अधिकारों का हनन कैसे होता है? - adhikaaron ka hanan kaise hota hai?

10  दिसम्बर को विश्व मानवाधिकार दिवस के रूप में जाना जाता है। इस दिवस की नींव विश्वयुद्ध की विभीषिका से झुलस रहे लोगों के दर्द को समझ कर और उसको महसूस कर संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने 10 दिसंबर 1948 को सार्वभौमिक मानवाधिकार  घोषणापत्र अधिकारिक मान्यता प्रदान की। तब से यह दिन इसी नाम से  याद किया जाने लगा।

अगर हम आज ही पेपर उठा कर देखे तो पता चलेगा की कितने मानवाधिकारों का हनन मानव के ही द्वारा किया जा रहा है। मानव के द्वारा मानव के दर्द को पहचानने और महसूस करने के लिए किसी खास दिन की जरूरत नहीं होती है।अगर हमारे मन में मानवता है ही नहीं तो फिर हम साल में पचासों दिन ये मानवाधिकार का झंडा उठा कर घूमते रहें कुछ भी नहीं किया जा सकता है। ये तो वो जज्बा है जो हर इंसान के दिल में हमेशा ही बना रहता है बशर्ते की वह इंसान संवेदनशील हो। क्या हमारी संवेदनाएं मर चुकी है अगर नहीं तो फिर चलें हम अपने से ही तुलना शुरू करते हैं कि  हम मानवाधिकार को कितना मानते हैं? क्या हम अपने साथ और अपने घर में रहने वाले लोगों के मानवाधिकारों का सम्मान करते हैं ?

जब हम खुद ही अपने अधिकारों से वाकिफ नहीं हैं तो फिर मानवाधिकार का प्रयोग कैसे जान सकते हैं? जब हम अपने अधिकारों से परिचित होते हैं तभी तो उनको हासिल करने के लिए प्रयास कर सकते हैं । जब हमने अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए संकल्प लिया तो वह  दूर नहीं होता कि साथ  हम अपने लक्ष्य तक पहुँच जाते हैं। जब एक आवाज अपने हक को पाने की लिए उठती है और उस आवाज में बुलंदी होती है तो लोग खुद ब खुद उस आवाज का साथ  देने  लगते हैं। इसके लिए अब अकेले लड़ने की जरूरत भी नहीं है बल्कि विश्व स्तर पर ही नहीं बल्कि हर देश और राज्य में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए आयोग बने हुए हैं। अब देखना यह है की इन आयोगों को किस आधार पर मानव को न्याय पाने के लिए सहायता करनी होती है।

मानव के जन्म लेने के साथ ही उसके अस्तित्व को बनाये रखने के लिए कुछ अधिकार उसको स्वतः मिल जाते हैं और वह उनका जन्मसिद्ध अधिकार होता है। इस दुनियाँ में प्रत्येक मनुष्य के लिए अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिकार एक मनुष्य होने के नाते प्राप्त हो जाता है। चाहे वह अपने हक के लिए बोलना भी  जानता हो या नहीं । एक नवजात शिशु को दूध पाने का  अधिकार होता है और तब वह बोलना भी  नहीं जानता  लेकिन माँ उसको स्वयं देती है और अगर नहीं देती है तो उसके घरवाले , डॉक्टर सभी उसको इसके लिए कहते हैं क्योंकि  ये उस बच्चे का हक है और ये उसे मिलना ही चाहिए। एक बच्चे के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए ये  जरूरत  सबसे अहम् होती है। लेकिन उसके बड़े होने के साथ साथ उसके अधिकार भी बढ़ने लगते हैं । बच्चा पढ़ने लिखने अपनी परवरिश के लिए उसको समुचित सुविधाएँ और वातावरण भी मिलना भी उनके जरूरी अधिकारों में आता है। उन्हें आत्मसम्मान के साथ जीने के लिए , अपने विकास के लिए और आगे बढ़ने के लिए कुछ हालत ऐसे चाहिए  जिससे की उनके रास्ते  में कोई व्यवधान न आये। पूरे विश्व में इस बात को अनुभव किया गया है और इसी लिए मानवीय मूल्यों की अवहेलना होने पर वे सक्रिय  हो जाते  हैं।इसके लिए हमारे संविधान में भी उल्लेख किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 14,15,16,17,19,20,21,23,24,39,43,45 देश में मानवाधिकारों की रक्षा  करने  के सुनिश्चित हैं। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि इस दिशा में आयोग के अतिरिक्त कई एनजीओ भी काम कर रहे हैं और साथ ही कुछ समाजसेवी लोग भी इस दिशा में अकेले ही अपनी मुहिम चला रहे हैं।

सामान्य रूप से मानवाधिकारों को देखा जाय तो मानव जीवन में भोजन पाने का अधिकार , शिक्षा का अधिकार , बाल शोषण , उत्पीडन पर अंकुश , महिलाओं के लिए घरेलु हिंसा से सुरक्षा, उसके शारीरिक शोषण पर अंकुश , प्रवास का अधिकार , धार्मिक हिंसा से रक्षा आदि को लेकर बहुत सरे कानून बनाये गए हैं . जिन्हें मानवाधिकार की श्रेणी में रखा गया है |

मानवाधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनाये गए और उनको लागू करना या करवाने के लिए प्रयास भी हो रहे हैं लेकिन वह सिर्फ  कागजी दस्तावेज  बन कर रह गए हैं। समाज में होने वाले इसके उल्लंघन के प्रति अगर मानव ही जागरूक नहीं है तो फिर इनका औचित्य क्या है? हम अपने घरों में काम करवाने के लिए छोटे छोटे बच्चों बच्चों को रखना पसंद करते हैं क्योंकि उनकी जरूरतें कम होती हैं , वे गरीब परिवार से होते हैं इसलिए उन्हें कुछ भी कहा जाय या दिया जाय वे आपत्ति करने की स्थिति में नहीं होते हैं। छोटी छोटी बच्चियां घरों में भारी भरकम काम करती   मिल जायेंगी। सिर्फ घर में ही नहीं बल्कि कारखानों में काम करने के लिए महिलायें 10 से 12 घंटे काम करती हुई मिल जायेंगी। भवन निर्माण में लगी महिलायें अपने छोटे छोटे बच्चों को कहीं जमीन पर लिटा कर काम करती हुई मिल जायेंगी और उन्हें अपने बच्चे को दूध पिलाने की भी छुट्टी नहीं दी जाती है। पैसा उन्हें पुरुषों की अपेक्षा कम मिलते हैं। इस दिशा में कहाँ हैं मानवाधिकार?

छोटे छोटे बच्चे कारखानों में काम करते मिल जायेंगे , वे बच्चे जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा है। गरीब है तो घर में पैसे लाने के लिए घर वालों के द्वारा काम पर भेज दिए जाते हैं। सड़क पर नशे की चीजों को बेचते हुए बच्चे किस दृष्टि से मानवाधिकार के उल्लंघन का प्रतीक नहीं है।

घर में महिलाओं के साथ हो रहे  घरेलू  हिंसा की घटनाएँ  क्या हैं?  हम दंभ भरते हैं कि  नारी सशक्तिकरण हो रहा है, महिलायों की स्थिति सुधर चुकी है , वे आत्मनिर्भर हो अपने स्थान को सुरक्षित कर रही हैं लेकिन सच इसके विपरीत है  सिर्फ कुछ प्रतिशत महिलायें हैं जो आत्मनिर्भर हो कर अपने बारे में सोचने और करने के लिए स्वतन्त्र है, नहीं तो उनकी कमाई  भी घर के नाम पर उनसे ले ली जाती है और उनको मिलता है सिर्फ अपने खर्च भर का पैसा।

महिलाओं और बच्चियों के यौन शोषण के प्रति क़ानून बने है लेकिन फिर भी इसकी घटनाओं में कोई भी कमी नहीं आ रही है । उन्हें सुरक्षित रहने और इज्जत से जीने का अधिकार तो मानवाधिकार दिलाता ही है लेकिन उन्हें मिलता कब है? जिन्हें उन सबकी डोर थमाई गयी है वे ही कभी कभी उसका हनन करते हुए पाए जाते हैं।

आज भी बचपन भूख से बिलखता हुआ और शिक्षा से बहुत दूर जी रहा है । प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन वे अभी तक अपर्याप्त हैं। उनका लागू होने में बहुत देर है अभी। अभी देश का बचपन अपने लिए जमीन तलाश कर रहा है। उनके अधिकारों का हनन हम कर रहे हैं।

बड़े बड़े समाजसेवी लोगों के घर में महिलाओं के शोषण , बाल शोषण  की घटनाएँ हुआ करती हैं । वे सफेदपोश लोग ही मानवाधिकारों का हनन कर रहे होते हैं। हम उन्हें उसके रक्षक समझ रहे होते हैं लेकिन वे न्याय नहीं कर रहे होते हैं। उनके खिलाफ बोलने का साहस भी लोग नहीं कर पते हैं।

हम और दिनों की तरह से इस दिन को भी एक रस्म समझ कर निभा लेते हैं लेकिन खुद को नहीं बदल पाते  हैं। किसी के प्रति न्याय करने के लिए पहल भी अगर कर सकें तो एक एक कदम कुछ तो सुधर ला सकता है। बस हमेशा के तरह से ये संकल्प तो ले ही सकते हैं कम से कम हम तो इन  मानवाधिकारों का हनन करने की कोशिश नहीं करेंगे ।

10 दिसंबर यानी मानवाधिकार दिवस। एक ऐसा दिन, जब आप और हम अपने अधिकारों की बात करतें हैं। दरअसल ये अधिकार हमारी बुनियादी जरूरतों से जुड़े हैं। इंसान होने के नाते हमें भूख और प्यास लगती है, जीवन से जुड़ी सुख-सुविधाओं की जरूरत होती है, अपनी सत्‍ता चुनने की आजादी होती है, अपने विचारों को कहने की आवश्यकता होती है। ये जरूरतें तभी पूरी होती हैं, जब हमें मानवाधिकारों के उपयोग की पूरी आजादी दी जाती है।

हालांकि मानवाधिकारों को लेकर विवाद भी रहता है। सजायफ्ता कैदियों, आतंकियों और विद्रोहियों के मानवाधिकार की बात होती है तो कई लोगों की त्यौंरियां चढ़ जाती हैं।

मानावाधिकरों को लेकर विरोधाभास हो सकते हैं लेकिन कहीं न कहीं मानव का हित साधना ही इनका मकसद है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने पहली बार 10 दिसंबर, 1948 में सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा स्वीकार की थी। 1950 से महासभा ने सभी देशों को इसकी शुरुआत के लिए आमंत्रित किया। संयुक्त राष्ट्र ने इस दिन को मानवाधिकारों की रक्षा और उसे बढ़ावा देने के लिए तय किया।किसी भी इंसान की जिंदगी, आजादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार है मानवाधिकार है। भारतीय संविधान इस अधिकार की न सिर्फ गारंटी देता है, बल्कि इसे तोड़ने वाले को अदालत सजा देती है।

हमारे यहां 28 सितंबर, 1993 से मानव अधिकार कानून अमल में आया। 12 अक्टूबर, 1993 में सरकार ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का गठन किया।

मानवाधिकार आयोग के कार्यक्षेत्र में नागरिक और राजनीतिक के साथ आर्थिक , सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार भी आते हैं। जैसे बाल मजदूरी, एचआईवी/एड्स, स्वास्थ्य, भोजन, बाल विवाह, महिला अधिकार, हिरासत और मुठभेड़ में होने वाली मौत, अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाती और जनजाति के अधिकार।

दुनिया में संयुक्त राष्‍ट्र संघ मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सतत प्रयासरत रहता है।  ह्यूमन राइट्स वाच और एमनेस्टी इंटरनेशनल भी मानवाधिकारों के खिलाफ आवाज उठाते हैं। भारत में मानवाधिकार आयोग के अलावा पीपुल्‍स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज और पीपुल्‍स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स जैसे संगठन भी सक्रिय हैं।

देश भर में विश्व मानवाधिकार दिवस दस दिसम्बर को मनाने की नौटंकी  हर वर्ष होती है ।इस नौटंकी में देश में कथित रूप से राष्ट्रिय स्तरीय और राज्य स्तरीय कई कार्यक्रम आयोजित कर लाखों रूपये बर्बाद किये जाते हैं ।लेकिन देश में आज भी मानाधिकार कानून मामले में देश पंगु बना हुआ हे देश में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन वर्ष 993 में गठित कर सुप्रीम कोर्ट के जज रंगनाथ मिश्र को इसका अध्यक्ष बनाया गया और इसी के साथ ही राष्ट्रिय मानवाधिकार कानून देश भर में लागू कर दिया गया , रंगनाथ मिश्र ने इस कानून के माध्यम से देश भर में लोगों को न्याय दिलवाया लेकिन फिर सरकार अपने स्तर पर इस आयोग में नियुक्तियां करने लगी और आज देश भर में राष्ट्रिय और राज्य मानवाधिकार आयोग खुद एक सरकारी एजेंसी बन कर रह गये हें आयोग खुद काफी लम्बे वक्त तक खुद की सुख सुविधाओं के लियें लड़ता रहा और फिर जब राजकीय नियुक्तिया इस आयोग में हुई तो आयोग सरकार के खिलाफ कोई भी निर्देश देने से कतराने लगा।स्थिति यह हे के देश में 1993 में बने कानून के तहत आज तक किसी भी हिस्से में मानवाधिकार न्यायालय नहीं खोली गयी हे जबकि अधिनियम में हर जिले में एक मानवाधिकार न्यायायलय खोलने का प्रावधान हे लेकिन सरकार ने नातो ऐसा किया और ना ही पद पर  बैठे आयोग के अध्यक्षों ने इस तरफ सरकार पर दबाव बनाया जरा सोचो जब आयोग खुद ही अपने कानून को देश में लागु करवा पाने में असमर्थ हे तो फिर  दूसरे कल्याणकारी कानून कैसे लागू होंगे ।

देश के थानों में आज भी प्रताड़ना का दौर जारी हे हालात यह है कि हिरासत में मौतों का सिलसिला थमा नहीं है ।सरकारी मशीनरी कदम कदम पर मानवाधिकारों का शोषण कर रही हे लेकिन आयोग के दायरे सीमित हें स्टाफ और सदस्य सीमित हें जिला स्तर पर कोई प्रतिनिधि नियुक्त नहीं किये गये हें और आयोग मात्र कार ड्राइवर और भत्तों का बन कर रह गया हे कुछ मामलों में आयोग कठोर रुख अपनाता हे तो उसकी पालना नहीं होती है  ।देश में उत्तर प्रदेश में मानवाधिकारों का सबसे ज्यादा हनन होतं है। 10 दिसंबर 2012  को मानवाधिकार दिवस के दिन ही रामपुर में मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव के कार्यक्रम में विरोध प्रदर्शन कर रही हैं लड़कियों पर लाठी चार्ज किया गया। ये लड़कियां कन्या  विद्या धन में धांधली का विरोध कर रही थीं। इनका आरोप था कि मुरादाबाद मंडल में कन्या विद्या धन के लिए कई पात्र लड़कियों का चयन नहीं किया गया है। जिन लड़कियों को चेक बांटा जा रहा है, उनकी लिस्ट सपा के नेताओं ने तैयार की है। ऐसे में   मानवाधिकार दिवस कि हकीकत का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

केंद्र सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करने पर बाबा रामदेव और उनके समर्थकों पर आधी रात में पुलिस बर्बरता से पिटाई करती है ।

दिल्ली गैंग रेप को लेकर इंडिया गेट और जंतर मंतर पर शांतिपूर्वक  प्रदर्शन  करने वालों लोगों पर सर्दी के मौसम में ठन्डे पानी की बौछारें छोडना,उन पर बर्बरता पूर्वक लाठीचार्ज करना भी तो मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन है ।देश में आये दिन किसी न किसी तरह से हर जगह ही मानवाधिकारों का हनन हो रहा है ।ऐसे में क्या देश में  वाकई  में मानवाधिकार है इस पर काफी लम्बी बहस कि जा सकती है।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

10  दिसम्बर को विश्व मानवाधिकार दिवस के रूप में जाना जाता है। इस दिवस की नींव विश्वयुद्ध की विभीषिका से झुलस रहे लोगों के दर्द को समझ कर और उसको महसूस कर संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने 10 दिसंबर 1948 को सार्वभौमिक मानवाधिकार  घोषणापत्र अधिकारिक मान्यता प्रदान की। तब से यह दिन इसी नाम से  याद किया जाने लगा।

अगर हम आज ही पेपर उठा कर देखे तो पता चलेगा की कितने मानवाधिकारों का हनन मानव के ही द्वारा किया जा रहा है। मानव के द्वारा मानव के दर्द को पहचानने और महसूस करने के लिए किसी खास दिन की जरूरत नहीं होती है।अगर हमारे मन में मानवता है ही नहीं तो फिर हम साल में पचासों दिन ये मानवाधिकार का झंडा उठा कर घूमते रहें कुछ भी नहीं किया जा सकता है। ये तो वो जज्बा है जो हर इंसान के दिल में हमेशा ही बना रहता है बशर्ते की वह इंसान संवेदनशील हो। क्या हमारी संवेदनाएं मर चुकी है अगर नहीं तो फिर चलें हम अपने से ही तुलना शुरू करते हैं कि  हम मानवाधिकार को कितना मानते हैं? क्या हम अपने साथ और अपने घर में रहने वाले लोगों के मानवाधिकारों का सम्मान करते हैं ?

जब हम खुद ही अपने अधिकारों से वाकिफ नहीं हैं तो फिर मानवाधिकार का प्रयोग कैसे जान सकते हैं? जब हम अपने अधिकारों से परिचित होते हैं तभी तो उनको हासिल करने के लिए प्रयास कर सकते हैं । जब हमने अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए संकल्प लिया तो वह  दूर नहीं होता कि साथ  हम अपने लक्ष्य तक पहुँच जाते हैं। जब एक आवाज अपने हक को पाने की लिए उठती है और उस आवाज में बुलंदी होती है तो लोग खुद ब खुद उस आवाज का साथ  देने  लगते हैं। इसके लिए अब अकेले लड़ने की जरूरत भी नहीं है बल्कि विश्व स्तर पर ही नहीं बल्कि हर देश और राज्य में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए आयोग बने हुए हैं। अब देखना यह है की इन आयोगों को किस आधार पर मानव को न्याय पाने के लिए सहायता करनी होती है।

मानव के जन्म लेने के साथ ही उसके अस्तित्व को बनाये रखने के लिए कुछ अधिकार उसको स्वतः मिल जाते हैं और वह उनका जन्मसिद्ध अधिकार होता है। इस दुनियाँ में प्रत्येक मनुष्य के लिए अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिकार एक मनुष्य होने के नाते प्राप्त हो जाता है। चाहे वह अपने हक के लिए बोलना भी  जानता हो या नहीं । एक नवजात शिशु को दूध पाने का  अधिकार होता है और तब वह बोलना भी  नहीं जानता  लेकिन माँ उसको स्वयं देती है और अगर नहीं देती है तो उसके घरवाले , डॉक्टर सभी उसको इसके लिए कहते हैं क्योंकि  ये उस बच्चे का हक है और ये उसे मिलना ही चाहिए। एक बच्चे के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए ये  जरूरत  सबसे अहम् होती है। लेकिन उसके बड़े होने के साथ साथ उसके अधिकार भी बढ़ने लगते हैं । बच्चा पढ़ने लिखने अपनी परवरिश के लिए उसको समुचित सुविधाएँ और वातावरण भी मिलना भी उनके जरूरी अधिकारों में आता है। उन्हें आत्मसम्मान के साथ जीने के लिए , अपने विकास के लिए और आगे बढ़ने के लिए कुछ हालत ऐसे चाहिए  जिससे की उनके रास्ते  में कोई व्यवधान न आये। पूरे विश्व में इस बात को अनुभव किया गया है और इसी लिए मानवीय मूल्यों की अवहेलना होने पर वे सक्रिय  हो जाते  हैं।इसके लिए हमारे संविधान में भी उल्लेख किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 14,15,16,17,19,20,21,23,24,39,43,45 देश में मानवाधिकारों की रक्षा  करने  के सुनिश्चित हैं। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि इस दिशा में आयोग के अतिरिक्त कई एनजीओ भी काम कर रहे हैं और साथ ही कुछ समाजसेवी लोग भी इस दिशा में अकेले ही अपनी मुहिम चला रहे हैं।

सामान्य रूप से मानवाधिकारों को देखा जाय तो मानव जीवन में भोजन पाने का अधिकार , शिक्षा का अधिकार , बाल शोषण , उत्पीडन पर अंकुश , महिलाओं के लिए घरेलु हिंसा से सुरक्षा, उसके शारीरिक शोषण पर अंकुश , प्रवास का अधिकार , धार्मिक हिंसा से रक्षा आदि को लेकर बहुत सरे कानून बनाये गए हैं . जिन्हें मानवाधिकार की श्रेणी में रखा गया है |

मानवाधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनाये गए और उनको लागू करना या करवाने के लिए प्रयास भी हो रहे हैं लेकिन वह सिर्फ  कागजी दस्तावेज  बन कर रह गए हैं। समाज में होने वाले इसके उल्लंघन के प्रति अगर मानव ही जागरूक नहीं है तो फिर इनका औचित्य क्या है? हम अपने घरों में काम करवाने के लिए छोटे छोटे बच्चों बच्चों को रखना पसंद करते हैं क्योंकि उनकी जरूरतें कम होती हैं , वे गरीब परिवार से होते हैं इसलिए उन्हें कुछ भी कहा जाय या दिया जाय वे आपत्ति करने की स्थिति में नहीं होते हैं। छोटी छोटी बच्चियां घरों में भारी भरकम काम करती   मिल जायेंगी। सिर्फ घर में ही नहीं बल्कि कारखानों में काम करने के लिए महिलायें 10 से 12 घंटे काम करती हुई मिल जायेंगी। भवन निर्माण में लगी महिलायें अपने छोटे छोटे बच्चों को कहीं जमीन पर लिटा कर काम करती हुई मिल जायेंगी और उन्हें अपने बच्चे को दूध पिलाने की भी छुट्टी नहीं दी जाती है। पैसा उन्हें पुरुषों की अपेक्षा कम मिलते हैं। इस दिशा में कहाँ हैं मानवाधिकार?

छोटे छोटे बच्चे कारखानों में काम करते मिल जायेंगे , वे बच्चे जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा है। गरीब है तो घर में पैसे लाने के लिए घर वालों के द्वारा काम पर भेज दिए जाते हैं। सड़क पर नशे की चीजों को बेचते हुए बच्चे किस दृष्टि से मानवाधिकार के उल्लंघन का प्रतीक नहीं है।

घर में महिलाओं के साथ हो रहे  घरेलू  हिंसा की घटनाएँ  क्या हैं?  हम दंभ भरते हैं कि  नारी सशक्तिकरण हो रहा है, महिलायों की स्थिति सुधर चुकी है , वे आत्मनिर्भर हो अपने स्थान को सुरक्षित कर रही हैं लेकिन सच इसके विपरीत है  सिर्फ कुछ प्रतिशत महिलायें हैं जो आत्मनिर्भर हो कर अपने बारे में सोचने और करने के लिए स्वतन्त्र है, नहीं तो उनकी कमाई  भी घर के नाम पर उनसे ले ली जाती है और उनको मिलता है सिर्फ अपने खर्च भर का पैसा।

महिलाओं और बच्चियों के यौन शोषण के प्रति क़ानून बने है लेकिन फिर भी इसकी घटनाओं में कोई भी कमी नहीं आ रही है । उन्हें सुरक्षित रहने और इज्जत से जीने का अधिकार तो मानवाधिकार दिलाता ही है लेकिन उन्हें मिलता कब है? जिन्हें उन सबकी डोर थमाई गयी है वे ही कभी कभी उसका हनन करते हुए पाए जाते हैं।

आज भी बचपन भूख से बिलखता हुआ और शिक्षा से बहुत दूर जी रहा है । प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन वे अभी तक अपर्याप्त हैं। उनका लागू होने में बहुत देर है अभी। अभी देश का बचपन अपने लिए जमीन तलाश कर रहा है। उनके अधिकारों का हनन हम कर रहे हैं।

बड़े बड़े समाजसेवी लोगों के घर में महिलाओं के शोषण , बाल शोषण  की घटनाएँ हुआ करती हैं । वे सफेदपोश लोग ही मानवाधिकारों का हनन कर रहे होते हैं। हम उन्हें उसके रक्षक समझ रहे होते हैं लेकिन वे न्याय नहीं कर रहे होते हैं। उनके खिलाफ बोलने का साहस भी लोग नहीं कर पते हैं।

हम और दिनों की तरह से इस दिन को भी एक रस्म समझ कर निभा लेते हैं लेकिन खुद को नहीं बदल पाते  हैं। किसी के प्रति न्याय करने के लिए पहल भी अगर कर सकें तो एक एक कदम कुछ तो सुधर ला सकता है। बस हमेशा के तरह से ये संकल्प तो ले ही सकते हैं कम से कम हम तो इन  मानवाधिकारों का हनन करने की कोशिश नहीं करेंगे ।

10 दिसंबर यानी मानवाधिकार दिवस। एक ऐसा दिन, जब आप और हम अपने अधिकारों की बात करतें हैं। दरअसल ये अधिकार हमारी बुनियादी जरूरतों से जुड़े हैं। इंसान होने के नाते हमें भूख और प्यास लगती है, जीवन से जुड़ी सुख-सुविधाओं की जरूरत होती है, अपनी सत्‍ता चुनने की आजादी होती है, अपने विचारों को कहने की आवश्यकता होती है। ये जरूरतें तभी पूरी होती हैं, जब हमें मानवाधिकारों के उपयोग की पूरी आजादी दी जाती है।

हालांकि मानवाधिकारों को लेकर विवाद भी रहता है। सजायफ्ता कैदियों, आतंकियों और विद्रोहियों के मानवाधिकार की बात होती है तो कई लोगों की त्यौंरियां चढ़ जाती हैं।

मानावाधिकरों को लेकर विरोधाभास हो सकते हैं लेकिन कहीं न कहीं मानव का हित साधना ही इनका मकसद है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने पहली बार 10 दिसंबर, 1948 में सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा स्वीकार की थी। 1950 से महासभा ने सभी देशों को इसकी शुरुआत के लिए आमंत्रित किया। संयुक्त राष्ट्र ने इस दिन को मानवाधिकारों की रक्षा और उसे बढ़ावा देने के लिए तय किया।किसी भी इंसान की जिंदगी, आजादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार है मानवाधिकार है। भारतीय संविधान इस अधिकार की न सिर्फ गारंटी देता है, बल्कि इसे तोड़ने वाले को अदालत सजा देती है।

हमारे यहां 28 सितंबर, 1993 से मानव अधिकार कानून अमल में आया। 12 अक्टूबर, 1993 में सरकार ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का गठन किया।

मानवाधिकार आयोग के कार्यक्षेत्र में नागरिक और राजनीतिक के साथ आर्थिक , सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार भी आते हैं। जैसे बाल मजदूरी, एचआईवी/एड्स, स्वास्थ्य, भोजन, बाल विवाह, महिला अधिकार, हिरासत और मुठभेड़ में होने वाली मौत, अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाती और जनजाति के अधिकार।

दुनिया में संयुक्त राष्‍ट्र संघ मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सतत प्रयासरत रहता है।  ह्यूमन राइट्स वाच और एमनेस्टी इंटरनेशनल भी मानवाधिकारों के खिलाफ आवाज उठाते हैं। भारत में मानवाधिकार आयोग के अलावा पीपुल्‍स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज और पीपुल्‍स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स जैसे संगठन भी सक्रिय हैं।

देश भर में विश्व मानवाधिकार दिवस दस दिसम्बर को मनाने की नौटंकी  हर वर्ष होती है ।इस नौटंकी में देश में कथित रूप से राष्ट्रिय स्तरीय और राज्य स्तरीय कई कार्यक्रम आयोजित कर लाखों रूपये बर्बाद किये जाते हैं ।लेकिन देश में आज भी मानाधिकार कानून मामले में देश पंगु बना हुआ हे देश में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन वर्ष 993 में गठित कर सुप्रीम कोर्ट के जज रंगनाथ मिश्र को इसका अध्यक्ष बनाया गया और इसी के साथ ही राष्ट्रिय मानवाधिकार कानून देश भर में लागू कर दिया गया , रंगनाथ मिश्र ने इस कानून के माध्यम से देश भर में लोगों को न्याय दिलवाया लेकिन फिर सरकार अपने स्तर पर इस आयोग में नियुक्तियां करने लगी और आज देश भर में राष्ट्रिय और राज्य मानवाधिकार आयोग खुद एक सरकारी एजेंसी बन कर रह गये हें आयोग खुद काफी लम्बे वक्त तक खुद की सुख सुविधाओं के लियें लड़ता रहा और फिर जब राजकीय नियुक्तिया इस आयोग में हुई तो आयोग सरकार के खिलाफ कोई भी निर्देश देने से कतराने लगा।स्थिति यह हे के देश में 1993 में बने कानून के तहत आज तक किसी भी हिस्से में मानवाधिकार न्यायालय नहीं खोली गयी हे जबकि अधिनियम में हर जिले में एक मानवाधिकार न्यायायलय खोलने का प्रावधान हे लेकिन सरकार ने नातो ऐसा किया और ना ही पद पर  बैठे आयोग के अध्यक्षों ने इस तरफ सरकार पर दबाव बनाया जरा सोचो जब आयोग खुद ही अपने कानून को देश में लागु करवा पाने में असमर्थ हे तो फिर  दूसरे कल्याणकारी कानून कैसे लागू होंगे ।

देश के थानों में आज भी प्रताड़ना का दौर जारी हे हालात यह है कि हिरासत में मौतों का सिलसिला थमा नहीं है ।सरकारी मशीनरी कदम कदम पर मानवाधिकारों का शोषण कर रही हे लेकिन आयोग के दायरे सीमित हें स्टाफ और सदस्य सीमित हें जिला स्तर पर कोई प्रतिनिधि नियुक्त नहीं किये गये हें और आयोग मात्र कार ड्राइवर और भत्तों का बन कर रह गया हे कुछ मामलों में आयोग कठोर रुख अपनाता हे तो उसकी पालना नहीं होती है  ।देश में उत्तर प्रदेश में मानवाधिकारों का सबसे ज्यादा हनन होतं है। 10 दिसंबर 2012  को मानवाधिकार दिवस के दिन ही रामपुर में मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव के कार्यक्रम में विरोध प्रदर्शन कर रही हैं लड़कियों पर लाठी चार्ज किया गया। ये लड़कियां कन्या  विद्या धन में धांधली का विरोध कर रही थीं। इनका आरोप था कि मुरादाबाद मंडल में कन्या विद्या धन के लिए कई पात्र लड़कियों का चयन नहीं किया गया है। जिन लड़कियों को चेक बांटा जा रहा है, उनकी लिस्ट सपा के नेताओं ने तैयार की है। ऐसे में   मानवाधिकार दिवस कि हकीकत का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

केंद्र सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करने पर बाबा रामदेव और उनके समर्थकों पर आधी रात में पुलिस बर्बरता से पिटाई करती है ।

दिल्ली गैंग रेप को लेकर इंडिया गेट और जंतर मंतर पर शांतिपूर्वक  प्रदर्शन  करने वालों लोगों पर सर्दी के मौसम में ठन्डे पानी की बौछारें छोडना,उन पर बर्बरता पूर्वक लाठीचार्ज करना भी तो मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन है ।देश में आये दिन किसी न किसी तरह से हर जगह ही मानवाधिकारों का हनन हो रहा है ।ऐसे में क्या देश में  वाकई  में मानवाधिकार है इस पर काफी लम्बी बहस कि जा सकती है।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

मानव अधिकारों का हनन कैसे होता है?

यह हाशिये पर रहने वाले व्यक्तियों को गरीबी और उत्पीड़न के चक्र में डाल देता है। जो व्यक्ति जीवन को इस दृष्टिकोण से देखते हैं कि सभी मानव जीवन समान मूल्य के नहीं हैं, वे इस चक्र को बनाए रखते हैं।

मानवाधिकार हनन से क्या तात्पर्य है?

उन्होंने अपने अधिकार किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ने और किसी का अधिकार नहीं छीनने देने का भरोसा दिया। महासचिव मनीश गर्ग और वरिष्ठ उपप्रधान विकास जिंदल ने हर नागरिक के अधिकार के बारे में बताया कि किसी भी शख्स को दूसरे के अधिकार छीनने का हक नहीं और इस नियम का उल्लंघन करना ही मानवाधिकार का हनन है।

अधिकार से आप क्या समझते हैं?

अधिकार का आशय राज्य द्वारा व्यक्ति को प्रदान की जाने वाली उन सुविधाओं से है जिनका प्रयोग कर व्यक्ति अपनी शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक शक्तियों का विकास करता है। अधिकारों के बिना मानव जीवन के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। इसीलिए वर्तमान में प्रत्येक राज्य अपने नागरिकों को अधिकाधिक अधिकार प्रदान करता है।

मानव अधिकार के प्रकार क्या है?

मानव अधिकारों के प्रकार इस घोषणापत्र में कुल 30 अनुच्छेद हैं, जिनमें उल्लिखित मानवाधिकारों को सामान्य तौर पर नागरिक-राजनीतिक और आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक श्रेणियों में बाँटा गया है। इसके अनुच्छेद-3 में व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं सुरक्षा के अधिकारों की बात कही गई है जो अन्य सभी अधिकारों के उपभोग के लिये ज़रूरी हैं।