बस्तर दशहरा कैसे मनाया जाता है? - bastar dashahara kaise manaaya jaata hai?

बस्तर दशहरा पर्व (Bastar Dussehra Festival) की एक और महत्वपूर्ण रस्म बेल पूजा (Bell Worship) रस्म अदा की गई. इस रस्म में बेलवृक्ष और उसमें एक साथ लगने वाले दो फलों की पूजा का विधान है. जानिए कैसी बेल रस्म की पूजा की जाती है. पढ़िए पूरी रिपोर्ट.

जगदलपुर: बस्तर दशहरा पर्व पर आज महत्वपूर्ण रस्म बेल पूजा की अदायगी की गई. इस रस्म मे बेलवृक्ष और उसमें एक साथ लगने वाले दो फलों की पूजा का विधान है, ऐसे इकलौते बेलवृक्ष को बस्तर के लोग अनोखा और दुर्लभ मानते हैं. शहर से लगे ग्राम सरगीपाल में वर्षों पुराना एक बेलवृक्ष है, जिसमें एक के अलावा दो फल भी एक साथ लगते हैं. इसी बेलवृक्ष और जोड़ी बेल फल की पूजा-अर्चना परंपरा अनुसार आज रविवार की दोपहर बेलन्योता विधान संपन्न हुआ.

Dussehra 2022: बस्तर का दशहरा परम्पराओं और शक्ति उपासना के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है. छत्तीसगढ़ के वनांचल बस्तर में मनाए जाने वाले दशहरा पर्व में राम और रावण से कोई सरोकार नही. यहां न रावण का पुतला दहन होता है और न ही रामलीला का मंचन होता है. बस्तर में दशहरे के दिन शक्ति की उपासना होती है. यहां कि पारंपरिक रस्म और अनूठा अंदाज देश के अन्य जगहों में मनाए जाने वाले दशहरा पर्व से अलग माना जाता है. यहां का दशहरा पर्व 75 दिन तक चलता है. इसमें कई रस्में होती हैं और 13 दिन तक दंतेश्वरी माता समेत अनेक देवी देवताओं की पूजा की जाती है.

मां दंतेश्वरी की पूजा 

बस्तर में 75 दिनों तक चलने वाले दशहरे की शुरुआत हरेली अमावस्या से होती है, जिसमें सभी वर्ग,समुदाय और जाति-जनजातियों के लोग हिस्सा लेते हैं. इस पर्व में राम-रावण युद्ध की नहीं बल्कि बस्तर की मां दंतेश्वरी माता के प्रति अपार श्रद्धा झलकती है. पर्व की शुरुआत हरेली अमावस्या को माचकोट जंगल से लाई गई लकड़ी (ठुरलू खोटला) पर पाटजात्रा रस्म पूरी करने के साथ होती है. इसके बाद बिरिंगपाल गांव के ग्रामीण सीरासार भवन में सरई पेड़ की टहनी को स्थापित कर डेरीगड़ाई रस्म पूरी करते हैं. विशाल रथ निर्माण के लिए जंगलों से लकड़ी लाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है.

दशहरे के दौरान काछनयात्रा का महत्व 

झारउमरगांव व बेड़ाउमरगांव के ग्रामीणों को रथ निर्माण की जिम्मेदारी निभाते हुए दस दिनों में पारंपरिक औजारों से विशाल रथ तैयार करना होता है और देखते ही दुमंजिला रथ बन कर तैयार हो जाता है. इस पर्व में काछनगादी की पूजा का विशेष प्रावधान है. रथ निर्माण के बाद पितृमोक्ष अमावस्या के दिन ही काछनगादी पूजा संपन्न की जाती है. इस विधान में मिरगान जाति की बालिका को काछनदेवी की सवारी कराई जाती है. यह बालिका बेल के कांटों से तैयार झूले पर बैठकर दशहरा पर्व मनाने की अनुमति देती है. जिस वर्ष माता अनुमति नही देतीं उस वर्ष बस्तर में दशहरा नही मनाया जाता. 

काछन यात्रा के दूसरे दिन गांव आमाबाल के हलबा समुदाय का एक युवक सीरासार में 9 दिनों की निराहार योग साधना में बैठ जाता है. पर्व को निर्विघ्न रूप से होने और लोक कल्याण की कामना करते हुए युवक दो बाई दो के गड्ढे में 9 दिनों तक योग साध्ना करता है. इस दौरान हर रोज शाम को दंतेश्वरी मां के छत्र को विराजित कर दंतेश्वरी मंदिर, सीरासार चौक, जयस्तंभ चौक व मिताली चौक होते फूल रथ की परिक्रमा कराई जाती है.रथ में माईजी के छत्र को चढ़ाने और उतारने के दौरान बकायदा सशस्त्र सलामी दी जाती है.भले ही वक्त बदल गया हो और साइंस ने तरक्की कर ली हो पर आज भी ये सबकुछ पारंपरिक तरीके से होता है.इसमें कहीं भी मशीनों का प्रयोग नहीं किया जाता है.पेड़ों की छाल से तैयार रस्सी से ग्रामीण रथ खींचते हैं.

जानवर की बलि

पर्व के दौरान हर रस्म में बकरा, मछली व कबूतर की बलि दी जाती है. वहीं अश्विन अष्टमी को निशाजात्रा रस्म में कम से कम 12 बकरों की बलि आधी रात को दी जाती है. इसमें पुजारी, भक्तों के साथ राजपरिवार सदस्यों की मौजूदगी होती है. रस्म में देवी-देवताओं को चढ़ाने वाले 16 कांवड़ भोग प्रसाद को यादव जाति और राजपुरोहित तैयार करते हैं. जिसे दंतेश्वरी मंदिर के समीप से यात्रा स्थल तक कावड़ में पहुंचाया जाता है. निशायात्रा का दशहरा के दौरान विशेष महत्व है.

बस्तर दशहरा कैसे मनाया जाता है? - bastar dashahara kaise manaaya jaata hai?


बस्तर दशहरा छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर अंचल में आयोजित होने वाले पारंपरिक पर्वों में से सर्वश्रेष्ठ पर्व है। बस्तर दशहरा पर्व का सम्बन्ध महाकाव्य रामायण के रावण वध से नहीं है, अपितु इसका संबंध सीधे महिषासुर मर्दिनी माँ दुर्गा से जुड़ा है। पौराणिक वर्णन के अनुसार अश्विन शुक्ल दशमी को माँ दुर्गा ने अत्याचारी महिषासुर को शिरोच्छेदन किया था। यह पर्व निरंतर 75 दिनो तक चलता है। पर्व की शुरुआत हरेली अमावस्या से होती है। बस्तर दशहरा में राज्य के दूसरे जिलो के देवी-देवताओं को भी आमंत्रित किया जाता है।


नोट : 2020 का बस्तर दशहरा 105 दिनो का है।

भगवान जगन्नाथ के प्रति आस्था के इस महापर्व में आदिवासी जनता भगवान को सलामी देने के लिये जिस उपकरण का उपयोग करती है उसे तुपकी कहते है।
गोंचा महापर्व में आकर्षण का सबसे बड़ा केन्द्र तुपकी होती है। विगत छः सौ साल से तुपकी से सलामी देने की परंपरा बस्तर में प्रचलित है।तुपकी बांस से बनी एक खिलौना बंदुक है।


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बीसहा पैसा :

यह आयोजन के लिए प्रशासन की तरफ से एक सहयोग राशि होती थी। रियासती शासन सर्वप्रथम आयोजन हेतु आवश्यक सामग्री जुटाने के लिए एडमिनिस्ट्रेटर "बीसहा पैसा" मंजूर कर दिया करता था। यह राशि विशेषकर दशहरा आयोजन के लिए खरीदी गई सामग्री के निमित्त भुगतान की राशि हुआ करती थी। बिसहा राशि राज्य शासन द्वारा तहसील को और तहसील कार्यालय द्वारा यह राशि परगनिया, मांझी को हस्तांतरित कर दी जाती थी। सारे परगनिया -मांझी अपने सहयोगियों को साथ लेकर जनसंपर्क करते थे और सामग्री जुटाते थे।  बीसहा पैसा मिलना लोगो के लिए हर्ष का विषय होता है। बिसहा पैसा के रूप में प्राप्त उस अल्प भुगतान में ही प्रसन्नाता पूर्वक दशहरा हेतु अपना कीमती सामग्री दे दिया करतेे है।  



इतिहास

बस्तर के चौथे काकतिया / चालुक्य नरेश पुरुषोत्तम देव ने एक बार श्री जगन्नाथपुरी तक पैदल तीर्थयात्रा कर मंदिर में स्वर्ण मुद्राएँ तथा स्वर्ण भूषण आदि सामग्री भेंट में अर्पित की थी। यहाँ पुजारी ने राजा पुरुषोत्तम देव को रथपति की उपाधि से विभूषित किया।


गोंचा की सुरुवात:

जब राजा पुरुषोत्तम देव पुरी धाम से बस्तर लौटे तब उन्होंने धूम-धाम से दशहरा उत्सव मनाने की परंपरा का शुभारम्भ किया और तभी से गोंचा और दशहरा पर्वों में रथ चलाने की प्रथा चल पड़ी।

जब भगवान् जगग्न्नाथ नगर भ्रमण पर निकलते है तो गोंचा पर्व होता है। इस दौरान भगवान् को सलामी देने के लिए यहाँ बांस की बनी एक "बन्दुक" जिसे तुपकी कहते है। इस पर्व का सबसे पहला रस्म  है चंदन जात्रा।



चंदन जात्रा :-

गोंचा पर्व की शुरुवात में चन्दन जात्रा से होती है। इसमे भगवान 15 दिनों के लिए अनसर काल में होते है तथा अस्वस्थ होते है, इस दौरान भगवान का दर्शन करना वर्जित होता है। पूरे अनसर काल में भगवान के स्वस्थ लाभ के लिए 360 घर ब्राम्हण आरणक्य समाज द्वारा औषधि युक्त भोग अर्पण किया जाता है। और भगवान् द्वारा लिया गया भोजन को प्रसाद के रूप में भक्तो की प्रदान किया जाता है।


अनसर खत्म होने के बाद गोंचा पर्व का अगला विधान शुरू होता है।


गोंचा पर्व के आयोजनों में है :

  • अनसर काल
  • नत्रोत्सव
  • गोंचा रथ यात्रा
  • हेरा पंचमी
  • बहुडा गोंचा
  • देश शयनी एकादशी


काछनदेवी और दशहरा

1725 ई. में काछनगुड़ी क्षेत्र में माहरा समुदाय के लोग रहते थे। तब तात्कालिक नरेश दलपत से कबीले के मुखिया ने जंगली पशुओं से अभयदान मांगा। राजा इस इलाके में पहुंचे और लोगों को राहत दी। नरेश यहां की आबोहवा से प्रभावित होकर बस्तर की बजाए जगतुगुड़ा को राजधानी बनाया। राजा ने कबीले की ईष्टदेवी काछनदेवी से अश्विन अमावस्या पर आशीर्वाद व अनुमति लेकर दशहरा उत्सव प्रारंभ किया। तब से यह प्रथा चली आ रही है।


अमनिया ( Amaniya ) : रथयात्रा पर प्रति वर्ष अरण्यक ब्राह्मण समाज द्वारा सात दिवसीय भंडारा का आयोजन शहर में किया जाता है। इसे 'अमनिया' कहा जाता है। वर्ष 1723 में जगदलपुर को राजधानी बनाने के बाद शहर में स्थाई तौर पर 296 वर्षों से अमनिया आयोजित किया जा रहा है। ब्राह्मणों के द्वारा मावली माता मंदिर परिसर में भोग प्रसाद तैयार कर अमनिया की शुरुआत की जाती है।

गोंचा के अवसर पर भगवान जगन्नाथ को भोग प्रसाद अर्पित करने हेतु अमनिया संस्कार वर्षों से जारी है। 'अमनिया' का अर्थ साफ-सुथरा, शुद्ध (जो किसी का जूठा न हो) होता है। सब्जियों को पकाने के लिए तैयार करने में 'काटने' जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। तैयार होने के बाद भगवान को इसी 'अमनिया' का ही भोग लगाता है। 

बस्तर का दशहरा कैसे मनाया जाता है?

बस्तर में दशहरे के दिन शक्ति की उपासना होती है. यहां कि पारंपरिक रस्म और अनूठा अंदाज देश के अन्य जगहों में मनाए जाने वाले दशहरा पर्व से अलग माना जाता है. यहां का दशहरा पर्व 75 दिन तक चलता है. इसमें कई रस्में होती हैं और 13 दिन तक दंतेश्वरी माता समेत अनेक देवी देवताओं की पूजा की जाती है.

छत्तीसगढ़ में दशहरा कैसे मनाया जाता है?

Chhattisgarh News: राज्य के नए जिले सारंगढ़ (Sarangarh) में 100 साल से अधिक समय से गढ़ विच्छेदन की परंपरा है. सारंगढ़ राजपरिवार ने इसकी शुरुआत की थी जो आज भी बड़े धूमधाम से मनाया जाता है. Dussehra 2022: देशभर में अधर्म पर धर्म की जीत का जश्न रावण के पुतले का दहन कर मनाया जाता है.

बस्तर दशहरा कब से कब तक है?

28 जुलाई से शुरू हुआ पूजा विधान उल्लेखनीय है कि 75 दिनों तक चलने वाला बस्तर दशहरा उत्सव विश्व प्रसिद्ध है। 28 जुलाई को पाटजात्रा पूजा विधान के साथ इसकी शुरुआत हो चुकी है। 25 सितंबर को काछनगादी पूजा विधान होगा। दशहरा उत्सव का समापन 11 अक्टूबर को मावली माता की डोली की विदाई पूजा विधान के साथ किया जाएगा।

दशहरे का क्या महत्व है?

दशहरे का पर्व असत्य पर सत्य की जीत और बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। इस दिन 10 दिन से चलने वाले युद्ध में मां दुर्गा ने महिषासुर का वध कर दिया था और भगवान राम ने रावण का अंत करके लंका पर विजय प्राप्त की थी। इस वजह से इस दिन शस्त्र पूजा, दुर्गा पूजा, राम पूजा और शमी पूजा का महत्व है।