मध्यकालीन इतिहास के जनक कौन हैं? - madhyakaaleen itihaas ke janak kaun hain?

मध्यकालीन इतिहास का पिता किसे कहा जाता है?...


मध्यकालीन इतिहास के जनक कौन हैं? - madhyakaaleen itihaas ke janak kaun hain?

चेतावनी: इस टेक्स्ट में गलतियाँ हो सकती हैं। सॉफ्टवेर के द्वारा ऑडियो को टेक्स्ट में बदला गया है। ऑडियो सुन्ना चाहिये।

गुड मॉर्निंग आपका सवाल है मध्यकालीन इतिहास का पिता किसे कहा जाता है दोस्त मध्यकालीन इतिहास का पिता नहीं इतिहास का जनक या पिता हेरोडोटस को कहा जाता है और भारतीय प्रागैतिहासिक काल के इतिहास का पिता रॉबर्ट ब्रूस फुट को कहा जाता है और इतिहास के जनक किया पिता जो है हेरोडोटस को इसलिए कहा जाता है क्योंकि हेरोडोटस नहीं स्टोरी का नामक पुस्तक लिखा था और सबसे पहले 50 शब्द का दुनिया को उस पुस्तक के माध्यम से बताया था

Romanized Version

मध्यकालीन इतिहास के जनक कौन हैं? - madhyakaaleen itihaas ke janak kaun hain?

1 जवाब

Vokal App bridges the knowledge gap in India in Indian languages by getting the best minds to answer questions of the common man. The Vokal App is available in 11 Indian languages. Users ask questions on 100s of topics related to love, life, career, politics, religion, sports, personal care etc. We have 1000s of experts from different walks of life answering questions on the Vokal App. People can also ask questions directly to experts apart from posting a question to the entire answering community. If you are an expert or are great at something, we invite you to join this knowledge sharing revolution and help India grow. Download the Vokal App!

712 AD से 1707

यह विषय निम्न पर आधारित एक श्रृंखला का हिस्सा हैं:

भारत का इतिहास

प्राचीन

  • निओलिथिक, c. 7600 – c. 3300 BCE
  • सिन्धु घाटी सभ्यता, c. 3300 – c. 1700 BCE
  • उत्तर-सिन्धु घाटी काल, c. 1700 – c. 1500 BCE
  • वैदिक सभ्यता, c. 1500 – c. 500 BCE
    • प्रारम्भिक वैदिक काल
      • श्रमण आन्दोलन का उदय
    • पश्चात वैदिक काल
      • जैन धर्म का प्रसार - पार्श्वनाथ
      • जैन धर्म का प्रसार - महावीर
      • बौद्ध धर्म का उदय
  • महाजनपद, c. 500 – c. 345 BCE
  • नंद वंश, c. 345 – c. 322 BCE
  • मौर्या वंश, c. 322 – c. 185 BCE
  • शुंग वंश, c. 185 – c. 75 BCE
  • कण्व वंश, c. 75 – c. 30 BCE
  • कुषाण वंश, c. 30 - c. 230 CE
  • सातवाहन वंश, c. 30 BCE - c. 220 CE

शास्त्रीय

  • गुप्त वंश, c. 200 - c. 550 CE
  • चालुक्य वंश, c. 543 - c. 753 CE
  • हर्षवर्धन वंश, c. 606 CE - c. 647 CE
  • कार्कोट वंश, c. 724 - c. 760 CE
  • अरब अतिक्रमण, c. 738 CE
  • त्रिपक्षीय संघर्ष, c. 760 - c. 973 CE
    • गुर्जर-प्रतिहार, पाल और राष्ट्रकूट साम्राज्य
  • चोल वंश, c. 848 - c. 1251 CE
  • द्वितीय चालुक्य वंश(पश्चिमी चालुक्य), c. 973 - c. 1187 CE

मध्ययुगीन

  • दिल्ली सल्तनत, c. 1206 - c. 1526 CE
    • ग़ुलाम वंश
    • ख़िलजी वंश
    • तुग़लक़ वंश
    • सैयद वंश
    • लोदी वंश
  • पाण्ड्य वंश, c. 1251 - c. 1323 CE
  • विजयनगर साम्राज्य, c. 1336 - c. 1646 CE
  • बंगाल सल्तनत, c. 1342 - c. 1576 CE
  • मुग़ल वंश, c. 1526 - c. 1540 CE
  • सूरी वंश, c. 1540 - c. 1556 CE
  • मुग़ल वंश, c. 1556 - c. 1707 CE
  • मराठा साम्राज्य, c. 1674 - c. 1818 CE

आधुनिक

  • मैसूर की राजशाही, c. 1760 - c. 1799 CE
  • कम्पनी राज, c. 1757 - c. 1858 CE
  • सिख साम्राज्य, c. 1799 - c. 1849 CE
  • प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, c. 1857 - c. 1858 CE
  • ब्रिटिश राज, c. 1858 - c. 1947 CE
    • स्वतन्त्रता आन्दोलन
  • स्वतन्त्र भारत, c. 1947 CE - वर्तमान

सम्बन्धित लेख

  • भारतीय इतिहास की समयरेखा
  • भारतीय इतिहास में वंश
  • आर्थिक इतिहास
  • भाषाई इतिहास
  • वास्तुशास्त्रीय इतिहास
  • कला का इतिहास
  • साहित्यिक इतिहास
  • दार्शनिक इतिहास
  • धर्म का इतिहास
  • संगीतमय इतिहास
  • शिक्षा का इतिहास
  • मुद्रांकन इतिहास
  • विज्ञान और प्रौद्योगिकी का इतिहास
  • आविष्कारों और खोजों की सूची
  • सैन्य इतिहास
  • नौसैन्य इतिहास

  • दे
  • वा
  • सं

  • दक्षिण एशिया तथा
भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास
मध्यकालीन इतिहास के जनक कौन हैं? - madhyakaaleen itihaas ke janak kaun hain?

पाषाण युग (७०००–३००० ई.पू.)

  • निम्न पुरापाषाण (२० लाख वर्ष पूर्व)
  • मध्य पुरापाषाण (८० हजार वर्ष पूर्व)
  • मध्य पाषाण (१२ हजार वर्ष पूर्व)
  • (नवपाषाण)
  •  – मेहरगढ़ संस्कृति (७०००–३३०० ई.पू.)
  • ताम्रपाषाण (६००० ई.पू.)

कांस्य युग (३०००–१३०० ई.पू.)

  • सिन्धु घाटी सभ्यता (३३००–१३०० ई.पू.)
  •  – प्रारंभिक हड़प्पा संस्कृति (३३००–२६०० ई.पू.)
  •  – परिपक्व हड़प्पा संस्कृति (२६००–१९०० ई.पू.)
  •  – गत हड़प्पा संस्कृति (१७००–१३०० ई.पू.)
  • गेरूए रंग के मिट्टी के बर्तनों संस्कृति (२००० ई.पू. से)
  • गांधार कब्र संस्कृति (१६००–५०० ई.पू.)

लौह युग (१२००–२६ ई.पू.)

  • वैदिक सभ्यता (२०००–५०० ई.पू.)
  •  – जनपद (१५००-६०० ई.पू.)
  •  – काले और लाल बर्तन की संस्कृति (१३००–१००० ई.पू.)
  •  – धूसर रंग के बर्तन की संस्कृति (१२००–६०० ई.पू.)
  •  – उत्तरी काले रंग के तराशे बर्तन (७००–२०० ई.पू.)
  •  – मगध महाजनपद (५००–३२१ ई.पू.)
  • प्रद्योत वंश (७९९–६८४ ई.पू.)
  • हर्यक राज्य (६८४–४२४ ई.पू.)
  • तीन अभिषिक्त साम्राज्य (६०० ई.पू.-१६०० ई.)
  • महाजनपद (६००–३०० ई.पू.)
  • रोर राज्य (४५० ई.पू.–४८९ ईसवी)
  • शिशुनागा राज्य (४१३–३४५ ई.पू.)
  • नंद साम्राज्य (४२४–३२१ ई.पू.)
  • मौर्य साम्राज्य (३२१–१८४ ई.पू.)
  • पाण्ड्य साम्राज्य (३०० ई.पू.–१३४५ ईसवी)
  • चेर राज्य (३०० ई.पू.–११०२ ईसवी)
  • चोल साम्राज्य (३०० ई.पू.–१२७९ ईसवी)
  • पल्लव साम्राज्य (२५० ई.पू.–८०० ईसवी)
  • महा-मेघा-वाहन राजवंश (२५० ई.पू.–४०० ईसवी)

मध्य साम्राज्य (२३० ई.पू.–१२०६ ईसवी)

  • सातवाहन साम्राज्य (२३० ई.पू.–२२० ईसवी)
  • कूनिंदा राज्य (२०० ई.पू.–३०० ईसवी)
  • मित्रा राजवंश (१५० ई.पू.-५० ई.पू.)
  • शुंग साम्राज्य (१८५–७३ ई.पू.)
  • हिन्द-यवन राज्य (१८० ई.पू.–१० ईसवी)
  • कानवा राजवंश (७५–२६ ई.पू.)
  • हिन्द-स्क्य्थिंस राज्य (२०० ई.पू.–४०० ईसवी)
  • हिंद-पार्थियन राज्य (२१–१३० ईसवी)
  • पश्चिमी क्षत्रप साम्राज्य (३५–४०५ ईसवी)
  • कुषाण साम्राज्य (६०–२४० ईसवी)
  • भारशिव राजवंश (१७०-३५० ईसवी)
  • पद्मावती के नागवंश (२१०-३४० ईसवी)
  • हिंद-सासनिद् राज्य (२३०–३६० ईसवी)
  • वाकाटक साम्राज्य (२५०–५०० ईसवी)
  • कालाब्रा राज्य (२५०–६०० ईसवी)
  • गुप्त साम्राज्य (२८०–५५० ईसवी)
  • कदंब राज्य (३४५–५२५ ईसवी)
  • पश्चिम गंग राज्य (३५०–१००० ईसवी)
  • कामरूप राज्य (३५०–११०० ईसवी)
  • विष्णुकुंड राज्य (४२०–६२४ ईसवी)
  • मैत्रक राजवंश (४७५–७६७ ईसवी)
  • हुन राज्य (४७५–५७६ ईसवी)
  • राय राज्य (४८९–६३२ ईसवी)
  • चालुक्य साम्राज्य (५४३–७५३ ईसवी)
  • शाही साम्राज्य (५००–१०२६ ईसवी)
  • मौखरी राज्य (५५०–७०० ईसवी)
  • हर्षवर्धन साम्राज्य (५९०–६४७ ईसवी)
  • तिब्बती साम्राज्य (६१८-८४१ ईसवी)
  • पूर्वी चालुक्यों राज्य (६२४–१०७५ ईसवी)
  • गुर्जर-प्रतिहार राज्य (६५०–१०३६ ईसवी)
  • पाल साम्राज्य (७५०–११७४ ईसवी)
  • राष्ट्रकूट साम्राज्य (७५३–९८२ ईसवी)
  • परमार राज्य (८००–१३२७ ईसवी)
  • यादवों राज्य (८५०–१३३४ ईसवी)
  • सोलंकी राज्य (९४२–१२४४ ईसवी)
  • प्रतीच्य चालुक्य राज्य (९७३–११८९ ईसवी)
  • लोहारा राज्य (१००३-१३२० ईसवी)
  • होयसल राज्य (१०४०–१३४६ ईसवी)
  • सेन राज्य (१०७०–१२३० ईसवी)
  • पूर्वी गंगा राज्य (१०७८–१४३४ ईसवी)
  • काकतीय राज्य (१०८३–१३२३ ईसवी)
  • ज़मोरीन राज्य (११०२-१७६६ ईसवी)
  • कलचुरी राज्य (११३०–११८४ ईसवी)
  • शुतीया राजवंश (११८७-१६७३ ईसवी)
  • देव राजवंश (१२००-१३०० ईसवी)

देर मध्ययुगीन युग (१२०६–१५९६ ईसवी)

  • दिल्ली सल्तनत (१२०६–१५२६ ईसवी)
  •  – ग़ुलाम सल्तनत (१२०६–१२९० ईसवी)
  •  – ख़िलजी सल्तनत (१२९०–१३२० ईसवी)
  •  – तुग़लक़ सल्तनत (१३२०–१४१४ ईसवी)
  •  – सय्यद सल्तनत (१४१४–१४५१ ईसवी)
  •  – लोदी सल्तनत (१४५१–१५२६ ईसवी)
  • आहोम राज्य (१२२८–१८२६ ईसवी)
  • चित्रदुर्ग राज्य (१३००-१७७९ ईसवी)
  • रेड्डी राज्य (१३२५–१४४८ ईसवी)
  • विजयनगर साम्राज्य (१३३६–१६४६ ईसवी)
  • बंगाल सल्तनत (१३५२-१५७६ ईसवी)
  • गढ़वाल राज्य (१३५८-१८०३ ईसवी)
  • मैसूर राज्य (१३९९–१९४७ ईसवी)
  • गजपति राज्य (१४३४–१५४१ ईसवी)
  • दक्खिन के सल्तनत (१४९०–१५९६ ईसवी)
  •  – अहमदनगर सल्तनत (१४९०-१६३६ ईसवी)
  •  – बेरार सल्तनत (१४९०-१५७४ ईसवी)
  •  – बीदर सल्तनत (१४९२-१६९९ ईसवी)
  •  – बीजापुर सल्तनत (१४९२-१६८६ ईसवी)
  •  – गोलकुंडा सल्तनत (१५१८-१६८७ ईसवी)
  • केलाड़ी राज्य (१४९९–१७६३)
  • कोच राजवंश (१५१५–१९४७ ईसवी)

प्रारंभिक आधुनिक काल (१५२६–१८५८ ईसवी)

  • मुग़ल साम्राज्य (१५२६–१८५८ ईसवी)
  • सूरी साम्राज्य (१५४०–१५५६ ईसवी)
  • मदुरै नायक राजवंश (१५५९–१७३६ ईसवी)
  • तंजावुर राज्य (१५७२–१९१८ ईसवी)
  • बंगाल सूबा (१५७६-१७५७ ईसवी)
  • मारवा राज्य (१६००-१७५० ईसवी)
  • तोंडाइमन राज्य (१६५०-१९४८ ईसवी)
  • मराठा साम्राज्य (१६७४–१८१८ ईसवी)
  • सिक्खों की मिसलें (१७०७-१७९९ ईसवी)
  • दुर्रानी साम्राज्य (१७४७–१८२३ ईसवी)
  • त्रवनकोर राज्य (१७२९–१९४७ ईसवी)
  • सिख साम्राज्य (१७९९–१८४९ ईसवी)

औपनिवेशिक काल (१५०५–१९६१ ईसवी)

  • पुर्तगाली भारत (१५१०–१९६१ ईसवी)
  • डच भारत (१६०५–१८२५ ईसवी)
  • डेनिश भारत (१६२०–१८६९ ईसवी)
  • फ्रांसीसी भारत (१७५९–१९५४ ईसवी)
  • कंपनी राज (१७५७–१८५८ ईसवी)
  • ब्रिटिश राज (१८५८–१९४७ ईसवी)
  • भारत का विभाजन (१९४७ ईसवी)

श्रीलंका के राज्य

  • टैमबापन्नी के राज्य (५४३–५०५ ई.पू.)
  • उपाटिस्सा नुवारा का साम्राज्य (५०५–३७७ ई.पू.)
  • अनुराधापुरा के राज्य (३७७ ई.पू.–१०१७ ईसवी)
  • रोहुन के राज्य (२०० ईसवी)
  • पोलोनारोहवा राज्य (३००–१३१० ईसवी)
  • दम्बदेनिय के राज्य (१२२०–१२७२ ईसवी)
  • यपहुव के राज्य (१२७२–१२९३ ईसवी)
  • कुरुनेगाल के राज्य (१२९३–१३४१ ईसवी)
  • गामपोला के राज्य (१३४१–१३४७ ईसवी)
  • रायगामा के राज्य (१३४७–१४१२ ईसवी)
  • कोटि के राज्य (१४१२–१५९७ ईसवी)
  • सीतावाखा के राज्य (१५२१–१५९४ ईसवी)
  • कैंडी के राज्य (१४६९–१८१५ ईसवी)
  • पुर्तगाली सीलोन (१५०५–१६५८ ईसवी)
  • डच सीलोन (१६५६–१७९६ ईसवी)
  • ब्रिटिश सीलोन (१८१५–१९४८ ईसवी)

राष्ट्र इतिहास

  • अफ़्गानिस्तान
  • बांग्लादेश
  • भूटान
  • भारत
  • मालदीव
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्रीलंका

क्षेत्रीय इतिहास

  • असम
  • बिहार
  • बलूचिस्तान
  • बंगाल
  • हिमाचल प्रदेश
  • महाराष्ट्र
  • मध्य भारत
  • उत्तर प्रदेश
  • पंजाब
  • ओड़िशा
  • सिंध
  • दक्षिण भारत
  • तिब्बत

विशेष इतिहास

  • सिक्का
  • राजवंशों
  • आर्थिक
  • इंडोलॉजी
  • भाषाई
  • साहित्य
  • सेना
  • विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी
  • समयचक्र

  • दे
  • वा
  • सं

मध्ययुगीन भारत, "प्राचीन भारत" और "आधुनिक भारत" के बीच भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास की लंबी अवधि को दर्शाता है। अवधि की परिभाषाओं में व्यापक रूप से भिन्नता है, और आंशिक रूप से इस कारण से, कई इतिहासकार अब इस शब्द को प्रयोग करने से बचते है।[1]

अधिकतर प्रयोग होने वाले पहली परिभाषा में यूरोपीय मध्य युग की तरह इस काल को छठी शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक माना जाता है। इसे दो अवधियों में विभाजित किया जा सकता है: 'प्रारंभिक मध्ययुगीन काल' 6वीं[2] से लेकर 13वीं शताब्दी तक और 'गत मध्यकालीन काल' जो 13वीं से 16वीं शताब्दी तक चली, और 1526 में मुगल साम्राज्य की शुरुआत के साथ समाप्त हो गई। 16वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक चले मुगल काल को अक्सर "प्रारंभिक आधुनिक काल" के रूप में जाना जाता है,[3] लेकिन कभी-कभी इसे "गत मध्ययुगीन" काल में भी शामिल कर लिया जाता है।

एक वैकल्पिक परिभाषा में, जिसे हाल के लेखकों के प्रयोग में देखा जा सकता है, मध्यकालीन काल की शुरुआत को आगे बढ़ा कर 10वीं या 12वीं सदी बताया जाता है। और इस काल के अंत को 18वीं शताब्दी तक धकेल दिया गया है, अत: इस अवधि को प्रभावी रूप से मुस्लिम वर्चस्व (उत्तर भारत) से ब्रिटिश भारत की शुरुआत के बीच का माना जा सकता है। अत: 8वीं शताब्दी से 11वीं शताब्दी के अवधि को "प्रारंभिक मध्ययुगीन काल" कहा जायेगा।[4]

प्रारंभिक मध्यकालीन युग (8वीं से 11वीं शताब्दी)[संपादित करें]

मध्यकाल के प्रारम्भ को लेकर इतिहासकारों के बीच मतभेद जहाँ कुछ इतिहासकार इसे गुप्त राजवंश के पतन के बाद ५-छटी शताब्दी के बाद से शुरू हुआ मानते है जबकि कुछ इसे ७-८वीं शताब्दी से शुरू हुआ मानते है। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद और दिल्ली सल्तनत के शुरू होने के बीच भारतवर्ष कई छोटे राज्य में बटा हुआ था। हलांकि कई साम्राज्यों ने इसे पुनर्गठित करने की कोशिश की लेकिन ज्यादा समय के लिये नहीं कर सके। इस दौर में सबसे महत्वपूर्ण गुर्जर-प्रतिहार, पाल और राष्ट्रकूट साम्राज्य के बीच त्रिपक्षीय संघर्ष और भारत पर मुस्लिम आक्रमण का शुरूआत रहा। उस दौर के कुछ राजवंश जिन्होनें शासन किया।

  • राष्ट्रकूट राजवंश - यह कन्नड़ शाही राजवंश 6वीं से 10वीं शताब्दी के बीच भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े हिस्से पर शासन करता था इसी दौर में एलोरा, महाराष्ट्र का निर्माण किया गया।
  • गुर्जर-प्रतिहार राजवंश -
  • पूर्वी चालुक्य - 7वीं से 12वीं शताब्दी तक, एक दक्षिण भारतीय तेलगू राजवंश जिसका राज्य वर्तमान में आंध्र प्रदेश में स्थित था।
  • पल्लव राजवंश - कांचीपुरम में केन्द्रित, 6वीं से 9वीं शताब्दियों तक तेलुगू और कुछ तमिल क्षेत्रों के महत्वपूर्ण शासक रहे।
  • पाल राजवंश - बंगाल में 8वीं से 12वीं शताब्दी तक के अंतिम प्रमुख बौद्ध शासक थे। 9वीं सदी में अधिकांश उत्तर भारत में इनका नियंत्रण था।
  • चोल राजवंश - 9वीं से 13वीं शताब्दी के बीच एक दक्षिण भारतीय साम्राज्य जो तमिलनाडु से शासन करता था, अपनी स्वर्णकाल पर इसने अपने शासन को दक्षिण पूर्व एशियाई क्षेत्रों तक विस्तारित किया था।
  • पश्चिमी चालुक्य -
  • कलचुरि राजवंश -
  • पश्चिम गंग वंश -
  • पूर्वी गंगवंश -
  • होयसल राजवंश -
  • काकतीय वंश -
  • सेन राजवंश
  • परमार राजवंश
  • कर्नाट वंश

गत मध्यकालीन युग (12वीं से 18वीं शताब्दी)[संपादित करें]

पश्चिम से मुस्लिम आक्रमणों में तेजी[संपादित करें]

फ़ारस पर अरबी तथा तुर्कों के विजय के बाद ११वीं सदी में इन शासकों का ध्यान भारत की ओर गया। इसके पहले छिटपुट रूप से कुछ मुस्लिम शासक उत्तर भारत के कुछ इलाकों को जीत या राज कर चुके थे पर इनका प्रभुत्व तथा शासनकाल अधिक नहीं रहा था। हालाँकि अरब सागर के मार्ग से अरब के लोग दक्षिण भारत के कई इलाकों खासकर केरल से अपना व्यापार संबंध इससे कई सदी पहले से बनाए हुए थे, पर इससे भी इन दोनों प्रदेशों के बीच सांस्कृतिक आदान प्रदान बहुत कम ही हुआ था।

दिल्ली सल्तनत[संपादित करें]

१२वीं सदी के अंत तक भारत पर तुर्क, अफ़गान तथा फ़ारसी आक्रमण बहुत तेज हो गए थे। मुहम्मद गौरी के बारंबार आक्रमण ने दिल्ली सल्तनत को हिला कर रख दिया। ११९२ इस्वी में तराईन के युद्ध में दिल्ली के चौहान वंश के शासक पृथ्वीराज चौहान पराजित हुए और इसके बाद दिल्ली की सत्ता पर पश्चिमी आक्रांताओं का कब्जा हो गया। हालाँकि मुहम्मद गौरी पृथ्वीराज को हराकर वापस लौट गया पर उसके ग़ुलामों (दास) ने दिल्ली की सत्ता पर राज किया और आगे यही दिल्ली सल्तनत की नींव साबित हुई।

दिल्ली की सल्तनत पर पांच वंशों ने शासन किया-

  1. ग़ुलाम वंश
  2. ख़िलजी वंश
  3. तुग़लक़ वंश
  4. सैयद वंश
  5. लोदी वंश

विजयनगर साम्राज्य[संपादित करें]

विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हरिहर तथा बुक्का नामक दो भाइयों ने की थी। यह 14वीं सदी में अपने चरम पर पहुँच गया था जब कृष्णा नदी के दक्षिण का सम्पूर्ण भूभाग इस साम्राज्य के अन्तर्गत आ गया था। यह उस समय भारत का एकमात्र हिन्दू राज्य था। हालाँकि अलाउद्दीन खिल्जी द्वारा कैद किये जाने के बाद हरिहर तथा बुक्का ने इस्लाम कबूल कर लिया था जिसके बाद उन्हें दक्षिण विजय के लिए भेजा गया था। पर इस अभियान में सफलता न मिल पाने के कारण उन्होंने विद्यारण्य नामक संत के प्रभाव में उन्होंने वापस हिन्दू धर्म अपना लिया था। उस समय विजयनगर के शत्रुओं में बहमनी, अहमदनगर, होयसल बीजापुर तथा गोलकुंडा के राज्य थे।

विजयनगर साम्राज्य पर चार राजवंशों ने शासन किया-

  1. संगम राजवंश
  2. सुलुव राजवंश
  3. तुलुव राजवंश
  4. अराविदु राजवंश

दिल्ली सल्तनत का पतन[संपादित करें]

लोदी शासको के कई गलत निर्णयों के कारण प्रजा का उनके प्रति असंतुष्टी तेजी से फैलने लगी। फिरोज शाह तुगलक ने स्थायी सेना समाप्त करके सामन्ती सेना का गठन किया। सैनिकों के वेतन समाप्त कर के ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि अनुदान दिया गया। जिससे सैना भी लाभ पाकर शिथिल पड़ने लगी। प्रशासनिक दुर्बलता, आर्थिक संकट, न्याय व्यवस्था में लचीलापन, जजिया व अन्य कर लगाने जैसे कई कारण थे। जो लोदी वंश के पतन के कारण बने।

मुग़ल वंश[संपादित करें]

पंद्रहवीं सदी के शुरुआत में मध्य एशिया में फ़रगना के निर्वासित राजकुमार जाहिरुद्दीन (बाबर) काबुल में आ बसे। वहा वे फारसी साम्राज्य का काबुल प्रान्त का अधिपति नियुक्त थे। दिल्ली के निर्बल शासक और दौलत खान (पंजाब का अधिपति) के बुलावे में बाबर ने दिल्ली की ओर कुच किया जहाँ उसका इब्राहीम लोदी के साथ युद्ध हुआ। जिसमें लोदी की हार हुई और इसके साथ ही भारत में मुगल वंश की नींव पड़ गई जिसने अगले 300 वर्षों तक एकछत्र राज्य किया। दिल्ली में स्थापित होने के बाद बाबर को राजपूत विद्रोह का सामना करना पड़ा। राजपूत शासक राणा सांगा के साथ खानवा का युद्ध हुआ जिसमें बाबर फिर विजयी हुआ। बाबर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र हूमाय़ूं शासक बना। उसे दक्षिण बिहार के सरगना शेरशाह सूरी ने हराकर सत्ताच्युत कर दिया, लेकिन शेरशाह की मृत्यु के बाद उसने दिल्ली की सत्ता पर वापस अधिकार कर लिया।

हुमायुँ का पुत्र अकबर एक महान शासक साबित हुआ और उसने साम्राज्य विस्तार के अतिरिक्त धार्मिक सहिष्णुता तथा उदार राजनीति का परिचय दिया। वह एक लोकप्रिय शासक भी था। उसके बाद जहाँगीर तथा शाहजहाँ सम्राट बने। शाहजहाँ ने ताजमहल का निर्माण करवाया जो आज भी मध्यकालीन दुनिया के सात आश्चर्यों में गिना जाता है। इसके बाद औरंगजेब आया। उसके शासनकाल में कई धार्मिक व सैनिक विद्रोह हुए। हालाँकि वो सभी विद्रोहों पर काबू पाने में विफल रहा पर सन् १७०७ में उसकी मृत्यु का साथ ही साम्राज्य का विघटन आरंभ हो गया था। एक तरफ मराठा तो दूसरी तरफ अंग्रेजों के आक्रमण ने दिल्ली के बादशाह को नाममात्र का ही बादशाह बनाकर छोडा।

मराठा साम्राज्य[संपादित करें]

जिस समय बहमनी सल्तनत का पतन हो रहा था उस समय मुगल साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर था - विशाल साम्राज्य, बगावतों से दूर और विलासिता में डूबा हुआ। उस समय शाहजहाँ का शासन था और शहज़ादा औरंगजेब उसका दक्कन का सूबेदार था। बहमनी के सबसे शक्तिशाली परवर्ती राज्यों में बीजापुर तथा गोलकुण्डा के राज्य थे। बीजापुर के कई सूबेदारों में से एक थे शाहजी। शाहजी एक मराठा थे और पुणे और उसके दक्षिण के इलाकों के सूबेदार। शाहजी की दूसरी पत्नी जीजाबाई से उनके पुत्र थे शिवाजी। शिवाजी बाल्यकाल से ही पिता की उपेक्षा के शिकार थे क्योंकि शाहजी अपनी पहली पत्नी पर अधिक आसक्त थे। शिवाजी ने बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह को खबर भिजवाई कि अगर वे उन्हें वहां का किला दे देंगे तो शिवाजी उन्हें तत्कालीन किलेदार के मुकाबिले अधिक पैसे देंगे। सुल्तान ने अपने दरबारियों की सलाह पर - जिन्हें शिवाजी ने पहले ही घूस देकर अपने पक्ष में कर लिया था - किला शिवाजी को दे दिया। इसके बाद शिवाजी ने एक के बाद एक कई किलों पर अधिकार कर लिया। बीजापुर के सुल्तान को शिवाजी की बढ़ती प्रभुता देखकर गुस्सा आया और उन्होंने शाहजी को अपने पुत्र को नियंत्रण पर रखने को कहा। शाहजी की बात पर शिवाजी ने कोई ध्यान नहीं दिया और मावलों की सहायता से अपने अधिकार क्षेत्र में बढ़ोतरी करते गए। आदिल शाह ने अफ़ज़ल खाँ को शिवाजी को ग़िरफ़्तार करने के लिए भेजा। शिवाजी ने अफ़ज़ल की समझते हुए उसकी सेना का वध कर दिया। इस के बाद शिवाजी के पिता शाहजी को गिरफ्तार कर लिया गया। शिवाजी ने अपने पिता को छुड़ा लिया और समझौते के मुताबिक बीजापुर के खिलाफ़ आक्रमण बन्द कर दिया।

मध्यकालीन इतिहास के जनक कौन हैं? - madhyakaaleen itihaas ke janak kaun hain?

आदिलशाह की मृत्यु के बाद बीजापुर में अराजकता छा गई और स्थिति को देखकर औरंगजेब ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया। शिवाजी ने तो उस समय तक औरंगजेब के साथ संधि वार्ता जारी रखी थी पर इस मौके पर उन्होंने कुछ मुगल किलों पर आक्रमण किया और उन्हें लूट लिया। औरंगजेब इसी बीच शाहजहाँ की बीमारी के बारे में पता चलने के कारण आगरा चला गया और वहाँ वो शाहजहाँ को कैद कर खुद शाह बन गया। औरंगजेब के बादशाह बनने के बाद उसकी शक्ति काफ़ी बढ़ गई और शिवाजी ने औरंगजेब से मुगल किलों को लूटने के सम्बन्ध में माफ़ी मांगी। अब शिवाजी ने बीजापुर के खिलाफ़ आक्रमण तेज कर दिया। अब शाहजी ने बीजापुर के सुल्तान की अपने पुत्र को सम्हालने के निवेदन पर अपनी असमर्थता ज़ाहिर की और शिवाजी एक-एक कर कुछ ४० किलों के मालिक बन गए। उन्होंने सूरत को दो बार लूटा और वहाँ मौजूद डच और अंग्रेज कोठियों से भी धन वसूला। वापस आते समय उन्होंने मुगल सेना को भी हराया। मुगलों से भी उनका संघर्ष बढ़ता गया और शिवाजी की शक्ति कोंकण और दक्षिण-पश्चिम महाराष्ट्र में सुदृढ़ में स्थापित हो गई।

उत्तर में उत्तराधिकार सम्बंधी विवाद के खत्म होते और सिक्खों को शांत करने के बाद औरंगजेब दक्षिण की ओर आया। उसने शाइस्ता खाँ को शिवाजी के खिलाफ भेजा पर शिवाजी किसी तरह भाग निकलने में सफल रहे। लेकिन एक युद्ध में मुगल सेना ने मराठों को कगार पर पहुँचा दिया। स्थिति की नाजुकता को समझते हुए शिवाजी ने मुगलों से समझौता कर लिया और औरंगजेब ने शिवाजी और उनके पुत्र शम्भाजी को मनसबदारी देने का वचन देकर आगरा में अपने दरबार में आमंत्रित किया। आगरा पहुँचकर अपने ५००० हजार की मनसबदारी से शिवाजी खुश नहीं हुए और आरंगजेब को भरे दरबार में भला-बुरा कहा। औरंगजेब ने इस अपमान का बदला लेने के लिए शिवाजी को शम्भाजी के साथ नजरबन्द कर दिया। लेकिन दोनों पहरेदारों को धोखा में डालकर फूलों की टोकरी में छुपकर भागने में सफल रहे। बनारस, गया और पुरी होते हुए शिवाजी वापस पुणे पहुँच गए। इससे मराठों में जोश आ गया और इसी बाच शाहजी का मृत्यु १६७४ में हो गई और शिवाजी ने अपने आप को राजा घोषित कर दिया।

अपने जीवन के आखिरी दिनों में शिवाजी ने अपना ध्यान दक्षिण की ओर लगाया और मैसूर को अपने साम्राज्य में मिला लिया। १६८० में उनकी मृत्यु के समय तक मराठा साम्राज्य एक स्थापित राज के रूप में उभर चुका था और कृष्णा से कावेरी नदी के बीच के इलाकों में उनका वर्चस्व स्थापित हो चुका था। शिवाजी के बाद उनके पुत्र सम्भाजी (शम्भाजी) ने मराठों का नेतृत्व किया। आरंभ में तो वे सफल रहे पर बाद में उन्हें मुगलों से हार का मुँह देखना पड़ा। औरंगजेब ने उन्हें पकड़कर कैद कर दिया। कैद में औरंगजेब ने शम्भाजी से मुगल दरबार के उन बागियों का नाम पता करने की कोशिश की जो मुगलों के खिलाफ विश्वासघात कर रहे थे। इस कारण उन्हें यातनाए दी गई और अन्त में तंग आकर उन्होंने औरंगजेब को भला बुरा कहा और संदेश भिजवाया कि वे औरंगजेब की बेटी से शादी करना चाहते हैं। उनकी भाषा और संदेश से क्षुब्ध होकर औरंगजेब ने शम्भाजी को टुकड़े टुकड़े काटकर उनके मांस को कुत्तों को खिलाने का आदेश दे दिया।

शम्भाजी की मृत्यु के बाद शिवाजी के दूसरे पुत्र राजाराम ने गद्दी सम्हाली। उनके समय मराठों का उत्तराधिकार विवाद गहरा गया पर औरंगजेब भी बूढ़ा हो चला था इस लिए मराठों को सफलता मिलने लगी और वे उत्तर में नर्मदा नदी तक पहुँच गए। बीजापुर का पतन हो गया था और मराठों ने बीजापुर के मुगल क्षेत्रों पर भी अधिकार कर लिया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद तो मुगल साम्राज्य कमजोर होता चला गया और उत्तराधिकार विवाद के बावजूद मराठे शक्तिशाली होते चले गए। उत्तराधिकार विवाद के चलते मराठाओं की शक्ति पेशवाओं (प्रधानमंत्री) के हाथ में आ गई और पेशवाओं के अन्दर मराठा शक्ति में और भी विकार हुआ और वे दिल्ली तक पहुँच गए। १७६१ में नादिर शाह के सेनापति अहमद शाह अब्दाली ने मराठाओं को पानीपत की तीसरी लड़ाई में हरा दिया। इसके बाद मराठा शक्ति का ह्रास होता गया। उत्तर में सिक्खों का उदय होता गया और दक्षिण में मैसूर स्वायत्त होता गया। अंग्रेजों ने भी इस कमजोर राजनैतिक स्थिति को देखकर अपना प्रभुत्व स्थापित करना आरंभ कर दिया। बंगाल और अवध पर उनका नियंत्रण १७७० तक स्थापित हो गया था और अब उनकी निगाह मैसूर पर टिक गई थी।

यूरोपीय शक्तियों का प्रादुर्भाव[संपादित करें]

भारत की समृद्धि को देखकर पश्चिमी देशों में भारत के साथ व्यापार करने की इच्छा पहले से थी। यूरोपीय नाविकों द्वारा सामुद्रिक मार्गों का पता लगाना इन्हीं लालसाओं का परिणाम था। तेरहवीं सदी के आसपास मुसलमानों का अधिपत्य भूमध्य सागर और उसके पूरब के क्षेत्रों पर हो गया था और इस कारण यूरोपी देशों को भारतीय माल की आपूर्ति ठप पड़ गई। उस पर भी इटली के वेनिस नगर में चुंगी देना उनको रास नहीं आता था। कोलंबस भारत का पता लगाने अमरीका पहुँच गया और सन् 1487-88 में पेडरा द कोविल्हम नाम का एक पुर्तगाली नाविक पहली बार भारत के तट पर मालाबार पहुँचा। भारत पहुचने वालों में पुर्तगाली सबसे पहले थे इसके बाद डच आए और डचों ने पुर्तगालियों से कई लड़ाईयाँ लड़ीं। भारत के अलावा श्रीलंका में भी डचों ने पुर्तगालियों को खडेड़ दिया। पर डचों का मुख्य आकर्षण भारत न होकर दक्षिण पूर्व एशिया के देश थे। अतः उन्हें अंग्रेजों ने पराजित किया जो मुख्यतः भारत से अधिकार करना चाहते थे। आरंभ में तो इन यूरोपीय देशों का मुख्य काम व्यापार ही था पर भारत की राजनैतिक स्थिति को देखकर उन्होंने यहाँ साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक नीतियाँ अपनानी आरंभ की।

पुर्तगाली[संपादित करें]

22 मई 1498 को पुर्तगाल का वास्को डी गामा भारत के तट पर आया जिसके बाद भारत आने का रास्ता तय हुआ। उसने कालीकट के राजा से व्यापार का अधिकार प्राप्त कर लिया पर वहाँ सालों से स्थापित अरबी व्यापारियों ने उसका विरोध किया। 1499 में वास्को-डी-गामा स्वदेश लौट गया और उसके वापस पहुँचने के बाद ही लोगों को भारत के सामुद्रिक मार्ग की जानकारी मिली।

सन् 1500 में पुर्तगालियों ने कोचीन के पास अपनी कोठी बनाई। शासक सामुरी (जमोरिन) से उसने कोठी की सुरक्षा का भी इंतजाम करवा लिया क्योंकि अरब व्यापारी उसके ख़िलाफ़ थे। इसके बाद कालीकट और कन्ननोर में भी पुर्तगालियों ने कोठियाँ बनाई। उस समय तक पुर्तगाली भारत में अकेली यूरोपी व्यापारिक शक्ति थी। उन्हें बस अरबों के विरोध का सामना करना पड़ता था। सन् 1506 में पुर्तगालियों ने गोवा पर अपना अधिकार कर लिया। ये घटना जमोरिन को पसन्द नहीं आई और वो पुर्तगालियों के खिलाफ हो गया। पुर्तगालियों के भारतीय क्षेत्र का पहला वायसऱय डी-अल्मीडा था। उसके बाद [[अल्बूकर्क](1509)] पुर्तगालियों का वायसराय नियुक्त हुआ। उसने 1510 में कालीकट के शासक जमोरिन का महल लूट लिया।

पुर्तगाली इसके बाद व्यापारी से ज्यादे साम्राज्यवादी नज़र आने लगे। वे पूरब के तट पर अपनी स्थिति सुदृढ़ करना चाहते थे। अल्बूकर्क के मरने के बाद पुर्तगाली और क्षेत्रों पर अधिकार करते गए। सन् 1571 में बीजापुर, अहमदनगर और कालीकट के शासकों ने मिलकर पुर्तगालियों को निकालने की चेष्टा की पर वे सफल नहीं हुए। 1579 में वे मद्रास के निकच थोमें, बंगाल में हुगली और चटगाँव में अधिकार करने में सफल रहे। 1580 में मुगल बादशाह अकबर के दरबार में पुर्तगालियों ने पहला ईसाई मिशन भेजा। वे अकबर को ईसाई धर्म में दीक्षित करना चाहते थे पर कई बार अपने नुमाइन्दों को भेजने के बाद भी वो सफल नहीं रहे। पर पुर्तगाली भारत के विशाल क्षेत्रों पर अधिकार नहीं कर पाए थे। उधर स्पेन के साथ पुर्तगाल का युद्ध और पुर्तगालियों द्वारा ईसाई धर्म के अन्धाधुन्ध और कट्टर प्रचार के के कारण वे स्थानीय शासकों के शत्रु बन गए और 1612 में कुछ मुगल जहाज को लूटने के बाद उन्हें भारतीय प्रदेशों से हाथ धोना पड़ा।

डच[संपादित करें]

पुर्तगालियों की समृद्धि देख कर डच भी भारत और श्रीलंका की ओर आकर्षित हुए। सर्वप्रथम 1598 में डचों का पहला जहाज अफ्रीका और जावा के रास्ते भारत पहुँचा। 1602 में प्रथम डच कम्पनी की स्थापना की गई जो भारत से व्यापार करने के लिए बनाई गई थी। इस समय तक अंग्रेज और फ्रांसिसी लोग भी भारत में पहुँच चुके थे पर नाविक दृष्टि से डच इनसे वरीय थे। सन् 1602 में डचों ने अम्बोयना पर पुर्तगालियों को हरा कर अधिकार कर लिया। इसके बाद 1612 में श्रीलंका में भी डचों ने पुर्गालियों को खदेड़ दिया। उन्होंने पुलीकट (1610), सूरत (1616), चिनसुरा (1653), क़ासिम बाज़ार, बड़ानगर, पटना, बालेश्वर (उड़ीसा), नागापट्टनम् (1659) और कोचीन (1653) में अपनी कोठियाँ स्थापित कर लीं। पर, एक तो डचों का मुख्य उद्येश्य भारत से व्यापार न करके पूर्वी एशिया के देशों में अपने व्यापार के लिए कड़ी के रूप में स्थापित करना था और दूसरे अंग्रेजों ओर फ्रांसिसियों ने उन्हें यहाँ और यूरोप दोनों जगह युद्धों में हरा दिया। इस कारण डचों का प्रभुत्व बहुत दिनों तक भारत में नहीं रह पाया था।

अंग्रेज़ और फ्रांसिसी[संपादित करें]

इंग्लैंड के नाविको को भारत का पता कोई 1578 इस्वी तक नहीं लग पाया था। 1578 में सर फ्रांसिस ड्रेक नामक एक अंग्रेज़ नाविक ने लिस्बन जाने वाले एक जहाज को लूट लिया। इस जहाज़ से उसे भारत जाने वाले रास्ते का मानचित्र मिला। 31 मई सन् 1600 को कुछ व्यापारियों ने इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ को ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना का अधिकार पत्र दिया। उन्हें पूरब के देशों के साथ व्यापार की अनुमति मिल गई। 1601-03 के दौरान कम्पनी ने सुमात्रा में वेण्टम नामक स्थान पर अपनी एक कोठी खोली। हेक्टर नाम का एक अंग्रेज़ नाविक सर्वप्रथम सूरत पहुँचा। वहाँ आकर वो आगरा गया और जहाँगीर के दरबार में अपनी एक कोठी खोलने की विनती की। जहाँगीर के दरबार में पुर्तगालियों की धाक पहले से थी। उस समय तक मुगलों से पुर्तगालियों की कोई लड़ाई नहीं हुई थी इस कारण पुर्तगालियों की मुगलों से मित्रता बनी हुई थी। हॉकिन्स को वापस लौट जाना पड़ा। पुर्तगालियों को अंग्रेजों ने 1612 में सूरत में पराजित कर दिया और सर टॉमस रो को इंग्लैंड के शासक जेम्स प्रथम ने अपना राजदूत बनाकर जहाँगीर के दरबार में भेजा। वहाँ उसे सूरत में अंग्रेजों को कोठी खोलने की अनुमति मिली।

इसके बाद बालासोर (बालेश्वर), हरिहरपुर, मद्रास (1633), हुगली (1651) और बंबई (1688) में अंग्रेज कोठियाँ स्थापित की गईं। पर अंग्रेजों की बढ़ती उपस्थिति और उनके द्वारा अपने सिक्के चलाने से मुगल नाराज हुए। उन्हें हुगली, कासिम बाज़ार, पटना, मछलीपट्नम्, विशाखा पत्तनम और बम्बई से निकाल दिया गया। 1690 में अंग्रेजों ने मुगल बादशाह औरंगजेब से क्षमा याचना की और अर्थदण्ड का भुगतानकर नई कोठियाँ खोलने और किलेबंदी करने की आज्ञा प्राप्त करने में सफल रहे।

इसी समय सन् 1611 में भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से एक फ्रांसीसी कंपनी की स्थापना की गई थी। फ्रांसिसियों ने 1668 में सूरत, 1669 में मछलीपट्नम् तथा 1674 में पाण्डिचेरी में अपनी कोठियाँ खोल लीं। आरंभ में फ्रांसिसयों को भी डचों से उलझना पड़ा पर बाद में उन्हें सफलता मिली और कई जगहों पर वे प्रतिष्ठित हो गए। पर बाद में उन्हें अंग्रेजों ने निकाल दिया।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Keay, 155 "... the history of what used to be called 'medieval' India ..."; Harle, 9 "I have eschewed the term 'medieval', meaningless in the Indian context, for the years from c. 950 to c. 1300 ..."
  2. Stein, Burton (27 April 2010), Arnold, D. (संपा॰), A History of India (2nd संस्करण), Oxford: Wiley-Blackwell, पृ॰ 105, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-4051-9509-6, मूल से 12 जून 2018 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 16 फ़रवरी 2018
  3. "India before the British: The Mughal Empire and its Rivals, 1526-1857". University of Exeter. मूल से 4 फ़रवरी 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 फ़रवरी 2018.
  4. Ahmed, xviii

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • पूर्व-मध्यकालीन भारत (गूगल पुस्तक)

मध्यकालीन इतिहास के जनक कौन है?

हेरोडोटस ( इतिहास का जनक).

मध्यकालीन इतिहास की शुरुआत कब हुई?

इसे दो अवधियों में विभाजित किया जा सकता है: 'प्रारंभिक मध्ययुगीन काल' 6वीं से लेकर 13वीं शताब्दी तक और 'गत मध्यकालीन काल' जो 13वीं से 16वीं शताब्दी तक चली, और 1526 में मुगल साम्राज्य की शुरुआत के साथ समाप्त हो गई।

इतिहास के पिता का नाम क्या था?

हेरोडोटस को इतिहास का पिता कहा जाता था क्योंकि वह वास्तव में उन घटनाओं को सही ढंग से दर्ज करने वाला पहला इतिहासकार था जो उस समय घटित हुई थी। पुरातनता के यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस के पास दुर्भाग्य से अपने स्वयं के जीवन का अभिलेख नहीं है।

भारत के इतिहास का जनक कौन है?

Megasthenes (Μεγασθένης, सीए 350 - 2 9 0 ईसा पूर्व) भारत के पहले विदेशी राजदूत थे और उन्होंने इंडिका के नाम से जाने वाली मात्रा में अपने नृवंशविज्ञान अवलोकन दर्ज किए। अपने अग्रणी काम के लिए उन्हें भारतीय इतिहास के पिता के रूप में जाना जाता है।