स्तूप कितने प्रकार के होते हैं? - stoop kitane prakaar ke hote hain?

(i) अनुप्रस्थ बालुका-स्तूप (Transverse Sand-Dunes)- इस प्रकार के बालुका-स्तूप ऐसे क्षेत्रों में पाये जाते हैं, जहाँ वायु काफी समय से एक ही दिशा में बह रही हो। इनकी संरचना वायु की दिशा से लम्बवत् होती है। इन टीलों का शीर्ष वायु के विपरीत तथा रचना अर्द्ध-चन्द्राकार आकृति में होती है। वायु द्वारा निर्मित टीलों से बालू के कण मध्य भाग से उड़ते रहते हैं, जिससे मध्य भाग धीरे-धीरे खोखला हो जाता है।

(ii) समानान्तर बालुका-स्तूप, (Longitudinal Sand-Dunes)-इस प्रकार के बालुका-स्तूप की रचना एक विशेष परिस्थिति में होती है। इनकी आकृति पहाड़ी जैसी होती है। वायु की प्रवाह दिशा के समानान्तर लगातार इनका निर्माण होता रहता है। सहारा मरुस्थल में ऐसे टीलों को ‘सीफ’ नाम से पुकारा जाता है। विश्व में ऐसे बालुका स्तूप अधिक पाये जाते हैं, क्योंकि ये अधिक समय तक स्थिर रहते हैं।

(iii) अर्द्ध-चन्द्राकार बालुका-स्तूप (Parabolic Sand-Dunes)-ऐसे स्तूप की रचना वायु की दिशा के तीव्र प्रवाह के विपरीत बालू को मार्ग में एकत्रित करने से होती है। इनका आकार लम्बाई में अधिक होता है। इन स्तूपों का ढाल वायु की दिशा की ओर मन्द तथा विपरीत दिशा में तीव्र होता है। इन पर वनस्पति उग आती है जिससे ये आगे-पीछे नहीं खिसक पाते। इन टीलों का निर्माण बहुत कम होता है।

बालुका-स्तूपों का पलायन या खिसकना (Migration of Sand-Dunes)– अधिकांश बालुका स्तूप अपने स्थान पर स्थिर नहीं रहते तथा अपना स्थान परिवर्तन करते रहते हैं। बालुका टिब्बों के इस स्थान परिवर्तन को पलायन कहा। जाता है। इससे इन स्तूपों का आकार कम होता रहता है, परन्तु कुछ टीले इस : प्रक्रिया में नष्ट भी हो जाते हैं।
वायु की दिशा के सामने से बालू-कण शिखर पर पहुँचकर विपरीत ढाल पर एकत्रित होते रहते हैं। इससे वायु के सामने का भाग छोटा और ढाल बढ़ता जाता है। जब अधिक समय तक यही प्रक्रिया होती रहती है तो बालुका-स्तूप वायु की दिशा में स्थानान्तरित होने लगते हैं। टिब्बों का पलायन सभी स्थानों पर समान गति से नहीं होता। पलायन की गति स्थानीय परिस्थितियों पर निर्भर करती है। प्रायः बालुका टिब्बों का पलायन कुछ मीटर प्रतिवर्ष की दर से अधिक नहीं होता, परन्तु कहीं-कहीं पलायन की गति 30 मीटर वार्षिक की दर से अधिक पायी जाती है। संयुक्त राज्य के ओरेगन तट पर विशाल बालुका टिब्बा लगभग 1.2 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पलायन कर रहे हैं।

(iv) बरखान (Barkhans)- ऊँची-नीची पहाड़ियों के मध्य बरखान पाये जाते हैं। कभी-कभी ये इधर-उधर भी बिखर जाते हैं। सहारा मरुस्थल में बरखान के बीच आने-जाने का रास्ता भी होता है, जिसे गासी और कारवाँ के नाम से जानते हैं। इनकी आकृति भी अर्द्ध-चन्द्राकार एवं धनुषाकार होती है। वायु की दिशा बदलने पर बरखान की स्थिति में भी परिवर्तन आ जाता है। इनकाआकार 100 मील तक लम्बा तथा 600 फीट तक ऊँचा होता है। बरखान के सामने वाला। ढाल मन्द तथा विपरीत वाला ढाले अवतल होता है।

3. लोयस (Loess)-वायु में मिट्टी के बारीक कण लटके रहते हैं। ये दूर-दूर जाकर वायु द्वारा निक्षेपित कर दिये जाते हैं। इस प्रकार वायु द्वारा उड़ाई गयी धूल-कणों के निक्षेप से निर्मित स्थल स्वरूपों को लोयस कहा जाता है। लोयस के निर्माण के लिए धूल आदि आवश्यक सामग्री मरुस्थलीय भागों की रेत, नदियों के बाढ़ क्षेत्र, रेतीले समुद्रतटीय क्षेत्र तथा हिमानी निक्षेपण जनित अवसाद मिलना अति आवश्यक है। लोयस का जमाव समुद्रतल से लेकर 5,000 फीट की ऊंचाई तक पाया जाता है। इसका रंग पीला होता है जिसका प्रमुख कारण ऑक्सीकरण क्रिया का होना है। विश्व में लोयस की मोटाई 300 मीटर तक पायी जाती है। चीन में ह्वांगहो नदी के उत्तर व पश्चिम में लोयस के जमाव मिलते हैं।

4. धूल-पिशाच (Dust-Devil)-इस क्रिया में धूल के कण वायु द्वारा ऊपर उठा दिये जाते हैं। वायु में भंवरें उत्पन्न होने के कारण धूल के महीन कण ऊपर उठकर एक पिशाच का रूप धारण कर लेते हैं। इसे ही ‘धूल-पिशाच’ कहा जाता है।

5. बजादा (Bajada)-मरुस्थलों में अचानक ही वर्षा हो जाने से बाढ़ आ जाती है। अस्थायी नदियाँ तीव्र ढालों पर घाटियाँ काट लेती हैं। ढाल का मलबा तीव्रता से कट जाता है तथा नीचे की ओर जलोढ़ पंख का निर्माण हो जाता है। जब किसी बेसिन में इस प्रकार के कई पंख एक साथ मिल जाते हैं तो एक गिरिपदीय,ढाल क्षेत्र बन जाता है, जिसे ‘बजादा’ कहा जाता है।

6. प्लाया (Playa)-मरुस्थलों में भारी वर्षा होने के कारण कहीं पर गड्ढा-सा बन जाता है। यहाँ पर जल भर जाने से झील निर्मित हो जाती है। ऐसी झीलों को प्लाया झील कहते हैं।

7. बोल्सन (Bolson)-यदि किसी पर्वत से घिरे विस्तृत मरुस्थल के निचले भाग की ओर नदियाँ बाढ़ के समय अवसाद गिराती हैं तो बेसिन का फर्श जलोढ़ मिट्टी से भर जाता है। ऐसे बेसिनों को ‘बोल्सन’ कहते हैं।

स्तूप शब्द का अर्थ 'किसी वस्तु का ढेर' होता है। स्तूपों का बौद्ध धर्म में विशेष महत्व है। आरम्भिक स्तूप मिट्टी के चबूतरे के रूप में होते थे। मुख्य रूप से इन चबूतरों का निर्माण मृतकों की चिता के ऊपर किया जाता था। इसके अतिरिक्त अलग से इन चबूतरे रूपी स्तूपों का निर्माण कर उनके ऊपर मृतकों की अस्थियों को रखा जाता था। आगे चलकर इन स्तूपों ने विशाल रूप धारण कर लिया और पवित्र माने जाने लगे।

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स्तूपों के निम्नलिखित प्रमुख भाग होते हैं–
1. वेदिका– इसे रेलिंग भी कहा जाता है। इसका निर्माण स्तूप की सुरक्षा के लिये किया जाता था।
2. मेधि– इसे कुर्सी भी कहा जाता है। यह वह चबूतरा होता था, जिसके ऊपर स्तूप का निर्माण किया जाता था। मेधि पर स्तूप का मुख्य हिस्सा आधारित होता था।
3. अण्ड– स्तूप के अर्द्धगोलाकार हिस्से को अण्ड कहा जाता था।
4. हर्मिका– स्तूपों के शिखर पर अस्थियों की रक्षा के लिये हर्मिका का निर्माण किया जाता था।
5. छत्र– यह धार्मिक चिह्न का प्रतीक हुआ करता था।
6. सोपान– मेधि पर चढ़ने-उतरने के लिए निर्मित की गई सीढ़ी को सोपान कहा जाता था।

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स्तूपों का वर्गीकरण

स्तूपों को मुख्य रूप से निम्नलिखित भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है–
1. शारीरिक स्तूप– इन स्तूपों में महात्मा बुद्ध के शरीर के अंगों, केश, दन्त आदि को रखा जाता था। साथ ही इनमें महात्मा बुद्ध से सम्बन्धित धातुओं को भी रखा जाता था।
2. पारिभोगिक स्तूप– इन स्तूपों में बुद्ध के द्वारा उपयोग की गई वस्तुएँ उदाहरण के लिए भिक्षापात्र, चीवर, संघाटी, पादुका आदि रखी जाती थीं।
3. उद्देशिका स्तूप– इन स्तूपों का सम्बन्ध गौतम बुद्ध के जीवन से जुड़ी घटनाओं की स्मृति से जुड़े स्थानों से है।
4. पूजार्थक स्तूप– इन स्तूपों का निर्माण मुख्य रूप से बौद्ध धर्म से सम्बन्धित तीर्थ स्थानों पर किया जाता था। इन स्तूपों का निर्माण बुद्ध की श्रद्धा से वशीभूत धनवान व्यक्तियों द्वारा करवाया जाता था।

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चैत्य

चैत्य शब्द का अर्थ 'चिता सम्बन्धी' होता है। एक चैत्य एक बौद्ध मन्दिर होता है। इसमें एक स्तूप समाहित होता है। 'पूजार्थक स्तूप' को चैत्य कहते हैं।

विहार

बौद्ध चैत्यों के निकट भिक्षुओं के निवास के लिये आवास का निर्माण किया जाता था। इसे 'विहार' कहा जाता था। इनका निर्माण चैत्यों के निकट ही किया जाता था।

स्तूप कितने प्रकार के हैं?

स्तूप 4 प्रकार के होते हैं 1. शारीरिक स्तूप 2. पारिभोगिक स्तूप 3. उद्देशिका स्तूप 4.

स्तूप के कितने भाग होते हैं?

शारीरिक स्तूप 2. पारिभोगिक स्तूप 3. उद्देशिका स्तूप 4. पूजार्थक स्तूप स्तूप एक गुम्दाकार भवन होता था, जो बुद्ध से संबंधित सामग्री या स्मारक के रूप में स्थापित किया जाता था।

भारत का सबसे पुराना स्तूप कौन सा है?

सारनाथ का धमेक स्तूप, उत्तरपूर्वी भारत मे स्थित सबसे पुराना स्तूप है।

3 स्तूप क्या होता है?

स्तूप' का शाब्दिक अर्थ 'ढेर' अथवा थूहा! मिट्टी व अन्य पदार्थो का ढेर या एकत्र किये गये समूह को 'स्तूप' कहते हैं। स्तूप शब्द संस्कृत- स्तूप: अथवा प्राकृत थूप, 'स्तूप' धातु से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है एकत्रित करना, ढेर लगाना, तोपना या गाड़ना होता है।