कन्नड़ का प्रथम उपलब्ध ग्रंथ कौन सा है? - kannad ka pratham upalabdh granth kaun sa hai?

भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा (आचार्य भरत मुनि से पंडित जगन्नाथ तक)

संस्कृत के काव्यशास्त्रीय उपलब्ध ग्रंथों के आधार पर भरतमुनि को काव्यशास्त्र का प्रथम आचार्य माना जाता है। उनका समय लगभग 400 ईसापूर्व से 100 ईसापूर्व के मध्य समय माना जाता है।

इस परंपरा के अंतिम आचार्य पंडितराज जगन्नाथ है इनका समय 17 वी शती है। इस प्रकार लगभग डेढ़-दो सौ सहस्त्र वर्षों का यह काव्यशास्त्रीय साहित्य अपनी व्यापक विषय-सामग्री अपूर्व एवं तर्क सम्मत विवेचन पद्धति और गंभीर शैली के कारण नूतन मान्यताओं को प्रस्तुत करने के बल पर भारतीय वाड्मय में अपना विशिष्ट स्थान रखता है।

काव्यशास्त्रीय आचार्यों का संक्षिप्त परिचय[सम्पादन]

(१) आचार्य भरतमुनि[सम्पादन]

भरतमुनि की प्रसिद्धि नाट्यशास्त्र ग्रंथ के रचयिता के रूप में है, उनके जीवन और व्यक्तित्व के विषय में इतिहास अभी तक मौन है। इस संबंध में विद्वानों का एक मत यह भी है कि भरत वस्तुतः एक काल्पनिक मुनि का नाम है। संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों के उल्लेख अनुसार रंगमंच के अभिनेता को भरत कहा जाता था । नाट्यविधान के जो तत्व समय-समय पर निर्मित होते चले गए उनका संग्रह भरत के नाम पर कर दिया गया। इस ग्रंथ का संग्रह काल दूसरी शती ईo पू० और tisri शती ईo के बीच माना जाता है।

नाट्यशास्त्र नाट्यविधान का एक अमर विश्वकोश है। नाटक की उत्पत्ति , नाट्यशाला , विभिन्न प्रकार के अभिनय , नाटकीय सन्धियाँ , संगीत शास्त्रीय सिद्धांत आदि इसके प्रमुख विषय है। इनके अतिरिक्त 6 ठे, 7 वें और 17 वें अध्याय में काव्यशास्त्रीय अंगों - रस , गुण , दोष , अलंकार तथा छंद का भी निरूपण हुआ है । नाटक नायिका भेद का भी इस ग्रंथ में निरूपण है।

(२) भामह[सम्पादन]

भामह कश्मीर-निवासी कहे जाते हैं। इनका जीवन काल छ्ठी शती ई. का मध्य काल माना गया है। इनका प्रसिद्ध ग्रंथ काव्यालंकार है । इस ग्रंथ में ६ परिच्छेद है और कुल ४०० श्लोक। इसमें इस विषयों का निरूपण किया गया है- काव्य शरीर,अलंकार ,दोष ,न्याय-निर्णय और शब्दशुद्धि।

भामह अलंकारवाद के समर्थक थे । इन्होंने 'वक्रोक्ति' को सब अलंकारों का मूल माना है । काव्य का लक्षण सर्वप्रथम इन्होंने प्रस्तुत किया है ।दस के स्थान पर तीन काव्य गुणों की स्वीकृति भी इन्होंने सर्वप्रथम की है , इनके ग्रंथ की महत्व का प्रमाण इससे भी ज्ञात होता है कि उद्धट जैसे आचार्य ने भामह विवरण नाम से इनके ग्रंथ पर भाष्य लिखा था । आज यदि यह भाष्य उपलब्ध होता तो उससे भामह सम्मत सिद्धांतों के स्पष्टीकरण में पर्याप्त सहायता मिलती।

(३) दण्डी[सम्पादन]

दण्डी का समय सातवीं शती का उत्तरार्द्ध माना गया है । इनके तीन ग्रन्थ उपलब्ध हैं - काव्यादर्श , दशकुमारचरित और अवन्तिसुन्दरीकथा । प्रथम ग्रन्थ काव्यशास्त्र विषयक है , और शेष दो गद्य - काव्य हैं । काव्यादर्श में तीन परिच्छेद हैं और श्लोकों की कुल संख्या ६६० है । प्रथम परिच्छेद में काव्य - लक्षण , काव्य - भेद , रीति और गण का निरूपण है और द्वितीय परिच्छेद में अलंकारों का । तृतीय परिच्छेद में यमक , चित्र - बन्ध और प्रहेलिका के अतिरिक्त दोषों का भी निरूपण किया गया है । दण्डी अलंकारवाद के समर्थक थे । काव्य के विभिन्न अंगों को अलंकार में ही अन्तर्निहित समझना इनका मान्य सिद्धान्त था - यहाँ तक कि रस , भाव आदि को भी इन्होंने रसवत् , प्रेयस्वत् आदि अलंकार माना है । काव्यादर्श अत्यन्त लोकप्रिय ग्रन्थ रहा है । कहा जाता है कि सिंहली और कन्नड़ भाषाओं के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों , क्रमशः ' सिय - वश - लकर ' और ' कविराजमार्ग ' , पर काव्यादर्श का स्पष्ट प्रभाव है । संस्कृत में इस ग्रन्थ पर अनेक रोकाएं रची गयीं ।

(४) उद्धट[सम्पादन]

उद्भट कश्मीरी राजा जयापीड़ के सभा - पण्डित थे । इनका समय नवीं शती का पूर्वाद्ध है । इनके तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं - काव्यालंकारसारसंग्रह , भामहविवरण और कुमारसम्भव । इनमें से केवल प्रथम ग्रन्थ उपलब्ध है , जिसके ६ वर्गों में अलंकारों के लक्षण - उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं । अलंकारों के स्वरूप - निर्देश में प्रायः भामह का आश्रय लिया गया है । कुछ अलंकारों के उदाहरण स्वरचित कुमारसम्भव काव्य से भी लिये गये हैं । उद्भट अलंकारवादी आचार्य थे ।

(५) वामन[सम्पादन]

उद्धट के समान वामन भी कश्मीरी राजा जयापीड़ के सभा - पण्डित थे। इनका समय ८०० ई . के आसपास है । इनका प्रसिद्ध ग्रंथ काव्यालंकारसूत्रवृत्ति है । काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में यह पहला सूत्र - बद्ध ग्रन्थ है । सूत्रों की वृत्ति भी स्वयं वामन ने लिखी है । ग्रन्थ में ५ अधिकरण हैं । प्रत्येक अधिकरण में कुछ अध्याय हैं , और हर अध्याय में कुछ सूत्र। ग्रन्थ के पांचों अधिकरणों में अध्यायों की संख्या १२ है , और सूत्रों की संख्या ३१९।

(६) रुद्रट[सम्पादन]

रुद्रट नाम से कश्मीरी आचार्य मालूम पड़ते हैं । इनका जीवन - काल नवीं शती का आरम्भ माना जाता है । इनके ग्रन्थ का नाम काव्यालंकार है , जिसमें १६ अध्याय हैं और कुल ७३४ पद्य । १६ अध्यायों में से ८ अध्यायों में अलंकारों को स्थान मिला है , और शेष अध्यायों में काव्यस्वरूप , काव्यभेद , रीति , दोष , रस और नायक - नायिका - भेद का निरूपण है । यद्यपि रुद्रट अलंकारवादी युग के आचार्य हैं , किन्तु भरत के बाद रस का व्यवस्थित और स्वतंत्र निरूपण इनके ग्रन्थ में उपलब्ध है । नायक - नायिका - भेद , विशेषत : नायिका के प्रसिद्ध तीन भेद स्वकीया , परकीया और सामान्या का उल्लेख हमें यहाँ सर्वप्रथम मिला है ।

(७) आनन्दवर्धन[सम्पादन]

आनन्दवर्धन कश्मीर के राजा अवन्तिवर्मा के सभापण्डित थे। इनका जीवन - काल नवी शती का मध्य भाग है। इनका ख्याति ध्वन्यालोक नामक अमर ग्रन्थ के कारण है। ग्रन्थ के दो प्रमुख भाग है- कारिका और वृत्ति यद्यपि इस विषय में विद्वानों का मतभेद है कि इन दोनों भागों का कर्ता एक व्यक्ति है या दो हैं, पर अधिकतर विद्वान् आनन्दवर्धन को ही दोनों भागों का कर्ता मानते हैं।

(८) अभिनवगुप्त[सम्पादन]

अभिनवगुप्त दसवीं शती के अन्त और ग्यारहवीं शती के आरम्भ में विद्यमान थे। इनका काव्यशास्त्र के साथ - साथ दर्शनशास्त्र पर भी समान अधिकार था। यही कारण था कि काव्यशास्त्रीय विवेचन को आप अत्यन्त उच्च स्तर पर ले गये। ध्वन्यालोक पर 'ध्वन्यालोकलोचन ' और नाट्यशास्त्र पर ' अभिनवभारती ' नामक टीकाएं इसका प्रमाण हैं।

(९) राजशेखर[सम्पादन]

राजशेखर विदर्भ ( बरार ) के निवासी थे और कन्नौज के प्रतिहारवंशी महेन्द्रपाल और महीपाल के राजगुरु थे । इनका जीवन - काल दसवीं शती का प्रथमार्द्ध माना गया है । काव्यशास्त्र से सम्बद्ध काव्यमीमांसा नामक इनका एक ग्रन्थ प्रसिद्ध है , जो १८ भागों ( अधिकरणों ) में विभक्त है , पर अभी तक इसका ' कविरहस्य ' नामक एक ही भाग प्राप्त हो सका है , जिसे सर्वप्रथम गायकवाड़ ओरण्टियल सीरीज , बड़ौदा ने , और फिर बिहार - राष्ट्रभाषा - परिषद् ने हिन्दी - अनुवाद - सहित प्रकाशित कराया ।

(१०) कुन्तक[सम्पादन]

कुन्तक का समय दसवी शती का अन्त तथा ग्यारहवी शती का आरम्भ माना जाता है । इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ ' वक्रोक्तिजीवितम् ' में चार उन्मेष हैं । प्रथम उन्मेष में काव्य का प्रयोजन तथा वक्रोक्ति का स्वरूप और उसके छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । द्वितीय उन्मेष में वक्रोक्ति के प्रथम तीन भेदों - वर्ण - विन्यासवक्रता , पदपूर्वार्धवक्रता तथा पदपरार्ध - वक्रता का , और तृतीय उन्मेष में वाक्यवक्रता का विस्तृत निरूपण है । अन्तिम उन्मेष में वक्रोक्ति के शेष दो भेदों - प्रकरणवक्रता और प्रबन्धवक्रता का विवरण है । कुन्तक प्रतिभासम्पन्न आचार्य थे । इन्होंने वक्रोक्ति के उक्त छह भेदों में काव्य के सभी अंगों को अन्तर्भूत करते हुए वक्रोक्ति को काव्य का ' जीवित ' माना ।

(1९) क्षेमेन्द्र[सम्पादन]

क्षेमेन्द्र कश्मीर - निवासी थे । वे ११वीं शती के उत्तराद्ध में विद्यमान थे । इन के तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं - औचित्यविचारचर्चा , सुवृत्ततिलक और कविकण्ठाभरण । प्रथम ग्रन्थ में औचित्य को लक्ष्य में रखकर इन्होंने वाणी के विभिन्न अंगों - वाक्य , गुण , रस , क्रिया , करण , लिंग , उपसर्ग , देश , स्वभाव आदि का स्वरूप निर्धारित किया है । द्वितीय ग्रन्य में छन्द के औचित्य का निर्देश है । तीसरा ग्रन्थ कवि - शिक्षा से सम्बद्ध है । इस ग्रन्थ में ५ सन्धियाँ ( परिच्छेद ) हैं । इनमें क्रमशः कवित्व - प्राप्ति के उपाय , कवियों के भेद , काव्य के गुण तथा दोष का विवेचन है ।

(१२) भोजराज[सम्पादन]

भोजराज धारा के नरेश थे । उनका जीवन काल ११वी शती का प्रथमर्द्ध है। भोज कवियों के आश्रयदाता होने के अतिरिक्त स्वयं भी प्रगाढ़ आलोचक एवं काव्यशास्त्री थे । काव्यशास्त्र से सम्बद्ध इनके दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं - सरस्वतीकण्ठाभरण और श्रृंगारप्रकाश ये दोनों विशालकाय हैं । प्रथम ग्रन्थ में पाँच परिच्छेद हैं । इनमें दोष , गुण , अलंकार और रस का विशद और संग्रहात्मक विवेचन है ।

(१३) मम्मट[सम्पादन]

मम्मट कश्मीर के निवासी माने जाते हैं । इनका जीवनकाल ११वीं शती का उत्तराद्ध है । इनकी प्रख्याति ' काव्यप्रकाश ' के कारण है।

(१४) विश्वनाथ[सम्पादन]

विश्वनाथ कदाचित् उड़ीसा के निवासी थे। इनका समय १४वीं शती का पूर्वाद्ध है। इनकी ख्याति ' साहित्यदर्पण ' नामक ग्रन्थ के कारण हुई है। विश्वनाथ ने मम्मट , आनन्दवर्धन , कुन्तक , भोजराज आदि के काव्य - लक्षणों का खण्डन प्रस्तुत करने के बाद रस को काव्य की आत्मा घोषित करते हुए काव्य का लक्षण निर्धारित किया है। इन्होंने मम्मट के काव्यलक्षण का घोर खण्डन किया है , किन्तु फिर भी अपने ग्रन्थ की अधिकांश सामग्री के लिए ये मम्मट के ही ऋणी हैं। आश्चर्य तो यह है कि रसको काव्य की आत्मा मानते हुए भी इन्होंने आनन्दवर्धन तथा मम्मट के समान रस को ध्वनि के एक भेद ' असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य ' ध्वनि का अपर नाम माना है।

(१५) जगन्नाथ[सम्पादन]

जगन्नाथ का यौवनकाल दिल्ली के प्रसिद्ध शासक शाहजहाँ के दरबार में बीता था । शाहजहाँ ने इन्हें ' पंडितराज ' की उपाधि से विभूषित किया था। अत : इनका समय १७वी शती का मध्यभाग है। इनकी प्रसिद्ध रचना ' रसगंगाधर ' है ,जो अपूर्ण है। जगन्नाथ का काव्यलक्षण अधिकांशतः परिपूर्ण तथा सुबोध है। इन्होंने काव्य के चार भेद माने है - उत्तमोत्तम , उत्तम , मध्यम तथा अधम। ये ध्वनिवादी आचार्य थे , फिर भी रस के प्रति इन्होंने अधिक समादर प्रकट किया है। भरत - सूत्र पर उपलब्ध ग्यारह व्याख्याएं इसी ग्रन्थ में संकलित हैं। ये अन्यत्र भी प्राप्त हो सकती हैं। यह प्रथम आचार्य हैं जिन्होंने गुण को रस के अतिरिक्त शब्द , अर्थ और रचना का भी धर्म समान रूप से स्वीकार किया है , न कि गौण रूप से। जगन्नाथ की समर्थ भाषा - शैली , सिद्धान्त - प्रतिपादन की अद्भुत एवं परिपक्व विचार - शक्ति और खण्डन करने की विलक्षण प्रतिभा के कारण इन्हें प्रौढ़ एवं सिद्धहस्त आचार्य माना जाता है।

कन्नड़ का सर्वप्रथम उपलब्ध ग्रंथ कौन सा है?

"कविराजमार्ग", कन्नड का प्रथम उपलब्ध ग्रंथ है। चंपू शैली में लिखा हुआ यह रीतिग्रंथ प्रधानतया दंडी के "काव्यादर्श" पर आधरित है। इसका रचनाकाल सन् 815-877 के बीच माना जाता है।

कन्नड़ भाषा की लिपि कौन सी है?

कन्नड लिपि ब्राह्मी से व्युत्पन्न एक भारतीय लिपि है जिसका प्रयोग कन्नड लिखने में किया जाता है।

कन्नड़ साहित्य के तीन रतन कौन थे?

पोन्ना 10 वीं शताब्दी ईस्वी के महानतम कन्नड़ कवियों में से एक थे। पोन्ना ने दो अन्य साहित्यिक महान कवियों पम्पा और रन्ना के साथ कन्नड़ साहित्य के तीन महान कवियों का गठन किया, जिन्हें त्रिरत्न कहा जाता है।

कर्नाटक के कवि कौन है?

कुप्पाली वेंकटप्पा पुटप्पा (अंग्रेज़ी: Kuppali Venkatappa Puttappa, जन्म- 29 दिसम्बर, 1904, शिवमोगा, कर्नाटक; मृत्यु- 11 नवम्बर, 1994, मैसूर) कन्नड़ भाषा के कवि व लेखक थे। उन्हें 20वीं शताब्दी के महानतम कन्नड़ कवि की उपाधि दी जाती है।