"हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन? मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति? गत-युग के बहु धर्म-रूढ़ि के ताज मनोहर (1) राशि राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार? अये, विश्व का स्वर्ण-स्वप्न, संसृति का प्रथम-प्रभात, (2) वही मधुऋतु की गुंजित डाल आज पावस नद के उद्गार अखिल यौवन के रंग उभार (3) शिशिर-सा झर नयनों का नीर मृदुल होठों का हिमजल हास शून्य साँसों का विधुर वियोग अरे, वे अपलक चार नयन (4) विपुल मणि रत्नों का छवि जाल; मोतियों जड़ी ओस की डार (5) अचिरता देख जगत की आप (6) अहे वासुकि
सहस्त्र फन! (7) तुम नृशंस नृप-से जगती पर चढ़ अनियंत्रित; आधि, व्याधि, बहुवृष्टि, वात, उत्पात, अमंगल (8) विपुल वासना विकच विश्व का मानस शतदल (9) एक कठोर कटाक्ष तुम्हारा अखिल प्रलयंकर (10) अरे क्षण-क्षण सौ-सौ निःश्वास
(11) जगत अविरत जीवन संग्राम (12) छिन गया हाय! गोद का बाल (13) (14) (15) (16) (17) (18) अतल से एक अकूल उमंग, (19) एक ही लोल लहर के छोर मूँदती नयन मृत्यु की रात म्लान कुसुमों की मृदु मुसकान (20) (21) (22) (23) पिघल होंठों का हिलता हास (24) (25) (26) (27) (28) वही विस्मय का शिशु नादान एक बचपन ही में अनजान मूँद प्राचीन मरण, (29) अहे अनिर्वचनीय! रूप धर भव्य, भयंकर, (30) परिवर्तित कर अगणित नूतन दृश्य निरन्तर (31) अनन्त हृत्कम्प! तुम्हारा अविरत स्पन्दन (32) अहे महांबुधि! लहरों-से शत लोक, चराचर "स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार "शांत
स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल! चाँदनी रात का प्रथम प्रहर, नौका से उठतीं जल-हिलोर, अब पहुँची चपला बीच धार, पतवार घुमा, अब प्रतनु-भार, ज्यों-ज्यों लगती है नाव पार "मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थे मै हताश हो, बाट जोहता रहा दिनो तक, अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे। औ' जब फिर से गाढ़ी ऊदी लालसा लिये मै फिर भूल गया था छोटी से घटना को देखा आँगन के कोने मे कई नवागत निर्निमेष , क्षण भर मै उनको रहा देखता- तबसे उनको रहा देखता धीरे धीरे यह धरती कितना देती है। धरती माता रत्न प्रसविनि है वसुधा, अब समझ सका
हूँ। कौन, कौन तुम परिहत वसना, नियति वंचिता, आश्रय रहिता, कहो, कौन
हो दमयंती सी पीले पत्रों की शय्या पर गूढ़ कल्पना सी कवियों की भू पलकों पर स्वप्न जाल सी, तुम पथ श्रांता, द्रुपद सुता सी तरुवर की छायानुवाद सी पछतावे की परछाईं सी मदिरा की मादकता सी औ' आशा के नव इंद्रजाल सी, चिर अतीत की विस्मृत स्मृति सी, परियों की निर्जल सरसी सी तुम त्रिभुवन के नयन चित्र सी किस रहस्यमय अभिनय की तुम निर्जनता के मानस पट पर सखि! भिखारिणी सी तुम पथ पर पत्रों के अस्फुट अधरों से कालानिल की कुंचित गति से किस
अतीत का करुण चित्र तुम ऐ अवाक् निर्जन की भारति, ऐ अस्पृश्य, अदृश्य अप्सरसि! ज्योतिर्मय शत नयन खोल नित, थके चरण चिह्नों को अपनी कभी लोभ सी लंबी होकर, श्रमित, तपित अवलोक पथिक को दिनकर कुल में दिव्य जन्म पा सदुपदेश सुमनों से तरु के हे सखि! इस पावन अंचल से चूर्ण शिथिलता सी अँगड़ा कर गाओ, गाओ, विहग बालिके, - हाँ सखि! आओ, बाँह खोल हम मिट्टी से भी मटमैले तन, कोई खंडित, कोई कुंठित, विज्ञान चिकित्सा से वंचित, पशुओं सी भीत मूक चितवन, कुल मान न करना इन्हें वहन, कर्दम में पोषित जन्मजात, इन कीड़ों का भी मनुज बीज, |