पशुपालन से होने वाले आर्थिक लाभ - pashupaalan se hone vaale aarthik laabh

हेलो स्टूडेंट्स आपके सामने एक प्रश्न दिया है कि पशुपालन से होने वाले आर्थिक लाभों का विवरण दें देखिए अगर हम बात करें पशुपालन की तो पहला लाभ तो यह है की अच्छी गुणवत्ता और मात्रा मी दूध का उत्पादन किया जा सकता है अगर हम बात करें दूसरे लाभ की तो दूध के उत्पादन के पश्चात दूसरा लाभ यह है कि बाहर ढोने वाले

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जो कि बाहर धोती हैं उन पशुओं से कृषि कार्य किए जा सकते हैं जैसे हम कह सकते हैं हल चलाना अगर हम बात करें तीसरे लाभ की तो जो तीसरा लाभ है वह कह सकते हैं मुर्गी पालन से

अंडों का उत्पादन किया जा सकता है अगर हम बात करें चौथे लाभ की तो तो तालाब में हम कह सकते हैं नई किस्म के रोग प्रतिरोधक जानवर विकसित किए जा सकते हैं पांचवी लाभ की अगर बात करें तो हम कह सकते हैं की जैविक खाद का निर्माण होता है क्योंकि जो पशु

होते हैं उनके गोबर से हम जैविक खाद का निर्माण करते हैं इस प्रकार पशुपालन से विभिन्न लाभ होते हैं

लालालाजपतराय पशुचिकित्सा एवं पशु विज्ञान विश्वविद्यालय हिसार के पशु विज्ञान केंद्र कैथल में सात दिवसीय डेरी फार्मिंग प्रक्षिशण का आयोजन किया गया। इस प्रशिक्षण में नवयुवकों को पशुओं की उन्नत नस्लें, नवजात बच्चों की देखभाल करनी सीखी। साथ ही पशुओं की खुराक में खनिज मिश्रण का महत्व, संतुलित पशु आहार, पशुओं की मुख्य बीमारियों के लक्षण एवं उनकी रोकथाम के बारे में, दूध एवं दूध उत्पाद, स्वस्थ एवं स्व‘छ दूध उत्पादन, वर्षभर हरे चारे का उत्पादन, चारे का साइलेज बनना, डेरी फार्मिंग लेखा-जोखा रखना तथा पशुपालन के आर्थिक महत्व के बारे में जानकारी दी।

पशु विज्ञान केंद्र के मुख्य वैज्ञानिक डॉ. राजेंदर श्योकंद बताया कि बाजार-भाव की उथल-पुथल ने किसानों की कमर तोड़ रखी है। कृषि घाटे का सौदा साबित हो रही है। इन हालातों में पशुपालन द्वारा अधिक से अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। डेरी फार्मिंग व्यवसाय द्वारा किसान वर्षभर रोजगार प्राप्त कर सकते है। उच्च गुणवत्ता के सांडों का चयन करके दूध उत्पादन को दोगुना किया जा सकता है। किसान भाई स्वयं दूध उत्पाद बनाकर भी रोजगार प्राप्त कर सकते है। प्रशिक्षण के समापन समारोह में डॉ. श्योकंद ने बताया कि घटती कृषि जोत्त बढ़ती उत्पादन लागत, जलवायु परिवर्तन, बेमौसम वर्षा, कीड़े बीमारियों के प्रकोप से कृषि में आमदनी के साधन बहुत सीमित रह गए है। ऐसे में उच्च गुणवत्ता के पशुपाल कर अधिक से अधिक लाभ रोजगार प्राप्त कर सकते है और बेरोजगारी की समस्या से निजात पा सकते है। इस प्रशिक्षण में 89 नवयुवकों ने भाग लिया। प्रबंधक डॉ. अनुज कुमार डॉ. रमेश कुमार ने भी पशु स्वास्थ्य संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान की।

दुग्ध उत्पादन के लिए गाय और भैंस में से किस पशु का पालन करना चाहते हैं, इसका निर्धारण पहले ही से सोच समझकर बाजार की मांग के अनुरूप कर लेना बेहतर और फायदेमंद रहता है। हमेशा गाय भैंस की ऐसी नस्लों का चुनाव करें जोकि उनके क्षेत्र और जलवायु के दृष्टिकोण से उपयुक्त हैं। गाय की भारतीय नस्लों में साहीवाल, गिर, राठी, रेड सिंधी, थारपारकर आदि ऐसी नस्लें हैं जो कि दुग्ध उत्पादन के लिए सबसे बेहतर हैं।

पशुपालन को लाभकारी बनाने के लिये परंपरागत तरीके से करने की बजाय यदि आधुनिक वैज्ञानिक ढ़ग से किया जाये तो कम खर्चे के साथ अधिक मुनाफा कमाया जा सकता है। इसके लिए मोटे तौर पर विशेष रूप से तीन बातों का ध्यान रखना जरूरी है। जिसके अंर्तगत पशुपालकों को पशु प्रजनन, खिलाई-पिलाई और सामान्य प्रबंधन के साथ पशु रोगों की जानकारी होना बहुत आवश्यक है। इन बातों का उचित ध्यान नहीं रखने पर अधिक खर्च करने के बाद भी पशुपालन लाभ का व्यवसाय नहीं बन सकता है।

दुग्ध उत्पादन के लिए गाय और भैंस में से किस पशु का पालन करना चाहते हैं, इसका निर्धारण पहले ही से सोच समझकर बाजार की मांग के अनुरूप कर लेना बेहतर और फायदेमंद रहता है। हमेशा गाय भैंस की ऐसी नस्लों का चुनाव करें जोकि उनके क्षेत्र और जलवायु के दृष्टिकोण से उपयुक्त हैं। गाय की भारतीय नस्लों में साहीवाल, गिर, राठी, रेड सिंधी, थारपारकर आदि ऐसी नस्लें हैं जो कि दुग्ध उत्पादन के लिए सबसे बेहतर हैं।

इनसे प्रतिदिन 10 से 12 लीटर तक औसत दुग्ध उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। विदेशी क्रॉस ब्रीड गायों में पैदा हो रहे रोग और बीमारियों और इसके दूध की उपयोगिता पर चल रही बहस को देखते हुये इनका पालन सोच समझ कर ही करना चाहिए। देशी भारतीय गायों के मूत्र, गोबर की बढ़ती उपयोगिता को देखते हुए और भारत सरकार द्वारा जैविक कृषि को बढ़ावा देने से भारतीय गायों की नस्लों के पालन को ही सर्वोच्च प्राथमिकता देने की खास जरूरत है।

देश में भैस को मिल्किंग मशीन कहा जाता है। भैस के दूध में वसा प्रतिशत की अधिक मात्रा के कारण इसके दूध की मांग पूरे उत्तर भारत में सबसे ज्यादा है। दुग्ध उत्पादन के लिए भैंस की मुर्रा नस्ल सबसे बेहतर विकल्प है। इसके अलावा नीली रावी नस्ल की भैंस भी दुग्घ उत्पादन में अच्छी मानी गई है। इन नस्लों का वैज्ञानिक ढ़ग से पालन करने पर 12 से 14 लीटर तक दुग्ध उत्पादन हर रोज प्राप्त किया जा सकता है।

इन नस्लों के पशु हमेशा विश्वसनीय और भरोसेमंद स्थानों और पशु बाजार से ही खरीदने चाहिए। हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भैंस और गायों की शुद्ध नस्लें प्राप्त की जा सकती हैं। हरियाणा की जींद की पशु मंडी, रोहतक और हिसार आदि जनपदों में भैंस की यह शुद्ध नस्लें प्राप्त की जा सकती है।

पशुपालक नस्ल सुधार के माध्यम से भी अपनी देशी और दोगली किस्म की गाय-भैंसों का नस्लों का सुधार करके उन्हें उन्नत नस्ल में बदल सकते हैं। इसके लिए गाय भैंस को हमेशा कृत्रिम गर्भाधान के माध्यम से ही गर्भित कराना चाहिए। प्राकृतिक गर्भाधान की दशा में स्वस्थ और उन्नत नस्ल के सांड़ से ही गर्भाधान को प्राथमिकता देनी चाहिए। इस तरीके से कुछ ही वर्षों में देशी पशुओं की नस्ल सुधार करके मनवांछित सफलता पाई जा सकती है।

पशुओं को जब तक अच्छा पौष्टिक गुणों से भरपूर चारा दाना नहीं खिलाया जाता है तब तक उनसे बेहतर उत्पादन की उम्मीद नहीं की जा सकती है। पशुपालन में 60 प्रतिशत से अधिक खर्चा पशुओं की खिलाई-पिलाई पर ही होता है। इसलिए इस खर्चे को कम करने के साथ ही चारे दाने से आवश्यक पौषक तत्वों की पूर्ति कैसे की जाये इस बात का विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है। पशुओं विशेषकर दुग्ध उत्पादन तथा वृद्धि करने वाले ओसर मादा पशुओं को संतुलित आदर्श राशन के साथ संतुलित हरा चारा नियमित उनकी आवश्यकता के अनुरूप देने की जरूरत है।

दुधारू पशुओं से सस्ता और भरपूर दुग्ध उत्पादन प्राप्त करने के लिए सूखे चारे भूसा आदि की जगह अधिक से अधिक हरा चारा खिलाने से आहार पर आने वाली लागत कम होती है। सूखे चारे की तुलना में हरा चारा खिलाने से दुग्ध उत्पादन में वृद्धि होती है जिसके फलस्वरूप अधिक मुनाफा प्राप्त होता है। इसलिए पशुपालक ऐसी कार्य योजना बनाएं कि उन्हे वर्षभर भरपूर हरा चारा मिलता रहे। संतुलित हरे चारे के लिए फलीदार एवं बेफलीदार चारा फसलों को समान रूप से उगाएं।

पशुओं से उनके कार्य के अनुरूप अधिक से अधिक उत्पादन और समुचित वृद्धि प्राप्त करने के लिए उन्हें नियमित तौर पर संतुलित आहार देने की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए शरीर रक्षा से लेकर दूध उत्पादन, वृद्धि एवं विकास तथा गर्भ रक्षा के लिए अलग-अलग मात्रा में आहार की जरूरत होती है। पशुओं को उनकी आवश्यकता के अनुरूप ही आहार का निर्धारण करके खिलाना चाहिए।

पशुपालक अपने घर पर ही सस्ता और पौष्टिक संतुलित आहार बनाकर पशुओं को खिला सकते हैं। पशुओं को दिन में लगभग दो बार चारा-दाना देना चाहिए और इसके मध्य 8 से 10 घण्टे का अंतराल होना आवश्यक है। चारे-दाने का प्रकार एकदम नहीं बदलना चाहिए। बदलने के लिए धीरे-धीरे चारा दाना खिलाने की आदत डाले जिससे उसकी भोजन प्रणाली पर कोई कुप्रभाव न पड़े। दाना सदैव पहले खिलाकर बाद में सूखा या हरा चारा पशुओं को देना चाहिए।

पशुओं को प्रतिदिन तीन से चार बार स्वच्छ और ताजा पानी पिलाना चाहिए। संभव हो तो दुधारू और ओसर (जिनका पहला बच्चा हुआ हो) मादा पशुओं को नियमित चारागाह में कुछ समय के लिए चराने अवश्य ले जाएं जिससे इनका व्यायाम होता रहे। दुधारू पशुओं के शरीर पर नियमित तौर से हर रोज खुरैरा करना चाहिए इससे पशु के शरीर में स्फूर्ति आने के साथ खून का बेहतर संचार बना रहता है। पशुओं का आवास बनाते समय यह ध्यान रखें कि उसमें आंधी, वर्षा, सर्दी, गर्मी आदि की सुरक्षा का पूर्ण प्रबंध हो।

पशुशाला में पशुओं के आराम से उठने-बैठने तथा खिलाई-पिलाई की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। पशुशाला एवं पशुओं की नियमित सफाई करना आवश्यक होता है। पशुओं को गर्मियों में लगभग हर रोज तथा सर्दियों में धूप निकलने पर तीन-चार दिन के अंतराल पर रगड़कर नहलाते रहना चाहिए। पशुशाला में सप्ताह में एक बार चूने के प्रयोग के अलावा फिनायल आदि का घोल छिड़काव करने से कीटाणुओं से बचाव होता है।

पशुपालन में अंतः और बाह्रयः परजीवी पशुओं को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। इनसे होने वाले नुकसान में बड़े पैमाने पर, पैदा होने के बाद एक साल के भीतर नवजात लवारों की मौत, दुग्ध उत्पादन में भारी गिरावट और पशुओं के शरीर में खून की कमी, बांझपन जैसी समस्या, लगातार दस्त और डायरिया का होना जैसे प्रमुख घातक प्रभाव देखने को मिलते हैं। यह पशुओं के शरीर में कई प्रकार की बीमारी पैदा करने के कारण भी बन जाते हैं। इसलिए इनका समय-समय पर निदान करना आवश्यक हो जाता है।

कई बार पशुओं में संक्रामक रोग जानलेवा बन जाते हैं, जिनसे कई बार इनकी मौत भी हो जाती है। इन रोगों में गलघोंटू, खुरपका-मुहंपका, बेसिलस एन्थ्रेसिस, लगड़िया, रिण्डरपेस्ट आदि हैं। पशु यदि एक बार इन रोगों की पकड़ में आ जाएं तो समय पर चिकित्सा नहीं मिलने पर उनकी मौत तक हो जाती है।

इसलिए इन रोगों के बचाव के लिए समय-समय पर रोगरोधी टीकाकरण कराते रहने से इन रोगों पर पूरी तरह काबू पाया जा सकता है। ब्याने के बाद यदि गाय-भैंस तीन माह तक गर्मी पर नहीं आती है या फिर बार-बार गर्मी पर आने के बाद भी गर्भ नहीं ठहरता है तो उसके गर्भाशय की जांच कराकर, कमी होने की दशा में बांझपन चिकित्सा करानी चाहिए।

वरना ब्यांत की अवधि बढ़ने पर आर्थिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। गाय-भैंस के गर्मी के लक्षण प्रकट करने के बाद उसे तत्काल गर्भित न कराकर गर्मी में आने के 12 से 24 घंटे बीच में ही गर्भित कराना चाहिए। यह कुछ ऐसी उपयोगी बातें हैं जिनका ध्यान रखकर पशुपालन को लाभकार बनाया जा सकता है।

(डॉ सत्येंद्र पाल सिंह, कृषि विज्ञान केंद्र, शिवपुरी, मध्य प्रदेश के प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख हैं, यह उनके निजी विचार हैं।)

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पशुओं से हमें क्या लाभ है?

1) अच्छी गुणवत्ता और मात्रा में दूध का उत्पादन किया जा सकता है। 2) भारा ढोने वाले पशुओं से कृषि कार्य करवाया जा सकता है जैसे सिंचाई, हल चलाना। 3) मुर्गी पालन से उनके अंडों का उत्पादन किया जा सकता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में पशुपालन का क्या महत्व और योगदान है?

भारत में लगभग 2 करोड़ लोग आजीविका के लिये पशुपालन पर आश्रित हैं। पशुपालन क्षेत्र भारत के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 4% तथा कृषि सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 26% का योगदान करता है। भारत में पशुओं की उपयोगिता खाद्य पदार्थ, चमड़ा, खाद, खर-पतवार नियंत्रण, मनोरंजन तथा साथी पशु के रूप में है।

पशुपालन क्यों किया जाता है?

Solution : पशुपालन इसलिए आवश्यक है क्योंकि इनसे हमें दूध, मांस आदि प्राप्त होता है।

मानव कल्याण में पशुपालन की क्या भूमिका है?

पशुपालन खाद्य उत्पादन बनाने के प्रयासों में मुख्य भूमिका निभाता हैं । शहद का उच्च पोषक मान तथा इसके औषधीय महत्व को ध्यान में रखते हुए मधुमक्खी पालन अथवा मोम पालन पद्धति में उल्लेखनीय वृध्दि हुई है । डेयरी उद्योग से मानव खपत के लिए दुग्ध तथा इसके उत्पाद प्राप्त होते हैं ।