भारत में प्राथमिक शिक्षा के मुख्य दोष क्या हैं स्पष्ट करें? - bhaarat mein praathamik shiksha ke mukhy dosh kya hain spasht karen?

प्राथमिक शिक्षा पाठ्यक्रम को समझने से पहले यह आवश्यक है कि हम इस पाठ्यक्रम की कमियों को देखें। विदेशी शिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रम से इसकी तुलना करने पर हम पाते हैं कि हमारा प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम अत्यधिक संकुचित व पुराना है।

इसका प्रमुख कारण यह है कि यह पाठ्यक्रम लाभदायक कुशलताओं का विकास तथा उचित प्रकार की रूचियों, अभिव्रतियों तथा मान्यताओं पर पर्याप्त बल नहीं देता है। इस कारण से यह आधुनिक ज्ञान तथा वर्तमान जीवन से अलग अलग है।

भारत में प्राथमिक शिक्षा के मुख्य दोष क्या हैं स्पष्ट करें? - bhaarat mein praathamik shiksha ke mukhy dosh kya hain spasht karen?
प्राथमिक शिक्षा पाठ्यक्रम

प्राथमिक शिक्षा पाठ्यक्रम के दोष

प्राथमिक शिक्षा पाठ्यक्रम के दोषों को हम निम्न रूप में समझ सकते हैं-

  1. पाठ्यक्रम अत्यधिक संकुचित है।
  2. पुस्तक की ज्ञानवर्धक तंत्र विद्या पर बल देता है।
  3. उच्च शिक्षा के प्रतिकूल है।
  4. इसका आधार व्यवहारिक न होकर केवल साहित्यिक व सैद्धांतिक है।
  5. जीवन के साथ इसका संबंध नहीं है।

इस संबंध में 1960 में प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम के ऊपर एक सम्मेलन हुआ था जिसमें एशिया के प्रतिनिधि शामिल थे। इस सम्मेलन में सुधार करने के उद्देश्य से निम्न विचार व्यक्त किए गए थे-

प्राथमिक स्तर पर आधारभूत उपकरणों पर नियंत्रण किया जाए। पाठ्यक्रम इस प्रकार का हो जिससे बालक का सर्वांगीण विकास पाठ्यक्रम के अध्ययन से उत्तम नागरिकता का विकास हो । देश की परंपरा तथा संस्कृति का पालन हो विश्व बंधुत्व अंतरराष्ट्रीय भाईचारे का विकास हो। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास हो। श्रम के प्रति लोगों की रूचि बड़े जीवन के सकारात्मक पक्ष का विस्तार हो।

हमारे जीवन से शिक्षा तभी संबंध स्थापित करेगी, जब पाठ्यक्रम लचीला हो तथा जीवन से समीपता लिए हुए हो। पाठ्यक्रम को स्थानीय वातावरण के अनुकूल होना चाहिए तथा एनसीईआरटी कोर्स के स्तर पर निर्धारण करने का प्रयास करना चाहिए।

अच्छे पाठ्यक्रम के गुण

एक अच्छे पाठ्यक्रम में निम्न गुणों का समावेश होना चाहिए

  1. पाठ्यक्रम रचनात्मक से पूर्ण होना चाहिए तथा उसका संबंध वास्तविकता से होना चाहिए
  2. पाठ्यक्रम इस प्रकार का हो जो व्यक्ति के आगामी जीवन का विकास करें तथा उसे सकारात्मक रूप से प्रभावित करें
  3. पाठ्यक्रम में खेलकूद तथा कार्य में अन्योन्याश्रित संबंध होना चाहिए
  4. पाठ्यक्रम इस प्रकार का हो कि उससे बच्चों का आचरण और चरित्र का निर्माण हो तथा स्वास्थ्य ज्ञान बुद्धि विवेक कौशल आदि गुणों का विकास हो।
  5. पाठ्यक्रम में सामुदायिक विकास हो
  6. खेलकूद व सामाजिक कार्यों में भागीदारी होनी चाहिए।

कोठारी कमीशन ने प्राथमिक शिक्षा के लिए निम्न प्रकार के पाठ्यक्रम को अपनाने का सुझाव दिया है।

वैदिककालीन शिक्षा बौद्धकालीन शिक्षा मुस्लिमकालीन शिक्षा
तक्षशिला विश्वविद्यालय मैकाले का विवरण पत्र 1835 लॉर्ड विलियम बैंटिक की शिक्षा नीति
वुड का घोषणा पत्र हण्टर आयोग लार्ड कर्जन की शिक्षा नीति
सैडलर आयोग 1917 सार्जेण्ट रिपोर्ट 1944 मुदालियर आयोग 1952
कोठारी आयोग 1964 राष्ट्रीय पाठ्यक्रम 2005 बेसिक शिक्षा
विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग शिक्षा का राष्ट्रीयकरण त्रिभाषा सूत्र
राष्ट्रीय साक्षरता मिशन प्रौढ़ शिक्षा अर्थ प्रशिक्षित अप्रशिक्षित शिक्षक में अंतर
दूरस्थ शिक्षा अर्थ परिभाषा ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड शिक्षक शिक्षा की समस्याएं
विश्वविद्यालय संप्रभुता उच्च शिक्षा समस्याएं उच्च शिक्षा समस्याएं
उच्च शिक्षा के उद्देश्य शैक्षिक स्तर गिरने के कारण मुक्त विश्वविद्यालय
मुक्त विश्वविद्यालय के उद्देश्य शिक्षा का व्यवसायीकरण सर्व शिक्षा अभियान

Join Hindibag

भारत में प्राथमिक शिक्षा के मुख्य दोष क्या हैं स्पष्ट करें? - bhaarat mein praathamik shiksha ke mukhy dosh kya hain spasht karen?
प्राथमिक शिक्षा की प्रमुख समस्यायें | Chief Problems of Primary Education in Hindi

प्राथमिक शिक्षा की प्रमुख समस्याओं एवं उनके हल के लिए कोठारी कमीशन के आधार पर सुझाव दीजिए।

  • प्राथमिक शिक्षा की प्रमुख समस्यायें (Chief Problems of Primary Education)
  • समस्याओं का समाधान

प्राथमिक शिक्षा की प्रमुख समस्यायें (Chief Problems of Primary Education)

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में अन्य समस्याओं की भाँति हमारे विद्यालयों के समक्ष शिक्षा की समस्या थी। स्वाधीनता के बाद यह आवश्यक हो गया कि शिक्षा का पुनर्मूल्यांकन किया जाए। मूल्यांकन के समय सभी समस्यायें उपस्थित हुईं, जिनके कारण देश अशिक्षित रहा। देश में नवीन शिक्षा योजना का आरम्भ होने पर भी प्रगति सन्तोषजनक नहीं रही। जनसाधारण तथा सरकार के अपेक्षीय व्यवहार के कारण प्राथमिक शिक्षा प्रगति करने में पूर्णरूपेण असफल रही। वास्तव में, प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में अनेक समस्यायें हैं, जिनकी वजह से प्राथमिक शिक्षा वांछित गति से प्रगति नहीं कर पा रही है। इनमें से कुछ समस्यायें निम्न प्रकार हैं-

1. प्राथमिक विद्यालयों की दयनीय स्थिति- प्राथमिक विद्यालयों में कक्षों, फर्नीचर तथा प्रकाश का अभाव है। विद्यालयों में छात्रों के शारीरिक विकास पर ध्यान नहीं दिया जाता है। शिक्षण-शिक्षक की दृष्टि से भी इन विद्यालयों में शिक्षकों में पूर्ण उदासीन मनोवृत्ति दिखायी देती है। इस प्रकार प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति अत्यन्त दयनीय है।

2. दोषयुक्त पाठ्यक्रम की समस्या- प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम छात्रों की रुचियों तथा आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं बनाया जाता है। प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम छात्रों के जीवन से सम्बन्धित नहीं है। इन विद्यालयों में छात्रों की रचनात्मक शक्तियों का विकास करने के लिए पाठ्य सहगामी क्रियाओं का समुचित अभाव है। प्राथमिक स्तर का पाठ्यक्रम न तो समाज और विद्यालय में सम्बन्ध स्थापित करता है तथा न ही गाँवों के बालकों की आवश्यकतायें पूरी करता है। प्राथमिक विद्यालयों में बालकों को कार्य ‘करके सीखने’ का अवसर प्रदान नहीं किया जाता है और सैद्धान्तिक ज्ञान के माध्यम से ही छात्रों का विकास करने की चेष्टा की जाती है।

3. दोषयुक्त शिक्षा प्रशासन की समस्या- प्राथमिक विद्यालयों के प्रधानाध्यापक तथा शिक्षा विभाग के पदाधिकारियों का शिक्षा के सन्दर्भ में व्यवहार उपेक्षापूर्ण है। फलस्वरूप प्राथमिक शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। प्राथमिक विद्यालयों का निरीक्षण करने हेतु पर्याप्त संख्या में निरीक्षकों तथा पर्यवेक्षकों की नियुक्ति नहीं की गयी है। शिक्षा स्तर को सुधारने में शैक्षिक प्रशासन के साथ-साथ शिक्षा निरीक्षकों और पर्यवेक्षकों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहता है।

4. भौगोलिक तथा आर्थिक समस्यायें- जनसंख्या तथा क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत एक विशाल देश है। भौगोलिक दृष्टि से यहाँ के विभिन्न क्षेत्र तथा जलवायु में पर्याप्त विभिन्नता है। अनेक रेगिस्तानी और पर्वतीय क्षेत्रों में प्राथमिक शिक्षा को सुलभ कराना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। जलवायु परिवर्तन, आवागमन के साधनों का अभाव आदि अनेक कारण इस दिशा में बाधक सिद्ध होते हैं। मैदानी क्षेत्रों की जनसंख्या इतनी अधिक है कि वहाँ प्रत्येक एक किलोमीटर पर प्राथमिक विद्यालयों की आवश्यकता है। व्यावहारिक दृष्टि से प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना एक अत्यन्त दुष्कर कार्य है। साथ ही धन का अभाव भी प्राथमिक शिक्षा के अभाव में बाधक है। प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था का उत्तरदायित्व अधिकांशतः स्थानीय संस्थाओं पर होता है, जिनकी आय के स्रोत अत्यन्त सीमित हैं तथा शिक्षा के साथ-साथ अन्य अनेक उत्तरदायित्वों का निर्वाह भी उन्हें करना पड़ता है, जिसके कारण प्राथमिक शिक्षा की भरपूर उपेक्षा होती है। अभिभावकों की आर्थिक दशा भी छात्रों के भविष्य को अन्धकार में रखती है।

5. भाषा की समस्या- प्राथमिक शिक्षा के विकास में भाषा की समस्या अधिक है। व्यावहारिक दृष्टि से आज तक भाषा की समस्या का समाधान नहीं हो सका है। प्राथमिक स्तर पर छात्रों को शिक्षित करने के लिए केवल मातृ भाषा का ही प्रभावशाली रूप में प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु भारत के प्रत्येक प्रान्त की भाषा में भिन्नता पायी जाती है। इसलिए व्यावहारिक दृष्टि से यह समस्या उत्पन्न होती है कि क्षेत्रीय भाषाओं में कुशल शिक्षकों की नियुक्ति की व्यवस्था किस प्रकार की जाए।

6. राजनीतिक स्तर पर वांछनीय प्रयासों का अभाव – भारत में प्राथमिक विद्यालयों की अधिकता है। इसलिए इस स्तर पर आवश्यक प्रगति के लिए राष्ट्रीय सरकार द्वारा उचित शिक्षा नीति का निर्माण किया जाए तथा निर्धारित नीतियों को यथासम्भव क्रियान्वित किया जाए, क्योंकि इन प्राथमिक विद्यालयों की समुचित व्यवस्था सरकारी प्रयासों के अभाव में असम्भव है। प्राथमिक शिक्षा के सम्बन्ध में विभिन्न उल्लेख नीतियों का निर्धारण करने के उपरान्त भी क्रियान्वयन की दृष्टि से जो प्रयास भारतीय सरकार द्वारा किए गए हैं, वे प्रायः नगण्य हैं। प्राथमिक शिक्षा के विकास से सम्बन्धित समय-समय पर आँकड़े इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि भारत में प्राथमिक शिक्षा के विकास की गति निश्चित रूप से मन्द रही है। शिक्षा के प्रति भारतीय राजनीतिज्ञों का उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण और राजनीति में संलग्न रहना भी इस दिशा में असफलता का एक प्रमुख कारण है।

7. अपव्यय तथा अवरोधन की समस्या – प्राथमिक शिक्षा के विकास में अपव्यय तथा अवरोधन की समस्या एक गम्भीर समस्या है। अपव्यय से तात्पर्य राज्य तथा अभिभावकों द्वारा शिक्षा पर किए जाने वाले धन का पूरी तरह से लाभ न उठा पाना। जब कोई छात्र किसी कारणवश अपनी शिक्षा समाप्त होने से पहले ही छोड़ देता है तो उसे अपव्यय में सम्मिलित किया जाता है। जब कोई छात्र एक ही कक्षा में कई बार फेल होता है तो इसे अवरोधन की समस्या कहते हैं। इस समस्या के समाधान के लिए सभी प्रयत्न पूर्णतया असफल रहे हैं। इस समस्या का मुख्य कारण अभिभावकों की अशिक्षा तथा रूढ़िवादिता भी है। अशिक्षित और रूढ़िवादी अभिभावक अपने बालकों को शिक्षा प्राप्त कराना आवश्यक नहीं समझते हैं तथा वे बालिकाओं की शिक्षा की उपेक्षा करते हैं। अधिकांश बालक इन्हीं कारणों से प्राथमिक शिक्षा से वंचित हो जाते हैं तथा एक ही कक्षा में अनुत्तीर्ण होते रहते हैं।

8. शिक्षकों का पर्याप्त अभाव- भारत के समस्त प्राथमिक विद्यालयों में पर्याप्त शिक्षकों की व्यवस्था करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। भारत में लगभग 8 लाख गाँव हैं। इनमें इस प्रकार की व्यवस्था करना कोई आसान काम नहीं है। प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों की वांछित संख्या का अभाव प्राथमिक स्तर के बालकों के विकास की उपेक्षा का मुख्य कारण है। जहाँ पर्याप्त संख्या में शिक्षक कार्यरत हैं, वहाँ उन शिक्षकों में पर्याप्त प्रशिक्षण के अभाव में वांछित योग्यता का अभाव है। योग्य तथा प्रशिक्षित शिक्षक व अध्यापिकायें या तो प्राथमिक विद्यालयों में नियुक्ति के लिए अपना आवेदन-पत्र ही नहीं भेजते हैं अथवा प्राथमिक विद्यालयों में नियुक्ति के कुछ समय उपरान्त अन्यत्र नियुक्त हो जाने पर अपना त्याग-पत्र देकर चले जाते हैं। प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों के लिए अल्प वेतनमान और अध्यापिकाओं के लिए आवासीय व्यवस्था का अभाव भी इस स्तर पर अध्यापक व अध्यापिकाओं को आकर्षित नहीं कर पाता।

9. सामाजिक चेतना का अभाव- भारत में प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक सामाजिक चेतना का पर्याप्त अभाव पाया गया है। आज भी हमारे समाज में बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा तथा अस्पृश्यता इत्यादि अनेक कुरीतियाँ प्रचलित हैं। इन प्रचलित कुरीतियों के कारण समाज में असंख्य व्यक्ति अन्धविश्वास तथा संकीर्ण भावनाओं में आबद्ध हैं। वे बालकों की शिक्षा को अधिक महत्व नहीं देते हैं। विशेष रूप से काम की दृष्टि से बालिकाओं की शिक्षा का कोई महत्व नहीं है। भारत में अनेक राज्यों में आज भी बालिकाओं का कम आयु में विवाह कर दिया जाता है और पर्दा प्रथा के कारण अभिभावक बालिकाओं को विद्यालय भेजने में संकोच अनुभव करते हैं।

समस्याओं का समाधान

बालकों के विकास के लिए प्राथमिक विद्यालयों की वर्तमान दशाओं में परिवर्तन करना अत्यन्त आवश्यक है। केन्द्रीय तथा राज्य सरकार और शिक्षा की व्यवस्था करने वाली अन्य स्थानीय संस्थाओं को चाहिए कि वे छात्रों के लिए प्रत्येक विद्यालय में आवश्यक कक्षा भवनों तथा खेल के मैदान की व्यवस्था करें। विद्यालय भवनों का निर्माण इस प्रकार कराना चाहिए कि बालकों को पर्याप्त प्रकाश, वायु व धूप मिल सके। बालकों के बैठने के लिए फर्नीचर आदि की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। बालकों के शारीरिक विकास के लिए रोगों की रोकथाम हेतु दवाइयों का वितरण एवं पर्याप्त खेल सामग्री पर व्यय किया जाना चाहिए।

प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम छात्रों की रुचियों तथा आवश्यकताओं के अनुरूप तथा जीवन से सम्बन्धित बनाना चाहिए। इन विद्यालयों में बालकों को ‘करके सीखने के सिद्धान्त से पाठ्यक्रम में निहित ज्ञान अपेक्षाकृत अधिक सरलता पूर्वक कराया जा सकता है। इस स्तर के पाठ्यक्रम में पाठ्य सहगामी क्रियाओं तथा हस्तकला आदि का समुचित प्रावधान किया जाए तथा हस्तकला में निपुण शिक्षकों की नियुक्ति की जाए।

केन्द्रीय सरकार अथवा राज्य सरकारों को प्राथमिक शिक्षा के विकास में स्वयं रुचि होनी चाहिए और इसका उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेना चाहिए। प्राथमिक शिक्षा के नियन्त्रण के लिए ऐसी केन्द्रीय समिति की स्थापना की जाए जो प्राथमिक शिक्षा के विकास और प्रसार पर समुचित ध्यान दे सके। प्राथमिक विद्यालयों में योग्य तथा प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति होनी चाहिए। पर्याप्त शिक्षा निरीक्षकों तथा पर्यवेक्षकों के द्वारा इन विद्यालयों की उन्नति तथा अवनति का समय-समय पर वस्तुनिष्ठ निरीक्षण तथा पर्यवेक्षण होना चाहिए।

भौगोलिक और आर्थिक समस्या को दूर करने के लिए सरकार द्वारा किए गए प्रयास बहुत महत्व रखते हैं। केन्द्रीय तथा राज्य सरकार को प्राथमिक शिक्षा के विकास का उत्तरदायित्व स्वीकार करना चाहिए अथवा विभिन संस्थाओं को पर्याप्त अनुदान उपलब्ध कराना चाहिए। अभिभावकों को आर्थिक दशा में यथा सम्भव परिवर्तन के लिए भी सरकार को प्रयास करना चाहिए।

भाषा की समस्या को दूर करने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि पूर्व स्थापित आयोगों द्वारा प्रस्तुत सुझावों को शीघ्र क्रियान्वित किया जाए अथवा किसी नवीन आयोग की स्थापना करके इस सन्दर्भ में निर्णय लिया जाना चाहिए। क्षेत्रीय भाषा में कुशल अध्यापकों की नियुक्ति की जानी चाहिए।

भारतीय राजनीति में शिक्षित, योग्य तथा निष्ठावान राजनीतिज्ञों का आविर्भाव होना चाहिए और वे शिक्षा के महत्व से भली-भाँति परिचित हों तथा शिक्षा के महत्व को आत्मसात् करें। उन्हें स्वार्थ प्रेरित संकीर्ण प्रवृत्तियों को त्याग अपनी क्षमता तथा समय का समुचित उपयोग करें।

अपव्यय तथा अवरोधन की समस्या को दूर करने के लिए प्राथमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम का स्थानीय आवश्यकताओं तथा बालकों की रुचियों के अनुरूप निर्माणकिया जाना चाहिए। शिक्षण विधि तथा परीक्षा प्रणाली में अपेक्षित सुधार किया जाना चाहिए। विद्यालय तथा परिवार के सम्बन्धों का वांछित स्तर पर विकास किया जाए। प्राथमिक शिक्षा को निःशुल्क तथा अनिवार्य बनाया जाए। विद्यालय के सामाजिक तथा भौगोलिक वातावरण में अपेक्षित परिवर्तन किया जाना चाहिए।

प्राथमिक स्तर की शिक्षा में पर्याप्त तथा योग्य शिक्षकों के अभाव में शिक्षा के विकास में किए गए सभी प्रयास असफल हुए हैं। इसलिए प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों के वेतन में वृद्धि की जाए। ग्रामीण तथा दूरस्थ क्षेत्रों में कार्यरत् अध्यापिकाओं के लिए आवासीय व्यवस्था की जाए। प्राथमिक शिक्षा के विकास में संलग्न अध्यापिकाओं को उच्च स्तर पर प्रशिक्षित करने की व्यवस्था की जाए।

शिक्षा के माध्यम से विद्यालय में अध्ययनशील छात्र-छात्राओं के मस्तिष्क में प्रारम्भ से ही ऐसी मनोवृत्ति विकसित की जानी चाहिए, जिससे वे अपने भावी जीवन में इस प्रकार के अन्धकारों से दूर रहें तथा अभिभावक के रूप में अपने बच्चों को शिक्षा के वांछित अवसर उपलब्ध करा सकें। सरकार तथा समाज द्वारा समाज में प्रचलित कुरीतियों का उन्मूलन करने का प्रयास किया जाए। समाज के अध्यापकों, बुद्धिजीवी वर्ग तथा साहित्यकारों को भी इस दिशा में सामाजिक जागृति के लिए यथासम्भव प्रयास करना चाहिए।

IMPORTANT LINK

  • समुदाय शिक्षा का सक्रिय एवं अनौपचारिक साधन है।
  • धर्म और शिक्षा में सम्बन्ध एंव धर्म का शिक्षा पर प्रभाव
  • धर्म का अर्थ तथा परिभाषा |धार्मिक शिक्षा के उद्देश्य | धार्मिक शिक्षा के दोष | धर्मनिरपेक्ष भारत में धार्मिक शिक्षा | धार्मिक शिक्षा की आवश्यकता व महत्व
  • परिवार की परिभाषा | कतिपय विद्वानों के विचार | परिवार पहला विद्यालय | घर को प्रभावशाली बनाने के साधन | बालक, परिवार और शिक्षा
  • विद्यालय और स्थानीय संसाधन | विद्यालय तथा समुदाय | विद्यालयों में सामूहिक जीवन
  • विद्यालय एक समुदाय के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह किस प्रकार करता है?
  • शिक्षा के विभिन्न उद्देश्य क्या हैं ? उनको प्रभावित करने वाले तत्व
  • राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा के विभिन्न कार्य | Various functions of education in national life in Hindi
  • मानव जीवन में शिक्षा के विभिन्न कार्य | Various functions of education in human life in Hindi
  • शिक्षा के उद्देश्य | जीवन एवं समाज के आदर्श | शिक्षा के उद्देश्यों के आधार
  • शिक्षा के कौन-कौन से कार्य हैं ? शिक्षा के सामान्य कार्य
  • शिक्षा के स्वरूप की व्याख्या करें तथा उसके आधुनिक रूप पर विचार
  • शिक्षा किसे कहते हैं ? शिक्षा का संकुचित व्यापक तथा वास्तविक अर्थ
  • शिक्षा और संस्कृति की अवधारणा | Concept of Education and Culture in Hindi
  • “शिक्षा समाज व्यवस्था का सर्वोच्च माध्यम है।”
  • “राष्ट्र की प्रगति का निर्णय एवं निर्धारण विद्यालय में होता है।”
  • शिक्षा के साधनों से आपका क्या अभिप्राय है ? इनके विभिन्न प्रकार
  • शिक्षा के वैयक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्य क्या हैं ?Disclaimer

Disclaimer: Target Notes does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us:

You may also like

About the author

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

भारत में प्राथमिक शिक्षा के मुख्य दोष क्या है?

प्राथमिक शिक्षा पाठ्यक्रम के दोष पाठ्यक्रम अत्यधिक संकुचित है। पुस्तक की ज्ञानवर्धक तंत्र विद्या पर बल देता है। उच्च शिक्षा के प्रतिकूल है। इसका आधार व्यवहारिक न होकर केवल साहित्यिक व सैद्धांतिक है।

प्राथमिक शिक्षा की मुख्य समस्या क्या है?

प्राथमिक विद्यालयों की दयनीय स्थिति- प्राथमिक विद्यालयों में कक्षों, फर्नीचर तथा प्रकाश का अभाव है। विद्यालयों में छात्रों के शारीरिक विकास पर ध्यान नहीं दिया जाता है। शिक्षण-शिक्षक की दृष्टि से भी इन विद्यालयों में शिक्षकों में पूर्ण उदासीन मनोवृत्ति दिखायी देती है।

भारत में प्राथमिक शिक्षा क्या है?

प्राथमिक शिक्षा को 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों के लिए प्रारम्भिक शिक्षा भी कहा जाता है। इन वर्षों को बच्चों के लिए महत्वपूर्ण बुनियादी वर्ष माना जाता है, जब उनके जीवन की आधारभूत बातें सुदृढ़ता प्राप्त करती है, उनका व्यक्तिगत कौशल, उनकी समझ, भाषागत योग्यता, परिष्कृत रचनात्मकता आदि विकसित होते हैं।

भारत में प्राथमिक शिक्षा का क्या उद्देश्य है इसके महत्व पर प्रकाश डालिए?

प्राथमिक शिक्षा सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था की आधारशिला है। यह वह प्रकाश है जो बालक की मूल प्रवृत्तियों का परिमार्जन कर उसे आदर्श, संस्कारवान तथा संतुलित व्यक्तित्व प्रदान करती है। बालक के उज्जवल शैक्षिक भविष्य के निर्माण में प्राथमिक शिक्षा की विशेष भूमिका होती है। यह मानव मात्र के विकास का मार्ग प्रशस्त करती है।