हनुमान के मार्ग में कौन कौन सी राक्षस नहीं आई? - hanumaan ke maarg mein kaun kaun see raakshas nahin aaee?

वाल्मीकि रामायण तृतीयः सर्गः श्लोक १ से 50, लङ्का की अधिष्ठात्री देवी, प्रकार समृद्धशालिनी और आकाशरूपर्शिनी अलकापूरी की तरह उस लङ्कापुरी को देख, हनुमान जो बहुत प्रसन्न हुए


स लम्बशिखरे लम्बे लम्बतोयदसन्निभे। सत्त्वमास्थाय मेधावी हनुमान्मारुतात्मजः ॥ १॥ 
निशि लङ्का महासत्त्वो विवेश कपिकुञ्जरः । रम्यकाननतोयाढ्यां पुरी रावणपालिताम् ॥ २॥ 

बुद्धिमान् तथा महाबलवान् कपिश्रेष्ठ पवननन्दन हनुमान जी ने धैर्य धारण पूर्वक महामेघ की तरह लम्ब नामक पर्वत के उच्च शिखर पर स्थित, लङ्कापुरी में रात के समय प्रवेश किया। वह रावण की लङ्कापुरी उपवनों तथा स्वादिष्ट जल वाले कूप तड़ाग बावली से पूर्ण थी॥ १॥ ६ ॥ . 

शारदाम्बुधरप्रख्यर्भवनैरुपशोभिताम् । सागरोपमनिषां सागरानिलसेविताम् ॥ ३॥ 

वह शरत्कालीन बादलों की तरह सफेद भवनों से सुशोभित थी। उसमें सदा समुद्र का गर्जन सुन पड़ता था और वहाँ समुद्री पवन सदा बहा करता था ॥३॥ 

हनुमान के मार्ग में कौन कौन सी राक्षस नहीं आई? - hanumaan ke maarg mein kaun kaun see raakshas nahin aaee?


सुपुष्टबलसंगुप्तां यथैव विटपावतीम् । चारुतोरणनियू हां पाण्डुरद्वारतोरणाम् ॥ ४॥ 

विटपावती नगरी की तरह लङ्कापुरी की भी रखवाली के लिये परम हृष्ट पुष्ट राक्षसी सेना पुरी के चारों ओर नियत थो उसके तोरणद्वारों पर मदमत्त हाथी झूमा करते थे । सफेद रंग के उसके तोरणद्वार थे ॥४॥ 

भुजगाचरितां गुप्तां शुभां भोगवतीमिव ।। तां सविद्युद्घनाकीर्णा ज्योतिर्गिनिषेविताम् ॥ ५ ॥ 

वह सब ओर से सो द्वारा रक्षित सणे की भोगवतीपुरी की तरह सुरक्षित थी । वह दामिनी युक्त वादलों से घिरी और ताराओं से शोभित थी॥५॥ 

चण्डमारुतनिर्हादां यथा चाप्यमरावतीम् । शातकुम्भेन महता प्राकारेणाभिसंवृताम् ॥६॥ 

इन्द्र की अमरावती की तरह लङ्कापुरी भी प्रचण्ड वायु से नादित हुआ करती थी। उसके चारों ओर बड़ा ऊँचा और लंबा चौड़ा सेाने की दीवारों का परकोटा खिंचा हुआ था ॥६॥ 

किङ्किणीजालघोषाभिः पताकाभिरलंकृताम् । आसाद्य सहसा हृष्टः प्राकारमभिपेदिवान् ॥ ७ ॥ 

उसमें छोटी छोटी घंटियों के जाल जगह जगह बने हुए थे, जिनकी घंटियां सदा बजा करती थीं । जगह जगह पताकाएँ फहरा रही थीं। उस लङ्कापुरी के परकोटे की दीवाल पर हनुमान जी प्रसन्नता पूर्वक सहसा कूद कर चढ़ गये ॥ ७॥ 

विस्मयाविष्टहृदयः पुरीमालोक्य सर्वतः । जाम्बूनदमयैरिर्वैडूर्यकृतवेदिकैः ॥ ८॥ 

उस परकोटे पर से उन्होंने उस पुरी को चारों ओर से देखा और देख कर वे विस्मित हुए। क्योंकि उन्होंने देखा कि, उस पुरी के भवनों के सब दरवाजे सोने के थे और पन्ने के चबूतरे बने हुए थे ॥ ८॥ 

वज्रस्फटिकमुक्ताभिर्मणिकुट्टिमभूषितैः । तप्तहाटकनियू है राजतामलपाण्डुरैः ॥९॥ 

उस पुरी के भवनों की दीवाले हीरा स्फटिक माती तथा अन्य मणियों की बनी हुई थीं। उनका ऊपरी भाग सुवर्ण और चाँदी का बना हुआ था ॥६॥ 

वैडूर्यतलसोपानैः स्फाटिकान्तरपांसुभिः । चारुसञ्जवनोपेतैः खमिवोत्पतितैः शुभैः ॥१०॥ 

भवनों में जाने के लिए जो सीढ़ियाँ थी, वे पन्नों की थी और द्वारों के भीतर का समस्त फर्श भी पन्नों से जड़ कर बनाया गया था। उन द्वारों के ऊपर जा बैठके बने थे, वे बहुत ही मनोहर थे। वे इतने ऊँचे थे कि, जान पड़ता था कि, वे अकाश से बातें कर रहे 

क्रौञ्चबर्हिणसंघुष्टै राजहंसनिषेवितैः । तूर्याभरणनिर्घोषः सर्वतः प्रतिनादिताम् ॥ ११ ॥ 

भवनों के द्वारों पर क्रौंच, भार आदि पक्षी सुहावनी बोलियाँ बोल रहे थे । राजहंस अलग ही वहाँ को शोभा बढ़ा रहे थे । सर्वत्र नगाड़ों और आभूषणों के शब्द सुन पड़ते थे ॥ ११ ॥ 

वस्त्रोकसारापतिमां *मीक्ष्य नगरी ततः । खिमिवोत्पतितां लङ्कां जहषे हनुमान्कपिः॥१२॥ 

इस प्रकार समृद्धशालिनी और आकाशरूपर्शिनी अलकापूरी की तरह उस लङ्कापुरी को देख, हनुमान जो बहुत प्रसन्न हुए ॥ १२॥  रावण की उस सुन्दर ऋद्धमती लङ्कापुरी को देख, बलवान हनुमान जी अपने मन में कहने लगे ॥ १३ ॥ 

नेयमन्येन नगरी शक्या धर्षयितं बलात । रक्षिता रावणबलैरुद्यतायुधधारिभिः ॥ १४ ॥ 

दूसरे किसी की तो सामर्थ्य नहीं, जो इस लङ्का को जीत सके। क्योंकि रावण के सैनिक हाथों में प्रायुध ले इस नगरी की रक्षा करने में सदा तत्पर रहते हैं ॥ १४॥ 

कुमुदाङ्गदयोऽपि सुषेणस्य महाकपः। प्रसिद्धेयं भवेद्भूमिमन्दद्विविदयोरपि ॥ १५ ॥ 
विवस्वतस्तनूजस्य हरेश्च कुशपर्वणः । ऋक्षस्य केतुमालस्य मम चैव गतिभवेत् ॥ १६ ॥ 

परन्तु कुमुद, अंगद, महाकपि सुषेण, मैन्द, द्विविद, सूर्यपुत्र सुग्रीव और कुश जैसे लोमधारी रीछों में श्रेष्ठ जाम्बवान और मैं बस ये ही लोग यहां आ सकते हैं ॥ १५ ॥ १६॥ ॥ 

इतना विचार करके हनुमान जी ने भगवान श्री राम और लक्ष्मण जी के सौर्य को देखा तब हनुमान जी अत्यधिक आनंदित हुए॥ १७॥ 

लङ्का, मणि रूपी वस्त्रों से और गोशाला अथवा हयशाला रूपी कर्णभूषणों से और श्रायुधों के गृह रूपी स्तनों से, अलंकृत स्त्री की तरह, जान पड़तोथी ॥१८॥ 

तां नष्टतिमिरां दीपैर्भास्वरैश्च महागृहैः । नगरी राक्ष सेन्द्रस्य ददर्श स महाकपिः ॥ १९ ॥ 

अनेक प्रकार के रत्नों से प्रकाशित भवनों में जो दीपक जल रहे थे, उनसे वहाँ पर अंधकार नाम मात्र को भी नहीं था। ऐसी राक्षसराज रावण की लङ्कापुरी को, महाकपि हनुमान जी ने देखा ॥ १९॥ 

अथ सा हरिशार्दूलं प्रविशन्तं महाबलम् । नगरी स्वेन रूपेण ददर्श पवनात्मजम् ॥ २० ॥ 

इतने में कपिश्रेष्ठ महाबली हनुमान जी को लङ्कापुरी में प्रवेश करते समय, उस पुरी की अधिष्ठात्री देवी ने देख लिया ॥ २० ॥ 

सा तं हरिवरं दृष्ट्वा लङ्का वै कामरूपिणी । स्थान खयमेवोत्थिता तत्र विकृताननदर्शना ॥ २१ ॥ 

कपिश्रेष्ठ हनुमान जी को देख, वह महाविकराल मुखवाली एवं कामरूपिणी लङ्का की अधिष्ठात्री देवी स्वयं हो उठ धाई ॥२१॥ 

पुरस्तात्तस्य वीरस्य वायुसूनोरतिष्ठत । मुश्चमाना महानादमब्रवीत्पवनात्मजम् ॥ २२ ॥ 

वह देवी, हनुमान जी की राह रोक उनके सामने जा खड़ी हुई और भयङ्कर नाद कर पवननन्दन से बोली ॥ २२॥ 

कस्त्वं केन च कार्येण इह प्राप्तो वनालय । कथयस्वेह यत्तत्त्वं यावत्प्राणान्धरिष्यसि ॥ २३ ॥ 

अरे वनवासी बंदर ! तू कौन है ? और यहां क्यों श्राया है यदि तुझे अपने प्राण प्यारे हो तो ठीक ठीक बतला ॥ २३ ॥ 

 वाल्मीकि रामायण तृतीयः सर्गः श्लोक २४ से ५१

न शक्या खल्वियं लङ्का प्रवेष्टुं वानर त्वया । रक्षिता रावणवलैरभिगुप्ता समन्ततः ॥ २४॥ 

हे वानर ! निश्चय ही तुझमें यह सामर्थ्य नहीं कि, तू लङ्का में घुस सके। क्योंकि रावण की सेना इसकी चारों ओर से रखवाली किया करती है ॥२४॥ 

अथ तामब्रवीद्वीरो हनुमानग्रतः स्थिताम् । कथयिष्यामि ते तत्त्वं यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ २५॥ 

सामने खड़ी हुई उस लडा से वीर हनुमान जी ने कहा-तू मुझसे जो कुछ पूछ रही है, सेा मैं सब ठीक ठीक बतलाऊँगा ॥२५॥ 

का त्वं विरूपनयना पुरद्वारेऽवतिष्ठसि । किमर्थं चापि मां रुद्धा निर्भयसि दारुणा ॥२६॥ 

परन्तु पहिले तू तो यह बतला कि) तू कौन है, जो इस नगरद्वार पर विकराल नेत्र किये खड़ी है और क्यों मेरा मार्ग रोक कर मुझे दपट रही है ॥ २६ ॥ हनुमान जी के ये वचन सुन, वह कामरूपिणी लङ्का की अधि ष्ठात्री देवी, क्रुद्ध हो हनुमान जी से कठोर वचन बोली ॥ २७ ॥ मैं महाबलवान राक्षसराज रावण की आज्ञानुवर्तिनी दुर्धषा लङ्का नगरी की अधिष्ठानो देवी हूँ और इस पुरो को मैं रक्षा किया करती हूँ ॥ २८ ॥ 

न शक्यं मामवज्ञाय प्रवेष्टुं नगरी त्वया । अद्य प्राणैः परित्यक्तः स्वप्स्यसे निहतो मया ॥ २९ ॥ 

मेरी अवहेला कर तू इस नगरी के भीतर नहीं घुस सकता। यदि मेरी अवहेला को तो याद रखना ,तू मुझसे मारा जाकर, अभी भूमि पर पड़ा हुश्रा देख पड़ेगा ।। २६ ॥ 

अहं हि नगरी लङ्का खयमेव प्लवङ्गम । सर्वतः परिरक्षामि ह्येतत्ते कथितं मया ॥ ३० ॥ 

हे वानर ! मैं स्वयं लङ्का हूँ और मैं चारों ओर से इसकी रख वाली किया करती हूँ । इसोसे मैंने तुझको रोका है ।। ३०॥ 

लङ्काया वचनं श्रुत्वा हनूमान्मारुतात्मजः । यत्नवान्स इरिश्रेष्ठः स्थितः शैल इवापरः ॥ ३१ ॥ 

बुद्धिमान और उपयोगी पवननन्दन हनुमान जी लङ्का की ये बातें सुन, उसे परास्त करने के लिये उसके सामने पर्वत की तरह अचल भाव से खड़े हो गये ।। ३१ ॥ 

स तां स्त्रीरूपविकृतां दृष्ट्वा वानरपुङ्गवः । आवभाषेऽथ मेधावी सत्त्ववान्प्लवगर्षभः ॥ ३२ ॥ 

वानरश्रेष्ठ, बुद्धिमान एवं बलवान हनुमान जी उस विकटाकार. रूप-धारिणी लङ्का देवी से बाले ॥ ३२ ॥

द्रक्ष्यामि नगरी लङ्का साप्राकारतोरणाम् । तदर्थमिह सम्प्राप्तः परं कौतूहलं हि मे ॥ ३३ ॥ 
वनान्युपवनानीह लङ्कायाः काननानि च । सर्वतो गृहमुख्यानि द्रष्टुमागमनं हि मे ॥ ३४ ॥ 

हे लङ्के ! मैं इस नगरी की श्रटारियाँ, प्राकार, तोरण, वन, उप वन, तथा प्रधान प्रधान भवनों को देखना चाहता हूँ और इसीलिये मैं यहां पाया भी हूँ। मुझे लङ्कापुरी को देखने का बड़ा कुतूहल है॥३३ ।। ३४।। 

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा लङ्का सा कामरूपिणी । भूय एव पुनर्वाक्यं बभाषे परुषाक्षरम् ॥ ३५ ॥ 

उस कामरूपिणी लङ्कादेवी ने हनुमान जी के ये वचन सुन, फिर हनुमान जी से कठोर वचन कहे ।। ३५ ।। 

मामनिर्जित्य दुर्बुद्धे राक्षसेश्वरपालिताम् । न शक्यमद्य ते द्रष्टुं पुरीयं वानराधम ॥ ३६ ॥ 

हे दुर्बुद्ध ! हे वानराधम ! इस राक्षसेश्वर रावण द्वारा रक्षित लङ्कापुरी को, मुझे हराये बिना अब तू नहीं देख सकता ॥ ३६॥ 

ततः स हरिशार्दूलस्तामुवाच निशाचरीम् । दृष्ट्वा पुरीमिमां भद्रे पुनर्यास्ये यथागतम् ॥ ३७ ।। 

तदनन्तर कपिश्रेष्ठ हनुमान जी ने उस निशाचरी से कहा है भद्रे! में एक बार इस लकापुरी को देख, जहाँ से आया हूँ, वहीं लौट कर चला जाऊँगा ॥ ३७॥  

ततः कृत्वा महानादं सा वै लङ्का भयानकम् । तलेन वानरश्रेष्ठं ताडयामास वेगिता ॥ ३८॥ 

तब उस लङ्कादेवी ने बड़ी ज़ोर से भयङ्कर नाद कर, हनुमान जी के कसकर एक थप्पड़ मारा ॥ ३८ ॥ म ततः स 

कपिशार्दूलो लङ्कया ताडितो भृशम् । अब ननाद सुमहानादं वीर्यवान्पवनात्मजः ॥ ३९ ॥ 

लङ्कादेवी के हाथ से ज़ोर का थप्पड़ खा, बलवान पवनन्दन ने महानाद किया । ३६ ।। 

ततः संवर्तयामास वामहस्तस्य सोऽङगुलीः । मुष्टिनाभिजघानैनां हनूमान्क्रोधमूर्छितः ॥ ४०॥ 

और बाये हाथ की अंगुलियाँ मोड़ और मुट्ठी बाँध हनुमान जी ने क्रुद्ध हो, लङ्का के एक चूंसा मारा ॥ ४० ॥ 

स्त्री चेति मन्यमानेन नातिक्रोधः स्वयं कृतः । सा तु तेन प्रहारेण विद्व लागी निशाचरी ॥ ४१ ॥ 
पपात सहसा भूमौ विकृताननदर्शना । ततस्तु हनुमान्प्राज्ञस्तां दृष्ट्वा विनिपातितान् ॥ ४२ ॥ 

तिस पर भी लङ्का को स्त्री समझ हनुमान जी ने बहुत क्रोध नहीं किया था, किन्तु वह राक्षसी लङ्का उतने ही प्रहार से विकल और लोटपोट हो जमीन पर गिर पड़ी और उसका मुख और भी अधिक विकराल हो गया । उसको जमीन पर छटपटाते देख, बुद्धि मान एवं तेजस्वी हनुमान जी को ।। ४१ ॥ ४२ ।। 

कृपां चकार तेजस्वी अन्यमानः स्त्रियं तु ताम् । ततो वै भृशमुद्विग्ना लङ्का सा गद्गदाक्षरम् ।। ४३॥ 
उवाच गर्वितं वाक्यं हनुमन्तं प्लवङ्गमम् । म का प्रसीद सुमहाबाहो त्रायस्व हरिसत्तम ॥४४॥ 

उसे स्त्री समझ उस पर बड़ी दया आयी। तदनन्तर अत्यन्त विकल वह लङ्कादेवी, गद्गद् वाणी से अभिमान रहित हो कपिवर हनुमान जी से बालो । हे! कपिश्रेष्ठ महाबाहो! तुम मेरे ऊपर प्रसन्न हो और मुझे बचायो ।। ४३ ॥४४॥ 

समये सौम्य तिष्ठन्ति सत्त्ववन्तो महाबलाः । अहं तु नगरी लङ्का स्वयमेव प्लवङ्गम ॥ ४५ ॥ 

क्योंकि जो धैर्यवान् और महाबली पुरुष होते हैं, वे स्त्री का वध नहीं करते। हे वानर ! मैं हो लङ्का नगरी की अधिष्ठात्री देवी हूँ ।। ४५ ॥ 

निर्जिताहं त्वया वीर विक्रमेण महाबल । इदं च तथ्यं शृणु वै ब्रुवन्त्या मे हरीश्वर ॥ ४६॥ 

सेो हे महाबलो ! तुमने मुझे अपने पराक्रम से जीत लिया। महाकपीश्वर ! मैं जो अब यथार्थ वृत्तान्त कहती हूँ, उसे तुम सुनो ॥४६॥ ब्रह्मा जी ने प्राचीनकाल में मुझको यह वरदान दिया था कि, जब तुझको कोई वानर परास्त कर देगा ॥ ४७ ॥   

तदा त्वया हि विज्ञेयं रक्षसां भयमागतम् । स हि मे समयः सौम्य प्राप्तोऽद्य तव दर्शनात् ॥४८॥ 

तब तू जान लेना कि, अब राक्षसों के ऊपर विपत्ति श्रा पहुँची । सेो हे सौम्य ! तुम्हारे दर्शन से प्राज वह मेरा समय श्रा गया ॥४८॥ 

स्वयंभूविहितः सत्यो न तस्यास्ति व्यतिक्रमः । सीतानिमित्तं राज्ञस्तु रावणस्य दुरात्मनः ।। राक्षसां चैव सर्वेषां विनाशः समुपस्थितः ॥ ४९ ॥ 

क्योंकि ब्रह्मा की कही वात सत्य है-उसमें तिल भर भी अन्तर नहीं पड़ सकता। देखो, सीता के कारण इस दुष्ट रावण का तथा अन्य समस्त राक्षसों का विनाशकाल अा पहुँचा ।। ४६ ॥ 

तत्पविश्य हरिश्रेष्ठ पुरी रावणपालिताम् । विधत्स्व सर्वकार्याणि यानि यानीह वाञ्छसि ॥ ५० ॥ 

सो हे कपिश्रेष्ठ ! तुम अब रावण द्वारा पालित इस हे कपीश्वर ! इस शापोपहत, रावणपालित एवं सुन्दर लङ्का पुरी में मनमाना प्रवेश कर, तुम सर्वत्र ढूढ़ कर, सती सीता जी का पता लगायो ॥ ५१।। 

सुन्दरकाण्ड का तीसरा सर्ग पूरा हुआ। 

हनुमान के रास्ते में कौन कौन सी राक्षसियाँ आई?

हनुमान के रास्ते में कौन-कौन सी राक्षसियाँ आईं? उत्तर: हनुमान के रास्ते में सुरसा तथा सिंहिका राक्षसियाँ आईं

हनुमान के मार्ग में कौन कौन सी राक्षसी आई class 6?

3. समुंद्र में हनुमान से कौन मिला था? उत्तर: समुंद्र में हनुमान से सुरसा नामक राक्षसी मिली थी।

लंका मार्ग में हनुमान को कौन सी राक्षसी मिली?

उसका नाम सिंहिका था । छाया राक्षसी उसने जल में हनुमान की परछाईं पकड़ ली।

समुन्द्र में कौन कौन सी बाधाएं हनुमान के सामने आयी?

14. समुन्द्र में कौनकौन सी बाधाएं हनुमान के सामने आयी? ममली जो हनुमान को खाना चाहती थी, हनुमान जी उसके मुांह में घुसे और बाहर तनकल आये। कफर उनका सामना राक्षसी मसटहांका से हुआ, जजसने समुांद्र पर हनुमान की परछाई को पकड़ मलया और हनुमान आकाश में ही थम गए, हनुमान ने उसका र्ध कर डाला और आगे बढे ।