाँति ही भरत को समझाते हुए कहा कि राज्य का लोभ तुम्हें नहीं है, किन्तु पुत्र होने के नाते तुम्हे पिता की आज्ञा का पालन करना चाहिए। तुम्हे सिंहासन का लोभ नहीं है, किन्तु सिंहासन तुम्हे राजा के रूप में पाकर गौरव का अनुभव करेगा। तुम राम के लिए दुःखी मत हो।

राम के साथ लक्ष्मण है और वन में रहकर मानवता का दुःख हरने में उनका गौरव है। सुमित्रा की बातें सुनकर भरत को कुछ सात्वना मिली, परन्तु वरदान की बात पुनः स्मरण आते ही फिर क्षोभ करने लगे। सुमित्रा धैर्य के साथ कहती है कि राम सभी विपदाओं का सामना करने में सक्षम हैं। इसीलिए उनकी चिन्ता मत करो। तुम अपने मन का शोक त्याग कर कर्त्तव्यपथ पर आगे बढ़ो। यदि तुम इस प्रकार अधीर रहोगे तो उर्मिला और माण्डवी भी स्वयं को सँभाल नहीं पाएंगी। उर्मिला ने हँसकर अपने पति को विदा किया है। उसके हृदय का दुःख कभी प्रकट नहीं होता। माण्डवी पहले ही सीता-वियोग और महाराज की मृत्यु से आहत है। तुम्हें दुःखी देखकर वह दोनों भी दुःखी होंगी। अतः दुःख त्यागकर गुरु-आज्ञा का पालन करो और अपने कर्त्तव्य को पूरा करो। इस प्रकार सुमित्रा भरत और शत्रुघ्न को प्यार से समझा-बुझाकर गुरु वशिष्ठ के पास भेजती है।

चतुर्थ सर्ग (आदर्शवरण)

माताओं के समझाने पर भरत शत्रुघ्न को साथ लेकर गुरु वशिष्ठ के सम्मुख प्रस्तुत हुए। वशिष्ठ ने भरत को पुत्र धर्म निभाने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि वत्स! अब और विलम्ब मत करो। पिता का अन्तिम संस्कार कर राज्यभार संभालो। कुल परम्परा में सबसे श्रेष्ठ महाराज दशरथ के पुत्र होकर तुम्हें इस प्रकार आँसू बहाना शोभा नहीं देता। भरत गुरु के सामने कैकेयी पर दोषारोपण करते हैं, तो गुरु उन्हें समझाते हैं कि जो कुछ हुआ उसमें किसी का दोष नहीं है। सब भाग्य का खेल है। गुरुवर के समझाने पर भरत दशरथ के अन्तिम संस्कार के लिए गए, किन्तु जैसे ही उन्होंने अपने पिता का शव देखा तो वे मूर्च्छित हो गए।

चेतना आने पर वे फिर विलाप करने लगे। तब गुरु वशिष्ठ ने उन्हें समझाया कि जन्म और मृत्यु जीवन के अंग हैं। इस नश्वर संसार में जन्म-मरण और नाश-निर्माण साथ-साथ चलते हैं। अतः महाराज की मृत्यु पर शोक करना ठीक नहीं है। गुरुदेव से धर्म-कर्म का उपदेश सुनकर भरत ने दुःखी मन से, परन्तु श्रद्धापूर्वक दशरथ की अन्तिम क्रिया से सम्बन्धित सारे कार्य किए। इसके पश्चात् मुनि वशिष्ठ, आर्य सुमन्त और सभी सभासदों ने भरत से राजा का पद स्वीकार करने की बात कही। भरत ने सभी की बात ध्यान से सुनने के पश्चात् बड़ी विनम्रता से कहा कि रघुकुल की यह परम्परा रही है कि ज्येष्ठ पुत्र ही राजा बनने का अधिकारी होता है। बड़े भाई के होते हुए छोटा भाई राजा नहीं बन सकता।

आर्य सुमन्त ने उनसे सहमत होते हुए कहा कि तुम्हारा कहना सत्य है, परन्तु इस परिस्थिति में तुम्हारा राजा बनना ही उचित है। राम पिता की आज्ञा के कारण वन चले गए हैं। अब यदि तुम राज्य नहीं अपनाओगे तो तुम्हारे पिता का वचन पूरा नहीं हो पाएगा, परन्तु भरत राज्य स्वीकार करने से स्पष्ट रूप से मना कर देते हैं और राम को मनाकर वापस अयोध्या लाने का प्रस्ताव रखते हैं। उनकी इस बात को सुनकर सभी प्रसन्न हो गए। गुरु वशिष्ठ, आर्य सुमन्त, शत्रुघ्न, तीनों माताएँ और समस्त प्रजा भरत के साथ राम से मिलने के लिए चल पड़े। भरत और शत्रुघ्न सबसे आगे पैदल ही चल रहे थे, किन्तु पश्चात् में कौशल्या के कहने पर रथ पर सवार हुए। दिनभर चलने के पश्चात् सभी ने गोमती नदी को पार कर तमसा के तट पर विश्राम किया।

पंचम सर्ग (वनगमन)

सभी को साथ लेकर जब भरत शृङ्गवेरपुर पहुंचे तो उनके साथ सेना देखकर निषादराज गुह को भरत पर सन्देह हुआ। उसने समझा कि भरत ने पहले राम को वन में भिजवाया और अब राम से युद्ध करने आए हैं। उसने अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार रहने का आदेश दिया। एक वृद्ध ने उसे सुझाव दिया कि भरत पर किसी प्रकार का सन्देह करने से पूर्व उसके मन की बात जान लेना उचित है। निषादराज गुह को यह सुझाव पसन्द आया और वह गुरु वशिष्ठ के समक्ष उपस्थित हुआ।

मुनि वशिष्ठ से भरत के मन का भाव जानकर गुह को बहुत प्रसन्नता हुई। उसने भरत की प्रशंसा की। भरत ने उसे आगे बढ़कर गले लगाया और राम के बारे में पूछा। निषादराज को साथ लेकर भरत और उनके साथ आने वाले सभी लोग आगे बढ़े। मार्ग में उन्होंने प्रयाग में भारद्वाज ऋषि के दर्शन किए। भारद्वाज ऋषि ने उन्हें चित्रकूट पर्वत जाने के लिए कहा। चित्रकूट वन के समीप पहुँचकर दोनों भाई भाव-विह्वल होकर पैदल ही राम से मिलने चल पड़े।

षष्ठ सर्ग (राम-भरत मिलन)

जब भरत सेना सहित चित्रकूट के समीप पहुंचे तो वहाँ रह रहे भीलों को निषादराज की भाँति भरत पर सन्देह हुआ। उन्होंने तुरन्त राम-लक्ष्मण को इसकी सूचना दी।

लक्ष्मण को भी भरत पर सन्देह हुआ, परन्तु राम भरत से मिलने के लिए शीघ्र ही आश्रम से बाहर आ गए। राम को देखते ही भरत उनके चरणों से लिपट गए "राम चाहते थे भ्राता को अंक लगाना,

पद पकड़े थे भरत, कठिन था उन्हें उठाना।

स्नेह सहित कर खींच, भरत को गले लगाया,

दशा देख करुणानिधि का अन्तर लहराया।

शत्रुघ्न की दशा भी भरत के समान ही थी। राम ने उन्हें भी प्रेम से गले लगाया। गुरु और माताओं के आने का समाचार सुनकर राम स्वयं उनका स्वागत करने गए। राम-लक्ष्मण और सीता से मिलकर सभी को बहुत प्रसन्नता हुई। वशिष्ठ मुनि ने राम को पिता की मृत्यु का दुःखद समाचार दिया, जिसे सुनकर राम लक्ष्मण दुःख से अधीर हो उठे। गुरुवर के समझाने पर राम ने धीरज धारण किया और पितृ तर्पण किया।

राम के साथ रहकर सभी लोग अति प्रसन्न थे। कुछ दिन तक सभी वहाँ रहे। राम का सामीप्य पाकर और चित्रकूट की निराली शोभा देखकर सभी स्वयं को भी भुला बैठे। राम के प्रताप से वहाँ का वातावरण अत्यन्त पवित्र हो गया था, यहाँ तक कि सिंह जैसे हिंसक पशु भी हिंसा भूल गए थे। एक दिन राम ने गुरुजी से कहा कि अब आप सभी को अयोध्या वापस लौट जाना चाहिए। अवसर पाकर भरत ने राम से कहा कि आपको छोड़कर हम अयोध्या नहीं जा सकते। अवध का राज्य आपका है।

अतः अपना राज्य स्वीकार कर मुझे इस कलंक से मुक्त कीजिए। मैं आपका तिनिधि बनकर वन में वास करूंगा और आप अयोध्या का शासन संभालें। सारी प्रजा का भी यही मत है। कैकेयी भी राम से कहती है कि यह सब मेरे कारण ही हुआ है। मेरे कारण ही रघुकुल पर यह कलंक लगा है। अतः तुम भरत का कहना मानो और अयोध्या लौट चलो। राम ने भरत और माता कैकेयी को समझाते हुए कहा कि आपने जो किया, वह उचित था। फिर हमारे कुल में त्याग, साधना और व्रत का पालन करने के लिए प्रतिनिधि नहीं बनाए जाते। हमारे पिता स्वर्ग सिधार चुके हैं, माताएँ विधवा हो गई हैं। इतना सब होने पर भी मैं पिता के वचन की लाज न रखूँ तो कुल की अपकीर्ति होगी। उन्होंने भरत से कहा कि तुम अगर कहो तो मैं समस्त अपयश स्वीकार कर सकता हूँ, परन्तु एक बार अपने कर्त्तव्य के बारे में भी तनिक विचार करो।

यह सुनकर प्रेम सागर में डूबे भरत की आँखें खुल गईं। उन्होंने कहा कि आपने मुझे उबार लिया है। मैं अयोध्या लौट जाऊँगा, परन्तु मुझे एक अनुमति दे दीजिए। मैं आपका प्रतिनिधि बनकर राज-काज चलाऊँगा और नगर के बाहर नन्दीग्राम में आप की ही भाँति कुटिया बनाकर रहूँगा। आप अपने कर्त्तव्य का पालन कीजिए, लेकिन मैं आपकी चरण पादुका लिए बिना वापस नहीं जा पाऊँगा। ये पादुकाएँ आपके शासन का चिह्न होंगी और चौदह वर्ष पश्चात् लौटकर आप अपना राज्य सँभाल लेना और यदि आप निश्चित अवधि बीतने पर वापस नहीं आए तो अपने भरत को जीवित नहीं पाएँगे। यह कहकर भरत राम के चरणों में गिर गए। राम उनकी भ्रातृ-भक्ति से गद्गद् हो उठे और अपनी पादुकाएँ भरत को दे दीं। फिर राम ने सभी को विदा किया। भरत ने अयोध्या आकर वही किया जो उन्होंने राम से कहा था। वे नन्दीग्राम में पर्णकुटी बनाकर रहने लगे। वहाँ कुशा ही उनका आसन था तथा राम की चरण पादुकाओं को राज-सिंहासन पर सुशोभित किया। शत्रुघ्न की सहायता से वह राज्य चलाने लगे। उन्हें पद का लोभ तनिक भी नहीं था। उन्होंने प्रजा को पुत्रवत् माना और राम के आदर्शों का पालन किया। इस प्रकार अवध में राजा भोगी नहीं, वरन् योगी था। भरत ने अपने चरित्र का आदर्श स्वरूप प्रस्तुत किया है। यहाँ इस खण्डकाव्य का अन्त होता है। इसमें भरत के चरित्र का पूरी तरह विकास हुआ है।

प्रश्न 2. 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य की कथा संक्षेप में प्रस्तुत कीजिए।

उत्तर प्रस्तुत खण्डकाव्य 'कर्मवीर भरत' के रचयिता लक्ष्मीशंकर मिश्र 'निशंक' हैं। इस खण्डकाव्य की कथावस्तु मूलतः 'रामायण' व 'रामचरितमानस' से अवतरित है, परन्तु इसके नायक 'राम' न होकर उनके छोटे भाई भरत हैं। इसमें प्रारम्भ से अन्त तक भरत द्वारा किए गए कार्यों एवं चरित्र का वर्णन हुआ है। यह खण्डकाव्य छः सर्गों में विभाजित है। इसका सारांश निम्नलिखित है

खण्डकाव्य का आरम्भ राजा दशरथ की मृत्यु की घटना से होता है। उस समय भरत और शत्रुघ्न दोनों अपने ननिहाल कैकेय-देश गए हुए थे। अचानक अयोध्या के दूत वहाँ पहुँच गए और भरत को सन्देश दिया कि गुरु वशिष्ठ ने शीघ्र ही उन्हें अयोध्या बुलाया है। भरत सन्देश पाकर व्याकुल हो उठते हैं और शीघ्र अतिशीघ्र अयोध्या पहुंच जाते हैं। अयोध्या में उनके आगमन की कोई तैयारी न देख, भरत को आश्चर्य होता है और राजगृह में शोक-सा आभास होता है। दशरथ की मृत्यु की सूचना देने का सामर्थ्य किसी में न हुआ।

भरत, कैकेयी के पास जाते हैं, कैकेयी ने उन्हें सारा आख्यान बताया कि उन्होंने राजा दशरथ से अपने प्रतीक्षित वर माँगे-पहला भरत के लिए अवध का राज्य और दूसरा राम को चौदह वर्ष का वनवास। राजा दशरथ पहला वचन तो मान गए, परन्तु दूसरे वचन को सुनते ही 'पुत्र-प्रेम' में अपनी चेतना खो बैठे और स्वर्ग सिधार गए। भरत ये सब सुनकर अत्यन्त विलाप के वशीभूत स्तब्ध हो गए, तभी कौशल्या और सुमित्रा भी भरत के अयोध्या आने की सूचना सुनकर वहां आती है और भरत को विलाप में देखकर उन्हें समझाती है। भरत माता कैकेयी के प्रति घृणा भाव से उन पर क्रोधित हो उठते हैं और विलाप करते हुए कहते हैं

"किस मुँह से कहूँ कि मैं कुछ जान न पाया, माँ की राजनीति रचना पहचान न पाया,

शासन का अधिकार हाथ। मैंने कब माँगा, राम गए वन, मुझसा, जग में कौन अभागा? राज-भोग मैं करूँ, राम हो वन के वासी, हाय! मिली जननी मुझको कैकेयी माँ सी।

राजा दशरथ का अन्तिम संस्कार करने के पश्चात् भरत अपनी सेना साथ राम को अयोध्या वापस लाने के लिए वन जाते हैं और वहाँ राम को देखकर उनके चरणों में गिरकर क्षमा याचना माँगते हैं। राम भी भ्रातृ-प्रेम से गदगद हो उठते हैं और भरत से राजकाज सँभालने के लिए कहते हैं।

भरत, राम से कहते हैं कि जब तक आप चौदह वर्ष की अवधि पूर्ण करके अयोध्या वापस नहीं आते, तब तक मैं आपका प्रतिनिधि बनकर राज-काज चलाऊँगा और नन्दीग्राम में आप की भाँति पर्णकुटी बनाकर रहूँगा। भरत ने वन से जाते समय राम की चरण पादुकाएँ ली और उनके शासन चिह्न के रूप में राजगद्दी पर उन्हें विराजमान किया। इस प्रकार भरत, शत्रुघ्न की सहायता से राज्य का शासन सँभालने लगे। उन्हें पद का कोई लोभ नहीं था, उन्होंने प्रजा को पुत्रवत् माना और राम के आदर्शों का पालन किया। भरत भोगी नहीं योगी थे, जिससे उनके आदर्शरूपी चरित्र का विकास होता है।

प्रश्न 3. 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य में प्रतिपादित विषय को स्पष्ट करते हुए सन्निहित उद्देश्य पर प्रकाश डालिए। 

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के रचनागत/मूल उद्देश्य पर प्रकाश डालिए। 

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य पढ़ने से आपको जो प्रेरणा मिली उसका उल्लेख कीजिए। 

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य पढ़ने से आपके मन पर जो प्रभाव पड़ा हो, उसका वर्णन कीजिए।

अथवा"बिना कर्म के ग्राह्य न होता कभी ज्ञान है। बिना त्याग के व्यक्ति नहीं बनता महान् है।"

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के आधार पर उक्त पावन सन्देश / उक्ति की पुष्टि कीजिए

उत्तर कवि लक्ष्मीशंकर मिश्र 'निशंक' द्वारा रचित खण्डकाव्य 'कर्मवीर भरत' का प्रतिपाद्य विषय भरत के त्यागमयी और कर्मवीर जीवन का चित्रण करना है। भरत को सहज ही अयोध्या का राज मिल गया था, परन्तु उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। राम के प्रति उनकी अटूट श्रद्धा है, जो वैभवशाली राज-पाट को पाकर भी विचलित नहीं होती। वह सिंहासन पर राम का ही अधिकार मानते हैं और उनके लौटने तक उनके प्रतिनिधि के रूप में ही कार्यभार सँभालते हैं। वस्तुतः इस खण्डकाव्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति के उच्च गुणों; जैसे-तप, त्याग, बलिदान, कर्त्तव्य आदि की समाज में प्रतिष्ठा करना एवं युवा पीढ़ी को इनके प्रति सजग करना ही कवि का मुख्य उद्देश्य है। इसलिए लेखक ने इस खण्डकाव्य के नायक 'भरत' और उनकी माता 'कैकेयी' को माध्यम बनाया है। अपनी कल्पना से कैकेयी के चरित्र का नवीन रूप से सृजन कर कवि ने जन-सेवा को सर्वश्रेष्ठ बताया है। इसीलिए वह कैकेयी के मुख से कहलवाता

"धन वैभव का दम्भ भले लगता सुखकर पर जन-सेवा राज्य भोग से भी बढ़कर है। 

जो औरों के लिए करे वह कार्य सुकर है,त्याग और बलिदान विश्व में सदा अमर है।"

भरत के चरित्र को आधार बनाकर कवि ने कर्म और कर्त्तव्यपालन की महिमा स्थापित की है। भरत का त्याग-तप प्रसिद्ध है। उन्होंने जहाँ एक ओर जीवन के उच्च आदर्शों पर चलते हुए राज्य को तुच्छ मानकर कर्म को अपने जीवन का हिस्सा बना लिया, वहीं दूसरी ओर भ्रातृ-प्रेम को पुनः परिभाषित किया। भरत मिलाप का प्रसंग आज भी जन-साधारण में लोकप्रिय है। सुमित्रा भी भरत को कर्म और त्याग के पथ पर चलने के लिए प्रेरित करती हुई कहती है वे

"बिना कर्म के ग्राह्य न होता कभी ज्ञान है, बिना त्याग के व्यक्ति नहीं बनता महान् है।"

कैकेयी के माध्यम से कवि दीन-दुःखियों, पतितों और असहायों को अपने समान मानकर उन्हें अपनाने का सन्देश देता है। अन्ततः यही कहा जा सकता है कि कवि ने इस खण्डकाव्य में नायक भरत, कैकेयी, सुमित्रा आदि प्रमुख पात्रों के द्वारा हमें यह शिक्षा दी है कि मानवता के हित में त्याग एवं बलिदान करना हमारा धर्म है। हमें कर्मवीर भरत की तरह अपने कर्म में लीन रहना चाहिए।

चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 4. 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के आधार पर भरत के चरित्र की विशेषताएँ लिखिए। 

अथवा 'कर्मवीर भरत' के नायक की चारित्रिक विशेषताएँ लिखिए।

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के नायक की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

 अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के आधार पर नायक का चरित्र चित्रण कीजिए। 

अथवा 'कर्मवीर भरत' के किसी एक पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए।

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के आधार पर भरत की चारित्रिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के आधार पर भरत की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के आधार पर भरत का चरित्रांकन कीजिए। 

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के आधार पर भरत का चरित्र चित्रण कीजिए।

 अथवा भरत को 'कर्मवीर' की उपाधि क्यों दी गई? स्पष्ट कीजिए।

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के आधार पर भरत के चरित्र की उन प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए, जो आपको अत्यधिक प्रभावित करती हैं।

अथवा 'कर्मवीर भरत' में "भरत, मानव सेवा और भ्रातृ-प्रेम की साकार मूर्ति हैं।" इस कथन की पुष्टि कीजिए। 

 अथवा 'कर्मवीर भरत' के प्रमुख नायक (प्रधान पात्र) का चरित्र-चित्रण कीजिए। 

 अथवा 'कर्मवीर भरत' का नायक कौन है? उसके चरित्र की प्रधान विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

 उत्तर श्री लक्ष्मीशंकर मिश्र 'निशंक' द्वारा रचित खण्डकाव्य 'कर्मवीर भरत' के प्रमुख पात्र दशरथ-पुत्र भरत हैं। वे राम के छोटे भाई हैं। उनके चरित्र की प्रमुख

विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. भावुक हृदय भरत रामायण के सबसे भावुक पात्र हैं। इस खण्डकाव्य में भी उनका चित्रण इसी प्रकार हुआ है। वह किसी भी अनिष्ट की आशंका होने पर व्याकुल हो उठते हैं। पिता के स्वर्गवास का समाचार सुनकर वह शोक के सागर में डूब जाते हैं और दशरथ का शव देखकर मूर्च्छित होकर गिर पड़ते हैं। पिता का देहान्त, राम का वनगमन और उर्मिला की विरह-कथा सुनकर वे स्वयं को ही इन सबके लिए दोषी मानते हैं। भावना के आवेग में बहकर वह राम से मिलने वन ही पहुँच जाते हैं।

2. आदर्श महापुरुष इस खण्डकाव्य के नायक भरत का चरित्र सभी के लिए आदर्श है। वे शील, तप, त्याग और साहस की साक्षात् मूर्ति हैं। उनके विचार बहुत उच्च एवं महान् हैं। वे अपने वंश की परम्परा को आगे ही बढ़ाते हैं, इसलिए वे राज्य मिलने पर भी उसे बड़े भाई के चरणों में समर्पित कर देते हैं। वे बार-बार कहते हैं कि पिता की मृत्यु और बड़े भाई राम के वनवास जाने का कारण वही हैं। उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि कोई उनके चरित्र पर सन्देह करे और कुल की कीर्ति को कलंक लगे।

3. परम त्यागी भरत को अपने पिता से अयोध्या का राज मिला था। यदि वे चाहते तो राजा बनकर सुखपूर्वक अवध में रह सकते थे, परन्तु उन्होंने सभी के

कहने पर भी राजा बनना स्वीकार नहीं किया। राज्य के प्रति उनके मन में तनिक भी लोभ नहीं था। अन्त में वे राम को उनका अधिकार लौटाकर यह सिद्ध भी कर देते हैं। राज्य के प्रति उनकी अनासक्ति से सभी परिचित हैं। सुमित्रा भी कहती हैं कि “नहीं राज्य-वैभव में है अनुरक्ति तुम्हारी, तुम विदेह हो, अटल राम की भक्ति तुम्हारी । "

4. राम के अनन्य भक्त भरत राम को अपना बड़ा भाई ही नहीं मानते, वरन्

स्वयं को उनका दास मानते हैं। वे कहते हैं

“लघु भ्राता ही नहीं नाथ! मैं दास तुम्हारा।"

एक सच्चे भक्त की भाँति उनका मन राम के चरणों में ही बसता है। उनकी भक्ति भावना और प्रेम के सामने राम भी बहुत भावुक हो जाते हैं। भरत जब राम से मिलने चित्रकूट जाते हैं, तो वे पैदल ही जाना चाहते हैं, परन्तु माता कौशल्या के कहने पर वे विवश होकर रथ पर सवार होते हैं। राम को देखने के पश्चात् तो वे स्वयं को रोक ही नहीं पाते हैं और उनके चरण पकड़ लेते हैं। भरत की इस भक्ति भावना से राम भी गद्गद् हो जाते हैं। "राम चाहते थे भ्राता को अंक लगाना,पद पकड़े थे भरत, कठिन था उन्हें उठाना।

स्नेह सहित कर खींच, भरत को गले लगाया, दशा देख करुणानिधि का अन्तर लहराया।" 

5. सच्चे कर्मवीर भरत सच्चे कर्मवीर हैं। वे अपने माथे पर लगे कलंक को धोने के लिए राम के स्थान पर स्वयं वन में रहने के लिए भी तैयार हैं। “वास करूंगा वन में भाई का प्रतिनिधि बन, आप अयोध्या जाएँ, पड़ा सूना सिंहासन ।”

जब राम उन्हें समझाते हैं, तो भी वे राज्य लेने के लिए तत्पर नहीं होते और उनके प्रतिनिधि बनकर चौदह वर्षों तक अयोध्या का कार्यभार सँभालने का भार उठाते हैं। वे अयोध्या लौटने पर राम की भाँति ही नगर के बाहर नन्दीग्राम में पर्णकुटी बनाकर रहते हैं और वीं से सारा राज-काज देखते हैं। भरत चौदह वर्षों तक राजा बनकर नहीं, अपितु योगी बनकर रहते हैं। उन्होंने राम के आदर्शों का पालन कर सच्चे कर्मवीर होने का प्रमाण प्रस्तुत किया।

खण्डकाव्य के नामकरण का औचित्य भरत के नाम पर इस खण्डकाव्य का 'कर्मवीर भरत' नामकरण सर्वथा उचित है। उनके जीवन में कर्म ही सर्वोपरि था। वे चाहते तो सरलता से मिले राज-पाट को ग्रहण कर राजा बन सकते थे, परन्तु उन्होंने राज्य ठुकरा दिया। यद्यपि उन्होंने राजा के समान ही चौदह वर्षों तक अयोध्या का कार्यभार सँभाला, परन्तु उन्होंने राजा का पद नहीं लिया। एक सच्चे योगी और कर्मवीर की भाँति उन्होंने केवल कर्त्तव्य को महान् समझा। अतः इस खण्डकाव्य का शीर्षक 'कर्मवीर भरत' पूर्णतया उचित है।

 प्रश्न 5. 'कर्मवीर भरत खण्डकाव्य के आधार पर कैकेयी का चरित्र-चित्रण कीजिए। 

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य की कैकेयी के चरित्र की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए ।  

अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य में कैकेयी का चरित्र सर्वथा भिन्न है।आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं? स्पष्ट कीजिए। 

अथवा "ममता तजकर मैंने पत्थर किया कलेजा। जन सेवा के लिए राम को वन में भेजा।।" 

'कर्मवीर भरत' से उद्धृत उक्त पंक्तियों के आधार पर कैकेयी के चरित्र की विशेषताएँ बताइए। 

उत्तर कवियों और लेखकों ने अब तक कैकेयी के चरित्र को विमाता और कुटिल बुद्धि रानी के रूप में ही चित्रित किया है, परन्तु इस खण्डकाव्य में कवि ने कैकेयी के चरित्र को उज्ज्वल बनाकर उसे गौरव प्रदान किया है। कैकेयी के चरित्र के उदात्त पक्ष को उभारना इस खण्डकाव्य की एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है।

कैकेयी की चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं 

1. वीरांगना कैकेयी युद्ध क्षेत्र और कर्म क्षेत्र दोनों में ही वीरांगना की भाँति उपस्थित है। वे रण-विद्या में कुशल है। एक बार उन्होंने युद्धक्षेत्र में महाराज दशरथ की सहायता कर उनके प्राण बचाए थे। इसी प्रकार वे कर्म-क्षेत्र में भी अपनी वीरता और साहस का परिचय देती है। वे राम से अगाध स्नेह रखती हैं, परन्तु फिर भी उसे वनवास भेजती हैं, क्योंकि वे राम को यशस्वी बनते हुए देखना चाहती हैं। उसे राम के बल-पौरुष पर पूर्ण विश्वास हैं। अपने हृदय की वीरता का परिचय देते हुए वे कहती हैं

“असि अर्पण कर मैंने रण कंकण बाँधा है, रण-चण्डी का व्रत मैंने रण में साधा है।

मेरे बेटों ने पय पिया सिंहनी का है,

2. कर्त्तव्यपरायणा कैकेयी अपने सभी कर्त्तव्यों को भली-भाँति समझने उनका पौरुष देख इन्द्र मन में डरता है। " वाली तथा उनका पालन करने वाली सशक्त नारी हैं। वे एक क्षत्रिय माता होने के साथ-साथ अयोध्या की रानी भी हैं, इसलिए वे चाहती हैं कि राम वनवासी बनकर प्रजा के कष्टों को दूर करें, जिससे मानवता का उद्धार भी होगा और राम को यश-प्राप्ति होगी। वे कहती हैं कि "केवल जन कर पुत्र न कोई बनती माता,

वे क्या, कष्टों के भय से यदि रोई माता ?

चढ़ती वय में यदि न चढ़ा पौरुष का पानी,

तो सुख-शय्या पर न बनेगी अमर जवानी।।"

 3. मानवता का हित चाहने वाली कैकेयी स्वयं तक सीमित रहने वाली राज-स्त्री नहीं हैं। वे उनकी भी शुभचिन्तक हैं, जो युगों-युगों से दबे हुए अशिक्षित हैं और अन्धकार में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वे सभी को ईश्वर की सन्तान समझती हैं और सबका भला चाहती हैं। उदार बनकर मानवता की रक्षा करना एवं उनका उत्थान करना वे राजा का कर्त्तव्य मानती हैं, इसलिए वे राम को भी यही समझाती हैं कि वनवास धारण कर तुम मानवता को सुखी करो। वे जानती हैं कि संसार उस पर अनेक आक्षेप लगाएगा, परन्तु मानव सभ्यता को उठाने हेतु लिए गए निर्णय पर उसे तनिक भी पछतावा नहीं है

“लोग भले ही मुझे स्वार्थ-रत नीच बताएँ, भले क्रूर माता कह मुझे कलंक लगाएँ।

पर मैंने जो किया उसी में सब का हित है, जन-जीवन हेतु व्यक्ति का त्याग उचित है।”

4. स्पष्टवादिनी तथा राम के प्रति अगाध स्नेह रखने वाली कैकेयी अपने हृदय के विचारों को स्पष्ट रूप से सबके सामने रखती हैं। इसीलिए वे भर्ती को धैर्य के साथ दशरथ-मरण एवं राम वनगमन का प्रसंग सुनाती हैं। भले ही भरत अपनी माता कैकेयी पर रोष प्रकट करते हैं, परन्तु फिर भी वे बिना कुछ उलट-फेर के सत्य उनके सामने रखती हैं। वे राम से बहुत प्यार करती हैं। इस बात को कौशल्या भी स्वीकार करती हैं

"कैकेयी ने सदा राम का हित देखा है, पर पढ़ पाया कौन कुटिल विधि का लेखा है।

उसने मुझसे अधिक राम को पहचाना है, और राम ने मुझसे अधिक उसे माना है।"

इसी प्रेमभाव के कारण कैकेयी राम को मानवता के उद्धारक के रूप में यश दिलाना चाहती हैं। राम को वन भेजने के उद्देश्य के पीछे उसकी भावना महान्

है। वे कहती हैं

"राज्य राम के लिए नहीं लगना महान है, उसमें पौरुष प्रतिभा है, वे कीर्तिमान है।

उसके उर में प्रवाहमान मानव की ममता, समतामय समाज रचना की उसमें क्षमता।।"

इस प्रकार, इस खण्डकाव्य में कैकेयी के चरित्र के उज्ज्वल पक्ष को उभारकर उसे गौरवमयी बनाया गया है। कवि ने कैकेयी के चरित्र को एक भिन्न रूप में अभिव्यक्त करने में सफलता प्राप्त की है।

प्रश्न 6. 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के आधार पर कौशल्या के चरित्र की विशेषताएँ लिखिए।

अथना 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के आधार पर कौशल्या का चरित्र चित्रण कीजिए।

उत्तर रामायण महाकाव्य की प्रमुख पात्र कौशल्या कौशल प्रदेश के राजा सुकोशल एवं रानी अमृतप्रभा की पुत्री थीं। वे अयोध्या के राजा दशरथ की तीन पत्नी एवं उनके सौ रानियों में पटरानी थीं।

कौशल्या का सबसे पहला उल्लेख वाल्मीकि रामायण में पुत्र प्रेम में चाह रखने वाली माँ के रूप में हुआ है। मानस ग्रन्थ में कौशल्या के चरित्र में उच्च बुद्धिमत्ता का चित्रण हुआ है। यद्यपि कैकेयी के यशस्वी चरित्र के सामने कौशल्या का व्यक्तित्व कुछ दब सा गया है, लेकिन अपने जीवन के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक कौशल्य ने पटरानी राजमाता के अनुरूप मर्यादा का पालन किया है।

कौशल्या की चारित्रिक विशेषताएँ निम्न हैं

1. मर्यादा का पालन करने वाली दशरथ की पटरानी होने के फलस्वरूप कौशल्या

को राजभवन में अत्यन्त उच्च स्थान प्राप्त था।

उनका आचरण शालीनतापूर्ण था। वे मर्यादा का पालन करती थीं। कैकेयी से आकर्षण के कारण पति से उपेक्षित व्यवार मिलने के फलस्वरूप उनके मन में असन्तोष अवश्य था, किन्तु उन्होंने इसे किसी के सामने कभी प्रकट नहीं किया था।

पुत्र के राज्याभिषेक होने के समाचार से उन्हें खुशी हुई तथा किसी हद तक राजमाता बनकर जीवन के उपेक्षित पलों से मुक्त होने की भावना थी। पुनः कैकेयी और मंथरा के षड्यन्त्र से पुत्र राम के वनगमन के समाचार को सुनकर वे विचलित हो गई। अपराधी पति दशरथ को भला-बुरा कह सुनाया एवं राम के साथ वन जाने को तत्पर हो गईं। राम के यह कहने पर कि "पति की सेवा उनका प्रथम कर्त्तव्य है," उन्होंने राम के साथ वन जाने का विचार त्याग दिया। उन्होंने राम को कल्याण-यात्रा के लिए आशीर्वाद दिया। राम के वन चले जाने पर दशरथ के दुःखों का पारावार नहीं रहा। पुत्र के विरह

को भूलकर विषादग्रस्त राजा को कौशल्या ने अपना सहारा दिया।

दशरथ की मृत्यु के समय भी वे उनके साथ थी। पति के न रहने पर उनकी कान्तिहीन दशा एवं शोक उनकी मर्यादा के अनुरूप थे।

2. धर्मपरायणा कौशल्या धर्मपरायणा थीं। पुत्रेष्टि यज्ञ की पूर्व सन्ध्या पर पति के साथ यज्ञ के लिए दीक्षित होने वाली रानी कौशल्या ही थीं।

प्रश्न 7. 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के आधार पर राम का चरित्र-चित्रण कीजिए।

 अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के आधार पर राम के चरित्र की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

उत्तर कवि लक्ष्मीशंकर मिश्र 'निशंक' द्वारा रचित खण्डकाव्य 'कर्मवीर भरत' के नायक भरत हैं, परन्तु फिर भी राम के कारण ही भरत के चरित्र का विकास होने से राम भी महत्त्वपूर्ण पात्र बन गए हैं। यद्यपि राम अन्तिम सर्ग में ही प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित होते हैं, परन्तु सम्पूर्ण खण्डकाव्य में उनके व्यक्तित्व की पर्याप्त चर्चा हुई है। राम की चारित्रिक विशेषताएँ निम्न हैं

1. उदात्त गुणों से सम्पन्न एवं रघुकुल का गौरव राम समस्त श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न हैं। वे शक्ति, शील और सौन्दर्य के सागर हैं। उनके हृदय में दया, करुणा, ममता, सहनशीलता तथा कल्याणकारी भावनाओं का निवास है। उनके शक्ति, साहस और पौरुष के समक्ष दानव-मानव कहीं ठहर नहीं पाते। अपने इन्हीं गुणों के कारण वे रघुकुल के आदर्श हैं तथा सभी को प्यारे हैं। इन्हीं गुणों के कारण कैकेयी राम को अपने सभी पुत्रों में श्रेष्ठ मानती हैं। अतः उन्होंने जन-सेवा के लिए राम को ही वन भेजा।

2. दृढ़तापूर्वक कर्त्तव्यपालन करने वाले राम दृढ़-निश्चयी हैं और कभी भी कर्त्तव्य के पथ से पीछे नहीं हटते। कैकेयी के समझाने पर वे सहर्ष वन जाने के लिए तैयार हो जाते हैं। पश्चात् में भरत उन्हें अयोध्या वापस लौटने के लिए कहते हैं, तो वे दृढ़तापूर्वक अपने प्रण पर डटे रहते हैं। उन्हें अपने पिता के वचनों की कुल की मर्यादा की तथा माता की शिक्षा का स्मरण है। अतः वे दृढ़तापूर्वक कर्त्तव्य-पथ पर चलते रहते हैं।

3. भरत के प्रति अगाध स्नेह जिस प्रकार भरत की भक्ति राम के प्रति अटूट है, उसी प्रकार राम के मन में भी भरत के प्रति अगाध स्नेह है। जब भरत सभी को साथ लेकर सेना सहित चित्रकूट आते हैं, तो लक्ष्मण को भरत की निष्ठा पर सन्देह होता है, परन्तु राम को तनिक भी सन्देह नहीं हुआ, क्योंकि वे भरत को अच्छी प्रकार समझते थे और भरत के लिए वे अपयश भी स्वीकार कर सकते थे। वे भरत की प्रेम-धारा में बहते हुए कहते हैं

“बोले जो भी कहो वो मैं आज करूंगा, तुम कह दो तो अयश-सिन्धु में कूद पडूंगा।"

इस प्रकार 'कर्मवीर भरत' में राम के जाने-पहचाने एवं सर्वमान्य स्वरूप मर्यादा पुरुषोत्तम का चित्रण हुआ है।

   09 'तुमुल' खण्डकाव्य

कथासार/कथानक /कथावस्तु/ विषयवस्तु पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 1. 'तुमुल' खण्डकाव्य का कथानक संक्षेप में लिखिए। 

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य की कथा/कथावस्तु/कथानक संक्षेप में अपनी भाषा में लिखिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य की कथा संक्षेप में लिखिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य का सारांश लिखिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य का कथानक सरल रेखा की तरह लक्ष्योन्मुख है।

 'तुमुल' खण्डकाव्य के विषय में इस कथन को स्पष्ट कीजिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के कथा-संगठन पर प्रकाश डालिए।

उत्तर 'तुमुल' खण्डकाव्य के रचयिता 'हल्दीघाटी' के प्रणेता श्यामनारायण पाण्डेय हैं। सम्पूर्ण खण्डकाव्य को पन्द्रह सर्गों में विभाजित किया गया है। इनका क्रम इस प्रकार है-ईश स्तवन, दशरथ-पुत्रों का जन्म एवं बाल्यकाल, मेघनाद, मकराक्ष वध, रावण का आदेश, मेघनाद-प्रतिज्ञा, मेघनाद का अभियान, युद्धासन्न सौमित्र, लक्ष्मण-मेघनाद युद्ध तथा लक्ष्मण की मूर्च्छा, हनुमान द्वारा , • उपदेश, उन्मन राम, राम विलाप और सौमित्र का उपचार, विभीषण की मन्त्रणा, मख-विध्वंस और मेघनाद-वध तथा राम की वन्दना।

इस खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग में ईश-वन्दना करने के पश्चात् कवि ने दूसरे सर्ग में राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न के जन्म का वर्णन किया है और महाराज दशरथ की कीर्ति भी वर्णित की है। तीसरे सर्ग में मेघनाद के बल, बुद्धि, रण-कौशल आदि का वर्णन किया गया है। उसने युवावस्था में ही इन्द्र के पुत्र जयन्त को हराकर ख्याति पाई थी। उसके सामने युद्ध में कोई भी नहीं ठहर पाता था। चतुर्थ सर्ग में श्रीराम द्वारा मकराक्ष वध एवं उसकी से शोक संतप्त रावण की मनोदशा का वर्णन है। मृत्यु

मकराक्ष की मृत्यु से दुःखी रावण अपने ज्येष्ठ पुत्र मेघनाद को युद्ध के लिए, भेजने का निर्णय लेता है, क्योंकि मेघनाद को वे अपने समान ही पराक्रमी मानता था। पंचम सर्ग में रावण मेघनाद को युद्ध के लिए कूच करने का आदेश देता है और उसके शौर्य की प्रशंसा करते हुए मकराक्ष वध का प्रतिशोध लेने के लिए कहता है। पिता की आज्ञा मानते हुए षष्ठ सर्ग में मेघनाद युद्धभूमि में जाने के लिए तैयार हो जाता है। वे प्रतिज्ञा करता है कि यदि आज के संग्राम में विजयी बनकर नहीं लौटा तो फिर कभी युद्ध नहीं करेगा। सप्तम सर्ग में मेघनाद युद्ध के लिए प्रस्थान करता है। वे अपनी हारी हुई सेना में नवीन उत्साह भरता है और भीषण रण के लिए तैयार हो जाता है। अष्टम सर्ग में सौमित्र भी मेघनाद की ललकार सुनकर श्रीराम से युद्ध करने की अनुमति लेते हैं, परन्तु जब रणभूमि में उनका मेघनाद से सामना होता है, तो उस वीर की प्रशंसा करने से वे स्वयं को रोक नहीं पाते और उससे युद्ध न कर पाने की इच्छा व्यक्त करते हैं, परन्तु नवम सर्ग में मेघनाद उनसे युद्ध की माँग करता है। वे युद्धोचित सत्कार के पश्चात् लक्ष्मण को युद्ध करने के लिए ललकारता है। इस पर लक्ष्मण कुपित होकर युद्ध करना प्रारम्भ करते हैं। दोनों वीरों में काफी समय तक भयानक संग्राम होता है। दोनों पक्ष की सेनाएँ इस भीषण युद्ध को देखकर संशय में पड़ जाती हैं कि किसकी विजय होगी। अन्त में लक्ष्मण की शक्ति का ह्रास होते देख मेघनाद उन पर शक्ति छोड़ता है, जिसके लगते ही लक्ष्मण मूर्च्छित होकर गिर पड़ते हैं।

दशम सर्ग में हनुमान वानर सेना को उपदेश देते हैं कि वे लक्ष्मण की दशा देखकर अपना धीरज न खोएँ, क्योंकि इससे शत्रु को उनका उपहास करने का अवसर मिल जाएगा। एकादश सर्ग में राम की उन्मन दशा वर्णित है। उन्हें रह-रहकर किसी अनिष्ट की आशंका होती है, जिससे उनका हृदय कवे उठता है। द्वादश सर्ग में राम मूर्च्छित लक्ष्मण को देखकर तरह-तरह से विलाप करते हैं। लक्ष्मण उनके प्राणों का आधार थे, इसलिए उनकी ऐसी दशा देखकर राम की स्थिति अत्यन्त कारुणिक हो जाती है। तब मारुति जाम्बवन्त के आदेश से लंका के वैद्यराज सुषेन को लेकर आते हैं तथा उनके द्वारा बताई हुई संजीवनी बूटी लाते हैं, जिससे उन्होंने लक्ष्मण का उपचार किया। उपचार के उपरान्त लक्ष्मण स्वस्थ होकर उठ बैठे और उनकी सेना हर्षित हो उठी। त्रयोदश सर्ग में विभीषण राम से मन्त्रणा करते हैं कि मेघनाद देवी निकुम्भिला का यज्ञ कर रहा है। यदि उसका यह यज्ञ पूरा हो गया तो वे अजेय हो जाएगा। इसलिए उस पर अभी आक्रमण कर देना चाहिए। राम उससे सहमत होते हुए लक्ष्मण को युद्ध की आज्ञा दे देते हैं। चतुर्दश सर्ग में लक्ष्मण द्वारा मेघनाद का वध करने का वर्णन है। लक्ष्मण उसका यज्ञ पूर्ण नहीं होने देते और यज्ञशाला में ही उसका अन्त कर देते हैं। यद्यपि क्रोधित मेघनाद की बातें सुनकर एक बार लक्ष्मण उस पर प्रहार करने से पूर्व सोच में पड़ जाते हैं, परन्तु विभीषण के पुनः कहने पर वे उसका वध कर देते हैं। अन्तिम सर्ग में राम लक्ष्मण की विजय को अपूर्व बताकर उसका अभिनन्दन करते हैं, परन्तु लक्ष्मण अपनी जीत का श्रेय उन्हीं को देते हैं और उनकी स्तुति करते हैं। यहाँ इस खण्डकाव्य का अन्त होता है।

इस खण्डकाव्य का कथानक सरल रेखा की तरह लक्ष्योन्मुख है। इसका प्रमुख उद्देश्य लक्ष्मण-मेघनाद के बीच हुए युद्ध का चित्रण करना है। यद्यपि खण्डकाव्य का कथानक संक्षिप्त है और संवादों की प्रधानता है, परन्तु फिर भी काव्य कहीं भी शिथिल नहीं पड़ता। कथासूत्र कहीं भी धीमा नहीं पड़ता और घटनाओं के तेज़ी से घटने के कारण काव्य में गतिशीलता है, जिससे एक काव्य-लय उत्पन्न हो गई है। कवि का लेखन एवं कथा संगठन प्रशंसनीय हैं, क्योंकि रामायण के इस महत्त्वपूर्ण अंश को सरलतापूर्वक संक्षिप्त रूप से काव्यबद्ध करना सरल नहीं है। अन्त में कहा जा सकता है कि यह खण्डकाव्य अत्यन्त रोचक, ओज गुण से परिपूर्ण, प्रवाहमान तथा सशक्त कथानक वाला है, जो पाठकों को निराश नहीं करता।

प्रश्न 2. 'तुमुल' खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग का सारांश लिखिए। 

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग की कथावस्तु अपने शब्दों में लिखिए। 

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के किसी एक सर्ग का शीर्षक लिखकर उसका सारांश लिखिए।

प्रथम सर्ग

उत्तर 'तुमुल' खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग का नाम 'ईश स्तवन' है। इस सर्ग में ईश्वर की वन्दना की गई है तथा उसे सृष्टि के कण-कण में विद्यमान बताया गया है। कवि ईश्वर को नम तारों के प्रकाश, रवि, चाँद, वृक्षों, पवन, अग्नि, सागर, फूलों आदि में देखता है और उसे प्रणाम करता है। यह सर्ग मंगलाचरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

प्रश्न 3. 'तुमुल' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग की कथावस्तु का सारांश संक्षेप में लिखिए।

द्वितीय सर्ग

उत्तर 'तुमुल' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग का नाम 'दशरथ पुत्रों का जन्म एवं बाल्यकाल' है। इसकी कथावस्तु इस प्रकार है। सन्तानहीन राजा दशरथ का दुःख दूर करने तथा सज्जनों को अत्याचार एवं अन्याय से बचाने के लिए इक्ष्वाकु कुल में राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न का जन्म हुआ था। इनकी तेज तथा मनोहर छवि से सभी हर्षित होते थे। दशरथ सहित तीनों माताएँ राजकुमारों की बाल-क्रीड़ाएँ देखकर परम सुख पाती थीं। लक्ष्मण की माता देवी सुमित्रा थी।

दशरथ इक्ष्वाकु वंश के परम-प्रतापी राजा थे। सम्पूर्ण भारतवर्ष में उनकी कीर्ति की ध्वजा फहरा रही थी। वे कर्त्तव्यपरायण होने के साथ-साथ दानवीर भी थे और युद्धविद्या में भी प्रवीण थे। युद्ध में महाराज दशरथ ने सदा विजय प्राप्त की थी। वे परम उदार थे। सच्चरित्र दशरथ नीति-निपुण, गुणी तथा सभी विद्याओं के ज्ञाता थे। ऋषि-मुनि तथा साधारण जन उनके राज में सुख से रहते थे। ऐसे गुणवान राजा के पुत्र भी गुणी थे और वे शिक्षा ग्रहण कर अपने चरित्र को उज्ज्वल कर रहे थे।

प्रश्न 4. 'तुमुल' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का कथानक लिखिए।

तृतीय सर्ग

उत्तर 'तुमुल' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग (मेघनाद) में रावण के सबसे बड़े और पराक्रमी पुत्र मेघनाद का वर्णन है। इसका कथानक इस प्रकार है। मेघनाद राक्षसों के राजा रावण का पुत्र था। उसका तेज सूर्य के समान था, साथ ही वे बहुत पराक्रमी और रणधीर था। उसने युवावस्था में इन्द्र के पुत्र जयन्त को युद्ध पराजित किया था तथा सर्पराज को हराकर फणी-समाज को भी अपने अधीन कर में था। उसके प्रताप से धरती के सभी राजा डरते थे। उसके सामने आने से सभी घबराते थे। अब तक उसके समक्ष युद्ध में कोई भी ठहर नहीं पाया था। उसके पराक्रम के सामने सभी नतमस्तक हो जाते थे।

प्रश्न 5. 'तुमुल' खण्डकाव्य में मकराक्ष वध के परिणामस्वरूप शोकग्रस्त रावण की मनोदशा का वर्णन कीजिए।

 उत्तर 'तुमुल' खण्डकाव्य के चतुर्थ और पंचम सर्ग में मकराक्ष वध के परिणामस्वरूप शोकग्रस्त रावण की मनोदशा का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है

चतुर्थ सर्ग (मकराक्ष वध)

इस सर्ग में राम द्वारा मकराक्ष वध का वर्णन किया गया है। श्रीराम ने अपने तीखे बाणों के द्वारा राक्षसों का संहार किया। उनके सामने राक्षस-पुत्र मकराक्ष भी टिक नहीं पाया और वे युद्ध में उनके हाथों मारा गया। इस घटनाक्रम को सुनकर दशानन रावण उनसे भयभीत हो गया और दुःख से उसका हृदय भर आया। मकराक्ष को याद करते हुए दुःख और शोक से उसका मुख पीला पड़ गया और आँखों से आँसू बहने लगे। उसने मकराक्ष की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए मेघनाद को युद्ध में भेजने की योजना बनाई, क्योंकि मेघनाद उसके समान ही परमवीर था। मेघनाद ने अनेक राजाओं के साथ ही देवराज इन्द्र को भी पराजित किया था और इन्द्रजीत उपनाम पाया था। युद्ध क्षेत्र में वे काल का भी काल दिखाई देता था।

प्रश्न 6. 'तुमुल' खण्डकाव्य के पंचम सर्ग का कथानक लिखिए।

पंचम सर्ग (रावण का आदेश)

उत्तर मेघनाद के प्रताप के सामने रावण कुछ पल के लिए मकराक्ष-वध की व्यथा भी भूल गया था। उसने निश्चय कर लिया था कि अब मेघनाद को ही युद्ध के लिए भेजना उपयुक्त रहेगा। मकराक्ष-वध को सुनकर स्वयं मेघनाद भी राम-लक्ष्मण से युद्ध के लिए बहुत उतावला था। वे रावण से मिलने आया और उसके चरण स्पर्श किए। उसका अनुकूल व्यवार देखकर रावण ने अपने मन की बात उसे कह सुनाई। उसने कहा, 'हे पुत्र तुम्हारे रहते हुए राज्य की कैसी दशा हो गई है। सब ओर अस्थिरता छाई हुई है, चारों ओर हलचल मची हुई है। न जाने मेरे नगर में यह परिस्थिति क्यों उत्पन्न हुई है? परन्तु हे पुत्र! जो भी हो, अब हम युद्ध से पीछे नहीं हट सकते। अब राम से बदला लेना ही धर्म हो गया है। अतः मेरी आज्ञा है कि 'तुम युद्ध क्षेत्र में जाओ और लक्ष्मण को मारकर मेरे हृदय के विषाद को समाप्त करो।' आगे रावण मेघनाद के बल और वीरता का गुणगान करता है। वे कहता है कि मेघनाद तुम्हारी शक्तियों का अन्त नहीं है। घमासान युद्ध में भी तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं होता। रण में तुम्हारे सामने आने का साहस किसी में नहीं है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम युद्ध में शत्रु दल को अवश्य पराजित करोगे और राम से मकराक्ष-वध का प्रतिशोध लोगे। अतः अब तुम्हें शीघ्र ही युद्ध के लिए प्रस्थान करना चाहिए।

प्रश्न 7. 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर 'मेघनाद-प्रतिज्ञा' का वर्णन कीजिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के 'मेघनाद-प्रतिज्ञा' सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर 'मेघनाद की प्रतिज्ञा' सर्ग का सारांश लिखिए।

'तुमुल' खण्डकाव्य के षष्ठ सर्ग का कथानक/कथावस्तु लिखिए।

अथवा

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य में वर्णित 'मेघनाद की प्रतिज्ञा' का सोदाहरण वर्णन कीजिए।

षष्ठ सर्ग

उत्तर 'तुमुल' खण्डकाव्य के षष्ठ सर्ग 'मेघनाद की प्रतिज्ञा' में मेघनाद द्वारा की गई प्रतिज्ञा का वर्णन है। इस सर्ग का सारांश निम्न है पिता से युद्ध की आज्ञा पा चुके मेघनाद ने भीषण गर्जना की। उसकी ललकार से रावण का स्वर्ण-महल भी कॉप गया। वोँ बैठे सभी वीर उत्साह से एकटक उसे देखने लगे। यह देखकर रावण का हृदय भी विजय की आशा से सगर्व फूल गया। पिता को देखकर मेघनाद ने प्रतिज्ञा की— हे पिताजी! मेरे होते हुए आपको शोक करने की आवश्यकता नहीं। यदि मैं आपका कष्ट नहीं हर पाया

तो फिर कभी धनुष धारण नहीं करूंगा। उसने कहा "मैं राम के सम्मुख हो लडूंगा, जाके सभी का शिर काट दूंगा।

सौमित्र का भी बल देख लूंगा, लंकापुरी का दुःख मैं हरूंगा।" मेघनाद आगे कहता है कि वे (राम-लक्ष्मण) झूठे अभिमान से भरे हुए हैं, लगता है अभी तक उनका सामना वीरों से नहीं हुआ है। मैं रणक्षेत्र में रक्त की धारा बहा दूंगा। मैं आप से बस इतना ही कहता हूँ कि संग्राम में मैं विजयी बनकर ही लौटूंगा। मैं सिंह की भाँति भयंकर युद्ध करूंगा और अपने शत्रुओं का नाश करूंगा। वे चाहे आकाश में वास करें या पाताल में शरण लें, वे कहीं भी मुझसे अपने प्राणों की रक्षा नहीं कर पाएंगे। अन्त में वे रावण को वचन देता है

"लेंगे न देख मम नेत्र अड़ा किसी को, दूंगा सगर्व रहने न खड़ा किसी को। संग्राम में यदि न में विजयी बनूँगा,

तो युद्ध का फिर न नाम कदापि लूंगा।। "

प्रश्न 8. 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर 'मेघनाद अभियान' सर्ग की कथा लिखिए।

अथना 'तुमुल' खण्डकाव्य में वर्णित 'मेघनाद का अभियान सर्ग का कथासार / सारांश अपने शब्दों में लिखिए।

सप्तम सर्ग

अथवा 'तुमुल खण्डकाव्य के सप्तम सर्ग की कथावस्तु अपने शब्दों में लिखिए। उत्तर 'तुमुल' खण्डकाव्य में वर्णित सप्तम सर्ग 'मेघनाद का अभियान' का कथासार

निम्नलिखित है अपने पिता रावण के सामने प्रतिज्ञा कर मेघनाद ने उसे धीरज बँधाया, परन्तु पिता का दुःख देखकर स्वयं क्रोध से जलने लगा। वे युद्ध के लिए तैयार होकर रणभूमि में जाने के लिए सजग हो गया। उसके क्रोध से समस्त देवता भी काँपने लगे। ऐसा लग रहा था मानो उसके हाथों सभी की मृत्यु आ गई है। उसने अपने तेज और क्रोध से सभी को डरा दिया था। उसका क्रोध प्रचण्ड था।

"उस भाँति उसका क्रोध द्वारा, लाल मुख था हो गया। मानो दशानन-लाल का मुख, काल-मुख था हो गया।।”

राम को पराजित करने की बात सोचता हुआ वे अपनी सेना का अवलोकन करने गया। एक बार तो उसके सेनापति भी उसके क्रोध से डर गए और काँपते हुए उसके क्रोध का कारण पूछा

"क्या क्रोध करने का महोदय, हेतु है बतलाइए। मैं जानता कुछ भी नहीं हूँ, इसलिए बतलाइए।। "

अपने सैनिकों में उत्साह पाकर मेघनाद सेनापति को रथ सजवाने एवं युद्ध के बाजे बजाने के लिए निर्देश देता है। एक ओर लंका के वीर विजय की आशा कर रहे थे, तो दूसरी ओर देव समाज मेघनाद की वीरता का अनुमान लगाते हुए श्रीराम एवं उनकी सेना के अनिष्ट के बारे में सोच-सोचकर घबरा रहा था। युद्ध के लिए मेघनाद को जाते हुए देखकर देवताओं के मुख भय से पीले पड़ गए।

"कैसे बचेंगे राम' कह, चिन्ताग्नि से जलने लगे। भयभीत होकर सुर परस्पर, बात यों करने लगे।।”

सभी देवता उसकी वीरता के बारे में जानते हैं। अत: वे कहने लगे कि मेघनाद तो काल को भी मारने में समर्थ है। लगता है आज भूमि वीरों से विीन हो जाएगी। ऐसा लगता है कि आज तो वे राम को जीत ही लेगा।

जब वे बाण छोड़ता है तो सूर्य और चन्द्रमा भी धीरज त्याग देते हैं। यद्यपि रघुनाथ बलशाली हैं, परन्तु आज मेघनाद सिंह के समान लड़ेगा। देवतागण परस्पर ये बातें ही कर रहे थे कि मेघनाद ने युद्धक्षेत्र में क्रोध से भरकर सिंह के समान भयानक गर्जना की।

प्रश्न 9. 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर 'युद्धासन्न सौमित्र' खण्ड की कथा संक्षेप में लिखिए।

अष्टम सर्ग (युद्धासन्न सौमित्र) 

उत्तर इस सर्ग में राम जी से आज्ञा पाकर लक्ष्मण युद्ध करने के लिए तैयार हो गए। मेघनाद की सुनकर शत्रु सेना भी भयंकर नाद करने लगी। युद्धातुर लक्ष्मण को देखकर हनुमान आदि वीर भी युद्ध हेतु तत्पर हो गए। लक्ष्मण ने क्षण भर में ही मेघनाद के सम्मुख मोर्चा ले लिया। दोनों वीरों में भीषण युद्ध प्रारम्भ हो गया। इस युद्ध में कौन विजयी होगा, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता था। मेघनाद के उन्नत ललाट, लम्बी भुजाओं और वीरवेश को देखकर स्वयं लक्ष्मण ने भी उनको प्रशंसा की। लक्ष्मण ने कहा कि तुम्हें अपने सम्मुख देखकर भी युद्ध करने की इच्छा नहीं होती। मुझे चिन्ता है कि में अपने बाणों से तेरी छाती को कैसे छलनी करूँगा? मेघनाद, लक्ष्मण के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर उनकी उदारता के विषय में विचार करने लगा। यद्यपि वे लक्ष्मण के ज्ञान की गरिमा को समझता है, फिर भी शत्रु समझकर उनकी मधुर वाणी के जाल में उलझना नहीं चाहता और युद्ध करने का निश्चय करता है।

प्रश्न 10. 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर नवम सर्ग का वर्णन कीजिए।

(2018) अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर लक्ष्मण मेघनाद युद्ध का वर्णन कीजिए। 

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के नवम सर्ग का सारांश लिखिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर नवम सर्ग लक्ष्मण मेघनाद युद्ध तथा लक्ष्मण की मूर्च्छा' का सारांश लिखिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर लक्ष्मण मेघनाद युद्ध एवं उसके परिणाम पर प्रकाश डालिए।

नवम सर्ग

उत्तर 'तुमुल' खण्डकाव्य के नवम सर्ग का नाम 'लक्ष्मण मेघनाद युद्ध तथा लक्ष्मण की मूर्च्छा' है। इसमें दोनों के मध्य हुए युद्ध एवं उसके परिणाम का वर्णन इस प्रकार हैं

लक्ष्मण द्वारा प्रशंसा सुनकर मेघनाद गर्वित हो उठता है, परन्तु कुछ देर सोचकर विनयपूर्वक कहता है कि आपके वचन सत्य हैं। आप भी रूपवान होने के साथ-साथ बुद्धिमान, अत्यन्त वीर, पराक्रमी, नीतिज्ञ, वेदज्ञानी, मर्मज्ञ तथा सर्वज्ञ हैं, किन्तु आप भी सुन लीजिए कि मैं आज यहाँ अपने पिता के सम्मुख प्रतिज्ञा करके आया हूँ कि मैं अपने शत्रुओं को युद्धभूमि में सदा-सदा के लिए सुला दूंगा। चाहे आपकी इच्छा कुछ भी हो, परन्तु मैं आज अपने पिता की इच्छा पूर्ण करने के लिए आया हूँ। मैं युद्ध किए बिना यहाँ से जाऊँगा नहीं। अतः आप भी युद्ध करने के लिए तैयार हो जाइए।

मेघनाद के वचन सुनकर लक्ष्मण को क्रोध आ गया और कहने लगे “मैंने हँसी की और यह, बनता बली वरवीर है।

यह नीच अपने आप को क्या समझता रणधीर है।।

लक्ष्मण कहने लगते हैं कि पता नहीं क्या सोचकर मैंने अपने हृदय के भाव तुम्हें बता दिए, परन्तु सत्य यही है कि जिस प्रकार सर्प दूध पीने पर भी अपने विष को नहीं त्यागते, ठीक उसी प्रकार मधुर वाणी सुनकर भी दुष्ट और खल नहीं सुधरते। यह कहकर सौमित्र युद्ध के लिए तत्पर हो गए और शत्रु-पक्ष पर अपने तीखे बाणों से प्रहार करने लगे। उनके रण-कौशल को देखकर मेघनाद की सेना का उत्साह मन्द पड़ गया और वे पीछे हटने लगी। यह देखकर मेघनाद अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाने लगा उसने अपने सैनिकों को सम्बोधित करते हुए कहा कि शत्रु से डरकर रण त्यागना कायरता है। तुम्हारी इस कायरता पर धिक्कार है। मेरे युद्ध-कौशल को भी देखो और शत्रुओं से वीरतापूर्वक युद्ध करो। मैं शीघ्र ही शत्रुओं को परास्त कर दूंगा

“पूरा करूंगा तात से जो बात मैंने है कही। लड़ते हुए अरि को धराशायी करूँगा शीघ्र ही।।”

मेघनाद का उपदेश सुनकर उसकी सेना में पुन: उत्साह का संचार हुआ और वे पहले की तरह शत्रु से लड़ने लगी। अब मेघनाद ने भीषण युद्ध करना प्रारम्भ कर दिया। वे कभी आकाश में जाकर तो कभी धरती पर आकर वानर सेना का संहार करने लगा। मेघनाद-लक्ष्मण में भयंकर संग्राम होने लगा। जिस प्रकार दो सिंह आपस में लड़ते हैं, वैसे ही दोनों वीर लड़ने लगे। मेघनाद धीरे-धीरे लक्ष्मण पर हावी होने लगा। लक्ष्मण की सेना भी मेघनाद के प्रताप से घबराने लगी। दोनों वीर रक्त से लथपथ थे।

लक्ष्मण की शक्ति मन्द पड़ते हुए देखकर मेघनाद ने शक्ति सन्धान किया और लक्ष्मण पर छोड़ दी। शक्ति लगते ही लक्ष्मण पलभर में मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़े। लक्ष्मण की यह दशा देखकर उनकी सेना में भीषण विषाद छा गया। सारा संसार भी मेघनाद की शक्ति देखकर अकुला गया। इधर मेघनाद लक्ष्मण को पराजित करके गर्व से उन्मत्त होकर सिंह के समान दहाड़ता हुआ लंका की ओर चल पड़ा।

प्रश्न 11. 'तुमुल' खण्डकाव्य के हनुमान द्वारा उपदेश' सर्ग का सारांश लिखिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य में हनुमान द्वारा दिए गए उपदेश का वर्णन कीजिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के दशम सर्ग का कथानक लिखिए।

दशम सर्ग

उत्तर 'तुमुल' खण्डकाव्य के दशम सर्ग (हनुमान द्वारा उपदेश) में लक्ष्मण-मूर्च्छा के पश्चात् वानर सेना के व्याकुल होने का वर्णन है। इसका सारांश निम्नलिखित है

लक्ष्मण के मूर्च्छित होते ही वानर सेना शोक से व्याकुल हो उठी। वे तरह-तरह से विलाप करने लगे और अपनी शक्ति खोने लगे। तब हनुमान ने परिस्थिति को सँभालते हुए सैनिकों को ढांढस बंधाया और उपदेश देने लगे। हनुमानजी कहते है कि इस समय चिन्ता करना व्यर्थ है। तुम सब वीर हो, अतः वीर बनकर अपने हृदय की वेदना दूर करो। हम सभी श्रीराम के उपासक हैं, जो साक्षात् भगवान हैं। उनकी समता कोई नहीं कर सकता। काल भी उनके क्रोध को देखकर व्याकुल हो जाता है। वे सदा शान्ति स्थापना के लिए अवतार लेते हैं। लक्ष्मण उनके प्राणों का आधार हैं। तुम्हें क्या लगता है कि जो लक्ष्मण रघुनाथ के हृदय में वास करते हैं, वे सदा के लिए सो गए? तुम्हारा यह सोचना एवं आँसू बहाना व्यर्थ है। अतः घबराओ नहीं और शान्त हो जाओ। जो धीर-वीर होते हैं, उन्हें इस प्रकार रण में शोक करना शोभा नहीं देता। तुम्हारी ऐसी दशा देखकर शत्रु तुम्हारा उपहास करेंगे। हनुमान के ये वचन सुनकर उनके सैनिक कुछ सँभले और शोकरहित होने लगे। राम अपनी कुटी में बैठे हुए थे। अचानक ही उनका मन चिन्तित हो गया।

प्रश्न 12. 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर 'राम-विलाप और सौमित्र का उपचार' सर्ग की कथा संक्षेप में लिखिए। 

 अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य की जिस घटना ने आपको प्रभावित किया हो,उसका वर्णन कीजिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के किसी मार्मिक स्थल का वर्णन कीजिए।

 अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के 'राम-विलाप और सौमित्र का उपचार' सर्ग का सारांश लिखिए और समझाइए कि सर्वाधिक मार्मिक स्थल आपको कौन-सा लगा?

उत्तर 'तुमुल' खण्डकाव्य के द्वादश सर्ग 'राम-विलाप और सौमित्र का उपचार' का सारांश निम्न है

लक्ष्मण को मूर्च्छित देखकर राम जैसे धीर-वीर पुरुष भी शोक-सागर में डूब जाते हैं। वे तरह-तरह से विलाप करते हुए कहते हैं कि तुम्हारी यह दशा मुझसे देखी नहीं जाती। मैं तुम्हारे बिना जीवित नहीं रह सकता। तुम्हारे बिना मैं अयोध्या वापस कैसे जाऊँगा? तुम तो योगी हो, फिर आज नयन मूंदे क्यों पड़े हो? हे धनुर्धर! तुम हाथ में धनुष लेकर फिर से उठ जाओ। मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता, एक बार अपने नेत्रों को खोलो। रघुनाथ की यह कारुणिक दशा देखकर जाम्बवन्त हनुमान को परामर्श देते हैं कि तुम शीघ्र जाकर लंका से वैद्यराज सुषेन को ले आओ।

हनुमान बिना विलम्ब किए वैद्यराज को लंका से ले आते हैं। सुषेन वैद्य कहते हैं कि संजीवनी बूटी के बिना लक्ष्मण की चिकित्सा असम्भव है। हनुमान फिर संकटमोचन बनकर संजीवनी लाने को प्रस्थान करते हैं। मार्ग में वे कालनेमि का संहार करते हैं। जब हनुमान पर्वत पर पहुंचे तो वे संजीवनी बूटी की पहचान न कर पाए। अतः देर किए बिना पूरा पर्वत लेकर ही लंका की ओर चल पड़े। उधर राम की व्याकुलता बढ़ती जा रही थी कि तभी हनुमान संजीवनी लेकर पहुँच जाते हैं। सुषेन संजीवनी बूटी से लक्ष्मण का उपचार करते हैं और "सौमित्र सिंह समान सोकर, मुस्कराते जग गए।

रामादि के उर-ताप जाकर शत्रु-उर से लग गए।।" लक्ष्मण की मूर्च्छा टूटते ही वानर सेना में सर्वत्र प्रसन्नता की लहर दौड़ गई और उनमें उत्साह का संचार होने लगा। यह सर्ग हमें इस काव्य का सबसे मार्मिक स्थल लगा, क्योंकि इसमें राम के भ्रातृ-प्रेम की झलक मिलती है। करुणा से भरकर उनका लक्ष्मण के लिए विलाप करना पाठकों को भी व्यथित कर देता है।

प्रश्न 13. 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर मेघनाद वध सर्ग का कथानक लिखिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर मेघनाद वध का सारांश लिखिए। 

अथवा मेघनाद वध के लिए विभीषण ने राम-दल को कौन-सी मन्त्रणा दी और उसका क्या परिणाम हुआ? 

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के चतुर्दश सर्ग के युद्ध वर्णन पर प्रकाश डालिए।

उत्तर 'तुमुल' खण्डकाव्य के चतुर्दश सर्ग 'मख-विध्वंस और मेघनाद वध' का सारांश इस प्रकार है सौमित्र अपने दल-बल सहित सीधे उस स्थान पर पहुंचे, जहाँ मेघनाद यज्ञ कर रहा था। मेघनाद को देखकर लक्ष्मण पल-भर के लिए रुके, परन्तु फिर तत्काल ही मेघनाद पर प्रहार करना आरम्भ कर दिया। मेघनाद के शरीर से रक्त बहने लगा और यज्ञ की अग्नि भी बुझने लगी, परन्तु मेघनाद यज्ञ में संलग्न रहा। एक-एक करके यज्ञ के पुरोहित, यजमान आदि लक्ष्मण की सेना द्वारा मारे गए। केवल मेघनाद ही शेष रह गया। विभीषण के कहने पर लक्ष्मण ने मेघनाद पर तीव्र प्रहार करने आरम्भ कर दिए। वे लक्ष्मण के इस कृत्य से क्रोधित हो उठा और कहने लगा कि इस प्रकार छल से युद्ध करना वीरों का लक्षण नहीं है। इस प्रकार यदि आपने मुझ पर विजय पा भी ली तो वे आपकी हार ही होगी। निशस्त्र यजमान को मारने का जो कलंक रघुवंश पर लगेगा, उसे कभी धोया नहीं जा सकेगा। मेघनाद की यह बात सुनकर लक्ष्मण रुक गए

“घननाद की सुन बात धनु पर, वीर का शर रुक गया। क्षणभर मही की ओर उनका, आप ही सर झुक गया।।"

परन्तु विभीषण ने पुनः लक्ष्मण को मेघनाद पर प्रहार करने के लिए कहा। लक्ष्मण ने उनकी बात मानते हुए मेघनाद का संहार किया। लक्ष्मण की विजय से हर्षित होकर स्वर्गलोक में देवता भी प्रसन्न होकर लक्ष्मण पर पुष्प वर्षा करने लगे। इस प्रकार सौमित्र ने अपना प्रण पूरा किया।

प्रश्न 14. 'तुमुल' खण्डकाव्य का प्रतिपाद्य विषय क्या है? उससे इस ग्रन्थ के रचयिता के किन उद्देश्यों की पूर्ति होती है? लिखिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य में लक्ष्मण मेघनाद की वीरता और पराक्रम पर बहुत कुछ कहा गया है। आपको इनमें से किसकी वीरता अधिक प्रभावित करती है? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।

उत्तर कविवर श्यामनारायण पाण्डेय द्वारा रचित खण्डकाव्य 'तुमुल' का मूल उद्देश्य लक्ष्मण एवं मेघनाद के बीच हुए युद्ध का वर्णन करना है। 'रामचरितमानस' से प्रेरित होकर लिखे गए इस खण्डकाव्य की कथावस्तु में मूल कथा के साथ अधिक छेड़छाड़ नहीं की गई है। इस खण्डकाव्य का मुख्य प्रयोजन लक्ष्मण की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालना है। साथ ही, वे मेघनाद के व्यक्तित्व को भी समान रूप से महत्त्व देता हुआ, उसका चित्रण करता है। कवि खण्डकाव्य के नायक तथा खलनायक दोनों का वर्णन करने में सफल हुआ है। लक्ष्मण रूप-सौन्दर्य, बल, बुद्धि, विनय, शील, सदाचार आदि गुणों की साकार मूर्ति हैं, परन्तु युद्ध में उतने ही भीषण भी हैं। दूसरी ओर मेघनाद है, जो बल और शौर्य में लक्ष्मण से कम तो बिल्कुल नहीं है। स्वयं लक्ष्मण भी उसकी प्रशंसा करते हैं परन्तु वे अहंकारी, अभिमानी, क्रोधी तथा खल-प्रवृत्ति वाला है। रावण का पितृभक्त पुत्र मेघनाद उसी के समान प्रचण्ड और प्रबल है। रावण स्वयं अहंकारी, अधर्मी और वासनाओं का दास था। मेघनाद उसी का प्रतीक है। कहा जा सकता है कि कवि ने राम-रावण के व्यक्तित्व का द्वन्द्व दिखाने के लिए लक्ष्मण और मेघनाद का द्वन्द्व वर्णित किया है। लक्ष्मण और मेघनाद दोनों ही अपूर्व शक्ति के स्वामी थे, परन्तु राम के प्रताप एवं इच्छा से विजय लक्ष्मण की ही हुई।

अतः कवि इस सत्य को एक बार फिर से प्रतिष्ठित करता है कि अधर्मी और तामसी वृत्ति वाला शत्रु कितना ही प्रबल क्यों न हो, परन्तु विजय उसकी ही होती है, जो धर्म के पक्ष में होता है।

अतः इस खण्डकाव्य का उद्देश्य पाठकों को लक्ष्मण के व्यक्तित्व का अंश रहे सद्गुणो; जैसे—त्याग, धैर्य, शूरवीरता, साहस, सदाचार, दया आदि को अपनाने की प्रेरणा देना है। लक्ष्मण का चरित्र निश्चित रूप से पाठकों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है।

प्रश्न 15. 'तुमुल' खण्डकाव्य के शीर्षक की सार्थकता या इसके नामकरण के

औचित्य को स्पष्ट कीजिए। उत्तर 'तुमुल' शब्द का शाब्दिक अर्थ है- भीषण। क्रोधी, व्याकुल, उत्तेजित हंगामा, शोरगुल, अव्यवस्थित, रण-संकुल आदि इसके अन्य अर्थ हैं। ये सभी शब्द मिलकर युद्ध एवं उसके वातावरण का चित्र साकार करते हैं। इस खण्डकाव्य की मुख्य कथावस्तु भी युद्ध ही है। लक्ष्मण-मेघनाद के बीच हुए युद्ध का वर्णन ही यहाँ प्रमुख है। काव्य की भूमिका में लेखक स्वयं यह स्वीकार करता है कि इसका कथानक मुख्य रूप से लक्ष्मण मेघनाद युद्ध की दिशा में ही उन्मुख है। उनके बीच हुए युद्ध का वर्णन करते हुए उन सभी शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है, जो ऊपर तुमुल के समानार्थी शब्द बताए गए हैं।

दोनों अत्यन्त क्रोधी हैं, एक-दूसरे से युद्ध करने के लिए व्याकुल हैं एवं उत्तेजित हैं, उनके बीच भीषण युद्ध होता है, और अन्त में अव्यवस्थित वातावरण में मेघनाद वीरगति प्राप्त करता है। इस प्रकार, इन सभी शब्दों के अर्थ को समाहित करते हुए इस खण्डकाव्य को 'तुमुल' शीर्षक देना उचित एवं सार्थक है। इसकी संक्षिप्तता, सार्थकता, विषय-वस्तु के लिए सटीकता आदि गुण इसे एक अच्छे शीर्षक के रूप में स्थापित करते हैं।

चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 16. 'तुमुल' खण्डकाव्य के मुख्य पात्र का चरित्रांकन कीजिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के प्रधान पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के नायक की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। 

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर लक्ष्मण की चारित्रिक विशेषताएँ बताइए। 

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर प्रमुख पात्र की विशेषताएँ

लिखिए। अथना 'तुमुल' खण्डकाव्य के नायक की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।

अथवा तुमुल खण्डकाव्य के आधार पर उसके प्रधान पात्र का चरित्रांकन कीजिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर नायक लक्ष्मण का चरित्र-चित्रण कीजिए। 

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर उसके नायक का चरित्रांकन कीजिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य का नायक कौन है? उसके चरित्र की (तीन मुख्य) विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

अथवा 'तुमुल' नामक खण्डकाव्य में जिस पात्र ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया हो, उसकी चारित्रिक विशेषताएँ संक्षेप में लिखिए।

उत्तर 'तुमुल' खण्डकाव्य के प्रमुख कथानायक लक्ष्मण हैं। सम्पूर्ण खण्डकाव्य की कथावस्तु उनके इर्द-गिर्द ही घूमती है। श्रेष्ठ नायक के गुणों से सम्पन्न लक्ष्मण के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. सौन्दर्य की मूर्ति लक्ष्मण का रूप-सौन्दर्य अद्वितीय था। उनका व्यक्तित्व अत्यन्त आकर्षक था। कवि ने उनकी समता चन्द्रमा से की है तथा माता सुमित्रा के इस लाल को 'अमूल्य' कहा है। वे प्रारम्भ से ही आकर्षक थे। कवि ने उनके बारे में कहा है

"थी बोल में सुन्दर सुधा, उर में दया का वास था। था तेज में सूरज, हँसी में चाँद का उपहास था।"

वे परम तेजस्वी, परन्तु सौम्य थे। उनका व्यक्तित्व 'थे कान्ति के आगार' कहकर स्पष्ट किया गया है। प्रतिद्वन्द्वी भी उनके व्यक्तित्व के आकर्षण से बच नहीं पाते। प्रतिनायक मेघनाद भी उन्हें देखकर अनायास ही कह उठता है, "प्रकट में कमनीय स्वरूप है", "लावण्यधारी ब्रह्मचारी।" रघुकुल की शोभा बढ़ाने वाले लक्ष्मण सचमुच समुद्र मन्थन से निकले रत्न के समान अद्वितीय हैं।

2. उदात्त चरित्र बाह्य रूप से लक्ष्मण जितने सुन्दर एवं आकर्षक हैं, आन्तरिक रूप से भी उतने ही सवेनीय हैं। उनका अन्तःकरण एक शिशु की भांति सरल, शुद्ध तथा कोमल है। उनमें उदारता, कोमलता, विनम्रता, दया, सौम्यता आदि मानवीय गुणों का समावेश है। उनके उदार चित्त का परिचय खण्डकाव्य में कई स्थानों पर मिलता है। वे मेघनाद को शत्रु के रूप में देखने के पश्चात् भी उसकी प्रशंसा किए बिना नहीं रहते। अन्त में यजमान मेघनाद का संहार करते हुए भी एक बार स्वयं को रोक लेते हैं। अतः उचित ही है कि

“निशदिन क्षमा में क्षिति बसी, गम्भीरता में सिन्धु था।

था धीरता में अद्रि, यश में खेलता शरदिन्दु था।" 

3. परम शक्तिशाली यह सत्य है कि लक्ष्मण उदार हृदय तथा कोमल स्वभाव वाले हैं, परन्तु एक क्षत्रिय की भाँति उनमें पराक्रम, ओज, वीरता, उत्साह आदि की भावना भी प्रबल थी। रण में लक्ष्मण धीर, वीर, गम्भीर तथा भीषण योद्धा हैं। शत्रु की ललकार सुनकर वे चुप नहीं रह सकते।

“सौमित्र को घननाद का रव, अल्प भी न सहा गया।

निज शत्रु को देखे बिना, उनसे न तनिक रहा गया।"

उनके पराक्रम से शत्रु दहलने लगता था।

“ऐसी दशा अवलोक पीछे, अरि अनी हटने लगी। निर्जीव वीरों से समर की मेदिनी पटने लगी।।” उनके शौर्य और पराक्रम को राम भी रेखांकित करते हुए कह उठते हैं "मैं जानता था मार सकते हो तुम्हीं घननाद को।।”

4. राम के प्रति समर्पित लक्ष्मण श्रीराम के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं। राम उन्हें अपना 'अनन्य बाल भक्त' स्वीकार करते हैं। वे राम के समान ही वीर, धीर हैं, परन्तु अपनी सफलता का सारा श्रेय राम को ही देते हैं। तभी तो मेघनाद पर विजय पाकर भी वे गर्वित नहीं होते और इसे उनके चरणों का प्रताप बताते हैं। वे श्रीराम के कारण ही वन में उनके साथ आए थे और प्रत्येक कार्य से पूर्व उनसे आशीर्वाद लेते थे। इस प्रकार, लक्ष्मण अपने नाम के अनुरूप ही समस्त लक्षणों से उनमें एक नायक के सभी गुण विद्यमान थे। युक्त थे।

प्रश्न 17. 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर मेघनाद का चरित्र चित्रण कीजिए। 

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के प्रतिनायक मेघनाद का चरित्र चित्रण कीजिए।

अथवा 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर सिद्ध कीजिए कि मेघनाद का चरित्र सर्वोत्कृष्ट है।

अधना 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर मेघनाद की चारित्रिक विशेषताएँ लिखिए।

उत्तर मेघनाद 'तुमुल' खण्डकाव्य का प्रमुख प्रतिनायक है। उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

 1. आकर्षक व्यक्तित्व नायक लक्ष्मण की भाँति ही मेघनाद भी आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी है। उसके तेजस्वी स्वरूप को देखकर सभी की दृष्टि उस पर ठहर जाती थी।

"जो वीर थे बैठे वॉ वे, टक-टक लखने लगे।।" रणभूमि में उसके उन्नत ललाट, ऊँचे भाल, नीले गात, चन्द्र जैसी शोभा, लम्बी-चौड़ी छाती, लम्बे पुष्ट-बाहु देखकर लक्ष्मण भी उसके सौन्दर्य की प्रशंसा करते हैं और कह उठते हैं

पाता होगा मोद माँ का कलेजा, तेरे जैसे पुत्र की देख शोभा।

पाता होगा सर्वदा हर्ष जी में, तेरा नामी विक्रमी जन्मदाता।।"

2. परम शक्तिशाली एवं शूरवीर मेघनाद पराक्रम का अतुल्य स्वामी है, इस बात में कोई सन्देह नहीं। राम, लक्ष्मण तथा अन्य वीर भी उसके पराक्रम को स्वीकार करते हैं। उसने युद्ध में इन्द्र के पुत्र जयन्त तथा स्वयं इन्द्र को भी परास्त किया था। इसलिए उसे 'इन्द्रजीत' का उपनाम भी मिला था। रावण को उसकी शक्ति पर अपने समान ही विश्वास है। उसकी शक्तियों का अन्त नहीं है। जब वे युद्ध करता है तो देवता भी काँपने लगते हैं और रणधीर कहलाने वाले वीर भी धराशायी हो

जाते हैं। वे युद्ध में एक बार लक्ष्मण पर हावी होकर उन्हें मूर्च्छित भी कर देता है।

 3. अति आत्मविश्वासी एवं अभिमानी मेघनाद को अपने बल, शौर्य तथा शक्ति पर अत्यधिक विश्वास है। वे प्रतिज्ञा करता है कि यदि विजयी होकर नहीं लौटा तो फिर कभी युद्ध नहीं करेगा। वे अपने प्रण को पूरा करने में सफल भी होता है, परन्तु वे अभिमानी भी है। लक्ष्मण द्वारा अपनी प्रशंसा सुनकर वे विनम्रता का नहीं, अपितु अहंकार का प्रदर्शन करता है। “जो-जो कहा उसको उन्होंने ध्यान से तो सुन लिया।

पर गर्व से घननाद, सौमित्रि को लख हँस दिया।।”

4. परम पितृभक्त भले ही मेघनाद राक्षस-राज रावण का पुत्र है, परन्तु राक्षस होने पर भी वे उच्च गुणों से सम्पन्न है। वे परम पितृभक्त है। वे सामने आने पर रावण के चरण स्पर्श करता है। वे अपने पिता को चिन्तित देखकर व्याकुल हो उठता है। वे अपने पिता की सन्तुष्टि के लिए भीषण रण करने से भी नहीं घबराता। वे अपने पिता को दिए गए वचन को पूर्ण करने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है। वे लक्ष्मण से कहता है

“अतएव मानूँगा नहीं, सन्नद्ध अब हो जाइए।

हे वीरवर! मेरी विजय से, बद्ध अब हो जाइए।"

5. तामसी वृत्ति वाला राक्षस वंशी होने के कारण वे तामसी वृत्ति वाला भी है। इसलिए पुनः युद्ध से पूर्व वे तामसी-यज्ञ करता है। यज्ञ सम्पन्न करने के पश्चात् उसे पराजित करना कठिन था। इस यज्ञ को पूरा करने हेतु वे शत्रु लक्ष्मण के प्रहारों को भी काफी देर तक झेलता रहता है। इस प्रकार कवि ने मेघनाद के चरित्र के सभी पक्षों को उजागर किया है। वे परम उत्साही, दृढ़-प्रतिज्ञ, शौर्यशाली, पितृभक्त है जिसके कारण वे प्रतिनायक होते हुए

भी नायक लक्ष्मण पर हावी होता है, और लक्ष्मण द्वारा मारे जाने पर सहानुभूति भी पाता।

विद्यालय में पुस्तकालय का महत्त्व पर निबंध

    विद्यालय में पुस्तकालय का महत्त्व

रूपरेखा-(1) प्रस्तावना, (2) पुस्तकालय का अर्थ, (3) पुस्तकालयों के प्रकार, (4) पुस्तकालय की उपयोगिता (लाभ), (5) कुछ प्रसिद्ध पुस्तकालय, (6) पुस्तकालयों के प्रति हमारे कर्त्तव्य, (7) सुझाव, (8) उपसंहार।

प्रस्तावना - ज्ञान-जिज्ञासा मानव का स्वाभाविक गुण है। इसी की तृप्ति के लिए वह पुस्तकों का अध्ययन करता है। पुस्तकालय वह भवन है, जहाँ अनेक पुस्तकों का विशाल भण्डार होता है। पुस्तकालय से बढ़कर ज्ञान-जिज्ञासा को शान्त करने का कोई अन्य उत्तम साधन नहीं है। यही पुस्तकें हमें असत् से सत् की ओर तथा अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ने की प्रेरणा देती हैं और अन्ततः हमारी अन्तः प्रकृति में यह ध्वनि गूंज उठती है—"असतो मा सद् गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय।"

पुस्तकालय का अर्थ - पुस्तकालय का अर्थ है— पुस्तकों का घर। इसमें विविध विषयों पर लिखित व संकलित पुस्तकों का विशाल संग्रह होता है। पुस्तकालय सरस्वती का पावन मन्दिर है, जहाँ जाकर मनुष्य सरस्वती की कृपा से ज्ञान का दिव्य आलोक पाता है। इससे उसकी मानसिक शक्तियाँ विकसित होती हैं तथा उसके ज्ञान-नेत्र खुल जाते हैं। निर्धन व्यक्ति भी पुस्तकालय में विविध विषयों की पुस्तकों का अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त कर सकता है। महान् व्यक्तियों ने उत्तम पुस्तकों को सदैव प्रेरणा-स्रोत माना है और इनके द्वारा अनुपम ज्ञान प्राप्त किया है।

पुस्तकालयों के प्रकार - पुस्तकालय चार प्रकार के होते हैं—(i) व्यक्तिगत (ii) विद्यालय, (ii) सार्वजनिक तथा (iv) सरकारी व्यक्तिगत पुस्तकालयों से अधिक व्यक्ति लाभ नहीं उठा सकते। उनसे वही व्यक्ति लाभान्वित होते हैं, जिनकी वे सम्पत्ति हैं। विद्यालयों के पुस्तकालयों का उपयोग विद्यालय के छात्र और अध्यापक ही कर पाते हैं। इनमें अधिकांशतः विद्यार्थियों के उपयोग की ही पुस्तकें होती हैं। सरकारी पुस्तकालयों का उपयोग राजकीय कर्मचारी या विधान-मण्डलों के सदस्य ही कर पाते हैं। केवल सार्वजनिक पुस्तकालयों का ही उपयोग सभी व्यक्तियों के लिए होता है। इनमें घर पर पुस्तकें लाने के लिए इनका सदस्य बनना पड़ता है। पुस्तकालय का एक महत्त्वपूर्ण अंग 'वाचनालय' होता है, जहाँ दैनिक समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएँ प्राप्त होती है, जिसे वहीं बैठकर पढ़ना होता है।

पुस्तकालय की उपयोगिता (लाभ) – पुस्तकालय मानव-जीवन की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता हैं। वे ज्ञान, विज्ञान, कला और संस्कृति के प्रसार केन्द्र होते हैं। पुस्तकालयों से अनेक लाभ हैं, उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं 

(क) ज्ञान-वृद्धि–पुस्तकालय ज्ञान के मन्दिर होते हैं। ज्ञान-वृद्धि के लिए पुस्तकालयों से बढ़कर अन्य उपयोगी साधन नहीं है। पुस्तकालयों के द्वारा मनुष्य कम धन खर्च करके बहुमूल्य ग्रन्थों का अध्ययन कर असाधारण ज्ञान प्राप्त कर सकता है।

(ख) सद्गुणों का विकास-विद्वानों की पुस्तकों को पढ़कर महान् बनने, नवीन विचारों और नवीन चिन्तन की प्रेरणा प्राप्त होती है। रुचिकर पुस्तकें पढ़ने से नवीन स्फूर्ति एवं नवीन चेतना प्राप्त होती है तथा कुवासनाओं, कुसंस्कारों और अज्ञान का नाश होता है। पुस्तकालय में बालकों के लिए बाल-साहित्य भी उपलब्ध होता है, जिसको पढ़कर बच्चे भी अपने समय का सदुपयोग कर सकते हैं।

(ग) समाज का कल्याण-पुस्तकालय से व्यक्ति को तो लाभ होता ही है, सम्पूर्ण समाज का भी कल्याण होता है। प्रत्येक समाज एवं राष्ट्र प्राचीन साहित्य का अध्ययन करके नये सामाजिक नियमों का निर्माण कर सकता है। रूस के एक महत्त्वपूर्ण नेता लेनिन; जो रूस की प्रचलित व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन लाने में सहायक हुए; का अधिकांश समय पुस्तकों के अध्ययन में ही व्यतीत होता था।

(घ) श्रेष्ठ मनोरंजन एवं समय का सदुपयोग -घर पर खाली बैठकर गप्पें मारने की अपेक्षा पुस्तकालय में जाकर पुस्तकें पढ़ना अधिक उपयोगी होता है। इससे श्रेष्ठ ज्ञानार्जन के साथ पर्याप्त मनोरंजन भी होता है। मनोरंजन से रुचि का परिष्कार एवं ज्ञान की वृद्धि होती है।

(ङ) सत्संगति का लाभ – पुस्तकालय में पहुँचकर एक प्रकार से महान् विद्वानों, विचारकों तथा महापुरुषों से अप्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है। यदि हमें गाँधी, सुकरात, राम, कृष्ण, ईसा, महावीर आदि के श्रेष्ठ विचारों की संगति प्राप्त करनी है तो पुस्तकालय से उत्तम कोई अन्य स्थान नहीं है।

कुछ प्रसिद्ध पुस्तकालय- देश में पुस्तकालयों की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। नालन्दा और तक्षशिला में भारत के अति प्रसिद्ध पुस्तकालय थे, जो कि विदेशी आक्रान्ताओं के द्वारा; हमारी प्राचीन संस्कृति को नष्ट करने के उद्देश्य से; नष्ट-भ्रष्ट कर दिये गये। इस समय भारत में कोलकाता, दिल्ली, मुम्बई, पटना, वाराणसी आदि स्थानों पर भव्य पुस्तकालय हैं, जहाँ पर शोधार्थी व सामान्य अध्येता भी उचित औपचारिकताओं का निर्वाह करके अध्ययन कर सकते हैं।

पुस्तकालयों के प्रति हमारे कर्त्तव्य-पुस्तकालय समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। उनके विकास से देशवासियों में नवचेतना का उदय होता है।

पुस्तकालयों को क्षति पहुँचाने की प्रवृत्ति समाज के लिए घातक है; अत: पाठकों का कर्त्तव्य है कि जो पुस्तकें पुस्तकालय से ली जाएँ, उन्हें निश्चित समय पर लौटाया जाए। उन पर नाम लिखना, स्याही के धब्बे डालना, पन्ने या कतरन फाड़ना, पुस्तकों की साज-सज्जा को नष्ट करना आदि अनैतिकता तथा पुस्तकालय की क्षति है। पुस्तकालयों के नियमों का पालन करना एवं उन्हें दिनानुदिन विकसित करने में सहायक होना हमारा परम कर्त्तव्य है।

सुझाव- हमारे देश के गाँवों में जहाँ लगभग दो-तिहाई जनसंख्या निवास करती है, पुस्तकालयों का नितान्त अभाव है। ग्रामवासियों की निरक्षरता और अज्ञानता का मूल कारण भी यही है। ग्राम विकास की योजनाओं के अन्तर्गत प्रत्येक गाँव में जनसंख्या के आधार पर पुस्तकालयों का निर्माण होना चाहिए।

उपसंहार-जीवन की सच्ची उन्नति इसी बात में है कि हम पुस्तकालय महत्त्व को समझें और उनसे लाभ उठाएँ। सुयोग्य नागरिकों के चरित्र निर्माण एवं समाज के उत्थान हेतु पुस्तकालयों के विकास के लिए सतत प्रयत्न किये जाने के चाहिए। पुस्तकालयों में संग्रहीत पुस्तकों के माध्यम से ही हम अपने पूर्वजों की गौरवपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर से प्रेरणा प्राप्त करते हैं और उनके द्वारा स्थापित तेज और पुरुषार्थ को भावी पीढ़ी में उतारने को सचेष्ट होते हैं। इसलिए नियमित रूप से पुस्तकालयों में बैठकर अध्ययन करना हमारे आचरण का आवश्यक अंग होना चाहिए।

2.

       मेरा प्रिय समाचार पत्र पर निबंध

रूपरेखा (1) प्रस्तावना (2) समाचार पत्रों का आविष्कार और विकास, (3) समाचार पत्रों के विविध रूप (4) समाचार पत्रों का महत्त्व, (5) समाचार पत्रों से लाभ, (6) समाचार-पत्रों से हानियाँ, (7) उपसंहार।

प्रस्तावना - जिज्ञासा एवं कौतूहल मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। अपने आस-पास की एवं सुदूर स्थानों की नित नवीन घटनाओं को सुनने व जानने की मनुष्य की प्रबल इच्छा रहती है। पहले प्रायः व्यक्ति दूसरों से सुनकर या पत्र आदि के द्वारा अपनी जिज्ञासा का समाधान कर लेते थे, परन्तु अब विज्ञान के आविष्कार एवं मुद्रण-यन्त्रों के विकास से समाचार-पत्र व्यक्ति की जिज्ञासा को शान्त करने के प्रमुख साधन हो गये हैं। यह एक ऐसा साधन है, जिसके द्वारा हम घर बैठे अपने समाज, राष्ट्र एवं विश्व की नवीनतम घटनाओं से अवगत रह सकते हैं। समाचार-पत्रों से पूरा विश्व एक परिवार बन गया है, जिसमें सभी देश एक-दूसरे के सुख-दुःख में सम्मिलित होते हैं।

समाचार पत्रों का आविष्कार और विकास- समाचार पत्र का आविष्कार सर्वप्रथम इटली में हुआ। तत्पश्चात् अन्य देशों में भी धीरे-धीरे समाचार-पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। भारत में समाचार पत्र का प्रादुर्भाव अंग्रेजों के भारत आगमन पर प्रेस की स्थापना होने से माना जाता है। हिन्दी में 'उदन्त मार्तण्ड' नाम से पहला समाचार-पत्र निकला। शनैः शनैः भारत में समाचार-पत्रों का विकास हुआ और हिन्दी, अंग्रेजी तथा विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं में अनगिनत समाचार-पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ। हिन्दी में आज नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, जनसत्ता, पंजाब केसरी, अमर उजाला, दैनिक जागरण, वीर अर्जुन, आज, दैनिक भास्कर आदि समाचार-पत्रों का चरम विकास उनकी बढ़ती हुई माँग का सूचक है।

समाचार-पत्रों के विविध रूप-आज देशी एवं विदेशी कितनी ही भाषाओं में में समाचार-पत्र प्रकाशित हो रहे हैं। इनमें से कुछ समाचार पत्र प्रतिदिन प्रकाशित होते हैं, तो कुछ साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक, अर्द्ध-वार्षिक एवं ■ने वार्षिक। नये-नये समाचार पत्र निकलते ही जा रहे हैं। आजकल प्रायः सभी ह समाचार पत्र मनोरंजक सामग्री; यथा— लेख, कहानी, फैशन, स्वास्थ्य, खेल, यः ज्योतिष आदि; को अपने पत्र में नियमित स्थान देते हैं।

 समाचार पत्रों का महत्त्व-आज समाचार पत्रों का महत्त्व सर्वविदित है। आज 'प्रेस' को लोकतन्त्र के चार स्तम्भों में से एक प्रमुख स्तम्भ माना जाता है। समाचार-पत्रों ने केवल भारतीय जनजीवन को ही प्रभावित नहीं किया है, अपितु भारतीयों में राष्ट्रीयता का संचार भी किया है। आधुनिक युग में समाचार पत्रों की उपयोगिता ' दिन दूनी रात चौगुनी' बढ़ गयी है। इनके द्वारा अपने देश के ही नहीं, विदेशों के समाचार भी घर बैठे प्राप्त होते हैं। सामाजिक उत्थान, राष्ट्रीय उन्नति तथा जन-कल्याण हेतु समाचार पत्रों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ये ले सामाजिक कुरीतियों, अन्धविश्वासों और अपराधों का प्रकाशन कर उनकी रोकथाम में मदद करते हैं। ये विभिन्न राजनीतिक समस्याओं को जनता के सम्मुख लाकर राष्ट्रीय जागरण का तथा जनमत का निर्माण करके लोकतन्त्र के न्त सच्चे रक्षक का कार्य करते हैं।

समाचार पत्रों से लाभ-

(क) ज्ञानवर्द्धन का साधन-देश-विदेश में घटित होने वाली घटनाओं की जानकारी तथा भौगोलिक-सामाजिक परिवर्तनों का ज्ञान समाचार पत्रों के माध्यम से मिल जाता है। विज्ञान, साहित्य, राजनीति, इतिहास, भूगोल आदि अनेक क्षेत्रों में हुई प्रगति का ज्ञान समाचार पत्र ही कराते हैं। समाचार पत्रों का सूक्ष्म अध्ययन करने वाला व्यक्ति सामान्य ज्ञान में कभी पीछे नहीं रहता।

(ख) मनोरंजन का साधन-समाचारों की जानकारी से मानसिक सन्तुष्टि प्राप्त होती है। इनमें प्रकाशित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक सामग्री विशेष रूप से मनोरंजन प्रदान करती है। यात्रा के समय पत्र-पत्रिकाएँ यात्रा को सुगम एवं मनोरंजक बनाती हैं।

(ग) कुरीतियों की समाप्ति- समाचार पत्रों से सामाजिक कुरीतियों एवं बुराइयों को दूर करने में भी सहायता मिलती है। समाज में फैली अशिक्षा, दहेज, बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह आदि बुरी प्रथाओं का परिहार होता है। देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, शोषण, अनाचार और अत्याचारों की घटनाओं को प्रकाशित कर असामाजिक तत्त्वों में भय उत्पन्न करने में सहायता मिलती है।

(घ) स्वस्थ जनमत का निर्माण- आज के प्रजातान्त्रिक युग में प्रत्येक राजनीतिक दल को अपनी विचारधारा जनता तक पहुँचानी होती है। स्वस्थ जनमत का निर्माण करने एवं राजनीतिक शिक्षा देने में समाचार पत्रों का सर्वाधिक महत्त्व है। इस प्रकार समाचार-पत्र जनता और सरकार के बीच की कड़ी होते हैं।

समाचार पत्रों से हानियाँ- समाचार पत्र जहाँ देश का कल्याण करते हैं; वहीं - इनसे हानियाँ भी होती हैं। ये किसी पूँजीपति, राजनीतिक नेता और साम्प्रदायिक - दल की सम्पत्ति होते हैं, अतः इनमें जो समाचार या सूचनाएँ प्रकाशित होती हैं, उन्हें वे अपनी स्वार्थ पूर्ति के आधार पर भी तोड़-मरोड़कर प्रकाशित करते हैं। बहुत-से समाचार पत्र अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए झूठी अफवाह, निराधार एवं सनसनीपूर्ण समाचार, अभिनेत्रियों के अश्लील चित्र प्रकाशित करते हैं। इनमें प्रकाशित जातिगत, साम्प्रदायिक एवं प्रादेशिक विचार कभी-कभी राष्ट्रीय एकता में भी बाधक होते हैं।

उपसंहार-आज के युग में समाचार पत्र को महत्त्वपूर्ण शक्ति-स्तम्भ माना जाता है। अत: समाचार पत्रों को ऐसे लोगों के हाथ में केन्द्रित न होने दें, जो देश में गड़बड़ी, अव्यवस्था और विद्रोह फैलाना चाहते हैं। इनके अध्ययन से स्वतन्त्र चिन्तन में बाधा नहीं पहुँचनी चाहिए। इसके लिए यह भी आवश्यक है 

समाचार-पत्रों के स्वामियों, सम्पादकों एवं पत्रकारों को किसी भी राजनीतिक दल के हाथों अपनी स्वतन्त्रता नहीं बेचनी चाहिए। ऐसा करने से ही वे अपनी लेखनी की स्वतन्त्रता को बचाये रख सकेंगे और अपना दायित्व निभाने में सफल होंगे। समाचार-पत्रों में निष्पक्ष और नि:स्वार्थ होकर पूरी ईमानदारी से विचार व्यक्त किये जाने चाहिए, जिससे समाज व राष्ट्र का कल्याण हो सके।

मेरे प्रिय साहित्यकार: जयशंकर प्रसाद

मेरे प्रिय लेखक / कहानीकार/साहित्यकार

प्रमुख विचार-बिन्द (1) प्रस्तावना, (2) साहित्यकार का परिचय, (3) साहित्यकार की साहित्य-सम्पदा, (4) छायावाद के श्रेष्ठ कवि, श्रेष्ठ (5) गद्यकार, (6) उपसंहार।

प्रस्तावना - संसार में सबकी अपनी-अपनी रुचि होती है। किसी व्यक्ति की रुचि चित्रकारी में है तो किसी की संगीत में। किसी की रुचि खेलकूद में है तो किसी की साहित्य में। मेरी अपनी रुचि भी साहित्य में रही है। साहित्य प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में इतना अधिक रचा गया है कि उन सबका पारायण तो एक जन्म में सम्भव ही नहीं है। फिर साहित्य में भी अनेक विधाएँ हैं— कविता, उपन्यास, नाटक, कहानी, निबन्ध आदि। अतः मैंने सर्वप्रथम हिन्दी-साहित्य का 106

यथाशक्ति अधिकाधिक अध्ययन करने का निश्चय किया और अब तक जितना अध्ययन हो पाया है, उसके आधार पर मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकार हैं- जयशंकर प्रसाद प्रसाद जी केवल कवि ही नहीं, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार और निबन्धकार भी हैं। प्रसाद जी ने हिन्दी-साहित्य में भाव और कला, अनुभूति और अभिव्यक्ति, वस्तु और शिल्प सभी क्षेत्रों में युगान्तरकारी परिवर्तन किये हैं। उन्होंने हिन्दी भाषा को एक नवीन अभिव्यंजना-शक्ति प्रदान की है। इन सबने मुझे उनका प्रशंसक बना दिया है और वे मेरे प्रिय साहित्यकार बन गये हैं।

साहित्यकार का परिचय-श्री जयशंकर प्रसाद जी का जन्म सन् 1889 ई० में काशी के प्रसिद्ध सुँघनी साहू परिवार में हुआ था। आपके पिता नाम श्री बाबू देवी प्रसाद था। लगभग 11 वर्ष की अवस्था में ही जयशंकर प्रसाद ने काव्य-रचना आरम्भ कर दी थी। सत्रह वर्ष की अवस्था तक इनके ऊपर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। इनके पिता, माता व बड़े भाई का देहान्त हो गया और परिवार का समस्त उत्तरदायित्व इनके सुकुमार कन्धों पर आ गया। गुरुतर उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए एवं अनेकानेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना करने के उपरान्त 15 नवम्बर, 1937 ई० को आपका देहावसान हुआ। 48 वर्ष के छोटे-से जीवन में इन्होंने जो बड़े-बड़े काम किये, उनकी कथा सचमुच अकथनीय है।

साहित्यकार की साहित्य सम्पदा– प्रसाद जी की रचनाएँ सन् 1907-08 ई० में सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। ये रचनाएँ ब्रजभाषा की पुरानी शैली में थीं, जिनका संग्रह 'चित्राधार' में हुआ। सन् 1913 ई० में ये खड़ी बोली में लिखने लगे। प्रसाद जी ने पद्य और गद्य दोनों में साधिकार रचनाएँ कीं। इनका वर्गीकरण इस प्रकार है

1. काव्य– कानन कुसुम, प्रेम पथिक, महाराणा का महत्त्व, झरना, ह आँसू, लहर और कामायनी (महाकाव्य)

2. नाटक -इन्होंने कुल मिलाकर 13 नाटक लिखे। इनके प्रसिद्ध नाटक हैं— चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ, कामना और ध्रुवस्वामिनी ।

3. उपन्यास–कंकाल, तितली और इरावती

4. कहानी–प्रसाद की विविध कहानियों के पाँच संग्रह हैं—छाया ,प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी और इन्द्रजाल।

5. निबन्ध–प्रसाद जी ने साहित्य के विविध विषयों से सम्बन्धित निबन्ध वि लिखे, जिनका संग्रह है-काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध | 

छायावाद के श्रेष्ठ कवि–छायावाद हिन्दी कविता के क्षेत्र का एक आन्दोलन है जिसकी अवधि सन् 1920-1936 ई० तक मानी जाती है। 'प्रसाद' जी छायावाद के जन्मदाता माने जाते हैं। छायावाद एक आदर्शवादी काव्यधारा है, जिसमें प्र वैयक्तिकता, रहस्यात्मकता, प्रेम, सौन्दर्य तथा स्वच्छन्दतावाद की सबल अभिव्यक्ति हुई है। प्रसाद की 'आँसू' नाम की कृति के साथ हिन्दी में छायावाद का जन्म हुआ। आँसू का प्रतिपाद्य है-विप्रलम्भ शृंगार। प्रियतम के वियोग की । पीड़ा वियोग के समय आँसू बनकर वर्षा की भाँति उमड़ पड़ती है—

जो घनीभूत पीड़ा थी, स्मृति सी नभ में छायी। दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आयी ।।

प्रसाद के काव्य में छायावाद अपने पूर्ण उत्कर्ष पर दिखाई देता है । यथा- सौन्दर्य-निरूपण एवं शृंगार भावना, प्रकृति-प्रेम, मानवतावाद, प्रेम भावना, आत्माभिव्यक्ति, प्रकृति पर चेतना का आरोप, वेदना और निराशा का स्वर, देश-प्रेम की अभिव्यक्ति, नारी के सौन्दर्य का वर्णन, तत्त्व-चिन्तन, आधुनिक बौद्धिकता, कल्पना का प्राचुर्य तथा रहस्यवाद की मार्मिक अभिव्यक्ति। अन्यत्र इंगित छायावाद की कलागत विशेषताएँ अपने उत्कृष्ट रूप में इनके काव्य में उभरी हुई दिखाई देती हैं।

‘आँसू' मानवीय विरह का एक प्रबन्ध काव्य है। इसमें स्मृतिजन्य मनोदशा एवं प्रियतम के अलौकिक रूप-सौन्दर्य का मार्मिक वर्णन किया गया है। 'लहर' आत्मपरक प्रगीत मुक्तक है, जिसमें कई प्रकार की कविताओं का संग्रह है। प्रकृति के रमणीय पक्ष को लेकर सुन्दर और मधुर रूपकमय यह गीत 'लहर' से संगृहीत है

बीती विभावरी जाग री ।

अम्बर-पनघट में डुबो रही

तारा-घट ऊषा नागरी ।

 'प्रसाद' की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचना है-कामायनी महाकाव्य, जिसमें प्रतीकात्मक शैली पर मानव- चेतना के विकास का काव्यमय निरूपण किया गया है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में, "यह काव्य बड़ी विशद कल्पनाओं और मार्मिक उक्तियों से पूर्ण है। इसके विचारात्मक आधार के अनुसार श्रद्धा या रागात्मिका वृत्ति ही मनुष्य को इस जीवन में शान्तिमय आनन्द का अनुभव कराती है। वही उसे आनन्द-धाम तक पहुँचाती है, जब कि इड़ा या बुद्धि आनन्द से दूर भगाती है।” अन्त में कवि ने इच्छा, कर्म और ज्ञान तीनों के सामंजस्य पर बल दिया है; यथा

ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा पूरी क्यों हो मन की ? एक दूसरे से मिल न सके, यह विडम्बना जीवन की।

श्रेष्ठ गद्यकार– गद्यकार प्रसाद की सर्वाधिक ख्याति नाटककार के रूप में है। उन्होंने गुप्तकालीन भारत को आधुनिक परिवेश में प्रस्तुत करके गांधीवादी अहिंसामूलक देशभक्ति का सन्देश दिया है। साथ ही अपने समय के सामाजिक आन्दोलनों का सफल चित्रण किया है। नारी की स्वतन्त्रता एवं महिमा पर उन्होंने सर्वाधिक बल दिया है। उनके प्रत्येक नाटक का संचालन सूत्र किसी नारी पात्र के ही हाथ में रहता है। उपन्यास और कहानियों में भी सामाजिक भावना का प्राधान्य है। उनमें दाम्पत्य-प्रेम के आदर्श रूप का चित्रण किया गया है। उनके निबन्ध विचारात्मक एवं चिन्तनप्रधान हैं, जिनके माध्यम से प्रसाद ने काव्य और काव्य-रूपों के विषय में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं।

उपसंहार—पद्य और गद्य की सभी रचनाओं में इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ एवं परिमार्जित हिन्दी है। इनकी शैली आलंकारिक एवं साहित्यिक है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इनकी गद्य-रचनाओं में भी इनका छायावादी कवि हृदय झाँकता हुआ दिखाई देता है। मानवीय भावों और आदर्शों में उदारवृत्ति का सृजन विश्व-कल्याण के प्रति इनकी विशाल हृदयता का सूचक है। हिन्दी-साहित्य के लिए प्रसाद जी की यह बहुत बड़ी देन है। 'प्रसाद' की रचनाओं में छायावाद पूर्ण प्रौढ़ता, शालीनता, गुरुता और गम्भीरता को प्राप्त दिखाई देता है। अपनी विशिष्ट कल्पना शक्ति, मौलिक अनुभूति एवं नूतन अभिव्यक्ति पद्धति के फलस्वरूप प्रसाद हिन्दी साहित्य में मूर्धन्य स्थान पर प्रतिष्ठित हैं। समग्रतः यह कहा जा सकता है कि प्रसाद जी का साहित्यिक व्यक्तित्व बहुत महान् है जिस कारण वे मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकार रहे हैं।

2.

कोरोना वायरस समस्या और समाधान पर निबंध

संक्रामक रोग का कारक: कोरोना वायरस

कोरोना वायरस पर निबंध 

प्रमुख विचार-बिन्दु - (1) प्रस्तावना, (2) कोरोना कैसे फैलता है, (3) कोरोना वायरस के लक्षण, (4) कोरोना वायरस से बचने के कुछ उपाय, (5) कोरोना | वायरस का चीन पर पहला वार, (6) कोरोना वायरस से निपटने के लिए खोज, (7) लॉकडाउन की भारत ने की पहली पहल (8) उपसंहार।

प्रस्तावना - कोरोना वायरस कहाँ से आया, कैसे आया हमें पता ही नहीं चला। लेकिन समाचार की दृष्टि से यह कोरोना वायरस चीन के वुहान राज्य से फैला। कहा जाता है कि चीन के वुहान राज्य के समुद्री-खाद्य बाजार अर्थात् पशु मार्किट से निकलकर चीन के कई राज्यों में फैला और देखते-ही-देखते इसने लाखों लोगों की जिंदगी से खेलना शुरू कर दिया। इस कोरोना वायरस ने 180 देशों को और अनेक राज्यों को अपने चपेट में ले लिया। अभी तक दिसम्बर, में 2019 चीन में पहली कोरोना वायरस से मौत की पुष्टि हुई है। इस वायरस ने लगभग दो लाख लोगों की जान ली है। 7 जनवरी, 2020 को चीन ने वर्ल्ड हैल्थ ऑर्गेनाइजेशन को नए वायरस 'कोरोना वायरस (Covid 19)' के बारे में जानकारी दी।

कोरोना कैसे फैलता है- कोरोना वायरस संक्रमित मरीज के छींकने से इसके आस-पास के लोगों तक तेजी से फैलता है। किसी कोरोना वायरस से संक्रमित मरीज के थूक को सतह पर छूने से और फिर, अपने मुँह, चेहरे, नाक को हाथ लगाने से फैलता है। यह कोरोना वायरस यात्रा कर रहे किसी संक्रमित व्यक्ति के कारण तेजी से फैल सकता है। इतना ही नहीं हवाई जहाज की सीट पर यह कई घंटों तक जिन्दा रहकर स्वस्थ व्यक्ति को संक्रमित कर सकता है। कहा जा सकता है कि एक कोरोना वायरस से संक्रमित व्यक्ति हजारों लोगों को संक्रमित कर सकता है। कोरोना वायरस मनुष्य के शरीर में बिना कोई लक्षण दिखाए 14 दिनों तक एक्टिव रह सकता है।

कोरोना वायरस के लक्षण- तेज बुखार, गले में दर्द, खत्म न होने वाली खाँसी और साँस लेने में तकलीफ होती है। अंत में यह फेफड़ों को कमजोर बना देता है, जिससे मरीज को साँस लेने में कठिनाई होती है। यह शरीर के दूसरे अंगों को भी नाकाम कर देता है, जिससे मरीज की मृत्यु हो जाती है।

कोरोना वायरस से बचने के कुछ उपाय- अपने आपको कोरोना वायरस से मुक्त रखने के लिए हमें 20 सेकेंड तक बार-बार अपने हाथ धोने चाहिए। हम चाहें तो हैंड सैनेटाइजर का प्रयोग कर सकते हैं। हमेशा घर से बाहर निकलते समय मुँह पर मास्क पहनकर निकलें और घर आकर मास्क को साफ कर लें। छींकते समय अपने मुँह को कोहनी से अथवा टिश्यू पेपर से ढक लें और टिश्यू पेपर को कूड़ेदान में फेंक दें। अगर कोई इंसान बाहर से सफर करके आया हो, तो दो हफ्ते तक अपने आप घर पर रहें और लोगों से दूरी बनाए रखें, इससे संक्रमण का खतरा कम होगा। इस समय सामजिक दूरी बनाए रखना सबसे बेहतर उपाय माना जा रहा है। तकरीबन इस संकट की घड़ी में सभी देशों ने लॉकडाउन करने का फैसला कर दिया और उसे शीघ्र ही लागू कर दिया, जो इस समय सही उपाय है।

कोरोना वायरस का चीन पर पहला वार- 11 जनवरी, 2020 को चीन ने 61 वर्षीय आदमी की मौत की जानकारी दी, जिसने वुहान के पशु बाजार से सामान खरीदा था। दिल का दौड़ा पड़ने से उसकी मृत्यु हो गई। 16 जनवरी को एक दूसरी मौत की खबर आई। इसी तरह देखते ही देखते नेपाल, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, वियतनाम, ताइवान, अमेरिका, भारत, इटली आदि देशों को अपने पंजों में जकड़ लिया।

चीन ने जनवरी के आखिरी दिनों में यह दावा किया कि यह एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में फैलता है, जोकि काफी भयानक है, लेकिन बहुत देर हो गई थी। पूरा विश्व इसकी चपेट में आ चुका था और फिर संक्रमित लोगों तथा मृत्यु के मुख में जाने वालों की संख्या लाखो-हजारों में आ चुकी है। 11 मार्च, 2020 को वर्ल्ड हैल्थ ऑर्गेनाइजेशन ने कोरोना वायरस को एक भयानक महामारी घोषित कर दिया।

कोरोना वायरस से निपटने के लिए खोज – पूरी दुनिया कोरोना वायरस से निपटने के लिए वैक्सीन की खोज में जुट गई है, लेकिन कोई सफलता हाथ नहीं लगी है। दुनिया भर के वैज्ञानिक, डॉक्टर्स इसकी खोज के लिए दिन-रात लगे हुए हैं। इसमें आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक आदि संस्थाएँ भी प्रयत्नशील हैं।

लॉकडाउन की भारत ने की पहली पहल-21 मार्च को प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत की समस्त विद्वज्जन और वरिष्ठ जनता ने एक साथ मिल-जुलकर भारत में लॉकडाउन कर दिया। जिसके चलते अब तक चार बार यही निर्णय किया गया और जनता ने इसे अपना और अपने देश का हित मानते हुए इसका पालन किया। सारे देश में धारा 144 लगा दी गई। दुकानें, दफ्तर, स्कूल, रेस्टोरेंट, होटल सब बन्द कर दिए गए, ताकि इस महामारी से छुटकारा मिल जाए। परिणाम काफी हद तक सफल रहा। सामाजिक दूरी बनाए रखने के कारण संक्रमित लोगों और मृत्युदर में कमी आई। किन्तु खेद है, जैसे किसी भी जगह की स्वच्छता में जिस प्रकार कुछ लोग बाधक बन जाते हैं, जैसे सत्य की खोज में कुछ अज्ञानी अपना ज्ञान बाँटने लगते हैं, जैसे किसी संस्थान में आग लग जाने के बाद कुछ लोग हाथ तापने लगते हैं, वैसे ही कुछ साम्प्रदायिक और राजनीति का रोना रोने वाले राजनेता अपने भड़काऊ भाषणों से, अपने कुकर्मों से भोली जनता को बहकाने से बाज नहीं आते। ऐसे लोग 'हम तो डूबेंगे सनम लेकर तुमको भी डूबेगे' वाली कहावत को चरितार्थ करते हैं। ऐसे लोगों से बचना ही श्रेयष्कर है, क्योंकि कँटीली झाड़ियों को कोई अपने घर की शोभा नहीं बनाता।

उपसंहार – देखा जा रहा है, जहाँ मरीजों का इलाज चल रहा है वहाँ हर चीज में कोरोना वायरस का प्रकोप है। कोरोना वायरस बहुत समय तक हवा में और कपड़ों में कई घंटों तक जीवित रह सकता है। भारत की जनता को चाहिए कि वह कोरोना वायरस से निपटने के लिए सरकार द्वारा दी गईं हिदायतों से अपनी एवं अपने परिवार की रक्षा करे। साथ ही असमाजिक दुष्प्रभाव फैलाने वाले लोगों और उनके मोबाइल संदेशों एवं भाषण से दूर रहें। वे सभी इस कोरोना वायरस से भी अधिक खतरनाक और हानिकारक वायरस हैं।

3.

 लॉकडाउन समस्या या समाधान

लॉकडाउन पर निबंध हिन्दी में

प्रमुख विचार-बिन्द- (1) प्रस्तावना, (2) लॉकडाउन के लाभ (3) लॉकडाउन से हानि, (4) उपसंहार।

प्रस्तावना-लॉकडाउन यह मानवजाति के इतिहास में पहली बार है, जहाँ पूरे ने देश में धारा 144 के तहत सबको घर में रहने की सलाह दी गई है। यह इसलिए किया गया; क्योंकि एक ऐसे जानलेवा वायरस ने हमला बोल दिया कि पूरी दुनिया में लाखों लोग की जान चली गई है और अब भी संक्रमण का खतरा बढ़ रहा है। कोरोना वायरस से बचने का सिर्फ एक ही उपाय है, सामाजिक दूरी। यह संक्रमण एक इंसान से दूसरे इंसान में तेजी से फैलता है। भारत सरकार ने हिदायत दी है कि हम पर्सनल और प्रोफेशनल रिश्ते से हर संभव दूरी बनाए रखें, तभी हमें इस वायरस से मुक्ति मिल सकती है। भारत के सभी राज्यों में लोग घर पर रहकर सरकार के निर्देशों का पालन कर रहे हैं।

लॉकडाउन के लाभ- रोजमर्रा की जिंदगी में हम कार्यालय के कार्यों में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि हमें अपने परिवार के साथ वक्त बिताने का मौका नहीं मिलता। पहले 21 दिनों के लॉकडाउन में हमें वे बहतरीन पल मिले जिसमें अपने 1 प्रियजनों के साथ वक्त व्यतीत किया। जहाँ कुछ लोगों ने यूट्यूब से वीडियो देखकर भोजन बनाना सीखा। कुछ लोगों ने घर पर परिवार संग अंत्याक्षरी खेला, कुछ ने मशहूर चलचित्र और बेव-सेसिस देखा। कुछ लोगों को; जिन्हें अपने बच्चों के साथ वक्त बिताने का अवसर नहीं मिलता था, लॉकडाउन के कारण यह सुअवसर प्राप्त हुआ। बच्चों के साथ वीडियो गेम्स, कैरम जैसे खेलों का आनन्द लिया। विद्यालय में छुट्टी होने के कारण घर बैठकर शिक्षकों ने ऑनलाइन क्लासेज का सहारा लिया ताकि विद्यार्थियों की शिक्षा में कोई रुकावट नहीं आए।

लोगों को लॉकडाउन के इन कुछ दिनों में अपने दिल में दबे शौक पूरा करने का मौका मिला। आम आदमी से लेकर बड़े-बड़े सेलेब्रिटीज ने इसका फायदा उठाया। किसी ने कोई वाद्य यन्त्र बजाना सीखा, किसी ने नृत्य सीखा और अभ्यास किया जो दैनिक जीवन में असम्भव है।

लॉकडाउन रहने के कारण कोरोना वायरस के मरीजों में गिरावट आई और संक्रमण फैलने का खतरा कम हुआ। हमारे रोजमर्रा की जिंदगी की चीजों में कमी न हो इसलिए किराने के सामान, फल, सब्जी और दवाइयाँ बाजार में उपलब्ध रहीं। लॉकडाउन से बड़े-बड़े कारखानों और वाहनों का चलना निषेध हो गया, जिसके कारण प्रदूषण की कमी आई। कल-कारखानों का कचरा जो बाहर नदी आदि के जल में प्रवाहित कर दिया जाता था, उस पर रोक लग गई। में स्वच्छन्द अब वायु प्रदूषण में नियन्त्रण आ चुका है, साथ ही जल और ध्वनि प्रदूषण में भी गिरावट आई है, जो प्रकृति के लिए लाभदायक है। परिंदे आकाश रूप से सैर कर रहे हैं। वायु पहले के मुकाबले शुद्ध हो गई है। आकाश का रंग नीला है जिसके रंग को हम भूल गए थे। लॉकडाउन के कारण प्रदूषित वातावरण हर प्रकार से शुद्ध हो गया है।

लॉकडाउन से हानि– बड़े-बड़े कार्यालय, कल-कारखानों को बन्द करने के कारण मजदूरों पर आफत आ गई है। जो मजदूर दैनिक मजदूरी पर जीवन-यापन करते थे, उनके घरों का चूल्हा तक जलना बन्द हो गया। बस्ती में लोग भूखे सो रहे हैं। गरीब घरों पर लॉकडाउन का सबसे ज्यादा असर पड़ा है। उनके पास घर लौटने तक पैसे नहीं हैं। देश में ऐसी परिस्थिति के कारण को समझते हुए देश की सरकार ने प्रधानमंत्री राहत कोष से जरूरतमंद लोगों की सहायता करने का निर्णय लिया। बहुत सारे लोगों ने भी आगे आकर मदद करना आरम्भ कर दिया। लगभग सभी देशों के कारोबार को भारी क्षति हुई है।

बड़े-बड़े कारखानों को बन्द करने के कारण से उनको भयानक हानि सहन करनी पड़ रही है। बाकी व्यवसायियों को भी काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। लॉकडाउन से भारत को अनुमानत: 100 अरब डॉलर तक घाटा होने की आशंका है। कोरोना वायरस से 14 अप्रैल तक देश में लॉकडाउन रखना चाहती थी किन्तु अब 31 मई तक क्रमश: चार चरणों में लॉकडाउन की व्यवस्था की गई है।

भारत में लॉकडाउन के कारण घर में रहते हुए लोगों को मानसिक समस्या हो सकती है। इससे छोटे बच्चों को काफ़ी समस्या हुई है। वे बाहर खेलने-कूदने में असमर्थ हैं। कई लोग डिप्रेशन का शिकार भी हो सकते हैं। इन सबसे बचने के लिए एक उपाय यह है कि अपने आपको ज्यादा-से-ज्यादा कामकाजों में लगाए रखें, जिससे यह सब ख्याल हमारे मस्तिष्क में न आएँ।

उपसंहार – भारत में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने कोरोना के प्रकोप को नियन्त्रण करने के लिए 14 अप्रैल तक पूरी तरह से लॉकडाउन की घोषणा की थी लेकिन संक्रमण को बढ़ते हुए देखकर चार चरणों में 31 मई तक बढ़ा दी है। इनके निर्देशों का पालन करना हमारा कर्त्तव्य है, ताकि शीघ्रातिशीघ्र इस जानलेवा महामारी से मुक्ति मिल सके। तभी हम और हमारी सरकार सामान्य जीवन व्यतीत कर पाएँगे। जिंदगी से बढ़कर कोई चीज नहीं होती, घर पर रहकर ही हम इस महामारी पर नियन्त्रण कर सकते हैं।

4.

कोरोना वायरस और भारतीय अर्थव्यवस्था

प्रमुख विचार-बिन्दु-(1) प्रस्तावना, (2) अर्थव्यवस्था के लिए कुछ | पूर्वानुमान, (3) टीके के जरिये प्रतिरोधक क्षमता विकसित करना, (4) चीन और | अमेरिका की अर्थव्यवस्थाओं में संकुचन का प्रभाव, (5) भारत की स्थिति, (6) प्राकृतिक आपदा में चुनौती देता भारत, (7) उपसंहार।

प्रस्तावना-कोरोना वायरस महामारी के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आ गई है। दुनिया भर के कई देशों में लॉकडाउन लागू हुआ, जिसकी बुरी मार अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ी है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने बताया है कि यह मंदी अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संकट के कारण 2009 में आई मंदी के मुकाबले बदतर होगी। हालाँकि निर्यात पर कम निर्भरता और सामाजिक दूरी के उपायों को शीघ्रता से लागू करने के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन शायद कुछ अन्य विकासशील देशों की तुलना में अच्छा रहे।

अर्थव्यवस्था के लिए कुछ पूर्वानुमान-सर्वप्रथम हमें मौजूदा दौर में अर्थव्यवस्था के बारे में की जाने वाली भविष्यवाणियों की सीमाओं को समझना चाहिए। अर्थशास्त्रियों की स्थिति में त्वरित सुधार की उम्मीद बहुत कम दिखती है और उन्हें लगता है कि मंदी का असर लंबे समय तक रह सकता है। यद्यपि उनके पूर्वानुमान अलग-अलग हैं, जो नोवेल कोरोना वायरस के प्रसार की वास्तविक स्थिति पर निर्भर करेंगे; जैसे आई०एम०एफ० के विशेषज्ञों का अनुमान है कि अर्थव्यवस्था 2021 तक वापस सँभल सकेगी अथवा उसकी रिकवरी हो सकेगी, बशर्ते दुनिया के देशों को कोरोना वायरस पर काबू पाने तथा दिवालियेपन और छँटनियों को रोकने में सफलता मिलती हो। उम्मीद की जा रही है कि बी०सी०जी० जैसे वर्तमान में प्रयुक्त टीकों में से कोई हमें कोरोना वायरस के खिलाफ रोग प्रतिरोधक क्षमता दे सकेगा। साथ ही अन्य बीमारियों के लिए काम आने वाली 69 दवाओं से भी उम्मीद लगाई जा रही है।

टीके के जरिये प्रतिरोधक क्षमता विकसित करना-इस समय दुनिया भर का वैज्ञानिक समुदाय कोरोना वायरस पर नियन्त्रण के उपायों को लेकर अनुसंधान में जुटा है, लेकिन आमतौर पर इस बात पर सहमति है कि टीके के विकास में 12 से 18 महीने लग सकते हैं। ब्रिटिश जैसे देशों ने 'नियन्त्रण' की रणनीति अपनाकर वायरस के फैलाव की गति को कम करते हुए आबादी में सामूहिक प्रतिरक्षा विकसित करने की कोशिश की, किन्तु जल्दी ही उनकी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए संक्रमण के मामलों को सँभालना कठिन होने लगा और उन्हें यह रणनीति छोड़नी पड़ी। वही कई देशों में इस समय जारी वायरस के दमन की रणनीति के तहत आबादी के बड़े हिस्से में सामूहिक प्रतिरक्षा क्षमता विकसित नहीं हो सकेगी, क्योंकि प्रयास अधिकतम लोगों को वायरस से बचाने पर केन्द्रित है।

कोई टीका न होने के कारण से जब लॉकडाउन हटेगा तो नए मामले सामने आ सकते हैं क्योंकि वायरस श्रृंखला पूर्णतः टूटने की संभावना नहीं है। सरल गणितीय मॉडलों के अनुसार, यदि लॉकडाउन हटता है तो 100 में से 80. व्यक्तियों के स्वस्थ और प्रतिरोधी रहने की संभावना है। जो बाकी 20 लोग बीमार पड़ेगे, उनमें से पाँच को अस्पताल में भर्ती कराने की जरूरत पड़ सकती है। इसके परिणामस्वरूप अधिकतम रोगियों वाली स्थिति में सुधार से स्वास्थ्य सेवा पर सराहनीय स्तर का ही दवाब पड़ेगा और रोगियों की देखभाल भी की जा सकेगी।

संभव है वायरस निष्क्रिय होकर हमारे बीच मौजूद रहे और मौसम विशेष में पुनः सक्रिय हो। इसलिए दीर्घावधि में यह महत्त्वपूर्ण है कि आबादी में इसके खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो। इसलिए अनेक चरणों में लॉकडाउन लागू करना आवश्यक हो सकता है। इसके अतिरिक्त सभी देशों में वायरस का एक जैसा प्रसार नहीं है, इसलिए वैश्विक व्यापार और यात्रा को लेकर समन्वय की आवश्यकता होगी।

चीन और अमेरिका की अर्थव्यवस्थाओं में संकुचन का प्रभाव-वैश्विक अर्थव्यवस्था के विकास में सर्वाधिक योगदान करने वाले देशों में से एक चीन पी० में संकुचन तय है और अब अमेरिका में कोरोना वायरस के तेज की जी०डी० फैलाव के मद्देनजर उसकी अर्थव्यवस्था में भी संकुचन दिखेगा।

चीनी अर्थव्यवस्था के आरम्भिक संकुचन के अनुमानों में आपूर्ति श्रृंखलाओं और उत्पादन में व्यवधान जैसे कारकों को शामिल किया गया है। अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप जैसी अर्थव्यवस्थाओं में लॉकडाउन और चीनी निर्यात के ऑर्डरों के रद्द होने की आशंका को देखते हुए संकुचन कहीं अधिक व्यापक हो सकता है। वर्तमान समय में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में अभूतपूर्व व्यवधान आने की आशंका है। लॉकडाउन के वर्तमान स्तरों पर वैश्विक जी०डी०पी० में 15% तक संकुचन हो सकता है। अधिकांश अर्थशास्त्रियों को भारी अनिश्चितता की वर्तमान स्थियों के तहत माँग और पूर्ति के एक-दूसरे पर पड़ने वाले दबावों की चिन्ता है।

लॉकडाउन के कारण व्यवसायों को अपनी सेवाओं के लिए उपभोक्ता नहीं मिलता है— जो आरम्भ में पूर्ति संबंधी झटका साबित हो सकता है। जैसे-जैसे श्रमिकों और उद्यमियों की आय घटने लगती है, उनकी तरफ से माँग की कमी हो जाती है और माँग में इस कमी से और भी बड़ी संख्या में व्यवसायियों की आय कम होती है और यह चक्र जारी रहता है। कई अर्थशास्त्रियों को लगता है कि जी०डी०पी० पर माँग में कमी का असर पूर्ति संबंधी झटके के मुकाबले अधिक नहीं दिखेगा।

यदि लॉकडाउन के कारण एक महीने में वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में 50% की गिरावट होती है और उसके बाद के दो महीनों में सीमित आर्थिक गतिविधियों के कारण अतिरिक्त 2596 की कमी होती है, तो जी०डी०पी० में 10% की कमी आएगी। इस समय स्वास्थ्य और जिन्दगी सर्वोच्च प्राथमिकताएँ हैं और सामाजिक दूरी रखना सबसे कारगर उपाय है। भले ही अर्थव्यवस्था पर इसका विपरीत असर पड़ता हो।

भारत की स्थिति-यद्यपि भारत को आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा किन्तु भारतीय अर्थव्यवस्था शायद उन विकासशील देशों की तुलना में अच्छी रहे, जो विश्व व्यापार पर पूरी तरह निर्भर हैं। निर्यात पर कम निर्भरता का मतलब है – विश्व व्यापार में गिरावट का सीमित प्रभाव। इस तथ्य और हमारे सबसे बड़े आयात कच्चे तेल की कम कीमत के मद्देनजर संभव है कि हमारी अर्थव्यवस्था बाह्य झटके से बच जाए।

जहाँ तक नीति की बात है तो भारत ने महामारी के प्रसार के शुरुआती दिनों में ही लॉकडाउन घोषित कर दिया था। इससे कोविड-19 के मरीजों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को तैयार करने में हमें अतिरिक्त समय मिल गया। साथ ही हमें दुनिया भर में वैज्ञानिकों द्वारा दिए जा रहे अध्ययनों का भी लाभ मिला है।

प्राकृतिक आपदा में चुनौती देता भारत-भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियाद भले ही कृषि क्षेत्र हो, लेकिन वर्तमान समय में भारतीय अर्थव्यवस्था में विकास के पीछे मध्यमवर्गीय एवं निम्नवर्गीय लोगों का बड़ा हाथ है। यही कारण है कि भारत को एक 'मिडिल इन्कम ग्रुप की अर्थव्यवस्था' के रूप में परिभाषित किया जाता है। कोविड-19 के जारी वैश्विक संकट के बीच भारतीय परिदृश्य में आर्थिक दृष्टिकोण से सबसे अधिक चर्चा दो पहलुओं पर रही है। पहला, भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी कमजोर आबादी अर्थात् किसान, असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूर, दैनिक मजदूरी के लिए शहरों में पलायन करने वाले मजदूर और शहरों में सड़क के किनारे छोटा-मोटा व्यापार करके आजीविका चलाने वाले लोग। दूसरा, भारतीय अर्थव्यवस्था में उत्पादन करने वाले अर्थात् वह क्षेत्र जो इस देश में पूँजी तथा गैर-पूँजी वस्तुओं का उत्पादन करता है।

दुनिया भर की सरकारें इन दोनों ही पहलुओं पर काम कर रही हैं। सरकारों ने अपने ही देश में स्थिति से निपटने के लिए बड़े राहत पैकेज का ऐलान किया है। सरकार ने पहले चरण में जो पैकेज जारी किया है वह पूरी तरह से कमजोर तथा असंगठित क्षेत्र के लोगों की समस्याओं के निवारण के लिए है। कोरोना वायरस के कारण से आए आर्थिक संकट से जूझ रहे इस तबके के लिए सरकार ने 1.7 लाख करोड़ रुपये का पैकेज जारी किया है।

वैश्विक स्तर पर अमेरिका ने सबसे बड़ा आर्थिक पैकेज अपनी अर्थव्यवस्था के लिए जारी किया है। अमेरिका ने करीब 30 करोड़ लोगों के लिए 2 ट्रिलियन डॉलर अर्थात् कुल 151 लाख करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज जारी किया है। यह भारत के कुल बजट के लगभग 5 गुना अधिक है। यह अमेरिका की पूरी अर्थव्यवस्था के लिए है।

केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा जारी हो रहे राहत पैकेज के बीच में इस प्रमुख बिन्दु पर विशेष ध्यान दिया गया। मध्यमवगीय लोगों को चर्चा का बिन्दु इसलिए जरूरी है कि अर्थव्यवस्था में जारी हर संकट के बीच मध्यम वर्ग सबसे अधिक कमजोर होता है, सरकार द्वारा जारी होने वाले राहत पैकेज में यह वर्ग शामिल नही हो पाता है। भारत ने अपने इस वर्ग के लोगों के लिए 20 लाख करोड़ रुपये का ऐलान किया है।

उपसंहार – भारत हमेशा से परिस्थितियों से जूझने वाला राष्ट्र रहा है। परिस्थितियों को उसने अपनी कार्य-क्षमता को आगे बढ़ाने का हथियार समझा है। उसने अपने बल पर विश्वगुरु होने का सौभाग्य प्राप्त किया है और स्वयं को समृद्ध बनाया है। वह परिस्थितियों का दास नही है। अब वह प्रधानमंत्री की स्वदेशी योजना के अन्तर्गत कार्य करता हुआ बहुत ही कम समय में विकास के शिखर पर चढ़ने का प्रयास करता हुआ विकसित राष्ट्र की श्रेणी में आएगा।

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