1977 में भारत के प्रधानमंत्री कौन थे? - 1977 mein bhaarat ke pradhaanamantree kaun the?

प्रासंगिक… तो देश को 1977 में ही मिल जाता पहला दलित प्रधानमंत्री

By कृष्ण प्रताप सिंह on 11/05/2019 •

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चुनावी बातें: 1977 के लोकसभा चुनाव में जीत के बाद जनसंघ के सांसद चाहते थे कि बाबू जगजीवन राम के रूप में पहला दलित प्रधानमंत्री देकर देश को नया संदेश दिया जाए, लेकिन राजनीतिक जटिलताओं के चलते ऐसा हो न सका.

1977 में भारत के प्रधानमंत्री कौन थे? - 1977 mein bhaarat ke pradhaanamantree kaun the?

बाबू जगजीवन राम (फोटो साभार: विकिपीडिया)

केआर नारायणन के रूप में देश को पहला दलित राष्ट्रपति तो 25 जुलाई, 1997 को ही मिल गया था, लेकिन पहले दलित प्रधानमंत्री का उसका इंतजार अभी तक खत्म नहीं हुआ है.

यह तब है, जब बसपा सुप्रीमो मायावती खुद वर्षों पहले तक ‘दलित की बेटी’ को प्रधानमंत्री बनाने के नाम पर ही वोट मांगा करती थीं. उनका नारा था-‘यूपी हुई हमारी है, अब दिल्ली की बारी है’ और उसे लगाने वाले कार्यकर्ताओं के जोशोखरोश को देखकर लगता था कि देश अपने पहले दलित प्रधानमंत्री से बस कुछ ही कदम दूर है.

लेकिन मतदाताओं ने उनके अरमानों पर ऐसा पानी फेरा कि न यूपी उनकी रह पाई और न ही दिल्ली हाथ आई. हालांकि अभी भी न वे नाउम्मीद हुई हैं और न उनके समर्थक.

बहरहाल, इस सिलसिले में सबसे दिलचस्प जानकारी यह है कि देश अपने पहले दलित प्रधानमंत्री के सबसे ज्यादा निकट 1977 के लोकसभा चुनाव में पहुंचा था. दूसरे शब्दों में कहें तो उसे पाते-पाते रह गया था!

पा जाता तो उसे अपना पहला दलित प्रधानमंत्री पहले दलित राष्ट्रपति से पहले मिल जाता. दरअसल, उस चुनाव में जनता पार्टी को बहुमत मिला, तो उसके संसदीय दल के नेता यानी प्रधानमंत्री का चुनाव विकट समस्या बन गया.

कारण यह कि वह कई कांग्रेस विरोधी दलों के विलय से बनी थी और उन सबके अपने-अपने दावे थे. अंततः प्रधानमंत्री के चयन की जिम्मेदारी उसके शिल्पकारों लोकनायक जयप्रकाश नारायण और जेबी कृपलानी को सौंपी गई तो तीन दावेदार सामने आये- मोरारजी देसाई, बाबू जगजीवन राम और चौधरी चरण सिंह.

मालूम हो कि पार्टी के जनसंघ घटक के सबसे ज्यादा, कुल 93 सांसद चुनकर आये थे लेकिन उसके नेताओं ने खुद को इस दौड़ से अलग रखा था. उसके बाद सबसे ज्यादा 71 सांसद चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाले भारतीय क्रांति दल के थे, जबकि बाबू जगजीवन राम की कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी और सोशलिस्ट पार्टी दोनों के 28-28 सांसद थे.

सोशलिस्ट पार्टी के जॉर्ज फर्नांडीज और मधु दंडवते तो जगजीवन राम के पक्ष में थे ही, जनसंघ के सांसद भी चाहते थे कि पहला दलित प्रधानमंत्री देकर देश को नया संदेश दिया जाए.

लालकृष्ण आडवाणी व्यक्तिगत रूप से मोरारजी के पक्ष में थे. चूंकि मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह की आपस में कतई नहीं बनती थी इसलिए संभावना थी कि दोनों ही तीसरे, जगजीवन राम के नाम पर सहमत हो जाएंगे. लेकिन चौधरी चरण सिंह को मोरारजी तो गवारा नहीं ही थे, जगजीवन राम को लेकर भी एतराज थे.

सबसे बड़ा यह कि इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल की बैठक में इमरजेंसी का प्रस्ताव खुद जगजीवन राम ने ही पेश किया था और वे उसका सुख भोगने के बाद तब कांग्रेस से बाहर आए थे, जब चुनाव की घोषणा हो गई और कांग्रेस का सूपड़ा साफ होने की संभावना जगजाहिर हो गई.

अंततः वे बीमार होकर अस्पताल चले गए और पार्टी की बैठकों आदि में भाग लेना बंद कर दिया. फिर भी बात अपने पक्ष में पलटती नहीं दिखी तो उन्होंने अस्पताल से ही लोकनायक को पत्र लिखकर मोरारजी का समर्थन कर दिया.

इसके बाद मोरारजी का नाम घोषित करते हुए कृपलानी ने कहा कि ऐसा करते हुए उन्हें कतई अच्छा नहीं लग रहा, परंतु कोई और विकल्प नहीं है. दो प्रधानमंत्री हो सकते तो हम जगजीवन राम को अवश्य चुनते.

प्रसंगवश, आगे चलकर भाजपा ने प्रधानमंत्री न सही, 1995 में मायावती के रूप में देश को पहला दलित मुख्यमंत्री दिया. तब मायावती की उम्र केवल 39 साल थी और वे उत्तर प्रदेश की तब तक की सबसे कमउम्र मुख्यमंत्री थीं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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Categories: प्रासंगिक, राजनीति

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1 मार्च, 1977 को दिल्ली के बोट क्लब में होने वाली चुनावी रैली में मौजूद सरकारी कर्मचारी इंदिरा गांधी से बहुत ख़फ़ा थे.

नई दिल्ली से कांग्रेस प्रत्याशी शशि भूषण ने जब नारा लगाया, 'बोलो इंदिराजी की जय' तो भीड़ की तरफ़ से एक आवाज़ भी नहीं आई. शशि भूषण को लगा कि शायद माइक नहीं काम कर रहे हैं.

उन्होंने जब माइक को खड़खड़ाया तो वहाँ मौजूद लोग हँसने लगे. दिल्ली की जनता ने प्रधानमंत्री के लिए इस तरह की उपेक्षा पहले कभी नहीं दिखाई थी. इंदिरा गांधी का भाषण समाप्त होने से पहले ही लोग वहाँ से उठना शुरू हो गए थे.

अचानक चुनाव ने विपक्ष को किया अचंभित

1977 में लोकसभा का कार्यकाल नवंबर में ख़त्म होने वाला था. लेकिन इंदिरा गांधी ने अचानक 18 जनवरी को चुनाव की घोषणा करके देशवासियों और विपक्ष दोनों को अचंभे में डाल दिया था.

इंदिरा गांधी सेंटर ऑफ़ आर्ट्स के अध्यक्ष और वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय बताते हैं, "इस घोषणा से 16-17 दिन पहले मैं दिल्ली में था. उस समय जितने भी बड़े नेता थे, उनसे मैं मिला था. चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी और चंद्रशेखर सब का मानना था कि इंदिरा गाँधी विपक्ष के लोगों का मनोबल गिरा रही थीं. वो उन्हें या तो अपनी तरफ़ खींच रही थीं या तोड़ रही थीं और उनसे लेन-देन की बातचीत चल रही थी. इनमें से कोई भी नहीं समझता था कि चुनाव होंगे."

"जब चुनाव की घोषणा हो गई तो कोई भी चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं था. मैंने राज नारायण के भाई से, जो हाल ही में उनसे जेल में मिलकर आए थे, पूछा कि उनकी क्या योजना है? उन्होंने जेल से ही कहलवाया था कि मैं रायबरेली से चुनाव नहीं लड़ूंगा. जॉर्ज फ़र्नान्डिस और अटल बिहारी वाजपेयी बड़े नेता हैं, वही जाकर वहाँ से चुनाव लड़ें. जब मैंने सुंदर सिंह भंडारी जैसे नेता से पूछा कि कैसी तैयारी है तो वो बहुत निराश दिखाई दे रहे थे. उनका कहना था कि न तो हमारे पास चुनाव लड़ने के लिए पैसा आएगा और न ही कार्यकर्ता पूरी हिम्मत से हमारे लिए काम करेंगे क्योंकि तब तक इमरजेंसी हटाई नहीं गई थी."

इमेज स्रोत, Shanti Bhushan/BBC

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हेमवती नंदन बहुगुणा और बाबू जगजीवन राम ने दिया था कांग्रेस से इस्तीफ़ा

जनता पार्टी के लिए लोगों ने पैसे इकट्ठा किए

इंदिरा गांधी ने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान 40 हज़ार किलोमीटर की यात्रा की. जम्मू कश्मीर और सिक्किम को छोड़कर वो हर राज्य में गईं और 244 चुनाव सभाओं को संबोधित किया. लेकिन उन्हें ये अंदाज़ा लग गया था कि इस बार जनता उनके साथ नहीं है.

जगजीवन राम और हेमवतीनंदन बहुगुणा के कांग्रेस से इस्तीफ़ा देने के बाद जो जनता लहर बनी, उसने इंदिरा गाँधी को सत्ता से हटा कर ही दम लिया.

राम बहादुर राय बताते हैं, "वो पहला चुनाव था और आगे शायद हो या न हो, जिसमें पार्टी पीछे हो गई थी, नेता पीछे हो गए थे, सिर्फ़ जनता चुनाव लड़ रही थी. उस ज़माने में चंद्रशेखर की जब कोई चुनावी सभा होती थी तो एक आदमी चादर लेकर घूम जाता था और 10-15 लाख रुपए इकट्ठा हो जाते थे."

"इस बात की सूचना मात्र से कि बाहर से कोई शख़्स जनता पार्टी का प्रचार करने आया है, दस- पंद्रह हज़ार लोगों की भीड़ जमा हो जाती थी, चाहे लोग उसे जानते हों या न हों. चंद्रभानु गुप्त ने एक बार मुझसे पूछा कि अल्मोड़ा कोई जाने के लिए तैयार नहीं हो रहा है. वहाँ से डाक्टर मुरली मनोहर जोशी चुनाव लड़ रहे हैं. क्या तुम वहाँ जाओगे ? मैं वहाँ पहुंच गया. आप यकीन नहीं करेंगे कि पिथौरागढ़ में सिर्फ़ 10 मिनट तक रिक्शे पर प्रचार हुआ कि जनता पार्टी की एक सभा होने वाली है. वो पिथौरागढ़ के इतिहास की सबसे बड़ी सभा थी."

मुफ़्त की सवारी और जनता पार्टी ज़िंदाबाद के नारे

उत्तर भारत के हर कोने में इंदिरा गांधी की चुनावी सभा में जनता की उदासीनता साफ़ दिखाई दे रही थी. डी.आर मनकेकर और कमला मनकेकर अपनी किताब 'डिक्लाइन एंड फॉल ऑफ़ इंदिरा गांधी' में जालंधर की एक चुनावी सभा का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं, "इंदिरा गांधी ने 11 मार्च को जालंधर में जो चुनावी सभा की थी वो लोगों की नज़र में कांग्रेस की स्थिति का सही पैमाना था. इस बैठक को सफल बनाने के लिए राज्य सरकार ने सैकड़ों बसों का इस्तेमाल किया था, ताकि आसपास के इलाक़ों से ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को इस रैली में लाया जा सके."

"सभा का समय भी शाम साढ़े सात से बदलकर सूर्यास्त कर दिया गया था, ताकि लोगों को वापस घर पहुंचने में देरी न हो. मुफ़्त की सवारी और आधे दिन की छुट्टी का फ़ायदा उठाते हुए लोग सभा में आए ज़रूर, लेकिन उनका मन खिन्न था."

"जब कांग्रेस के वक्ताओं ने जगजीवन राम पर हमला बोला और ये कहा कि अकालियों को उनके अनुरोध पर ही गिरफ़्तार किया गया था, तो भीड़ भड़क गई. सभा की समाप्ति पर सभी लोगों ने कांग्रेस पार्टी द्वारा दी गई मुफ़्त की सवारी ली लेकिन रास्ते भर वो जनता पार्टी ज़िंदाबाद के नारे लगाते गए."

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जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई

रोकने के लिए दिखाई गई बॉबी फ़िल्म

जगजीवन राम के इस्तीफ़े के बाद विपक्ष ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक ज़बरदस्त रैली की थी जिसके बारे में कहा जाता है कि दिल्ली के इतिहास में किसी सभा में इतना बड़ा जन सैलाब कभी नहीं देखा गया.

मशहूर पत्रकार कूमी कपूर अपनी किताब 'द इमरजेंसी - अ पर्सनल हिस्ट्री ' में लिखती हैं, "भीड़ को दूर रखने के लिए तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने दूरदर्शन से कहकर रविवार की फ़ीचर फ़िल्म का समय चार बजे से बदलवाकर पाँच बजे करवा दिया था."

"पूर्व- निर्धारित फ़िल्म 'वक़्त' के स्थान पर उन्होंने 1973 की सबसे बड़ी फ़िल्म ब्लॉकबस्टर 'बॉबी' दिखाने का फ़ैसला किया था. एक बार फिर रामलीला मैदान के आसपास किसी बस को आने नहीं दिया गया था और लोगों को सभास्थल तक पहुंचने के लिए एक किलोमीटर तक चलना पड़ा था. जेपी और जगजीवन राम 'बॉबी' से कहीं बड़े आकर्षण सिद्ध हुए."

"अटल बिहारी वाजपेयी की दत्तक पुत्री नमिता भट्टाचार्य ने मुझे बताया था कि जब वो सभास्थल की तरफ़ जा रही थीं तो उन्हें कुछ दबी हुई सी आवाज़ सुनाई दी. हमने टैक्सी ड्राइवर से पूछा, 'ये किसकी आवाज़ है ?' उसका जवाब था, 'ये लोगों के क़दमों की आवाज़ है.' जब हम तिलक मार्ग पहुंचे तो वो लोगों से खचाखच भरा हुआ था. हमें वहाँ अपनी टैक्सी छोड़नी पड़ी और वहाँ से रामलीला मैदान हम पैदल गए."

इससे पहले रामलीला मैदान में एक और सभा हुई थी जिसे अटल बिहारी वाजपेयी ने संबोधित किया था. उस सभा में मशहूर पत्रकार वीरेंद्र कपूर भी मौजूद थे.

कपूर बताते हैं, "उस सभा में क़रीब-क़रीब आधी दिल्ली उमड़ पड़ी थी. दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र लोगों के जूते पॉलिश कर जनता पार्टी के लिए पैसे जमा कर रहे थे. साढ़े नौ बजे अटलजी बोलने के लिए खड़े हुए. उन्होंने थोड़ा 'पॉज़' लिया और आँखें बंद करके कहा, 'बाद मुद्दत के मिले हैं दीवाने.' भीड़ पागल होकर ताली बजाने लगी. उन्होंने फिर आँखें बंद की और लंबे 'पॉज़' के बाद कहा, 'कहने सुनने को बहोत हैं अफ़साने.' इस बार और लंबी तालियाँ बजीं. उसके बाद उन्होंने उसी समय स्वरचित दो लाइनें जोड़ीं -

खुली हवा में ज़रा सांस तो ले लें

कब तक रहेगी आज़ादी कौन जाने

भीड़ ने पूरे दो मिनट तक ताली बजाई. वाजपेयी का भाषण समाप्त होने और नेताओं के वापस चले जाने के काफ़ी देर बाद तक भीड़ वहाँ रुकी रही मानो उन्होंने सामूहिक रूप से ये तय कर लिया हो कि उन्हें ताली बजाने के अलावा इनके लिए कुछ और भी करना है. मीटिंग के बाद कनॉट-प्लेस तक लोग पैदल चले आ रहे थे. उस रात मुझे पहली बार अंदाज़ा हुआ कि इंदिरा गाँधी चुनाव हार भी सकती हैं."

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राम बहादुर राय बीबीसी दफ़्तर में रेहान फ़ज़ल के साथ

शहरों की सफ़ाई के नाम पर ज़्यादती

जनता पार्टी के चुनाव अभियान को हवा दी आपातकाल की ज़्यादतियों और संजय गांधी के नसबंदी और शहरों के सौंदर्यीकरण अभियान ने.

रामबहादुर राय बताते हैं, "आज काशी विश्वनाथ मंदिर के चारों तरफ़ नरेंद्र मोदी सरकार जो कॉरीडोर बना रही है, वैसा ही कुछ संजय गांधी उस समय चाहते थे. इसके लिए वहाँ के कमिश्नर को बाकायदा आदेश दे दिया गया था. बनारस में इसको लेकर अंदर -अंदर बहुत रोष पैदा हो रहा था. शायद कमलापति त्रिपाठी ने इसके बारे में इंदिरा गांधी को बताया था."

"पुपुल जयकर इंदिरा की जीवनी में लिखती हैं कि एक दिन इंदिरा गांधी ने उन्हें बुलाकर कहा कि तुम बनारस जाओ और पता लगाकर आओ कि इसको किया जाना चाहिए या नहीं. पुपुल ने वापस आकर इंदिरा को रिपोर्ट दी. इसके बाद इस योजना को रुकवा दिया गया."

"शायद इमरजेंसी में वो अकेला फ़ैसला है जिसमें इंदिरा गांधी ने ख़ुद हस्तक्षेप किया, नहीं तो आगरा और दिल्ली जैसे शहरों में शहर सफ़ाई के नाम पर बहुत ज्यादतियाँ हुईं. नसबंदी के नाम पर लोगों के साथ जो ज़ोर ज़बरदस्ती हुई उसने लोगों को इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ कर दिया."

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जयप्रकाश नारायण

इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ माहौल बनाने में दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम ने भी बड़ी भूमिका निभाई. जामा मस्जिद की सीढ़ियों से जब उन्होंने इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ वोट देने की अपील की तो उसका असर देखने लायक था.

तवलीन सिंह अपनी किताब 'दरबार' में लिखती हैं, "सैयद अहमद शाह बुख़ारी लंबे चौड़े शख़्स थे, जिनकी दाढ़ी सफ़ेद थी. उनकी आवाज़ दूर तक गूंजती थी. उस शाम जब वो जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर आरएसएस के नेताओं का हाथ पकड़े हुए खड़े हुए तो उन्होंने शानदार लिबास पहन रखा था."

"काफ़ी नारेबाज़ी और शोर-शराबे के बीच उन्होंने ऐलान किया वो शाही इमाम के तौर पर उनको हुक्म दे रहे हैं कि वो इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ वोट दें. फिर उन्होंने पूछा 'क्या आपको मेरी ये बात मंज़ूर है?' जामा मस्जिद के चारों और खड़ी भीड़ ने एक स्वर में जवाब दिया, 'मंज़ूर है.''

लेकिन वीरेंद्र कपूर का मानना है कि शाही इमाम ने मुसलमानों के बीच संजय गांधी के ख़िलाफ़ उठ रही भावनाओं का फ़ायदा उठाया.

वह कहते हैं, "शाही इमाम इस लड़ाई में इसलिए कूदे क्योंकि वो जानते थे कि जिस समुदाय को वो संबोधित कर रहे थे, वो पूरी तरह से संजय गांधी के ख़िलाफ़ था. वो संजय गांधी के नसबंदी अभियान से बहुत नाराज़ थे. अगर शाही इमाम कहते कि कांग्रेस को वोट दीजिए तो उन्हीं के लोग उन्हें जामा मस्जिद से निकाल देते. उन्होंने तो उस माहौल का फ़ायदा उठाया जिस में सभी लोग इंदिरा और संजय गांधी के ख़िलाफ़ हो गए थे."

फ़र्नांडिस की तस्वीर से लड़ा गया चुनाव

बड़ौदा डायनामाइट केस में फंसे जार्ज फ़र्नान्डिस ने जेल में ही रहकर मुज़फ़्फरपुर से चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया. उनके पूरे परिवार और सुषमा स्वराज ने हथकड़ियों में जकड़ी उनकी तस्वीर दिखा कर ही पूरे क्षेत्र में प्रचार किया. जब चुनाव परिणाम आया तो जॉर्ज दिल्ली के तिहाड़ जेल में बंद थे.

जॉर्ज फ़र्नान्डिस के निकट सहयोगी रहे के विक्रम राव बताते हैं, "जॉर्ज को रिहाई तो मिली नहीं लेकिन जेलर ने किसी तरह उनका नामांकन फ़ाइल करवा दिया. हम सब लोग तिहाड़ के 17 नंबर वार्ड में थे. सवाल ये था कि मुज़फ़्फ़रपुर में जो मतगणना हो रही है, उसकी ख़बर हमें कैसे मिले? जेल के एक डॉक्टर हुआ करते थे. हमने उनसे कहा कि आप अकेले शख़्स हैं जो रात में 10-11 बजे यहाँ आ सकते हैं. हम पर एक कृपा करिए कि जब आप रात को आएं तो पता लगाते आएं कि मुज़फ्फरपुर में कौन 'लीड' कर रहा है."

"डॉक्टर 11 बजे आए और आकर उन्होंने बताया कि जॉर्ज 1 लाख वोट से 'लीड' कर रहे हैं. मैं एक छोटा सा ट्रांज़िस्टर 'स्मगल' करके जेल के अंदर ले गया था. सुबह साढ़े चार बजे मैंने 'वॉयस ऑफ़ अमेरिका' से सुना कि इंदिरा गांधी के चुनाव एजेंट ने फिर से मतगणना की मांग की है. ये सुनते ही मैं उछल पड़ा."

"दोबारा मतगणना कराने की मांग तो हारने वाला उम्मीदवार ही करता है न कि जीतने वाला. मैंने तुरंत जॉर्ज और उनके पास चारपाई पर लेटे हुए अपने साथियों को जगा कर ये शुभ सूचना दी. पूरी जेल में एक तरह से दीवाली का माहौल हो गया, जबकि दीवाली अभी 9 महीने दूर थी."

इमेज स्रोत, Shanti Bhushan/BBC

1977 में इंदिरा गांधी की हार को मशहूर फ़ोटोग्राफ़र रघु राय ने भी अपने कैमरे में कैद किया था. उस तस्वीर में एक कूड़ा उठाने वाला इंदिरा गांधी के फटे हुए पोस्टर को उठा रहा है और सामने की दीवार पर परिवार नियोजन का मशहूर स्लोगन लिखा हुआ है, 'हम दो, हमारे दो.'

रघु राय बताते हैं, "मैंने उस चुनाव में कई रैलियों की तस्वीर खींची. वहाँ से मुझे ये अहसास होना शुरू हो गया था कि कांग्रेस दम तो लगा रही है, लेकिन पिटने वाली है. उन दिनों एक ही दिन में पूरे देश में चुनाव हो जाते थे. मैं पुरानी दिल्ली में जामा मस्जिद इलाक़े में चुनाव 'कवर' करके वापस लौट रहा था, तो मुझे ये दृश्य दिखाई दिया. मैंने सोचा, 'माई गॉड, व्हाट अ सिचुएशन!' वो तस्वीर मैंने खींच ली और अपने संपादक कुलदीप नैयर को दिखाई. उन्होंने कहा कि ये कमाल की तस्वीर है, जो सब कुछ दिखा रही है. लेकिन मैं इसे इस्तेमाल नहीं करूंगा. मैंने पूछा, क्यों नहीं करेंगे? बोले, 'अगर वो हारी नहीं तो तुम और मैं दोनों जेल में होंगे."

"मैंने कहा 'नैयर साब मेरा यकीन करिए, वो हार रही हैं.' उन्होंने तब भी तस्वीर नहीं छापी. मैंने तस्वीर गुस्से में लेकर फाड़ दी. दूसरे दिन शाम पाँच बजे कुलदीप साहब रघु राय को ढ़ूढ़ रहे थे. जब पता चला कि मैं दफ़्तर में नहीं हूँ, तो उन्होंने मुझे घर पर फ़ोन किया. बोले, 'कहाँ हो कांग्रेस हार रही है. वो तस्वीर छापनी है अख़बार में.' मैंने कहा कि मैंने आपको पहले ही कह दिया था कि अगर आज तस्वीर नहीं छापेंगे, तो कल मैं नहीं आउंगा. फिर उन्होंने कहा 'मुझे माफ़ कर दो. तुम इसी वक्त आ जाओ.' अगले दिन वो तस्वीर अख़बार में छपी. वो एक तरह का फ़ोटो-संपादकीय था, जो उनकी हार पर टिप्पणी कर रहा था."

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मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह

जनता पार्टी के टिकट पर 'बिजली का खंभा' भी जीता

उस चुनाव में कांग्रेस को पूरे 'काउ बेल्ट' में मात्र 2 सीटें मिलीं, 1 राजस्थान में और 1 मध्यप्रदेश में. कहा गया कि जनता आँधी में 'लैंप-पोस्ट' भी जीतकर लोकसभा में पहुंच गया.

रामबहादुर राय याद करते हैं, "उस चुनाव का कमाल देखिए. प्रतापगढ़ से राजा दिनेश सिंह को हराकर एक सज्जन आए. उन दिनों किसी भी नेता के यहाँ बहुत भीड़ रहा करती थी. उस दिन संयोग से मैं चरण सिंह के यहाँ बैठा हुआ था. एक व्यक्ति उनके पास आया और उनके चरण छुए. चौधरी साहब ने अपना सिर उठा कर कहा, 'तुम्हारी तारीफ़?' उसने कहा आपके आशीर्वाद से मैं प्रतापगढ़ से सांसद हो गया हूँ."

"चरण सिंह ने कहा, मैंने तुम को टिकट ये सोच कर नहीं दिया था कि तुम जीत जाओगे. मैंने टिकट इसलिए दिया थी कि मेरी पत्नी गायत्री देवी तुम्हारी सिफ़ारिश कर रही थीं. मैंने सोचा कि टिकट भी दे देंगे और ये हार भी जाएगा. अब तुम भी जीत कर आ गए तो मैं क्या करूँ. कहने का मतलब ये कि उत्तर में जिसे भी जनता पार्टी का टिकट मिला, वो जीत कर ही आया."

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बीबीसी के दफ़्तर में जब कुलदीप नैयर आए थे

ज़िला मजिस्ट्रेट पर दोबारा मतगणना का दबाव

जब इंदिरा गांधी मतगणना में पिछड़ने लगीं तो रायबरेली के ज़िला मजिस्ट्रेट विनोद मल्होत्रा पर दोबारा मतगणना कराने का दबाव डाला गया.

जाने माने पत्रकार कुलदीप नैयर अपनी आत्मकथा, 'बियॉन्ड द लाइंस' में लिखते हैं, "विनोद मल्होत्रा ने मुझे बताया कि पहले राउंड से ही उन्हें लगने लगा था कि इंदिरा गांधी हार रही हैं. ओम मेहता और आरके धवन ने उन्हें दो बार फ़ोन करके कहा कि वो चुनाव परिणाम घोषित न करें."

"विनोद ने कहा कि जब इंदिरा गांधी की हार पक्की हो गई तो मैं अपनी पत्नी से परामर्श करने गया. मैंने उससे कहा कि अगर मैं नतीजा घोषित कर देता हूँ, तो मुझे इंदिरा गाँधी के ग़ुस्से का शिकार होना पड़ेगा, क्योंकि वो कहीं से उप-चुनाव जीत कर दोबारा संसद में आ जाएंगी. मैं तब भी मान रहा था कि कांग्रेस पार्टी ही सत्ता में आ रही है. मल्होत्रा की पत्नी ने मुझे बताया कि जब मेरे पति ने मेरी राय मांगी तो मैंने कहा, 'हम बर्तन मांज लेंगे, मगर बेइमानी नहीं करेंगे.''

उधर इंदिरा गांधी अपने निवास स्थान 1 सफ़दरजंग रोड पर अपनेआप को इस चौंका देने वाले परिणाम का सामना करने के लिए तैयार कर रही थीं. उसी समय उनकी दोस्त और बाद में उनकी जीवनी लिखने वाली पुपुल जयकर भी वहाँ पहुंच गईं.

पुपुल जयकर लिखती हैं, "जब इंदिरा गांधी का सचिव मुझे उनके कमरे में लेकर गया तो वो वहाँ अकेले बैठी हुई थीं. मुझे देखते ही वो उठीं और बोलीं, 'पुपुल मैं हार गई हूँ.' मैं ये सुनकर स्तब्ध रह गई और मुझे नहीं सूझा कि मैं क्या कहूँ? साढ़े दस बजे उन्होंने घंटी बजाई और खाना लगाने और राजीव और सोनिया को बुलाने के लिए कहा. वो बहुत देर बाद आए. सोनिया चुपचाप रो रही थीं. इंदिरा ने कटलेट्स, सलाद और उबली हुई सब्ज़ियाँ लीं."

"तभी उनके स्पेशल असिस्टेंट आरके धवन ने आकर ख़बर दी कि 'टिकर' पर ख़बर है कि राजनारायण की बढ़त अब 20 हज़ार की हो गई है. खाने के बाद मैं, राजीव, सोनिया और मोहम्मद यूनुस के साथ उनके पास बैठी. मैं वहाँ रात बारह बजे तक रही. जब मैं उठने लगी तो कुछ समय के लिए राजीव के पास अकेले रह गई. राजीव ने कहा, 'मैं ममी को इस हालत में पहुंचाने के लिए संजय को कभी माफ़ नहीं करूंगा. इस सबके लिए वही ज़िम्मेदार है.''

थोड़ी देर बाद इंदिरा ने अपने निवास स्थान पर ही अपने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई. जहाँ उन्होंने आपातकाल को समाप्त करने का फ़ैसला लिया और कार्यवाहक राष्ट्रपति बीडी जट्टी को अपना इस्तीफ़ा सौंपने उनके निवास-स्थान गईं.

इंदिरा गाँधी के सचिव रहे पीएन धर अपनी किताब 'इंदिरा गांधी, इमरजेंसी एंड इंडियन डेमोक्रेसी' में लिखते हैं, "जट्टी, उनकी पत्नी और उनके परिवार के कुछ सदस्य ड्राइंग रूम में इंदिरा गांधी का इंतज़ार कर रहे थे. उन्होंने उनका आरती से परंपरागत स्वागत किया. जट्टी हिले हुए दिखाई दे रहे थे. जैसे ही उन्होंने कुछ बोलने के लिए अपना मुंह खोला, उनकी पत्नी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगीं. ग़नीमत ये रही कि उसी समय कुछ नौकर चाय और नाश्ते की ट्रे लेकर कमरे के अंदर आ गए. चाय के प्यालों की खनक ने जट्टी की पत्नी की सिसकियों को छिपा लिया."

"कुछ असहज क्षणों के बाद इंदिरा गांधी ने कार्यवाहक राष्ट्रपति को अपना इस्तीफ़ा सौंपा. उन्होंने न तो लिफ़ाफ़े को खोला और न ही इंदिरा से कुछ कहा. जैसे ही श्रीमती गांधी वापस जाने के लिए उठीं, मुझे अहसास हुआ कि जट्टी ने प्रधानमंत्री से ये नहीं कहा है कि आप नई सरकार बनने तक इस पद पर बनी रहें. मैंने जट्टी को एक तरफ़ ले जाकर इस संवैधानिक ज़रूरत की तरफ़ उनका ध्यान दिलाया. ये सुनते ही जट्टी ने घबराते हुए एक दर्जन बार मुझसे हाँ- हाँ कहा. फिर जैसा मैंने उन्हें सलाह दी थी, प्रधानमंत्री से उन्होंने वैकल्पिक व्यवस्था होने तक पद पर बने रहने के लिए कहा. इस्तीफ़ा देने के बाद इंदिरा गांधी साउथ ब्लॉक न जाकर अपने घर गईं. शाम को उन्होंने भारत सरकार के सारे सचिवों और अपने 'स्टाफ़' को चाय पर बुलाकर उन्हें विदाई दी."

ऑडियो कैप्शन,

साल 1977 में जनता पार्टी ने पहली बार केंद्र में ग़ैर-कांग्रेसी सरकार बनाई थी.

बहादुरशाह ज़फ़र रोड पर जश्न

जब इंदिरा गांधी रात में अपने मंत्रिमंडल की बैठक कर रही थीं, दिल्ली की सड़कों पर उत्सव का माहौल था. ढोल बज रहे थे और लोग सड़कों पर नाच रहे थे. जनता पार्टी ने 270 सीटें जीती थीं और उसके सहयोगी दल 'कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी' को 28 सीटें मिली थीं. कांग्रेस सिर्फ़ 153 सीटों पर सिमट गई थीं.

तवलीन सिंह लिखती हैं, "उस रात 'स्टेट्समैन' के दफ़्तर में कोई घर नहीं गया. कैंटीन से चाय के अनगिनत प्याले आते रहे. रात को 'स्टेट्समैन' और 'हिंदुस्तान टाइम्स' के बहुत सारे 'रिपोर्टर', एंबेसडर कारों के काफ़िले में बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग गए, जहाँ 'टाइम्स ऑफ़ इंडिया' के दफ़्तर के सामने हज़ारों लोग जमा हो चुके थे. चारों तरफ़ नगाड़े बज रहे थे और लोग नाच रहे थे."

"ये सिलसिला पूरी रात चला. तड़के पाँच बजे के आसपास मैं अपने घर पहुंची. मेरे माता-पिता जाग रहे थे. मेरी माँ ने कहा, वो हार गई है और उसका बेटा भी हार गया है. मैंने कभी सोचा नहीं था कि कभी ऐसा हो पाएगा. हमें भारतीय मतदाता को 'सैल्यूट' करना चाहिए."

1977 में पीएम कौन था?

मोरारजी देसाई मार्च 1977 में देश के प्रधानमंत्री बने लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में इनका कार्यकाल पूर्ण नहीं हो पाया।

1997 के प्रधानमंत्री कौन थे?

श्री इंदर कुमार गुजराल 21 अप्रैल, 1997 को भारत के 12 वें प्रधानमंत्री बने।

1979 से 1980 के प्रधानमंत्री कौन थे?

भारत के प्रधानमंत्रियों की सूची.

1974 में प्रधानमंत्री कौन था?

इन्दिरा प्रियदर्शिनी गाँधी (जन्म उपनाम: नेहरू) (19 नवंबर 1917-31 अक्टूबर 1984) वर्ष 1966 से 1977 तक लगातार 3 पारी के लिए भारत गणराज्य की प्रधानमन्त्री रहीं और उसके बाद चौथी पारी में 1980 से लेकर 1984 में उनकी राजनैतिक हत्या तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं।