एक समाज में जिसे सामाजिक समस्या माना जाता है, आवश्यक नहीं है कि उसे दूसरे समाज में उसी प्रकार समस्या माना जाए। यह प्रतिबोधन समाज में प्रतिमानों और मूल्यों पर आधारित होता है। कुछ समाजों में तलाक एक सामाजिक समस्या होती है, दूसरे समाजों में वह समस्या नहीं होती। इसी प्रकार से मद्यपान को भी ले सकते हैं। एक विस्तृत और विजातीय समाज में, इस संबंध में विभिन्न मत पाए जाते हैं। सभी समाजों में कुछ इस प्रकार के व्यवहार होते हैं, जिन्हें विचलनकारी या हानिकारक माना जाता है जैसे हत्या, बलात्कार, मानसिक रूग्णता। इन स्थितियों में कोई मूल्य-संघर्ष नहीं होता। हालांकि, भिन्न-भिन्न समाजों में इन समस्याओं के समाधान के रास्ते अलग-अलग होते हैं। Show सामाजिक समस्याओं के अवधारणीकरण में बहुत से मुद्दे सम्मिलित होते हैं जिनका वर्णन निम्नवत है: कोष्ठक 1.2 जनसाधारण का प्रतिबोधन जनसाधारण का प्रतिबोधन इस बात पर निर्भर करता है कि कोई समस्या कैसे दृष्टिगोचर होती है। अपराध की पहचान आसानी से होती है और लोग इसका समस्या के रूप में प्रतिबोधन करते हैं। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया गया है, बहुत सी समस्याएँ अस्तित्व में तो हो सकती हैं लेकिन उनका प्रतिबोधन नहीं होता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो किसी विशेष परिस्थिति से लोगों को अवगत कराने की चेष्टा करते हैं। सामाजिक आंदोलन इसी प्रकार प्रारंभ होते हैं। बहुत से समाजों में महिलाएँ अनेकों निर्योग्यताओं, जैसे – संपत्ति पर उनका स्वामित्व न होना, विधवा पुनर्विवाह पर रोक, तलाक का निषेध, असमान वेतन आदि से पीड़ित होती हैं। इन परिस्थितियों को कुछ समाजों ने केवल कुछ दशकों पूर्व ही समस्या के रूप में माना। महिलाओं का मुक्ति आंदोलन उनकी दशा के प्रति लोगों को जागरूक बनाने की चेष्टा कर रहा है। इस तरह कहा जा सकता है कि जनसाधारण में सार्थक संख्या में लोगों का होना आवश्यक है जो एक विशेष परिस्थिति को समस्यामुलक माने। सामाजिक आदर्श और यथार्थ सामाजिक मूल्य गत्यात्मक हैं – वे परिवर्तित होते रहते हैं। कुछ वर्षों पूर्व जिसे एक समस्या माना जाता रहा, अब संभव है कि अवांछनीय न माना जाए। कुछ वर्षों पूर्व, लड़कों और लड़कियों का विद्यालय और महाविद्यालय में साथ-साथ पढ़ना अधिकांश लोगों द्वारा अनुमोदित नहीं था। अब इसका बहुत कम विरोध होता है। कुछ समय पूर्व तक प्रदूषण – कल-कारखानों के धुएँ, कूड़ा-करकट नदियों में डालना, वनों को काटना आदि से लोग बहुत चिंतित नहीं होते थे। यद्यपि, अब पर्यावरण संरक्षण के लिए जागरूकता तथा प्रबल इच्छा है। असंतुलित पारिस्थितिकी के यथार्थ और संतुलित तथा लाभप्रद पर्यावरण के आदर्श में अंतराल दिखाई पड़ रहा है। सार्थक संख्या द्वारा मान्यता परिभाषाएँ निसबेट का मानना है कि सामाजिक समस्याएं व्यवहार का ऐसा प्रतिरूप है जो समाज के बड़े वर्ग द्वारा सामाजिक प्रतिमानों के विरुद्ध माना जाता है (आर.के. मर्टन एंड राबर्ट निसबेट (संपा.) (1971)। मर्टन का विचार है कि सामाजिक समस्याएँ स्वीकृत सामाजिक आदर्शों से विचलन हैं और वे दुष्प्रकार्यात्मक होती हैं। दूसरी ओर स्पेक्टर और किट्सस ने सामाजिक समस्याओं को परिभाषित करते हुए कहा है कि यह समूहों की क्रियाकला है जो संगठनों, संस्थाओं और अभिकरणों की उन दशाओं का विरोध करते हैं, जिन्हें वे शिकायत योग्य मानते हैं। इन परिभाषाओं से दो स्पष्ट परिप्रेक्ष्य प्रकट होते हैं: सामाजिक समस्याओं की विशेषताएँ प) एक सामाजिक समस्या बहुत से कारकों से मिलकर बनती है पप) सामाजिक समस्याएँ अंतःसंबंधित हैं पपप) सामाजिक समस्याएँ व्यक्तियों को विभिन्न तरीकों से प्रभावित करती हैं पअ) सामाजिक समस्याएँ सभी लोगों को प्रभावित करती हैं नीथ हेनरी (1978) का यह मानना उचित ही है कि सामाजिक समस्याएं समाजशास्त्रीय प्रक्रिया विचारधारा की दृश्टि से निरूपति तथा विभिन्न सैद्धांतिक दृष्टिकोणों की विषयवस्तु हैं। सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक नीति सामाजिक आंदोलन सरकार पर यह दबाव रखते हैं कि वह सामाजिक समस्याओं के नियंत्रण के लिए सुधारवादी कार्यक्रमों को तैयार करे। इस प्रसंग में हमें यह ध्यान रखना होगा कि मात्र नीति को स्वीकारने और उसकी घोषणा करने से सामाजिक समस्याओं का समाधन नहीं होता है। शारदा एक्ट बाल विवाह को रोकने के लिए बनाया गया था लेकिन वह बाल-विवाह को पूरी तरह से रोकने में सफल नहीं रहा। अस्पृश्यता के विरुद्ध सामाजिक विधानों को पांचवें दशक के मध्य में पारित किया गया था लेकिन वह आज तक हमारे समाज से अस्पृश्यता संबंधी व्यवहार का पूर्ण रूप से उन्मूलन नहीं कर सका। संवैधानिक प्रावधानों के होते हुए भी विद्यालय जाने योग्य सभी बालक विद्यालय नहीं जा पाते हैं। वास्तव में, सुदृढ़ सामाजिक आंदोलन, जन-जागरूकता और आधिकारिक नीतियाँ – इन तीनों को आपस में मिलकर सामाजिक समस्याओं के विरुद्ध कार्य करना चाहिए। इस प्रसंग में हमें यह ध्यान रखना होगा कि आधुनिक समाज में राज्य एक अत्यधिक शक्तिशाली और महत्वपूर्ण संस्था है। सामाजिक समस्याओं के विरुद्ध संघर्ष में इसकी बहुत अहम भूमिका है। लेकिन राज्य के हस्तक्षेप की अपनी सीमाएँ हैं और यह अधिक प्रभावी ढंग से तभी कारगर हो सकती हैं जब राज्य के कार्यक्रमों और स्वीकृत नीतियों को जन-समर्थन प्राप्त हो। नीति, विचारधारा और कल्याण संपूर्ण विश्व में राज्य, विचारधाराओं पर ध्यान न देकर, कल्याणकारी नीतियाँ स्वीकार कर रहे हैं जैसे कि बाल-कल्याण, युवा-कल्याण, महिला-कल्याण, वृद्ध-कल्याण, कमजोर वर्गों का कल्याण, रोजगार संबंधी नीतियाँ, सुरक्षा, स्वास्थ्य कार्यक्रम, शिक्षा, पारिस्थितिकी तथा ग्रामीण-स्तरीय विकास। इन नीतियों ने बहुत-सी सामाजिक समस्याओं के जोखिमों को रोकने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। सामाजिक समस्याओं से संबंधित नीतियाँ, विचारधारा पर आधारित होती हैं। पूँजीवादी दृष्टिकोण यह होगा कि खुला बाजार और मुक्त अर्थव्यवस्था समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करेगी। व्यक्ति अपने कल्याण की देखभाल कर सकते हैं। समाजवादी यह अनुभव करते हैं कि राज्य के हस्तक्षेप द्वारा सामाजिक संरचना में परिवर्तन लाया जा सकता है। इसीलिए एक सरकार अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के आधार पर नीतियों को प्रतिपादित करती है। सभी सामाजिक समस्याओं से संबंधित कोई एक व्यापक नीति नहीं हो सकती है। प्रत्येक समस्या को अलग-अलग सुलझाना होगा। अक्सर विशेष समस्याओं से संबंधित कानून पारित किए जाते हैं। उदाहरणार्थ – मादक द्रव्य-व्यसन, दहेज, मद्य निषेध, बाल-मजदूर आदि। यह स्पष्ट होगा कि इनमें प्रत्येक से एक विशेष प्रकार का व्यवहार किया जाए। बोध प्रश्न 3 बोध प्रश्न 3 पपद्ध प्रायः प्रत्येक समाज में ‘‘सामान्य‘‘ व्यवहार के स्वीकृत विचार होते हैं। जब कभी कोई स्वीकृत प्रतिमानों से अलग हटता है और भिन्न प्रकार से व्यवहार करता है तो उसका वह व्यवहार असामान्य या विचलित व्यवहार माना जाता है। विचलित व्यवहार के अपराध, बाल-अपराध, मानसिक असंतुलन, आदि उदाहरण हैं। पपप) क) कुछ व्यक्तियों में जागरूकता पअ) सामाजिक नीति सरकार का वह दृष्टिकोण है जो वह किसी विशेष परिस्थिति के प्रति रखती है और वह तद्नरूप उस परिस्थिति का मुकाबला करती है। हमारे समाज में क्या क्या समस्याएँ है?भारतीय समाज की प्रमुख समस्याओं में जनसंख्या मे़ बढ़ौत्तरी, निर्धनता, बेरोजगारी, असमानता, अशिक्षा, गरीबी, आतंकवाद, घुसपैठ, बाल श्रमिक, श्रमिक असंतोष, छात्र असंतोष, भ्रष्टाचार, नषाखोरी, जानलेवा बीमारियां, दहेज प्रथा, बाल विवाह, भ्रूण बालिका हत्या, विवाह-विच्छेद की समस्या, बाल अपराध, मद्यपान, जातिवाद, अस्पृश्यता की समस्या ...
सामाजिक समस्या के कारण क्या है?सामाजिक समस्या का प्रमुख कारण आर्थिक होता है। बेरोजगारी न केवल व्यक्तिगत समस्या है वरन् यह आर्थिक समस्या भी है। पारसन्स के अनुसार मनुष्य का भौतिक साधनों के साथ अधूरा समायोजन ही मनुष्य की समस्याओं के लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी है। इलियट एवं मैरिल ने सामाजिक विघटन को सामाजिक समस्याओं का प्रमुख कारण माना है।
सामाजिक समस्या का क्या अर्थ है?सामाजिक समस्या का अर्थ एवं परिभाषाएँ
समस्या का अभिप्राय ऐसे अवांछनीय एवं अनुचित व्यवहारों अथवा प्रचलनों से है, जो सामाजिक व्यवस्था में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न कर देते हैं। अत: सामाजिक संगठन, सामाजिक संरचना या मानवीय सम्बन्धों में जो समस्याएँ उत्पन्न होती हैं उन्हें हम सामाजिक समस्याएँ कहते हैं।
कौन सामाजिक समस्या की विशेषता है ?)?सामाजिक समस्याओं को समाज के अनेक सदस्यों द्वारा निंदनीय आपत्तिजनक माना जाता है। अर्थात समाज यह तय करता है कि कौन सी गतिविधियाँ सामाजिक समस्या के रूप में हैं और कौन सी नहीं। 2. सामाजिक समस्याओं में परिवर्तन आ जाता है यदि उनसे जुड़े व्यवहारों के संरूपों की व्याख्या अलग तरह से की जाए।
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