लक्षणा शब्द शक्ति के कितने भेद होते हैं? - lakshana shabd shakti ke kitane bhed hote hain?

लक्षणा शब्द-शक्ति का एक प्रकार है। लक्षणा, शब्द की वह शक्ति है जिससे उसका अभिप्राय सूचित होता है।

कभी-कभी ऐसा होता है कि शब्द के साधारण अर्थ से उसका वास्तविक अभिप्राय नहीं प्रकट होता। वास्तविक अभिप्राय उसके साधारण अर्थ से कुछ भिन्न होता है। शब्द को जिस शक्ति से उसका वह साधारण से भिन्न और दूसरा वास्तविक अर्थ प्रकट होता है, उसे लक्षणा कहते हैं। शब्द का वह अर्थ जो अभिधा शक्ति द्वारा प्राप्त न हो बल्कि लक्षणा शक्ति द्वारा प्राप्त हो, लक्षितार्थ कहलाता है।

प्रकार[संपादित करें]

साहित्य में लक्षणा शक्ति दो प्रकार की मानी गई है— रूढ़ि और प्रयोजनवती।

रूढ़ि लक्षणा[संपादित करें]

जहाँ पर कुछ लक्ष्यार्थ रुढ़ हो गए हैं। जैसे 'कार्य में कुशल'। कुशल का शब्दार्थ 'कुश इकट्ठा करनेवाला' होता है, पर यह शब्द दक्ष या निपुण के अर्थ में रुढ़ हो गया है। इस प्रकार का अर्थ रुढिलक्षणा द्वारा प्रकट होता है।

रूढ़ि लक्षणा में रूढ़ि के कारण मुख्यार्थ को छोड़कर उससे सम्बन्ध रखने वाला अन्य अर्थ ग्रहण किया जाए। जैसे 'राजस्थान वीर है।' राजस्थान प्रदेश वीर नहीं हो सकता। इसमें मुख्यार्थ की बाधा है। इससे इसका लक्ष्यार्थ 'राजस्थान निवासी' होता है, क्योंकि राजस्थान से उसके निवासी का आधाराधेयभाव का सम्बन्ध है। यहाँ राजस्थानियों के लिए 'राजस्थान' कहना रूढ़ि है।

प्रयोजनवती लक्षणा[संपादित करें]

वह लक्षणा जो प्रयोजन द्वारा वाच्यार्थ से भिन्न अर्थ प्रकट करे। प्रयोजनवती लक्षणा में किसी विशेष प्रयोजन की सिद्धि के लिए लक्षणा की जाती है, जैसे-

'बहुत सी तलवारें मैदान में आ गईं' इस वाक्य में यदि हम तलवार का अर्थ तलवार ही करके रह जाते हैं तो अर्थ में बाधा पड़ती है। इससे प्रयोजनवश हमें तलवार का अर्थ तलवारबंद सिपाही लेना पड़ता है। अतः जिस लक्षणा द्वारा यह अर्थ लिया वह प्रयोजनवती हुई।

प्रयोजनवती लक्षणा के दो मुख्य भेद हैं- गौणी, शुद्धा।

गौणी लक्षणा[संपादित करें]

गौणी में सादृश्य सम्बन्ध से अर्थात समान गुण या धर्म के कारण लक्ष्यार्थ का ग्रहण किया जाए।

शुद्धा लक्षणा[संपादित करें]

शुद्धा लक्षणा में सादृश्य सम्बन्ध के अतिरिक्त अन्य सम्बन्ध से लक्ष्यार्थ का बोध होता है। शुद्धा लक्षणा के चार भेद हैं- उपादान लक्षणा, लक्षणलक्षणा, सारोपा लक्षणा और साध्यावसाना लक्षणा।

उपादान लक्षणा[संपादित करें]

जहाँ वाक्यार्थ की संगति के लिए अन्य अर्थ के लक्षित किए जाने पर भी अपना अर्थ न छूटे वहाँ उपादानलक्षणा होती है। उपादान का अर्थ है ग्रहण-लेना। इसमें वाच्यार्थ का सर्वथा त्याग नहीं होता। जैसे, 'पगड़ी की लाज रखिये। लक्ष्यार्थ होता है पगड़ीधारी की लाज। यहाँ पगड़ी अपना अर्थ न छोड़ते हुए पगड़ीधारी का आक्षेप करता है। यहाँ दोनों साथ-साथ हैं। अत: उपादान लक्षणा है।

लक्षणलक्षणा[संपादित करें]

जहाँ वाक्यार्थ की सिद्धि के लिए वाक्यार्थ अपने अर्थ को छोड़कर केवल लक्ष्यार्थ को सूचित करे, वहाँ लक्षणलक्षणा होती है।

इसमें अमुख्यार्थ को अनिवत होने के लिए मुख्यार्थ अपना अर्थ बिल्कुल छोड़ देता है। जैसे, 'पेट में आग लगी है।' यह एक सार्थक वाक्य है। इसमें 'आग लगी है' वाक्य अपना अर्थ छोड़ देता है और लक्ष्यार्थ होता है कि भूख लगी है। इससे लक्षण-लक्षणा है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • अभिधा
  • व्यंजना
  • लक्षणा

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • अर्थ गौरव की ऊर्जा है शब्द शक्ति (ओपेन बुक्स ऑनलाइन)
  • काव्य का लक्ष्य

लक्षणा शब्द शक्ति के कितने भेद होते हैं? - lakshana shabd shakti ke kitane bhed hote hain?
शब्द शक्ति

शब्द शक्ति क्या है?

शब्द या शब्द समूह में जो अर्थ छिपा होता है, उसे प्रकाशित करने वाली शक्ति का नाम शब्द शक्ति (shabd shakti) है। शब्द से अर्थ का बोध होता है और शब्द को ‘बोधक’ (बोध करानेवाला) और अर्थ को ‘बोध्य’ (जिसका बोध कराया जाये) कहा जाता है ।शब्द तीन प्रकार के होते हैं- वाचक, लक्षक एवं व्यंजक, इन्हीं शब्दों के अनुरूप ही तीन प्रकार के अर्थ होते हैं- वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ एवं व्यंग्यार्थ। इन अर्थों का बोध शब्द शक्तियों द्वारा होता है, दूसरे शब्दों में प्रत्येक शब्द से जो अर्थ निकलता है, उसका बोध कराने वाली शक्ति शब्द शक्ति कहलाती है। अत: शब्द शक्तियों के तीन भेद हुए-

शब्द शक्ति के प्रकार-

1. वाच्यार्थ पर आधारित शब्द शक्ति- अभिधा

2. लक्ष्यार्थ पर आधारित शब्द शक्ति- लक्षणा

3. व्यंग्यार्थ पर आधारित शब्द शक्ति- व्यंजना

ध्यान रखने योग्य बात यह है कि- वाच्यार्थ कथित होता है, लक्ष्यार्थ लक्षित होता है और व्यंग्यार्थ व्यंजित, ध्वनित, सूचित या प्रतीत होता है। काव्यशास्त्र ने अभिधा के लिए व्याकरण-शास्त्र का सहारा लिया, लक्षणा के लिए मीमांसा का, लेकिन व्यंजना के लिए उसने अपना अलग रास्ता बनाया।

1. अभिधा शब्द शक्ति-

शब्द को सुनते ही अथवा पढ़ते ही श्रोता या पाठक उसके सबसे सरल, प्रचलित अर्थ को बिना अवरोध के ग्रहण करता है, वह अभिधा शब्द शक्ति, कहलाती है। दूसरे शब्दों में शब्द की जिस शक्ति से उसके संकेतिक (प्रसिद्ध) अर्थ का बोध हो, उसे अभिधा कहते हैं।

अभिधा शब्द का पहला व्यापार है। शब्दोच्चार के साथ ही जिस अर्थ का बोध होता है, वह उस शब्द का मुख्य अथवा वाच्य अर्थ है। शब्द और उसके मुख्य अर्थ में जो संवंध होता है उसे वाचक-वाच्य संवंध कहते हैं-शब्द वाचक होता है और उसका मुख्यार्थ वाच्य।  

अभिधा शब्द शक्ति के उदाहरण-

1. मोहन पुस्तक पढ़ रहा है।

2. दिवस का अवसान समीप था, गगन था कुछ लोहित हो चला।

तरु  शिखा पर थी अब राजती, कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा।।

3. निज गौरव का नित ज्ञान रहे, हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे। 

सब जाय अभी पर मान रहे, मरणोत्तर गुंजित गान रहे।।

उपर्युक्त पंक्तियों में के अर्थ ग्रहण में किसी प्रकार का अवरोध नहीं है। परंपरा, कोश, व्याकरण आदि से यह अर्थ पूर्वविदित (पहले से मालूम) है। अतः यहाँ अभिधा शब्द-शक्ति है।

अभिधा के प्रकार-

‘अभिधा’ शक्ति द्वारा तीन प्रकार के शब्दों का अर्थ-बोध हैं-

a) रूढ़- ये शब्द जातिवाचक होते हैं, जैसे- बालक, हांथी, बंदर आदि।

b) यौगिक- इन शब्दों का अर्थ बोध अवयवों (प्रकृति और प्रत्ययों) की शक्ति के द्वारा होता हैं, जैसे-दिवाकर, सुधांशु आदि।

c) योगरूढ़- इनका अर्थ-बोध समुदाय और अवयवों की शक्ति से होता हैं, ये शब्द यौगिक होते हुए भी रूढ़ होते हैं, जैसे- जलज, वारिज आदि। इनका यौगिक अर्थ जल में उत्पत्र वस्तु हैं परंतु योगरूढ़ अर्थ केवल ‘कमल’ हैं।

अभिधा शब्द शक्ति का महत्त्व-

कई विद्वान अभिधा की तुलना में लक्षणा और व्यंजना को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं, परंतु सवाल यह है कि क्या लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ को बिना अभिधा को जाने समझा जा सकता है? हिन्दी के रीतिकालीन आचार्य देव ने लिखा है कि-

”अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षना लीन।

अधम व्यंजना रस कुटिल, उलटी कहत कवीन।।”

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का भी मत है कि, ‘वास्तव में व्यंग्यार्थ या लक्ष्यार्थ के कारण चमत्कार आता है, परन्तु वह चमत्कार होता है वाच्यार्थ में ही। अतः इस वाच्यार्थ को देने वाली अभिधा शक्ति का अपना महत्त्व है।‘

2. लक्षणा शब्द शक्ति-

मुख्यार्थ की बाधा होने पर, रूढ़ि (लोक प्रसिद्ध) या प्रयोजन (उद्देश्य) के कारण, जिस शक्ति के द्वारा मुख्यार्थ से सम्बद्ध अन्य अर्थ की प्राप्ति हो, उस शब्द शक्ति को लक्षणा कहा जाता है। सामान्य अर्थों में- जहाँ शब्दों के मुख्य अर्थ को बाधित कर परम्परा या लक्षणों के आधार पर अन्य अर्थ को ग्रहण किया जाता है, उसे ‘लक्षणा’ कहते हैं। लक्षणा मुख्यार्थ का व्यापार है। शब्द और लक्षणा का सीधा सम्बन्ध नहीं है। इनके वीच वाच्यार्थ स्थिति है।

लक्षणा शब्द शक्ति के तीन निमित्ति हैं-

a) मुख्यार्थबाध

b) मुख्यार्थयोग

c) रूढ़ि या प्रयोजन

उदाहरण- यदि हम कहें कि ‘लड़का शेर है।’ तो इसका लक्ष्यार्थ है ‘लड़का निडर है।’ यहाँ पर शेर का सामान्य अर्थ अभीष्ट नहीं है। लड़के को निडर बताने के प्रयोजन से उसके लिए शेर शब्द का प्रयोग किया गया है।

लक्षणा शब्द शक्ति के भेद-

भारतीय काव्यशास्त्र में लक्षणा शब्द शक्ति के अनेक भेदों की चर्चा की गई है। परंतु मुख्य रूप से लक्षणा के दो भेद हैं-

a) रूढ़ि लक्षणा

b) प्रयोजनवती लक्षणा

a) रूढ़ि लक्षणा- जहाँ किसी शब्द के नियत संकेतिक अर्थ को त्यागकर उससे भिन्न अन्य अर्थ या लक्ष्यार्थ लिया जाता है, जो बहुत दिनों से रूढ़ि या परम्परा से नियत हो गया हो वहाँ रूढ़ि लक्षणा होती है।

उदाहरण-

“आगि बड़वाग्नि ते बड़ी है आगि पेट की”  (तुलसीदास)

उपरोक्त छंद में ‘बड़वाग्नि’ का मुख्य अर्थ ‘समुद्र में लगने वाली आग’ है परंतु पेट में आग नहीं, भूख लगती है इसलिए मुख्यार्थ की बाधा है। यहाँ पर लक्ष्यार्थ है- ‘तीव्र भूख’। तीव्र भूख के लिए ‘पेट में आग लगना’ कहना रूढ़ि है।

b) प्रयोजनवती लक्षणा-  मुख्य अर्थ के बाधित होने पर जब किसी प्रयोजन (उद्देश्य) के लिए- किसी विशेष अभिप्राय से-मुख्य अर्थ से सम्बन्ध रखने वाले किसी भिन्न (लक्ष्यार्थ) अर्थ को ग्रहण किया जाता है, तो उसे प्रयोजनवती लक्षणा कहा जाता है। दूसरे शब्दों में- जहाँ किसी शब्द का नियत अर्थ न लेकर उससे भिन्न अर्थ या लक्ष्यार्थ किसी विशेष प्रयोजन से लिया जाय, तो वहाँ प्रयोजनवती लक्षणा होती है।

उदाहरण-

“उषा सुनहले तीर बरसाती। जय लक्ष्मी सी उदित हुई।।

उधर पराजित काल रात्रि भी । जल में अंतर्निहित हुई ।।” 

 (प्रसाद- कामायनी)

उपरोक्त छंद में प्रलय के समाप्त हो जाने की स्थितियों का वर्णन किया गया है। यहाँ पर ‘तीर’ का मुख्य अर्थ ‘बाण’ है, पर लक्ष्यार्थ ‘सूर्य की किरण’ है जो प्रयोजनवती लक्षणा से ही सिद्ध हुआ है।

“तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवल, हे चिर पुराण हे चिर नवीन” 

                                                               (पंत)

यहाँ गाँधी जी को निर्विकार तथा अत्यंत पवित्र सिद्ध करने के प्रयोजन से ही उन्हें ‘आत्मा’ कहा गया है।

3. व्यंजना शब्द शक्ति-

शब्द के जिस व्यापार से मुख्य और लक्ष्य अर्थ से भिन्न अर्थ की प्रतीति हो उसे ‘व्यंजना’ कहते हैं। व्यंजना शब्द शक्ति से अन्यार्थ या विशेषार्थ का ज्ञान कराने वाला शब्द व्यंजक कहलाता है, जबकि उस व्यंजक शब्द से प्राप्त अर्थ को व्यंग्यार्थ या धन्यार्थ कहते हैं।

व्यंजना शब्द शक्ति द्वारा अर्थ की प्रतीति कराने के लिए, ध्वन्यार्थ, सुच्यार्थ, प्रतीयमानार्थ, आक्षेपार्थ आदि शब्द प्रयुक्त होते हैं।

[नोट- जहाँ अभिधा तथा लक्षणा शब्द शक्ति केवल अर्थ पर आधारित होते हैं वहीं व्यंजना शब्द और अर्थ दोनों पर आधारित होता है ।जब तक अभिधा-लक्षणा अपना काम करके विरत नहीं हो जाते, व्यंजना का काम आरंभ ही नहीं होता।]

उदाहरण-  सुबह के 8 बज गये।

यह वाक्य साधारण है लेकिन इसका प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न अर्थ है। जैसे एक ऐसा व्यक्ति जो जिसका कार्य रात के समय पहरेदारी करना है तो वह इसका अर्थ लेगा कि उसकी अब छुट्टी हो गयी है। एक साधारण कार्यालय जाने वाला व्यक्ति इसका अर्थ लेगा कि उसे कार्यालय छोड़ना जाना है। एक गृहणी महिला इसका अर्थ अपने घर के कार्यों से जोड़कर देखेगी। बच्चे इसका अर्थ अपने विद्यालय जाने के समय के रूप में लेंगे। पुजारी इसका अर्थ अपने सुबह के पूजा-पाठ से जोड़कर देखेगा। अर्थात वाक्य एक है लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के लिए भावार्थ अलग-अलग हैं।

व्यंजना शब्द शक्ति के भेद-

व्यंजना शब्द शक्ति के दो भेद हैं-

a) शाब्दी व्यंजना

b) आर्थी व्यंजना

a) शाब्दी व्यंजना- जहाँ व्यंग्यार्थ किसी विशेष शब्द के प्रयोग पर ही निर्भय रहता है, वहाँ शाब्दी व्यंजना होती है। इसके भी दो भाग हैं-

I. अभिधामूला शाब्दी व्यंजना

II. लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना

I. अभिधामूला शाब्दी व्यंजना-

अभिधात्मक शब्द पर आश्रित (निर्भर) शाब्दी व्यंजना ‘अभिधामूला शाब्दी व्यंजना’ कहलाती है।

उदाहरण-

चिरजिवो जोरी जुरै, क्यों न सनेह गंभीर।

को घटिए, वृष भानुजा, वे हलधर के वीर।।

                                          (बिहारी)

उपरोक्त छंद में- ‘वृष भानुजा’ और ‘हलधर के वीर’ के  3-3 अर्थ हैं।

वृष भानुजा-

1. वृष भानु + जा = वृष भानु की पुत्री

2. वृषभ + अनुजा = बैल की बहन गाय

3. वृष + भानु + जा = वृष राशि के सूर्य की पुत्री

हलधर के वीर-

1. हल को धारण करने वाले बलराम के भाई

2. बैल के भाई3. शेषनाग के अवतार

II. लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना-

लाक्षणिक शब्द पर आश्रित व्यंजना को ‘लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना’ कहते हैं।

उदाहरण-

“फली सकल मनकामना, लूट्यौ अगनित चैन।

आजु  अंचै हरि रूप सखि, भये प्रफुल्लित नैन।।

”उपरोक्त छंद में ‘फली’ का अर्थ है- पूर्ण हुई, ‘लूटयौ’ का अर्थ है- प्राप्त किया और ‘अँचै’ का अर्थ है- देखा। किन्तु व्यंजना से संपूर्ण पद का व्यंग्यार्थ है- प्रियतम के दर्शन से अत्यधिक आनंद प्राप्त किया।

b) आर्थी व्यंजना- जहाँ पर व्यंजना का आधार अर्थ विशेष हो वहाँ पर आर्थी व्यंजना होती है।

उदाहरण-

“सागर तीर मीन तरफत है, हुलसी होत जल पीन।

”उपरोक्त पंक्ति में अर्थी व्यंजना है- कृष्ण के पास होते हुए भी गोपियाँ प्रेम से वंचित हैं।

लक्षणा शब्दशक्ति के कितने भेद है?

शुद्धा लक्षणा के चार भेद हैं- उपादान लक्षणा, लक्षणलक्षणा, सारोपा लक्षणा और साध्यावसाना लक्षणा

शब्दशक्ति कितने प्रकार की होती हैं?

हिन्दी व्याकरण में शब्दशक्ति तीन प्रकार की होती है:.
लक्षणा.
व्यंजना.

लक्षणा शब्द क्या है?

लक्षण के हिंदी अर्थ किसी पदार्थ की आकृति आदि से दिखाई देनेवाली वह विशेषता जिसके द्वारा वह पहचाना जाय। चिह्न। निशान। असार।

शब्द शक्ति के कितने भेद माननीय हैं?

शब्द को सुनने अथवा पढ़ने के पश्चात् पाठक अथवा श्रोता को शब्द का जो लोक प्रसिद्ध अर्थ तत्क्षण ज्ञात हो जाता है, वह अर्थ शब्द की जिस सीमा द्वारा मालूम होता है, उसे अभिधा शब्द शक्ति कहते हैं। अभिधा शब्द शक्ति से जिन शब्दों का अर्थ बोध होता है वे तीन प्रकार के होते हैं