फणीश्वर नाथ रेणु कृत ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफ़ाम’ कहानी की समीक्षा Show फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ (4 मार्च 1921-11 अप्रैल 1977) जीवन परिचय- फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया जिले में फारबिसगंज के पास औराही हिंगना गाँव में हुआ था। इन्होंने 1942 के स्वतंत्रता संग्राम तथा नेपाल-राजनीति में सक्रिय भाग लिया था। उस समय यह पूर्णिया जिले में पड़ता था। उनकी शिक्षा नेपाल में हुई थी। उन्होंने ही आंचलिक कथा की नींव रखी। सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय उनके परम मित्र थे। उनकी रचनाओं में कटिहार के रेलवे स्टेशन का उल्लेख मिलता है। ‘रेणु’ की पहली कहानी ‘नटबावा’ 1936 ई० के साप्ताहिक पत्रिका ‘विश्वामित्र’ में छपी थी। ‘मैला आँचल’ का प्रकाशन 1954 ई० में हुआ था। उसी की भूमिका में ‘रणु’ ने ‘अंचल’ और ‘आंचलिक’ शब्द का प्रयोग किया था। तब से आंचलिक को एक कथा-प्रकार के रूप में स्वीकार कर उसकी प्रभूत चर्चा हुई। कृतियाँ उपन्यास – मैला आंचल (1954), परती परिकथा (1957), जूलूस, दीर्घतपा, कितने चौराहे पलटू बाबू रोड कथा संग्रह – ‘एक आदिम रात्रि की महक’ (1967), ‘ठुमरी’ (1959), ‘अग्निखोर’ ( 1970), ‘अच्छे आदमी’ रिपोतार्ज- ऋणजल-धनजल (1975) , नेपाली क्रांतिकथा, वनतुलसी की गंध, श्रुत अश्रुत पूर्वे प्रसिद्ध कहानियाँ- ‘मारे गए गुलफ़ाम’ (तीसरी कसम), ‘एक आदिम रात्रि की महक’, ‘लालपान की बेगम’, ‘पंचलाईट’, ‘तबे एकला चलो रे’, ‘ठेस’, ‘संबदिया’
इस कहानी में हिरामन तीन कसमे खाता है- पहला वह गाड़ी पर तस्करी का माल नहीं लादेगा, दूसरा बाँस की लदनी नहीं करेगा और तीसरी कसम यह खाता है कि वह नौटंकी की किसी नर्तकी को गाड़ी में नहीं बैठाएगा। कहानी के पात्र हीरामन- नायक हीराबाई- नायिका अन्य पात्र- पलटन दास, लालमोहर, धुन्निराम, मुनीम कहानी तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम-
हिरामन गाड़ीवान की पीठ में गुदगुदी लगती है। कंट्रोल का ज़माना! हिरामन कभी भूल सकता है। उस ज़माने को! एक बार चार खेप सीमेंट और कपड़े की गांठों से भरी गाड़ी जोगबानी में विराटनगर पहुंचने के बाद हिरामन का कलेजा पोख्ता हो गया था। फारबिसगंज का हर चोर-व्यापारी उसको पक्का गाड़ीवान मानता है। उसके बैलों की बड़ाई बड़ी गद्दी के बड़े सेठ जी ख़ुद करते है, अपनी भाषा में गाड़ी पकड़ी गई पांचवीं बार सीमा के इस पार तराई में। महाजन का मुनीम उसी की गाड़ी पर गांठों के बीच चुक्की-मुक्की लगा कर छिपा हुआ था। दारोगा साहब की डेढ़ हाथ लंबी चोर बत्ती की रौशनी कितनी तेज़ होती है, हिरामन जानता है। एक घंटे के लिए आदमी अंधा हो जाता है, एक छटक भी पड़ जाए चोरबत्ती आंखों पर! रौशनी के साथ कड़कती हुई आवाज ‘ऐ-य! गाड़ी रोको! साले, गोली मार देंगे?’ बीसों गाड़ियां एक साथ कचकचा कर रुक गईं। हिरामन ने पहले ही कहा था, ‘यह बीस विषावेगा!’ दारोगा साहब उसकी गाड़ी में दुबके हुए मुनीम जी पर रौशनी डाल कर पिशाची हंसी हंसे ‘हा-हा-हा! मुनीम जी-ई-ई-ई! ही-ही-ही! ऐ-य, साला गाड़ीवान, मुंह क्या देखता है रे-ए-ए! कंबल हटाओ। इस बोरे के मुंहवा पर से!’ हाथ की छोटी लाठी से मुनीम जी के पेट में खोंचा मारते हुए कहा था। ‘इस बोरे को! स-स्साला!’ बहुत पुरानी अखज-अदावत होगी दारोगा साहब और मुनीम जी में। नहीं तो उतना रुपया क़बूलने पर भी पुलिस-दरोगा का मन न डोले भला! चार हज़ार तो गाड़ी पर बैठा ही दे रहा है। लाठी से दूसरी बार खोंचा मारा दारोगा ने। ‘पांच हज़ार!’ फिर खोंचा ‘उतरो पहले…’ मुनीम को गाड़ी से नीचे उतार कर दारोगा ने उसकी आंखों पर रौशनी डाल दी। फिर दो सिपाहियों के साथ सड़क से बीस-पच्चीस रस्सी दूर झाड़ी के पास ले गए। गाड़ीवान और गाड़ियों पर पांच-पांच बंदूकवाले सिपाहियों का पहरा! हिरामन समझ गया, इस बार निस्तार नहीं. जेल? हिरामन को जेल का डर नहीं। लेकिन उसके बैल? न जाने कितने दिनों तक बिना चारा-पानी के सरकारी फाटक में पड़े रहेंगे-भूखे-प्यासे फिर नीलाम हो जाएंगे। भैया और भौजी को वह मुंह नहीं दिखा सकेगा कभी। …नीलाम की बोली उसके कानों के पास गूंज गई-एक-दो-तीन! दारोगा और मुनीम में बात पट नहीं रही थी शायद। हिरामन की गाड़ी के पास तैनात सिपाही ने अपनी भाषा में दूसरे सिपाही से धीमी आवाज़ में पूछा, ‘का हो? मामला गोल होखी का?’ फिर खैनी-तंबाकू देने के बहाने उस सिपाही के पास चला गया। एक-दो-तीन! तीन-चार गाड़ियों की आड़। हिरामन ने फ़ैसला कर लिया। उसने धीरे-से अपने बैलों के गले की रस्सियां खोल लीं। गाड़ी पर बैठे-बैठे दोनों को जुड़वां बांध दिया। बैल समझ गए उन्हें क्या करना
है। हिरामन उतरा, जुती हुई गाड़ी में बांस की टिकटी लगा कर बैलों के कंधों को बेलाग किया। दोनों के कानों के पास गुदगुदी लगा दी और मन-ही-मन बोला, ‘चलो भैयन, जान बचेगी तो ऐसी-ऐसी सग्गड़ गाड़ी बहुत मिलेगी…एक-दो-तीन! नौ-दो-ग्यारह! तीनों जन घर पहुंच कर दो दिन तक बेसुध पड़ा रहा हिरामन। होश में आते ही उसने कान पकड़ कर कसम खाई थी। ‘अब कभी ऐसी चीजों की लदनी नहीं लादेंगे. चोरबाजारी का माल? तोबा, तोबा!…’ पता नहीं मुनीम जी का क्या हुआ! भगवान जाने उसकी सग्गड़ गाड़ी का क्या हुआ! असली इस्पात लोहे की धुरी थी। दोनों पहिए तो नहीं, एक पहिया एकदम नया था। गाड़ी में रंगीन डोरियों के फुंदने बड़े जतन से गूंथे गए थे। दो कसमें खाई हैं उसने। एक चोरबाजारी का माल नहीं लादेंगे, दूसरी-बांस।
अपने हर भाड़ेदार से वह पहले ही पूछ लेता है ‘चोरी-चमारीवाली चीज तो नहीं? और, बांस?’ बांस लादने के लिए पचास रुपए भी दे कोई, हिरामन की गाड़ी नहीं मिलेगी। दूसरे की गाड़ी देखे। देवी मैया भला करें उस सरकस-कंपनी के बाघ का, पिछले साल इसी मेले में बाघगाड़ी को ढोनेवाले दोनों घोड़े मर गए। चंपानगर से फारबिसगंज मेला आने के समय सरकस-कंपनी के मैनेजर ने गाड़ीवान-पट्टी में ऐलान करके कहा ‘सौ रुपया भाड़ा मिलेगा!’ एक-दो गाड़ीवान राज़ी हुए, लेकिन उनके बैल बाघगाड़ी से दस हाथ दूर ही डर से डिकरने लगे- बां आं! रस्सी तुड़ा कर भागे। हिरामन ने अपने बैलों की पीठ सहलाते हुए कहा,‘देखो भैयन, ऐसा मौका फिर हाथ न आएगा। यही है मौका अपनी गाड़ी बनवाने का। नहीं तो फिर आधेदारी। अरे पिंजड़े में बंद बाघ का क्या डर? मोरंग की तराई में दहाड़ते हुइ बाघों को देख चुके हो, फिर पीठ पर मैं तो हूं…’ गाड़ीवानों के दल में तालियां पटपटा उठी थीं एक साथ. सभी की लाज रख ली हिरामन के बैलोंने। हुमक कर आगे बढ़ गए और बाघगाड़ी में जुट गए-एक-एक करके। सिर्फ़ दाहिने बैल ने जुतने के बाद ढेर-सा पेशाब किया। हिरामन ने दो दिन तक नाक से कपड़े की पट्टी नहीं खोली थी। बड़ी गद्दी के बड़े सेठ जी की तरह नकबंधन लगाए बिना बघाइन गंध बरदास्त नहीं कर सकता कोई। बाघगाड़ी की गाड़ीवानी की है हिरामन ने, कभी ऐसी गुदगुदी नहीं लगी पीठ में, आज रह-रह कर उसकी गाड़ी में चंपा का फूल महक उठता है। पीठ में गुदगुदी लगने पर वह अंगोछे से पीठ झाड़ लेता है। हिरामन को लगता है, दो वर्ष से चंपानगर मेले की भगवती मैया उस पर प्रसन्न है। पिछले साल बैलगाड़ी जुट गई। नकद एक सौ रुपए भाड़े के अलावा बुताद, चाह-बिस्कुट और रास्ते-भर बंदर-भालू और जोकर का तमाशा देखा सो फोकट में! और, इस बार यह जनानी सवारी। औरत है या चंपा का फूल! जब से गाड़ी मह-मह महक रही है। कच्ची सड़क के एक छोटे-से खड्ड में गाड़ी का दाहिना पहिया बेमौके हिचकोला खा गया। हिरामन की गाड़ी से एक हल्की ‘सिस’ की आवाज़ आई. हिरामन ने दाहिने बैल को दुआली से पीटते हुए कहा,‘साला! क्या समझता है, बोरे की लदनी है क्या?’ ‘अहा! मारो मत!’ अनदेखी औरत की आवाज़ ने हिरामन को अचरज में डाल दिया। बच्चों की बोली जैसी महीन, फेनूगिलासी बोली! मथुरामोहन नौटंकी कंपनी में लैला बननेवाली हीराबाई का नाम किसने नहीं सुना होगा भला! लेकिन हिरामन की बात निराली है! उसने सात साल तक लगातार मेलों की लदनी लादी है, कभी नौटंकी-थियेटर या बायस्कोप सिनेमा नहीं देखा। लैला या हीराबाई का नाम भी उसने नहीं सुना कभी, देखने की क्या बात! सो मेला टूटने के पंद्रह दिन पहले आधी रात की बेला में काली ओढ़नी में लिपटी औरत को देख कर उसके मन में खटका अवश्य लगा था। बक्सा ढोनेवाले नौकर से गाड़ी-भाड़ा में मोल-मोलाई करने की कोशिश की तो ओढ़नीवाली ने सिर हिला कर मना कर दिया। हिरामन ने गाड़ी जोतते हुए नौकर से पूछा,‘क्यों भैया, कोई चोरी चमारी का माल-वाल तो नहीं?’ हिरामन को फिर अचरज हुआ. बक्सा ढोनेवाले आदमी ने हाथ के इशारे से गाड़ी हांकने को कहा और अंधेरे में ग़ायब हो गया. हिरामन को मेले में तंबाकू बेचनेवाली बूढ़ी की काली साड़ी की याद आई थी। ऐसे में कोई क्या गाड़ी हांके! एक तो पीठ में गुदगुदी लग रही है। दूसरे रह-रह कर चंपा का फूल खिल जाता है उसकी गाड़ी में बैलों को डांटो तो ‘इस-बिस’ करने लगती है। उसकी सवारी, उसकी सवारी! औरत अकेली, तंबाकू बेचनेवाली बूढ़ी नहीं! आवाज़ सुनने के बाद वह बार-बार मुड़ कर टप्पर में एक नज़र डाल देता है, अंगोछे से पीठ झाड़ता है…भगवान जाने क्या लिखा है। इस बार उसकी क़िस्मत में! गाड़ी जब पूरब की ओर मुड़ी, एक टुकड़ा चांदनी उसकी गाड़ी में समा गई। सवारी की नाक पर एक जुगनू जगमगा उठा। हिरामन को सबकुछ रहस्यमय-अजगुत-अजगुत-लग रहा है। सामने चंपानगर से सिंधिया गांव तक फैला हुआ मैदान…कहीं डाकिन-पिशाचिन तो नहीं? हिरामन की सवारी ने करवट ली। चांदनी पूरे मुखड़े पर पड़ी तो हिरामन चीखते-चीखते रुक गया,‘अरे बाप! ई तो परी है!’ परी की आंखें खुल गईं। हिरामन ने सामने सड़क की ओर मुंह कर लिया और बैलों को टिटकारी दी। वह जीभ को तालू से सटा कर टि-टि-टि-टि आवाज निकालता है। हिरामन की जीभ न जाने कब से सूख कर लकड़ी-जैसी हो गई थी! ‘भैया, तुम्हारा नाम क्या है?’ हू-ब-हू फेनूगिलास!…हिरामन के रोम-रोम बज उठे. मुंह से बोली नहीं निकली। उसके दोनों बैल भी कान खड़े करके इस बोली को परखते हैं। ‘मेरा नाम! …नाम मेरा है हिरामन!’ उसकी सवारी मुस्कराती है…मुस्कराहट में ख़ुशबू है। ‘तब तो मीता कहूंगी, भैया नहीं. मेरा नाम भी हीरा है।’ ‘इस्स!’ हिरामन को परतीत नहीं. मर्द और औरत के नाम में फ़र्क़ होता है. ‘हां जी, मेरा नाम भी हीराबाई है’। कहां हिरामन और कहां हीराबाई, बहुत फ़र्क़ है! हिरामन ने अपने बैलों को झिड़की दी, ‘कान चुनिया कर गप सुनने से ही तीस कोस मंजिल कटेगी क्या? इस बाएं नाटे के पेट में शैतानी भरी है.’ हिरामन ने बाएं बैल को दुआली की हल्की झड़प दी। हीराबाई ने परख लिया, हिरामन सचमुच हीरा है। ‘कहीं हो, यह ले कर आप क्या करिएगा?’
हिरामन अपनी चतुराई पर हंसा। परदा डाल देने पर भी पीठ में गुदगुदी लगती है। आज तेगछिया पर रहनेवाले महावीर स्वामी भी सहाय हैं हिरामन पर। तेगछिया के नीचे एक भी गाड़ी नहीं। हमेशा गाड़ी और गाड़ीवानों की भीड़ लगी रहती हैं। यहां सिर्फ़ एक साइकिलवाला बैठ कर सुस्ता रहा है। महावीर स्वामी को सुमर कर हिरामन ने गाड़ी रोकी। हीराबाई परदा हटाने लगी। हिरामन ने पहली बार आंखों से बात की हीराबाई से-साइकिलवाला इधर ही टकटकी लगा कर देख
रहा है। हीराबाई गाड़ी से नीचे उतरी। हिरामन का कलेजा धड़क उठा….नहीं, नहीं! पांव सीधे हैं, टेढ़े नहीं. लेकिन, तलुवा इतना लाल क्यों हैं? हीराबाई घाट की ओर चली गई, गांव की बहू-बेटी की तरह सिर नीचा कर के धीरे-धीरे. कौन कहेगा कि कंपनी की औरत है!…औरत नहीं, लड़की. शायद कुमारी ही है। नननपुर की सड़क पर
गाड़ी ला कर हिरामन ने बैलों की रस्सी ढीली कर दी। बैलों ने दुलकी चाल छोड़ कर कदमचाल पकड़ी। ओ मां! सावन-भादों की उमड़ी हुई नदी, भयावनी रात, बिजली कड़कती है, मैं बारी-क्वारी नन्ही बच्ची, मेरा कलेजा धड़कता है. अकेली कैसे जाऊं घाट पर? सो भी परदेसी राही-बटोही के पैर में तेल लगाने के लिए! सत-मां ने अपनी बज्जर-किवाड़ी बंद कर ली। आसमान में मेघ हड़बड़ा उठे और हरहरा कर बरसा होने लगी, महुआ रोने लगी। अपनी मां को याद करके। आज उसकी मां रहती तो ऐसे दुरदिन में कलेजे से सटा कर रखती अपनी महुआ बेटी को. गे मइया, इसी दिन के लिए, यही दिखाने के लिए तुमने कोख में रखा था? महुआ अपनी मां पर गुस्साई-क्यों
वह अकेली मर गई, जी-भर कर कोसती हुई बोली। सामने फारबिसगंज शहर की रोशनी झिलमिला रही है। शहर से कुछ दूर हट कर मेले की रौशनी टप्पर में लटके लालटेन की रौशनी में छाया नाचती है आसपास…डबडबाई आंखों से, हर रौशनी सूरजमुखी फूल की तरह दिखाई पड़ती है। खाते समय धुन्नीराम और लहसनवां ने पलटदास की टोकरी-भर निंदा की। छोटा आदमी है। कमीना है. पैसे-पैसे का हिसाब जोड़ता है। खाने-पीने के बाद लालमोहर के
दल ने अपना बासा तोड़ दिया। धुन्नी और लहसनवां गाड़ी जोत कर हिरामन के बासा पर चले, गाड़ी की लीक धर कर। हिरामन ने चलते-चलते रुक कर, लालमोहर से कहा,‘जरा मेरे इस कंधे को सूंघो तो. सूंघ कर देखो न?’
‘भा-इ-यो, आज रात! दि रौता संगीत कंपनी के स्टेज पर! गुलबदन देखिए, गुलबदन! आपको यह जान कर खुशी होगी कि मथुरामोहन कंपनी की मशहूर एक्ट्रेस मिस हीरादेवी, जिसकी
एक-एक अदा पर हजार जान फिदा हैं, इस बार हमारी कंपनी में आ गई हैं। याद रखिए, आज की रात. मिस हीरादेवी गुलबदन…!’ हिरामन हड़बड़ा कर उठा. लहसनवां ने कहा,‘धुन्नी काका, तुम बासा पर रहो, मैं भी देख आऊं.’
‘कौन, पलटदास!
कहां की लदनी लाद आए?’ लालमोहर ने पराए गांव के आदमी की तरह पूछा. ‘नहीं हुजूर, इन लोगों को छोड़ दीजिए, हीराबाई के आदमी हैं. बेचारी की जान खतरे में हैं. हुजूर से कहा था न!’
बजने लगता. नगाड़े की आवाज़ सुनते ही हीराबाई की पुकार कानों के पास मंडराने लगती- भैया…मीता…हिरामन…उस्ताद गुरु जी! हमेशा कोई-न-कोई बाजा उसके मन के कोने में बजता रहता, दिन-भर. कभी हारमोनियम, कभी नगाड़ा, कभी ढोलक और कभी हीराबाई की पैजनी. उन्हीं साजों की गत पर हिरामन उठता-बैठता, चलता-फिरता. नौटंकी कंपनी के मैनेजर से ले कर परदा खींचनेवाले तक उसको पहचानते हैं…हीराबाई का आदमी है. ‘हिरामन, ए हिरामन भाय!’ लालमोहर की बोली सुन कर हिरामन ने गरदन मोड़ कर देखा. क्या लाद कर लाया है लालमोहर? बक्सा ढोनेवाला आदमी आज कोट-पतलून पहन कर बाबूसाहब बन गया है. मालिकों की तरह कुलियों को हुक़ुम दे रहा है,‘जनाना दर्जा में चढ़ाना.
अच्छा?’ तीसरी कसम का प्रकाशन कब हुआ?तीसरी कसम 1966 में बनी हिन्दी भाषा की नाट्य फिल्म है।
तीसरी कसम के लेखक कौन हैं?फणीश्वर नाथ "रेणु"तीसरी कसम / कहानीकारnull
तीसरी कसम कहानी की प्रमुख विशेषताएं क्या है?'तीसरी कसम' कहानी में प्रेम की भावप्रवणता पूरी तरलता के साथ व्यंजित हुई है । साथ ही खूबी यह है कि यह निश्छल प्रेम-कथा कहीं भी मर्यादा का अतिक्रमण करती नहीं दिखती । और तो और इसमें न तो प्रेम को लेकर बड़े-बड़े दावे किये गए हैं, न ही लंबी-चौड़ी कसमें खाई गईं हैं ।
तीसरी कसम कहानी का उद्देश्य क्या है?कहानी गांव के हीरामन गाड़ी वाले के जीवन को लक्ष्य करके लिखी गई है। हीरामन एक बार एक नौटंकी में काम करने वाली नृत्यांगना हीराबाई को अपनी गाड़ी में अत्यधिक दूर ले जाता है। मीराबाई गाड़ी में अकेली ही यात्रा करती है। उसका स्वरूप उसकी भाषा सब कुछ हीरामन को अच्छे लगते हैं।
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