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विरोधी थे। 19वीं शताब्दी में भारतवर्ष में बड़े-बड़े महान् नेता महर्षि दयानन्द सरस्वती, गोपाल-कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, स्वामी विवेकानन्द जी, ठाकुर रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि पैदा हुए जिन्होंने अपने-अपने ढंग से भारतवर्ष की आजादी, समाज सुधार, सच्चे धर्म की प्रेरणा और मानव जाति की उन्नति के लिए महान् कार्य किये। इसी शताब्दी में पैदा होने वाले दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम जी भी इन्हीं प्रसिद्ध महान् व्यक्तियों की मण्डली में एक योग्य नेता के रूप में समानता रखते हैं। प्रत्येक नेता देश की स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अपने ढ़ंग से कार्य कर गया। महर्षि दयानन्द जी का देश की सच्ची स्वतन्त्रता का लक्ष्य था, भारतवर्ष में धार्मिक एवं सामाजिक कुरीतियों को दूर करके देश के नागरिकों को वैदिक धर्मी बनाकर अंग्रेजों को यहां से 1. अलखपुरा से कलकत्ता (दानवीर चौ० छाजूराम जीवन चरित) लेखक: प्रतापसिंह शास्त्री2. क्षत्रिय जातियों का उत्थान, पतन एवं जाटों का उत्कर्ष, लेखक कविराज योगेन्द्रपाल शास्त्री। खदेड़ कर आज़ादी प्राप्त करना। महात्मा गांधी तथा उनके साथियों का लक्ष्य था भारतवर्ष को अहिंसक आंदोलनों द्वारा, अंग्रेजों को यहां से निकालकर, आज़ाद करवाना। इसमें वे सफल हुए, परन्तु देश के दो भाग करके। आज के युग में दो ही महान् नेता ऐसे थे जो देश को संयुक्त रखकर स्वतन्त्रता प्राप्त करते तथा देश को अखण्ड रखते। वे थे दीनबन्धु चौ० छोटूराम और दूसरे नेताजी सुभाषचन्द्र बोस। खेद है तथा यह देश का दुर्भाग्य था कि वे दोनों ही आज़ादी मिलने से पूर्व ही शहीद हो गये। देश को अखण्ड रखने में दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम इन तमाम उच्च कोटि के कांग्रेसी नेताओं से बहुत महान् एवं सच्चे देशभक्त थे। चौ० छोटूराम सच्चे अर्थों में राजर्षि थे। जो व्यक्ति राजगद्दी पर बैठकर भी तपस्वियों का जीवन व्यतीत करे अर्थात् राजा बनकर भी फकीर बना रहे वही ‘राजर्षि’ कहलाता है। वास्तव में वे एक राजर्षि थे। चौ० छोटूराम जी की जो विशेषताएं लिख दी गई हैं उन सब का प्रमाण उनकी इस जीवनी के वर्णन में उचित स्थान पर लिख दिया जायेगा। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम में सबसे अद्भुत विशेषता यह थी कि उन्होंने बिना मांगे ही अपनी बुद्धि द्वारा किसानों की आर्थिक, सामाजिक, कष्टपूर्ण जीवन तथा अशिक्षित दशा को सुधार कर उनकी चौमुखी उन्नति की। पंचायत और इसके जन्मदाता जाट थे इसी कारण तो आपको किसानों का ‘मसीहा’ कहा गया है। इस आधुनिक युग में संयुक्त पंजाब के शोषित तथा असहाय किसानों को चौ० छोटूराम ने हर पहलू से उन्नत किया, जिसकी बराबरी अन्य कोई नहीं कर सका है। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने किसानों की जो उन्नति की उसी से प्रेरणा लेकर आज भारतवर्ष के राजनीतिज्ञ नेताओं ने किसानों की ओर ध्यान देना आरम्भ किया है। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने अखण्ड पंजाब के मजदूरों, हरिजनों, दरिद्रों, पिछड़े वर्ग तथा दुःखियों की सहायता की, जिससे आपको दीनबन्धु कहा जाता है। आपका जीवन निर्धनता और समृद्धि ने मानो आधा-आधा ही बांट लिया है। जन्म सन् 1881 से 1913 ई० तक का 31-32 वर्षों का समय निर्धनता का था और उसी में आपने अपने जीवन का निर्माण किया। सन् 1913 से 1945 (देहांत 9 जनवरी, 1945) तक लगभग उतने ही वर्षों का समय समृद्धि एवं शान शौकत का कहा जा सकता है। जीवन के ये दोनों समय अन्धकार एवं प्रकाश के रूप में भी विकसित किये जा सकते हैं। इन्हें फकीरी और राजसी भी कह सकते हैं। परन्तु इस दिव्य जीवन की दोनों विशेषताएं सदा बनी रहीं। फकीरी में राजसी ओज और राजसी दशा में फकीरी सादगी सदैव झलकती रही। राजसी ओज का प्रतिनिधित्व उनकी अदम्य स्वाभिमान एवं आत्मसम्मान की भावना सदा करती रही। जो किसी भी अवस्था में नहीं दबी, बल्कि समय-समय पर प्रत्येक अपेक्षित प्रसंग में उभरकर अपना वास्तविक रूप दिखाती रही। इनके प्रमाण अगले पृष्ठों पर लिखित घटनाओं से ज्ञात हो जायेंगे। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम के जीवन काल को तीन भागों में बांटा जा सकता है। 1. जन्म, बाल्यकाल और शिक्षा। 2. नौकरी तथा वकालत। 3. राजनीति। 1. जन्म, बाल्यकाल और शिक्षादीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम जी का जन्म माघ सुदी संवत् 1938 विक्रमी तदनुसार 24 नवम्बर सन् 1881 के दिन गढ़ी सांपला गांव (जि० रोहतक) में ओहलान गोत्र (जो अहलावत गोत्र का शाखा गोत्र है) के एक साधारण जाट किसान चौ० सुखीराम के कच्चे घर में हुआ था। आपकी माता जी का नाम श्रीमती सिरयांदेवी था। दादा श्री रामदास और परदादा श्री रामरत्न थे। आपका नाम रामरिछपाल रखा गया। दो भाइयों, नेकीराम और रामस्वरूप से छोटा होने के कारण, घर के लोग रामरिछपाल को लाड-प्यार में छोटू कहने लगे। आगे चलकर वह छोटू से छोटूराम कहलाने लगे। आपके पिता चौ० सुखीराम एक साधारण किसान थे जिनके पास खेती करने के लिए कामचलाऊ भूमि थी। वे कुछ रूई का लेन-देन भी करते थे जिसमें उनको काफी नुकसान हो गया। फलस्वरूप उनके जिम्मे कुछ कर्ज़ा हो गया। उनका देहान्त 1905 ई० में हो गया और उनका छोड़ा हुआ कर्जा दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने अपनी वकालत से पैसा कमाकर सन् 1913 में चुकाया। छोटूराम बचपन में बड़े नटखट थे। गली-पड़ौस के बच्चों से मारपीट करना उनके लिए मामूली बात थी। प्रकृति का यह नियम है कि बचपन में कुछ विशेषतायें रखने वाले बालक ही भविष्य में महापुरुष हुए हैं। दूसरे बालकों के साथ मारपीट या झगड़ा करने से तंग आकर उसके चाचा चौ० राजेराम ने छोटू को जनवरी 1, 1891 ई० को सांपला पाठशाला में दाखिल करा दिया। मास्टर मोहनलाल ने उनका नाम रजिस्टर में छोटूराम लिख लिया। सन् 1895 में प्राइमरी परीक्षा में दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम जिले में प्रथम आया और वजीफा प्राप्त किया। बाल विवाह – यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रारम्भिक शिक्षा के समय ही लगभग 10-11 वर्ष की आयु में छोटूराम का विवाह 5 जून 1893 को श्रीमती ज्ञानोदेवी के साथ सम्पन्न हो गया था। श्रीमती ज्ञानोदेवी के पिता का नाम चौ० नान्हासिंह गुलिया गोत्र का जाट था, जिसका गांव बादली के निकट खेड़ीजट था। बालविवाह के बावजूद भी छोटूराम अपनी पढ़ाई में जुटे रहे। माध्यमिक शिक्षा (मिडल) प्राप्त करने के लिए छोटूराम को झज्जर के मिडल स्कूल में दाखिल होना पड़ा। उन दिनों झज्जर के लिए कोई सड़क नहीं थी, पैदल ही आवागमन होता था। छात्रावास भी नहीं होते थे। घर से ही खाने-पीने की चीजें महीने या पन्द्रह दिन के लिए पीठ या सिर पर लादकर ले जानी होती थीं। अमेरिका के प्रेसीडेण्ट श्री विल्सन भी एक गरीब परिवार में पैदा हुए थे। वे नित्य ग्यारह मील पैदल चलकर पढ़ने जाते थे। हमारे भूतपूर्व भारत के प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री जी निर्धन होने के कारण गंगा पार करने के लिये किश्ती वाले को केवल छः पैसे देने में भी असमर्थ थे। अतः अपनी पाठशाला जाने के लिए प्रतिदिन अपनेसामान के साथ पढ़ने जाने व आने के लिए गंगा नदी को स्वयं तैर कर पार करते थे। यही दशा छोटूराम की भी थी। वे अपने गांव से 20-22 मील दूर झज्जर तक कभी पन्द्रह दिन का, कभी महीने भर का आटा, घी, दाल आदि सामान अपने सिर पर रखकर पैदल जाते थे। उन दिनों पंजाब में मिडल की परीक्षा यूनिवर्सिटी की होती थी। उस वर्ष यानी सन् 1899 में मिडल की परीक्षा में पंजाब भर से जो हजारों विद्यार्थी बैठे थे, उनमें सबसे अधिक नम्बर श्री महताब राय के, दूसरे नम्बर पर दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम थे और तीसरे नम्बर पर एक बंगाली युवक किशोरी मोहन आये थे। छोटूराम ने वजीफा प्राप्त किया। जाटों की टूटती पीठ (दिल्ली) और बढ़ती पीड़ा सांपले में सेठ घासीराम के पास आर्थिक सहायता के लिये जाना –छोटूराम को मिडल पास करने पर विद्या का चस्का लग गया। उसने अपने पिताजी को दिल्ली जाकर आगे पढ़ने की अपनी इच्छा प्रकट की। उनके पिता जी कर्जे से दबे हुये थे। अतः उन्होंने अपने बेटे को कह दिया कि घर में टोटा है, पढ़ाई का खर्च कहां से लाऊं। जब छोटूराम ने बहुत जिद्द की तो पिता जी छोटूराम को साथ लेकर सेठ घासीराम के पास सांपला पहुंचे। वहां पर पहुंचते ही सेठ घासीराम ने बालक छोटूराम के पिता को अपना पंखा खींचने का आदेश दिया। इस पर स्वाभिमान के संस्कारी छोटूराम की आत्मा तिलमिला उठी और उसने लाला जी को फटकारते हुए कहा कि “तुम्हें लज्जा नहीं आती कि अपने पुत्र दयाराम के बैठे हुए तुम पंखा खींचने के लिए उसे न कहकर मेरे आदरणीय वृद्ध पिता से पंखा खिंचवाते हो। मैं यह सहन नहीं कर सकता।” इस पर लाला बहुत लज्जित हुआ और उसने विवश होकर पास बैठे अपने पुत्र को पंखा खींचने के लिये कहा। प्रायः महापुरुषों के जीवन को मोड़ देने का श्रेय इसी प्रकार की घटनाओं को होता है। महात्मा बुद्ध को एक बूढ़े आदमी की दयनीय दशा ने दयालु बनाया और मृतक को देखकर वे मोक्ष-मार्ग के पथिक बने। महर्षि दयानन्द को शिव की मूर्ति पर चढ़े चूहे ने सच्चे ईश्वर एवं धर्म तत्त्व की खोज के लिए गृह-त्याग की प्रेरणा दी और उन्होंने अपना यह लक्ष्य पूर्ण किया। इसी प्रकार हजारी बाग कलकत्ता में सेठ चौ० छाजूराम को एक ब्राह्मण ढाबे में खाना खाने से महाजनों व ब्राह्मणों ने, जो उसी ढाबे में खाना खाते थे, ढाबे के मालिक से यह कहकर बन्द करवा दिया कि एक जाट का लड़का (जाट को अछूत समझते थे) हमारे साथ बैठकर भोजन करे, हमें स्वीकार नहीं है। युवक छाजूराम को गहरी ठेस लगी। अतः उसने बहुत ऊंचा उठने का दृढ़ संकल्प किया। एक करोड़पति महाजन तथा ब्राह्मण से भी ऊंचा आदर्श सम्मान पाने की तथा अपनी जात जाति को उपर उठाने की लालसा जाग उठी। ईश्वर की कृपा से वह अपने उद्देश्य को पूरा करने में सफल हुआ। ठीक इसी प्रकार दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम के जीवन को इस घटना ने एक विशेष मोड़ दिया। उन्होंने महाजनों एवं साहूकारों द्वारा सदियों से चले आ रहे ग्रामीण कृषकों तथा गरीबों के शोषण एवं उत्पीड़न को समाप्त करने का तथा उनके खूंखार पंजों से छुड़ाने का दृढ़ संकल्प किया। उनका सारा जीवन इसी पृष्ठभूमि की प्रतिक्रियास्वरूप बना। आप अपने इस उद्देश्य को पूरा करने में सफल हुए जो कि संसार में विशेषकर भारतवर्ष में एक अद्वितीय आदर्श उदाहरण है। उस समय की मनोवृत्ति के अनुसार महाजन यह पसन्द नहीं करते थे कि जाट का लड़का अधिक पढ़ जाये। इसलिये सांपले वाले उस लाला जी ने चौ० सुखीराम जी से साफ कह दिया कि जाट का बेटा इतना पढ़ गया तो क्या थोड़ा है, इब इससे या तो खेती कराओ या फौज-पुलिस में नौकर करा दो और हां, यह पटवारी भी तो हो सकता है। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम का मन तो आगे पढ़ने का था जो आगे चलकर लाखों पटवारियों के भाग्य का विधाता अर्थात् पंजाब का माल मन्त्री बना। रघुवंशी जाट गोत्र का इतिहास दीनबन्धु चौधरी सर छोटूरामछोटूराम के पिता के पास पैसा न होने के कारण उसके चाचा राजेराम ने उनकी आगे पढ़ाई का खर्च देना स्वीकार किया और 40 रुपये छोटूराम को उसी समय दे दिये। छोटूराम ने दिल्ली के प्रसिद्ध मिशन हाई स्कूल में दाखला ले लिया। उसी स्कूल में उनके दो उत्कृष्ट साथी महताबराय और किशोरीमोहन भी भर्ती हो गये थे। हाई स्कूल में दाखिल होने के कुछ ही समय पश्चात् छोटूराम को छः रुपया मासिक छात्रवृत्ति मिलने लगी और किसान होने के कारण उनकी स्कूल फीस भी माफ हो गई। नवमी श्रेणी की सालाना परीक्षा में छोटूराम ने महताबराय से अधिक अंक प्राप्त किये, परन्तु दसवीं श्रेणी में पढ़ते समय बीमार होने के कारण वह मैट्रिक परीक्षा (1901 ई०) में फर्स्ट डिविजन तो प्राप्त कर सके परन्तु सर्वोपरि स्थान न पा सके। छोटूराम का स्वास्थ्य और आर्थिक स्थिति उसके आगे पढ़ने में रुकावट थी। कालिज के वाइस प्रिंसिपल मि० रुद्रा ने छोटूराम का इलाज करवाया और इसका सब खर्च कालिज से दिया गया। कालिज के प्रिंसिपल मिस्टर राइट ने दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम को दिल्ली बोर्ड से छात्रवृत्ति दिलाई। छात्रवृत्ति मिलने तक कालिज से ही उनके लिए खर्च किया गया। कालिज फीस भी पूरे वर्ष की माफ कर दी गई। इस प्रकार कालिज का पहला वर्ष बीत गया और प्रथम वर्ष की परीक्षा भी पास कर ली। जब एफ० ए० परीक्षा के लिए फार्म भरे तो छोटूराम ने धर्म के खाने में हिन्दू न लिखकर ‘वैदिक’ शब्द लिखा था। एफ० ए० के द्वितीय वर्ष की परीक्षा देने के बाद छोटूराम को यह चिन्ता हुई कि आगे किस प्रकार पढ़ाई जारी रहेगी। परमात्मा ने उनकी इस चिन्ता को भी दूर किया। सेठ चौ० छाजूराम से उनकी भेंट गाजियाबाद स्टेशन पर हुई। सारी बातें पूछने पर सेठ छाजूराम जी ने बी० ए० पास करने की पढ़ाई का सब खर्च छोटूराम को देना स्वीकार कर लिया। सन् 1905 में छोटूराम ने दिल्ली कालिज से बी० ए० परीक्षा पास की और संस्कृत विषय में विश्वविद्यालय में द्वितीय स्थान पर रहे। सेठ छाजूराम ने युवक छोटूराम की धन से भरपूर सहायता की। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम अन्तिम समय तक सेठ चौ० छाजूराम को अपना धर्मपिता कहते थे। (अधिक जानकारी के लिए देखो इसी अध्याय में दानवीर सेठ चौधरी छाजूराम प्रकरण, दीनबन्धु चौ० सर छोटूराम का सम्पर्क में आना)। जब दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम अपनी बी० ए० की परीक्षा लाहौर देकर अपने घर आये तब अपने पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर उनको बड़ा सदमा लगा। घरवालों को कहा कि मुझे खबर भेजकर बुलाया क्यों नहीं। बी० ए० की परीक्षा तो मैं अगले वर्ष भी दे सकता था। छोटूराम एम० ए० में प्रवेश करना चाहते थे किन्तु पिता की मृत्यु और परिवार के कर्जे में दबा होना उन्हें शूल की भांति हर समय खटकता था। अतः आगे की पढ़ाई बन्द हो गई। नवीन गुलिया एक साहसी व्यक्तित्व – Navin Gulia 2. नौकरी तथा वकालत (कालाकंकर में नौकरी सन् 1905)चौधरी छोटूराम ने एक दिन अखबार में विज्ञापन पढ़ा – कालाकंकर के राजा रामपालसिंह को निजी सचिव के लिए एक योग्य ग्रेजुएट की जरूरत है। चौधरी छोटूराम ने प्रार्थनापत्र दिया। कालाकंकर उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में गंगा के किनारे एक छोटी सी रियासत थी। बुलावा आते ही दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम रेलगाड़ी द्वारा वहां पहुंच गये। उनको बारादरी में एक कमरा मिल गया जिसे तीन ओर से गंगाजल धोता था। सभी सुविधाओं के साथ उनको 40 रुपये वेतन भी मिलता था। राजा जी उदारवादी और राष्ट्रवादी थे। हिन्दी और अंग्रेजी में ‘हिन्दुस्तान’ अखबार निकालते थे। छोटूराम जी अंग्रेजी ‘हिन्दुस्तान’ के लिए लेख लिखने लग गये। उनमें निबन्ध लिखने की योग्यता तो पहले से ही थी, राजा साहब को उनके लेख बहुत पसन्द आये। राजा साहब हर बात में चौधरी छोटूराम से सलाह लेते थे, उनका मान करते थे। यहां तक कि उनको भोजन भी अपने साथ खिलाते थे। एक दिन राजा रामपालसिंह ने छोटूराम की प्रतीक्षा किए बिना दोपहर का भोजन करना शुरु कर दिया। इसमें स्वाभिमानी युवक छोटूराम ने अपना अनादर समझा और नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया। राजा साहब ने बहुत समझाया, परन्तु व्यर्थ। केवल छः महीने ही रहे। यहां से छोटूराम भरतपुर पहुंचे। भरतपुर तथा डीग के किले, महल, तालाब आदि देखकर वह चकित रह गये। उन्हें यह जानकर बहुत दुःख हुआ कि जाट रियासत पर गैर-जाट राज्य कर रहे थे। महाराजा रामसिंह निर्वासित थे और महाराजा कृष्णसिंह मेयो कालिज अजमेर में पढ़ रहे थे। कौंसिल के सदस्यों से नौकरी मांगने पर राव बहादुर दामोदरदास, राव बहादुर गिरधारीलाल और धाऊ रघुबीरसिंह ने उत्तर दिया – “कोई जगह खाली नहीं है। खाली थी, लेकिन भर गई।” चौधरी छोटूराम निराश घर लौट आये। सन् 1906 में मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) में सर चौधरी छोटूराम की अध्यक्षता में अखिल भारतवर्षीय जाट महासभा की स्थापना हुई। इस अवसर पर बड़े-बड़े विद्वान् जाट सज्जन उपस्थित थे1। 26 जनवरी 1918 ई० को मेरठ में अखिल भारतीय जाट महासभा के महोत्सव पर आप प्रधान मन्त्री चुने गये। सन् 1927 ई० में आगरा वार्षिक महोत्सव के दो बार प्रसिडेण्ट चुने गये। इनके अतिरिक्त जब भी कहीं अखिल भारतीय जाट महासभा के सम्मेलन हुए वहीं आप या तो प्रधान या संचालक रहे। नवीन गुलिया एक साहसी व्यक्तित्व – Navin Gulia लाहौर लॉ कालिज में दाखिला तथा वहां से पुनः कालाकंकर –दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने आगे पढ़ने का निश्चय किया। लॉ कालिज लाहौर में दाखिला ले लिया और रंगमहल हाई स्कूल में 50 रुपये मासिक वेतन पर अध्यापक लग गये। परन्तु यहां से भी जल्दी लौटना पड़ा। सन् 1907 में प्लेग फूट पड़ा। गांव और दिल्ली में भी इसका भयानक प्रकोप हो गया। कालाकंकर से राजा रामपाल सिंह का फिर एक पत्र मिला कि आप एक बार फिर हमारे यहां कुछ समय दें। चौधरी छोटूराम वहां पर चले गये और उनकी इच्छा अनुसार राजा साहब ने उन्हें रियासत में शिक्षा विभाग का सुपरिण्टेंडेंट पद दे दिया। वहां पर वह स्कूलों की देखभाल के अलावा राजा साहब के अंग्रेजी अखबार हिन्दुस्तान का भी सम्पादन करने लगे और सेक्रेटरी की अनुपस्थिति में राजा साहब के राजनैतिक कार्यों में भी सहयोग देते थे। राजा साहब उनके खान-पान और रहन-सहन के खर्चों के अतिरिक्त 60 रुपये मासिक वेतन भी उन्हें देते थे। परन्तु उनका दिल वहां नहीं लगा। अतः एक साल वहां रहकर राजा साहब से छुट्टी लेकर आ गये। आगरा लॉ कालिज में दाखिला – 1909 में चौधरी छोटूराम ने आगरा लॉ कालिज में दाखिला ले लिया। यहां पर सेण्ट जॉन हाई स्कूल में अध्यापक लग गये। इससे खर्च चलता रहा। यहां पर मथुरा-आगरा जिले के जाटों के प्रयत्न से एक जाट बोर्डिंग हाउस बनाया हुआ था। उसमें 1. कंवर हुकमसिंह (आँगई), मामराजसिंह (शामली), तेजसिंह (बाहपुर), कल्याणसिंह (बरकतपुर), शादीराम, नत्थुसिंह परदेशी (हरयाणा) आदि ।जाट लड़कों के लिए मुफ्त आवास का प्रबन्ध था। आप उसमें रहने लगे। पढ़ने पर पूरा ध्यान लगाया। फलस्वरूप 1911 ई० में आपने फस्ट डिविजन में एल. एल. बी. पास कर लिया। आगरा जाटबहुल इलाका है। शिक्षा काल में उनकी आगरा के सभी शिक्षित और प्रतिष्ठित लोगों से जानकारी हो गई थी। इसलिए जब वकालत पास कर ली तो वहीं वकालत की प्रेक्टिस शुरु कर दी। आपको वकालत में आशातीत सफलता प्राप्त हुई और आप वकील हाईकोर्ट हो गये। आप ने लोगों से 8,000 रुपये एकत्रित करके जाट बोर्डिंग हाउस में कुछ नये कमरों का निर्माण कराया और उसके सुपरिण्टेंडेंट रहे। आगरा में वकालत के समय मुकदमे – दो भाई दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम के पास एक मुकदमा लाए। उनका दफा 110 में चालान हुआ था। चौधरी साहब ने जोरदार बहस करके दोनों को बरी करा दिया। दूसरे मुकदमे में एक डाके के अभियोग में 27 अभियुक्त थे जिनमें से 3 सरकारी गवाह बन गए थे। मजिस्ट्रेट ने प्राथमिक सुनवाई करके मामला सैशन कोर्ट में भेज दिया जहां दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने इतनी सफाई के साथ बहस की कि सभी अभियुक्त बरी हो गए। आपकी आगरा, मथुरा, अलीगढ़, भरतपुर आदि जिलों में ख्याति फैल गई। वहां के लोग विशेषकर जाट आपको अपना शुभचिंतक मानते थे। आगरा से रोहतक – सन् 1911 में ब्रिटिश सम्राट् जार्ज पंचम का दरबार लगा और कलकत्ता की बजाय दिल्ली भारत की राजधानी बनाई गई। सोनीपत तहसील दिल्ली से निकालकर रोहतक जिले में शामिल कर दी गई। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम को रोहतक में अपना भविष्य अधिक उज्जवल दिखाई दिया। वे अक्तूबर 1912 में रोहतक पहुंच गये। चौ० लालचन्द, चौ० नवलसिंह, और चौ० रामचन्द्र यहां पहले से ही वकालत करते थे। आप एक मकान किराये पर लेकर उसमें रहने लगे और रोहतक में वकालत शुरु कर दी। चौ० छोटूराम ने चौ० लालचन्द के साथ फरवरी 1913 ई० में साझली वकालत आरम्भ कर दी जो आठ वर्ष तक चली। तहसीलदार के लम्बे अनुभव के कारण चौ० लालचन्द माल के मुकदमों की और दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम दीवानी तथा फौजदारी के मुकदमों की पैरवी करते थे। चौ० छोटूराम केवल एक वकील ही नहीं थे, उनमें एक महान् नेता और वक्ता के गुण भी विद्यमान थे जिनको विकसित करने का अवसर, स्थान, समय और शोषित वर्ग मिला। अन्य वकीलों की तरह साधारण आदमी से दूर रहने की बजाय छोटूराम उनके निकट सम्पर्क में आने लगे। यहां तक कि जाट मुवक्किलों के साथ बैठकर हुक्का भी पीने लगे। उनके ठहरने का प्रबन्ध करते; हुक्का पानी, खाट बिस्तर और भोजन तक का प्रबन्ध करने लगे। इससे अन्य जाति के वकीलों में घृणा एवं हलचल मच गई। एक दिन दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम अपने गांव के लोगों के साथ कचहरी में, उनकी बिछाई हुई चादर पर बैठकर उनके साथ हुक्का पीने लगे। इस पर अन्य वकील तिलमिला उठे और बड़बड़ाने लगे कि इस छोटूराम ने तो हमारी प्रतिष्ठा एवं सम्मान को मिट्टी में मिला दिया। एक वकील होकर गंवार व जंगली देहाती किसानों के साथ जमीन पर बैठकर हुक्का पी रहा है। वकीलों ने चौधरी साहब को समझाने के लिए चौ० रामचन्द्र और श्री बिसिया कायस्थ वकील को भेजा। ये दोनों वकील चौधरी साहब के पास गये और उनसे कहा कि चौधरी साहब! वकीलों का जो स्तर है आप उसे गिरावें नहीं। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने बिसिया साहब को जवाब दिया कि “मुझे बड़ा आश्चर्य है कि मजदूर अपने मालिक से अपने आपको ऊँचा समझकर उससे घृणा करे। मुवक्किल हमें फीस देते हैं जिससे हमारा गुजारा चलता है इसलिए वे मालिक और वकील उनके मजदूर हैं। अतः वे आदर के पात्र हैं। जिनसे हम मुंहमांगी मजदूरी लेते हैं उनके साथ अच्छा व्यवहार भी न करें और उन्हें अनादर का पात्र समझें, क्या यह अन्याय और अनर्थ नहीं है? दूसरी बात उनके साथ हुक्का पीने की है। ये लोग मेरे गोत्र के, जाति के और समान समाज के हैं। जब मैं इनके साथ हुक्का न पिऊँ तो और किसके साथ पिऊँ? मैं जाट हूं तो जाटों के साथ हुक्का अवश्य पिऊँगा। मैं तो चाहता हूँ कि सबका हुक्का-पानी एक हो; किन्तु आप लोग तो बहुत ऊँचे मीनारों पर चढ़े बैठे हो।” ये दोनों प्रतिनिधि अपना-सा मुंह लेकर चले गये और उन्होंने सभी वकीलों को उनकी ये स्पष्ट बातें बता दीं। वकीलों ने समझ लिया कि जहां छोटूराम काबिल है वहां सिद्धान्ती भी है। यह केवल वकालत का ही उद्देश्य नहीं रखता है, इसके इरादे अपनी जाति और किसानों को ऊँचा उठाने का प्रोग्राम भी शामिल है। जाटों के कुछ जौहर जाट हाई स्कूल रोहतक की स्थापना –डी० ए० वी० कालिज लाहौर के विद्यार्थी चौ० भानीराम गंगाना निवासी (जि० सोनीपत) ने रोहतक में जाट स्कूल खोलने का प्रण किया परन्तु वे चेचक की बीमारी से अचानक चल बसे। मरते समय उन्होंने अपने मित्र चौ० बलदेवसिंह (धनखड़ गोत्री जाट गांव हुमायूंपुर जि० रोहतक) से, जो कि सैंट्रल ट्रेनिंग कालिज में बी० टी० कर रहे थे, अपनी इच्छा पूरी करने का वचन लिया। चौ० बलदेवसिंह, जो महात्मा हंसराज के शिष्य रहने के कारण दृढ़ आर्यसमाजी थे, ने इस स्कूल के लिए अपना जीवनदान दिया और उन्होंने 26 मार्च सन् 1913 ई० को रोहतक में जाट ऐंग्लो संस्कृत हाई स्कूल की नींव रखी। हिसार में डॉ० रामजीलाल तथा उनके भाई चौ० मातुराम (हुड्डा जाट गांव सांघी जि० रोहतक) ने इस संस्था की स्थापना में पूरा सहयोग दिया। किन्तु रोहतक के वकील इससे उदासीन ही रहे। इसका मुख्य कारण यह था कि रोहतक के डिप्टी कमिश्नर किलवर्ट साहब ने कहा यदि उनकी इच्छानुसार स्कूल चलाया जाये तो वे इसे 400 बीघे जमीन तथा 50,000 रुपया शुरु में सरकार से दिला देंगे और फिर 10,000 रुपया वार्षिक सहायता दिलवाते रहेंगे। किन्तु चौ० बलदेवसिंह संस्था को सरकारी प्रभाव से अछूता रखना चाहते थे। दूसरा कारण यह भी था कि जाट स्कूल की स्थापना करने वाले लोग आर्यसमाजी थे। मिस्टर किलवर्ट की यह भी इच्छा थी कि उनका नाम इस स्कूल के साथ जोड़ा जाए। परन्तु आर्यसमाजी जाटों को यह किसी भी मूल्य पर स्वीकार न था। अतः डी० सी० किलवर्ट की बात को ठुकरा दिया गया। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम भी आर्यसमाजी थे। उन्होंने ग्रेजुएट सनातनी वकीलों – चौ० लालचन्द, चौ० रामचन्द्र और चौ० नवलसिंह से भी 100-100 रुपए फीस लेकर समिति के सदस्य बना लिए। मुनसिफ चौ० अमीरसिंह रईस बादली भी सदस्य बने। चौ० छोटूराम को सर्वसम्मति से प्रबन्धकारिणी का महामन्त्री चुना गया। वे इस पद पर सन् 1921 तक रहे। वार्षिक उत्सव कराते रहे और सैनिक छावनियों में जाकर तथा अफसरों को अपील भेजकर चन्दा करते। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम गांव-गांव घूमकर भी चन्दा करते थे। महात्मा गांधी तथा कांग्रेस के असहयोग आन्दोलन के प्रस्तावों को, दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने 6 नवम्बर, 1920 को रोहतक में हुए कांग्रेस के जलसे के अवसर पर, अस्वीकार कर दिया और कांग्रेस पार्टी से त्यागपत्र दे दिया। आप सन् 1916 से 1920 तक जिला रोहतक कांग्रेस कमेटी के प्रधान रहे थे। आपने पंजाब में जमींदार लीग की स्थापना कर ली। परन्तु चौ०बलदेवसिंह ने इस अवसर पर कांग्रेस का साथ दिया और असहयोग आन्दोलन प्रस्ताव के अनुसार दिसम्बर 1920 में “जाट ऐंग्लो संस्कृत हाई स्कूल” का सम्बन्ध यूनिवर्सिटी से तोड़ लिया और इस जाट हाई स्कूल का राष्ट्रीयकरण घोषित कर दिया। शिक्षा विभाग के नियंत्रण से हटाकर, इसमें शिक्षा भी कांग्रेस द्वारा निश्चित योजना के अनुसार दी जानी निश्चित कर ली गयी। इस मीटिंग में दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम और चौ० लालचन्द उपस्थित नहीं थे। उनके होते हुए भी निर्णय यही होना था क्योंकि शिक्षा के मामले में उन दिनों चौ० बलदेवसिंह हरयाणा के महात्मा हंसराज समझे जाते थे। उनका त्याग भी उच्चकोटि का था। केवल निर्वाह मात्र लेकर स्कूल के प्रधानाध्यापक और प्रबन्धक का काम करते थे। उनकी भूख हड़ताल ने जाट स्कूल का सम्बन्ध यूनिवर्सिटी से तोड़ने का निर्णय करने में बहुत प्रयास दिखाया। इस घटना से विरोधी कैम्पों में बड़ी खुशी हुई। समझा जाने लगा कि रोहतक की ग्रामीण जनता अब छोटूराम के साथ नहीं रही। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने देहात के समझदार लोगों को बुलाया और उनकी सलाह से अप्रैल सन् 1921 में मुकाबले में जाट हीरोज़ मेमोरियल हाई स्कूल नाम से एक नये स्कूल की स्थापना गवर्नमेंट नॉरमल ट्रेनिंग स्कूल की बिल्डिंग में कर दी जिसका स्थान रोहतक नगर पालिका समिति कार्यालय के सामने वाले मैदान में था, जहां पर बाद में महिला विद्यालय स्थापित हुआ था। इस कार्य में चौ० लालचन्द जी ने भी पूर्ण सहयोग दिया। सैनिकों और ग्रामीण किसानों ने काफी धनराशि चन्दे के रूप में दी। तीन-चार वर्ष में ही इस हाई स्कूल ने इतनी उन्नति की कि 600-700 विद्यार्थी इसमें हो गये और पहले वाले स्कूल में केवल 60-70 ही रह गये। अन्त में जाट ऐंग्लो संस्कृत हाई स्कूल को भी जाट हीरोज मेमोरियल हाई स्कूल में मिलना पड़ा और उसका नाम जाट हीरोज मेमोरियल ऐंग्लो संस्कृत हाई स्कूल पड़ा। ये दोनों जाट स्कूल अप्रैल सन् 1926 में मिलकर एक हो गये। सन् 1925 में अखिल भारतीय जाट महासभा का अधिवेशन महाराजा श्री कृष्णसिंह भरतपुर नरेश की अध्यक्षता में पुष्कर के स्थान पर हुआ था। वहां पर कई लाख जाट उपस्थित हुए थे। चौ० सर सेठ छाजूराम, दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम तथा चौ० बलदेवसिंह भी पधारे थे। कहा जाता है कि महाराजा के कहने पर चौ० छोटूराम और चौ० बलदेवसिंह आपसी मतभेद बुलाकर दोनों स्कूलों को एक करने में सहमत हो गये थे। जाट इतिहास व जाट शासन की विशेषतायें दीनबन्धु चौधरी सर छोटूरामप्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) – श्री किलवर्ट (1912-14) की जगह श्री हरकोर्ट (1914-19) रोहतक के डिप्टी कमिश्नर नियुक्त हो गये थे। उसने दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम को सहकारी समितियों का सेक्रेटरी बना दिया तथा जिले की भ्रष्टाचार विरोधी समिति का मन्त्री भी बना दिया। चौ० साहब ने वीर योद्धा जाट नौजवानों को सेना में दबादब भर्ती कराया ताकि बाहर की दुनिया को देखें, अनुशासन सीखें, दूसरे देशों को देखकर देश की स्वतन्त्रता प्राप्ति की भावना पैदा करें और घर की गरीबी दूर करें। याद रहे कि महात्मा गांधी जी ने इस युद्ध में अंग्रेजों की सहायता करने के लिए भारतीयों को कहा था। श्री हरकोर्ट ने चौ० साहब को जिला रिकरूटिंग कमेटी का सेक्रेटरी नियुक्त कर दिया था। सन् 1917 में सरकार ने उनको ‘राव साहब’ की उपाधि दी और 100 एकड़ भूमि मिण्टगुमरी (अब पाकिस्तान) नई बस्ती में दी। यह उन्हें अंग्रेजों को युद्ध में सहायता देने के बदले में दी गई1। इस पर सर छोटूराम ने कहा कि -“मैंने उपाधि या किसी और लालच में भर्ती नहीं कराई बल्कि देश के लिए अपना कर्त्तव्य पूरा करने के लिए कराई है ताकि अंग्रेज की जगह कोई दूसरा देश भारत को गुलाम न बना सके। अंग्रेज तो फिर भी लोकतन्त्र में विश्वास रखते हैं। मेरा विश्वास है कि युद्ध के बाद अंग्रेज भारत की कुर्बानियों का बदला जरूर देंगे।” कमिश्नर महोदय उनकी बात को सुनकर दंग रह गये। आपने कमिश्नर से यह भी कहा कि इनाम के रूप में जमीन या नकदी जो कुछ मिले, वह उन लोगों को मिले जो युद्ध में गए हैं अथवा उनके घर वालों को। 1916 ई० में पंजाब में जमींदार एसोसिएशन की स्थापना – सन् 1916 में पंजाब में जमींदार एसोशिएशन की स्थापना हो गई। इसका कारण यह था कि किसान के लिए तुरन्त फायदे के सवाल को लेकर दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम तथा पंजाब कांग्रेस में मतभेद हो चुका था। कांग्रेस में शहरी वर्ग का प्रभाव बढ़ रहा था और वे भीतर से किसान विरोधी नीति अपनाये हुए थे। छोटूराम जी किसानों को अलग से संगठित करने के पक्ष में थे। अतः इस जमींदार एसोसिएशन की स्थापना की गई। लाहौर में इसका आफिस था। सरदार कृपालसिंह मान इसके अध्यक्ष तथा सरदार खड़कसिंह ढिल्लों B.A.L.L.B. सेक्रेट्री थे। इसमें उस समय तक सिक्ख और हिन्दू जमींदार ही सम्मिलित हुए थे। उन दिनों पंजाब में किसान को ही जमींदार कहा जाता था। गैर-किसान वर्ग के सिक्खों तथा हिन्दुओं ने इसका बड़ा विरोध किया। ‘लायलपुर गजट’ इस एसोसिएशन को पंथ के लिए खतरा कह रहा था। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने ‘जाट गजट’ और दूसरे अखबारों द्वारा कई लेख लिखकर ‘लायलपुर गजट’ की गलतफहमियों को दूर किया। फलतः आप हिन्दू तथा सिक्खों में समान रूप से किसानहितैषी के रूप में लोकप्रिय होते गये। मांटेग्यू कमीशन से भेंट – भारत में अंग्रेजों का विरोध निरन्तर बढ़ रहा था। जलियांवाला बाग के हत्याकांड को लेकर पूरा देश क्षुब्ध और विद्रोही हो रहा था और कांग्रेस निरन्तर उत्तरदायी शासन की मांग कर रही थी। अंग्रेजों ने भारत के जन-विरोध को शान्त करने के लिए, कमीशन का निर्माण किया जिसने इंग्लैण्ड की सरकार को भारत में किए जाने वाले प्रशासनिक सुधारों के रूप में, परामर्श देना था। यह कमीशन मांटेग्यू कमीशन नाम से जाना गया था। युद्ध के पश्चात् की परिस्थितियों में भारत में क्या राजनैतिक सुधार किये जायें, इस सम्बन्ध में तत्कालीन भारत मन्त्री मांटेग्यू की अध्यक्षता में एक कमीशन भारत आया था। इस कमीशन के सामने पंजाब जमींदार एशोसिएशन की तरफ से दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल उपस्थित हुआ जिसमें कई बड़े सिक्ख नेता एवं फौजी अफसर भी शामिल थे। प्रतिनिधि मंडल की ओर से चौ० मोरों का शिकार करते थे। लोगों ने उसे रोकना चाहा परन्तु ‘साहब’ ने परवाह नहीं की। जब उनकी शिकायत दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम तक पहुंची तो आपने जाट गजट में जोरदार लेख छापे जिनमें अन्धे, बहरे, निर्दयी अंग्रेज के खिलाफ लोगों का क्रोध व्यक्त किया गया। मिस्टर इलियस्टर ने कमिश्नर और गवर्नर से शिकायत की। जब ऊपर से माफी मांगने का दबाव पड़ा तो दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने झुकने से इन्कार कर दिया। अपने चारों ओर आतंक, रोष, असन्तोष और विद्रोह उठता देख दोषी डी.सी. घबरा उठा और प्रायश्चित के साथ वक्तव्य दिया कि वह इस बात से अनभिज्ञ था कि “हिन्दू मोर-हत्या को पाप मानते हैं”। अन्त में अंग्रेज अधिकारी द्वारा खेद व्यक्त करने तथा भविष्य में मोर का शिकार न करने के आश्वासन पर ही चौ० छोटूराम शांत हुए। जाट धर्मेन्द्र के वो किस्से जो आपने कभी नहीं सुने होंगे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कर्मठ कार्यकर्त्ता तथा कांग्रेस से त्यागपत्र –कुछ समय तक दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्त्ता थे। वह सन् 1916 में कांग्रेस के सदस्य बने। रोहतक कांग्रेस-कमेटी के प्रथम अध्यक्ष बने और इस पद पर 6 नवम्बर 1920 ई० तक रहे। लाला श्यामलाल मन्त्री रहे। सितम्बर 1920 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ। दिसम्बर सन् 1920 में इसकी पुष्टि नागपुर अधिवेशन में हुई। हरयाणा प्रान्त में असहयोग आंदोलन के विषय में कई स्थानों पर सम्मेलन हुए जिनमें चोटी के कांग्रेसी नेताओं ने भाषण दिये। 6 नवम्बर 1920 को रोहतक में भी एक कांफ्रेंस हुई। इस अवसर पर अन्य मुख्य नेताओं के साथ दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम भी उपस्थित थे। असहयोग के प्रस्ताव के अनुमोदन की बात चली। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने इसका विरोध किया। वह कुछ धाराओं को मानने के पक्ष में तो थे परन्तु जो बातें किसानों व देहातियों का शोषण करने तथा उनको एकदम से बेघर करने वाली थीं, उनके मानने के विरुद्ध थे। आपने कहा भी कि इन बातों को प्रस्ताव से निकाल दो तो मैं भी सहमत हो जाऊंगा। परन्तु कांग्रेसी नेताओं ने उनकी बात न मानी। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने कहा कि फिर ऐसे काम क्यों किए जाएं जिसमें असफलता ही हाथ लगे। चौ० साहब के कथनानुसार यह आंदोलन असफल हुआ। यहां एक स्मरणीय तथ्य यह भी है कि गांधी जी के इस अहिंसक आंदोलन का विरोध करने वालों में केवल चौ० छोटूराम ही नहीं थे, बल्कि पं० मदनमोहन मालवीय जी, सर एड्रूज, विपिनचन्द्र पाल तथा जिन्ना जैसे विचारक भी थे। बाद में मालवीय जी के आग्रह पर ही गांधी जी ने इस आंदोलन को फरवरी 5, 1922 को वापिस लेने की घोषणा कर दी। सर छोटूराम ने कहा कि “इस प्रस्ताव के अनुसार कुछ बातें जैसे भूमिकर न देना, पैन्शन न लेना, सैनिक तथा पुलिस का शस्त्र फेंक देना तथा सरकारी पदों पर लगे लोगों का त्यागपत्र दे देना आदि बातें किसानों को बेघर करने तथा उनका शोषण करने वाली हैं। वे खायेंगे कहां से? मैं किसानों के विरोध वाले प्रस्ताव को अस्वीकार करता हूं। अतः कांग्रेस से अपना त्यागपत्र देता हूँ।” (अधिक जानकारी के लिए देखो इसी अध्याय में खिलाफत तथा असहयोग आंदोलन, हरयाणा प्रांत में कांग्रेस तथा असहयोग आंदोलन का प्रभाव, हरयाणा में असहयोग आंदोलन, प्रकरण)। जाट कौम सावधान 3. राजनीति में प्रवेशचौधरी छोटूराम जी ने 6 नवम्बर 1920 को कांग्रेस छोड़ दी। इसके पश्चात् उन्होंने पंजाब के प्रसिद्ध मुस्लिम नेता मियां सर फजले हुसैन से मिलकर संयुक्त राष्ट्रवादी दल (यूनियनिस्ट नेशनल पार्टी) यानी जमींदार लीग बनाई। चौधरी छोटूराम यह समझते थे कि महाजन, साहूकार और हिन्दू महासभा के गुप्त समर्थक कांग्रेसी नेताओं के किसान विरोधी गठबन्धन को चुनौती, बिना किसी सबल संगठन के देना, आसान नहीं है। अतः आप ने किसानों अर्थात् जमींदार के नाम पर सिख, मुसलमान तथा जाटों को संगठित किया। इस जमींदार लीग का उद्देश्य था देहात के किसानों और पिछड़े हुए गरीब लोगों का उद्धार करना। कांग्रेस अब देहात में पूरी तरह नहीं पहुंच पाई थी। जमींदार पार्टी ने वह किया जो कांग्रेस आज तक भी नहीं कर पाई है। देहात को उसने अपने साथ लगा लिया। कांग्रेस छोड़कर जमींदार लीग बनाने पर कांग्रेसी तथा ईर्ष्यालु लोगों ने चौधरी छोटूराम को अंग्रेजों का दास, पिट्ठू, टोडी, देशद्रोही, गद्दार और विश्वासघाती बताया और कहते रहे। आज भी कुछ ईर्ष्यालु एवं अज्ञानी लोगों की बुद्धि से कुछ ऐसे विचार दूर नहीं हुये हैं। पहले इसी के बारे में स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता है। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम तथा उनकी जमींदार लीग ने अंग्रेज सरकार से मिलकर पंजाब के किसानों तथा गरीबों की हर पहलू में उद्धार एवं उन्नति की। जहां तक किसानों तथा देश के हित का प्रश्न हुआ तो सर छोटूराम ने अवश्य ही अंग्रेज सरकार से मिलकर सहायता ली। किन्तु जहां पर अंग्रेजों ने देश, किसानों तथा छोटूराम के विरुद्ध अपने हितों की बात करनी चाही वहीं पर दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने निडरता से उनकी बात को ठुकरा दिया और डटकर टक्कर ली। वे सच्चे देशभक्त, अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने के पक्ष में तथा किसानों के सच्ची हितकारी एवं ‘मसीहा’ थे। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम एक सच्चे देशभक्त तथा अंग्रेज सरकार के विरोधी थे –इसके कुछ प्रमाण इसी दशम अध्याय के शुरु के पृष्ठों पर लिख दिए गए हैं जो कि निम्न प्रकार से हैं –
इनके अतिरिक्त कुछ और भी उदाहरण हैं जो सिद्ध करते हैं कि सर दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम एक सच्चे देशभक्त, किसान-गरीबों के हितकारी तथा अंग्रेजों के विरोधी थे। ये निम्न प्रकार से हैं –
“मैं आपको वास्तविक स्थिति की सूचना देता हूँ। जैसे कि आप सचेत होंगे, दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम की जमींदार लीग और कांग्रेस में अब थोड़ा ही अन्तर है। उनका ‘जाट गजट’ अंग्रेज सरकार के विरुद्ध ऐसा ही प्रचार कर रहा है जैसा कि कांग्रेस।” (Confidential Files from the Deputy Commissioner’s Office, Rohtak 11/39, see letter 21 Sept. 1931).
शहरी लोगों को सहायता देने में रुचि रखती है। अन्त में उन्होंने कहा कि किसानों को जागृत होना पड़ेगा तथा अपनी तत्कालीन कठिनाइयों से छुटकारा पाने के लिए कोई उपाय करना होगा। इसके लिए केवल एक ही साधन है कि किसानों को सच्चे दिल से कदम उठाना चाहिए और अन्य कार्यों से अधिक महत्त्व अपना संगठन बनाने को देना चाहिए। (जाट गजट 9 अगस्त 1933, पृ० 3-4)।
यह लेख दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने अंग्रेजों के विरुद्ध कितनी निडरता से लिखे पाठक इसका अनुमान लगा सकते थे।
कांग्रेस से अलग होकर भी छोटूराम उसे बर्बाद हुआ नहीं देखना चाहते थे। उनके अपने शब्दों में -“मैं अपने जिले का पहला व्यक्ति हूं जो सर्वप्रथम कांग्रेस में शामिल हुआ और प्रेजीडेण्ट बना। और इस पद पर तब तक रहा, जब तक कि लगानबन्दी के कांग्रेस के निश्चय से मतभेद होने पर मैंने कांग्रेस न छोड़ दी। कांग्रेस के कानून भंग और करबन्दी आंदोलन का मैंने सदैव विरोध किया है और आगे भी करता रहूंगा, पर यह सब कुछ होते हुए भी मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो कांग्रेस के विनाश या पतन की कामनायें रखते हैं।” (चौधरी छोटूराम जीवन-चरित, पृ० 386, लेखक रघुवीरसिंह शास्त्री। कांग्रेस से अलग होने पर दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम की दशा बड़ी विचित्र हो गई। उन्होंने सोचा क्या केवल जाटों का नेता बनकर रोहतक जिले तक ही अपने को सीमित रखा जाये? क्या आर्यसमाज का काम किया जाये? पर यहां राजनीतिक, आर्थिक प्रोग्राम के बिना सामाजिक सुधार सम्भव नहीं, यह मान्यता आगे आ गई। क्या सरकार से मिलकर सुखमय जीवन व्यतीत किया जाये? यह छोटूराम के लिए अप्रिय बात थी। काफी समय तक सोच-विचार करने के बाद छोटूराम जी को अपनी समस्या का समाधान मिला, जिससे उन्हें पूरी तरह से तसल्ली हो गई। उनके ही शब्दों में वह समाधान निम्नलिखित था –
किसानों की दुर्दशा –अंग्रेजों के भारत में आने से पूर्व यहां कृषि और औद्योगीकरण में एक अच्छा खासा सन्तुलन था। पर अंग्रेजों ने यहां आकर यहां के उद्योगों को नष्ट कर दिया, जिसके फलस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। इसका कुप्रभाव किसानों पर पड़ा। बढ़ती हुई जनसंख्या का कृषि क्षेत्र से कहीं और दिशा में स्थानांतरण न होने के कारण भूमि पर जनभार बढ़ गया। साथ ही अपने औपनिवेशिक धर्म से प्रभावित होकर सरकार लगान में बराबर वृद्धि करती रही, जिससे कृषि विकास के लिए कृषक वर्ग पूंजी संचय करने में असमर्थ रहा। इस प्रकार अंग्रेजी राज्य में कई सदियों तक कृषि का कोई विकास नहीं हो पाया। परिणामतः बेचारा कृषक और खेतीहर मजदूर खून-पसीना बहाकर भी कभी भी भरपेट रोटी खाने की स्थिति में न रह पाया। हरयाणा प्रदेश में स्थिति इससे भी शोचनीय थी। यहां का किसान सरकार के शोषण से बुरी तरह से पीडित था। उसकी छोटी-छोटी अनार्थिक जोतें, जिसमें वह परम्परागत ढंग से खेती में जुटा रहता था, बहुधा उसे इतना भी नहीं दे पाती थी कि सरकार की मालगुजारी तो दे सके। फलतः उसे कई बार सरकारी डर से खड़ी फसलों को छोड़कर अपने पुरुखों के बसाये हुए गांव को ही छोड़ना पड़ता था। 19वीं सदी के प्रथम चरण के माल के कागजात को देखने से यहां के किसानों की दुर्दशा के सही दर्शन हो सकते हैं। वहां जगह-जगह ऐसे वाक्य लिखे देखे जा सकते हैं – “यह गांव पूर्णतया खाली हो गया, भूमिकर एकत्र नहीं किया जा सका।” “इस गांव के आधे कृषक गांव छोड़कर अन्यत्र चले गये।” “इस गांव के 70 में से केवल 5 घर ही आबाद हैं, शेष उजड़े पड़े हैं” आदि-आदि। आधुनिक शिक्षा मुख्य रूप से नगरों तक ही सीमित रही। हरयाणा की 90 प्रतिशत जनता जो गांव में बसती थी, इस समय तक इस वर्ग के विकास में सरकार न के बराबर योगदान दे पाई थी। इसका परिणाम यह हुआ कि शहरों और कस्बों की जनता में चेतना के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे। वहां स्थानीय और प्रांतीय स्तर के संगठन बनने लगे और लोग अपने दुःख-दर्द, अभाव, घुटन और विपत्तियों के विषय में बोलने लगे। पर बेचारी ग्रामीण जनता अब भी गूंगी भेड़ बनी फिर रही थी। उन्हें संगठित करके वाणी देने के लिए दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम सरीखे नेताओं के आने का इन्तजार हो रहा था। सर छोटूराम की नीली कोठी रोहतक दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने 1926 लेकर 1936 तक कौंसिल में और कौंसिल से बाहर जमींदारों में जागृति लाने, उनका संगठन मजबूत करने और उनको उनके अधिकार दिलाने के लिए घोर संघर्ष किया। वे एक ही समय में वकील, राजनीतिज्ञ कार्यकर्ता, वक्ता, संगठनकर्ता और लेखक थे। ‘जाट गजट’ में उनकी ‘बेचारा जमींदार’ लेखमाला पाठकों को इतनी पसन्द आई कि उनके आग्रह पर एक पुस्तिका ‘बेचारा जमींदार’ अलग छपवा दी जिसके दो भाग हैं। यह पुस्तक कार्ल मार्क्स द्वारा लिखित कम्युनिष्ट मैन्यूफेस्टो (साम्यवादी घोषणा सन् 1848) जैसी क्रांतिकारी है। जैसे मार्क्स ने पूंजीपति के हाथों मजदूर को शोषित देखकर कहा था – “ऐ दुनियां के मजदूरो, एक हो जाओ। पूंजीपतियों ने तुम्हारे पास दासता की जंजीरों के इलावा कुछ भी बाकी नहीं छोड़ा है।” इसी प्रकार दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने साहूकारों द्वारा शोषित, सरकार द्वारा चूसित एवं उपेक्षित और प्रकृति द्वारा पीड़ित देखकर किसान को अपनी शक्ति पहचानकर अपना राज्य बनाने का आह्वान दिया। मजहबी अफीम से सावधान किया। हीन भावना, संतोष, शान्ति, कायरता, मूर्खता और आपसी द्वेष छोड़कर एकजुट होने का पैगाम दिया। चौ० छोटूराम के लेख इस ‘बेचारा जमींदार’ पुस्तक में लिखे हैं। उनमें से कुछ का वर्णन किया जाएगा।
दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम चाहते थे कि किसान जमाने के साथ बदले। नई हवा को पहचाने और संगठित होकर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़े। शहरी लोग संगठित हैं। इसीलिए वे सरकार से सारी सुविधायें हासिल कर लेते हैं और किसान असंगठित होकर शोषण का शिकार होता रहता है। उन्होंने लिखा –
ऐसी स्थिति देखकर दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने किसान को कहा था –
किसानों की बदहाली और शोषण देखकर दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम रो उठता है –
शहरियों के लिए खर्च किया जाता है। नंगे पांव और खाली पेट काम करके किसान दौलत पैदा करता है जिससे साहूकार की खत्ती तथा सरकारी खजाने भरते हैं।”अतः दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम किसानों में चिंगारी फूंककर उसे अशान्त होने का उपदेश देता है –
उन्होंने किसान को उसकी शक्ति की याद दिलाते हुए कहा –
छोटूराम बार-बार किसान को जगाता है। वह किसान का चौकीदार बनता है जगाने के लिए उसे गुदगुदाता है। चोंटकी भरता है और तब भी न उठने पर चारपाई से घसीटकर नीचे गिराने की धमकी देता है –
इस प्रकार दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने किसानों को संगठित होकर अपनी समस्याओं के समाधान का मूलमंत्र दिया। उन्हें पक्का विश्वास था कि किसान अपनी शक्ति को पहचान ले और संगठित हो जाए तो संसार की कोई ताकत नहीं जो उसका शोषण कर सके और उसे आगे बढ़ने से रोक सके। पाठक समझ गए होंगे कि राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक दोनों ही रूपों में दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम अपने युग में बेमिशाल थे। उनकी राजनीति का उद्देश्य समाज कल्याण था और समाज कल्याण से उनकी राजनीति को बल मिलता था। उनकी राजनीति स्वार्थसाधन और कुर्सी की राजनीति न होकर दरिद्र का दुःख हरने वाली अचूक औषध थी। राजनैतिक सत्ता पाकर किसान वर्ग का जितना हितसाधन उन्होंने किया उसकी मिशाल इतिहास में नहीं मिलती। वास्तव में वे किसानों के ‘मसीहा’ थे। किसान पर अन्य संकट –दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने अपनी पुस्तक ‘बेचारा किसान’ के प्रथम खण्ड में लिखा है – अनेक आफतों के अतिरिक्त जिनका शिकार किसान हमेशा रहता है, वे मुसीबत हैं – 1. सरकारी माल की वसूली। 2. साहूकार की ‘इजरा-डिग्री’ की कार्यवाही। 1. सरकारी माल जिस सख्ती से वसूल किया जाता है उससे किसान भयभीत रहता है। माल की अदायगी न करने के भयंकर परिणामों से डरकर किसान पैसा प्राप्त करने के लिए कहीं तक भी जाता है। यदि उसे कहीं से भी पैसा न मिले तो गल्ला, चारा, पशु, जेवर आदि बेचकर वह उसे चुकाता है। जमीन भी गिरवी रखकर वह सरकारी माल देता है। 2. किसान के खेत में कुछ पैदा होता नहीं, परिवार का गुजारा नहीं हो पाता, साहूकार के कर्जे की अदायगी नहीं होती, ऊपर से कर्जा का मूल्य बढ़ गया है, पहले का एक सौ रुपया अब तीन-चार सौ रुपये के बराबर है। जिस कर्जे को पहले 300 मन गेहूं बेचकर अदा किया जा सकता था, आज वह कर्जा 400 मन गेहूं से कम में न चुकता होगा। इस प्रकार कर्जे के तीन-तीन रुपये अब चार-चार रुपयों के बराबर हो गए। साहूकार डिग्री लेता है और जारी कराता है। अदालतें आंख मींच कर कुर्की और गिरफ्तारी के वारण्ट तुरन्त जारी कर देती हैं। किसान की जो चीजें जाब्ता दिवानी की रूह से कुर्क नहीं हो सकतीं उनको भी अब बड़ी मुश्किल से छोड़ा जाता है। एक विधवा है, उसका घर कुर्क इसलिए कर लिया जाता है क्योंकि वह अपने हाथ से खेती नहीं करती और वह इस प्रकार किसान नहीं गिनी जा सकती, अतः दफा 60 का लाभ नहीं उठा सकती। इसी प्रकार यदि किसी के पास दो मकान हों तो अदालतें कहती हैं कि एक मकान काफी है, अतः दूसरा कुर्क कर लिया जाता है। अगर एक ही मकान है तो यह आधा कुर्क कर लिया जाता है। खानगी सामान, जैसे चक्की, चारपाई, बर्तन, दोहर, चादर, दोतई, दरी, रिजाई आदि भी कुर्क होने से नहीं बचते। खड़ी फसलें भी कुर्क कर ली जाती हैं। देखिये, कितनी आश्चर्य की बात है जो भूमि राज्यों से पहले अस्तित्व में आई, उसका राज्य सरकार द्वारा किराया मांगा जाता है और जो किसान राज्य सरकार से हजारों लाखों वर्ष पहले अस्तित्व में आया उसको राज्य का किरायेदार बताया जाता है। जिस भूमि को हमारे बुजुर्गों ने अपनी हाथ की शक्ति से अधिकृत किया उसको सरकार की मल्कियत बताया जाता है। राजा और राज्य, बादशाह और बादशाहत, हाकिम और हकूमत, ये तो भूमि और किसान के अस्तित्व में आने के बहुत बाद अस्तित्व में आए हैं। हिन्दू परम्परा के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के लाखों वर्ष बाद, चौथे मनु के समय में राज्य की सत्ता अस्तित्व में आई1। इसलिए यह कहना कि किसान को भूमि के स्वामित्व का अधिकार राज्य सरकार द्वारा दिया गया है, बिल्कुल गलत है2। किसानों को कहा जाता है कि यदि किराये से छुटकारा पाना चाहते हो तो भूमि को छोड़ दो। किसान कहते हैं कि भूमि हमारी है, हमारे बाप-दादा की है, न यह हमें किसी राजा ने दी है, न किसी बादशाह ने और न ही अंग्रेज सरकार ने। कर लगाने वाले आम सिद्धान्तों से हटकर हम पर जो भारी बोझ डाला गया है, वह अन्याय है। हमें अन्याय से बचाया जाए। परन्तु किसानों की सुनवाई नहीं होती। अकृषक भाई, दुकानदार आदि भी सरकार का इस विषय में समर्थन करते 1. इससे पहले (राज्य सरकार बनने से पहले) सब काम स्थानीय पंचायत द्वारा होते थे। 2. एक बार विधान सभा में डॉ० गोकुलचन्द नारंग ने भी यही बात कही थी कि भूमि तो सरकार की है, किसान तो उसका किरायेदार है। उसका उत्तर दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम जी ने उपर्युक्त ही दिया था जिसको सुनकर सभी चकित रह गये। हैं। वे समझते हैं कि किसानों का वजन हल्का किया जाएगा तो बचा हुआ बोझ अकृषकों पर आ जाएगा। इसलिए वे अपने कन्धों को हल्का रखने के लिए सरकार की हां में हां मिलाते हैं। इस विषय में कसूर सारे का सारा किसानों का है। वे संगठनरहित हैं, कमजोर हैं। राजनीति की दुनिया में कमजोर होना अभिशाप है। कहावत है – “हीणे की जोरू सब की भाभी” अर्थात् निर्बल व्यक्ति की पत्नी को हर आदमी अपनी भाभी समझता है।“ऐ किसान! तू शेर होते हुए भी अपने को गीदड़ समझता है। अपने असली गुणों और सिफत को न भूल और अपनी वास्तविकता से दूर न हो। जो वास्तव में है तू वही बन जा, फिर तुझे किसी से डरने की आवश्यकता नहीं। तू एक सोई हुई शक्ति है, जाग, आंख खोल, उठकर बैठ और देख कि तुझे दूसरों से कितने खतरे हैं।” किसानों पर कर्जे का भार तथा साहूकारों द्वारा उनकी लुटाई –पंजाब में कर्जे की स्थिति भयानक और खतरनाक हो चुकी थी। सन् 1929 में पंजाब बैंकिंग इन्क्वारी कमेटी ने बताया कि सन् 1921 में कृषि ऋण 90 करोड़ था जो 1929 में 135 करोड़ हो गया और 1932 में 200 करोड़ हो गया था। 200 करोड़ रु० पर 1½ रु० सैंकड़ा प्रति मास की दर पर सूद एक वर्ष में 36 करोड़ रु० हो जाता है। वार्षिक लैंड रेवेन्यू (मालगुजारी) 4 करोड़ रु० है और आबयाना 6½ करोड़ है, ये दोनों 1936-37 में कुल 10 करोड़ 44 लाख (1044 लाख) थे। यानी अकेला सूद बोझ लैंड रेवेन्यू से 9 गुणा और आबयाने से 5½ गुणा था। और दोनों से 3½ गुणा था। इसी कमेटी ने बताया कि 5 जिलों में 1407 तराजुओं में 69% गलत (कानी डांडी) मिलीं और 5907 बाटों में 29% गलत पाए। 2777 बाटों में 1164 (45%) गलत, 2½ सेर वाले बाट 75% गलत, 763 तखड़ियों में 65% गलत मिलीं। दोहरे बाट और तराजू भी पकड़े गये। साहूकार गलत बाट और गलत कानी डांडी वाली तराजू रखते थे। किसानों से लेने की चीजों के लिये भारी वजन के बाट और अपनी दुकान से जनता को चीजें देने वाले हल्के बाट रखते थे। किसान की पैदावार की कीमतें 1918 की निस्बत 1931-32 में काफी गिरी जैसे गुड़, कपास, गेहूं, सरसों और बाजरे की कीमत क्रमशः 56%, 65%, 65%, 56% और 71% घटीं। इस तरह जो कर्जा 1918-19 में 100 मन कपास या 30 मन गेहूं देकर उतर सकता था वह 1931-32 में 300 मन कपास या 86 मन गेहूं देकर उतरेगा। किसानों की कुल आय 50 करोड़ रु० थी। 12½ करोड़ भूमि लगान और सिंचाई रेट देकर 37½ करोड़ बची। यदि 2 आने प्रति आदमी प्रतिदिन अति आवश्यक चीजों के लिए चाहिएं तो भी कम से कम 85.77 करोड़ चाहिएं और बचे कुल 37½ करोड़ यानी 48.27 करोड़ कम। कर्जदारों में 70 लाख हिन्दुओं में 90% यानी 63 लाख हिन्दू जमींदार कर्जदार थे। हिन्दू, ईसाई, सिक्ख, मुसलमान सब कर्जे में फंसे पड़े थे। 40,000 साहूकारों में महाजन, खत्री, अरोड़े तो थे ही, जाट, ब्राह्मण, सैनी, राजपूत, पठान और खोजे आदि व्यापारी भी थे। किसान को लगान तो हर समय पर हर हालत में पूरा देना ही पड़ता है, परन्तु साहूकार अपने ढ़ंग से अपनी आसामी को चूसता रहता है। कपास, गुड़, सरसों, गेहूं और अन्य कृषि पैदावार उसकी दुकान में चली जाती है। चारा, ईंधन, दूध, साग व निजी सेवा मुफ्त लेता है। सदा जोंक की तरह खून चूसने व लूटने में लगा रहता है। जब किसान अपना अन्न पैर (खलिहान) में निकाल लेता है तो साहूकार वहीं से सारे को तोलकर ले जाता है। बाजार भाव से कम भाव लगाता है और भारी बाटों और कानी तराजू से तोलता है। किसान की बजाय स्वयं तोलता है। वह एक धड़ी (5 सेर) में एक पाव (4 छटांक) अधिक तोलता है। ऐसे तोलने वाले को अन्य साहूकार चतुर कहते हैं। इस तरह से वह सौ मन अनाज की बजाय 105 मन तोलता है और कीमत केवल 100 मन की ही लगाता है। इस अनाज को किसान की बैलगाड़ी में अपनी दुकान तक बिना किराए ले जाता है और उसी से उतरवाता है। अगले ही दिन उस अन्न को अपनी दुकान से उसी किसान को अधिक भाव लगाकर और हल्के बाटों से तोलकर देना शुरु कर देता है और इस तरह एक धड़ी में एक पाव कम कर देता है। मगर वाह रे किसान! तेरी बोलने तक की भी हिम्मत नहीं। जो कुछ साहूकार करता है उसे चुपचाप मान लेता है। साहूकार किसी त्यौहार या सगाई-विवाह के अवसर पर आसामी के घर कुर्की ले जाता है और उसके रिश्तेदारों के सामने उसके पशु, घर का सामान, अनाज आदि कुर्क कराता है। वह अपने साथ सरकारी अमीन या कुर्क अमीन (baillif) को साथ ले जाता है और धमकी देने का दोष लगाकर कर्जदार पर फौजदारी का मुकदमा तक चलाता है। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम चौधरी पीरबख्श के दादा क्या करते थे?चौधरी पीरबख्श एक ऐसे निम्न मध्यवर्ग के व्यक्ति हैं जिनके यहाँ पिछली दो पुश्तों से नौकरी पेशा होता आया है तथा मामूली पढ़ाई का भी सिलसिला रहा है । उनके दादा चुंगी के महक में दारोगा थे और पिता इलाहीबख्श डाकखाने में बाबू ।
चौधरी पीरबख्श के बाद क्या करते थे?कहानी संग्रह में संकलित है। पर्दा का यह उद्देश्य है-परिस्थितियों में जकडे एक निर्धन की परम्परागत मान- सम्मान तथा झूठी प्रतिष्ठा को जर्जर परदे के पीछे छिपाने की छटपटाहट का चित्रण करना। चौधरी पीरबख्श निर्धन होकर भी अपनी मर्यादा की रक्षा करना चाहते हैं ।
पीरबख्श के कितने बच्चे थे?This is Expert Verified Answer
इस कहानी में चौधरी पीरबक्श और उनके दो लड़के और आगे उनके परिवार की कहानी है।
परदा कहानी का मुख्य पात्र कौन है?१) राधेलाल : राधेलाल कहानी के मुख्य पात्र है। उनकी जीवन शैली नौकरी पेशा व्यक्ति की तरह है।
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