अंधेर नगरी नाटक वर्तमान समय में कितना प्रासंगिक है समीक्षा कीजिये? - andher nagaree naatak vartamaan samay mein kitana praasangik hai sameeksha keejiye?

अंधेर नगरी नाटक वर्तमान समय में कितना प्रासंगिक है समीक्षा कीजिये? - andher nagaree naatak vartamaan samay mein kitana praasangik hai sameeksha keejiye?

अंधेर नगरी नाटक वर्तमान समय में कितना प्रासंगिक है समीक्षा कीजिये? - andher nagaree naatak vartamaan samay mein kitana praasangik hai sameeksha keejiye?

समकालीन संदर्भ में 'अंधेर नगरी' की प्रासंगिकता

व्यक्ति का मूल स्वभाव और प्रवृतियाँ हर युग में एक-सी ही रही हैं। सतयुग में भी कलयुगी स्वभाव वाले थे और कलयुग में भी सतसुगी स्वभाव वाले सज्जन मिल जाते है। अच्छे-बुरे लोगों का संख्यात्मक अनुपात कम-अधिक हो सकता है पर यह नहीं हो सकता कि किसी युग में उन्हें आधार बना कर लिखा गया हो साहित्य तो कालजयी होता है और फिर भारतेन्दु के साहित्य का सन्दर्भ तो वही है जो हमारे आज का समय है। राजनीतिक स्थितियों अवश्य बदली है और इस कारण कुछ सामाजिक आर्थिक और धार्मिक आधार परिवर्तित हुए हैं- शेष सब कुछ वैसा ही है, इसलिए ‘अंधेर नगरी’ पूर्ण रूप से समकालीन संदर्भ में प्रांसगिक है, इसलिए समकालीन संदर्भ में अंधेर नगरी की प्रासंगिकता को निम्नलिखित आधारों पर स्पष्ट किया जा सकता है –

राजनीतिक संदर्भ : भारतेन्दु ने चौपट्ट राजा के माध्यम से राजनीतिक भ्रष्टता, अदूर दृष्टि और कौशल हीनता को प्रकट किया था। वर्तमान समय में भी उनके राजनीतिज्ञ, सरकारी वर्ग के अधिकारी और उच्च पदों पर आसीन मठाधीश इसी वर्ग से सम्बंधित हैं। उनकें द्वारा किए गए मूर्खतापूर्ण कार्य भी गुमराह जनता के लिए आदर्श बन जाते हैं जनता के किसी छोटे से वर्ग की मूर्खता भरी स्वीकृति को प्राप्त का वे स्वयं को सर्वज्ञ, श्रेष्ठतम और पथ-प्रदर्शक मानने लगते हैं। जिन लोगो पर इनकी छत्र छाया होती है वे अकारण ही समाज में ऊँचा स्थान प्राप्त का लेते हैं। अच्छे और सच्चे लोग दर-दर की ठोकरें खाते हैं, अपमानपूर्ण जीवन जीते हैं, भूखे-प्यासे घूमते है और राजनीति का संरक्षण पाने वाले लोग इनके सिर पर सवार हो जाते हैं। ऐसे ही लोग समाज में सम्मान पाते है और उन्हे ही ऊँचे पद प्राप्त हो जाते है। आज भी अनेक राजनेता अंधेर नगरी के मूर्ख विवेकहीन और धोखेबाज लोग बाहर से तो सभ्य और भले प्रतीत होते है लेकिन मन के वे कपटी है। ये दिखाई देने में कुछ और है और उनकी वास्तविकता कुछ और ही है। वे अत्यंत शक्ति सम्पन्न और प्रभावशाली प्रतीत होते है। उन्हे ही ऊँचे-ऊँचे पद प्रदान किए जाते है। जो कोई सत्य के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहता है उसे तो जूते खाने पड़ते है। वे तरह-तरह के अमानवीय कष्ट सहते है। राजनीतिज्ञों की चालो के कारण बेईमान और झूठे तो ऊँची-ऊँची पदवियाँ प्राप्त का लेते है। इस समाज में वही महान है जो बड़ा धोखेबाज और दुष्ट है। यदि राजगद्दी पर बैठने वाले मूर्ख हो तो जनता पर उनकी मूर्खता का प्रभाव पड़ना आवश्यक है-

“वेश्या जोरु एक समान। बकरी गऊ एक करि जाना।।
साँचे मारे मारे डोलै। छलि दुष्ट चढ़ि-चढ़ि बोलै।।
प्रकट सभ्य अन्तर छलधारी। सोई राजसमां बल धारी।।
साँच कहै तो पनही खा वै। झूठे बहु विधि पदवी पावै।।”

नारी दुर्दशा : समाज में नारी की जो स्थिति भारतेन्दु के समय में थी, वही अब भी है। समाज में आवारा और बदचलन लोग युवतियों पर बुरी दृष्टि डालते थे। पैसे और शक्ति के जाल में वे युवतियों को फँसाते थे। कुछ युवतियाँ भी तरह-तरह मोह-जाल में युवकों को फँसाती थी। अब भी बिल्कुल वही है बल्कि पहले से कुछ और अधिक बिगड़ी है-

“मछरिया एक टके कै बिकाय। लाख टका कै वाला जोवन, गाहक सब ललचाय।।
नैन मछरिया रूप जाल में, देखत ही फंसि जाय। बिनु पानी मछरी सो बिरहिया, मिलै बिना अकुलाय।।”

पुरुष प्रधान समाज में नारी का स्थान उच्च नहीं था, वेश्यावृति का बोलबाला था। घासी राम ‘चने जोर गरम’ बेचता हुआ बहुत सहजता से उस समय की प्रसिद्ध वेश्याओं के नाम लेता है-

“चना खाय तोकी, मैना। बोले अच्छा बना चबैना।।

आज तो इस क्षेत्र में समाज की स्थिति और भी विकृत हो चुकी है। तब भी नारियाँ पुरुषों के समान व्यापार में सहयोग देती थी और अब भी वैसा ही है।

चना खाय गफूस मुन्नी। बोलैं और नही कुछ सुन्नी।।”

विषम सामाजिकता :  भारतेन्दु ने ‘अंधेर नगरी’ में तत्कालीन सामाजिक मूल्यों के हनन का व्यंग्यात्मक शैली में वर्णन किया है। अंग्रेजी शासन-व्यवस्था में पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा, सदाचार-दुराचार आदि की परिभाषा बदल गई थी। समाज में इतनी गिरावट आ गई थी कि लोगों की दृष्टि में पत्नी और वेश्या में कोई अंतर ही नहीं बचा था। मूर्खता और विवेकहीनता ने सामाजिक मूल्यों को बदल दिया था। लोगों की नजर में गाय और बकरी समान महत्त्व के थे। सच्चे और अच्छे लोग दर-दर की ठोकरे खाते थे और दुष्ट सब के सिर पर सवार रहते थे। दुष्ट लोग सभ्य और अच्छे लोगों को अपमानित करते थे। समाज में वही श्रेष्ठ माना जाता था। जो दुष्ट और धोखेबाज था। सब ओर अंधेर मचा हुआ था। शासक तो नाममात्र के थे। सारा अच्छा-बुरा काम तो कर्मचारी ही करते थे-

“छलियन के एका के आगे। लाख कहो एकहु नहि लागे।।
भीतर होय मलिन की कारों। चाहिए बाहर सा चर कारो।।
धर्म अधर्म एक दरसाई। राजा करे सो न्याव सदाई।।
भीतर स्वाहा बाहर सादै। राज करहि अगले अरु प्यादे।।”

वर्तमान में भी स्थिति वही है। सामाजिक मूल्य निरन्तर बदलते जा रहे है। लोगों की करनी कथनी में अंतर है। धोखा-फरेब करने वालो ने सभी स्थानों पर एकाधिकार जमा रखा है, और वे किसी भी स्थिति में अपने आप को बदलने को तैयार नहीं है। मन के काले, धोखेबाज और दुष्ट स्वभाव के लोगों के ह्रदय में कोमल-भाव नहीं है। शासक वर्ग और कर्मचारी बाहर से तो सादे और भले लगते है पर मन के काले होते है। उनका आचरण अच्छा नहीं है, वे अत्याचारी और अन्यायी है। अफसरों के नाम पर कर्मचारी भ्रष्टाचारी बने हुए है, वे मनमाना व्यवहार करते हैं।

अधिकारियों की लूटमार : अंधेर नगरी में भारतेन्दु ने अधिकारियों की लूटमार का वर्णन किया है। वे जनता को बिना किसी कारण तंग करते थे। वे रिश्वतखोर थे –

“चूरन अमले सब जो खा वै। दूनी रिश्वत तुरन्त पचावै।।”

भारतेन्दु के द्वारा जिस प्रकार का समाज चित्रित किया गया है, वैसा ही समाज अब भी है उसमें कोई सुधार नहीं हुआ, बल्कि बिगाड़ ही आया है। आज का हमारा युग तो रिश्वतखोरी से पूरी तरह त्रस्त है। बिना रिश्वतखोरी के कही-कोई काम ही नहीं होता। सरकारी कर्मचारी तब भी बेईमान थे और अब भी वैसे ही है। उनकी महत्ता भ्रष्टाचार पर ही टिकी हुई है –

(क) चूरन पुलिस वाले खाते है। सब कानून हजम कर जाते है।।
(ख) जैसे काजी वैसे पाजी। रैयत राजी टके सेर भाजी।।
(ग) चूरन अमले सब जो खावे। दूनी रिश्वत तुरन्त पचावै।।

जाति पाँति और व्यवस्था-दोष : ‘अंधेर नगरी’ में धर्म के नाम पर ब्राह्मणों द्वारा किए जाने वाले जनता के शोषण और आडम्बरों का वर्णन भारतेन्दु ने किया है । वे धर्म के ठेकेदार बनकर धर्म को भी व्यापार की वस्तु मानने लगे है । वे पैसे ले देकर किसी का भी धर्म परिवर्तित कराने को सदा तैयार रहते हैं । पैसा ही उनके लिए सबकुछ है –

“जात ले जात टके सेर जात। एक टका दो हम अभी अपनी जात बेचते है टके के वास्ते ब्राह्मण से धोबी हो जाए और धोबी को ब्राह्मण कर दें। टके के वास्ते जैसी कहो वैसी व्यवस्था दें। टके के वास्ते झूठ को सच करें टके के वास्ते टके के वास्ते ब्राह्मण से मुसलमान, टके के वास्ते हिन्दू से क्रिस्तान। टके के वास्ते धर्म और प्रतिष्ठा दोनो बेचें, टके के वास्ते झूठी गवाही दें। टके के वास्ते पाप को पुण्य मानें। टके के वास्ते नीच को भी पितामह बनावें। वेद, धर्म, कुल-मर्यादा, सचाई-बड़ाई सब टके सेर। लुटाय दिया अनमोल माल। ले टके सेर।”

वर्तमान में भी विभिन्न धर्मावलंबी अपने-अपने ढंग से लोगों को मूर्ख बना रहे है, समाज में अंधविश्वास बढ़ा रहे है। धर्म का रास्ता उनके लिए व्यापार का रास्ता है। उनका काम ही ईश्वर के नाम का व्यापर करना है। चौपटृ राजा अंधविश्वास के कारण अपने आप फाँसी के फंदे पर झूल गया था और वर्तमान में भी न जाने कितने लोग धर्म के नाम पर अपना काम-धन्धा छोड़ जीवन की जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेते है।

तभी भी समाज धर्म के आधार पर अनेक भागों में बंटा हुआ था और अब भी बंटा हुआ है- ‘ऐसी जात है हलवाई छत्तीस कौम है भाई !’ धर्म के नाम पर धार्मिक स्थलों पर ही दुराचार होता है – ‘मन्दिर के भितरिए वैसे अंधेर नगरी के हम।’ वैसा ही अब भी चल रहा है। समाचार-पत्र ऐसे ही समाचारों से रोज भरे दिखाई देते हैं। आज के अधिकांश धार्मिक ठेकेदारों का जीवन-दर्शन भी गोवर्धनदास जैसा ही है –

“माना कि देश बहुत बुरा है। पर अपना क्या ? अपने किसी राज-काज में छोड़े है कि कुछ डर है, रोज मिठाई चाभना, मजे में आनंद से राम भजन करना।”

वास्तव में अब भी हमारे देश की स्थितियाँ वैसी ही है जैसी ‘अंधेर नगरी’ की रचना के समय थी शासन तन्त्र में अन्तर अवश्य आया है पर उसकी कार्यविधि में अभी भी बहुत-कुछ समानताएँ है। व्यवस्था अभी भी भ्रष्ट है। सब तरफ अंधेर गर्दी मची हुई है। न्याय व्यवस्था भ्रष्ट है। अयोग्य और बेईमान लोगों के द्वारा गद्दियाँ सम्भाली हुई हैं। समाज मूल्यहीन हो चुका है। धर्म के नाम पर राजनीति की जा रही है। सर्वत्र भ्रष्टाचार का बोलबाला है। पुलिस विभाग ठीक से अपना काम नहीं करता है कानून के रक्षक ही कानून के भक्षक बने हुए है। नेता विवेकहीन हैं तथा धर्म के ठेकेदार बेईमान है। यदि भारतेन्दु की ‘अंधेर नगरी’ ने थोड़ा-सा परिवर्तन कर दिया जाए तो यह समकालीन परिस्थितियों में पूर्णरूप में प्रासंगिक है। इसका औचित्य आज भी बना हुआ है।

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अंधेर नगरी नाटक की वर्तमान समय में क्या प्रासंगिकता है?

साहेब लोग जो खाता सारा हिन्द हजम हो जाता। चूरन हकिम सब जो खाते सब पर दूना टिकस लगाते । कहीं भी फूहड़ता और नंगापन नहीं है। यह कहना पूर्ण रूप से उचित है कि भारतेन्दु का 'अन्धेर नगरी' हास्य व्यंग्य प्रधान नाटक है जिसकी प्रासंगिकता वर्तमान में भी उतनी ही अधिक है जितनी उस समय में थी ।

अंधेर नगरी नाटक का व्यंग्यात्मक उद्देश्य क्या है?

इस नाटक को पढ़ने के बाद आप - नाटक में चित्रित शासन व्यवस्था का आज के संदर्भ में वर्णन कर सकेंगे; राजा-प्रजा के पारस्परिक संबंधों का विश्लेषण कर सकेंगे; न्यायपूर्ण व्यवस्था के बारे में अपने विचार प्रस्तुत कर सकेंगे; नाटक में निहित व्यंग्य को समझकर उसका उल्लेख कर सकेंगे; लोक-संस्कृति और लोक भाषा के कुछ प्रमुख पक्षों की ...

अंधेर नगरी नाटक में किन समस्याओं पर व्यंग्य किया गया है क्या अंधेर नगरी को आप आज भी प्रासंगिक मानते हैं?

अँधेर नगरी प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र का सर्वाधिक लोकप्रिय नाटक है। ६अंकों के इस नाटक में विवेकहीन और निरंकुश शासन व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करते हुए उसे अपने ही कर्मों द्वारा नष्ट होते दिखाया गया है। भारतेंदु ने इसकी रचना बनारस के हिंदू नेशनल थियेटर के लिए एक ही दिन में की थी।

अंधेर नगरी नाटक में कितने अंग हैं?

अतः इस इकाई में प्रस्तुत नाटक की कथावस्तु का विस्तृत परिचय नहीं दिया जा रहा है। महंत 'अंधेर नगरी' नाटक का महत्वपूर्ण पात्र है। नाटक के प्रथम, द्वितीय और अंतिम दृश्य में महंत की उपस्थिति एक प्रभावशाली चिन्तक के रूप में दिखलाई पड़ती है । "लोभ पाप को मूल है, लोभ मिटावत मान ।