वंशीधर ने अफसरों का मन कैसे मोह लिया था? - vansheedhar ne aphasaron ka man kaise moh liya tha?

‘नमक का दारोगा’ प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानी है जो आदर्शोन्मुख यथार्थवाद का एक सम्पूर्ण उदाहरण है। यह कहानी धन के ऊपर धर्म की जीत है। कहानी में धन का प्रतिनिधित्व पंडित अलोपीदीन और धर्म का प्रतिनिधित्व मुंशी वंशीधर नामक पात्रों ने किया है। ईमानदार कर्मयोगी मुंशी वंशीधर को खरीदने में असफल रहने के बाद पंडित अलोपीदीन अपने धन की महिमा का उपयोग कर उन्हें नौकरी से हटवा देते हैं, लेकिन अंततः सत्य के आगे उनका सिर झुक जाता है। वे सरकारी विभाग से बर्खास्त वंशीधर को बहुत ऊँचे वेतन और भत्ते के साथ अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त करते हैं और गहरे अपराध-बोध से भरी हुई वाणी में निवेदन करते हैं –‘‘ परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला बेमुरौवत, उद्दंड, किंतु धर्मनिष्ठ दरोगा बनाए रखे।”


नमक का विभाग बनने के बाद लोग नमक का व्यापार चोरी-छिपे करने लगे | लोग दरोगा के पद के लिए लालायित रहते थे। मुंशी वंशीधर भी रोजगार को प्रमुख मानकर इसे खोजने चले। इनके पिता अनुभवी थे। उन्होंने घर की दुर्दशा तथा अपनी वृद्धावस्था का हवाला देकर नौकरी में पद की ओर ध्यान न देकर ऊपरी आय वाली नौकरी को बेहतर बताया। वे कहते हैं कि मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। आवश्यकता व अवसर देखकर विवेक से काम करो। वे धैर्य, बुद्धि, आत्मावलंबन व भाग्य के कारण नमक विभाग के दरोगा पद पर प्रतिष्ठित हो गए। घर में खुशी छा गई।


वंशीधर ने छह महीने में ही अपनी कार्यकुशलता व उत्तम आचार से अफसरों का विश्वास जीत लिया था। एक दिन अचानक  यमुना नदी पर बने नावों के पुल से गाड़ियों की आवाज सुनकर वे उठ गए। जाकर देखा तो गाड़ियों की कतार दिखाई दी। तलाशी ली तो पता चला कि उसमें नमक है।यह नमक पंडित अलोपीदीन के इशारे पर गैर क़ानूनी तरीके से ले जाया जा रहा था | पंडित सारे संसार में लक्ष्मी को प्रमुख मानते थे। न्याय, नीति सब लक्ष्मी के खिलौने हैं।नमक के दारोगा वंशीधर पर ईमानदारी का नशा था। उन्होंने कहा कि हम अपना ईमान नहीं बेचते। आपको गिरफ्तार किया जाता है।


यह आदेश सुनकर पंडित अलोपीदीन हैरान रह गए। यह उनके जीवन की पहली घटना थी। अलोपीदीन ने एक हजार से शुरू करके चालीस हजार तक की रिश्वत देनी चाही, परंतु वंशीधर ने उनकी एक न सुनी। धन हार गया |


सुबह पंडित के व्यवहार की चारों तरफ निंदा हो रही थी। भ्रष्ट व्यक्ति भी उसकी निंदा कर रहे थे। अगले दिन अदालत में भीड़ थी। अदालत में सभी पंडित अलोपीदीन के माल के गुलाम थे। वे उनके पकड़े जाने पर हैरान थे। इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने क्यों यह कर्म किया बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आए? इस आक्रमण को रोकने के लिए वकीलों की फौज तैयार की गई। न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध ठन गया। वंशीधर के पास सत्य था, गवाह लोभ से डाँवाडोल थे।


मुंशी जी को न्याय में पक्षपात होता दिख रहा था। यहाँ के कर्मचारी पक्षपात करने पर तुले हुए थे। भ्रष्ट न्याय व्यवस्था के कारण मुकदमा शीघ्र समाप्त हो गया। डिप्टी मजिस्ट्रेट ने लिखा कि पंडित अलोपीदीन के विरुद्ध प्रमाण आधारहीन है। वे ऐसा कार्य नहीं कर सकते। दरोगा का दोष अधिक नहीं है, परंतु एक भले आदमी को दिए कष्ट के कारण उन्हें भविष्य में ऐसा न करने की चेतावनी दी जाती है।


वंशीधर ( दारोगा साहब ) की बर्खास्तगी का पत्र एक सप्ताह में ही आ गया। उन्हें ईमानदारी का दंड मिला। दुखी मन से वे घर चले। उनके पिता खूब बड़बड़ाए। माँ की तीर्थयात्रा की आशा मिट्टी में मिल गई। पत्नी कई दिन नाराज रही|


एक सप्ताह के बाद पंडित अलोपीदीन सजे रथ में बैठकर मुंशी के घर पहुँचे। वृद्ध मुंशी उनकी चापलूसी करने लगे तथा अपने पुत्र को कोसने लगे। अलोपीदीन ने उन्हें ऐसा कहने से रोका और वंशीधर से कहा कि इसे खुशामद न समझिए। आपने मुझे परास्त कर दिया। वंशीधर ने सोचा कि वे उसे अपमानित करने आए हैं, परंतु पंडित की बातें सुनकर उनका संदेह दूर हो गया। उन्होंने कहा कि यह आपकी उदारता है। आज्ञा दीजिए।


अलोपीदीन ने कहा कि नदी तट पर आपने मेरी प्रार्थना नहीं सुनी, अब स्वीकार करनी पड़ेगी | पंडित ने बंशीधर को अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर, छह हजार वार्षिक वेतन, रोजाना खर्च, सवारी, बंगले आदि के साथ नियत किया था। वंशीधर ने काँपते स्वर में कहा कि मैं इस उच्च पद के योग्य नहीं हूँ।


अलोपीदीन ने वंशीधर को कलम देते हुए कहा कि मुझे अनुभव, विद्वता, मर्मज्ञता, कार्यकुशलता की चाह नहीं। परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला बेमुरौवत, उद्दंड, कठोर, परंतु धर्मनिष्ठ दरोगा बनाए रखे। वंशीधर की आँखें डबडबा आई। उन्होंने काँपते हुए हाथ से मैनेजरी के कागज पर हस्ताक्षर कर दिए। अलोपीदीन ने उन्हें गले लगा लिया। इस प्रकार आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद पर कहानी समाप्त होती है |


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 सारांश -2

यह कहानी हमें कर्मों के फल के महत्व के बारे में समझाती है। यह कहानी अधर्म पर धर्म और असत्य पर सत्य की जीत को दर्शाती है। भले ही इंसान खुद कितना भी बुरा काम क्यों न कर ले लेकिन उसे भी अच्छाई पसंद आती है। खुद कितना भी भ्रष्ट क्यों न हो लेकिन वह पसंद ईमानदार लोगों को ही करता है। कुछ लोग कितने भी ऊंचे पद पर क्यों न बैठे हो जाएं और कितना अच्छा वेतन क्यों न पाते हों लेकिन उनके मन में ऊपरी आय का लालच हमेशा बना रहता है। इस कहानी के द्वारा लेखक ने प्रशासनिक स्तर और न्यायिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार और उसकी सामाजिक स्वीकृति को बड़े ही साहसिक तरीके से उजागर किया है।


ये कहानी आज़ादी के पहले की है अंग्रेजों ने नमक पर अपना एकाधिकार जताने के लिए अलग नमक विभाग बना दिया। नमक विभाग के बाद लोगों ने 'कर' ( टेक्स ) से बचने के लिए नमक का चोरी छुपे व्यापार भी करने लगे जिसके कारण भ्रष्टाचार भी फैलने लगा। कोई रिश्वत देकर अपना काम निकलवाता, कोई चालाकी और होशियारी से। नमक विभाग में काम करने वाले अधिकारी वर्ग की कमाई तो अचानक कई गुना बढ़ गई थी। अधिकतर लोग इस विभाग में काम करने के इच्छुक रहते थे क्योंकि इसमें ऊपर की कमाई काफी होती थी। लेखक कहते हैं कि उस दौर में लोग महत्वपूर्ण विषयों के बजाय प्रेम कहानियों व श्रृंगार रस के काव्यों को पढ़कर भी उच्च पद प्राप्त कर लेते थे।


उसी समय मुंशी वंशीधर नौकरी के तलाश कर रहे थे। उनके पिता अनुभवी थे उन्होंने अपनी वृद्धावस्था का हवाला देकर ऊपरी कमाई वाले पद को बेहतर बताया। वे कहते हैं कि मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वह अपने पिता से आशीर्वाद लेकर नौकरी की तलाश कर रहे होते है और भाग्यवश उन्हें नमक विभाग में नौकरी प्राप्त होती है जिसमें ऊपरी कमाई का स्रोत अच्छा है ये बात जब पिता जी को पता चली तो बहुत खुश हुए।


छ: महीने अपनी कार्यकुशलता के कारण अफसरों को प्रभावित कर लिया था। ठंड के मौसम में वंशीधर दफ्तर में सो रहे थे।  यमुना नदी पर बने नावों के पुल से गाड़ियों की आवाज सुनकर वे उठ गए। जब जाँच की तो पता चला कि वहाँ रसूखदार  पंडित अलोपीदीन अपने लोगों के साथ उपस्थित थे | वे इलाके के प्रतिष्ठित जमींदार थे। जब जांच की तो पता चला कि गाड़ी में नमक के थैले पड़े हुए हैं। पडित अलोपीदीन ने वंशीधर को रिश्वत ले कर गाड़ी छोड़ने को कहा लेकिन उन्होंने साफ़ मना कर दिया। पंडित जी को गिरफ्तार कर लिया गया।      

       

अगले दिन ये खबर आग की तरह से फ़ैल गई। अलोपीदीन को अदालत लाया गया। लज्जा के कारण उनकी गर्दन शर्म से झुक गई। सारे वकील और गवाह उनके पक्ष में थे, लेकिन वंशीधर के पास  केवल सत्य था। पंडितजी को सबूतों के आभाव की वजह से रिहा कर दिया। 


पंडित जी ने बाहर आ कर पैसे बांटे और वंशीधर को व्यंगबाण का सामना करना पड़ा | एक हफ्ते के अंदर उन्हें दंड स्वरूप नौकरी से हटा दिया।एक बार संध्या का समय था। दारोगा साहब के पिता जी राम-राम की माला जप रहे थे तभी पंडित जी रथ पर पधारे पिता जी ने उन्हें  झुक कर  प्रणाम किया और उनकी चापलूसी करने लगे और अपने बेटे को भलाबुरा कहा। पंडित अलोपीदीन ने कहा मैंने कितने अधिकारियो को पैसों के बल पर खरीदा है लेकिन ऐसा कर्तव्यनिष्ठ नहीं देखा |  पंडित जी वंशीधर की कर्तव्यनिष्ठा के कायल हो गए। वंशीधर ने पंण्डित जी को देखा तो उनका सम्मानपूर्वक आदर सत्कार किया।


उन्हें लगा कि पंडितजी उन्हें लज्जित करने आए हैं। लेकिन उनकी बात सुनकर आश्चर्यचकित हो गए और उन्होंने कहा जो पंडितजी कहेंगे वही करूंगा। पंडितजी ने स्टाम्प लगा हुआ एक पत्र दिया जिसमें लिखा था कि वंशीधर उनकी सारी स्थाई जमीन के मैनेजर नियुक्त किए गए हैं। वंशीधर की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने कहा वो इस पद के काबिल नहीं है। पंडित जी ने कहा मुझे न काबिल व्यक्ति ही चाहिए जो धर्मनिष्ठा से काम करे।



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 सारांश -3


नमक का दरोगा प्रेमचंद द्वारा रचित लघु कथा है। इसमें एक ईमानदार नमक निरीक्षक की कहानी को बताया गया है जिसने कालाबाजारी के विरुद्ध आवाज उठाई। यह कहानी धन के ऊपर धर्म के जीत की है। कहानी में मानव मूल्यों का आदर्श रूप दिखाया गया है और उसे सम्मानित भी किया गया है। सत्यनिष्ठा, धर्मनिष्ठा और कर्मपरायणता को विश्व के दुर्लभ गुणों में बताया गया है। अन्त में यह शिक्षा दी गयी है कि एक बेइमान स्वामी को भी एक इमानदार कर्मचारी की तलाश रहती है।


कहानी आजादी से पहले की है। नमक का नया विभाग बना। विभाग में ऊपरी कमाई बहुत ज्यादा थी इसलिए सभी व्यक्ति इस विभाग में काम करने को उत्सुक थे। उस दौर में फारसी का बोलबाला था और उच्च ज्ञान के बजाय केवल फारसी में प्रेम की कथाएँ और शृंगार रस के काव्य पढ़कर ही लोग उच्च पदों पर पहुँच जाते थे। मुंशी वंशीधर ने भी फारसी पढ़ी और रोजगार की खोज में निकल पड़े। उनके घर की आर्थिक दशा खराब थी। उनके पिता ने घर से निकलते समय उन्हें बहुत समझाया जिसका सार यह था कि ऐसी नौकरी करना जिसमें ऊपरी कमाई हो और आदमी तथा अवसर देखकर घूस जरूर लेना।