न्यायिक पुनर्विलोकन क्या है Drishti IAS - nyaayik punarvilokan kya hai drishti ias

(राष्ट्रीय मुद्दे) न्यायिक सक्रियता और सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान फैसले (Judicial Activism and Recent Verdicts of Supreme Court)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): सत्य प्रकाश (लीगल एडिटर, द ट्रिब्यून), एन .डी .पंचोली (वकील और सामजिक कार्यकर्त्ता)

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सन्दर्भ:

भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों लैंगिक समानता और निजता के अधिकार से सम्बंधित कई ऐसे फैसले सुनाये हैं , जिसे सामाजिक बदलाव की दिशा में मील का पत्थर माना जा रहा हैI IPC की धारा 377 यानि समलैंगिकता और 497 यानि अडल्ट्री कानून के प्रावधानों को असंवैधानिक घोषित करने का मसला हो या शबरीमाला मंदिर में किसी भी उम्र की महिलाओं के प्रवेश की अनुमति का फैसला हो। सर्वोच्च न्यायालय के इन सभी फैसलों में भविष्य के मज़बूत और भेदभाव रहित भारत की नींव नजर आती है। ‘’आधार’’ पर दिया गया फैसला भी व्यक्ति की गरिमा की ही रक्षा करता है। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट के ये फैसले कई मायनों में ऐतिहासिक माने जा रहे हैं और इसे लोकप्रिय जन समर्थन भी हासिल है लेकिन ये फैसले कई सवाल भी खड़े करते हैं |

दरअसल , सरकार के तीनों अंगों यानि न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका का अपने-अपने अधिकार सीमा में सुचारू रूप से काम करना, किसी भी देश के लिए जरूरी होता है। जहाँ न्यायपालिका का काम विधिक न्याय देना है वहीँ सामाजिक और आर्थिक न्याय की जिम्मेदारी कार्यपालिका और संसद की होती है, लेकिन जब संसद और कार्यपालिका अपनी विश्वसनीयता खोने लगती है तब न्यायपालिका की सक्रियता बढ़ जाती है और वह कार्यपालिका तथा विधायिका के मामलों में दखल देने लगती है I ये दखल कभी सामाजिक बदलावों का आधार बनती है तो कभी-कभी संवैधानिक संकट को भी जन्म देता है। भारत में यह दखल ज्यूडिसियल एक्टिविज्म, ज्यूडिसियल ऑवररीच तथा ज्यूडिसियल प्रोएक्टिविज्म के रूप में देखी जा सकता है।

शुरुआत में ज्यूडिसियल एक्टिविज्म का इस्तेमाल मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए किया गया, लेकिन धीरे-धीरे शासन संबंधित विषयों पर भी न्यायपालिका ने अपने फैसले सुनाने शुरू कर दिये। मोटे तौर पर सन् 1970 से सन् 2000 के दौरान न्यायपालिका का यह पक्ष देखने को मिलता है। इस दौरान PIL और स्वतः संज्ञान जैसे उपकरणों का इस्तेमाल कर न्यायपालिका ने संविधान की बुनियादी संरचना, अनुच्छेद-21 के विस्तार, कैदियों के मानवाधिकार तथा पर्यावरण संरक्षण जैसे कई अहम् फैसले सुनाए। भारतीय न्यायपालिका की इस सक्रियता की चर्चा विदेशी मीडिया में भी होने लगी है I न्यूयोर्क टाइम्स में छपे एक लेख के मुताबिक़ अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट साल भर में जहाँ महज़ 70 मुक़द्दमों का निपटारा करती है वहीँ भारतीय सुप्रीम कोर्ट में रोज़ औसतन 700 मुक़द्दमे आते हैं |

परंतु धीरे-धीरे न्यायपालिका, कार्यपालिका तथा विधायिका के अधिकार क्षेत्रों में भी घुसने लगी। पिछले कुछ वर्षों में न्यायपालिका द्वारा दिए गए कई फैसले जैसे सरकारी अफसरों के बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाने को कहना, 99वें संविधान संशोधन को खारिज करना आदि ज्यूडिसियल ऑवररिच को दिखलाता है।

सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फ़ैसलों पर आलोचक या समाज के कुछ वर्ग सवालिया निशान जरूर लगा रहे हैं, परन्तु ये भी सच है कि ये फ़ैसले किसी एक के पक्ष में नहीं है, बल्कि ये फैसले शक्ति संतुलन को बनाए रखकर भारत के संविधान के बुनियादी तत्वों को स्थापित करने की एक कोशिश है।लेकिन भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में बेहतर ये होगा कि सरकार के सभी अंग संवैधानिक दायरों में रहकर भारत के विकास के लिए काम करें |

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न्यायिक पुनरावलोकन अथवा न्यायिक पुनर्विलोकन अथवा न्यायिक पुनरीक्षा (Judicial review) उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसके अन्तर्गत कार्यपालिका के कार्यों (तथा कभी-कभी विधायिका के कार्यों) की न्यायपालिका द्वारा पुनरीक्षा (review) का प्रावधान हो। दूसरे शब्दों में, न्यायिक पुनरावलोकन से तात्पर्य न्यायालय की उस शक्ति से है जिस शक्ति के बल पर वह विधायिका द्वारा बनाये कानूनों, कार्यपालिका द्वारा जारी किये गये आदेशों, तथा प्रशासन द्वारा किये गये कार्यों की जांच करती है कि वह मूल ढांचें के अनुरूप हैं या नहीं। मूल ढांचे के प्रतिकूल होने पर न्यायालय उसे अवैध घोषित करती है।

न्यायिक पुनरावलोकन की उत्पति सामान्यतः संयुक्त राज्य अमेरिका से मानी जाती है किन्तु दिनांक एवं स्मिथ ने इसकी उत्पति ब्रिटेन से मानी है। 1803 मे अमेरिका के मुख्य न्यायधीश मार्शन ने मार्बरी बनाम मेडिसन नामक विख्यात वाद मे प्रथम बार न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति की प्रस्थापना की थी। भारतीय संविधान में न्यायिक पुनरावलोकन सिद्धान्त का स्पष्ट उल्लेख नहीं हुआ है, परन्तु इसका आधार है- अनु॰ 13 (2), अनु॰ 32, 226, 131, 243 और न्यायधीशों द्वारा संविधान के संरक्षण की शपथ।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 13 राज्य के नागरिक के विरुद्ध को मूल अधिकारों के संरक्षण की गारण्टी देता है। यदि राज्य द्वारा कोई ऐसी विधि बनाई जाती है जो मूल अधिकारों का उल्लंघन करती है तो न्यायालय उसको शून्य घोषित कर सकता है। इसके द्वारा न्यायालय विधियों की संवैधानिकता की जाँच करता है। इसीलिए अनुच्छेद 13 को 'मूल अधिकारों का प्रहरी' भी कहा जाता है।

अनुच्छेद 13 (1) :- इसमें कहा गया है कि भारतीय संविधान के लागू होने के ठीक पहले भारत में प्रचलित सभी विधियाँ उस मात्रा तक शून्य होंगी जहाँ तक कि वे संविधान भाग तीन के उपबंधों से असंगत हैं।

अनुच्छेद 13 (2) :- राज्य ऐसी कोई विधि नहीँ बनायेगा जो मूल अधिकारों को छीनती है। इस खण्ड के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी।

अनुच्छेद 13 (3) :- विधि के अंतर्गत भारत में विधि के समान कोई अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, उपनियम, अधिसूचना, रूढ़ि व प्रथा आते हैं अर्थात इनमें से किसी के भी द्वारा मूल अधिकारों का उल्लंघन होता है तो उन्हें न्यायालय में रिट के द्वारा चुनौती दी जा सकती है।

अनुच्छेद 13 (4) :- यह खण्ड "संविधान के 24 वें संशोधन" द्वारा जोड़ा गया है। इसके अनुसार इस अनुच्छेद की कोई बात अनुच्छेद 368 के अधीन किये गए संविधान संशोधन को लागू नहीं होगी।

यह अनुच्छेद सरकार के तीनों अंगों विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को अपनी-अपनी हद में रहने को बाध्य करता है ताकि यह एक दूसरे के क्षेत्रों में हस्तक्षेप न करें।

संविधान में अनुच्छेद 13, 32 ,132 ,133 व 226 के द्वारा उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय को न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति दी गई है। कुछ प्रावधानों को न्यायिक पुनर्विलोकन से बाहर रखा गया है।

न्यायिक पुनर्विलोकन से आप क्या समझते?

दूसरे शब्दों में, न्यायिक पुनरावलोकन से तात्पर्य न्यायालय की उस शक्ति से है जिस शक्ति के बल पर वह विधायिका द्वारा बनाये कानूनों, कार्यपालिका द्वारा जारी किये गये आदेशों, तथा प्रशासन द्वारा किये गये कार्यों की जांच करती है कि वह मूल ढांचें के अनुरूप हैं या नहीं।

न्यायिक पुनरावलोकन कहाँ से लिया गया?

न्यायिक पुनरावलोकन की उत्पति सामान्यतः संयुक्त राज्य अमेरिका से मानी जाती है किन्तु पिनाँक एवं स्मिथ ने इसकी उत्पति ब्रिटेन से मानी है। 1803 मे अमेरिका के मुख्य न्यायधीश मार्शन ने मार्बरी बनाम मेडिसन नामक विख्यात वाद मे प्रथम बार न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति की प्रस्थापना की थी।

न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ क्या है भारत में इसकी प्रकृति का परीक्षण कीजिए?

न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ एवं परिभाषा- इस प्रकार जब न्यायपालिका व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों तथा कार्यपालिका द्वारा जारी किये गये अध्यादेशों या आदेशों का अवलोकन करके उनकी वैधानिकता तथा अवैधानिकता की जाँच करती है तो उसकी यह शक्ति न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति कहलाती है।

भारतीय संविधान में न्यायिक पुनरावलोकन का आधार क्या है?

भारत में न्यायिक पुनरावलोकन की संविधानिक व्यवस्था भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12(2) में इस बात का उल्लेख किया गया है कि राज्य ऐसा कोई कानून नहीं बना सकता जो मौलिक अधिकारों के विरुद्ध जाता हो। इस आधार पर सर्वोच्च न्यायालय को यह शक्ति प्राप्त हो जाती है कि राज्य के कार्यों को अनुच्छेद 13 (2) के आधार पर जांच सकता है।