न्यायपालिका की स्वतंत्रता या न्यायिक स्वातंत्र्य (Judicial independence) से आशय यह है कि न्यायपालिका को सरकार के अन्य अंगों (विधायिका और कार्यपालिका) से स्वतन्त्र हो। इसका अर्थ है कि न्यायपालिका सरकार के अन्य अंगों से, या किसी अन्य निजी हित-समूह से अनुचित तरीके से प्रभावित न हो। यह एक महत्वपूर्ण परिकल्पना है। न्यायिक स्वातंत्र्य के लिए भिन्न-भिन्न देश भिन्न-भिन्न उपाय करते हैं। Show
न्यायपालिका अपने कार्यों को निष्पक्षता तथा कुशलता से तभी कर सकती है जब वह स्वतंत्र हो। न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ है कि न्यायाधीश स्वतंत्र , निष्पक्ष तथा निडर होनी चाहिए। न्यायधीश निष्पक्षता से न्याय तभी कर सकते हैं जब उन पर किसी प्रकार का दबाव न हो। न्यायपालिका, विधानमण्डल तथा कार्यपालिका के अधीन नहीं होनी चाहिए। भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता[संपादित करें]भारतीय संविधान में सरकार के तीनों अंगों के मध्य शक्तियों का पृथक्करण किया गया है। इसके तहत नागरिकों के अधिकारों का विधिवत संरक्षण सुनिश्चित करने तथा शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के लिए इन तीनों अंगों के मध्य पर्याप्त नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था की गयी है। निम्नलिखित उपायों द्वारा भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित की गई है:
सन्दर्भ[संपादित करें]इन्हें भी देखें[संपादित करें]
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न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ है कि सरकार के अन्य दो अंग विधायिका और कार्यपालिका, न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप न करके उनके कार्यों में किसी भी प्रकार की बांधा न पहुंचाये ताकि वह अपना कार्य सही ढंग से करें और निष्पक्ष रूप से न्याय कर सके।’’ संघात्मक सरकार में संघ और राज्यों के मध्य विवाद के समाधान और संविधान की सर्वोच्चता बनाये रखने का दायित्व न्यायपालिका पर ही होता है। इसके साथ-साथ उस पर मूल अधिकारों के संरक्षण का भी दायित्व होता है इसके लिए न्यायपालिका का स्वतंत्र एवं निष्पक्ष होना अति आवश्यक है।’’ न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए किये गये संवैधानिक प्रावधानन्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए किये गये संवैधानिक प्रावधान न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए निम्न लिखित संवैधानिक प्रावधान किये गये हैं-
स्वतंत्र न्यायपालिका का महत्व या लाभस्वतंत्र न्यायपालिका का महत्व इन तथ्यों के आधार पर स्पष्ट होता है-
स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकताप्रत्येक समाज में एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से या व्यक्ति समूहों का आपस में अथवा व्यक्ति समूहों का सरकार के साथ निरंतर कुछ कारणों से विवाद चलता रहता है। इसी विवाद को निष्पक्ष रूप से सुलझाने के लिए न्यायपालिका की स्थापना की गई है। जो इस प्रकार के विवादों की जांच कर दोषी को सजा देने का कार्य करती है और साथ ही साथ विधायिका द्वारा या संसद द्वारा बनाये गये नियमों की जांच एवं कार्यपालिका द्वारा किये गये कार्यों कीजांच भी निष्पक्ष रूप से करती है।’’ न्यायपालिका की स्वतंत्रता स्थापित करने के तरीकेन्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए अनेक देशों में अलग-अलग साधन अपनाए जाते हैं। आज लोकतन्त्रीय देशों में विशेष तौर पर कुछ ऐसे तरीके अपनाए गए हैं कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता या तो स्थापित हो चुकी है या स्थापित होने की दिशा में अग्रसर हैं। न्यायपालिका की स्वतंत्रता इन बातों पर निर्भर है :- 1. न्यायधीशों की नियुक्ति के तरीके - न्यायपालिका की स्वतंत्रता इस बात पर भी निर्भर करती है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति किस आधार पर की जाती है। आज प्राय: इसके लिए चार तरीके प्रचलित हैं -
इन तरीकों में कार्यपालिका तथा विधायिका द्वारा नियुक्ति करने से न्यायधीश राजनीतिक रूप से तटस्थ नहीं रह सकते। जनता द्वारा नियुक्ति करने से भी कई बार चालाक राजनीतिक भी जनता को झांसा देकर न्यायपालिका में पहुंच सकते हैं। भारत में न्यायधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति योग्यता के आधार पर ही करता है। लेकिन न्यायधीशों की नियुक्ति यदि योग्यता के आधार पर न्यायिक लोक सेवा आयोग के माध्यम से की जाए तो न्यायधीशों के स्वतन्त्र व निष्पक्ष रहने के आसार सबसे अधिक हो सकते हैं। भारत में राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों की नियुक्ति मुख्य न्यायधीश की सलाह से ही वरिष्ठता व योग्यता के आधार पर करता है। उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों की नियुक्ति भी वह मुख्य न्यायधीश की सलाह से ही करता है। इस तरह न्यायधीशों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर मुख्य कार्यपालक या न्यायिक लोक सेवा आयोग द्वारा करने से ही न्यायपालिका स्वतन्त्र रह सकती है। 2. न्यायधीशों की कार्यकाल - न्यायपालिका की स्वतंत्रता न्यायधीशों के सेवाकाल पर भी निर्भर करती है। छोटा सेवा काल न्यायधीशों को लालच के गर्त में धकेल सकता है। इसलिए उनकी सेवा अवधि लम्बी होनी चाहिए। लम्बे सेवाकाल में न्यायधीशों को अपने कार्य का अनुभव भी हो जाता है और उन्हें नौकरी की सुरक्षा की गारन्टी भी मिल जाती है तथा उनके भ्रष्टाचार की ओर उन्मुख होने के आसार कम हो जाते हैं। इसी कारण भारत में न्यायधीशों को नौकरशाहों की तरह स्थायी आधार पर निश्चित समय के लिए लम्बे काल तक नियुक्त किया जाता है। भारत में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश 65 वर्ष तक उच्च न्यायालय के न्यायधीश 62 वर्ष तक अपने पद पर रहते हैं। इंग्लैण्ड में कदाचार से बचे रहने पर जीवन पर्यन्त वे अपने पद पर बने रहते हैं। 3. न्यायधीशों की पदच्युति - न्यायपालिका की स्वतंत्रता न्यायधीशों को पद से हटाने की व्यवस्था पर भी निर्भर करती है। भारत, अमेरिका तथा इंग्लैण्ड में न्यायधीशों को दुराचार का महाभियोग लगाकर ही हटाया जा सकता है। यह प्रक्रिया इतनी कठिन है कि सामान्य परिस्थितियों में इसका प्रयोग करना असम्भव है। इस कठिन प्रक्रिया के कारण वहां पर न्यायपालिका की स्वतंत्रता मजबूत हुई है। भारत में न्यायधीशों को तभी हटाया जा सकता है, जब संसद के दोनों सदन कदाचार का अभियोग पास करके राष्ट्रपति को लिखित रूप में न्यायधीश को हटाने की मांग करें। 4. न्यायिक व्यवहार - जिस देश में न्यायधीश निष्पक्ष, योग्य, विद्वान, सद्चरित्र और गुणदान है, वहां पर न्यायपालिका की स्वतंत्रता की स्थापना आसानी से हो सकती है। निष्पक्ष न्यायिक व्यवहार ही न्यायपालिका के आधार को मजबूत बना सकता है। जिस देश में न्यायिक व्यवहार जनता का उत्पीड़क व वर्ग विशेष के हितों का पोषक हो, उससे निष्पक्षता व स्वतंत्रता की आशा करना बेकार है। 5. न्यायधीशों का वेतन व अन्य सुविधाएं - न्यायपालिका की स्वतंत्रता व निष्पक्षता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायधीशों को पद की गरिमा के अनुसार जीवन यापन करने के लिए अच्छे वेतन व भत्ते मिले। भारत में न्यायधीशों को अच्छा वेतन, भत्ते व सुविधाएं इसी कारण दी जाती हैं ताकि वे निष्पक्ष व स्वतन्त्र ढंग से अपना कार्य करते रहें। रिटायरमैंट के बाद उन्हें पैंशन भी दी जाती है और उनको वकालत करने पर भी प्रतिबन्ध है। 6. न्यायपालिका का कार्यपालिका तथा विधायिका से पृथक्करण - न्यायपालिका को स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए उसे कार्यपालिका तथा विधायिका के हस्तक्षेप से मुक्त रखना भी जरूरी है। साथ में राजनीतिक शक्ति का विभाजन भी बहुत आवश्यक है। यदि सारी शासन शक्ति एक व्यक्ति या संस्था के हाथों में होगी तो न्याय की हत्या होगी, क्योंकि समसत शक्तियों का स्वामी होने के नाते कोई भी व्यक्ति या संस्था पथभ्रष्ट हो सकती है। इसी कारण अमेरिका में शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त अपनाकर न्यायपालिका को कार्यपालिका तथा विधायिका के नियन्त्रण से मुक्त रखा गया है। भारत में भी न्यायपालिका कई तरह से स्वतन्त्र ही है। उस पर कार्यपालिका तथा विधायिका का कोई नियन्त्रण नहीं है। 7. न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति - न्यायपालिका को स्वतन्त्र बनाए रखने के लिए उसके पास न्यायिक समीक्षा की शक्ति भी होनी चाहिए। भारत तथा अमेरिका को अपनी इसी शक्ति के कारण न्यायपालिका कार्यपालिका तथा विधायिका के संविधान विघटित कानूनों को जो नागरिक स्वतंत्रताओं का हनन करते हैं, अवैध घोषित कर सकती है। न्यायपालिका ने अपनी इस शक्ति का कई बार प्रयोग किया है। इसी कारण आज न्यायिक सर्वोच्चता का सिद्धान्त कायम हो चुका है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए न्यायधीशों की नियुक्ति के तरीके पारदश्र्ाी व योग्यता प्रणाली पर आधारित होने चाहिए। उनका कार्यकाल लम्बा हो और उन्हें अच्छा वेतन व सुविधाएं प्रदान की जाएं। उसे निष्पक्ष बनाए रखने के लिए कार्यपालिका तथा विधायिका के हस्तक्षेप से मुक्त रखा जाए। उनको हटाने का तरीका इतना जटिल हो कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर कोई आंच न आ सके। लेकिन ये सब बातें लोकतन्त्र में ही सम्भव हैं, तानाशाही देशों में नहीं। आज शासन का एक अंग होने के नाते न्यायपालिका को स्वतन्त्र व पृथक अस्तित्व प्रदान करने पर अनेक विद्वान आपत्ति करते हैं। उनका कहना है कि राजनीतिक प्रक्रिया से अलग रखकर न्यायपालिका से लाभ की आशा नहीं की जा सकती। लेकिन यह बात तो सत्य है कि आज के बदलते परिवेश में न्यायपालिका की स्वतंत्रता पहले से अधिक जरूरी है। आज राजनीतिक शक्ति का फैलाव राजनीतिक समाज की जड़ों तक है, जिसका सीधा प्रभाव आम जनता पर पड़ता है। इसलिए राजनीतिक शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए तथा आम नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए न्यायपालिका का स्वतन्त्र व निष्पक्ष होना बहुत आवश्यक है। आज राजनीतिक शक्ति से त्रस्त लोगों के लिए न्यायपालिका ही एकमात्र आशा की किरण है। न्यायपालिका को स्वतंत्रता-विहीन करने का तात्पर्य होगा - समाज में अराजकता व अशान्ति। न्यायपालिका की स्वतंत्रता कैसे सुनिश्चित की जाती है?यह स्वतंत्रता कैसे सुनिश्चित की जाती है ? कार्यपालिका-न्यायपालिका के कार्यों में किसी प्रकार की बाधा न पहुँचाए ताकि वह ठीक ढंग से न्याय कर सकें। सरकार के अन्य अंग न्यायपालिका के निर्णयों में हस्तक्षेप न करें। न्यायाधीश बिना भय या भेदभाव के अपना कार्य कर सकें।
भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता कैसे बनी रहती है?न्यायपालिका वित्तीय रूप से कार्यपालिका या विधायिका पर निर्भर नहीं है । संविधान प्रदान करता है कि न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते विधायिका के अनुमोदन के अधीन नहीं हैं। न्यायपालिका के पास उन लोगों को दंडित करने की शक्ति है जो अदालत की अवमानना के दोषी पाए जाते हैं।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता से आप क्या समझते है?न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ है कि “सरकार के अन्य दो अंग विधायिका और कार्यपालिका, न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप न करके उनके कार्यों में किसी भी प्रकार की बांधा न पहुंचाये, ताकि वह अपना कार्य सही ढंग से करें और निष्पक्ष रूप से न्याय कर सके।”
न्यायपालिका से आप क्या समझते हैं भारत में न्यायपालिका की भूमिका को समझाइए?इसी विवाद को निष्पक्ष रूप से सुलझाने के लिए न्यायपालिका की स्थापना की गई है। जो इस प्रकार के विवादों की जांच कर दोषी को सजा देने का कार्य करती है और साथ ही साथ विधायिका द्वारा या संसद द्वारा बनाये गये नियमों की जांच एवं कार्यपालिका द्वारा किये गये कार्यों की जांच भी निष्पक्ष रूप से करती है।
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