क्या योग भगवान को मानता है? - kya yog bhagavaan ko maanata hai?

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'योग एक व्यावहारिक और वैज्ञानिक पद्धति है, जो चरणबद्ध तरीके से हमारी चेतना जागृत करती है।' यह कहना है आध्यात्मिक गुरु और समाज सुधारक श्री एम का। श्री एम यानी श्री मधुकरनाथ। अपनी क़िताब 'योगा ऑल्सो फॉर द गॉडलेस' में वह लिखते हैं कि योगी होने के लिए ईश्वर में विश्वास होना ज़रूरी नहीं। योग में भगवान महत्वपूर्ण नहीं है।

यह क़िताब तीन हज़ार साल पहले ऋषि पतंजलि के

योग दर्शन पर लिखे 'योग सूत्र' का अनुवाद है। योग शब्द भारतीय दर्शनशास्त्र के छह सबसे प्राचीन दर्शनों में से एक 'सांख्य' से निकला है। भारत के सबसे प्राचीन ऋषियों में से एक कपिल मुनि ने की थी सांख्यशास्त्र की रचना। यह कितना महत्वपूर्ण है इस बात से पता चलता है कि भगवद् गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, 'मुनियों में मैं कपिल हूं।'

सांख्य का मतलब होता है नंबर या अंक। इसका एक अर्थ और है - वह चरणबद्ध तरीका जिससे दिमाग़ विकसित होता है। सांख्य दैवत्व से इनकार नहीं करता, लेकिन उसका मानना है कि सृष्टि की रचना करने वाले ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। यह द्वैतवाद दर्शन है यानी शरीर और आत्मा में फर्क मानने वाला सिद्धांत। इसके मुताबिक, पुरुष चेतना है और प्रकृति जड़।

श्री एम कहते हैं कि सांख्य के मुताबिक, संपूर्ण विश्व तत्वों और रसायनों के क्रमपरिवर्तन और संयोजन से बना है। आज के वैज्ञानिक भी तो यही कहते हैं। हम सबमें पुरुष भी है और प्रकृति भी। प्रकृति के बंधन और उसके गुणों - तम, रज और सत्त्व से मुक्त होना ही सांख्य योग का लक्ष्य है। गीता का दूसरा अध्याय भी सांख्य योग के ही बारे में है।

योग दर्शन इस लक्ष्य को पाने का व्यावहारिक तरीका है, जिसे सांख्य योग केवल सैद्धांतिक रूप से समझाता है। यह ईश्वर की बात करता है लेकिन सृष्टि की रचना करने वाले के रूप में नहीं, बल्कि ज्ञान और चेतना के भंडार के रूप में। सांख्यशास्त्र की ही तरह योग भी यही कहता है कि हर इंसान के भीतर पुरुष है। मन-मस्तिष्क को शांत करना इसका लक्ष्य है, जिससे तम, रज और सत्त्व नामक तीन गुणों के प्रभाव को पूरी तरह खत्म किया जा सके।

मन साफ और शांत होने पर 'पुरुष' जागृत होता है और तब यह अहसास होता है कि पुरुष यानी चेतना ही ज्ञान और ईश्वर का रूप है। 'योग' का मतलब यह नहीं है कि आप सृष्टि की रचना करने वाले ईश्वर में विश्वास रखते हों। योग तो वह है जिसका अभ्यास कर नास्तिक भी अपनी चेतना जगा सके, ज्ञान प्राप्त कर सके।

योग की चरम अवस्था होती है कैवल्य, यानी आत्मज्ञान की अवस्था को तभी पाया जा सकता है जब प्रकृति के प्रभाव से ख़ुद को मुक्त किया जा सके। इस अवस्था में पहुंचने पर योगी दुख और निराशा को एक ही भाव से देखता है। उसके मन पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। श्री एम कहते हैं कि किसी भी मनुष्य को इस अवस्था तक पहुंचाने में भगवान का नहीं, योग का हाथ होता है। बहुत से लोग सोच सकते हैं कि योग तो हिंदू संस्कृति से निकला है, लेकिन ईश्वर में यकीन न करके भी हिंदू हो सकते हैं।

योग का ज़िक्र कई भारतीय ग्रंथों में हुआ है। सबसे पहले कथा उपनिषद् में। भगवद् गीता और पतंजलि की 'योग सूत्र' में इसका ज़िक्र मिलता है। क्या इन ग्रंथों में को अलग-अलग तरह से परिभाषित किया गया है? क्या योग को देखने का सबका अलग नज़रिया है?

इस बारे में श्री एम कहते हैं कि प्रारंभिक उपनिषदों में भी योग को कहीं ईश्वर से नहीं जोड़ा गया। केनोपनिषद को ही लीजिए। यह कहता है, जिसे शब्दों के ज़रिए ज़ाहिर नहीं किया जा सकता, लेकिन जिसकी वजह से हम शब्दों का अर्थ समझते हैं। जिसे मन के ज़रिए समझा नहीं जा सकता, लेकिन जिसके कारण मन में चेतना है, वही सिर्फ वही सत्य है। दरअसल, उपनिषद न सांख्य है, न योग दर्शन।

लेकिन गीता ने इन सभी बातों को एक साथ बहुत ही आसान भाषा में समझा दिया है। इसके हर अध्याय के अंत में वेद व्यास कहते हैं कि यह उपनिषद का अध्ययन है। और उपनिषद क्या सिखाते हैं? ब्रह्मविद्या, यानी ब्रह्म या पुरुष का ज्ञान और इसके लिए जिस शब्द का इस्तेमाल वह करते हैं, वह है 'योग शास्त्र'। यानी भले ही आप ब्रह्मविद्या का सैद्धांतिक रूप से अध्ययन करें, योग शास्त्र के व्यावहारिक रूप के बिना आप ब्रह्म को महसूस नहीं कर सकते। योग और प्राचीन ग्रंथों जैसे उपनिषद और गीता के बीच यही लिंक है।


गीता ये भी कहती है कि योग के चरम पर पहुंचने से दुखों से आपका नाता पूरी तरह खत्म हो जाता है। पतंजलि का दूसरा सूत्र भी यही कहता है - 'योग चित्त वृत्ति निरोध'। यानी योग में जैसे ही आप कैवल्य की ओर बढ़ते हैं, चेतन मन हर तरह की व्याकुलता, भटकाव से दूर होता जाता है। फर्क सिर्फ इतना है कि भगवद् गीता के अनुसार, यह अवस्था आप दूसरे तरीकों से भी पा सकते हैं, जबकि पतंजलि योग के आठ अंगों के लगातार अभ्यास से इसे पाने की बात करते हैं।

श्री एम के मुताबिक, योग किसी रोग का इलाज नहीं है। यह निवारण है, यानी आपको रोग ही नहीं लगने देगा। लेकिन क्या यह मौत का डर भी खत्म कर सकता है? कोरोना महामारी के इस दौर में क्या इंफेक्शन हो जाने के डर को भी यह खत्म कर सकता है?

श्री एम कहते हैं कि जब तक मौत नहीं आती, तब तक हम मन को शांत रखने की कोशिश कर सकते हैं। डर और व्याकुलता बढ़ने की वजह से इम्यून सिस्टम ठीक से काम नहीं करता। मन को शांत रखने से इम्यून सिस्टम मज़बूत होता है। तब उसमें वायरस से लड़ने की ताकत आ जाती है। योग की कोई विचारधारा नहीं है। यह विज्ञान है। व्यावहारिक तरीका है, जो चरणबद्ध रूप से आपके मन को अलौकिक ऊर्जा से भर देता है। आपको एक ऐसी अवस्था में ले जाता है, जहां सांसारिक दुख-सुख, भटकाव आपको छू नहीं पाते।

श्री एम के मुताबिक, हमारे खून में मौजूद केमिकल्स हमारा मूड तय करते हैं। जब आपके खून में सेरोटोनिन और डोपमाइन कैमिकल जा मिलते हैं तो आप शांत और स्वस्थ महसूस करते हैं। बड़े-बड़े योगी मानते हैं कि आमतौर पर पूरा दिन सिर ऊपर रहने की वजह से पीनियल और पिट्यूटरी ग्रंथियों में खून का प्रवाह कम होता है इसलिए अगर आप स्वस्थ हैं तो शीर्षासन का अभ्यास करें यानी सिर नीचे और पैर ऊपर। इससे दिमाग़ में रक्त का प्रवाह बढ़ जाता है और आप अच्छा महसूस करने लगते हैं।

यह अहसास चेतना जागृत करने की दिशा में पहला क़दम हो सकता है। इसलिए, योग कीजिए। यह आपको शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से स्वस्थ रख सकता है।

आवाज़ : प्रभात गौड़
*ये लेखक के निजी विचार हैं